हिंदी में पढ़े और सुनें
श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 4: ‟मैं आपकी सेवा कैसे करूँगा ?”  » 
 
 
 
 
 
मुझे पूरी आशा है कि आप अंग्रेजी के माध्यम से बहुत अच्छे प्रचारक हो सकते हैं, यदि आप भगवान् चैतन्य की शिक्षाओं की अद्भुत छाप जन-सामान्य तथा दार्शनिकों और धर्मिष्ठों में लगाकर मिशन की सेवा में लग जाएँ ।

—श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती द्वारा श्रील प्रभुपाद को दिसम्बर १९३६ में लिखे गए एक पत्र से

सन् १९३२ ई. के अक्तूबर मास में भक्तिसिद्धान्त सरस्वती सैंकड़ों शिष्यों और तीर्थयात्रियों का एक दल लेकर वृन्दावन के पवित्र स्थानों की एक मास की परिक्रमा पर निकले। वृन्दावन के निवासी और दर्शक वृन्दावन क्षेत्र की परिक्रमा यमुना नदी के किनारे-किनारे पुराने शुष्क मार्ग से करते हैं। वे उन स्थानों पर रुकते जाते हैं जहाँ आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व वृन्दावन में विहार करते हुए श्रीकृष्ण ने लीलाएँ की थीं। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की परिक्रमा में अभय सम्मिलित होना चाहते थे किन्तु कार्य -वश वे वैसा नहीं कर सके। फिर भी, तीर्थ-यात्रा के बीसवें दिन वे इलाहाबाद से चल पड़े, इस निश्चय के साथ कि वे भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से फिर मिलेंगे और इस आशा से कि, एक दिन के लिए ही सही, वे वृन्दावन के बाहर कोसी में परिक्रमा में सम्मिलित होंगे।

जो परिक्रमा श्रील भक्तिसिद्धान्त ने आयोजित की थी, वह वृन्दावन में आयोजित बड़ी से बड़ी परिक्रमाओं में से एक थी। इतने अधिक लोगों को परिक्रमा में सम्मिलित करके वे उसे सामूहिक प्रचार का एक साधन बना रहे थे । सन् १९१८ ई. में भी जब श्रील भक्तिसिद्धान्त ने अपना प्रचार कार्य आरंभ किया था, उनकी विशिष्ट देन प्रचार पर बल देना थी । उनके आगमन के पूर्व वैष्णव सामान्यतः बस्तियों से दूर रहते और पूजा-अर्चा वृन्दावन जैसे एकान्त स्थलों में करते। जब वे प्रचार के लिए यात्रा करते तो भी वे दीन-हीन भिक्षुकों का सरल तरीका अपनाते । भगवान् चैतन्य के काल में उनके गोस्वामी अनुयायी वृन्दावन में वृक्षों की छाया में रहते थे : एक रात एक वृक्ष की छाया में, अगली रात दूसरे वृक्ष की छाया में ।

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का उद्देश्य विश्व व्यापी प्रचार था। वे जानते थे कि गोस्वामियों का त्यांग पाश्चात्यों के लिए संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने यह धारणा फैलाई कि भक्त विशाल मंदिर में भी रह सकते हैं। उन्होंने, एक सम्पन्न वैष्णव व्यवसायी से बड़ा अनुदान स्वीकार किया था और कलकत्ता के बागबाजार - क्षेत्र में सन् १९३० ई. में, संगमरमर के एक बड़े मंदिर का निर्माण कराया था। उसी वर्ष वे अपने बहुत से अनुयायियों के साथ, उल्टडंग के किराए के छोटे मकान से अपने नए प्रभावशाली मुख्यालय में चले गए थे।

श्रील भक्तिसिद्धान्त यह प्रदर्शित कर रहे थे कि एक भक्त को अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने के लिए एक पैसा भी खर्च नहीं करना चाहिए जबकि कृष्ण भगवान् की सेवा में वह लाखों खर्च कर सकता है। जबकि श्रील भक्तिसिद्धान्त के पूर्व वैष्णव, अंग्रेजों द्वारा लाए गए यांत्रिक उपकरणों से कोई सरोकार नहीं रखते थे, किन्तु श्रील भक्तिसिद्धान्त, शास्त्र-ग्रंथों के आधार पर, अधिक ऊँचे स्तर की चेतना का प्रदर्शन कर रहे थे। भगवान् चैतन्य के महान् शिष्य, रूप गोस्वामी, ने लिखा था, "भौतिक बंधनों से पूर्णतया मुक्त होने का तात्पर्य यह नहीं है कि हर भौतिक बंधन का त्याग कर दिया जाय, वरन् उसका तात्पर्य यह है कि हर वस्तु श्री भगवान् कृष्ण की सेवा में नियोजित की जाय। योग में इसे ही पूर्ण त्याग समझा जाता है ।" यदि हर वस्तु भगवान् की ऊर्जा है, तो किसी वस्तु का त्याग क्यों ? यदि भगवान् अच्छे हैं, तो उनकी ऊर्जा भी अच्छी है; भौतिक वस्तुओं का उपयोग अपने इन्द्रिय-सुख के लिए नहीं करना चाहिए; किन्तु उनका उपयोग भगवान् कृष्ण की सेवा के लिए किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। इसलिए श्रील भक्तिसिद्धान्त आधुनिकतम छापेखानों का इस्तेमाल करना चाहते थे। वे सांसारिक लोगों को कृष्ण - कथा सुनने के लिए शान-शौकत से बने मंदिरों में आमंत्रित करना चाहते थे। और प्रचार कार्य पर जाने वाले भक्तों को सुन्दर से सुन्दर वाहनों में जाने से हिचकना नहीं चाहिए; उन्हें सिले कपड़े पहनना चाहिए और सभी भौतिक सुख-सुविधाओं के बीच रहना चाहिए ।

इसी भावना से उन्होंने बागबाजार के भवन का निर्माण कराया था और वहाँ एक आस्तिक-प्रदर्शनी आयोजित की थी जिसमें बारीकी से निर्मित, चित्रित और सुसज्जित मिट्टी की गुड़ियों की झाँकियाँ दिखाने की व्यवस्था की गई थी। ये गुड़ियाँ बंगाल की परम्परागत कला का एक रूप हैं, किन्तु वैष्णव- दर्शन और श्रीकृष्ण की लीलाओं को व्यापक ढंग से प्रदर्शित करने वाली लगभग एक सौ गुड़ियों का एक साथ इस प्रकार रंगमंच पर एकत्र किया जाना एक ऐसी घटना थी जो पहले कभी नहीं देखी गई थी। आस्तिक प्रदर्शनी से चारों ओर धूम मच गई और हजारों लोग उसे प्रतिदिन देखने आने लगे ।

उसी वर्ष श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती अपने लगभग चालीस शिष्यों के साथ भारत की परिक्रमा पर निकले। इस यात्रा में श्रील भक्तिसिद्धान्त के कई सार्वजनिक भाषण हुए और महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से उनकी भेंट हुई। १९३२ ई. तक भारत के विभिन्न भागों में उन्होंने तीन प्रेस स्थापित कर दिए थे जहाँ से विभिन्न भारतीय भाषाओं में छह पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी थीं ।

कलकत्ता में एक राजनेता ने श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से पूछा, 'नदिया प्रकाश को आप एक दैनिक पत्र के रूप में कैसे निकालते हैं ?' भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने उत्तर दिया कि यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, यदि हम इस बात को ध्यान में रखें कि केवल कलकत्ता नगर से आधे दर्जन सामान्य दैनिक पत्र प्रकाशित हो रहे हैं, यद्यपि कलकत्ता भारत के सभी नगरों में केवल एक नगर है, भारत पृथ्वी पर के सभी देशों में केवल एक देश है, पृथ्वी ब्रह्माण्ड के अनेक ग्रहों में केवल एक बहुत छोटा-सा ग्रह है, यह ब्रह्माण्ड उन ब्रह्माण्डों में केवल एक है जिनकी संख्या इतनी अधिक है कि एक एक ब्रह्माण्ड की वही स्थिति है जो सरसों के एक बड़े बोरे में एकाकी सरसों के बीज की होती है, और यह सारी भौतिक सृष्टि भगवान की सृष्टि का केवल एक क्षुद्र अंश है। 'नदिया प्रकाशे में कलकत्ता या पृथ्वी पर के नहीं, वरन् अनन्त आध्यात्मिक आकाश के समाचार प्रकाशित होते थे, जो समस्त भौतिक जगतों के सम्मिलित आकार से भी बड़ा है। इसलिए यदि सीमित जगत के समाचार देने वाले कलकत्ता के पत्र दैनिक हो सकते थे तो क्या आश्चर्य जो ' नदिया प्रकाशे दैनिक है। वास्तव में, यदि रुचिसम्पन्न पाठकों का अभाव न हो, तो आध्यात्मिक संसार विषयक समाचार-पत्र प्रतिक्षण छप सकता है।

श्रील भक्तिसिद्धान्त के प्रकाशनों में एक प्रकाशन अंग्रेजी में था— हारमोनिस्ट; और १९३२ ई. की वृन्दावन परिक्रमा का विज्ञापन इसमें प्रकाशित हुआ :

श्री ब्रज- मण्डल की परिक्रमा

मध्व गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के आध्यात्मिक गुरु कृष्णकृपाश्रीमूर्ति परमहंस श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का अनुगमन कर, प्रसन्नतापूर्वक, बिना जाति, धर्म, रंग, अवस्था और लिंग भेद के, प्रत्येक राष्ट्र के व्यक्तियों को, श्री कृष्णचैतन्य के, जिन्होंने १५१४ ई. शीतऋतु में श्री ब्रजमण्डल की परिक्रमा करने की लीला प्रदर्शित की थी, चरण - चिह्नों पर चलते हुए पवित्र ब्रजमण्डल की भक्तिपूर्वक परिक्रमा के उत्सव में सहयोग के लिए आमंत्रित करते हैं ।

अभय ने जब इलाहाबाद गौड़ीय मठ के सदस्यों से परिक्रमा के विषय में सुना था, उस समय वे अपनी स्थानीय प्रयाग फार्मेसी के धंधे में और नए ग्राहक बनाने के लिए यात्राओं में पूरी तरह व्यस्त थे। लेकिन उन्होंने हिसाब लगा कर देख लिया था कि वे किस प्रकार कम से कम एक या दो दिन के लिए परिक्रमा में सम्मिलित हो सकते हैं और वे एक बार फिर श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का दर्शन प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय हो गए थे।

श्रील प्रभुपाद: परिक्रमा के समय मैं दीक्षित नहीं हुआ था, लेकिन मेरे मन में गौड़ीय मठ के लोगों के सम्बन्ध में भूरि-भूरि प्रशंसा के भाव थे। मेरे प्रति वे बहुत दयालु थे। इसलिए मैं सोचता, “ये लोग परिक्रमा में क्या कर रहे हैं ? चलो चलें।" अतएव मैं कोसी में उनसे जा मिला।

परिक्रमा - दल बड़े कुशल आयोजन के साथ यात्रा कर रहा था। एक अग्रिम दल सभी बिस्तर और खेमे आदि लेकर अगले दिन के वास स्थान पर पहले ही पहुँच जाता था और वहाँ खेमे गाड़ कर भोजनालय की व्यवस्था कर देता था। इसी दौरान मुख्य दल भगवान् चैतन्य महाप्रभु का श्रीविग्रह लिए हुए, भजन-कीर्तन करने वालों के साथ, कृष्ण-लीला के स्थलों का दर्शन करता हुआ शाम तक डेरे पर पहुँच जाता था ।

डेरे अर्धवृत्ताकार रूप में गाड़े जाते थे और वे खंडो में विभाजित होते थे। यात्रियों को अलग-अलग खंड रात-भर के लिए निर्धारित कर दिए जाते थे। श्रील भक्तिसिद्धान्त और भगवान् चैतन्य के श्रीविग्रह के आवास मध्य में होते थे और निकट ही संन्यासियों के डेरे रहते थे। स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग-अलग डैरे होते थे— पति-पत्नी एक साथ नहीं रहते थे । स्वेच्छापूर्ण रक्षक का कार्य करने वालों का भी एक दल था जो रात - भर घूम कर पूरे क्षेत्र की रखवाली करता था। रात को पूरा शिविर, जो सैंकड़ों डेरों से बना होता था, गैस की रोशनी और कैंपफायर के प्रकाश में जगमगाता हुआ एक छोटा कस्बा लगता था । उसकी व्यवस्था से आश्चर्य - अभिभूत होकर स्थानीय लोग उसे देखने आते थे। संध्या समय श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का प्रवचन सुनने के लिए सभी एकत्र होते थे ।

तीर्थयात्री हर दिन बड़े सवेरे उठते और हरे कृष्ण का जप करते थे । तब भगवान् का श्रीविग्रह लेकर वे जुलूस में चल पड़ते थे— पहले कीर्तन करने वाले, उसके बाद पुलिस बैंड, तब अग्रगामी घोड़ा, फिर पताकाधारी, और बाद में सभी तीर्थयात्री । वे सभी पवित्र स्थानों पर जाते थे : श्रीकृष्ण भगवान् की जन्मभूमि, उस स्थान पर जहाँ भगवान् कृष्ण ने कंस का वध किया था, आदि - केशव मंदिर, राधा-कुंड, श्याम कुंड और बहुत से अन्य स्थान ।

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती बड़ी सफलता के साथ अपनी बहुजन-संकुल तीर्थयात्रा पर आगे बढ़ रहे थे कि उन्हें गहरे विरोध का सामना करना पड़ा । वृन्दावन में स्थानीय मंदिरों के स्वामियों ने इस बात पर आपत्ति की कि श्रील भक्तिसिद्धान्त उन भक्तों को यज्ञोपवीत धारण करा रहे हैं जो ब्राह्मण परिवारों में पैदा नहीं हुए थे। श्रील भक्तिसिद्धान्त अपने लेखों और भाषणों में वैदिक शास्त्रों से बराबर यह सिद्ध करते आ रहे थे कि कोई मनुष्य जन्म से नहीं, वरन् अपने गुणों से ब्राह्मण होता है। प्रायः वे सनातन गोस्वामी के 'हरि-भक्ति-विलास' से एक श्लोक उद्धृत करते जिसका आशय यह था कि जैसे कोई हीन धातु, पारा मिलाने से, सोना बन जाती है, उसी प्रकार एक सामान्य व्यक्ति प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु से दीक्षा प्राप्त कर लेने पर ब्राह्मण हो जाता है। वे श्रीमद्भागवत् से भी प्राय: एक श्लोक सुनाया करते जिसमें महान् ऋषि नारद राजा युधिष्ठिर से कहते हैं कि यदि कोई शूद्र-कुल में जन्म लेकर ब्राह्मण की तरह आचरण करता है तो उसे ब्राह्मण स्वीकार करना पड़ेगा और यदि कोई ब्राह्मण कुल में पैदा होता है मगर शूद्र की कलियुग में आध्यात्मिक भाँति आचरण करता है तो उसे शूद्र मानना होगा । उन्नति का प्रधान उपाय भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन है, इसलिए जो कोई भी हरे कृष्ण का कीर्तन करता है, उसे साधु पुरुष मानना चाहिए ।

