प्रभुपाद की यात्रा में तीन शिष्य उनके साथ थे : श्यामसुंदर उनका सचिव, प्रद्युम्नउनका सेवक और संस्कृत सम्पादक और नन्दकुमार उनका रसोइया । उनका पहला पड़ाव सिंगापुर था जहाँ आप्रवासन अधिकारियों ने, बिना कोई कारण बताए, देश में उनका प्रवेश वर्जित कर दिया। सिंगापुर में प्रभुपाद से सहानुभूति रखने वाले भारतीयों ने उनके व्याख्यान की व्यवस्था की थी और सैकड़ों आमंत्रण-पत्र भी प्रेषित किए थे, किन्तु निराश और अस्वस्थ श्रील प्रभुपाद को बारह घंटे की सिडनी की यात्रा जारी रखनी पड़ी। अप्रैल १, १९७२ मेलबोर्न जाने से पहले प्रभुपाद ने सिडनी में कुछ दिन रुकने की योजना बनाई थी । यद्यपि आस्ट्रेलिया में कृष्णभावनामृत आंदोलन अभी शुरू ही हुआ था, प्रभुपाद ने उसमें सार्थक संकेत देखे थे: भक्तों को दीक्षित करना, टेलीविजन और रेडियो पर कार्यक्रम, और मन्दिर में प्रातः कालीन व्याख्यानों में रुचि रखने वाली भीड़ की उपस्थिति। यह आस्ट्रेलिया की उनकी केवल दूसरी यात्रा थी। पहली यात्रा में, जो उन्होंने करीब साल भर पहले की थी, उन्होंने राधा - गोपीनाथ के विग्रहों की स्थापना की थी और उनसे प्रार्थना की थी, "अब मैं आपको म्लेच्छों के हाथों में छोड़ रहा हूँ। मैं जिम्मेदारी नहीं ले सकता । कृपापूर्वक इन लड़के-लड़कियों का मार्गदर्शन कीजिए और उनको बुद्धि दीजिए कि वे आपकी पूजा-अर्चना अच्छे ढंग से कर सकें।” अब वहाँ लौटने पर जब उन्होंने विग्रहों को सुसज्जित और सुसेवित देखा तो वे प्रसन्न हो उठे। पाँच दिन के व्यस्त धर्मोपदेश के बाद वे मेलबोर्न चले गए । उपनन्द : मेलबोर्न में प्रभुपाद टाउन हाल में बोले और मेलबोर्न के सभी हिप्पी वहाँ उपस्थित थे। वहाँ एक व्यक्ति था जिसे लोग जादूगर कहते थे । वह विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हुआ करता था, किन्तु उसने पद से त्याग-पत्र दे दिया था ताकि वह अपनी जादूगरी दिखा सके। वह बड़ा बुद्धिमान् था । वह काला लबादा और लियोटार्ड पहने था । ज्योंही प्रभुपाद ने प्रश्न आमंत्रित किए वह उठ कर खड़ा हो गया। उसके साथ उसके अपने अनुयायियों का दल था। पहले वह बहुत आदरपूर्वक बोला, “क्षमा करें, कृष्णकृपाश्रीमूर्ति जी, मैं आपका व्याख्यान सुनता रहा हूँ, किन्तु मैं इस सम्बन्ध में एक बात कहना चाहता हूँ। मेरा विश्वास है कि मैं भगवान् हूँ। मैं ब्रह्माण्ड का केन्द्र हूँ। अगले वर्ष मैं किसी समय यह सिद्ध कर दूँगा कि मैं ब्रह्माण्ड का केन्द्र हूँ ।" प्रभुपाद ने कहा, "यह सब ठीक है। प्रत्येक व्यक्ति ऐसा ही समझता है। आप औरों से भिन्न कैसे हैं ?" सचमुच जादूगर के नाटक का मतलब यही था कि वह अपने को भिन्न दिखाना चाहता था, वेशभूषा आदि हर चीज में । अतएव प्रभुपाद ने उसका भण्डाफोड़ कर दिया, एक और भौतिकतावादी मूर्ख के रूप में, उसे बेनकाब कर दिया। हर व्यक्ति हँसने लगा और तालियाँ बजाने लगा । आकलैण्ड अप्रैल १४, १९७२ प्रभुपाद के न्यूजीलैंड पहुँचने के कुछ ही सप्ताह पूर्व भक्तों ने वहाँ एक मंदिर का निर्माण किया था। प्रभुपाद वहाँ कुछ दिन रुके और उन्होंने राधा-कृष्ण विग्रहों की स्थापना की । भूरिजन : प्रभुपाद ने संगमरमर के विशाल विग्रह स्थापित किए, किन्तु उनकी देखभाल के लिए वहाँ केवल एक लड़की थी । प्रभुपाद का आग्रह था कि जैसे भी हो विग्रहों की स्थापना होनी चाहिए और उनकी देखभाल बढ़िया तरीके से होनी चाहिए। उन्होंने माँग रखी कि विग्रहों के पास पहनने के कई जोड़े वस्त्र तुरन्त होने चाहिए। इसलिए कुछ भक्तों ने लकड़ी का एक अस्थायी आसन बनाया और विग्रहों के लिए एक पर्दा टांग दिया। पर्दा गिर पड़ा। हर चीज गलत हो रही थी । सब गड़बड़ में था और प्रत्येक व्यक्ति घबराया हुआ था । तब श्रील प्रभुपाद ने सब अपने ऊपर ले लिया। वे बोले, “इसे यहाँ रखो, उसे वहाँ पीछे रखो। यह करो, वह करो ।” उन्होंने पूरी स्थिति को अपने नियंत्रण में ले लिया। भक्तों ने पर्दे फिर से टाँग दिए । और प्रभुपाद ने कहा - "इस व्यास - आसन को हटा दो।" और भक्तों ने व्यास - आसन को उठाकर कमरे के बाहर कर दिया, क्योंकि वह इतना बड़ा था और कमरा इतना छोटा था कि लोगों के बैठने के लिए जगह ही नहीं बचती थी । प्रभुपाद ने फर्श पर एक चटाई बिछाई और उस पर बैठ गए। प्रभुपाद हांगकांग में एक रात रुके जहाँ उन्होंने कार्यक्रम में भाषण दिया जो भूरिजन और उसकी पत्नी जगत्तारणी द्वारा आयोजित किया गया था । भूरिजन : हमने भारतीय बच्चों को सिखाया था कि वे आध्यात्मिक गुरु महाराज की प्रार्थना के गीत गाएँ । अतः हमने उनसे प्रभुपाद की प्रार्थना के गीत गवाए । उन्होंने मेरी ओर देखा और वे सचमुच प्रसन्न थे। तब उन्होंने कहा, “आपकी पत्नी ने कहा कि यहाँ रुचि लेने वाले लोग नहीं हैं। किन्तु आपके पास तो इतने सारे शिष्य हैं। " मैं बोला, “प्रभुपाद, ये सारे शिष्य आपके हैं। भाषण के अंत में प्रभुपाद ने पूछा कि किसी को प्रश्न तो नहीं पूछने हैं। और एक छोटे से भारतीय बच्चे ने हाथ उठाया और कहा, “वन में आग किसने लगाई ?" बच्चा उस आग की बात सोच रहा था जिसका उल्लेख कृष्ण की लीलाओं की पुस्तक में है। किन्तु उसने इतना कहा, "वन में आग किसने लगाई ?” प्रभुपाद ने प्रश्न को एक और ढंग से लिया — कि यह भौतिक संसार एक जलते हुए जंगल की तरह है, जैसा कि आध्यात्मिक गुरु की प्रार्थना में वर्णन आया था। इसलिए प्रभुपाद ने कहा, "किसी ने भी वन में आग नहीं लगाई। वह अपने आप लग जाती है— जैसा कि जंगल में होता है, दो बाँसों के आपस में रगड़ने से आग शुरू हो जाती है। किन्तु हरे कृष्ण जपने से हम भौतिक जीवन की इस वनाग्नि से बच सकते हैं । " जापान में भक्तजन टोकियो के बाहर पहाड़ी क्षेत्र के एक पुराने फार्म हाउस में रहते थे। श्रील प्रभुपाद एक निकट के होटल में रुके, मंदिर में राधा-कृष्ण विग्रहों की स्थापना की और टोकियो में इस्कान के नेता, सुदामा, को संन्यास की दीक्षा दी । प्रभुपाद कहते थे कि वे " अपने शिष्यों की नाड़ी पहचानते थे।” हाल में ही उन्हें अपने प्रमुख प्रबन्धकों में ऐसी प्रवृत्ति का आभास मिला था कि वे प्रबन्ध में बहुत अधिक डूबे रहते थे और धर्मोपदेश में पर्याप्त ध्यान नहीं लगाते थे। वे अपने सचिव से कहते रहे थे कि जी.बी.सी. के लोगों को केवल अपनी डेस्कों के पीछे बैठ कर शक्ति के केन्द्रीकरण का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, वरन् उन्हें विरक्त होना चाहिए, संन्यास ले लेना चाहिए और भ्रमण करके धर्मोपदेश करना चाहिए। इसी बात को मन में रख कर उन्होंने जी. बी. सी. के दो सचिवों, तमाल कृष्ण और सुदामा, को संन्यास आश्रम में दीक्षित किया था। अब प्रभुपाद ने उन लोगों को शिक्षा दी कि वे प्रबन्धक के दायित्व का त्याग न करें, वरन् उनके उदाहरण का अनुसरण करते हुए विरक्त भाव से प्रचार करें और जी. बी. सी. के अपने-अपने क्षेत्र में व्यवस्था देखें । श्यामसुंदर : प्रभुपाद के होटल की दीवारें झीने कागज की थीं और बहुत ठंडी थीं। यह तो वैसा ही था जैसे कोई ठंडे उत्तरी क्षेत्र में आ गया हो, लेकिन वहाँ सेंट्रल हीटिंग की व्यवस्था न हो। एक दिन मैं मंगल आरती के लिए प्रभुपाद के कमरे में गया और मैने अपनी चारों ओर कम्बल लपेट रखा था। मैने कहा, “प्रभुपाद, क्या आपको सर्दी लग रही है ?" मैंने देखा कि ठंडक से उन्हें कष्ट था, किन्तु वह उन्हें कृष्ण की सेवा करने से रोक नहीं सकती थी । नन्दकुमार : रविवार के भोजन में लगभग तीस जापानी आए थे, उनमें से अधिकतर युवा थे और हर एक अपने साथ प्रभुपाद के लिए एक फूल लाया था जिसे उसने प्रभुपाद के चरणों पर रखा और उन्हें पूरी तरह से दण्डवत् प्रणाम किया। वे इतने आदरपूर्ण थे कि प्रभुपाद को कहना पड़ा कि यह बहुत अच्छा लक्षण है कि "ये लड़के, लड़कियाँ एक साधु का आदर करना जानते हैं । " भूरिजन : हमने कोबे में एक कार्यक्रम आयोजित किया था । वहाँ बहुत से भारतीय और सिन्धी रहते थे। वह टोकियो से बहुत दूर था । उन लोगों ने प्रभुपाद को एक मकान की तीसरी मंजिल पर ठहरा दिया और उसमें कोई लिफ्ट नहीं था। प्रभुपाद ने अपना सिर ऊपर किया और वे सीधे चढ़ते चले गए, यद्यपि इसमें उन्हें घोर मेहनत करनी पड़ी। कार्यक्रम की व्यवस्था इतनी खराब थी कि व्याख्यान करने वालों में प्रभुपाद के साथ ही एक मायावादी संन्यासी को भी रख दिया गया था। प्रभुपाद पहले बोलना चाहते थे, इसलिए वे अंग्रेजी में बोले । श्रोताओं में सौ के करीब भारतीय थे। प्रभुपाद ने स्पष्ट रूप से और जोरदार शब्दों में बताया कि कृष्ण भगवान् हैं। तब दूसरा संन्यासी हिन्दी में बोलने लगा। प्रभुपाद आँखे बन्द किये और जप करते हुए वहाँ बैठे रहे। एकाएक उन्होंने हम लोगों की ओर देखा और कहा, “कीर्तन तुरन्त आरंभ करो । हम खड़े हो गए और कीर्तन करने लगे । कीर्तन के तुरन्त बाद प्रभुपाद चले गए। जब हम प्रभुपाद के कमरे में उनके पास पहुँचे तो उन्होंने बताया कि क्या हुआ था। वे बोले, “पहले तो वह ठीक बोल रहा था। उसके बाद वह पञ्चोपासना के बारे में बोलने लगा और जब उसने यह कहा कि परम भगवान् निर्विशेष, निराकार हैं तो मैं इसे सहन नहीं कर सका।" अंत में प्रभुपाद ने कहा, " जब मैं बाहर होता हूँ तब सिंह जैसा होता हूँ । घर में मैं मेमना बन जाता हूँ ।' टोकियो में प्रभुपाद को अपने मुद्रक, दाई निप्पोन, से व्यापारिक काम था । दाई निप्पोन प्रिंटिंग कम्पनी ने केवल प्रभुपाद की बात पर विश्वास करके उन्हें लाखों डालर उधार दिए, उससे प्रभुपाद बहुत प्रसन्न हुए । दाई निप्पोन का एक अफसर भी उनसे मिला और उसने विनम्रतापूर्वक पूछा कि क्या उसका पुत्र, जिसकी मृत्यु डेढ़ साल पहले हो गई थी, बुद्ध के पास पहुँचा होगा ? एक युवा जापानी अधिकारी ने, जो उस वृद्ध व्यक्ति के प्रश्नों और प्रभुपाद के उत्तरों का अनुवाद कर रहा था, बताया कि, “उसके बाद से वह वृद्ध व्यक्ति बहुत धार्मिक हो गया है।" प्रभुपाद ने पूछा, “क्या वह सबसे बड़ा पुत्र था ?" "बीस वर्षीय, सबसे छोटा । " दोनों अधिकारियों ने आपस में संक्षिप्त वार्ता की। 'वह पूछ रहे हैं कि पुत्र की मृत्यु से इन्हें जो दुख है उससे छुटकारा कैसे पा सकते हैं ?" प्रभुपाद ने कहा, "ओह, हाँ, हर बात की सफलता इस बात पर निर्भर है कि कृष्ण कैसे प्रसन्न हों। वह मैं बता चुका हूँ।” उन्होंने कृष्ण और बलराम के गुरु महाराज, सांदीपनि मुनि, के दृष्टान्त का वर्णन किया। सांदीपनि मुनि का पुत्र मर गया था। उन्होंने अपने दोनों छात्रों से कहा, "मेरे प्रिय बालको ! मैने अपना बहुत जवान लड़का खो दिया है। यदि तुम उसे ला दो तो मैं बहुत प्रसन्न होऊँगा ।" अतः कृष्ण यमराज के लोक में गए और उनके पुत्र को वापस ले आए। 