सन् १९६५ से १९७० ई. तक श्रील प्रभुपाद ने मुख्य रूप से अमेरिका कृष्णभावनामृत को स्थापित करने पर ध्यान केन्द्रित किया था । उनकी योजना कि यदि अमरीकी लोग कृष्णभावनामृत की ओर मुड़ जायें तो शेष संसार उनका अनुगमन करेगा। यद्यपि भारत में अंग्रेजी भाषा भाषियों के बीच उन्होंने अपना प्रचार कार्य आरंभ किया था, किन्तु साठ वर्षों के अकेले परिश्रम से उन्हें विश्वास हो गया था कि या तो भारतीय राजनीति में आकण्ठ डूबे हैं, या उन्हें अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकार का ज्ञान नहीं है, या गरीबी से वे इतने त्रस्त हैं कि कृष्णभावनामृत को गंभीरता से स्वीकार नहीं कर सकते । इसलिए उन्हें सफलता नहीं हुई थी । किन्तु संयुक्त राज्य में उन्हें सफलता मिली थी । स्पष्ट था कि अमेरिका कृष्णभावनामृत का पौधा बोए जाने के लिए उर्वर क्षेत्र था। तो भी प्रभुपाद ने पश्चिम को असंस्कृत और असभ्य पाया। वे प्रायः कहा करते थे कि यदि सभ्यता का कोई चिह्न कहीं बाकी है तो वह मूल वैदिक संस्कृति का केन्द्र भारत है। सन् १९७० ई. तक अपनी विस्तृत यात्राओं और धर्मोपदेशों से उन्होंने प्रदर्शित कर दिया था कि वे कृष्णभावनामृत आंदोलन को न केवल अमेरिका में वरन् सारे संसार में— विशेष रूप से भारत में स्थापित करना चाहते हैं । इस बात को मानते हुए भी कि अमेरिका और भारत दोनों देशों में प्रचार का समान महत्त्व था, अमेरिका में, प्रभुपाद के लगातार सीधे निर्देशन के बिना भी, प्रचार भलीभाँति चल रहा था; उन्होंने जो आरंभ कर दिया था, उनके शिष्य उसे अच्छी तरह चालू रख सकते थे । किन्तु भारत में प्रभुपाद अपने शिष्यों को इस्कान के प्रबन्ध का भार नहीं सौंप सकते थे। वे देखते थे कि हिन्दुस्तानी कितनी आसानी से उनके शिष्यों को बार-बार धोखा दे सकते थे। उन्होंने कहा कि भारत में इस्कान का आधा कार्य उनके शिष्यों के ठगे जाने के कारण बिगड़ रहा था । यदि वे कोई पण्डाल कार्यक्रम आयोजित करते हैं तो उन्हें मानक लागत से कई गुना अधिक देना पड़ता है। भारत में इस्कान की प्रगति का केवल एक मार्ग सीधे प्रभुपाद के हाथों में उसका प्रबन्ध होना था । १९७० ई. में अमरीकी शिष्यों के एक छोटे से दल के साथ आरंभ करके, प्रभुपाद भारत में एक स्थान से दूसरे स्थान तक एक आदर्श संन्यासी की भाँति इस्कान के लिए नए क्षेत्र का उद्घाटन करते हुए, यात्रा करते रहे थे। अब वे भारत में बड़े मंदिरों की स्थापना करना चाहते थे — विशेष कर तीन मंदिरों का - एक वृंदावन में, एक मायापुर में और एक बम्बई में । १९६७ ई. में ही उन्होंने अपने अमरीकी शिष्यों के लिए वृंदावन में एक "अमरीकी भवन” स्थापित करना चाहा था । महाप्रभु चैतन्य का जन्मस्थान होने के कारण मायापुर का विशेष महत्त्व था; और बम्बई भारत का महानगर था— भारत का सिंहद्वार। जैसा कि प्रभुपाद की सभी महान् योजनाओं के साथ होता था, प्रभुपाद के सबसे निकट के शिष्य भी उनके दृष्टि - विस्तार को पूरी तरह समझने में असमर्थ थे। किन्तु प्रभुपाद जानते थे कि वे क्या चाहते हैं और वे यह भी जानते थे कि सब कुछ कृष्ण पर निर्भर है। उन्होंने अपनी योजनाओं को एक एक करके उद्घाटित करना शुरू किया । उन्होंने कहा कि मंदिर-निर्माण का स्थान दूसरा था, पहला स्थान पुस्तकों को प्रकाशित और वितरित करने का था । किन्तु कृष्णभावनामृत आंदोलन को दो समानान्तर पटरियों पर चलना था, जैसे एक ट्रेन दो समानान्तर पटरियों पर चलती है। एक पटरी भागवत-मार्ग है, और दूसरी पंचरात्रकी विधि । भागवत - मार्ग का क्षेत्र है कृष्णभावनामृत की विचारधारा, कृष्ण के विषय में कीर्तन और श्रवण और कृष्ण के संदेश का प्रचार- प्रसार । पंचरात्रकी विधि में मंदिर में विग्रह की उपासना - अर्चना की विधियों और नियमों का समावेश है । इन दोनों में भागवत-मार्ग अधिक महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि हरिदास ठाकुर जैसी महान् मुक्त आत्माएँ केवल हरे कृष्ण मंत्र का निरंतर जप करने से ही पूर्ण कृष्णभावनामृत में बनी रहीं, लेकिन प्रभुपाद जानते थे कि उनके शिष्यों को उनके चंचल स्वभाव और पूर्व पापपूर्ण आदतों के कारण, मंदिर में भगवान् की अर्चना से, विशेष रूप से शुद्ध होने की आवश्यकता थी । इसलिए भारत में उनके मंदिर - स्थापना चाहने के कारणों में से एक कारण यह भी था कि वे मंदिर में विग्रह की पूर्ण उपासना कराके अपने शिष्यों को शुद्ध बनाना चाहते थे। मंदिर धर्मोपदेश के लिए भी थे। प्रभुपाद कहा करते थे कि, “गरीब आदमी की बात कोई नहीं सुनता।" इसलिए जनता को कृष्णभावनामृत की ओर आकृष्ट करने के लिए वे विशाल भवन बनवाना चाहते थे । वे विशेष कर इसे भारत में चाहते थे जहाँ मंदिर में उपासना का चलन अब भी है। मंदिर बनाने और उपासना करने का स्थान पुस्तकों के प्रकाशन और वितरण के बाद का था । लेकिन उसकी उपेक्षा नहीं करनी थी । मायापुर, वृंदावन और बम्बई में मंदिर निर्माण को जितने ध्यान की आवश्यकता थी, प्रभुपाद उतना ध्यान देने को तैयारथे । *** बम्बई नवम्बर १९७१ भक्तजन साल भर से बम्बई के मध्य में 'आकाश गंगा' इमारत की सातवीं मंजिल पर दो अपार्टमेंट में रह रहे थे । किन्तु प्रभुपाद को इससे संतोष नहीं था । वे बम्बई में भूमि चाहते थे जिस पर भवन बनाया जा सके और उनके कार्यों का विस्तार हो सके । वे कृत-संकल्प थे । प्रातः कालीन भ्रमण की बजाय वे अपनी कार में दूर तक नगर के विभिन्न भागों का निरीक्षण करने के लिए जाने लगे थे । चूँकि इस्कान के बहुत से आजीवन सदस्य, राजसी मालाबार हिल में रहते थे, अतः प्रभुपाद के शिष्यों का विचार था कि मंदिर के लिए वह बहुत अच्छा स्थान होगा। कई अवसरों पर प्रभुपाद मालाबार की चोटी तक कार में गए और यह सोच कर उन्होंने कई जायदादों का चक्कर लगाया कि उन पर खड़े कुछ विशाल भवन मंदिर बन सकते हैं । किन्तु किसी न किसी कारण से उनमें से कोई भी उन्हें स्वीकार्य नहीं हुई । तब नवम्बर में एक मिस्टर एन. ने अरब सागर के तट पर जुहू स्थित पाँच एकड़ जमीन को इस्कान के हाथों बेचने का प्रस्ताव रखा। ज्योंही प्रभुपाद इस भूमि पर पहुँचे, उन्हें स्मरण हो आया कि वर्षों पूर्व उन्होंने इसे देखा था और इस पर विचार किया था । अगस्त १९६५ ई. में अमेरिका जाने के कुछ सप्ताह पूर्व वे सिन्धिया कालोनी में रह रहे थे । संध्यासमय वे सिन्धिया स्टीम कम्पनी की मालकिन श्रीमती सुमति मोरारजी के जुहू स्थित घर जाकर उन्हें तथा उनके अतिथियों को श्रीमद्भागवतम् पढ़ कर सुनाते और समझाते थे । वे कई बार इसी भूमि पर से होकर आए-गए थे और सोचा था कि आश्रम और राधाकृष्ण मंदिर के लिए यह कितनी अच्छी जगह हो सकती है । यद्यपि उस समय उनका ध्यान भारत से बाहर जाने के कार्य में केन्द्रित रहता था तो भी उन्होंने जुहू की भूमि के बारे में सोचा था। अब वे पुनः जुहू में थे और कई वर्ष पूर्व देखी गई भूमि के बारे में फिर विचार कर रहे थे । उन्होंने इसे कृष्ण का स्मरण पत्र समझा । यह भूमि ऊँची घास और झाड़ियों से आच्छादित थी और उस पर सर्वत्र नारियल के कई वृक्ष खड़े थे। इस भूमि के पिछले भाग में कई इमारतें थीं, यह भूमि जुहू सड़क के किनारे थी जो अठ्ठारह मील दक्षिण स्थित बम्बई के लिए यातायात की मुख्य सड़क थी। थोड़ी दूरी पर, अरब सागर का विस्तृत समुद्री किनारा था । यह स्थान अच्छा था— शान्त था, और बहुत दूर भी नहीं था । निकटवर्ती समुद्री तट पर कई 'पाँच - सितारे होटल थे और भूमि विकास में लगे लोग कई अन्य होटलों और आवासीय भवनों पर कार्य आरंभ कर रहे थे। जब प्रभुपाद समुद्र के किनारे-किनारे चले तो उन्हें इस जमीन को खरीदने का विचार और भी अच्छा लगा । धनी लोगों ने समुद्र तट पर सप्ताहांत बिताने के लिए घर बना रखे थे और हजारों बम्बई निवासी रविवार को समुद्र तट का आनंद लेने आते थे । नित्य प्रति, , जुहू में रहने वाले सैंकड़ों लोग काम पर जाने से पूर्व लम्बे-चौड़े समुद्री किनारे पर प्रातः कालीन भ्रमण करते थे । प्रायः हर समय ही लोग यहाँ घूमते या एकत्र होते रहते थे, फिर भी समुद्री तट स्वच्छ था । मृदुल तरंगे और खुला आकाश मानो आमंत्रण - से देते रहते थे। यह स्थान न केवल होटलों, अपितु कृष्णभावना केन्द्र के लिए भी उपयुक्त था । प्रभुपाद जुहू की भूमि चाहने लगे थे; उनके शिष्य मालाबार हिल पर उन्हें मकान दिखाते रहे, किन्तु प्रभुपाद ने अपना विचार नहीं बदला। उनके शिष्य वही चाहते थे जो वे चाहते थे तो भी उनके मन में ऐसी जायदाद के लिए उत्साह वर्धन कठिन था जो शहर से इतनी दूर थी और जहाँ न तो रहने की और न मंदिर की कोई सुविधा उपलब्ध थी । इस पाँच एकड़ भूखण्ड के स्वामी, मि. एन., ने उचित कीमत लगा रखी थी और वह मित्रवत् और निष्ठावान् लगता था । फिर भी ऐसे सौदों में खतरा तो रहता ही है और इस मामले में प्रभुपाद के लिए संदेह के भी कारण थे। अपने वकील के माध्यम से उन्हें पता चला कि यह श्रीमान् एन. इसी भू-खण्ड को सी. कम्पनी के हाथों बेचने का समझौता कर चुका था, किन्तु बाद में उसने समझौते को रद्द कर दिया था । तब सी. कम्पनी ने वादाखिलाफी के लिए उस पर मुकदमा चलाया था। यदि बम्बई हाई कोर्ट सी. कम्पनी के पक्ष में निर्णय दे दे तो यह जमीन उसे ही मिलेगी। जब प्रभुपाद के सचिव ने इस बखेड़े के बारे में श्रीमान एन. से पूछताछ की तो उसने विश्वास दिलाया कि सी. कम्पनी मुकदमा नहीं जीत सकती । फिर भी, इस्कान चाहे तो भुगतान का कुछ भाग तब तक रोके रहे जब तक सी. कम्पनी के साथ मुकदमेबाजी का निपटारा न हो जाय। श्रीमान एन. बम्बई का अच्छी तरह जाना-पहचाना व्यक्ति था । पहले वह बम्बई का शेरिफ था— जो एक अवैतनिक न्यायिक पुलिस पद है। अब वह बम्बई के एक सबसे बड़े अंग्रेजी दैनिक पत्र का प्रकाशक - सम्पादक था। वह धनवान् था और बम्बई और जुहू में कई जायदादों का मालिक था। वह प्रभावशाली भी था। वह एक ऐसा व्यक्ति था जिसका विरोध करना कोई नहीं चाहेगा । अतः वर्तमान परिस्थितियों में जुहू की जमीन खरीदने वाले में साहस का होना आवश्यक था। दिसम्बर के अंत में प्रभुपाद श्रीमान् एन. और श्रीमती एन. से जुहू की थियोसोफिकल कालोनी स्थित उनके घर पर मिले। मि. एन. का घर समुद्री तट पर था, इस प्रकार प्रभुपाद को जुहू समुद्री तट की, जिस पर खड़े ताड़ के वृक्ष समुद्र की ओर झुके हुए थे, सुन्दरता का आनंद लेने का एक और सुयोग मिल गया । थियोसोफिकल युक्त कालोनी हरे-भरे लानों, पुष्प वाटिकाओं और अनेक अनोखे पक्षियों से मनोरम भवनों का एक निजी संकुल थी । मि. एन. के घर के भीतर सड़क की दोनों ओर अशोकवृक्ष लगे थे और पत्थर की ऊँची मजबूत चहारदीवारी के किनारे-किनारे ताड़ - वृक्षों की पंक्ति थी । एक माली ने प्रभुपाद और उनके कुछ शिष्यों के लिए फाटक खोला। श्रीमान् एन. एक नाटा और गठीले बदन का व्यक्ति था जिसके आगे के बाल झड़ गए थे। उसके बाल छोटे कटे हुए थे और उसके गोल चेहरे पर चेचक के निशान थे । वे लगभग पचास साल की आयु के लगते थे। श्रीमती एन. का रंग गोरा था और उसके बाल कटे हुए थे— जो भारतीय स्त्री के लिए एक असामान्य बात थी। प्रभुपाद इस्कान बम्बई के राधाकृष्ण विग्रहों का प्रसाद और पुष्प - माला लाए थे और उन्हें उन्होंने मि. एन. और श्रीमती एन. को दिया। मि. एन. ने अतिथियों को अपने और अपनी पत्नी के साथ सामने वाली ड्योढ़ी में बैठने के लिए आमंत्रित किया जिसके सामने बड़ा ही सुंदर बगीचा था। श्रील प्रभुपाद ने उन्मुक्त भाव से जुहू की जमीन की तारीफ की, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि उनके पास रकम बहुत कम है। किन्तु श्रीमान एन. का प्रभुपाद के प्रति रुख अच्छा था और उसने कहा कि वह उनके हाथ जायदाद बेचना चाहता है। जल्दी ही वे एक मौखिक समझौते पर पहुँच गए। श्रीमती एन. को सौदा सस्ता लगा। लेकिन जब उसने आपत्ति की तो उसके पति ने उसकी बात काट दी । प्रभुपाद और श्रीमान एन. आपस में राजी हुए कि दो लाख रुपए का नकद भुगतान किया जाय और यह भुगतान होते ही इस्कान तुरन्त हस्तांतरण पट्टा पायेगा । शेष चौदह लाख रुपए का भुगतान इस्कान नियमित किश्तों में करेगा । नकद भुगतान के बारे में प्रभुपाद ने आगे सौदेबाजी की। उन्होंने पचास हजार रुपए तुरंत देने का प्रस्ताव किया। बाद में पचास हजार रुपए और भुगतान करने पर उन्हें भूमिखण्ड में प्रवेश का अधिकार मिल जायगा । उसके बाद ज्योंही वे नकद भुगतान के शेष एक लाख रुपये चुकता कर देंगे, दो लाख नकद भुगतान की शर्त पूरी हो जायगी और श्रीमान एन. इस्कान को पट्टा दे देंगे। श्रीमान एन. प्रभुपाद के इस प्रस्ताव से सहमत हो गया । श्रील प्रभुपाद ऐसे व्यक्ति थे जो इस तरह के व्यावसायिक मामलों के विषय में सावधानी से सोचा करते थे। उन्होंने कहा था कि यदि कोई व्यवसायी आप से कहे, “श्रीमन् मैं आपसे कोई मुनाफा नहीं कमा रहा हूँ" तो आपको समझ जाना चाहिए कि वह झूठ बोल रहा है। अतएव न्यू यार्क शहर में इस्कान के प्रारंभिक दिनों में जब एक धूर्त जागीरदार, मि. प्राइस, ने अपने को भक्तों का शुभचिन्तक बताया था तो प्रभुपाद सशंकित हुए थे । वास्तव में उसने भक्तों को ठग लिया था, बावजूद इसके कि प्रभुपाद भक्तों को आगाह कर चुके थे। तब की भाँति अब भी प्रभुपाद सशंकित थे । किन्तु वे जुहू की भूमि चाहते