वृन्दावन अक्तूबर १७, १९७२ प्रभुपाद वृन्दावन कार्तिक ऋतु का उत्सव (अक्तूबर १६ से नवम्बर १४ तक ) मनाने आए थे। उनकी योजना प्रतिदिनराधा- दामोदर मंदिर में रूप गोस्वामी की समाधि पर व्याख्यान देने की थी । उनके व्याख्यानों का आधार रूप गोस्वामी की पुस्तक 'भक्ति रसामृत सिन्धु' था जिसका अनुवाद स्वयं प्रभुपाद ने 'द नेक्टर आफ डिवोशन' नाम से किया था । पाश्चात्य देशों की अपनी यात्रा के मध्य प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को कार्तिक में वृंदावन आने को आमंत्रित किया था और अब अमेरिका, योरोप, भारत तथा संसार के अन्य भागों से कई दर्जन शिष्य प्रभुपाद का साहचर्य पाने के लिए वृन्दावन पहुँच गए थे। उन्हें अपनी वृन्दावन योजना को विकसित करने की चिन्ता थी, इसलिए सीधे बम्बई न जाकर पहले वे यहाँ आए थे। उन्होंने अपने कुछ प्रमुख शिष्यों को बम्बई की समस्याओं का समाधान ढूँढने के लिए भेज दिया था। अब, एक सेनापति की तरह, जो दूसरे मोर्चे पर व्यस्त हो, उन्हें अपने बम्बई मोर्चे के सहायकों से समाचार की प्रतीक्षा थी। वे राधा दामोदर मंदिर के अपने दो कमरों वाले आवास में टिक गए, जबकि उनके शिष्य यमुना के निकट भरतपुर के भूतपूर्व महाराज के एक पुराने भवन में ठहरे। यद्यपि प्रभुपाद अपने शिष्यों का परिचय वृंदावन से करा रहे थे, किन्तु साथ ही वे वृन्दावन के निवासियों का परिचय अपने शिष्यों से भी करा रहे थे। उनके दल को लोगों के कुछ वैसे ही मनोभावों का सामना करना पड़ रहा था जैसे मनोभाव भक्तिसिद्धान्त सरस्वती और उनके तीर्थयात्रियों के दल को १९३२ ई. में झेलने पड़े थे लोग निम्न जातियों में जन्मे व्यक्तियों को वैष्णव के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। किन्तु प्रभुपाद को विश्वास था कि यदि उनके शिष्य वृंदावन में कृष्ण और बलराम का एक आश्चर्यजनक मंदिर बना लेते हैं तो वृंदावनवासियों के दिलों में परिवर्तन हो जायगा और वे उन के शिष्यों को स्वीकार कर लेंगे। प्रभुपाद अपने शिष्यों के रूखेपन और सुस्ती को सहन करते रहे और जब वृंदावन के लोग उनसे मिलने आते तो प्रभुपाद विनम्र भाव से उनसे प्रार्थना करते कि उनके शिष्यों की कमियों की अनदेखी की जाय और उन्हें कृष्ण के सच्चे भक्तों के रूप में स्वीकार किया जाय; आखिर, उन्होंने अपने पापपूर्ण जीवन को पीछे छोड़ दिया है और अब वे भगवान् के पवित्र नामों का कीर्तन नियमित रूप से कर रहे थे | प्रभुपाद प्रात: और सायं दोनों समय व्याख्यान देते थे । वे एक साधारण आसन पर बैठते थे जो दो फुट ऊँचा था; एक खुला बल्ब उनके सिर पर लटकता होता था और प्रभुपाद अपने शिष्यों तथा अभिरुचि रखने वाले उन थोड़े-से लोगों को सम्बोधित करते थे जो उनके सामने बैठे होते थे । कुछ भक्तों ने अनुमान लगाया था कि चूँकि वे अब वृन्दावन में थे, इसलिए प्रभुपाद संभवत: बहुत ऊँचे आध्यात्मिक प्रकरणों पर बोलेंगे; जैसे गोपियों के साथ कृष्ण की रास लीला। किन्तु ऐसा नहीं था । प्रत्युत उनका एक शिष्य 'द नेक्टर आफ डिवोशन' ( भक्ति रसामृतसिन्धु) से पढ़ता था और प्रभुपाद उस पर विस्तार से दार्शनिक टिप्पणी करते जाते थे कि भक्ति योग के विविध सोपानों के माध्यम से शुद्ध कृष्ण - प्रेम कैसे प्राप्त किया जा सकता है। प्रभुपाद के व्याख्यान विशेष रूप से उनके शिष्यों के लिए थे, किन्तु साथ ही वे भारत के ब्राह्मणों से यह भी आग्रह करते जाते थे कि उन्हें चाहिए कि वे पाश्चात्य वैष्णवों को भी स्वीकार करें। और वे दर्जनों शास्त्रीय संदर्भों का उद्धरण देते कि जन्म का दर्जा सांसारिक उपाधि है और आध्यात्मिक जीवन से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इस बात पर बल देते हुए कि प्रचार कृष्णभावनामृत का सारभूत अंग है वे उपस्थित शिष्यों से आग्रह करते कि वे कृष्णभावनामृत आंदोलन के प्रसार में बराबर लगे रहें । प्रभुपाद के इन व्याख्यानों से उनके शिष्य आह्लादित थे। राधा दामोदर मन्दिर में अपने कमरे के सुपरिचित वातावरण में प्रभुपाद उनसे जिस आत्मीयता से बात करते उससे भी शिष्य बहुत उत्साहित अनुभव करते। अपने कमरे को प्रभुपाद “शाश्वत निवास" के नाम से पुकारते, क्योंकि इसी कमरे में उन्होंने कृष्णभावनामृत आन्दोलन की योजना वास्तव में आरंभ की थी। उनके शिष्य देखते थे कि प्रभुपाद बड़े सवेरे उठ जाते थे और श्रीमद्भागवत के अनुवाद और अपने तात्पर्य मशीन को डिक्टेट करने में लग जाते थे। आरती के समय वे कमरे की खिड़कियाँ खोल देते थे और श्रीविग्रहों को देखा करते थे । अन्य समयों में उनके शिष्य देखते कि वे छत पर घूमते हुए जप करते रहते थे। और वे देखते कि उनके प्रश्नों का उत्तर देने तथा उनकी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान खोजने में सहायता करने के लिए प्रभुपाद सदैव उपलब्ध थे । *** तमाल कृष्ण गोस्वामी, श्यामसुंदर और करन्धर बम्बई पहुँचे । गिरिराज ने उन्हें बताया कि हालत पहले से खराब हो चुकी थी। जब मि. एन. ने समाचार-पत्रों में यह सार्वजनिक सूचना पढ़ी कि इस्कान का जुहू की जायदाद के लिए अनुबन्ध हो गया है तो वह बहुत कृद्ध हो उठा था । गिरिराज हाथ जोड़ कर उससे मिला था और उसके सामने नतमस्तक हुआ था, लेकिन मि. एन. को वह शान्त नहीं कर सका। मि. एन. ने सारे वायदे तोड़ दिए थे और विक्री - अनुबन्ध इसलिए रद्द कर दिया था कि भक्तों ने छह मास के अंदर पट्टा नहीं प्राप्त कर लिया था। उसका दावा था कि जो दो लाख का नकद भुगतान उसे हुआ था, वह अब उसका हो गया था और भक्तों को चाहिए कि उसकी जमीन तुरन्त खाली कर दें । मि. एन. ने हरे कृष्ण लैंड को जल की आपूर्ति बन्द कर दी थी। कई दिन बाद जायदाद के प्रवेश द्वार पर एक गुण्डा दिखाई देने लगा था और जब भी भक्त उधर से गुजरते थे तो वह छुरा दिखाता था। मि. एन. के एक मित्र ने एक इश्तहार छपाया था जिसमें हरे कृष्ण भक्तों पर निन्दनीय व्यवहार करने का आरोप थोपा गया था और उस इश्तहार को वह विले-पार्ले रेलवे स्टेशन पर बँटवा रहा था। कुछ भक्त बम्बई छोड़ कर चले गए थे और कुछ छोड़ने वाले थे, किन्तु करीब तीस भक्त अब भी रह गये थे । करन्धर ने कहा कि पहला काम तो यह है कि एक नया वकील ढूँढा जाय । वह बम्बई के सर्व प्रमुख वकीलों के पास गया और उसने जायदाद तथा इकरारनामा के मामलों में एक विशेषज्ञ को तय किया । इसके बाद प्रमुख शिष्यों और उनके वकील ने मि. एन. से उसके कार्यालय में भेंट की । मि. एन. अपनी जिद पर अड़ा रहा और उस ने सहयोग करने से इनकार किया । इस्कान के वकील ने उसे धमकाया । अदालती लड़ाई अनिवार्य लगने लगी । तमाल कृष्ण गोस्वामी, करन्धर, भवानंद और श्यामसुंदर ने आपस में बातें कीं और जितनी अधिक वे बातें करते, जुहू योजना उतनी ही अधिक असंभव लगने लगती । मि. एन. की धोखेबाजी के बिना भी, जुहू में रहना बहुत कठिन था। भक्तों और श्रीविग्रहों के लिए वहाँ रहने की सुविधाएँ इतनी खराब थीं कि छत टपकती थी और सीमेंट का फर्श टूट रहा था। वह स्थान चूहों, मक्खियों, तिलचट्टों, आवारा