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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 3: ‟एक बहुत अच्छा साधु - स्वभाव पुरुष”  » 
 
 
 
 
 
" [ चैतन्य ] महाप्रभु और उनके भक्तों जैसे उच्चतम श्रेणी के कल्याणकर्त्ता न हुए हैं, न होंगे। अन्य प्रकार के कल्याण-कार्य केवल धोखा हैं; सचमुच हानिकारक हैं, जबकि महाप्रभु और उनके अनुयायियों द्वारा किया गया कल्याण सबसे सच्चा, सब से बड़ा और शाश्वत कल्याण है। यह कल्याण देश-विशेष के लिए नहीं है, जो दूसरे के लिए उत्पात पैदा करे; वरन् यह समस्त विश्व के लिए है।" - श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ।

अभय के मित्र नरेन्द्रनाथ मल्लिक आग्रह कर रहे थे। वे चाहते थे कि अभय मायापुर से आए एक साधु से मिलें। नरेन और उनके कुछ मित्र उस साधु से उसके पास के आश्रम में मिल चुके थे जो उल्टाडंग जंकशन रोड पर स्थित था और अब वे अभय का मत जानना चाहते थे। अपनी मित्र-मंडली में अभय नेता माने जाते थे, इसलिए यदि नरेन औरों को बता सकें कि साधु के प्रति अभय भी सम्मान की भावना रखते हैं तो उससे उनके अपने मूल्यांकनों का समर्थन होगा। अभय को जाने में हिचक थी, लेकिन नरेन उन पर दबाव डाल रहे थे।

वे शाम होते ही भीड़ से भरी सड़क पर आने-जाने वालों के बीच खड़े बातें कर रहे थे, जबकि भाड़े की घोड़ा-गाड़ियाँ, बैल गाड़ियाँ और बीच-बीच में आटो-टैक्सियाँ और मोटर-बसें शोर करती हुई आगे बढ़ रही थीं। नरेन ने अपने मित्र अभय की बाँह कस कर पकड़ ली; वे उन्हें आगे की ओर घसीटने लगे जबकि अभय हँस रहे थे और उल्टी दिशा में हठपूर्वक जोर लगा रहे थे। नरेन का तर्क था कि चूँकि वह स्थान कुछ ही मकान आगे था, इसलिए उन्हें कम से कम थोड़ी देर के लिए, वहाँ हो आना चाहिए । अभय हँसे और उन्होंने माफी चाही । लोग समझ रहे थे कि दोनों व्यक्ति मित्र थे, लेकिन बड़ा अजीब दृश्य था; खादी का सफेद कुर्ता और धोती पहने हुए सुन्दर युवक को उसका मित्र खींचे लिए जा रहा था ।

नरेन ने बताया कि साधु, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती, वैष्णव थे और चैतन्य महाप्रभु के महान् मक्त थे। उनके एक शिष्य, जो संन्यासी थे, मल्लिकों के घर आये थे और उन्होंने उन्हें श्रील भक्तिसिद्धान्त से मिलने को आमंत्रित किया था। मल्लिकों में से कुछ वहाँ गए थे और उनसे बहुत प्रभावित हुए थे।

किन्तु अभय शंकालु बने रहे। उन्होंने कहा, "नहीं, नहीं, मैं इन सब साधुओं को जानता हूँ। मुझे नहीं जाना है" । अभय ने अपने बचपन में बहुत से साधू देखे थे; उनके पिता घर पर कम से कम तीन चार को प्रतिदिन आमंत्रित करते थे। उनमें से कुछ तो केवल भिखमंगे थे और कुछ गाँजा भी पीते थे। गौर मोहन बहुत उदार थे और जो भी संन्यासी का गेरुआ वस्त्र पहने होता उसे घर में आने देते थे। तो क्या इसका तात्पर्य यह था कि चाहे कोई भीख माँगता हो, या गाँजा पीता हो, फिर भी उसे साधु माना जाय, केवल इसीलिए कि वह संन्यासी की वेश-भूषा में है या मठ-निर्माण के नाम से धन इकठ्ठा कर रहा है, या अपने भाषण से लोगों को प्रभावित कर लेता है ?

नहीं। ये साधू अधिकतर बहुत खराब लोग होते हैं। अभय ने अपने पड़ोस में भी एक ऐसे व्यक्ति को देखा था जो पेशे से भिखमंगा था । सवेरे जब अन्य लोग काम के कपड़े पहन, अपने काम पर जाते, तो यह व्यक्ति गेरुआ वस्त्र धारण कर, भीख माँगने निकलता और इस तरह अपना पेट पालता । लेकिन क्या यह उचित था कि ऐसे तथा कथित साधु का सम्मानपूर्वक दर्शन किया जाय मानो वह गुरु हो ।

नरेन का तर्क था कि वह साधु- विशेष बहुत विद्वान् पुरुष थे और अभय को चाहिए कि कम से कम उनसे मिल लें, तब स्वयं निर्णय करें। अभय चाहते थे कि उनके मित्र इतना आग्रह न करें, लेकिन अंत में वे उनकी बात का इनकार न कर सके। एक साथ, वे पारसनाथ जैन मंदिर से होते हुए, १, उल्टडंग पहुँचे जहाँ 'भक्तिविनोद आसन' अंकित था और जो गौड़ीय मठ के आवासों की घोषणा कर रहा था ।

द्वार पर उन्होंने पूछा तो एक नवयुवक, जो मि. मल्लिक को पहचानता था–वे पहले मठ को दान दे चुके थे—उन्हें तुरंत दूसरी मंजिल की छत पर ले गया और उसने उन्हें श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के सामने प्रस्तुत किया। वे उस समय कुछ शिष्यों और अतिथियों के साथ बैठे हुए सायंकालीन वायु का आनंद ले रहे थे।

अपनी पीठ को पूरी तरह सीधा करके बैठे हुए श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती लम्बे लगे। शरीर से वे दुबले थे, उनकी बाहें लम्बी थीं और उनका रंग गोरा और सुनहरा था। उन्होंने सादे फ्रेम का बाई - फोकल चश्मा लगाया था। उनकी नाक नुकीली थी, मस्तक प्रशस्त था, चेहरे से विद्वत्ता प्रकट होती थी, लेकिन उस पर भीरुता बिल्कुल नहीं थी । उनके मस्तक पर लगे वैष्णव- तिलक की खड़ी रेखाओं से अभय परिचित थे, ठीक वैसे ही, जैसे वे उनके सादे संन्यासी उत्तरीय से परिचित थे जो उनके दाहिने कंधे पर पड़ा हुआ लटक रहा था जिससे बाँया कंधा और आधा वक्षस्थल नंगे थे। उन्होंने तुलसी की माला पहनी थी और मृत्तिका से बने वैष्णव तिलक के चिह्न उनके गले में, कंधे पर और बाँह के ऊपरी भाग में दृष्टिगोचर हो रहे थे। निर्मल सफेद जनेऊ, गले में लिपटा हुआ, छाती पर विराज रहा था। अभय और नरेन दोनों ने, वैष्णव परिवारों में पले होने के कारण, श्रद्धास्पद संन्यासी को देखते ही उन्हें तुरन्त साष्टांग प्रणाम किया ।

अभी दोनों युवक बैठने को थे और औपचारिक प्रारंभिक वार्तालाप आरंभ होने से पहले ही श्रील भक्तिसिद्धान्त झट बोले, “आप शिक्षित नवयुवक हैं। आप चैतन्य महाप्रभु के संदेश का प्रचार विश्व भर में क्यों नहीं करते ?"

अभय ने जो कुछ सुना उस पर विश्वास करना उनके लिए कठिन हो गया। अभी उनके बीच विचारों का आदान-प्रदान भी नहीं हुआ था, तब भी यह साधु बता रहा है कि उन्हें क्या करना चाहिए । श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के सामने बैठे अभय की बुद्धि अभी ठिकाने आ रही थी और वे उनके विषय में अपनी स्पष्ट धारणा बनाने में लगे थे, लेकिन इस बीच उस व्यक्ति ने उन्हें बता दिया कि उन्हें प्रचारक बन कर सारे विश्व में घूमना चाहिए।

अभय पर तत्क्षण प्रभाव हुआ, लेकिन वे अपना बौद्धिक संशय छोड़ने को तैयार नहीं थे। जो भी हो, साधु ने जो कुछ कहा था उसमें पूर्वानुमान थे। अभय ने अपनी वेश-भूषा से अपने को गांधीवादी बता दिया था, और उनके मन में आया कि वे वाद-विवाद शुरू करें। किन्तु ज्यों-ज्यों वे भक्तिसिद्धान्त के वचनों को सुनते गए वे साधु के विश्वास के बल के सामने, विजित-सा अनुभव करने लगे। अभय को मालूम हो गया कि महाप्रभु चैतन्य के अतिरिक्त साधु को अन्य किसी चीज की चिन्ता नहीं और इसी कारण वे महान् हैं। इसी कारण उनके चारों ओर इतने अनुयायी इकठ्ठे हैं और इसी कारण अभय उनकी ओर आकृष्ट अनुभव करते हैं, उनसे अनुप्राणित हैं, विजित हैं और उनके वचन अधिकाधिक सुनना चाहते हैं। लेकिन उन्हें एक विवाद खड़ा करना था — सच्चाई की परख के लिए।

विवाद के लिए विवश होकर अभय उन शब्दों के उत्तर में बोले जो श्रील भक्तिसिद्धान्त ने मिलने के तुरन्त बाद संक्षेप में कहे थे। " आपके चैतन्य के संदेश को कौन सुनेगा ?" अभय ने प्रश्न किया, “हम पराधीन देश के लोग हैं। पहले भारत को स्वतंत्र होना है। ब्रिटिश शासन के अधीन रहते हुए, हम भारतीय संस्कृति का प्रचार कैसे कर सकते हैं ? "

अभय ने अभिमानवश नहीं पूछा था; उनका प्रश्न केवल उत्तेजक था, लेकिन फिर भी वह चुनौतीपूर्ण था । यदि वे साधु की उक्ति को गंभीर समझ कर ग्रहण करते हैं-और यदि श्रील भक्तिसिद्धान्त के व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं था जिससे मालूम हो कि वह गंभीर नहीं है—तो अभय वह प्रश्न पूछने के किए विवश अनुभव कर रहे थे कि वे भारत के परतंत्र रहते, इस प्रकार का प्रस्ताव कैसे कर सकते हैं।