थे, इसलिए खतरा मोल लेने को तैयार थे। इस तरह के खतरे प्रभुपाद पहले भी उठा चुके थे । सन् १९५३ ई. में झाँसी में उन्होंने एक इमारत पर अधिकार कर लिया था, यद्यपि उनकी कानूनी स्थिति कमजोर थी और वित्तीय सुरक्षा भी नहीं थी । न्यू यार्क के अपने पहले स्टोरफ्रंट में और लास ऐंजीलेस के वटसेका एवन्यू चर्च में जो उनकी अब तक सबसे बड़ी उपलब्धि थी, वे इसकी मासिक किश्त चुका सकने के आश्वासन के बिना ही, घुस गए थे। वस्तुतः उनके आन्दोलन की पूरी सफलता ही उनके कृष्ण के नाम पर एक के बाद एक खतरा लेने से मिली थी। जब उनके बोस्टन के भक्तों ने उन्हें लिखा था कि उन्होंने एक मकान एक हजार डालर महीना किराए पर ले लिया इस आशा में कि वे बैक टु गॉडहेड की बिक्री नाटकीय ढंग से बढ़ाकर यह किराया दे सकेंगे तो प्रभुपाद ने अपनी सहमति दे दी थी और दूसरों के लिए उनके इस दृष्टान्त की संस्तुति तक भी की थी। अतः यदि बम्बई के सौदे में कुछ खतरा अन्तर्निहित था तो वह स्वाभाविक था । भू-खण्ड से प्रतिबद्ध होते ही प्रभुपाद बम्बई में एक विशाल परियोजना के विषय में अपेन मनसूबे प्रकट करने लगे । २२ दिसम्बर को उन्होंने यमुना को लिखा, यहाँ बम्बई में, एक सम्पन्न इलाके के मध्य जुहू में, हमें बहुत सस्ते दामों में एक बहुत बड़ा भूखण्ड मिल जाने की अच्छी आशा है। वहाँ हम अपना कैम्प बनाएँगे और मंदिर निर्माण का कार्य तुरन्त आरंभ कर देंगे। बाद में हम वहाँ एक होटल और एक स्कूल बनाएँगे । बम्बई नगर में हमें एक सुन्दर बंगला भी प्राप्त हो जाने की संभावना है। इस तरह आमतौर से हमारा मुख्यालय बम्बई में रहेगा, और हम वृंदावन और मायापुर का भी विकास करेंगे। जब सारे विश्व के भक्तगण प्रभुपाद की बम्बई - केन्द्र की योजना सुन कर प्रसन्न थे तो बम्बई के भक्तों की प्रतिक्रिया मिली-जुली थी। एक ऐसे स्थान में जो जंगल से अधिक नहीं था, मंदिर बनाने की कल्पना करना आसान काम नहीं था । कुछ नही पाँच - सितारा होटल ही, जिसकी कल्पना प्रभुपाद करते थे, कोई आसान काम था। इस भूखण्ड के पीछे की सभी इमारतों में लोग रह रहे थे और भारतीय कानून के अनुसार किरायादारों को हटाया नहीं जा सकता था । यदि भक्तगण भूखण्ड में जाते हैं तो उन्हें अस्थायी घर बनाने पड़ेंगे, हो सकता है एक अस्थायी मंदिर भी बनाना पड़े और वह भूखंड मच्छरों से भरा था और उसमें चूहों का राज था । जुहू छोटी जगह थी, पड़ोस से कटी हुई, वहाँ इस्कान के ऐसे समर्थक भी नहीं थे जो धनाढ्य हों । यद्यपि प्रभुपाद ( और भूमि के दलालों) ने भविष्यवाणी की थी कि जुहू बढ़ेगा, लेकिन इस समय तो वह लगभग दो हजार की आबादी वाला केवल एक गाँव था । जुहू में आकर बसने और बम्बई नगर की आरामदेह आकाशगंगा इमारत में रहने में भारी वैषम्य था । तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को समझाया, “हम पश्चिम के निवासी हैं। हम इस तरह नहीं रह सकते। हमें दरवाजों में कुंडी और नलों में निरन्तर जल चाहिए ।' प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “ तो क्या तुम शुद्ध होना नहीं चाहते ?" जब बम्बई के भक्तों ने तमाल कृष्ण को प्रभुपाद का दिया यह उत्तर सुना कि 'क्या तुम शुद्ध होना नहीं चाहते ?' तो यह बात उनके दिलों में घर कर गई । वे समझ गए कि प्रभुपाद उनसे और अधिक संयमी बनने के लिए कह रहे हैं और अन्ततः यह उनके हित के लिए था । वे जुहू चलने को, नीरस कार्य न समझ कर, दुर्घर्ष आध्यात्मिक आह्वान के रूप में देखने लगे । जुहू की सम्पत्ति को विकसित करना उनके गुरु के लिए महत्त्वपूर्ण था और यह, अभी जो कुछ वे समझ रहे थे, उससे भी अधिक आश्चर्यजनक था । प्रभुपाद जानते थे कि वे अपने शिष्यों से एक बड़े त्याग की मांग कर रहे थे, किन्तु वें इससे बच नहीं सकते थे। कृष्णभावनामृत का प्रचार करने के लिए भक्तों को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करने को तैयार रहना होगा । और जैसी कठिनाइयों का सामना करने के लिए वे अपने शिष्यों से कह रहे थे, उनसे भी बड़ी कठिनाइयाँ झेलने को वे स्वयं तैयार थे । एक ओर वे यह नहीं मानते थे कि जुहू की अविकसित भूमि में रहना भक्तों के लिए बहुत अधिक कठिन होगा, बशर्ते कि वे स्वच्छता बनाए रखें और हरे कृष्ण मंत्र का जप करते रहें। तो भी वे जानते थे कि चूँकि उनके शिष्य पश्चिम के निवासी थे, इसलिए उन्हें कुछ कठिनाई होगी । एक धर्मोपदेशक को त्याग तो करना ही पड़ता है; हाँ, वह त्याग कृत्रिम या मनमाने ढंग का नहीं चाहिए, अपितु कृष्णभावनामृत-आन्दोलन को बढ़ाने के लिए होना चाहिए। कृष्ण की सेवा कभी तो आनन्ददायक होती है और कभी कठिन । दोनों दशाओं में भक्त को अपने गुरु महाराज के तुच्छ सेवक की तरह अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए । प्रभुपाद ने अपने बम्बई के भक्तों को इस्कान बम्बई के अपने स्वप्न के विषय में समझाया। यद्यपि उनमें से सभी उनके निर्णय का अनुसरण करने को तैयार थे, किन्तु फिर भी कुछ शिष्य शंकाग्रस्त और भीरु लग रहे थे। लेकिन परियोजना के प्रति अपने गुरु महाराज की प्रतिबद्धता को देखते हुए उन्होंने अपनी अलगाववादी मानसिकता को छोड़ देने का निर्णय किया। तब प्रभुपाद ने जयपुर में राधा-गोविन्द मंदिर में एक सप्ताह के धर्मोपदेश कार्यक्रम के लिए प्रस्थान किया । *** जयपुर जनवरी १२, १९७२ जयपुर राजस्थान राज्य में एक प्राचीन नगर है । प्रायः प्रभुपाद के कुछ शिष्य इस्कान के भारत- स्थित और विश्व भर के मंदिरों के लिए, राधाकृष्ण के विग्रहों को खरीदने के उद्देश्य से, जयपुर जाया करते थे। डेट्रायट, टोरन्टो, डलास, और समस्त योरप के इस्कान भक्त राधाकृष्ण विग्रहों की स्थापना करना चाहते थे और प्रभुपाद की अनुमति से वे जयपुर से मूर्तियाँ मंगाया करते थे । ऐसे ही एक अवसर पर न्यू यार्क नगर के मंदिर की ओर से दो महिलाएँ, कौशल्या और श्रीमती, जनवरी १९७२ ई. में जयपुर गई हुई थीं। जब एक सरकारी अधिकारी को ज्ञात हुआ कि श्रीमती के पास उनका पासपोर्ट नहीं है तो, पाकिस्तान के साथ युद्ध के कारण, गुप्तचरों का संदेह होने पर, उसने आग्रह किया कि दोनों महिलाएँ नगर में तब तक रुकी रहें जब तक कि डाक से श्रीमती का पासपोर्ट न आ जाय । इस बीच दोनो लड़कियाँ नित्य गोविन्दजी के मंदिर में दर्शनार्थ जाती थीं और कभी कभी मंदिर के सामने सड़क में कीर्तन भी करती थी। मंदिर के व्यवस्थापक पी. के. गोस्वामी से और जयपुर के व्यवसायियों तथा अन्य सम्माननीय नागरिकों से उनकी नित्य वार्ता होती थी । (राधा-गोविन्द के मनोहारी विग्रहों के दर्शनार्थ जयपुर के लगभग सभी लोग जाया करते हैं ।) प्रभुपाद की इन दोनों शिष्याओं की भक्ति से जयपुर के नागरिक बहुत प्रभावित थे और जब एक व्यक्ति ने पूछा था, “आपके आन्दोलन की सहायता के लिए हम क्या कर सकते हैं?” तो लड़कियों ने उत्तर दिया था, “ श्रील प्रभुपाद को यहाँ बुलाइए।" इस पर जयपुर के कुछ प्रमुख नागरिकों ने एक पण्डाल कार्यक्रम आयोजित करने के उद्देश्य से लागत और जिम्मेदारी आपस में बाँटने की एक योजना बनाई थी। और दोनों लड़कियों ने प्रभुपाद को बम्बई पत्र भेज कर उन्हें जयपुर आने और उपदेश देने को आमंत्रित किया था। प्रभुपाद राजी हो गए थे। श्रील प्रभुपाद के अनुरोध पर, दिल्ली और भारत के अन्य केन्द्रों से भी भक्त उनका साथ देने को जयपुर आ गए थे। प्रभुपाद ने गोविन्दजी के मंदिर के अहाते में एक छोटा-सा कमरा ले लिया और भक्त निकट के एक मकान में ठहर गए। प्रभुपाद को स्थान पसंद आया । केवल एक विघ्न था — और वह था काले मुंह और लम्बी मुड़ी हुई पूंछों वाले बंदरों से । वृक्षों और घरों की छतों पर से होकर वे अप्रत्याशित रूप से, जो कुछ भी पाते उसे चुराने के लिए, धड़ाम से कूद पड़ते । प्रभुपाद के लिए भोजन बनाने वाली महिलाएँ बंदरों की इस तरह की साहसभरी लूटमार से क्षुब्ध हो गईं; वे रसोई में से सब्जियाँ, यहाँ तक आग पर से चपातियाँ तक, झपट कर उठा ले जाते । तब महिलाओं ने प्रभुपाद से शिकायत की। प्रभुपाद ने सलाह दी, “ न तो उनका मित्र बनो और न उनसे शत्रुता करो। यदि उनके साथ मित्रता करती हो तो वे परेशानी का कारण बन जायँगे। यदि उनसे शत्रुता करोगी तो वे बदला लेने लगेंगे। इसलिए केवल उदासीन बने रहो।" किन्तु बंदरों का रसोईघर पर छापा जारी रहा। रसोई बनाने वाली महिलाओं ने फिर शिकायत की। प्रभुपाद बोले, "अच्छा, यदि तुम बंदरों को बंद करना चाहती हो तो तुम्हें यह जरूर करना पड़ेगा। एक धनुष-बाण खरीदो और वृक्ष के सिरे पर बैठे किसी बंदर को बाण का निशाना बनाओ। और जब वह नीचे गिरे तो उसे पैरों के बल वृक्ष की शाखा से लटका दो। उसकी बगल में धनुष और बाण भी टाँग दो। इससे उन्हें नसीहत मिल जायगी । प्रभुपाद जानते थे कि जयपुर में बंदर मारना अवैध था और उन्हें ऐसी आशा नहीं थी कि उनके शिष्य बंदरों को सचमुच मारेंगे। किन्तु उन्होंने यह शिक्षा बड़ी गंभीर मुद्रा में दी थी। अप्रत्यक्ष रूप से वे अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे कि कुछ बंदरों के कारण उन्हें इतना क्षुब्ध नहीं होना चाहिए । प्रभुपाद और उनके शिष्य जयपुर के भावप्रवण भक्ति के वातावरण में शीघ्र ही घुलमिल गए। चूँकि राधा-गोविन्द का मंदिर राजपरिवार के अधिकार क्षेत्र में था इसलिए, वस्तुत: सभी नागरिकों का वहाँ जाना जरूरी था। आसन पर विराजमान राधा और कृष्ण के विग्रहों का दर्शन और पूजन करने के लिए प्रात: काल और संध्या को उपासकों की भीड़ लगी रहती । राधा - गोविन्द के ये विग्रह मूलतः वृंदावन के रूप गोस्वामी के थे। करीब पाँच सौ वर्ष पूर्व जब एक मुगल शासक ने गोविन्दजी के मंदिर पर आक्रमण किया था तो जयपुर के महाराजा ने इन विग्रहों को जयपुर लाने की व्यवस्था की थी । राधा-गोविन्द मंदिर में विग्रहों का दर्शन होने पर उपासक स्वतः स्फूर्त उमंग का प्रदर्शन करते थे । वे आगे बढ़ कर चिल्लाते, “जयो! जयो !” “गोविन्द ! गोविन्द ! " और जब पर्दा गिरने लगता था तो लोग तेजी से आगे बढ़ते थे ताकि दिव्य विग्रहों का आखिरी दर्शन पा सकें । श्रील प्रभुपाद विग्रह के समक्ष एकत्र होने वाली भीड़ से बचते और सवेरे उठ कर अपने निर्धारित कार्य भागवतम् के अनुवाद में लग जाते थे । कौशल्या और श्रीमती से बात करते हुए प्रभुपाद ने जयपुर पण्डाल कार्यक्रम आयोजित करने के लिए उनकी प्रशंसा की। उन्होंने कहा, “तुम दोनों लड़कियाँ भगवान् चैतन्य के आंदोलन को कितनी अच्छी तरह चला रही हो ! देखो न, पतियों के बिना ही तुम प्रचार करती घूम रही हो ।” उनका कहना था कि पाश्चात्य महिलाएँ भारतीय स्त्रियों से भिन्न होती हैं, जो केवल घर में रहना जानती हैं। " उसके बाद प्रभुपाद को मालूम हुआ कि उनकी इन दो शिष्याओं ने काम अच्छी तरह नहीं किया है । पण्डाल कार्यक्रम के शुरू होने के केवल दो दिन शेष थे और अभी तक शामियाना नहीं लगा है। प्रभुपाद ने कहा कि व्यवस्था सम्बन्धी ऐसा काम करना महिलाओं के स्वभाव में नहीं है। दोनों महिलाएँ यह सुन कर उदास हो गईं। उन्होंने जब वह पत्रक दिखाया जिस पर उत्सव का विज्ञापन छपाया गया था तो प्रभुपाद नाराज हो गए। उन्होंने कहा, “यह उपयुक्त - स्तरीय नहीं है। इसमें " अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ" नहीं कहा गया है, केवल "ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी और उनके विदेशी शिष्य" कहा गया है। प्रभुपाद चिल्लाकर बोले, "यह क्या है ?" कौशल्या ने पूछा, “क्या, श्रील प्रभुपाद ?" “विदेशी ! तुम विदेशी क्यों कहती हो ? 