प्रभुपाद ने मायापुर में शिलान्यास समारोह को महाप्रभु चैतन्य के आविर्भाव दिवस, गौर - पूर्णिमा, २९ फरवरी १९७२ तक के लिए स्थगित कर दिया था। उनका अनुरोध था कि उस दिन विशाल पण्डाल - उत्सव मनाया जाय और अभ्यागतों को निःशुल्क भोजन कराया जाय। उनके संसार भर के शिष्यों को भी उस दिन आना था। मेरी बड़ी इच्छा है कि इस वर्ष यह उत्सव मैं अपने सभी शिष्यों के साथ मनाऊँ । ... यह बहुत महत्त्वपूर्ण दिवस है और यह श्रील भक्तिविनोद ठाकुर और उनके पुत्र श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की महती सेवा होगी। अतएव इस कार्यक्रम का आयोजन करें । दिसम्बर में जब मायापुर के निकट बंगलादेश के प्रश्न पर भारत और पाकिस्तान मेंयुद्ध छिड़ गया था तो भारत सरकार ने पश्चिम बंगाल के उत्तरी क्षेत्र में विदेशियों के रहने पर प्रतिबंध लगा दिया था। भक्त वहाँ से चले गए थे, और युद्ध समाप्त होने के कुछ सप्ताह बाद वे फिर लौट आए थे । उत्सव के आयोजन में वे बराबर लगे रहे थे और गौर - पूर्णिमा के कुछ दिन पूर्व प्रभुपाद उनके साथ रहने के लिए वहाँ पहुँच गए थे। जब प्रभुपाद ने बाँस पर एक पताका देखी जिस पर 'श्रील प्रभुपाद का स्वागत" अंकित था तो उन्होंने टिप्पणी की, “मैं नहीं जानता कि मेरे गुरुभाई इसे पसंद करेंगे।" वे पहले ही सुन चुके थे कि उनके कुछ गुरुभाइयों को इस बात पर आपत्ति थी कि उन्होंने वही उपाधि धारण कर रखी थी जो उन गुरुभाइयों के गुरु महाराज भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद की थी । वस्तुत: उन्होंने स्वयं यह उपाधि नहीं धारण की थी, वरन् उनके शिष्यों ने कुछ वर्ष पूर्व, अमेरिका सें यह उपाधि उन्हें दी थी। मई १९६८ में, जबकि प्रभुपाद बोस्टन में थे, वे एक पत्र लिखा रहे थे और उन्होंने अपने सचिव से कहा था कि आध्यात्मिक गुरु के लिए स्वामीजी की उपाधि वस्तुत: तृतीय श्रेणी की उपाधि है। तब उनके सचिव ने पूछा था, "तो हम आपको स्वामीजी क्यों कहते हैं ? " प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, "आध्यात्मिक गुरु को सामान्यतः गुरुदेव, विष्णुपाद या प्रभुपाद नाम से सम्बोधित करते हैं । ' उनके सचिव ने पूछा था, "तो क्या हम आप को प्रभुपाद कह सकते हैं ? " प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, “हाँ,” और तभी से उनके शिष्य स्वामी की बजाय उन्हें प्रभुपाद कहने लगे थे। एक शिष्य ने उनसे प्रभुपाद शब्द का अर्थ पूछा था और इस विषय पर बैक टु गाडहेड पत्रिका में एक वक्तव्य प्रकाशित कराया था : प्रभुपाद 'प्रभुपाद' वैदिक धर्म की परम्परा में अत्यन्त आदरसूचक शब्द है और यह संतों में भी महासंत के लिए प्रयुक्त होता है। इस शब्द के वास्तव में दो अर्थ हैं: प्रथम, प्रभुपाद का अर्थ है वह पुरुष जिसके पदों (चरणों) पर बहुत से प्रभू (जिसका अर्थ है स्वामी और जिसे गुरु के अनेक शिष्य, एक दूसरे को सम्बोधित करते समय, प्रयोग में लाते हैं) नतमस्तक हैं। एक दूसरा अर्थ है वह पुरुष जो सदैव भगवान् कृष्ण के चरणकमलों में रहता है । जिस शिष्य - परम्परा द्वारा कृष्णभावनामृत का मानव जाति में संवहन हुआ है, उसमें ऐसी आध्यात्मिक महत्ता के कई महापुरुष हो गए हैं जो प्रभुपाद कहलाए जा सकते हैं। श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद ने अपने गुरु महाराज श्री चैतन्य महाप्रभु की इच्छा का पालन किया, और इसलिए वे और उनके पार्षद् गोस्वामियों को प्रभुपाद कहते हैं। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की इच्छा का पालन किया, इसलिए उन्हें भी प्रभुपाद उपाधि से सम्बोधित किया जाता है। हमारे गुरु महाराज ओम् विष्णुपद १०८ श्री श्रीमद् भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज ने, उसी तरह श्री भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद की, पाश्चात्य संसार में कृष्ण - प्रेम का संदेश पहुँचाने की इच्छा का पालन किया है, इसलिए हम उनके अमरीकी और योरोपीय विनीत शिष्यों ने जो संकीर्तन आन्दोलन के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हैं, श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद के चरणचिह्नों का अनुगमन किया है और हम अपने कृष्णकृपाश्रीमूर्ति गुरु महाराज को प्रभुपाद की उपाधि से सम्बोधित करना चाहते हैं और उन्होंने अनुग्रहपूर्वक, "हाँ" कह दिया है। प्रत्येक व्यक्ति प्रभुपाद उपाधि से प्रसन्न था और किसी को इसका पूर्व ज्ञान नहीं था कि इस उपाधि से किसी की ईर्ष्या का भण्डाफोड़ होगा । प्रभुपाद भला अपने आध्यात्मिक गुरु महाराज के आदर के प्रतिद्वन्द्वी कैसे बन सकते थे ? वे तो अपने गुरु महाराज के विनम्र सेवक के रूप में अडिग थे । इस्कान के सदस्यों को अपने गुरु महाराज को प्रभुपाद कहने में कोई हानि नहीं दिखाई दी। और उन्हें कोई रोक नहीं सकता था — वे उनके प्रभुपाद थे। गौर - पूर्णिमा उत्सव के निमंत्रण-पत्र पर भी उन्होंने ए. सी. भक्तिवेदान्त प्रभुपाद छाप रखा था । किन्तु प्रभुपाद जानते थे कि इससे उनके कुछ आलोचक गुरुभाइयों की भौहें तन जायँगी । भक्तों के आवास की व्यवस्था का निरीक्षण करते हुए प्रभुपाद ने पाया कि लम्बे-चौड़े श्वेत केनवास के तम्बू लगे थे— एक पुरुषों के लिए और एक महिलाओं के लिए। उनके अंदर प्रतिदीप्ति प्रकाश की व्यवस्था थी । अन्य तम्बुओं के मध्य एक विशाल पण्डाल का तम्बू लगा था और उसके पीछे लगे छोटे तम्बू में रसोई-घर था । तम्बुओं के छोटे-से परिसर की चारों ओर धान के खेत थे । इसलिए जमीन किंचित् नम थी और जल से भरे खेतों में बड़े-बड़े मच्छर थे जो सूर्यास्त के साथ प्रकट हो जाते थे। आदिम युग की - सी स्थिति थी । किन्तु भक्तों में से बहुत-से वे ही भक्त थे जो प्रभुपाद के साथ भारत में डेढ़ वर्ष से यात्रा करते आ रहे थे; इस दौरान उन्हें कभी गंदी धर्मशालाओं के नंगे कमरों में रहना पड़ा था तो कभी इलाहाबाद जैसे स्थानों के ठंडे तम्बुओं में । भक्त मायापुर आराम से रहने नहीं, वरन् प्रभुपाद की सेवा करने, आए थे। आगामी वर्षों में, उनके प्रयासों के फलस्वरूप, बहुत से भक्त मायापुर में एकत्रित होकर उन विशाल भवनों में आराम से रह सकेंगे जिनकी योजना प्रभुपाद बना रहे थे। प्रभुपाद इस