'आप कृष्ण को प्रसन्न कर लीजिए और आपको वरदान मिल जायगा । आपका पुत्र वरदान पा लेगा । आप कृष्ण से प्रार्थना करें कि आपका पुत्र जहाँ कहीं भी हो, प्रसन्न रहे। क्या आपका विश्वास पुनर्जन्म में है ? " युवा जापानी ने वृद्ध जापानी से जापानी भाषा में बात की । वृद्ध ने सिर हिलाया । प्रभुपाद ने आगे कहा, “हाँ, तो आपके लड़के ने अवश्य कहीं कोई दूसरा शरीर धारण कर लिया होगा । अतः यदि आप कृष्ण से प्रार्थना करें तो आपका पुत्र सुखी रहेगा, उसे लाभ मिलेगा । " जब करन्धर, जो पश्चिम संयुक्त राज्य में प्रभुपाद के जी. बी. सी. सचिव थे, दाई निप्पोन मुद्रण कम्पनी से सौदा करने में प्रभुपाद की सहायता के लिए टोकियो पहुँचे, तो प्रभुपाद ने उनसे अपनी नई बम्बई योजना के बारे में बात की । उन्होंने गिरिराज को भी दो पत्र इस बात पर बल देते हुए लिखे कि बम्बई में इमारतों का निर्माण शीघ्र से शीघ्र आरंभ कर दें। वे चाहते थे कि बम्बई का मंदिर जयपुर के सुविख्यात गोविन्दजी मंदिर के नमूने पर बनाएं और उसकी बगल में एक ऊँचे आधुनिक होटल काँ निमार्ण हो । — “ जुहू की योजना तभी पूरी होगी ।" प्रभुपाद ने लिखा कि हंस (जो अब सुरभि बन गया था) को नक्शा तैयार कर लेना चाहिए और जून तक उसे नगरपालिका की स्वीकृति मिल जानी चाहिए जिससे वर्षा के पहले नींव का काम आरंभ किया जा सके । प्रभुपाद ने आगे लिखा, "मैं नहीं समझता कि यह सब संभव होगा, किन्तु प्रयत्न करो तो अच्छा ही होगा । " हवाई मई ६, १९७२ होनोलुलू के अपने एक सप्ताह के अधिवास में प्रभुपाद ने पंचतत्त्व के पाँच विग्रहों की स्थापना की; महाप्रभु चैतन्य महाप्रभु नित्यानन्द, श्री अद्वैत, श्री गदाधर, और श्री श्रीवास, उन्होंने एक योग-ध्यान केन्द्र में योग पर भाषण भी दिया । समुद्र तट पर प्रातः कालीन भ्रमणों में वे डारविन-वाद की भ्रान्तियों की व्याख्या करते थे। उन्होंने टिप्पणी की कि वैकिकी समुद्र तट जुहू जैसा सुन्दर नहीं है। नन्दकुमार : उस समय हवाई में सभी भक्त गहरे रंगों वाली बेबाँह टी. शर्टें पहनते थे और उनकी शिखाएँ सचमुच लम्बी होती थी जो नीचे तक लटकती रहती थीं । प्रभुपाद ने कहा, “गौड़ीय वैष्णव की शिखा डेढ़ इंच व्यास की होती है। इससे बड़ी शिखाओं का तात्पर्य है अन्य सम्प्रदाय। और तब उनमें गाँठ लगानी पड़ती है।” तो मैंने हर एक को बताया और वे चटकीली चमकदार केसरिया रंग की कमीजें और समुचित शिखाएं धारण करने लगे । गोविन्द दासी : प्रभुपाद ओआहू के मकापू की तरफ एक बड़े मकान में रुके थे। यह बिल्कुल समुद्र तट से लगा था और बहुत आनंददायक स्थान था। प्रात:काल प्रभुपाद समुद्र तट पर भ्रमण के लिए जाते थे और जब वे भ्रमण से लौटते थे तो वे पत्थर से बने छोटे से आंगन में एक लकड़ी की बेंच पर बैठ जाते थे। हम सभी उनकी चारों ओर बैठ जाते थे और वे सवेरे का एक छोटा-सा व्याख्यान देते थे। बाद में वे अपने कमरे में चारों ओर घूमते हुए जप करते थे। एक शाम मैं उनके कमरे में गई, जब वे जप कर रहे थे और उन्होंने पूछा, " क्या सोलह बार माला फेर ली ?” मैने कहा, "हाँ, श्रील प्रभुपाद, अब मैं सोलहवी माला पर हूँ।” वे बोले, "यह अच्छा है। " प्रभुपाद अपने बम्बई केन्द्र के सम्बन्ध में भी बहुत अधिक सोचा करते थे और उन्होंने बम्बई की इमारतों की अपनी धारणा का वास्तुशिल्पीय चित्र बनाने के लिए मुझसे कहा । सौभाग्य से मेरे एक वास्तुशिल्पी मित्र ने बहुत अच्छा नकशा बना दिया और प्रभुपाद इससे बहुत प्रसन्न हुए । प्रभुपाद को अपनी एक फ्रांसीसी शिष्या, मन्दाकिनी देवी दासी का एक पत्र मिला था जो सोवियत संघ में एक रूसी लड़के के पास जा रही थी। वह उससे विवाह करने और कृष्णभावनामृत के प्रचार में उसकी सहायता करने जा रही थी । जब प्रभुपाद ने यह पत्र पढ़ा तो वे भावविभोर होकर मुसकराने लगे । इस विचार से उन्हें अतीव प्रसन्नता हुई कि रूस में कृष्णभावनामृत-आन्दोलन बढ़ रहा है। तब वे गोविन्द दासी की ओर मुड़े और बोले, "जब तक युवा हो तब तक प्रचार करो। जब वृद्ध हो जाओगी तब वृंदावन में रहना और हरे कृष्ण मंत्र जपना । भारत में ये केन्द्र इसीलिए बनाए जा रहे हैं। किन्तु जब तक तुम पर्याप्त प्रचार नहीं कर लेती तब तक अवकाश ग्रहण नहीं कर सकती। मन चंचल रहेगा। यदि पर्याप्त प्रचार कर लिया है तब तुम अवकाश ग्रहण कर सकती हो और हरे कृष्ण मंत्र जप सकती हो। इसलिए अधिक से अधिक प्रचार करो। " प्रभुपाद किसी भक्त के साथ चाहे कभी-कभी एक दिन या कुछ क्षण ही बिता सकें, उस संक्षिप्त संसर्ग से उसे स्थायी प्रेरणा मिलती थी। भक्तों को लगता था कि अपने कुछ क्षणों के संसर्ग या मार्गदर्शन से प्रभुपाद ने उनके जीवन को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्षण दे दिए हैं। जिस क्षण या स्थान में प्रभुपाद भक्तों के साथ होते उसी क्षण वे उसके परे भी होते थे और ऐसी गहनतर समस्याओं का चिन्तन करते होते थे तथा ऐसी प्रगाढ़ता से कृष्ण की आराधना में लीन होते थे जो भक्तों की समझ से ऊपर था । प्रभुपाद को हवाई में गिरिराज का एक पत्र मिला जिससे चालाक मि. एन. से निपटने में, अपने बम्बई के प्रबन्धक की योग्यताओं में उन्हें संदेह होने लगा । गिरिराज ने वस्तुस्थिति का वर्णन करते हुए लिखा था कि उन्होंने मि. एन. को केवल ७५००/- रुपए दिए हैं। और प्रभुपाद ने पूछा, “यह भुगतान किस बात के लिए किया गया ?” गिरिराज का अभिप्राय था कि यह राशि उन दो लाख रुपये प्रति वर्ष की एक किश्त है जो पट्टा प्राप्त कर लेने के बाद उन्हें मि. एन. को देने थे। किन्तु वै मि. एन को यह धन बिना औचित्य क्यों दे रहे थे जबकि अभी तक उन्हें पट्टा नहीं मिला था ?" प्रभुपाद को अपने हरे कृष्ण लैंड के लिए चिन्ता होने लगी । बार-बार उनका ध्यान बम्बई, वृन्दावन और मायापुर पर जाता था, किन्तु वे इन समस्याओं पर अधिक बात नहीं करते थे । प्रत्युत जिन जगहों में वे जाते थे वहाँ के भक्त और सामान्य जन उनके ध्यान का पूरा लाभ पाते थे । श्रीमद्भागवतम् पर भाषण देते हुए वे उस पर पूरा ध्यान केन्द्रित करते थे । और जब वे किसी से निजी वार्ता करते थे, किसी अभ्यागत को समझाते होते थे या किसी भक्त को मार्गदर्शन देते होते थे तो वे इसे पूरे ध्यान से करते थे । उनकी कृष्ण-भक्ति की यह विशेषता थी कि वे अनेक व्यक्तियों और संसार - भर की अनेक समस्याओं का दायित्व वहन करते थे और इसे अत्यन्त मनोरम ढंग से करते थे; वे प्रतिदिन प्रात: काल भ्रमण के लिए या मंदिर में अपने शिष्यों के समक्ष प्रात: विकसित कमल पुष्प के समान प्रकट होते थे । वे निष्कपट और सरल थे; उनका उद्देश्य इतना पवित्र था कि कोई भी उसे देख सकता था । तब भी वे इतने गम्भीर थे कि कोई उसकी कल्पना नहीं कर सकता था । वे कृष्ण की भक्ति में हर समय हर स्थान में लीन रहते थे, चाहे वे हांगकांग में अपने दो शिष्यों के साथ लिफ्ट में ऊपर चढ़ रहे हों, जापानी संस्कृति के बारे में विवरण नोट कर रहे हों या हवाई आकाश के नीचे समुद्र तट पर भ्रमण कर रहे हों *** लास एन्जीलेस मई १८, १९७२ जब श्रील प्रभुपाद लास एन्जीलेस पहुँचे तो यह समाचार फैल चुका था कि श्रील प्रभुपाद चाहते थे कि सभी जी. बी. सी. सचिव अपनी डेस्कों के पीछे से बाहर निकलें और प्रचार कार्य में लग जाएँ । अमेरिका के चार जी. बी. सी. के लोग संन्यासी बनने के इच्छुक थे और उनकी लास एन्जीलेस पहुंचने की प्रतीक्षा कर रहे थे । सत्स्वरूप : प्रभुपाद ने कहा कि चूँकि हम युवावस्था में संन्यास ले रहे थे, इसलिए उनकी अपेक्षा हमें बहुत अधिक कार्य करने का पर्याप्त अवसर मिलेगा । प्रभुपाद ने कहा कि उन्होंने संन्यास जीवन के बिल्कुल अंत में लिया था, किन्तु “बिल्कुल कुछ नहीं से कुछ तो अच्छा है।” इस विचार पर हर एक हँसता था कि हम प्रभुपाद से अधिक कर पाएँगे। एक-एक करके हम व्यास आसन के पास गए और प्रभुपाद ने हमें त्रिदण्ड देकर कहा, “प्रचार करो, प्रचार करो, प्रचार करो। " कुछ समय बाद ही प्रभुपाद ने हम लोगों को तुरन्त अपने कमरे में ऊपर बुलवाया। हमने पूछा कि क्या उनके कुछ विशेष निर्देश थे। उन्होंने कहा संन्यस्त जीवन में दो प्रतिबंध हैं। एक यह है कि जब किसी धनाढ्य व्यक्ति से भेंट हो तो हमें यह नहीं सोचना चाहिए, “ ओह, मैंने सब चीजों का त्याग कर दिया है, किन्तु इच्छा होती है कि इन चीजों का सुख भोगना मुझे भी नसीब होता ।" और दूसरा प्रतिबंध यह है कि जब किसी सुन्दर स्त्री को देखें तो यह न सोचें, "मेरे पास एक सुंदर पत्नी थी और यह सुन्दर स्त्री अब मेरे सामने है। काश इसका आनंद मैं ले सकता।” दूसरे शब्दों में, संन्यास लेने का कोई दुख मन में नहीं होना चाहिए । जगदीश : प्रभुपाद ने जी. बी. सी. के सभी लोगों को लास एन्जीलेस बुलाया जहाँ कुछ लोगों ने संन्यास ग्रहण किया और प्रचार के लिए क्षेत्रों के पुनः निर्धारण के बारे में विचार-विमर्श हुआ। प्रभुपाद के साथ हमारी एक विशेष बैठक हुई। जी.बी.सी. के सभी लोग प्रभुपाद के कमरे में बैठे थे और उन्होंने हम सब की ओर देखा। वे बोले, "क्या आप सब को विश्वास है?" हम केवल बैठे रहे। दो मिनट तक कोई कुछ नहीं बोला । मेरे जीवन का यह अत्यन्त गंभीर क्षण था — प्रभुपाद हमें चुनौती दे रहे थे, “क्या आप सब को विश्वास है ? क्या सभी में निष्ठा है ?" जब प्रभुपाद बात कर रहे थे उनके जी. बी. सी. के शिष्य बड़े ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। उन्होंने कहा, “जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मुझे विश्वास है, इसीलिए मैं आगे बढ़ता जा रहा हूँ। यह एक वास्तविकता है। मैं आगे बढ़ता जा रहा हूँ क्योंकि यह एक वास्तविकता है, यह मिथ्या नहीं है। इस विषय में मुझे पूर्ण विश्वास है । जब कोई मुझसे कहता है, “क्या आपको विश्वास है?" तो मैं कहता हूँ 'मेरे विश्वास करने की बात नहीं है। यह एक वास्तविकता है । ' अतएव आप अपने विश्वास का प्रचार अपने साहित्य, तर्क, प्रचार और विरोधियों का सामना करके करें। किन्तु क्या आपको विश्वास है? यदि आपको विश्वास नहीं है तो यह बात मेरे लिए अच्छी नहीं है। पहली बात उत्साह की है। मुर्दा मत बनिए। आपको मुझसे अधिक कार्य करना है। जिस किसी में भी जीवन है वह प्रचार कर सकता है। " तो, मंदिर के स्थानीय अध्यक्ष और कोषाधिकारी सारी व्यवस्था देखेंगे। जी. बी. सी. पर्यवेक्षण करेगी कि काम ठीक से चल रहा है। किन्तु पहली व्यवस्था यह है कि प्रत्येक सदस्य सोलह माला मंत्र का जप करे और विधि-विधानों का पालन करे । वही हमारी आध्यात्मिक शक्ति है । " अब यह आपके हाथों में है । मेरी योजना यही थी— इसे अमेरिकनों को देने की। किन्तु आपको आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली होना है। यदि आप केवल दिखाने के लिए व्यवस्थापक होना चाहें, तो यह अच्छा नहीं होगा । और केवल भ्रमण करना ही जरूरी नहीं है। भ्रमण से आपको संघ के संवर्धन के लिए ठोस कार्य करना होगा। लेनिन के साथ कुछ थोड़े-से लोग थे और उन्होंने पूरे देश पर अधिकार कर लिया । कृष्णभावनामृत का प्रचार आप पर निर्भर करता है । गतिहीन मत बनिए। जाइए और प्रचार कीजिए। आपका कर्तव्य है उन्हें बताना 'मेरे प्रिय अमरीकी भाइयों आपके पास इतनी विपुल सम्पत्ति और सुख - सामग्री