'अमेरिकन' और 'योरोपीय' कहना चाहिए। इसी में आकर्षण है कि वे अमेरिकन और योरोपीय हैं । किन्तु तुम लोग तो ठहरीं महिलाएँ। तुम से मैं क्या आशा कर सकता हूँ?” दोनों महिलाएँ रोने लगीं और कमरा छोड़ कर चली गईं। श्यामसुंदर की सहायता से कौशल्या और श्रीमती ने नया त्रुटि - रहित विज्ञापन - पत्रक छपवाया और वापस आकर प्रभुपाद को बताया । किन्तु अब तक उनका मन बिल्कुल बदल चुका था। उनका क्रोध जाता रहा था। वे कोमल बन गए थे, कुछ भी हो इन शिष्याओं ने भरसक प्रयास किया था । उन्होंने निरुत्तर कर देने वाले उन्मुक्त भाव से कहना आरंभ किया कि आध्यात्मिक गुरु होना बड़ा ही कठिन कार्य है । उन्होंने कहा, “मैं तुम्हें डाँटता हूँ, क्योंकि यह मेरा कर्त्तव्य है । शिष्य का सम्बन्ध अनुशासन से है। अतः मेरे शिष्यों के प्रति यह मेरा कर्त्तव्य है । अन्यथा मैं किसी पर क्रोध नहीं करता। मैं केवल तुम्हें अनुशासित करने के लिए यह करता हूँ, क्योंकि तुम मेरी शिष्याएँ हो ।” उन्होंने उन्हें सान्त्वना दी और कहा कि वे कार्यनिष्ठ हैं, प्रशिक्षण के अभाव में केवल उनमें जानकारी नहीं है। जो शिष्य वहाँ उपस्थित थे वे अनुभव कर रहे थे कि एक आध्यात्मिक गुरु के रूप में उन्हें प्रशिक्षित करने में श्रील प्रभुपाद को जैसा लग रहा था उसे वे बड़े आश्चर्यजनक ढंग से अभिव्यक्त कर रहे थे । अन्तिम क्षण के महान् प्रयास के फलस्वरूप, शिष्य समय पर पण्डाल प्राप्त करने और उसे बनाने में सफल हो गए और विज्ञापन के अनुसार प्रभुपाद अपना कार्यक्रम आरंभ कर सके। पहले दिन भक्तों ने सड़कों में एक जुलूस निकाला जिसमें प्रभुपाद एक पालकी में बैठे थे और एक अलंकृत छत्र उनके सिर पर छाया कर रहा था । जुलूस में सजे हुए हाथी थे, ब्रास बैंड था और कीर्तन करती हुई भारतीय-अमेरिकन- योरोपीय शिष्य मण्डली थी । श्रील प्रभुपाद का पहला कार्यक्रम सवेरे गोविन्दजी के दर्शन के ठीक बाद था जिससे सवेरे की वृहत् भीड़ का लाभ उन्हें मिल सके। लोग राधाकृष्ण के दर्शनों के लिए झपटते हुए आए और उसके बाद मंदिर की बगल में बने विशाल 'हरे कृष्ण' पण्डाल में गए। पहले दिन प्रभुपाद ने संगमरमर के राधाकृष्ण विग्रहों को स्नान करा कर अभिषेक समारोह सम्पन्न किया। जहाज से शीघ्र इस्कान के न्यू यार्क मंदिर को भेजे जाने वाले इन विग्रहों को उन्होंने “ राधा - गोविन्द” नाम दिया । उसके बाद प्रभुपाद के एक शिष्य के द्वारा हवन यज्ञ किया गया और तब प्रभुपाद ने हिन्दी में जन-समूह को सम्बोधित किया। शेष दिनों के लिए सवेरे और संध्या को व्याख्यान, कीर्तन और प्रसाद वितरण का कार्यक्रम निर्धारित किया गया। *** जयपुर में प्रचार करने के साथ-साथ प्रभुपाद संसार के कई भागों की गतिविधियों पर विचार करते रहे या पत्रों के द्वारा भक्तों को लिखते रहे । यद्यपि वे जयपुर के कार्यक्रमों में पूरी तन्मयता से लगे थे, प्रतिदिन दो व्याख्यान देते थे, अतिथियों, मित्रों और भक्तों के साथ लगातार विचार-विनिमय करते थे, तब भी वे अन्य स्थानों के और अन्य विषयों के बारे में विचारों में डूबे रहते । वे अपना प्रचार कई मोर्चों पर संचालित कर रहे थे । वे जहाँ कहीं उपस्थित होते वहीं उनका कैम्प ( डेरा) होता, ठीक वैसे ही जैसे एक सेना का जनरल जब महायुद्ध का संचालन कर रहा होता है तो लड़ाई के विविध क्षेत्रों में कई स्थानों पर उसका कैम्प होता है । अतएव जयपुर में उनका प्रचार उनके विश्वव्यापी महालक्ष्य के क्षेत्र का एक खण्डमात्र था । जयपुर से प्रभुपाद ने मायापुर के विकास पर जोर देते हुए अपने कलकत्ता के शिष्यों को लिखा; वे मार्च में चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव दिवस तक बहुत विराट् उद्घाटन समारोह करना चाहते थे। दुर्भाग्यवश, बंगलादेश की निकटता के कारण सरकार विदेशियों का नदिया में प्रवेश प्रतिबन्धित कर रही थी । प्रभुपाद ने कलकत्ता में अपने आदमियों पर जोर डालते हुए लिखा, “कृपया अनुमति - पत्रों को प्राप्त करने का पूरा प्रयास कीजिए; क्योंकि चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव दिवस पर हम सभी लोगों को वहाँ जरूर उपस्थित होना है।” सरकारी निषेधाज्ञा पर प्रभुपाद बार-बार चिन्ता व्यक्त कर रहे थे । मैं समझता हूँ कि कोई कठिनाई नहीं होगी, यदि हम लोग सामान्य तीर्थयात्रियों की भाँति वहाँ जायँ और निरन्तर कीर्तन के लिए अपना कैंप लगा लें। तब कोई भी देख सकेगा कि हम भगवान् चैतन्य के सच्चे सेवक हैं, पाकिस्तान के गुप्तचर नहीं । प्रभुपाद ने नैरोबी के अपने शिष्यों को पहले ही लिख कर उन्हें आगे बढ़ते रहने के लिए अपनी शुभकामनाएँ भेजीं थी । " कृष्ण की प्रसन्नता के लिए कड़ा परिश्रम करते रहो और तुम सभी उन के धाम को लौट कर उनको प्राप्त कर लोगे ।" सान डियागो मंदिर के अध्यक्ष को प्रभुपाद ने लिखा, आप से यह जान कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है कि पुस्तकों की बिक्री तेजी से हो रही है । ऐसे ही अच्छे समाचार संघ के सभी स्थानों से प्राप्त हो रहे हैं। इससे मुझे जितनी प्रसन्नता है, उतनी किसी अन्य वस्तु से नहीं । और प्रभुपाद बम्बई की भूमि के बारे में भी प्रायः सोचते रहते थे। कभी-कभी वे इसके बारे में बात करते या बम्बई में अपने प्रतिनिधियों को लिखे गए पत्र में उसका उल्लेख करते । बम्बई की भूमि की खरीद का मामला अंतिम रूप से अभी भी तय नहीं हुआ था। प्रभुपाद की विशेष चिन्ता यह थी कि उनके शिष्यगण अनुबन्ध के अनुसार उसका मूल्य चुका दें और यथाशीघ्र भूमि पर पहुँच जायँ । *** तमाल कृष्ण प्रभुपाद की जी. बी. सी. का भारत में सचिव था । कुछ भक्त कहा करते थे कि जी. बी. सी. के भारत में सचिव वस्तुतः प्रभुपाद थे । यद्यपि संसार के अन्य भागों में वे सचिवों को संचालन से संबंधित अपना निर्णय करने देते थे, किन्तु भारत में छोटे से छोटे मामलों की भी जाँच-परख वे स्वयं करते थे और तब किसी निर्णय पर पहुँचते थे । तो भी महत्त्वपूर्ण मामलों में वे तमाल कृष्ण पर अपने विश्वसनीय सहायक की तरह भरोसा रखते थे । वे तमाल कृष्ण को भारत के विभिन्न केन्द्रों में सरकारी, कानूनी, व्यवस्थापकीय या प्रचार - सम्बन्धी समस्याओं के समाधान में स्थानीय भक्तों को सहायता देने के लिए भेजा करते थे । बम्बई में, प्रभुपाद के जयपुर जाने के कुछ पहले, तमाल कृष्ण ने संन्यास लेने के लिए उनकी अनुमति की याचना की थी । प्रभुपाद ने केवल कुछ ही को संन्यास आश्रम में दीक्षित किया था और " यात्राएँ तथा प्रचार” उनका कर्त्तव्य निर्धारित किया था । इसलिए संन्यास ग्रहण करने का तात्पर्य केवल पत्नी और परिवार को ही त्याग देना नहीं था, वरन् प्रबन्धकीय पदों से भी हट जाना था । प्रभुपाद ने जब अपनी जी. बी. सी. की स्थापना की थी तो उसी समय उन्होंने अपने कई शिष्यों को संन्यास आश्रम में दीक्षित किया था । यद्यपि वे उनके अत्यन्त विश्वसनीय थे, प्रभुपाद जान बूझकर उन्हें जी. बी. सी. के सचिव पदों पर नियुक्त नहीं करना चाहते थे। गृहस्थों को जी. बी. सी. के अध्यक्षों और सचिवों के रूप में मंदिरों की व्यवस्था संभालनी थी और संन्यासियों को यात्रा करके प्रचार करना था । अतः प्रभुपाद को सावधानीपूर्वक विचार करना था कि क्या तमाल कृष्ण को संन्यास लेने दिया जाय और भारत में जी. बी. सी. के सचिव के रूप में उसकी सेवाओं से वंचित हुआ जाय, अथवा नहीं। सिद्धान्ततः प्रभुपाद को यह विचार पसंद था कि तमाल कृष्ण को संन्यास की दीक्षा दी जाय । यदि कोई युवक अपना पारिवारिक जीवन छोड़ कर कृष्णभावनामृत के प्रचार में अपनी बुद्धि और शक्ति का उपयोग करने को तैयार हो तो प्रभुपाद उसे प्रोत्साहन देने को सदैव तत्पर थे । संसार को कृष्णभावनामृत की नितान्त आवश्यकता थी और हजारों संन्यासी भी इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं थे । इस आधार पर भला वे अपने एक प्रमुख शिष्य की संन्यास धारण करने की प्रार्थना को प्रशंसापूर्वक स्वीकार क्यों नहीं करेंगे ? किन्तु इसके पहले वे तमाल कृष्ण के संकल्प की परीक्षा लेंगे । तमाल कृष्ण अटल था। यह देख कर कि प्रभुपाद कोई वचन नहीं दे रहे हैं, उसने बिना एक शब्द कहे अपने को बड़े सवेरे उनके सामने प्रस्तुत करने की विधि अपनाई । बम्बई में वह प्रभुपाद के कक्ष में प्रविष्ट हुआ, विग्रहों की मंगलआरती कराई और फिर चुपचाप श्रील प्रभुपाद के समक्ष बैठ गया । अपने शिष्य के मन को जान कर प्रभुपाद समझ गए थे कि वह न केवल कृत-संकल्प है, वरन् हठ पर भी उतर आया है। कई दिन तक इस प्रकार तमाल कृष्ण की मौन आग्रहपूर्ण उपस्थिति को सहन करने के पश्चात्, अंत में प्रभुपाद उसकी प्रार्थना पर गंभीरतापूर्वक विचार करने को सहमत हो गए थे। प्रभुपाद को तमाल कृष्ण की पत्नी माद्री - देवी दासी के बारे में भी चिन्ता अपना जीवन कृष्णभावनामृत थी। वह एक सुंदर, बुद्धिमान लड़की थी जिसने को अर्पित कर दिया था और तमाल कृष्ण ने, स्वेच्छा से, अभी एक वर्ष पूर्व उससे विवाह किया था । आध्यात्मिक दृष्टि से माद्री प्रभुपाद की पुत्री थी और वे अनुचित विक्षोभ से उसकी रक्षा करना चाहते थे । गृहस्थ के रूप में भी तमाल कृष्ण और उसकी पत्नी संन्यस्त जीवन बिता रहे थे; वे प्रभुपाद के साथ सारे भारत में यात्रा कर रहे थे और पति-पत्नी के रूप में एकान्त जीवन बिताने के लिए समय अथवा सुविधा उन्हें नहीं के बराबर थी । उस समय तमाल कृष्ण बम्बई में था जब श्यामसुंदर ने उसे बताया कि प्रभुपाद ने अफ्रीका में ब्रह्मानंद स्वामी को लिखे गए एक पत्र में उल्लेख किया था कि तमाल कृष्ण संन्यास ले सकता है। इससे प्रोत्साहित होकर, तमाल कृष्ण ने अपनी पत्नी को बम्बई में छोड़ दिया और स्वयं प्रभुपाद के पास जयपुर आ गया । किन्तु बम्बई छोड़ते समय उसने अपनी पत्नी से श्रीमद्भागवत के उन तीन खण्डों की निजी प्रतियां मांगी थीं, जिन पर प्रभुपाद के हस्ताक्षर थे । माद्री को संदेह हो गया था। उसने पूछा था कि वह उन्हें क्यों चाहता है । तमाल कृष्ण ने उत्तर दिया था, “मैं उन्हें पढ़ना चाहता हूँ।” लेकिन माद्री को निम्न दर्जे का संदेह हो गया था। उसने कहा था, "नहीं, तुम वापस नहीं आ रहे हो ।” किन्तु उसे विश्वास दिलाते हुए कि वह निश्चयपूर्वक वापस आएगा वह जयपुर के लिए चल पड़ा था। श्रील प्रभुपाद के पास पहुँच कर तमाल कृष्ण ने फिर उसी मौन आग्रह का रास्ता अपनाया। जब कभी प्रभुपाद के कक्ष में कोई खुलेआम बैठक होती तो जी. बी. सी. के अधिकारी साधारणतया प्रभुपाद के निकट विशेष आसनों पर बैठते ताकि वे उनके निर्देशों को सीधे प्राप्त कर सकें। किन्तु तमाल कृष्ण केवल दरवाजे के बाहर बैठता। जब पहली बार उसने ऐसा किया तो प्रभुपाद ने उसे देखा और कहा, 'तमाल कृष्ण तुम बाहर बैठे हो। यह बहुत अच्छा है। अन्य भक्तों ने समझा कि प्रभुपाद अपने भक्त की विनम्रता की प्रशंसा कर रहे हैं। जब एक अवसर पर प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण को 'तमाल कृष्ण महाराज" कह कर सम्बोधित किया तो दूसरे शिष्य चकित रह गए। जयपुर में उस समय उपस्थित प्रभुपाद की शिष्याएँ, जो माद्री की बाहरी मित्र थीं, इस पर क्रुद्ध हो उठीं क्योंकि इसे उन्होंने तमाल कृष्ण का कपटाचार माना । यद्यपि प्रभुपाद ने अनुमति नहीं दी थी, लेकिन तमाल कृष्ण अपनी योजनाएँ आगे बढ़ाता रहा, यहाँ तक कि उसने अपना संन्यास-दण्ड तैयार कर लिया और अपने कपड़े रंग डाले। महिलाएँ उग्र हो उठीं। माद्री अपना पक्ष प्रस्तुत करने को वहाँ उपस्थित भी नहीं थी। सभी महिलाएँ मिल कर प्रभुपाद के पास गईं। उन्होंने धैर्य और सहानुभूति के साथ उनका पक्ष सुना । तब प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण को बुलाया और कहा, “तुम्हारी पत्नी मेरी लड़की है, मेरी शिष्या मुझे उसके बारे में भी सोचना है। इसलिए मैं नहीं जानता कि मैं यह कैसे करूँ, क्योंकि फिर वह बड़ी कठिनाई में होगी।" तमाल कृष्ण ने तर्क करना चाहा, किन्तु प्रभुपाद ने उसे शान्त किया और धैर्य रखने को कहा । उसके संन्यास लेने का प्रश्न जयपुर में भक्तों के बीच विवाद का विषय बन गया था। पुरुष संन्यास का समर्थन कर रहे थे, महिलाएँ अपना विरोध कर रही थीं। प्रभुपाद गंभीर बने रहे। सप्ताह भर चलने वाले पण्डाल - उत्सव में प्रभुपाद का व्याख्यान सुनने के लिए सुबह और शाम भारी संख्या में लोग आते रहे। प्रभुपाद ब्रह्म-संहिता से प्रार्थनाएँ सुनाते और फिर हिन्दी में व्याख्यान देते । जयपुर के नागरिकों ने न केवल प्रभुपाद को सम्मान दिया, वरन् वे उनके भक्तों का भी आदर करते थे। बहुत से अन्य भारतीय नगरों की तुलना में जयपुर ही ऐसा नगर था जहाँ भक्तों के साथ, विदेशी और बाहरी लोगों के रूप में नहीं, वरन् साधुओं के रूप में, व्यवहार किया गया। प्रभुपाद ने टिप्पणी की, "यह सम्पूर्ण नगर राधा-गोविन्दजी के भक्तों का नगर है ।" पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी जो वहाँ अक्सर आता था, अपने व्यवहार में सौहार्दपूर्ण और विनम्र था। जब प्रभुपाद और उनके शिष्य नगर में दिन में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते तो पुलिस के जवान उन्हें सलाम करते और उन्हें आगे निकलने के लिए यातायात रोक देते। लोग श्रील प्रभुपाद को अपने घर पर आमंत्रित करते और उनके साथ राजा जैसा व्यवहार करते । प्रभुपाद ने अपनी कई शिष्याओं से भी कह रखा था कि वे जयपुर में विग्रहों की पूजा का अवलोकन ध्यानपूर्वक करें । शिष्याओं ने उन्हें सूचित किया कि उन्होंने देखा है कि रात में विग्रहों को रात्रि - वेषभूषा में सजा दिया जाता है और उनके परिधान दिन-भर दो बार - सवेरे और अपराह्न में— बदले जाते हैं। शिष्याओं ने प्रभुपाद को बताया कि पुजारी किस प्रकार इत्र के फाहे विग्रहों को अर्पित करते हैं और बाद में वे फाहे और विग्रहों से उतारी गई मालाएँ आने वाले उपासकों को देते हैं और उनके बदले उनसे ताजे फूलों की मालाएँ प्राप्त करते हैं। प्रभुपाद ने कहा पूजा के ये विधान प्रामाणिक हैं और इनका प्रवेश इस्कान में भी सर्वत्र कराया जा सकता है। हर शाम को प्रभुपाद पण्डाल में बोलते थे और प्राय: जयपुर का कोई सम्मानित नागरिक उनका परिचय देता था। जब एक शाम को जयपुर की महारानी ने उनका परिचय कराया तो उन्होंने प्रभुपाद और उनके आन्दोलन के प्रति अपनी भक्ति-भावना को अभिव्यक्त किया । शाम को अपने व्याख्यान के बाद प्रभुपाद, संसार के कोने-कोने में चलने वाले इस्कान के कार्यकलापों के चलचित्र - प्रदर्शन के लिए, रुक जाया करते थे । एक रात ऐसे ही प्रदर्शन के समय श्रील प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण को अपने व्यास आसन की बगल में बुलाया। उन्होंने कोमल शब्दों में कहा, " तुम्हारा अब संन्यास लेना मुश्किल है। तुम्हारी पत्नी को अत्यधिक कष्ट होगा, ” यह कह कर वे एक क्षण के लिए पीछे होकर बैठ गए; जबकि तमाल कृष्ण उनके कहे का मर्म समझने में लगा रहा। तब वह आगे की ओर झुका और दृढ़ संकल्प के साथ बोला, “श्रील