लंदन सितम्बर ११, १९६९ ऐपल रेकार्डस और लफथांसा जर्मन विमान सेवा के सहयोग से भक्तों ने लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर प्रभुपाद के लिए एक स्वागत समारोह का आयोजन किया। ज्योंही प्रभुपाद हवाईजहाज़ की सीढ़ियों से उतरे, आप्रवासन और सीमा शुल्क की सारी औपचारिकताओं को अलग रखकर उन्हें एक कार तक ले जाया गया और वी.आई.पी. विश्राम - कक्ष में पहुँचाया गया । प्रभुपाद जब कार से निकले तो भक्तजन दौड़ पड़े और उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए सड़क की भीगी पटरी पर नतमस्तक हो गए। श्रील प्रभुपाद मुसकराते हुए उन्हें देखते रहे। भक्तजन अपनी धोतियों और साड़ियों से गीली कंकड़ी झाड़ते हुए उठ खड़े हुए और जब प्रभुपाद विश्राम कक्ष में प्रविष्ट होने लगे तो उन्हें घेरे रहे । हवाई अड्डे के अन्दर प्रभुपाद को संवाददाताओं, फोटोग्राफरों और भक्तों के कई दर्जन मित्रों की भीड़ का सामना करना पड़ा। विश्राम कक्ष में एक सोफा स्वच्छ वस्त्र से आच्छादित था और उसके दोनों ओर पीले फूलों से सजे गमले रखे थे। प्रभुपाद सोफा तक पहुँच कर उस पर बैठ गए। श्यामसुंदर ने उन्हें सफेद और लाल गुलाबों का हार पहनाया । प्रभुपाद कीर्तन कराने लगे । भक्तों को प्रभुपाद के अतिरिक्त किसी की सुध नहीं थी । संवाददाता केवल खड़े रहे और देखते रहे, जबकि भक्तजन भावविभोर होकर गाते और नाचते रहे। समुत्सुक भक्त निस्संकोच भाव से कीर्तन कर रहे थे और 'हरिबोल' एवं 'जय प्रभुपाद' के नारों तथा शंख के तुमुल नादों से बीच-बीच में उसमें विराम लग रहा था । कीर्तन के बाद संवाददाता दूर खड़े रहे जब प्रभुपाद अपने सामने बैठे लगभग हर भक्त से प्रेमपूर्ण वार्ता करने में लगे थे । “जानकी कहाँ है ?" उन्होंने पूछा । “ओहो, तुम कैसी हो ? विभावती, तुम्हारी लड़की कैसी है? सचमुच तुम सभी मेरे पिता और माता हो। तुम मेरी देख-भाल इस तरह.... भक्तों के लिए विश्राम कक्ष में केवल वे थे और प्रभुपाद । उनकी भरपूर कोशिश थी कि प्रभुपाद के हर कार्य और वचन पर उनका ध्यान केन्द्रित रहे । बाहरी लोगों की प्रतिक्रिया के प्रति वे नितान्त उदासीन थे। अंत में मुकुंद ने संवाददाताओं को आगे आने के लिए आमंत्रित किया: “यदि आप सज्जनों में से किसी को कोई प्रश्न पूछना है तो आप प्रभुपाद से पूछ सकते हैं। " संवाददाता आगे बढ़े; एक ने पूछा, “इस स्वागत के विषय में आपका क्या विचार है ?" प्रभुपाद, “मुझे स्वागत का बहुत शौक नहीं है। मैं जानना चाहता हूँ कि लोग इस आन्दोलन का कैसा स्वागत करते हैं । मेरी रुचि इसमें है । ' भक्त, समवेत स्वर में, "हरि बोल । " सम्वाददाता, “क्या यह आपके लिए एक विशेष स्वागत है, या इस तरह के प्रदर्शन का सामना आपको प्रतिदिन करना पड़ता है ?" प्रभुपाद, "नहीं, मैं जहाँ भी जाता हूँ वहाँ मेरे शिष्य हैं। पाश्चात्य देशों में अब मेरे लगभग बीस केन्द्र हैं, विशेष कर अमेरिका में । अमेरिकन लड़के बहुत उत्साही हैं। मेरे विचार से लास एंजिलेस और सैन फ्रांसिस्को में मेरा भव्य स्वागत हुआ था । रथ यात्रा पर्व पर लगभग दस हजार लड़के-लड़कियों ने सात मील तक मेरा अनुगमन किया । " भक्त : “हरि बोल । 'सन' का सम्वाददाता : “महोदय, आप क्या सिखाने की कोशिश करते हैं ?" प्रभुपाद : “मैं वह सिखाने की कोशिश करता हूँ जो आप भूल गए हैं। भक्त (हँसते हुए) : “हरि बोल ! हरे कृष्ण ! ' 'सन' का सम्वाददाता : " वह है क्या ?" प्रभुपाद : " वह ईश्वर है। आप में से कुछ कहते हैं कि ईश्वर नहीं है । कुछ कहते हैं कि ईश्वर मर गया है। कुछ कहते हैं कि ईश्वर निराकार, शून्य है। ये सब कथन बेमानी हैं। मैं सभी बेमानी लोगों को पढ़ाना चाहता हूँ कि ईश्वर है । मेरा यही मिशन (लक्ष्य) है। कोई भी बेमानी वक्ता मेरे पास आ सकता है मैं सिद्ध कर दूँगा कि ईश्वर है। यही मेरा कृष्णभावनामृत आंदोलन है। नास्तिक लोगों के लिए यह एक चुनौती है : ईश्वर है । यहाँ हम लोग आमने-सामने बैठे ईश्वर को देख सकते हैं यदि आप गंभीर और दिल के सच्चे हैं। यह सर्वथा संभव है। दुर्भाग्य है कि आप ईश्वर को भूलने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए जीवन में आपको इतनी अधिक यातनाएँ भोगनी पड़ रही हैं। इसलिए मैं केवल यह धर्मोपदेश कर रहा हूँ कि आप कृष्णभावनामृत को स्वीकार करें और प्रसन्नता प्राप्त करें। माया की बेमानी तरंगों से आन्दोलित न हों।" एक संवाददाता ने पूछा कि क्या " आपके मत के पोषण के लिए" कीर्तन "आवश्यक" है ? हरे कृष्ण कीर्तन के परिमार्जनकारी प्रभाव का वर्णन करते हुए प्रभुपाद ने लम्बा-सा उत्तर दिया। उन्होंने श्रीमद्भागवात की इस घोषणा को उद्धृत किया कि जिसमें कृष्णभावनामृत नहीं है उसमें अच्छे गुण हो ही नहीं सकते । “मेरे किसी शिष्य की परीक्षा लीजिए, " प्रभुपाद ने कहा - " वे कितने सद्गुणी हैं, कितने उन्नत हैं।" परीक्षा लेकर देखिए। संसार में से किसी अन्य को ले आइए और मेरे किसी शिष्य से उसकी तुलना कीजिए। आप देखेंगे कि उनके चारित्र्य में, उनकी भावना में, उनकी चेतना में कितना अंतर है। यदि आप शान्तिपूर्ण समाज चाहते हैं तो लोगों को ईश्वर - चेतन, कृष्ण- चेतन बनाना जरूरी है । फिर, हर कठिनाई का समाधान अपने आप निकल आएगा । अन्यथा, आप के तथाकथित संयुक्त राष्ट्र संघ से कोई सहायता नहीं होगी । ' संवाददाताओं ने बिल्ली ग्राहम, चन्द्र अवतरण, आयरलैंड में युद्ध और प्रभुपाद के स्त्री- बच्चों के बारे में पूछा। उन्होंने उनसे अपनी ओर मुँह करने को कहा और अपने कैमरे क्लिक किए। उन्होंने प्रभुपाद को धन्यवाद दिया और स्वागत समारोह समाप्त हुआ । विश्राम - कक्ष से निकल कर प्रभुपाद सफेद, चमकती हुई रोल्स रायस कार की ओर बढ़े जो बाहर उनकी प्रतीक्षा में खड़ी थी, और जान लेनन के सौजन्य से प्राप्त हुई थी । प्रभुपाद पिछली सीट में पालथी मार कर बैठ गए। लिमोसीन कार में धुँधले शीशे की खिड़कियाँ लगी थीं; उसका अंदरूनी भाग सजावट से परिपूर्ण था, जिसमें टी.वी. भी थी । भक्तजन भावावेश के कारण इस तरह तितर-बितर हो गए थे कि उनमें से किसी को प्रभुपाद के साथ जाने का ध्यान ही न रहा और ड्राइवर उन्हें अकेले ही टिटेन हर्स्ट भगा ले गया । प्रभुपाद शांत बैठे थे, सिवाये इसके कि बीच-बीच में वे जप करते सुनाई पड़ते थे, ले जा दूर जबकि ड्राइवर उन्हें चक्करदार सड़कों से होता हुआ हवाई अड्डे से रहा था । प्रभुपाद इंगलैंड में थे। उनके पिता, गौर मोहन, ने कभी नहीं चाहा था कि वे इंगलैंड जायँ । एक बार उनके एक चाचा ने गौर मोहन से कहा था कि प्रभुपाद को बैरिस्टर बनने के लिए इंगलैंड जाना चाहिए । लेकिन गौर मोहन ने इनकार कर दिया था; यदि उनका पुत्र इंगलैंड गया तो मांस भक्षी, मद्यप और यौन व्यापारी उसे प्रभावित कर सकते हैं । किन्तु सत्तर वर्ष बाद, अब प्रभुपाद सचमुच इंगलैंड आए थे । अंग्रेजों से प्रभावित होने नहीं, वरन् उन्हें प्रभावित करने के लिए। वे उन्हें वह सिखाने आए थे जो वे भूल गए थे । और उन्होंने शुरुआत अच्छी की थी, कृष्ण के विशेष संरक्षण में। जब उन्हें न्यू यार्क में बिना पाई - पैसे के अकेले रहना पड़ा था तो वह कृष्ण की कृपा थी । और अब वे इंगलैंड में ड्राइवर चालित लिमोसिन गाड़ी में प्रवेश कर रहे थे; यह भी कृष्ण की कृपा थी । लिमोसिन की सवारी को कृष्ण की योजना मानते हुए प्रभुपाद अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेश के पालन के अपने उद्देश्य में गंभीरता से दत्त - चित्त बने रहे, जैसी भी परिस्थितियाँ उनकी प्रतीक्षा क्यों न कर रही हों । जब वे मार्ग चार की ओर मुड़े तो स्लोफ की ओर बढ़ते हुए प्रभुपाद को फैक्टरियाँ और गोदाम दिखाई दिए, और आगे समतल ग्रामीण क्षेत्र था जिसमें फलों के बाग थे, खेत थे और घोड़े चर रहे थे । धूसर, ठंडे मौसम से शीतऋतु के आने की सूचना मिल रही थी । लगभग बीस मिनट के बाद प्रभुपाद अस्काट के सम्पन्न पड़ोस में पहुँचे और शीघ्र बाईं ओर रेडवुड की बाड़ से घिरी लेनन की जागीर आ गई। प्रभुपाद अपने शिष्यों से पहले पहुँच गए थे। लेकिन जो लोग जागीर में पहले से मौजूद थे, वे उन्हें नौकरों के निवास की दूसरी मंजिल पर उनके कमरे में सोत्साह ले गए। छोटा-सा वह कमरा ठंडा और नम था । उसमें डेस्क के लिए एक छोटी मेज रखी थी और अन्य कमरों से कालीन के टुकड़े लाकर दीवार के एक सिरे से दूसरे सिरे तक बिछा दिए गए थे। साथ लगा हुआ कमरा साज-सज्जाहीन था और प्रभुपाद के कमरे से भी छोटा था । प्रभुपाद अपनी नीची डेस्क के सामने बैठ गए, " बाकी लोग कहाँ है ?” उन्होंने पूछा । जब वे पीछे की ओर झुके और उन्होंने खिड़की से बाहर झाँका तो उन्होंने देखा कि वर्षा शुरू हो गई थी । प्रभुपाद के दोपहर के भोजन के बाद जब जार्ज, जान और योको आ टपके तो श्यामसुंदर ने उन्हें ऊपर जाकर प्रभुपाद से मिलने के लिए आमंत्रित किया । जार्ज जान की ओर मुड़ा और पूछा, “क्या तुम ऊपर जाना चाहते हो ?” टिटेनहर्स्ट का स्वामी जान, जो दाढ़ी रखे था, चश्मा लगाता था और जिसके सिर के बाल कंधों तक लटके थे, राजी हो गया । योको को भी जिज्ञासा थी। इसलिए वे सभी प्रभुपाद के छोटे कमरे में ऊपर गए। अपनी डेस्क के पीछे से शालीन भाव से मुसकराते हुए प्रभुपाद ने अतिथियों को प्रवेश करने और बैठने के लिए कहा। इंगलैंड के दो सर्व प्रसिद्ध व्यक्ति वहाँ उपस्थित थे और कृष्ण चाहते थे कि प्रभुपाद उनसे बात करें। प्रभुपाद ने अपनी माला उतार ली और उसे श्यामसुंदर को दे दिया, यह संकेत करते हुए कि वह उसे जार्ज के गले में पहना दे । " धन्यवाद, " जार्ज बोला, "हरे कृष्ण । " प्रभुपाद मुसकराए, “यह कृष्ण का आशीष है । ' " हरे कृष्ण" जार्ज ने पुनः उत्तर दिया । "हाँ" प्रभुपाद बोले, “भगवद्गीता में एक श्लोक है: यद् यद् आचरति श्रेष्ठस् तद् तद् इवेतरो जनः । स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस् तद अनुवर्तते । भाव यह है कि श्रेष्ठ जन जैसा आचरण करते हैं, सामान्य लोग उसका अनुगमन करते हैं । यद् यद् आचरति श्रेष्ठ: । श्रेष्ठः का अर्थ है श्रेष्ठजन, बड़े लोग । आचरति का अर्थ है, करते हैं, आचरण करते हैं। श्रेष्ठजन जो कुछ करते हैं, सामान्य लोग उनका अनुगमन करते हैं। यदि श्रेष्ठजन किसी चीज को बढ़िया बताते हैं तो वह ठीक है और अन्य भी उसे स्वीकार कर लेते हैं। अतः भगवान् कृष्ण की कृपा से आप श्रेष्ठजन हैं। हजारों युवाजन आपका अनुगमन करते हैं। वे आपको पसंद करते हैं। इसलिए यदि आप उन्हें वास्तव में कोई बढ़िया चीज देते हैं तो दुनिया का चेहरा बदल जायगा ।' यद्यपि जार्ज और जान की अवस्था लगभग वही थी जो प्रभुपाद के अधिकतर शिष्यों की थी, पर प्रभुपाद ने उन्हें श्रेष्ठजन, सम्मानित जन कहा "आप भी संसार में शान्ति लाने को उत्सुक हैं।” प्रभुपाद ने जारी रखा, “मैने कभी-कभी आप के वक्तव्य पढ़े हैं। आप भी व्यग्र हैं। हर एक है। हर संत - पुरुष को संसार में शान्ति लाने की चिन्ता करनी चाहिए । लेकिन हमें उसकी विधि जानना जरूरी है।” प्रभुपाद ने “ शान्ति के सूत्र” की व्याख्या की; भगवद्गीता के अनुसार केवल वे लोग, जो श्री भगवान् को हर वस्तु का स्वामी, सभी बलिदानों का लक्ष्य, और हर एक का मित्र स्वीकार करते हैं, शान्ति प्राप्त कर सकते हैं । तब प्रभुपाद ने दोनों बीटलों को, जो कुछ वे संकेत से बता चुके थे, उसे अधिक स्पष्टता से बताया : उन्हें चाहिए कि वे कृष्णभावनामृत को सीखें और संसार को उसे सिखाने में सहायता करें। "मेरी प्रार्थना है कि आप अपनी सारी बुद्धि लगाकर कम-से-कम कृष्णभावनामृत को समझ लें ।” उन्होंने कहा, “यदि आप समझते हैं कि यह अच्छा है तो इसे स्वीकार करें। आप दुनिया को कुछ देना भी चाहते हैं । अतएव इसे देने की कोशिश करें। आपने हमारी पुस्तकें पढ़ी हैं जैसे यह भगवद्गीता यथारूप ? " जान : " मैने भगवद्गीता के कुछ अंश पढ़े हैं। मुझे याद नहीं कि वे कौन सा संस्करण था। गीता के कितने ही भिन्न-भिन्न अनुवाद हैं । " प्रभुपाद : “ कई भिन्न-भिन्न अनुवाद हैं। अतएव मैने यह संस्करण दिया है, भगवद्गीता यथारूप । प्रभुपाद ने बताया कि यह भौतिक जगत यातनास्थल है। प्रकृति क्रूर है । अमेरिका में राष्ट्रपति केनेडी को सबसे भाग्यशाली और सुखी संसार भर में सम्मानित माना जाता था । "लेकिन एक क्षण में ” – प्रभुपाद ने जोर से अपनी अंगुलियों को चटकाया — “ उनका अंत कर दिया गया। अस्थायी । अब उनकी स्थिति क्या है ? वे कहाँ हैं ? यदि जीवन शाश्वत है, यदि प्राणवान वस्तुएँ शाश्वत हैं, तो वे कहाँ गए ? वे क्या कर रहे हैं ? वे सुखी हैं, या दुखी हैं ? वे अमेरिका में पैदा हुए हैं, या चीन में ? कोई नहीं कह सकता। लेकिन यह सच है कि प्राणी होने के नाते वे शाश्वत हैं । उनका अस्तित्व है । ' प्रभुपाद ने आत्मा के देहान्तरण की व्याख्या की। तब उन्होंने फिर प्रार्थना की, "इसे समझने की कोशिश कीजिए और अगर यह ठीक है तो इसे अंगीकार कीजिए। आप कुछ अच्छा काम करना चाहते हैं। क्या मेरा प्रस्ताव अनुचित है ?" दोनों बीटलों ने एक-दूसरे को देखा लेकिन उन्होंने उत्तर नहीं दिया। प्रभुपाद के चेहरे पर मंद विनोदपूर्ण मुसकान आ गई, " आप सभी बुद्धिमान बालक हैं। समझने की कोशिश करें । " प्रभुपाद ने वेदों में संगीत के महत्व के बारे में बताया । " सामवेद" उन्होंने कहा, " संगीत से पूर्ण है । सामवेद के अनुयायी सदैव संगीतमय रहते हैं । संगीत की तरंगों के माध्यम से वे ईश्वर तक पहुँचते हैं।” तब उन्होंने श्रीमद्भागवत के तीन श्लोकों का धीरे से गायन किया : मतिर् न कृष्णे परतः स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृह-व्रतानाम् अदान्त गोभिर विशतां तमिस्त्रम् पुनः पुनश्च चर्वितचर्वणानाम् न ते विदुः स्वार्थ- गतिं हि विष्णुम् दुराशया ये बहिर - अर्थ -मानिनः अंधा यथान्धेर उपनीयमानास् तेऽ पीश-तन्त्रयां उरु-दाम्नी बद्धाः नैषां मतिस् तावत् उरुक्रमांग्रहिम् स्पृशत्य अनर्थापगमो यद्-अर्थः महीयसां पाद-रजो-भिषेकम् निषकिंचनानां न वृणीत यावत् जो व्यक्ति भौतिक जीवन के अत्यधिक वशीभूत हैं, वे अपनी अनियंत्रित इंद्रियों के कारण नरकमय अवस्थाओं की ओर अग्रसर होते रहते हैं और चर्वित का पुनः पुनः चर्वण करते हैं। कृष्ण के प्रति उनकी अभिरुचि कभी नहीं जगती न तो दूसरों के उपदेश से, न उनके स्वयं के प्रयत्नों से और न इन दोनों के मेल से । जो व्यक्ति सांसारिक सुख भोग के कठोर पाश में आबद्ध हैं और जिन्होंने इस कारण किसी ऐसे व्यक्ति को अपना गुरु मान लिया जो स्वयं बाह्य इन्द्रियविषयों में आसक्त होने से ज्ञानान्ध है, वे समझ ही नहीं सकते कि जीवन का उद्देश्य परम धाम को लौटना और भगवान् विष्णु की सेवा में तत्पर होना है। जैसे अंधे व्यक्ति द्वारा उपनीत दूसरा अंधा व्यक्ति सही मार्ग पर न जाकर गड्ढ़े में गिरता है, उसी प्रकार सांसारिक बंधन में बँधा व्यक्ति, जिसका मार्गदर्शन सांसारिक बंधन में बँधा दूसरा व्यक्ति करता है, सकाम कर्म के रज्जु बँधा रहता है, ऐसे रज्जु के बंधन में जो मजबूत तंतुओं से निर्मित है। ऐसे व्यक्ति भौतिक में संसार में बार-बार जन्मते और मरते हैं और तीनों प्रकार के दुख भोगते हैं। जब तक ऐसे व्यक्ति भौतिक विकारों से सर्वथा मुक्त वैष्णव के चरणकमलों की रज से अपने शरीरों का अभिषेक नहीं करते, तब तक सांसारिकता में लिप्त ऐसे व्यक्तियों की अनुरक्ति भगवान् के चरणकमलों में नहीं हो सकती — जो भगवान् अपने अद्वितीय कार्यकलापों से गौरवान्वित हैं। केवल कृष्ण-चेतन होने और भगवान् के चरणकमलों में शरण लेने से ही मनुष्य को सांसारिक विकारों से मुक्ति मिल सकती है। (श्रीमद्भागवत् ७.