श्रील भक्तिसिद्धान्त ने शान्त, गंभीर स्वर में उत्तर दिया कि कृष्ण - चेतना को भारतीय राजनीति में परिवर्तन की प्रतीक्षा नहीं करनी है, न ही वह इसी बात पर निर्भर है कि शासन कौन करता है। कृष्ण चेतना इतनी महत्त्वपूर्ण है —एकान्तत: इतनी महत्त्वपूर्ण है—कि वह प्रतीक्षा नहीं कर सकती ।

अभय उनकी निर्भीकता पर विस्मित थे। वे ऐसी बात कैसे कह सकते थे? उल्टडंग की उस छोटी छत के अतिरिक्त समस्त भारत में खलबली थी और सारा देश अभय के तर्क का समर्थन करता लग रहा था। बंगाल के बहुत-से प्रसिद्ध नेता, बहुत से संत, स्वयं गाँधीजी, शिक्षित और आध्यात्मिक रुझान के लोग, सभी वही प्रश्न करते जो अभय ने किया था—साधु की प्रासंगिकता को चुनौती देते हुए। इतने पर भी वे हर वस्तु को, हर व्यक्ति को नकार रहे थे, मानों किसी का कोई महत्त्व ही न हो।

श्रील भक्तिसिद्धान्त कहते रहे : एक शक्ति का शासन हो अथवा दूसरी का, यह अस्थायी परिस्थिति है; किन्तु शाश्वत वास्तविकता कृष्ण- चेतना है और वास्तविक सत्ता आत्मा है। इसलिए मनुष्य कृत कोई भी राजनीतिक व्यवस्था, मानवता की, वास्तव में, सहायता नहीं कर सकती। वैदिक धर्मशास्त्रों का वही निर्णय है और आध्यात्मिक गुरुओं ने यही कहा है। यद्यपि हर व्यक्ति भगवान का शाश्वत सेवक है, किन्तु जब वह अपने को अस्थायी समझने लगता है और अपने राष्ट्र को आराध्य मानता है, तब वह भ्रान्ति में पड़ जाता है। विश्व के राजनीतिक आन्दोलनों के नेता और उनके अनुगामी, जिसमें स्वराज का आन्दोलन भी शामिल है, इसी प्रकार की भ्रान्ति पैदा कर रहे हैं। वास्तविक कल्याण कार्य का उद्देश्य, चाहे वह व्यक्तिगत हो, सामाजिक हो या राजनीतिक हो, मनुष्य को दूसरे जन्म के लिए तैयार करना और श्रीभगवान् के साथ उसके शाश्वत सम्बन्ध को पुनः स्थापित होना चाहिए।

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती, इन विचारों को अपने लेखों में, कई बार पहले व्यक्त कर चुके थे :

[[ चैतन्य] महाप्रभु और उनके भक्तों जैसे उच्चतम श्रेणी के कल्याण - कर्ता न हुए हैं, न होंगे। अन्य प्रकार के कल्याण कार्य केवल धोखा हैं, सचमुच हानिकारक हैं, जबकि महाप्रभु और उनके अनुयायियों द्वारा किया गया कल्याण सबसे सच्चा, सबसे बड़ा और शाश्वत कल्याण है। ...यह कल्याण किसी देश-विशेष के लिए नहीं है, जो दूसरे के लिए उत्पात पैदा करे वरन् वह समस्त विश्व के लिए है।... श्री चैतन्य महाप्रभु ने जो दया जीवों पर दर्शाई है, वह उन्हें सभी अभावों, सभी असुविधाओं और सभी कष्टों से मुक्त करती है... वह दया किसी पाप को जन्म नहीं देती और जिन जीवों को यह मिली है, वे संसार के पापों के भागी नहीं बनेंगे ।

अभय जब ध्यानपूर्वक श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के तर्कों को सुन रहे थे तो उन्हें एक बंगाली कवि का स्मरण आ रहा था जिसने लिखा है कि भारत से कम उन्नत सभ्यता वाले देश, जैसे चीन और जापान भी, स्वतंत्र हैं, जबकि भारत राजनीतिक उत्पीड़न से कराह रहा है। अभय को राष्ट्रीयता के दर्शन का भलीभाँति ज्ञान था, जो इस बात पर बल देता था कि भारत को सबसे पहले स्वतंत्र होना है। भारतीय जनता का उत्पीड़न एक वास्तविकता थी, निरपराध नागरिकों का अंग्रेजों द्वारा संहार एक वास्तविकता थी और स्वतंत्रता से ही जन-कल्याण होगा। आध्यात्मिक जीवन एक विलास था जिसका उपभोग केवल आजादी के बाद हो सकता था । उस समय ब्रिटिश शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना ही प्रासंगिक आध्यात्मिक आन्दोलन था। जनता का पक्ष ही स्वयं में भगवान् था ।

तो भी, चूँकि अभय का पालन-पोषण एक वैष्णव के रूप में हुआ था, श्रील भक्तिसिद्धान्त जो कुछ कह रहे थे, वह उन्हें अच्छा लग रहा था। अभय इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि यह अन्य साधुओं की तरह कोई संदिग्ध चरित वाला साधु नहीं है। वे श्रील भक्तिसिद्धान्त के वचनों की सच्चाई की परख कर चुके थे। वह साधु कोई अपना दर्शन नहीं गढ़ रहा था, वह शेखी नहीं बघाड़ रहा था, न आक्रामक बन रहा था, यद्यपि उसके बात करने का ढंग ऐसा था कि उससे अन्य सभी दर्शन खोखले लग रहे थे। वे वैदिक साहित्य और ऋषियों के शाश्वत आदेशों का कथन कर रहे थे और उन्हें सुनना अभय को प्रिय लग रहा था ।

कभी अंग्रेजी और कभी बंगाली में बोलते हुए और कभी भगवद्गीता से संस्कृत श्लोकों को उद्धृत करते हुए श्रील भक्तिसिद्धान्त ने श्रीकृष्ण को सर्वोच्च वैदिक अधिकारी बताया। भगवद्गीता में कृष्ण ने घोषणा की थी कि सर्वधर्म त्याग कर मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान् की शरण में अपने को समर्पित कर दे । ( सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज ) । ' और श्रीमद्भागवत में उसी बात की पुष्टि की गई। धर्मः प्रोज्झितकैतवो त्र परमो निर्मात्सराणां सताम् अन्य सभी धर्म अपवित्र और त्याज्य हैं और केवल भागवद्-धर्म अर्थात श्रीभगवान् को प्रसन्न करने के लिए अपने कर्त्तव्य का पालन ही रक्षणीय है। श्रील भक्तिसिद्धान्त का प्रस्तुतीकरण इतना शक्तिशाली था कि किसी को भी, जो शास्त्रों को स्वीकार करता हो, उनका निष्कर्ष मान्य होना ही था ।

भक्तिसिद्धान्त ने कहा कि अब लोग नास्तिक हो गए हैं, इसलिए अब उनका विश्वास नहीं रह गया है कि भक्ति से सभी अनियमितताएँ, यहाँ तक कि राजनीतिक क्षेत्र की भी, दूर हो जाती हैं। आगे बोलते हुए उन्होंने ऐसे सभी लोगों की आलोचना की जो आत्मा के विषय में अनभिज्ञ हैं, किन्तु फिर भी नेता बनने का दावा करते हैं। उन्होंने ऐसे समकालीन नेताओं के नाम भी लिए और उनकी विफलताएँ बताईं। अमर्त्य आत्मा, कृष्ण से उसके सम्बन्ध और भक्ति के विषय में लोगों को शिक्षित बना कर, मानवता का अधिक से अधिक कल्याण करने की तात्कालिक आवश्यकता पर, उन्होंने बल दिया।

अभय को भगवान् कृष्ण की आराधना या भगवद्गीता में उनके उपदेश भूलें नहीं थे। और उनका परिवार भगवान् चैतन्य महाप्रभु की पूजा हमेशा से करता आया था। उन्हीं के मिशन का आख्यान भक्तिसिद्धान्त सरस्वती कर रहे थे। गौड़ीय मठ के लोग जिस तरह कृष्ण की पूजा करते थे, उसी तरह उन्होंने भी जीवन भर कृष्ण की पूजा की थी और वे कृष्ण को कभी नहीं भूले थे। लेकिन वैष्णव दर्शन का ऐसा सशक्त प्रस्तुतीकरण सुन कर, वे विस्मित हो गए। पढ़ाई, विवाह, राष्ट्रीय आन्दोलन और अन्य मामलों में लिप्त होते हुए भी, वे कृष्ण को कभी नहीं भूले थे, किन्तु भक्तिसिद्धान्त सरस्वती अब उनमें उनकी मूल कृष्ण-चेतना को जगा रहे थे और इस आध्यात्मिक गुरु के वचनों को सुन कर वे न केवल कृष्ण का स्मरण कर रहे थे, वरन् अपने में कृष्ण-चेतना को हजारों गुना, लाखों गुना समृद्ध अनुभव कर रहे थे। बचपन में अभय ने जो नहीं सुना था, जगन्नाथपुरी में जो उनके लिए अस्पष्ट था, कालेज में जिससे वे विरत थे, पिता ने जिससे उन्हें बचाया था, वह सब अब उन की प्रतिक्रिया - स्वरूप भावनाओं में उमड़ आया । और वे उसे बनाए रखना चाहते थे ।

वे विजित अनुभव करने लगे। लेकिन यह उन्हें पसंद आया। अचानक उन्हें अनुभूति हुई कि वे कभी पहले पराजित नहीं हुए थे। परन्तु इस पराजय से कोई हानि नहीं थी । यह बहुत बड़ा लाभ था ।

श्रील प्रभुपाद : मैं वैष्णव परिवार से था, इसलिए उनके प्रचार का मूल्य मैं समझ सकता था। बात तो वे हर एक से करते थे लेकिन मुझमें उन्होंने कुछ विशेष पाया और उनके तर्क और उनकी प्रस्तुतीकरण - शैली में मेरा विश्वास जम गया। मैं विस्मय से अभिमूत था। मेरी समझ में बात आ गईः यह एक उपयुक्त व्यक्ति है जो वास्तविक धार्मिक विचार दे सकता है |

देर हो गई; अभय और नरेन को उनसे बात करते दो घंटे हो गए थे। एक ब्रह्मचारी ने उनकी खुली हथेली पर कुछ प्रसाद रखा और वे कृतज्ञतापूर्वक उठे और अनुमति लेकर चले गए ।

वे सीढ़ी से नीचे उतर कर सड़क पर आ गए। रात अंधेरी थी । यत्र-तत्र बत्तियाँ जल रही थीं और कुछ दुकानें खुली थीं। अभय ने बड़े संतोष के साथ, उस सब पर विचार किया जिसे उन्होंने अभी सुना था । श्रील प्रभुपाद की इस व्याख्या का कि, स्वतंत्रता का आन्दोलन अस्थायी और अधूरा निमित्त है, अभय पर गहरा प्रभाव हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि वे राष्ट्रवादी कम और भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के अनुयायी अधिक हैं। उन्हें यह विचार भी आया कि अच्छा होता, यदि उनका विवाह न हुआ होता । यह महान् व्यक्ति उनसे प्रचार करने को कह रहा था। वे तुरन्त उसकी बात मान लेते, किन्तु उनका विवाह हो चुका था और परिवार का त्याग करना अन्याय होगा ।

आश्रम से जाते हुए, नरेन अपने मित्र की ओर मुड़े, “तो, अभय, तुम्हारी धारणा क्या है ? उनके विषय में तुम्हारे विचार क्या हैं ?"

