हिंदी में पढ़े और सुनें
श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 29: असीम अवसर, सीमित समय  » 
 
 
 
 
 
मान्ट्रियल

अगस्त १९६८

श्रील प्रभुपाद अपने कमरे में कई शिष्यों से बातचीत कर रहे थे । “तो, अन्नपूर्णा, तुम्हारे पास कुछ समाचार है ?” उन्होंने पूछा। अन्नपूर्णा एक युवा अंग्रेज लड़की थी। कुछ महीने पूर्व उसके पिता ने इंगलैंड से लिखा था कि यदि कुछ भक्त वहाँ जायँ तो वे उनके लिए एक मकान की व्यवस्था कर देंगे ।

“हाँ,” उसने कहा ।

" तो, हमारा अगला कार्यक्रम क्या है ?" वह चुप रही । " तुम्हारे पिता का वह पत्र उत्साह जनक है क्या ?'

“हाँ, वे मुझे उत्साहित करते हैं। लेकिन वे कहते हैं कि यदि हम वहाँ जायेंगे तो वे हमें कोई मकान नहीं दे सकेंगे।"

प्रभुपाद निराश दिखाई देने लगे । “ठीक है । सब कुछ कृष्ण पर निर्भर है। जब हम किसी के पास धर्मोपदेश करने जाते हैं, तो हमें उसके सामने हाथ जोड़ कर पूरी विनम्रता से खड़ा होना पड़ता है; 'सम्मान्य महोदय, कृष्णभावनामृत स्वीकार कीजिए ।'

" प्रभुपाद ?” प्रद्युम्न बोल पड़ा, “मैं इस महान् नास्तिक स्वामी की एक पुस्तक पढ़ रहा था । '

"हुम्?"

" पुस्तक के अंत में कुछ पत्र दिए गए हैं, और मैं उन्हें देख रहा था...

" नास्तिक स्वामी की पुस्तक,” प्रभुपाद बोले, "हमें उससे कुछ लेना-देना नहीं है। "

" मैं उसकी विचारधारा नहीं देख रहा था, प्रद्युम्न ने कहा, "मैं केवल उसकी तरकीबें देख रहा था जो उसने अमेरिका में रहते हुए इस्तेमाल की थीं । वह योरप जाना चाहता था, सो उसका हितैषी, एक धनी व्यक्ति जो फ्राँस, इंगलैंड, जर्मनी, स्विटज़रलैंड, हालैंड के छह महीने के दौरे पर गया और उनके व्याख्यानों की व्यवस्था करके लौट आया। अपनी अधिकतर यात्रा वह इसी तरह किया करता था । उसके पास दो-एक प्रभावशाली व्यक्ति थे और वे सारी व्यवस्था कर देते थे । व्याख्यानों की व्यवस्था हो जाती थी, और समाज ...

" तो, तुम वैसी व्यवस्था कर सकते हो ?” प्रभुपाद ने पूछा । "मैं सोच रहा था कि लंदन में एक रायल एशियाटिक सोसाइटी होगी । मेरा ख्याल है ठाकुर भक्तिविनोद उसके एक सदस्य थे । "

" लेकिन भक्तिविनोद ठाकुर का संघ कहाँ है ?” प्रभुपाद ने पूछा ।

" अच्छा, ” प्रद्युम्न ने कहना जारी रखा, “तब भी वहाँ कुछ लोग होंगे जिनके साथ आप पत्र-व्यवहार शुरू कर सकते हैं। आपको प्रयोजित करने में उनकी रुचि हो सकती है।

" क्या उस स्वामी के भाषण में कृष्ण के विषय में कुछ है?” प्रभुपाद ने पूछा । "नहीं।"

प्रभुपाद विचारों में डूबे बैठे रहे । इंगलैंड में उनके रुकने के लिए कोई जगह नहीं होगी। प्रद्युम्न ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों की बात भले ही करे जो पहले जाकर प्रबन्ध कर आएँ, पर ऐसे व्यक्ति थे कहाँ ? एक शर्मीली लड़की थी जो मुश्किल से बता सकी कि उसके पिता सहायता नहीं कर सकेंगे, प्रद्युम्न एक नास्तिक स्वामी की पुस्तक पढ़ने में लगा था और रॉयल एशियाटिक सोसाइटी की बात कर रहा था— पर व्यावहारिक बात कोई नहीं बता रहा था। तब भी प्रभुपाद के पास योजनाएँ थीं। उन्होंने मुकुंद और श्यामसुंदर से कहा था कि वे लंदन जायँ और वहाँ इस्कान केन्द्र स्थापित करें। वे राज़ी हो गए थे और कुछ दिन में सैन फ्रांसिस्को से मांट्रियल पहुँचने वाले थे।

प्रभुपाद के अपने गुरु महाराज, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती योरप में कृष्णभावनामृत चाहते थे। १९३० के दशक में उन्होंने अपने सबसे अनुभवी संन्यासियों को लंदन भेजा था, लेकिन वे बिना कुछ किए लौट आए थे। उनकी शिकायत थी कि म्लेच्छों को कृष्णभावनामृत सिखाना संभव नहीं था । योरपवासी वैष्णव विचारधारा के बारे में सुनने को बहुत देर नहीं बैठ सकते। संन्यासियों में से एक ने लार्ड ज़ेटलैंड से भेंट की थी जिसने उत्सुकतावश पूछा था, “स्वामीजी, क्या आप मुझे ब्राह्मण बना सकते हैं ?" संन्यासी ने लार्ड ज़ेटलैंड को विश्वास दिलाया था कि वह निश्चय ही ऐसा कर सकता था, यदि लार्ड ज़ेटलैंड मांसाहार, मद्यपान, जुआ खेलना और अवैध यौनाचार छोड़ दें। “असंभव” लार्ड जेटलैंड ने जवाब दिया था । और इस जवाब को संन्यासियों ने समस्त योरपवासियों का मानक जवाब माना था । संन्यासी भारत लौट आये थे; वैष्णव - मत पश्चिम में कभी अधिकार जमा नहीं सका।

प्रभुपाद को विश्वास था कि उनके शिष्य सफल होंगे, वे योरप में इस्कान केन्द्रों की स्थापना में उनकी मदद करेंगे, ठीक जैसे उन्होंने उत्तर अमेरिका में की थी । निश्चय ही, इस सफलता से श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती को महान प्रसन्नता होगी। प्रभुपाद ने एक आदमी की कहानी बताई जिसने सड़क में पड़ी एक तूम्बी देखी और उसे उठा लिया और तब उसने एक लकड़ी और एक तार देखा और उन्हें उठा लिया। स्वयं अपने में, तीनों बेकार थे। लेकिन तूम्बी, लकड़ी और तार को एक में जोड़ कर उस आदमी ने वीणा बना ली और वह उससे मधुर संगीत निकालने लगा। उसी प्रकार वे पश्चिम में आए थे और कुछ उपेक्षित युवकों को यहाँ-वहाँ देखा था और स्वयं उनकी भी न्यू यार्क के लोगों द्वारा उपेक्षा हुई थी; किन्तु कृष्ण की कृपा से दोनों का संयोग सफल हुआ था । यदि उनके शिष्य निष्ठावान बने रहे और उनके आदेशों का पालन करते रहे, तो वे योरप में सफल होंगे।

तीन दम्पत्ति—— मुकुन्द और जानकी, श्यामसुंदर और मालती, (जिनके साथ उनकी छोटी बच्ची सरस्वती भी थी) और गुरुदास और यमुना, लंदन की यात्रा के लिए उत्सुकता लिए, मांट्रियल पहुँचे। इन तीनों दम्पत्तियों ने सैन फ्रांस्सिको में मंदिर का आरंभ किया था जहाँ वे श्रील प्रभुपाद के गहरे सम्पर्क में आए थे। उन्होंने हैट - एशबरी के हिप्पियों के बीच कीर्तन, प्रसाद और रथ यात्रा आरंभ करने में प्रभुपाद की सहायता की थी। अब वे लंदन में कृष्णभावनामृत का प्रवेश कराने में उनकी सहायता करने को उत्सुक थे ।

प्रभुपाद ने तीनों दम्पत्तियों से अपने साथ मांट्रियल में एक या दो सप्ताह रुकने को कहा, जिससे वे उन्हें कुशलतापूर्वक कीर्तन करना सिखा सकें । हरे कृष्ण का कीर्तन एक रंगमंचीय अभिनय नहीं, वरन् भक्ति का कार्य था, जिसका संचालन केवल शुद्ध भक्त ही कर सकते थे— पेशेवर संगीतज्ञ नहीं। तो भी, यदि प्रभुपाद के शिष्य उसके गायन में कुशल हो सकें तो लंदन के निवासी कृष्णभावनामृत को अधिक अच्छी तरह समझ सकेंगे।

इन भक्तों द्वारा इंगलैंड में धर्मोपदेश के विचार ने प्रभुपाद को भावविभोर कर दिया। अपने कीर्तन के बल पर वे हठयोग और निर्विशेष ध्यान साधना वाले योगियों से अधिक लोकप्रिय हो जायँगे। लंदन के कार्यक्रम के वास्तविक तथ्य बन जाने पर प्रभुपाद आगे की योजनाएँ व्यक्त करने लगे। ऐसा लगता था कि उनके पास संसार - भर में कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए सैंकड़ों विस्तृत योजनाएँ थीं— उन्हें केवल तत्पर सहायकों की आवश्यकता थी ।

दैनिक कीर्तन के अभ्यास में प्रभुपाद अपने शिष्यों को सिखाते थे कि हरे कृष्ण कीर्तन और अन्य भजनों का गायन पहले मंद स्वर में शुरू करना चाहिए और उसे धीरे-धीरे ऊँचा उठाना चाहिए। वे उन्हें बार-बार रोक देते थे और पुनः शुरू करने को कहते थे। जब यमुना कीर्तन कराती रहती तो प्रभुपाद उसे ध्यानपूर्वक सुनते और कभी-कभी रोक कर उसके संस्कृत उच्चारण को सही करते ।

मांट्रियल में दो सप्ताह बिताने के बाद लंदन के लिए तैयार दल प्रभुपाद से अंतिम बार मिलने आया। वे उस दल को अपने गुरु महाराज की इच्छापूर्ति हेतु लंदन में एक केन्द्र की स्थापना करने के लिए भेज रहे थे। प्रभुपाद ने उन्हें बताया कि जिन संन्यासियों को श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने लंदन भेजा था, उन्होंने कुछ स्थानों में भाषण दिए, लॉर्ड और मेमसाहबों के साथ फोटो खिंचाए और फिर वे भारत वापस आ गए थे। किन्तु प्रभुपाद चाहते थे कि उनके शिष्य वहाँ निर्भीकतापूर्वक जाएँ, कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करें और अन्यों को कीर्तन के लिए आकृष्ट करें।

भगवान् चैतन्य ने स्वयं भी, दक्षिण भारत की यात्रा करते समय, इस विधि को अपनाया था । चैतन्य चरितामृत में वर्णन है कि जो भी भगवान् चैतन्य को देखता वह भगवान् के प्रेम में विभोर हो उठता; तब वह भावोन्मत्त व्यक्ति पवित्र नाम का जप करता और औरों से जप करने को कहता और जब और लोग उस व्यक्ति को जप करते देखते तो वे भी भाव-विभोर हो जाते; इस प्रकार कृष्ण के प्रेम की भावविभोरता की लहरें फैलती जातीं ।

प्रभुपाद ने भविष्यवाणी की कि जब भक्त हरे कृष्ण का कीर्तन करेंगे तो लंदन के लोग उस मंत्र को सुनेंगे, भक्त बनेंगे और औरों को प्रबुद्ध करेंगे । कृष्णभावनामृत इस तरह प्रगति करेगा । शर्त केवल यह थी कि हरे कृष्ण का कीर्तन, बिना किसी भौतिक प्रेरणा के, विशुद्ध मन से किया जाय । प्रभुपाद का उत्साह संक्रामक था, और जब वे बात कर रहे थे तो अपने शिष्यों में भी वही संक्रामक उत्साह उत्पन्न कर रहे थे ।

जब मुकुंद ने पूछा कि क्या प्रभुपाद को कोई विशेष आदेश देने थे तो प्रभुपाद ने एक कहानी सुना कर उत्तर दिया। अपनी युवावस्था में उन्होंने चार्ली चैपलिन का एक चलचित्र देखा था । खुले में चल रहे औपचारिक नाच का एक दृश्य था । मुख्य रंगमंच से कुछ दूर दम्पती लोगों के बैठने के लिए बेंचों की कतारें थीं। कुछ शरारती लड़कों ने एक बेंच पर सरेस पोत दिया था । एक युवक और उसकी मित्र लड़की आकर उस पर बैठ गए । “जब युवक उठा” – प्रभुपाद कहानी कहते हुए हँसने लगे, “ तो उसके कोट की गोट ( सरेस से चिपक कर) बीच से फट गई । '

प्रभुपाद ने बताया कि वे दोनों, जो कुछ हुआ था उससे अनभिज्ञ थे और नाच में शामिल होने आ गए। किन्तु अन्य नर्तक उन्हें घूर घूर कर देखने लगे । युवक को आश्चर्य हुआ कि उसकी ओर इतना ध्यान क्यों दिया जा रहा है। श्रृंगार - कक्ष में जाकर उसने शीशे में अपने कोट की फटी गोट को देखा । तब उसने जान-बूझकर गोट को कालर तक फाड़ डाला । फिर वह अपनी संगिनी के पास लौटा और उत्साहपूर्वक नाचने लगा ।

तब दूसरे व्यक्ति ने भी वैसा ही किया। अपने कोट की गोट को फाड़ कर वह अपनी संगिनी के साथ नाचने लगा । मानो वह पहले युगल से प्रतियोगिता कर रहा हो। एक-एक करके अन्य नर्तकों ने भी वही किया, अपने कोटों की गोटों को फाड़ कर सब उन्मुक्त भाव से नर्तन करने लगे ।

कहानी का अंत होने तक प्रभुपाद के कमरे में बैठे सभी भक्त कहकहे लगा कर हँसने लगे। किन्तु अंत में उनकी हँसी बंद हो गई और बैठक समाप्त हुई । जब तक भक्त हवाई अड्डे पर नहीं पहुँच गए, तब तक श्यामसुंदर से बात करते हुए, मुकुंद की समझ में बात नहीं आई थी कि प्रभुपाद ने उसके प्रश्न का उत्तर कितनी दक्षता से दिया था। अपने निर्भीक, उत्साहपूर्वक और आत्मविश्वास से भरे धर्मोपदेश से वे लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेंगे। ऐसा नहीं था कि हर एक तुरन्त उनके " नृत्य में शामिल, ” हो जायगा जैसा कि चार्ली चैपलिन के चलचित्र में लोगों ने किया था। भक्तों को, पहले लोग पागल समझ सकते थे। लेकिन वे कृष्णभावनामृत देने जा रहे थे जो सर्वोच्च और दुर्लभय उपहार था । और यदि आरंभ में लोगों ने उनका उपहास भी किया तो बुद्धिमान लोग धीरे-धीरे उन्हें समझने लगेंगे ।

श्रील प्रभुपाद के आदेश से, लंदन जाने वाले उनके शिष्यों को, सार्वजनिक कीर्तन करते समय, प्रभुपाद के गुरु-भाई संन्यासियों के रूखे दृश्य से बिल्कुल भिन्न दृश्य प्रस्तुत करना था । उनके गुरु-भाइयों ने अंग्रेजों के ढंग का अनुकरण किया था; किन्तु प्रभुपाद चाहते थे कि अंग्रेज वैष्णवों का अनुकरण करें। लंदन की सड़कों में मुंडित मस्तक के साथ धोती पहने प्रकट होने के लिए साहस की आवश्यकता थी। किन्तु भगवान् चैतन्य के आदेशों का पालन करते हुए कीर्तन करना उन्मेषकारी होगा। और लोग अनुकरण करेंगे—धीरे-धीरे, किन्तु निश्चित रूप से । भगवान् चैतन्य की यही कामना थी ।

***

श्रील प्रभुपाद अमेरिका लौटने के छह महीने बाद १९६८ के ग्रीष्म के प्रारंभ में मांट्रियल पहुँचे। भारत में १९६७ के जुलाई से दिसंबर तक के काल में उन्होंने स्वास्थ्य-लाभ कर लिया था और १४ दिसम्बर को वे सैन फ्रांसिस्को वापस पहुँच गए थे। कुछ सप्ताह के बाद वे लास एंजिलेस गए थे जहाँ उनके शिष्यों ने मध्यवर्गीय काले लोगों और हिस्पैनिक बस्ती के बीच एक स्टोरफ्रंट में एक मंदिर स्थापित किया था । स्टोरफ्रंट साज-सज्जाविहीन था और स्थान एकान्त था। प्रभुपाद वहाँ दो महीने रुके थे, वे व्याख्यान देते थे, कीर्तन कराते थे और अपने शिष्यों को प्रोत्साहन और बल प्रदान करते थे । यद्यपि सिर में किसी भनभनाहट के कारण उनके लिए कार्य करना मुश्किल हो रहा था लेकिन उन्होंने गरम जल - वायु और धूप को अपने अनुकूल पाया था और श्रीमद्भागवत का अनुवाद जारी रखा था। वे बोल कर टेप पर रिकार्ड कराते थे और टेपों को टाइप के लिए बोस्टन भेजते थे ।

लाइफ का एक सम्वाददाता प्रभुपाद के कमरे में आया था और पत्रिका में आने वाले एक स्तंभ के लिए उनका साक्षात्कार लिया था । स्तंभ का शीर्षक था, “द यियर आफ द गुरु " ( गुरु का वर्ष ) । जब साक्षात्कार प्रकाशित हुआ तो उसमें प्रभुपाद और उनके आन्दोलन के साथ अन्य गुरुओं का घोल - मेल कर दिया गया था । यद्यपि लेख के साथ प्रभुपाद का एक बड़ा रंगीन चित्र दिया गया था और एक सम्वाददाता की उनके न्यू यार्क इस्कान केन्द्र में भेंट के बारे में अनुकूल टिप्पणी दी गई थी, परन्तु प्रभुपाद ने कहा था कि ऐसे गुरुओं के साथ रखा जाना उन्हें पसंद नहीं था जो योग और चिन्तन के मनगढ़त छलावे सिखाते हैं।

लास एंजिलेस छोड़ने के कुछ महीने बाद, मई में, प्रभुपाद बोस्टन के अपने इस्कान केन्द्र में पहली बार गए । वहाँ भी उन्होंने कुछ शिष्यों को एक छोटे-से स्टोरफ्रंट में काम करते पाया । उन्होंने बहुत से स्थानीय विश्वविद्यालयों में, जिनमें हार्वर्ड और एम.आई.टी. सम्मिलित हैं, भाषण दिए थे। एम.आई. टी. में विद्यार्थियों और विश्वविद्यालय के एक प्रभाग के समुदाय को सम्बोधित करते हुए उन्होंने चुनौती दी थी, "इस विश्वविद्यालय में वह विभाग कहाँ है जो वैज्ञानिक ढंग से एक जीवित शरीर और मृत शरीर में अंतर बताता हो ?” सर्वाधिक मूलभूत विज्ञान, जो जीवित आत्मा का विज्ञान था, पढ़ाया नहीं जा रहा था ।

बोस्टन के बाद, श्रील प्रभुपाद मान्ट्रियल आए थे। और मांट्रियल में तीन महीने बिताने के बाद प्रभुपाद सीएटल गए थे जहाँ वे एक माह रहे थे। तब वे थोड़ी देर के लिए सेंटा फे, न्यू मेक्सिको गए थे जहाँ इस्कान केन्द्र एक छोटे-से वीरान स्टोरफ्रंट में स्थित था ।

एक से दूसरे केन्द्र की यात्रा करने में प्रभुपाद का उद्देश्य अपने हर शिष्य को प्रशिक्षण देकर उसमें विश्वास पैदा करना और नवागन्तुकों को सम्बोधित करना था। उनका भाषण सुनने के लिए बहुत-से युवा लोग आए लेकिन उन्होंने उनमें से अधिकतर को अवैध यौनाचार और नशीली दवाओं के सेवन से बरबाद हुए पाया। वे ' अमीर लोगों के लड़के' थे लेकिन वे हिप्पी बन गए थे जो सड़कों में भटक रहे थे । कृष्ण की कृपा से अब उनमें से कुछ को त्राण मिल रहा था ।

भारत में स्वास्थ्य-लाभ करते हुए भी प्रभुपाद अमेरिका लौट कर अपना आंदोलन जारी रखने की बात हमेशा सोचा करते थे । भारतीय तो, अमेरिकनों की भाँति, इन्द्रियों की तृप्ति में ही रुचि रखते प्रतीत होते थे। किन्तु बहुत-से अमरीकी युवकों का अपने मां-बाप की सम्पत्ति के प्रति मोहभंग हो चुका था और वे उनके गगनचुम्बी भवनों में रहने और उनका व्यवसाय चलाने नहीं जा रहे थे। जैसा कि प्रभुपाद न्यू यार्क सिटी या सैन फ्रांसिस्को में रह कर देख चुके थे हजारों युवक भौतिक सुखों के विकल्प की खोज में थे। निराश होकर वे आध्यात्मिक ज्ञान के लिए परिपक्व थे ।

भक्त, जो अभी नए थे, आध्यात्मिक जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते थे और अधिकतर तो भौतिक जीवन के बारे में भी बहुत कम जानते थे । किन्तु चूँकि वे निष्ठापूर्वक कृष्णभावनामृत को अपना रहे थे, इसलिए प्रभुपाद को विश्वास था कि उनकी कमियाँ उनकी आध्यात्मिक प्रगति में बाधा नहीं बनेंगी । यद्यपि ये पाश्चात्य युवक देखने में सुंदर थे पर वे अब गंदे और उदास थे; उनकी सुंदरता आच्छादित हो गई थी । किन्तु हरे कृष्ण का कीर्तन उन्हें पुनर्जीवित कर रहा था, प्रभुपाद ने कहा, जैसे वर्षा ऋतु वृंदावन की भूमि को प्रफुल्लित और हरी-भरी बना कर पुनर्जीवित करती है और जैसे वृंदावन के मयूर प्रसन्नतापूर्वक नृत्य करते हैं, उसी तरह भक्त भी, अपने भौतिक बंधनों को त्याग कर, अब हर्षोल्लास से नृत्य और भगवान के पवित्र नामों का जप कर रहे थे। जब एक पत्र - सम्वाददाता ने प्रभुपाद से पूछा कि क्या उनके शिष्य हिप्पी थे तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "नहीं, हम हिप्पी नहीं हैं, हम हैपी (प्रसन्न लोग ) हैं । "

प्रभुपाद अपने शिष्यों के लिए, एक आगन्तुक व्याख्याता या औपचारिक मार्गदर्शक होने की अपेक्षा, उनके आध्यात्मिक पिता अधिक थे। वे उन्हें अपना वास्तविक पिता मानते थे और प्रभुपाद ने पाया कि उनके शिष्य, उनके प्रति, उनके अपने परिवार के लोगों से भी कहीं अधिक समर्पित और अनुरक्त थे। अमेरिका के इन युवा बालकों और बालिकाओं को — जिन्हें प्रभुपाद उनके देश के पुष्प कहते थे— भगवान् चैतन्य का आशीर्वाद मिल चुका था और अब वे उस आशीर्वाद को अपने देशवासियों तक पहुँचा रहे थे। प्रभुपाद कहते थे कि यह दायित्व उनके अमरीकी शिष्यों का था कि वे अपने देश को बचाएँ । तरकीब प्रभुपाद बता रहे थे लेकिन उसे लागू करना उनका काम था ।

श्रील प्रभुपाद का अपने शिष्यों पर प्रेम था और उनके शिष्य उनसे प्रेम करते थे। प्रेम के कारण प्रभुपाद शिष्यों को सबसे बड़ी निधि दे रहे थे और प्रेम के कारण उनके शिष्य उनके आदेशों का पालन कर रहे थे। आध्यात्मिक जीवन का यही सार तत्व था । इस प्रेम के आधार पर कृष्णभावनामृत आन्दोलन विकास करेगा। इस में आश्चर्य नहीं कि कुछ शिष्य अपने पहले के भौतिक जीवन में वापस जा गिरे थे। किन्तु प्रभुपाद को उन निष्ठावान भक्तों से वास्ता था जो (आध्यात्मिक जीवन में ) रहना चाहते थे । महत्व की बात केवल यही थी, उन्होंने कहा । एक चन्द्रमा का मूल्य कई तारों से अधिक होता है। इसलिए निष्ठावान थोड़े से कार्यकर्ता भी आश्चर्यजनक कार्य कर सकते हैं। जो निष्ठावान और बुद्धिमान हैं, वे स्थिर रहेंगे और भगवान् चैतन्य महाप्रभु उन्हें शक्ति देंगे कि वे कृष्ण-प्रेम के वितरण की उनकी इच्छा को पूरा कर सकें। इस प्रकार भक्तों का जीवन पूर्णता प्राप्त करेगा । वास्तव में, बहुत से भक्तों को ऐसा होता अनुभव हो रहा था। कृष्णभावनामृत प्रभावशाली हो रहा था, क्योंकि वे निष्ठापूर्वक उसका अभ्यास कर रहे थे और क्योंकि श्रील प्रभुपाद ने उनके हृदयों में जिस दिव्य प्रेम-भक्ति का पौधा रोपा था उसका वे सावधानी और धैर्य के साथ पोषण कर रहे थे ।

लास एंजिलेस

अक्तूबर १९६८

प्रभुपाद ने वापस आकर पाया कि उनके भक्त हालीवुड मार्ग पर एक उत्तेजक स्थान में रह रहे थे और उपासना कर रहे थे। उनके शिष्य तमाल कृष्ण द्वारा संगठित एक बड़ा संकीर्तन दल दिन-भर सड़कों पर हरे कृष्ण गाता-फिरता था और बैक टु गाडहेड पत्रिका की प्रतियाँ पहले से भी बड़ी संख्या में बेचता था। एक दिन में दो सौ प्रतियाँ तक बिक जाती थीं और एक सौ डालर से अधिक इकट्ठे हो जाते थे ।

तब एक दिन, प्रभुपाद के पहुँचने के कुछ बाद ही, मकान मालिक ने भक्तों को हालीवुड मार्ग के मकान से निकाल दिया। मंदिर - विहीन भक्त शहर - भर के मुहल्लों में यत्र-तत्र बिखर गए। लेकिन जिस संध्या को भी संभव होता शाम के लिए उधार लिए गए किसी के गैरज में एकत्रित होते और श्रील प्रभुपाद उनके साथ हरे कृष्ण का कीर्तन करते और प्रवचन देते ।

तब प्रभुपाद ने ला सिनेगा मार्ग पर एक पुराना ईसाई चर्च किराए पर लिया । उन्होंने अधिक नियमित अर्चा-विग्रह आरंभ किया और रविवारीय प्रीतिभोज में वृद्धि कर दी। हर सप्ताह कोई न कोई विशेषतया नियोजित पर्व मनाया जाने लगा और उसके साथ विस्तृत पैमाने पर भोज होने लगा जिसमें सैंकड़ों अतिथि आते थे। लास एंजिलेस के इन नए कार्यक्रमों से प्रभुपाद प्रोत्साहित हुए और वे चाहने लगे कि संसार-भर के इस्कान केन्द्रों में उनको लागू किया जाय ।

***

श्रील प्रभुपाद इंगलैंड जाने की योजना बना रहे थे। लेकिन पहले वे वेस्ट वर्जिनिया में अपना फार्म प्रोजेक्ट देखना चाहते थे और वे अपने सैन फ्रांसिस्को के शिष्यों से भी वादा करते आ रहे थे कि वे जुलाई में उनके रथ यात्रा - समारोह में सम्मिलित होंगे। इस्कान को स्थापित करने और उसका विस्तार करने के लिए उनकी यात्राएँ ही उन्हें व्यस्त रखने को काफी थीं, तब भी वे वैदिक साहित्य का अनुवाद करने और तात्पर्य लिखने के अपने कार्य के बारे में बराबर सोचा करते थे ।

लास एंजिलेस में दिसम्बर में श्रील प्रभुपाद ने रूप गोस्वामी कृत भक्ति - रसामृत - सिन्धु के संक्षिप्त अध्ययन के रूप में दि नेक्टर आफ डिवोशन (भक्ति रसामृत) आरंभ किया था । दि नेक्टर आफ डिवोशन भक्तों के लिए एक गुटका है जिसमें भक्ति - योग का ज्ञान और अभ्यास विस्तार से वर्णित है । दि नेक्टर आप डिवोशन के साथ उन्होंने कृष्ण, दि सुप्रीम पर्सनालिटी आफ गाडहेड भी आरंभ किया था जो श्रीमद्भागवत के दसवे स्कंध का संक्षिप्त अध्ययन है। वे मंदिर केवल रविवार को जाते थे और अपना अधिकांश समय बेवर्ली हिल्स की सीमा में स्थित, किराए के छोटे-से मकान में अपनी दोनों मुख्य साहित्यिक परियोजनाओं पर गहन कार्य में लगाते थे ।

प्रभुपाद का सबसे अधिक महत्त्वाकांक्षापूर्ण साहित्यिक कार्य, श्रीमद्भागवत, साठ खंडों से कम में पूरा नहीं होना था। उन्होंने उसे १९५९ में भारत में आरंभ किया था और वे बराबर अवगत थे कि उन्होंने वृद्धावस्थामें एक विशाल कार्य करने का प्रयास किया था। अब कृष्ण उन्हें, वैदिक साहित्य लिखने और यात्रा करने, दोनों के अवसर दे रहे थे, और वे आश्चर्यजनक गति से कार्य कर रहे थे।

जो शक्ति प्रभुपाद को आगे बढ़ा रही थी वह उनके गुरु महाराज, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती, की इच्छा थी । जहाँ तक इसका सम्बन्ध था कि उनके पास अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए कितना समय शेष था, वह कृष्ण के हाथों में था। हर चीज कृष्ण पर निर्भर थी : " यदि कृष्ण आप को मारना चाहते हैं तो कोई नहीं बचा सकता; और यदि कृष्ण आप की रक्षा करना चाहते हैं तो आप को कोई नहीं मार सकता।” यद्यपि प्रभुपाद सदैव दिव्य चेतना में थे, जिस पर वृद्धावस्था का कोई प्रभाव नहीं था, तो भी वे जानते थे कि उनके पास अधिक वर्ष शेष नहीं रह गए थे। सभी राष्ट्रों और संस्कृतियों के लिए एक आध्यात्मिक आंदोलन की कल्पना उनके मन में हमेशा से रही थी और उसे स्थापित करने के लिए वे समय से होड़ ले रहे थे ।

प्रभुपाद की शीघ्रता की भावना वैष्णव धर्मोपदेशक की स्वाभाविक भावना थी — उसकी अभिलाषा हर एक को कृष्ण की प्रेमाभक्ति में लगाने की होती है । कृष्णभावनामृत के बिना कलियुग के भ्रमित बद्धजीव अपने पापमय जीवन के भयानक परिणामों की ओर बढ़ रहे थे । इसलिए प्रभुपाद में शीघ्रता की भावना उनकी करुणा की अभिव्यक्ति थी । वे घोर भौतिकतावादियों को बचाना चाहते थे, जो आत्मा के अस्तित्त्व के विषय में अंधे थे। यदि उन्होंने अपना मनुष्य जीवन नष्ट कर दिया तो उन्हें लाखों-करोड़ों वर्ष कष्ट भोगना पड़ेगा, इसके पहले कि अपने में कृष्ण - चेतना को जगाकर भगवान् के परम धाम जाने के लिए उन्हें दूसरा अवसर मिले।

प्रभुपाद को १९६७ में दिल का दौरा पड़ने से उनकी शीघ्रता की भावना में वृद्धि हो गई थी। यद्यपि दिल का दौरा पड़ने से पहले वे प्राय: एक नवयुवक की तरह कार्य करते थे और घंटों मृदंग बजाया करते थे, लेकिन अब कृष्ण की चेतावनी स्पष्ट थी । दिल का दौरा उनकी मृत्यु का समय हो सकता था, प्रभुपाद ने कहा था, किन्तु, चूँकि उनके शिष्यों ने प्रार्थना की थी, "हमारे गुरु ने अपना कार्य पूरा नहीं किया है, कृपा करके उनकी रक्षा करें,” इसलिए कृष्ण ने उन्हें बचा लिया था । इसी तरह १९६५ में अमेरिका जाते समय जहाज पर उनके हृदय की गति लगभग बंद हो गई थी। लेकिन तब भी कृष्ण ने उनका जीवन बचा लिया था ।