है। इसे कृष्ण के लिए उपयोग कीजिए। यदि आप ऐसा नहीं करते तो पतन अवश्यंभावी है । " श्रील प्रभुपाद की लास एन्जीलेस में इस्कान के अनेक नेताओं से भेंट हुई । उन्होंने पाश्चात्य संसार के अपने मुख्यालय में कृष्णभावनामृत से सम्बन्धित व्यापक कार्यक्रमों को देखा। उन्होंने कृष्ण भजनों का एक नया रेकार्ड सुना जो भक्तों के अपने स्टूडियो, गोल्डेन अवतार में गिटार और अन्य अमरीकी वाद्य यंत्रों की संगत के साथ तैयार किया गया था। प्रभुपाद ने उसे पसन्द किया और कहा, 'यह जार्ज हैरिसन से अच्छा है ।" वे आर्ट स्टूडियो में गए जहाँ भक्त उनकी पुस्तकों के लिए चित्र तैयार कर रहे थे। उन्होंने कई सुझाव दिए । अनंग- मंजरी : प्रभुपाद विभिन्न मंदिर- कार्यालयों का निरीक्षण करते हुए घूम रहे थे। एक कार्यालय में करन्धर ने उन्हें एक नया कम्प्यूटर दिखाया। उसने कहा, "प्रभुपाद, हमें केवल रूप गोस्वामी शब्द टाइप करने हैं और उसके बाद यह स्वतः वह सब लिख डालेगा जो आपने रूप गोस्वामी के विषय में कभी भी कहा या लिखा है।” प्रभुपाद कम्प्यूटर के प्रति बिना कोई रुचि प्रदर्शित किए उसे देख रहे थे। किन्तु जब करन्धर ने रूप गोस्वामी का नाम लिया तो उनकी भौहें उठ गईं और वे बोले, “ ओह, ऐसा है ? कृष्ण की सेवा में प्रत्येक वस्तु का उपयोग हो सकता है। " तब हम उस कार्यालय से निकल कर टेलेक्स मशीन के कमरे में गए। प्रभुपाद कुर्सी में बैठ गए और हम सब उनकी चारों ओर खड़े हो गए और करन्धर उन्हें मशीन का काम समझाने लगा । "प्रभुपाद, यह न्यू यार्क को कोई संदेश भेज सकती है और उधर से तुरन्त उसका उत्तर आ सकता है।” उसके बाद करन्धर ने मशीन पर यह संदेश टाइप किया, “हरे कृष्ण, श्रील प्रभुपाद की जय । कृपया उत्तर दीजिए । " कोई उत्तर नहीं आया। तो उसने वही संदेश फिर टाइप किया और इस बार भी कोई उत्तर नहीं आया। तो उसने इस बार यह संदेश टाइप किया, “श्रील प्रभुपाद की जय । श्रील प्रभुपाद मशीन की ठीक बगल में बैठे हैं। कृपया उत्तर दीजिए । " एकाएक मशीन पर उत्तर टाइप होने लगा और प्रभुपाद वहाँ बैठते देखते रहे। टाइप पर अंकित था, “आदरणीय श्रील प्रभुपाद, कृपापूर्वक अपने चरणकमलों में हम लोगों का विनीत प्रणाम स्वीकार करें। हम लोग तीन दिन के अंदर न्यू यार्क में कृष्णकृपाश्रीमूर्ति आपके दर्शनों की प्रतीक्षा में रहेंगे।” श्रील प्रभुपाद बोल पड़े "जय हरिबोल ।” न्यू यार्क के संदेश पर अनेक भक्तों के हस्ताक्षर थे। प्रभुपाद मुस्कराए और बोले, “यह बहुत अच्छा है ।" उस समय प्रभुपाद के शिष्यों द्वारा उनकी पुस्तकों के वितरण का कार्य अमेरिका में तेजी पर था और प्रभुपाद ने उनके बारे में ताजे विवरण प्राप्त किए । पश्चिम में प्रचार-कार्य आरंभ करने के पहले दिन से प्रभुपाद इस बात पर जोर देते रहे थे कि उनकी पुस्तकों का मुद्रण और वितरण कृष्णभावनामृत के प्रचार की सबसे महत्त्वपूर्ण विधि है । उन्होंने कहा कि उनके गुरु महाराज ने उनसे पुस्तकें प्रकाशित और वितरित करने को कहा था और वे उसका “ अन्धानुसरण" कर रहे हैं। भक्तिसिद्धान्त सरस्वती बहुत प्रसन्न होते थे, यदि उनका कोई शिष्य उनकी पत्रिका की कुछ प्रतियों का वितरण कर लेता था । इस्कान के प्रारंभिक वर्षों में श्रील प्रभुपाद भी बहुत प्रसन्न हो जाते थे, यदि उनके शिष्य हर महीने बैक टु गाडहेड की कुछ सौ प्रतियाँ भी वितरित कर लेते थे । दिव्य साहित्य के वितरण में समृद्धि करने की उनकी इच्छा धीरे-धीरे कुछ शिष्यों के माध्यम से प्रकट हुई थी । १९६८ ई. में लास एंजिलेस में तमाल कृष्ण प्रतिदिन एक बड़ा कीर्तन - दल नगर में ले जाया करता था । कीर्तन - दल, कीर्तन और नृत्य करने के अतिरिक्त, प्रतिदिन दर्शक - मण्डली में बैक टु गाडहेड की एक सौ प्रतियाँ तक बेच लेता था। जब प्रभुपाद को ये रिपोर्टें मिलतीं तो उनका उत्साह बढ़ जाता था और वे भक्तों से और अधिक प्रतियाँ बेचने को कहते थे । पुस्तकों के वितरण को प्रभुपाद, न केवल प्रचार की सर्वोत्तम विधि समझते थे, वरन् यह आय बढ़ाने का भी समुचित साधन था । भारत में पारम्पारिक गुरुकुलों के ब्रह्मचारी द्वार द्वार घूम कर भिक्षा - संग्रह करते थे, किन्तु पश्चिम में ऐसा व्यवहार सम्माननीय नहीं हो सकता था। प्रभुपाद कहते थे “किन्तु हर भला आदमी बैक टु गाडहेड के लिए चौथाई डालर दे सकता है। प्रभुपाद का अधिक ध्यान भारत पर, और वहाँ चल रही योजनाओं पर, होने पर भी वे अपने शिष्यों को, विशेष कर पश्चिम के शिष्यों को, प्रोत्साहित करते रहते थे कि वे उनकी पुस्तकों की विक्री करें । “जनता में और पुस्तकालयों के लिए पुस्तकों और पत्रिका की प्रतियों की विक्री में वृद्धि करने के लिए अधिक से अधिक प्रयत्न करें। मेरी एकमात्र इच्छा पुस्तकों की विक्री बढ़ाने में है । " सन् १९७१ ई. में उन्होंने न्यू यार्क के भक्तों को लिखा था, मुझे यह जानकर विशेष प्रसन्नता हुई है कि पुस्तकों और पत्रिका की विक्री में आपने वृद्धि कर ली है। आगे बढ़ते जाइए, अधिकाधिक विक्री करते जाइए । कृष्ण के विषय में जितनी बार कोई ठोस ज्ञान प्राप्त करता है उतनी ही बार उसके जीवन में कोई-न-कोई परिवर्तन घटित होता है। ये पुस्तकें वह दृढ़ आधार हैं जिन पर हमारा प्रचार निर्भर है । इसलिए मैं चाहता हूँ कि अधिक से अधिक लोगों को ये उपलब्ध हों। अतः इसके लिए प्रयास कीजिए। आस्ट्रेलिया के भक्तों को उन्होंने लिखा, सबसे अच्छा समाचार यह है कि तुम लोग लगातार मेरी पुस्तकों और साहित्य की बिक्री में बढ़ोत्तरी कर रहे हो । कृष्ण के सम्बन्ध में ठोस ज्ञान - प्रसार का यह सर्वोत्तम कार्य है। हमारे प्रचार का ठोस आधार ये पुस्तकें हैं। अन्य किसी आन्दोलन को प्रामाणिकता की ऐसी पृष्ठभूमि नहीं प्राप्त है । अफ्रीका के भक्तों को प्रभुपाद ने लिखा, पुस्तकों और पत्रिकाओं का वितरण हमारा सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है । पुस्तकों के बिना हमारे प्रचार का कोई आधार नहीं है। अफ्रीका के लोग हमारी पुस्तकें विशेष रूप से चाहते हैं । श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यदि पुस्तकें विपुल संख्या में हों तो इस्कान की अन्य हर चीज सफल हो सकती है। वस्तुतः हमारे समाज का निमार्ण पुस्तकों से होता है। एक पुस्तक से विशेष प्रभाव नहीं होता। तो भी एक अंधा चाचा अच्छा है अपेक्षा इसके कि कोई चाचा न हों । अतः अच्छा है कि एक पुस्तक प्रकाशित हुई है और बी. टी. जी. के अनेक संस्करण अन्य भाषाओं में भी हो रहे हैं। किन्तु अब प्रयत्न करो कि प्रति वर्ष कम-से-कम चार-पाँच नई पुस्तकें कई भाषाओं में प्रकाशित हों और बी. टी. जी. प्रति मास निकले । ... अपने इस दायित्व को आप सतत ध्यान में रखें कि विदेशी भाषाओं में अनेक पुस्तकें निकलें। सन् १९६८ में जब " टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य" की दस हजार प्रतियाँ न्यू यार्क के मंदिर में प्राप्त हुई थीं तो ब्रह्मानंद स्वामी की समझ में नहीं आ रहा था कि महाप्रभु चैतन्य के ऊँचे दर्शन से भरी इतनी सजिल्द पुस्तकों की विक्री वे किस प्रकार कर पाएँगे । किन्तु १९७० ई. में एक अन्य पुस्तक 'कृष्ण, द सुप्रीम पर्सनालिटी आफ गाडहेड' के प्रकाशन के बाद सैन फ्रान्सिस्को के कुछ भक्त इसकी प्रतियाँ बेचने के लिए द्वार द्वार घूमे थे और हर व्यक्ति से मिले थे। प्रतिदिन केवल एक या दो प्रतियाँ लेकर नहीं, वरन् बीस, तीस या चालीस प्रतियाँ लेकर। उत्साह बढ़ता ही गया था और अन्य मंदिरों के भक्त भी श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों की उत्तरोत्तर अधिकाधिक संख्या में विक्री कर रहे थे। इसके अतिरिक्त, युवाजन प्रतिदिन - दिन-भर गाड़ियों में घूम कर प्रभुपाद की पुस्तकों को बेचने में जो सर्वोत्कृष्ट आनंद था उसे प्राप्त कर रहे थे । इसके बाद प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गई थी । केशव के इस दावे को कि सैन फ्रांसिस्को के भक्त सबसे अच्छे हैं, लास एंजिलेस, न्यू यार्क, डेनवेर और डलास के भक्तों ने चुनौती दी थी। एक प्रकार का “संकीर्तन ज्वर" शुरू हो गया था। और सब के केन्द्र में श्रील प्रभुपाद थे जो लोगों में यह विश्वास पैदा करने में लगे थे कि उनके प्रचार सम्बन्धी जो भी कार्यकलाप थे उनमें निर्विवाद रूप से पुस्तक विक्रय का महत्त्व सबसे अधिक था । प्रभुपाद ने इस बात पर भी बल दिया कि सभी भक्तों को उनकी पुस्तकों का नियमित अध्ययन करना चाहिए। उनकी पुस्तकें केवल जन साधारण के लिए नहीं थीं; भक्तों को भी उन्हें अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए और उनके बारे में जानना चाहिए। अन्यथा, वे प्रचार कैसे करेंगे ? लास ऐन्जलेस के मंदिर - कक्ष में प्रभुपाद भक्तों से प्रतिदिन श्रीमद्भागवतम् के एक श्लोक का अनुसरण करते हुए, उच्चारण और पाठ करवाते थे। तब एक-एक भक्त बारी-बारी से उस श्लोक का पाठ करता था और अन्य भक्त सामूहिक रूप से उसका अनुकरण करते थे। हृदयानन्द गोस्वामी : जब १९७२ ई. में प्रभुपाद लॉस ऐन्जेलेस आए तो उन्होंने भागवतम् की कक्षा आरंभ की जहाँ प्रत्येक व्यक्ति संस्कृत का पाठ करता था । एक असर यह हुआ कि भक्त अधिक गंभीर और शिष्ट हो गए। उस समय अमेरिका में जंगलीपन बहुत था । संकीर्तन दल हर तरह के जंगली कार्य कर रहे थे— रात भर बाहर घूमते रहते थे, कहीं भी सो जाते थे, कुछ भी खा लेते थे। पहले मंदिर कुछ निष्क्रिय थे और, वास्तव में, कुछ नीरस भी, क्योंकि भक्त पुस्तकों का ठीक से वितरण नहीं कर रहे थे। और जब संकीर्तन कुछ गंभीर और तेज होने लगा तभी प्रभुपाद का आगमन हुआ और उन्होंने संस्कृत मंत्रों का अक्षरश: समावेश कराया, और भक्तगण नियमित गंभीर कार्यक्रम का अनुपालन करने लगे । पहली जून को प्रभुपाद ने लॉस ऐन्जेलेस से मैक्सिको नगर के लिए प्रस्थान किया। उन्होंने कहा कि वे कुछ सप्ताह बाद वापस आएँगे । *** प्रभुपाद ने मैक्सिको नगर में तीन दिवसीय गहन व्याख्यान अभियान चलाया। नेशनल यूनिवर्सिटी आफ मैक्सिको, मैसोनिक लाज और थियोसोफिकल सोसाइटी में उनके व्याख्यान हुए और वे एक टेलीविजन कार्यक्रम में सम्मिलित हुए जिसे कोई तीन करोड़ लोगों ने देखा। दो दिन लगातार उन्होंने मंदिर में दीक्षा - समारोह किया। उन्होंने कहा कि मैक्सिको भारत के समान है। उसके लोग धार्मिक हैं और जलवायु शीतोष्ण है। जब वे चैपुल्टेपेक पार्क में प्रातः भ्रमण के लिए बड़े तड़के जाते तब भी अनेक लोग मंदिर उनके साथ लौटते। लोग उन्हें साधु पुरुष समझते थे और उनके आशीर्वाद की कामना करते थे । चित् - सुखानन्द : रविवार तीसरे पहर मंदिर कक्ष में पाँच सौ से अधिक लोग थे । व्याख्यान के बाद श्रील प्रभुपाद अपने कमरे में अकेले चले गए। और पाँच-छह सौ लोगों ने बृहत् कीर्तन आरंभ कर दिया, “जय प्रभुपाद ! जय प्रभुपाद ! जय प्रभुपाद ! प्रभुपाद ! प्रभुपाद ! प्रभुपाद !” वे बहुत अधिक भक्ति-विह्वल हो उठे थे और ऐसा लगता था कि मंदिर की दीवारे गिर