" वे आश्चर्यजनक हैं!" अभय ने उत्तर दिया, "भगवान चैतन्य का संदेश एक बहुत बड़े विशेषज्ञ के हाथों में है। "

श्रील प्रभुपाद : मैने तुरन्त उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार कर लिया । औपचारिक रूप में नहीं, किन्तु अपने हृदय में। मैं सोच रहा था कि मेरी भेंट एक बहुत अच्छे साधु-स्वभाव पुरुष से हुई है।

***

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से पहली भेंट के बाद, अभय गौड़ीय मठ के भक्तों के साथ मेल-जोल बढ़ाने लगे। वे उन्हें पुस्तकें देते और अपने आध्यात्मिक गुरु का इतिहास बताते ।

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती भक्तिविनोद ठाकुर की दस संतानों में से एक थे । भक्तिविनोद ठाकुर, स्वयं महाप्रभु चैतन्य की शिष्य - परम्परा में एक महान् वैष्णव गुरु थे। भक्तिविनोद के समय से पहले, महाप्रभु चैतन्य के उपदेश ऐसे गुरुओं और सम्प्रदायों के हाथ में पड़ कर, धुंधले हो गए थे जो झूठ-मूठ अपने को महाप्रभु के अनुयायी बताते थे किन्तु जो उनकी विशुद्ध शिक्षाओं से कई तरह से बहुत दूर हट गए थे। वैष्णव धर्म की सत्कीर्ति घटने लगी थी। किन्तु भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने प्रचुर लेखों द्वारा और सरकार में एक उच्च अधिकारी होने के नाते अपनी सामाजिक स्थिति के कारण, वैष्णव धर्म की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की। उन्होंने प्रचारित किया कि महाप्रभु चैतन्य के उपदेश आस्तिकता का सर्वोत्तम रूप हैं और वे किसी सम्प्रदाय या धर्म या राष्ट्र - विशेष के लिए न होकर, विश्व की समस्त मानवता के लिए हैं। उन्होंने भविष्यवाणी की कि महाप्रभु चैतन्य की शिक्षाओं का प्रसार विश्व भर में होगा और यही उनकी मनोकामना थी ।

महाप्रभु चैतन्य द्वारा प्रचारित धर्म विश्व-भर के लिए है और वैशेषिक नहीं है... कीर्तन का सिद्धान्त संसार के भावी धर्म के रूप में विकास करने के लिए, बिना जाति या सम्प्रदाय के भेद-भाव के, सभी वर्गों के लोगों को आमंत्रित करता है । ऐसा लगता है कि यह विश्व भर में फैल जायगा और सम्प्रदायवादी धर्मों का स्थान ले लेगा जो बाहरी लोगों को मस्जिद, चर्च और मंदिर से दूर रखते हैं |

महाप्रभु चैतन्य का आगमन, केवल भारत के कुछ लोगों के उद्धार के लिए नहीं हुआ। वरन् उनका मुख्य उद्देश्य सभी देशों के सभी प्राणियों का उद्धार करना और शाश्वत धर्म का प्रचार करना था । चैतन्य भागवत् में महाप्रभु चैतन्य कहते है, "मेरे नाम का गान हर कस्बे, देश और गाँव में होगा ।" उनके इस निर्विवाद आदेश का निस्सन्देह पालन होगा।... यद्यपि अभी तक कोई विशुद्ध वैष्णव समाज अस्तित्व में नहीं आया है तो भी महाप्रभु चैतन्य की भविष्यवाणी कुछ ही दिनों में सत्य सिद्ध होगी; ऐसा मुझे विश्वास है। क्यों नहीं ? आरंभ में कोई भी वस्तु नितान्त विशुद्ध नहीं होती । अपूर्णता से ही पवित्रता का जन्म होगा ।

ओह ! वह दिन, जब भाग्यशाली अंग्रेज, फ्रांसीसी, रूसी, जर्मन और अमेरिकन जनता पताकाएँ, मृदंग और करताल लेकर अपने कस्बों और सड़कों में कीर्तन का स्वर ऊँचा करेगी ! वह दिन कब आएगा ?

एक प्रमुख मजिस्ट्रेट होने के नाते भक्तिविनोद जिम्मेदार सरकारी अधिकारी थे। वे भगवान जगन्नाथ के मंदिर के अधीक्षक भी थे और दस बच्चों के पिता थे । इन दायित्वों का भार वहन करते हुए भी वे कृष्णभक्ति का प्रचार असाधारण स्फूर्ति के साथ करते थे। शाम को आफिस से घर आने पर वे भोजन करते और आठ बजे से आधी रात तक सोते; तब उठ जाते और सवेरा होने तक लिखने का कार्य करते । उन्होंने अपने जीवन में सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें बहुत सी अंग्रेजी में थीं। उनकी देनों एक महत्त्वपूर्ण देन यह है कि जगन्नाथदास बाबा जी और गौरकिशोरदास बाबा जी के सहयोग से उन्होंने कलकत्ता से लगभग नब्बे किलोमीटर उत्तर स्थित मायापुर में भगवान् चैतन्य के ठीक जन्मस्थान का पता लगाया।

भारत में गौड़ीय वैष्णव धर्म के सुधार के लिए प्रयत्न करते हुए उन्होंने भगवान् चैतन्य से प्रार्थना की, “आपकी शिक्षाओं की बहुत अवमानना हुई है। मेरे वश में नहीं है कि मैं उनकी पुनर्स्थापना करूँ" और उन्होंने एक पुत्र के लिए प्रार्थना की जो उनके प्रचार कार्य में उनकी सहायता कर सके। जब ६ फरवरी १८७४ को जगन्नाथपुरी में भक्तिविनोद ठाकुर को भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की पुत्र प्राप्ति हुई, तो वैष्णवों ने यही समझा कि यह उनकी प्रार्थनाओं का फल है। जब भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का जन्म हुआ तो उनकी नाभिनाड़ी, ब्राह्मणों द्वारा धारण किए जाने वाले यज्ञोपवीत की तरह, गले से लिपटी हुई और छाती पर फैली थी। उनके माँ-बाप ने उनका नाम विमल प्रसाद रखा।

जब विमल प्रसाद छह मास के थे, तो जगन्नाथ उत्सव के रथ भक्तिविनोद के दरवाजे पर रुक गए और तीन दिन तक नहीं चल सके। भक्तिविनोद ठाकुर की पत्नी बच्चे को रथ तक लाईं और जगन्नाथ जी के श्रीविग्रह के सामने गईं। बच्चे ने तत्क्षण अपनी बाहें फैलाई और भगवान् जगन्नाथ के चरण छुए। तुरन्त भगवान के श्रीविग्रह से एक माला उसके ऊपर गिरी और वह कृत- मंगल हुआ। जब भक्तिविनोद ठाकुर को ज्ञात हुआ कि उनके पुत्र के ऊपर एक माला गिरी है तो उन्हें विश्वास हो गया कि यह वही पुत्र है जिसके लिए उन्होंने प्रार्थना की थी ।

एक दिन जब विमलप्रसाद केवल चार वर्ष के बच्चे थे, उनके पिताजी ने उन्हें इसलिए हल्की-सी फटकार बताई कि वे एक आम, बिना उसे भगवान् कृष्ण को अर्पित किए हुए, खा गए थे। विमलप्रसाद ने यद्यपि तब वे केवल बच्चे थे, इसे भगवान् के प्रति अपना अपराध माना, और उन्होंने फिर आम न खाने की सौगंध ले ली । ( इस सौगंध का निर्वाह उन्होंने आजीवन किया ।) सात वर्ष की अवस्था होने तक विमल को सारी भगवद्गीता कंठस्थ हो गई थी और वे उसके श्लोकों की व्याख्या भी कर सकते थे । तब उनके पिता वैष्णव- पत्रिका, सज्जन- तोषणी के प्रकाशन के सिलसिले में उन्हें मुद्रण और प्रूफ रीडिंग का प्रशिक्षण देने लगे। पिता के साथ उन्होंने बहुत से तीर्थ स्थानों की यात्राएँ की और वहाँ के विद्वान् पंडितों के प्रवचन सुने ।

छात्र के रूप में विमल को, पाठ्यपुस्तकों के स्थान पर, अपने पिता की लिखी पुस्तकें पढ़ना अधिक पसंद था । पच्चीस वर्ष की अवस्था प्राप्त करते-करते वे संस्कृत, गणित और खगोलविज्ञान में निष्णात हो गए थे और पत्रिकाओं में लेख लिखने वाले लेखक तथा प्रकाशक के रूप में उनकी प्रसिद्धि हो गई थी। सूर्य - सिद्धान्त नामक पुस्तक में प्रदर्शित विद्वत्ता के कारण वे 'सिद्धान्त सरस्वती' की उपाधि से विभूषित हुए। जब वे छब्बीस वर्ष के हुए, तब उनके पिता ने प्रसिद्ध वैष्णव संत गौरकिशोर दास बाबाजी से उन्हें दीक्षा दिलाई। बाबाजी ने उन्हें “ अन्य कार्यों को छोड़कर परम सत्य के प्रचार" का उपदेश दिया। गौरकिशोर दास बाबाजी का आशीर्वाद प्राप्त कर विमल प्रसाद ने ( जिनका नाम अब सिद्धान्त सरस्वती हो गया ) अपने शरीर, मन और वाणी को भगवान् कृष्ण की सेवा में अर्पित करने का निश्चय किया ।