५.३०-३२) प्रभुपाद ने अपने अतिथियों से पूछा कि वे किस दर्शन का अनुगमन करते हैं ।" " अनुगमन करते हैं ? " जान ने पूछा । " हम किसी का अनुगमन नहीं करते।” योको बोली, “हम केवल रह रहे " हमने चिन्तन किया है।" जार्ज ने कहा, " या मैं चिन्तन करता हूँ, मंत्र चिन्तन । " वे प्रश्न पूछने लगे, वे ही प्रश्न जिन्हें प्रभुपाद कई बार पहले सुन चुके थे । प्रभुपाद द्वारा ब्रह्म की यह व्याख्या सुन कर कि वह श्री भगवान् की सर्वव्यापक आध्यात्मिक शक्ति है, योको ने संदेह प्रकट किया कि क्या, ब्रह्म सदैव शुद्ध बना रहता है और समय पाकर उसमें विकार नहीं आता । प्रभुपाद ने कहा कि इसके पहले कि वह आध्यात्मिक दर्शन को सचमुच समझ सके योको को गंभीर शिक्षार्थी बनना होगा । जान और योको पक्के इक्लेक्टिक थे, अतः प्रभुपाद के वैदिक दर्शन की धारणा को स्वीकार करने में उन्हें कठिनाई थी । जान: "यह जानने के लिए कि सर्वोत्तम क्या है, हमें अब भी छानबीन करते रहना है, जैसे कोई रेत को छानता है । " प्रभुपाद : "नहीं, तुम एक चीज समझने की कोशिश करो। यदि कृष्ण परम भगवान् नहीं हैं तो ये लोग कृष्ण की पुस्तकों का अनुवाद क्यों कर रहे हैं ? तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते ?" जार्ज : “मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि कृष्ण श्री भगवान् नहीं हैं। मेरा इसमें विश्वास है। गलतफहमी संस्कृत गीता के अंग्रेजी अनुवाद को लेकर है। और मैं कह रहा था कि इस अनुवाद के कई रूप हैं और हमारा ख्याल है कि आप यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि आपका अनुवाद अधिकृत है और दूसरे अनुवाद अधिकृत नहीं हैं। वास्तव में हमें कृष्ण की पहचान के विषय में कोई गलतफहमी नहीं है । " प्रभुपाद : “ठीक है। यदि तुम विश्वास करते हो कि कृष्ण श्री भगवान् हैं, यदि तुम्हारा यही कथन है, तो तुम्हें यह देखना है कि कृष्ण में सबसे अधिक अनुरक्त कौन है। ये लोग चौबीस घंटे कृष्ण का जप करते हैं। और अन्य कोई, जो कृष्ण का नाम एक बार भी नहीं लेता, कृष्ण का भक्त कैसे बन सकता है ? जो कृष्ण का नाम तक नहीं लेता, वह कृष्ण का प्रतिनिधि कैसे बन सकता है? यदि कृष्ण अधिकारी हैं— और यह स्वीकृत है— तो जो कृष्ण में साक्षात् अनुरक्त हैं, वे अधिकारी हैं। ' एक घंटे से अधिक के वार्तालाप के बाद प्रभुपाद ने जान, जार्ज, योको और कमरे में उपस्थित कुछ भक्तों को कुछ प्रसाद दिया । यदि ये श्रेष्ठजन कृष्णभावनामृत को स्वीकार कर लेते हैं तो यह उनके लिए अच्छा होगा और औरों के लिए भी। प्रभुपाद ने अपना कर्त्तव्य कर दिया था और उन्हें अवसर दिया था । कृष्ण का संदेश स्वीकार करना या न करना अब उन पर था । जान ने कहा कि उसे कुछ काम था और वह चला गया। जब सब जा रहे थे तो योको, सीढ़ियों से उतरते हुए जान की ओर मुड़ी और कहा, "देखो, वे कितनी सादगी से रहते हैं, क्या तुम वैसे रह सकते हो ?" संध्या समय प्रभुपाद तीनों दम्पत्तियों के साथ बैठे — श्यामसुंदर और मालती, गुरुदास और यमुना, तथा मुकुंद और जानकी। एक साल के विछोह के बाद उन्हें प्रभुपाद का सुखद संसर्ग मिला था और प्रभुपाद उन्हें पाकर प्रसन्न थे । उनका परस्पर प्रेम और साथ होने की तुष्टि उनको एक में जोड़ने वाली इस इच्छा पर आधारित थी कि भगवान् चैतन्य के संकीर्तन - आन्दोलन को इस महत्त्वपूर्ण नगर में स्थापित किया जाय । चूँकि प्रभुपाद अब लंदन में पहुँच गए थे इसलिए कार्य में शिथिलता नहीं आ सकती थी, वरन् उनके दक्ष निर्देशन से उसमें वृद्धि होगी । प्रभुपाद उन्हें लंदन में प्रतिदिन अधिकाधिक धर्मोपदेश की व्यवस्था करने के लिए सिखाते रहेंगे और वे यथावश्यक उन्हें रिपोर्ट देते रहेंगे। महिलाएँ भी उनके कमरों को साफ करके, उनके कपड़े धोकर और इस्तरी करके और उनका भोजन बना कर उनकी सेवा कर सकती थीं " इंगलैंड में ऐसा मकान पाने की आशा नहीं की जा सकती, " प्रभुपाद ने कहा, "इंगलैंड नीचे गिर गया है। इन लड़कों के पास अब ऐसा मकान है । और हम इसमें रह रहे हैं । ' 'प्रभुपाद," श्यामसुंदर बोल उठा, “हमारे रेकर्ड की कल पचास हजार प्रतियाँ बिकीं। "ओह!" प्रभुपाद के नेत्र विस्फारित हो गए । “ बहुत बड़ा व्यापार ! " प्रभुपाद ने कहा कि उनके धन और शक्ति का उपयोग नगर में मंदिर खोलने में होना चाहिए। चूँकि अब वे उपनगरी में वैभवपूर्ण जागीर में आराम से रह रहे थे, इसलिए उन्हें चाहिए कि यथासंभव इन प्रभावशाली हस्तियों को कृष्णभावनामृत प्रवृत्त करें । परन्तु मुख्य कार्य नगर में एक मंदिर खोलना होना चाहिए । भक्तिसिद्धान्त सरस्वती को जनसंकुल नगरों में मंदिरों की स्थापना करना अधिक पसंद था । लेकिन यदि जान इस स्थान को कृष्ण को दे सके और यदि भक्तजन गउवें पाल सकें और कृषि कार्य कर सकें, जैसा कि न्यू वृंदावन में होता था, तो वह अलग बात होगी। उन्हें देखना था कि कृष्ण की क्या इच्छा थी । प्रभुपाद को दुख था कि उनके कुछ शिष्यों को जागीर पर रहने के बदले में उसके नवीकरण के लिए पूरे समय तक काम करना पड़ता था । उन्होंने कहा कि ब्राह्मणों और वैष्णवों को आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन और उसे औरों को सिखाने के लिए गहन कार्य करना होता है, इसलिए शेष समाज का सम्मान और साहाय्य उन्हें मिलना चाहिए। टीटेन हर्स्ट की व्यवस्था धर्मार्थ की अपेक्षा व्यवसाय अधिक थी । लेकिन अस्थायी स्थिति के रूप में उन्हें उसे सहन करना चाहिए। प्रभुपाद ने श्यामसुंदर, मुकुंद और गुरुदास से उनके नगर के निचले भाग में आवास अनुमति - पत्र प्राप्त करने और मंदिर के नवीकरण के प्रयत्न के बारे में बात की। प्रभुपाद ने कहा कि मंदिर का नवीकरण आरंभ कर देने का श्यामसुंदर का कार्य ठीक था; कृष्ण उन के पूंजी निवेश की रक्षा करेंगे। जब प्रभुपाद को मालूम हुआ कि उनके शिष्यों ने ऐसी व्याख्यान माला का आयोजन किया था जो उन्हें तीन महीने तक लंदन में व्यस्त रखेगी तो प्रभुपाद मुसकराने लगे । वे बोले कि वे इंगलैंड में तब तक रहने और व्याख्यान देने को तैयार थे जब तक कि लंदन में केन्द्र न खुल जाय । प्रभुपाद ने लंदन के अपने छहों अग्रणी शिष्यों की प्रशंसा की कि उन्होंने वहाँ सफलता प्राप्त की थी जहाँ उनके संन्यासी गुरु-भाई असफल हो गए थे । उन्होंने कहा कि चूँकि वे श्रद्धापूर्वक हरे कृष्ण भजते रहे थे, इसलिए वे सफल हुए थे। वे कोई महान् विद्वान, या त्यागी नहीं थे, तो भी पवित्र नाम और अपने गुरु महाराज के आदेश में उनकी श्रद्धा थी । प्रभुपाद ने कहा कि वे भी कोई महान् विद्वान् नहीं थे, परन्तु वे दृढ़ विश्वास रखते थे, जिसकी आध्यात्मिक सफलता के लिए वास्तविक अपेक्षा थी । प्रभुपाद ने कहा कि कोई भक्त अनेक स्थानों की यात्रा कर सकता था और बहुत से कार्य कर सकता था, किन्तु जब तक वह सांसारिक उद्देश्यों से मुक्त न हो, तब तक वह दूसरों के हृदयों में भक्ति का बीजारोपण नहीं कर सकता । प्रभुपाद ने शिवानन्द का उदाहरण दिया जो हैमबर्ग अकेले गए थे और जिन्होंने अपने गुरु महाराज में विश्वास रखते हुए भरसक प्रयत्न किया था। अब कृष्ण से उन्हें कुछ सफलता का वरदान मिला; एक स्टोरफ्रंट मंदिर खुल गया, नए शिष्य भरती हो गए, एक प्रोफेसर उनके कार्यों में रुचि लेने लगे, और अन्य अतिथि आने लगे और कीर्तन करने लगे। एक भी धर्मोपदेशक अकेले, कृष्ण के लिए बहुत कुछ कर सकता है, शर्त यह है कि वह इन्द्रिय- तृप्ति, लाभ, प्रशंसा और ख्याति की इच्छा से मुक्त हो । श्रील प्रभुपाद बहुत तड़के, लगभग एक बजे, उठ जाते थे और अपनी सबसे पुस्तक “कृष्ण, दी सुप्रीम पर्सनालिटी आफ गाडहेड" बोल कर मशीन से लिखाने लगते थे। यह पुस्तक, कृष्ण, जो उन्होंने आठ महीने पहले लास एंजिलेस में प्रारंभ की थी, श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध का सारांश थी। श्रीमद्भागवत को प्रभुपाद ने, उसके पहले स्कंध से, १९५९ में आरंभ किया था; वे हर श्लोक का अनुवाद, रोमन में उसका लिप्यन्तरण, संस्कृत- अंग्रेजी पर्याय, अंग्रेजी अनुवाद और अपना तात्पर्य दे रहे थे । किन्तु प्रस्तुत पुस्तक 'कृष्ण दि सुप्रीम पर्सनालिटी आफ गाडहेड' केवल अंग्रेजी में थी जिसमें अनुवाद और भाष्य, दिव्य कहानियों के रूप में, मिले-जुले थे । भागवत के श्लोकवार अनुवाद के कार्य में प्रभुपाद अभी तीसरे स्कंध में पहुँचे थे, इसलिए दशम स्कंध तक पहुँचने में उन्हें कई साल लगने थे । किन्तु यह अनिश्चित था कि उन्हें कितने साल और जीवित रहना था और यह विचार उनके लिए असह्य हो रहा था कि दशम स्कंध का संसार को एक प्रामाणिक और सुपाठ्य विवरण दिए बिना ही वे प्रयाण कर जायँ । दशम स्कंध, कृष्ण की सांसारिक लीलाओं का वर्णन होने के कारण, श्रीमद्भागवत के चरम बिन्दु और दिव्य साहित्य के सारभूत तत्व के रूप में अमृत था। प्रभुपाद के पास प्रथम खंड के मुद्रण के लिए अब काफी हस्तलिखित पृष्ठ हो गए थे जो उनके कलाकारों द्वारा निर्मित बहुत-से रंगीन चित्रों से अलंकृत थे। ऐसी पुस्तक का मुद्रण व्यय - साध्य था और प्रभुपाद के पास उसके लिए पैसे नहीं थे। पर कृष्ण पर उनका पूरा भरोसा था, और सवेरे की शांत बेला में वे अनुवाद तेजी से करते जा रहे थे । सवेरे चार बज कर तीस मिनट पर प्रभुपाद के सचिव, पुरुषोत्तम, प्रविष्ट हुए; उनके पीछे यमुनादासी आयी। पुरुषोत्तम ने प्रभुपाद के लघु राधा-कृष्ण अर्चा-विग्रहों की आरती उतारी; सीखने के विचार से यमुना जिज्ञासापूर्वक देखती रही। हारमोनियम बजाते हुए प्रभुपाद ने प्रार्थना के गीत गाए । प्रभुपाद के मंगल - आरती समारोह के मध्य, एक दर्जन के लगभग अन्य शिष्य अपनी मंगल आरती के लिए मंदिर में एकत्र हो गए। जब वे आर्द्र मार्ग से मंदिर की ओर बढ़ रहे थे तब उन्हें ठंडी हवा लगी और मंदिर की घंटी और प्रभुपाद के गाने की आवाज सुनाई दी। उन्हें सवेरे के धुंधलके में दूसरी मंजिल पर प्रभुपाद के कमरे की खिड़की से प्रकाश आता दिखाई दे रहा था, और मकान अंधेरे में एक लालटेन जैसा मालूम पड़ता था । हारमोनियम की आवाज वृक्षों के मध्य रहस्यमय ढंग से तैर रही थी । उस दिन बाद में, कुछ भक्त प्रभुपाद के लंदन पहुँचने के सम्बन्ध में बहुत-से नए लेख उनके पास ले आए। " डेली स्केच" ने 'एंटर हिज डिवाइन ग्रेस अभय चरण भक्तिवेदान्त स्वामी' (कृष्ण - कृपाश्रीमूर्ति श्री अभय चरण भक्तिवेदान्त स्वामी का प्रवेश ) शीर्षक के साथ करताल बजाते हुए प्रभुपाद का एक फुट लम्बा चित्र छपा था । "सन" में प्रभुपाद और उनके शिष्यों के चित्र के साथ छपा था “हैपीनेस इज हरे कृष्ण" (हरे कृष्ण साक्षात् आनंद है ) । और " डेली मिरर ” में सरस्वती और एक वयस्क भक्त का चित्र प्रकाशित हुआ था । किन्तु " डेली टेलीग्राफ” में “हिन्दू टेम्पल प्रोटेस्ट्स' शीर्षक से एक भिन्न प्रकार का लेख प्रकाशित हुआ था । उसका आरंभ इस प्रकार किया गया था 'ब्लूस्सबरी में एक कार्यालय को हिन्दू मंदिर में बदल देने की घटना की जाँच मिनिस्ट्री आफ पब्लिक बिल्डिंग्स एंड वर्क्स (जन निमार्ण विभाग) द्वारा की जा रही है।" भक्तों के बरी प्लेस के पड़ोसियों ने वहाँ पिछले दो सप्ताहों से चल रहे नवीकरण के विरुद्ध प्रकट रूप में शिकायत की थी। लेख में केमडेन काउन्सिल के एक सदस्य को उद्धृत किया गया था, “यदि उनकी योजना का आवेदन स्वीकृत नहीं हुआ तो यह उनके लिए बहुत महंगा पड़ेगा । " प्रभुपाद ने कहा कि भक्तों को चाहिए कि वे मंदिर की स्थापना और राधा - कृष्ण अर्चाविग्रहों की प्राण-प्रतिष्ठा में होने वाले सभी विलम्बों और बाधाओं को रोकने का हर संभव प्रयत्न करें। उन्होंने सुझाव दिया कि उन्हें नगर प्रतिदिन जाना चाहिए, अधिकारियों से सावधानीपूर्वक और साग्रह प्रार्थना करनी चाहिए और उनका अनुमोदन प्राप्त करना चाहिए। इस बीच, श्यामसुंदर को बरी प्लेस में नवीकरण कार्य जारी रखना चाहिए । प्रभुपाद के लिए ऐसी कूटनीतिक और विधिक कार्यप्रणाली उतनी ही आध्यात्मिक थी जितना कृष्ण का अनुवाद करना या अर्चाविग्रहों के समक्ष भजन गाना । उनमें गहरी संजीदगी थी और जब उन्होंने पूरी एकाग्रता के साथ अपने शिष्यों पर अन्तर्भेदी दृष्टि जमाते हुए यह जानने के लिए उनकी ओर देखा कि क्या वे उनके निर्देशों को समझ रहे थे तो शिष्यों को इसकी अनुभूति हो गई । गुरु की यह संजीदगी उनके और शिष्यों के बीच सम्बन्ध का एक अनिवार्य अंग थी । शिष्य अभी युवा और अनुभवहीन थे और गुरु उन्हें ऐसे परिपक्व कार्य पर भेज रहे थे जिसके लिए दिव्य और सांसारिक दोंनो प्रकार का कौशल अपेक्षित था। प्रभुपाद के तुच्छ संदेशवाहक और कार्यकर्त्ता के रूप में सेवा करते हुए उनके शिष्यों ने उनकी संजीदगी को आत्मसात् कर लिया था । और वे भी संजीदा बन गए थे। वे भी अपने गुरु के समर्पित सेवक बन गए थे। उनके किसी महत्त्वपूर्ण आदेश के पालन में अज्ञान या लापरवाही दिखाना एक प्रकार की आध्यात्मिक अयोग्यता का सूचक था। प्रभुपाद उनसे अक्सर कहते थे कि वैष्णव कोई अवकाश प्राप्त व्यक्ति नहीं है जिसका काम केवल सोना, खाना और हरे कृष्ण भजना हो । प्रत्युत एक वैष्णव कृष्ण के लिए संघर्ष करता है, जैसा कि अर्जुन और हनुमान ने किया था । और जब कोई भक्त पूर्णतया शरणागत होकर, ऐसा भरसक प्रयत्न करता है तो कृष्ण उसकी सहायता करते हैं और उसे संरक्षण देते हैं। सवेरा हुआ और प्रभुपाद के घूमने का समय आ गया । सितम्बर की ठंडी रात ने सवेरे को गहरे कुहरे से आच्छादित कर रखा था। निचली जमीन के कुछ हिस्से में वर्ष के इस समय भी, पानी भरा था और ऊपर के हिस्सों में भी लम्बी घास सवेरा होने के बाद तक भीगी रहती थी । " यह जलवायु " प्रभुपाद ने स्वीकार किया, "मेरे लिए बिल्कुल अनुकूल नहीं है।” लेकिन मैदान की सुंदरता के बारे में सुन रखने के कारण प्रभुपाद अपने सामान्य प्रातः भ्रमण का आग्रह बनाए हुए थे। टिटेनहर्स्ट का इतिहास १७७० के दशक से शुरू होता था, जब जागीर की प्रसिद्धि अपने अनेक प्रकार के वृक्षों और झाड़ियों के कारण थी। इंगलैंड में यह अपने ढंग का निराला जमघट माना जाता था। अब भी जागीर का शानदार मैदान अनेक प्रकार के वृक्षों से अलंकृत था, जैसे- साइप्रस, वीपिंग बीच, आस्टिन पापलर्स, रायल पाम, रेडवुड, तरह-तरह के पाइन, मंकी पजल वृक्ष और चैरी और सेब के फलोद्यान । एक साइप्रस १२५ फुट से अधिक ऊँचा था और रेडवुड उससे भी ऊँचे थे। झाड़ियों और अंगूर की बेलों से घने कुंज बन गए थे। मुख्य भवन के निकट सैकड़ों रोडोडेन्ड्रान, एक औपचारिक गुलाब का बगीचा और कई फौवारे थे। जागीर में उसकी निजी झील थी जिसमें स्वर्ण और किवई मत्स्य पले थे और जागीर के एक दूर किनारे पर अंगूर और आडू के लिए