कुत्तों और मच्छरों से भरा था — कभी - कभी वहाँ कोई विषैला साँप भी निकल पड़ता था। भक्तों को अक्सर उष्णकटिबंधीय बीमारियाँ हो जाती थी — विशेषकर मलेरिया और यकृत की । अतएव, यद्यपि इस्कान का नया वकील मामले को न्यायालय में ले जाने के लिए तैयार था, किन्तु भक्त हिचक रहे थे। मि. एन. का कहना था कि भक्त अपराधी हैं—न कि वह । क्योंकि उन्होंने दान आयुक्त ( चैरिटी कमिश्नर ) से अनुमति नहीं प्राप्त की थी, इसलिए वे उसकी जमीन पर गैरकानूनी तरीके से रह रहे थे। उसने कहा कि वह क्षतिपूर्ति के लिए उन पर मुकदमा चलाएगा। वह कुछ हिंसक कार्यवाही करने पर भी आमादा था। सभी दृष्टिकोणों से विचार करने पर इस्कान के नेता, जिन्हें प्रभुपाद ने जुहू की समस्या का समाधान ढूँढने के लिए नियुक्त किया था, इस निर्णय पर पहुँचे कि इस्कान को जमीन छोड़ देनी चाहिए। सब ने मिल कर प्रभुपाद को एक पत्र लिखा और उसे श्यामसुंदर को सौंपा गया कि वह वृंदावन जाकर वह पत्र उन्हें हाथ से दे । राधा - दामोदर मंदिर के अपने कमरे में बैठे हुए प्रभुपाद ने बम्बई का पत्र पढ़ा और उसे अलग रख दिया। वे बाहर आँगन में निकले। सूर्यास्त की बेला में बहुत सी चिड़ियाँ चहचहा रही थीं और भक्तगण जमीन पर एक दरी पर बैठे हुए प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रभुपाद एक सामान्य ऊँचे आसन पर बैठ गए और 'जय राधा माधव' गाने लगे। उन्होंने प्रद्युम्न से पढ़वाना आरंभ किया और जहाँ उनका मन होता, वे उसे रोक देते और व्याख्यान करने लगते। उन्होंने वृंदावन में वास करने के विशेष लाभों को बताया, किन्तु चेतावनी दी कि किसी को सांसारिक धंधा करने या आपराधिक कार्य करने के लिए वृन्दावन धाम नहीं जाना चाहिए। लेकिन यदि कोई वृन्दावनवासी कोई अपराध करता है तो भी वह विशेष लाभ का अधिकारी हो सकता है— शर्त यह है कि वह वृन्दावन की धूल में पड़ा रहे। रात हो गई, और अंधेरे आँगन में बिजली की मद्धिम रोशनी में प्रभुपाद का व्याख्यान चलता रहा । तीर्थयात्री आते रहे और जाते रहे —यह देखते हुए कि 'स्वामीजी' का अपने पाश्चात्य शिष्यों को सम्बोधन जारी है। प्रश्नोत्तर - काल के बाद प्रभुपाद अपने कमरे में वापस गए। मार्ग में वे मंदिर के स्वामी, गौरचन्द गोस्वामी, से बात करते रहे। कुछ भक्त प्रभुपाद के कमरे में रुके रहे, बहुत से भारतीय छड़दार खिड़कियों के बीच से अंदर झाँक रहे थे, यद्यपि बरसों पहले, जब इस कमरे के स्थायी निवासी, भक्तिवेदान्त स्वामी, अमेरिका नहीं गए थे, किसी ने उधर निगाह डालने की परवाह नहीं की थी । जब प्रभुपाद अकेले रह गए तब वे बम्बई के बारे में सोचने लगे । यद्यपि वृंदावन सैंकड़ों मील दूर था किन्तु वहाँ की घटनाएँ प्रभुपाद के हृदय में यहाँ वृंदावन में धड़क रही थीं। उन्होंने उस अनुबंध की प्रति निकाली जिसे उन्होंने मि. एन. के साथ किया था। तब उन्होंने अपने सचिव को बुलाया और वे बम्बई के अपने लोगों को एक पत्र लिखाने लगे । उन्होंने पत्र का आरंभ एक वकील की भाँति हर बिन्दु का तर्कपूर्ण उत्तर देते किया । भूमि खण्ड छोड़ देने का एक कारण, जो उनके शिष्यों ने दिया हुए था, यह था कि दान - आयुक्त ने अनुमति देने से इनकार कर दिया था। प्रभुपाद का तर्क था कि उस हालत में उन्हें अपना धन वापस पाने का प्रयत्न करना चाहिए और तब भूमि खण्ड छोड़ देना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता था कि दान आयुक्त की अनुमति में केवल देर हो रही थी, उसकी मनाही नहीं थी । —यह तो बहुत मामूली बात थी । यद्यपि मि. एन. का कहना था कि दान आयुक्त की अनुमति प्राप्त करने की समय सीमा छह महीना थी, किन्तु प्रभुपाद ने इंगित किया कि मूल अनुबंध में समय-सीमा का कोई उल्लेख नहीं था । प्रभुपाद के लोगों ने भूमि खण्ड छोड़ देने के पक्ष में दूसरा तर्क यह दिया था कि मि. एन. के अनुसार, मूल विक्री - अनुबन्ध की शर्तों के मुताबिक, वे छह महीने के अंदर पट्टा प्राप्त करने में असफल रहे हैं। प्रभुपाद का उत्तर था कि प्रश्न- गत शर्त के अनुसार “अनुबन्ध को छह महीने के अंदर रद्द कर देने का विकल्प उन्हें प्राप्त था, न कि विक्रेता को ।” मुख्य बात यह थी कि मि. एन. ने एक लाख रुपये का चेक नकद भुगतान के रूप में छह महीने के अंदर स्वीकार किया था, अतः विक्री के इकरारनामा का पालन हो गया था । " हमारी समझ में उसने पट्टा पूरा कर दिया है और हम उसे रद्द नहीं करना चाहते और हमारी तरफ से सौदा अंतिम रूप में शीघ्र पूरा हो जाएगा। बस । वह चालबाजी से इस मसले से बचना चाहता है। उसने तुम लोग पर अपना रोब जमा लिया है और तुम उससे डर गए हो। उसने तुम लोगों को मूर्ख बनाया है कि तुम सोचो कि उसकी कानूनी स्थिति तुम से अच्छी है, जिससे वह तुम से कुछ और धन ऐंठ ले। किन्तु यह निरा धोखा है। हम उसे अधिक राशि नहीं देंगे। उसे आगे भुगतान मत करना। सबसे पहले उसके विरुद्ध फौजदारी का मुकदमा करना है। इसलिए तुम्हें निराश नहीं होना चाहिए, न उससे डरना चाहिए। हमारी स्थिति बहुत ही मजबूत है। यदि मि. एन. हिंसा की धमकी दे रहा था तो वह भी, भूखण्ड छोड़ने का कोई कारण नहीं था । भक्तगण भूमिखण्ड में कानूनी तौर पर रह रहे थे; उन्हें पुलिस का संरक्षण प्राप्त करना चाहिए । इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोग ऐसे मामलों में पार नहीं पा सकते, क्योंकि तुम बहुत डरपोक हो। तुम जो चाहो करो। फौजदारी का मुकदमा तुरन्त दाखिल कर देना चाहिए, तुम लोग ऐसा नहीं कर रहे हो क्योंकि वह तुम्हें धौंस दे रहा है । वह ऊँची-ऊँची बातें करता है, धमकी देता है और तुम मूर्खतापूर्वक उस पर विश्वास कर लेते हो और वही करते हो जो वह कहता है। मैं ऐसा नहीं करूँगा । प्रभुपाद ने निष्कर्षतः भक्तों को परामर्श दिया कि वे मजिस्ट्रेट के पास जायँ और उसे सब बताएँ । “हमने मि. एन. को धन दिया और अब वह हिंसा की धमकी देकर हमें भगाना चाहता है ।" भक्तों को डरना नहीं चाहिए । प्रभुपाद वृंदावन केवल व्याख्यान देने नहीं आए थे। वे अपनी नई जायदाद पर भवन निर्माण आरंभ करना चाहते थे । और बम्बई के समाचार से वे अपने इस उद्देश्य से विचलित नहीं हुए । वे प्रतिदिन अपने भक्तों का संकीर्तन - जुलूस राधा - दामोदर मंदिर से रमण - रेती तक निकलवाते थे। कभी-कभी वे रमण-रेती निर्माण स्थल को देखने चले भी जाते थे जहाँ अभी तक केवल फूस की झोपड़ियाँ थीं, बाड़ के तार लगे थे और कुछ निर्माण सामग्री पड़ी थी । निर्माण कार्य का प्रभारी शिष्य, सुबल, सुस्त और अनिच्छुक था, और प्रभुपाद ने उसका कार्यभार लेने के लिए बम्बई से तमाल कृष्ण गोस्वामी को बुलाया । एक दिन बड़े सवेरे सुबल रमण-रेती से, जहाँ वह रहा करता था, राधा - दामोदर मंदिर की छत पर प्रभुपाद के पास पहुँचा । उसने कहा, “प्रभुपाद, मुझे बड़ी कठिनाई हो रही है। मुझे पढ़ने का समय नहीं मिलता, मैं अच्छी तरह जप नहीं कर पाता। मैं कृष्ण के विषय में चिन्तन नहीं कर सकता। हर समय मुझे यही ध्यान रहता है कि यह ठेकेदार हमें ठग रहा है, या