सन् १९०५ ई. में सिद्धान्त सरस्वती ने व्रत लिया कि वे हरे कृष्ण मंत्रोच्चार एक खर्व बार करेंगे। मायापुर में भगवान् चैतन्य के जन्म-स्थल के निकट एक पर्णकुटी में रहते हुए वे हरे कृष्ण मंत्र दिन-रात रटते रहे । वे एक मिट्टी के पात्र में दिन में एक बार भात बनाते और अन्य कोई वस्तु न खाते। वे जमीन पर सोते और जब फूस की छत से वर्षा का जल नीचे टपकता तब भी वे एक छाता के नीचे बैठ मन्त्रोच्चार में लीन रहते ।

सन् १९११ ई. में जब उनके वृद्ध पिता बीमार पड़े थे, तो सिद्धान्त सरस्वती ने मिथ्या वैष्णवों की इस चुनौती को स्वीकार किया कि कृष्णभावनामृत के प्रचारक के लिए उनकी जाति में जन्म लेना पहली शर्त है। जाति - भावना के प्रति सचेत ब्राह्मण समाज इस बात से बहुत कुपित था कि भक्तिविनोद ठाकुर ने शास्त्रों से अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए थे कि जन्म भेद का विचार किए बिना भी कोई ब्राह्मण- वैष्णव हो सकता है। इन स्मार्त ब्राह्मणों ने, वैष्णवों की हीनता सिद्ध करने के उद्देश्य से, एक वाद-विवाद का आयोजन किया। बीमार पिता की ओर से भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने "ब्राह्मण और वैष्णव के मध्य निर्णायक अन्तर" शीर्षक से एक लेख लिखा और उसे अपने पिता के सम्मुख प्रस्तुत किया । अस्वस्थ होते हुए भी भक्तिविनोद ठाकुर आह्लादित हो उठे कि लेख के तर्कों से स्मार्तों की चुनौती भलीभाँति ध्वस्त हो जायगी ।

भक्तिसिद्धान्त सरस्वती तब मिदनापुर गए जहाँ देश भर के पंडित तीन दिवसीय वाद-विवाद के लिए इकट्ठे हुए थे। कुछ स्मार्त पंडितों का, जो बोलने वालों में पहले थे, दावा था कि शूद्र परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति, चाहे उसकी दीक्षा आध्यात्मिक गुरु से ही क्यों न हुई हो, कभी पवित्र नहीं बन सकता और श्रीविग्रह की पूजा करने या दीक्षा देने का ब्राह्मण का कार्य नहीं कर सकता । अंत में सिद्धान्त सरसवती ने अपना भाषण दिया । पहले उन्होंने वेदों के हवाले से ब्राह्मणों का गौरव गान किया। इस पर स्मार्त विद्वान बहुत प्रसन्न हुए। लेकिन जब वे ब्राह्मण बनने के लिए वास्तविक क्षमताओं का वर्णन करने लगे तथा वैष्णवों के गुण और दोनों के सम्बन्ध के बारे में बताने लगे और इस बात का विवेचन करने लगे कि वैदिक साहित्य के अनुसार आध्यात्मिक गुरु बनने और शिष्यों को दीक्षा देने के योग्य कौन है, तब वैष्णव - विरोधियों की प्रसन्नता लुप्त हो गई। सिद्धान्त सरस्वती ने शास्त्रों से यह भलीभाँति प्रमाणित कर दिया कि यदि कोई शूद्र के रूप में जन्म लेता है लेकिन वह ब्राह्मण के गुण प्रदर्शित करता है, तो उसके शूद्र- जन्म के बावजूद उसका ब्राह्मण के रूप में सम्मान होना चाहिए। और यदि कोई ब्राह्मण परिवार में जन्म लेता है, किन्तु शूद्र की तरह आचरण करता है, तो वह ब्राह्मण नहीं है। उनके भाषण के बाद सिद्धान्त सरस्वती को सभा के अध्यक्ष ने बधाई दी और उनके चारों ओर हजारों लोग इकट्ठे हो गए। यह वैष्णव धर्म की विजय थी ।

सन् १९१४ ई. में पिता का और १९१५ ई. में आध्यात्मिक गुरु का निधन होने के बाद, स्वयं सिद्धान्त सरस्वती ने भगवान् चैतन्य का मिशन जारी रखा। सज्जन-तोषणी के सम्पादन का भार उन्होंने अपने ऊपर ले लिया और कृष्ण नगर में भगवत् प्रेस की स्थापना की । तदनन्तर १९९८ ई. में मायापुर में गौरकिशोर दास बाबाजी के चित्र के सामने बैठ कर उन्होंने अपने को संन्यास आश्रम में दीक्षित किया। उस समय उन्होंने भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज नाम से संन्यासी की उपाधि धारण की ।

भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने व्रत लिया कि वे अपने प्रिंटिंग प्रेस का प्रयोग बड़े पैमाने पर कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए करेंगे। वे प्रिंटिंग प्रेस को एक बृहत् मृदंग समझते थे। यद्यपि मृदंग का प्रयोग महाप्रभु चैतन्य के काल में भी कीर्तन के साथ होने की परम्परा थी और यद्यपि स्वयं भक्तिसिद्धान्त सरस्वती भी कीर्तनियों का नेतृत्व करते थे और मृदंग बजाते और गाते हुए उनके दलों को सड़कों पर भेजते थे, लेकिन ऐसे कीर्तन मकानों के एक-दो ब्लाकों तक ही सुनाई देते थे। परन्तु प्रिंटिंग प्रेस के बृहत् मृदंग के माध्यम से महाप्रभु चैतन्य का संदेश विश्व भर में प्रसारित किया जा सकता था ।

अधिकतर साहित्य, जिसका पाठ अभय ने आरंभ किया, भक्तिसिद्धांत सरस्वती द्वारा १९१५ ई. में स्थापित किए गए भगवत् प्रेस में छपा था । भगवत् प्रेस से चैतन्य - चरितामृत छपा जिस पर भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की टीका थी । भगवत् प्रेस ने ही विश्वनाथ चक्रवर्ती की टीका सहित भगवत् गीता छापी और एक के बाद एक भक्तिविनोद ठाकुर की पुस्तकें प्रकाशित की। ये पुस्तकें भगवान् चैतन्य महाप्रभु की जो लगभग पाँच शताब्दी पूर्व हुए थे, आध्यात्मिक बपौती स्वरूप थीं ।

अभय बचपन से भगवान् चैतन्य के भक्त थे और वे बहु-ख्यात चैतन्य - चरितामृत और चैतन्य - भागवत् धर्म-ग्रंथो के द्वारा भगवान् चैतन्य के जीवन से परिचित थे। वे भगवान् चैतन्य को एक ऐसे अत्यन्त भाव- प्रवण विशुद्ध भक्त के रूप में ही नहीं जानते थे जिसने पवित्र नाम के मंत्रोच्चार को भारत-भर में फैलाया था, वरन् उन्हें स्वयं श्रीकृष्ण के अवतार रूप में भी जानते थे, ऐसे अवतार रूप में जिसमें राधा और कृष्ण दोनों का मेल हो । लेकिन अब, प्रथम बार, अभय को ऐसे साहित्य की निधि के संसर्ग में आने का अवसर मिला जिसका संग्रह महाप्रभु के निकट सहवासियों और अनुयायियों ने किया था और जो परम्परा से आगे बढ़ती आई थी और जिसका विस्तार महान् अधिकारियों ने किया था। भगवान् चैतन्य के निकट अनुगामियों—श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, श्रील जीव गोस्वामी और दूसरों- ने वैदिक शास्त्रों पर आधारित कई ग्रंथों का संकलन किया था जिनसे निर्णायक रूप में प्रमाणित होता था कि भगवान् चैतन्य के उपदेश वैदिक ज्ञान का सारभूत अंग हैं। बहुत से ग्रंथ अब भी प्रकाशित नहीं हुए थे, किन्तु श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती कई प्रेसों की स्थापना पर तुले थे, जिससे समग्र जन-समूह के लिए बृहत् मृदंग की ध्वनि उन्मुक्त की जा सके ।

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती भगवान् चैतन्य की शिक्षाओं का निष्कर्ष समझा रहे थे कि भगवान् कृष्ण श्रीभगवान् हैं और उनके पवित्र नाम के उच्चारण को अन्य सभी धार्मिक कृत्यों की अपेक्षा अधिक बल दिया जाना चाहिए । पूर्व युगों में भगवान की प्राप्ति के लिए अन्य साधन उपलब्ध थे लेकिन वर्तमान कलियुग में केवल हरे कृष्ण का कीर्तन ही प्रभावकारी हो सकता है। बृहन्नारदीय पुराण और उपनिषदों जैसे शास्त्र - ग्रंथों के आधार पर भक्तिविनोद ठाकुर ने विशेष रूप से महामंत्र का उद्धरण दिया था : हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे । भगवान् कृष्ण ने भगवद् गीता में स्वयं कहा था कि उन्हें प्राप्त करने का एकमात्र साधन भक्ति है: “सभी धर्मों को छोड़ कर केवल मेरी शरण आओ । मैं तुम्हें सभी पापकर्मों से मुक्ति दूँगा । डरो मत। "

अभय उन श्लोकों को जानते थे, वे उनका गान भी जानते थे, वे गीता का मर्म समझते थे। लेकिन जब उन्होंने महान् आचार्यों के लेखों को उत्सुकतापूर्वक पढ़ा, तो उन्हें भगवान् चैतन्य के मिशन ( उद्देश्य ) के क्षेत्र का नए सिरे से बोध हुआ। अब अपने वैष्णव रिक्थ की गहराई भी उनकी समझ में आने लगी और एक ऐसे युग के लोगों का अधिकाधिक कल्याण करने की उसकी क्षमता का भी उन्हें ज्ञान हुआ, जिसके भाग्य में उत्पात ही उत्पात लिखे हैं।

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श्रील भक्तिसिद्धान्त प्रायः यात्रा पर रहते और अभय अपने परिवार और कारोबार में व्यस्त थे, अतः दूसरी भेंट का आयोजन संभव नहीं हुआ। तो भी पहली ही भेंट से अभय ने भक्तिसिद्धान्त सरस्वती को अपना आध्यात्मिक गुरु मान लिया था, और वे हमेशा उनके बारे में सोचा करते: “मैं ऐसे अच्छे साधु-स्वभाव पुरुष से मिला हूँ।” जब भी समय होता, अभय श्रील भक्तिसिद्धान्त के शिष्यों को ढूँढ़ निकालते, जो गौड़ीय मठ के सदस्य थे ।