तथ्य से पूर्ण अभिज्ञ थे कि पाश्चात्यों को भारतीय जीवन की कठोरताओं का अभ्यास नहीं था, इसलिए वे उनके लिए ऐसी सुविधाओं की व्यवस्था करना चाहते थे जिससे वे भारत में सुविधापूर्वक रह कर, असुविधाओं से विचलित हुए बिना, आध्यात्मिक जीवन पर ध्यान केन्द्रित कर सकें। अतएव वे उन्हें प्रोत्साहित कर रहे थे कि वे मायापुर में ऐसा भवन निर्माण करने में विविध प्रकार से सहायता करें जिसमें नल का पानी, बिजली तथा अन्य सुविधाएँ उपलब्ध हों। प्रभुपाद का आवास लगभग १२ फुट का वर्गाकार एक फूस निर्मित बंगाली कुटीर था जिसका फर्श कच्चा था। मुख्य कमरे और सेवकों के आवास के बीच एक पतली सी दीवार थी । कुटीर के सामने एक बरामदा था और उसके पीछे बगीचा था जहाँ प्रभुपाद बैठते थे और मालिश कराते थे। पीछे की ओर स्नान के लिए एक हैंडपम्प और एक आउटहाउस भी था । जब भक्तों ने क्षमा-याचना की कि वे प्रभुपाद के लिए ऐसे ही मामूली आवास की व्यवस्था कर सके तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि उन्हें प्राकृतिक सरल परिवेश पसंद था। उन्होंने कहा, "यदि तुम मेरे लिए सब से विशाल महल निर्मित करा दो, फिर भी मैं यहीं रहना पसंद करूंगा। मायापुर में इतने सरल ढंग से रहते हुए भी प्रभुपाद अपनी भावी विशाल परियोजना की कल्पना के बारे में बात करते रहते थे । यद्यपि राधा-माधव के जिन विग्रहों की पूजा- अर्चना उन्होंने १९७१ के अर्धकुंभ मेले में इलाहाबाद में की थी और वे एक टेंट के अंदर स्थापित थे, फिर भी प्रभुपाद संगमरमर के महल की बात करते थे। वे अभ्यागतों और भक्तों के लिए भी प्रथम श्रेणी की आवास व्यवस्था की बात करते थे, यद्यपि इस समय तक उनके पास उन्हें उपलब्ध कराने के लिए कुछ भी नहीं था। अपने फूस के कुटीर में सरल ढंग से, किन्तु आनंदपूर्वक रहते हुए, प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को अपने पास बुलाया और उन्हें अपनी योजनाओं के बारे में बताया। उनके अनुरोध पर शिष्यों ने प्रस्तावित मुख्य भवन का एक छोटा-सा नमूना बनाया था और प्रस्तावित 'ह्यूमन अन्डरस्टैंडिंग' के मंदिर के भी कुछ नकशे बनाए थे। उन्होंने कहा कि वे मायापुर नगर का निर्माण करना चाहते थे जिसमें वर्णाश्रम की चारों सामजिक जातियों के लिए आवास होंगे । तत्पर: प्रभुपाद जब पाश्चात्य देशों में जाते थे तो बहुत-से महान् व्यक्ति उनसे भेंटवार्ता करते थे, लेकिन जब वे मायापुर आए तो लोगों से मित्रवत् बात करने लगे कभी शर्बत पीते हैं, कभी निर्देशन देते हैं। उनका जीवन एक सामान्य ग्रामीण जैसा हो गया है। उनके पाश्चात्य भक्त कभी-कभी सोचते हैं कि एक महान् राजा की तरह उनकी केवल एक लीला है; किन्तु जब वे भारत आते हैं तो वे अन्य व्यक्ति की तरह हो जाते हैं। वे एक मित्र की भाँति हँसने और बात करने लगते हैं । भवानन्द : अपने फूस के कुटीर में प्रभुपाद बाँस के मंच पर बैठे थे । वहाँ एक चारपाई पड़ी थी और फर्श पर कुछ चटाइयां बिछी थीं । बस; इतनी ही चीजें वहाँ थीं। अन्य स्थानों की तुलना में वहाँ वे अधिक प्रसन्न थे। हमने वहाँ एक पंखा भी रख दिया और प्रभुपाद ने इसे पसन्द किया। उन्होंने पसंद इसलिए किया कि वह बहुत साधारण था । वहाँ एक आउटहाउस भी था, किन्तु उन्हें उसका ध्यान ही नहीं था। वे हर वस्तु का आनन्द ले रहे थे। उन्होंने मुझे और जयपताक को मायापुर का सहनिदेशक बनाया । भवन निर्माण के हिसाब को चेक करने के लिए उन्होंने चार हस्ताक्षरकर्ता नियुक्त किए। भारत में कोई खाता खोलना बहुत कठिन है। हम देख रहे थे कि प्रभुपाद इस मामले में बड़े सख्त थे, क्योंकि वे जानते थे कि आप को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। यदि आप फार्म ठीक से नहीं भरते तो बैंक आपका पैसा रोक भी सकता है। या आप अपना खाता बंद करना चाहें तो वे मना कर सकते हैं। हमें लगता है कि हम बच्चे जैसे हैं। इसलिए प्रभुपाद हिसाब-किताब रखने और व्यवस्था देखने में हमें प्रशिक्षित कर रहे थे । जननिवास: पहली बार जब प्रभुपाद विग्रहों के दर्शन को आए तो उन्होंने पूछा, “विग्रहों को सजा कौन रहा है ?” किसी ने उत्तर दिया, " जननिवास । " विग्रह बिना किसी साज-सज्जा के एक टाइल के मंच पर खड़े थे । प्रभुपाद ने उन की ओर प्यार से देखा । वे प्रतिदिन आते थे और दर्शन करते थे। एक दिन वे विग्रहों के कक्ष में आए और मैं वहाँ नहीं था। कुछ भारतीय लोग दर्शन कर रहे थे और मैं उनके लिए बैक टु गाडहेड पत्रिका एक कमरे से लेने गया था जो करीब दस फुट दूर था। जब मैं लौटा तो प्रभुपाद वहाँ खड़े थे। वे भी दर्शन कर रहे थे। वे बोले, “तुमको यहाँ हमेशा उपस्थित रहना चाहिए। लोग आ-जा रहे हैं और यहाँ कोई नहीं है।” मैंने कहा, “श्रील प्रभुपाद, मैं बैक टु गाडहेड पत्रिका लेने गया था। वह कमरा यहाँ से केवल दस फुट दूरी पर है।” किन्तु उन्होंने मुझे देखा, मानो कह रहे थे, "तुम फिर अपनी सफाई दे रहे हो, बहाना बना रहे हो” तब उन्होंने भवानंद से कहा, " इस लड़के जननिवास को कोई सहायक चाहिए। वह हर काम नहीं कर सकता । वह एक मामूली बालक है। पाँच दिवसीय गौर - पूर्णिमा उत्सव में चौबीस घंटे कीर्तन की व्यवस्था थी जिसमें भक्तों के दल को दो-दो घंटे पर पाली बदलनी थी । प्रतिदिन प्रात: काल भक्तों का मुख्य दल कीर्तन का जुलूस बनाकर निकलता और नवद्वीप के पवित्र स्थानों की परिक्रमा करता । वे स्थान थे— वह नीम का वृक्ष जिसके नीचे महाप्रभु चैतन्य का आविर्भाव हुआ था; श्रीनिवास आचार्य का निवास, जहाँ महाप्रभु चैतन्य और उनके पार्षद रात में कीर्तन करते थे; वह स्थान जहाँ काजी ने महाप्रभु चैतन्य के संकीर्तन को रोकने का प्रयत्न किया था; भक्तिविनोद ठाकुर का निवास । प्रभुपाद ने भक्तों को बताया कि भक्तिविनोद ठाकुर प्रायः अपने इस मकान के सामने खड़े होकर जलांगी के उस पार देखा करते थे जहाँ अब प्रभुपाद की अपनी जमीन थी । " दिन-भर और विशेष कर शाम को भक्तों का दल पीली धारी वाले पण्डाल के मंच पर जमा रहता था और राधा-माधव एक पारम्पारिक बंगाली सिंहासन के मध्य में आसीन थे जो रंगीन पत्तियों और पुष्प - मालाओं से आच्छादित कदली- खंभों से बनाया गया था। सार्वजनिक भाषण का अधिकतर कार्य प्रभुपाद अपने शिष्यों से कराते थे; अच्युतानन्द