प्रभुपाद के कार्य का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत था; कई वर्ष और अच्छा स्वास्थ्य मिलने पर भी वे उसे कभी पूरा नहीं कर सकते थे । प्रभुपाद देख रहे थे कि भावी पीढ़ियों में बहुत से लोग सहायता के लिए आगे आएँगे, और इस तरह सम्मिलित प्रयास से, कृष्णभावनामृत आंदोलन कलियुग की शक्तियों को नियंत्रण में रखता रहेगा और सारे संसार की रक्षा करेगा। चैतन्य महाप्रभु ने ऐसी भविष्यवाणी की थी और प्रभुपाद जानते थे कि उसे सत्य होना है। किन्तु इस विश्वजनीन प्रयास का ढाँचा खड़ा करने का कार्य केवल प्रभुपाद के माथे पर था । और वे अथक परिश्रम कर रहे थे, यह जानते हुए कि यदि वे पूरी नींव को मजबूत नहीं बना देते, तो बाद में उनका सम्पूर्ण मिशन ध्वस्त हो जायगा ।

न्यू यार्क सिटी में १९६६ में प्रभुपाद की पहली सफलता के बाद से कृष्ण ने उन्हें कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए असीम अवसर प्रदान किए थे। किन्तु अब कितना समय रह गया था ? केवल कृष्ण बता सकते थे; सब कुछ उन्हीं पर निर्भर था। प्रभुपाद को अपने मिशन के विस्तृत क्षेत्र और उसे पूरा करने के लिए निरन्तर कम होने वाले समय का ध्यान बराबर बना रहा । " मैं एक वृद्ध व्यक्ति हूँ,” वे अपने शिष्यों से प्रायः कहते, "मैं किसी भी क्षण प्रयाण कर सकता हूँ ।"

***

प्रभुपाद को अपने लंदन के भक्तों से प्रति सप्ताह अनेक पत्र मिलते थे। १९६८ का दिसम्बर आ गया था— भक्त चार मास से लंदन में रह रहे थे—और फिर भी उनके पास कोई मन्दिर नहीं था, न हीं कोई ऐसा स्थान जहाँ वे एक साथ रह कर पूजा कर सकते थे। अधिकतर वे हिन्दू परिवारों में जाते थे; वहाँ कीर्तन करते थे और प्रसाद में हिस्सा बंटवाते थे। प्रभुपाद ने इसे प्रोत्साहित किया था, लेकिन कुछ रिपोर्टों के मिलने के बाद वे इस निर्णय पर पहुँचे कि कार्यक्रम अवरुद्ध हो रहा था। भक्तों को हिन्दुओं से बहुत आशा नहीं रखनी चाहिए, उन्होंने कहा, “इतने सालों तक विदेशियों के अधीन रहने के कारण उनमें घालमेल हो गया है और वे अपनी संस्कृति खो बैठे हैं... मैं अपने इस मत का प्रचार योरोपियनों और अमेरिकनों में करने को आतुर हूँ ।'

भक्तों को झटका लगा, लेकिन वे जानते थे कि प्रभुपाद का कहना ठीक था। अपनी कार्यनीति बदल देने का निश्चय करके उन्होंने झट विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में भाषण देना और सड़कों में भजन-कीर्तन करना आरंभ कर दिया। वे अंग्रेजों में धर्मोपदेश करने लगे और यह ठीक रहा। जब उन्होंने प्रभुपाद को लिखा कि यद्यपि उनकी उपलब्धि कोई बड़ी नहीं थी, किन्तु किन्तु वे “ बीजारोपण कर रहे थे," तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया,

जो तुम लोगों ने कृष्णभावनामृत का बीज बोने की उपमा दी है तो इस सम्बन्ध में मैं एक बंगाली कहावत का उल्लेख कर सकता हूँ—स बूढ़े मेवा फले । इसका तात्पर्य यह है कि बादाम और दाड़िम या इस तरह के अन्य कीमती और गिरीदार फल फूलने - फलने में समय लेते हैं। इसलिए हमें अच्छी चीजों की प्राप्ति कठिन संघर्ष और परिश्रम के बाद होती है। कृष्णभावनामृत सभी अच्छे फलों में उत्तम हैं । अतः फल की प्राप्ति के लिए हमने आवश्यक सहनशीलता और उत्साह का होना जरूरी है । परिस्थितियों के प्रतिकूल होने से हमें कभी निराश नहीं होना चाहिए । जो कुछ भी हो, तुम लोगों का सच्चा परिश्रम अब फल लाने वाला है। हमेशा कृष्ण पर निर्भर रहो और उत्साह, धैर्य और विश्वास के साथ काम में लगे रहो ।

***

१९६९ के वसंत और ग्रीष्म ऋतुओं में प्रभुपाद अपने अमेरिकन इस्कान केन्द्रों का भ्रमण करते रहे। लास एंजिलेस से उन्होंने युवा विवाहित दम्पति गौरसुंदर और गोविन्द दासी को हवाई भेजा था; और उनके आमंत्रण पर कि वे आम के मौसम में उनके यहाँ जाएँ, वे हवाई गए थे। लेकिन जब वे वहाँ मार्च में पहुँचे तो उन्होंने पाया कि वहाँ आम का मौसम नहीं था और उनके शिष्यों की उपलब्धि कोई खास नहीं थी । उन्होंने नौकरी कर ली थी और अपने निर्वाह के लिए वे पूरे समय काम करते थे ।

न्यूयार्क सिटी

अप्रिल ९, १९६९

प्रभुपाद न्यू यार्क सिटी गए जो उनके कृष्णभावनामृत संघ की जन्म भूमि और जहाँ उनका आंदोलन पिछले तीन साल से उन्नति कर रहा था । यद्यपि वहाँ केन्द्र स्थापित हो गया था और उनकी पुस्तकों का वितरण चालू था, फिर भी भक्तों को बल देने के लिए उन्हें वहाँ जाना पड़ा था। उनकी उपस्थिति से भक्तों को निश्चय ही दृढ़ता और साहस मिलता था। सात महीने तक वे उनके व्यक्तिगत सम्पर्क के बिना, काम चलाते रहे थे। लेकिन उनका उनके बीच पहुँचना - जब अपने कमरे में बैठ कर वे उनके साथ सोत्साह वार्तालाप करते — बहुत महत्त्वपूर्ण था। इन अंतरंग भेंटों की बराबरी कोई चीज नहीं कर सकती थी ।

बहुत से नये और पुराने भक्त प्रभुपाद के २६ सेकंड एवन्यू के कमरे में जमा हो गए । “एक सम्वाददाता 'होनोलुलू ऐडवरटाइजर' का था, प्रभुपाद ने कहा, "वह मुझसे प्रश्न पूछ रहा था । और तब उसने एक लेख लिखा : स्वामी एक सामान्य व्यक्ति हैं, किन्तु वे संदेश महान् दे रहे हैं। यह सच है। मैं छोटा आदमी हूँ। लेकिन संदेश—वह छोटा नहीं है । "

ब्रह्मानंद ने प्रभुपाद को एक ग्लोब ( पृथ्वी का गोला ) दिखाया जिस पर इस्कान केन्द्रों के निशान लगा दिये गये थे । “अब नार्थ कैरोलिना में भी एक खुल गया है, " ब्रह्मानंद ने कहा ।

“ तो अब पचास हो गए ?” प्रभुपाद ने पूछा। वे मुसकरा रहे थे और एक के बाद दूसरे भक्त की ओर देख रहे थे । “मैं चाहता हूँ कि तुम में से हर एक जाय और एक केन्द्र आरंभ करे। कठिनाई क्या है? एक मृदंग लो। तब दूसरा कोई आकर तुम्हारा साथ देने लगेगा — वह करताल उठा लेगा। जब मैं यहाँ आया तो ब्रह्मानंद और अच्युतानंद नाच रहे थे। और कीर्तन के बाद, सैंकड़ों लोग तुम्हारे स्टोरफ्रंट में आएँगे और कीर्तन और नर्तन का आनंद लेंगे। "

" लड़कियाँ भी ?" रुक्मिणी ने पूछा ।

"कोई हर्ज नहीं ।" प्रभुपाद बोले, “कृष्ण कोई भेद नहीं करते —स्त्री परिधान या पुरुष परिधान। मेरे कहने का तात्पर्य है कि स्त्री का शरीर दुर्बल होता है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से शरीर से कोई अंतर नहीं पड़ता। महाप्रभु नित्यानंद की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी जाह्नवी देवी धर्मोपदेश करती थीं। पहले तुम्हें विचार - धारा समझनी जरूरी है। तुम्हें प्रश्नों के उत्तर देने को तैयार रहना जरूरी है। कृष्ण तुम्हें बुद्धि देंगे। जिस तरह मैं इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने योग्य नहीं हूँ, पर कृष्ण मुझे बुद्धि देते हैं । '

न्यू यार्क सिटी के अपने घर में आठ दिन रहने के बाद प्रभुपाद नबफैलो गए । न्यु यार्क के स्टेट विश्वविद्यालय में रूपानुग कृष्ण - योग में एक मान्यता प्राप्त पाठ्यक्रम पढ़ा रहा था । उसमें साठ विद्यार्थी पंजीकृत थे। वे नियमित रूप से माला फेरते और हरे कृष्ण मंत्र का जप करते थे। प्रभुपाद वहाँ कुछ दिन रहे, व्याख्यान दिए और शिष्यों को दीक्षा दी। तब वे औरों को दीक्षा देने और कई शादियाँ कराने के लिए बोस्टन गए ।

कोलम्बस, ओहिओ

मई ९, १९६९

भक्तों ने ओहिओ स्टेट यूनिवर्सिटी के रंगमंच पर प्रभुपाद और एलेन गिंसबर्ग द्वारा कीर्तन की व्यवस्था की थी ।

एलेन कृष्णभावनामृत-आन्दोलन के लोअर ईस्ट साइड के प्रारंभिक दिनों से उसका मित्र था । प्रभुपाद के कोलम्बस में पहुँचने के थोड़ी देर बाद ही वह उनके मकान के निकट रुका था और उनके दार्शनिक विचारों के बारे में कई घंटे वार्तालाप करता रहा था। एलेन प्रभुपाद के साथ यथापूर्व मित्रवत् बना रहा। लेकिन उसे संदेह था कि कृष्णभावनामृत अमेरिका में लोकप्रिय हो सकेगा । 'आवश्यकता, ” उसने कहा, "अमेरिका में एक महान् सर्व-संयुक्तकारी धर्म की है।"

" तो इसके लिए कृष्ण हैं, " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “ सब तरह से आकर्षक । अब तुम कह सकते हो, 'मैं कृष्ण को क्यों स्वीकार करूँ ?' किन्तु, क्योंकि तुम सर्व संयुक्तकारी तत्त्व चाहते हो, तब मैं कहता हूँ ' इसके लिए कृष्ण हैं अब तुम विश्लेषण कर सकते हो कि तुम्हें कृष्ण को क्यों स्वीकार करना चाहिए ?

और मैं उत्तर दूंगा, तुम्हें क्यों नहीं करना चाहिए ? तुम श्री भगवान या सर्वसंयुक्तकारी से जो कुछ आशा करते हो, वह सब कृष्ण में है । "

एलेन ने सुझाव दिया कि यदि प्रभुपाद अपने आन्दोलन को लोकप्रिय बनाना चाहते थे तो उन्हें उसमें से बहुत साम्प्रदायिक हिन्दू तत्वों को निकाल देना चाहिए, जैसे वेशभूषा, खान-पान और संस्कृत ।

प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि कृष्णभावनामृत साम्प्रदायिक या हिन्दू नहीं था । भगवान् चैतन्य ने कहा था कि व्यक्ति भगवान् के किसी भी नाम का जप कर सकता है, लेकिन उसे जप जरूर करना चाहिए । जहाँ तक खान-पान का सम्बन्ध है, प्रभुपाद ने बताया कि किसी भी तरह का खान-पान स्वीकार्य था, जब तक कि वह शुद्ध निरामिष हो । और वेशभूषा – कोई बंधन नहीं था कि अमरीकनों को केसरिया पहनना चाहिए और सिर मुंड़ाए रखना चाहिए । प्रभुपाद ने आगे बताया कि हरे कृष्ण मंत्र स्वाभाविक ध्वनि थी, विदेशी नहीं ।

एलेन ने आपत्ति की । हरे कृष्ण मंत्र की ध्वनि विदेशी थी, कदाचित् उन्हें कोई विकल्प सोचना चाहिए जो अमरीकन मंत्र अधिक लगे ।

" यह हो रहा है, ” प्रभुपाद ने उत्तर दिया । " कुछ लोगों का झुकाव एक वस्तु की ओर होता है, और कुछ लोगों का दूसरी वस्तुं की ओर। यह सृष्टि । के अंत तक चलता जायगा । परन्तु हमारी स्थिति यह है कि हम केन्द्र की खोज के पीछे हैं। और केन्द्र यह है । "

ओहिओ स्टेट के हिचकाक हाल में एक हजार विद्यार्थी सीटों पर बैठे थे और एक हजार और विद्यार्थी गलियारे और रंगमंच को घेर कर खड़े थे । कार्यक्रम एलेन गिन्सबर्ग द्वारा संचालित कीर्तन के साथ शुरू हुआ। तब एलेन ने प्रभुपाद का परिचय कराया और प्रभुपाद ने व्याख्यान दिया। जब प्रभुपाद ने शाम का दूसरा और अंतिम कीर्तन आरंभ किया तो विद्यार्थियों ने उल्लास से उनका साथ दिया। बैठे हुए विद्यार्थी खड़े हो गए और नर्तन करने लगे, कुछ अपनी सीटों पर उछलने लगे और गलियारे और मंच के विधार्थी भी सम्मिलित हो गए। कीर्तन करते करीब दो हजार लोगों की तुमुल ध्वनियों के बीच, प्रभुपाद, अध्यक्ष के मंच पर दोनों हाथ ऊपर उठा कर, नीचे ऊपर उछलते हुए, नृत्य करने लगे। अपनी माला से नोच-नोच कर वे फूल फेंकने लगे और विद्यार्थियों में उनके लिए छीना-झपटी होने लगी । उन्मुक्त भावावेश से पूर्ण कीर्तन करीब एक घंटे तक चलता रहा, और तब प्रभुपाद ने उसे बंद कर दिया ।

बाद में सैंकड़ों विद्यार्थी प्रभुपाद को नजदीक से घेर कर खड़े हो गए और प्रश्न पूछने लगे। बहुत से विद्यार्थी हाल से जाते हुए मंत्र जप रहे थे और कुछ आध्यात्मिक आह्लाद की नई संवेदनाओं से द्रवित होकर जा रहे थे। दूसरे दिन सारे परिसर में, हिचकाक हाल में हुए कीर्तन की भाव-विभोर रात्रि की चर्चा थी । उस संध्या के कार्यक्रम से प्रभुपाद प्रसन्न थे और उस घटना का वर्णन उन्होंने लास एंजिलेस के भक्तों को लिखे गए पत्र में किया :

कल ओहिओ स्टेट यूनिवर्सिटी में एक विराट बैठक हुई और हमारे साथ करीब दो हजार विद्यार्थी नाचने, ताली बजाने और कीर्तन करने में सम्मिलित हुए । इस तरह स्पष्ट है कि विद्यार्थी - समुदाय में इस दार्शनिक विचारधारा को स्वीकार करने की अच्छी संभावना है।

***

न्यू वृन्दावन

मई २१, १९६९

तब कीर्तनानन्द स्वामी और हयग्रीव को साथ लेकर प्रभुपाद ने कोलम्बस से, वेस्ट वर्जिनिया पहाड़ियों में स्थित न्यू वृंदावन फार्म प्रोजेक्ट की यात्रा की। जब उनकी कार फार्म के प्रवेश स्थल के निकट एक पड़ोसी के बगीचे में फँस गई तो प्रभुपाद ने अंतिम दो मील की यात्रा कीचड़ भरी सड़क से पैदल पूरी करने का निश्चय किया । किन्तु सड़क का शीघ्र ही अंत हो गया और उनके दोनों मार्गदर्शकों ने घने जंगल में जाने वाली एक पगडंडी का सहारा लिया ।