फिर मुझे मजदूरों के लिए अथवा सामान के लिए चेक काटने की चिन्ता रहती है। यह असह्य है। इन सब के कारण मैं कृष्ण के बारे में नहीं सोच पाता । " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “क्या तुम सोचते हो कि कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन केवल कृष्ण का चिन्तन कर रहे थे ? क्या तुम सोचते हो कि युद्धक्षेत्र में केवल कृष्ण सक्रिय थे और अर्जुन योग की साधना में लीन बैठे थे ? नहीं। वे युद्ध कर रहे थे। कृष्ण के नाम में वे संहार कर रहे थे । वे उन सभी सैनिकों के बारे में सोच रहे थे जिनका संहार उन्हें कृष्ण के नाम में करना था । । " चेक के बारे में, मजदूरों के बारे में और ठेकेदारों के बारे में सोचना भी— अर्जुन की तरह सोचना है। यही कृष्ण की सेवा है। सीधे कृष्ण के बारे में सोचने की चिन्ता तुम्हें नहीं होनी चाहिए । अर्जुन कृष्ण के सामने ध्यान-मग्न, उनके रूप का चिन्तन करते नहीं बैठे थे । वे कृष्ण की सेवा में लगे थे। उसी तरह यह कृष्ण की ही सेवा है। तुम लगे रहो। तुम्हारा जीवन कृष्ण की सेवा से पूर्ण है । यह बहुत अच्छा है । " सुबल संतुष्ट नहीं हुआ। उसने प्रभुपाद से शिकायत की कि अन्य भक्त उसे सहयोग नहीं दे रहे थे। वह वृंदावन में एकान्त वास करना चाहता था और इस्कान का सार्वकालिक प्रचारक बनने की बजाय शेष जीवन जप में लगाना चाहता था । श्रील प्रभुपाद ने पूछा, “तुम्हारा मतलब क्या है ? तुम्हारी बात कोई नहीं सुनेगा ? इसका तात्पर्य यह है कि वे दोषी हैं ? नहीं, दोष तुम में है ।" प्रभुपाद ने आवाज ऊँची की, “यदि तुम प्रवचन कर रहे हो और कोई तुम्हें सुन नहीं रहा है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि विरक्त होकर तुम चले जाओ और जप में डूब कर अपनी जान बचा लो। नहीं, यह हमारी परम्परा नहीं है। हमें अपने को योग्य बनाना है ताकि हर कोई हमारी बात सुनेगा । क्या तुम बीचम की कहानी जानते हो ?" सुबल ने सिर हिलाया । "कोई उसकी दवा खरीदता नहीं था ।" प्रभुपाद ने कहना जारी रखा, “इसलिए उसे चिन्ता होने लगी। वह प्रयत्न करता रहा, और एक दिन एक व्यक्ति उसके पास आया और उसने पूछा कि क्या उसके यहाँ 'बीचम पाउडर' है और इस बात से उत्तेजित होकर कि किसी ने उसकी दवा माँगी तो, वह मर गया । बात इसी तरह है, अच्छा है कि हम अपना पूरा जीवन लगा दें और मर जायँ, अधिक नहीं तो केवल एक व्यक्ति को कृष्णभावनाभावित बनाने में । यही हमारी परम्परा है कि हम कृष्ण का प्रचार करने में निमग्न हो जायँ, चाहे वह वृंदावन में हो या अन्यत्र । हमें इन असुरों द्वारा संसार को नष्ट किए जाने से बचाना है। " सक्रिय सेवा और उसके प्रत्यक्ष फल पर बल देने में श्रील प्रभुपाद अपने आध्यात्मिक गुरु के दृष्टान्त और उपदेश का ठीक-ठीक पालन कर रहे थे। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के कथनानुसार एकान्त स्थान में जप करना और प्रचार न करना ' प्रवंचना का मार्ग' है। भक्तिपूर्ण सेवा का तात्पर्य कृष्ण के लिए व्यावहारिक कार्य था । इन्द्रियों को वश में रखने का सरल सकारात्मक तरीका उन्हें कृष्ण की सेवा में पूर्ण रूप से नियोजित करना था। प्रभुपाद ने सुबल को बताया कि सक्रिय सेवा सर्वोत्तम योग है। यह ऐसा तथ्य था जिसे प्रभुपाद ने अपनी पुस्तकों में बार-बार कहा है। हाल में प्रकाशित श्रीमद्भागवत के दूसरे स्कन्ध में उन्होंने कहा है, यहाँ यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि वृंदावन के निवासी अपने प्रतिदिन के कार्य में बहुत अधिक व्यस्त रहते थे और दिन-भर के इस कड़े परिश्रम के कारण रात में वे गहरी नींद सोते थे । इसलिए ध्यान या आध्यात्मिक जीवन के अन्य क्रियाकलापों के लिए उनके पास बहुत थोड़ा समय बचता था । किन्तु यथार्थतः वे सर्वोच्च आध्यात्मिक कार्यों में ही लगे होते थे। वे जो कुछ भी करते थे वह आध्यात्मिक बन जाता था क्योंकि वह कृष्ण के साथ उनके सम्बन्ध से जुड़ जाता था । उनके कार्यकलापों के मध्य में कृष्ण होते थे और इस रूप में उनके समस्त तथाकथित भौतिक कार्यकलाप आध्यात्मिक ऊर्जा से सराबोर हो जाते थे। भक्ति योग का यही सबसे बड़ा लाभ है । प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कृष्ण के नाम में करना चाहिए और ऐसा करने से उसके सभी कार्यकलाप कृष्ण के विचार से सराबोर हो जायँगे, जो आध्यात्मिक आत्म-साक्षात्कार में भाव - समाधि का सर्वोच्च रूप है । जहाँ तक संभव होता प्रभुपाद प्रत्येक शिष्य को, उसकी शारीरिक मनोवैज्ञानिक प्रकृति के अनुसार, किसी न किसी प्रकार की सेवा में लगाए रखते थे। प्रत्येक को कृष्ण की सेवा किसी न किसी रूप में करनी ही होती थी। चूँकि श्रील प्रभुपाद वृंदावन में एक मंदिर बनाना चाहते थे, जो कोई भी उसमें उनकी सहायता कर सकता था— चाहे वह प्रशिक्षण प्राप्त हो या न हो, ऐसे कार्य में उसकी प्रवृत्ति हो या न हो— जो कोई भी सहायता देने के लिए आगे आ जाता था—वह उनका और कृष्ण का अतिप्रिय बन जाता था । एक गृहस्थ दम्पति, गुरुदास और यमुना, मंदिर के निर्माण में प्रभुपाद की सहायता करने के लिए वृंदावन में रहने को राजी हो गए, प्रभुपाद ने उनके निर्णय का स्वागत किया और अपनी योजना के बारे में उनसे विचार-विनिमय किया। यदि आप मेरे लिए वृंदावन में इस तरह का एक मंदिर बनवा देंगे तो मैं आपका सदा आभारी रहूँगा । हमारा यह कृष्ण का आंदोलन विश्वव्यापक है, अतः यदि हमारे पास वृंदावन में एक मंदिर न हुआ तो क्या लाभ होगा ? वृंदावन कृष्ण की भूमि है और भविष्य में हमारे शिष्य, बहुत-से अन्य पर्यटकों और मित्रों के साथ, वहाँ दर्शन के लिए आएँगे, अतः उनके लिए हमारे पास पर्याप्त स्थान होना चाहिए। ... मैं जानता हूँ कि निर्माण कार्य देखने के लिए आप का प्रशिक्षण नहीं हुआ है और यह कार्य आप की रुचि के अनुकूल भी नहीं होगा, किन्तु चूँकि आप कृष्ण के निष्ठावान् भक्त हैं, इसलिए वे आप को इसे करने के लिए पूरी शक्ति और बुद्धि दे रहे हैं । हम यही चाहते हैं और कृष्ण चेतना की बढ़ोतरी भी यही है । कार्तिक के अंत में, प्रभुपाद और उनके अधिकतर शिष्यों के वृंदावन से प्रस्थान के पूर्व, उनके शिष्यों और वृंदावन के निवासियों के बीच संबन्धों में बहुत सुधार हो गया था। भक्तों द्वारा नित्य प्रति रमण - रेती तक संकीर्तन - जुलूस निकाले जाने का वृंदावन के लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था। वे लोग प्रभुपाद से प्रभावित थे । यद्यपि प्रभुपाद को लग रहा था कि समय की बहुत बरबादी हुई है, किन्तु उनके मन में आशा जग रही थी— मि. एन. ने उन्हें जब जमीन दी थी उसे एक वर्ष पूरा हो रहा था । इस्कान की परियोजनाएँ सारे संसार में चल रही थीं और उसके सभी लोग संघर्ष में लगे थे। भक्तों की आय का एकमात्र साधन पुस्तकों की विक्री, और किसी सीमा तक स्पिरिचुअल स्काई (आध्यात्मिक आकाश ) धूप बत्ती का व्यवसाय था। अभी तक वृंदावन की परियोजना के लिए प्रभुपाद के पास कोई वास्तु-कला-संबंधी योजना नहीं