प्रभुपाद, उसे कभी न कभी तो कष्ट होना ही है। या तो मेरे संन्यास लेने पर उसे अभी कष्ट होना है या जब मैं बाद में संन्यास लूँगा, तब होना है। ऐसा कोई समय तो आएगा नहीं, जब वह मुझे संन्यास लेने को कहे। यदि उसे कष्ट होना ही है तो वह अभी हो ले। आप मुझे स्वतंत्रता दें। वह कष्ट सह लेगी । " प्रभुपाद ने कुछ और नहीं कहा, किन्तु वे सोचते रहे। बाद में, उस शाम के पण्डाल कार्यक्रम के बाद, उन्होंने संन्यासी शिष्यों— सुबल, मधुद्विष, गर्गमुनि और देवानंद तथा अपने निजी सचिव श्यामसुंदर को बुलाया । उन्हें और तमाल कृष्ण को इकट्ठा करके उन्होंने कहा, “तमाल कृष्ण संन्यास लेना चाहता है । तो तुम लोगों की क्या राय है ? क्या उसे संन्यास लेना चाहिए या नहीं ? " हर एक सहमत हुआ कि उसे लेना चाहिए। अंत में प्रभुपाद राजी हो गए । उन्होंने कहा, “तुम्हें सब चीजें तैयार करनी होंगी । " तमाल कृष्ण बोला, “सब चीजें तैयार हो चुकी हैं।" प्रभुपाद ने कहा, “तब कल सवेरे यह संस्कार हो जाना चाहिए ।" दूसरे दिन सवेरे प्रभुपाद ने पण्डाल में एक विशेष समारोह किया। उन्होंने यज्ञ की अग्नि प्रज्ज्वलित की और तमाल कृष्ण को संन्यास दण्ड प्रदान किया । महिलाएं बहुत क्रुद्ध थीं, किन्तु अब बहुत देर हो चुकी थी । समारोह के बाद प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण महाराज को अपने कक्ष में बुलाया । उन्होंने कहा, “आपने एक बहुत अच्छी पत्नी का और ऊँचे पद का त्याग किया है। इसलिए मैं आपको गोस्वामी की उपाधि प्रदान करता हूँ। अब आप को गोस्वामी की सी वृत्ति बनाए रखना है, जिससे आप संसार भर में धर्मोपदेश कर सकें और शिष्य स्वीकार कर सकें।” अचानक प्रभुपाद हँसने लगे। वे बोले, "मैं आप की परीक्षा ले रहा था कि आप दृढ़ संकल्प हैं या नहीं। तो आगे आप क्या करेंगे ?” तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, “मैं सोचता हूँ, मैं, अन्य किसी को साथ लिए बिना, अपने दण्ड के साथ भारत के नगर नगर में घूम कर कृष्ण के बारे में प्रचार करूंगा, बिना किसी सवारी के, या बिना किसी अन्य चीज के, जैसे महाप्रभु चैतन्य ने किया था । " प्रभुपाद बोले, "बहुत अच्छा ।" तमाल कृष्ण महाराज ने प्रभुपाद को प्रणति निवेदन की और बाहर चले गए। मुश्किल से एक घंटा बीता होगा कि प्रभुपाद ने उन्हें पुनः बुलाया; उन्होंने कहा, "यह कोई बहुत अच्छा प्रस्ताव नहीं है। यदि आप कुछ करना चाहते हैं तो आप को कुछ सहायक और कुछ सुविधाएँ प्राप्त होना जरूरी है।” तब प्रभुपाद ने दो ब्रह्मचारियों को नियुक्त किया और उन्हें तमाल कृष्ण महाराज के साथ प्रचार करने के लिए जाने को कहा। उन्होंने अपने नए संन्यासी को अपना पहला कार्य भी सौंपा। जयपुर के तुरन्त बाद प्रभुपाद नैरोबी, अफ्रीका, के एक उत्सव में जाने की योजना बना रहे थे। तभी एक कार्यक्रम उनकी प्रतीक्षा अहमदाबाद में कर रहा था। उन्होंने कहा, "मेरी ओर से आप अहमदाबाद जाइए । तमाल कृष्ण गोस्वामी को संन्यास की दीक्षा देते समय श्रील प्रभुपाद ने उन्हें संन्यास - मंत्र दिया था— एक ऐसा श्लोक जिसमें वैष्णव संन्यासी की अपनी समर्पित भक्तिमय मनोवृत्ति का वर्णन है। वैष्णव संन्यासी पूरे ध्यान को तन, मन और वाणी से कृष्ण की परम भक्ति भावना में तल्लीन होने पर बल देता है, वह उस निर्वैयक्तितावादी संन्यासी से भिन्न है जो ब्रह्म की मीमांसा करता है या एकान्त में बैठ कर मौन ध्यान करता है। वैष्णव संन्यासी, कृष्ण के चरणकमलों में शरण लेकर, अविद्या के सागर को पार करता है और दूसरों को भी अपने साथ पार कराता है। जैसा कि प्रभुपाद प्रदर्शित कर रहे थे, वैष्णव संन्यासी को समस्त संसार में भ्रमण करके, अपनी पूरी शक्ति के साथ, कृष्ण की ओर से, पतित आत्माओं का उद्धार करना चाहिए। वैष्णव संन्यासी का तात्पर्य था जयपुर जैसे स्थानों में जाना और धर्मोपदेश करना। इसका आशय था मंदिर में गोविन्दजी की उपासना करना, और राधा-गोविन्द को न्यू यार्क नगर भेजना, जहाँ भक्तजन उनकी पूजा-अर्चना कर सकें। इसका आशय था स्त्रियों को कृष्णभावनामृत में निष्ठापूर्ण भक्ति का बराबर अवसर दिलाना । और इसका आशय था संन्यास के उच्चतर उद्देश्यों के लिए व्यक्ति को उसकी पत्नी से अलग करना । यद्यपि श्रील प्रभुपाद वर्णाश्रम की संन्यास - उपाधि से ऊपर थे तब भी वे सर्वोत्कृष्ट संन्यासी थे और अनेक अन्य संन्यासियों के सृष्टा थे जिन्हें उन्होंने अपने चरण - चिह्नों पर चलने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि उनके संन्यासियों को, जो कुछ उन्होंने किया है, उससे अधिक करना चहिए— अधिक अनुयायी बनाने चाहिए, अधिक पुस्तकें प्रकाशित करनी चाहिए, और अधिक इस्कान केन्द्रों की स्थापना करनी चाहिए । *** बम्बई जनवरी २४, १९७२ बम्बई लौटने पर प्रभुपाद को यह जान कर निराशा हुई कि भक्तों ने न तो श्रीमान् एन. को भुगतान किया था और न ही वे जुहू के भूमिखण्ड में गए थे। मधुद्विष स्वामी ने, जिसे प्रभुपाद ने यह काम सौंपा था, ऐसी कठिन योजना का दायित्व लेने में स्पष्ट रूप से अपनी असमर्थता स्वीकार की। जिस शिष्य को प्रभुपाद ने पहले-पहल इस मामले को सुलझाने के लिए भेजा था, वे थे तमाल कृष्ण महाराज। किन्तु चूँकि अब उन्होंने संन्यास ले लिया था, इसलिए उन्होंने अपने जी. बी. सी. कर्त्तव्यों का त्याग कर दिया था और यात्रा और प्रचार में लग गए थे। इस तरह बम्बई में कोई प्रबंधक नहीं रह गया था। प्रभुपाद यों भी व्यवस्था का अधिकांश कार्य देख रहे थे— किन्तु वे हर काम तो नहीं कर सकते थे और बम्बई में लगातार नहीं रह सकते थे । जुहू का प्रबन्ध देखने के लिए एक अनुभवी शिष्य के विषय में सोचते हुए प्रभुपाद को ब्रह्मानंद स्वामी का ध्यान आया जो अभी भी नैरोबी में प्रचार और धर्मोपदेश कर रहे थे । प्रभुपाद ने वायुयान से अफ्रीका जाने और ब्रह्मानंद स्वामी को बम्बई आकर वहाँ के मामले देखने हेतु आमंत्रण देने का निर्णय किया। वे इसमें शीघ्रता करना चाहते थे ताकि इस्कान भूमि पर कब्जा ले सके। यदि श्रीमान् एन. का मन बाद में बदल भी जाता है तो, एक बार भक्तों का भूमि पर रहना शुरू हो जाने पर, उन्हें वहाँ से निकाल देना उनके लिए बहुत कठिन होगा । प्रभुपाद ने तुरन्त हवाई जहाज द्वारा नैरोबी पहुँचने की योजना बनाई और वे अपने साथ राधाकृष्ण के विशाल विग्रहों को भी ले जाना चाहते थे। जो विग्रह उन्होंने पहले नैरोबी भेजे थे वे जहाज में टूट गए थे, इसलिए इस बार प्रभुपाद अपने साथ हट्टे-कट्टे शरीर वाले मधुद्विष स्वामी को ले गए जो छत्तीस इंच वाले संगमरमर के विग्रहों को उठा सकें। विमान सेवा के अधिकारियों की विशेष अनुमति से प्रभुपाद वायुयान में चढ़े, उनके पीछे मधुद्विष स्वामी थे जो अपनी बाहों में सौ पाउंड का कृष्ण का विग्रह लिए थे। कृष्ण को वायुयान में प्रभुपाद की सीट की बगल में रख कर मधुद्विष नीचे उतरे और इस बार राधाराणी को ले कर लौट आए। उड़ान का अधिकांश समय प्रभुपाद ने मधुद्विष स्वामी से विवाद करते बिताया, जिन्होंने निर्वैयक्तिकतावादी का स्थान ले रखा था। प्रभुपाद उन्हें हमेशा मात देते गए। उन्होंने कहा, “ प्रचारक इसी तरह बना जाता है। आप को तर्क के दोनों पहलुओं को समझना होगा और तभी आप अपने प्रतिद्वन्द्वी को हरा सकते हैं। महाप्रभु चैतन्य यही करते थे । " चार मास पूर्व प्रभुपाद की नैरोबी की पहली यात्रा के बाद, ब्रह्मानंद स्वामी और कुछ अमरीकी शिष्यों ने नगर के निकट एक मकान किराए पर ले रखा था । उन्होंने कुछ अफ्रीकी शिष्य बनाए थे लेकिन अभी तक वे मंदिर और आश्रम स्थापित नहीं कर पाए थे। वे केवल अपना सीधा-सादा कार्यक्रम किसी तरह चला रहे थे, इसलिए प्रभुपाद के समुचित स्वागत के लिए वे तैयार नहीं थे । नैरोबी में प्रभुपाद के अधिवास की तरह उनका वहाँ पहुँचना भी निराला था। उनके स्वागत के लिए हवाई अड्डे पर कोई मौजूद नहीं था । भक्तों को यह भी निश्चित पता नहीं था कि प्रभुपाद आ रहे हैं। प्रभुपाद के सचिव ने ब्रह्मानंद स्वामी को फोन किया था कि प्रभुपाद केनिया जाना चाहते हैं और ब्रह्मानंद स्वामी को राष्ट्रपति से उनकी भेंट कराने और पण्डाल उत्सव का कार्यक्रम तय करने का प्रयत्न करना चाहिए । किन्तु ब्रह्मानंद स्वामी को यह स्पष्ट संदेश नहीं प्राप्त हुआ था कि प्रभुपाद नैरोबी कब आ रहे हैं। हवाई अड्डे पर प्रभुपाद और मधुद्विष स्वामी ने राधाकृष्ण विग्रहों को सावधानीपूर्वक एक टैक्सी में रखा और उनके साथ वे इस्कान केन्द्र के पते पर जा पहुँचे । प्रभुपाद ने घंटी बजाई और जब ब्रह्मानंद स्वामी ने दरवाजा खोला और अपने आध्यात्मिक गुरु को देखा तो वे चिल्ला उठे, “प्रभुपाद !" और नतमस्तक हो गए। राधा और कृष्ण की बगल में खड़े हुए प्रभुपाद ने पूछा, "क्या हो गया था ? हम लोगों को लेने के लिए हवाई अड्डे पर कोई क्यों नहीं आया ?" ब्रह्मानंद स्वामी उत्तर देने में असमर्थ थे । प्रभुपाद के पहुँचते ही उनके सहायक मधुद्विष स्वामी यकृत रोग से बिस्तर पर पड़ गए। प्रभुपाद ने अपने नियमित सचिव, श्यामसुंदर, को भारत में मायापुर की भूमि के एक कानूनी मामले को देखने के लिए वहीं छोड़ दिया था, इसलिए अब वे बिना व्यक्तिगत सहायक के हो गए थे । नैरोबी में प्रभुपाद ने अपराह्न में स्नान करने का अपना नियम बनाए रखा था। उसके बाद वे धुले कपड़े पहनते थे । किन्तु एक दिन स्नान करने के बाद उन्हें पता चला कि कपड़े तैयार नहीं हैं। जब उन्होंने उनके बारे में पूछा तो ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा कि अफ्रीकी नौकर ने कपड़े धोकर सूखने के लिए रस्सी पर डाल दिए थे। लेकिन जब ब्रह्मानंद स्वामी उन्हें लेने गए तो कपड़े वहाँ नहीं थे। लगता था कि किसी ने रस्सी से कपड़े चुरा लिए थे। प्रभुपाद ने बिना कोई भाव जताए इस असुविधा को झेल लिया । उस शाम को जब भक्तगण प्रभुपाद का भगवद्गीता पर व्याख्यान सुनने के लिए नैरोबी के इस्कान केन्द्र में इकट्ठे हुए तो प्रभुपाद ने देखा कि उनके चुराये गए कपड़े अफ्रीकी लड़के पहने हुए थे। एक लड़के ने कुर्ता पहना था, एक ने शिरोवस्त्र धारण कर रखा था जबकि तीसरे ने प्रभुपाद की धोती पहन रखी थी । प्रभुपाद ने ब्रह्मानंद स्वामी का ध्यान उधर दिलाया। वे लड़कों को तुरन्त बाहर ले गए और सभी कपड़े उनसे उतरवा लिए। जब ब्रह्मानंद स्वामी ने कपड़े प्रभुपाद को दिए तो उन्होंने इसे एक गंभीर अपराध के रूप में नहीं लिया वरन् वे केवल हँस दिए । किन्तु प्रभुपाद नैरोबी के भक्तों के खराब भोजन बनाने पर नहीं हँसे । जब उन्होंने उनके सामने सफेद मक्के का दलिया परोस दिया तो प्रभुपाद ने उसे सूअर का खाना बताया और सख्त, सफेद चनों को घोड़ों के लिए उपयुक्त कहा। तब अमेरिका से आया एक काला भक्त, हरिकृपा, रसोई घर में गया । उसने कुछ सब्जियाँ उबाली और उनमें, कोई मसाला मिलाए बिना ही, प्रभुपाद को परोस दिया । प्रभुपाद ने उसे कुत्ते का खाना कहा। उन्होंने हरिकृपा से कहा, "तुम अभी भी एक अशिक्षित अफ्रीकी हो ।" और वे अपना भोजन बनाने लिए स्वयं रसोई-घर में गए। लगभग एक दर्जन भक्त प्रभुपाद के साथ जुट गए और उन्हें देखते रहे जब वे दाल, चावल, सब्जी और चपातियों का पूरा भोजन बनाने में लगे थे। उन्होंने पर्याप्त भोजन बनाया जिससे हर भक्त खा सके; खा कर सभी संतुष्ट हुए । किन्तु खराब भोजन और कपड़ों की चोरी — ये दोनों सप्ताह भर के प्रभुपाद के नैरोबी अधिवास की समस्याएँ बनी रहीं । ब्रह्मानंद स्वामी ने देखा कि प्रभुपाद अधिकांशतः बम्बई - परियोजना के विचार में डूबे रहते थे। उन्होंने ब्रह्मानंद स्वामी से कहा, "मेरे आने का एकमात्र कारण आपको उस परियोजना के लिए प्राप्त करना है ।" एक बार उन्होंने ब्रह्मानंद स्वामी से पूछा, “भारत में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण नगर कौन सा है ?" ब्रह्मानंद ने उत्तर दिया, “कलकत्ता । " 'कलकत्ता ?” प्रभुपाद ने रुखाई से उन्हें देखते हुए कहा । " क्या आपको मालूम नहीं कि बम्बई का स्थान पहला है, दिल्ली का दूसरा और कलकत्ता का स्थान तीसरा है ?" प्रभुपाद ने ब्रह्मानंद स्वामी को प्रोत्साहित किया कि वे उनके साथ वापस चलें और बम्बई परियोजना का भार संभालें । उन्होंने कहा कि इस्कान में यह बम्बई परियोजना बेजोड़ होगी। उसके अन्तर्गत एक शानदार मंदिर में धर्म और संस्कृति का सम्मिलन होगा, एक अन्तर्राष्ट्रीय होटल होगा, थिएटर होगा और छोटा नुमायश - घर होगा। प्रभुपाद की बलवती इच्छा देख कर ब्रह्मानंद महाराज सहमत हो गए कि वे किसी तरह नैरोबी का कार्य - भार औरों को सौंपेंगे और बम्बई - परियोजना में स्वामीजी की मदद करेंगे । एक अन्य रूप में भी प्रभुपाद की नैरोबी यात्रा उनकी बम्बई - योजना से सम्बन्धित हो गई। जब ब्रह्मानंद स्वामी और च्यवन ने प्रभुपाद को नैरोबी हिल्टन दिखाया जो दो गुम्बदों वाला एक आधुनिक भवन था तो प्रभुपाद को उसकी डिजाइन बहुत पसंद आई और उन्होंने उसे बम्बई होटल और मंदिर के लिए अपने वास्तुशिल्पी को देना चाहा । प्रभुपाद, ब्रह्मानंद स्वामी, भागवत और एक अफ्रीकी भक्त नैरोबी के सार्वजनिक पार्क में टहल रहे थे। प्रभुपाद से परिचित कराए जाने पर अफ्रीकी ने पूछा था, "अगर मैं चाहूँ तो क्या मैं विवाह कर सकता हूँ ?" प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, हाँ ।' लड़के ने कहना जारी रखा, “किन्तु प्रभुपाद, यदि कोई मेरे सम्प्रदाय में विवाह करना चाहे तो उसे लड़की के पिता को धन देना पड़ता है।" प्रभुपाद ने उत्तर दिया – यह वैदिक रीति के बिल्कुल विपरीत है कि इसमें लड़की का पिता अपने दामाद को दहेज देता है। यह सुन कर प्रभुपाद का नया शिष्य परेशान दिखाई देने लगा। उसने पूछा, “ तो, क्या आप मुझे धन देंगे, जब मुझे पत्नी चाहिए होगी ? क्योंकि इस समय मैं कोई धंधा नहीं कर रहा हूँ, मैं केवल आप की सेवा में हूँ। जब मैं पत्नी चाहूँगा तो क्या आप मुझे धन देंगे ?" प्रभुपाद ने सिर हिलाया। वे बोले, "तुम इन सब बातों की चिन्ता मत करो कि तुम्हें पत्नी मिलेगी या तुम्हें धन मिलेगा, यह मिलेगा या वह मिलेगा । बाद में जब तुम्हारी शादी का समय आएगा तो मैं एक अमरीकी लड़की ला दूँगा और तुम उससे ब्याह कर लेना ।' नैरोबी के अपने छोटे नए मंदिर में प्रभुपाद जिस ओर देखते वहीं उन्हें नई तरह के शिष्य और कमियां दिखाई देतीं । ब्रह्मचारी आश्रम में प्रवेश करते ही उन्हें कमरे में चारों ओर बिखरी पुस्तकें, तख्तियाँ, रंग के डिब्बे दिखाई दिए । जब उन्होंने कहा, कि चीजें सफाई और व्यवस्थित ढंग से रखी जानी चाहिए तो मंदिर के व्यवस्थापक हरिकृपा ने उत्तर दिया, "प्रभुपाद, मैं इन्हें बताने की कोशिश करता हूँ, किन्तु ये लड़के मेरी बात नहीं सुनते।' प्रभुपाद ने झुक कर लकड़ी के कुछ टुकड़े उठा लिए और बोले, "यदि ये लड़के नहीं करते तो आपको करना चाहिए। इन टुकड़ों को वहाँ रखिए । ' और प्रभुपाद ने वहाँ उपस्थित सभी पुरुषों को काम पर लगा दिया। पाँच मिनट में कमरा साफ हो गया । नैरोबी के सिटी स्टेडियम में सम्पन्न 'वर्ल्ड हरे कृष्ण मूवमेंट फेस्टिवल' (विश्व हरे कृष्ण आन्दोलन उत्सव) सफल भी था और असफल भी । यद्यपि ब्रह्मानन्द स्वामी ने अनेक उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारियों और राजनयिकों को आमंत्रित किया था और उनमें से बहुतों ने सम्मिलित होने का वचन भी दिया था, किन्तु केनिया के शिक्षा निदेशक, मि. वाई. कोमोर, के अतिरिक्त कोई नहीं आया । किन्तु कई हजार की श्रोता - मण्डली कीर्तन में उपस्थित रही। उसने प्रभुपाद के व्याख्यान सुने और प्रसाद ग्रहण किया । यद्यपि भक्तों ने केनिया के प्रमुख नागरिकों को कृष्ण की महिमा को बढ़ाने के लिए आमंत्रित किया था, किन्तु उत्सव के सम्मानित अतिथि, मि. कोमोर, ने इस अवसर का उपयोग केनिया की प्रशंसा करने में किया । तो भी उन्होंने प्रभुपाद और कृष्णभावनामृत आंदोलन की भरपूर प्रशंसा की। भगवद्गीता के सम्बन्ध में उन्होंने कहा, “आप के विद्वान् संस्थापक ने इस महान् ग्रंथ को अपनी विद्वत्तापूर्ण टीका से साथ अंग्रेजी परंपरा में उपलब्ध करा दिया है। ' श्रील प्रभुपाद ने नैरोबी तथा उसके आसपास के स्थानों में अन्य कार्यक्रमों में भी भाग लिया। उन्होंने अपने नैरोबी के शिष्यों को बताया कि अफ्रीकियों में प्रचार करते समय उन्हें सार्वजनिक कीर्तन करके हरे कृष्ण मंत्र गाने पर जोर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि भगवान् चैतन्य दर्शन पर वार्ता, केवल सनातन और रूप गोस्वामी जैसे विद्वान् लोगों के साथ करते थे, सामान्य जनों के साथ कभी नहीं। उन्होंने कहा, "केवल हरे कृष्ण का गान करो। यह लोगों को भाएगा । " श्रील प्रभुपाद ने राधाकृष्ण विग्रहों की स्थापना की और नैरोबी के मंदिर का नाम रखा- -“किरात - शुद्धि " - जिसका तात्पर्य था आदिवासियों को शुद्ध करने का स्थान । एक दिन स्वामीजी 'विग्रह - स्थापना' के कुछ समय बाद मंदिर के कक्ष में गए तो उन्हें यह देख कर धक्का लगा कि विग्रह आसन के मध्य में अपने स्थान पर नहीं हैं। कृष्ण आसन को जाने वाली सीढ़ी के सब से निचले कदम के पास एकदम बायीं ओर खड़े थे और राधाराणी एकदम दाईं ओर थीं । प्रभुपाद ने ऊँची आवाज में पूछा, “यह किसने किया है। ? भागवत भागता हुआ मंदिर के कक्ष में आया । वह भी चकित था । प्रभुपाद ने पूछा, "राधा और कृष्ण को दस मील की दूरी पर किसने रख दिया है ? क्या तुम इन बातों को नहीं जानते ? मुझे तुम लोगों को कितनी बार बताना पड़ेगा ? ” एकाएक भूतभावन वहाँ आ गया और उसने स्वीकार किया कि अपराधी वह था। प्रभुपाद ने पूछा, “ये विग्रह इतने दूर- दूर क्यों हैं ?" भूतभावन बोला, “प्रभुपाद, मैं नहीं जानता। लगता है कि मैं भूल गया । मुझे उत्सव में जाने की बड़ी जल्दी थी । " प्रभुपाद ने कहा, "तो क्या इसका मतलब यह है कि इन्हें सड़क में रख देना चाहिए ।" भूतभावन सहम गया; उससे उत्तर नहीं बन पड़ा। प्रभुपाद शान्त हुए। उन्होंने कहा, “इन्हें उठाओ और ठीक से इकट्ठे स्थापित करो। उनके बीच तीन इंच से अधिक की दूरी नहीं होनी चाहिए। अब यह बढ़िया ढंग से करो। " एक सप्ताह बाद प्रभुपाद ने नैरोबी से विदा ली और वे बम्बई लौटे। वे वहाँ ब्रह्मानंद स्वामी को अपने साथ लाने के लिए गए थे। और उनका कार्य पूरा हो गया था। प्रभुपाद ने कहा, "जब तक आप यहाँ का कार्य - भार लेने को तैयार न होते तब तक मैं आगे न बढ़ता और भुगतान न करता । अब यह निश्चित हो गया है ।" प्रभुपाद को अब नई आशा दिखाई देने लगी थी । प्रभुपाद ने कल्पना की कि उनकी बम्बई परियोजना इस्कान के अन्तर्गत असाधारण होगी और भारत के सभी मन्दिरों के मध्य भी । परियोजना के अनेक विस्तार उनके दिमाग में आ चुके थे, किन्तु उनको कार्यान्वित करने के लिए योग्य शिष्यों की आवश्यकता थी। वे अब भी इस्कान के एकाकी नेता थे और कृष्णभावनामृत के नए आयामों को वास्तविकता में बदलने के लिए बराबर आगे बढ़ रहे थे। उनके शिष्य उनके साथ थे, किन्तु नेतृत्व प्रदान करने का काम तो उन्हीं के मत्थे था । इस्कान की विभिन्न परियोजनाओं तक के लिए भी जब अपने शिष्यों में से वे नेता खोजते थे तो कभी-कभी उनके शिष्य जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते थे । इसलिए श्रील प्रभुपाद को उस बंगाली कहावत में वर्णित मनोवृत्ति के साथ नैरोबी जाना पड़ा था जिसे वे अक्सर सुनाया करते थे कि “यदि तुम कोई कार्य पूरा करना चाहते हो तो उसे अपने हाथ से करो ।" इसलिए वे अपने हाथ से ब्रह्मानंद स्वामी को नैरोबी से बम्बई ले आए थे। उसके साथ ही उन्होंने नैरोबी के शिष्यों और वहाँ के जन साधारण को भी लाभान्वित किया था । *** बम्बई फरवरी ८, १९७२ प्रभुपाद ने श्रीमान् एन. से भेंट की और पुनः कहा कि पचास हजार रुपए की दूसरी किश्त का भुगतान होते ही वे भू-खण्ड में चले जाना चाहते थे। श्रीमान् एन. समझौते पर अटल थे और प्रभुपाद ने मामला कानूनी कार्यवाही के लिए अपने वकील, श्री. डी., को सौंप दिया। यद्यपि प्रभुपाद प्रबन्धक के सारे निर्णय स्वयं ले रहे थे, किन्तु वे चाहते थे कि इन व्यावहारिक मामलों में उनके जी. बी. सी. सचिव भी जिम्मेदारी लें। वे अपनी शक्ति को लिखने और अनुवाद करने के काम में लगाना श्रेयस्कर समझते थे। उन्होंने अपने सचिव श्यामसुंदर से कहा, “यदि तुम जी. बी. सी. के लोग हर काम ढंग से करने लगो तो मेरे दिमाग पर जोर न पड़े और मैं अपना समय आगे की पुस्तकें लिखने में लगाऊँ। मैं तुम लोगों को वेद, उपनिषद्, पुराण, महाभारत, रामायण – ये सारे ग्रंथ दे सकता हूँ। हमारे सम्प्रदाय में गोस्वामियों द्वारा लिखे अनेकानेक भक्ति-ग्रंथ हैं। इन प्रशासनिक कार्यों में मेरा बहुत समय लग रहा है। यह समय मैं दर्शन की बातें करने में लगाता। इन कार्यों से मेरे दिमाग पर रात-दिन बोझ रहता है। इनके कारण मेरे असली कार्य की उपेक्षा हो रही है । " भारतीय परियोजनाओं को स्वयं देखने के अतिरिक्त प्रभुपाद को विश्व के कोने-कोने से आए भक्तों के एक दर्जन के लगभग पत्रों के उत्तर देने होते थे। उन्होंने अपने सचिव से पूछा, “ये लोग क्यों लिखते रहते हैं और इतने प्रश्न पूछते रहते हैं ?" श्यामसुंदर ने कहा, “भक्त लोग आपसे व्यक्तिगत रूप से इसलिए पूछते हैं कि जी. बी. सी. के लोग हमेशा सही उत्तर नहीं जानते । " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, " वे अब तक सभी कुछ जान चुके हैं। मैने तुम लोगों को सब कुछ बता दिया है। यदि वे लोग उत्तर नहीं जानते तो उन्हें मेरी पुस्तकों में पा सकते है । अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। अब मुझे दर्शन में लगने दो। सारा दिन पत्रों को पढ़ना, धंधों में लगे रहना, सारी रात पत्रों पर हस्ताक्षर करते रहना - यह सब ठीक नहीं है। अब जी. बी. सी. के लोग हर काम कर सकते हैं । ' किन्तु यह संभव नहीं था। प्रभुपाद को ज्योंही लगता कि उनका कोई शिष्य ठगा जा रहा है तो वे तुरन्त हस्तक्षेप करते । और उनके शिष्य महत्त्वपूर्ण कार्यों और प्रबन्ध सम्बन्धी निर्णयों के लिए उनको लगातार लिखते रहते। प्रभुपाद उन्हें निरुत्साहित करना नहीं चाहते थे । अवकाश ग्रहण करने और एकमात्र साहित्यिक कार्य करने की उनकी इच्छा निरन्तर बनी रही, किन्तु वह केवल इच्छामात्र प्रतीत होती थी, एक स्वप्न । यदि इस्कान को विकास करना था तो उनके अवकाश ग्रहण करने की संभावना अत्यल्प थी । श्रीमान् एन. से मिलने के बाद प्रभुपाद मद्रास में पाँच दिवसीय पण्डाल - कार्यक्रम के लिए दक्षिण भारत जाने की तैयारी में लग गए। उनकी यात्रा के कार्यक्रम में कलकत्ता, मायापुर और वृंदावन भी थे । बम्बई से प्रस्थान करने की तैयारी में लगे प्रभुपाद के मन में प्रसन्नता थी कि इस्कान को जुहू में नई जायदाद शीघ्र ही प्राप्त हो जायगी और वे प्रायः अपनी योजनाओं के बारे में बात करते थे । इस्कान एक विस्मयकारी मंदिर बनाएगा और कृष्ण भक्तों के एक सहकारी गृह-निमार्ण संघ की स्थापना करेगा जो इस्कान का प्रथम नगर होगा । इस्कान के इस ऊंचे सहराज्य में समाहत लोग अपने आवास खरीदेंगे। भक्तों को ऐसे परिसर का विकास और संचालन करने के लिए विशेषज्ञ बनना पड़ेगा और यहाँ सफल होने के बाद यही नमूना वे अन्य नगरों में भी लागू करेंगे। व्यवसायी और पेशावर श्रमिक इस सहकारी संघ के अन्तर्गत अपने परिवारों के साथ भक्तों के रूप में रहेंगे और अपने बच्चों को इस्कान स्कूल में भेजेंगे । प्रभुपाद बार-बार 'हाली डे इन' की तरह का एक होटल बनाने की बात करते जो विदेशियों और पर्यटक व्यवसायियों के लिये उपयुक्त होगा और फिर भी जिसकी एक मंजिल इस्कान के आजीवन सदस्यों के लिए आरक्षित रहेगी जहाँ वे निःशुल्क आवास सुविधा प्राप्त कर सकेंगे। आहार- गृह की व्यवस्था विशेषज्ञ ब्राह्मण रसोइयों के हाथ में होगी जो दर्जनों प्रकार के स्वादिष्ट प्रसादम् तैयार करेंगे। राधा - रासबिहारी को दिन में बावन नैवेद्य चढ़ेंगे और प्रसादम् का वितरण आवासियों और अभ्यागतों में होगा । कार्य का प्रवर्तन ठीक दिशा में हो, इसके लिए स्वामीजी ने भक्तों को आदेश दिया कि वे नए भू-खण्ड में दस दिवसीय सार्वजनिक उत्सव का आयोजन तुरन्त करें। पहला काम यह था कि ब्रह्मानंद स्वामी करारनामा के अनुसार शेष राशि का भुगतान करके सभी भक्तों और राधा - रासबिहारी विग्रहों के साथ भूमि - खण्ड में पहुँच जाएँ। तब वे वहाँ पण्डाल के लिए एक बड़ा शामियाना लगाएँ और बम्बई, कलकत्ता और दिल्ली में पूर्ववत् किए गए प्रोग्राम की तरह पूरा कार्यक्रम आयोजित करें। प्रभुपाद चाहते थे कि जब वे दो सप्ताह बाद लौटें तो यह सब तैयारी पूरी हो जाए । *** यद्यपि, जैसा कि प्रभुपाद कभी - कभी उल्लेख करते थे, दक्षिण भारत में वैदिक संस्कृति सर्वाधिक अपने मूल रूप में है, किन्तु कई वर्षों से वे उधर जा नहीं पाए थे। शंकर, रामानुज, मध्व आदि अधिकतर महान् आचार्य दक्षिण भारत में हुए थे, और महाप्रभु चैतन्य ने भी अपनी यात्राओं के दौरान दक्षिण भारत को विशेष रूप से अनुकूल पाया था । नवम्बर १९७१ में दिल्ली में हरे कृष्ण पंडाल - उत्सव के ठीक बाद, और प्रभुपाद की अपने शिष्यों के साथ वृंदावन की पहली यात्रा की पूर्व संध्या में, अच्युतानंद स्वामी, ब्रह्मानंद स्वामी, और गिरिराज ने स्वेच्छा से मद्रास जाने और वहाँ श्रील प्रभुपाद के धर्मोपदेश के लिए कार्यक्रम सुनिश्चित करने के लिए सोचा था। जब अच्युतानंद स्वामी ने प्रभुपाद को इस योजना के बारे में सूचित किया था तो प्रभुपाद ने पूछा था, "ओह, आप हमारे साथ वृंदावन नहीं जा रहे हैं ?" अच्युतानंद स्वामी ने उत्तर दिया था, "इस्कान ही वृन्दावन है । " प्रभुपाद ने कहा था, “हाँ, मेरे गुरु महाराज ऐसा ही सोचा करते थे । " गिरिराज ने पूछा, “किन्तु आप हम से क्या कराना चाहते हैं ? अधिक अच्छी सेवा कौन-सी है ?" प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, “मैं मद्रास में पण्डाल-लगवाना चाहता हूँ। वह अधिक प्रसन्नताकारी होगी । " मद्रास फरवरी ११, १९७२ अपने बीस शिष्यों के साथ प्रभुपाद मद्रास पहुँचे और सड़कों पर परेड करने वाले एक जुलूस में फौरन सम्मिलित हुए। जुलूस में आगे-आगे एक अलंकृत हाथी और बैंड थे; उनके पीछे कीर्तन करते भक्त थे। प्रभुपाद एक पुरानी फूलों से सजी अमेरिकन लिमोसीन गाड़ी में थे । प्रभुपाद एक मद्रासी व्यवसायी, मि. बालू, के साथ अतिथि बनकर ठहरे। तीन रात प्रभुपाद ने पाँच हजार श्रोताओं से भरे विशाल हाल में अंग्रेजी में व्याख्यान दिए । एक शाम उन्होंने चैतन्य चरितामृत से एक निरक्षर दक्षिण