पड़ेंगी। मैं श्रील प्रभुपाद के कमरे में था और उन्होंने कहा, “यह क्या है ? कीर्तन ? वे बहुत अधिक शोर कर रहे हैं। " मैंने कहा “ वे आपका नाम जप रहे हैं।" और मैं नीचे यह देखने गया कि क्या हो रहा है। सभी लोग प्रभुपाद के कमरे में आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। ऐसा लगता था कि वे प्रभुपाद के कमरे में भाग कर घुस जाना चाहते थे ताकि वे उन्हें देख सकें। वे उनका नाम लेकर चिल्लाते रहे, "प्रभुपाद ! प्रभुपाद !" अतः मैं श्रील प्रभुपाद के पास गया और बोला, “प्रभुपाद, वे सब आपको देखना चाहते हैं।" और प्रभुपाद ने कहा, "उन्हें आने दो।' इसलिए मैने तुरन्त उन्हें आने देने की व्यवस्था की । प्रभुपाद के कमरे में दो दरवाजे थे। इसलिए वे बाएँ हाथ के दरवाजे से प्रवेश कर रहे थे और दाहिने हाथ के दरवाजे से निकल रहे थे। पंक्तिबद्ध होकर एक के बाद एक करके एक लम्बे परेड की तरह वे चलते रहे, और प्रभुपाद सेविभिन्न शब्दों में कुछ कहते रहे। अधिकतर लोग स्पेनिश में बोल रहे थे। - "कृष्णकृपाश्रीमूर्ति, मुझे आशीर्वाद दीजिए, मुझे वरदान दीजिए।” प्रत्येक व्यक्ति उनका शुभाशीष चाह रहा था। अंदर पहुँचने पर प्रत्येक व्यक्ति उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाता था। प्रत्येक व्यक्ति अत्यन्त विनयशील था, कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके नेत्र, महान् संत श्रील प्रभुपाद को देख कर, साश्रु हो उठे थे। सब यही कहते “मुझे शुभाशीष दीजिए।" प्रभुपाद ने पूछा, " वे क्या कह रहे हैं। " मैने कहा, “मुझे एक आशीष दीजिए, मुझे एक वरदान दीजिए । " उनका हाथ माला की थैली में था और माला की थैली के बाहर की अंगुली से वे उनकी ओर इंगित करते और कहते, “हरे कृष्ण, ” और वे सब बहुत प्रसन्न हो जाते । प्रभुपाद कूर्नावाका भी गए और वहाँ के नगर के मैदान में हजारों के सामने बोले । जनसमूह शान्तिपूर्वक बैठा रहा और स्पेनिश में अनूदित उनका भाषण सुनता रहा । चित् - सुखानन्द : ठीक उसी समय हमारी पहली पुस्तक 'कृष्ण- चेतना : सर्वोत्कृष्ट योग प्रणाली' (स्पेनिश भाषा में) प्रकाशित हो चुकी थी और प्रभुपाद ने अपने भाषण के बीच हैहयदास को लाल जिल्द में बँधी उस पुस्तक की नव- प्रकाशित प्रतियाँ लेकर आते देखा । श्रील प्रभुपाद ने उसकी ओर देखा और अपनी पुस्तक को छपी हुई देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे भाषण के बीच रुक गए और बोले, “आप में से हर एक इस पुस्तक की एक प्रति लेकर पढ़ सकता है। और लोग वास्तव में उस पुस्तक को लेने प्रभुपाद के पास पहुँच गए। हमारे पास केवल पचास प्रतियाँ थीं और श्रील प्रभुपाद ने स्वयं ही उन प्रतियों को बेच डाला। लोगों ने श्रील प्रभुपाद से हस्ताक्षरित प्रतियों के लिए प्रार्थना की तो उन्होंने लगभग सभी प्रतियों पर अपने हस्ताक्षर कर दिए । मैदान में भाषण करने के बाद प्रभुपाद को एक होटल में भाषण करना था और उसके बाद कूर्नावाका के एक भक्त के घर जाकर प्रसादम् ग्रहण करना और विश्राम करना था । किन्तु प्रभुपाद ने मैक्सिको नगर के मंदिर को लौटने का निर्णय किया। वे मंदिर लगभग आठ बजे रात में पहुँचे। इस प्रकार सवेरे आठ बजे से लेकर रात के आठ बजे तक उन्होंने थोड़े-से जल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खाया था । हमने उन्हें फल आदि देने चाहे, लेकिन उन्हें कुछ नहीं चाहिए था । जब वे अपने कमरे में पहुँचे तो उनके नेत्र चमक रहे थे और उन्मुक्त मुसकान के साथ उन्होंने कहा, “ प्रसन्न रहने का यही तरीका है। कृष्ण के निमित्त पूरे दिन कार्यरत रहो ।” वे केवल एक प्याला गरम दूध, पूरियाँ और एक प्याला शक्कर चाहते थे । पूरियाँ उन्होंने शक्कर में मिलाकर खाईं और प्रसन्नतापूर्वक आनंद के साथ दूध पिया। वे बोले, "हमारा यह जीवन कृष्ण की सेवा के लिए है। दिन-भर कृष्ण के निमित्त कार्य करो और रात में कुछ प्रसाद ग्रहण करो ।” *** लास ऐन्जीलेस लौटने पर प्रभुपाद ने फिर अपने को कृष्णभावनामृत के निरन्तर बढ़ते कार्यकलापों के केन्द्र में पाया । किन्तु उनका ध्यान फिर बम्बई पर गया और उन्होंने गिरिराज को तार भेजा कि वह पट्टा शीघ्र से शीघ्र प्राप्त करे । प्रभुपाद का तार मिलते ही गिरिराज मि. एन. के पास गए और वहाँ एक और उलझन से उनका सामना हुआ। इकरारनामा पर प्रभुपाद के हस्ताक्षर हो जाने के बाद भारत सरकार ने एक कानून पास किया था जिसके अनुसार मि. एन. को पट्टा पूरा करने पर पाँच लाख का लाभ कर जमा करना लाजिमी था । मि. एन. के पास अभी पाँच लाख रुपए नहीं थे और उन्होंने कहा कि इस रकम को इस्कान जमा कर दे और मि. एन. इसे पट्टे की देय राशि में शामिल कर लेंगे। किन्तु बम्बई - इस्कान के पास भी इतना धन नहीं था । इसलिए मि. एन. ने सुझाव दिया कि या तो यह धन बैंक से ऋण लिया जाय या संयुक्त राज्य के इस्कान मंदिरों से मंगाया जाय। उन्होंने वचन दिया कि इस बीच वह भूखण्ड को अन्य किसी के हाथ नहीं बेचेंगे। गिरिराज ने बैंक से ऋण लेने का प्रयास किया, किन्तु न तो उनका कोई जमानतदार था और न बैंक के साथ इतनी साख थी। वे संघ के कुछ आजीवन सदस्यों के पास गए कि वे कर्ज़ के लिए जमानतदार बन जायँ, किन्तु सहानुभूति रखते हुए भी उन में से कोई भी धन जुटाने में सहायक नहीं बन सका । गिरिराज को मि. एन. की बात पर संदेह भी होने लगा । यद्यपि गिरिराज कानूनी मामलों में भोला था लेकिन उसे मि. एन. के चरित्र और व्यवहार पर संदेह होने लगा था। आजीवन सदस्यों से बात करने पर गिरिराज को मालूम हुआ कि मि. एन. गैरकानूनी व्यापारिक हरकतों के लिए बदनाम था। जिस भूखण्ड का विक्रय अब वह प्रभुपाद के हाथों कर रहा था उसे पहले वह सी. कम्पनी को बेचने का इकरारनामा कर चुका था और वह इकरारनामा इसलिए रद्द हो चुका था कि सी. कम्पनी नगरपालिका से उस भूखण्ड को टुकड़ों में विभाजित करने की अनुमति नहीं प्राप्त कर सकी थी – मि. एन. के भूखण्ड बेचने की शर्तों में एक शर्त यह भी थी कि सी. कम्पनी भूखण्ड का उपयोग करने के लिए सरकारी अनुमति प्राप्त करे। कुछ व्यवसायियों के कथनानुसार, जिनसे गिरिराज की बात हुई, मि. एन. ने अपने राजनीतिक सम्बन्धों से नगरपालिका को सी. कम्पनी के प्रतिकूल प्रभावित कर लिया था । मि. एन. ने सहायक होने का दिखावा किया था। उसने सस्ते दाम पर भक्तों को भूखण्ड दे दिया था और उसे साफ करने के लिए मजदूर भी दिए थे। मिसेज एन. प्रायः प्रभुपाद की कक्षाओं में भी जाती थी । किन्तु मि. एन. के व्यवहार में कई विरोधाभास भी थे। डाक द्वारा इन सारी समस्याओं से अवगत होने पर प्रभुपाद को लगा कि इनका समाधान संभव है। यदि सरकार की ओर से टैक्स लगाया गया था तो भक्तों को उससे निपटना था और बैंक से ऋण का भी प्रयास करते रहना था । मि. एन. निश्चित रूप से चालबाज था, किन्तु प्रभुपाद का मत था कि इस्कान की स्थिति मजबूत थी। गिरिराज को मि. एन से घबड़ाए बिना डटे रहना चाहिए । प्रभुपाद ने गिरिराज को श्रीमती सुमति मोरारजी और अन्य समर्थकों से वित्तीय सहायता के लिए मिलने को लिखा । यह संसार में अपने ढंग का बेजोड़ मंदिर है और यदि अमरीकी और योरोपीय लड़कों और लड़कियों के रूप में तुम लोग श्रेष्ठ व्यवस्थापक होने की आश्चर्यजनक योग्यता का परिचय दोगे तो वे तुम पर विश्ववास करने में नहीं हिचकेंगे। इसलिए इस विशाल कार्य में तुम सब के बीच परस्पर सद्भावना और सहयोग का होना आवश्यक है। मेरे मन में हमेशा ही जुहू के भूखण्ड का ध्यान रहता है और मैं चाहता हूँ कि यह सारे संसार के अनुकरण के लिए आदर्श बने और कृष्णभावनाभावित समुदाय के शुद्ध दष्टान्त के रूप में लोग तुम्हारा सम्मान करें | पोर्टलैंड, ओरेगान जून ८, १९७२ लॉस ऐन्जेलेस से थोड़े समय के लिए प्रभुपाद पोर्टलैंड गए जहाँ, पोर्टलैंड के अतिरिक्त, सैन फ्रान्सिस्को, सेटल और वानकूअर से भी उनके पचास शिष्य उनसे मिलने को एकत्रित हुए थे। पोर्टलैंड से वे कार द्वारा युजीन गए जहाँ उन्होंने अधिकांशतः हिप्पियों की एक श्रोता - मण्डली के सामने एक बड़े हाल में व्याख्यान दिया । संयुक्त राज्य के प्रत्येक मंदिर के लोग चाहते थे कि श्रील प्रभुपाद उनके यहाँ पहुँचे और यद्यपि प्रभुपाद सभी जगह नहीं पहुँच सकते थे किन्तु थोड़े समय के लिए वे सुदूर स्थानों में भी पहुँचने और व्याख्यान देने को सदैव तत्पर रहते थे। कभी-कभी वे अपने पर्यटन सचिव से कहते थे कि उनके शिष्यों को प्रचार कार्य संभाल लेना चाहिए किन्तु तभी व्याख्यान का कोई अवसर आ जाता जो उत्साही भक्तमण्डली द्वारा समर्थित होता और प्रभुपाद उसके लिए जाने की अपनी सहमति देकर लोगों को आश्चर्यचकित कर देते । लॉस ऐन्जलेस में चार दिन रहने के बाद प्रभुपाद एक सप्ताह के लिए न्यू यार्क गए और वहाँ से दो सप्ताह के लिए लंदन चले गए। लंदन में बरी प्लेस मंदिर में जार्ज हरिसन और रविशंकर उनसे मिलने कई बार आए । जब जार्ज हरिसन ने उनसे पूछा कि क्या मैं अपने सिर के बाल मुंडवा दूँ और अन्य शिष्यों की तरह बन जाऊँ तो प्रभुपाद ने कहा कि तुम एक गायक बने रहो । उन्होंने उसे याद दिलाया, “यदि तुम लोगों से हरे कृष्ण जपने को कहोगे तो वे वैसा करेंगे ।" जुलाई २० इंगलैंड से प्रभुपाद पेरिस गए जहाँ लक्जेमबर्ग गार्डेन्स में उन्होंने खुले आम दीक्षा समारोह सम्पन्न किया। उसे देखने के लिए सैंकड़ों लोग इकट्ठे हो गए थे, जिनमें अधिकतर निकट के विश्वविद्यालय से उग्र सुधारवादी छात्र थे। प्रभुपाद ने अपना व्याख्यान इस कथन से आरंभ किया, “आपका इतिहास, फ्रांसीसियों का इतिहास, क्रान्ति का इतिहास है, क्योंकि आप जीवन को अधिक अच्छा बनाने की ओर उन्मुख हैं।" जब इन शब्दों का अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया गया तो छात्र प्रसन्नता से झूम उठे और तालियाँ बजाने लगे। प्रभुपाद आगे कहते गए, “अतः आपको इस कृष्णभावनामृत के सम्बन्ध में जानना चाहिए । अपनी मूल भगवद् चेतना को पुनर्जीवित करने के लिए यह एक क्रान्तिकारी आन्दोलन है । " जर्मनी से लगभग तीस भक्त पेरिस आए थे और उनमें से अधिकतर, तथा इंगलैंड, एम्सटर्डम और पेरिस के अनेक शिष्यों ने लक्समबर्ग गार्डेन्स में उस दिन दीक्षा ग्रहण की। पेरिस में प्रभुपाद ने बंद कमरे में भी एक चार दिवसीय उत्सव में भाग लिया जहाँ उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक व्याख्यान दिए और हर रात कीर्तन का नेतृत्व किया । जुलाई २६ एम्सटर्डम में प्रभुपाद ने भगवान् जगन्नाथ, भगवान् बलराम और सुभद्रा के अर्चा-विग्रहों की स्थापना की और वोडेलपार्क में हजारों हिप्पियों के सम्मुख भाषण दिया । एक दिन वोंडेलपार्क में एक भक्त जन समूह को सम्बोधित कर रहा था कि प्रभुपाद ने अचानक अपने भक्तों को रुक जाने को कहा। वे बोले, "ये लोग निकम्मे हैं। केवल कीर्तन करो। " बाद में उन्होंने पश्चिम के एक शिष्य को लिखा, हम देख रहे हैं कि योरोप में अनेकानेक हिप्पियों को भौतिक जीवन से घृणा हो