जब स्थानीय पंडित श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के पास वाद-विवाद के लिए आए, तो उन्होंने उनकी उस उदारता पर आपत्ति उठाई जो वह छोटी जातियों के व्यक्तियों को दीक्षा, यज्ञोपवीत और संन्यासी के वस्त्र देने में दिखाते थे । भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के विद्वत्तापूर्ण और ओज-भरे तर्क के सामने पंडित - वर्ग वाद-विवाद में संतुष्ट प्रतीत हुआ, किन्तु जब परिक्रमा - दल वृन्दावन के सात मुख्य मंदिरों पर पहुँचा, जिनका निर्माण भगवान् चैतन्य के निकट शिष्यों ने कराया था, तो तीर्थयात्रियों ने देखा कि मंदिरों के द्वार बंद हैं। वृन्दावन के दूकानदारों ने भी अपने धंधे बन्द कर दिए थे और कुछ लोगों ने आगे बढ़ते तीर्थयात्रियों पर पत्थर भी फेंके। किन्तु परिक्रमा - दल श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के नेतृत्व में, इस विरोध के बावजूद, उत्साह के साथ आगे बढ़ता गया और २८ अक्तूबर को वह कोसी पहुँच गया, जहाँ श्रीकृष्ण के पिता नन्द का कोषागार था ।

अभय इलाहाबाद से मथुरा ट्रेन से गए और वहाँ से रिक्शा द्वारा कोसी पहुँचे। रास्ते में देहात का दृश्य अभय को बहुत मोहक लगा; कारखानों और महलों के स्थान पर चारों ओर जंगल फैले थे और मुख्य पक्की सड़क के अतिरिक्त, जिस पर वे यात्रा कर रहे थे, सभी मार्ग कच्चे, धूलि - भरे थे या पगडंडिया थीं। वैष्णव होने के नाते अभय के मन में ऐसी भावनाओं का उदय हुआ जो एक साधारण व्यक्ति के मन में नहीं उठ सकती थीं । कभी - कभी उन्हें मोर दिखाई पड़ जाते जिनके रंग-बिरंगे पंख वृन्दावन और श्रीकृष्ण के वैभव की घोषणा करते प्रतीत होते । भाँति-भाँति की चिड़ियाँ और वायुमंडल में गूँजने वाली उनकी बोलियाँ अवैष्णवों को भी पसंद आए बिना न रहतीं। कभी-कभी कोई पेड़ रात्रि विश्राम के पूर्व गोधूलि - वेला में चहचहाने वाली गौरैया - चिड़ियों के उन्माद - भरे कलरवों से पूरित हो जाता। वृन्दावन के महत्त्व को न जानने वाले के मन के लिए भी देहात का वह सहज दृश्य मुग्धकारी था जहाँ लोग खुले में गाय के गोबर से बने कंडों से शाम का भोजन बनाने के लिए आग जलाते थे । सुलगते कंडों और पृथ्वी की मोहक प्राकृतिक सुगंध से मिली-जुली अजीब गंध उठ रही थी। कितने ही पुराने, गाँठों से भरे, वृक्ष खड़े थे, रंग-बिरंगे फूलों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई थीं । चमकते नीले-लाल रंग की झाड़ियाँ थीं, कोमल, श्वेत पारिजात पुष्पों से लदे वृक्ष थे, बड़े-बड़े पीले रंग के कदम्ब के पुष्प थे जो वृन्दावन के बाहर शायद ही कहीं दिखाई देते हों।

सड़क पर घोड़ा - गाड़ियों की चहल-पहल थी। कार्तिक का महीना साल के उन महीनों में से एक था जब वृन्दावन के लिए तीर्थ यात्रियों की भीड़ उमड़ती थी । एक घोड़े वाली गाड़ी में बड़े-बड़े परिवार लदे थे— कुछ तो सैंकड़ों मीलों से आ रहे थे। तीर्थ यात्रियों के बड़े समूह, जो गाँवों के दलों के अनुसार बने थे, साथ-साथ चल रहे थे। स्त्रियाँ चमकदार रंगीन साड़ियों में थीं। गेहुएँ रंग के स्त्री-पुरुष कभी-कभी भजन गाते जा रहे थे । उनके पास सामान सादा और थोड़ा-सा था। वे सब हजारों मंदिरों के नगर वृन्दावन की ओर बढ़ रहे थे। अभय जैसे व्यवसायी भी थे, जो ढंग से पहने - ओढ़े थे; नागरिक सीधे-सादे लगते थे और हो सकता है एक-दो दिन के लिए वहाँ जा रहे हों। यात्रियों में अधिकतर का उद्देश्य, कम से कम पहने-ओढ़े ऊपर से, धार्मिक लगता था यथा, मंदिर में श्रीकृष्ण का दर्शन, पवित्र यमुना नदी में स्नान और उन स्थानों को देखना जहाँ भगवान् कृष्ण ने अपनी लीलाएँ की थीं, जैसे गोवर्धन पर्वत का उठाना, केशी राक्षसी का वध, या संध्या-समय गोपियों के साथ नृत्य ।

अभय वृन्दावन के वातावरण के प्रति संवेदनशील थे और वे सड़क पर की गति-विधियों को देखते जा रहे थे। लेकिन उससे भी बढ़कर उनकी यात्रा की सफलता की आशा उनके मन में पल रही थी । लम्बे व्यवधान के बाद वे उस साधु-पुरुष से मिलने जा रहे थे जिनके बारे में वे हमेशा सोचा करते थे। वे साधु-पुरुष थे श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती जिनसे कलकत्ता में उनकी वार्ता हुई थी और जिन्होंने श्रीकृष्ण भावना का प्रचार करने वाले भगवान् चैतन्य के मिशन के प्रति उनके मन में विश्वास जगाया था। अभय उनसे एक बार फिर मिलेंगे — यही था वह उद्देश्य जो उनके मन में भरा था ।

लालटेन के प्रकाश से आलोकित गौड़ीय मठ के शिबिर में पहुँचने पर, पंजीकरण के बाद, उन्हें परिक्रमा - ग्राम में रहने की अनुमति मिल गई। गृहस्थ लोगों का एक टेंट उन्हें निर्धारित कर दिया गया और उन्हें प्रसाद दिया गया। वहाँ के लोगों का व्यवहार मित्रवत् और उत्साह - भरा था । अभय कलकत्ता और इलाहाबाद के मठों के सदस्यों को अपने क्रिया-कलाप के बारे में बताने लगे। तब वहाँ सभी एकत्र हो गए— एक संन्यासी एक सूचना प्रसारित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि शाम को निकट के मंदिर में शेषशायी विष्णु भगवान् के दर्शनों के लिए निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जाना है। कुछ तीर्थ यात्रियों ने हर्ष ध्वनि की, "हरि बोल, हरे कृष्ण।" संन्यासी ने यह भी सूचना दी कि कृष्णकृपाश्रीमूर्ति श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर, उस शाम को अंतिम बार प्रवचन करेंगे और अगले दिन वे परिक्रमा दल से चले जायँगे। अतः विकल्प था कि या तो कोई परिक्रमा में सम्मिलित हो या उनके प्रवचन के लिए रुके।

श्रील प्रभुपाद: इस तरह मैं कोसी में उनसे मिला, और केशव महाराज ने मुझे बताया कि श्रील भक्तिसिद्धान्त कल सवेरे मथुरा चले जायँगे और आज शाम को वे हरिकथा पर प्रवचन करेंगे। जो कोई चाहता हो, उसके लिए रुक सकता है। अन्यथा वह शेषशायी विष्णु के दर्शनों को जा सकता है। जहाँ तक मुझे स्मरण है उस समय दस या बारह लोग प्रवचन के लिए रुके। उनमें श्रीधर महाराज भी थे। और मुझे यही बुद्धिमत्तापूर्ण लगा । “उस शेषशायी मंदिर में मैं क्या देख सकता हूँ ? श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती क्या कहते हैं, इसे सुनना चाहिए। मैं उसे ही सुनूँगा । "

जब अभय पहुँचे तो श्रील भक्तिसिद्धान्त बोलना आरंभ कर चुके थे । वे सीधे तनकर बैठे थे। उनके कंधो पर शाल पड़ा था। वे एक पेशेवर वक्ता की तरह नहीं बोल रहे थे जो पूर्व निश्चित योजनानुसार भाषण देता है; वरन् वे अपने कमरे में थोड़े-से लोगों को सम्बोधित कर रहे थे । अन्ततः अभय उनके सामने फिर उपस्थित थे। अभय कृष्ण कथा में सराबोर उस अनुपम पुरुष को देख कर और बिना किसी रोक-टोक के सुन कर, विस्मय से अभिभूत हो गए। गहरे, मंद, भाव-विभोर स्वर में वे अपने गहन ज्ञान का अबाध आख्यान कर रहे थे। अभय बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगे ।

भक्तिसिद्धान्त सरस्वती नियमतः सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन पर बोलते आ रहे थे। सम्बन्ध वैध भक्ति की अवस्था है जिसमें भगवान् की चेतना जागृत होती है; अभिधेय भगवान् के प्रति प्रेम भक्ति है; प्रयोजन अंतिम लक्ष्य है—भगवान् के प्रति विशुद्ध भक्ति। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि उनकी व्याख्या भगवान् कृष्ण ने जो कुछ मूलत: कहा था उसका केवल पुनः कथन है जो शिष्य- परम्परा से चलता आया है। भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की विशिष्ट व्याख्या, जो अधिकांश बंगाली में और कभी-कभी अंग्रेजी में थी, शास्त्रों के अनेक संस्कृत उद्धरणों से भरी थी और अत्यन्त गंभीर और विद्वत्तापूर्ण थी। भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने कहा, “कृष्ण भगवान् समस्त सृष्टि के, सृष्टि के परे, वैकुण्ठ के, इन्द्रियातीत लोक के परम ईश्वर हैं। इसलिए उनके आह्लाद में कोई अवरोध नहीं उत्पन्न कर सकता । "

एक घंटा बीत गया, दो घंटे बीत गए...। श्रील भक्तिसिद्धान्त के कमरे में इकठ्ठे थोड़ से श्रोताओं की संख्या धीरे-धीरे घटती गई। कुछ संन्यासी यह कह कर चले गए कि उन्हें परिक्रमा शिविर की व्यवस्था देखनी है। केवल थोड़े से घनिष्ठ प्रमुख नेता रह गए। बाहरी लोगों में से केवल अभय रह गए थे। यद्यपि वे एक भक्त थे और बिल्कुल बाहरी नहीं थे तो भी वे संन्यासी नहीं थे, यात्रा संबंधी कोई कर्तव्य नहीं सँभाल रहे थे, दीक्षा प्राप्त नहीं थे और परिक्रमा - दल के साथ यात्रा नहीं कर रहे थे, वरन् केवल एक दिन के लिए वहाँ आए थे। इस अर्थ में वे बाहरी थे। श्रील भक्तिसिद्धान्त जो दर्शन समझा रहे थे, वह उन सभी के लिए था जो ध्यानपूर्वक उसे सुनें। और अभय वह कर रहे थे।

वे विस्मयपूर्वक सुन रहे थे। कभी-कभी उनकी समझ में बात न आती, फिर भी वे ध्यानपूर्वक सुनते जा रहे थे, विनम्रता के साथ शब्दों का अवगाहन करते हुए । उन्हें ऐसा अनुभव हो रहा था कि भक्तिसिद्धान्त सरस्वती आध्यात्मिक जगत का सीधा दृश्य उनके सामने उद्घाटित कर रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति दरवाजा खोल कर या पर्दा हटा कर कोई वस्तु प्रकट करता है। वे सत्य का उद्घाटन कर रहे थे और वह सत्य था —– श्री राधा - कृष्ण के चरण-कमलों की प्रेममय भक्ति; राधा-कृष्ण स्वयं परम पूज्य श्री भगवान् हैं। वे कितने अधिकार के साथ बोल रहे थे ! उनमें कितना विश्वास और साहस था !

अभय ने उन्हें इसी संभ्रम और अविचल ध्यान से सुना । यह सही है कि हर वैष्णव श्रीकृष्ण को अपना पूज्य भगवान् मानता है, पर इस महान् गुरु ने कितनी प्रामाणिकता और कैसे गूढ़ तर्क और विश्वास के साथ वैष्णवों के मत को स्थापित किया है। कई घंटों के बाद श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने बोलना बंद किया। अभय बिना रुके सुनते जाने को तत्पर लगते थे, फिर भी उनके मन में कोई परेशान करने वाली शंका या जिज्ञासा सामने रखने को न थी। वे केवल सुनते जाना चाहते थे। जब भक्तिसिद्धान्त जाने लगे, अभय ने सम्मान प्रकट करने के लिए सिर झुकाया । तब घनिष्ठ संन्यासियों के शिविरों कों छोड़कर वे बाहरी पंक्ति के शिविरों में गए। उनका मन आध्यात्मिक गुरु के वचनों में डूबा था ।

अब उनके सम्बन्ध अधिक ठोस प्रतीत हुए। वे उस मूल धारणा को अपने मन में अब भी सँजोए हुए थे जो साधु स्वभाव श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने कलकत्ता में छत के ऊपर उन से बातचीत करके उनमें पैदा की थी। वह धारणा जो इलाहाबाद में उन्हें वर्षों बल देती रही, आज रात और अधिक समृद्ध और सजीव बन गई थी। उनके आध्यात्मिक गुरु और उनके शब्दों से उत्पन्न धारणा अभय के लिए वैसे ही सच थे जैसे वृन्दावन के ऊपर आसमान के तारे या चाँद । श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के वचनों को सुनने से उत्पन्न धारणा सत्य बन कर उनमें व्याप्त हो रही थी और अन्य सभी सत्य श्रील गुरुदेव के निरपेक्ष सत्य के इर्द-गिर्द इकठ्ठे हो रहे थे, ठीक वैसे ही जैसे सूर्य के इर्द-गिर्द सभी ग्रह ।

दूसरे दिन अभय अन्य लोगों के साथ सूर्योदय से एक घंटा पहले उठ गए। उन्होंने स्नान किया और सब के साथ मंत्रोच्चारण किया। उसके बाद तेजस्वी शरीर वाले श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती सादे गेरुए कपड़े पहन, एक कार की पिछली सीट में बैठे और शिविर से चले गए। विचारमग्न और गंभीर मुद्रा से वे पीछे मुड़ कर देखते रहे और अपने अनुयायियों के प्रेमपूर्ण विदाई - संकेतों को हाथ हिलाकर स्वीकार करते रहे। उन अनुयायियों में एक अभय भी थे।