जहाँ तक गाँधीजी के आन्दोलन का सम्बन्ध था, गाँधीजी को गहरा धक्का पहुँचा, जब उनके अहिंसावादी अनुयायियों ने एक प्रतिवाद के दौरान भयंकर भूल की और वे हिंसाकांड पर उतर आए। अंग्रेजों ने इस अवसर का लाभ उठा कर गाँधीजी को पकड़ लिया और उन्हें छह वर्ष की कैद की सजा दे दी । यद्यपि उनके अनुयायी तब भी उनका सम्मान करते रहे, किन्तु राष्ट्रीयता का आन्दोलन बहुत-कुछ अपना वेग खो बैठा था। पर, इसके बावजूद भी, अभय की अभिरुचि अब उधर नहीं रह गई थी। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने उनके इस विचार पर विजय पा ली थी कि प्राथमिकता भारत की राष्ट्रीय स्वतंत्रता को मिलनी चाहिए। उन्होंने अभय की मूल कृष्ण - चेतना को जगा दिया था और अभय को अब विश्वास हो गया था कि भक्तिसिद्धान्त का लक्ष्य ही वास्तव में प्राथमिक था । भक्तिसिद्धान्त ने उन्हें प्रचार करने के लिए आमंत्रित किया था और उसी क्षण से अभय की इच्छा श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के एक शिष्य के रूप में गौड़ीय मठ में शामिल होने की हो गई थी । किन्तु अब राष्ट्रीय रुझाण के स्थान पर उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ थीं जो उनके मार्ग में आ रही थीं। वे अब यह नहीं सोच रहे थे कि " पहले हम स्वतंत्र राष्ट्र हो जाएँ और बाद में हम भगवान् चैतन्य के बारे में प्रचार करें।”अब वे यह सोच रहे थे कि “दूसरों की तरह मैं शामिल नहीं हो सकता। मेरे ऊपर मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ हैं ।"

और परिवार वृद्धि पर था । सन् १९२१ ई. में उनकी स्त्री को पहला बच्चा प्राप्त हुआ, जो लड़का था । और आगे और भी बच्चे होंगे और आमदनी की जरूरत होगी। धन पैदा करने का मतलब था समय और शक्ति का बलिदान और कम से कम बाहरी तौर पर इसका तात्पर्य था भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के मिशन से विरत होना । भारतीय संस्कृति में परिवार की संस्था का सम्मान सर्वाधिक था और तलाक के बारे में तो कोई जानता भी न था। महान् आर्थिक कठिनाई में होने पर भी लोग अपनी पत्नी और बच्चों को साथ रखते थे । यद्यपि अभय को इस बात का दुख था कि वे गौड़ीय मठ में संन्यासी शिष्य नहीं थे, किन्तु वे विवाह के बाद इतनी जल्दी अपनी युवा पत्नी को छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकते थे। गौर मोहन को प्रसन्नता थी कि उनके पुत्र में वैष्णव गुरु के प्रति आकर्षण था, लेकिन ऐसी आशंका नहीं थी कि अभय अपनी जिम्मेदारियों का त्याग कर संन्यासी बन जायेंगे। वैष्णव अपनी पत्नी और परिवार के साथ रह सकता था, घर पर वह आध्यात्मिक जीवन का अभ्यास कर सकता था, और एक सक्रिय प्रचारक भी बन सकता था । अभय को पारिवारिक व्यक्ति होते हुए ऐसा उपाय निकालना था कि वे भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हो सकें।

अभय ने सोचा कि यदि कारोबार में उन्हें सफलता मिल जाए तो वे न केवल अपने परिवार के पोषण पर धन खर्च कर सकते थे, वरन् कृष्णभावनामृत के प्रसार के श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के मिशन में भी सहायक हो सकते थे। एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी भी की थी कि अभय भारत के सबसे धनी व्यक्तियों में एक होंगे। लेकिन अपनी वर्तमान आय से वे परिवार के पोषण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकते थे। उन्होंने सोचा कि यदि वे कोई अपना धंधा कर लें, तो शायद हालत अच्छी हो सकती है।

अभय ने अपनी भावनाओं को डा. बोस के सामने प्रकट किया जो एक सहानुभूतिपूर्ण पिता की तरह उनकी बात सुनते रहे। तब उन्होंने अभय को सुझाव दिया कि वे पूरे उत्तरी भारत के लिए उनके एजेंट बन जाएँ । अभय डा. बोस की फैक्टरी से थोक भाव पर दवाएँ, लिनेमेण्ट, परिष्कृत स्पिरिट, दाँत का मंजन और अन्य वस्तुएँ खरीद सकते थे और सारे उत्तरी भारत में यात्रा करके अपना धंधा जमा सकते थे। अभय को बोस की फैक्टरी में इतना अनुभव हो गया था कि वे अपनी ओर से कुछ दवाएँ तथा अन्य वस्तुएँ बना कर उन्हें बेच भी सकते थे। डा. बोस और अभय ने तय किया कि केन्द्र में स्थित इलाहाबाद नगर को मुख्यालय बनाना ठीक रहेगा ।

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सन् १९२३ ई. में अभय, उनकी पत्नी और बच्चा कलकत्ता से उत्तर-पश्चिम में १२ घंटे की ट्रेन यात्रा के बाद इलाहाबाद पहुँचे। अँग्रेजों ने एक बार इलाहाबाद को संयुक्त प्रान्त की राजधानी बनाया था। उन्होंने वहाँ बहुत सी अच्छी इमारतें बनाई थीं जिनमें उच्च न्यायालय और विश्वविद्यालय की इमारतें भी थीं। योरोपीय और नेहरू जैसे सम्पन्न भारतीय परिवार नगर के पक्की सड़कों और रोशनी वाले आधुनिक भाग में रहते थे। शहर का एक दूसरा भाग भी था जो पुराना था, जिसमें पुरानी संकरी सड़कें थीं, जिनके दोनों ओर घने मकानों और दुकानों की पंक्तियाँ थीं। इस भाग में बहुत से बंगाली रहते थे। अभय ने इसी भाग में अपने परिवार को बसाने का फैसला किया।

अभय ने इलाहाबाद का, जो परम्परा से प्रयाग कहलाता था, चयन इसलिए किया कि वह कारोबार के लिए अच्छा स्थान हो सकता था। वह भारत के सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में से भी एक था। भारत की तीन सर्वाधिक पवित्र नदियों— गंगा, यमुना, सरस्वती के संगम पर स्थित इलाहाबाद भारत के दो आध्यात्मिक समारोहों की स्थली था जिसमें असंख्य लोग भाग लेते थे। ये समारोह थे वार्षिक माघ मेला और बारह वर्ष में एक बार लगने वाला कुंभ मेला । आध्यात्मिक शुचिता की खोज में देश भर से लाखों तीर्थ-यात्री हर साल माघ की पूर्णिमा को यहाँ इकठ्ठे होते थे और तीनों पवित्र नदियों के संगम में स्नान करते थे |

अभय के किराए के घर में, जिसका नम्बर ६०, बादशाही मंडी था, कुछ ही कमरे थे। अपने कारोबार के लिए उन्होंने जान्सटनगंज रोड के व्यावसायिक केन्द्र में एक छोटी सी दूकान किराए पर ली। उसमें उन्होंने छोटी-सी प्रयाग फार्मेसी नाम से अपनी डिसपेंसरी खोली और बोस लेबोरेटरी में निर्मित दवाएँ, टिंक्चर, सिरप और दूसरी वस्तुएँ बेचना आरंभ किया। उनकी भेंट इलाहाबाद के एक चिकित्सक डा. घोष से हुई जिन्होंने उनके धंधे में हिस्सेदार बनने में अभिरुचि दिखाई। इसलिए अभय ने उनसे अपनी फार्मेसी में चिकित्सक के रूप में काम करने को कहा। डा. घोष राजी हो गए और उन्होंने अपनी दूकान 'ट्रापिकल फार्मेसी' बंद कर दी ।

प्रयाग फार्मेसी में डा. घोष रोगों का निदान करते और दवाएँ लिख देते । अभय तदनुसार दवाएँ देते। डा. घोष को दवाओं की बिक्री पर पच्चीस प्रतिशत कमीशन मिलता। अभय और डा. घोष में मित्रता हो गई। वे एक दूसरे के घर जाते और एक दूसरे के बच्चों को अपने ही परिवार का सदस्य समझते । प्रायः वे लाभांश बढ़ाने के अपने मन्सूबों पर भी विचार-विमर्श करते ।

डा. घोष : अभय व्यवसायी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। हम स्वभाव से ही धर्म - भीरू थे। हमारे यहाँ हर घर में एक छोटा मंदिर होता है और उसमें अर्चा-विग्रह का होना जरुरी है। लेकिन वे हमेंशा धंधे के बारे में और परिवार का खर्च चलाने के बारे में बात करते ।

यद्यपि घर पर अभय धोती-कुर्ता पहनते, किन्तु काम-धंधे के सिलसिले में कभी-कभी वे कमीज और पतलून धारण कर लेते। वे तीस वर्ष की अवस्था के आस-पास, सुन्दर दिखने वाले, पूरी मूंछ रखने वाले और फुर्तीले नवयुवक थे। अब उनके और राधारानी दे के दो बच्चे थे - इलाहाबाद में आने के एक वर्ष बाद उनको एक लड़की पैदा हुई थी। गौर मोहन, जो अब पचहत्तर वर्ष के थे, उनके साथ रहने के लिए इलाहाबाद आ गए थे, ठीक वैसे ही जैसे उनकी विधवा बहिन राजेश्वरी अपने लड़के तुलसी के साथ आ गई थी। गौर मोहन अधिकतर घर पर रहते, माला फेरते हुए हरे कृष्ण मंत्र का जप करते और कृष्ण के शालग्राम शिला-विग्रह की पूजा करते। उन्हें संतोष था कि अभय का धंधा ठीक से चल रहा और अभय को संतोष था कि उनके पिताजी उनके साथ आराम से रह रहे हैं और स्वतंत्रतापूर्वक कृष्ण की पूजा-अर्चा में लगे हैं।