गई है, किन्तु उनका इतना पतन हो चुका है कि अब वे हमारे दर्शन को भी सुनने को तैयार नहीं हैं, वे केवल हमारा मजाक उड़ाते हैं । अतः हमारे भक्तों को इतना ज्ञान होना चाहिए कि वे उनके संदेहों को मिटा सकें और ताकि वे कृष्णभावनामृत में तल्लीन हो सकें। जहाँ तक जन सामान्य में, और विशेषकर हिप्पियों में, प्रचार करने का प्रश्न है तो अच्छा यह होगा कि ऊँचे दर्शन की बातें न की जायँ और उनसे किसी तरह हरे कृष्ण मंत्र का गान कराया जाय। और यदि उनमें से कोई कुछ जानने को उत्सुक हो तो वह हमारी पुस्तकों में से कोई एक पुस्तक खरीद सकता है । यदि वे हमारे साथ कीर्तन कर सकें, तो उससे काम चल जायगा । जुलाई २९ एडिनबर्ग में प्रभुपाद से भेंटवार्ता करने स्काटलैंड के समाचार-पत्रों के करीब एक दर्जन संवाददाता आए । किशोर : एडिनबर्ग बहुत घुटन भरा अहंकारी और परम्पराओं में डूबा स्थान है, किन्तु प्रभुपाद सम्वाददाताओं के प्रति बहुत स्नेहपूर्ण और विनम्र रहे। उन्होंने बड़ी प्रशंसा की कि यह कितना सुंदर देश है, एडिनबर्ग कितना अच्छा स्थान है और यहाँ कितने सुंदर भवन हैं। और उन्होंने पूछा, “यहाँ दो कालेज है ?" "हाँ, हाँ, दो कालेज । " बड़े गर्व से संवाददाताओं ने कहा । " तब तो आपके यहाँ बहुत-से विद्यार्थी होंगे ?" प्रभुपाद ने कहा । वे बोले – “हाँ, हाँ।” प्रभुपाद ने कहा, “एडिनबर्ग बहुत सम्पन्न नगर है ?" वे बोले, “हाँ, हाँ, बहुत सम्पन्न और धनी नगर है । " तब प्रभुपाद ने कहा, “आपके यहाँ इतने अधिक विद्यार्थी हैं, इतने सारे सुंदर बड़े-बड़े भवन हैं। सुख और उपभोग की इतनी सारी सुविधाएं हैं ।” सम्वाददाता इन सबसे सहमत होते गए — “हाँ, हाँ, हमारे पास यह सब कुछ है।" और तब प्रभुपाद ने उन पर सटीक दृष्टि डाली और कहा, “तो आपके विश्वविद्यालय इतने सारे हिप्पी क्यों पैदा कर रहे हैं ? " वे एक-दूसरे को देखने लगे और उनमें से कोई उत्तर न दे सका। और तब प्रभुपाद ने समझाना आरंभ किया कि केवल भवन बनाकर समाज लोगों को आनन्द या संतोष नहीं दे सकता। ये सब पत्थर और खिड़कियाँ हैं, उनमें आनन्द कहाँ है ?" ग्लासगो में वुडसाइड हाल में प्रभुपाद ने लगभग एक हजार लोगों के सामने भाषण दिया । किशोर : प्रभुपाद मंच पर अपने व्यास आसन पर बैठे थे । श्रोता - मण्डली बहुत विशाल थी; लोग बारजे ( बालकनी ) में भी नहीं समा रहे थे । जब प्रभुपाद वहाँ पहुँचे तो छात्रों ने उनका स्वागत पॉप स्टार के रूप में किया। वे तालियाँ और सीटियाँ बजाने लगे। प्रभुपाद ने भगवद्गीता के मूल विज्ञान पर तुरन्त अत्यन्त गंभीरतापूर्वक अपना व्याख्यान आरंभ कर दिया कि अर्जुन किस प्रकार अपने मित्रों और सम्बन्धियों का वध करके सफल भक्त बने थे । व्याख्यान के अंत में मुझे कुछ डर था कि लोग इतने गंभीर व्याख्यान को समझ सकेंगे या नहीं । किन्तु लोग प्रसन्न थे और तालियाँ बजाने लगे थे। जब प्रश्नोत्तर काल आया तो एक व्यक्ति एकदम हाल के पीछे से चल कर सीधे व्यास आसन के पास आकर खड़ा हो गया और प्रभुपाद को देखता रहा। कुछ देर तक, अभिमानपूर्ण शब्दों में वह कहता गया, “मैं यह हूँ, मैं वह हूँ,” और अंत में बोला, “मैं भगवान् हूँ।” उसके संक्षिप्त आत्मालाप का यही निष्कर्ष था। पूरी जन मण्डली स्तब्ध थी और मैं सोच रहा था “अब आगे क्या होने वाला है?" प्रभुपाद केवल देखते रहे और स्तब्धता को कुछ मिनट तक और बने रहने दिया। उसके बाद वे बोले, “तो, तुम भगवान् हो क्या तुम्हें और कुछ नहीं कहना है? तुम भगवान् नहीं हो, तुम कुत्ता हो ।” यह सुनते ही जन-समूह खड़ा हो गया और प्रसन्नता में झूम कर तालियाँ बजाने लगा। वह व्यक्ति प्रभुपाद को देखता रहा और उसके चेहरे पर मुसकान प्रकट हुई। केवल उन कुछ शब्दों से उसे पराजय मिल चुकी थी। वह फिर सबसे पीछे के भाग में जा पहुँचा और गायब हो गया । यह सब को उल्लसित करने वाला था, क्योंकि सारा जन-समूह घटनाक्रम में सहभागी था । सब ने अनुभव किया कि भगवान् सस्ता नहीं है। तब हमने कीर्तन किया और जन-समूह में से हर एक ने नृत्य में भाग लिया। उस समय प्रवेश-द्वार पर कुछ ढिलाई हो गई जिससे ग्लासगों के इस क्षेत्र के निम्न वर्ग के छोकरे हाल में घुस आए और वे सभी नाचने और गाने लगे। कुछ ने मंच पर चढ़ जाने का भी प्रयत्न किया। प्रभुपाद भी कीर्तन कर रहे थे, इसलिए इन छोकरों ने प्रयत्न किया कि वे भी मंच पर चढ़ कर प्रभुपाद की चारों ओर इकट्टे होकर गाएँ। भक्तों ने इन गंदे छोकरों को मंच से नीचे ढकेलना चाहा, किन्तु श्रील प्रभुपाद ने कहा, “ऐसा मत करो, ये सभी बच्चे भक्त हैं। उन्हें कीर्तन करने दो।" अंत में जब प्रभुपाद जाने के लिए खड़े हुए तो मुझे किसी यशस्वी व्यक्ति की याद आ गई। वे मुसकरा रहे थे और मंच से उतरते हुए अभिवादन में हाथ हिला रहे थे । जन-समूह चिल्ला रहा था, "नहीं, नहीं, नहीं,” सब कहने लगे, "और, और, और !” अगस्त १ जब प्रभुपाद लंदन वापस लौटे और उन्होंने सुना कि सुमति मोरारजी वहाँ आ रही हैं तो अपने शिष्यों के एक दल के साथ वे उनसे मिलने हवाई अड्डे गए। उनसे उन्होंने जुहू में हरे कृष्ण लैंड और इस्कान बम्बई के आजीवन सदस्यों को लेकर एक न्यास बनाने की अपनी इच्छा के बारे में बात की। सुमति मोरारजी ने न्यास का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया। उसकी नियमित बैठक हुआ करेगी जिससे इस्कान बम्बई की परियोजना के प्रबन्ध के विषय में वह परामर्श दे सके। प्रत्येक न्यासी को परियोजना के क्षेत्र - विशेष के विकास के लिए भारी अनुदान देना होगा। प्रभुपाद ने श्रीमती मोरारजी से मंदिर के लिए अनुदान देने को कहा। मि. खण्डेलवाल से वह पुस्तकालय के लिए अनुदान देने को कहेंगे और मि. एन. से दो अन्य खण्डों के लिए । यह बात कि मि. एन. ने तब तक पट्टा संपन्न नहीं किया था प्रभुपाद की चिन्ता का कारण था और उनके मन में मि. एन के इरादे और गिरिराज की योग्यता के बारे में संदेह होने लगा था। यदि बाधा केवल पाँच लाख के टैक्स के कारण थी तो प्रभुपाद गिरिराज को पहले ही आदेश दे चुके थे कि वह इस्कान के धनाढ्य मित्रों से मिले और ऋण की व्यवस्था कर ले। फिर कठिनाई किस बात की थी ? किन्तु गिरिराज के संदेश से तो ऐसा लगता था कि समाधान 'असंभव' था । २७ अगस्त को प्रभुपाद ने गिरिराज को तार भेजा: "क्या पट्टे पर हस्ताक्षर हो गए हैं? यदि नहीं, तो शीघ्रता करें और विवरण तार से भेजें। " गिरिराज मि. एन. के पास फिर गया, यद्यपि मि. एन. के उत्तर का उसे पूर्वानुमान था । इस बार मि. एन. ने एक उलझन और भी जोड़ दी। उसने गिरिराज को स्मरण कराया कि इस्कान ने अभी तक चैरिटी कमिश्नर (दान - आयुक्त) से अनुमति नहीं प्राप्त की थी। इस्कान एक सार्वजनिक धर्मार्थ न्यास था, इसलिए कोई सम्पत्ति अर्जित करने के पूर्व उसे चैरिटी कमिश्नर से अनुमति लेना आवश्यक था। मि. एन. ने सारा दायित्व फिर इस्कान पर थोप दिया। चैरिटी कमिश्नर के कार्यालय में गिरिराज को मालूम हुआ कि लैण्ड के पट्टे पर हस्ताक्षर करने के छह महीने पहले अनुमति के लिए आवेदन पत्र देना चाहिए था जिससे बम्बई में गिरिराज और अन्य भक्तों के लिए भूखण्ड का यह मामला एक अत्यन्त विषम समस्या बन गया था। *** न्यू वृन्दावन, वेस्ट वर्जीनिया अगस्त ३०, १९७२ जन्माष्टमी उत्सव को केवल दो दिन शेष थे और प्रभुपाद का साहचर्य पाने के लिए तीन सौ से अधिक भक्त एकत्र हो चुके थे। कृष्ण के आविर्भाव दिवस, जन्माष्टमी, के तुरन्त बाद श्रील प्रभुपाद का अविर्भाव दिवस पड़ता है और इस वर्ष इस पवित्र स्थान में प्रभुपाद के पास इतने शिष्य एकत्र थे कि इस अवसर के विशेष रूप से शुभ होने की आशा थी । प्रभुपाद राजी हो गए थे कि वे प्रतिदिन सायंकाल, न्यू वृंदावन की बहुत-सी पहाड़ियों में से एक के शिखर पर, विशेष रूप से इस अवसर के लिए निर्मित खुले मण्डप में व्याख्यान देंगे । व्याख्यान माला को 'भागवत धर्म पर प्रवचन' नाम दिया गया और इन व्याख्यानों से प्रभुपाद ने अपने शिष्यों के सामने दृष्टान्त प्रस्तुत किया कि वे देश के अन्य भागों में जाकर इसी तरह के उत्सवों का आयोजन करें। भागवतधर्म पर प्रवचनों और पुस्तकों के वितरण से कृष्णभावनामृत आन्दोलन संसार भर में अपने शुद्धिकरण- प्रभाव में वृद्धि करेगा । इन दिनों प्रभुपाद न्यू वृंदावन के जंगलों में लकड़ी के बने एक घर में रहते थे। वे नियमित रूप से अभ्यागतों से मिलते थे और संध्या समय व्याख्यान देते थे। प्रतिदिन संध्या समय, मण्डप में व्याख्यान के पूर्व, भक्तजन कीर्तन करते थे और पालकी में बैठाकर प्रभुपाद को लम्बी ढालू पहाड़ी पर ऊपर ले जाते थे और बाद में जब वे उन्हें नीचे ले जाने लगते थे तो लालटेन और टार्च लिए हुए शिष्य उन्हें घेरे हुए और कीर्तन करते हुए साथ चलते थे। सुरेश्वर : मण्डप से मंदिर का मार्ग नीचे की ओर चक्करदार था । मैं वहाँ गोधूलि में पहुँचा और देखा कि प्रभुपाद पालकी में बैठे प्रसन्नतापूर्वक भक्तों के सागर में संतरण कर रहे हैं। सैंकड़ों भक्त तुमुल कीर्तन करते हुए उनके साथ चल रहे थे और लोगों के चलने के कारण सर्वत्र धूल छाई हुई थी । दृश्य बहुत ही शानदार लग रहा था, मानो किसी महाकाव्य के 'टेन कमांडमेण्ट्स' अथवा 'एकज़ोडस' जैसे चलचित्र का कोई वृहत् दृश्य हो । यह दृश्य इस से भी बढ़कर लग रहा था, क्योंकि यह आध्यात्मिक था। प्रभुपाद की पालकी नीचे की ओर बढ़ती जा रही थी और मैं धूलि में अचानक गिर गया। सब कुछ निरंकुश था, किन्तु था भक्तिभावित । बटु गोपाल : एक छोटी-सी पालकी थी जिसे चार लोग उठाए हुए थे। प्रभुपाद के पकड़ने के लिए उसमें कुछ रस्सियाँ थीं और उसमें यात्रा कोई सुखद न थी । किन्तु दृश्य अपूर्व था । भक्त टार्च, इलेक्ट्रिक टार्च, मशाल और लालटेन लिए चल रहे थे और उनके पीछे प्रभुपाद की पालकी थी जो उस पगडंडी पर नीचे उतर रही थी। सैंकड़ों शिष्य उन्हें घेरे हुए थे और कीर्तन का निनाद उठ रहा था। मैं बराबर प्रयत्न करता रहा कि प्रभुपाद के निकट पहुँच सकूँ और उनकी झाँकी प्राप्त करूँ । जाह्नव - देवी दासी : हम अंधेरे में ढालू पहाड़ी पर भक्तों की नदी के तुमुल कीर्तन के मध्य नीचे की ओर भाग रहे थे। ऐसा लगता था कि हमारे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। करीब आधे रास्ते के बाद मैं पालकी के पास पहुँची । तब मैंने अनुभव किया कि श्रील प्रभुपाद के निकट होने का अर्थ भौतिक निकटता से कहीं अधिक है और उनसे दूरी कम करने के लिए मुझे कृष्णभावनामृत के प्रति और अधिक गंभीर बनने की जरूरत है। जन्माष्टमी की रात में प्रभुपाद मंदिर गए और 'कृष्ण द सुप्रीम पर्सनालिटी आफ गाडहेड' (परमेश्वर कृष्ण ) से भगवान् कृष्ण के जन्म के विषय में वाचन सुना । लगभग दो बजे उन्होंने लक्ष्य किया कि कुछ भक्त झूल रहे हैं। उन्होंने मुसकराते हुए कहा, “तुम लोग थक गए हो।" और कार्यक्रम समाप्त कर दिया । ऐसे विशाल उत्सव के मध्य भी प्रभुपाद बम्बई के भूखण्ड से संबंधित संघर्ष में निमग्न थे। गिरिराज से एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें पाँच लाख कर चुकाने के लिए ऋण प्राप्त करने में उसकी विफलता और सरकार द्वारा अनुमति देने से इनकार का वर्णन था । गिरिराज ने अपने इस संदेह का भी उल्लेख किया था कि मि. एन. चैरिटी कमिश्नर के निर्णय को प्रभावित कर रहा था । प्रभुपाद के पास क्रय-पत्र की एक प्रति थी और उन्होंने सावधानीपूर्वक उसका अध्ययन किया। उनका निष्कर्ष था कि उनकी स्थिति मजबूत थी, क्योंकि इकरारनामा के अनुसार जमीन पर उनका कब्जा था। वायदे के अनुसार उन्होंने दो लाख का भुगतान कर दिया था, किन्तु मि. एन. ने पट्टा नहीं लौटाया था। अब वह और धनराशि माँग रहा था और प्रभुपाद ने गिरिराज से कहा था कि उस धनराशि का भुगतान करके उसे पट्टा प्राप्त कर लेना चाहिए। जहाँ तक चैरिटी कमिश्नर की अनुमति का प्रश्न है, इसका कोई उल्लेख इकरारनामा में नहीं था । यद्यपि मि. एन. की चालों से गिरिराज घबराया हुआ लगता था, किन्तु प्रभुपाद मि. एन. की इन चालों को केवल उसकी गीदड़ भभकी समझते थे । उन्होंने गिरिराज को तार भेजा : “ बैंक से गिरवी ऋण लो और एन. को भुगतान करो" । गिरिराज का कोई उत्तर आने से पूर्व, प्रभुपाद ने एक और तार भेजा: "तुम क्यों कहते हो कि पट्टा असंभव है ? खरीद के इकरारनामा में हर चीज साफ है । इकरारनामा की शर्तों के अनुसार पट्टा तुरन्त हो जाना चाहिए। अपने आविर्भाव दिवस के प्रातः काल श्रील प्रभुपाद पहाड़ी के मण्डप में व्याख्यान देने गए। ग्रीष्म ऋतु के अंतिम दिनों का यह एक बहुत सुंदर प्रात: काल था। प्रभुपाद राधा - दामोदर और भगवान् जगन्नाथ के अर्चा-विग्रहों की बगल में एक लाल रंग के व्यास आसन पर बैठ गए। उनके सैंकड़ों शिष्यों के अतिरिक्त वहाँ सैंकड़ों अतिथि भी थे। सब मिलाकर वहाँ करीब एक हजार लोग एकत्र थे । यह उत्सव हरे कृष्ण आंदोलन का एक उल्लेखनीय प्रदर्शन था । उसका समाचार प्रसारित करने के लिए उस समय वहाँ न्यू यार्क टाइम्स तथा अन्य समाचार-पत्रों के सम्वाददाता एवं टी. वी. फिल्म के लोग मौजूद थे। प्रभुपाद ने यह कह कर अपना व्याख्यान आरंभ किया कि यद्यपि भक्तों द्वारा उनके अपने आध्यात्मिक गुरु की उपासना से किसी दर्शक को गलतफहमी हो सकती है, किन्तु किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि आध्यात्मिक गुरु स्वयं को भगवान् के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रभुपाद ने आध्यात्मिक गुरु की तुलना एक टैक्स कलेक्टर से की। जिस प्रकार एक टैक्स कलेक्टर राजा के नाम पर कर की उगाही करता है, उसी तरह आध्यात्मिक गुरु भगवान् कृष्ण के नाम पर सम्मान प्राप्त करता है। प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा की सेवा करनी चाहिए और उसको नमन करना चाहिए और आध्यात्मिक गुरु प्रकट होकर उसके नाम में नमन और आराधना " स्वीकार करता है" और परमात्मा आध्यात्मिक गुरु को अर्पित इस सेवा और नमन को, स्वयं अपने प्रति अर्पित सेवा और नमन मानता है। प्रभुपाद ने अपना भाषण समाप्त किया और डेढ़ दिन के अनाहार व्रत का समापन बढ़िया भोज से हुआ। तब प्रभुपाद अपने छोटे-से आवास के पिछले भाग में लौट गए, जहाँ उन्होंने कुछ भक्तों से वार्तालाप किया । हृदयानंद गोस्वामी : प्रभुपाद अपने कमरे के बाहर चटाई पर बैठे मालिश करा रहे थे। अचानक वहाँ उनकी चटाई के पास, दो बिल्ली के बच्चे आ गए। वे दोनों आपस में लड़ते हुए उलट-पलट रहे थे। वे ऊपर नीचे लोट कर कुश्ती लड़ रहे थे। मेरे मन में तुरन्त आया- "ओह, ये गंदे हैं। इन्हें दूर भगा देना है । " बिल्ली के बच्चे उलटते-पलटते प्रभुपाद की चटाई पर आ गए। आपस में लड़ते-झगड़ते वे एक गेंद की भान्ति उनके पैर पर जा गिरे। प्रभुपाद उनकी ठुड्डी सहलाने लगे। उनकी ठुड्डी सहलाते हुए वे हँसने लगे। तब वे एक तरह की प्रसन्न मुद्रा में मेरी ओर मुड़े और कहा, "देखो, प्रेम यहाँ भी है । " श्रुतकीर्ति : मेरे जिम्मे रसोई का काम था, अतः मैं प्रभुपाद की सेवा में एकदम नहीं जा सका। वे वहाँ एक सप्ताह रहे और इस पूरे समय में मैं उन्हें देख नहीं पाया। मैं इतना परेशान हो रहा था। मैं इस सारे सेवा - कार्य में लगा था और प्रभुपाद से मिलने तक का अवसर नहीं पा रहा था —- आधी रात तक केवल भोजन बनाने में व्यस्त रहता था । मुझे बहुत खराब लग रहा था । अतः प्रभुपाद के प्रस्थान के एक दिन पूर्व कीर्तनानंद महाराज मेरे पास आए और बोले, " तो तुम प्रभुपाद के सेवक बनने जा रहे हो ।" मैने कहा, "नहीं, 'नहीं! यह तो विस्मयकारी होगा ! नहीं, यह अजीब होगा !" मैं चिन्तित हो उठा। तब कीर्तनानंद महाराज ने कहा, “तुम्हें पिट्सबर्ग जाने के लिए कल प्रातः यहाँ से प्रस्थान करना है।" मैने सोचा, “ओ, यह तो बहुत जल्दी हो गया। मुझे तो इस विषय में कुछ मालूम नहीं था। दूसरे दिन सवेरे कीर्तनानंद महाराज मुझे उस फार्म हाउस में ले गए जहाँ प्रभुपाद ठहरे हुए थे। वे मुझे प्रभुपाद के कमरे में ले गए और बोले, "यह श्रुतकीर्ति है। यह आपका सेवक बनने जा रहा है। " प्रभुपाद ने मेरी ओर देखा और मैंने उन्हें प्रणाम किया। कीर्तनानंद महाराज ने कहा, “प्रभुपाद, यह बहुत अच्छा भोजन बनाता है।” प्रभुपाद ने कहा “ यह बहुत अच्छी बात है” महाराज ने कहा, 'लेकिन यह मालिश करना नहीं जानता ।" मैने जीवन में यह पहले कभी नहीं किया था। और तब प्रभुपाद ने कहा, “ठीक है, मालिश तो कोई भी कर सकता है। यह बहुत आसान है । " सत्यनारायण : मैं भक्तों के एक दल में था । हमें एक पुरानी बस में देश-भर में घूम कर प्रचार करना था। बस में अर्चा-विग्रह थे, रसोई-घर था और स्नान - घर था। प्रभुपाद अपने कमरे से बाहर थे, जब हम बस में वहाँ पहुँचे। जब वे हमारी बस में आए तो हमने उनका स्वागत उसी तरह किया मानो वे एक विधिवत् मंदिर में आए हों और हमने उन्हें चरणामृत दिया। उन्होंने हर चीज का निरीक्षण किया और कहा कि इस तरह की बसें सैंकड़ों की संख्या में होनी चाहिए। उनके लिए यह कोई बहुत बड़ी घटना नहीं थी, किन्तु उन्होंने इसे सचमुच पसंद किया । सत्स्वरूप दास गोस्वामी : मैने अनेक प्रमुख भक्तों को महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए प्रभुपाद से मिलने, इस मकान में जाते देखा । मेरे पास कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं था जिसके बारे में उन्होंने पत्रों में जवाब न दे दिया हो। मुझे चिन्ता होने लगी कि जबकि अन्य लोग उनसे मिलने जा रहे हैं, किन्तु मैं नहीं जा रहा हूँ। अंत में एक दिन मेरी चिन्ता इतनी बढ़ गई कि मैने निर्णय किया कि मैं कृष्णकृपाश्रीमूर्ति प्रभुपाद से अवश्य मिलूँगा । जब मैं मकान के द्वार पर पहुँचा तो प्रभुपाद के सेवक ने खुशी से मुझे अंदर जाने दिया। एक मिनट में मैंने अपने को प्रभुपाद के सम्मुख बैठा पाया । वे मालिश कराने बैठे थे। मैने श्रील प्रभुपाद को बताया कि मेरे पास उनसे पूछने के लिए कोई बहुत जरूरी विशेष प्रश्न नहीं थे, किन्तु उनके दर्शनों के लिए मैं व्यग्र था, इसलिए चला आया था। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि मुझे चिंता - ग्रस्त हो कर आने की आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने कहा कि सभी बातों का उत्तर उन्होंने अपनी पुस्तकों में दे दिया है। सचमुच, यह बहुत प्रेरणाप्रद था। एक तरह से वे मुझे बता रहे थे कि एक पुराना शिष्य होने के नाते मुझ में यह विश्वास होना चाहिए कि प्रभुपाद की पुस्तकें पढ़ कर हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। व्यग्रतावश हमें अपने में किसी अभाव का अनुभव नहीं करना चाहिए और आवेग के वशीभूत होकर गुरु महाराज से व्यक्तिगत साक्षात्कार के लिए नहीं चल पड़ना चाहिए । किन्तु चूँकि मैं उनके सम्मुख उपस्थित था, इसलिए श्रील प्रभुपाद ने मुझ से पूछा “तुम क्या कर रहे हो ?" जब प्रभुपाद ने यह कहा तो मेरे मन में गहराई से यह भाव उठा कि वे मेरा ठीक आंकलन कर रहे हैं और मुझे अल्पवृद्धि वाला मूर्ख आँक रहे हैं। मैं संन्यास की दीक्षा प्राप्त कर चुका था और अपने सहायक के साथ उनके सम्मुख उपस्थित होकर उनका ध्यान चाहता था। अब चूँकि मैं उनसे ध्यान की याचना कर चुका था तो उन्होंने एक सर्वेक्षक की दृष्टि से मुझे देखा और अपने प्रश्न से यह संकेत दिया कि कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए मैं कुछ नहीं अथवा अत्यल्प करता रहा हूँ । मैने उनके इस प्रश्न "तुम क्या करते रहे हो ?” का यही अर्थ लगाया। मैंने उत्तर दिया कि उनके पत्र से प्राप्त निर्देशों के अनुसार मैं अपने क्षेत्र में एक मंदिर से दूसरे मंदिर में जा-जाकर उनकी इस इच्छा की पूर्ति में लगा रहा हूँ कि विद्यार्थी प्रातः कालीन कक्षा में श्रीमद्भागवत का अध्ययन करें। पहले मुझे पूर्ण विश्वास था कि मैं उनके उन आदेशों का ठीक-ठीक पालन कर रहा था जो उनके एक पत्र से प्राप्त हुए थे । किन्तु मैं आश्चर्य में पड़ गया जब न्यू वृंदावन में अपने कमरे में वे यह कहने लगे कि मंदिरों में जाना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने कहा कि वे विष्णुजन महाराज के कार्य से प्रसन्न थे जो एक बस से प्रचार - यात्रा कर रहे थे। मुझे भी वैसा ही करना चाहिए। मैंने तुरन्त उत्तर दिया, “ तो आपका यह आदेश कि मैं विभिन्न मंदिरों में जाऊँ, बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है ? मैं भी बस ले लूँ?” इस पर प्रभुपाद चिढ़ गए और बोले, "यह बात नहीं है कि चूँकि एक चीज अधिक महत्त्वपूर्ण है, दूसरी चीज कम महत्त्वपूर्ण हो जाती है। हर चीज महत्त्वपूर्ण है। ऐसा नहीं है कि चूँकि मैं कह रहा हूँ कि बस द्वारा प्रचार - यात्रा महत्त्वपूर्ण है इसलिए तुम कह रहे हो कि मन्दिरों में जाना महत्त्वपूर्ण नहीं है । कृष्ण का सिर महत्त्वपूर्ण है और कृष्ण का पैर महत्त्वपूर्ण है। उनके सम्बन्ध की हर वस्तु महत्त्वपूर्ण है । " न्यू वृन्दावन में प्रभुपाद सभी तरह के कलापों में औपचारिक अथवा अनौपचारिक रूप से, पूरी तरह भाग ले रहे थे, किन्तु बम्बई के मामले की चिन्ता का उनके मन पर विशेष भार था । यद्यपि उन्होंने संसार के विभिन्न भागों में कृष्णभावनामृत आन्दोलन की देख-रेख करने के लिए जी. बी. सी. सचिवों की नियुक्ति कर दी थी, किन्तु समस्त भारत के वास्तविक जी. बी. सी. सचिव वे स्वयं ही थे । अतएव वे जहाँ भी जाते, वहाँ की परियोजनाओं को उन्हें आंशिक ध्यान देना पड़ता । वे जी. बी. सी. सचिव का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे । व्यावहारिक मामलों पर शुद्ध अन्त:करण से ध्यान देते हुए भी वे सदैव लोकातीत बने रहते थे— कृष्ण पर पूर्णत: निर्भर और सदैव प्रचार - रत । गिरिराज को तार भेजने या बम्बई की समस्याएँ सुनने के तुरन्त बाद, वे अपनी शान्तिपूर्ण दिनचर्या और सक्रिय प्रचार कार्य में लग गए थे। वे सवेरे की मालिश कराते, स्नान करते, विधिवत् और बारीकी से तिलक लगाते, शान्त मन से