कई पौधा - घरों की एक पंक्ति खड़ी थी। योजना इस प्रकार की बनाई गई थी कि मैदान हर ऋतु में पल्लवित पुष्पित रहे, अत: कई पीढ़ियों से सावधानीपूर्वक उसकी देख-रेख होती आई थी। हाल में उसके एक स्वामी ने इसके लिए बीस माली रखे थे। किन्तु जान, जान-बूझकर, घास को काटे बिना बढ़ने दे रहा था । प्रभुपाद सवेरे के कुहरे में बाहर निकले और लम्बी भीगी घास पर पहुँचे । वे लगभग सभी काले कपड़े पहने थे, उनके सिर पर एक रूसी हैट था जिससे कान भी ढँके थे, उनके पैरों में काले रबर के वेलिंगटन बूट थे। एक काला लम्बा ओवर-कोट, जिसे उनके जर्मनी के भक्तों ने भेंट किया था, उनके सारे परिधान और स्वेटर को ढँके था; उसमें से केसरिया की केवल एक झलक मिल जाती थी । अपने कुछ शिष्यों के साथ प्रभुपाद आगे बढ़े तो मुख्य भवन के नजदीक एक फौवारे से गुजरे और एक उपवन में प्रविष्ट हुए । अंगूर की बेलों और झाड़ियों के कारण मार्ग संकरा हो गया था, उससे होकर वे एक मैदान में पहुँचे जो पहले अच्छी देख-रेख के फलस्वरूप बढ़िया लान रहा होगा, लेकिन अब लम्बी घास का मैदान हो रहा था । उसका कुछ भाग बुलडोजरों ने खोद डाला था जो एक जन श्रुति के अनुसार शीघ्र एक हेली - पैड में बदलने वाला था । ढलुआ घास के मैदान के अधोभाग में प्रभुपाद एक फलोद्यान में प्रविष्ट हुए। वृक्षों से बहुत-से पत्ते गिर चुके थे, और सवेरे के सूर्य की प्रथम रश्मियाँ प्रभुपाद के चरणों पर स्वर्णिम आभा विखेर रही थीं। वे एक वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और उसकी शाखाओं से परे का आकाश सूर्य के झिलमिल प्रकाश में सुनहरा लग रहा था । "मेरे बचपन में, ” उन्होंने कहा, "मुझे कई नामों ' से पुकारा जाता था। मेरे मामा मुझे नन्दू कहते थे, क्योंकि मैं कृष्ण के जन्म के एक दिन बाद पैदा हुआ था और उस दिन महान् उत्सव मनाया जाता था । और मुझे गोवर्धन भी कहते थे। मेरी एक बहिन मुझे कच कहती थी । मुझे कई नाम मिले थे। बचपन में हम सभी बहुत सुंदर थे। हमको कितने ही नामों से बुलाया जाता था। लेकिन वे सभी नाम —- वे सभी भूल गए, खतम हो गए।" वे मुड़े और फिर चलने लगे, इस विषय में बिना कुछ अधिक कहे हुए । प्रभुपाद ने ब्रिटेन की अर्थ-व्यवस्था की चर्चा की जो पाउंड के अवमूल्यन के कारण समुद्र में डूब रही थी। ब्रिटेन के कितने ही सामन्त अन्य राष्ट्रों का शोषण करके धनाढ्य बने थे; अब अपने सत्कर्मों को समाप्त कर वे अपने पापों के फल भोग रहे थे । वे इतने निर्धन हो गए थे कि अपनी जागीरों की सँभाल नहीं कर सकते थे । “केवल उनके बगीचे में काम करने के लिए सत्रह माली लगे होते थे,” प्रभुपाद ने कहा, “और अब वे कर भी नहीं अदा कर सकते । इसलिए अब उन्हें सभी चीजें छोड़नी पड़ रही हैं; और वे शूद्रों के हाथों में जा रही हैं । " ईशान ने प्रभुपाद से पूछा, "यह क्या बात है कि पतित पृष्ठभूमि से उठा हुआ मुझ जैसा व्यक्ति कृष्णभावनामृत को स्वीकार कर रहा है ?” "क्योंकि तुम बुद्धिमान हो,” प्रभुपाद ने उत्तर दिया । "मैं समझा नहीं ।' "क्योंकि तुम बुद्धिमान हो ।” प्रभुपाद ने दुहराया। ईशान की पत्नी विभावती ने पूछा, “आध्यात्मिक गुरु का क्या तात्पर्य है ?" 'वास्तव में मैं तुम्हारा आध्यात्मिक गुरु नहीं हूँ।” प्रभुपाद ने उत्तर दिया " यह पद केवल एक औपचारिकता है। तुम्हें चाहिए कि मुझे अपना आध्यात्मिक पिता समझो, अपना शाश्वत पिता । " जब वे एक ट्रैक्टर के पास से निकले तो कुलशेखर ने टिप्पणी की, ट्रैक्टर एक अद्भुत आविष्कार है, है न?" प्रभुपाद कुलशेखर की ओर मुड़े, "वह ट्रैक्टर भारत की ग्रामीण प्रणाली का पतन है । " " यह कैसे ? यह दस आदमियों का कार्य करता है ?" “हाँ,” प्रभुपाद ने कहा, “पहले गाँव के युवक खेत जोतने में लगते थे। तब यह ट्रैक्टर आया और वह उन सभी युवकों का कार्य करने लगा; और उनके पास, करने को कुछ नहीं रह गया । इसलिए वे काम के लिए प्रयत्न करने को नगरों में गए और माया के फंदे में फँस गए। पीली घास के एक भूखंड की बगल में रुक कर प्रभुपाद ने पूछा, यह पीली घास भिन्न क्यों हैं ?" किसी ने उत्तर नहीं दिया, “दूसरी घास हरी है, प्रभुपाद बोले, “किन्तु यह पीली है। कारण क्या है ? " तब भी किसी ने उत्तर नहीं दिया, “यह पीली घास सूख रही है ।" प्रभुपाद ने व्याख्या की, “क्योंकि इसकी जड़ें आबद्ध नहीं हैं। इसलिए यह पीली है। इसी प्रकार जब हम कृष्ण से विलग हो जायँगे तो हम सूख जायँगे" वे एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ घास लगभग छह फुट की ऊँचाई तक बढ़ी थी। ट्रैक्टर से बनाए गए एक मार्ग में रुक कर प्रभुपाद मुसकराए, “ओह ! हम इस मार्ग से जा सकते हैं?" और वे अपनी छड़ी के साथ सिर तक ऊँची उगी घास और फूस के जंगल में आगे बढ़ते गए। वे चलते गए जब तक एक छोटी पहाड़ी, जिसकी सफाई की गई थी, नहीं आ गई। प्रभुपाद वहाँ रुक गए। जब अपने कुछ शिष्यों और घास के समुद्र से घिरे हुए, प्रभुपाद वहाँ खड़े थे तब कुलशेखर ने उस गीत के बारे में पूछा जो वे उस दिन बहुत सवेरे गा रहे थे । " वह गीत, " प्रभुपाद बोले, “भगवान् चैतन्य महाप्रभु के विषय में है। वे उठ जाते थे और सवेरे इस समय बाहर निकल जाते थे, जब सूर्योदय हो चुका होता था, पर सूर्य अभी आकाश में दिखाई नहीं देता था ।" जब प्रभुपाद बात कर रहे थे, कुहरा समाप्त हो चुका था और सूर्य की सुनहरी आभा क्षितिज पर और ऊपर पहुँच गई थी । प्रभुपाद ने अपनी बाहें उठाईं और शरीर को एक ओर से दूसरी ओर झुलाया । " इस भाँति,” उन्होंने कहा, “चैतन्य महाप्रभु सवेरे नृत्य करते थे ।” जब वे मुख्य भवन से होकर वापस लौट रहे थे, उस समय जान लेनन शीशे के दरवाज़ों पर खड़ा उन्हें देख रहा था। हाथ में छड़ी लिए, काला कोट और वेलिंगटन बूट पहने हुए प्रभुपाद उस जागीर के संभ्रान्त स्वामी प्रतीत होते थे जो प्रातः भ्रमण के लिए निकला हो। कभी-कभी रुक कर वे कुछ वृक्षों का अवलोकन करते, उनकी छाल का स्पर्श करते, पत्तियों को रगड़ते और ध्यानपूर्वक उनका निरीक्षण करते। भ्रमण के आरंभ में एक भक्त ने गुलाब का एक फूल तोड़ कर उन्हें दे दिया था, उसे अपने हाथ में वे सावधानीपूर्वक अब भी लिए थे। वे एक घंटे तक भ्रमण करते रहे थे। उन्हें सर्वत्र सुंदर दृश्य मिले थे और सर्वत्र वे भक्तों को कृष्णभावनामृत का उपदेश देते रहे थे । जब प्रभुपाद उस मकान के पास पहुँचे जिसमें वे रहते थे, तो उनकी भेंट छोटी सरस्वती से हुई । उसका हाथ पकड़ कर वे उसके साथ सीढ़ियों तक गए, जहाँ वे दोनों रुक गए। जब प्रभुपाद आधी सीढ़ियाँ चढ़ चुके तो उन्होंने मुड़ कर देखा कि सरस्वती नीचे खड़ी उन्हें देख रही थी । उन्होंने इशारा किया और उसे बुलाया, "आ जाओ,” और वह उनके पीछे रेंगती हुई सीढ़ियों पर चढ़ने लगी । जब सरस्वती प्रभुपाद के कमरे में पहुँच गई तो उन्होंने पूछा, इतनी बड़ी हो गई हो कि गुरुकुल जा सको ?” "नहीं,” उसने सिर हिलाते हुए कहा । " आओ, मैं तुम्हारे माथे पर एक टिकट लगाता हूँ और तब हम तुम्हें गुरुकुल भेजने के लिए एक लाल मेल बाक्स में डाल देंगे । " सरस्वती रोने लगी, "मालती ! मालती! मैं जाना नहीं चाहती ।" और वह भाग कर अपनी माँ के पीछे छिप गई। "आओ, सरस्वती, " प्रभुपाद ने पुचकारा, "आओ, मेरी गोद में बैठो और मैं तुम्हें कुछ प्रसाद दूँगा ।" सरस्वती आई और प्रभुपाद के घुटने पर बैठ गई । "अब, टिकट लाओ, पुरुषोत्तम, " प्रभुपाद ने चिढ़ाया, “हम इसे गुरुकुल भेजने जा रहे हैं। " सरस्वती चिल्लाई और मालती के पास भाग गई । श्रील प्रभुपाद के लिए सरस्वती एक पवित्र आत्मा थी, किन्तु चूँकि वह एक छोटी बालिका के शरीर में थी, इसलिए वे उसे दर्शन नहीं पढ़ाते थे; वे उसे चिढ़ाते थे, प्रसाद देते थे और एक दादा के लाड-प्यार के साथ उससे बर्ताव करते थे। पर उनके साथ अपनी अनुरक्ति द्वारा वह कृष्ण में अनुरक्त हो जायगी । कलेवा के बाद, जब हवा में गरमी आ गई तब प्रभुपाद ने खिड़कियाँ खोल दी, हारमोनियम लेकर बैठ गए और भजन गाने लगे। आँखे बंद किए जब वे हारमोनियम बजा कर गाने लगे तो उनका सिर झूमने लगा और सीढ़ियों के नीचे बैठी यमुना प्रशंसा के आँसू बहाने लगी। कुछ देर गाते रहने के बाद प्रभुपाद रुक गए और उन्होंने यमुना को आवाज दी, “ क्या मेरा कीर्तन तुम्हें पसन्द आया ?” उन्होंने पूछा । “हाँ,” उसने सिर हिलाया, "बहुत अधिक।" "ये नरोत्तम दास ठाकुर के प्रार्थना गीत हैं।" प्रभुपाद बोले, “इनकी धुन सांसारिकता के मंच से ऊपर है। यह सीधे आध्यात्मिक मंच से आती है। और यहाँ भाषा समझने की जरूरत नहीं है। यह ठीक मेघगर्जन जैसी है। मेघगर्जन हर एक सुन सकता है— वहाँ भ्रम के लिए स्थान नहीं है । इसी तरह ये प्रार्थना - गीत सांसारिक मंच से ऊपर हैं और ये तुम्हारे हृदय में बिजली जैसे कौंध जाते हैं । तुम हर दिन मेरे भजन के समय यहाँ क्यों नहीं आ जाया करती ?" 'यह बहुत अच्छा रहेगा । " “हाँ,” प्रभुपाद बोले, “ आज से हम इसका रेकर्ड बनाएँगे ।" और उसके बाद से हर दिन सवेरे प्रभुपाद भजन गाते थे और पुरुषोत्तम और यमुना उनके कमरे में आते थे और रेकर्ड बनाते थे । " आपका प्रिय भजन क्या है ?" यमुना ने पूछा । " तुम्हारा क्या है ?" प्रभुपाद ने प्रश्न किया । “भगवान् चैतन्य के शिक्षाष्टकम् भजन । " " मेरा प्रिय भजन है हरि हरि विफले ।” प्रभुपाद ने भजन का सारांश अंग्रेजी सुनाया, "हे भगवान् हरि, मैने जीवन व्यर्थ ही गँवा दिया है। यद्यपि मैंने दुर्लभ मनुष्य - तन पाया है, पर मैंने राधाकृष्ण की उपासना नहीं की और इस तरह जान-बूझकर मैने विषपान किया है। नरोत्तम दास ठाकुर के भजनों में इतना गहन अर्थ छिपा है। ' पुरुषोत्तम : एक बार प्रभुपाद अपने कमरे में अकेले बैठे थे। मैं उधर से निकला तो उन्हें एक भजन गाते हुए सुना जो मैंने पहले कभी नहीं सुना था । मैं अंदर चला गया। यह सच है कि सभी जानते हैं कि वे भजन गाते हैं— वे बहुत अच्छा गा सकते हैं और उनके गायन में बड़ी प्रेरणा होती है— किन्तु मैने उन्हें उतनी सुंदरता से गाते कभी नहीं सुना था जितनी सुन्दरता से वे उस दिन गा रहे थे। मैने उन्हें अनेक मंदिरों में अनेक बार गाते हुए सुना था, पर इस बार जैसी सुंदरता से गाते मैने उन्हें कभी नहीं सुना था। मैंने इसे सुनकर अपने को बड़ा सम्मानित, बड़ा सौभाग्यशाली समझा। वह बहुत सुंदर गायन था। जब उन्होंने समाप्त किया तो वे एकदम खड़े हो गए और बोले, "आओ, अब चलें ।" प्रभुपाद ने भगवद्गीता का भी एक अध्याय प्रतिदिन के हिसाब से अठारह दिनों तक पाठ किया । " जहाँ भी भगवद्गीता का पाठ होता है,” उन्होंने कहा, 'वह स्थान तीर्थ बन जाता है । " पुरुषोत्तम ने श्रील प्रभुपाद के इन क्रियाकलापों का वितरण संयुक्त राज्य के शिष्यों को लिख भेजा । वे बहुत सारे भजन गाते हैं और उनमें से बहुतेरों का रेकर्ड बनाया जा रहा है। मुझे स्वीकार करना पड़ता है कि उनके गीतों और भजनों के जो टेप इस समय बन रहे हैं वे मेरे अब तक के सुने टेपों में सर्वोत्तम हैं। प्रतीक्षा करो हमारी वापसी पर उनके सुनने की। जैसा कि भागवतम् में कर पिओ, और इस नश्वर शरीर से कहा है, “ओ धर्मिष्ठ मानव, कहा है, " ओ धर्मिष्ठ मानव, इस अमृत को छक मुक्ति पा जाओगे ।" जो महिलाएँ प्रभुपाद का भोजन बनाती थीं वे उनके लिए अमेरिकन मिष्ठान्न तैयार करती थीं, जैसे सेब की पाई, गुलगुले, चमकते बिस्कुट, आदि । प्रभुपाद मुसकरा देते थे, लेकिन वे व्यंजनों में से कुछ टुकड़ा ही लेते थे। एक दिन तीसरे पहर उन्होंने कहा, “ये मिष्ठान्न बहुत अच्छे हैं, लेकिन किसी ने मेरे लिए संदेश नहीं बनाया । " भक्तों में से कोई बंगाली मिठाइयाँ बनाना नहीं जानता था इसलिए प्रभुपाद उन्हें पाकशाला में ले गए और उन्होंने संदेश बनाना सिखाया । यद्यपि भक्तों ने सावधानीपूर्वक देखा था, पर पहले प्रयत्न में उन्होंने जो संदेश बनाए वे सूखे और दानेदार निकले। परन्तु प्रभुपाद ने उन्हें स्वीकार किया, पाश्चात्य मिष्ठान्नों की तुलना में उन्हें संदेश पसंद थे— स्वयं कृष्ण भी इन्हें खाते थे । टिटेनहर्स्ट के भक्तों के लिए प्रभुपाद को अपने बीच पाना कृष्ण के सच्चे भक्त का दर्शन पाना था जो निरन्तर तन- मन-वाणी से कृष्ण की भाव-भक्ति में लीन था। वे देखते थे कि किस प्रकार प्रभुपाद हर क्षण कृष्णभावनाभावित होकर भाषण करते या कार्य करते थे और उनकी उपस्थिति से इस बात की पुष्टि होती थी कि विशुद्ध भाव-भक्ति का श्रेष्ठ मंच यथार्थ था। प्रभुपाद के भक्तों को परमानन्द की अनुभूति हो रही थी और उनके साथ बने रहने के अपने निश्चय को उन्होंने फिर दुहराया । प्रभुपाद के मेजबानों, जान और योको, को भी उनके निकट रहने का अमूल्य अवसर मिला था, यद्यपि वे अलग बने रहे। अपनी दुनिया में एक साथ रहते हुए, वे भक्तों से कभी-कभी ही मिलते-जुलते थे। प्रभुपाद के भक्त जान के प्रबन्धकों के अधीन कार्य करते रहे और जान को स्वामीजी और उनके दल के लोगों को जागीर में रहने देने से संतोष था । जब प्रधान माली ने जान से पूछा कि भक्तों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए तो जान ने उत्तर दिया, " उन्हें आनंद लेने दो।” मुख्य भवन में होने वाले कुछ क्रियाकलापों के बारे में सुन कर प्रभुपाद ने टिप्पणी की कि कभी-कभी स्त्रियों का पुरुषों पर कितना बुरा प्रभाव होता है, लेकिन वे जान और योको के मामलों में पड़ने से बचे रहे; उनके पास कृष्णभावनामृत के अपने निजी मामले थे । *** हवाई अड्डे से टिटेनहर्स्ट पहुँचाए जाने के कारण, प्रभुपाद लंदन नगर नहीं देख सके थे; और एक दिन उन्होंने श्यामसुंदर से नगर की सैर कराने को कहा । प्रभुपाद ब्रिटिश कलकत्ता में पल कर बड़े में पल कर बड़े हुए थे जहाँ उन्होंने ब्रिटेन के विश्व - साम्राज्य की राजधानी के रूप में लंदन की प्रशंसा सुनी थी, इसलिए जब उन्होंने देखा कि लंदन के कुछ ऐतिहासिक स्थल कितने छोटे थे तो उन्हें विशेष आश्चर्य हुआ । बकिंगहम पैलेस को देख कर उन्होंने टिप्पणी की, “कलकत्ता में इससे बड़े कितने ही मकान हैं।" टेम्स नदी को भी देख कर, जिसका इतना गुणगान अंग्रेज लेखकों ने, जिन्हें प्रभुपाद कालेज के दिनों में पढ़ चुके थे, किया था, उन्हें निराशा हुई । “ यह एक नहर है, ” उन्होंने कहा, "यह केवल एक नहर " है । मैं सोचा करता था कि यह गंगा से बड़ी होगी । " परन्तु प्रभुपाद के लिए सब से रुचिकर स्थान ७ बरी प्लेस का भवन था । नगर के अधिकारियों ने हाल में ही भक्तों को मंदिर में रहने की अनुमति दे दी थी। इस संघर्ष में विजय हो गई थी। अब श्यामसुंदर और उसके कतिपय सहायकों को भवन का नवीकरण शीघ्र समाप्त करना था। मंदिर की अवस्थिति ब्रिटिश म्यूजियम और मदाम तुसौद वैक्स म्यूजियम के निकट देख कर प्रभुपाद को इस बात की और अधिक चिन्ता होने लगी कि श्यामसुंदर द्वारा उसके उद्घाटन की तिथि यथाशीघ्र निश्चित हो जानी चाहिए। *** सितम्बर में श्रील प्रभुपाद ने सत्स्वरूप को अपने टिटेनहर्स्ट में रहने के बारे में लिखा । यहाँ एक बड़ा हाल है जो मंदिर के लिए बहुत ही उपयुक्त है। निर्धारित दिनों पर मैं यहाँ प्रवचन करने लगा हूँ किन्तु बाहरी लोग नहीं आ रहे हैं । प्रभुपाद " बाहरी