भारतीय उसकी प्रगाढ़ गुरु-भक्ति और ब्राह्मण की कहानी सुनाई जिसे चैतन्य महाप्रभु ने भगवद्गीता के प्रति प्रेम के लिए, मान्यता दी थी। दूसरे दिन, और उसके बाद से प्रतिदिन, मद्रास के दो प्रमुख समाचार-पत्रों में से एक, दि हिन्दू, प्रभुपाद के व्याख्यान का पूरा संक्षिप्त रूप प्रकाशित करता रहा। दूसरे प्रमुख समाचार-पत्र में, ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी के मद्रास - आगम और अपने पाश्चात्य अनुयायियों के साथ जुलूस में सम्मिलित होने का सामान्य वितरण ही प्रकाशित हुआ । तीन दिवसीय बृहत् कार्यक्रम के बाद गिने-चुने लोगों का सम्मेलन हुआ जिसका आयोजन मद्रास के चीफ जस्टिस मि. के. वीर स्वामी ने किया था । इस समारोह में न्यायाधीश, वकील, और नगर के प्रमुख व्यवसायी सम्मिलित हुए। उस समय खुले मण्डप में कई हजार लोग एकत्र थे जब प्रभुपाद ने वृंदावन के रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी के बारे में बताया जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु के आन्दोलन में सम्मिलित होने के लिए अपने महत्त्वपूर्ण सरकारी पदों का परित्याग कर दिया था । अप्रत्यक्ष रूप से प्रभुपाद सभा में उपस्थित मद्रास के सभी नेताओं से कृष्णभावनामृत में सम्मिलित होने का अनुरोध कर रहे थे । प्रभुपाद को ज्ञात था कि यद्यपि उनकी श्रोता - मण्डली का भाव उनके प्रति आदरपूर्ण था, किन्तु उसके सभी लोग निर्वैयक्तिकतावाद में पूरी तरह डूबे थे — उनका गहरा विश्वास था कि निर्विशेष या निराकार ब्रह्म ही परमात्मा है और सभी हिन्दू देवता समान रूप में उस परम सत्ता के अवतार हैं। प्रभुपाद ने अपने व्याख्यान का अंत श्रोताओं से इस अनुरोध के साथ किया कि वे सब कृष्ण को ही परमात्मा मानें। उन्होंने कहा, “मेरे साथ दोहराइए 'कृष्ण ही परमात्मा हैं ।' उनका व्याख्यान इतना आग्रहपूर्ण और विनम्र था कि श्रोता - मण्डली के कुछ सदस्यों ने उच्च स्वर में वस्तुतः दोहराया " कृष्ण ही परमात्मा हैं । " दि हिन्दू के सम्पादक और प्रकाशक, मि. कस्तूरी, श्रोता - मण्डली में उपस्थित थे और दूसरे दिन के संस्करण में उन्होंने प्रभुपाद के भाषण का सारांश पूरे विस्तार से प्रकाशित किया । सामान्य समाचार-प्रकाशन के अतिरिक्त प्रभुपाद ने मद्रास होटल में संवाददाता सम्मेलन भी बुलाया । समाचार - प्रकाशन से तो वे प्रसन्न थे; उन्होंने पत्रकारों से और भी समाचार देने का आग्रह किया । गिरिराज: प्रभुपाद ने उनसे इस तरह वार्ता नहीं की मानो वे पत्रकार हों । आमतौर से पत्रकारों में भेंटवार्ता करने वाले के सम्बन्ध में बना-बनाया विचार होता है और भेंटवार्ता करने वाले व्यक्ति का भी अपने विषय में विचार रूढ़ि - बद्ध होता है। आप पत्रकारों के प्रश्नों का उत्तर यह सोचते हुए देते हैं कि वे किस रूप में प्रकाशित होंगे। किन्तु मैं देख रहा था कि प्रभुपाद इन पत्रकारों से इस तरह बात कर रहे थे मानों वे ऐसी जीवात्माएँ हैं जिन्हें कृष्ण का भक्त बनना है । यद्यपि वे पत्रकार के रूप में प्रभुपाद को सम्बोधित कर रहे थे. किन्तु प्रभुपाद उन पत्रकारों को बिल्कुल भिन्न रूप में सम्बोधित करते थे । वे उन्हें प्रोत्साहित कर रहे थे और कह रहे थे, " आपने जो रिर्पोट प्रकाशित की है वह बहुत अच्छी है। कृष्ण आप का कल्याण करेंगे। कृपया इस आन्दोलन के प्रचार में सहायता कीजिए।" वे उन से प्रश्न पूछ रहे थे और सोच रहे थे कि उनके उत्तरों में प्रकाशन- योग्य कोई चीज निकले। किन्तु प्रभुपाद उन्हें जीवात्माओं के रूप में ले रहे थे जो कृष्ण - भावना की ओर बढ़ रही थीं। और वे उनके प्रश्नों के उत्तर इसी विचार से दे रहे थे । प्रभुपाद के मद्रास पहुँचने के कुछ ही दिनों के अंदर पूरा नगर हरे कृष्ण आन्दोलन की उपस्थिति से अवगत हो गया था। प्रभुपाद बहुत कम सो पाते थे। देर रात तक व्याख्यानों के कार्यक्रम में व्यस्त रहने पर भी वे बड़े सवेरे का समय अनुवाद - कार्य में लगाते थे। दिन-भर वे बड़ी स्फूर्ति के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण करते रहते थे; इसमें वे अपने युवा अनुयायियों को भी मात दे देते थे । प्रभुपाद के मेजबान, मि. बालू, एक प्रसिद्ध व्यवसायी तो थे ही, उनकी ख्याति एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में भी थी। उन्होंने प्रभुपाद का स्वागत- वैदिक शिष्टाचार के अनुरूप बड़े उत्साह और आदर से किया । प्रभुपाद ने देखा कि मि. बालू का अपना मंदिर था जिसमें राधा-कृष्ण के सुंदर विग्रह थे और एक बड़ा-सा तुलसी का पौधा था। जब प्रभुपाद के साथ के भक्तों ने मि. बालू से पूछा कि विग्रहों को वे प्रायः काले परिधान क्यों पहनाते हैं तो उन्होंने उत्तर दिया कि विग्रह इतने देदीप्यमान हैं कि यदि उन्हें काले परिधान न पहनाएँ तो वे उनकी ओर देख नहीं सकेंगे। वे विग्रहों को दण्डवत् प्रणाम नहीं करते थे क्योंकि, उन्होंने बताया, वे और उनकी पत्नी कृष्ण के पिता और माता थे और पिता पुत्र को प्रणाम कैसे कर सकता है ? " प्रभुपाद और उनके मेजबान एक-दूसरे के प्रति बहुत विनम्र रहे। किन्तु एक रात को मि. बालू और उनकी पत्नी श्रील प्रभुपाद के पास आए और राधाकृष्ण की रास लीला के सम्बन्ध में बोलने की प्रार्थना की। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि रास लीला सर्वोच्च आध्यात्मिक विषय है और वह केवल मुक्त आत्माओं के लिए ही है। प्रभुपाद ने समझाया कि जो भौतिक इच्छाओं से सर्वथा मुक्त हैं, केवल वे ही रास - लीला सुनने के अधिकारी हैं। मि. बालू ने आग्रह किया, "नहीं, स्वामीजी, मेरी पत्नी और मैं बहुत उत्सुक हैं। आप रास - लीला जरूर सुनाइए । ' प्रभुपाद ने पुनः रास नृत्य के सर्वोच्च स्थान के बारे में समझाया। उन्होंने दोहराकर कहा कि केवल वे ही कृष्ण के रास नृत्य को सुनने के अधिकारी हैं जो पत्नी, परिवार, घर-गृहस्थी, और धन-दौलत के बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो गए हैं। तब मि. बालू ने दोनों हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, " मेरी पत्नी की और मेरी आपसे प्रार्थना है कि हमें रास लीला सुनाइए।' तब प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "अच्छा, तो आप और आप की पत्नी रास - लीला सुनने के अधिकारी हो सकते हैं, किन्तु मैं नहीं अनुभव करता कि मैं रास - लीला कहने के योग्य हूँ । इसलिए कृपया किसी अन्य से अनुरोध करें ।' प्रभुपाद ने व्यक्तिगत रूप से मद्रास के कई महत्त्वपूर्ण नागरिकों से भेंट की । वे समझाते थे कि यदि समाज के नेता कृष्ण भावनामृत से ओत-प्रोत हो जायँ तो अपने दृष्टान्त द्वारा वे जन-सामान्य में कृष्ण भावनामृत का सृजन कर देंगे । बिना अपने सिद्धान्त से विचलित हुए बिना महत्त्वपूर्ण अभ्यागतों की चाटुकारी किए, वे प्रत्येक व्यक्ति में, जिससे वे मिलते थे, कृष्ण - भावना का संचार करने का प्रयत्न करते थे । 1 उनकी भेंट मद्रास के राज्यपाल, के. के. शाह, से हुई, जो पक्के मायावादी और शंकराचार्य के अनुयायी थे। प्रभुपाद ने धैर्यपूर्वक उन्हें कृष्णभावनामृत का उपदेश देना चाहा, लेकिन राज्यपाल बीच-बीच में अपना ही दर्शन कहने लगते और प्रभुपाद की बात को काट देते। जब प्रभुपाद ने उनसे कहा कि जैसे भी संभव हो, कृष्णभावनामृत के प्रचार में सहायता करें तो उन्होंने उत्तर दिया कि राज्यपाल के पद से वे कुछ भी करने में असमर्थ थे, क्योंकि हर चीज मुख्यमंत्री के हाथ में थी । मद्रास में एक वयोवृद्ध विद्वान रह रहे थे जो एक अग्रणी राजनेता भी रह चुके थे। उन्होंने निर्विशेषवादी दर्शन के दृष्टि-बिन्दु से वैदिक दर्शन पर बहुत-सी पुस्तकें लिखी थीं और उनका अनुवाद किया था। प्रभुपाद उनसे मिलने गए, किन्तु उन्हें लकवा मार गया था; वे हिलते - काँपते किसी तरह बैठ सकते थे, किन्तु बात नहीं कर सकते थे। प्रभुपाद कुछ समय तक गीता में अवतारवाद विषय पर बोलते रहे। वे वयोवृद्ध विद्वान् कभी-कभी केवल अपनी आँखों की चमक से अपनी प्रतिक्रिया प्रकट कर देते थे, उनकी बात असंबद्ध और अस्पष्ट थी। इसके पूर्व प्रभुपाद उनके गीता के अनुवाद की आलोचना कर चुके थे जिसमें उन्होंने कहा था कि यद्यपि कृष्ण कहते हैं कि मेरे प्रति समर्पण हो किन्तु हमें वस्तुतः साकार कृष्ण के सम्मुख समर्पित नहीं होना है, वरन् उस निर्विशेष शाश्वत सत्ता के प्रति समर्पित होना है जो कृष्ण में अन्तर्भूत है। इस भेंट का प्रभुपाद पर गहरा प्रभाव दिखाई दिया; उसके बाद कई दिनों तक वे गंभीर भाव से अक्सर कहा करते थे कि ये पुराने मायावादी विद्वान् किस तरह लगभग किसी सब्जी जैसा अस्तित्व घसीट रहे हैं। श्रील प्रभुपाद सी. राज गोपालाचार्य ( राजाजी) से भी मिले जो स्वतंत्रता के बाद भारत के गवर्नर-जनरल रह चुके थे। राजाजी महात्मा गांधी के मित्र थे और एक धार्मिक राजनेता के रूप में जन-मत में उनका ऊँचा स्थान था । यद्यपि वे नवें दशाब्द में थे, फिर भी बहुत चैतन्य थे और प्रभुपाद के आन्दोलन के प्रति सहानुभूति रखते थे । राजाजी ने केवल एक शंका व्यक्त की: प्रभुपाद ने इतनी विशाल संस्था की सृष्टि की है कि उनके शिष्य अब कृष्ण की अपेक्षा संस्था को ही सब कुछ समझने लग सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो संस्था को ही सब कुछ समझने कर वे उसी तरह के भौतिकतावादी भ्रम में धंस जायँगे जिसमें वे पहले थे। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि चूँकि कृष्ण परम सत्ता हैं इसलिए कृष्ण और कृष्ण की संस्था में कोई अंतर नहीं है। कृष्ण की संस्था से तादात्म्य स्थापित करने का तात्पर्य है कृष्ण से सीधा तादात्म्य स्थापित करना । राजाजी प्रभुपाद के उत्तर से संतुष्ट हो गए, और सुखद वार्तालाप के बाद दोनों मित्र एक-दूसरे से विदा हुए। प्रभुपाद को मुख्य न्यायाधीश वीर स्वामी के घर से आमंत्रण मिला। दोनों में मैत्री हो गई और मुख्य न्यायाधीश ने यथाशीघ्र कृष्णभावनामृत आन्दोलन में सम्मिलित होने की इच्छा प्रकट की। उन्हें प्रभुपाद के अनुयायी पसंद आए, विशेष कर तीन वर्ष की सरस्वती, और उन्होंने उसे बाँसुरी बजाते कृष्ण की छह इंच की एक चाँदी की मूर्ति दी। एक दूसरी शाम को मि. वीर स्वामी प्रभुपाद से मिलने आए, और प्रभुपाद ने उन्हें बताया कि उनके विचार से सरस्वती चाँदी की एक कीमती मूर्ति के लिए अभी बहुत नादान थी, इसलिए प्रभुपाद ने उससे वह मूर्ति ले ली थी और वे उसे एक दूसरी मूर्ति देने वाले थे। किन्तु जब वे बात कर रहे थे, तभी सरस्वती कमरे में प्रविष्ट हुई और अपनी मां के पास जाकर रोती हुई बोली, "कृष्ण चले गए।" श्रील प्रभुपाद ने तब उसे अपने पास बुलाया और पूछा, “सरस्वती, कृष्ण कहाँ हैं ? " चिन्ता से भरी सरस्वती ने उत्तर दिया, “मैं नहीं जानती, कोई उन्हें उठा ले गया है । " प्रभुपाद ने दोहराया, “किन्तु हैं कहाँ ? " सरस्वती, “मैं नहीं जानती ।" प्रभुपाद ने संकेत दिया, “क्या वे गद्दी के नीचे हैं?" सरस्वती दौड़ती हुई उस गद्दी के पास गई। जिसकी ओर प्रभुपाद ने संकेत किया था उसने उसे उठा लिया। किन्तु कृष्ण वहाँ नहीं थे । प्रभुपाद ने पूछा, "क्या वे ताक पर हैं ?" सरस्वती दौड़ कर ताक के पास पहुँची । उसकी आँखें सभी दिशाओं में घूम रही थीं । " कृष्ण कहाँ हैं ? " सरस्वती शिष्यों से पूछने लगी, उनके चेहरे तथा हाथ देखने लगी, उनकी पीठ के पीछे देखने लगी । वह हर जगह खोज रही थी । सरस्वती को ध्यानपूर्वक देखते हुए प्रभुपाद छः गोस्वामियों के विषय में एक श्लोक सुनाने लगे : हे राधे व्रज- देविके च ललिते हे नन्द - सुनो कुतः । उन्होंने कहा गोस्वामियों का मनोभाव ऐसा ही है। उन्होंने कभी नहीं कहा, 'मैने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया है। अब मैं संतुष्ट हूँ।' नहीं, वरन् वे कहा करते, 'राधा कहाँ हैं, कृष्ण कहाँ हैं, आप सब इस समय कहाँ हैं, क्या आप गोवर्धन पर हैं, या आप यमुना के तट पर वृक्षों की छाया में हैं। आप कहाँ हैं ?' इस प्रकार वे अपनी कृष्ण भावनामृत को प्रकट करते । " सरस्वती की चिन्ता बढ़ कर आँसुओं में प्रकट होने लगी थी । तब भक्तों में से एक ने इशारा किया, “सरस्वती, कृष्ण कहाँ हैं ? कृष्ण को किसने लिया है ?" सरस्वती के नेत्र विस्फारित हो उठे। वह चिल्लाई, “कृष्ण को प्रभुपाद ने लिया है!" और वह लपक कर प्रभुपाद के पास पहुँची, इस विश्वास के साथ कि कृष्ण को प्रभुपाद लिए हुए थे। और प्रभुपाद ने अपने पीछे हाथ करके कृष्ण की एक छोटी-सी मूर्ति निकाली जो चाँदी की उस मूर्ति के समान थी जिसे उन्होंने सरस्वती से ले लिया था । उन्होंने कहा, “कृष्ण यहाँ है, सरस्वती,” सरस्वती प्रसन्नता से खिल उठी । सभी शिष्य प्रभुपाद के एक छोटे से बच्चे के साथ भी भक्ति भावना का इस प्रकार आदान-प्रदान देख कर विस्मित थे। अपने इस विशेष गुण से उन्होंने एक बच्चे में भी कृष्ण से वियोग का भाव पैदा कर दिया। वे मुख्य न्यायाधीश को कृष्ण से वियोग का भाव समझाते रहे । कई शताब्दियों से कुछ धार्मिक और सामाजिक विवादों ने मद्रास को विभाजित कर रखा था और प्रभुपाद प्राय: इस विषय पर बोलते रहे। एक विवाद ब्राह्मणों और अब्राह्मणों के बीच का था। चूँकि ब्राह्मण परिवारों में पैदा हुए लोगों ने परम्परा से सभी महत्त्वपूर्ण