***

लगभग एक महीने बाद अभय को आशा होने लगी कि श्रील भक्तिसिद्धान्त से उनकी भेंट फिर होगी — इस बार इलाहाबाद में । अभय वृन्दावन से लौटकर अपनी प्रयाग फार्मेसी के कार्य में जुटे ही थे कि स्थानीय गौड़ीय मठ के भक्तों ने उन्हें यह एक अच्छी खबर सुनाई। उन्होंने श्री रूप गौड़ीय मठ के भवन के निर्माण के लिए भूमि प्राप्त कर ली थी और धन संग्रह कर लिया था और श्रील भक्तिसिद्धान्त २१ नवम्बर को होने वाले शिलान्यास - समारोह की अध्यक्षता करने आ रहे थे। संयुक्त प्रांत के गवर्नर सर विलियम मालकम हेली सम्मानित अतिथि होंगे और श्रील भक्तिसिद्धान्त की उपस्थिति से सुशोभित एक भव्य समारोह में वे मठ का शिलान्यास करेंगे। जब अभय को ज्ञात हुआ कि एक दीक्षा समारोह भी होगा तो उन्होंने जानना चाहा कि क्या हुआ वै भी दीक्षा ग्रहण कर सकते हैं। मठ के अध्यक्ष, अतुलानन्द, ने अभय को विश्वस्त किया कि वे उनका परिचय श्री भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से कराएँगे ।

घर पर अभय ने दीक्षा लेने के बारे में अपनी पत्नी से बात की । उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन वे स्वयं दीक्षा लेना नहीं चाहती थीं। वे पहले से ही घर में श्रीविग्रह की पूजा करते थे और उनको नैवेद्य चढ़ाते थे। ईश्वर में उनका विश्वास था और वे शान्तिपूर्वक रह रहे थे ।

लेकिन अभय के लिए यह काफी नहीं था । यद्यपि वे अपनी पत्नी को विवश नहीं करना चाहते थे, लेकिन वे इतना जानते थे कि स्वयं उन्हें एक सच्चे भक्त से दीक्षा लेनी है। पापकर्म से बचना, धार्मिक जीवन बिताना — ये चीजें आवश्यक हैं और अच्छी हैं, लेकिन केवल इनसे ही जीवन आध्यात्मिक नहीं बनता और न इतने से आत्मा की भूख शान्त हो सकती है। जीवन का अन्तिम लक्ष्य और आत्मा की एकमात्र आवश्यकता श्रीकृष्ण भगवान का प्रेम है। उस प्रेम का निवेश उनके पिता द्वारा उनमें हो चुका था और अब उन्हें अगला कदम उठाना था। उनके पिता को उन्हें ऐसा करते देखने में प्रसन्नता होती ।

उन्होंने जो कुछ सीखा था उसका सुदृढ़ीकरण अब एक ऐसे व्यक्ति से हो रहा था जो संसार की सभी पतित आत्माओं को भगवान् के दिव्य प्रेम तक पहुँचाने में समर्थ थे। अभय जानते थे कि उन्हें आगे बढ़ना चाहिए और अपने आध्यात्मिक गुरु की शिक्षाओं की पूर्ण रूप से शरण लेनी चाहिए । और धर्मशास्त्र कहते हैं, “परम सत्य को जानने के इच्छुक व्यक्ति को किसी आध्यात्मिक गुरु की शरण में जाना चाहिए, ऐसे आध्यात्मिक गुरु की जो गुरु- परम्परा में हो और जो श्रीकृष्णभावना में अविचल बन चुका हो ।' भगवान् चैतन्य ने भी, जो स्वयं कृष्ण थे, आध्यात्मिक गुरु को स्वीकार किया था, और दीक्षा के बाद ही उन्होंने कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए परम आह्लादजनक कृष्ण- प्रेम के लक्षणों को प्रकट किया था ।

जहाँ तक औपचारिक दीक्षा का प्रश्न है, वह उन्होंने बारह वर्ष की अवस्था में ही परिवार के पुरोहित से प्राप्त कर ली थी। अभय ने उसे गंभीरता से नहीं लिया था। वह एक धार्मिक औपचारिकता थी । किन्तु गुरु केवल अस्थायी औपचारिक पुरोहित नहीं होते, इसलिए, अभय इस मान्यता को अस्वीकार कर चुके थे कि उन्होंने गुरु पा लिया है। अपने पारिवारिक पुरोहित से उन्हें भक्ति की शिक्षा नहीं मिली थी और न उन्होंने गुरु- परम्परा के माध्यम से उनको कृष्ण से सम्बद्ध किया था । पर श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती द्वारा दीक्षित होकर वे कृष्ण से सम्बद्ध हो जायँगे । भक्तिसिद्धान्त, गौरकिशोर बाबाजी के शिष्य, भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र थे और भगवान् चैतन्य की गुरु- परम्परा में बारहवें गुरु थे। वे अपने युग के सर्वश्रेष्ठ वैदिक विद्वान् थे, और वैष्णव धर्म के ऐसे ज्ञाता थे जो भगवद्धाम लौटने का मार्ग-दर्शन कर सकते थे। अपने पूर्वगामियों द्वारा वे अधिकृत थे कि सांसारिक दुखों की ओषधि के रूप में वे हर एक में कृष्णभावना जागृत करके सर्वोच्च कल्याण के लिए कार्य करें। अभय को ऐसा अनुभव होता था कि वे भक्तिसिद्धान्त को अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार कर चुके थे और प्रथम मिलन के दिन ही उन्हें उनके आदेश प्राप्त हो चुके थे। अब यदि भक्तिसिद्धान्त उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लेते हैं तो दोनों के बीच सम्बन्ध की पुष्टि हो जायगी ।

वृन्दावन में उनके दर्शन करने और भाषण सुनने के बाद कितनी शीघ्र उनका आगमन हो रहा है! अपने प्रतिनिधि के माध्यम से कृष्ण भगवान् की कार्यप्रणाली यही थी । इलाहाबाद में जहाँ अभय का परिवार था और कारोबार था, उनके आध्यात्मिक गुरु के आगमन से ऐसा लगता था मानो वे उन्हें आध्यात्मिक जीवन में और अधिक खींचने के लिए लिए ऐसा कर रहे हैं। बिना किसी प्रयास के श्री भक्तिसिद्धान्त के साथ उनका सम्बन्ध गहरा होता जा रहा था। अब भक्तिसिद्धान्त वहाँ मानो किसी उच्चतर सत्ता के आयोजन के फलस्वरूप आ रहे थे।

समारोह के दिन भक्तिसिद्धान्त सरस्वती अपने शिष्यों से साउथ मलाका स्ट्रीट स्थित इलाहाबाद गौड़ीय मठ में मिले। जब वे हरि कथा पर बोल रहे थे और प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे, अतुलानन्द ब्रह्मचारी ने उसी अवसर पर दीक्षा के लिए बहुत से शिष्यों को, जिनमें अभय भी थे, उनके सामने प्रस्तुत किया। इलाहाबाद के शिष्यों को मिस्टर दे पर गर्व था । वे हर दिन संध्या समय मठ में आते और भजन गाते-गवाते, उपदेश सुनते सुनाते और प्रायः सम्मानित अतिथियों को वहाँ ले आते। उन्होंने धन दिया था और व्यवसायी सहयोगियों से भी दिलाया था। अभय हाथ जोड़ कर बड़ी विनम्रता से श्रील भक्तिसिद्धान्त की ओर देखने लगे। वे और श्रील भक्तिसिद्धान्त अब आमने-सामने थे, और श्रील भक्तिसिद्धान्त ने उन्हें पहचान लिया था और उन्हें देख कर वे स्पष्टतः बहुत प्रसन्न थे । वे उन्हें पहले से जानते थे। अभय से दृष्टि - विनिमय करते हुए उन्होंने कहा, “हाँ, उसे मेरा प्रवचन सुनना पसन्द है, वह उठ कर चला नहीं जाता। मैंने देखा है। मैं उसे अपना शिष्य स्वीकार करूँगा ।'

वह क्षण, वे शब्द जब अभय के अस्तित्व में समा रहे थे, अभय भाव-विभोर हो गए। अतुलानन्द सानन्द चकित थे कि उनके गुरुदेव ने मिस्टर दे को स्वीकार कर लिया है। कमरे में बैठे अन्य शिष्यों को भी प्रसन्नता हुई कि श्रील भक्तिसिद्धान्त ने मिस्टर दे को एक अच्छे श्रोता के रूप में तत्काल स्वीकार कर लिया था। कुछ को आश्चर्य हुआ कि भक्तिसिद्धान्त ने उस युवा ओषधि - विक्रेता का यह मूल्यांकन कब और कैसे कर लिया था ।

दीक्षा समारोह में श्रील भक्तिसिद्धान्त व्यास - आसन पर विराजमान थे और कमरा अतिथियों और गौड़ीय मठ के सदस्यों से भरा था । दीक्षा ग्रहण करने वाले एक छोटी वेदी के चारों ओर बैठे थे। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के एक संन्यासी शिष्य ने उस वेदी पर अग्नि प्रज्जवलित की और वह उसमें अन्न और फलों की आहुति देने लगा । अन्य लोग शुद्धि-मंत्रों का पाठ करने लगे। अभय के भाई और उनकी बहिन वहाँ उपस्थित थे, किन्तु उनकी पत्नी नहीं थीं ।

गुरुदेव की उपस्थिति में अभय आह्लादित थे। अपने आध्यात्मिक गुरु के ये शब्द कि, “हाँ, उसे मेरे प्रवचन अच्छे लगते हैं।" और उनकी परिचय - भरी दृष्टि, दोनों अभय के मन पर अंकित हो गए थे। उन्होंने ठान लिया कि अपने आध्यात्मिक गुरु के प्रवचनों को वे उसी प्रकार ध्यान से सुनेंगे और उन्हें प्रसन्न रखेंगे। उन्होंने सोचा, "इस प्रकार मैं अच्छा बोलने लगूँगा ।" वैदिक साहित्य में भक्ति के नौ प्रकार बताए गए हैं। पहली भक्ति है श्रवणम्, दूसरी है कीर्त्तनम् । कोसी में धैयपूर्वक बैठ कर और कृष्ण - कथा सुन कर उन्होंने कृष्ण के प्रतिनिधि को प्रसन्न कर लिया था और जब कृष्ण के प्रतिनिधि प्रसन्न हैं तो कृष्ण प्रसन्न हैं। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने मठ को धन देने के लिए उनकी प्रशंसा नहीं की; न उन्होंने उनको परिवार और धंधा छोड़ कर अपने साथ यात्रा करने की सलाह दी, न ही व्रत और उपवास से शरीर गलाने वाले योगियों की भाँति कठोर जीवन व्यतीत करने के लिए उन्होंने कहा। लेकिन उन्होंने कहा कि " वह मुझे सुनना पसन्द करता है, मैंने उसे लक्षित कर लिया है।" अभय के ध्यान में बार-बार यह बात आती रही और जब उनके आध्यात्मिक गुरु दीक्षा दे रहे थे, वे ध्यानपूर्वक सुन रहे थे

अंत में, भक्तिसिद्धान्त ने पुकारा कि अभय आगे आएँ और माला स्वीकार करके हरिनाम की दीक्षाग्रहण करें। साष्टांग प्रणाम करने के बाद अभय ने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाया और अपने आध्यात्मिक गुरु से जप - माला स्वीकार की। उसी समय उन्होंने ब्राह्मण का पवित्र यज्ञोपवीत भी स्वीकार किया, जिसका अर्थ था दूसरी दीक्षा । सामान्यतः श्रील भक्तिसिद्धान्त पहली दीक्षा हरिनाम देते थे और कुछ समय बाद ही, जब वे शिष्य की उन्नति से संतुष्ट हो जाते थे, तब दूसरी दीक्षा देते थे। लेकिन अभय को उन्होंने दोनो दीक्षाएँ एक साथ दे दीं। अब अभय पूर्ण शिष्य, ब्राह्मण, बन गए थे। अब वे यज्ञ कर सकते थे, जैसे दीक्षा के लिए अग्नि-यज्ञ; वे मन्दिर में श्रीविग्रह की पूजा कर सकते थे और प्रवचन की भी उनसे आशा की जा सकती थी । श्रील भक्तिसिद्धान्त ने उनके नाम के साथ ' अरविन्द' जोड़ दिया। अब वे अभयचरण अरविन्द हो गए।

जब श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती इलाहाबाद से कलकत्ता चले गए, तब अभय को अपने आध्यात्मिक गुरु के स्थान पर कार्य करने के दायित्व का तेजी से अनुभव होने लगा । दीक्षा के समय श्रील भक्तिसिद्धान्त ने उन्हें रूप गोस्वामी के भक्ति - रसामृत - सिन्धु के अध्ययन का आदेश दिया था जिसमें कृष्ण और भक्तों के बीच प्रेममय आदान-प्रदान का वर्णन था और जो बताता था कि कोई भक्त आध्यात्मिक जीवन में कैसे आगे बढ़ सकता है । भक्ति - रसामृत - सिन्धु भक्तों के लिए 'कानून की पुस्तक' के समान था और अभय को उसका अध्ययन ध्यानपूर्वक करना था । इलाहाबाद केन्द्र पर नित्य जाने और वहाँ नए लोगों को ले जाने में उन्हें प्रसन्नता होती। अपने आध्यात्मिक गुरु से जब वे प्रथम बार मिले थे तब भी उन्हें भगवान् चैतन्य के मिशन के प्रचार का आदेश मिला था। अब वे नित्य ध्यानपूर्वक विचार करने लगे कि यह कार्य कैसे किया जाय। प्रचार करना उनके लिए कम से कम उतना ही बाध्यकारी था जितना घर-गृहस्थी और धंधा चलाना । घर में भी वे जहाँ तक होता प्रचार में लगे रहते। लोगों को घर पर आमंत्रित करने, उनके साथ कृष्ण के विषय में चर्चा करने और प्रसाद बाँटने के सम्बन्ध में वे अपनी पत्नी के साथ योजनाएँ बनाते । पत्नी में उन जैसा उत्साह नहीं था ।

श्रील प्रभुपाद : मेरी पत्नी कृष्ण की भक्त थीं, लेकिन उनका विचार कुछ और था। उनका विचार था कि श्रीविग्रह की घर में पूजा की जाय और शान्तिपूर्वक रहा जाय । मेरा विचार प्रचार करने का था ।

अभय के लिए अपने आध्यात्मिक गुरु के साथ यात्रा करना या प्रायः उनसे मिलना संभव नहीं था। अपने औषधालय के कार्य में वे व्यस्त रहते और उसके लिए उन्हें प्रायः यात्राएँ करनी पड़तीं । परन्तु जहाँ तक संभव होता वे कलकत्ता की यात्रा की योजना तब बनाते जब उनके आध्यात्मिक गुरु वहाँ होते । इस प्रकार अगले चार वर्षों में अपने आध्यात्मिक गुरु से शायद एक दर्जन बार मिलने के अवसर उन्होंने निकाले ।