लोगों" को धर्मोपदेश करना चाहते थे, और यदि वे उनके पास नहीं आते तो वे उनके पास जाने को तैयार थे। उनकी पहली बाहरी सभा, जिसका आयोजन भक्तों ने किया, लंदन के मध्य, कैमडन टाउन हाल में थी और उसमें अंग्रेज़ और भारतीय दोनों ही अच्छी संख्या में आए थे। प्रभुपाद के संक्षिप्त प्रवचन के बाद जो केवल लगभग पन्द्रह मिनट तक चला — प्रश्नोत्तर का सत्र आरंभ हुआ । एक महिला : “आप का क्या कहना है ? कृष्ण भगवान् हैं या कृष्ण प्रेम हैं ?" प्रभुपाद : “बिना प्रेम के कृष्ण भगवान् कैसे हो सकते हैं ? " महिला : “नहीं, मैं आपसे पूछ रही हूँ ।' प्रभुपाद : "हाँ, वास्तविक स्थिति यही है । कृष्ण का अर्थ है— सर्व सम्मोहनकारी । जो भी सर्व सम्मोहनकारी है, उसे सामान्यतः सभी प्रेम करते हैं । " एक पुरुष : “ तब, भगवान् का अंश, मानव, भी प्रेम स्वरूप है ?" प्रभुपाद : “हाँ, आप कृष्ण के अंश हैं। आप किसी से प्रेम करना चाहते हैं और कृष्ण आप से प्रेम करना चाहते हैं। यह प्रेम का आदान-प्रदान है। किन्तु कृष्ण से प्रेम करने के स्थान पर आप किसी अन्य वस्तु से प्रेम करना चाहते हैं। आप की कठिनाई यही है। प्रेम आप और कृष्ण दोनों में है और जब आप और कृष्ण के बीच प्रेम का विनिमय होगा तब आप का जीवन पूर्णता को प्राप्त होगा । " पुरुष : “धन्यवाद । एक भारतीय महिला : “क्या इसमें कोई हानि होगी यदि मैं किसी और की उपासना करूँ ? क्या इसमें कोई हानि है कि मैं चाहे कृष्ण की उपासना करूँ, या शिव की, या ईसा मसीह की, या बुद्ध की ? इसमें कोई हानि है ?" प्रभुपाद : “यदि आप शिव की उपासना करेंगी तो शिव को प्राप्त करेंगी । यदि आप कृष्ण की उपासना करेंगी तो कृष्ण को प्राप्त करेंगी। शिव की उपासना करके आप कृष्ण को पाने की आशा क्यों करती हैं? आपका क्या विचार है ? भारतीय महिला : “मेरा विचार है कि क्या इसमें कोई हानि है ?" प्रभुपाद : " क्या आप यह नहीं मानती कि यदि आप भारत के लिए टिकट खरीदती हैं तो भारत जायँगी ? आप अमेरिका कैसे जा सकती हैं ?" भारतीय महिला : " बात यह नहीं है ?" प्रभुपाद : “ बात यही है। इसकी व्याख्या भगवद्गीता में की गई है : यान्ति देव - व्रताः देवान् पितृन यान्ति पितृ - व्रताः । भारतीय महिला : “किन्तु मेरा कहना है ... " प्रभुपाद : " 'आपका कहना, आप समझती हैं। आप भगवद्गीता के वर्णन को क्यों नहीं समझतीं ? यदि आप शिव और अन्य देवताओं की उपासना करेंगी तो आप उन्हें पाएँगी। यदि आप कृष्ण की उपासना करेंगी तो आप कृष्ण को प्राप्त करेंगी। यह समझने में कठिनाई क्या है ?" भारतीय महिला : " क्या आप समझते हैं कि शिव एक देवता हैं ? " प्रभुपाद : "हाँ, क्यों नहीं ?" भारतीय महिला : “ किन्तु कृष्ण तो कहते हैं कि इससे कोई अंतर नहीं आता कि आप उपासना कैसे करते हैं। सभी साधनों का लक्ष्य एक है और आप उसी एक लक्ष्य पर पहुँचते हैं। तुम जो भी मार्ग अपनाओ, अंतत: तुम मेरे ही पास आओगे।" प्रभुपाद : " समझने की कोशिश करें। मान लीजिए कि आप को मकान की बयालीसवीं मंजिल पर जाना है। और आप एक के बाद एक चढ़ती जा रही हैं। आप का गन्तव्य बयालीसवीं मंजिल है। लेकिन कुछ सीढ़ियाँ चढ़ लेने के बाद ही आप नहीं कह सकतीं कि 'मैं अपने गन्तव्य बयालीसवीं मंजिल पर पहुँच गई हूँ।' मार्ग एक है—यह ठीक है— किन्तु आप को अपने चरम गंतव्य पर पहुँचना है। आपको यही नहीं मालूम कि आप का अंतिम गंतव्य क्या है । आप केवल यह कहती हैं कि सारे मार्ग उसी गंतव्य पर ले जाते हैं। पर आप को मालूम नहीं कि अंतिम गंतव्य क्या है । एक युवा हिप्पी खड़ा हुआ और चिल्लाया, " हे स्वामीजी ।" सभा में बैठे लोग उसकी ओर मुड़े और देखने लगे, "आप ने कहा है कि यदि हम सावधान नहीं रहे तो अगले जन्म में हम कुत्ते होंगे। परन्तु मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मुझे इसकी चिन्ता नहीं है कि मैं अगले जन्म में कुत्ता होऊँगा ।" " मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है ।" प्रभुपाद ने कहा और वह युवक बैठ गया। प्रत्येक रात के प्रवचन भिन्न-भिन्न स्थानों पर करने से नगर में एक मंदिर की आवश्यकता और भी अनुभव की गई। प्रभुपाद को ऐसी स्थिति का सामना न्यू यार्क में भी १९६५ में करना पड़ा था। उस समय भी उनके पास मंदिर नहीं था। उनके श्रोता सम्मानपूर्वक उनका प्रवचन सुनते थे और अलग-अलग चले जाते थे और उनसे उनकी भेंट फिर कभी नहीं होती थी— किन्तु कृष्ण - चेतन बनने के लिए किसी का कृष्ण के विषय में बार-बार सुनना जरूरी था और इसके लिए एक मंदिर की आवश्यकता थी । यदि प्रभुपाद लंदन में मंदिर की स्थापना कर सकें तो कृष्ण के विषय में सुनने, प्रसाद ग्रहण करने और भगवान् के लावण्यमय विग्रह को सराहने के लिए वहाँ प्रतिदिन हजारों व्यक्ति आ सकते थे। मंदिर के माध्यम से अतिथियों को भगवान् के भक्तों के नियमित घनिष्ठ सम्पर्क में आने का अवसर मिलेगा, और यह बहुत आवश्यक था । किन्तु मंदिर के अभाव में प्रभुपाद सारे लंदन में घूम कर प्रवचन करने को तैयार थे। कृष्ण के उपदेश, कृष्ण का कीर्तन और कृष्ण का प्रसाद — ये सभी नितान्त हितकर थे और बाहरी परिस्थितियाँ जो भी हों, इनका असर होगा ही । लंदन के मध्य में स्थित रेड लायन स्क्वायर के कानवे हाल सभागार में पाँच सौ लोगों के बैठने का स्थान था । उसमें, अगले तीन महीने तक चलने वाली बारह व्याख्यानों की श्रृंखला आयोजित करके, भक्तों को आशा हो गई थी कि प्रभुपाद को तब तक तो लंदन में रुकना ही होगा। गुरुदास ने व्याख्यानों के शीर्षक निश्चित कर लिए थे और इश्तिहारों की पचास हजार प्रतियाँ छपा ली थीं। प्रवेश शुल्क दो शिलिंग छह पेंस रखा गया था । पहली रात कानवे हाल में लगभग एक सौ श्रोता उपस्थित थे। प्रभुपाद एक मेज पर बिछी गद्दी पर बैठे कीर्तन करा रहे थे; उनके शिष्य फर्श पर बैठे थे । यमुना हारमोनियम बजा रही थी, और मुकुंद एवं कुलशेखर मृदंग बजा रहे थे। प्रभुपाद के राधाकृष्ण अर्चाविग्रह उनकी बगल में एक अलग मेज पर अपनी वेदिका पर आसीन थे। पीछे की दीवार पर हरे कृष्ण मंत्र की पताका लहरा रही थी । गुरुदास ने आज के व्याख्यान का विषय रखा था, "वेदों की शिक्षाएँ,” और प्रभुपाद ने बताया कि वेद की शिक्षाओं को केवल आत्मसिद्धि प्राप्त संतों की वाणी सुन कर समझा जा सकता है। प्रभुपाद के व्याख्यान के बाद श्रोताओं ने लम्बी करतल ध्वनि से उनका अनुमोदन किया । प्रभुपाद ने प्रश्नों के उत्तर दिये और अंत में यमुना से कीर्तन करवाया। अगले दिन प्रभुपाद ने डाक्टर श्यामसुंदर दास ब्रह्मचारी को भारत लिखा, "मैं लगभग एक घंटे बोला, और उसके बाद वे तालियाँ बजाते रहे, जिससे उनकी सराहना की पुष्टि होती है । ' कानवे हाल के दूसरे दिन के कार्यक्रम में जब कीर्तन के बीच प्रभुपाद खड़े हुए और नाचने लगे तो मंच पर बैठे भक्तों ने उनका साथ दिया और वे भी एक वृत्त बना कर नृत्य करने लगे। ईशान अपनी तुरही बजाने लगा और सरस्वती तक भावविभोर होकर उछलने-कूदने लगी जिससे ऊँची स्कर्ट के नीचे पहनी गई उसकी कच्छी दिखाई दे रही थी। कानवे हाल में हर सप्ताह बैठक होने लगी और प्रभुपाद का नृत्य उसका नियमित अंग बन गया । एक रात कानवे हाल में एक अंग्रेज खड़ा हुआ और उसने पूछा, “आप अपने देशवासियों की सहायता करने की कोशिश क्यों नहीं करते ? आप इतनी दूर क्यों आए? आप केवल बड़े राजनीतिज्ञों के पास क्यों नहीं जाते ? सहायता करने के लिए यहाँ बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ हैं । " प्रभुपाद : " आप एक बड़े राज - नेता हैं। इसलिए मैं आप के पास आया क्या यह ठीक है ?" एक अन्य व्यक्ति ने पूछा, “यदि यही परम सत्य है तो क्या बात है कि लंदन में इतने अधिक लोगों के होते हुए भी यहाँ बहुत अधिक लोग उपस्थित नहीं हैं ?" प्रभुपाद : “जब आप हीरों की बिक्री करते हैं तो आप बहुत से ग्राहकों की आशा नहीं करते। लेकिन यदि आप कट ग्लास बेच रहे हों तो बहुत-से मूर्ख आ धमकेंगे। हमारे पास एक बहुमूल्य पदार्थ है— कृष्णभावनामृत आन्दोलन । यह आशा न करें कि सभी मूर्खजन इसे अपनाएँगे। कुछ सत्यनिष्ठ आत्माएँ यहाँ मौजूद हैं। आप भी इसे स्वीकार करें। " प्रभुपाद अंग्रेजों की प्रतिक्रिया से उत्साहित हुए। हर दिन श्रोतागण कीर्तन और नृत्य में उनका साथ देने लगे । लंदन में कार्य बढ़िया ढंग से चल रहा है। गत संध्या को कानवे हाल में एक सभा थी और कई सौ लोगों ने भजन कीर्तन और नृत्य में हमारा साथ दिया। बैठक के बाद लंदन के सबसे बड़े समाचार पत्र का एक संवाददाता मंच के पीछे हमारे आन्दोलन के विषय में और अधिक विवरण माँगने आया ताकि वह अपने पत्र में उन्हें छाप सके। इसलिए, लंदन की जनता और समाचार-पत्रों की ओर से हमारे क्रियाकलापों का जिस बढ़िया ढंग से स्वागत हो रहा है, उससे मैं बहुत उत्साहित अनुभव करता हूँ। अक्तूबर के अंत में प्रभुपाद इंगलिश स्पीकर्स यूनियन में बोले जिसमें श्रोता अधिकतर भारतीय थे । उन्होंने अपना वक्तव्य आरंभ किया, “यद्यपि आज यहाँ हम थोड़ी संख्या में एकत्रित हुए हैं, तो भी यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण बैठक है। भारत के पास एक संदेश है। आप सभी सम्मान्य भारतीय हैं जो संसार के इस महत्त्वपूर्ण नगर, लंदन में उपस्थित हैं, और मैं एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य के साथ यहाँ आया हूँ। यह उस तरह का उद्देश्य नहीं है जिसे लेकर भारतीय प्राय: यहाँ या बाहर के अन्य देशों में जाते हैं— अर्थात् कोई चीज माँगने । मैं यहाँ कोई चीज देने आया हूँ । इसलिए आप कृपया मेरे साथ सहयोग करें। ३० अक्तूबर को प्रभुपाद ने आक्सफोर्ड टाउन हाल में भाषण दिया । उनका भाषण प्रारंभिक ढंग का था, यद्यपि वह संस्कृत के उद्धरणों से अधिक अलंकृत था । उनके शिष्यों को आक्सफोर्ड के छात्रों से कोई विशेष आशा नहीं थी, तो भी हाल भरा था । और जब प्रभुपाद खड़े हुए और उन्होंने इशारा किया कि प्रत्येक व्यक्ति हाथ उठाए और नृत्य में भाग ले तो लगभग पूरी श्रोता - मण्डली ने साथ दिया। मुकुंद अपनी बड़ी तुरही बजाने लगा और सैंकड़ों कीर्तन करने लगे, प्रभुपाद अपनी बाहें ऊपर उठा कर बलपूर्वक ऊपर-नीचे कूदने लगे। कल आक्सफोर्ड में टाउन हाल में हमारी एक बहुत सफल बैठक हुई। उसमें लगभग ३५० लड़कें, लड़कियां, वृद्धजन, महिलाएँ और पुरुष सम्मिलित हुए और हमने अपने साथ हर एक से भजन और नृत्य कराया। बैठक के बाद बहुत-से लड़के और सज्जन बधाई देने आए। प्रभुपाद को ब्रिटेन के सर्व- लोकप्रिय टी.वी. वार्ता कार्यक्रम "लेट नाइट लाइन-अप' में सम्मिलित होने का आमंत्रण मिला । भेंटकर्त्ता तेज हाजिरजवाब था; उसने लम्बे, दार्शनिक उत्तरों से कतराते हुए, प्रभुपाद को अपनी वार्तालाप - शैली में लाने का प्रयत्न किया । " स्वामीजी, ” उसने पूछा, 'क्या आप के धर्म में नरक की कोई धारणा है ?" “हाँ,” प्रभुपाद ने कहा, "लंदन नरक है । " भेंटकर्त्ता भौंचक्का रह गया, मानों शुरू में ही वह अपनी चाल में मात खा गया हो । प्रभुपाद ने कहना जारी रखा, “यहाँ हमेशा नमी रहती है, बादल रहते हैं और वर्षा होती रहती है। भारत में सूर्य हमेशा चमकता रहता है । " भेंटकर्त्ता को अब भी शब्द नहीं सूझते थे, और प्रभुपाद, मानो उसकी परेशानी को समझते हुए, बोले, "यह अंग्रेज जाति को महान् श्रेय मिलना चाहिए कि उसने ऐसी जलवायु में इतनी बड़ी सभ्यता का निर्माण किया । " अन्य कई प्रश्न आए और प्रभुपाद एक घंटे बातें करते रहे, कृष्णभावनामृत और उसकी दार्शनिक विचारधारा को समझाते हुए । अगले दिन लंदन के एक समाचार पत्र ने घोषित किया, “स्वामी लंदन को नरक बताता है । “ हरे कृष्ण मंत्र " रेकर्ड की इंगलैंड में और सारे योरप में बिक्री अब भी तेजी पर थी और इस ख्याति से आकृष्ट होकर एक डच टेलीविजन कंपनी ने अपने खर्चे पर प्रभुपाद के शिष्यों को एम्सटर्डम में कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया। टेलीविजन पर उन्हें केवल पाँच मिनट का समय मिलने को था, फिर प्रभुपाद ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। “पाँच मिनट," उन्होंने कहा, “पर्याप्त हे । हम कृष्णभावनामृत का पूरा दर्शन पाँच मिनट में समझा देंगे । " प्रभुपाद और उनके शिष्य डोवर से जल - नौका द्वारा इंगलिश चैनल पार करके फ्रांस पहुँचे और वहाँ से ट्रेन द्वारा एम्सटर्डम गए। टेलीविजन स्टूडियो, जो नगर के बाहर स्थित था, आधुनिक, वातानुकूल भवन में था; उससे लाउडस्पीकर द्वारा निरन्तर घोषणाएँ प्रसारित हो रही थीं, उसमें कृत्रिम पौधे लगे थे, हर कक्ष में टी.वी. सेट था— लेकिन खिड़की कोई नहीं थी । स्वागतकर्ता प्रभुपाद और उनके शिष्यों को एक खिड़की - विहीन कमरे में ले गया जिसकी पुख्ता दीवारें चित्रों से अलंकृत थीं । “भारत में,” प्रभुपाद ने कहा, " हम किसी ऐसे स्थान में रहने के बारे में सोच नहीं सकते जहाँ खिड़कियाँ और ताजा हवा न हों। मैं खिड़की के निकट बैठना चाहता हूँ।” अतः भक्तों ने सारे स्टूडियो को छान डाला अन्त में उन्हें तीसरी मंजिल के एक हाल के मार्ग में उन्हें खिड़की मिली। अपनी-अपनी कुर्सिया उठाकर वे प्रभुपाद के साथ ऊपर गए और खिड़की के समीप बैठे । “२००० ई. तक किसी को दिन का प्रकाश देखने को नहीं मिलेगा, ” प्रभुपाद ने कहा, “ नगरों का निर्माण विवश होकर पृथ्वी के नीचे करना पड़ेगा। सब को कृत्रिम प्रकाश और भोजन मिलेगा, पर सूर्य - प्रकाश नहीं ।" कार्यक्रम का निर्माता आया तो उसे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि 'स्वामी' भी उसमें भाग लेने को थे । यह आश्चर्य सुखद था और निर्माता ने स्वामी का कार्यक्रम में स्वागत किया। “अब मैं आप और आप के दल से जो चाहता हूँ,” उसने बताया, "वह यह है कि आप अपना 'हरे कृष्ण मंत्र' का रेकर्ड गाएँ। आप को वास्तव में जोर से नहीं गाना है। हम आपका रेकर्ड बजाने जा रहे हैं, और आप उसकी नकल करें। ऐसा अभिनय कीजिए कि आप उन यंत्रों को बजा रहे हैं। अभिनय कीजिए कि आप गा रहे हैं ।" उसने अनुमति दी कि बाद में प्रभुपाद बोल सकते थे— दो मिनट के लिए । इसके पहले कि प्रभुपाद और उनके भक्त रंगमंच पर जायँ, उन्हें बगल में प्रतीक्षा करनी पड़ी, जबकि एक स्थानीय डच मंडली रंगमंच पर सैक्सोफोन, तुरही और मृदंग बजाने का अभिनय करती हुई नाचती रही। तब निर्माता प्रभुपाद के बैठने के लिए एक गद्दीदार मेज लाया और उनके शिष्यों को उनकी चारों ओर फर्श पर बैठा दिया । कैमरे चालू हो गए, रेकर्ड बजने लगा और भक्त अभिनय करने लगे। अचानक सूखी बर्फ से व्युत्पन्न बादल रंगमंच के ऊपर मंडरा उठे—मानो कार्यक्रम का यह 'रहस्यमय प्रभाव' हो । जब सभी भक्त कार्बन डायक्साइड के बादलों में विलुप्त हो गए उस समय केवल प्रभुपाद स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे थे । विशेष प्रभाव को असफल पाकर निर्माता ने भक्तों को खड़े होने और प्रभुपाद के इर्द-गिर्द नाचने का इशारा किया । गायन समाप्त हुआ और एक कैमरे ने प्रभुपाद को लक्ष्य किया । अब, आप को दो मिनट दिए जाते हैं, स्वामीजी,” निर्माता ने कहा । प्रभुपाद आरंभ किया। " हम इस हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करते रहे हैं। यह दिव्य ध्वनि की गूँज है, जो भगवान् से अभिन्न है । भगवान् के नाम और उनके रूप एक हैं। आप इस दिव्य ध्वनि का जप करें और आप का जीवन पूर्णता को प्राप्त होगा । आप आनन्दित होंगे और आपको अपनी सच्ची प्रकृति की अनुभूति होगी कि आप भगवान् के, कृष्ण के, शाश्वत सेवक हैं। इस प्रक्रिया को भक्ति-योग कहते हैं, और हम हर एक से जप करने की प्रार्थना करते हैं। बहुत धन्यवाद ।' प्रभुपाद को प्रसन्नता थी कि उनके शिष्यों के रेकर्ड की योरप में इतनी धूम थी । हरे कृष्ण रेकर्ड की बिक्री बहुत बढ़िया हो रही है। कल उसकी पाँच हजार प्रतियाँ बिकीं और इस सप्ताह यह काल क्रमिक सूची में बीसवें नंबर पर है। वे कहते हैं कि अगले सप्ताह यह तीन नंबर पर आ जाएगा और उसके बाद यह एक नंबर पर आ सकता है। अतः वे इस रेकर्ड से अत्यन्त आशान्वित हैं। बोस्टन में सत्स्वरूप को प्रभुपाद ने लिखा : इंगलैंड में हरे कृष्ण रेकर्ड की अच्छी बिक्री हो रही है। और मैने सुना है कि आस्ट्रेलिया में ५० महत्त्वपूर्ण रेकर्डों में इसका स्थान चौथा है । 