मध्य- मई के वृक्षों में नए किसलय अभी भी फूट रहे थे और उनकी शाखाओं के मध्य से आती सूर्य की किरणें ( पृथ्वी पर ) गहरी नीललोहित धूप का निर्माण कर रही थीं । प्रभुपाद कीर्तनानन्द स्वामी और हयग्रीव के आगे-आगे तेजी से चल रहे थे; उनके साथ होने के लिए उन्हें तेज़ी से चलना पड़ रहा था। एक घुमावदार नाला बार-बार उनके मार्ग को काटता था और प्रभुपाद एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर कूद कर उसे पार कर रहे थे, उन्होंने कहा उस मार्ग पर बैलगाड़ी से यात्रा कठिन न होती; जंगल घना था, जैसी कि उन्होंने आशा की थी और चाहा था ।

प्रभुपाद गत वर्ष से कीर्तनानन्द स्वामी और हयग्रीव से न्यू वृंदावन के विषय में पत्र-व्यवहार कर रहे थे, और इस पत्र-व्यवहार से कृष्ण - चेतन ग्राम्य जीवन की दिशा निर्धारित हो गई थी । प्रभुपाद ने कहा था कि वे जीवन को वैदिक आदर्शों पर आधारित देखना चाहते थे, जिसमें हर एक का जीवन सादा हो, गउवें रखे और कृषि - कर्म करे। भक्तों को ऐसी विचारधारा का विकास शनै: शनै: करना होगा; इसमें समय लगेगा। किन्तु प्रारंभ में भी मूल स्वर होगा : “सादा जीवन उच्च विचार ।” चूँकि समुदाय नगर से बिल्कुल अलग होगा, इसलिए शुरू में यह असुविधाजनक और कष्टप्रद होगा । किन्तु जीवन शान्तिपूर्ण होगा, इन्द्रियों की तृप्ति के लिए घोर परिश्रम पर आधारित कृत्रिम नगरीय समाज की चिन्ताओं से मुक्त। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे समुदाय के सदस्य कृष्ण की सेवा में लगे होंगे और उनके नाम का जप करेंगे।

प्रभुपाद बात थोड़ी कर रहे थे। वे मार्ग में यों आगे बढ़ रहे थे मानो अपने घर पर टहल रहे हों। वे तीनों नाले के किनारे रुक गए और प्रभुपाद एक कम्बल पर बैठ गए जिसे कीर्तनानन्द स्वामी और हयग्रीव ने उनके लिए घास पर बिछा दिया था । 'हम कीर्तनानन्द के लिए रुक रहे हैं, " प्रभुपाद ने कहा, "वह थक गया है।" प्रभुपाद और उनके शिष्यों ने नाले से पानी पिया, थोड़ी देर विश्राम किया, और तब वे आगे चल पड़े।

जब वे सड़क पर एक मोड़ को पार कर रहे थे, तब प्रभुपाद ने सामने पहाड़ी की पीठ पर एक साफ मैदान देखा। पहाड़ी के निचले सिरे पर एक छोटा-सा फार्म हाउस और एक वखार था । हयग्रीव ने बताया कि न्यू वृंदावन के १२० एकड़ फार्म पर ये ही दो संरचनाएँ थीं। चूँकि मार्गों पर सवारी गाड़ियाँ नहीं चलती थीं, इसलिए वे ऊंचे घास से ढँक गए थे। बेंत वृक्ष की शाखाएँ पुराने भवन के आस-पास फैली थीं। वहाँ की बस्ती एकान्त आदिम जीवन का चित्र प्रस्तुत करती थी ।

प्रभुपाद को न्यू वृंदावन का सादा जीवन पंसद आया और भक्त उन्हें जो भी सादी चीजें अर्पित करते वे उन्हें तृप्ति के साथ स्वीकार करते । भक्तों ने ताजा पिसी हुई गेहूं का दूध में पकाया हुआ दलिया उन्हें दिया और उन्होंने कहा कि वह आश्चर्यजनक था। जब उन्होंने रसोई घर के कच्चे फर्श को गाय के गोबर से लीपा हुआ देखा तो वे बोले कि वह ठीक भारत के एक गाँव की तरह था ।

प्रभुपाद को अटारी में अपना कमरा भी पसंद आया, जो मंदिर - कक्ष के ठीक ऊपर था। उन्होंने राधा-कृष्ण के लघु अर्चा-विग्रहों को निकाला जिन्हें वे पिछले डेढ़ महीने से अपने साथ लिए यात्रा कर रहे थे और अपने सेवक, देवानन्द, से कमरे के एक किनारे एक छोटी मेज पर एक वेदी बनवाई। अपने दो बक्सों को उन्होंने डेस्क के रूप में सजाया और एक बक्स पर अपने गुरु महाराज का चित्र आसीन किया । फिर वे तुरन्त अपने हर दिन के कार्यक्रम में लग गए ।

वे बाहर बैठ कर अपनी सवेरे की मालिश कराते थे, तब एक अस्थायी बाहरी स्नान - घर में गरम जल से स्नान करते थे। कीर्तनानन्द स्वामी प्रभुपाद के लिए उनका दोपहर का सामान्य भोजन — दाल, चावल, चपातियाँ और कुछ स्थानीय सब्जियाँ — तैयार करते थे। पिछली ग्रीष्म ऋतु में कीर्तनानंद स्वामी और हयग्रीव ने ब्लैक बेरी इकट्ठी करके डिब्बों में बंद कर लिया था, उन्हीं को अब वे प्रभुपाद को चटनी के रूप में परोसते थे । चपातियाँ ताजे पिसे गेहूँ के आटे की होती थीं और हर चीज लकड़ी की आग के ऊपर पकाई जाती थी । प्रभुपाद कहते थे कि भोजन बनाने के लिए सबसे बढ़िया ईंधन गाय के गोबर की कंडी होता है, लकड़ी का दूसरा स्थान है, गैस का तीसरा और बिजली का सबसे अंत में ।

प्रभुपाद दिन का अधिकतर समय घर से बाहर लगभग सौ फुट की दूरी पर एक तेन्दू ( persimmon) के वृक्ष के नीचे बिताते थे। वहाँ बैठे वे एक नीची मेज पर, जिसे एक आदमी ने बना दिया था, पढ़ा करते थे। पढ़ने से अक्सर सिर उठाकर वे गहरी घाटी के उस पार दूर तक पहाड़ी की रीढ़ पर दृष्टि ले जाते थे जहाँ जंगल और क्षितिज मिलते दिखाई देते थे।

तीसरा पहर गए भक्त तेन्दू के वृक्ष के नीचे प्रभुपाद के पास एकत्र हो जाते थे। वहाँ बैठ कर वे उनसे सूर्यास्त के बाद तक वार्ता करते रहते थे। अपने साथ प्रभुपाद का रहना उनके लिए न्यू वृंदावन के महत्त्व का प्रत्यक्ष प्रदर्शन लगता था । यदि वे, जो सबसे महान् भक्त थे, ऐसी वनस्थली में रह कर और हरे कृष्ण भज कर संतोष लाभ कर सकते थे, तो उन लोगों को प्रभुपाद के दृष्टान्त का अनुसरण करना चाहिए ।

न्यू वृंदावन की तुलना भारत के वृंदावन से करते हुए प्रभुपाद ने कहा कि कुछ अर्थों में न्यू वृंदावन अच्छा था, क्योंकि भारत का वृंदावन अब संसार - लिप्त मनुष्यों से भर गया है । पाँच सौ वर्ष पहले भगवान् चैतन्य के अनुयायी गोस्वामियों ने कृष्ण की लीला - स्थलियों की खुदाई की थी और वहाँ केवल सच्चे भक्त रहते थे। लेकिन वर्तमान में वृंदावन भौतिकतावादियों और निर्विशेषवादियों का निवासस्थान बन गया है। जो हो, न्यू वृंदावन को चाहिए कि अपने यहाँ केवल आध्यात्मिक रुझान वालों को प्रवेश दे । प्रभुपाद ने कहा कि वैदिक समाज में हर एक इस तरह किसी नदी के किनारे एक छोटे से गाँव में रह कर संतुष्ट था। फैक्टरियाँ अनावश्यक थीं । प्रभुपाद चाहते थे कि यह वैदिक जीवन-पद्धति सारा संसार अपनाए और न्यू वृंदावन जन-समाज के कल्याण के लिए एक आदर्श प्रस्तुत कर सकता था ।

न्यू वृंदावन में फोन नहीं था और डाक दो मील पैदल चल कर लानी पड़ती थी। प्रभुपाद ने कहा कि इस अर्थ में न्यू वृंदावन भारत के वृंदावन जैसा था, दोनों में आधुनिक सुविधाओं का अभाव था । किन्तु यह ' कठिनाई ' उस वैष्णव विचारधारा से पूरा मेल खाती थी कि आधुनिक सुविधाओं को प्राप्त करने में जो कष्ट उठाना पड़ता है, उन सुविधाओं का मूल्य कष्टों से कम है। भक्त प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं से ही संतुष्ट रह कर अपना समय और शक्ति आध्यात्मिक चिन्तन में लगाता है ।

न्यू वृंदावन में केवल एक गाय थी, वह चितकबरी और संकर थी । उसका नाम कालिय था। प्रभुपाद उसका थोड़ा-थोड़ा दूध सुबह, दोपहर और रात में पीते थे। “पैंसठ साल में मैने ऐसा दूध कभी नहीं पिया, " प्रभुपाद कहते थे। एक दिन उन्होंने भविष्यवाणी की कि, न्यू वृंदावन में बहुत-सी गाएं होंगी और उनके थन दूध से इतने भरे रहेंगे कि उसके टपकने से चरागाहों में कीचड़ हो जाएगा । यद्यपि पश्चिम के लोग गो-हत्या के घोर पाप और उसके दुखद कर्मफलों के प्रति उदासीन थे, लेकिन न्यू वृंदावन संसार को दिखा देगा कि गो-वध करके, उसका मांस खाने में नहीं, वरन् गो-रक्षण और उसके दूध के उपयोग में, सामाजिक, नैतिक और आर्थिक लाभ हैं।

प्रभुपाद चाहते थे कि न्यू वृंदावन के भक्त कुटीरों का निमार्ण करें। वे बहुत से मकान चाहते थे, चाहे पहले वे आदिम प्रकार के ही हों, और उन्होंने पकाई मिट्टी से घर बनाने की एक योजना तैयार की। वे एक कृष्ण - चेतन स्कूल भी चाहते थे, और उन्होंने कहा कि देहात उसके लिए सबसे अच्छा स्थान था। “शहर मनुष्य बनाता है, और देहात ईश्वर का बनाया है, " प्रभुपाद ने कवि कापर का पदान्वय करते हुए कहा । किशोर विद्यार्थियों को पढ़ना, लिखना और गणित सीखना चाहिए, साथ ही उन्हें सच्चा भक्त होना चाहिए। अपने खेल में उन्हें कृष्ण और उनके सखा - गोपों की लीलाओं का अभिनय करना चाहिए, जैसे एक लड़का कृष्ण की मालिश करे और दूसरा उनसे दंगल करे जैसे आध्यात्मिक संसार में होता है । प्रभुपाद ने कहा कि न्यू वृंदावन में महिलाओं को चाहिए कि बच्चों का पालन करें, मंदिर साफ करें, अर्चा-विग्रहों के लिए प्रसाद तैयार करें और दही मथ कर मक्खन निकालें ।

न्यू वृंदावन के लिए प्रभुपाद के मन में बहुत-सी योजनाएँ थीं; वे विचार - बीज मात्र दे रहे थे। विस्तार तो कुछ ही के दे रहे थे। " अपनी इच्छा के अनुसार इनका विकास करो। ", उन्होंने कीर्तनानन्द स्वामी से कहा । प्रभुपाद एक आदर्श वैदिक समाज चाहते थे जिस के सदस्य अपना भोजन और आवश्यकता की अन्य चीजें स्वयं उत्पन्न कर ले। जब तक कि न्यू वृंदावन के भक्त आत्मनिर्भर नहीं हो जाते, उनका ज़मीन का इतना बड़ा टुकड़ा घेर रखना व्यर्थ था ।

प्रभुपाद के न्यू वृंदावन पहुँचने से पहले ही उन्होंने कीर्तनानन्द स्वामी और हयग्रीव से प्रार्थना की थी कि अपनी जमीन पर वे सात मंदिरों का निर्माण कराएँ। इन सातों मंदिरों के नाम प्राचीन वृंदावन के सात बड़े मंदिरों के नाम पर होने चाहिए : मदन मोहन, गोविन्दजी, गोपीनाथ, राधा - दामोदर, राधारमण, श्यामसुंदर, और राधा - गोकुलानंद । प्रभुपाद ने कहा था कि वे स्वयं हर मंदिर के लिए राधा-कृष्ण के अर्चा-विग्रहों की व्यवस्था करेंगे।

प्रभुपाद का न्यू वृंदावन को छोड़ना अनिवार्य हो गया था । लंदन, लास एंजिलेस और सैन फ्रांसिस्को के पत्रों से वे यात्रा पर निकलने को विवश हो गए थे। उनके प्रस्थान के दिन न्यू वृंदावन के भक्तों ने उन्हें खिझाया कि वे नहीं जा सकते थे। कीर्तनानन्द स्वामी ने यहाँ तक कहा कि वे उनका मार्ग अवरुद्ध कर देंगे। पर प्रभुपाद ने उसे ठीक किया, “तुम अपने गुरु महाराज के साथ ऐसा नहीं कर सकते।"

कीर्तनानंद स्वामी और न्यू वृंदावन के भक्तों को साथ लेकर, प्रभुपाद जंगल के मार्ग पर चले । न्यू वृंदावन हरियाली से ओतप्रोत था, ग्रीष्म की भरी थी । प्रभुपाद मौन थे। वे यहाँ अपने शिष्यों को प्रोत्साहित करने आए थे और वे स्वयं भी प्रोत्साहित अनुभव कर रहे थे। वहाँ सादा ग्रामीण जीवन था, जमीन और गाय पर निर्भर, वैसा ही जिसमें कृष्ण स्वयं रहे थे। उस कालिय गाय ने कितना अच्छा मीठा दूध पिलाया था। न्यू वृंदावन की गाएं मामूली गाऐं नहीं थीं; वे जानती थीं कि उनका वध नहीं किया जायगा। अभी तक यहाँ थोड़े ही भक्त थे, परन्तु कृष्ण की कृपा से और आएँगे ।

प्रभुपाद और कीर्तनानन्द स्वामी साथ-साथ जंगल के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे, उनमें बात थोड़ी हो रही थी, लेकिन वे एक-दूसरे के मन के भाव को गहराई से समझ रहे थे। प्रभुपाद ने कीर्तनानंद स्वामी को कोई विशेष आदेश नहीं दिए थे, बैठे या बाहर घूमते हुए कभी उन्होंने एकाध शब्द कह दिए थे, कभी कुछ संकेत कर दिए थे, कभी मुख की मुद्रा से प्रसन्नता या चिन्ता व्यक्त कर दी थी । किन्तु कीर्तनानन्द स्वामी समझ सकते थे कि न्यू वृंदावन उनके गुरु महाराज को बहुत प्रिय था और उन्हें भी प्रिय होना चाहिए। प्रभुपाद ने उन्हें विश्वास दिलाया था कि चूँकि न्यू वृंदावन के भक्त हरे कृष्ण कीर्तन पर केन्द्रित थे, श्रीविग्रहों की सेवा करते थे और गौओं को संरक्षण देते थे, कृष्ण उनको सफलता प्रदान करेंगें। समुदाय पहले ही सफल हो चुका था और कृष्ण वहाँ के भक्तों को सभी बाधाओं और कठिनाइयों से बराबर संरक्षण देते रहेंगे ।