जब अभय कलकत्ता जाते तब गौड़ीय मठ के सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष, नित्यानन्द ब्रह्मचारी, मठ की दो घोड़े वाली गाड़ी लेकर हावड़ा स्टेशन पर उनसे मिलते। नित्यानन्द की दृष्टि में अभय एक असाधारण रूप से विनम्र और सहिष्णु व्यक्ति थे। जब वे दोनों गाड़ी में बैठ कर मठ की ओर चलते, तब अभय श्रील भक्तिसिद्धान्त की ताजा गतिविधियों के विषय में जिज्ञासापूर्वक पूछते कि वे कहाँ-कहाँ गए, कौन - कौन सी पुस्तकें प्रकाशित हुईं, कितने केन्द्र चल रहे हैं, उनके शिष्य कैसा कर रहे हैं, आदि । अभय के कारोबार के सम्बन्ध में उनमें ज्यादा बातें न होतीं । अभय गौड़ीय मठ में आमतौर पर पाँच दिन रुकते। कभी-कभी वे अपनी एक बहिन के यहाँ चले जाते, जो कलकत्ता में रहती थीं, किन्तु कलकत्ता जाने के पीछे उनके लिए मुख्य कारण श्री भक्तिसिद्धान्त थे; और उनका प्रवचन सुनने के हर अवसर का वे लाभ उठाते।

गौड़ीय मठ की आन्तरिक व्यवस्था का नेतृत्व हाथ में लेने का प्रयत्न अभय का नहीं था। उनके आध्यात्मिक गुरु ने अठारह संन्यासियों को दीक्षित किया था जो मिशन के प्रचार और नेतृत्व का अधिकतर भार वहन कर रहे थे। अभय सदा गृहस्थ थे, और अपने परिवार और धंधे में व्यस्त रहते थे, और वे यदा-कदा जाने के अतिरिक्त मठ में कभी नहीं रहे। इतना होने पर भी अपने आध्यात्मिक गुरु के साथ उनका सम्बन्ध घनिष्ठ होने लगा।

कभी-कभी अभय उनसे मिलने के लिए महाप्रभु चैतन्य की जन्मभूमि मायापुर में स्थित चैतन्य मठ जाया करते। एक दिन जब अभय चैतन्य मठ के आँगन में थे, एक बड़ा विषैला साँप सनसनाता हुआ उनके सामने से निकला। अभय ने अपने शिष्य बन्धुओं को आवाज दी, लेकिन जब वे आए तो उनमें से हर एक साँप को देखता खड़ा रहा। कोई तय न कर सका कि क्या करना चाहिए । श्रील भक्तिसिद्धान्त दूसरी मंजिल के बरामदे में निकले, उन्होंने नीचे निगाह डाली और साँप को देखा और तुरन्त आदेश दिया, “उसे मार डालो।" तब एक लड़के ने एक बड़ी लाठी से साँप को मार डाला।

श्रील प्रभुपाद : मैं सोचने लगा, “गुरु महाराज ने साँप को मार डालने का आदेश क्यों दिया ?" मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। लेकिन बाद में मैने यह श्लोक देखा और तब मुझे खुशी हुई, "मोदेत् साधुर् अपि वृक्षिक-सर्प हत्या" साधु- पुरुष भी बिच्छू अथवा साँप को मारने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। मेरे मन में यह शक बना था कि गुरु महाराज ने साँप को मारने का आदेश क्यों दिया; लेकिन जब मैंने यह श्लोक पढ़ा, तो मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि साँप जैसे जीवों पर दया नहीं करनी चाहिए ।

श्रील भक्तिसिद्धान्त अपनी कठोरता के लिए इतने प्रसिद्ध थे और अन्य दर्शनों के विरुद्ध उनके तर्क इतने प्रबल थे कि यदि वे अकेले बैठे होते तो उनके अपने शिष्य भी, जब तक कोई खास काम न हो, उनके पास जाने में घबड़ाते थे। इतना होने पर भी अभय के प्रति वे दयालुता का व्यवहार करते, यद्यपि उनके साथ अभय का संसर्ग बहुत सीमित था ।

श्रील प्रभुपाद : मैं जब कभी भी अपने गुरु महाराज से मिलता, वे मेरे साथ बहुत प्रेम का व्यवहार करते। कभी-कभी मेरे शिष्य-बन्धु मेरी आलोचना करते, क्योंकि मैं गुरु महाराज के साथ ज़रा स्वतंत्रता से बात करता । मेरे शिष्य-बन्धु अँग्रेजी की इस कहावत का हवाला देते कि, “जहाँ देवता पग रखने से डरते हैं, वहाँ मूर्ख लोग सिर के बल कूद पड़ते हैं।” किन्तु मैं सोचता, "मूर्ख ?” फिर अपने से कहता, “ठीक है, मान लो मैं वही हूँ ।" मेरे गुरु महाराज मेरे प्रति सदा ही बहुत दयालु रहते। जब मैं उनके प्रति सम्मान प्रकट करता तो वे बदले में हमेशा कहते, "दासोस्मि” : “मैं तुम्हारा सेवक हूँ।'

कभी-कभी जब श्रील भक्तिसिद्धान्त हरे कृष्ण मंत्र का सस्वर पाठ करते हुए और माला फेरते हुए कमरे में घूमते रहते, तब अभय भी वहाँ चले जाते और अपने आध्यात्मिक गुरु के साथ-साथ चलते हुए मंत्र पाठ करने लगते। एक बार जब अभय कमरे में घुसे तो देखा कि उनके आध्यात्मिक गुरु एक सोफे पर बैठे हैं। अभय उनके पास उतनी ही ऊँचाई पर बैठ गए। लेकिन तब उन्होंने देखा कि सभी अन्य शिष्य अपने आध्यात्मिक गुरु से नीचे स्तर पर उनके चरणों के पास बैठे हैं। अभय अपने स्थान पर बैठे रहे और श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने उस विषय में कुछ नहीं कहा। लेकिन अभय अपने आध्यात्मिक गुरु के साथ समान स्तर पर फिर कभी नहीं बैठे।

एक बार श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती अपने कई शिष्यों के साथ कमरे में बैठे प्रवचन कर रहे थे। तभी अभय की बगल में बैठे एक वृद्ध ने उनकी ओर कुछ इशारा किया। अभय उसकी ओर यह सुनने के लिए झुके कि वह क्या चाहता है। श्रील भक्तिसिद्धान्त इन दोनों शिष्यों पर कुपित होकर अचानक आवेश में आ गए और पहले उस वृद्ध को सम्बोधित करते हुए बोल पड़े, “बाबू, क्या आप समझते हैं कि एक सौ पचास रुपए प्रतिमास अनुदान देकर आपने मुझे खरीद लिया है?” और तब अभय की ओर मुड़ कर वे कहने लगे, "तुम यहाँ आकर मेरी जगह क्यों नहीं बोलते। " अभय प्रत्यक्षतः जैसे चेतनाहीन हो गए, लेकिन फिर भी इस ताड़ना को निधि बना कर उन्होंने मन में रख लिया ।

एक बार एकान्त में श्रील भक्तिसिद्धान्त ने अभय को समझाया कि बहुत जोरदार प्रचार में कितना खतरा है।

श्रील प्रभुपाद : मेरे गुरु महाराज का योगदान यह है कि उन्होंने जातिवादी गोस्वामियों को हराया। उन्होंने ब्राह्मणवाद को हराया। उन्होंने इस कार्य को उसी प्रकार किया जिस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने किया था। जैसा कि चैतन्य महाप्रभु ने कहा है, किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय । ऐई कृष्ण-तत्त्व - वेत्ता, सेई गुरु हय : “ इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि कोई ब्राह्मण है, संन्यासी है, शूद्र है या गृहस्थ है। नहीं, जो कोई कृष्ण - तत्त्व को जानता है वही सर्वज्ञ है, गोस्वामी है, ब्राह्मण है । "

लेकिन चैतन्य महाप्रभु के बाद इसे किसी ने नहीं बताया। मेरे गुरु महाराज का योगदान यही है। और इसी कारण उन्हें जातिवादी गोस्वामियों के ब्राह्मणों के इतने उग्र विरोध का सामना करना पड़ा।

एक बार उन्होंने गुरु महाराज को मार डालने का षड्यंत्र रचा — यह बात स्वयं गुरु महाराज ने मुझे बताई थी। जब हम एकान्त में मिलते तो वे कृपापूर्वक मुझे बहुत सी बातें बताते थे। वे मेरे प्रति इतने दयालु थे कि वे मुझसे बातें किया करते थे और उन्होंने मुझसे स्वयं कहा कि, " वे लोग मुझे मार डालना चाहते थे । "

उन्होंने पच्चीस हजार रुपए जमा किए और उस क्षेत्र के पुलिस अधिकारी को घूस देने के लिए उसके पास गए। " यह पचीस हजार रुपए आप लीजिए । हम भक्तिसिद्धान्त के विरुद्ध कुछ करने जा रहे हैं। आप हमारे खिलाफ कोई कदम न उठाएँ ।” पुलिस अधिकारी समझ गया कि वे लोग मुझे मार डालना चाहते थे। वह सीधे भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के पास गया और बोला, "यह सच है कि हम घूस लेते हैं और इस तरह के कामों में शरीक होते हैं, लेकिन एक साधु के लिए नहीं, एक संत के लिए नहीं । नहीं, मेरा साहस ऐसा करने का नहीं है।” इस तरह उस पुलिस अधिकारी ने इनकार कर दिया और उसने मेरे गुरु महाराज से कहा, “आप सावधान रहिए। स्थिति यही है । " ऐसा इसलिए हुआ कि गुरु महाराज जातिवादियों का बड़े जोर से विरोध करते थे ।

वे अपने शिष्यों में साहस पसंद करते थे। अभय को एक अवसर का पता चला जब श्रील भक्तिसिद्धान्त के एक शिष्य ने एक सार्वजनिक सभा में किसी अत्यन्त सम्मानित मायावादी भिक्षु की निर्भयतापूर्वक निन्दा की थी और उसे 'मूर्ख पुरोहित' कहा था। उनकी इस उक्ति के कारण सभा भंग हो गई थी और कुछ शिष्यों ने इसकी सूचना श्रील भक्तिसिद्धान्त को दी थी; उनका विचार था कि श्रील भक्तिसिद्धान्त इस बात से रुष्ट होंगे कि उनका एक शिष्य सभा भंग होने का कारण बना। किन्तु श्रील भक्तिसिद्धान्त प्रसन्न हुए और बोले, “उसने ठीक किया।” वरन् अप्रसन्नता उन्हें यह सुनकर हुई कि किसी ने समझौता कर लिया है।

श्रील प्रभुपाद : जब मेरे गुरु महाराज उपस्थित होते तो बड़े से बड़े विद्वानों को भी उनके नौसिखिए विद्यार्थियों से बात करने में डर लगता । मेरे गुरु महाराज, “जीवित विश्वकोश" कहे जाते थे। वे इतने विद्वान् थे कि किसी से किसी भी विषय पर बात कर सकते थे। और समझौता करना उन्हें आता नहीं था। तथाकथित संत, अवतार, योगी- जो कोई भी झूठा था – वह मेरे गुरु महाराज का शत्रु था। उन्होंने समझौता कभी नहीं किया। कुछ शिष्य-बंधुओं ने शिकायत की कि यह तो 'खंडनकारी तरीका' है और सफल नहीं होगा। लेकिन जिन्होंने उनकी आलोचना की, उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा।

श्रील भक्तिसिद्धान्त सिंह गुरु' के नाम से विख्यात थे। यदि वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते जिसके बारे में वे जानते थे कि वह निर्विशेषवादी मत का समर्थक है तो वे उसे चुनौतीपूर्ण शब्दों में ललकारते हुए कहते, " अपने मायावादी दर्शन से लोगों को धोखा क्यों दे रहे हो ?" वे अपने शिष्यों को प्रायः समझौता न करने का उपदेश देते। “किसी की चाटुकारी क्यों करते हो ?" वे कहते, "तुम्हें बिना किसी चाटुकारिता के सत्य का प्रतिपादन करना चाहिए। धन तो जैसे-तैसे आयेगा ही । "

श्रील भक्तिसिद्धान्त वैष्णव दर्शन पर जब कभी लिखते या बोलते, तो वे हमेशा दृढ़ रहते; उनके निष्कर्ष शास्त्र मतानुसार और तर्क प्रबल होते । लेकिन अभय कभी-कभी अपने आध्यात्मिक गुरु को शाश्वत शिक्षा की अभिव्यक्ति ऐसे अनूठे ढंग से करते सुनते जिसे वे कभी नहीं भूल सकते थे । “भगवान को देखने की कोशिश मत करो" श्रील भक्तिसिद्धान्त कहते, " वरन् यह सोच कर कर्म करो कि भगवान तुम्हें देखता है।

श्रील भक्तिसिद्धान्त मंदिरों के उन स्वामियों की निन्दा करते थे जो श्रीविग्रह का दर्शन एक धंधे के रूप में जीविका कमाने के लिए कराते थे। वे कहते इससे सड़क का भंगी होना अधिक सम्मानजनक है। उन्होंने एक बंगाली उक्ति गढ़ डाली, “ शालग्राम द्वारा बादाम - भंग " : पंडे-पुरोहित शालग्राम श्रीविग्रह से बादाम तोड़ने वाले पत्थर का काम ले रहे हैं। दूसरे शब्दों में, यदि कोई व्यक्ति भगवान् के शालग्राम रूप या अन्य किसी श्रीविग्रह का दर्शन धन कमाने के लिए करता है, तो वह श्रीविग्रह को भगवान् के रूप में नहीं देख रहा है, वरन् जीविका कमाने के लिए उसे पत्थर समझ रहा है।

अभय को राष्ट्रवादी नेता सुभाषचन्द्र बोस के साथ अपने आध्यात्मिक गुरु के सम्बन्ध को जानने का अवसर मिला था। सुभाषचन्द्र बोस स्काटिश चर्च कालेज में उनके साथी थे। बोस इस बात से चिन्ताकुल होकर श्रील भक्तिसिद्धान्त के पास आए थे कि वे धार्मिक जीवन के लिए शिष्यों की भरती कर रहे हैं।

श्रील प्रभुपाद : सुभाषचन्द्र बोस मेरे गुरु महाराज के पास आए और बोले, " तो आपने कितने ही लोगों को पकड़ लिया है। राष्ट्र के लिए वे कुछ नहीं कर रहे हैं।" मेरे गुरु महाराज ने उत्तर दिया, “हाँ, राष्ट्रीयता के प्रचार के लिए आपको मजबूत लोगों की जरूरत है, लेकिन ये लोग बहुत कमजोर हैं। आप देख सकते हैं वे कितने दुर्बल हैं। इसलिए उन पर नजर मत डालो। उन्हें कुछ खाने और हरे कृष्ण का कीर्तन करने दो।” इस तरह उन्होंने बोस से अपने को दूर रखा।

श्रील भक्तिसिद्धान्त कहा करते थे कि जब वह दिन आयेगा कि हाईकोर्ट के जज कृष्ण के भक्त बन जायँगे और वैष्णव तिलक माथे पर लगाएँगे, तब वे मानेंगे कि श्रीकृष्णभावनामृत के प्रसार का उद्देश्य सफल हो रहा है।

'उन्होंने

वे कहते थे कि ईसा मसीह शक्ति - आवेश अवतार थे - भगवान् की शक्ति से सम्पन्न अवतार । " यह अन्यथा कैसे हो सकता है ?" वे कहते, भगवान् के लिए हर वस्तु का बलिदान किया था । "