'हरे कृष्ण मंत्र' पश्चिम जर्मनी में पहले नम्बर का गीत बन गया, चेकोस्लोवाकिया में वह पहले नम्बर पर था और सारे योरप, यहाँ तक कि जापान में भी, वह पहले दस में से एक था । रेकर्ड की आमदनी से भक्त अपना खर्च चलाने लगे और बरी प्लेस के मंदिर के नवीकरण पर खर्च करने लगे । भक्त कभी- कभी व्यवसायी संगीत - मंडलियों के साथ मिल कर कार्यक्रम आयोजित करते थे और कभी-कभी नाइट क्लबों में कार्यक्रम करने को उन्हें आमंत्रण मिलते थे। एक नाइट क्लब के विशेष रूप से देर में समाप्त होने वाले और गंदे कार्यक्रम के बाद, यमुना प्रभुपाद के पास गई और उन्हें बताया कि वह स्थान कितना गंदा था। प्रभुपाद ने सभी भक्तों को बुलाया । "ये स्थान" उन्होंने समझाया, “ब्रह्मचारियों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। हमारा सिद्धान्त है कि हमें भक्त बनाने हैं। इसलिए हमें सोचना चाहिए कि हम कहाँ जा रहे हैं। यदि हम कहीं धर्मोपदेश करने जाते हैं और वहाँ हम कोई भक्त नहीं बना सकते तो लाभ क्या हुआ ? इसलिए हमें इस तरह सोचना है।” उन्होंने कहा कि वे भक्तों को नाइट क्लबों में धर्मोपदेश करने से मना नहीं कर रहे थे, लेकिन उन्होंने उन्हें सावधान रहने के लिए कहा । एक भक्त ने पूछा कि क्या मनोतरंग वाली स्लाइडों ( पट्टिकाओं) के साथ कृष्ण की स्लाइड दिखाना ठीक होगा। प्रभुपाद ने कहा- नहीं। कृष्ण को सिंहासन या वेदिका पर आसीन होना चाहिए। यदि कृष्णभावनामृत में ढील दी गई तो वह मूर्ति - पूजा बन जायगा । १९६५ में पहली बार भारत छोड़ने के बाद प्रभुपाद ने भारतीयों के समक्ष इतने विस्तार से धर्मोपदेश कभी नहीं किया था जैसा कि वे इस समय कर रहे थे। भारतीय उनके व्याख्यानों में अवश्य आते थे और यद्यपि वे भजन-कीर्तन और नृत्य में सम्मिलित नहीं भी होते थे तो भी वे कृष्णभावनामृत को समझते - सराहते थे । प्रभुपाद के इंगलैंड में पहुँचने के पहले भी कुछ भारतीय, भक्तों की सहायता के लिए आगे बढ़े थे और अब टिटेनहर्स्ट आने वाले अनियमित अतिथियों में भारतीयों की संख्या सर्वाधिक थी। अपने परिवारों के साथ आने वाले ये अतिथि प्रभुपाद के पास बैठते थे और उनसे वार्ता करते थे, तथा प्रायः वे अपने घरों पर उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित करते थे । केदारनाथ गुप्त : प्रभुपाद हमारे घर पर आने को राजी हो गए। हमने उनका हार्दिक स्वागत किया और बहुत-से अन्य लोग भी उन्हें सुनने के लिए आए । प्रभुपाद यह देख कर बहुत प्रसन्न हुए कि हमारे परिवार में मेरी माताद्वारा दिए गए राधाकृष्ण के अर्चाविग्रह हैं। उन्होंने टिप्पणी की, “मुझे इस स्थान में आकर और यहाँ राधाकृष्ण को देख कर बड़ी प्रसन्नता है । ' उन्होंने बहुत अच्छा भाषण दिया और बताया कि मानव जीवन का उद्देश्य आत्मोपलब्धि है। उन्होंने कहा कि मनुष्य में यह जानने की जिज्ञासा होनी चाहिए कि वह क्या है। जो लोग उन्हें सुनने के लिए इकट्ठे हुए थे वे उनके व्याख्यान बहुत प्रसन्न और प्रभावित थे । व्याख्यान के बाद मैंने आरती की और हमने अर्चा-विग्रह को नैवेद्य अर्पित किया । तब हमने हर एक को प्रसाद दिया । प्रभुपाद ने प्रसाद लिया और हमारे घर में प्रसाद ग्रहण करके वे बहुत प्रसन्न थे। जब वे विदा हो रहे थे, तब मैने पूछा, “आप के दर्शन फिर कब होंगे ?” उन्होंने कहा, " आप मेरे पास, जब चाहें, कभी भी आ सकते हैं । " कभी कभी दार्शनिक विचारों के सम्बन्ध में मतभेद हो जाते थे, पर प्रभुपाद के तर्क हमेशा युक्तियुक्त होते थे। भारतीय प्रभुपाद के प्रति श्रद्धालु थे और उन्हें बार-बार अपने घरों में आमंत्रित करते थे । प्रभुपाद के पास जाने वाले ब्रिटेन के सब से प्रसिद्ध और सम्मानित भारतीयों में से एक प्रफुल्ल पटेल थे । इस तरह के अनेक अन्य व्यवसायी भी थे जो प्रभुपाद के मिशन में सहायता करने में सक्षम थे। लेकिन त्याग की इच्छा वाले लोग कम ही थे । *** अमेरीकी अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा दूसरी बार चन्द्रमा पर उतरने की तिथि नवम्बर के मध्य में निश्चित की गई थी, जिसमें अब केवल कुछ ही सप्ताह रह गए थे; कई महीनों से चन्द्र पर उतरने की फोटो समाचार पत्रों में काफी छप रही थीं और प्रभुपाद इस विषय की चर्चा प्राय: करते थे। लगभग एक वर्ष पूर्व उन्होंने लास ऐंजिलेस में मनुष्य के चन्द्रावतरण की संभावनाओं के सम्बन्ध में एक सम्वाददाता की जिज्ञासाओं का उत्तर दिया था : " जैसे हम एक स्थान से दूसरे स्थान को मोटर कार या वायुयान द्वारा जाते हैं, उस तरह की कोई यांत्रिक विधि चंद्र-लोक तक पहुँचने में हमारी सहायता नहीं करेगी। वह विधि भिन्न प्रकार की होगी, जैसी कि वेदों में वर्णित है। इसके लिए हमें योग्य बनना होगा । हमारे साहित्य और हमारी जानकारी के अनुसार, यह संभव नहीं है। इस शरीर से हम वहाँ नहीं जा सकते।' टिटेनहर्स्ट में अपने शिष्यों के साथ वार्ता करते हुए प्रभुपाद चन्द्रावतरण की चर्चा अक्सर करते । " चन्द्रावतरण एक धोखा है।” उन्होंने एक दिन संध्या समय अपने कमरे में कहा । " क्योंकि कोई चन्द्रमा पर नहीं जा सकता । चन्द्र- लोक देवताओं का निवास-स्थान है जो वहाँ बसने की कोशिश करने वाले इन पियक्कड़ों और गो-मांस भक्षी हत्यारों से ऊँचे जीव हैं। इस यात्रा के लिए अनुमति की तुम कल्पना नहीं कर सकते — यह यात्रा उस तरह की नहीं है जैसे मेरी भारत से संयुक्त राज्य की यात्रा । चन्द्र- लोक की यात्रा इतनी शीघ्रता से नहीं हो सकती । यह संभव नहीं है।" श्रील प्रभुपाद के शिष्यों ने उनके वक्तव्य को स्वीकार किया। वे केवल अपनी सम्मति नहीं दे रहे थे, वरन् वैदिक शास्त्रों का निर्णय भी सुना रहे थे। चूँकि वे वैदिक शास्त्र को आधुनिक विज्ञान के ऊपर मानते थे, इसलिए उनके शिष्य भी वैसा ही करते थे । किन्तु पुरुषोत्तम ऐसा नहीं कर सकता था । पुरुषोत्तम की शंकालु प्रवृत्ति को जानते हुए प्रभुपाद उसकी उपस्थिति में प्राय: मजाक किया करते थे। कोई एक प्रश्न पूछता - “ जानकी कहाँ है ?" और प्रभुपाद उत्तर देते, "ओह, जानकी चन्द्रमा पर गई है ।" तब पुरुषोत्तम के अतिरिक्त हर एक हँसने लगता । भक्त पुरुषोत्तम की कठिनाई समझते थे — वह एक अमरीकी था और उसे गर्व था कि अमरीकी लोग अंतरिक्ष पर विजय प्राप्त कर रहे थे— और वे जानते थे कि प्रभुपाद इस विषय में मजाक कर रहे थे। पुरुषोत्तम को अधुनातम वैज्ञानिक प्रगति का ज्ञान था । वह 'नासा' की उपलब्धियों और अंतरिक्ष यात्री नील आर्म्सट्रांग के " मानव जाति के लिए लम्बे कदम" से प्रभावित था । यद्यपि पुरुषोत्तम अपने कर्त्तव्यों का पालन करता रहा लेकिन वह उदासीन था और प्रभुपाद ने उसमें उत्साह के अभाव को लक्ष्य किया । एक दिन यमुना और पुरुषोत्तम प्रभुपाद के कमरे में एक साथ थे। कई दिनों से पुरुषोत्तम की दाढ़ी बढ़ी हुई थी और वह वही नारंगी रंग का स्वेटर पहने था जिसमें वह रात को सोया था, जबकि यमुना साफ-सुथरी थी । यद्यपि उसके पास केवल दो साधारण सूती साड़ियाँ थीं, लेकिन प्रभुपाद से मिलने जाने के पहले वह हमेशा धुली और इस्तरी की हुई साड़ी पहन लेती थी। अपने दोनों सेवकों की ओर देखते हुए प्रभुपाद ने कहा, "यमुना, तुम्हारे पास इतनी अधिक सूती साड़ियाँ हैं! वे सभी कितनी सुंदर हैं !" यमुना ने आश्चर्य के साथ प्रभुपाद को देखा : "मेरे पास बहुत साड़ियाँ नहीं हैं, श्रील प्रभुपाद ।" "नहीं, तुम हर रोज नया वस्त्र पहनती हों। यह बहुत अच्छा है। तुम हमेशा बहुत साफ-सुथरी दिखाई देती हो और तिलक लगाए रहती हो । पुरुषोत्तम, तुम्हारा क्या कहना है ? तुम्हारे विचार से सब से अच्छा तिलक किसका है ?" पुरुषोत्तम ने कोई उत्तर नहीं दिया । " सुंदर तिलक" प्रभुपाद ने कहा, " का अर्थ है सुंदर व्यक्ति । " उसी शाम को लगभग छह बजे यमुना प्रभुपाद के लिए पूरियाँ और आलू पका रही थी जब उसने प्रभुपाद को सेवक बुलाने के लिए घंटी बजाते सुना । घी को आग पर छोड़ कर वह प्रभुपाद के कमरे की ओर दौड़ पड़ी। उन्होंने उस शाम दिए जाने वाले व्याख्यान के बारे में उससे बात की और अन्त में पूछा, 'प्रसाद कब तक तैयार हो जायगा — क्या व्याख्यान के पहले ही ?" “हाँ, श्रील प्रभुपाद । मैं उसी में...” यमुना को धुएँ की गंध आई । "ओह ।" वह हॉफने लगी । “मुझे क्षमा करें, प्रभुपाद । मैने कुछ घी आग पर छोड़ दिया है।” सीढ़ियों से नीचे उतर कर उसने कमरे को काले धुएँ से भरा पाया। वह स्टोव नहीं देख सकी । “पुरुषोत्तम । पुरुषोत्तम ।' वह चिल्लाई । पुरुषोत्तम पहुँच गया और वे दोनों धुएँ को टटोलने लगे। किसी तरह पुरुषोत्तम ने, इसके पहले कि आग से भारी नुकसान हो, उसे बुझा दिया । पुरुषोत्तम और यमुना कालिख से ढँक गए। उनके चेहरे काले हो गए, और पुरुषोत्तम का नारंगी रंग का स्वेटर, उसके कपड़े और यमुना की साड़ी, सभी पर कालिमा पुत गई। अचानक प्रभुपाद ने सेवक बुलाने के लिए घंटी बजाई और वे दोनों उन्हें आग के बारे में बताने के लिए तेजी से ऊपर गए। जब जानकी नीचे लौटी और यह घपला देखा तो वह झपट कर ऊपर प्रभुपाद के कमरे में पहुँची, जहाँ पुरुषोत्तम और यमुना अब भी कालिख से पुते, प्रभुपाद के समक्ष खड़े थे " यहाँ क्या हो गया है?" जानकी फूट पड़ी। प्रभुपाद ने उसे सौम्यभाव से देखा और कहा, “ आज पुरुषोत्तम चन्द्रमा पर पहुँच गया है। " " क्या ?” जानकी ने पूछा । प्रभुपाद ने अपनी बात दुहराई, “हाँ, हमारा पुरुषोत्तम चन्द्रमा पर पहुँच गया है ।" "प्रभुपाद ", पुरुषोत्तम बोला, “मैं एक ब्रह्मचारी हूँ। आप ये बातें क्यों कर रहे हैं ?" "ब्रह्मचारी होना चन्द्रमा पर जाने में बाधक नहीं है। कोई भी जा सकता है।” प्रभुपाद ने आँख मारते हुए कहा । *** जान और योको से भक्तों का मुकाबला नित्य होता था । यद्यपि प्रारंभ में जान की अभिरुचि केवल व्यवसायिक सम्बन्ध तक थी, पर उसका झुकाव भक्तों की ओर था । किन्तु उसके मित्रों की सलाह थी कि वह स्वामी जी और उनके दल के साथ हिले-मिले नहीं। इसलिए वह उनसे अलग रहता था । ईशानदास : मैं पाकशाला में काम कर रहा था और जान पिआनो पर बैठा था। वह पाकशाला में पिआनो रखता था— एक बड़ा, सीधा खड़ा पिआनो, जिसका सारा वार्निश उतर गया था और केवल कोरी लकड़ी रह गई थी। और इस तरह के पिआनो पर वह बैठा था, हरे कृष्ण बजाता हुआ। जान सचमुच एक महान् संगीतकार था और वह हरे कृष्ण, संगीत की हर धुन में, बजा सकता था— ठेठ धुन, शास्त्रीय धुन, राक -एंड-रोल धुन या जैसी भी धुन कोई सोच सकता है । इच्छानुसार वह एक धुन से दूसरी धुन में पहुँच जाता था, हमेशा हरे कृष्ण गाते हुए। उसके लिए यह बिल्कुल स्वाभाविक था और कोई भी देख सकता था कि वह प्रतिभाशाली संगीतज्ञ था । और इस तरह वह मेरा मनोरंजन कर रहा था और स्पष्ट था कि इसमें सचमुच उसे आनंद मिल रहा था। इस प्रकार, जब बड़े जोर और उत्साह के साथ पिआनो पर हरे कृष्ण कीर्तन चल रहा था, तभी जान की पत्नी, योको ओनो, नाइट गाउन पहने हुए वहाँ प्रकट हुई और बड़े वेदना - भरे स्वर में बोली, “मुझे भयंकर सिरदर्द है, क्या तुम इस तरह की चीज बंद करके मेरे साथ ऊपर नहीं आ सकते ?" जार्ज भिन्न तरह का व्यक्ति था । वह प्रभुपाद की ओर आकृष्ट था। जब भक्तों में से एक ने पूछा था, “सारे बीटलों में से केवल आप इतनी रुचि क्यों दिखाते हैं ?" तो जार्ज ने उत्तर दिया था, "यह मेरा कर्म है। मेरी राशि में जितनी चीजें लिखी हैं उनमें एक आध्यात्मिक पक्ष है । " जार्ज हैरिसन: प्रभुपाद ठीक वैसे ही दिखते थे जैसा कि मैं सोचता था । उनसे मिलने के विषय में मेरे मन में भयमिश्रित श्रद्धा की भावना थी । उनसे अधिक मिलने के बाद मुझे ऐसी भावना पसंद आई— मैंने अनुभव किया कि वे मित्र अधिक थे। मेरा मन हल्का हुआ। पहले की तुलना में मुझे ज्यादा अच्छा लगा, क्योंकि पहले मैं, जो कुछ वे कहना चाहते थे, वह कह नहीं सका था और मुझे निश्चय नहीं था कि मुझ जैसा सांसारिक व्यक्ति उनके पास जाने योग्य था भी या नहीं। किन्तु बाद में मेरा मन हल्का हो गया और वे मुझे स्नेह से देखने लगे । अन्य किसी की तुलना में वे मुझसे भिन्न तरीके से बात नहीं करते थे। वे हमेशा कृष्ण के बारे में बात करते थे, उनके पास कब कौन बैठा है, यह केवल संयोग पर निर्भर था। उनसे जब भी कोई मिलता वे बराबर एक से दिखाई देते । ऐसा नहीं था कि एक बार वे आपको हरे कृष्ण मंत्र जपने को कहते और दूसरी बार कहते कि “ओह, नहीं, मुझसे गलती हो गई थी।” वे हमेशा एक-से रहते। उनसे मिलना, हमेशा सुखद होता । कभी कभी मैं वहाँ यों ही टपक पड़ता, वहाँ जाने की कोई योजना न होती, पर लगता था कि चलूँ, क्योंकि वहाँ जाना चाहिए और मिलने के बाद जब वहाँ से चलता तो लगता कि बहुत अच्छा रहा। मैं जानता था कि वे मुझमें व्यक्तिगत रुचि ले रहे थे। उनके पास जाना हमेशा सुखकारी रहता । जार्ज कृष्ण की ओर आकृष्ट था और कीर्तन करना उसे अच्छा लगता था। प्रभुपाद से मिलने के पहले भी वह कृष्ण के बारे में, महर्षि महेश योगी, परमहंस योगानन्द की आत्म कथा से और अपनी भारत यात्रा से, कुछ जान चुका था । किन्तु प्रभुपाद के उपदेशों से उस पर विशेष प्रभाव यह हुआ कि कृष्ण परमसत्य और हर वस्तु के उत्स हैं। जार्ज : प्रभुपाद ने कृष्ण को समझने के लिए बहुमुखी विधि को जानने में मेरी सहायता की। उदाहरण के लिए, जैसे प्रसादम् । मेरे विचार से यह प्रसादम् बहुत महत्त्वपूर्ण चीज है, चाहे वह एक युक्ति ही क्यों न हो। कहते हैं कि किसी मनुष्य का दिल जीतने के लिए उसकी पेट पूजा जरूरी है। तो, भले ही यह मनुष्य की आत्मा तक पहुँचने की तरकीब हो, तो भी यह सफल तरकीब हैं। क्योंकि इससे अच्छी कोई चीज नहीं हो सकती कि आप नाचते और गाते रहें या सिर्फ बैठे और बात करते रहें और फिर अकस्मात् आप के सामने भोजन आ जाय। यह वरदान की तरह है। और जब आप भगवान् का स्पर्श करना या उनकी अनुभूति करना सीख जायँ, तो यह महत्त्वपूर्ण बात होती है। कृष्ण सीमित नहीं हैं। और प्रभुपाद की उपस्थिति से और उनके द्वारा यह जानकारी पाकर, मैं