गायत्री मंत्र जपते, प्रसाद ग्रहण करते, एक घंटा विश्राम करते और पूरे दिन के कार्यकलाप के बाद, संध्या - समय वे जहाँ भी होते वहाँ के मंदिर में जाते, व्यास - आसन पर बैठ कर जय राधा-माधव गाते और विशुद्ध कृष्ण - चेतना पर भाषण देते। सितम्बर ८ न्यू वृंदावन के बाद प्रभुपाद पिट्सबर्ग गए जहाँ वे दि सीरिया मास्क के बड़े हाल में एक सफल कार्यक्रम में सम्मिलित हुए । उनकी भेंट एक कैथलिक पादरी से भी हुई जिससे उन्होंने पूछा, “ ईसाई बूचड़खानों में गायों का वध क्यों करते हैं और इस प्रकार 'तू किसी का वध नहीं करेगा'- - इस आदेश का उल्लंघन क्यों करते हैं ?” प्रभुपाद यह प्रश्न ईसाई पादरियों से प्राय: पूछते रहे थे और उनके उत्तर से वे सदा असंतुष्ट रहे थे। इस पादरी का उत्तर भी कोई अपवाद नहीं था । अपने कमरे की एक अनौपचारिक बैठक में प्रभुपाद ने बाहर जाकर प्रचार करने के प्रोग्राम पर बल दिया। उस समय जो नव दीक्षित संन्यासी वहाँ उपस्थित थे उनको उन्होंने अपने गुरुभाई विष्णुजन स्वामी के दृष्टान्त का अनुसरण करने का उपदेश दिया: बस में नगर - नगर यात्रा करो, समारोह करो, पुस्तकें और पत्रिकाएँ वितरित करो । *** सितम्बर ९ डलास के भक्तों ने एक गिरजाघर की सुविधाएँ खरीद ली थीं और वे गुरुकुल के नाम से, बच्चों के लिए पहला इस्कान स्कूल स्थापित कर रहे थे । १९७१ और १९७२ ई. के मध्य भारतवर्ष में यात्रा करते हुए प्रभुपाद ने डलास के अध्यापकों को कृष्ण- चेतनायुक्त प्रारंभिक स्कूल की स्थापना में अपनाए जाने वाले मूलभूत निर्देश अपने कई पत्रों में लिख भेजे थे। हम पढ़ने और लिखने की प्रारंभिक योग्यताएँ सिखलाएँगे, किन्तु साथ ही पूर्ण जीवन कैसे रहा जाता है इसका भी आध्यात्मिक ज्ञान देंगे। अन्य कौन सा ऐसा स्कूल है जो इस तरह की अद्भुत् शिक्षा का अवसर देता है ? ... पिछली रात दिल्ली पण्डाल में मेरे व्याख्यान का विषय स्कूलों और कालेजों में कृष्ण - चेतना सिखाने की आवश्यकता था । यह एक क्रान्तिकारी विचार है। किन्तु हमने देखा है कि प्रौद्योगिकी और विज्ञान की इस सारी नास्तिक शिक्षा का वास्तविक परिणाम यह है कि वे एक के बाद एक हिप्पी पैदा करते जा रहे हैं। इन गगन-स्पर्शी इमारतों का लाभ क्या है यदि आगे की संतानें उनको बनाए नहीं रख सकतीं ? गुरुकुल की प्राचीन पद्धति को पुनर्जीवित करना चाहिए। वही उस पद्धति का पूर्ण उदाहरण है जिसका विकास ऐसे महान् व्यक्तियों और गंभीर और जिम्मेदार नेताओं को उत्पन्न करने के लिए किया गया है जो जानते हैं कि नागरिकों का वास्तविक कल्याण किस में है। प्राचीन काल में सभी महान पुरुषों की शिक्षा इसी पद्धति में हुई थी। अब आपका दायित्व है कि इस पद्धति का प्रवेश अपने देश में कराएँ। इसे ठंडे दिमाग से कीजिए और बहुत शीघ्र आप के देशवासियों के लिए इसके व्यावहारिक लाभ सामने आएँगे । इन प्रश्नों से डलास के भक्तों को विश्वास हो गया था कि श्रील प्रभुपाद की प्रसन्नता के लिए वे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। स्कूल को दूसरे इस्कान सदस्यों का समर्थन मिल गया था और अनेक दम्पतियों ने अपने बच्चों को उसमें दाखिल कराया था। श्रील प्रभुपाद के वहाँ आने तक करीब पचास छात्रों का दाखिला हो चुका था । प्रभुपाद ने कहा कि डलास के मौसम से उन्हें कलकत्ता की याद आने लगी थी, यद्यपि वहाँ की गरमी से उन्हें असुविधा हो रही थी । वातानुकूल के प्रति अरुचि जाहिर करते हुए उन्होंने अपना कुर्ता उतार दिया और अपने अनुभवहीन किन्तु समुत्सुक शिक्षकों के दल के साथ वे घास के मैदान में बैठ गए। उन्होंने कहा कि शिक्षा की सर्वोत्तम पद्धति वह है जिसका परिचय उन्हें बालक के रूप में. हुआ था; कक्षा में एक अध्यापक हो और विभिन्न अवस्थाओं तथा अभिरुचियों के पचास तक शिक्षार्थी हों। एक-एक करके वे शिक्षक की डेस्क तक आएँ, मार्गदर्शन प्राप्त करें, आगे क्या करना है, इसे जानें और अपने स्थान पर लौट कर निर्दिष्ट कार्य पूरा करें। गुरुकुल के शिक्षकों को विशेष रूप से इस बात की चिन्ता थी कि दण्ड का सहारा लिए बिना वे छात्रों को अनुशासित कैसे बनाए रखें और प्रभुपाद ने उनकी इन सारी कठिनाइयों का समाधान बिना संकोच निकाल दिया। उन्होंने कहा कि छात्रों में शिक्षकों के प्रति डर और प्रेम दोनों होने चाहिएं। शिक्षक को चाहिए कि अपनी कठोर मुद्रा से किसी उच्छृंखल छात्र को भयभीत करके उसे विनीत बनाए किन्तु बालक को शारीरिक दंड नहीं देना चाहिए । अगले दिन प्रभुपाद एक कक्षा में गए और विद्यार्थियों के सामने एक गद्दी पर बैठ गए। दोनों हाथों में श्यामपट की छड़ी लेकर उन्होंने मजाक में कहा कि एक छड़ी से लड़कों के सिर पर मारा जायगा और दूसरी से उनके हाथों पर। प्रभुपाद की खिलवाड़ी मनोवृत्ति देख कर बच्चे और शिक्षक, सभी प्रसन्न हो उठे। और जब उन्होंने पूछा कि क्या कोई मार खाना चाहता है तो शिक्षक और छात्र सभी अपने हाथ आगे निकाले हुए उनकी ओर बढ़ने लगे ताकि वे उनसे दयालुतापूर्ण मार खा सकें। यह दिखाने के लिए कि शिक्षा कैसे दी जाती है उन्होंने किसी एक शिक्षार्थी को आगे आने के लिए कहा । द्वारकाधीश आगे आया । प्रभुपाद ने अपना श्रद्धास्पद हाथ बच्चे के हाथ के ऊपर रखा और संस्कृत वर्णमाला का पहला अक्षर बनाने का उससे बार-बार अभ्यास कराया । बम्बई का समाचार प्रभुपाद का पीछा करता डलास पहुँचा । बम्बई से पश्चिम आए एक भक्त ने गिरिराज के बम्बई केन्द्र के अध्यक्ष पद से त्याग पत्र देने की हाल की चर्चा के बारे में प्रभुपाद को बताया। मि. एन. से, वकीलों से और सरकार से निपटने में, अपनी विफलता से निराश होकर, और भक्तों के आपसी लड़ाई-झगड़ों तथा असहयोग से परेशान होकर, गिरिराज अपने को अध्यक्ष पद के अयोग्य समझने लगा था । अब गिरिराज की चिन्ता प्रभुपाद की चिन्ता बन गई और वे जुहू परियोजना के मामलों को लेकर फिर चिन्ताग्रस्त हो गए। वहाँ कोई ऐसा नहीं था जिसके साथ वे इस मामले में विचार-विमर्श करते, क्योंकि अमरीकी भक्त बम्बई के मामलों के बारे में लगभग कुछ नहीं जानते थे । रात को इतनी अधिक गरमी थी कि प्रभुपाद सो नहीं सके, न ही वे श्रीमद्भागवत के अनुवाद पर ध्यान केन्द्रित कर सके। इसलिए वे देर रात तक जागते रहे और बम्बई के बारे में अपने सचिव से बात करते रहे। वे मि. एन. के मन और मनोवृत्ति के बारे में अनुमान लगाते रहे, हरे कृष्ण लैंड के बारे में अपनी चिन्ता अभिव्यक्त करते रहे, और भक्तों की हिचकिचाहट और निरुत्साह पर आश्चर्य प्रकट करते रहे। विभिन्न बिन्दुओं से वे मामले के बारे में तर्क-वितर्क करते रहे जब तक कि सवेरा होने को नहीं आया और तब उन्होंने एक दूसरा तार लिपिबद्ध किया : "भूखण्ड का मामला अविलम्ब अच्छी से अच्छी कीमत पर तय करो। मि. एन. ने इसे देने का वायदा किया था । यदि वह नहीं देता, हम देंगे । १५००० की पेशकश करो, मेरे आने तक अध्यक्ष पद मत छोड़ो। " संगमरमर से निर्मित राधा और कृष्ण के विशाल अर्चा-विग्रह, न्यू यार्क से ट्रेलर द्वारा, डलास पहुँचे । प्रभुपाद जब भारत में थे तभी डलास गुरुकुल के लिए उन्होंने इन अर्चा-विग्रहों का विशेष रूप से चयन किया था और उन्हें संयुक्त राज्य भेजने का आदेश दिया था। कृष्ण का अर्चा-विग्रह राजसी था । वह इस्कान के बहुत से अर्चा-विग्रहों से लम्बा था, उसकी बाहें और सिर उल्लेखनीय ढंग से विशाल थे। एक कहानी के अनुसार वह विग्रह कई सौ वर्ष पुराना था और इसलिए एक प्राचीन परम्परा के अनुरूप उत्कीर्ण किया गया था । यद्यपि डलास के भक्त राधाकृष्ण अर्चा-विग्रहों की स्थापना के लिए तैयार नहीं थे, किन्तु प्रभुपाद ने उन्हें दो दिन के अंदर स्थापना के लिए तैयार कर देने को कहा और यह भी कहा कि स्थापना वे स्वयं करेंगे। किन्तु जाह्नव देवी दासी ने अर्चा-विग्रहों का मूल रंग किसी की अनुमति लिए बिना ही छुड़ा दिया और वह उन पर नया रंग चढ़ाने लगी। जब प्रभुपाद को यह मालूम हुआ तो वे बहुत कुपित हुए । उन्होंने डलास के अध्यक्ष, सत्स्वरूप दास गोस्वामी, को अपने कमरे में बुलाया और उनसे स्पष्टीकरण मांगा। सत्स्वरूप ने कहा कि वह अनजान था और जाह्नव ने उसकी अनुमति के बिना ही सब कुछ किया था। प्रभुपाद ने तब जाह्नव को बुलाया और वे क्रोध से उस पर बरस पड़े। वह रोने लगी। श्रील प्रभुपाद ने पूछा, “तुमने ऐसा क्यों किया ?" उसने रुंधे हुए गले से उत्तर दिया, “बेवकूफी । " श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, बेवकूफी, घातक बेवकूफी । तुम बेवकूफ हो । और हमेशा बेवकूफ रहोगी। तो, अब इसके बारे में क्या कर रही हो ?" जाह्नव ने मंद स्वर में उत्तर दिया, “श्रील प्रभुपाद, मैने लॉस ऐन्जलेस में बरदराज से बात की है और उन्होंने कहा कि यदि मैं एक विशेष प्रकार का रंग इस्तेमाल करूँ...' प्रभुपाद चिल्लाए, “बरदराज ? यह बरदराज कौन है ? मैं तुम्हारा आध्यात्मिक गुरु हूँ और तुम्हारे सामने बैठा हूँ । मुझसे क्यों नहीं पूछती ?” विरक्ति से भर कर वे कमरे में बैठे अन्य लोगों की ओर मुड़े और उन्होंने पूछा, “तो अब इसके बारे में क्या किया जाय ?" महिलाओं में से एक ने कहा कि शीघ्र सूखने वाले रंग से वे अर्चा-विग्रहों को पहले जैसा फिर से रँग कर स्थापना के लिए समय पर तैयार कर सकती हैं। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, इसे शीघ्र करो ।'' जाह्नव ने सारी रात जग कर अर्चा-विग्रहों को पहले जैसा फिर से पेंट किया । दूसरे दिन सवेरे जो अर्चा-विग्रहों की स्थापना का दिन था, कृष्ण बहुत सुंदर लग रहे थे, यद्यपि पेंट के ताजा होने के कारण उनका शरीर स्थान-स्थान पर चिपचिपा था । उस दिन सवेरे ह्वाइट राक लेक के इर्दगिर्द के भ्रमण में, विभिन्न विषयों पर दार्शनिक भाव से बात करते हुए, प्रभुपाद अकस्मात् सत्स्वरूप महाराज की ओर मुड़े और उन्होंने स्थापना - समारोह की तैयारियों के बारे में पूछा। जब सत्स्वरूप ने कहा कि वे निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि विग्रहों पर लगाया गया रंग समय से सूख जायगा तो प्रभुपाद अचानक रुक गए। वे बोले कि यदि विग्रह तैयार नहीं होंगे तो डलास में उनके और अधिक रुकने का कोई अर्थ नहीं है । अपने सचिव की ओर मुड़ कर उन्होंने कहा कि उनकी उड़ान का आरक्षण जितनी जल्दी हो सके बदल दिया जाय । सत्स्वरूप ने क्षमा-याचना की और कहा कि हो सकता है अब भी हर चीज समय पर तैयार हो जाय । प्रभुपाद का क्रोध शांत हो गया और वे अन्य विषयों के बारे में बात करते हुए घूमते रहे । बाद में प्रभुपाद ने अपने कमरे में अकेले सत्स्वरूप से बात की और भौतिकतावादी जीवन पर सवेरे के अपने व्याख्यान को जारी रखा। जिस तरह अधिकांश लोग सामान्य वस्तुओं के बारे में बातें करते हैं उसी तरह प्रभुपाद ने आकस्मिक ढंग से बद्ध आत्माओं की मूर्खता के बारे में बताया । " वे सोचते हैं कि केवल बड़ा परिवार रखने और सांसारिक क्रियाकलापों में डूबे रहने से उन्हें मृत्यु या अगले जन्म की चिन्ता नहीं