स्वामी, जो बंगाली में बोलते थे; मुख्य भाषणकर्ता थे। हजारों लोगों के आने-जाने का तांता लगा रहता था और भक्तजन उनको बैक टु गाडहेड पत्रिका का अंग्रेजी, बंगाली या हिन्दी संस्करण देते रहते थे । शाम को वे एक स्लाइड शो या चलचित्र दिखाते थे । प्रभुपाद अपनी खिड़की से प्रसाद का वितरण देख कर बहुत प्रसन्न होते थे। हजारों ग्रामीण लंबी पंक्तियों में बैठे हुए गोल पत्तलों से उठा उठा कर खिचड़ी खाते थे। प्रभुपाद अपने शिष्यों से कहते थे, “ इसे हमेशा चालू रखो । प्रसाद का वितरण हमेशा करते रहो । " भवन के बिना भी प्रभुपाद का मायापुर में प्रचार महत्त्वपूर्ण था । आसपास के अन्य मठ भी गौर - पूर्णिमा उत्सव मना रहे थे —अधिकतर कलकत्ता की विधवाएँ शुल्क लेकर कुछ दिन के लिए मन्दिर में ठहराई जाती थीं जहाँ से उन्हें नवद्वीप के पवित्र स्थानों का दर्शन करना था; किन्तु प्रभुपाद का पण्डाल का कार्यक्रम अत्यन्त उत्साहपूर्ण था और सर्वाधिक संख्या में दर्शकों को आकृष्ट कर रहा था। प्रभुपाद ने कहा कि चैतन्य महाप्रभु के जन्मस्थान का, धर्मोपदेश के बिना, कोई अर्थ नहीं था। इस समय के अतिरिक्त साल भर मायापुर बहुत कम लोग जाते थे । प्रभुपाद ने पूछा, "अधिक महत्त्वपूर्ण क्या है ? महाप्रभु चैतन्य का जन्मस्थान या उनके कार्यकलाप ? अधिक महत्त्वपूर्ण थे उनके कार्यकलाप । उनके कार्यकलाप उनके जन्म या जन्मस्थान से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।” भगवान् चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलाप थे या हरे कृष्ण मंत्र का जप या कृष्ण के प्रेम का लोगों में वितरण । मायापुर में भक्तों का भी यही कर्म होना चाहिए । गौर - पूर्णिमा दिवस पर प्रभुपाद के दस संन्यासी गुरुभाई प्रभुपाद के शिष्यों और सैंकड़ों अभ्यागतों के साथ समर्पण और शिलान्यास समारोह में सम्मिलित होने के लिए आए। अपने गुरुभाइयों के प्रति प्रभुपाद विनम्र और मित्रवत् बने रहे और उन्हें संतोष था कि कृष्णभावनामृत संघ के विश्व मुख्यालय के समर्पण समारोह में वे सब एक साथ बैठ रहे थे । यज्ञकुण्ड के निकट एक गद्दी पर बैठे हुए और जपमाला फेरते हुए प्रभुपाद ने छह बंगाली भक्तों को दीक्षा दी और एक युवा अमरीकी भक्त को संन्यास आश्रम में दीक्षित किया। तब उनके गुरुभाई बोले और उनमें से प्रत्येक ने प्रभुपाद द्वारा पाश्चात्य देशों में किए गए कार्य की सराहना की । अंत में वे सब कुंड की चारों ओर इकट्ठे हो गए जो पाँच फुट लम्बा, पाँच फुट चौड़ा और पन्द्रह फुट गहरा था । शास्त्रों के अनुसार कुंड में रखने के लिए कुछ वस्तुएँ एकत्र की गई थीं, पाँच प्रकार के पुष्प, पाँच प्रकार के अन्न, पाँच प्रकार के पत्ते, पांच प्रकार की धातुएँ, पाँच प्रकार के अमृत, पाँच प्रकार के रंग, पाँच प्रकार के फल, पाँच प्रकार के रत्न । प्रभुपाद के गुरुभाई पुरी महाराज एक सीढ़ी से कुंड में नीचे उतरे, वहाँ उन्होंने एक पात्र में नारियल और केले के पत्ते रखे, और पुष्प - सहित उसे ईंटों से बनी वेदी पर स्थापित किया । उसके बाद प्रभुपाद अपने साथ एक सोने की गहरे लाल नेत्रों वाली अनन्तशेष की मूर्ति वाला एक डिब्बा लेकर नीचे उतरे। उस दिन सवेरे प्रभुपाद ने अपने कुटीर में कुछ भक्तों को गोपनीय ढंग से वह मूर्ति दिखाई थी। उन्होंने कहा था, "यह भगवान् अनन्त है, वह शेष शैय्या जिस पर भगवान् विष्णु विश्राम करते हैं। ये मंदिर को अपने सिर पर सुरक्षित रखेंगे।" प्रभुपाद ने अब अनंतशेष को ईंटों की वेदी पर स्थापित कर दिया और सीढ़ी से ऊपर आ गए। तब प्रभुपाद के आनंदमय आमंत्रण पर प्रत्येक व्यक्ति ने पुष्पों और धन की भेंट अर्पित की। उसके बाद मुठ्ठी मुठ्ठी मिट्टी की भेंट चढ़ाई गई । यद्यपि प्रभुपाद के गुरुभाइयों ने गौर - पूर्णिमा के दिन उनके पश्चिम में किए गए कार्यों की प्रशंसा की थी, किन्तु थोड़े दिन बाद वे प्रभुपाद के इस उपाधि के धारण करने पर आपत्ति करने आए। प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को कक्ष से चले जाने को कहा। जब वे अकेले रह गए तो एक संन्यासी गुरुभाई ने बंगाली में प्रभुपाद को चुनौती देना आरंभ किया, “आप अपने को प्रभुपाद क्यों कहते हैं? आप को इसका कोई अधिकार नहीं है। यह उपाधि तो हमारे प्रभुपाद की है। आप इसे धारण नहीं कर सकते।" प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “मैंने इसे धारण नहीं किया। वे मुझे प्रभुपाद कहते हैं। मैं क्या कर सकता हूँ ?” संन्यासी गुरुभाई तब प्रभुपाद की यह कह कर आलोचना करने लगे कि प्रभुपाद उनके प्रचार कार्य में सम्मिलित नहीं हो रहे थे और पाश्चात्यों का यज्ञोपवीत करा रहे थे और उन्हें संन्यास आश्रम में दीक्षित कर रहे थे, किन्तु मुख्य रूप से गुरुभाई स्वामीजी से इस बात की व्याख्या चाहते थे कि वे प्रभुपाद की उपाधि क्यों धारण किए हुए हैं। प्रभुपाद ने पुकारा, "ब्रह्मानंद महाराज, मेरे नाम का एक पत्र पैड लाओ ।" जब ब्रह्मानंद महाराज पत्र पैड लेकर लौटे तो प्रभुपाद ने उसे अपने गुरुभाइयों को दिखाया । पत्र पैड में छपा था “त्रिदण्डी गोस्वामी ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी ।' वहाँ 'प्रभुपाद' नहीं था । इससे यह सिद्ध हो गया कि वे स्वयं इस उपाधि का प्रयोग नहीं करते थे। उनके इस साधारण प्रदर्शन से उनके गुरु भाई शान्त हो गए। और तब उन्होंने प्रसादम् ग्रहण करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया । उनके शिष्य प्रसादम् परोसने लगे । बाद में अपने कुटीर में प्रभुपाद ने अपने शिष्यों से ईर्ष्या पर बात की । उन्होंने कहा कि कोई भक्त अपनी उन्नति की परख केवल इस बात से कर सकता है कि वह ईर्ष्या से कितना मुक्त हो सका है। आध्यात्मिक संसार में ईर्ष्या का कोई स्थान नहीं होता । यद्यपि कृष्ण के सभी मुक्त पार्षद् उनकी सेवा में प्रतिद्वन्द्विता जैसे लगे रहते हैं, किन्तु वे एक-दूसरे से बराबर प्रसन्न रहते हैं । यदि राधाराणी या कोई अन्य गोपी कृष्ण को प्रसन्न कर लेती है तो अन्य गोपियाँ उसका अहित नहीं सोचतीं वरन् कहती हैं, "ओह! उसने कृष्ण की सेवा कितने बढ़िया ढंग से की है। मैं भी कृष्ण की सेवा किसी अच्छे ढंग से करूँ ताकि वे इससे भी अधिक प्रसन्न