अपनी विद्वत्तापूर्ण भाषा में उन्होंने घोषणा की कि, “भौतिकतावादी आचरण का दिव्य लोक तक पहुँचना संभव नहीं । ” लेकिन कभी-कभी अपने भाषणों में वे अपेक्षाकृत जनसामान्य की सरल भाषा का प्रयोग करते हुए कहते, " सांसारिक विद्वान् जो परम भगवान को अपनी इन्द्रियों और बौद्धिक तर्क-वितर्क से समझने का प्रयत्न कर रहे हैं, उस व्यक्ति के समान हैं जो बोतल की मधु का स्वाद बोतल की बाहरी परत को चाट कर पाने का प्रयत्न कर रहा हो ।” उनका कहना था कि धर्म के बिना दर्शन कोरा तर्क है; और बिना दर्शन के धर्म केवल भावुकता है जो कभी-कभी उन्माद बन जाता है ।

श्रील भक्तिसिद्धान्त कहते थे कि सारा संसार केवल वंचकों और वंचितों का समाज है। वे उदाहरण देते थे कि दुश्चरित्र स्त्रियाँ प्राय: कुछ तीर्थ-स्थानों में साधुओं को फँसाने के विचार से जाती हैं, यह सोच कर कि उनसे संतान प्राप्त करना गौरवपूर्ण होगा। और भ्रष्ट पुरुष साधुओं की वेश-भूषा इन दुश्चरित्र स्त्रियों द्वारा फुसलाए जाने की आशा से करते हैं। उनका निष्कर्ष था : मनुष्य का उद्देश्य इस भौतिक संसार को छोड़कर भगवान् के पास पहुँचना होना चाहिए क्योंकि "यह भौतिक संसार भले आदमी के रहने योग्य नही है । "

अभय देखते कि जब कोई शिष्य अपने आध्यात्मिक गुरु से भविष्य की किसी चीज के बारे में पूछता तो वे कभी ऐसा उत्तर न देते कि, “हाँ, यह होगा" या " हम ऐसा करने जा रहे हैं।” प्रत्युत वे कहते, “हाँ, श्री भगवान् कृष्ण की इच्छा हुई तो ऐसा हो सकता है ।" यद्यपि पहले अपनी युवावस्था में, वे ज्योतिषी रह चुके थे और भविष्यवाणी किया करते थे, लेकिन बाद में उसे उन्होंने छोड़ दिया।

श्रील भक्तिसिद्धान्त आजीवन ब्रह्मचारी रहे और स्त्रियों के संग से उन्हें सख्त परहेज था। एक बार अभय अपने आध्यात्मिक गुरु के साथ बैठे थे। उसी समय एक अन्य शिष्य भी अपनी युवा स्त्री के साथ वहाँ उपस्थित था। युवती ने श्रील भक्तिसिद्धान्त से पूछा कि क्या मैं आप से एकान्त में बात कर सकती हूँ। उन्होंने कहा, “नहीं, जो कुछ कहना हो तुम यहाँ ही कहो। मैं एकान्त में तुमसे नहीं मिल सकता।” अभय इससे बहुत प्रभावित हुए। श्रील भक्तिसिद्धान्त की अवस्था तब ६० वर्ष के लगभग थी और वह युवती उनकी पोती होने योग्य थी; तब भी किसी स्त्री से एकान्त में बात करना उन्हें स्वीकार नहीं था ।

श्रील भक्तिसिद्धान्त अपने शिष्यों को संन्यासी बनाना पसन्द करते थे। लेकिन एक दिन उनके एक संन्यासी - शिष्य को उसकी स्त्री बलात् घसीट ले गई। श्रील भक्तिसिद्धान्त साश्रु होकर दुख प्रकट करने लगे कि वे उस शिष्य को बचाने में सफल नहीं हुए। तो भी वे श्रीकृष्णभावनामृत में डूबे हुए पारिवारिक जीवन के निन्दक नहीं थे। उनका कहना था : “स्त्री सहवास मुझे सैंकड़ों बार मंजूर है, यदि मुझे विश्वास हो जाय कि उससे श्रीकृष्णभावना से भरे बच्चे उत्पन्न होंगे । '

वे ब्रह्मचारियों को गौड़ीय मठ की पत्रिका और पुस्तकें बेचने के लिए बाहर भेजते और यदि कोई ब्रह्मचारी केवल एक या दो प्रतियाँ ही बेच पाता तब भी वे बहुत प्रसन्न होते और कहते, “तुम कितने अच्छे हो । " कोई लेख प्रकाशन योग्य है या नहीं, इसका विचार करने में वे इस बात की गणना करते कि कृष्ण या चैतन्य शब्द उसमें कितनी बार प्रयुक्त हुआ है । यदि ये पवित्र नाम उसमें पर्याप्त बार आए होते, तो वे कहते, "ठीक है, यह लेख छप सकता है।'

वे बंगाली में कहते, “प्राण आछे यार, से हेतु प्रचार;" अर्थात् जीवन प्रचार के लिए है— मृत मनुष्य प्रचार नहीं कर सकता। जब उनके कुछ प्रचारकों ने, जो कीर्तन तथा प्रचार करने के लिए गए थे, बताया कि उनकी सभा में कोई नहीं आया तो श्रील भक्तिसिद्धान्त ने उत्तर दिया, "कोई हर्ज नहीं। चारों दीवारें तुम्हें सुनेंगी। यही पर्याप्त है। निराश न हो । कीर्त्तन करते जाओ।" और इस बात पर टिप्पणी करते हुए कि उनके कुछ शिष्य अलग हट गए हैं, उन्होंने कहा, “कुछ सैनिक तो मरेंगे ही। "

लेकिन वे नहीं चाहते थे कि उनके शिष्य आराम की जिन्दगी बिताएँ — एक बार एक शिष्य की आलोचना उन्होंने यह कह कर की थी कि वह आराम पसंद है। एकान्त में कठोर जीवन का अभ्यास भी उन्हें पसन्द नहीं था। अपना बनाया एक गीत वे गाया करते थे, मन तुमि किसेर वैष्णव ? " मेरे प्यारे मन, तुम किस तरह के वैष्णव हो ? हरिदास ठाकुर और रूप गोस्वामी जैसे महान् संतों की नकल करते हुए तुम एकान्त में हरे कृष्ण गा रहे हो लेकिन सचमुच तुम्हारा ध्यान स्त्रियों और धन पर केन्द्रित है । तुम्हारे अंदर कुवासनाएँ भरी हैं, इसलिए तुम्हारा भजन केवल प्रवंचना है।" वे शिक्षा देते थे कि यदि कोई भक्त नगर में प्रचार करने के स्थान पर एकान्त में चिन्तन करना चाहता है, तो वह महान् संतों की नकल करके लोगों को इस आशा में धोखा दे रहा है कि इससे उसे सस्ती प्रशंसा प्राप्त होगी । इसलिए श्रील भक्तिसिद्धान्त किसी ऐसे स्थान में गौड़ीय मठ की शाखा नहीं खोलना चाहते थे जो अच्छी तरह आबाद न हो ।

अभय अपने आध्यात्मिक गुरु को हर अवसर पर सुनते, परन्तु वे उनके सामने कोई दार्शनिक जिज्ञासा शायद ही कभी रखते। उन्हें केवल सुनना पसंद था ।

श्रील प्रभुपाद : मैं अपने आध्यात्मिक गुरु से कभी कोई प्रश्न न पूछता, अतिरिक्त इस प्रश्न के कि "मैं आपकी सेवा कैसे करूंगा ?"

***

औषध के कारोबार में अभय चरण दे विख्यात हो गए थे। बोस की लैबोरेटरी के लिए उन्होंने अच्छा काम किया था और दूसरी कम्पनियाँ भी उन्हें अपना एजेंट बनाना चाहने लगी थीं। अभय को धनाढ्य बनने की आशा थी ।

श्रील प्रभुपाद : मेरे गुरु महाराज ने आज्ञा दी, “तुम यह करो, पर मैने सोचा कि पहले मैं धनाढ्य बन जाऊँ । तब मैं करूँगा। आरंभ में मैं सोचता, “मेरे शिष्य बन्धुओं ने संन्यास ले लिया है। वे घर-घर भीख मांग रहे हैं। मैं भीख क्यों माँगू ? पहले धन कमा लूँ, तब श्रीकृष्णभावनामृत का प्रचार आरंभ करूँगा ।"

भारत में दवाइयाँ बनाने की सबसे बड़ी कम्पनी 'बंगाल केमिकल' ने अभय से एक प्रस्ताव किया, किन्तु जब कम्पनी ने उनकी सभी शर्तों को नहीं माना, तब उन्होंने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, यद्यपि बाद में इसका उन्हें दुख हुआ। तो भी लक्षण अच्छे थे। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि वे भारत के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक होंगे और डा. कार्तिक बोस ने उनके ससुर से कहा था कि, " वे बहुत कुशाग्र बुद्धि व्यक्ति हैं । '

लेकिन दूसरे प्रकार के लक्षण भी थे। अपनी विस्तृत यात्राओं से उन्होंने बहुत से ग्राहक बना लिए थे; उनसे उतने ही भुगतान भी प्राप्त करने थे । बहुत-से ग्राहकों से भुगतान आने में देर होने लगी; उधर अभय पर कर्ज बढ़ने लगा; बोस लैबोरेटरी के दस हजार रुपये उन पर चढ़ गए। उनके शत्रु भी थे। जो व्यक्ति अभय के स्थान पर कलकत्ता में बोस लैबोरेटरी का मैनेजर बना था, वह बोस को उनके खिलाफ भड़काने लगा। उसने बोस को भड़काया कि अभय बहुत अधिक स्वतंत्र हो गए हैं; उनके बारे में सुना गया है कि वे बंगाल केमिकल से वार्ता चला रहे हैं और जो इतना अधिक कर्ज उनके ऊपर हो गया है उसका कारण नए मैनेजर के अनुसार प्रधान कार्यालय के प्रति उनमें स्वामिभक्ति का अभाव है। कार्तिक बोस का रुख अभय के प्रति अनुकूल बना रहा, लेकिन जब कर्ज के कारण उन्हें आर्थिक कठिनाई होने लगी तो जाँच के लिए वे इलाहाबाद गए। प्रयाग फार्मेसी में उनकी बात डा. घोष से हुई जिन्होंने कहा कि " वे बहुत ईमानदार व्यक्ति हैं। उनका कोई दोष नहीं है। विश्वास करके उन्होंने ओषधि - विक्रेताओं को दवाइयाँ उधार पर दीं। लेकिन वे धन वसूल नहीं कर पा रहे हैं।'

डा. बोस बोले, “बहुत ठीक, लेकिन मैं बराबर उधार नहीं चला सकता । अभय ने कार्तिक बोस के साथ पूरा हिसाब किया और दोनों सहमत हुए कि मामले को निबटाने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि डा. बोस प्रयाग फार्मेसी और अभय का सारा हिसाब-किताब स्वयं ग्रहण कर लें । इस तरह अभय कर्ज से तो मुक्त हो गए, लेकिन बेकार भी हो गए ।

अतुलानन्द ब्रह्मचारी उनके पास गए और बोले, “आप मठ में क्यों नहीं आ जाते ? अब तो आप स्वतंत्र हैं ।" अभय निकट के रूप गोस्वामी मठ में और अधिक जाने लगे। गौड़ीय मठ के ब्रह्मचारियों ने उन्हें सुझाव दिया कि वे कृष्ण भगवान् पर पूर्ण रूप से निर्भर हो जाएँ, संसार का त्याग कर दें, और उनके साथ सार्वकालिक प्रचारक बन जाएँ। लेकिन अभय के लिए कारोबार छोड़ने का कोई प्रश्न नहीं था। अगर वे ऐसा करें, तो उनकी पत्नी और बच्चों का क्या होगा ? उनके और राधारानी के एक तीसरी संतान हो गई थी। वह लड़का था । इसलिए उनका आर्थिक दायित्व बढ़ रहा था । संसार को छोड़ देने की जो राय ब्रह्मचारियों ने उन्हें दी, उसमें उनकी नियत अच्छी थी और उन्होंने जो स्वयं ऐसा किया था वह बहुत अच्छा किया था, परन्तु अभय उनकी राय नहीं स्वीकार कर सकते थे ।

बिना काम के वे कठिनाई में थे। लेकिन उनका विश्वास बना रहा और कोई नया रोजगार पाने के लिए वे आतुर थे । अन्य कंपनियाँ भी थीं जो उन्हें अपना एजेंट बनाने को तैयार थीं। और उनके बहुत से पुराने ग्राहकों ने चाहा कि, बोस का आदमी हुए बिना भी, अभय उनके समायोजक हो जाएँ। अभय ने अपनी निजी ओषधि निर्माण प्रयोगशाला खोलने पर विचार किया। अंत में उन्होंने निर्णय किया कि वे अपना निजी कारखाना खोलेंगे, लेकिन इलाहाबाद से कहीं बड़े शहर बम्बई में ।

उन्होंने तय किया कि उनका परिवार इलाहाबाद में रहेगा और वे तथा उनके भाई बम्बई जायँगे, एक कमरा लेंगे और वहाँ एक कारखाना शुरू करने की संभावनाओं का सर्वेक्षण करेंगे। यद्यपि राधारानी अपने पति की यात्राओं की अभ्यस्त थीं, लेकिन उनकी कोई यात्रा इतने दिनों की नहीं थी जितनी इसके होने की संभावना थी। अभय ने उनसे बात की और बताया कि उनके धंधे में हाल के नुकसान को श्रीकृष्ण का आयोजन मानना चाहिए । परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्हें अब एक बड़ा धंधा आरंभ करना होगा और वह बम्बई जैसे बड़े नगर में ही किया जा सकता है। लेकिन इलाहाबाद में पारिवारिक जीवन थोड़े समय के लिए भंग हो जायगा । उन्होंने दवाएँ बनाने की एक छोटी इकाई इलाहाबाद में कायम करके अपने भानजे, तुलसी, को उसका भार सौंप दिया और भाई के साथ वे बम्बई चले गए।

बम्बई में अभय ने ग्रांट रोड पर एक कमरा किराए पर लिया और बोस लैबोरेटरी के मैनेजर के रूप में उन्होंने जो जानकारी प्राप्त की थी उसका उपयोग करते हुए दवाएँ बनाने का अपना एक निजी कारखाना स्थापित किया। धंधा अच्छा चल निकला था जबकि स्मिथ इंस्टीट्यूट नाम की एक बड़ी कम्पनी ने अपने सेल्स एजेंट के रूप में उनकी सेवाएँ चाही। अभय ने वह स्वीकार कर लिया, यह सोचते हुए कि स्मिथ के एजेंट के रूप में वे पैसा कमा लेंगे और साथ ही अपने धंधे का भी विकास करेंगे। दवाएँ बनाने के धंधे से पैसा कमाने के बारे में उन्हें अपने पर विश्वास था ।