थी, किन्तु उन्होंने निश्चय किया कि वे पुस्तक कोष और भक्तों से निर्माण सामग्री और मजदूरों के लिए पर्याप्त धन संग्रह करेंगे। एक दिन वे निर्माण स्थल पर गए और एक भक्त से उन्होंने सीमेंट- बालू मिलवाया और अपने हाथ से ही उन्होंने नींव का मसाला जमा दिया । *** हैदराबाद नवम्बर ११, १९७२ प्रभुपाद हैदराबाद एक पण्डाल कार्यक्रम के लिए गए थे। वे जहाँ भी जाते, उनका व्याख्यान सुनने के लिए विशाल जन समूह उमड़ पड़ता था। कार से उतरते या उसमें बैठते समय भी, उनके चरणकमलों का स्पर्श करने के लिए लोग उन्हें घेर लेते थे । यद्यपि उन दिनों हैदराबाद सूखे से ग्रस्त था, किन्तु प्रभुपाद के वहाँ पहुँचने के कुछ दिन बाद ही वर्षा हो गई। एक समाचार - पत्र ने लिखा कि प्रभुपाद और उनके शिष्यों ने जो उत्साहपूर्वक हरिनाम कीर्तन सम्पन्न किया था उसी से सूखे का अंत हुआ था। प्रभुपाद सहमत हो गए। श्रील प्रभुपाद की भेंट मि. एन. से हुई जो उस समय बम्बई से हैदराबाद आया हुआ था । श्यामसुंदर का मि. एन. से सम्बन्ध अब भी स्नेह - पूर्ण बना हुआ था क्योंकि मि. एन. श्यामसुंदर की तीन वर्षीया लड़की, सरस्वती, को बहुत प्यार करता था । इसलिए श्यामसुंदर मि. एन. के पास गया और प्रभुपाद से मिलने के लिए उसे राजी किया। मि. एन. मिलने को तैयार हो गया, किन्तु उसके मन में शंका थी कि प्रभुपाद उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करने को राजी करवाने के लिए अपनी गुह्य शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं इसलिए वह प्रभुपाद की आध्यात्मिक शक्ति के प्रतिकार के लिए अपने साथ एक गुरु लेकर आया । मि. एन., उसका गुरु और श्यामसुंदर, सभी एक साथ पनीलाल पृथी के घर पर आए जहाँ प्रभुपाद ठहरे हुए थे। प्रभुपाद अनौपचारिक रूप में अभ्यागतों से मिले और प्रसाद ग्रहण करते हुए वे आपस में वार्ता करने लगे। प्रभुपाद को जम्हाई आई तो मि. एन. का गुरु बोल पड़ा, "ओह, स्वामी, आप बहुत थक गए हैं, हम आप को कष्ट नहीं देना चाहते। आप विश्राम करें, हम बाद में बात करेंगे।' प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, मैं बहुत थक गया हूँ ।" अतः मि. एन. और उनका गुरु वहाँ से उठे और बगल के कमरे में चले गए। कुछ मिनट बाद प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण गोस्वामी को अपने कमरे में बुलाया । उन्होंने कहा, "जब कोई आप से पूछे कि क्या आप थक गए हैं तो इसका तात्पर्य यह है कि वह थक गया है। यदि आप बगल के कमरे में जायँ तो आप देखेंगे कि वे सो रहे हैं।” उन्होंने तमाल कृष्ण को आदेश दिया कि वे, मि. एन. के गुरु की नींद में बाधा डाले बिना, मि. एन. को सावधानीपूर्वक जगाएँ और उसे उनके पास ले आएँ । तमाल कृष्ण पंजों के बल कमरे में घुसे और उसने मि. एन. और उसके गुरु को बिस्तरों पर सोये हुए पाया। वे मि. एन. के पास गए ओर धीरे से उसकी बाँह का स्पर्श करके बोले, “मि. एन., मि. एन., जाग जाइए। प्रभुपाद आप से बात करना चाहते हैं। जल्दी आइए।" नींद से उठ कर मि. एन. एक आज्ञाकारी की भाँति, प्रभुपाद के कमरे में चला गया, अपने गुरु मित्र को भूल कर । प्रभुपाद ने मि. एन. से दो घंटे बात की और विचार-विनिमय का अंत होने तक उन्होंने विक्री का एक नया इकरारनामा तैयार कर लिया । बगल के एक कमरे में बैठे तमाल कृष्ण और श्यामसुंदर इकरारनामा का प्रारूप बनाते और टाइप करते रहे। इस बीच प्रभुपाद और मि. एन. ने सभी कानूनी मुद्दों को अंतिम रूप दे दिया। उसके बाद मि. एन. ने इकरारनामा पर हस्ताक्षर कर दिए, जबकि मि. एन. के गुरु मित्र गहरी निद्रा का आनंद लेते रहे । बाद में उस दिन तमाल कृष्ण ने श्रील प्रभुपाद से कहा, “ इन मामलों से मुझे इतनी परेशानी है कि मैं ठीक से जप भी नहीं कर पाता ।' प्रभुपाद बोले, "यह स्वाभाविक है। जब मुझे कभी परेशानी होती है तब मैं भी ऐसा नहीं कर पाता ।' तमाल कृष्ण ने स्वीकार किया, “किन्तु मुझे लगता है कि फिर भी मैं आध्यात्मिक उन्नति कर रहा हूँ ।' प्रभुपाद ने सिर हिलाया । तमाल कृष्ण बोले, "मैं सोचा करता था कि कठिन परिस्थितियों से कैसे बचा जाय, लेकिन अब मैं सोचता हूँ कि उनसे भागना नहीं चाहिए ।' प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, हमें उनका स्वागत करना चाहिए। वे हमें और आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करती हैं । " उसी दिन तीसरे पहर श्यामसुन्दर, तमाल कृष्ण गोस्वामी, मि. एन. के साथ हवाई जहाज से बम्बई लौट गए। नई शर्तों के अनुसार इस्कान को सरकारी टैक्स के लिए पाँच लाख रुपए देने थे और बदले में मि. एन. को विक्री - पत्र पर सही कर देना था । किन्तु इसके लिए तीन सप्ताह की नई समय-सीमा निर्धारित की गई थी, इसलिए भक्तों को तेजी से काम करना था। प्रभुपाद को स्वयं जल्दी ही बम्बई जाना होगा ताकि मामले को वे अंतिम रूप में निबटा सकें। *** बम्बई नवम्बर २५, १९७२ प्रभुपाद बम्बई यह आशा लेकर पहुँचे कि जमीन का मामला शीघ्र निबटा लेंगे, किन्तु मि. एन., नए इकरारनामा के बावजूद, देर किए जा रहा था । यह देर इस्कान को ठगने की उसकी योजना का अंग थी । प्रभुपाद बम्बई में कई दिन तक प्रतीक्षा करने के बाद अंत में, एक पण्डाल - कार्यक्रम के लिए अहमदाबाद गए। वे अपने शिष्यों को आदेश दे गए कि या तो वे नई शर्तों के अनुसार विक्री- पत्र प्राप्त कर लें या फिर नकद भुगतान के रूप दिए गए दो लाख रुपए वापस लें । श्रील प्रभुपाद की अनुपस्थिति में तमाल कृष्ण गोस्वामी, श्यामसुंदर तथा अन्य शिष्यों में चर्चा आरंभ हो गई कि जुहू की जायदाद पर अधिकार मिल जाने पर भी, हरे कृष्ण लैंड का प्रभुपाद की कल्पना के अनुसार विकास सचमुच असंभव था । श्यामसुंदर का तर्क था कि जमीन पर कब्जा मिल जाने पर भी यह कैसे संभव था कि उस जंगल में एक विशाल मंदिर और होटल का निर्माण किया जाय ? यह हो नहीं सकता। इस बीच, अहमदाबाद में रहते हुए भी प्रभुपाद बम्बई का अभियान लड़ते रहे और उन्होंने मि. एन. और मि. डी. से प्रार्थना की कि वे अहमदाबाद पहुँच जायँ ताकि प्रयत्न करके मामले को सुलझा लिया जाय। उन दोनों ने जाने से इनकार कर दिया। बम्बई में भक्तों को मालूम हुआ कि यदि वे दो लाख का नकद भुगतान और पाँच लाख के लाभ कर के हिसाब में दी गई रक्म वापस चाहते हैं तो उन्हें नया इकरारनामा रद्द करना होगा। उनका दिमाग काम नहीं कर रहा था और समय निकलता जा रहा था । एक दिन सवेरे, प्रभुपाद की एक शिष्या, विशाखा देवी दासी, बम्बई से अहमदाबाद पहुँची । प्रभुपाद ने उसे बुलाया और कहा कि एक संदेश लेकर वह तुरन्त बम्बई वापस जाय। इस चिन्ता में कि उनके बम्बई के भक्त कहीं गलत निर्णय लेकर जमीन लौटाने का फैसला न कर बैठें, उन्होंने विशाखा देवी दासी से कहा कि वह उन लोगों से कहे कि किसी भी दशा में उन्हें मि. एन. के साथ हुए इकरारनामा को रद्द नहीं करना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा, 'वास्तव में यह किसी महिला का काम नहीं है, किन्तु अन्य प्रत्येक