आंदोलित हो उठा। मन आग्रहशील है, पर कृष्ण सर्वत्र हैं। केवल यह ज्ञान ही काफी है कि कृष्ण सर्वत्र हैं। यह संसार उनकी भौतिक ऊर्जा भी हैं— उनका विराट स्वरूप । और प्रभुपाद की पुस्तकों में कृष्ण के सारे रूप चित्रों में प्रदर्शित हैं— वे कुत्ते के हृदय में हैं, गाय के हृदय में और मनुष्य के हृदय में भी। इससे आपको इस बात को समझने में सहायता मिलती है कि कृष्ण हर व्यक्ति में हैं। प्रभुपाद, हो सकता है, उच्च ज्ञान की बातें सिखा रहे हों, लेकिन मेरी समझ में जो बहुत अच्छी तरह आया, वह यह है कि कृष्ण सर्वत्र हैं और हर चीज में है। प्रभुपाद ने कृष्ण के विभिन्न आयामों के विषय में समझाया और उन्होंने एक चिन्तन दिया जिससे आप कृष्ण को व्यक्ति-रूप में सर्वत्र देख सकते हैं। मेरा तात्पर्य है, ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो कृष्ण न हो । प्रभुपाद जार्ज को एक 'बढ़िया युवा लड़का' और कृष्ण का भक्त मानते थे । भागवतम् के अनुसार किसी मनुष्य की भौतिक स्थिति जैसी भी हो, यदि वह भक्त नहीं है और भगवान् का नाम कभी नहीं लेता तो उसमें कोई सद्गुण हो नहीं सकता। भारत के बहुत से स्वामियों और योगियों में, यद्यपि उनमें से कुछ अपने को वैष्णव भी कहते थे, कृष्ण के प्रति विश्वास या उनके पवित्र नामों को समझने का ज्ञान नहीं था । किन्तु जार्ज को हरे कृष्ण का कीर्तन करना पसंद था और उसने कृष्ण के पवित्र नाम का समावेश अपने गीतों में किया था जो विश्व भर में अत्यंत लोकप्रिय थे। इस तरह वह अपने संगीत द्वारा कृष्ण की सेवा कर रहा था । और इसी में सारा अंतर निहित था । मि. जार्ज हैरिसन बहुत तीक्ष्ण बुद्धि बालक लगता है और कृष्ण की कृपा से वह भाग्यशाली भी है। पहले दिन वह जान लेनन के साथ मुझसे मिलने आया और हमने लगभग दो घंटे तक बातें की। वह मुझसे और बातें करना चाहता था, लेकिन इस समय वह अपनी बीमार माँ के पास लिवरपूल चला गया है। प्रभुपाद जार्ज को एक धनाढ्य व्यक्ति भी मानते थे, और भगवान् चैतन्य ने भक्तों को कड़ा आदेश दिया था कि संन्यास आश्रम में रहते वे सांसारिक लोगों से मेल-जोल न रखें। लेकिन भगवान् चैतन्य ने यह भी सिखाया था कि कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए भक्त को हर अनुकूल अवसर का लाभ उठाना चाहिए । यदि यह बालक हमारे आन्दोलन से सहयोग करता है तो इससे बड़ी सहायता मिलेगी क्योंकि, कुछ भी हो, वह धनाढ्य व्यक्ति है। आध्यात्मिक जीवन में इन धनाढ्य व्यक्तियों के साथ बहुत सावधानीपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। कभी-कभी धर्मोपदेश के कार्य में हमें उनसे काम पड़ता है; अन्यथा भगवान् चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण चेतन लोगों पर उनसे मिलने-जुलने के विरुद्ध कड़ी पाबंदी लगाई है। लेकिन रूप गोस्वामी से हमें आदेश मिला है कि कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए जो भी अनुकूल अवसर मिले उसे हमें स्वीकार करना चाहिए । प्रभुपाद जार्ज से सावधानी से व्यवहार करते थे, लेकिन वे उसे प्रोत्साहित करते रहते थे कि वह भगवान् का कीर्तन करे, प्रसाद ले और अपने सभी काम उन्हें समर्पित करे । जब संयुक्त राज्य में भक्तों को बीटलों के साथ प्रभुपाद के मेल-जोल का पता लगा तो उनमें से कुछ ने इस सम्बन्ध की समीपता को अतिरंजित करके देखा, विशेष कर जान लेनन के सम्बन्ध के मामले में । प्रभुपाद ने इसके बारे में सुना और उसका निराकरण किया । संदर्भ उस पुस्तिका का है जिसे तुमने और गर्गमुनि ने मुझे भेजा है। उसकी भूमिका में, जो तुम दोनों द्वारा हस्ताक्षरित है, जो तुमने यह कहा है कि "मैं जान लेनन और जार्ज हैरिसन को व्यक्तिगत रूप से भाव-समाधि योग की शिक्षा दे रहा वह ठीक नहीं है। यह सच है कि जार्ज हैरिसन कभी कभी मेरे पास आता है और मैं उसे भक्ति योग की शिक्षा स्वभावतः देता हूँ। किन्तु पत्र से ऐसा संकेत मिलता है गोया मैं इसके लिए उनके द्वारा आमंत्रित किया गया हूँ । यदि यह बात उनकी जानकारी में आती है तो उन्हें आपत्ति हो सकती है, जो हमारी मर्यादा के अनुकूल नहीं होगा। इन चीजों को सार्वजनिक रूप से विज्ञापित नहीं करना चाहिए और मैं नहीं जानता कि ऐसा क्यों किया गया है। जो भी हो, यदि पुस्तिका की बहुत-सी प्रतियाँ वितरित न हुई हों तो उससे उस बात को निकाल देने की कोशिश करो जो तथ्यात्मक नहीं है। जार्ज : प्रभुपाद ने सचमुच कभी यह सलाह नहीं दी कि मैं जो कुछ कर रहा था उसे न करूँ। मैंने सुना कि भक्तों से वे भिन्न-भिन्न अवसरों पर कहा करते थे, कि अपने गानों और अन्य जो कार्य मैं कर रहा था, उनके कारण, मैं अपेक्षया अच्छा भक्त था। उन्होंने यह सचमुच मुझसे कभी नहीं कहा, लेकिन मैं हमेशा सुनता रहता था । और मेरे लिए अच्छी बात यह थी कि मुझमें यह भावना नहीं थी कि आन्दोलन में सार्वकालिक रूप से सम्मिलित होने की मुझे कोई जरूरत थी। मैं समझता हूँ कि सब कुछ चौपट हो जाता यदि वे मुझसे हमेशा कहते रहते कि "क्यों कर रहे हो, उसे समेट कर बंद नहीं कर देते और जाकर कहीं एक मंदिर मे बास करते हे उन्होंने मुझे ऐसा अनुभव कभी नहीं करने दिया कि मानो मैं क्लब में नहीं रहा। वे कभी ऐसे नहीं थे। मैं सादे कपड़े पहनने वाला भक्त हूँ। बात यही है। उनके साथ मेरा सम्बन्ध यह है कि मैं जब और जहाँ हो सके, उनकी मदद करूँ, क्योंकि समाज में लोगों को मैं जानता हूँ। यह किसी अर्ध-भले मानुस जैसा है कि हर व्यक्ति एक दूसरे की थोड़ी-बहुत सहायता करे। वे मुझसे हमेशा प्रसन्न रहते थे, क्योंकि मैं जो कुछ भी करता था उससे उनको सहायता मिलती थी। मेरा तात्पर्य है कि केवल कृष्ण मंदिर के लिए ही नहीं वरन् मैं अपने गीतों या अन्य तरीकों से जो भी आध्यात्मिक कार्य करता था— उससे उन्हें प्रसन्नता होती थी। वे मेरे साथ हमेशा मित्रवत् थे । वे हमेशा जप करते रहते थे और समय-समय पर मे मुझसे कहते रहते थे— जप हमेशा किया करो या जितना भी संभव हो। मैं सोचता हूँ एक बार जप कर लेने पर इसका अनुभव होता है कि जप लाभकारी है। कुछ गुरु ऐसे हैं जो घुमा फिरा कर यह कहते हैं कि मैं 'यह' किन्तु प्रभुपाद कहते थे कि "मैं कृष्ण के दास के दास का दास सच बात सचमुच यही थी, आप जानते हैं। वे यह नहीं कहते थे कि " मैं सबसे महान् हूँ” और “मैं भगवान् हूँ।” या इस तरह की अन्य बातें। वे अपने को केवल एक दास कहते थे, और उनका यह कहना मुझे बहुत पसंद था। मैं समझता हूँ कि इस तरह का कथन आध्यात्मिक वस्तुस्थिति का एक अंग है। जितना ही अधिक वे जानते हैं उतना ही अधिक वे वास्तव में जानते हैं कि वे दास हैं। और जितना ही कम वे जानते हैं उतना ही अधिक वे सोचते हैं कि वे मानव-जाति के लिए भगवान् का वरदान हैं। अतएव, यद्यपि प्रभुपाद एक बहुत शक्तिशाली व्यक्ति थे, आध्यात्मिक रूप से बहुत आगे बढ़े हुए, पर वे अपनी विनम्रता हमेशा बनाए रखते थे। और मैं समझता हूँ कि यह एक सब से महत्त्वपूर्ण बात है क्योंकि जो कुछ शब्दों से कहा जाता है, उससे अधिक, हम इस उदाहरण से सीखते हैं कि वे कैसे रहते हैं और क्या करते हैं। *** 'दि डेली स्केच' में समाचार प्रकाशित हुआ, “जान और योको के घर पर कृष्णानुयायी भोजन करते हैं।" एक चित्र में भक्तों को घर के बाहर प्रसादम् ग्रहण करते हुए दिखाया गया था । टिटेनहर्स्ट पार्क में जान लेनन और योको ओनो के राजसी भवन में लेनन के कुछ अतिथियों ने कल की खुली धूप में भोजन किया । भोजन करने वाले भारतीय स्वामी कृष्ण - कृपाश्रीमूर्ति श्री श्रीमद् अभय चरण भक्तिवेदान्त के अनुयायी हैं । उन्होंने पूर्व के ढंग अपना लिए हैं—–— केसरिया वस्त्रों और घुटे हुए सिरों से लेकर उँगलियों से भारतीय कढ़ी खाने तक । जिसमें जान के १५०००० डालर लगे हैं और जो रायल आस्कोट घुड़दौड़ के मैदान के निकट साठ एकड़ एकान्त सन्निहिल में फैला है, बिल्कुल मेल नहीं खाता है। प्रभुपाद और उनके अनुयायियों की जान और योको तथा उनके अपने लोगों से संगत अजीब लगती थी । प्रभुपाद के टिटेनहर्स्ट पहुँचने के दो दिन बाद, जान और योको वायुयान द्वारा कैनेडा में टोरोन्टो चले गए थे जहाँ प्लास्टिक ओनो बैंड के साथ उन्हें विश्वविद्यालय के स्टेडियम के राक -एन- रोल रिवाइवल के कार्यक्रम में भाग लेना था। अक्तूबर में जान और योको ने “ वेडिंग अलबम " रेकर्ड कराया था और 'राक एंड रोल सर्कस' नामक फिल्म पर कार्य आरंभ किया था और जान ने 'कोल्ड टर्को' रेकर्ड कराया था। जान, यद्यपि लज्जालु प्रकृति का था, पर मुख्य भवन में कार्य करने वाले भक्तों ने उसे खुले दिल का और अपनी सम्पत्तियों के विषय में उदारचित्त पाया था। उसने भक्तों को टिटेनहर्स्ट और फार्म में स्थायी रूप से रहने के लिए आमंत्रित किया था। उसने कहा कि उसके पास जो कुछ था, उसमें वह भक्तों को सहभागी बनाएगा । एक दिन योको ने यमुना से पूछा कि क्या लंदन के एक प्रेक्षागृह के रंगमंच पर कोई भक्त दम्पति उसका और जान का स्थानापन्न बन सकता था। जान और योको, केवल टाट के थैले में लपेटे हुए एक बार वहाँ अभिनय कर चुके थे, और उन्हें दूसरी बार भी ऐसा ही करना था, लेकिन योको सोचती थी कि शायद एक भक्त - दम्पति उनका स्थान ले सकता था । उसने कहा कि हो सकता है कि दर्शकों को बदलाव का बिल्कुल पता न चले और यदि चल भी गया तो, भक्तों के लिए प्रचार का यह एक विनोदपूर्ण प्रहसन होगा । योको के प्रस्ताव का विनम्रतापूर्वक इनकार करते हुए यमुना ने समझाया कि भक्तजन ऐसा कार्य क्यों नहीं कर सकते थे 1 जब यमुना ने प्रभुपाद को बताया तो प्रभुपाद ने दृढ़ निश्चय से कहा कि उनका कोई शिष्य यह कार्य नहीं करेगा। बाद में कई दिनों तक वे इस विषयासक्ति की निन्दा करते रहे । जान ने प्रभुपाद को अपना हाल का रेकर्ड 'कोल्ड टर्की' सुनने के लिए अपनी जागीर में आमंत्रित किया । यद्यपि ऐसे गाने में प्रभुपाद की रुचि बहुत थोड़ी थी लेकिन तरंग में आकर जान ने प्रभुपाद को उसे सुनाना चाहा । संसार के एक प्रसिद्ध व्यक्ति को धर्मोपदेश का अवसर हाथ आया जान कर प्रभुपाद गए। जान के बैठने के मुख्य कमरे में प्रभुपाद अंगीठी के निकट गद्दी पर बैठे। टेप सोलह - पट्टी वाली मशीन पर, जिस पर उसे रेकर्ड किया गया था, तैयार रखा था और जब प्रभुपाद शांत भाव से बैठ गए तो जान मशीन चलाने लगा । लेकिन मशीन चालू नहीं हुई। जान कोप करके घुडियाँ घुमाता रहा और बटन दबाता रहा। यद्यपि प्रभुपाद के साथ वहाँ केवल पुरुषोत्तम गया था, पर दो अन्य भक्त भी बाहर से खिड़कियों के नीचे छिपे सुन रहे थे । जब उन्होंने झाँक कर जान को मशीन के साथ संघर्ष करते देखा तो वे आड़ में हीं हीं करने लगे । "ओह!" प्रभुपाद बोले, " तो तुम्हारी मशीन काम नहीं कर रही है चिन्ता मत करो। हमने भी कुछ रेकर्ड बनाए हैं और तुम्हारी खुशी के लिए हम उन्हें बजाना चाहते हैं ।" जान प्रभुपाद का रेकर्ड सुनने को सहमत हो गया और प्रभुपाद 'कोल्ड टर्की' सुनने से बच गए। प्रभुपाद जागीर पर केवल थोड़ी देर रहे। जब वे विदा ले रहे थे तो उन्होंने दीवार पर जान और योको के आदमकद नग्न चित्र फ्रेम किए हुए देखे । उन्होंने एक-एक पुरुष और एक-एक स्त्री के, यौनाचार की विविध मुद्राओं में, कई छाया - चित्र भी देखे। अपने कमरे में वापस लौट कर प्रभुपाद बोले - " हमारा यहाँ ठहरना ठीक नहीं।” उन्होंने अपने लिए एक कमरा लंदन में ढूँढने के लिए मुकुंद से कहा । बरी प्लेस का नवीकरण अब भी अधूरा था और प्रभुपाद ने कहा कि वे नगर में रहना पसंद करेंगे ताकि उस काम की निगरानी कर सकें। टिटेनहर्स्ट का प्राकृतिक परिवेश अच्छा था, लेकिन प्रभुपाद के और उनके मेजबान के रहने के ढंगो में मेल नहीं था। एक दिन जान और योको काली पोशाक पहन कर प्रभुपाद से मिलने आए । प्रभुपाद को आध्यात्मिक शक्ति वाला एक महान् योगी स्वीकार करते हुए, उन्होंने प्रार्थना की कि, अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए, वे कृष्ण से ऐसा करा दें कि मृत्यु के बाद उनका फिर साथ हो सके। उनकी बात से प्रभुपाद निराश हुए । "यह मेरा काम नहीं है,” उन्होंने कहा, “कृष्ण आप को जीवन देते हैं और मृत्यु के रूप में उसे ले लेते हैं। यह असंभव है कि आप मृत्यु के बाद इकट्ठे रह सकें। जब आप अपने धाम को, परम धाम को लौटेंगे तो आप कृष्ण में मिल सकते हैं। लेकिन पति और पत्नी — यह केवल सांसारिक सम्बन्ध है। शरीर के साथ, मृत्यु के समय, यह समाप्त हो जाता है । मृत्यु के बाद इस तरह के सम्बन्ध आप फिर नहीं प्राप्त कर सकते।" *** जागीर के एक सिरे पर एक छोटे, अपेक्षित जार्जियन मकान में एक राजगीर अपनी स्त्री के साथ रहता था । उस जागीर पर एक रेकर्डिंग स्टूडियो का निर्माण करने के लिए जार्ज ने उसे मजदूरी पर रखा था और वह हाल में ही टिटेनहर्स्ट आया था। वह तगड़ा और हट्टा-कट्टा था और भक्तों से कभी बात नहीं करता था, जब तक कि एक दिन उसने उन में से कईयों से यह नहीं पूछा कि क्या वे भूत-प्रेत में विश्वास करते थे । “हाँ, हाँ,” कुलशेखर बोला, “प्रभुपाद कहते हैं कि भूत-प्रेत होते हैं । " " मैं विश्वास नहीं करता, " राजगीर ने कहा, "मेरी पत्नी स्वप्न में उन्हें देखती है, पर मैं विश्वास नहीं करता । " राजगीर की पत्नी ने बताया कि वह और उसका पति रात में 'कुछ' सुनते रहे थे। गत रात वे दोनों भयभीत होकर भागते हुए लेनन के मकान पर गए थे, उन्हें कुछ आवाजें सुनाई दी थीं: जंजीरों की खड़खड़ाहट, बूटों की चरमराहट और " किसी शरीर के फर्श पर घसीटे जाने जैसा शब्द । " राजगीर ने अपनी पत्नी को कंधों से जोर से झकझोरे जाते हुए देखा था, यद्यपि वहाँ कोई था नहीं । जब भक्तों ने प्रभुपाद को बताया तो वे बोले, " जान लेनन से कहो कि यदि वह चाहें तो हम भूतों से छुटकारा दिला सकते हैं।” मुकुंद ने संदेश पहुँचाया, लेकिन जान एक मित्र को, जो एक श्वेत ओझा था, भूत की झाड़-फूँक करने के लिए बुला चुका था । ओझा राजगीर की कुटीर पर गया और उसके साथ कुछ भक्त भी हो लिए। मुख्य कमरे में अंगीठी के पास देखा जिसके माथे से एक भूत बाहर दीवार पर महोगनी मंत्र लिखे थे । “ये उन्होंने एक आदमी का उत्कीर्णन निकल रहा था, और सामने की पुराने जादुई मंत्र हैं।” ओझा ने सिर हिलाते हुए कहा, “मैं यहाँ कुछ नहीं कर सकता । जब जान ने भक्तों से अपनी तरकीब लगाने को कहा तो प्रभुपाद ने उनका निर्देशन किया कि राजगीर की कुटीर के द्वार पर कृष्णार्पित जल छिड़का जाना चाहिए, फिर शंख-ध्वनि और कीर्तन होना चाहिए। भक्तों का एक दल वहाँ गया और कुलशेखर ने कीर्तन कराया। आधे घंटे तक कीर्तन चलने के बाद कुलशेखर के कमरे में एक भारी दबाव जैसा अनुभव हुआ और कीर्तन भाव-विह्वल हो उठा। फिर भक्त अपने कार्यों पर लौट गए, जान को यह आश्वासन देकर कि अब भूत नहीं आएँगे। राजगीर और उसकी पत्नी कमरे में फिर रहने लगे । अगले दिन सवेरे प्रभुपाद टहलते हुए इस पुरानी कुटीर के पास से निकले, " अब भूत कैसा है ?” उन्होंने पूछा । "कोई खबर नहीं है, प्रभुपाद ।” कुलशेखर ने जवाब दिया । अगले दिन प्रभुपाद ने फिर पूछा, “भूत कैसा है ? चाहते हैं ? " क्या वे उसे वापस चाहते हे ? उन्होंने