दो मील की पद यात्रा समाप्त करने के बाद प्रभुपाद, अपने भक्तों से घिरे हुए, उस कार के पास खड़े हो गए जो उन्हें पिट्सबर्ग के हवाई अड्डे ले जाने वाली थी, जहाँ से उन्हें लास एंजिलेस के लिए उड़ान पकड़नी थी। उनके सूटकेसों को, जिन्हें एक घोड़ा गाड़ी से लाया गया था, कार के सामान रखने वाले भाग में लाद दिया गया और प्रभुपाद उसकी पिछली सीट पर बैठ गए। 'हरे कृष्ण' और 'प्रभुपाद' की जयकार के बीच प्रभुपाद की कार उस देहात के मुख्यमार्ग पर जा निकली और प्रभुपाद अपनी माला पर हरे कृष्ण का जप करते रहे ।

***

प्रभुपाद को अपने लंदन के छह शिष्यों से समाचार बराबर मिलते रहे थे। उनके पास धन नहीं था और हर दम्पत्ति नगर के विभिन्न भागों में अलग-अलग रह रहा था। उन्हें सबसे अधिक प्रेरणा प्रभुपाद के पत्रों से मिलती थी। वे उनके आदेशों को बार-बार पढ़ते और उस दिन का सपना देखते रहते जब प्रभुपाद लंदन में उन्हें दर्शन देंगे। यद्यपि सैन फ्रांसिस्को में इन तीनों दम्पत्तियों को कृष्णभावनामृत मात्र एक कौतुक था, इंगलैंड में यह अधिकाधिक कठिन होता जा रहा था । विदेशी होने के कारण भक्त कोई नौकरी करके वेतन नहीं कमा सकते थे, और कुछ परिचितों के अतिरिक्त वे किसी को जानते नहीं थे। यद्यपि वे एक साथ रहने में असमर्थ थे, वे अपना मनोबल और कृष्णभावनामृत को बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे।

यमुना : मुझे एक जमैकन कोठरी में जाना पड़ा जो एक मकान की सबसे ऊपरी मंजिल पर थी । स्थान भयावह था। दिन प्रति दिन मैं बैठी रहती और प्रभुपाद के भजन का टेप सुनती रहती । वह बहुत सुंदर टेप था और प्रभुपाद ने हाल में ही उसे लास एंजीलेस में तैयार कराया था। और मैं उनसे प्रार्थना करती, “कृपा करके आइए, कृपा करके आइए।'

मुकुंद : केवल प्रभुपाद के पत्र थे जो हमें जिन्दा रख रहे थे। प्रभुपाद लिखते और कहते, “मैं आ रहा हूँ।” दो या तीन बार उन्होंने यह भी लिखा कि, "मैं मार्च तक आ रहा हूँ।” और हम उन्हें उत्तर देते और कहते कि सबसे पहले हम कोई स्थान पा लेना चाहते हैं। हम सचमुच अनुभव कर रहे थे कि जब तक पहले हम कोई स्थान न पा लें उनका आना ठीक नहीं होगा। उन्होंने मेरी पत्नी को एक पत्र लिखा, "मैं मार्च तक आने की योजना बना रहा था, लेकिन तुम्हारे पति मुझे अनुमति नहीं दे रहे हैं। मैं क्या कर सकता हूँ ? "

लंदन के भक्तों ने प्रभुपाद को चार महीनों से नहीं देखा था और अभी भी उनके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं थी । यद्यपि कभी कभी वे निरुत्साहित हो जाते थे और अमेरिका वापस जाने की बात करते थे, फिर भी उन्होंने धैर्य बनाए रखा। प्रभुपाद ने वादा किया था कि जब वे मंदिर बना लेंगे तो वे आएँगे और उस वादे से भक्तों को बराबर स्मरण रहता था कि वे स्वयं प्रभुपाद की सेवा में लगे थे। उन्हें यह अनुभूति रहती कि प्रभुपाद कार्यरत थे और भक्त उनकी सहायता कर रहे थे। उनकी अनुपस्थिति केवल बाहरी थी। अपने आदेशों द्वारा, चाहे वे लिखित हों, मौखिक हों या मन से स्मृत हों, प्रभुपाद हमेशा भक्तों के साथ थे। वे बराबर उनका दिशानिर्देश कर रहे थे ।

लंदन में कृष्णभावनामृत को लोकप्रिय बनाने के लिए अपनी अनेक योजनाओं का परीक्षण करते हुए, श्यामसुंदर ने एक कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें उसने लंदन के बहुत से प्रमुख नागरिकों को आमंत्रित किया। लगभग एक सौ व्यक्तियों ने श्यामसुंदर का औपचारिक आमंत्रण स्वीकार किया— उनमें पार्लियामेंट का एक सदस्य, कुछ सरकारी अधिकारी, पर अधिकतर युवाजन थे ।

भक्तों ने दावत दी और एक फिल्म दिखाई जिसमें प्रभुपाद गोल्डेन गेट पार्क में स्टोव लेक की बगल में टहल रहे थे। उस सांध्य कार्यक्रम के लिए प्रभुपाद ने विशेष रूप से एक टेप रेकर्डिंग भेजा था। भक्तों ने उसे उस अवसर के विशेष आर्कषण के रूप में प्रस्तुत किया यद्यपि उसे पहले सुन लेने का उन्हें समय नहीं मिला था। गुरुदास ने टेप चलाना आरंभ किया, और अचानक प्रभुपाद की आवाज सुनाई देने लगी ।

" महिलाओ और सज्जनो, कृष्णभावनामृत की इस सौभाग्यपूर्ण बैठक में भाग लेने के लिए कृपया १९६९ वर्ष का मेरा अभिवादन, और भगवान् श्रीकृष्ण का शुभाशीष स्वीकार करें। "

यद्यपि प्रभुपाद द्वारा यह रेकर्ड लास एंजिलेस के उनके शान्त कमरे में टेप कराया गया था, पर अंग्रेजों को कृष्णभावनामृत का धर्मोपदेश देते हुए उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिति की अनुभूति कर, भक्त आश्चर्यचकित हो गए ।

" भगवान् चैतन्य ने हमें अवगत कराया है कि परम श्री भगवान् दिव्य ध्वनि तरंगों के रूप में अवतीर्ण हो सकते हैं, और इसलिए जब हम हरे कृष्ण मंत्र निरीह भाव से जपते हैं तो हम तुरंत कृष्ण और उनकी आंतरिक शक्ति के सम्पर्क में आ जाते हैं। इस प्रकार हम अपने हृदय के तमाम कलुषों से तुरन्त मुक्त होकर पवित्र हो जाते हैं। "

अतिथि विनम्रतापूर्वक बैठे सुन रहे थे, जब प्रभुपाद आत्मा के देहान्तरणों के कारण उसकी पीड़ा की, और हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जप करने से उसकी मुक्ति की, गाथा सुना रहे थे । 'कृष्णभावनामृत दिव्य रंगीनियों और दिव्य आह्लाद से भरा है।" जप कहीं भी हो सकता था— सड़क में, पार्क में या घर में। प्रभुपाद ने अपना कथन समाप्त किया।

किन्तु एकत्र होकर एक साथ बैठने के लिए हमें एक सभा स्थान चाहिए । इसलिए कृष्णभावनामृत के आंदोलन का एक मंदिर संसार के विविध केन्द्रों में स्थापित किए जाने की आवश्यकता है, देश - विशेष की संस्कृति, दार्शनिक विचारधारा और धर्म चाहे जो भी हो। कृष्णभावनामृत ऐसा सार्वभौम और परिपूर्ण है कि इसका प्रभाव हर व्यक्ति पर होता है, उसकी स्थिति चाहे कैसी भी हो। अतः इस सभा में उपस्थित आप सब से मैं साग्रह अनुरोध करता हूँ कि इस महान् आन्दोलन की सफल परिणति के लिए आप सहयोग प्रदान करें। एक बार सबको फिर धन्यवाद ।'

कुछ देर विराम रहा, और तब प्रभुपाद हारमोनियम बजाने और हरे कृष्ण गाने लगे। बाद में वे फिर बोले ।

" मेरे लंदन के शिष्यों ने उत्सुकतापूर्वक प्रार्थना की है कि मैं वहाँ आऊँ और मैं भी आप सबसे मिलने के लिए बहुत आतुर हूँ। इसलिए ज्योंही अवसर मिला मैं अपने संकीर्तन दल के साथ, जो इस समय लास एंजलेस में व्यस्त है, आऊँगा । और आप सब से एक साथ मिलने का वह महान् आनन्ददायक अवसर होगा। बस । "

इस सभा के केवल कुछ सप्ताह बाद ही भक्तों के बारे में पहली बार महत्त्वपूर्ण समाचार प्रकाशित हुआ : संडे टाइम्स में छहों भक्तों और छोटी बच्ची सरस्वती के चित्र के साथ प्रसिद्ध स्तंभकार एटिकस का लेख निकला । उसमें गुरुदास को यह कहते बताया गया कि, “हरे कृष्ण ऐसा जप है जो भगवान् को तुम्हारी जिह्वा पर नचाने लगता है । 'रानी एलिजबेथ' का जप करने की कोशिश करो और अंतर देख लो।” लेख में अमेरिका से आए धर्मोपदेशक दल के बारे में लिखा था कि 'वह बहुत भला, कुछ असांसारिक था किन्तु प्रवीण बिल्कुल नहीं था ।' उनके अवैध यौनाचार और मादक द्रव्य सेवन के त्याग के सम्बन्ध में लेख में टिप्पणी थी : "आप इसे नीरस समझ सकते हैं, किन्तु वे इस त्याग को बहुत महत्त्व देते हैं । और जो चीज उन्हें लोकप्रिय बनाने वाली है वह है उनका कीर्तन ।” थोड़े ही दिनों में यही लेख " सैन फ्रांसिस्को क्रानिकिल" में छपा, लेकिन उसका शीर्षक नया था : “कृष्ण कीर्तनों से लंदन में तहलका, ” जब प्रभुपाद ने यह शीर्षक देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए । सचमुच उनके गृहस्थ शिष्यों ने वहाँ सफलता प्राप्त की थी जहाँ उनके संन्यासी गुरु-भाई असफल रहे थे । यद्यपि प्रभुपाद के कई विद्वान् गुरु- भाई गत पैंतीस वर्षों से इंगलैंड - भर में घूम कर भाषण करते रहे थे, किन्तु केवल एक वृद्धा अंग्रेज महिला, एलिजाबेथ बोटेल, ने उनमें रुचि प्रदर्शित की थी ।

यमुना ने प्रभुपाद को लिख कर पूछा था कि क्या वे लोग मिसेज बोटेल से मिल सकते थे । ( अब बोटेल का नाम विनोद-वाणी दासी हो गया था ) प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, "इस वाणी दासी का इतिहास यह है कि वह एक वृद्धा महिला है और उसके पास अपना एक मकान है जिस पर उसने गौड़ीय मठ का चिह्न लगा दिया है, लेकिन बस इतना ही है।" प्रभुपाद ने अपने उत्तर में लिखा था कि यदि भक्त चाहें तो शिष्टाचार के तौर पर उसके यहाँ जा सकते थे और मालूम कर सकते थे कि क्या कीर्तन के लिए वह अपना मकान देने को राजी थी। एक भक्त शहर से कई घंटे की यात्रा तय करके उसके मकान पर उससे मिलने गया था। लेकिन बंद दरवाजे के पीछे से उसने मना किया और कहा कि जब तक कोई भक्त दिल्ली के गौड़ीय मठ से परिचय पत्र न लाए वह महिला उससे नहीं मिल सकती थी । विनोद वाणी दासी संन्यासियों के पैंतीस वर्ष तक इंगलैंड में धर्मोपदेश करने की सम्प्राप्ति थी, और यहाँ प्रभुपाद के युवा अमेरिकन धर्मोपदेशकों ने चार ही महीने में "लंदन में तहलका मचा दिया था ।

कई महीने तक शहर भर में बिखर कर रहने के बाद भक्तों की भेंट एक ऐसे मकान मालिक से हुई जिसने उन्हें कवंट गार्डन के अपने एक खाली गोदाम में बिना किराया लिए एक साथ रहने की अनुमति दे दी । भक्तों ने उसमें एक अस्थायी मंदिर बना लिया और सर्वप्रथम तीन अंग्रेज भक्तों की भरती की। नवागन्तुक भक्त तुरन्त कृष्ण- चेतन विधानों का पालन करने लगे जिनमें धोती पहनना और सिर मुंडा रखना भी सम्मिलित था । और उन्हें ये बातें पसन्द आईं।

अपने समुदाय में होती वृद्धि और प्रभुपाद की शक्ति को कार्यकारी देख कर भक्त आनन्द - विह्वल हो गए और उन्होंने मकान मालिक के कार्यालय से प्रभुपाद को फोन करने का निर्णय किया। टेलीफोन कांफरेंस - फोन था, और प्रभुपाद की आवाज डेस्क पर रखे छोटे लाउड स्पीकर में से सुनाई देने लगी। भक्त डेस्क की चारों ओर बैठ कर व्यग्रतापूर्वक सुनने लगे।

" प्रभुपाद, " मुकुंद बोला, “हमने यहाँ कुछ नए ब्रह्मचारी भरती किए हैं । "

“ओह । क्या वे चपातियाँ बना रहे हैं ?” प्रभुपाद ने समुद्र पार से पूछा । भक्त अनियंत्रित हँसी में फूट पड़े, फिर वे मौन होकर सुनने लगे ।

" नहीं, " मुकुन्द ने कहा, "लेकिन अब बनाएँगे ।" हर भक्त ने प्रभुपाद को बताया कि किस प्रकार उनका अभाव उसे खल रहा था। प्रभुपाद ने कहा कि उन्हें भी भक्तों का अभाव खल रहा था और वे ज्योंही कोई स्थान पा लेंगे, प्रभुपाद उनके पास आ जायँगे ।

तीन महीने तक कवंट गार्डन के माल गोदाम में भक्तों को रहने देने के बाद मकान मालिक ने घोषणा की कि उसे उस स्थान की जरूरत थी और भक्तों को वहाँ से हटना होगा । दम्पत्तियों को तीन भिन्न स्थानों में चले जाना पड़ा और उनकी प्रबल सामुदायिक भावना फिर क्षीण हो गई ।

प्रभुपाद हर सप्ताह दो या तीन पत्र बिखरे हुए दम्पत्तियों को भेजने लगे जिनमें उनके सच्चे संकल्प की प्रशंसा लिखी होती थी । भक्त नियमित रूप से एकत्रित होते थे, चाहे वह प्रभुपाद के ताजा पत्रों को दिखाने के लिए ही हो । प्रभुपाद ने मुकुंद को, पश्चिम में, विशेष कर लंदन में, कृष्णभावनामृत का प्रचार करने की अपनी इच्छा के बारे में लिखा ।

जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है मैं पश्चिमी जगत में कृष्णभावनामृत के प्रसार के अपने जीवन - उद्देश्य को यथाशीघ्र पूरा करना चाहता हूँ। मेरा अब भी दृढ़ विश्वास है कि जो लड़के और लड़कियाँ हमारे संघ में हैं, उनकी सहायता से यदि मैं इस आन्दोलन को मजबूत बना सका तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। मैं वृद्ध हो चला हूँ और मुझे चेतावनी मिल चुकी है, किन्तु इसके पहले कि मैं इस शरीर का त्याग करूँ, मैं तुम में से कुछ को कृष्णभावनामृत का गूढ़ मर्मज्ञ बनते देखना चाहता हूँ। मुझे प्रसन्नता है और गर्व भी है कि तुम छह लड़के-लड़कियों ने जी-जान से इतना अच्छा काम किया है, यद्यपि तुम लंदन में कोई बढ़िया केन्द्र नहीं स्थापित कर सके हो। और यह समाचार दूर तक भारत पहुँच चुका है कि मेरे शिष्य कृष्णभावनामृत के प्रचार का बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इस का मुझे गर्व है। मुझे मेरे एक गुरु-भाई का पत्र मिला है जिसमें यह सूचना है कि भारत में यह विज्ञापित किया गया है कि वियतनाम में भी किसी के द्वारा हरे कृष्ण आन्दोलन का प्रचार किया जा रहा है। इसलिए निरुत्साहित होने की जरूरत नहीं है। कृष्ण जैसा अवसर प्रदान करें उसके अनुसार कार्य करते रहो और तुम्हारी चिन्ता का कोई कारण नहीं है। हर चीज ठीक से चल रही है । लेकिन चूँकि तुम एक दूसरे से अलग हो गए हो, इसलिए कार्य करने की तुम्हारी शक्ति बाधाग्रस्त हो गई प्रतीत होती है। पहले जैसे उत्साह से ही इकट्ठे रहने का प्रयत्न करो और तुम पाओगे कि, मंदिर हो या न हो, तुम्हारा आन्दोलन आगे बढ़ता जायगा । हमें मंदिर की उतनी अधिक चिन्ता नहीं है, क्योंकि इस युग में मंदिर - उपासना को प्राथमिकता नहीं हासिल है। प्राथमिकता तो संकीर्तन की है। किन्तु कभी-कभी हमें ऐसे केन्द्र की आवश्यकता अनुभव होती है जहाँ लोग इकट्ठे हो सकें और देख सकें। अतः मन्दिर की आवश्यकता तो गौण है । अत: साथ रहने की कोशिश तुरन्त करो। मेरी तीव्र उत्कण्ठा है कि तुम सब फिर एक साथ रहने लगो ।