हों। ” ईर्ष्यालु होना भौतिकतावादी होने का लक्षण है। प्रभुपाद चाहते थे कि उनके गुरुभाई और ही दृष्टिकोण अपनाते । वे चाहते थे कि उनके शिष्यों द्वारा उन्हें प्रभुपाद कहे जाने पर गुरुभाइयों को आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी। उन्हें इस बात का भी दुख था कि उनके कुछ गुरुभाई सच्चे मन से उनके कार्य की प्रशंसा नहीं कर सके। यदि भक्तिसिद्धान्त सरस्वती, प्रभुपाद के माध्यम से, सफलतापूर्वक कार्य कर रहे थे तो गुरु-भाइयों को क्षुब्ध क्यों होना चाहिए था ? वे उनके कार्य को स्वीकार क्यों नहीं करते और प्रसन्न क्यों नहीं होते कि महाप्रभु चैतन्य के संदेश का प्रचार प्रभावशाली ढंग से हो रहा है ? इसे तो उन्हें भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का कार्य समझना चाहिए, अपने गुरु महाराज का कार्य । यह उनका भी कार्य था, उनका भी दायित्व था और उन्हें मानना चाहिए कि भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज के माध्यम से उनका यह कार्य आश्चर्यजनक ढंग से हो रहा है। शिलान्यास समारोह में गुरुभाइयों ने प्रभुपाद के कार्य की सराहना की थी । अतएव यदि उनकी सराहना करने में उन्हें आपत्ति नहीं थी तो वे क्यों नहीं मानते कि उन सैंकड़ों पाश्चात्यों के लिए, जिन्हें उन्होंने नरक से बचाया है, वे प्रभुपाद हैं, एक ऐसा एकान्त शुद्ध भक्त जिसे वे सदैव ही कृष्ण के चरणकमलों में लीन समझते हैं । प्रामाणिक ग्रंथों के प्रकाशन और वितरण, दीक्षित किए गए और सेवा भक्ति में प्रवृत्त किए गए शिष्यों की संख्या तथा निर्माण किए गए मंदिरों की संख्या के मामले में प्रभुपाद की समानता कोई नहीं कर सकता था । निस्सन्देह एक अर्थ में प्रभुपाद के सभी गुरुभाई समान रूप से प्रशंसनीय थे जब तक कि वे भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के मूल आदेशों का पालन करते थे, हरे कृष्ण जपते थे और पापपूर्ण जीवन से बचते थे। किन्तु यदि ठीक तरह से विश्लेषण या आलोचना ही करनी है तो प्रचार कार्यों का रेकार्ड देखा जाय । भगवान् नित्यानंद की कृपा का सबसे अधिक विस्तार कौन कर रहा है और भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की ओर से सब से अधिक लाभ किसने अर्जित किया है ? ऐसा लाभ जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । चैतन्य चरितामृत के अनुसार यदि कोई प्रचारक हरे कृष्ण कीर्तन का प्रचार करता है तो उसे भगवान् की ओर से शक्ति - समन्वित मानना चाहिए । प्रभुपाद निश्चित रूप से शक्ति - समन्वित थे, किन्तु व्यवहार में वे अपने को बहुत ही विनम्र रखते थे; उन्हें दूसरों से कोई सहायता नहीं मिलती थी। उन्होंने अपने गुरुभाइयों को बार-बार आमंत्रित किया था कि पश्चिम में वे उनका साथ दें और कृष्णभावनामृत के प्रचार में उनके समकक्ष बनें। तो अपने गुरु महाराज के मिशन को पूरा करने में वे उनकी सहायता के लिए आगे क्यों नहीं बढ़े थे? इसके विपरीत वे उनके विरुद्ध, उस एक गुरुभाई के विरुद्ध, शिकायत कर रहे थे जो श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के मिशन को पूरा करने में लगा था । किन्तु प्रभुपाद के शिष्यों के लिए यह कोई आलोचना का स्थान नहीं था और उन्होंने कड़े शब्दों में शिष्यों को आगाह कर दिया था कि गुरुभाइयों की आलोचना करने के पद पर वे नहीं हैं। उन्हें चाहिए कि प्रभुपाद के गुरुभाइयों को भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का शिष्य समझें और इसलिए अपने गुरु महाराज के समान ही उन्हें आदर दें। किन्तु प्रभुपाद के शिष्यों को इस बात का खेद था कि उनके गुरुभाई में प्रभुपाद के प्रति आदर का अभाव था। वे विनम्र बने रह सकते थे और प्रतिवाद करने से अपने को रोक सकते थे, किन्तु वे उन व्यक्तियों के प्रति स्नेहिल कैसे हो सकते थे जो उनके गुरु महाराज की और उनके कृष्णभावनामृत आंदोलन की आलोचना करते हों ? पाँच दिवसीय उत्सव के बाद प्रभुपाद ने मायापुर से वृंदावन के लिए प्रस्थान किया जहाँ वे एक दूसरे महत्त्वपूर्ण उत्सव की योजना बना रहे थे। मायापुर की जमीन अब भी पूर्णतया अविकसित थी और प्रभुपाद ने भारत में रह रहे अपने शिष्यों पर जोर डाला कि वे आवश्यक धन संग्रह करते रहें । हम मायापुर में एक बहुत शानदार योजना बना रहे हैं और यदि तुम सब लोग मिल कर इस योजना को साकार बनाओगे तो यह सारे संसार में बेजोड़ होगी । आध्यात्मिक जीवन की शिक्षा के लिए यह विश्व केन्द्र बन जायगी। सारे संसार के विद्यार्थी यहाँ आएँगे और हम धूर्त दार्शनिकों की नास्तिक और भौतिकतावादी प्रवृत्तियों में क्रान्ति ला देंगे । इसलिए हमें इस महान् कार्य का दायित्व लेना चाहिए। हमें एक क्षण भी इस्कान के विचार के बिना नहीं रहना है। यही मेरा आप सब से अनुरोध है । *** फरवरी १९७२ वृन्दावन से प्रभुपाद की अनुपस्थिति के बीच, भक्तजन मि. एस. से इस्कान के लिए उनकी जमीन को प्रयोग में लाने की कानूनी अनुमति प्राप्त करने में, असफल रहे थे। प्रभुपाद ने अपने एक शिष्य, क्षीरोदकशायी को, जो जन्म से भारतीय थे, आग्रहपूर्वक निर्देश दिया था कि वे मि. एस. से औपचारिक पट्टा प्राप्त कर लें। क्षीरोदकशायी ने मि. एस. से अनुरोध किया था और उनका अनिश्चय देख कर उन्होंने श्रीमती एस. से बात की और फिर दोनों से एक साथ उनकी वार्ता हुई थी । मिस्टर और मिसेज एस. इस बात पर सहमत थे कि चूँकि वे दोनों निश्चय नहीं कर पा रहे थे इसलिए वे मामले को स्वयं राधाराणी के समक्ष रखेंगे। मिसेज एस. ने क्षीरोदकशायी से कहा था कि वे कागज के दो टुकड़े लें और एक पर 'हाँ' तथा दूसरे पर 'नहीं' लिखें। तब उन्होंने उन टुकड़ों को मोड़ कर उन्हें परिवार के उपास्य राधा-कृष्ण के समक्ष रख दिया था । फिर उन्होंने क्षीरोदकशायी से एक टुकड़ा उठाने को कहा था। क्षीरोदकशायी ने एक टुकड़ा उठाया था और राधा-कृष्ण तथा मिसेज एस. और स्वयं अपनी उपस्थिति में उसे खोला था। उस पर 'हाँ' शब्द लिखा था। जब प्रभुपाद ने यह समाचार सुना था तो वे बहुत आनंदित हुए थे । मैं आपसे विशेष रूप से प्रसन्न हूँ कि आपने कृष्ण के लिए मि. एस. की जमीन प्राप्त कर ली है। अब यहाँ वृंदावन में एक अद्भुत केन्द्र बनाने के लिए, आइए, हम सहयोग करें । मार्च १९७२ में प्रभुपाद मि. एस. के साथ अनुबंध पर हस्ताक्षर करने और शिलान्यास समारोह आयोजित करने वृंदावन लौटे। राधा दामोदर मंदिर के गोस्वामियों की अनुमति से उन्होंने अपने शिष्यों के लिए आवास की व्यवस्था की, ताकि जब तक रमण - रेती में मंदिर बने, वे वहाँ रह सकें । यमुना : ऐसा हुआ कि ठीक उसी समय, जब उस दिन सवेरे गोस्वामी लोग राधा - दामोदर मंदिर के कमरों में शिष्यों के रहने के लिए अनुबंध-पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले थे, तभी बिजली चली गई। प्रभुपाद के सचिव के पास केवल एक बिजली से चलने वाली टंकणमशीन थी, इसलिए मैंने प्रभुपाद को स्मरण कराया कि मैं सुलेख में प्रशिक्षित थी । मेरे पास मेरे कलम थे । इसलिए प्रभुपाद ने तुरंत अपनी वांछनीय मसौदा तैयार किया और मैं उसे लेकर एक दूसरे कमरे में गई। वहाँ बैठ कर मैने मसौदे को हाथ से लिख डाला और प्रत्येक कैपिटल अक्षर को सुनहरे रंग से अलंकृत भी कर दिया । पन्द्रह मिनट के अंदर हमने उसे श्रील प्रभुपाद के सम्मुख प्रस्तुत किया । प्रभुपाद ने उस मसौदे को प्रसन्नतापूर्वक गोस्वामियों को दिखाया और कहा, "देखिए, मेरे शिष्य हर बात में विशेषज्ञ हैं।" अब शिष्यों को राधा - दामोदर मंदिर में स्वामीजी के कक्ष के ठीक ऊपर रहने की अनुमति मिल गई और उन्हें स्वामीजी के कमरों की सफाई के लिए, उनमें जाने की भी सुलभता थी । प्रभुपाद को लगा कि यह बड़ा अच्छा अवसर था कि राधा - दामोदर मंदिर में उनके कमरों के आरक्षण के लिए कुछ लिखा-पढ़ी हो गई । रमण-रेती की जमीन के सौदे को अंतिम रूप देने के लिए प्रभुपाद तथा मि. एस. मथुरा में मजिस्ट्रेट की कचहरी गए। वहाँ वकीलों की उपस्थिति में सारी औपचारिकताएँ पूरी की गईं। प्रभुपाद ने इसे कृष्ण की कृपा ही समझा कि वृंदावन में उन्हें अच्छी जमीन मिल सकी। उन्होंने अमेरिका के अपने जी. बी. सी. सचिवों को लिखा कि अधिक से अधिक आदमी भेज कर वे इस नवीन परियोजना में सहायता करें। उन्होंने “ रूप और जीव गोस्वामियों के नाम पर वृंदावन में आध्यात्मिक जीवन के पुनर्जागरण के लिए एक भव्य केन्द्र स्थापित करने का " अपना मन्तव्य प्रकट किया | प्रभुपाद ने क्षीरोदकशायी से कहा, “मैं चाहता हूँ कि इस अवसर पर बृहत् मात्रा में प्रसादम् तैयार किया जाय और वृंदावन के प्रत्येक व्यक्ति को आमंत्रित किया जाय कि वह आए और प्रसादम् ग्रहण करे ।" दो दिन बाद करीब एक सौ लोगों की उपस्थिति में प्रभुपाद ने रमण - रेती में शिलान्यास समारोह सम्पन्न किया । पुनः वे कुण्ड में नीचे उतरे और अनंत देव को स्थापित किया जिनके शिर पर मंदिर टिका रहेगा। किन्तु देर रात में लोगों ने उस भूमि पर हमला कर दिया। एक भारतीय वृद्धा विधवा, जिसकी ख्याति एक साध्वी के रूप में थी, इस बात को लेकर रुष्ट थीं कि उसकी बार-बार की प्रार्थना पर भी मि. एस. ने यह जमीन उसे नहीं दी थी। उसने रात में गुण्डे भेजे थे कि वे जाकर शिलान्यास की ईंटों की नींव उखाड़ दें और उस कुण्ड को, जो उस दिन पुष्पों और धार्मिक सामग्रियों से भरा गया था, अपवित्र कर दें। गुण्डों ने कुंड को खोद कर उसमें कूड़ा डाल दिया और वह नाम - पट्ट चुरा ले गए जिसमें जमीन के नए स्वामित्व का उल्लेख था । प्रभुपाद राधा - दामोदर मंदिर के अपने कमरे में थे जब उन्होंने जो घटना घटी थी, उसके बारे में सुना । वे क्रुद्ध हुए और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे जाकर पुलिस को इकरारनामा दिखाएँ । उस रात कई पुलिस वाले उस भूमि की रखवाली करते रहे और जब फिर से भाड़े के गुण्डे आए तो पुलिस ने उन्हें आगाह किया कि यदि वे और अधिक उत्पात करेंगे तो उन्हें कैद कर लिया जायगा । और इस तरह झगड़ा निपट गया । प्रभुपाद अनेक बार कह चुके थे कि भक्त बन कर मनुष्य बहुत-से शत्रु उत्पन्न कर लेता है। इस घटना से प्रभुपाद के इस विश्वास की भी पुष्टि हो रही थी कि इस्कान के भूमि पर अधिकार होते ही तुरन्त उस पर मंदिर - निर्माण का कार्य आरंभ हो जाना चाहिए, कम-से-कम उस भूमि को बाड़ से घेर कर उस पर झोपड़ियाँ बना लेनी चाहिए और मंदिर निर्माण की तैयारी करते हुए उनमें रहने लग जाना चाहिए । तेजास : प्रभुपाद ने कहा, "यह कृष्ण-बलराम मंदिर होगा ।" हमें ठीक से पता नहीं था कि क्या हो रहा है। हम सभी सोचते कि वह बहुत दूर है। किन्तु वह सचमुच रमण - रेती थी । वहाँ कोई नहीं रहता था । वह एकदम एकान्त स्थल था। वहाँ केवल बहुत से डाकू रहते थे। हमने सोचा, “यदि वहाँ हमारा मंदिर बनेगा तो कभी कोई नहीं जायगा ।” किन्तु प्रभुपाद बोले, “जहाँ कहीं भी कृष्ण हैं, वहाँ सभी लोग आएँगे ।" प्रभुपाद के सचिव, श्यामसुंदर ने अपने एक गुरुभाई को नई प्राप्त की गई वृंदावन की जायदाद के बारे में लिखा । आज बड़े तड़के, नाश्ते के पहले ही, प्रभुपाद ने राधा दामोदर मंदिर से दस मिनट की दूरी पर रमण-रेती में दान में प्राप्त ४८०० वर्ग गज जमीन का भ्रमण किया, जहाँ कृष्ण अपने सखाओं के साथ वन-क्रीड़ा किया करते थे । प्रभुपाद ने अपनी मच्छरदानी की रस्सी से भूमि को नापा, उसका सौदा तय किया, उसके लिए योजनाएँ बनाईं, मसौदा तैयार किया, मथुरा मजिस्ट्रेट की कचहरी में गए, मसौदे पर हस्ताक्षर कराया, उस पर मोहर लगवाई और उसे तुरन्त प्राप्त किया। प्रभुपाद ने मुझसे कहा है कि अमेरिका से कम-से-कम पचास व्यक्ति अविलम्ब भेजने के लिए मैं आप से प्रार्थना करूँ । अन्ततः हमने भारत में एक ठोस कार्यक्रम पा लिया है : मायापुर, वृंदावन और बम्बई की विशाल योजनाओं के रूप में। सारी जमीनें प्राप्त कर ली गई हैं। योजनाएँ बन गई हैं— और यह सब अकेले प्रभुपाद के हाथों हुआ है। लेकिन हम थोड़े-से लोग ही यहाँ हैं जो एक विराट कार्य से संघर्ष कर रहे हैं— इन तीनों जमीनों को विकसित करना सोसाइटी के अब तक के कामों में सब से बड़ा काम है । और विश्वास मानें, ये तीनों योजनाएँ प्रभुपाद को, अब तक विचाराधीन योजनाओं में सब से प्रिय हैं। *** प्रभुपाद महीना भर बम्बई से बाहर थे ( उन्होंने बम्बई १० फरवरी को छोड़ा था) और उस बीच पचास हजार रुपए का भुगतान ठीक ढंग से कर दिया गया था। धीरे-धीरे करके कुछ भक्त जुहू के भूखण्ड पर पहुँच गए थे और एक तम्बू में रहने लगे थे। रात में चूहे