भक्त पण्डाल के कार्यक्रम में व्यस्त था या उनमें से कोई ऐसा नहीं था जो हमारे साथ इतने लम्बे अरसे से रहा हो कि वह यह कार्य कर सके।" विशाखा पहली ट्रेन पकड़ कर अगले दिन सवेरे बम्बई पहुँच गई। किन्तु प्रभुपाद को जिस बात का डर था, वह हो चुका था; भक्तों ने इकरारनामा रद्द कर दिया था। उन्हें विश्वास हो गया था कि जमीन प्राप्त करना एक भूल होगी और उनके वकील सहमत थे कि यदि भक्तों को अपनी राशि वापस लेनी है तो उन्हें इकरारनामा तुरन्त रद्द करना होगा। जब भक्तों को अहमदाबाद से प्रभुपाद का संदेश मिला तो उनकी घबराहट की सीमा न रही। अब उनकी कोई कानूनी स्थिति नहीं रह गई थी; जमीन पर वे दावा नहीं कर सकते थे । और प्रभुपाद की इच्छा पूरी करने में वे असफल रहे थे। गिरिराज ने जो कुछ घटित हो चुका था उसे बताने के लिए प्रभुपाद को अहमदाबाद फोन किया । टेलीफोन उठाते हुए प्रभुपाद ने कहा, “भक्तिवेदान्त स्वामी इस ओर ।” गिरिराज बता रहा था कि अहमदाबाद से एक भक्त महिला एक संदेश लेकर आई हैं। प्रभुपाद ने कहा, "हाँ, हाँ, बात क्या है ?" अंत में गिरिराज फूट पड़ा कि उन लोगों ने विक्री का इकरारनामा रद्द कर दिया है। प्रभुपाद मौन हो गए। तब क्रोध और त्याग से भरे हुए स्वर में वे बोले – “ तो सब कुछ समाप्त हो गया । " अहमदाबाद से बम्बई के लिए प्रस्थान करने के पूर्व प्रभुपाद ने एक आजीवन सदस्य को लिखा, “ हरे कृष्ण लैंड को उस दुष्ट मि. एन. को सौंप देने वाला मैं अंतिम व्यक्ति होऊँगा ।" प्रभुपाद तुरन्त योजना बनाने में लग गए थे कि भक्तों की भूल का सुधार वे किस प्रकार करेंगे। अभी तक कोई राशि वापस नहीं लौटाई गई थी, इसलिए कदाचित् अभी बहुत देर नहीं हुई थी । मि. एन. संभवतः यह नहीं समझ सका था कि प्रभुपाद जुहू की जायदाद बनाए रखने के निमित्त संघर्ष के लिए इतने दृढ़ निश्चय क्यों थे। बात ऐसी नहीं थी कि उन्होंने अपने उद्देश्य को गोपनीय रखा था, वरन् केवल एक भक्त ही दूसरे भक्त के मनोभावों या कार्यों को समझ सकता है। मि. एन. प्रभुपाद से वैसा ही व्यवहार कर रहा था जैसा कि उसने सी. कम्पनी के साथ किया था। उसने उसे ठग लिया था और अब वह इस्कान को ठगना चाहता था । वह केवल इतना ही सोच सकता था कि प्रभुपाद और उनके शिष्यों के उद्देश्य के पीछे वही प्रेरक शक्ति कार्य कर रही थी जिससे वह स्वयं प्रेरित था। वह एक ही उद्देश्य समझ सकता था वह था भौतिक आधिपत्य । वस्तुतः स्वयं प्रभुपाद के शिष्य उनके अविजेय निश्चय को समझने में कठिनाई का अनुभव कर रहे थे। प्रभुपाद का मुख्य उद्देश्य बम्बई में कृष्णभावनामृत का प्रचार करना था। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “मेरे गुरु महाराज ने पश्चिम में कृष्णभावनामृत का प्रचार करने का मुझे आदेश दिया था और मैने वैसा किया है। अब मैं भारत में प्रचार करना चाहता हूँ।” बम्बई भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण नगर था : वह सिंहद्वार था । और बम्बई में कृष्ण ने प्रभुपाद को किसी तरह जुहू की इस भूमि तक पहुँचा दिया था जहाँ वे प्रचार कर रहे थे और जहाँ राधाकृष्ण के श्रीविग्रहों को वे ले गए थे। प्रभुपाद की दृष्टि में वह भूमि एक विशाल, शानदार मंदिर और अन्तर्राष्ट्रीय होटल के लिए उपयुक्त थी, जिनकी उन्होंने योजना बनाई थी । बम्बई महत्त्वपूर्ण नगर था; उसे आवश्यकता थी विराट मंदिर - उपासना की, विशाल उत्सवों की, विस्तृत प्रसाद वितरण की और विविध वैदिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों की । जुहू की भूमि स्कूल, प्रेक्षागृह, पुस्तकालय, और आवासीय भवनों के लिए — हरे कृष्ण नगर के लिए — सर्वथा आदर्श भूमि थी । अतः प्रभुपाद उस धूर्त से पिछड़ कैसे सकते थे जो उन्हें ठगने का प्रयत्न कर रहा था ? उन्होंने कहा कि कृष्णभावनामृत के कुछ विरोधी सदैव रहेंगे किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि भक्तजन हार मान लें। प्रचारक को सहिष्णु होना चाहिए और कभी कभी जब सब कुछ विफल हो जाय तो कृष्ण के हित में उसे संघर्ष भी करना पड़ सकता है। इस विशेष भूखण्ड को न छोड़ने का एक दूसरा कारणा यह था कि प्रभुपाद राधा - रासबिहारी श्रीविग्रहों को वचन दे चुके थे। उन्होंने कृष्ण को वहाँ आमंत्रित किया था और प्रार्थना की थी, “प्रिय महोदय, यहाँ रहिए, और मैं आप के लिए एक सुंदर मंदिर का निर्माण करूँगा ।" जब प्रभुपाद यात्रा में थे और बम्बई के एक भक्त ने उन्हें लिखा था कि श्रीविग्रहों की अवहेलना हो रही है तो उन्होंने उत्तर में आग्रह किया था कि " ऐसे निन्दनीय कार्यों में सुधार किया जाय । ” कृष्ण का श्रीविग्रह एक पत्थर की मूर्ति नहीं वरन् वस्तुतः स्वयं कृष्ण हैं, जो अपने निष्ठावान् भक्तों से आदान-प्रदान के लिए उत्कण्ठित रहते हैं । अस्तु, यदि हरे कृष्ण लैंड पर अधिकार बनाए रखने के प्रभुपाद के निश्चय के पीछे, प्रत्यक्ष या बाहरी कारण प्रचार कार्य था तो आंतरिक कारण अपने परम भगवान् श्री श्री राधा - रासबिहारी, के प्रति उनकी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता थी । मि. एन. और उसके साथियों की समझ में निश्चय ही यह बात नहीं आ सकती थी । प्रभुपाद के शिष्य तक भी इस बात को पूरी तरह नहीं समझ सकते थे । प्रभुपाद राधा और कृष्ण को बहुत खराब हालत में लाए थे, किन्तु इस वायदे के साथ कि कुछ अद्भुत घट कर रहेगा। राधा और कृष्ण उनकी प्रार्थना पर आए थे और अपने उपासकों को शाश्वत आशीष देते हुए वे धैर्यपूर्वक वहाँ विराज रहे थे; उधर प्रभुपाद अपने वायदे को पूरा करने के लिए संघर्षरत थे । पाँच सौ वर्ष पूर्व वृन्दावन के छह गोस्वामियों में से प्रत्येक के पास अपने - अपने श्रीविग्रह थे जिनके लिए प्रत्येक ने सुन्दर मंदिर बनवाया था । किन्तु प्रभुपाद को कई श्रीविग्रहों की स्थापना करने और देखभाल करने की शक्ति प्राप्त हुई थी । पाश्चात्य संसार के मुख्यालय में वैभव संपन्न रुक्मिणी - द्वारकाधीश थे, न्यू यार्क में राधा-गोविन्द थे, डलास में विशाल राधा- कालचन्दजी थे, कीर्तनानन्द स्वामी और विष्णुजन स्वामी की अमेरिका भ्रमण पर निकली पर्यटन - बस में राधा - दामोदर थे, लंदन में राधा - लन्दनीश्वर थे, मायापुर में राधा-माधव थे और आस्ट्रेलिया में राधा-गोपीनाथ थे । ये सभी प्रभुपाद के उपास्य अर्चा-विग्रह थे—अर्थात् राधा और कृष्ण के अवतार जो अपने विशुद्ध भक्त की प्रार्थना पर संसार के विभिन्न स्थानों में नवदीक्षित भक्तों के लाभ के लिए प्रकट हुए थे । अनेक श्रीविग्रहों की स्थापना श्रील प्रभुपाद की, विश्व प्रचारक के रूप में, एक प्रमुख देन थी । और जब वे किसी मंदिर में जाते थे तो श्रीविग्रहों के समक्ष श्रद्धापूर्वक खड़े होकर उनका वरदान प्राप्त करते थे और दण्डवत् प्रणाम करते थे। वे भक्तों को आदेश देते थे, “विनयशील बने रहो, सदैव स्मरण रखो कि तुम कृष्ण के साथ व्यवहार कर रहे हो ।" और कभी-कभी अर्चा-विग्रहों के प्रति प्रेम के अपने भावाधिक्य के लक्षणों को छिपाने में वे असमर्थ हो