सरकारी, सामाजिक और धार्मिक पदों पर एकाधिकार जमा रखा था, इसलिए, अब्राह्मणों ने शक्तिशाली राजनीतिक विरोध का संगठन कर धार्मिक चलचित्रों पर प्रतिबंध लगा दिया था। पवित्र रामायण के प्रति भी सांसारिक राजनीतिक धारणा बना लेने के कारण उन्होंने भगवान् राम के विग्रहों तक का अपमान किया था। अपने शिष्यों के साथ वार्ता में श्रील प्रभुपाद ने कहा, “मुख्य न्यायाधीश क्या ब्राह्मण हैं? मैं ऐसा नहीं सोचता । वे क्षत्रिय हो सकते हैं। किन्तु तुम उन्हें बता सकते हो कि हम ब्राह्मणों - अब्राह्मणों की इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। हम हर एक को ब्राह्मण बनने की सुविधा दे सकते हैं। कोई भी हमारे सिद्धान्तों का पालन करके ब्राह्मण बन सकता है।” प्रभुपाद ने कहा कि शास्त्र में ऐसा उल्लेख है कि कलियुग में राक्षस ब्राह्मण बन कर पैदा होंगे और इसीलिए यह घोर विवाद है। तथाकथित ब्राह्मण, जो इस समय नेता बने बैठे हैं, जनता को संतुष्ट नहीं कर रहे हैं। प्रभुपाद ने बताया कि कोई भी व्यक्ति जो भक्ति के चार सैद्धान्तिक नियमों का पालन करता है, हरे कृष्ण मंत्र जपता है, वैष्णव- दीक्षा लेता है, ब्राह्मण बन सकता है। इससे सारी समस्याएँ हल हो जायँगी । प्रभुपाद ने कहा कि उन लोगों को चाहिए कि मुख्य न्यायाधीश वीर स्वामी को पहले ब्राह्मण बनाकर शुरुआत करें। मि. वीर स्वामी ने स्वीकार किया कि वे प्रभुपाद से दीक्षा लेने को उत्सुक थे, उनकी केवल एक कठिनाई चाय पीने की आदत को छोड़ पाना थी । जब प्रभुपाद ने यह सुना तो उन्होंने कहा कि यदि मुख्य न्यायाधीश थोड़ी चाय भी पीते हैं तो भी वे उन्हें स्वीकार कर लेंगे — एक अपवाद के रूप में । मद्रास में जाति-चेतना वाले कुछ ब्राह्मणों ने श्रील प्रभुपाद की यह कह कर आलोचना की कि वे जन्म से नीच पाश्चात्यों को भी ब्राह्मण बना रहे थे । एक मद्रासी ब्राह्मण के घर पर हुई बैठक में अतिथियों में से एक ने कहा, " स्वामीजी, आप के शिष्य संस्कृत शब्दों का उच्चारण ठीक से नहीं करते । यहाँ तक कि हरे कृष्ण मंत्र का उच्चारण भी वे कभी-कभी सही नहीं करते।' प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "हाँ, हम इसी कारण आप के यहाँ आए हैं कि आप का साहचर्य मिले जिससे आप हमें सिखा सकें ।' श्रील प्रभुपाद को लम्बे समय से चले आते हुए एक दूसरे दक्षिण भारतीय विवाद का भी सामना करना पड़ा— शैवों और वैष्णवों का विवाद । शैव प्राय: निर्विशेष दर्शन मानते थे । वे कहते थे कि ईश्वर निर्वैयक्तिक है जो शिव, कृष्ण आदि कई रूपों में प्रकट होता है । किन्तु चूँकि सभी रूप अंततः एक हैं इसलिए इस बात पर लड़ाई करना कि कौन देवता बड़ा है, छुटपन और बचपना है। प्रभुपाद के शिष्यों के लिए इस दर्शन से पार पाना कठिन हो रहा था । और जब गिरिराज का इस विषय पर एक धनाढ्य शैव मतावलम्बी मि. रामकृष्ण से तर्क-वितर्क हुआ तो वे एक-दूसरे से नाराजगी के साथ अलग हुए थे । किन्तु मद्रास में जब अन्य लोगों से गिरिराज की बात होती तो वे प्रायः उन्हें स्मरण कराते, “क्या आप मि. रामकृष्ण से मिले हैं ? वे बहुत अच्छे आदमी हैं और धार्मिक समारोहों का नेतृत्व करते हैं। " गिरिराज बहुत संकोच में पड़ जाते और उन्होंने मि. रामकृष्ण की मित्रता पाने के लिए एक और प्रयत्न करने का निर्णय किया। उनमें फिर बात हुई लेकिन वे असंतुष्ट बने रहे। तब गिरिराज ने प्रभुपाद को सूचित किया और जानना चाहा कि क्या प्रभुपाद स्वयं मि. रामकृष्ण से मिलना चाहेंगे। प्रभुपाद राजी हो गए। जब उनकी भेंट हुई तो मि . रामकृष्ण ने इस प्रश्न से शुरू किया, “स्वामीजी, हमारे बीच शिव और कृष्ण की भक्ति को लेकर विवाद चलता रहा है। आप का क्या कहना है ? कृष्ण बड़े हैं या शिव बड़े हैं ? " प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि भक्ति शब्द वस्तुतः शिव की पूजा पर लागू नहीं होती । भक्ति का आशय बिना किसी भौतिक इच्छा के सेवा भाव है, जबकि पूजा का अर्थ बदले में कुछ पाने की इच्छा है। अतएव भक्ति केवल कृष्ण पर लागू होती है। मि. रामकृष्ण ने पूछा, “लेकिन क्या यह संभव नहीं है कि एक व्यक्ति शिव का भक्त हो और वह, बिना किसी भौतिक लाभ की इच्छा रखे, केवल सेवा - भाव से भगवान् शिव की उपासना करे । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “यह संभव हो सकता है, किन्तु सामान्यतः ऐसा होता नहीं । जैसे, एक व्यक्ति मदिरा की दुकान में जाता है तो साधारणातः यह मान लिया जाता है कि वह मदिरा पीने जा रहा है, यद्यपि इसमें अपवाद भी हो सकता है । " प्रभुपाद ने गोपियों की कात्यायनी देवी की उपासना का दृष्टान्त दिया । उनकी उपासना किसी सांसारिक लाभ के लिए नहीं थी, वरन् केवल कृष्ण की भक्ति के कारण थी। उसी तरह यदि कोई भगवान् शिव की उपासना कृष्ण की सेवा की भावना से करता है तो वह भक्ति होगी। किन्तु लोग शिव के पास प्राय: केवल सांसारिक लाभ के लिए जाते हैं। यद्यपि मि. रामकृष्ण इन विषयों पर विवाद के लिए प्रायः उन्मुख रहा करते थे, प्रभुपाद के उत्तर ने उन्हें संतुष्ट कर दिया। श्रील प्रभुपाद का मद्रास में सबसे विकट विवाद स्मार्त ब्राह्मणों, मायावादियों अथवा शैवों से नहीं, वरन् कुछ अपने ही गुरुभाइयों से था। यद्यपि उनमें से कुछ स्वीकार करते थे कि श्रील प्रभुपाद का अपने गुरु महाराज श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती की ओर से पाश्चात्य देशों में प्रचार अतुलनीय था, किन्तु अन्य गुरु भाई उनके प्रति ईर्ष्यालु थे। एक ईर्ष्यालु गुरुभाई ने मद्रास में श्रील प्रभुपाद को लिखा : सम्मान्य स्वामीजी, मैने गत १२ तारीख को राजीश्वरी कल्याण मण्डपम में भक्ति पर आप का व्याख्यान सुना । मेरा मन निम्नांकित विषयों को लेकर संदेह से भरा है : आप के शिष्य हरे कृष्ण मंत्र के साथ नाचने लगते हैं, (१) क्या वे सचमुच महाप्रभु चैतन्य की तरह भगवद्-भाव में विभोर होते हैं ? (२) स्वामीजी, क्या आप सचमुच अपने अहं से मुक्त हो गए हैं, यदि ऐसा है तो आप ने क्यों कहा, “मैं चुनौती देता हूँ" और 'मैं' और 'मेरा' जैसे शब्द हमेशा आप की जबान पर क्यों रहते हैं ? (३) आप गद्दी का उपयोग क्यों करते हैं जिसे वास्तविक योगी को नहीं करना चाहिए ? क्या भगवान् चैतन्य ने गद्दियों का उपयोग किया था ? ( ४ ) आप अँगूठी क्यों पहनते हैं और कलाई में सोने की घड़ी क्यों बाँधते हैं ? क्या आप सांसारिक मोह से मुक्त नहीं हुए हैं ? ( ५ ) क्या आपने गौड़ीय मठ में भगवान् चैतन्य कृष्ण के मंदिर का दर्शन किया है? यदि नहीं, तो क्यों नहीं— शुद्ध वैष्णव मत का निवास पवित्र स्वामियों के साथ उस मंदिर में है जहाँ कृष्ण का निवास है । आप के गले से श्रुतिमधुर नहीं, वरन् कर्कश अपशकुन जैसी ध्वनि निकलती है। क्या आप के व्यक्तित्व में कोई दैवत्व निहित है ? मुझे तो संदेह है। आप की आवाज सुन कर घृणा होती है । यद्यपि प्रभुपाद ऐसे पत्र की एकान्त तीक्ष्णता से आश्चर्यचकित और आहत हुए किन्तु वे अपने गुरुभाइयों की ओर से मिलने वाले ऐसे तिरस्कारों और अपमानों के अभ्यस्त थे। उन्होंने अपने भक्तों को अपने गुरु भाइयों से किसी प्रकार के झगड़ों में पड़ने से मना किया। अपितु उन्हें उनसे दूर रहना चाहिए । उन्होंने कहा कि जो लोग कृष्णभावनामृत के प्रचार की आलोचना करते हैं वे बेकार लोग है और उन्हें पीछे छोड़ कर वे आगे बढ़ते जाएंगे : “कुत्ते भौंकते रहते हैं, कारवाँ आगे बढ़ता जाता है । " उपर्युक्त विषाक्त पत्र से एकदम विपरीत, श्रील प्रभुपाद के एक अन्य गुरु भाई त्रिदण्डी स्वामी, बी. वी. पुरी महाराज, का था। जैसा कि प्रभुपाद उनको पुकारते थे, पुरी महाराज का एक छोटा-सा आश्रम मद्रास और कलकत्ता के बीच बंगाल की खाड़ी के तट पर विशाखापट्टणम में था । यह सुन कर कि प्रभुपाद इसके बाद कलकत्ता जाने वाले हैं, पुरी महाराज ने उन्हें अपने यहाँ आमंत्रित किया । आपके चरणकमलों में असंख्य साष्टांग दण्डवतों के साथ सविनय आप के पत्र की प्राप्ति स्वीकार करता हूँ। ... विशाखापट्टनम के नागरिक आप की दिव्य विभूति के दर्शन करना चाहते हैं । ... आपके श्रीमुख से संकीर्तन और दिव्य संदेश सुनने को हम अत्यन्त प्रसन्न और आतुर हैं। मुझे आशा है कि संकीर्तन आन्दोलन मद्रास में सहस्रों लोगों को आकृष्ट कर रहा है । पुनः सभी वैष्णवों को दण्डवतों सहित, आप का दासानुदास बी. वी. पुरी । *** विशाखापट्टनम १७ फरवरी, १९७२ बंगाल की खाड़ी के विस्तृत तटीय मैदान में सफेद चमचमाती बालुका राशि और खाड़ी का गर्म, निर्मल जल प्रभुपाद के विशाखापट्टणम आगमन की प्रमुख विशेषताएँ थीं। पुरी महाराज का छोटा-सा आश्रम, जहाँ प्रभुपाद ठहरे समुद्र से केवल पाँच मिनट की दूरी पर था, हर सवेरे प्रभुपाद, पन्द्रह शिष्यों के अपने दल के साथ, समुद्र के किनारे-किनारे लम्बा भ्रमण करते थे । यमुना : मैं नहीं समझती कि प्रभुपाद हम में से किसी को भी कभी अपने साथ समुद्र तट पर भ्रमण करने न ले गए हों। सभी भक्त जानते थे कि श्रील प्रभुपाद भ्रमण करने कब जायँगे, और हम अपने-अपने आवासों से निकल पड़ते और उनके साथ समुद्र के किनारे जाते । हमारी हवाखोरी बहुत तेज और तरोताजा करने वाली होती थी और हम कृष्ण के विषय में निरन्तर बात करते रहते थे। किसी न किसी तरह हम में से प्रत्येक श्रील प्रभुपाद की वार्ता सुन सकता था । गुरुदास : मैं प्रतिदिन सवेरे टहलने जाता था । किन्तु एक बार जब मैं मंदिर में बैठा था तो अचानक मैने प्रभुपाद और भक्तों को समुद्र के किनारे की ओर जाते देखा। मैं उनके साथ होने के लिए तुरंत मंदिर से भाग निकला; मैने समय बचाने के लिए अपने जूते नहीं पहने। लेकिन नीचे समुद्री तट की ओर के मार्ग में झाड़ियाँ और चट्टाने थीं। जब प्रभुपाद ने मुझे कंकरीले - पथरीले मार्ग पर पाँव ऊँचे उठा-उठाकर और लड़खड़ाते हुए चलते देखा तो उनका ध्यान मुझ पर गया और उन्होंने कहा, “ओह ! तुम्हारे पैर दुख रहे हैं, तुमने जूते क्यों नहीं पहने हैं ?” मैंने कहा, "प्रभुपाद, जब मैं आप के साथ होता हूँ तो मुझे कोई पीड़ा अनुभव नहीं होती।” प्रभुपाद रुक गए और बोले, “तो तुम अपना गला क्यों नहीं काट देते ?” हर एक हँसने लगा और मैं भी हँस पड़ा। उन्होंने कहा—“तपस्या पहले ही बहुत है। तुम अपनी ओर से और क्यों पैदा कर रहे हो ?" गुरुकृपा : प्रभुपाद दर्शन पर बातें करते तो करते ही रहते। बहुत-सी बातों को मैं न समझ पाता । तो भी मैं सुनता रहता, यद्यपि मुझे कुछ याद न रह पाता। मैं सुनता रहता, सुनता रहता। मेरे ऊपर उनका कुछ असर नहीं होता था। समुद्र के किनारे मैं उनके पीछे चलता रहता। मैं अपने से कहता, “यदि मैं उनके उपदेशों का या उनके आदर्श का पालन अभी नहीं कर सकता, तो कम-से-कम रेत पर उनके चरणचिह्नों पर चल लूँ । विशाखा : कभी-कभी एक कुत्ता हम लोगों के पीछे लग जाता था या भौंका करता था। हमें यह देख कर आश्चर्य होता कि प्रभुपाद किस तरह अपनी छड़ी झटकते थे और कुत्ता भाग जाता। एक बार जब हम सड़क में एक गाय के पास से निकले तो प्रभुपाद ने उसे जाने के लिए पर्याप्त स्थान छोड़ दिया । और उन्होंने हमें वह कहानी सुनाई कि उनके संन्यास लेने के कुछ ही समय बाद किस तरह एक गाय ने उन्हें लहू-लुहान कर दिया था । तेजास : एक बार सवेरे के भ्रमण में प्रभुपाद कुत्ते के बारे में बात कर रहे थे। उन्होंने चाणक्य पंडित के एक श्लोक के हवाले से कुत्ते के पाँच गुण बताए― कि वह बहुत स्वामिभक्त होता है और हर चीज से संतुष्ट हो जाता है। उसके तुरंत बाद प्रभुपाद ने कहा कि हमें कृष्ण का कुत्ता होना चाहिए । वे यह भी बता रहे थे कि हमें पुजारियों को कुछ भी न देना चाहिए। शिक्षक और पुजारी को वेतन नहीं मिलना चाहिए। उन्हें शुद्ध भक्ति के नाम में सब कुछ करना चाहिए। क्षत्रिय को भी कुछ नहीं मिलना चाहिए। आज की शासन- व्यवस्था में यही तो दोष है कि क्षत्रियों को वेतन मिलता है। उन्होंने, इसी तरह, एक के बाद एक, अनेक चीजें बताईं। नंदकुमार : श्रील प्रभुपाद हमसे समुद्र में नहाने को कहते थे । वे कहते, "समुद्र के किनारे जाओ।" इसलिए एक दिन मैंने उनसे पूछा, "श्रील प्रभुपाद, जब मैं समुद्र के किनारे जाता हूँ, सूर्य की गरमी मेरे शरीर पर पड़ती है, पानी बहुत अच्छा लगता है, और रेत भी बहुत अच्छी लगती है। इन सब से भौतिक सुख की स्थिति पैदा हो जाती है। मैं कैसे समझँ कि समुद्र के किनारे जाने के लिए आप हमसे क्यों कहते हैं? मैं जानता हूँ कि गुरु महाराज अपने शिष्यों को ऐसा कुछ भी नहीं देते जिससे उनमें भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्ति उत्पन्न हो, वरन् वे चीजें देते हैं जिनकी कृष्ण को स्मरण रखने में उन्हें आवश्यकता हो। लेकिन जब मैं समुद्र के किनारे जाता हूँ तो ऐसा अनुभव होता है कि मैं इन्द्रियों का सुख प्राप्त कर रहा हूँ। इसे मैं कृष्ण से किस प्रकार सम्बद्ध करूँ? मैं कैसे समझँ कि यह आदेश मेरे आध्यात्मिक लाभ के लिए है ? प्रभुपाद ने कहा, “सूर्य है तो कृष्ण उस सूर्य का प्रकाश हैं, समुद्र है तो कृष्ण उसके जल का स्वाद हैं। तुम कृष्ण से घिरे हो। तुम कृष्ण को भूल कैसे सकते हो ? वे तुम्हारी चारों ओर हैं। पञ्चयज्ञ: मैं एक नया भक्त था और मैंने प्रभुपाद से पूछा, “प्रभुपाद, तैरने के बारे में आप क्या कहते हैं ? क्या वह माया नहीं है ?"