पूछा प्रभुपाद ने बताया कि सालों पहले जब भारत में वह दवाओं का व्यवसाय चला रहे थे तो रात में मकान में उन्हें भूत मिला था । " आप ने क्या किया था ?" एक भक्त ने पूछा । " मैं केवल हरे कृष्ण जपता था और भूत भाग जाता था।" प्रभुपाद ने तब अपनी आँखें विस्फारित की और दोनों हाथों से संकेत किया। उन्होंने कारखाने में काम करने वाले मजदूरों की नकल की जो भयग्रस्त होकर उनके पास भागे हुए आए थे, “बाबाजी, बाबाजी, वहाँ भूत है।" भक्त हंस पड़े । "वास्तव में, " प्रभुपाद ने कहा, “यहाँ बहुत सारे भूत हैं। विशेष कर उन अस्तब्ल - क्षेत्रों में। वे इस स्थान से जुड़े हुए हैं। किन्तु वे तुम्हें हानि नहीं पहुँचाएँगे, यदि तुम केवल हरे कृष्ण जपते रहोगे ।" *** प्रभुपाद टिटेनहर्स्ट छोड़ने को आकुल थे और अक्तूबर के अंत तक कुछ भक्त बरी प्लेस पहुँच गए थे। प्रभुपाद का अब टिटेनहर्स्ट में कोई काम नहीं रह गया था। मि. लेनन प्रभावशाली व्यक्ति थे जो कृष्ण में अभिरुचि रखते प्रतीत हुए थे, पर अब प्रभुपाद का जागीर में रहने का कोई औचित्य नहीं था। योको और उसका पुराना पति, डान भी, जो अब जान का प्रबन्धक था, जान पर भक्तों से छुटकारा पाने के लिए दबाव डाल रहे थे। डान की शिकायत थी कि भक्तजन उस स्थान को हड़प लेने की कोशिश में थे। दूसरी ओर भक्तों की जान से शिकायत थी कि डान और योको उनके बारे में भ्रम फैला रहे थे। एक ओर डान और योको थे, दूसरी ओर भक्तजन । जान बीच में था; उसे एक पक्ष चुनना था । जान ने मुकुंद को बताया कि जहाँ तक उसका सम्बन्ध था, भक्तों से उसका ठीक से निर्वाह हो रहा था, पर उसके इर्द-गिर्द के लोगों को कुछ कठिनाई हो रही थी । वह भक्तों को नगर के अपने नए मंदिर में जाने के लिए कुछ सप्ताह का और समय देने को तैयार था। भक्तों का बरी प्लेस जाने का काम शुरू हो चुका था और मुकुंद ने प्रभुपाद के लिए मंदिर से थोड़ी दूर पर आवास प्राप्त कर लिया था। कुछ ही दिनों में वहाँ उनके जाने के लिए सारी तैयारियाँ पूरी हो जाने वाली थीं। जिस दिन प्रभुपाद टिटेनहर्स्ट छोड़ रहे थे उस दिन वे अपनी कार के पास खड़े हुए और बोले, "पहले मैं अपने कुछ मित्रों से विदा लेना चाहता हूँ। तब वे आखिरी बार मैदान में गए, वे वृक्षों को ध्यान से देखते रहे, कभी कभी उनकी पत्तियाँ छूते रहे, जैसा कि वे सवेरे के भ्रमण में किया करते थे। तब उन्होंने विदा ली। अगले दिन टिटेनहर्स्ट जागीर में एक गहरा तूफान आया जिससे खिड़कियाँ टूट गई और पेड़ उखड़ गए। *** नवम्बर ३, १९६९ प्रभुपाद बेकर स्ट्रीट स्थित अपने सुसज्जित आवास में पहुँच गए जो बरी प्लेस मंदिर से कार द्वारा दस मिनट की दूरी पर था । लंदन में दो महीने बिताने के बाद उन्हें अपने मन्दिर के उद्घाटन की चिन्ता होने लगी श्यामसुंदर कड़ा परिश्रम कर रहा था, यद्यपि उसकी प्रगति मंद थी। मंदिर की भीतरी सजावट के लिए श्यामसुंदर के पास एक कलात्मक धारणा थी जो अजंता की गुफाओं और दक्षिण भारत के मंदिरों की नक्काशी किए हुए पत्थरों की दीवारों और भीतरी छतों के चित्रों से प्राप्त हुई थी । उसकी प्रेरणा वैसा ही प्रभाव उत्पन्न करने की थी, उस कैलिफोर्निया रेडवुड को इस्तेमाल करते हुए जो, उसने और मुकुंद ने एक वर्ष पहले जहाज द्वारा इंगलैंड भेजी थी। उसकी योजनाओं के बारे में पहली बार सुन कर प्रभुपाद ने पूछा, “इसे इतना कलात्मक क्यों बनाना चाहते हो ।” लेकिन श्यामसुंदर अपनी धारणा के पीछे इतना दृढ़ था कि प्रभुपाद ने उसे अनुमति दे दी थी । भीतरी छत का आधा काम हो जाने के बाद अब उससे पीछे भी नहीं हटा जा सकता था । श्यामसुंदर दिन रात परिश्रम करता रहा, फिर भी मंदिर की योजना हर दिन अधिक विस्तृत होती मालूम होती थी । उसकी दीवारों और फर्श पर ठोस रेडवुड लग गया और भीतरी छत रेडवुड की मेहराबों से सज गई । श्यामसुंदर को पूरा ध्यान था कि लकड़ी का हर टुकड़ा अपने स्थान पर ठीक से जड़ा जाय । श्यामसुंदर जब शनैः शनैः आगे बढ़ रहा था तो अन्य भक्त मजाक करते थे कि कमरा एक उलटी हुई नाव के समान दिखाई दे रहा था। लेकिन प्रभुपाद उसे उत्साहित करते थे, और कहते थे कि कमरा बहुत सुंदर था । प्रभुपाद अपने शिष्यों को प्रायः उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करने देते थे । उनका तर्क था कि शिष्य धन इकट्ठा कर रहे थे और वे कृष्ण की सेवा में उसे जिस तरह चाहें खर्च कर सकते थे । वे किसी शिष्य के सेवा कार्य की हर बात में भी दखल नहीं देते थे, विशेष कर तब जब कोई शिष्य दृढ़ - निश्चय होता था और ऐसे विचार रखता था जो हानिकर या विधनकारक नहीं होते थे। प्रभुपाद के सभी शिष्य अंततः उनके एकान्त निर्णय के अधीन थे; पर वे प्राय: उदार थे— “ अस्सी प्रतिशत उदार, वे कभी कभी कहा करते थे। श्यामसुंदर विशेषकर अपनी बड़ी योजनाओं के कारण आगे बढ़ा था । उसने सैन फ्रांसिस्को में मंत्र - राक- डांस का आयोजन किया था, पहली रथ यात्रा के रथों का निर्माण किया था, जार्ज हैरिसन से मित्रता स्थापित की थी और अब वह एक मंदिर का खाका बना रहा था। प्रभुपाद उसे करने दे रहे थे— उस पर दृष्टि रखते हुए, एक पिता की तरह । वैदिक पंचाँग देख कर प्रभुपाद ने मंदिर के उद्घाटन समारोह के लिए १४ दिसम्बर का दिन निश्चित किया । और श्यामसुंदर और अन्य शिष्यों की इस भविष्यवाणी के बावजूद कि निश्चित तिथि तक कार्य पूरा होना असंभव था, प्रभुपाद ने निमंत्रण पत्र तुरन्त छापने के आदेश दे दिए। भक्तों के पास करने को काम बहुत था । और समय थोड़ा था। उन्हें न केवल मंदिर पूरा करना था, वरन् दूसरी मंजिल पर प्रभुपाद का आवास और तहखाने में रसोईघर भी तैयार करना था । निश्चित तिथि का मुकाबला करने के लिए वे और कड़ा परिश्रम करने लगे । प्रभुपाद को मंदिर के उद्घाटन की चिन्ता थी, वे 'कृष्ण' का पहला खंड भी प्रकाशित करने को चिन्तित थे। लेकिन उनके पास धन नहीं था । मुद्रकों के अनुमान के अनुसार पुस्तक के प्रकाशन पर लगभग १९००० डालर का खर्च था। प्रभुपाद ने श्यामसुंदर से कहा कि वह अपने मित्र जार्ज से अनुदान माँगे । श्यामसुंदर, जिसने जार्ज से धन न माँगने की सावधानी हमेशा बरती थी, हिचकिचाया। लेकिन प्रभुपाद ने जोर दिया और श्यामसुंदर राजी हो गया। जार्ज सहमत हुआ, पर बाद में उसने खेद प्रकट किया। तब श्यामसुंदर को दुख होने लगा । वह, वास्तव में, न तो जार्ज से माँगना चाहता था, न ही जार्ज ने सचमुच चाहा था कि वह उससे माँगे । जब प्रभुपाद ने इसके विषय में सुना तो उन्होंने जार्ज को मिलने के लिए आमंत्रित किया । जार्ज ने प्रभुपाद को बताया कि हर दिन लोग उसका धन माँगते थे । लेकिन जब प्रभुपाद ने 'कृष्ण' पुस्तक का महत्त्व समझाया और बताया कि किस प्रकार जार्ज का अनुदान कृष्ण के प्रति भाव-भक्ति होगी तब जार्ज ने अपना इनकार वापस ले लिया। वह पुस्तक का प्राक्कथन भी लिखने को तैयार हो गया । जार्ज : मैं सचमुच नहीं समझता था कि मैं प्रभुपाद की पुस्तक का प्राक्कथन लिखने के योग्य था । लेकिन इस बात को इस तरह भी देखा जा सकता था कि चूँकि मेरी ख्याति है, इसलिए मेरा प्राक्कथन सहायक होगा । किन्तु, दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो मेरा प्राक्कथन बाधक भी हो सकता था, क्योंकि मैं जो कुछ कहता हूँ उसे हर एक सुनना या उस पर विश्वास करना नहीं चाहता। बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो केवल इसलिए बिदक जायँगे, क्योंकि मैं किसी बात को कह रहा हूँ। मेरा मतलब है कि यदि मैं कृष्ण पर किसी पुस्तक को उठा लूँ और उसका प्राक्कथन फ्रैंक जप्पा या उसकी तरह के किसी व्यक्ति द्वारा लिखा गया हो, तो मैं सोचूँगा, "हे ईश्वर, मुझे इस विषय में कुछ जानना नहीं है।' इसलिए मैने सोचा कि यद्यपि प्रभुपाद ने मुझसे कहा है, सकता है कि वे सचमुच चाहते नहीं कि मैं प्राक्कथन लिखूँ। लेकिन हो लेकिन यह बात उन चीजों में से एक थी जिससे मैं पिण्ड नहीं छुड़ा सकता था । हर एक ने इरादा पक्का कर लिया था, बस । अस्तु, मैंने लिखा । “तुम प्राक्कथन लिख रहे हो, और बस " अस्तु , मेने लिखा जब प्रभुपाद ने चन्द्रावतरण देखने की इच्छा प्रकट की तो भक्तजन एक टेलीविजन ले आए और उनके रहने के कमरे में रख दिया। टेलीविजन के सामने कुर्सी में बैठे हुए प्रभुपाद ने नित्य की भाँति मालिश कराई । पुरुषोत्तम ने घोषणा की, "प्रभुपादजी, अब समय करीब आ गया है, इसलिए मैं टेलीविजन चालू करता हूँ और शीघ्र हम अंतरिक्ष यात्रियों के कुछ चित्र अंतरिक्ष से देखेंगे । " एक संवाददाता केप कानावरेल, फ्लोरिडा से बोल रहा था, "हम इस ऐतिहासिक अवसर के कुछ प्रारम्भिक चित्र अब देखने जा रहे हैं।” पहले चित्र अस्पष्ट आए, फिर वे स्पष्ट दिखाई देने लगे। अंतरिक्ष यान चन्द्रमा पर उतर गया था। जब अंतरिक्ष यात्री यान में से बाहर निकले तो वे धीरे-धीरे चन्द्रमा के तल पर उतरे। पुरुषोत्तम प्रसन्नता की उमंग में डूब गया। धनंजय : मैं प्रभुपाद के सिर की मालिश करने की कोशिश कर रहा था, साथ ही कार्यक्रम भी देख रहा था। जब अंतरिक्ष यात्री उतर रहे थे तब अचानक प्रभुपाद ने मुझे अपने सामने बैठने को इशारा किया। इसलिए मैं उनके सामने गया । ज्योंही मैं बैठा, प्रभुपाद मेरे सिर की मालिश करने लगे। मैं बिल्कुल घबरा गया । "तुम भूल गए हो कि ठीक से मालिश कैसे की जाती है ?" वे बोले, मिनट तक मेरे सिर की मालिश करते रहे। तब मैं प्रभुपाद के पीछे खड़ा हुआ और उनके सिर की मालिश फिर से करने लगा। उस समय तक अंतरिक्ष यात्री चन्द्रतल पर इधर-उधर चल रहे थे। अमेरिका का छोटा सा ध्वज निकाल कर वे उसे चन्द्रमा की जमीन "यह ऐसे की जाती है।" वे लगभग दो में खड़ा कर रहे थे और ऊपर-नीचे उछल-कूद रहे थे। वे स्पष्ट रूप से आकर्षण शक्ति की अवहेलना कर रहे थे, क्योंकि हर बार जब वे ऊपर की ओर कूदते थे तो हवा में तैरने लगते थे; तब धीरे से नीचे आ जाते थे। वे बड़े प्रसन्न थे और खूब हल्ला - गुल्ला कर रहे थे । " पुरुषोत्तम" प्रभुपाद बोले, " तो वे चन्द्रमा पर पहुँच गए हैं ?" “हाँ, प्रभुपाद" पुरुषोत्तम उत्साहपूर्वक बोला, “ वे चन्द्रमा पर उतर गए हैं । " प्रभुपाद मुसकराए। धनंजय : प्रभुपाद ने फिर मुझे आगे आने का संकेत दिया। मैं आगे गया और बैठ गया। मैंने सोचा कि वे चाहते थे कि मैं आगे से उनकी मालिश करूँ। लेकिन उन्होंने फिर अपने हाथ मेरे सिर पर रखे और मालिश की। उन्होंने कहा, “क्या तुम मेरे सिर की मालिश करने जैसा सीधा-सादा काम भी नहीं सीख सकते ?" मैं टेलीविजन देख रहा था और सेवा में पूरा ध्यान नहीं लगा रहा था। मैने फिर कोशिश की, लेकिन प्रभुपाद ने फिर कहा, “तुम अभी भी नहीं जानते कि यह कैसे किया जाता है । " मैं बोला, “जी, प्रभुपाद, मैं भरसक कोशिश कर रहा हूँ।" वे हँसने लगे और बोले, “ठीक है। करते जाओ।' प्रभुपाद ने पुरुषोत्तम से पूछा, "तो, तुम क्या देख सकते हो ?” " वे चन्द्रतल की खोज में लगे हैं,” उसने कहा । " तो, वहाँ क्या है ?" "जी, ऐसा लगता है कि वे कहीं किसी गढ़े के अंदर उतरे हैं और वहाँ की जमीन रेतीली और कुछ चट्टानों वाली है। ओह, देखिए वे इधर-उधर पड़ी कुछ चट्टानों की छाया दिखा रहे हैं । " " तुम इतना ही देख सकते हो न ? वहाँ मनुष्य नहीं हैं, वृक्ष नहीं हैं। वहाँ नदियाँ नहीं हैं, मकान नहीं हैं।" “ नहीं, " पुरुषोत्तम ने उत्तर दिया, “चन्द्रमा वीरान है।" " वे चन्द्रमा पर नहीं उतरे हैं,” प्रभुपाद ने जोर देकर कहा, "यह चन्द्रमा नहीं है। " बाद में मालती प्रभुपाद के लिए दोपहर का भोजन ले आई। वे बोले, " मालती ने कृष्ण के लिए यह थोड़ी खिचड़ी बनाई है, और यह जो उन लोगों ने किया है, उससे कहीं अधिक महत्त्व की है । " यद्यपि प्रभुपाद का आवास अपूर्ण था और मंदिर के नवीकरण के कारण ७ बरी प्लेस में शोर-गुल और खलबली रहती थी, लेकिन प्रभुपाद ने अपने आवास में आने का निर्णय कर लिया, “मुझे सुविधाजनक आवास का मोह नहीं है, " वे बोले, “मुझे भक्तों के संसर्ग में रहने का मोह है ।' वे मंदिर में ऐसे समय में जा रहे थे जब रेकर्डों की बिक्री बहुत कम हो गई थी और भक्तों को, रकम मिलने पर, सामान थोड़े-थोड़े खरीदने पड़ रहे थे। फिर भी प्रभुपाद के उनके साथ रहने और उनके कार्य की निगरानी करने से वे प्रसन्न थे तमालकृष्ण लास एंजिलेस से लंदन पहुँचा, और बहुत से निर्माण-कार्य की निगरानी के अतिरिक्त वह भक्तों को प्रतिदिन सड़कों में कीर्तन करने और बैक टू गाडहेड पत्रिका बेचने के लिए ले जाने लगा। यमुना सुबह से रात तक पर्दे सिलने में लगी थी । ईशान, श्यामसुंदर और अन्य भक्त हर घंटे नवीकरण के कार्य में लगे थे। और प्रभुपाद हर दिन मकान में घूम कर उसकी प्रगति देखा करते थे । उद्घाटन को केवल एक सप्ताह रह गया था और श्यामसुंदर तब भी मन्दिर की भीतरी छत की सजावट में व्यस्त था । उसने अभी वेदिका आरंभ भी नहीं की थी । अन्य भक्तों ने प्रभुपाद से फिर शिकायत की कि श्यामसुंदर बहुत सुस्त था, परन्तु प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "वह उसे कलापूर्ण बनाना चाहता है। उसे करने दो। श्यामसुंदर ने, इस बार अपनी ओर से, जार्ज से वेदिका के लिए अनुदान माँगा । जार्ज ने दो हजार पाउंड दिए, और श्यामसुंदर एक संगमरमर की पटिया सुनहरे - गैरिक रंग की और दो पटियां लाल रंग की चुन कर खरीद लाया । यद्यपि प्रभुपाद के पास सत्रह इंच लकड़ी पर तराशी हुई राधाकृष्ण की मूर्तियों का एक जोड़ा था, पर श्यामसुंदर की योजना उनको उपयोग में लाने की नहीं थी । और श्यामसुंदर जिस आकार की वेदिका के निर्माण में लगा था उसके लिए और बड़ी मूर्तियाँ अपेक्षित थीं । एक दिन एक मिस्टर डोयल ने एक लंदन स्थित हिन्दू सभा के प्रतिनिधि के रूप में फोन किया। उन्होंने सुना था कि भक्तों को राधाकृष्ण की मूर्तियाँ चाहिए थीं, और उनके पास मूर्तियों का एक जोड़ा था जिसे वे अनुदान करना चाहते थे। जब प्रभुपाद ने इसके बारे में सुना तो उन्होंने तमाल कृष्ण, मुकुंद और श्यामसुंदर को मि. डोयल के घर मूर्तियों को देखने के लिए भेजा । राधा और कृष्ण की मूर्तियाँ सफेद संगमरमर की थीं और उनकी ऊँचाई तीन फुट थी। भक्तों ने इतनी बड़ी मूर्तियाँ कभी नहीं देखी थीं और उन्होंने उनको प्रणाम किया। जब वे मंदिर लौटे और प्रभुपाद को बताया तो प्रभुपाद बोले, “मुझे तुरंत वहाँ ले चलो। " श्यामसुंदर, मुकुंद और तमाल कृष्ण को साथ लेकर प्रभुपाद एक बंद मालवाही गाड़ी में मि. डोयल के घर पहुँचे। वे रहने के कमरे में गए और वहाँ बैठ गए। कपड़े में आच्छादित मूर्तियाँ एक कोने में मेज पर रखी थीं। तमाल कृष्ण उन पर से कपड़ा हटाना ही चाहता था कि प्रभुपाद ने उसे रोक दिया, "नहीं, नहीं, यह ठीक नहीं।” प्रभुपाद ने बैठ कर मि. डोयल से बात की और उनके कार्य के बारे में पूछा और यह कि वे भारत से कहाँ से आए थे और वे मि. डोयल के परिवार से मिले । प्रभुपाद और मि. डोयल बातें करते रहे और शिष्य सुनते रहे । "स्वामीजी, " मि. डोयल अंत में बोले, “मैं आप को अपनी मूर्तियाँ दिखाना चाहता हूँ ।" “हाँ,” प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “मैं उन्हें कुछ समय बाद देखूँगा । " प्रभुपाद अपने कृष्णभावनामृत मिशन के बारे में बताने लगे और कुछ देर के बाद मि. डोयल ने फिर प्रार्थना की, "कृपा करके इन मूर्तियों को देखें।" और यह कह कर वे आगे बढ़े और राधाकृष्ण की मूर्तियों को अनावृत कर दिया । " बहुत अच्छी ।" सम्मानपूर्वक हाथ जोड़ते हुए प्रभुपाद बोले । मि. डोयल ने बताया कि उन्होंने उन मूर्तियों को अपने उपयोग के लिए भारत से मँगाया था, लेकिन लाने में राधारानी की अंगुली का एक अंश कट कर गिर गया था। इसलिए हिन्दू परम्परा के अनुसार मूर्तियों की स्थापना नहीं की जा सकी। " तमाल कृष्ण" प्रभुपाद ने कहा, “देखो ये मूर्तियाँ कितनी भारी हैं। " तमाल कृष्ण ने एक हाथ राधारानी के नीचे और दूसरा उनके कंधे की चारों ओर रख कर मूर्ति को उठा लिया। “खास भारी नहीं हैं,” उसने कहा। " श्यामसुंदर" प्रभुपाद ने कहा, "देखो कृष्ण कितने भारी हैं ?" मूर्तियाँ एक व्यक्ति द्वारा ले जाने के लिए सचमुच भारी थीं, परन्तु भक्त प्रभुपाद के इरादे को समझते थे । “ खराब नहीं हैं।” श्यामसुंदर ने कृष्ण को मेज से कुछ इंच ऊपर उठाते हुए कहा । “हाँ,” प्रभुपाद निष्कर्षतः बोले, “मैं समझता हूँ कि वे ठीक हैं। आओ, इन्हें ले चलें । हमारे पास अपनी भारवाही गाड़ी है। और अचानक प्रभुपाद चल पड़े और उनके शिष्य राधाकृष्ण को सावधानीपूर्वक लिए हुए उनका अनुगमन करने लगे। प्रभुपाद ने मि. डोयल को धन्यवाद दिया । " लेकिन स्वामीजी ! स्वामीजी !" मि. डोयल ने प्रतिवाद किया। वे प्रभुपाद के इस आकस्मिक प्रस्थान के लिए तैयार नहीं थे । “हम उन्हें लाएँगे, हमारी सभा उन्हें लाएगी।” लेकिन प्रभुपाद दरवाजे से बाहर हो चुके थे और अपने शिष्यों के साथ गाड़ी की ओर बढ़ चले थे । “कृपया रुकिए, ” मि. डोयल कहते रहे, “ पहले हम उन्हें जोड़ेंगे तब आप ले जा सकते हैं। " " हमारे पास अपना विशेषज्ञ है, " प्रभुपाद ने कहा, " वे जोड़ने - बैठाने का सब काम कर लेगा ।" प्रभुपाद मि. डोयल को आश्वस्त कर रहे थे और साथ अपने शिष्यों को निर्देश भी दे रहे थे। उन्होंने गाड़ी का दरवाजा खोला और श्यामसुंदर और तमाल कृष्ण आहिस्ते से उसमें घुसे और राधाकृष्ण को सावधानीपूर्वक अन्दर रख लिया । तमाल कृष्ण मूर्तियों को संभालने के लिए उनके पीछे घुटनों के बल बैठ गया, घुटनों के बल बैठ गया, जबकि श्यामसुंदर ड्राइवर की जगह जा बैठा । " अब गाड़ी चलाओ ।" प्रभुपाद ने कहा, और वे चलते बने। प्रभुपाद खिड़की से मि. डोयल और उनके परिवार की ओर, जो सड़क के किनारे खड़े थे, देख कर मुसकराते रहे । श्यामसुंदर ने अभी कुछ ही भवन खंड पार किए थे कि प्रभुपाद ने उससे गाड़ी रोकने को कहा। अपनी सीट में घूम कर वे प्रार्थना करने लगे : " गोविन्दं आदि पुरुषं तम् अहं भजामि ..." उन्होंने कृष्ण को, जो हल्की नीली छाया के साथ श्वेत रंग में थे और उनकी बगल में उत्कृष्ट श्वेत वर्ण की राधाराणी को देर तक देखा । “कृष्ण कितने दयालु हैं,” वे बोले, “वे इस तरह हमारे साथ चले आए। " तब श्यामसुंदर से गाड़ी धीरे चलवा कर प्रभुपाद मंदिर वापस पहुँचे । मूर्तियों को शिष्यों द्वारा वे सावधानीपूर्वक ऊपर दूसरी मंजिल पर लिवा ले गए। भक्त आश्चर्यचकित और आनंदित थे कि प्रभुपाद राधा और कृष्ण को उनके मंदिर में पहुँचाने में इतने सक्रिय और दत्तचित्त थे। उन्होंने मूर्तियों को अपने निजी कमरे के एक भाग में, पर्दे की आड़ में, रखवाया। और तब वे अपनी डेस्क के सामने बैठ गए। प्रभुपाद मुसकराए, “कृष्ण एक बड़ी चाल चले हैं।” उन्होंने कहा कि महाभारत में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब वे चाल चलते हैं। उनकी एक चाल वह थी जब वे इस बात पर सहमत हुए कि वे उस पक्ष की ओर से लड़ेंगे जिसके सेनापति को वे सवेरे सबसे पहले देखेंगे। जब कृष्ण सोए थे तभी दोनों विरोधी सेनापति, अर्जुन और दुर्योधन, उनके शिबिर में सवेरे ही पहुँच गए थे। दोनों में सहमति हो गई थी कि जब तक कृष्ण नहीं जगेंगे, उनमें से एक उनके सिरहाने और दूसरा उनके पैरों के पास खड़ा रहेगा । दुर्योधन ने चुना कि वह कृष्ण के सिरहाने खड़ा होगा, जबकि अर्जुन उनके पैरों के पास खड़े होने को राजी हुए। कृष्ण जगे और उन्होंने अर्जुन को देखा । " वह एक बड़ी चाल थी जो कृष्ण चले थे" प्रभुपाद ने कहा, 'उसी तरह यह एक महान् चाल है।” उन्होंने बताया कि किस तरह कृष्ण ने माँ यशोदा को भी चक्कर में डाल दिया था, जब वे उन्हें अनुशासित करना चाहती थीं। कृष्ण भाग गए थे और यशोदा उनके पीछे दौड़ी थीं और यशोदा ने उन्हें पकड़ लिया था और उन्हें रस्सी से बाँधने का प्रयत्न किया था । " लेकिन वे हर बार अधिक रस्सी लातीं और हर बार वह कुछ छोटी पड़ जाती थी, " प्रभुपाद ने कहा, “कृष्ण कोई भी चाल चल सकते हैं। और उन्होंने एक दूसरी चाल यहाँ दिखाई है। लोगों ने इन मूर्तियों को यहाँ लाने का कितना प्रयत्न किया; उन्हें वे हिन्दु सेंटर में रखने की सोच रहे थे। लेकिन कृष्ण तो हमेशा यहाँ आना चाह रहे थे। इसलिए मूर्ति के हाथ का एक अंश कट जाना, कृष्ण की चाल है। और हम उन्हें यहाँ पकड़ लाए।" "प्रभुपाद, " मुकुंद ने कहा, “आपने कृष्ण का अपहरण किया है।" “हाँ,” प्रभुपाद बोले, “एक बार मैं बैंक में था, और उसके प्रबन्धक की एक योजना थी। किन्तु मैने योजना विफल कर दी। इसलिए प्रबन्धक ने मुझसे कहा, “मि. दे, आपको एक राजनेता होना चाहिए ।" प्रभुपाद हँस पड़े। तब वे गंभीर हो गए और शिष्यों से कहा कि उस घटना के बारे में कहीं बात न करें। बहुत से लोगों की समझ में नहीं आ रहा था की प्रभूपाद एक खंडित मूर्ति केसे स्थापित करेंगे , भक्त उस रहस्य को छिपा कर रखने को राजी हो गए , लेकिन उनके मन मे संदेह नहीं था की कृष्णा के लिए प्रभूपाद का प्रेम हिन्दू रीति-रिबाजों से परे था ; राधा और कृष्णा प्रभूपाद की इचहा से इंग्लैंड से आए थे । 'आप ऐसी मूर्तियों को कैसे कपड़े पहनाते हैं ?" यमुना ने पूछा “वे पहले से वस्त्र पहने हैं। " प्रभुपाद बोले, "तुम कुछ कपड़े लाओ ।" " किस तरह का कपड़ा, प्रभुपाद ? कपड़े कैसे होने चाहिए ?" " जैसे चित्र में हैं ।" प्रभुपाद ने उत्तर दिया । “चित्र तो कई तरह के हैं" यमुना ने कहा, “कभी कृष्ण सिमटा हुआ घाघरा पहनते हैं, कभी वे धोती पहनते हैं और कभी सिर पर बड़ा मुकुट धारण करते हैं । " " कृष्ण केसरिया बाने में बहुत सुंदर लगते हैं।” प्रभुपाद ने कहा, “इसलिए तुम मेरे पास केसरिया और पीले रंग की कुछ रेशमी धोतियाँ लाओ ।' यमुना ने रूपहले और सुनहरे किनारों वाली सिल्क की वह साड़ियाँ इकट्ठी कीं । प्रभुपाद ने यमुना को मुकुट का ढाँचा समझाया और बताया कि उसे कैसे बनाना होगा। अब स्थापना - समारोह क लिए थोड़े दिन रह गए थे और यमुना अपने सीने की मशीन पर लगभग लगातार काम करने लगी । प्रभुपाद दिन में कई बार उसकी प्रगति देखने आते थे। श्यामसुंदर ने वेदिका का अधिकांश कार्य पूरा कर दिया था, अब केवल भगवान् जगन्नाथ की वेदिका और राधा-कृष्ण के सिंहासन के ऊपर के छत्र का काम बाकी था। छत्र और वेदिका लकड़ी के छह फुट से अधिक ऊँचे चार भारी लकड़ी के स्तंभों पर आधारित थे। पीछे के दो स्तंभों पर टिकी एक संगमरमर की पटिया पर जगन्नाथ के अर्चा-विग्रह स्थापित थे और सामने के दोनों स्तंभ राधा-कृष्ण के मखमली छत्र के आधार थे। चारों स्तंभ भारी और लम्बे थे; श्यामसुंदर उन्हें 'हस्ति-पाद- स्तंभ' पुकारता था। चारों स्तंभ अब वेदिका पर अपने स्थान पर खड़े कर दिए गए थे, यद्यपि श्यामसुंदर को अवसर नहीं मिला था कि उन्हें मजबूती से जमा दे । प्राणप्रतिष्ठा दिवस के एक दिन पहले श्यामसुंदर काम की थकान से सीढ़ियों पर बेहोश हो गया । उद्घाटन के दिन बहुत से अतिथि, जिनमें अधिकतर भारतीय थे, इश्तहारों और विज्ञापनों के जवाब में, मंदिर में जमा हो गए। ऐपल रेकार्डस की ओर से एक व्यावसायिक पुष्प विक्रेता आया था जिसने पुष्पों से मंदिर के कक्ष को अच्छी तरह सजा दिया था। बी.बी.सी. का एक दल समारोह का वीडियो टेप बनाने को वहाँ पहुँच गया था। अधिकतर भक्त कीर्तन करने में लगे थे और प्रभुपाद मंदिर के दूसरे सिरे पर पर्दे की आड़ में राधा और कृष्ण को स्नान करा रहे थे। योजना यह थी कि स्नान क्रिया के बाद अर्चा-विग्रहों को वेदिका पर समासीन किया जायगा और यमुना उन्हें वस्त्राभूषित करेगी। उनके वस्त्राभूषित और सिंहासनासीन होने पर पर्दा हटेगा और सभी एकत्रित अतिथि श्री श्रीराधा और कृष्ण का दर्शन करेंगे। प्रभुपाद प्रवचन देंगे और फिर हर एक भोजन करेगा। परन्तु श्यामसुंदर की भूल से प्राण-प्रतिष्ठा समारोह लगभग दुर्घटना में बदल गया । प्रभुपाद ने मूर्तियों के स्नान का कार्य समाप्त कर दिया था और उन्हें संगमरमर की वेदिका पर समासीन किया जा चुका था, जब 'हस्ति-पाद- स्तंभ ' अचानक लड़खड़ा पड़े। मूर्तियों के ऊपर का छत्र गिरने लगा । प्रभुपाद ने खतरे को देखा और वे वेदिका के ऊपर कूद गए और पलक मारते भारी स्तंभो को सँभाल लिया। पूरी शक्ति लगा कर वे दोनों सामने के स्तंभों को उनके स्थान पर थामे रहे। " इसे यहाँ से हटाओ, " वे चिल्ला उठे । प्रभुपाद की भुजाओं से जब मूर्तियों की सुरक्षा हो रही थी, उस बीच लोगों ने उनके ऊपर का छत्र हटा दिया और दो-दो आदमी लग कर बारी-बारी से दोनों खंभो को अलग ले गए; मूर्तियों को कोई हानि नहीं पहुँची । जबकि प्रभुपाद पर्दे के पीछे राधा और कृष्ण को बचा रहे थे, परदे की दूसरी ओर अतिथि और सम्वाददाता श्रीविग्रहों के उद्घाटन की प्रतीक्षा कर रहे थे। दुर्घटना से अनभिज्ञ, अतिथियों को केवल यह दिखाई दिया कि कुछ लोग पर्दे के पीछे से भारी खंभों और छत्र को लिए बाहर आ रहे थे। बी.बी.सी. का कैमरा- दल पर्दे के पीछे से आते हुए खंभों और छत्र का चित्र खींचने लगा, यह समझ कर कि यह भी शोभा यात्रा का एक भाग था । प्रभुपाद के साथ जो थोड़े-से भक्त पर्दे के पीछे थे वे स्तंभित थे। लेकिन दोषारोपण या प्रशंसा के लिए समय नहीं था। यमुना ने मूर्तियों को वस्त्राभूषित किया, प्रभुपाद बराबर जल्दी करने को कहते रहे। अंत में जब सब कुछ तैयार हो गया तो प्रभुपाद ने मुख्य पर्दा हटाया और भगवान् कृष्ण और राधाराणी की सुंदर आकृतियाँ मंदिर में भरे अतिथियों के समक्ष प्रकट हुईं। एक भक्त आरती करने लगा, जबकि केसरिया चादर ओढ़े और कारनेशन एक प्रकार का गुलाबी या सफेद फूल ) की माला पहने हुए प्रभुपाद एक ओर खड़े राधा और कृष्ण को उनके उपासक और सरंक्षक के रूप में श्रद्धापूर्वक निहारते रहे। यह महीनों के परिश्रम की चरम परिणति थी । वास्तव में इस मांगलिक अवसर के पीछे वर्षों की योजना थी । एक सौ वर्ष पूर्व भक्तिविनोद ठाकुर ने उस दिन की आशा की थी जब कृष्णभावनामृत इंगलैंड आएगा और श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की भी यही इच्छा थी। अब जब राधा-कृष्ण के एक अधिकृत मंदिर से कृष्णभावनामृत का प्रचार हो रहा था तो गौड़ीय वैष्णव मत के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर था; पहले के आचार्यों के एक चिरकालिक आदेश की पूर्ति हुई थी । प्रभुपाद ने अपने कई गुरु-भाइयों को भारत आमंत्रण भेजा था। सच है, उनमें से कोई पहुँच नहीं सका, पर कम से कम उन्हें यह जान कर प्रसन्नता अवश्य होनी चाहिए कि श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का यह स्वप्न पूरा हो गया । प्रभुपाद तिहत्तर वर्ष के हो गए थे। वे तीन वर्ष में अब इक्कीस मंदिर स्थापित कर चुके थे। हाल में ही उन्होंने अपने कुछ शिष्यों से कहा था कि इस्कान के लिए उन्हें एक शासी मंडल बनाने का यत्न करना चाहिए जिससे वे प्रबन्ध के कार्यों से मुक्त होकर कृष्ण- चेतन साहित्य को प्रस्तुत करने में अपना पूरा ध्यान लगा सकें। इस साहित्य का समावेश सर्व जन हिताय सारे विश्व में, घरों, पाठशालाओं और विद्यालयों में किया जा सकता था । यह ऐसा साहित्य होगा जिसके माध्यम से वे जीवित रहेंगे। उन्होंने कहा कि इस संसार में रहने के लिए अब उनके पास कितना समय है, वे नहीं बता सकते थे। किन्तु वे जन्म-जन्मांतर अपने गुरु की सेवा और उनको प्रसन्न करने के प्रयत्न में लगे रहना चाहते थे । प्रभुपाद की इस इच्छा के बावजूद कि वे सक्रिय कार्यक्रमों से अवकाश लेना चाहते थे और अपने को पुस्तकों के प्रणयन में लगा देना चाहते थे, वे लंदन में मौजूद थे, एक नए मंदिर में अर्चा-विग्रहों की स्थापना के लिए और शिष्यों की असावधानी से उनकी रक्षा करने के लिए। यदि वे उपस्थित न रहे होते तो प्राणप्रतिष्ठा समारोह एक दुर्घटना में बदल गया होता । प्रभुपाद के बहुत से परिश्रमी शिष्य थे, और उन्हें अब भी उनके बहुत-से व्यक्तिगत मार्गदर्शन की आवश्यकता थी । इस्कान का विकास अभी शुरू हो रहा था। प्रभुपाद केवल इक्कीस नहीं, वरन् कम-से-कम १०८ मंदिर स्थापित करना चाहते थे। उनके विश्व - भ्रमण और पुस्तक - प्रकाशन के कार्य अभी आरंभ हो रहे थे और हर चीज की तरह उनके शिष्यों की संख्या में भी वृद्धि होने को थी । उनके आन्दोलन की ख्याति बढ़ेगी और उसके साथ नास्तिकों द्वारा उनका विरोध भी बढ़ेगा । कृष्णभावनामृत का प्रसार हो रहा था और प्रभुपाद उसके आगे-आगे थे। “ मैं चारों ओर प्रकाश देखता हूँ” उन्होंने कहा, "यह कृष्ण की महिमा है ।" वे अपने को अपने गुरु महाराज का सेवक मानते थे; उज्ज्वल भविष्य कृष्ण के हाथों में था । प्रभुपाद ने श्यामसुंदर को बुलाया । प्रभुपाद पहले अप्रसन्न थे कि वेदिका पर दुर्घटना होते-होते बची, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि उनके शिष्यों ने भरसक प्रयत्न किया था। उन्होंने श्यामसुंदर से कहा कि मंदिर बहुत सुंदर था, वह उन्हें पसंद था। तब उन्होंने कहा कि मंदिर के बाहर नीले पट पर सुनहरे अक्षरों में सूचना लगा दी जाय : राधा-कृष्ण मंदिर मंदिर का निर्माण श्यामसुंदर दास अधिकारी के कठोर परिश्रम और प्रयत्न से हुआ लंदन से विदा होने के दिन प्रभुपाद ने अपनी कुछ निजी चीजों, जैसे स्वेटरों, गुलुबंदो का वितरण अपने शिष्यों में किया। तब वे अकेले नीचे मंदिर में श्रीविग्रहों का दर्शन करने गए। फर्श पर दण्डवत् होकर उन्होंने लम्बे समय तक श्रद्धा-प्रणाम अर्पित किया, तब राधा-कृष्ण की ओर देखते हुए वे खड़े हुए। यमुना : प्रभुपाद श्रीविग्रहों को पूरी भक्ति से निहार रहे थे । वे उन श्रीविग्रहों को प्रेम करते थे। उन्होंने उनकी उत्कृष्ट सुंदरता पर टिप्पणी की थी कि वे किस प्रकार एक-दूसरे के पूरक हैं—किस प्रकार राधा-राणी कभी-कभी अधिक सुन्दर दिखती हैं, लेकिन किस तरह कृष्ण के नेत्र और चन्द्रमुख चमकते रहते हैं। प्रभुपाद ने मुझे देखा और जैसे तथ्य की बात बताई, “यदि तुम उसका अभ्यास करती रहोगी जो मैने तुम्हें सिखाया है, और उन निर्देशों का पालन करोगी जैसा मैने तुम्हें सिखाया है कि अर्चा-विग्रह की उपासना कैसी की जाती है, यदि तुम उन पुस्तकों को पढ़ती रहोगी जो हमने प्रकाशित की हैं तो परम धाम पहुँचने के लिए यह पर्याप्त होगा । तुम्हें कोई भी नई चीज सीखने की जरूरत नहीं है। केवल उसका अभ्यास करते रहना जो मैंने सिखाया, और तुम्हारा जीवन पूर्ण होगा ।" तब वे चले गए— तुरंत चले गए । |