जाते थे। अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से, जो उनके शिष्य ही थे, वे इन सभी अर्चा-विग्रहों की उपासना करते थे, किन्तु राधा - रासबिहारी के प्रति उनका लगाव अधिक सीधा था । भारत के मामलों की व्यवस्था को स्वयं अपने ऊपर लेने के कारण राधा - रासबिहारी अर्चा-विग्रहों की सेवा को वे अपना विशेष दायित्व समझते थे । जुहू की भूमि को अपने अधिकार में रखने के लिए संघर्ष का भाव प्रभुपाद में इतना तीव्र था कि कभी-कभी लगता था कि वे केवल संघर्ष के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यदाकदा वे मि. एन. की तुलना श्रीमद्भागवत के कंस दानव से करते थे जिसने बार-बार कृष्ण का वध करने का प्रयत्न किया था। जिस तरह कंस ने कृष्ण का वध करने के प्रयत्नों में कई छोटे-मोटे दानवों को लगाया था, उसी तरह मि. एन. ने अनेक वकीलों, मित्रों और गुण्डों रूपी दानवी अभिकर्ताओं से सहायता ली थी। कंस सरीखे दानवों का वध कृष्ण की लीला थी । उस में उन्हें आनन्द आता था । और प्रभुपाद, कृष्ण के सेवक के रूप में, इस संघर्ष में पूरी तरह तल्लीन थे। वे एक सजग सैनिक थे। जब मि. एन. ने उनके शिष्यों को धमकाया या डराया और फलतः वे पीछे हटने लगे तो प्रभुपाद अपने स्थान पर अडिग रहे। वे स्वभावतः लड़ने को सन्नद्ध थे। कृष्ण और कृष्ण के महान् उद्देश्य को चुनौती जो मिली थी । प्रभुपाद को इसके पूर्व कभी भी इस तरह की धमकी नहीं मिली थी, न ही इतने सक्रिय शत्रुओं से उनका सामना हुआ था। नई दिल्ली में जब अपनी पत्रिका बैक टु गाडहेड बेचने निकलते थे तो उन्हें प्रायः अशिष्ट शब्द सुनने पड़ते थे और अमेरिका में लोग उनकी अवहेलना करते थे या कभी-कभी प्रश्नों से तंग करते थे। किन्तु किसी ने पूरी गंभीरता से उनके प्रचार कार्य को रोकने का प्रयत्न नहीं किया था। लेकिन यहाँ एक दानव ऐसा था जो उनको ठगने के लिए, उन के प्रचार को नष्ट करने के लिए, उनके भक्तों को छिन्न-भिन्न करने के लिए और उनके श्रीविग्रहों को विस्थापित करने के लिए पूर्ण रूप से सक्रिय था। उन्हें संघर्ष के लिए विवश होना पड़ा था और यदि उनके शिष्य उनके मनोभाव को समझते हैं, तो उन्हें भी संघर्ष करना होगा । प्रभुपाद श्रीविग्रहों और इस्कान बम्बई के संरक्षक और पिता के रूप में कार्य कर रहे थे। जैसा कि उन्होंने 'द नेक्टर आफ डिवोशन' में वर्णन किया था, बहुत से महान् भक्तों का कृष्ण के साथ शाश्वत सम्बन्ध उनके संरक्षक के रूप में होता है। जब बालक कृष्ण को कालिय नाग से युद्ध करना पड़ा था तो कृष्ण के माता-पिता आध्यात्मिक चिन्ता में डूब गए थे। अपने बच्चे को नाग की कुण्डली में बंधा देख उन्हें उसके जीवन की चिन्ता हुई थी और वे उसकी रक्षा करना चाहते थे। कृष्ण के शाश्वत माता-पिता को सदैव चिन्ता रहती थी कि कृष्ण को कहीं से हानि न पहुँचे और जब वे उनके लिए कोई आपदा देखते थे तो उनकी चिन्ता कई गुना बढ़ जाती थी। इस प्रकार वे कृष्ण के प्रति अपने अत्यन्त गहरे प्रेम का प्रदर्शन करते थे। श्रील प्रभुपाद का मनोभाव राधा - रासबिहारी और कृष्णभावनामृत आंदोलन को संरक्षण प्रदान करने का था । यद्यपि वे जानते थे कि कृष्ण परम संरक्षक हैं और कोई भी उनकी इच्छा का विरोध नहीं कर सकता, किन्तु कृष्ण की महिमा के प्रसार की संरक्षणात्मक अभिलाषा के वशीभूत होने से उन्हें डर था कि दानव रूप मि. एन. कृष्ण को कहीं हानि न पहुँचाए । प्रभुपाद की यह चिन्ता और संरक्षणात्मक मनोभावना उनके शिष्यों में भी थी । यद्यपि कर्त्तव्यवश प्रभुपाद अपने शिष्यों की एकान्त में प्रायः आलोचना करते थे और उनके कार्यों में संशोधन करते रहते थे, किन्तु दूसरों के सामने साधारणत: उनका समर्थन करते थे और उनकी प्रशंसा करते थे। जब बम्बई के एक डाक्टर पटेल ने यह कह कर भक्तों की आलोचना की कि वे मच्छरों से अपनी रक्षा नहीं करते तो प्रभुपाद का उत्तर था कि चूँकि उनके शिष्य मुक्त थे और उनके शरीरों से उनका कोई तादात्म्य नहीं था, इसलिए ऐसी चीजों से उन्हें कोई कष्ट नहीं होता । प्रभुपाद अपने शिष्यों को बच्चे समझते थे जिन्हें कोई सांसारिक अनुभव नहीं था । वे नहीं जानते थे कि धूर्तों से कैसे निबटा जाता है और उनसे सहज ही ठग लिए जा सकते थे । किन्तु यदि पुत्र भोला है तो उसके पिता को परिवार की रक्षा के लिए चालाक और बलशाली होना ही पड़ेगा। भक्तों और कृष्ण के मिशन के संरक्षक के रूप में प्रभुपाद अच्छे आवास की व्यवस्था करना चाहते थे ताकि उनके शिष्य कृष्ण की सेवा आराम से कर सकें— शान-शौकत से भी । प्रभुपाद के गुरु महाराज, भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने भी यही बात सिखाई थी, जबकि उन्होंने कहा था कि कृष्णभावनामृत के प्रचारकों को सभी सर्वोत्तम वस्तुएँ प्राप्त होनी चाहिए, क्योंकि वे कृष्ण की सेवा सर्वोत्तम प्रकार से कर रहे हैं। अतः प्रभुपाद बम्बई में अपना हरे कृष्ण नगर बसाने को कृत-संकल्प थे। उनका दृष्टिकोण उस नंगे भिखारी का नहीं था जिसे भौतिक सुविधाओं की चिन्ता नहीं रहती। वे अपने को अपने हजारों शिष्यों के प्रति उत्तरदायी समझते थे, इसलिए वे इतनी सारी चिन्ताएँ वहन कर रहे थे । मि. एन. को नहीं मालूम था कि श्रील प्रभुपाद किन उद्देश्यों से परिचालित थे। वह इस बात की भी कल्पना नहीं कर सकता था कि कृष्ण और कृष्ण के शुद्ध भक्तों का विरोध करने का पूरा परिणाम क्या हो सकता है, यद्यपि ऐसी स्थिति में निहित आपदा का वर्णन भारत के सुप्रसिद्ध, प्राचीन ग्रंथों भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत और रामायण में हो चुका है। प्रभुपाद कृष्ण के पक्ष में लड़ रहे थे, अत: मि. एन. एक प्रकार से परम ईश्वर का विरोध कर रहा था । प्रभुपाद के शिष्यों द्वारा इकरारनामा रद्द किए जाने से इस्कान की कानूनी स्थिति कमजोर हो गई थी । किन्तु प्रभुपाद का विश्वास था कि यदि भक्त भूमि पर अपना अधिकार बनाए रखेंगे तो उनकी स्थिति मजबूत बनी रहेगी। साथ ही उन्होंने भक्तों पर जोर डाला कि वे अधिकाधिक प्रचार करते रहें। भक्तों के मन में यह भाव न आए कि बिना मंदिर के प्रचार नहीं कर सकते, इसलिए प्रभुपाद ने पुरानी बम्बई में एक अन्य पण्डाल - उत्सव कार्यक्रम आयोजित किया, जो बड़ा सफल रहा। उसमें हर रात बीस हजार लोग सम्मिलित हुए । बम्बई के मेयर, मि. आर. के. गनात्रा, जैसे मान्य व्यक्ति उत्सव में आए और उन्होंने परिचयात्मक भाषण दिए। भक्तों ने भी सक्रिय भूमिकाएँ निभाई । उन्होंने सारी व्यवस्था की, इश्तहार बाँटे, प्रसाद तैयार किया और बाँटा, प्रभुपाद की पुस्तकों का वितरण किया, और बूथ पर प्रश्नोत्तर के माध्यम से प्रचार किया । पण्डाल - कार्यक्रम से भक्तों की उदासी समाप्त हो गई जो जुहू की जमीन की लम्बी कानूनी लड़ाई और वहाँ के कठिन जीवन से उन पर छा गई थी । १९७३ ई. की जनवरी के अंतिम सप्ताह में मि. एन. से प्रभुपाद की भेंट मि. महादेविया के घर पर हुई । यद्यपि प्रभुपाद के वकील, मि. एन. के विरुद्ध फौजदारी का मुकदमा दायर कर चुके थे किन्तु प्रभुपाद अदालत से बाहर समझौते का प्रयत्न कर लेना चाहते थे। वे मि. एन. के प्रति सदैव कृपालु और सौम्य रहे थे और मि. एन. भी उनके प्रति सदा अनुकूल और विनयशील दिखाई देता था । किन्तु इस बार स्थिति भिन्न थी । मुसकाने और मित्रतापूर्ण शब्द समाप्त हो चुके थे। दोनों एक-दूसरे के प्रति केवल शिष्ट बने रहे। कुछ समय बाद प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को कमरा छोड़ देने को कहा । हिन्दी में बोलते हुए मि. एन. ने प्रभुपाद और उनके शिष्यों पर सी. आई. ए. से सम्बन्धित होने का अभियोग लगाना शुरू किया। रूखे शब्दों में वह बोला, “मैं आप के दो लाख नगद भुगतान की वापसी के लिए चेक लेकर सोमवार को आऊँगा । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, " ठीक है। यदि आप अपनी जमीन नहीं बेचना चाहते तो हम उसे छोड़ देंगे। किन्तु ऐसा करने से पहले आप सोच लें।" मि. एन. अभियोग लगाता गया, "आप के लोग अपने को जमीन का मालिक कहते फिर रहे हैं। लेकिन आप लोग तो पूरे क्षेत्र के लिए बहुत बड़ा विघ्न सिद्ध हो रहे हैं। चार बजे ही उठ जाते हैं और यह सब ... । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हम लोग मालिक होने का दावा नहीं करते। असल मालिक तो कृष्ण हैं। मैं असल मालिक नहीं हूँ। कृष्ण अपनी जमीन पर वहाँ विराजमान हो चुके हैं। आप हमें इतना परेशान क्यों कर रहे हैं? आप पैसे ले लीजिए और जमीन हमें दे दीजिए। अन्यथा, यदि आप चाहते हैं कि हम छोड़ दें, तो चेक तैयार कर दीजिए ।' प्रभुपाद संयम से बोल रहे थे। किन्तु अब उनकी आवाज में क्रोध उभरने लगा था, "चेक दीजिए और हम कल जमीन खाली कर देंगे। नहीं, हम आज रात में खाली कर देंगे। हमारा धन वापस कर दीजिए। क्या आप के पास रकम है ?" मि. एन. चिल्लाया, “मैं स्वयं श्रीविग्रहों को हटा दूँगा ! मैं मंदिर को छिन्न-भिन्न कर दूँगा और विग्रहों को हटा दूँगा ।" इसके बाद मि. एन. तेजी से कमरे से चला गया । उसी सप्ताह दिल के भारी दौरे से मि. एन. को अस्पताल में भरती होना पड़ा। दो सप्ताह बाद वह मर गया। जब प्रभुपाद को उसकी मृत्यु का समाचार मिला तो पहले वे मौन बने रहे। तब उन्होंने प्रह्लाद महाराज का वह श्लोक सुनाया जो उन्होंने अपने दानव पिता हिरण्यकश्यपु की मृत्यु पर कहा था : मोदति साधुरपि वृश्विक- सर्प - हत्या " एक साधु भी प्रसन्न हो उठता है जब किसी बिच्छू या सर्प का वध होता है। श्रीमती एन. को कानून में उतनी धूर्तता नहीं हासिल थी जितनी उसके दिवंगत पति को थी। लेकिन उसने लड़ाई जारी रखी; और अपना मेहनताना प्राप्त करने के लिए व्यग्र, उसके वकील इस्कान को जमीन से निकालने के लिए उस से भी अधिक तेजी के साथ मुकदमा आगे बढ़ाते गए । अप्रिल १९७३ में इस्कान की प्रार्थना पर यह मुकदमा बम्बई हाईकोर्ट के सामने आया । किन्तु कानूनी दाव-पेंच आते रहे और मुकदमा हर महीने बिना किसी निर्णय के, आगे बढ़ता गया। प्रभुपाद ने जमीन पर कोई निर्माण कार्य आरंभ नहीं किया, क्योंकि उनके पास कोई विक्री - पत्र नहीं था और न ही उसका कोई आश्वासन था। वे पाश्चात्य देशों की यात्रा पर गए, वहाँ से वापस भी आ गए किन्तु मामले का कोई समाधान इस बीच नहीं निकला था । इस्कान बम्बई का जीवन शान्तिपूर्ण था, किन्तु प्रगति बाधित थी और अंतिम परिणाम अनिश्चित था । - तब एक दिन, बिना किसी पूर्व सूचना के, श्रीमती एन. ने हिंसात्मक आक्रमण कर दिया । १ जून की प्रात: काल, जब भक्त अपनी नैत्यिक क्रियाओं में लगे थे, एक ट्रक जुहू की जायदाद में घुसी। मंदिर ध्वस्त करने के लिए उसमें एक विध्वंसकारी दल आया था। श्रीमती एन. ने नगरपालिका के एक अधिकारी को किसी तरह मना कर, उससे साधारण ईंट और आर. सी. सी. से बने मंदिर को गिरा देने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। जब गिरिराज ने प्रभारी अधिकारी को मंदिर निर्माण के लिए अधिकृत करने वाला एक पत्र दिखाने की कोशिश की तो उसने उसकी उपेक्षा कर दी और ध्वंस-कार्य आरंभ करने का संकेत दिया। इस बीच कुछ और टूकें पहुँच गईं और करीब एक सौ विध्वंसकारी इकट्ठे हो गए। गैस से लोहा काटने वाला यंत्र और भारी हथौड़े लेकर वे मंदिर पर टूट पड़े। विध्वसंकों ने सीढ़ियाँ लगा लीं और मंदिर के हाल की छत को वे हथौड़ों से तोड़ने लगे । अन्यों ने इस्पात के खम्भों को काटने के लिए गैस-यंत्रों का उपयोग किया। विध्वंसक दल की योजना थी कि पहले कीर्तन हाल के इस्पात के खम्भों को गिराया जाय और तब क्रम से देव-गृह की ओर बढ़ा जाय जहाँ राधा - रासबिहारी विराज रहे थे। भक्तों ने विध्वंस को रोकने का प्रयत्न किया किन्तु शीघ्र घटनास्थल पर पुलिस आ गई और दो-दो के जोड़े बना कर उसने भक्तों के हाथ-पैर पकड़ लिए और उन्हें दूर उठा ले गई। पुलिस स्त्रियों के केश पकड़ पकड़ कर उन्हें बाहर घसीट ले गई और भूमि के सारे किराएदार खड़े-खड़े देखते रहे। कुछ लोग विध्वंस कार्य को देख कर प्रसन्न थे, यद्यपि कुछ को दया आ रही थी । किन्तु पुलिस के डर से कोई भी भक्तों की सहायता के लिए आगे नहीं आया । तभी मनिश्वी नामक एक महिला ने दौड़ कर महादेविया को फोन किया । वह अपने मित्र मि. विनोद गुप्त के साथ भागते हुए हरे कृष्ण लैंड पहुँचे और उन्होंने देखा कि पुलिस विरोध प्रकट करने वाले आखिरी भक्तों को बाल पकड़ कर घसीट रही थी। वह महिला भक्त श्रीविग्रहों की रक्षा के लिए वेदी के दरवाजों को बंद करने की कोशिश कर रही थी; तभी पुलिस के तीन लोग उसे घसीटने लगे थे। मि. महादेविया एक हमदर्द किराएदार मि. आचार्य, के घर तेजी से गए और अपने भाई, चंद्र महादेविया, को उन्होंमें वहाँ से फोन किया जो एक धनी व्यापारी था और बम्बई की एक सब से प्रभावशाली राजनीतिक पार्टी के नेता, बाल ठाकुरे, का मित्र था । श्री चन्द्रमहादेविया ने बाल ठाकुरे को आपात स्थिति से अवगत कराया कि एक हिन्दु के उकसाने पर और नगरपालिका के एक हिन्दू अधिकारी के आदेश से भगवान् विष्णु का एक हिन्दू मंदिर ध्वस्त किया जा रहा था। श्री ठाकुरे ने नगरपालिका के कमिश्नर को सूचित किया जिसने बताया कि मंदिर गिराए जाने के सम्बन्ध में किसी आदेश के दिए जाने की जानकारी उसे नहीं थी । कमिश्नर ने उस क्षेत्र के अधिकारी को फोन किया जहाँ से विध्वंसक दल भेजा गया था। क्षेत्रीय कार्यालय से एक व्यक्ति विध्वंस कार्य रोकने के लिए भेजा गया। वह व्यक्ति लगभग दो बजे अपराह्न वहाँ पहुँचा जब विध्वंसक दल अंतिम खंभों को काट चुका था और श्रीविग्रहों के ऊपर की छत तोड़ रहा था । विध्वंस कार्य रोकने का आदेश क्षेत्रीय अधिकारी को प्राप्त कराया गया और तब उसने विध्वंसक दल से कार्य रोकने को कहा । मंदिर पर आक्रमण के समय प्रभुपाद कलकत्ता में थे, और जब भक्तों ने फोन से उन्हें समाचार बताया तो उन्होंने कहा कि भक्तों को चाहिए कि स्थानीय इस्कान हमदर्दों और आजीवन सदस्यों को संगठित करें और इस आक्रमण का खुला विरोध करें। भक्तों को उन लोगों का भी भण्डाफोड़ करना चाहिए जो इस काण्ड के लिए जिम्मेदार थे। इससे