श्रील प्रभुपाद के शिष्यों के लिए अन्य किसी दायित्व से अधिक बाध्यकारी उनका यह आदेश था कि शिष्य लंदन में धर्म-प्रचार करते रहें। वे उनके हृदय में बसे थे और शिष्य निरन्तर उनका ध्यान करते रहते थे। उनके आदेशों का पालन करने और उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करने में, वे किसी बाहरी शक्ति या विधि द्वारा नहीं, वरन् प्रेम द्वारा प्रेरित थे। आध्यात्मिक को प्रसन्न करने का तात्पर्य है श्रीभगवान् को प्रसन्न करना; और प्रभुपाद के निष्ठावान् शिष्यों के लिए उनको प्रसन्न करना स्वयं अपने में चरम लक्ष्य था।

***

लास एंजिलेस

जून २३, १९६९

न्यू वृंदावन छोड़ने के बाद श्रील प्रभुपाद लास एंजिलेस के अपने केन्द्र में गए, जहाँ उन्होंने राधा और कृष्ण के अर्चा-विग्रहों की स्थापना की । यद्यपि, जैसा कि उन्होंने लंदन के अपने शिष्यों से कहा था, “प्रथम महत्त्वपूर्ण बात" संकीर्तन थी, पर अर्चा-विग्रह की उपासना भी आवश्यक थी। अपने लेखों में प्रभुपाद ने अर्चा-विग्रह की उपासना की आवश्यकता का विवेचन किया था और प्रत्येक इस्कान केन्द्र में अर्चा-विग्रह की उपासना का उत्तरोत्तर उच्च मानदंड सन्निविष्ट किया था । लास इंजिलेस आदर्श इस्कान केन्द्र बन गया था, इसलिए स्वाभाविक था कि प्रभुपाद वहाँ राधा और कृष्ण की उपासना के अधिक समृद्ध और अपेक्षापूर्ण मानदंड का सन्निवेश कराते ।

जबकि शताधिक व्यक्ति और अतिथि विशाल हाल में बैठे थे, प्रभुपाद ने राधा और कृष्ण की लघु प्रतिमाओं को स्नान और वस्त्राभूषित करा कर वेदी पर स्थापित किया। वे राधा और कृष्ण का आह्वान कर रहे थे कि वे अवतरित हों जिससे उनके शिष्यों को उनकी सेवा का अवसर मिले। प्रभुपाद अपने शिष्यों को राधा और कृष्ण, इस विश्वास के साथ प्रदान कर रहे थे कि वे उनकी उपेक्षा नहीं करेंगे। प्रभुपाद ने अपने भाषण में स्पष्ट किया कि यदि शिष्यों ने किसी तरह, अपना उत्साह खो दिया, तो उपासना केवल मूर्ति - उपासना बन कर रह जायगी ।

"यदि जीवन नहीं है, तो वह मूर्ति - उपासना है। जहाँ जीवन है, भाव है तो आप सोचते हैं, 'कृष्ण कहाँ हैं ? कृष्ण यहाँ हैं। ओह, मुझे उनकी सेवा करनी है। मुझे उन्हें वस्त्राभूषित करना है। मुझे राधारानी की सेवा करनी है। वे यहाँ हैं। मुझे यह सेवा बहुत अच्छी तरह करनी है। मुझे उनका श्रृंगार करना है, अपनी शक्ति-भर बहुत अच्छी तरह ।' यदि आप इस तरह सोचते हैं तो आप कृष्णभावनाभावित हैं। पर यदि आप सोचते हैं कि यह पीतल की बनी एक गुड़िया या मूर्ति है तो कृष्ण भी उसका उसी तरह उत्तर देंगे। यदि आप सोचते हैं कि यह पीतल की बनी एक मूर्ति है तो वह हमेशा आप के लिए पीतल - निर्मित मूर्ति ही रहेगी। किन्तु यदि आप अपने को उठा कर कृष्णभावनामृत के मंच पर ले जाते हैं, तो कृष्ण—यही कृष्ण - आपसे वार्तालाप करेंगे। यही कृष्ण आपसे बातचीत करेंगे ।"

हर केन्द्र की अपनी हर यात्रा में, प्रभुपाद भक्तों को अधिक सेवा - भार सौंपते; इससे कृष्ण के प्रति भक्तों की प्रतिबद्धता अधिक गहरी हो जाती । उन्होंने कहा कि वास्तव में सभी विविध सेवाएँ गुरु का दायित्व थीं और जब कोई शिष्य मंदिर की सफाई करता है या कोई अन्य सेवा करता है तो यह सब वह अपने गुरु महाराज के सहायक के रूप में करता है। और यदि कोई कार्य उचित ढंग से न किया गया तो वह गुरु की चिन्ता का विषय होता है । यदि शिष्यजन अर्चाविग्रह की उपासना में मनमाने ढंग से परिवर्तन कर देते हैं या मंदिर की उपेक्षा करते हैं तो उससे किसी शिष्य की अपेक्षा प्रभुपाद को अधिक कष्ट होगा।

जब प्रभुपाद देखते कि कोई शिष्य कृष्णभावनामृत के प्रचार का अधिक भार लेने को उत्सुक है तो वे उसे अधिक दायित्व सौंप देते थे। प्रभुपाद कहते थे कि कृष्ण की सेवा के लिए उत्सुकता सब से बड़ा संतोष था । जैसा कि भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा था, "आप की वैधी भक्ति सेवा में मुझे जो कष्ट मिलता है उसे मैं सबसे बड़ा आनन्द मानता हूँ ।"

प्रभुपाद ने स्पष्ट किया कि भक्त का संतोष भूतपूर्व गुरुओं को प्रसन्न करने में निहित होता है, और इसका सर्वोत्तम साधन पतित आत्माओं में प्रचार करना है। इस कार्य को भक्त जितनी ही अधिक मात्रा में करते हैं, अपने गुरु को वे उतना ही अधिक संतोष देते हैं और अंत में उतना ही अधिक वे स्वयं संतोष अनुभव करते हैं। प्रभुपाद ने कृष्ण और गोपियों का दृष्टान्त दिया । जब गोपियाँ कृष्ण को नृत्य में प्रसन्न करती थीं तो कृष्ण मुसकराते थे और जब गोपियाँ कृष्ण को मुसकराते देखती थीं तो उनकी प्रसन्नता और सुंदरता में लाखों गुना वृद्धि हो जाती थी । जब कृष्ण गोपियों की समृद्ध सुन्दरता देखते थे तो वे और अधिक प्रसन्न हो जाते थे और इस प्रकार गोपियों की प्रसन्नता और सुन्दरता और भी बढ़ जाती थी । यह प्रेमपूर्ण प्रतियोगिता अनन्त रूप से चलती रहती थी ।

गुरु महाराज और शिष्य के बीच व्यवहारों में भी एक प्रकार की प्रेमपूर्ण प्रतियोगिता बनी रहती थी, हर एक दूसरे की सेवा करना चाहता था, दूसरे से सेवा कोई नहीं लेना चाहता था। प्रभुपाद हर इस्कान केन्द्र में कार्य और जिम्मेदारियाँ बढ़ा रहे थे और निष्ठावान शिष्य उन जिम्मेदारियों को लेने के लिए आगे आ रहे थे, इस तरह हर एक संतोष अनुभव कर रहा था । यह शुद्ध भक्ति थी— सांसारिक इच्छाओं से मुक्त और कृष्ण सेवा को अर्पित, जैसा कि आध्यात्मिक गुरु और धर्मशास्त्रों का आदेश था ।

जब प्रभुपाद अपने शिष्यों से कहते थे कि कृष्ण की सेवा करके वे प्रसन्नता प्राप्त करेंगे तो वे आनन्दातिरेक की अपनी गहरी अनुभूति से ऐसा कहते थे। जब वे किसी मंदिर में कोई अर्चा-विग्रह स्थापित करते थे तो उनका आनन्द उनके किसी भी शिष्य से अधिक होता था । गोल्डेन गेट पार्क के रथ-यात्रा समारोहों या अन्य किसी सार्वजनिक प्रचार सभा में वे सबसे अधिक उत्साहित दिखाई देते थे। अपने किसी भी शिष्य की अपेक्षा उनकी अधिक इच्छा होती कि सब लोग मंदिर में आएँ, कीर्तन करें, नर्तन करें और कृष्ण के अर्चा-विग्रह का दर्शन करें और जब लोग ऐसा करते थे तो वे सब से अधिक प्रसन्न होते थे। और जब कोई शिष्य विरत हो जाता था तो प्रभुपाद सब से अधिक अप्रसन्न होते थे ।

प्रभुपाद मंदिर - व्यवस्था के विवरणों से अब अलग थेः वस्तुओं के मूल्य, भक्तों का सर्वसाधारण में कैसा स्वागत होता था, हर शिष्य किस प्रकार आगे बढ़ रहा था, आदि आदि । यद्यपि उनके शिष्य उन्हें सबसे महान् वैष्णव और भगवान् कृष्ण के घनिष्ठ पार्षद के रूप में देखते थे, पर वे जानते थे कि कृष्ण की सेवाओं में उन्हें दिशा-बोध देने के लिए उनके गुरु उन्हें सदैव उपलब्ध थे। वे उनके नायक थे, पर वे सदा उनके साथ थे। वे उनके बहुत ऊपर थे, पर वे उनके सन्निकट बने रहते थे। विरले अवसरों पर ही वे उन्हें पीछे छोड़ते जाते थे— जैसे लास एंजिलेस में श्री अर्चा-विग्रह की स्थापना के अवसर पर जब वे रुदन करने और कृष्ण से सीधे वार्तालाप करने लगे थे— “कृष्ण मैं अत्यन्त गलित और पतित हूँ, लेकिन मैं यह उपहार आप के लिए लाया हूँ । कृपा करके इसे ग्रहण करें ।' ऐसे विरले अवसरों के अतिरिक्त प्रभुपाद के शिष्य पाते कि वे धर्म-प्रचार और सेवा में हमेशा उनके साथ थे ।

***

सैन फ्रांसिस्को

जुलाई २५, १९६९

रथ यात्रा समारोह के एक दिन पहले प्रभुपाद सैन फ्रांसिस्को हवाई अड्डे पहुँचे, जहाँ संकीर्तन करते हुए पचास शिष्यों ने उनका स्वागत किया। संवाददाता उनकी ओर एक ऐसा प्रश्न लेकर बढ़े जो उनके लिए महत्वपूर्ण और प्रासंगिक था, “स्वामी, आपका अमेरिका की हाल की समानव चन्द्र- यात्रा के सम्बन्ध में क्या विचार है ?"

“मैं आपकी चाटुकारी करूँ या सच बताऊँ,” प्रभुपाद ने पूछा ।

“सच” उन्होंने कहा ।

कोई लाभ नहीं,

" यह समय की बर्बादी है, क्योंकि इससे आप को यदि आप वहाँ नहीं रह सकते। इस समय का अधिक अच्छा उपयोग कृष्णभावनामृत में हो सकता था । हमें इस ब्रह्माण्ड से परे आध्यात्मिक लोक में जाना जरूरी है जो शाश्वत है, जन्म, मरण, जरा और रोग से परे है । " " सैन फ्रांसिस्को क्रानिकल” ने एक चित्र और कहानी प्रकाशित की, " कानकोर्स बी में भाव - समाधि । "

रथ यात्रा के दिन हैट स्ट्रीट में, ऊँचे रथ के सामने, एक सौ भक्त और एक हजार लोगों की भीड़ एकत्र हुई । जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम के अर्चा-विग्रह, रथ में अपने उच्च आसन से, मुसकरा रहे थे। भक्त - संगीतकारों का एक दल रथ में बैठा, उसने अपनी लाउडस्पीकर व्यवस्था की जाँच की और संकीर्तन प्रारंभ किया। रथ के मध्य में अर्चा-विग्रहों के ठीक नीचे एक लाल गद्दीदार व्यास - आसन प्रभुपाद के आने की प्रतीक्षा कर रहा था ।

जब प्रभुपाद की कार पहुँची तो उन्हें भक्तों की आवाजें सुनाई दीं और जब वे कार से बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि सभी उनके प्रति सम्मान में नतमस्तक हो रहे थे। हाथ जोड़ कर, मुसकराते हुए उन्होंने उत्साही भक्तों का अभिवादन स्वीकार किया और प्रसन्नतापूर्वक वे चारों ओर एकत्रित भीड़ को देखने लगे । रथ की ओर मुड़ कर उन्होंने सिंहासन पर आसीन श्रीविग्रहों को देखा; ये वही श्रीविग्रह थे जिनसे दो वर्ष पूर्व अमेरिका में रथ-यात्रा का शुभारम्भ हुआ था। वे बहुत सुंदर परिधान और पुष्पहार धारण किए थे और उनका रथ बहुरंगी पताकाओं और गुलाबी रंग के पुष्पों की मोटी मालाओं से सजाया गया था । रथ यात्रा हर वर्ष उत्तरोत्तर नयनाभिराम बनती जा रही थी। जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम के समक्ष प्रभुपाद नतमस्तक हुए और उनके शिष्यों ने भी उनके साथ सिर झुकाया ।

जब प्रभुपाद रथ पर सवार हो गए तब कीर्तन फिर प्रारंभ हुआ। दर्जनों स्त्री-पुरुष दो रस्सियों से रथ को खींचने लगे और वह धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। जब रथ सड़क में धीरे-धीरे पार्क की ओर बढ़ रहा था तो प्रभुपाद के ऊपर स्थित अर्चा-विग्रहों के मंच पर बाल्टियों में जलते लोबान से सुंगधित धुएँ के बादल उठ रहे थे।

'हमारे पीछे कितने लोग हैं ? " तमाल कृष्ण की ओर मुड़ते हुए प्रभुपाद ने पूछा । तमाल कृष्ण प्रभुपाद के साथ रथ में बैठा था और कीर्तन करा रहा था। तमाल कृष्ण पीछे मुड़ा और जहाँ तक उसकी दृष्टि जा सकती थी उसने भीड़ का सिंहावलोकन किया ।

" पाँच हजार ।

“जय जगन्नाथ गाओ।” प्रभुपाद ने कहा और तब तमाल कृष्ण हरे कृष्ण कीर्तन बदल कर “जय जगन्नाथ, जय जगन्नाथ" कीर्तन कराने लगा ।

पूरी शोभायात्रा में प्रभुपाद शान्त बैठे देखते रहे; उनका दाहिना हाथ माला की थैली में था। शोभा यात्रा में सम्मिलित लोगों में से अधिकतर युवा हिप्पी थे, पर उसमें सूट-टाई पहने व्यवसायी, बच्चों और परिवार के साथ वयोवृद्ध जन और कुछ आवारा कुत्ते भी थे। एक रविवारीय मिश्रित समुदाय । अकस्मात् आगे चल रहे भक्त चिल्लाने लगे, " रथ रोक दो ! रथ रोक दो !” आगे सड़क के आर-पार एक नीची मेहराब वाला पार्क का पुल था। भक्तों ने ३५ फुट ऊँचे रथ को पुल पहुँचने के ठीक पहले किसी तरह रोक दिया । यद्यपि ऐसा लगने लगा था कि शोभायात्रा एक अप्रत्याशित गतिरोध पर पहुँच गई थी, तब भी कीर्तन बिना रुके चलता रहा। पिछले वर्ष भी शोभायात्रा इसी मार्ग से सम्पन्न हुई थी – तब रथ छोटा था — और इतने पर भी श्यामसुंदर को ऊपर चढ़ कर रथ के शिखर को काटना पड़ा था। पर इस वर्ष नर-नारायण ने सिमटने वाला गुंबद बनाया था और ऐसा यंत्र लगाया था जो वितान और ऊपर की संरचना को नीचे कर सकता था। जब प्रभुपाद को इन योजनाओं के बारे में बताया गया था तब उन्होंने पूछा था, “क्या तुम लोगों को विश्वास है कि ये यांत्रिक विधियाँ काम देंगी ? ऐसा न हो कि अनर्थ हो जाय ।" अब वितान को नीचा करने का समय आ गया था और अराल काम नहीं कर रहा था ।