धंधे के सिलसिले में बम्बई में यात्रा करते हुए अभय की भेंट गौड़ीय मठ के भक्तिरक्षक श्रीधर महाराज, और भक्तिसारंग गोस्वामी से हुई। ये दोनों भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के वरिष्ठ संन्यासी शिष्य थे। अभय ने उन्हें सम्मानित गुरुभाई माना जो धर्मशास्त्रों और वैष्णव- दर्शन के मर्मज्ञ थे। ऐसा लगा कि मानों अभय के भाग्य में था कि वे जहाँ भी जायँगे, उन्हें गुरुभाई मिलेंगे। उन्होंने और संन्यासियों ने इस प्रकार अचानक शहर में मिल जाने को शुभ माना । इलाहाबाद में मिले गौड़ीय मठ के सदस्यों की भाँति ही इन प्रचारकों के पास भी कोई स्थायी केन्द्र नहीं था, लेकिन वे एक केन्द्र स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की ओर से वे घर-घर जाकर गौड़ीय मठ की बम्बई शाखा खोलने के लिए सहायक ढूँढ रहे थे ।

अभय सहायता करना चाहते थे। अपने आध्यात्मिक गुरु की सेवा में एक साथी गुरुभाई होने के नाते वे अपनी सेवाएँ अर्पित करने को प्रस्तुत थे। संन्यासी के रूप में वे दोनों अभय से ऊँची स्थिति में थे, लेकिन अपनी कुछ असहाय अवस्था में वे सहायता के लिए अभय का सहारा खोज रहे थे। वे प्राक्टर रोड पर एक छोटी सी जगह में ठहरे थे और महत्त्वपूर्ण लोगों से सम्पर्क बनाने का अवसर उन्हें नहीं मिला था। अब उन लोगों ने एक दल बनाया, अभय उनका परिचय कारोबारी लोगों से कराते और संन्यासी उनसे नए केन्द्र के लिए अनुदान लेते। अभयचरणारविन्द चंदा इकठ्ठा करने में माहिर थे और उसके लिए स्वेच्छापूर्वक उन्होंने समय दिया। फिर, उनके साथी गुरुभाई उन पर जोर डालने लगे कि गौड़ीय मठ के प्रचार में वे पूरी तरह सम्मिलित हों ।

श्रील प्रभुपाद: हमने दान एकत्र करने के लिए एक दल बनाया जिसमें श्रीधर महाराज, गोस्वामी महाराज और स्वयं मैं तीन लोग थे। मैं उन्हें कुछ दवा विक्रेताओं और डाक्टरों के पास ले गया और दो दिन में हमने पाँच सौ रुपए इकठ्ठे किए। श्रीधर महाराज भाषण देते, मैं परिचय कराता और गोस्वामी महाराज दान माँगने के लिए आग्रह करते। इस तरह गोस्वामी महाराज बहुत सराहना करने लगे और वे मेरे बारे में ऊँची बातें करने लगे, “बाबू होकर, वह बहुत दक्ष है; उसके इतने मित्र हैं और उसने इतना धन एकत्र कर लिया। हम उसे अपने मठ का कार्य-वाहक क्यों न बना दें ? वह हमारे साथ क्यों नहीं रहता ? वह अकेले क्यों रहता है ?"

अभय प्राक्टर रोड पर मठ का स्थान देखने गए। वहाँ भक्तों के साथ वे कीर्तन में सम्मिलित हुए और उन्होंने भागवत पर उनके भाषण सुने । संन्यासियों की प्रार्थना पर अभय ने अपने ऊपर यह जिम्मेदारी ली कि बम्बई - केन्द्र के लिए वे अधिक उपयुक्त जगह खोजेंगे। वे शहर में जहाँ भी जाते, संभव स्थानों की बात उनके ध्यान में रहती । जैसे इलाहाबाद में रहने वाली अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति उनकी जिम्मेदारी थी, ठीक वैसे ही दीक्षा ग्रहण करने के कारण अपने साथी गुरुभाइयों की सहायता करना उनका कर्त्तव्य था । न केवल धंधे की प्रतियोगिता में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उन्हें संघर्ष करना था, वरन् उन्हें प्रचार में भी सम्मिलित होना था। लेकिन उनको लगता था कि वे संन्यासियों का जीवन कभी नहीं बिता सकेंगे जिसमें अपनी कहने को कुछ चीजें न हों, कोई धंधा न हो, नंगे फर्श पर सोना पड़े, निरा सादा खाना खाना पड़े ।

फरवरी २५, १९३५

उस दिन श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का बासठवाँ जन्मदिवस था । जगन्नाथपुरी में, जहाँ श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती निवास कर रहे थे, भक्तों ने उस दिवस को समारोहपूर्वक मनाया । बम्बई - केन्द्र में जो थोड़े से भक्त थे, उन्होने संध्या को जल्सा किया और स्थानीय लोगों को उसमें आमंत्रित किया। उस अवसर के लिए अभय ने एक कविता लिखी :

नमस्कार करो, ओ लोगों नमस्कार करो

उस शुभ दिन को,

जो स्वर्ग से भी मंगलमय है,

मई से भी अधिक मधुर है

जब वे प्रकट हुए पवित्र पुरी में,

मेरे भगवान् और गुरु कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ।

ओह ! मेरे गुरु सुख सम्वाद प्रचारक देवदूत,

हमको अपना प्रकाश दो,

अपना दीप प्रज्ज्वलित करो।

अस्तित्व के लिए संघर्ष करो, मानव जाति ।

एक मात्र आशा कृष्णकृपाश्रीमूर्ति

इससे पाया है जीवन

नया, स्फूर्तिमय हमने ।

हम पथभ्रष्ट हैं मार्ग से भटके हुए ।

प्रभो, हमें बचा लो हमारी व्यग्र प्रार्थना है।

विस्मयजनक हैं तुम्हारे ढंग हमें अपनी ओर उन्मुख करने हेतु ।

प्रणाम करते हैं हम तुम्हारे चरणों को कृष्ण कृपा श्रीमूर्ति ।

भूल गए हैं कृष्ण को हम पतित जीव,

इसी से हम भर रहे हैं माया का भारी कर ।

चारों ओर अंधकार सब असूझ आशा हैं केवल कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ।

संदेश सेवा का तुम लाए हो ।

स्वस्थ जीवन का जैसा चैतन्य लाए थे ।

सर्व- अज्ञात यह बंधन युक्त है।

यह आपकी भेंट है कृष्ण कृपा श्रीमूर्ति ।

परम है चेतन सिद्ध किया है तुमने,

निराकार आपदाओं का निराकरण किया है तुमने ।

अर्चन करते हैं तुम्हारे चरणों का कृष्ण कृपा श्रीमूर्ति ।

यदि तुम न आते तो कौन बताता हमें

संदेश कृष्ण का शक्ति और साहस से भरा ।

तुम्हारा अधिकार है यह । दंड तुम्हारे हाथ है।

मुझ पतित का उद्धार करो कृष्ण कृपा श्रीमूर्ति ।

सेवा का मार्ग निर्मित तुम्हारे द्वारा

हर्षद और स्वस्थ है प्रातः के नीहारबिन्दु की तरह ।

सबसे प्राचीन किन्तु नित्य नए परिधान में ।

किया अद्भुत कर्म कृष्ण कृपा श्रीमूर्ति ।

अभय चरण दास

अभय ने एक भाषण भी तैयार किया था जिसे उन्होंने एकत्रित अतिथियों और गौड़ीय मठ के सदस्यों के सामने पढ़ा। यद्यपि उनकी मातृभाषा बंगाली थी, किन्तु उनकी अंग्रेजी स्पष्ट और सुबोध थी :

सज्जनों, आचार्यदेव की अभ्यर्थना का जो आयोजन आज शाम यहाँ किया गया है, वह किसी शाखा - विशेष का नहीं है, क्योंकि जब हम गुरुदेव या आचार्यदेव के मूलभूत सिद्धान्त की बात करते हैं, तो यह सर्वव्यापी सिद्धान्त की बात होती है । वहाँ मेरे गुरु, आपके गुरु या अन्य किसी के गुरु में भेद करने का प्रश्न नहीं उठता। गुरु केवल एक हैं जो मुझे, आपको और अन्यों को शिक्षा देने के लिए असंख्य रूपों में प्रकट होते हैं। गुरु या आचार्यदेव, जैसा कि प्रामाणिक धर्म शास्त्रों से हमें ज्ञात होता है, अद्वैत संसार का संदेश देते हैं; मेरा आशय परम पुरुष के उस दिव्य लोक से है जहाँ हर वस्तु बिना किसी भेद-भाव के परम सत्य की सेवा में रत है।

कविता की तरह ही, भाषण भी व्यक्तिगत था, लेकिन कविता से भी बढ़कर वह अधिकारपूर्ण, दार्शनिक प्रचार था । गुरुभाई अभय द्वारा वैष्णव दर्शन के ऐसे कौशलपूर्ण प्रस्तुतीकरण से बहुत प्रभावित हुए। यह कैसे संभव हुआ ? उनके लिए यह कोई ऐसे आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए थी; अपने गुरुभाइयों की तरह ही अभय ने भी वैष्णव दर्शन के सम्बन्ध में श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से सुना था। गीता, भागवत और भक्ति रसामृत - सिन्धु का अध्ययन करने और अपने आध्यात्मिक गुरु को सुनने के बाद भला अभय उनकी शिक्षाओं का आख्यान करने में समर्थ क्यों न होते ? क्या वे परम्परा के भक्त नहीं थे ? लेकिन उस समय तक किसी को मालूम नहीं था कि वे अंग्रेजी में इतनी दक्षता से प्रवचन कर सकते हैं।

इसलिए, यदि परम सत्य एक है, जिसके विषय में हम सोचते हैं कोई मतभेद नहीं है, तो गुरु भी दो नहीं हो सकते। जिन आचार्यदेव की विनम्र अभ्यर्थना के लिए हम आज एकत्रित हैं, वे किसी शाखागत संस्था के या सत्य की विभिन्न व्याख्या करने वाले बहुत से गुरुओं में से एक गुरु नहीं हैं। प्रत्युत वे जगद् गुरु हैं या हम सब के गुरु हैं। अंतर केवल यह है कि कुछ पूरे तन-मन से उनकी आज्ञा मानते हैं जबकि दूसरे उनकी आज्ञा का साक्षात् पालन नहीं करते।

जिस गुरु के सम्बन्ध में अभय बोल रहे थे, निश्चय ही, वह श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती थे—– धर्मशास्त्रों के मूल संग्रहकर्ता व्यासदेव के प्रतिनिधि । अभय ने समझाया कि किस प्रकार श्रीकृष्ण ने सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को दिव्य ज्ञान दिया था । ब्रह्मा से वह ज्ञान नारद को मिला, नारद से व्यास को और व्यास से मध्व को ... चूँकि श्रील भक्तिसिद्धान्त वैदिक ज्ञान को, बिना किसी टीका-टिप्पणी के, यथा- परम्परा प्रस्तुत कर रहे थे, इसलिए वे ही सच्चे गुरु थे जो लोगों को वेदों के आप्त ज्ञान से लाभान्वित कर सकते थे।

अभय ने कहना जारी रखा:

सज्जनों, हमारा ज्ञान इतना अधूरा है, हमारी इन्द्रियाँ इतनी अपूर्ण हैं, हमारे साधन इतने सीमित हैं कि हमारे लिए परम धाम का रंचमात्र भी ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं, जब तक कि हम श्री व्यासदेव या उनके सच्चे प्रनिनिधि के चरण-कमलों में अपने को समर्पित न कर दें।

अभय ने व्याख्या की कि भारत को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हजारों वर्षों से है और यह ज्ञान — यद्यपि इस समय वह धुंधला पड़ गया है— संसार को भारत की वास्तविक भेंट है।

हमें मानना पड़ेगा कि वर्तमान युग में जो अंधकार है वह भौतिक उन्नति के अभाव के कारण नहीं है, वरन् इसलिए है कि हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति का सूत्र खो बैठे हैं जो मानव जीवन की प्रथम आवश्यकता और सर्वोच्च प्रकार की सभ्यता की कसौटी है। वायुयानों से बम गिराना उस आदिम अवस्था से उन्नत सभ्यता का द्योतक नहीं है जिसमें पहाड़ों की चोटियों से शत्रुओं के सिरों पर बड़े-बड़े पत्थर बरसाए जाते थे। नई मशीनगनों और विषैली गैसों के आविष्कार से पड़ोसियों को मारने की कला में सुधार को हम उस आदिम बर्बरता से आगे की उन्नति नहीं कह सकते जो धनुष-बाण से जान लेने की दक्षता पर गर्व करती थी । न ही पुष्ट स्वार्थपरता की भावना के विकास से बौद्धिक पशुता के अतिरिक्त और कुछ सिद्ध होता है...

अतः, जब अन्य लोग ऐतिहासिक अनस्तित्व के पेट में थे, भारत के ऋषियों ने एक भिन्न प्रकार की सभ्यता का विकास किया जो हमें स्वयं को जानने में समर्थ बनाती है। उन्होंने अन्वेषित किया कि हमारा अस्तित्व भौतिक नहीं है, वरन् हम आध्यात्मिक, स्थायी और परम सत्ता के अविनश्वर सेवक हैं।

भाषण जारी रहा — दुर्नियोजित मानव जीवन के भयंकर परिणामों का और बार-बार के जन्म और मृत्यु के दुखों का वर्णन करते हुए । अभय ने आध्यात्मिक गुरु के सामने समर्पित होने की आवश्यकता पर बार-बार बल दिया। उन्होंने मिथ्याभाषी भौतिकतावादी दार्शनिकों, नास्तिक राजनीतिज्ञों और अंधे इन्द्रिय पोषकों की निन्दा की। बार-बार उन्होंने भगवान् के और भगवान् के सच्चे भक्तों के सेवक के रूप में आत्मा की स्वाभाविक और उत्कृष्ट स्थिति की ओर संकेत किया। अपने आध्यात्मिक गुरु के दो वर्ष पुराने दीक्षित शिष्य अभय ने अपनी ओर संकेत करते हुए कहा :

सज्जनों, दिव्य ज्ञान के लिए, यद्यपि हम लोग भोले बालकों की तरह हैं, तथापि कृष्ण कृपाश्रीमूर्ति मेरे गुरुदेव ने मिथ्या ज्ञान के अविजेय अधंकार को नष्ट करने के लिए हमारे अंदर ज्ञान की चिनगारी प्रज्ज्वलित कर दी है, और हम इतने सुरक्षित हैं कि मायावादी विचार धारा के कितने भी दार्शनिक तर्क हों वे हमें कृष्ण कृपा श्रीमूर्ति के चरण-कमलों के शाश्वत आश्रय से रंचमात्र भी विचलित नहीं कर सकते — और हम इस विषय में मायावादी विचार धारा के बड़े-बड़े विद्वानों को चुनौती देने के लिए तैयार हैं कि श्री भगवान् और गोलोक में उनकी दिव्य लीलाएँ ही वेदों का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान हैं।

तदन्तर उन्होंने आत्म समर्पण की ओजमयी प्रार्थना के साथ अपने भाषण का समापन किया :