और मच्छर भक्तों की नींद में बाधा डालते थे। आवश्यकता से अधिक उगे घास-पात को साफ करते समय भक्तों को बहुत सारी खाली शराब की बोतलें और ऊपर बहते मल के नाले मिले । प्रभुपाद के बिना भक्तों का उत्साह ढीला पड़ने लगा था । किन्तु तभी ब्रह्मानंद स्वामी कलकत्ता से, जहाँ वे श्रील प्रभुपाद के साथ थे, आ गए। ब्रह्मानंद स्वामी उत्साह से भरे थे और उन्होंने बम्बई के भक्तों को नई प्रेरणा दी। उन्होंने भक्तों से कहा कि तुम लोगों को अविलम्ब जमीन साफ करके पण्डाल लगाना है। ब्रह्मानंद स्वामी ने पण्डाल - कार्यक्रम का आयोजन पहले कभी नहीं किया था। उन्होंने एक ठेकेदार को ठेका दिया कि वह भक्तों के लिए चटाइयों की झोपडियाँ बनाए और उत्सव के लिए तम्बू लगाए। लेकिन यह सब शुरू होने के पहले भक्तों को जमीन साफ करनी थी । मि. सेठी ने, जो एक पड़ोसी और संघ के आजीवन सदस्य थे, झाड़ियाँ और घासफूस काटने के लिए किराये पर लेकर एक कर्मीदल लगा दिया। और बम्बई के अन्य कई आजीवन सदस्य तथा मित्र सहायता के लिए आगे आए। मि. एन. ने भी अपने एक सहायक, मि. मातर, को मैदान की सफाई में लगे मजदूरों की देखभाल के लिए भेज दिया । प्रभुपाद के लौटने की तैयारी में भक्त भी काम में लग गए । श्री श्री राधा - रासबिहारी के विग्रह एक टैक्सी द्वारा अनेक भक्तों की गोद में सवार हरे कृष्ण लैंड में पहुँच गए। पहले भी उनके स्थान में परिवर्तन हुआ था, और इस बार उनका आवास तम्बू था। पहली बार वे बम्बई के भक्तों के साथ बम्बई के क्रास मैदान में सम्पन्न पण्डाल - कार्यक्रम में आए थे। उस अवसर पर चौपाटी समुद्र तट तक एक जुलूस निकाला गया था और जब भक्तगण पहुँचे थे तब राधा - रासबिहारी सुंदर परिधान पहने, अलंकृत और सजी - सजाई पालकी में आसीन उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। कृष्ण श्वेत संगमरमर के थे और हाथ में चाँदी की बाँसुरी लिए थे; राधाराणी का दाहिना हाथ आगे की ओर उठा हुआ वरदान की मुद्रा में था । वे दोनो बहुत सुंदर थे । चौपाटी के मैदान पर पहली बार प्रकट होकर राधा - रासबिहारी आकाशगंगा भवन में चले गए थे जहाँ भक्तों ने पूजा-अर्चन का क्रमशः काफी अच्छा स्तर प्राप्त कर लिया था। जब प्रभुपाद ने आदेश दिया था कि ज्योंहीं नगद भुगतान हो जाय राधा - रासबिहारी को जुहू की जमीन पर पहुँच जाना चाहिए तो भक्तों ने पूछा था, “सुविधाएँ तैयार होने के पहले विग्रहों को वहाँ क्यों जाना चाहिए ? क्या उन्हें मंदिर बनने तक प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए ?" प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, "जब किसी विग्रह की किसी जायदाद पर स्थापना हो जाती है तो उसे कोई हटाएगा नहीं ।" राधा - रासबिहारी की पूजा-अर्चना समुचित ढंग से हो, इसका औरों की अपेक्षा प्रभुपाद को अधिक ध्यान था, किन्तु इस समय उनका जोर जमीन प्राप्त करने पर था। उन्होंने तर्क दिया कि राधा - रासबिहारी को अन्ततः वे मंदिर और राजसिंहासन किस प्रकार दे सकेंगे, जब तक वे स्वयं हरे कृष्ण लैंड पर अपना अधिवास बनाकर उस पर अपना स्वामित्व न स्थापित करें ? जुहू की जमीन पर राधा - रासबिहारी के पहुँचने से भक्तों की कठिनाइयाँ बढ़ गईं थीं, जिन्हें प्रात:कालीन पूजा को बनाए रखना था और छोटे-से रसोई घर में विग्रहों पर चढ़ाने के लिए प्रतिदिन छह-छह बार भोग तैयार करना पड़ता था । राधा - रासबिहारी का तम्बू भी कमजोर था और हवा में डगमगाता था । किन्तु श्रील प्रभुपाद ने इस कार्यवाही को आवश्यक और दिव्य चाल के रूप में देखा। वे निश्चिन्त थे कि जिसका भी उस मामले से सम्बन्ध था—वे स्वयं, जमीन का स्वामी, अथवा बम्बई नगरपालिका — वह स्वीकार करेगा कि चूँकि कृष्ण वहाँ रह रहे हैं इसलिए जमीन उनकी है । और चूँकि वे कृष्ण से भी इन असुविधाओं को स्वीकार करने के लिए कह रहे थे, इसलिए उन्होंने अर्चा-विग्रह से प्रार्थना की, “महोदय, यहीं रहिए, और मैं आपके लिए एक सुन्दर मंदिर बनवा दूँगा ।" जब प्रभुपाद बम्बई लौटे तब तक राधा - रासबिहारी पंडाल के मंच पर स्थापित हो चुके थे । यहाँ पर उतने लोग नहीं आ रहे थे जितने पुरानी बम्बई में आए होते । प्रत्येक रात पाँच सौ लोगों से अधिक नहीं होते थे । किन्तु प्रभुपाद संतुष्ट थे। यह उत्सव उनकी निजी जायदाद में आयोजित था और यह तो अभी शुभारम्भ ही था । हर शाम को प्रभुपाद पण्डाल में व्याख्यान देते, कीर्तन में शामिल होते और राधा - रासबिहारी की आरती करते । पञ्चद्रविड स्वामी ने पाँच टन दाल, चावल और आटा का अनुदान प्राप्त किया था । और भक्तजन नियमित रूप से १२५ लोगों के लिए खिचड़ी का नि:शुल्क प्रसादम् तैयार करते थे। शाम को स्वयं प्रभुपाद विग्रहों के थाल उठाकर हलवा का वितरण करते थे और उस प्रसादम् को प्राप्त करने के लिए भीड़, जिसमें नगर के धनी व्यवसायी और उनकी पत्नियाँ भी होती थीं, आपस में धक्कमधक्का करती थी । प्रभुपाद को उत्सव इतना पसंद आया कि उन्होंने भक्तों को उसे स्थायी रूप में बनाए रखने के लिए पण्डाल की व्यवस्था करने को कहा । अन्य भक्तों की तरह प्रभुपाद भी उसी भूखण्ड पर एक तम्बू में तब तक रहे जब तक कि एक मि. आचार्य ने, जो उसी जायदाद के पिछले हिस्से में अपेक्षया अधिक अनुकूल किराएदार की तरह रह रहे थे उन्हें अपने घर में रहने के लिए आमंत्रित नहीं किया । जुहू पहुँचने के कुछ दिन के अंदर प्रभुपाद भूमि पूजन और शिलान्यास के लिए तैयार हो गए। जमीन पर कब्जा पाने की यह उनकी अगली चाल थी, किन्तु यह कदम चाल से भी कुछ बढ़कर था, क्योंकि वे चाहते थे कि मंदिर जितना शीघ्र हो सके बन जाय । राधा - रासबिहारी को एक टेंट में खड़ा नहीं रखना था, वरन् उन्हें संगमरमर के मंच पर चाँदी और सागौन के सिंहासन पर आसीन करना था । उन्हें दो गोपियों, ललिता और विशाखा के विग्रहों से घिरा होना चाहिए और उनके मंदिर के संगमरमर का गुम्बद सौ फुट से अधिक ऊँचा होना चाहिए। हजारों लोगों को वहाँ प्रतिदिन दर्शन और प्रसादम् के लिए आना चाहिए। एक दिन उत्सव के कार्यकलापों के बीच, हरे कृष्ण लैंड के भक्तों को साथ लेकर, प्रभुपाद ने सीधेसादे समारोह में शिलान्यास सम्पन्न किया। उन लोगों ने गहरा अनुष्ठानिक कुंड खोदा था और उसे ईंटों से घेर दिया