अभय का जीवन बहुत व्यस्त था। वे अपना धंधा बढ़ाने पर तुले थे । आठ बजे तक वे अपनी फार्मेसी पहुँच जाते जहाँ उनकी भेंट डा. घोष से होती और दिन का काम शुरू हो जाता। दोपहर में वे घर आते और तीसरे पहर देर से फिर फार्मेसी जाते। उन्होंने एक बुइक गाड़ी आठ हजार रुपए में खरीद ली थी । उसे उन्होंने स्वयं कभी नहीं चलाया, वरन् अपने भतीजे को, जो अच्छा ड्राइवर था, टैक्सी के रूप में उपयोग करने के लिए दे दिया था। कभी कभी अभय धंधे के सिलसिले में अपनी गाड़ी में यात्रा पर निकलते; तब उनका भतीजा उनके ड्राइवर का काम करता।

संयोग से मोतीलाल नेहरू और उनके लड़के जवाहरलाल नेहरू दोनों प्रयाग फार्मेसी के ग्राहक थे। जवाहरलाल नेहरू हमेशा पाश्चात्य दवाएँ मांगते थे; इसलिए अभय को लगा कि जवाहरलाल हिन्दुस्तानी तरीकों को जरूर घटिया समझते होंगे। एक बार जवाहरलाल नेहरू अभय के पास राजनीतिक कार्यों के लिए चंदा मांगने गए; अभय कर्तव्यनिष्ठ व्यवसायी थे, अतः उन्होंने चंदा दे दिया। दिन में जो ग्राहक या मित्र दूकान में आ जाते अभय उनसे बातें करते और वे उन्हें बहुत सी चीजों के बारे में बताते। एक अवकाश प्राप्त सैनिक अधिकारी अभय को प्रथम विश्व युद्ध के सम्बन्ध में कहानियाँ सुनाया करते थे। उन्होंने बताया कि किस प्रकार फ्रांस में मार्शल फोश ने एक दिन हजारों बेलजियम शरणार्थियों को मार डालने का आदेश इसलिए दिया कि युद्ध क्षेत्र में उन्हें खाना देना भार सिद्ध हो रहा था। एक मुसलमान सज्जन जो अफगानिस्तान के एक शाही परिवार के सदस्य थे, नित्य अपने लड़के के साथ अभय की दुकान पर आते और गप्पें लगाते। अभय दूकान पर आने वालों की बातें सुनते, प्रसन्नता के साथ उनसे वार्तालाप करते, उन्हें दवाइयाँ देते, लेकिन उनका मन भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से भेंट की ओर हमेशा भागा करता । भक्तिसिद्धान्त उन्हें कैसे लगे थे, उनकी भाव-भंगिमा कैसी थी, उन्होंने क्या कहा था—ये सारी बातें उनके मन में बार-बार आती थीं ।

रात में अभय अपनी स्त्री और बच्चों के पास लौटते । राधारानी पति - व्रता और साध्वी पत्नी थीं जो अपना समय भोजन बनाने, सफाई करने और दोनों बच्चों के पालन-पोषण में बितातीं थीं। लेकिन उनकी रुचि अपने पति के आध्यात्मिक कार्य-कलापों में भाग लेने की ओर नहीं थी । अभय भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के प्रति अपनी भावनाओं को उनके सामने प्रकट नहीं कर सकते थे ।

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अभय, उनकी स्त्री, उनके दोनों बच्चे, गौर मोहन, अभय के छोटे भाई कृष्ण चरण, अभय की विधवा बहिन राजेश्वरी और उनका पुत्र तुलसीदास, सभी इलाहाबाद के एक स्टूडियो में पूरे परिवार का चित्र खिंचाने गए। फोटो में अभय तीस के लगभग लगते हैं। वे दुबले-पतले, साँवले रंग के हैं और पूरी मूँछें रखें हैं। उनका मस्तक प्रशस्त है, आखें निर्मल श्याम वर्ण की हैं। वे सफेद धोती कुर्ता और सादे काले चप्पल पहने हैं। वे कुर्सी पर बैठे हैं, उनकी स्त्री पीछे खड़ी हैं— रंगीन किनारे की सफेद खद्दर की साड़ी में आकर्षक युवती के रूप में। उनकी दुबली बाँह अभय के सिर के पीछे कुर्सी पर रखी है, छोटे-से हाथ से वे कुर्सी का सिरा पकड़े हैं। बायाँ हाथ बगल में लटक रहा है, उसकी मुठ्ठी बंधी है। वह नंगे पाँव है । अभय बाएँ हाथ से अपने दो साल के प्रफुल्लित बच्चे 'पाचा' (प्रयागराज ) को, जो अंगों को ऐंठ-सा रहा है, अपनी गोद में शान्त कर रहे हैं। बच्चे की छोटी टाँगें और नंगे पैर माँ के घुटनों से लगे हैं। बच्चे को गोद में लिए हुए अभय कुछ प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं। अभय एक सुंदर भारतीय लगते हैं, उनकी पत्नी आकर्षक महिला; दोनो युवा हैं।

अभय के पीछे उनका भानजा तुलसी और उनके भाई कृष्णचरण खड़े हैं। उनकी दाहिनी ओर सिरे पर उनकी बहिन राजेश्वरी, विधवा की सफेद साड़ी पहने, बैठी हैं। उनकी गोद में अभय की लड़की सुलक्ष्मण है। वह भी अपने अंगों को ऐंठ रही है। उसके पैर फोटोग्राफर की ओर फैले हैं। बीच में गौर मोहन बैठे हैं। उनके चेहरे पर सिकुड़नें हैं और अवस्था के कारण शरीर निर्बल है। वे भी सफेद कुर्ता और धोती पहने हैं। उनके हाथ, शायद कँपकपी के कारण, हिल से रहे हैं। वे नाटे, लघु-काय और वृद्ध हैं ।

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अभय पूरे उत्तर भारत की यात्रा प्राय: करते थे। वे अपनी बिक्री बढ़ाने पर तुले हुए थे। सप्ताह में कई दिन बाहर रहना उनके लिए सामान्य बात थी। कभी-कभी वे एक साथ एक-दो सप्ताह के लिए निकल जाते थे और एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा करते थे। ओषधि - निर्माण उद्योग तब भारत वर्ष में आरंभ हो ही रहा था और बोस - लैबोरेटरी के योग्य एवं सज्जन एजेंट से डाक्टरों, अस्पतालों और दवाखानों के लोगों को दवाएँ खरीदना अच्छा लगता था ।

अभय ट्रेन से यात्रा करते और होटलों में ठहरते थे। यात्रा में, जो घर से छुटकारे की भावना पैदा होती, वह उन्हें पसन्द थी, किन्तु यात्रा की मुख्य प्रेरणा पुराने ग्राहकों के संपर्क और नए ग्राहकों की प्राप्ति से मिलती थी। यही उनका धंधा था। बिना आरक्षण के तीसरे दर्जे की यात्रा प्राय: असुविधाजनक होती; बेंचों पर बैठना पड़ता, जो अक्सर गंदी होतीं, और बिना आरक्षण के यात्रियों की भीड़ रहती । लेकिन अभय इसी हालत में हर सप्ताह सैंकड़ों मील की यात्रा करते। गाड़ी जब एक शहर से दूसरे शहर को चलती रहती तो वे लाइन के दोनों ओर के असंख्य छोटे गाँवों और सामने फैले मैदानों को देखा करते। हर स्टेशन पर उन्हें चाय बेचने वालों की आवाज सुनाई देती जो गाड़ी की खिड़कियों के सामने "चाय ! चाय !”की आवाज लगाते हुए आगे बढ़ते जाते । अंग्रेजों ने देश में चाय का प्रवेश कराया था और अब लाखों लोगों को विश्वास हो गया था कि सवेरे की एक छोटा गिलास गरम चाय के बिना उनका काम नहीं चलेगा। पक्के वैष्णव होने के कारण अभय चाय कभी न छूते, लेकिन उनके लिए यह अप्रसन्नता का विषय था कि उनकी पत्नी नियमित चाय पीने वाली हो रही थीं ।

यद्यपि अभय की एक योरोपीय व्यवसायी की भाँति वेश-भूषा धारण करने की आदत थी, लेकिन अपने पक्के वैष्णव सिद्धान्तों में उन्होंने ढिलाई कभी नहीं आने दी। उनके अधिकतर बंगाली साथी मछली खाने लगे थे, लेकिन अभय, होटलों में भी, अवैष्णव भोजन से हमेशा बचते। एक बार बम्बई के एक निरामिष होटल में, जिसका नाम अम्पायर हिन्दू होटल था, उनके सामने प्याज परसा गया था और कभी - कभी होटल के लोग लहसुन, छत्रा (मशरूम) या अंडे तक परोस देते थे; अभय हमेशा ऐसे पदार्थों को खाने से अपने को सावधानीपूर्वक बचा लेते थे। घर पर पड़ी आदत के अनुसार वे सवेरे ही ठंडे पानी से नहा लेते थे। यह नियम वे साल के तीन सौ पैंसठ दिन निभाते। जब वे सहारनपुर में थे, तो कठोर जाड़े की ऋतु में भी वैसा ही करते थे जिसे देखकर होटलवाला स्तंभित रह जाता था ।

अभय अपनी यात्राओं के दौरान लोगों से खूब बातें करते थे। एक बार ढाका में एक डाक्टर ने उन्हें बताया कि आफिस जाते हुए मार्ग में उसने एक किसान को अपने मित्र से बात करते हुए देखा और किसान की खाँसी की आवाज से उसने कह दिया कि उसकी मृत्यु कुछ ही घंटों में हो जायगी । एक दूसरे डाक्टर ने उन्हें बताया कि वह तुरन्त ही एक निमोनिया के रोगी को देख कर लौटा है जो प्रकृति और आयुर्विज्ञान के नियमों की अवहेलना करके जीते जा रहा है। गया में उनकी भेंट एक मुसलमान डाक्टर से हुई जिसका रोना यह था कि सबसे अच्छी दवा देने के बावजूद उसका रोगी मर गया। डाक्टरी पेशा के लोगों से ऐसे विवरण सुन कर अभय को विश्वास हो गया कि भगवान की इच्छा बिना, किसी को बचाया नहीं जा सकता । ऐसा नहीं है कि दवाएँ बेचने को वे जनहितैषी कार्य मानते हों; भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने उनके मन में विश्वास जमा दिया था कि किसी व्यक्ति को बचाने का सर्वोत्तम उपाय उसे श्रीकृष्ण भावनामृत देना है। अभय की दवाइयाँ तो केवल व्यवसाय के लिए थीं।