व्यक्तिगत रूप से मुझे कोई आशा नहीं है कि अपने जीवन के आगामी करोड़ों जन्मों में मैं श्री भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा का कोई अवसर पाऊँगा, किन्तु मुझे विश्वास है कि किसी न किसी दिन उस माया के कीचड़ से मेरा उद्धार होगा जिसमें इस समय मैं जकड़ा हुआ हूँ। अतएव सच्चे मन से मैं अपने देव - स्वरूप गुरु के चरण-कमलों में निवेदन करता हूँ कि अपने पूर्वजन्मों के दुष्कृत्यों के लिए जो मेरा भोग्य है उसे मुझे भोगने दिया जाय किन्तु इस अनुभूति की मुझे शक्ति प्राप्त हो कि परम श्री भगवान् के एक तुच्छ सेवक के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं उस परम श्री भगवान् के जिसकी प्राप्ति देवस्वरूप गुरुदेव की एकान्त दया से ही संभव है। इसलिए अपनी समस्त विनम्रता के साथ मैं उनके चरण कमलों को नमन करता हूँ।

अपनी कविता और भाषण दोनों को उन्होंने 'द हारमोनिस्ट' में प्रकाशन के लिए दिया । उस पहली कविता के प्रकाशन से ही अंग्रेजी के सक्षम लेखक के रूप में उनका नाम हो गया। 'द हारमोनिस्ट के सम्पादक स्वामी भक्तिप्रदीप तीर्थ ने उन्हें 'कवि' की उपाधि दी। अभय के कुछ गुरु भाइयों ने भी यह नाम पकड़ लिया और वे उन्हें 'कवि' कहने लगे। उनमें से अधिकतर, यहाँ तक कि संन्यासी भी, अंग्रेजी में उतने निष्णात् नहीं थे। किन्तु अभय कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। उन्हें यह बात बहुत पसंद आई कि कविता व्यक्तिगत थी जो अभय द्वारा एक सच्चे गुरु की स्वीकृति और उनकी पूजा और तज्जन्य प्रसन्नता से उद्भूत थी। साथ ही धर्मशास्त्रों के निष्कर्षों का उसमें कठोरता से पालन किया गया था ।

अभय को 'श्री व्यास - पूजा - अभिनन्दन' का वास्तविक गौरव उस समय मिला जब उनकी कविता श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती तक पहुँची और उससे उन्हें प्रसन्नता हुई। उसके एक पद से श्रील भक्तिसिद्धान्त को इतनी प्रसन्नता हुई कि उन्होंने उसे सभी अतिथियों को दिखाया :

परब्रह्म है परम पुरुष, प्रमाणित हुआ आपसे ।

निर्विशेष, निर्वाणवाद, भागा भारत भूमि से ।।

जो हो, इस सरल पद में अभय ने मायावादियों के विरुद्ध अपने आध्यात्मिक गुरु की शिक्षा का सारांश अभिव्यक्त किया और श्रील भक्तिसिद्धान्त के लिए यह एक संकेत था कि अभय अपने गुरुदेव की विचारधारा को कितनी अच्छी तरह जान गए थे। अभय आह्लादित हो उठे, जब उन्होंने सुना कि कविता के इस पद से उनके आध्यात्मिक गुरु को प्रसन्नता हुई है। अभय के एक गुरुभाई ने अभय की इस कविता की तुलना रूप गोस्वामी की एक कविता से की जिसमें भगवान् चैतन्य के उस आंतरिक चिन्तन का वर्णन है जिसके कारण वे भावातिरेक की दशा को प्राप्त हो गए थे।

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती को लेख भी बहुत पसन्द आया और उन्होंने उसे अपने कुछ विश्वस्त भक्तों को दिखाया। 'द हारमोनिस्ट' के सम्पादक को उन्होंने आदेश दिया, "वह जो कुछ लिखे, उसे प्रकाशित करो।”

***

अभय के विचार से यह स्वाभाविक था कि व्यवसाय में उसके बहुत से विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी हों— यह सफलता का लक्षण था । किन्तु बम्बई की प्रतिद्वन्द्विता से उन्होंने धनाढ्य बनने का अच्छा अवसर खो दिया। स्मिथ इंस्टीट्यूट में अभय के निदेशक का लड़का उनका 'शत्रु' बन गया। पिता और पुत्र दोनों ने स्मिथ इंस्टीट्यूट के अधिकारियों से शिकायत की कि अभय चरण दे स्मिथ लैबोरेटरी की वस्तुओं के स्थान पर अपनी निजी लैबोरेटरी की वस्तुओं के विक्रय को आगे बढ़ा रहे हैं। अभय स्मिथ इंस्टीट्यूट में अपना स्थान खो बैठे और उनके निदेशक ने अपने लड़के को उनके स्थान पर एजेंट बना दिया । अभय को फिर आत्म-निर्भर बनना पड़ा ।

बम्बई में अपने साथी संन्यासी गुरुभाइयों की सहायता में लगे हुए अभय को गवालिया टैंक रोड पर एक दो मंजिला मकान किराए से प्राप्य था । हर एक सहमत था कि वह केन्द्र के लिए उपयुक्त था; अभय ने किराए की व्यवस्था की, मकान की मरम्मत कराई और संन्यासियों को उसमें ले जाकर बसाया। ऐसा लगता था कि अभय के सभी आध्यात्मिक प्रयत्न तो सफल हो जाते थे, किन्तु व्यावसायिक प्रयत्नों को बार-बार विफलता का मुँह देखना पड़ता था । व्यवसाय में कुछ विरोधियों का होना तो स्वाभाविक ही है, इससे निरुत्साहित होने की कोई बात नहीं थी— षड्यंत्र और हानि व्यवसाय के खेल के अनिवार्य अंग हैं; ओषधि निर्माण व्यवसाय के क्षेत्र में अभय का नाम अभी भी देश भर में विख्यात था। लेकिन व्यवसाय में लाभ-हानि का प्रश्न अभय को उतना परेशान नहीं कर रहा था जितना उनका यह संदेह कि इस व्यवसाय में बने रहना उनके लिए अपने आध्यात्मिक गुरु की सेवा का सर्वोत्तम मार्ग है या नहीं । व्यवसाय तभी अच्छा था यदि यह उनके आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ चल सके। भगवान् चैतन्य ने कहा था कि हरे कृष्ण - कीर्तन को हर गाँव और कस्बे में फैलाना चाहिए, और अभय उस भविष्यवाणी को पूरा करने में अपने आध्यात्मिक गुरु की सहायता करना चाहते थे, विशेष कर धन इकठ्ठा करके और केन्द्रों की स्थापना करके। उनकी कमाई का सर्वांश उनके परिवार के पोषण में ही नहीं खर्च होना चाहिए था ।

आदर्श तो यही होना चाहिए कि पारिवारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन साथ-साथ प्रगति करें। लेकिन कठिनाई अभय की पत्नी को लेकर थी । उन्हें व्यवसाय में हानि से चिन्ता होती और आध्यात्मिक सफलताओं के प्रति वे उदासीन थीं। वे घर और परिवार के घेरे में ही रहना चाहती थीं और अभय के सुझावों के बावजूद उन्होंने श्रील भक्तिसिद्धान्त से दीक्षा लेने से इनकार किया था। स्वयं अभय की पत्नी के रूप में उनका सबसे बड़ा प्रतिद्वन्द्वी मौजूद था। और प्रतिद्वन्द्विता का यह युद्ध घर के अंदर चल रहा था जो और भी बुरा था ।

अभय जब कभी अपने परिवार में इलाहाबाद जाते, तो वे अपने अच्छे इरादों से उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करते। बम्बई में व्यवसाय अच्छा नहीं चल रहा था, लेकिन उनके पास अच्छी योजनाएँ थीं और वे अपने परिवार को विश्वास दिलाते कि चिन्ता का कोई कारण नहीं। उन्होंने योजना बनाई कि पत्नी को अधिक उपदेश दिया जाय ताकि सारा परिवार आध्यात्मिक क्रिया-कलाप में अधिकाधिक लग सकें। वे चाहते थे कि अतिथियों को आमंत्रित किया जाय, भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत पर चर्चाएँ हों, कीर्तन किया जाय और प्रसाद बाँटा जाय। वे अपने आध्यात्मिक गुरु और गुरुभाइयों की तरह प्रचार कार्य में प्रवृत्त होना चाहते थे। यह कार्यक्रम ऐसा नहीं था कि कोई संन्यासी या ब्रह्मचारी आकर उसकी अध्यक्षता करे। अभय स्वयं ही यह कर सकते थे। आदर्श परिवार का यह एक दृष्टान्त हो सकता था। लेकिन राधारानी उनके सामने झुकने को तैयार नहीं थीं। उनका उपदेश सुनने के स्थान पर बच्चों के साथ चाय पीती हुई वह दूसरे कमरे में बैठी रहतीं।

बम्बई में अभय श्रीधर महाराज और भक्ति-सारंग गोस्वामी के सम्पर्क में आए। ये दोनों संन्यासी ऊँचे दर्जे के विद्वान् थे। श्रीधर महाराज शास्त्रों में पारंगत होने के कारण समादृत थे और भक्ति - सारंग गोस्वामी का नाम उनके अंग्रेजी में लिखने और भाषण देने के कारण था । कभी-कभी अभय अपनी अनुभूतियों के सम्बन्ध में उनसे विचार-विमर्श करते ।

अभय ने अपने आप भी शास्त्रों का अध्ययन किया— जिनमें उनके आध्यात्मिक गुरु और पहले के आचार्यों द्वारा गीता और श्रीमद्भागवत पर लिखी गई टीकाएँ सम्मिलित थीं । विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर द्वारा भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ४१ ) की टीका का अध्ययन करते हुए उन्होंने पढ़ा कि शिष्य के लिए उसके आध्यात्मिक गुरु का आदेश उसके प्राण और आत्मा सदृश है। इन शब्दों का अभय पर गहरा प्रभाव हुआ । श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के आदेश के पालन की उनकी इच्छाशक्ति को इससे बड़ा बल मिला। और श्रीमद्भागवत के दसवे स्कंध के अठ्ठासीवें अध्याय में उन्हें एक ऐसा श्लोक मिला जिसमें भगवान् कृष्ण की उक्ति से वे चमत्कृत हो उठे :

यस्याहं अनुगृहणामि हरिष्ये तद्धनं शनैः

ततोऽधनं त्यजन्ति अस्य स्व-जना दुःख - दुःखितम्

'जब मैं किसी पर अनुग्रह करता हूँ तो धीरे-धीरे उसकी भौतिक सम्पत्ति का हरण कर लेता हूँ। तब उसके स्वजन उसे दुःख- दग्ध मानव समझकर उसका परित्याग कर देते हैं।'

श्लोक को पढ़कर अभय जैसे काँप गए। यह मानों उन्हीं के लिए हो । लेकिन इसका आशय क्या था ? " क्या इसका आशय यह है कि कृष्ण मेरी सारी सम्पत्ति ले लेंगे?” उन्होंने सोचा । उस समय क्या सचमुच यही हो रहा था ? क्या इसीलिए व्यवसाय सम्बन्धी उनकी सारी योजनाएँ विफल हो रही थी ? उन्होंने श्लोक के अर्थ के विषय में श्रीधर महाराज से चर्चा की। श्रीधर महाराज ने पुष्टि की कि हाँ, जो कुछ हो रहा था, वह शायद भगवान् कृष्ण और उनके बीच बढ़ते सम्बन्ध का परिणाम था ।

***

जुलाई १९३५ ई. में श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती बम्बई केन्द्र में भगवान् कृष्ण के श्रीविग्रह की स्थापना और उसकी आराधना का समारंभ करने के लिए आए। उनके भक्तों ने तब तक जो कुछ किया था, उससे वे बहुत प्रसन्न हुए । भक्तिसारंग महाराज ने उनके सामने स्वीकार किया कि धन-संग्रह और नए केन्द्र की स्थापना के रूप में अधिकांश कार्य अभय बाबू का किया हुआ था । " अभय अलग क्यों रह रहे हैं ?" भक्तिसारंग ने पूछा, " उन्हें इस बम्बई - केन्द्र का अध्यक्ष होना चाहिए।"

भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने उत्तर दिया, “अच्छा ही है कि वे आपके दल से बाहर रह रहे हैं। समय आने पर वे सब कुछ स्वयं करेंगे । आपको उनकी संस्तुति नहीं करनी पड़ेगी । '

जब यह वार्ता हुई तब अभय मौजूद नहीं थे, लेकिन उनके गुरुभाइयों ने, श्रील भक्तिसिद्धान्त ने जो कुछ कहा था, वह उन्हें बता दिया। अभय के आध्यात्मिक गुरु के ये शब्द, जिनमें रहस्यमय भविष्यवाणी की ध्वनि थी, उनके लिए महत्त्वपूर्ण थे। उन शब्दों को उन्होंने अपने में संचित कर लिया और उनके अर्थ पर वे विचार करने लगे ।

***

नवम्बर १९३५ ई. में अभय फिर अपने आध्यात्मिक गुरु के पास वृन्दावन पहुँचे । कार्तिक का महीना था जो वृन्दावन के दर्शन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त महीना है। श्रील भक्तिसिद्धान्त अपने शिष्यों के साथ एक मास के लिए शान्त और पवित्र राधाकुण्ड के तट पर रह रहे थे, जहाँ राधा और कृष्ण क्रीड़ा किया करते थे ।

जुलाई में बम्बई छोड़ने बम्बई छोड़ने के बाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती कलकत्ता चले गए थे। वहाँ उन्होंने रेडियो पर भाषण दिया, बहुत से सार्वजनिक भाषण दिए, उन प्रचारकर्ताओं के लौटने का स्वागत किया जिन्हें उन्होंने योरप भेजा था, और श्रीमद्भागवत के अनुवाद और टीका का प्रकाशन पूरा किया । तब अक्तूबर में वे राधाकुण्ड आए थे। भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा निर्मित छोटे से एक मंजिले मकान में निवास करते हुए और वहाँ एकत्रित हुए शिष्यों को उपदेश देते हुए वे उपनिषदों, चैतन्यचरितामृत और श्रीमद्भागवत के अध्ययन में लगे थे। श्री कुंज बिहारी मठ में उन्होंने श्रीविग्रहों की स्थापना भी की थी ।

राधा-कुण्ड के तट प्राचीन इमली, तमाल और नीम की गांठदार शाखाओं की चमकदार हरी पत्तियों से आच्छादित थे । छिछले जल में सारस अपनी लम्बी टांगों पर चित्रवत् खड़े रहते थे जबकि जलमुर्गाबियाँ कुंड में आर-पार चक्कर लगाया करती थीं और जब-तब मछली के लिए अचानक डुबकी मार देती थीं। कभी-कभी कोई कच्छप जल की गहराई से अपनी नाक ऊपर कर देता था या कोई मछली छलांग लगा देती थी। हरे रंग के तोते, प्रायः जोड़ों में, हरे-भरे वृक्षों के बाहर-भीतर उड़ते दिखाई देते थे और इधर उधर फुदकते हुए गौरेये चहचहाया करते थे। वहाँ मोर भी थे, जो अधिकतर निकटवर्ती बगीचों में रहते थे। कभी-कभी खरगोश और यहाँ तक कि हिरण भी, आ जाते थे।