प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “महाप्रभु चैतन्य हमेशा तैरने जाया करते थे । वे गेंद खेलते थे। इसलिए तुम तैर सकते हो। इतना निश्चय कर लो कि कृष्ण तुम्हें याद रहें।” पुरी महाराज आठ कमरों वाले एक सामान्य एक - मंजिले भवन में थे। जब उन्होंने प्रभुपाद को अपने कमरे की बगल वाले कमरे में रहने का प्रस्ताव किया तो प्रभुपाद बहुत प्रसन्न हुए और इसे उन्होंने पुरी महाराज की मित्रता की अभिव्यक्ति माना । प्रभुपाद अपने भक्त बन्धुओं के साथ सुखपूर्वक रहने लगे। पुरी महाराज कहते थे कि वे प्रभुपाद के कार्य और उनके पाश्चात्य शिष्यों के प्रशंसक थे। प्रभुपाद के शिष्य उनके और अन्य गुरुभाइयों के बीच विधिवत् परस्पर दण्डवत् प्रणाम सहित आदर - प्रदर्शन देख चुके थे। उदाहरण के लिए, बम्बई में उन्होंने देखा था कि प्रभुपाद ने अपने व्यास - आसन से उतर कर अपने गुरुभाइयों को दण्डवत् प्रणाम किया था । किन्तु विशाखापट्टनम में उन्हें और अधिक आत्मीयता का व्यवहार देखने को मिला। उन्होंने पहली बार प्रभुपाद को एक ही आवास में अपने गुरुभाइयों के साथ आराम से रहते देखा । और भक्तों को लगा कि उनके साथ भी कोई दिखावटी कृपा का व्यवहार नहीं हो रहा है, या उनको अनचाहा नहीं माना जा रहा है। प्रभुपाद के मार्गदर्शन में उन्हें वैष्णवों के बीच परस्पर मैत्रीपूर्ण और विनम्र व्यवहार के आवश्यक तत्त्वों को और अधिक सीखने का अवसर मिला । प्रभुपाद के गुरुभाइयों, आनंद, न केवल प्रभुपाद के लिए, वरन् उनके सभी शिष्यों के लिए, भोजन बनाने और खिलाने को उत्सुक थे । आनंद प्रौढ़ता प्राप्त भक्त थे, किन्तु वे अपने को तुच्छ सेवक की तरह सेवा करने की स्थिति में रखते थे। यद्यपि वे अंग्रेजी बहुत कम बोलते थे, किन्तु शिष्यों ने देखा कि प्रभुपाद और उनके बीच एक-दूसरे के लिए बड़ा स्नेह था। आनंद और प्रभुपाद के शिष्यों के बीच मिलनसारी का माध्यम विशेषकर आनंद का भोजन बनाना और प्रसाद का वितरण करना था । प्रतिदिन सवेरे सब लोग प्रभुपाद के कमरे के सामने के बरामदे में एकत्र हो जाते थे, पुरुष एक पंक्ति में बैठ जाते थे और महिलाएँ दूसरी पंक्ति में बैठती थीं। दोनों पंक्तियों के बीच में तेजी से चलते हुए आनंद प्रसादम् का वितरण करते थे । एक सिरे पर काठ की कुर्सी में बैठे और जपमाला की गुरियों पर अंगुली फेरते प्रभुपाद भक्तों को प्रसादम् ग्रहण करते देखा करते थे । प्रभुपाद ने आश्रम को पैसा दे दिया था और आनन्द नियमित रूप से सुस्वाद व्यंजन तैयार करते थे : मसालेदार आलू के चिप्स, चावल, दही, दाल, तीन तरह की सब्जियाँ, तले हुए आलू के टुकड़े, चटनी, मालपुआ, राजकेलि, सन्देश, खीर आदि। हर वस्तु इतने उत्कृष्ट रूप में तैयार होती थी कि अमृत जैसी स्वादिष्ट बन जाती थी । भक्तों की दोनों पंक्तियों के सिरे पर स्वामीजी बैठ जाते और उन्हें प्रसादम् ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहन देते रहते थे— “ उसे और अधिक दो ।" प्रभुपाद आनंद के भोजन बनाने की कला की प्रशंसा करते और भक्तों को प्रसादम् ग्रहण करते हुए प्रसन्नतापूर्वक मुसकराते हुए देखते रहते। प्रभुपाद द्वारा प्रोत्साहित होकर जब भक्त पेट भर खा चुकते तब प्रभुपाद उच्च स्वर में प्रेम ध्वनि बोलते और भक्तजन भी जोर से चिल्लाते - " जय । " एक बार ऐसे ही भोजनोत्सव के बाद प्रभुपाद ने भक्तों को अपने कक्ष में बुलाया और कहा, “देखो, आनंद किस प्रकार भोजन बनाते हैं। वे भोजन की प्रत्येक वस्तु तैयार करते हैं, हर एक को परोसते हैं और जब तक हर एक संतुष्ट नहीं हो जाता, वे स्वयं नहीं खाते। यही वैष्णव - रीति है । उसे दूसरों को खिलाने में, स्वयं अपने खाने से अधिक, आनंद आता है।” दिन में दो बार भोजन होता था। शाम को बहुत से अतिथि प्रसाद ग्रहण करने, कीर्तन में भाग लेने और प्रभुपाद का व्याख्यान सुनने आ जाते थे। एक दिन श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों को भगवान् नृसिंह, श्री सिंहाचलम के एक प्रसिद्ध मंदिर का दर्शन करने ले गए जो विशाखापट्टनम से उत्तर में करीब पांच मील दूर एक पहाड़ी पर था । पत्थर की हजारों सीढ़ियाँ चढ़ कर मंदिर तक पहुँचना होता था जो पहाड़ी की एक ओर प्राकृतिक रंगभूमि में स्थित था। प्रभुपाद ने बताया कि मंदिर, जिसकी व्यवस्था अब रामानुज सम्प्रदाय अनुयायियों द्वारा होती थी, विशेष महत्त्व का था, क्योंकि महाप्रभु चैतन्य अपनी दक्षिण भारत की यात्रा में इसके दर्शनार्थ आए थे | प्रभुपाद ने नृसिंह मंदिर कार से जाने का निश्चय किया। आम, कटहल, काजू और अनन्नास के बगीचों को पार करते, चक्करदार सड़क से होते हुए वे वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर प्रभुपाद और उनके शिष्य मंदिर के एक ब्राह्मण से मिले जिसने उन्हें मैदान की चारों तरफ घुमाया। मंदिर के भवन काले पत्थर से बने थे और चट्टानों को काट कर विष्णु की, विशेष रूप से उनके नृसिंह अवतार की लीलाओं को उकेरा गया था। एक स्थान से दूसरे स्थान या एक भवन से दूसरे भवन को जाने में प्रभुपाद को कभी - कभी खड़ी सीढ़ियों की चढ़ाई चार आदमियों द्वारा ले जायी गई पालकी में तय करनी पड़ी। जब प्रभुपाद ने मन्दिर के मैदान के निचले सिरे पर एक विशाल वट-वृक्ष को देखा तो उन्होंने कहा कि यह वृक्ष सहस्त्रों वर्ष पुराना होगा। जब वे वृक्ष के नीचे खड़े थे तब उनके सेवक नन्दकुमार ने उन्हें एक चम्पक का फूल दिया। माला की थैली में से अंगूठा और तर्जनी अंगुली बढ़ाकर उन्होंने चम्पक का फूल ले लिया और बड़े प्रेम से उसे देखा । उन्होंने कहा, “यह फूल महाप्रभु चैतन्य के रंग का है और सारे भारत में यह सब से प्रिय फूल है। यह फूल देखने में भी सुंदर है और सूँघने में भी। वे उस छोटे पीत - स्वर्ण - वर्ण के फूल को पूर्वाह्न के पूरे शेष समय अपनी अंगुलियों में लिए रहे। जब प्रभुपाद और उनके दल ने गर्भ गृह में प्रवेश किया जहाँ भगवान् नृसिंह की मूर्ति विराज रही थी तो उनके मार्गदर्शक ने बताया कि मूर्ति प्रह्लाद महाराज के समय की है। पुरूरवा नामक प्राचीन राजा और उसकी सहधर्मिणी, उर्वशी, एक बार इस पहाड़ी पर आए थे और उर्वशी की प्रार्थना पर, यह मूर्ति, जिसने स्वप्न में उर्वशी को दर्शन दिया था, खोद कर निकाली गई थी । भगवान् नृसिंह ने आदेश दिया था कि उनकी उपासना इसी स्थान पर होनी चाहिए और वे वर्ष में केवल वैशाख मास में एक बार दर्शन देंगे। शेष समय में उन्हें चन्दन की लेई, कपूर और अन्य सुगंधित पदार्थों में आच्छादित करके रखा जाएगा। अतएव मूर्ति चंदन में आच्छादित ढेले के तुल्य दिख रही थी । प्रभुपाद ने टिप्पणी की कि चंदन में रखने का उद्देश्य मूर्ति को 'शान्त - चित्त' रखना था । माधवानन्द : जब प्रभुपाद विशाखापट्टनम् के नृसिंह मंदिर में थे तो वे वैसे ही थे जैसे कि वृन्दावन में। जब वे कार में से निकले तो वे बहुत गंभीर थे। हम मंदिर के एक प्रकोष्ठ में गए। उसके बाद हम नीचे की ओर गए । दीवारें चार फुट मोटी थीं। और लगता था कि वहाँ सैंकड़ों फुट की सुरंग थी जिसे पार करने के बाद हम गर्भगृह में पहुँचे। वहाँ मूर्ति चन्दन के ढेर सारे लेप से ढकी थी। हम ज्योंही प्रविष्ट हुए प्रभुपाद ने कहा “ नृसिंह मंत्र का जाप आरंभ कर दो।" अतएव हमने 'तव कर-कमल-वरे नखम् अद्भुत श्रृंगम्' मंत्र जपने लगे। हमने मूर्ति की परिक्रमा की। उसके बाद हम मूर्ति के सामने खड़े हो गए और प्रभुपाद ने दण्डवत् प्रणाम किया । गुरुकृपा : जब हम गर्भगृह में पहुँचे तो प्रभुपाद ने हमसे नृसिंह की प्रार्थनाएँ कराई। वे सदैव ऐसी भक्ति प्रकट करते थे। उनकी जो विशेषता उन्हें हमसे अलग करती थी वह केवल उनकी विद्वत्ता या ज्ञान नहीं, वह उनकी यही भक्ति थी। ऐसे स्थानों में हम देखते कि वे बहुत शान्त और गंभीर हो जाते थे और जब वे बोलते थे तो हम भी आंतरिक शान्ति से भर जाते थे। जब वे बोलते थे तो हमें उस का अनुभव होता था। वे कृष्णभावनामृत में हमारा विश्वास बराबर जगाया करते थे। किसी उद्देश्य से नहीं, किन्तु वे हमेशा आत्मलीन रहते थे। ऐसे स्थानों पर उनकी यह विशेषता प्रकट हो जाती थी । जब प्रभुपाद हम लोगों के साथ विग्रह के समक्ष खड़े हुए तो हम विग्रह को देख भी नहीं सकें। वहाँ केवल चंदन की लेई का ढेर था। लम्बे कानों में बाली पहने एक ब्राह्मण वहाँ खड़ा था। हमने कुछ दान दिया । किन्तु वह समय बहुत भक्तिमय था । प्रभुपाद कुछ अधिक नहीं बोले और मुख्य कारण यह था कि ऐसे स्थानों में ही लोगों की आध्यात्मिक उन्नति की परख होती है। ऐसे स्थानों का इतिहास और उसका विस्तार उतने महत्त्व का नहीं होता । उसमें वस्तुतः अधिक कहने योग्य नहीं होता । प्रभुपाद ने केवल इतना देखा कि हमने विग्रह के प्रति समुचित आदर प्रदर्शित किया और हमसे कोई भूल नहीं हुई । प्रभुपाद शाम को व्याख्यान देते थे; उनके व्याख्यान कभी स्कूलों में और कभी विशाखापट्टनम की सामाजिक क्लबों में होते थे । रामकृष्ण हाल के समारोह में, जहाँ एक हजार से अधिक लोग उपस्थित थे, प्रभुपाद के नृत्य से प्रोत्साहित होकर पूरी श्रोता - मण्डली नृत्य करने लगी थी । भक्तजन प्रभुपाद की चारों ओर घेरा बनाकर नृत्य करते रहे और कीर्तन एक घंटे तक चलता रहा था । एक दूसरे कार्यक्रम में एक दढ़ियल अमरीकी मानवविज्ञानी अपनी मोटर साइकिल से प्रभुपाद के व्याख्यान और कीर्तन में सम्मिलित होने के लिए आया था । बाद में उसने प्रभुपाद को बताया कि वह भारत में आदिम जातियों का अध्ययन करने आया था। प्रभुपाद ने कहा कि वह केवल समय की बर्बादी थी। उन्होंने कहा, " आप आदिम जातियों का अध्ययन क्यों करना चाहते हैं ? आप उन्नत लोगों का अध्ययन क्यों नहीं करते ?” और प्रभुपाद ने एक कहानी का वर्णन किया : एक बार एक आदमी ने मकई का एक भुट्टा भूना और एक-एक दाने से उसका गूदा निकाल कर खाने लगा । इस तरह उसने कई घंटे बिता दिए । प्रभुपाद ने कहा उसने ऐसा इसलिए किया कि उसके पास करने को कोई और काम नहीं था, वह केवल समय बिताना चाहता था। ठीक उसी तरह मानव-विज्ञान समय की केवल बर्बादी है । प्रभुपाद ने पूछा, “आप किसी ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का अध्ययन क्यों नहीं करते जिससे आप कुछ सीख सकें ?" दिन में प्रभुपाद अपने कमरे के बाहर बैठ जाते थे और मौसम का आनंद लेते थे। वे कुर्ता नहीं पहनते थे। एक बार जब वे ताजा गन्ने का रस पीते हुए बैठे थे तो उनका स्वस्थ शरीर सुनहरी आभा विकीर्ण कर रहा था। वे बोले," वैकुण्ठ में ऐसा ही होता है। वहाँ सदैव शीतल, सुखद बयार बहती रहती है ।" वे प्राय: इधर-उधर घूमते रहते, मंत्र जपते रहते, कृष्ण के सम्बन्ध में वार्ता करते, भक्तों का कीर्तन सुनते और मंदिर के कार्यकलापों का अवलोकन करते । प्रभुपाद ने पुरी महाराज से पश्चिम में जाकर प्रचार करने का बार-बार आग्रह किया। उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि वे कम-से-कम इस्कान के भक्तों के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए मायापुर आएँ । प्रभुपाद को लगा कि हो सकता है कि उनके पाश्चात्य भक्तों को देख कर पुरी महाराज का उनके साथ हो लेने और प्रचार करने का मन हो आए । पुरी महाराज प्रभुपाद के साथ कलकत्ता और मायापुर जाने को सहमत हो गए। इस प्रकार विशाखापट्टनम के एक सुखद सप्ताह की समाप्ति हुई और प्रभुपाद, उनके शिष्य और पुरी महाराज साथ-साथ कलकत्ता जाने की तैयारी में लग गए। गुरुकृपा : हम बड़े सवेरे रेल्वे स्टेशन पहुँचे तो ट्रेन प्लेटफार्म पर आ चुकी थी । गर्मी बहुत थी और हम में से पाँच या छह भक्त कीर्तन कर रहे थे। और तब श्यामसुंदर नारियल के एक पेड़ पर चढ़ गए और सुन्दर नारियल तोड़ लाए। उन्होंने नारियल में सुराख किया और प्रभुपाद को दिया । प्रभुपाद डाभ पीने लगे। तब प्रभुपाद ने उसे श्यामसुंदर को दिया और उन्होंने भी पिया। तब प्रभुपाद ने कहा, "इसे कीर्तन करने वालों को दो ।" कीर्तन करने वालों में हर एक इतना प्यासा था कि उसे औरों के लिए छोड़ने का ध्यान भी नहीं था, किन्तु वह नारियल को आगे बढ़ाता तो फिर भी वह खाली न होता । मैने उसे उल्टा किया तो उसमें से डाभ निकल कर मेरी कमीज पर गिरने लगा और मैं उसे पीता रहा, पीता रहा। वह खाली होने को नहीं आता था। हम आश्चर्यचकित थे । प्रभुपाद मुसकरा रहे थे और हम कीर्तन कर रहे थे। हम सभी ठंडे हो गए और संतुष्ट थे । श्यामसुंदर : प्रभुपाद और मैं रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में थे जो दो व्यक्तियों का डिब्बा था। ट्रेन विशाखापट्टनम् और कलकत्ता के बीच, भारतीय गर्मी की रात में, खड़खड़ाती चली जा रही थी । प्रभुपाद बात और परिहास में लगे थे और टेप बजा रहे थे, जब तक कि रात के साढ़े दस नहीं बज गए। तब वे आराम करने लेट गए। मैने बत्ती बुझा दी । आधी रात के आसपास प्रभुपाद उठ बैठे और मेरा नाम लेकर पुकारा, “श्यामसुंदर, डिक्टेशन लो।” तब उनके स्पष्ट सुसंगत विचारों का प्रवाह आरंभ हो गया। इससे मैने केवल यही निष्कर्ष निकाला कि जब हम सोचते हैं कि प्रभुपाद सो रहे हैं उस समय वे सोते नहीं होते वरन् कृष्ण की अधिकाधिक सेवा करने की विधियों पर विचार करते हुए चिन्तन में लगे होते हैं । |