१९२५ ई. की बात है; एक व्यावसायिक यात्रा में वे आगरा होकर निकले, जो वृन्दावन से केवल ६० किलोमीटर दूर है। इस अवसर से लाभ उठाकर उन्होंने पवित्र वृन्दावन की प्रथम तीर्थयात्रा की और इस प्रकार अपने बचपन की अभिलाषा पूरी की। वृन्दावन के दर्शन से उन्हें प्रसन्नता हुई, लेकिन वहाँ वे केवल एक-दो दिन ही रह सके; विक्रय कार्य से एक दिन भी अलग रहना उनके लिए कठिन था । श्रद्धालु तीर्थयात्री के रूप में अभय ने कुछ मंदिरों के दर्शन किए, विशेष कर उन मुख्य मन्दिरों के जो महाप्रभु चैतन्य के अनुयायियों ने स्थापित किए थे, लेकिन उन्हें आगे बढ़ जाना पड़ा ।

यात्रा में खतरे भी थे। एक बार वे मथुरा स्टेशन पर गाड़ी के डिब्बे में बैठे थे कि अचानक एक बंदर घुसा और उनका सब सामान उठा ले गया। एक दिन बड़े सवेरे एक घोड़ा गाड़ी में वे कानपुर जा रहे थे। घोड़ा बड़ी तेजी से भाग रहा था। अकस्मात् सड़क के बीच में पड़े कूड़े के ढेर से वह टकरा गया। घोड़ा गाड़ी उलट गई। घोड़ा, ड्राईवर और गाड़ी सभी जमीन पर जा गिरे; अभय हवा में उछाल खा गए। लेकिन जब वे जमीन पर आए, उन्हें कोई चोट नहीं लगी, मानों एक सीट से वे दूसरी सीट पर बैठ गए हों। चूँकि वे चुपचाप बैठे थे और कुछ बोले नहीं, इसलिए ड्राइवर ने समझा कि वे बेहोश हो गए हैं और वह घबरा गया। लेकिन वे बिल्कुल ठीक थे। ड्राइवर ने इसे एक आश्चर्य ही माना, क्योंकि गाड़ी से वे बहुत जोर से फेंके गए थे। अभय का विचार था कि उन्हें कृष्ण भगवान् ने बचा लिया है। उन्हें इस तरह की अन्य घटनाएँ याद आईं। एक घटना बचपन की थी जब उनके कपड़ों में आग लग गई थी । कृष्ण भगवान् ने हमेशा उनकी रक्षा की थी ।

अभय पाँच वर्ष तक इलाहाबाद से बाहर लम्बी यात्राएँ करते रहे और जब वे घर आते तो घंटों दवाखाने में बिताते। लेकिन वे पत्नी को भी समय देते और बच्चों के साथ खेल-तमाशा करते ।

श्रील प्रभुपाद : जब मेरा लड़का दो साल का था तब वह बहुत चंचल था। वह कोई न कोई शरारत करता ही रहता । मेरे मित्र मेरे घर आते और बच्चे, पाचा, को बुला कर कहते, "पाचा, अगर तुम एक मिनट तक शान्त बैठो, तो मैं तुम्हें एक भेंट दूँगा । ”लेकिन बच्चा यह न कर पाता। वह एक मिनट के लिए भी शान्त नहीं रह सकता था। घर में एक टेबल फैन था और पाचा उसे छूना चाहता था । मैंने कहा, "नहीं, नहीं, उसे मत छुओ । ”लेकिन उसने उसे छूने की फिर कोशिश की; इसलिए मेरे मित्र ने कहा, “उसकी गति धीमी कर दो और उसे छूने दो ।" तब मैंने प्लग निकाल दिया और उसने पंखे को छू लिया। उसे क्षति नहीं पहुँची, लेकिन वह उसकी अगुंली से टकराया और जोर की आवाज पैदा हुई—टुंग... । उसके बाद उसने उसे नहीं छुआ । मैं छूने को कहता फिर भी वह न छूता ।

ज्योंही उनकी कन्या, सुलक्ष्मण, बोलने लगी, वे उसे गुरु अष्टकम् प्रार्थना का बंगाली अनुवाद पढ़ाने लगे। उसका आरंभ है, “आध्यात्मिक गुरु दया के सागर से आशीर्वचन प्राप्त कर रहे हैं। जैसे बादल जंगल में लगी आग को बुझाने के लिए जल - वृष्टि करता है, वैसे ही आध्यात्मिक गुरु भौतिक जीवन, पुनर्जन्म और मृत्यु की धधकती आग को बुझाते हैं |"

अनिवार्य यात्राओं को छोड़ कर अभय घर पर रहते और अपने परिवार को संतुष्ट रखते । अपने धंधे में वे परिश्रमपूर्वक लगे रहे और वह उन्नति करता गया ।

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जनवरी, सन् १९२८ ई. के कुंभ मेले का अवसर था । गौड़ीय मठ के भक्तिप्रदीप तीर्थ महाराज कुछ लोगों के साथ इलाहाबाद आए थे। एक दिन वे सब बिना सूचना के प्रयाग फार्मेसी जा पहुँचे, और इतने सालों बाद अभय ने उन सब को अचानक पुनः देखा । "ओह ! ये वे ही लोग हैं जिन्हें मैं पहले देख चुका हूँ,”उनके मुँह से निकला, “गौड़ीय मठ के लोग, हाँ, अंदर आइए।

भक्तिप्रदीप तीर्थ स्वामी वही संन्यासी थे जो कलकत्ता में नरेन्द्रनाथ मल्लिक के घर पर गए थे। उनका वह आगमन अभय के भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के पास जाने का कारण बना था । विनम्रतापूर्वक दोनों हाथ जोड़ कर वे अभय के सामने खड़े हो गए। वे गेरुए रंग के साधारण खादी वस्त्र पहने थे, सिर मुंडा था, उसके पिछले भाग में शिखा रूप में रोमगुल्लक था, माथे पर वैष्णव तिलक लगा था। तीर्थ महाराज अभय से बोले, "हम यहाँ के लिए नए हैं। हम इलाहाबाद में एक मंदिर स्थापित करने जा रहे हैं। हमने आपका नाम सुना है, इसलिए हम आपके पास आए हैं। कृपा करके हमारी सहायता कीजिए।"

अभय हर्षित हुए: “हाँ, मैं आपकी सहायता करूँगा।" जितना धन वे दे सकते थे, उन्होंने दिया और उसके बाद उन्होंने तीर्थ महाराज का परिचय डा. घोष से कराया । डा. घोष ने भी धन दिया ।

अभय ने गौड़ीय मठ के भक्तों को भजन और भाषण के लिए अपने घर पर आमंत्रित किया; उनकी पत्नी को प्रसाद तैयार करना था । आमंत्रण स्वीकार हो गया, लेकिन जब वे लोग अभय के घर पहुँचे तो एक गलतफहमी हो गई। गौर मोहन, जो निर्बल थे, अपने ऊपर के कमरे में रह रहे थे । अभय ने पुकारा, “कृपया नीचे आ जाइए। गौड़ीय मठ के भक्तों की बैठक है ।" गौर मोहन नीचे उतर आए। लेकिन जब उन्होंने साधुओं को देखा तो उन्हें गलतफहमी हो गई कि वे ऐसे ही किसी सधुक्कड सम्प्रदाय के ऐरे गैरे लोग हैं। अभय ने जो कुछ कहा था, वह उन्हें ठीक से सुनाई नहीं पड़ा था। गौर मोहन बैठ गए, लेकिन उन्होंने पीत- कोपीन साधुओं को उदासीन भाव से देखा और कुछ व्यंग्योक्ति भी की। अभय, जो उत्साह से भरे थे कि उन्हें वैष्णवों के संसर्ग में आने और उनके मुख से श्रीकृष्ण - कथा सुनने का अवसर मिला है, अपने पिता के ऐसे व्यवहार को नहीं समझ सके। पर ज्योंही भक्तिप्रदीप तीर्थ स्वामी ने अपना भाषण आरंभ किया, गौर मोहन की समझ में सारी बात आ गई । “ओह, वे वैष्णव हैं। ”उनके मुँह से आवाज आई। वृद्ध और निर्बल तो वे थे ही, वे उनके चरणों पर लोट गए : " महोदय, मैंने आपको गलत समझा था। मैने सोचा, आप किसी अन्य सम्प्रदाय के संन्यासी हैं। मुझे आपके दर्शनों से प्रसन्नता है । "

माघ मेला के बाद प्रदीप तीर्थ स्वामी तो चले गए; लेकिन भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के पाँच-छह ब्रह्मचारी शिष्य इलाहाबाद में रुक कर एक छोटे मठ का संचालन करने लगे। वे श्रीविग्रह की पूजा करते, संध्या समय कीर्तन और भाषण का कार्यक्रम रखते और स्थानीय लोगों में सक्रियता से प्रचार करते । प्रधान शिष्य अतुलानन्द ब्रह्मचारी इलाहाबाद के नागरिकों के घरों पर जाते और उनसे मठ का ग्राहक सदस्य बनने का अनुरोध करते; एक ग्राहक - सदस्य को प्रतिमास आठ आने में गौड़ीय मठ की पत्रिका प्राप्त होती थी ।

घर-घर ग्राहक बनाने के अभियान में अतुलानन्द एक दिन अभय चरण दे के घर जा पहुँचे। अभय ने उनका स्वागत किया और भेंट में कुछ चावल और फल दिये। वैष्णव-दर्शन के लिए अभय के कान सदा खुले थे और अतुलानन्द के साथ वाद-विवाद में उन्हें आनन्द आता था। अतुलानन्द नियमत: मिस्टर दे के यहाँ जाते और महाप्रभु चैतन्य तथा भगवद्गीता के विषयों पर उनसे वार्तालाप करते। अभय श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के हाल के क्रिया-कलापों के बारे में भी उनसे पूछते । तब तक श्रील भक्तिसिद्धान्त कलकत्ता में गौड़ीय प्रिंटिंग वर्क्स की स्थापना कर चुके थे और अपनी टीका समेत कई खंडों में श्रीमद्भागवत का प्रकाशन आरंभ कर चुके थे। अपने ढाका केन्द्र से उन्होंने श्री चैतन्य- भागवत् का सम्पादित संस्करण भी प्रकाशित किया था । मद्रास, भुवनेश्वर और पुरी में वे केन्द्र स्थापित कर चुके थे।