था; प्रभुपाद उसमें नीचे उतरे और उन्होंने शेष के विग्रह को स्थापित कर दिया। तब एक सादे मंच पर बैठ कर पीतल का घंटा बजाते हुए उन्होंने कीर्तन कराया, जबकि भक्तजन एक-एक करके उनके सामने से आकर कुंड को भरने के लिए उस में मिट्टी डालते रहे और यज्ञ की अग्नि से धुआँ उठता रहा । प्रभुपाद यह जान कर क्रुद्ध हुए कि ब्रह्मानन्द स्वामी पण्डाल - निर्माण के लिए ठेकेदार को चालीस हजार रुपए देने को राजी हो गए थे। फिर वही पुरानी बात हुई— भोले-भाले पाश्चात्य शिष्य ठगे गए । प्रभुपाद ने पैसा देने से इनकार कर दिया, उन्होंने कहा चार हजार रुपए भी ज्यादा हैं। जब ठेकेदार उनसे मिलने आए तो प्रभुपाद ने उनसे कह दिया कि उनके पास पैसे नहीं है और ठेकेदारों को चार हजार रुपए से संतोष करना चाहिए। उन लोगों ने प्रतिवाद किया, लेकिन प्रभुपाद क्रुद्ध हो उठे और आग्रहपूर्वक बोले, "इसे स्वीकार करो। इसमें भी तुम्हें पाँच सौ प्रतिशत का लाभ है।' प्रभुपाद ने बाद में कहा, " वे ज्योहीं हम लोगों को देखते हैं, तो कहते हैं, 'ये अमरीकी, इनके पास बहुत पैसा है।' भारत में हमारा काम चल रहा है। किन्तु जहाँ तक पैसे खर्चने की बात है उसका पचास प्रतिशत तुम अमरीकियों के अनुभवहीन होने के कारण नष्ट हो रहा है । किया क्या जाय ? ये भारतीय तुम्हारा पैसा चाहते हैं और वे बुरी तरह ठगते हैं । " पण्डाल - उत्सव के दौरान पड़ोस में रहने वालों को कीर्तन के लाउडस्पीकरों से बड़ी बाधा पहुँची थी। वे पहले ही क्षुब्ध थे कि उनके मकान मालिक मि. एन. कोठरियों की मरम्मत कराने में बहुत सुस्त थे और मरम्मत के न होने से, उन्हें कभी - कभी सप्ताह भर नल से पानी नहीं मिल पाता था। बीस से अधिक अमरीकी भक्तों के साथ रहने को विवश होने से उनका असंतोष और भी बढ़ गया था। कुछ पड़ोसी धर्म परिवर्तन से ईसाई बने हुए थे, इसलिए वैष्णव मत के प्रति उनकी सहानुभूति नहीं थी । उन्हें यह भी डर था कि उनके बच्चे कहीं फिर हिन्दू न बना लिए जायँ । कुछ किरायादारों को शिकायत थी कि भक्तजन उनके निजी जीवन में बाधक हो रहे थे, कुछ उनकी आलोचना उनके आपस में तर्क-वितर्क करने के कारण करते थे और अन्य कुछ इसलिए आलोचना करते थे कि अविवाहित पुरुष और स्त्रियाँ उनके बिल्कुल पड़ोस में रह रहे थे, भले ही उनके रहने के स्थान अलग हों। किन्तु कुछ पड़ोसियों की समझ में यह बात आ रही थी कि पाश्चात्य वैष्णव पूरी निष्ठा से राधा और कृष्ण की उपासना के लिए संघर्ष - रत थे । जो भी हो, कोई भी किराएदार प्रभुपाद की आलोचना नहीं करता था और जब वे उपस्थित होते थे तो यदि कोई झंझट हुई भी, तो उसका समाधान कर देते थे । किन्तु प्रभुपाद जानते थे कि उनके जाने के बाद स्थिति आसानी से विस्फोटक हो सकती थी । प्रभुपाद एक विस्तृत विश्व भ्रमण की योजना बना रहे थे जिसमें वे पूर्व की ओर से आस्ट्रेलिया, जापान, हवाई द्वीप, अमेरिका और संभवत: मेक्सिको और योरोप की यात्रा करने वाले थे। उनके भारत लौटने में छह मास भी लग सकते थे और वे चाहते थे कि उनकी अनुपस्थिति में बम्बई में कार्य सुचारु रूप से चलता रहे। प्रभुपाद के प्रस्थान से कुछ दिन पहले मधुद्विष स्वामी ने शिकायत की — “यहाँ मैं कोई उत्साह नहीं अनुभव करता हूँ। मुझे लगता है कि मुझे कुछ, परिवर्तन की आवश्यकता है।" प्रभुपाद ने पूछा कि वे कहाँ जाना चाहते थे और मधुद्विष ने उत्तर दिया कि वे आस्ट्रेलिया जाने के बारे में सोच रहे थे। प्रभुपाद बोले, “हाँ, मैं वहाँ जा रहा हूँ। आप भी चलें । " ब्रह्मानन्द स्वामी ने प्रभुपाद को बताया कि उनकी अनुपस्थिति के कारण नैरोबी में धर्मोपदेश ढीला पड़ रहा था और प्रभुपाद सहमत हो गए कि ब्रह्मानंद स्वामी को अपने कार्य पर वहाँ लौट जाना चाहिए। प्रभुपाद को बम्बई के लिए फिर एक नया प्रबन्धक चुनना था और इस बार उन्होंने गिरिराज को चुना जो एक तरुण ब्रह्मचारी था और इस्कान के आजीवन सदस्य बनाने में अग्रणी था। प्रभुपाद ने तर्क किया कि चूँकि प्रबन्ध में मूल बात दान एकत्र करना और आजीवन सदस्य बनाना है और चूँकि गिरिराज इस कार्य में पटु है अतः वह भले ही तरुण और अन्यथा अनुभवहीन हो, उसमें इस पद के लिए अत्यावश्यक सभी गुण थे। प्रभुपाद देख चुके थे कि गिरिराज सरल था और हरे कृष्ण लैंड के विकास में उसने विनयपूर्ण समर्पण के साथ उनकी सहायता की थी । गिरिराज: प्रभुपाद ने पूछा “गिरिराज, क्या तुम यह करोगे ?” मैने कहा, “हाँ, श्रील प्रभुपाद, आप जो कुछ कहेंगे, मैं करूँगा ।" मैं इस विषय में वास्तव में बहुत प्रसन्न नहीं था, किन्तु मैं समझता हूँ कि अपने गुरु महाराज के प्रति व्यक्ति को समर्पित रहना चाहिए और वे जो कुछ कहते हैं उसे करना चाहिए । इसलिए मैने स्वीकार कर लिया। प्रभुपाद ने बताया कि अच्छे प्रबन्ध का तात्पर्य था कि जो कुछ करने की आवश्यकता है उसे कर डालो । — बस । बाद में मैं श्रील प्रभुपाद से मिलने गया और वे अपनी डेस्क के पीछे बैठे थे। उन्होंने कहा, “अब पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी है।” जब उन्होंने यह कहा मैं झिझक गया, क्योंकि जिम्मेदारी लेने का मेरा अभ्यास नहीं था । जब प्रभुपाद बम्बई में थे तब हालैंड का एक तरुण वास्तुशिल्पी, हन्स कीलमैन, उनका व्याख्यान सुनने आया था और वह कृष्णभावनामृत में रुचि लेने लगा था। प्रभुपाद ने हंस को भक्त बनने और बम्बई में हरे कृष्ण नगर बनाने में सहायता करने को राजी कर लिया। प्रभुपाद के निर्देशन में वह तुरन्त भवनों के वास्तुशिल्प खाके बनाने लगा । हन्स : प्रभुपाद बोले, “तो ध्यान से सुनो। तुम्हे भगवान् कृष्ण ने यहाँ भेजा है । उनके लिए तुम्हें इन मंदिरों के नक्शे बनाने हैं। तुम इस काम को बड़ी निष्ठा से करो और डरो नहीं ।" मैं पूरी तरह से समर्पित हो गया। वह क्षण मेरे लिए सचमुच भावविभोरता का था। उनकी डेस्क पर फोटोग्राफों का ढेर लगा था और उन सब को मुझे देते हुए उन्होंने कहा, “इन्हें देखो । ” मैने चित्रों को देखा और वे वृंदावन में नए गोविन्दजी मंदिर के फोटो थे । उन्होंने कहा, "मैं चाहता हूँ कि तुम इस तरह की डिजाइन बनाओ।” तो मैंने पूछा, “श्रील प्रभुपाद, यह कितनी बड़ी होगी ?” उन्होंने मुझे एक टाइप का पेपर दिया और कहा कि मुझे इस पेपर पर डिजाइन बनाना