राधाकुण्ड का वातावरण कृष्ण लीला के इतिहास से समृद्ध था । पाँच हजार वर्ष पहले राधा और कृष्ण ने यहाँ दिव्य लीलाएँ की थीं और केवल पाँच सौ वर्ष पहले भगवान् चैतन्य ने इस राधाकुण्ड को फिर से खोज निकाला था। भगवान् चैतन्य के महान् अनुयायी, रघुनाथ दास गोस्वामी, यहाँ कई साल रहे थे। वे निरन्तर हरे कृष्ण का कीर्तन करते रहते और भगवान् चैतन्य महाप्रभु के क्रियाकलापों की चर्चा में लीन रहते थे। और यहीं पर एक भजन - कुटीर में कृष्णदास कविराज ने चैतन्य चरितामृत नाम से महाप्रभु चैतन्य की लीलाओं का वर्णन लिखा था जिसमें भक्तिसिद्धान्त सरस्वती इतना आनन्द लेते थे। राधाकुण्ड के निवासियों में बहुत से बाबाजी लोग थे जो छोटे-छोटे भजन - कुटीरों में रहते थे और हरे कृष्ण का कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करते थे ।

अपने आध्यात्मिक गुरु के वृन्दावन में निवास के विषय में सुनकर अभय अपने पुत्र के साथ बम्बई से वहाँ पहुँचे थे— केवल उनके दर्शनों के लिए । श्रील भक्तिसिद्धान्त का दर्शन सदैव ही प्रसन्नता का अवसर था, फिर यह । दर्शन वृन्दावन में प्राप्त हो रहा था इसलिए उसमें और भी पूर्णता थी । अपने प्रिय मार्ग-दर्शक और मित्र से अभय का यह मिलन १९३२ ई. में वृन्दावन की परिक्रमा में हुई भेंट से भिन्न था। अब अभय कमरे के पिछले भाग में बैठे अज्ञात व्यक्ति नहीं थे। अब वे प्रामाणिक शिष्य थे जिसको 'कवि' नाम मिल चुका था, जिसने प्रशंसनीय कविता और लेख की रचना की थी, जिसने ध्यान लगा कर गुरुवाणी सुनी थी, और जिसके द्वारा इलाहाबाद मठ को सहायता मिली थी और बम्बई में मठ की स्थापना हो चुकी थी । इस बार अभय को अवसर मिल गया था कि वे एकान्त में अपने आध्यात्मिक गुरु से मिल सकें। गुरु को अभय के पुत्र के विषय में स्मरण था । उन्होंने उसे एक छोटी जैकेट भेंट में दी। और अब राधाकुंड के किनारे अकेले में साथ-साथ टहलते हुए श्रील भक्तिसिद्धान्त कभी अभय की ओर मुड़कर उनसे गोपनीय वार्ता करने लगते ।

श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने कहा कि उनके शिष्यों में कलकत्ता में कुछ लड़ाई-झगड़े हुए थे; वे इससे बहुत दुखी थे । वृन्दावन में उनके मन पर अभी भी उसका असर था। उनके कुछ शिष्य आपस में इसलिए लड़ रहे थे कि कलकत्ता में गौड़ीय मठ के मुख्यालय में कौन किस कमरे में रहेगा और किन सुविधाओं का उपयोग करेगा। वे सभी शिष्य उसी मठ के सदस्य थे और मुख्यालय का उपयोग भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के निर्देशन में श्रीकृष्णभावनामृत के प्रचार के लिए होना था। ऐसा होने पर भी वे अपने आध्यात्मिक गुरु की उपस्थिति में भी लड़ रहे थे । ब्राह्मणों और वैष्णवों से अपेक्षा की जाती है कि वे जीवमात्र के प्रति ईर्ष्या-द्वेष से मुक्त होंगे, आपस में एक दूसरे के प्रति तो कहना ही क्या ? यदि वे अभी आपस में लड़ रहे हैं तो आध्यात्मिक गुरु के तिरोभाव के बाद वे क्या न करेंगे ? अभय का इन मामलों से कोई सम्बन्ध न था और न उन्हें उनके बारे में विस्तृत जानकारी थी या इस बात का ज्ञान था कि उन में कौन-कौन लोग शामिल हैं। लेकिन अपने आध्यात्मिक गुरु से उनके बारे में जानकर अभय भी दुखी हुए।

बहुत चिन्तित होकर, श्रील भक्तिसिद्धान्त अभय से बोले, “आगुन ज्वालबे" आग लग जायगी — एक दिन कलकत्ता के गौड़ीय मठ में, और निजी हितों की वह आग फैल जायेगी और सब भस्म कर डालेगी। अभय सुनते रहे, लेकिन वे नहीं जानते थे कि करें क्या । श्रील भक्तिसिद्धान्त ने यह सिद्ध करने के लिए लम्बा और कड़ा संघर्ष किया था कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह जिस जाति का हो, ब्राह्मण, संन्यासी या वैष्णव के दर्जे तक उठ सकता है। किन्तु यदि उनके अनुयायी अल्प धन या पद के लोभ में पड़ कर प्रदूषित हो जाते हैं और इस प्रकार, सारी दीक्षा और परिष्कार के बावजूद, अपने को निम्न वर्ण का सिद्ध करते हैं, तो उनका मिशन उच्छिन्न हो जायगा । यदि धर्म के नाम पर वे आराम, पद और बड़प्पन में अनुरक्त हो जाते हैं, तो इसका आशय केवल यही हो सकता है कि वे अपने आध्यात्मिक गुरु की शिक्षाओं को ग्रहण करने में असफल रहे ।

श्रील प्रभुपाद: उनका रोना था कि ये लोग मकान की ईंटों और पत्थरों के पीछे पागल थे। उन्होंने इसकी निन्दा की। वे बहुत अधिक दुखी थे ।

" जब हम एक किराए के मकान में रह रहे थे, " श्रील भक्तिसिद्धान्त ने कहा, " उस समय यदि हम दो या तीन सौ रुपए भी इकठ्ठे कर लेते थे, तो उल्टडंग में हम बहुत आराम से रहते थे। उस समय हम अधिक प्रसन्न थे। लेकिन जब से बाग बाजार में हमें यह संगमरमर का भवन मिला है, हमारे लोग आपस में झगड़ते हैं। इस कमरे में कौन रहेगा ? उस कमरे में कौन रहेगा? इस कमरे का मालिक कौन बनेगा ? हर एक अलग-अलग योजना बना रहा है। बहुत अच्छा होता कि दीवालों से संगमरमर निकाल कर उनसे पैसे पैदा किए जाते। यदि मैं ऐसा कर सकता और पुस्तकें प्रकाशित करता तो वह बहुत अच्छा होता।'

अभय को लगा कि उनके आध्यात्मिक गुरु उनसे आपात् स्थिति में बात कर रहे हैं मानो वे उनसे सहायता मांग रहे हों या घोर संकट के निवारण के लिए आगाह कर रहे हों। लेकिन वे क्या कर सकते थे ?

श्रील भक्तिसिद्धान्त ने तब सीधे अभय से कहा, 'आमार इच्छा छिल किछू बै कराना,” मेरी इच्छा कुछ पुस्तकें छपाने की थी । यदि तुम्हें कभी भी धन मिले, किताबें छपाना ।” राधा-कुण्ड के किनारे खड़े हुए और अपने आध्यात्मिक गुरु को निहारते हुए अभय को लगा कि ये शब्द उनके अन्तर्मन में प्रविष्ट हो रहे हैं, “यदि तुम्हें कभी धन मिले, किताबें छपाना ।'

***

दिसम्बर १९३६

श्रील भक्तिसिद्धान्त का स्वास्थ्य जगन्नाथपुरी में खराब था। अभय बम्बई में थे, और वे अपने गुरु महाराज को पत्र लिखना चाहते थे। उन्होंने सोचा, "वे मुझ पर कुछ दयालु हैं; वे मेरी प्रार्थना समझ जायँगे ।" और वे लिखने लगे :

प्रिय गुरु महाराज,

चरणकमलों में विनम्र प्रणाम स्वीकार हो । आपके पास बहुत से शिष्य हैं और मैं उनमें से एक हूँ, लेकिन वे आपकी साक्षात् सेवा कर रहे हैं। उनमें कुछ ब्रह्मचारी हैं, कुछ संन्यासी हैं, किन्तु मैं गृहस्थ हूँ। मैं आपकी सेवा नहीं कर सकता। कभी-कभी मैं आर्थिक सहायता करता हूँ, जबकि मैं साक्षात् सेवा नहीं कर सकता। क्या कोई विशेष सेवा है जो मैं कर सकता

दो सप्ताह बाद अभय को उत्तर मिला :

मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम अंग्रेजी के माध्यम से हमारे विचारों और तर्कों को उन लोगों तक पहुँचा सकते हो जो अन्य सदस्यों की भाषाओं से परिचित नहीं हैं।

इससे तुम्हारा भी भला होगा और श्रोताओं का भी ।

मुझे पूरी आशा है कि यदि तुम भगवान् चैतन्य की शिक्षाओं की नूतन धारणा का प्रवेश जन सामान्य में तथा दार्शनिकों और धर्मवेत्ताओं में कराकर मिशन की सेवा कर सको तो तुम अपने आप को उच्च कोटि का अँग्रेजी प्रचारक बना लोगे ।

अभय को तुरन्त ज्ञात हो गया कि यह तो वही उपदेश है जो १९२२ ई. की पहली भेंट में उन्होंने प्राप्त किया था। उन्होंने इसे उसकी पुष्टि माना । अब अपने जीवन के उद्देश्य के विषय में उनके मन में कोई संदेह नहीं रह गया था। उनके आध्यात्मिक गुरु ने १९२२ में कलकत्ता में जो कुछ कहा था, वह कोई आकस्मिक उक्ति नहीं थी, न वह कोई आकस्मिक भेंट थी। उपदेश वही था, "अपने को अंग्रेजी में बहुत अच्छा प्रचारक बनाओ। इससे तुम्हारा भी भला होगा और तुम्हारे श्रोताओं का भी । "

***

श्रील भक्तिसिद्धान्त का १ जनवरी १९३७ को इस नश्वर संसार से तिरोभाव हो गया। जीवन के अंतिम दिन वे चैतन्य चरितामृत पढ़ने और माला जपने में बिता रहे थे। जब एक डाक्टर उन्हें देखने आया था और उसने इंजेक्शन देना चाहा था तब श्रील भक्तिसिद्धान्त ने विरोध किया था, “आप मुझे इस ढंग से तंग क्यों करते हैं? केवल हरे कृष्ण कहो, बस ।” शिष्यों के प्रति उनके अंतिम शब्द ये थे :

मेरा उपदेश है कि रूप रघुनाथ ( भगवान् चैतन्य के शिष्य) की शिक्षाओं का प्रचार सभी शक्ति और साधनों को लगा कर करो। हमारा अंतिम लक्ष्य श्री श्री रूप स्वामी और रघुनाथ गोस्वामी के चरण-कमलों की रज बन जाना है । तुम लोगों को अपने आध्यात्मिक गुरु के निर्देशन में एकसाथ मिलकर परम ज्ञान, परम भगवान् की सेवा में कार्यरत होना चाहिए । इस भौतिक संसार में केवल भगवान् की सेवा के निमित्त तुमको बिना वाद-विवाद के येन-केन-प्रकारेण जीवन-यापन करना चाहिए। सारी कठिनाइओं, आलोचनाओं और असुविधाओं के बावजूद परम भगवान् की सेवा का कार्य कभी मत छोड़ो। तुम इसलिए निराश मत हो कि संसार में अधिकतर लोग परम भगवान् की सेवा नहीं करते। तुम सेवा कार्य स्वयं मत बंद करो; यही तुम्हारा सर्वस्व है। दिव्य भगवान् के पवित्र नाम के श्रवण और कीर्तन से मुख मत मोड़ो। तुम हमेशा दिव्य भगवान् के नाम का कीर्तन एक वृक्ष के धैर्य और सहिष्णुता तथा एक तिनके की विनम्रता के साथ करो... तुम लोगों में बहुत से सक्षम और योग्य कार्यकर्ता हैं। हमें और किसी चीज की अभिलाषा नहीं है।

अंतिम दिनों में उनकी चेतना बनी रही और अंत तक वे आदेश देते रहे । उन्होंने विशेष रूप से और स्पष्ट शब्दों में आदेश दिया कि गौड़ीय मठ की व्यवस्था का भार एक द्वादश-सदस्यीय शासी मंडल पर हो जिसे भक्तगण अपने में से चुन कर बना सकते हैं। अंत में उन्होंने कहा “जो उपस्थित हैं और जो अनुपस्थित हैं, उन सबको मेरा आशीर्वाद । स्मरण रहे कि हमारा एकमात्र कर्त्तव्य और धर्म परम भगवान् और उनके भक्तों की सेवा का प्रचार और प्रसार करना है।” जनवरी १ को पूर्वार्ध में ५ बजकर ३० मिनट पर उन्होंने अंतिम सांस ली।

यह समाचार शीघ्र बम्बई में अभय के पास पहुँचा । तत्क्षण वे दुख से विलाप करने लगे । — उनके लिए अब अपने गुरु महाराज से प्रत्याशित भेंट का आनन्द जाता रहा; देवस्वरूप श्रील भक्तिसिद्धान्त के लम्बे प्रभावशाली रूप के केवल दर्शन के लिए व्यवसाय के बहाने कलकत्ता या वृन्दावन की यात्राओं के भी अवसर समाप्त हो गए। अब वे कभी नहीं मिलेंगे, यह विचार ही अभय के लिए असह्य हो गया । दार्शनिक दृष्टि से अभय जानते थे कि दुख मनाने का कोई कारण नहीं है। भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का इस संसार में आगमन भगवान् चैतन्य के मिशन को पूरा करने के लिए था और अब जरूरत थी कि वे इस संसार को छोड़ कर दूसरे में जायँ जहाँ उन्हें वैसे ही क्रिया-कलाप में लगना था । इस दार्शनिक विचार से सुसज्जित होते हुए भी, अभय अकेला अनुभव कर रहे थे। उनके दो महान् शुभचिन्तक जाते रहे थे— पहले उनके पिताजी और अब उनके आध्यात्मिक गुरु । लेकिन वे कृतज्ञ थे कि उनके आध्यात्मिक गुरु के निधन के केवल दो सप्ताह पूर्व अंतिम आदेश के रूप में उन्हें उनकी विशेष कृपा प्राप्त हुई थी। अभय ने उनके पत्र को बार-बार पढ़ा- अब दूसरा पत्र तो आना नहीं था। घनिष्ठ बातें और मुलाकातें अब होनी नहीं थीं। लेकिन उनके पत्र के सहारे अभय भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के आदेश प्राप्त करते रहेंगे। पत्र ठीक समय पर प्राप्त हुआ था। दूसरे लोग जो कुछ भी कहें, अब अभय को निस्सन्देह रूप में मालूम हो गया था कि अपने आध्यात्मिक गुरु को प्रसन्न कैसे किया जा सकता है और कृष्ण से सम्बन्ध कैसे स्थिर रह सकता है। उनके आदेशों का पालन करते हुए अभय अपने सर्वाधिक प्रिय शुभेच्छु के तिरोभाव से हुई हानि की अनुभूति पर विजय पा लेंगे।

 
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