अभय की जिज्ञासा का अंत नहीं था। अतुलानन्द ने उन्हें बताया कि श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने किस प्रकार १९२५ ई. में एक बड़ा जुलूस निकाला था जिसने नवद्वीप की पवित्र भूमि की परिक्रमा की थी और जिसमें खूब सजे हुए हाथियों पर श्रीविग्रह विराजमान थे और भारत के सभी भागों से आए हुए भक्त जिसमें शामिल हुए थे । ईर्ष्यालु पेशेवर पुरोहितों ने, जो श्रील भक्तिसिद्धान्त द्वारा सभी जातियों से शिष्य स्वीकार किए जाने के विरोधी थे, जुलूस पर ईंटें और पत्थर बरसाने के लिए बदमाश लगा रखे थे। लेकिन भक्तिसिद्धान्त निडर होकर जुलूस आगे बढ़ाते गए थे । १९२६ ई. में भगवान् चैतन्य का संदेश फैलाने के लिए, वे पूरे देश में घूम आए थे । मायापुरी में श्री चैतन्य मठ के विशाल मंदिर में वे श्रीविग्रहों की स्थापना भी कर चुके थे। एक साल पूर्व उन्होंने सज्जन- तोषणी पत्रिका का प्रकाशन तीन भाषाओं में आरंभ किया था जिनमें एक अंग्रेजी संस्करण भी था । इस भाषा में पत्रिका का नाम हारमोनिस्ट था ।

कई बार मिलने और गौड़ीय वैष्णव मत के क्रिया-कलापों और दर्शन पर घंटों के वाद-विवाद के बाद, अतुलानन्द मिस्टर दे को इलाहाबाद आश्रम में ले गए। उसके कुछ समय बाद ही मठ रामबाग के निकट साउथ मलाका स्ट्रीट में एक किराए के मकान में चला गया। यह मकान अभय के मकान के बिल्कुल निकट था। अब अभय के लिए प्रतिदिन शाम को वहाँ जाना संभव हो गया। काम के बाद वे मठ पर जाते जहाँ वे मृदंग बजाते और इस कला में अपनी दक्षता से ब्रह्मचारियों को चमत्कृत कर देते। उनके साथ वे भजन गाते और कभी-कभी सामूहिक गान में नेतृत्व करते । वे इलाहाबाद के प्रसिद्ध व्यक्तियों को भी मठ में ले आते। ब्रह्मचारियों के लिए अभय के कारण उनके आश्रम में नया जीवन आ गया था और अभय को, भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के शिष्यों से पुनः मिलाप होने से, नए जीवन की अनुभूति होने लगी थी ।

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सन् १९३० ई. में गौर मोहन का स्वास्थ्य पहले से गिर गया, और उनके परिवार के सदस्य यह सोच कर उनके पास इकठ्ठे होने लगे कि उनका अंत समय निकट आ गया है। अभय काम से बम्बई गए हुए थे । जब वे इलाहाबाद लौटे तो देर हो चुकी थी। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। गौर मोहन ने अपनी लड़की, राजेश्वरी से कहा, दरवाजा खोलो, अभय आ गया है।" राजेश्वरी बोली, "नहीं, वे बम्बई में हैं।”गौर मोहन ने दुहराया, “मैं कहता हूँ, वह आ गया है। तुम दरवाजा खोलो।” करीब आधी रात का समय था । राजेश्वरी नीचे गई और उसने दरवाजा खोला, और देखा कि उसके भाई सचमुच आ गए हैं। अभय अपने पिता के पास पहुँचे और पूछा, “आप कैसे हैं ? "

गौर मोहन ने उत्तर दिया, "मैं ठीक हूँ। रात में तुम विश्राम करो। "

अगले दिन सवेरे अभय ने डाक्टर बुलाया। डाक्टर बोला, “आपके पिता जीवित कैसे हैं, मेरी समझ में नहीं आता। उनकी नाड़ी लगभग बंद हो चुकी है। कई महीनों से वे बिना खाये हैं।"

अभय ने पिता से पूछा, “आप की इच्छा क्या है? मुझे बताइए ।"

"ऐसा क्यों पूछ रहे हो,” पिता ने उत्तर दिया, “क्या डाक्टर ने तुमसे कुछ कहा है ?"

अभय ने कहा, "नहीं, मैं इसलिए पूछ रहा हूँ कि मैं बम्बई में रुका हूँ और आप यहाँ हैं। इसलिए आपकी यदि कोई इच्छा हो, कोई आकांक्षा हो तो मुझे बताएँ। मैं यहाँ हूँ, मैं यहाँ आपके लिए हूँ।” गौर मोहन ने कहा कि अपनी गाय इलाहाबाद गौड़ीय मठ को दे दो । अस्तु, अभय गाय को उसके बछड़े सहित ले गए और उन्हें मठ को दान कर दिया।

तब उन्होंने अपने पिताजी से पूछा, “आपकी और कोई अभिलाषा है ?"

और उनके पिता ने फिर पूछा, "क्या डाक्टर ने तुमसे कुछ कहा है ?”

"नहीं, नहीं, मैं केवल इसलिए पूछ रहा हूँ कि मुझे अपने काम पर जाना है । "

तब गौर मोहन ने कहा, “इलाहाबाद के सभी गौड़ीय वैष्णवों को और अन्य वैष्णवों को भी आमंत्रित करो। वे शाम को हरिनाम का गान करें और तुम उन्हें अच्छा भोजन कराओ। यही मेरी इच्छा है।" अभय ने वैसा ही किया, और संध्या - समय 'हरिनाम' आरंभ हुआ । ग्यारह बजे प्रसाद ग्रहण करके सब चले गए। उसी रात गौर मोहन का देहावसान हो गया ।

अभय को अपने पिता की मृत्यु से बड़ा दुख हुआ । पिता ने उन्हें वह सब कुछ दिया था जो वे चाहते थे। विशुद्ध वैष्णव के रूप में उन्हें पाल कर बड़ा किया था और वे सदैव श्री राधा और कृष्ण की पूजा करते रहे । यद्यपि अभय बहुत योग्य नवयुवक थे, तथापि अपने सबसे प्रिय संरक्षक और मित्र का अभाव उन्हें बहुत खला । गौर मोहन ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो हमेशा अभय का मार्ग-दर्शन करते रहे और अति विशिष्ट पुरुष के रूप में उनके साथ व्यवहार करते रहे। पिता से रहित होकर अभय अपने को निराश अनुभव करने लगे। अचानक उन्हें वैसे ही आश्रय की आवश्यकता मालूम हुई जैसे बचपन में होती थी। किन्तु अब वे बिना पिता के थे । अभय के वह शुभचिन्तक अब संसार से जा चुके थे, जो उन्हें हमेशा अपने ऐसे प्रिय पुत्र की तरह रखते आए थे जिसे हर प्रकार से प्रेम - सहित देख-भाल की जरूरत थी, जो उन्हें वह हर वस्तु देते रहे जिसे वे चाहते थे, और जो मिलने वाले हर साधु-संत से प्रार्थना करते थे कि उनका पुत्र श्रीमती राधारानी का सच्चा पुजारी बने ।

गौर मोहन की मृत्यु के तेरह दिन बाद श्राद्ध के दिन अभय और उनके भाई ने एक साथ फोटो खिचवाया । धार्मिक रीति के अनुसार दोनो भाइयों के सिर मुंडे थे। फोटो में अभय और उनके भाई अपने पिताजी के एक औपचारिक चित्र के अगल-बगल बैठे हैं। पिता का चित्र उठे हुए फलक पर है और काले कपड़े से घिरा है। वह खूबसूरती से मढ़ा है। गौर मोहन वृद्ध, किन्तु विचार और आशय से पूर्ण दिखाई देते हैं। इस चित्र में वे उतने वृद्ध नहीं है जितने उस पूर्व चित्र में थे जिसमें वे बहुत दुर्बल लगते हैं और आँखे लगभग प्रकाशहीन हो रही हैं।

मुंडित - सिर अभय संन्यस्त भिक्षु प्रतीत होते हैं। उनका शरीर चौड़ी परतों में मुड़े भिक्षु के परिधान से ऊपर से नीचे तक आच्छादित है— वे उस चित्र से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होते हैं, जो उसी स्थान पर उसी मोटे कालीन के ऊपर सालों पहले खींचा गया था । वह उनकी स्त्री - बच्चों के साथ का चित्र है। उसमें वे एकदम युवा गृहस्थ लगते हैं जिसके ऊपर परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ हैं और जिसकी भंगिमा बताती है कि वह जानता है कि उसे संसार में कैसे रहना है और कैसे स्फूर्तिमय ढंग से आचरण करना है। लेकिन इस चित्र में, यद्यपि बच्चे यहाँ भी हैं, वे जमीन पर उपेक्षित बैठे हैं। अभय का बायाँ हाथ उनके घुटने पर है, अच्छी तरह रखा हुआ, किन्तु विश्राम की हालत में, जबकि पहले चित्र में उनका बायाँ हाथ उनके चंचल पुत्र को पकड़े हुए हैं। अभय की स्त्री मौजूद नहीं हैं।

इस चित्र में अभय विस्मयोत्पादक लगते हैं। कोई कह नहीं सकता कि सामान्यतया वे सिर पर बाल और मूँछ रखते हैं जिसे उन्होंने पिता के देहावसान के शोकपूर्ण अवसर पर अभी मुंडा दिया है। प्रत्युत यह उनका स्वाभाविक रूप लगता है। उनके चतुर्दिग् एक रहस्यमय, आध्यात्मिक आभा है जैसी कि एक साधनारत तपस्वी से अपेक्षा की जाती हैं। उनकी आकृति से न तो आकुलता जाहिर होती है, न प्रसन्नता और न दुख । वह शान्त और परिचित लगती है, मानों पिता के निधन के दिन वे अचानक साधु हो गए हों। वे उसी तरह के साधु प्रतीत होते है जिस तरह की कल्पना उनके पिता ने उनके बारे में की थी । वे ऐसे दिखाई देते हैं मानों वे एक साधु हैं और हमेशा रहे हैं और आज के दिन उनका वह रूप अचानक उद्घाटित हो गया है। फोटो को बहुत ही सरसरी दृष्टि से देखने पर भी स्पष्ट हो जाता है कि सिर मुंडाकर और कमीज, जूते बिना, पीत वस्त्र धारण कर अभय साधु बन गए हैं।

 
 
 
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