जब रथ पुल के पहले रुक गया तो कीर्तनकर्ता अधिक संख्या में प्रभुपाद और भगवान् जगन्नाथ के समक्ष इकट्ठे हो गए। पुल के नीचे कम-से-कम एक हजार ध्वनियाँ एक साथ कीर्तन में सुनाई देने लगी जिनकी अविश्वनीय प्रतिध्वनि से वातावरण भर गया। तब प्रभुपाद खड़े हुए, भीड़ की ओर बाहें उठाईं और नृत्य करने लगे ।

भवानंद : हर एक जैसे पागल हो गया हो। इतनी तुमुल ध्वनि हो रही थी कि उस पुल के नीचे खड़े लोगों के कान के परदे फट रहे थे। प्रभुपाद रथ पर उछल उछल कर नृत्य कर रहे थे ।

नर-नारायण : वे नृत्य कर रहे थे और फूल उनके पैरों के नीचे कुचले जा रहे थे। उछल-कूदकर जब वे नृत्य में लीन थे तो उनकी माला टूट गई और उससे बिखर कर फूल इधर-उधर उड़ने लगे थे। वे सोच-समझकर उछल रहे थे, लगभग मंद गति से चलने के समान ।

तमाल कृष्ण : प्रभुपाद ऊपर-नीचे उछल-कूद रहे थे और उनकी भावविभोरता देख कर लोग पागल हो रहे थे। वे उछलते रहे और क्रमशः घूमते रहे जब तक वे और जगन्नाथ आमने-सामने नहीं हो गए ।

प्रभुपाद बैठ गए और तब भी रथ आगे नहीं बढ़ा और लोग चिल्ला रहे थे।

" वे क्या चाहते हैं ? " प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण से पूछा ।

" मैं समझता हूँ कि वे आपको फिर नृत्य करते देखना चाहते हैं; श्रील प्रभुपाद ।” तमाल कृष्ण ने उत्तर दिया ।

“क्या तुम यही समझते हो ?"

“हाँ।" तब वे खड़े हो गए और फिर नर्तन करने लगे। उनके सिर पर की सफेद ऊनी टोपी पीछे खिसक गई, उनकी बाहें फैली थीं, दाहिना हाथ अब भी माला की थैली पकड़े था, दाएँ हाथ की तर्जनी अंगुली आगे को बढ़ी थी, उनका लम्बा परिधान फहरा रहा था ।

भावातिरेकपूर्ण कीर्तन और नर्तन चलते रहे। लगभग पन्द्रह मिनट के बाद नर-नारायण ने अराल ठीक कर लिया और वितान नीचे आ गया। रथ फिर आगे बढ़ा, पुल के पार हुआ और पार्क पहुँचा । अब भीड़ दस हजार पर पहुँच गई थी । यह संख्या पहले के किसी भी कृष्णभावनाभावित उत्सव में शामिल हुए लोगों से कहीं अधिक थी ।

भवानंद : रथ-यात्रा में शामिल होने वाले बहुत-से लोग नशे में थे। हम नशे में नहीं थे। पर हम उनसे ऊँचे थे। हम यह समझ रहे थे। हर एक मुसकरा रहा था, हर एक हँस रहा था, हर एक भावविभोर था, हर एक नृत्य कर रहा था, हर एक कीर्तन कर रहा था । और औरों की अपेक्षा हम ये सब अधिक कर रहे थे। हम अधिक कीर्तन कर रहे थे, अधिक हँस रहे थे, अधिक मुसकरा रहे थे और अधिक स्वतंत्रता अनुभव कर रहे थे। हमें सिर मुंडा रखने की स्वतंत्रता थी, धोती पहनने की स्वतंत्रता थी, शंख बजाने की स्वतंत्रता थी, सड़क में चक्कर लगाने और उछलने-कूदने की स्वतंत्रता थी। कोई हिप्पी भी जगन्नाथ और उनके रथ से अधिक आगे नहीं जा सकता था, क्योंकि जगन्नाथ से अधिक आगे कोई नहीं देख सकता । हिप्पी वेश-भूषा बना कर और बालों में पंख लगा कर आए थे, लेकिन जगन्नाथ की तुलना में वे फीके थे।

रथ यात्रा का मार्ग सागर तट पर 'द फेमिली डाग आडोटोरियम' नाम की एक नृत्यशाला में समाप्त हुई। भक्तों ने वहाँ भोज के लिए प्रसाद की दस हजार प्लेटें तैयार की थीं— जिसमें फल का सलाद, सेब की चटनी, हलवा और तरबूज के टुकड़े थे। रथ रुक गया, पर कीर्तन जारी रहा; इस बीच प्रभुपाद भीड़ को सभाभवन में ले गए जिस की साज-सज्जा - युक्त नृत्यशाला में भक्तों ने एक अस्थायी मंच और वेदी का निर्माण किया था । भगवान् चैतन्य के विस्तृत रेशमी परदे से हाल का तिब्बती - शैली का मंडल आच्छादित था, और भगवान् विष्णु और श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के चित्र मंच पर रखे थे। जगन्नाथ के अर्चा-विग्रह प्रभुपाद के आसन से ऊपर अपनी ऊँची वेदी से देख रहे थे, और माला मंडित भगवान् कृष्ण की प्रतिमा एक संगमरमर के स्तंभ पर आसीन थी ।

प्रभुपाद ने बोलना आरंभ किया और भीड़ शान्त हो गई। उन्होंने नरोत्तमदास ठाकुर के एक गीत को उद्धृत किया: “मेरे प्रिय भगवान् चैतन्य, मुझ पर कृपा कीजिए। मेरे लिए आप के समान कृपालु दूसरा नहीं है।” भगवान् चैतन्य के विस्तृत रेशमी परदे की ओर प्रेक्षकों का ध्यान आकृष्ट करते हुए, उन्होंने भगवान् चैतन्य द्वारा ईश्वर के पवित्र नाम के कृपापूर्ण वितरण का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि भगवान् चैतन्य का उपदेश वही है जो भगवान् कृष्ण का भगवद्गीता में है: मेरी प्रिय संतानो, सांसारिक जीवन की इस घृणित अवस्था में दुख मत भोगो । मेरे पास वापस आओ। अपने धाम को वापस लौटो । सत्-चित-आनंदमय जीवन का उपभोग करो । '

प्रभुपाद ने कृष्णभावनामृत की सरलता का वर्णन किया :

" भगवान् चैतन्य ने पाँच सौ वर्ष पूर्व भगवद्गीता के सीधे सिद्धान्तों की स्थापना के लिए अवतार लिया था। उन्होंने प्रदर्शित किया कि यदि आप धर्म के विधानों को नहीं भी समझते, तो आप हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जप करें। परिणाम व्यावहारिक होंगे। उदाहरण के लिए, जब हम हरे कृष्ण कीर्तन करते थे तो यहाँ उपस्थित सभी लोग उसमें सम्मिलित हो रहे थे, परन्तु अब जब मैं दार्शनिक विषय पर बोलने लगा हूँ तो कुछ लोग जाने लगे हैं । यह बहुत व्यावहारिक है। हरे कृष्ण मंत्र इतना सम्मोहनकारी है कि कोई भी, किसी भी दशा में, उसमें भाग ले सकता है। और यदि वह कीर्तन करता रहता है तो धीरे-धीरे कृष्ण के प्रति उसका सुषुप्त प्रेम जागरित हो जायगा। यह बहुत सरल है।

" हम हर एक से प्रार्थना कर रहे हैं कि वह हरे कृष्ण मंत्र जपे और प्रसाद ग्रहण करे। जब आप जप करके थक जायँ तो प्रसाद तैयार है । आप प्रसाद तुरंत भी ले सकते हैं। और यदि आप नृत्य करते हैं तो आपका सारा शारीरिक आभास कृष्णमय हो जाता है। और इस सरल प्रक्रिया में योगाभ्यास की सारी प्रक्रियाएँ समाहित हैं ।

" अतः कीर्तन कीजिए, नृत्य कीजिए, प्रसाद लीजिए। यदि आप पहले इस दर्शन को नहीं भी सुनते हैं तो भी इसका असर होगा और आप परिपूर्णता के उच्चतम मंच पर पहुँच जायँगे । "

***

लंदन के भक्तों के लिए संघर्ष के शीतकाल के मध्य, एक सौभाग्यपूर्ण विश्राम आया : उनकी भेंट बीटलों में सुप्रसिद्ध बीटल जार्ज हैरिसन से हुई । बहुत समय से भक्त उपाय सोचने में लगे थे कि बीटलों से हरे कृष्ण कीर्तन कराया जाय। बीटलों के ऐपल रेकार्ड्स स्टूडियो को उन्होंने एक बार एक सेब कीं पाईं भेजी थी जिस पर हरे कृष्ण लिखा था। दूसरी बार उन्होंने उसे एक वायु - पूरित चलायमान सेब भेजा जिस पर हरे कृष्ण मंत्र अंकित था। उन्होंने अपने एक कीर्तन का टेप भी भेजा था, लेकिन ऐपल रेकर्ड्स से उन्हें निर्धारित अस्वीकार-पत्र प्राप्त हुआ । इसलिए उन्हें यह कृष्ण की विशेष व्यवस्था का परिणाम प्रतीत हुआ जब श्यामसुंदर की भेंट अकस्मात् संसार के सर्वाधिक अभिलाषित सुप्रसिद्ध बीटल जार्ज हैरिसन से हुई ।

ऐपल रेकार्डस के भीड़ से भरे कमरे में घुटे सिर और केसरिया पहने श्यामसुंदर इस आशा में बैठा था कि उसे बीटलों से सम्बन्धित किसी एक से कुछ बात करने का अवसर मिल जाय। तभी जार्ज किसी सभा से निकल कर सीढ़ियों से नीचे आया। जब वह कमरे में प्रविष्ट हुआ तो उसने श्यामसुंदर को देखा। वह चल कर उसके पास पहुँचा और उसकी बगल में बैठकर बोला, "तुम कहाँ थे ? हरे कृष्ण के लोगों से मिलने के लिए मैं दो-तीन वर्ष से कोशिश करता रहा हूँ।” श्यामसुंदर और जार्ज एक घंटे तक बातें करते रहे, जबकि अन्य लोग उनके ईद-गिर्द मंडराते रहे। "मैं सचमुच तुम लोगों से मिलने की कोशिश करता रहा हूँ।" जार्ज ने कहा, " तुम मेरे स्थान पर कल क्यों नहीं आते ?”

अगले दिन श्यामसुंदर दोपहर के खाने के लिए जार्ज के यहाँ गया । वहाँ अन्य बीटलों से भी मिला, जैसे— रिंगो स्टार, जान लेनन, पाल मैकर्टनी आदि । हर एक ने प्रश्न पूछे, लेकिन जार्ज ने विशेष अभिरुचि दिखाई।

जार्ज : मेरे पास हरे कृष्ण एलबम की एक प्रति थी जिसमें श्रील प्रभुपाद भक्तों के साथ हरे कृष्ण का गायन कर रहे थे। मेरे पास यह रेकार्ड कम-से-कम दो वर्ष रहा। जब यह तैयार हुआ था, तभी मैने इसे प्राप्त कर लिया था। मेरी उसमें रुचि थी । ऐसी चीजें आकृष्ट करती हैं। इसलिए मैं उसे कई बार बजाया करता था । मैं हरे कृष्ण मंत्र का जप, श्यामसुंदर, गुरुदास और मुकुंद से मिलने के बहुत पहले से, करता आ रहा था । हरे कृष्ण मंत्र सुन कर मुझे प्रसन्नता होती थी और रेकार्ड की एक प्रति मेरे पास थी।

और मैं प्रभुपाद के बारे में जानता था, क्योंकि उस एलबम पर अंकित सभी टिप्पणियाँ मैने पढ़ी थीं। भारत हो आने के कारण मैं उनके मुंडित सिर और वस्त्र पहनने के ढंग से बता सकता था कि वे भक्त कहाँ से आ रहे थे। मैंने उन्हें लास एंजिलेस और न्यू यार्क की सड़कों में देखा था । बहुत-सी पुस्तकें पढ़ने और योगियों की खोज में रहने के कारण भक्तों के विषय में मेरी धारणा अन्य लोगों जैसी नहीं थी जो समझते हैं कि सभी भक्त पाजामा पहने हुए किसी पागलखाने से भाग निकले हैं। नहीं, मुझे उनके बारे में सही पता था, मैं जानता था कि वे गंभीर लोग हैं, अन्य सम्प्रदायों से अधिक कठोर जीवन बिताने वाले-जैसे काफी, चाकलेट, या चाय जैसी चीज़ों के बिना ।

श्यामसुंदर जार्ज से नियमित रूप से मिलता रहा, और वे शीघ्र ही मित्र बन गए। जार्ज, जो महर्षि महेश योगी द्वारा सिखाए गए एक मंत्र का अभ्यास कर रहा था, पहली बार भक्ति योग और वैदिक दर्शन के बारे में सुनने लगा । वह उन्मुक्त भाव से श्यामसुंदर, गुरुदास और मुकुंद से अपनी आध्यात्मिक पिपासा और कर्म की अनुभूतियों के बारे में बातें करने लगा ।

जार्ज : एक योगी ने, जिससे मैं भारत में मिला था, कहा था, " तुम सचमुच भाग्यवान् हो। तुम्हारे पास युवावस्था, यश, वैभव, स्वास्थ्य सब कुछ है, पर यही तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है। तुम किसी और वस्तु के बारे में जानना चाहते हो ।” अधिकतर लोग उस बिन्दु तक भी नहीं पहुँचते जहाँ उन्हें अनुभव हो कि दीवार के पार भी कुछ है। वे उस दीवार की चोटी पर पहुँचने की कोशिश केवल इसलिए करते हैं कि वे अच्छी तरह खा सकें, एक अच्छे मकान में रह सकें और सुखपूर्वक जीवन बिता सकें । किन्तु सौभाग्य से ये सब वस्तुएँ मुझे बहुत पहले प्राप्त हो गईं थी जिससे मैं यह अनुभव कर सका कि जीवन में कुछ और भी है। अधिकतर लोग तो उन सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने के प्रयत्न में ही थक जाते हैं ।

१९६७ मैं हैट ऐशबरी की यात्रा करने के बाद जार्ज एल. एस. डी. संस्कृति को आरंभ करने के लिए अपने को अपराधी अनुभव करने लगा था। उसकी धारणा थी कि हैट ऐशबरी के हिप्पी सृजनशील कारीगर थे, लेकिन जब वह उन्हें नशे में धुत, गंदे और हताश देखता था - "बोवरी के वेस्ट कोस्ट विस्तार के रूप में" - तो वह अपने को इसके लिए अंशतः जिम्मेदार मानता था । उसने निश्चय किया कि वह अपनी प्रभावशाली स्थिति का प्रयोग मनोतरंग और यौनाचार बढ़ाने की अपेक्षा अच्छी चीज को बढ़ावा देने के निमित्त गीत लिखने और गाने में करेगा । उसे भारतीय आध्यात्मिकता में भी अधिकाधिक रुचि होने लगी थी । उसने अनुभव किया कि ऐसा उसके पूर्वजन्म के कर्मों के कारण था ।