करनी है ।" ऐसा कहते हुए प्रभुपाद ने अविश्वासपूर्वक अपने सिर को झटका दिया। वे भौतिकतावादियों की अविश्वसनीय स्थिति के बारे में सोच रहे थे । प्रभुपाद के सभी शिष्यों का ध्यान उनकी उसी एक अद्भुत विशेषता पर गया : वे जहाँ भी हों उनकी चेतना सदैव आध्यात्मिक रहती । वे चाहे बम्बई के विषय में रात को देर तक जागकर चिन्तित हों या बात कर रहे हों अथवा अर्चा-विग्रहों को पुनः रंगने के लिए भक्तों की आलोचना कर रहे हों, उनका मन कृष्ण - चेतना के एक विचार से दूसरे विचार की ओर सदा चलायमान रहता था। भक्त कभी-कभी कुछ दूर से ही उनकी विराट कृष्ण-चेतना का अवलोकन करते । अन्य समयों में, सेवा के बहाने, वे उनसे वार्तालाप करने लगते और व्यक्तिगत रूप से उनके समभागी बन जाते अथवा प्रभुपाद उन से कभी सीधे पूछताछ करने लगते। कोई भी यह मान कर नहीं चल सकता था या पहले से बता सकता था कि अपने गुरु महाराज की निरन्तर गंभीर सेवा में प्रभुपाद कब कैसा व्यवहार करेंगे। सत्स्वरूप महाराज के साथ बैठे हुए प्रभुपाद सवेरे की कक्षा के भागवत् से एक टुकड़ा गुनगुनाने लगे— गृहेषु गृहमेधिनाम्... तब उन्होंने पूछ लिया, " तो, अर्चा-विग्रह का क्या हाल है ?" सत्स्वरूप ने कहा कि उनके विचार से वे सूख गए होंगे। प्रभुपाद उठे और उस कमरे में चले गए जहाँ जाह्नव फिर से रँगे गए अर्चा-विग्रह की जाँच कर रही थी। शान्त भाव से, गुनगुनाते हुए, वे राधा और कृष्ण के समक्ष खड़े हो गए। बोले, “हाँ, अब यह ठीक हो गया है । " उस दिन पूर्वाह्न में मंदिर के कक्ष में अपने व्यास आसन पर बैठ कर प्रभुपाद ने ब्रह्म-संहिता से श्लोक सुनाते हुए राधा और कृष्ण के अर्चा-विग्रहों की स्थापना की। तब उन्होंने विग्रहों की पहली बार आरती की जिन्हें शीघ्रतापूर्वक सजाया गया था और लगभग नंगे मंच पर आसीन किया गया था। किन्तु प्रभुपाद प्रसन्न लग रहे थे। बाद में वे अपने कमरे में गए और कागज के टुकड़े पर लिखा, "राधा कालचन्दजी, डलास के अर्चा-विग्रह, सितम्बर १२, १९७२ – ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी ।” उन्होंने बताया कि कालचन्दजी का अर्थ काला चन्द्रमा है । *** प्रभुपाद किसी पाश्चात्य मार्ग द्वारा शीघ्र भारत लौटने की तैयारी कर रहे थे और वे पाश्चात्य संसार के अपने मुख्यालय लॉस ऐन्जीलेस की यात्रा पर पुनः निकले। जिस दिन वे वहाँ पहुँचे उसी दिन बम्बई के शिष्यों को और निर्देश जारी किए। उन्होंने उन्हें विश्वास दिलाया कि जुहू केवल एक मुसीबत की जगह नहीं है वरन् वह एक विशेष स्थल है जहाँ एक विशाल योजना पूरी की जायगी। उसके लिए संघर्ष करना सार्थक था । ... अब मैं यह जानने को व्यग्र हूँ कि क्या विक्रीय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर हो गए हैं और करारनामे में क्या-क्या लिखा है । हस्ताक्षरित प्रति मुझे यथाशीघ्र भेजें। इससे मुझे बड़ी राहत मिलेगी। ज्योंही करारनामे पर हस्ताक्षर हो जायँ, आप भवन निर्माण तुरन्त आरंभ कर दें। मैं भारत शीघ्र आ रहा हूँ, अधिक से अधिक अक्तूबर तक । और देखना चाहता हूँ कि बम्बई, मायापुर और वृंदावन में भवन निर्माण का कार्य बढ़िया ढंग से चल रहा है। बम्बई की यह परियोजना हमारी संसार भर की परियोजनाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और मैं आप से और बम्बई के और लोगों से अपेक्षा रखता हूँ कि इसे बहुत शानदार तरीके से पूरा किया जाय । प्रभुपाद के सचिव ने उन्हें हाल में ही एयर इंडिया की एक नई विज्ञापन पुस्तिका दिखाई थी जिसमें कला की विषयवस्तु एकमात्र वृन्दावन में कृष्ण को अर्पित थी। प्रभुपाद को इससे बड़ा उत्साह हुआ कि एयर इंडिया, पर्यटकों को भारत आकर, कृष्ण-संस्कृति का अनुभव करने को लुभा रहा था। इससे उनके इस विचार की पुष्टि होती थी कि भविष्य में हरे कृष्ण लैंड और अन्य भारतीय योजनाएँ, पर्यटकों के लिए, जो वास्तविक वैदिक संस्कृति का अनुभव करना चाहते हैं, महत्त्वपूर्ण दर्शनीय वस्तुएँ होंगी । बम्बई की डाक को हमेशा वरीयता मिलती थी और हर दिन सवेरे प्रभुपाद बम्बई से समाचार के बारे में पूछते रहते थे । गिरिराज से प्राप्त पत्र पर उनका ध्यान सबसे पहले जाता था। अक्तूबर के शुरू में उन्हें गिरिराज का एक लम्बा पत्र मिला । भौतिक प्रकृति पर हमारा कोई वश नहीं है, और यद्यपि हर चीज बहुत मंद गति से चल रही है, श्रीमती मोरारजी, मि. मुनीम, बैंक और मि. एन., सभी का कहना है कि वे जितनी तेजी से संभव है, चल रहे हैं। और यह उनको पसंद नहीं है कि हम उन्हें मामले के महत्त्व का और उसे शीघ्र तय करने की आप की चिन्ता का बार-बार स्मरण कराएँ । आगे कोई प्रगति नहीं हुई थी; करारनामे पर हस्ताक्षर अब भी नहीं हुए थे । यद्यपि गिरिराज का कहना था कि अध्यक्ष पद से त्याग पत्र देने का अब उसका कोई इरादा नहीं था, किन्तु उसका पत्र पढ़ने के बाद प्रभुपाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत में अन्य वरिष्ठ भक्तों को भी उसकी सहायता करनी चाहिए । इसलिए उन्होंने तमाल कृष्ण गोस्वामी और भवानंद को, जो दोनों वृन्दावन में थे, लिखा कि वे तुरन्त बम्बई जायँ और पट्टे के मामले में शीघ्रता कराएँ । प्रभुपाद इस तरह तमाल कृष्ण गोस्वामी से कह रहे थे कि वे भारत में व्यवस्थापक के रूप में अपने पद को पुनर्जीवित करें । ... गिरिराज के पत्र से मैं समझ सकता हूँ कि उसे कठिनाई हो रही है। मेरा विचार है कि जी. बी. सी. में आप को अपने पद को पुनर्जीवित करना है और भारत में सभी मामलों की अच्छे ढंग से देख-रेख करनी है। प्रभुपाद ने गिरिराज को सूचित किया कि अन्य भक्त भी उसकी सहायता के लिए पहुँच रहे हैं और उसे यह भी याद दिलाया कि उसे न्यास - मण्डल को भी साथ लेकर कार्य करना है । इतनी दूर के स्थानों से मैं अपने दिमाग पर अधिक जोर नहीं डालना चाहता कि किसी कठिनाई के उत्पन्न होने पर तुम को क्या करना है, इसलिए मैं पूर्ण रूप से तुम पर और अपने विश्वस्त वरिष्ठ शिष्यों पर निर्भर हूँ कि मामले को अच्छे ढंग से शीघ्र निपटाया जाय । प्रभुपाद अपने बम्बई के प्रबन्धकों को बार-बार निर्देश देते रहे कि विक्री के इकरारनामे की शर्तों में कोई परिवर्तन न किया जाय। वे इतनी रियायत के लिए तैयार थे कि पाँच लाख रुपए टैक्स के दे दिए जायँ और पूरी कीमत में से इन्हें घटा दिया जाय। इसके आगे कोई भी परिवर्तन नहीं। भक्तों को मि. एन. पर दबाव डालना था कि वह मूल मसौदे पर कायम रहे । प्रभुपाद को चिन्ता हो रही थी कि उनके वकील, मि. डी., से कोई समाचार नहीं आया। दो सप्ताह पहले उन्होंने मि. डी. और मि. एन. दोनों को तार भेजा था और देर के बारे में रिपोर्ट माँगी थी, किन्तु उन्हें किसी से कोई उत्तर नहीं मिला था। उन्होंने एक दूसरे वकील को, जो उनके बम्बई के मित्र थे, देर के बारे में पूछते हुए लिखा था । और लॉस एन्जीलेस में उन्हें उत्तर मिला कि मि. डी. अब उनके वकील नहीं थे। सदमा पहुँचाने वाले इस समाचार को पाने के दो सप्ताह बाद प्रभुपाद को मि. डी. के कार्यालय से एक औपचारिक पत्र मिला जिसमें भी वही बात लिखी थी । बम्बई से हाल में जितने समाचार मिले थे उनमें यह सब से अधिक चिन्ता उत्पन्न करने वाला था। प्रभुपाद को अब मालूम होने लगा कि किस तरह आरंभ से ही मि. एन. धूर्तता की योजना बनाने में लगा था। यह केवल ढिलाई या सरकार की ओर से देर का मामला नहीं था; यह मि. डी. और मि. एन. की साठगाँठ थी; वे धूर्त थे । अतः अब असली युद्ध शुरु होने जा रहा था । इस्कान को न्यायालय जाना होगा और मि. एन. के विरुद्ध फौजदारी का अभियोग लगाना होगा। संघर्ष से बचा नहीं जा सकता था । किन्तु प्रभुपाद को अब भी लगता था कि कानून की दृष्टि से उनकी स्थिति बहुत मजबूत थी । लास ऐन्जीलेस से प्रस्थान करने के पूर्व प्रभुपाद ने एक और चाल के बारे में सोचा। उन्होंने गिरिराज को लिखा कि वह समाचार-पत्रों में यह नोटिस छपवा दे कि इस्कान ने जुहू में मि. एन. के भू-खण्ड को खरीदने के लिए एक इकरारनामा किया है। उसके बाद प्रभुपाद बर्कले गए। अक्तूबर ६ बर्कले के अपने संक्षिप्त अधिवास में प्रभुपाद कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों के एक दल से मिले और उन्होंने बर्कले मंदिर में राधाकृष्ण विग्रहों की स्थापना की। किन्तु उनका ध्यान अब भी बम्बई पर था । उन्होंने तमाल कृष्ण गोस्वामी को लिखा: बम्बई का सौदा मि. एन. और मि. डी. की चालबाजियों से गड़बड़ा गया है। गिरिराज कठिनाई में है । इन दुनियावी मामलों में वह निरा बच्चा है। इसलिए उसकी सहायता के लिए तुरन्त जाइए। ... किन्तु इतनी सावधानी रखिए कि रुपए रजिस्ट्रार की कोर्ट में दिए जायँ, मि. एन. या उनके वकील के हाथ में नहीं। मामले को ठीक से निपटाइए, अन्यथा उचित कार्यवाही के लिए हमें फौजदारी या दीवानी केस मि. एन. के विरुद्ध दायर कर देना चाहिए । प्रभुपाद ने करन्धर को, जिसे वे ऐसे मामलों में निपुण समझते थे, सहायता करने के लिए बम्बई भेजने का निर्णय किया। वे श्यामसुंदर को भी भेजना चाहते थे, लेकिन वह लंदन गया हुआ था, एक बड़ी जायदाद के सिलसिले में जिसे जार्ज हैरीसन अनुदान करना चाहता था । किन्तु प्रभुपाद ने श्यामसुंदर सूचना भेजी कि लंदन का मामला तय होते ही उसे बम्बई चले जाना है । प्रभुपाद लड़ाई के लिए तैयार थे । वे धोखा खाने वाले नहीं थे । को भारत वापसी के मार्ग में प्रभुपाद हवाई पुनः गए । फिर ११ अक्तूबर को वे पहली बार मनीला गए, जहाँ उनके शिष्यों के एक छोटे दल ने मंदिर और होटल इन्टर- कांटिनेण्टल दोनों स्थानों में उनके व्याख्यानों का कार्यक्रम निश्चित किया था । मनीला में प्रभुपाद ने जुहू-सम्पत्ति के सम्बन्ध में अपनी स्थिति पर सावधानीपूर्वक विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि विजय उनकी होगी । गिरिराज को लिखित एक पत्र में उन्होंने अपने तर्क के बिन्दुओं को इस तरह गिनाया । १. क्रेता के रूप में हमने सभी शर्तों को पूरा किया है। २. मि. एन. ने जान-बूझकर देर की है— उनका उद्देश्य हमें धोखा देना था, जैसा कि इस सम्बन्ध में वह औरों के साथ भी कर चुका था । ३. किन्तु इस बार वह हमें धोखा नहीं दे सकता, क्योंकि भूखण्ड पर हमारा अधिकार हो चुका है और उस में राधाकृष्ण विग्रह स्थापित हो चुके हैं। ४. इसलिए हमें तुरन्त न्यायालय जाना चाहिए जिससे उसे मजबूर किया जाय कि वह पट्टा की कार्यवाही अविलम्ब पूरी करे । ५. यदि न्यायालय में केस लम्बे समय तक भी चलता रहा तो भी हमारे वहाँ के कार्यकलापों को बंद नहीं किया जा सकता । ६. न्यायालय गए बिना हमारा उससे कोई समझौता नहीं हो सकता । ७. किन्तु मैं समझता हूँ कि हमको चौदह लाख की पूरी राशि की व्यवस्था कर लेनी चाहिए जिससे इस धूर्त से हमारा पिण्ड छूट जाय । ८. लेकिन न्यायालय गए बिना हम यह नहीं कर सकते अन्यथा हम क्रय की शर्तों को तोड़ने के अपराधी माने जायँगे । इसलिए हम कोई समझौता करें, इसके पहले हमें न्यायालय जाना होगा । |