चाहिए । तब उन्होंने मुझे वे फोटो, एक पेंसिल और एक फुटरूल दिया। वे मुझे दूसरे कमरे में ले गए और मुझे एक मेज पर बैठने को कहा । प्रद्युम्न अपनी संस्कृत पुस्तकों के साथ वहाँ बैठे थे। श्यामसुंदर वहाँ पत्र टाइप कर रहे थे और उन दोनों के बीच मैं नक्शा बनाने में लग गया । प्रभुपाद ने कहा कि गिरिराज और अन्य लोगों को मन्दिर निर्माण के लिए चौसठ लाख रुपए संग्रह करने होंगे। भक्तों को कोई ज्ञान न था कि वे इस राशि का एक अंश भी कैसे एकत्रित करेंगे, किन्तु प्रभुपाद ने उन्हें कुछ विचार दिए। उन्होंने 'भेंट नाम' पद्धति द्वारा प्रभावशाली व्यक्तियों की सहायता प्राप्त करने के लिए सूची तैयार करने को कहा जिसके अन्तर्गत कोई व्यक्ति एक अतिथि-कक्ष का आजीवन उपयोग करने का अधिकार खरीद लेता है। इसके अतिरिक्त अन्य साधन भी थे। किन्तु इस समय तो पहला कदम जमीन हस्तगत करने का था। जमीन पर उनका अधिकार हो चुका था । किन्तु उस पर निर्माण करने के पहले उन्हें उसका पट्टा (विक्रिय-पत्र ) चाहिए। चूँकि मि. एन. को पट्टा करने में काफी देर हो चुकी थी, इसलिए प्रभुपाद ने गिरिराज से कहा कि वह लिखित करारनामा के अनुसार पट्टा तैयार करने को उन पर दबाव डाले । बम्बई के अपने अंतिम व्याख्यान में प्रभुपाद ने वृंदावन के छहों गोस्वामियों और कृष्ण के लिए उनकी ललक के मीठे कडुए भावोन्माद का वर्णन किया । प्रभुपाद के कुछ शिष्यों ने इसका यह अर्थ लगाया कि प्रभुपाद यह इसलिए बता रहे हैं कि स्वयं वे वहाँ से लम्बे समय के लिए जा रहे हैं। अगले दिन जब प्रभुपाद हवाई अड्डे पर आस्ट्रेलिया के लिए उड़ान की प्रतीक्षा कर रहे थे तो उन्हें भावभीनी विदाई दी गई। भक्तों से घिरे हुए वे वी.आई.पी. प्रतीक्षा-कक्ष में बैठे थे और मधुद्विष स्वामी द्वारा संचालित भावपूर्ण कीर्तन देख रहे थे। प्रभुपाद ने भक्तों से कहा, “यदि तुम लोग इसी तरह कीर्तन करते रहोगे तो हमारी बम्बई की योजना सफल होकर रहेगी।" जब प्रभुपाद ने देखा कि मिसेज एन. आई हुई हैं तो वे बोल पड़े, “ओ, मिसेज एन., आप भी आई हैं। आप तो हम में से एक हो रही हैं । ' प्रभुपाद में आध्यात्मिक दृष्टि को भौतिक वास्तविकता में और भौतिक सृष्टि के एक अंश को आध्यात्मिक शक्ति में बदलने का असामान्य सामर्थ्य था जिससे सामान्य व्यक्ति भी आध्यात्मिक वास्तविकता को देख सके । यही प्रभुपाद का निरन्तर प्रयास रहता था । प्रायः एक आध्यात्मवादी भौतिक संसार के व्यवहारों से संबंध रखने में हिचकिचाता है और डरता है कि इनसे कहीं उसमें आध्यात्मिक दुर्बलता न आ जाय। अत: वैदिक आदेश है कि आध्यात्मवादी धन और भौतिकतावादी व्यक्तियों की संगति से बचे । किन्तु प्रभुपाद ने श्रील रूप गोस्वामी के बताए सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए, देखा कि प्रत्येक भौतिक वस्तु में शक्ति है कि वह कृष्ण की सेवा में प्रयुक्त की जा सके और इस तरह अपनी दिव्य प्रकृति पुनः प्राप्त कर ले। इस सिद्धान्त का पालन करते हुए कोई भी कुशल भक्त ऊपर से भौतिक जगत में कार्य करते हुए, सदैव आध्यात्मिक शक्ति से अपना सम्र्पक बनाए रख सकता है। ऐसे भक्त के लिए कुछ भी भौतिक नहीं है। वैदिक शास्त्रों में परम भक्त नारद मुनि को चिन्तामणि कहा गया है, क्योंकि वे भौतिकतावादी व्यक्तियों को भक्तों में बदलने की क्षमता रखते थे। जिस प्रकार चिन्तामणि लोहे को सोने में बदल देती है, उसी तरह नारद पशुतुल्य व्याध को शुद्ध वैष्णव में बदल सकते थे। जिस तरह पुराकाल में ऐसे चमत्कारी कार्यों के लिए वेदों में नारद की महिमा का गान किया गया है, उसी तरह वर्तमान युग में श्रील प्रभुपाद चमत्कारी शक्ति वाले चिन्तामणी हैं। उन्होंने कृष्णभावनामृत के सम्प्रयोग से बारम्बार यह दिखलाया है कि वे भौतिकतावादी को पूर्ण विरक्त और सक्रिय भगवद्भक्त में बदल सकते हैं। और अब माया के दल से अनेक भक्तों का चयन करके, वे उन्हें भौतिक संसार को, जितना अधिक संभव हो सके, जीवित आत्मा में बदलने में लगाना चाहते थे । वे अपने दिव्य कल्पनाशील वचनों से, पत्थर तथा मानवीय शक्ति को महिमामय आध्यात्मिक मंदिरों में परिणत करने का प्रयास कर रहे थे कभी-कभी महत्त्वाकांक्षी भौतिकतावादी आध्यात्मवादियों की आलोचना उन्हें अनुर्वर कह कर, करते हैं, किन्तु प्रभुपाद पर यह दोषारोपण नहीं हो सकता था, क्योंकि वे निरन्तर क्रियाशील थे। उल्टे, लोग यह कह कर उनकी आलोचना करते थे कि वे संन्यासी के वेश में पूंजीवादी थे । किन्तु इस प्रकार की आलोचना से प्रभुपाद भयभीत होकर अपने कार्य को छोड़ने वाले नहीं थे; वे अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की इच्छाओं की पूर्ति कर रहे थे। वे अपना यह निष्कर्ष १९६५ ई. में अमेरिका जाने के पूर्व ही श्रीमद्भागवत में लिख चुके थे । अतः सभी ऋषियों और भगवान् के भक्तों ने संस्तुति की है कि कला, विज्ञान, दर्शन, भौतिकी, रसायन, मनोविज्ञान तथा ज्ञान की समस्त शाखाओं का उपयोग पूर्णतया तथा ऐकान्तिक भाव से भगवान् की सेवा में किया जाना चाहिए। प्रभुपाद भौतिक जगत के महत्त्वपूर्ण अंश को आध्यात्मिक जगत में बदल देना चाहते थे । जुहू में आध्यात्मिक नगरी बनाने के प्रयास में वे अनुभव कर रहे थे कि वे माया के विरुद्ध एक महान् प्रहार करने जा रहे हैं। कुछ ही महीनों में अनेक उलझनें और बाधाएँ उनकी योजनाओं को गड़बड़ा चुकी थीं और अनेक कठिनाइयाँ आगे आने को थीं; अभी तो युद्ध आरंभ ही हुआ था। कभी-कभी प्रभुपाद के शिष्यों को यह कार्य थकाने वाला और तनावपूर्ण वे घबरा जाते। उन्होंने आध्यात्मिक जीवन आनंद के लिए चुना था, लगता; चिन्ता के लिए नहीं । प्रभुपाद की उपस्थिति और उनके निरन्तर प्रोत्साहन से उन्हें दृढ़ संकल्प बने रहने में सहायता मिलती थी । प्रभुपाद जानते थे कि यदि एक बार कृष्ण के प्रति निःस्वार्थ भक्ति के अमृत का स्वाद उन्हें मिल गया तो वे उससे कम कोई वस्तु स्वीकार नहीं करेंगे। वे उन्हें प्रोत्साहित करते रहते थे और भक्तिविनोद ठाकुर जैसे अपने पूर्ववर्ती आध्यात्मिक गुरुओं के वचनों का स्मरण कराते थे जिन्होंने कहा था, "भगवान् की भक्ति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को मैं अपने लिए सबसे अधिक आनंददायक मानूँगा ।" |