जार्ज : मैं कृष्ण में अपनापन अनुभव करता हूँ। मेरा विचार है कि यह कुछ ऐसी चीज है जो मुझ में मेरे किसी पूर्वजन्म से रही है। इसलिए उस समय मुझे ऐसा लगता था कि मेरे लिए द्वार उन्मुक्त हो रहा था; लेकिन बीच में आवागमन का गोरखधंधा भी था और चित्र को पूर्ण बनाने के लिए इन सभी छोटी-मोटी बातों की जरूरत थी । और वे ही ये बातें हैं जो इन भक्तों और स्वामी भक्तिवेदान्त के आने से या कुछ भक्तों के मुझे एक पुस्तक देने या मेरे उस रेकर्ड के सुनने से घटित हो रही हैं। यह सब धीरे-धीरे संयोजित होता रहा है। यही कुछ कारण हैं कि मैं श्यामसुंदर और गुरुदास की ओर उन्मुख हुआ, जब वे पहली बार मुझे लंदन में मिले । बात स्पष्ट है कि यदि मुझे अपना महत्त्व प्रतिपादित करना है तो मैं इन सीधे लोगों के साथ रहूँगा, न कि उन लोगों के साथ। यही होना है। मैं भक्तों के साथ रहूँगा, उन सीधे लोगों के साथ नहीं जो तथाकथित संत हैं ।

जार्ज तैयार था कि वह लंदन में एक मकान प्राप्त करने में भक्तों की सहायता करेगा और उसने और श्यामसुंदर ने एक हरे कृष्ण रेकर्ड बनाने के लिए बात की। लेकिन श्यामसुंदर ने इसके लिए उस पर कभी जोर नहीं डाला।

जार्ज मोहक कलाकार था, “ शान्त, गंभीर बीटल"; ऐसा विस्मयकारी गिटार बजाने वाला और गायक जो जहाँ भी जाता वहाँ के महान् व्यक्तियों, राष्ट्रपतियों, महारानियों तक उसकी पहुँच हो जाती थी । और श्यामसुंदर में भी अपना सम्मोहन था । वह छह फुट दो इंच लम्बा था और यद्यपि वह सिर घुटाए रखता था, पर उसमें गजब का आकर्षण था । और वह वैष्णव था, भारतीय आध्यात्मिकता के प्रति पूर्णत: समर्पित जिसमें जार्ज की इतनी अभिरुचि थी ।

जब प्रभुपाद ने जार्ज के विषय में सुना तो उन्हें इसकी गंभीर सम्भावना प्रतीत हुई कि जार्ज कृष्णभावनामृत को पूर्णरूप से स्वीकार कर लेगा। इस संभावना को उसकी तर्कसंगत परिणति तक ले जाते हुए, प्रभुपाद कृष्ण - चेतन बीटलों की अगुवाई में, कृष्णभावनामृत की विश्व- क्रान्ति की कल्पना करने लगे ।

तुम्हारे पत्र से मैने यह समझा है कि जार्ज हैरिसन की कुछ सहानुभूति हमारे आंदोलन से है और यदि कृष्ण सचमुच उस पर कृपालु हैं तो संकीर्तन आंदोलन को विश्वव्यापी बनाने में वह निश्चय ही हमारी सहायता कर सकेगा। चाहे जिस कारण भी हो बीटल पड़ोस के योरोपीय देशों और अमरीका के लोगों के लिए आकर्षण - बिन्दु बन गया है। जार्ज हैरिसन हमारे संकीर्तन दल की ओर आकृष्ट है और यदि वह बीटलों और इस्कान के हमारे लड़कों के एक मिले-जुले विशाल संकीर्तन दल को संगठित करने में नेतृत्व करता है तो हम निश्चय ही दुनिया के चेहरे को बदल देंगे, जो राजनीतिज्ञों की चालबाजियों से इस समय इतनी अधिक उत्पीड़ित है।

लंदन के भक्तों के मन में प्रभुपाद के लंदन - आगमन के विषय में जो उत्साह था जार्ज की मित्रता से उसमें वृद्धि हो गई। चूँकि अब एक विश्व-विख्यात व्यक्ति प्रभुपाद के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था, इसलिए भक्तों को लगा कि शायद अब प्रभुपाद को प्रसन्न करने और लंदन में प्रचार कार्य को सफल बनाने का उन्हें एक नया उपाय मिल गया है।

कृष्णभावनामृत के अपने साहचर्य और अपने स्वयं के आध्यात्मिक विकास के फलस्वरूप, जार्ज अपने गीतों में भगवान् कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करने लगा । प्रभुपाद कृत भगवद्गीता यथारूप का अध्ययन करके वह ईश्वर के निराकार रूप की अपेक्षा साकार रूप की धारणा की श्रेष्ठता को समझने - सराहने लगा। गुरुदास ने उसे गीता का वह श्लोक दिखाया जिसमें कृष्ण कहते हैं कि निराकार ब्रह्म के आधार वे ही हैं। कृष्णभावनामृत की धारणा जार्ज को पसंद आई, लेकिन प्रभुपाद और कृष्ण के प्रति एकमात्र भक्ति दिखाने में वह चौकन्ना था । इसलिए भक्त उससे वैसा ही व्यवहार करते थे, ताकि वह विक्षुब्ध न हो ।

११ जनवरी को प्रभुपाद ने लंदन के भक्तों को एक दूसरा पत्र लिखा जिस में कुछ और सुझाव दिए कि जार्ज कृष्ण की सबसे अच्छी सेवा कैसे कर सकता था ।

प्रसन्नता है कि जार्ज “भगवान् जिसकी हमने अब तक उपेक्षा की" जैसे गीत रच रहा है। वह बहुत विचारशील है। जब हमारी भेंट होगी तब मैं उसे कृष्ण से वियोग के सम्बन्ध में विचार दूँगा और तब वह सार्वजनिक सभाओं के लिए आकर्षक गीत लिख सकेगा। जनता को ऐसे गीतों की आवश्यकता है और यदि बीटलों जैसे प्रतिनिधियों से ये गीत उन्हें सुनने को मिलते हैं तो सचमुच इससे महान् सफलता मिलेगी।

प्रभुपाद ने भक्तों को सावधान किया कि वे केवल जार्ज की सहायता पर निर्भर न रहें, वरन् मकान पाने की स्वयं चेष्टा करें और उसे किराए पर ले लें। जार्ज सहायता करना चाहता था और उसने भक्तों को फिर सुझाव दिया कि ऐपल के नाम से एक रेकर्ड बनाएँ । लंदन के भक्तों की यह पुरानी तीव्र इच्छा थी कि एक रेकर्ड बनाया जाय जिसमें बीटल हरे कृष्ण कीर्तन कर रहे हों। यदि बीटल ऐसा करते हैं तो हरे कृष्ण मंत्र विश्व विख्यात हो जायगा । जार्ज को यह विचार पसंद था, लेकिन वह चाहता था कि भक्त हरे कृष्ण का गायन करें और वह ऐपल के नाम से रेकर्ड बनाए " आय तुम लोगों की होगी, हमारी नहीं ।" उसने कहा, "आओ, एक रेकर्ड बनाएं।"

अतः एक भजन - सत्र के लिए भक्त जार्ज के घर पर गए। जार्ज ने अपनी गिटार के संगीत को उस में सम्मिलित किया और कुछ सप्ताह के बाद भक्त वहाँ पुनः गए और उन्होंने टेप सुना । स्टूडियो में भजन - सत्र करने के लिए जार्ज तैयार था, इसलिए भक्त उससे और उसके संगीतज्ञ मित्र, बिली प्रेस्टन, से सेंट ऐन्स एली स्थित ट्राउन्ट स्टूडियो में मिलने को राजी हो गए। वे कुछ घंटे रेकर्ड कराते रहे; टेप ठीक लग रहा था । जार्ज और श्यामसुंदर एक तिथि पर वास्तविक रेकर्डिंग के लिए सहमत हो गए ।

रेकर्डिंग के दिन एब्बे रोड स्थित ई.एम.आई. रेकर्डिंग स्टूडियो में लगभग एक दर्जन भक्त, जिनमें कुछ नए भरती हुए अंग्रेज भी थे, इकट्ठे हुए। जब भक्तों का पहला दल जार्ज की मर्सीडीज गाड़ी में स्टूडियो पर पहुँचा तो किशोरों का एक समूह राक - संगीतज्ञ हेयर द्वारा प्रचारित प्रसिद्ध धुन में हरे कृष्ण गाने लगा। रेकर्ड करने वाले यंत्र-विदों के माथे पर यमुना वैष्णव तिलक लगाने लगी, इस बीच मालती प्रसाद से भरी पिकनिक की टोकरियाँ खोलने लगी जो वह अपने साथ लाई थी, और कुछ अन्य भक्त कृष्ण के चित्र लगाने और लोबान जलाने लगे। स्टूडियो कृष्णमय हो गया ।

पाल मकर्टनी और उसकी पत्नी लिंडा नियंत्रण-यंत्र का संचालन करने लगे और रेकर्डिंग - सत्र आरंभ हो गया। हर एक ने तेजी से काम किया और ४५ आर. पी. एम रेकर्ड की एक साइड करीब एक घंटे में तैयार हो गई। जार्ज ने आर्गन बाजा बजाया, जब कि मुकुंद मृदंग बजा रहा था । यमुना ने टेक गाई और श्यामसुंदर ने उसका साथ दिया और अन्य ध्वनियाँ मिल कर समवेतगान की सृष्टि कर रही थीं। सब कुछ ठीक बने, इसके लिए हर एक का ध्यान प्रभुपाद पर केन्द्रित था और हर एक आध्यात्मिक शक्ति के लिए प्रार्थना कर रहा था ।

चौथी बार में सब कुछ ठीक हो गया । समाप्ति पर मालती अपने आप पीतल का घंटा बजाने लगी। तब उन्होंने रेकर्ड की दूसरी साइड पर श्रील प्रभुपाद, भगवान् चैतन्य और उनके पार्षदों और छहों गोस्वामियों के प्रति प्रार्थनाएँ टेप की। बाद में जार्ज ने बास गिटार और अन्य ध्वनियाँ बीच में जोड़ी । भक्तों, अभियंताओं — हर एक को यह बहुत अच्छा लगा । " यह बड़ी चीज़ होने जा रही है । ” – जार्ज ने वादा किया।

जब रेकर्ड बनने लगे तो भक्त अपने नियमित कार्य पर लौट गए। वे अब भी अलग-अलग रह रहे थे। प्रभुपाद ने अपने आने का समय सितम्बर के शुरू में निश्चित किया। उन्होंने लिखा कि पहले वे हेमबर्ग जायँगे, तब लंदन आएँगे, वहाँ मंदिर हो या न हो । चमत्कार यह हुआ कि प्रभुपाद के आने के दो महीने पहले ही सब कुछ ठीक होने लग गया।

गुरुदास की भेंट ब्रिटिश म्यूजियम के निकट बरी प्लेस के एक मकान के एजेंट से हो गई जिसमें भक्त तुरन्त जाकर रह सकते थे। आदर्श स्थान, इकतालीस पौंड प्रति सप्ताह किराया, तुरन्त कब्जा — सब कुछ आश्चर्यजनक था। मुकुंद ने प्रभुपाद को रकम के लिए लिखा जिससे अविलम्ब नकद भुगतान किया जा सके। प्रभुपाद राजी हो गए। श्यामसुंदर ने जार्ज से ऐपल कार्पोरेशन लिमिटेड के लैटर हेड पर एक पत्र प्राप्त किया कि यदि भक्तों से किराया न मिला तो ऐपल उसकी गारंटी लेगा। एक सप्ताह के अंदर भक्तों को लंदन के मध्य में एक पाँच - मंजिला मकान मिल गया ।

किन्तु जब भक्त बरी प्लेस के अपने नए केन्द्र में रहने के लिए गए तो नगर के अधिकारियों ने कहा कि उनके पास अधिवास की वैध अनुमति नहीं थी । इस लालफीताशाही में सप्ताहों, यहाँ तक कि महीनों, लग सकते थे। भक्तजन, फिर, एक साथ रहने और पूजा करने के स्थान से विहीन हो गए। पर श्यामसुंदर को विश्वास था कि हर चीज ठीक हो जायगी, इसलिए वह मकान में केलिफोर्निया रेडवुड के एक मंदिर का कमरा बनाने लगा ।

तब जान लेनन ने श्यामसुंदर से कहा कि भक्त उसके साथ टिटेनहर्स्ट में रह सकते थे। यह एसकाट के निकट विशाल भूसम्पत्ति थी जिसे उसने इस हाल में ही खरीदा था । उसमें कुछ मरम्मत की जरूरत थी और यदि भक्त में सहायता कर सकें तो वह रहने के लिए उन्हें स्थान दे देगा । " क्या हमारे गुरु भी वहाँ रह सकते हैं ? " श्यामसुंदर ने पूछा । जान राजी हो गया, और भक्त जान के इलाके में नौकरों के पुराने कमरों में जाकर रहने लगे ।

प्रभुपाद के पहुँचने के केवल कुछ सप्ताह पहले 'हरे कृष्ण मंत्र' रेकर्ड का विमोचन हुआ। ऐपल रेकर्ड्स ने उसकी बिक्री बढ़ाने के लिए एक आयोजन किया और सम्वाददाताओं और फोटोग्राफरों को एक बहुरंगीय बस में बैठा कर एक नीले - श्वेत मंडप में लाया गया जहाँ जार्ज के साथ भक्तजन एकत्रित हुए थे ।

पहले दिन रेकर्ड की सत्तर हजार प्रतियाँ बिकीं। कुछ ही सप्ताह के अंदर भक्तजन ' टाप आफ द पाप्स' नामक लोकप्रिय टी.वी. कार्यक्रम में सम्मिलित हुए - " अपने गीत" का गायन करते हुए ।

जान लेनन की भूमि में, जिस पर पहले कैडबरी परिवार का स्वामित्व था, छिहत्तर एकड़ घास का मैदान और जंगल था, एक विशाल महल था और बहुत-से छोटे-छोटे मकान थे। जान और उसकी पत्नी, योको, महल में रहते थे। नौकरों के कमरे, जिनमें प्रभुपाद और भक्तों को रहना था, महल के निकट स्थित एक संकरे मकान में एक पंक्ति में चार की संख्या में अलग-अलग बने थे। लगभग पन्द्रह भक्त तीन कमरों में रहने लगे, एक कमरा उन्होंने प्रभुपाद और उनके सेवक के लिए आरक्षित रखा ।

जान चाहता था कि भक्तजन मुख्य भवन से सख्त लकड़ी की दीवारों और फर्शो को निकाल दें और उसके स्थान पर नई दीवारें बना दें और फर्शो पर काले श्वेत संगमरमर की टाइलें लगा दें। वह मरम्मत शुरू हुई तो ईशान, जो कनाडा से हाल में ही आया था, कुछ सहायकों को लेकर पुराने संगीत - कक्ष को एक मंदिर का रूप देने में लग गया जिसमें श्रील प्रभुपाद के लिए व्यास - आसन भी था । भक्तजन प्रभुपाद के कमरे, मंदिर - कक्ष और व्यास - आसन की तैयारी में दिन-रात काम करने लगे। वे इतनी स्फूर्ति से कार्य कर रहे थे कि जान और योको को मालूम हो गया कि वे स्पष्टतया अपने आध्यात्मिक गुरु के प्रेम में बँधे थे। जब भक्त जर्मनी में प्रभुपाद को भेजने के लिए एक टेप बना रहे थे तब ईशान ने जान से पूछा कि क्या उनके गुरु को कहने के लिए उसके पास कुछ था । जान मुसकराया और बोला कि वह प्रभुपाद के उस रहस्य को जानना चाहता था जिस कारण उनके भक्त उनके प्रति इतने समर्पित थे ।

तैयारी पूरी हुई। नायक के प्रवेश का समय आ गया था। भगवान् कृष्ण का पुनीत भक्त इंगलैंड आ रहा था। छहों भक्तों के लिए, जिन्होंने लंदन में कृष्णभावनामृत की अगुवाई की थी, यह लम्बा संघर्ष रहा था । परन्तु अब ऐसा लग रहा था कि उनके जो स्वप्न कभी असंभव लग रहे थे वे साकार होने जा रहे थे। उन्होंने प्रभुपाद के रहने के लिए एक स्थान पा लिया था और लंदन के मध्य में उन्हें एक मंदिर प्राप्त हो गया था । यह कृष्ण का आशीर्वाद था ।

 
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