श्रीमती एन. और उसके दल के विरुद्ध गहरा प्रभाव उत्पन्न होगा । प्रभुपाद ने उन तमाम आजीवन सदस्यों के नाम गिनाए जो सहायता कर सकते थे। हिन्दू विश्व परिषद् के अध्यक्ष श्री सदा जीवतलाल को खुल कर सहायता करनी चाहिए, क्योंकि उनका संगठन हिन्दू धर्म का रक्षक था और ऐसे ही मामलों को हाथ में लेने के निमित्त था । श्री सेठी को, आगे और हिंसा न हो, इसमें सहायता करनी चाहिए। प्रभुपाद ने कहा कि यह दुर्घटना कृष्ण की योजना का एक अंग है, भक्तों को भयभीत नहीं होना चाहिए । अगले दिन प्रातःकाल फ्री प्रेस जर्नल के मुखपृष्ठ पर “ नगरपालिका अधिकारियों द्वारा अनधिकृत मंदिर ध्वस्त" शीर्षक से ध्वस्त मंदिर का चित्र प्रकाशित हुआ । भक्तों ने प्रतिकूल प्रचार का प्रतिरोध करना शुरू किया। श्री सदा जीवतलाल ने नगर के पुराने हिस्से के अपने कार्यालय को इस्कान के कार्यालय में बदल दिया। और उन्होंने भक्तों के साथ अभियान आरंभ कर दिया। प्रतिकूल प्रचार के बावजूद, अनेक भारतीयों को इस ध्वंस कार्य से धक्का पहुँचा और नगरपालिका ने एक स्वर से उन अधिकारियों की भर्त्सना की जो एक हिन्दू मंदिर पर आक्रमण के लिए जिम्मेदार थे। सदा जीवतलाल के कार्यालय में छह बजे सवेरे से लेकर नौ बजे रात तक कार्य करने वाले भक्तों ने समाचार-पत्रों को फोन करना, पत्र और इश्तहार लिखना और संभावित हमदर्दों से सम्पर्क बनाए रखना जारी रखा । मि. विनोद गुप्त राजनीतिक दल, जनसंघ के सदस्य थे, जो भारतीय संस्कृति के पक्ष में था। उन्होंने कार्तिकेय महादेविया और अन्यों के साथ मिल कर 'मंदिर बचाओ' समिति संगठित की। उन्होंने स्वयं भी एक इश्तहार प्रकाशित किया जिसमें इस्कान को एक प्रामाणिक हिन्दू संगठन घोषित किया । ज्यों-ज्यों गिरिराज सरकारी अधिकारियों से मिलता गया और उनकी सहायता माँगता गया, त्यों-त्यों बम्बई के अनेक प्रमुख नागरिक हरे कृष्ण आंदोलन की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हुए सहानुभूति प्रदर्शित करने लगे और सहायता के लिए आगे आने लगे । इस प्रकार श्रीमती एन. और उसके वकीलों की योजना निष्फल हो गई। वे यह समझ रहे थे कि उन्हें केवल मुट्ठी भर विदेशियों से निबटना था, किन्तु उन्हें शीघ्र मालूम हो गया कि उनका सामना बम्बई के अनेक सर्वाधिक प्रभावशाली नागरिकों से था । श्रील प्रभुपाद ने भविष्यवाणी की थी कि परिणाम अनुकूल होगा। दुर्घटना के कुछ दिन बाद उन्होंने लिखा, नगरपालिका द्वारा हमारे मंदिर के ध्वंस से हमारी स्थिति मजबूत हुई है। नगरपालिका की स्थायी समिति ने नगरपालिका के इस नासमझी के कार्य की भर्त्सना की है और वह अपने खर्च से एक शेड बनवाने पर राजी हो गई है। इतना ही नहीं, यह अस्थायी इमारत तब तक बनी रहेगी जब तक न्यायालय यह निर्णय न दे दे कि जमीन का मालिक कौन है। इस स्थिति में हमें शीघ्र श्रीविग्रहों के शेड का निर्माण करके खाली जमीन को कंटीले तारों से घेर देना चाहिए। और यदि संभव हो तो श्रीविग्रहों के शेड के ठीक सामने एक अस्थायी पण्डाल, अपने सामान से, बना देना चाहिए। यदि ऐसा हो जाता है तो मैं बम्बई पहुँच कर भागवत् पारायण शुरू कर सकता हूँ और मैं उसे तब तक जारी रखूँगा जब तक न्यायालय का निर्णय नहीं आ जाता। यही मेरी इच्छा है। प्रभुपाद ने गिरिराज से यह भी कहा कि वह आजीवन सदस्यों के लिए 'हरे कृष्ण मंथली' पत्रिका में मंदिर के विध्वंस किए जाने का पूरा विवरण प्रकाशित करे। प्रभुपाद ने इस मासिक पत्रिका के लिए एक लेख स्वयं भी लिखा जिसमें उन्होंने अपने आंदोलन के बारे में बताया और उन घटनाओं का वर्णन किया जिनका अंत मंदिर पर आक्रमण में हुआ था । उन्होंने बम्बई नगरपालिका की, “कानून और धार्मिक विश्वास के सिद्धान्त के विरुद्ध मंदिर को ध्वस्त करने की धृष्टता के लिए " भर्त्सना की। उन्होंने कहा कि बम्बई के एक गुट का यह षड्यंत्र था कि भक्तों को उनका धन लौटाए बिना ही उनकी जमीन से खदेड़ दिया जाय । प्रभुपाद ने कृष्णभावनामृत के आजीवन सदस्यों और उससे सहानुभूति रखने वाले नागरिकों से अनुरोध किया कि वे आगे आएँ और इस कठिन समय में उनकी सहायता करें। इस्कान के आजीवन सदस्यों में से केवल लगभग एक दर्जन लोगों ने श्रील प्रभुपाद की अपील का समुचित उत्तर दिया । बम्बई में सैंकड़ों आजीवन सदस्य थे जिन्होंने १,१११ रुपए का अनुदान दिया था और जो प्रभुपाद की पुस्तकें प्राप्त कर रहे थे। किन्तु जब विवाद की घड़ी में व्यक्तिगत प्रतिबद्धता का अवसर आया तो बहुत थोड़े लोगों ने सहायता की इच्छा जताई। किन्तु जिनसे सहायता प्राप्त हुई, उन्होंने उस तरह की भी सहायता की जिसकी आशा निरीह, भोले और प्रभावहीन भक्तों से नहीं की जा सकती थी । भक्तों को सारे घटना क्रम में कृष्ण का अनुग्रह दिखाई देने लगा, क्योंकि अनेक आजीवन सदस्य अब प्रभुपाद और भगवान् कृष्ण की मूल्यवान सेवा में लग गए थे । विगत दिनों में प्रभुपाद बहुत-से आजीवन सदस्यों के घरों में ठहरे थे; उनको और उनके परिवार के सदस्यों को उपदेश दिया था और उन्हें अपनी निष्ठा तथा अपने आन्दोलन के महत् उद्देश्यों के प्रति विश्वस्त किया था । ये मित्र और सदस्य — जैसे भगूभाई पटेल, बिहारी लाल खण्डेलवाल, बृजरतन मोहता, डा. सी. बाली तथा अन्य - अब कार्यरत हो गए थे, न केवल हिन्दू-भावना के कारण, अपितु प्रभुपाद के लिए अतीव सम्मान तथा अनुराग के कारण भी । गिरिराज ने, सदा जीवतलाल के साथ मिल कर नगरपालिका को मनाने का प्रयत्न किया कि उन्हें मंदिर को फिर से बनाने का अधिकार मिल जाय । किन्तु पता चला कि उसी दिन ( अर्थात् शुक्रवार को ) श्रीमती एन. ने न्यायालय में एक अपील दायर कर दी थी कि इस्कान को पुनः मंदिर बनाने से रोका जाय । जस्टिस नैन ने गिरिराज को बताया कि वे श्रीमती एन. की प्रार्थना को स्वीकार नहीं करना चाहते और उस पर अगले सोमवार को विचार करेंगे। इसका तात्पर्य यह था कि भक्तों के पास शनिवार सवेरे से सोमवार सवेरे तक का दो दिन का समय मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए था । भक्तों ने तर्क किया कि यद्यपि मंदिर के पुनर्निर्माण की उनको वास्तव में अनुमति नहीं थी किन्तु उनको रोकने का भी कोई कानून नहीं था । यदि न्यायमूर्ति नैन ने उनके विरुद्ध आदेश कर दिया तो मंदिर का पुनर्निर्माण करना बहुत कठिन हो जायगा। इसलिए उन्होंने सप्ताहांत का उपयोग मंदिर के पुनर्निर्माण में करने का निर्णय किया। मि. लाल ने, जो पुराने ठेकेदार थे, सामग्री — ईंट, गारा, एस्बेसटास की चादरें – आदि की व्यवस्था कर दी। मि. सेठी ने मजदूरों का एक दल दिया। शुक्रवार की रात में ८ बजे मिस्त्रियों ने काम शुरू किया और वर्षा के बावजूद रात-भर काम करते रहे। सोमवार को सवेरे जब न्यायमूर्ति को नए मंदिर का पता चला तो उन्होंने निर्णय दिया, “जो बन गया, सो बन गया। मंदिर को कोई नष्ट नहीं कर सकता।' जब प्रभुपाद को यह समाचार मिला तो उन्होंने इसे पूर्ण विजय माना। मंदिर का पुनर्निर्माण हो गया था और जनमत तेजी से इस्कान के पक्ष में बदल गया था। |