मायापुर जून १, १९७३ यद्यपि मायापुर की इमारत अभी पूरी नहीं हुई थी, किन्तु प्रभुपाद उसमें रहने आ गए थे । दुमंजिले पर उन्होंने पास-पास के दो कमरे ले लिए — एक अध्ययन के लिए और दूसरा सोने के लिए। इस बीच मंदिर-कक्ष और इमारत के अन्य भागों में कार्य चलता रहा । प्रभुपाद के पहुँचने के पहले ही एक दिन अंधड़ आया, आकाश में घने काले बादल छा गए और तेज हवाएँ चलने लगी। किन्तु अंधड़ थोड़े समय तक रहा और क्षति न्यूनाधिक नहीं के बराबर थी। प्रभुपाद ने लिखा, मै अभी मायापुर पहुँचा हूँ और मुझे आशा है कि इस स्थान के दिव्य वातावरण में मैं पुनः शक्ति और स्वास्थ्य प्राप्त कर लूँगा । यहाँ का प्रत्येक क्षण अत्यन्त आमोद में बीत रहा है। संध्या - समय मंदिर का पुजारी, जननिवास, प्रभुपाद के कमरे में आता था और अपने साथ दहकते कोयले से भरा मिट्टी का पात्र लाता था जिसमें लोहबान पड़ा रहता था। वह लोहबान पर पंखा करता रहता था जब तक कि कमरा धुएँ से भर नहीं जाता था । यह कीड़ों को भगाने के लिए था, किन्तु प्रभुपाद इसे शुद्ध करने वाला भी मानते थे । मजदूरों के घन की आवाज से कभी-कभी उन्हें बाधा अनुभव होती थी, अन्यथा वहाँ का वातावरण उन्हें शान्त लगता था । वहाँ कुछ ही भक्त ठहरे थे और प्रभुपाद का सारा ध्यान या तो अनुवाद पर केन्द्रित था या अतिथियों अथवा उन भक्तों के साथ बात करने पर जो उनका मायापुर केन्द्र विकसित करने में लगे थे। वे अपनी इच्छाएँ भवानंद महाराज और जयपताक महाराज को विशेषतया बताते और उन्हीं से उन्हें पूरी कराते थे उस इमारत में प्रभुपाद के साथ रहने वाले भक्त अपने को प्रभुपाद के निजी घर का तुच्छ सेवक समझते थे। यों तो इस्कान की सभी इमारतें प्रभुपाद की थीं, किन्तु मायापुर में यह भावना और भी प्रबल थी । सामान्यतया प्रत्येक केन्द्र के भक्त उसके निर्वाह के लिए धन संग्रह करते थे, किन्तु मायापुर केन्द्र के लिए प्रभुपाद स्वयं धन संग्रह करते । अपने शिष्यों के अनुदानों और बांडों तथा सावधि जमा की व्याज को मिला कर उन्होंने मायापुर - वृन्दावन ट्रस्ट फंड स्थापित किया था । यदि कहीं धन का दुरुपयोग, शक्ति का अपव्यय होता या इमारत को कोई क्षति पहुँचती तो प्रभुपाद बहुत चिन्तित हो उठते थे। चूँकि प्रभुपाद अब स्वयं निर्माण स्थल में थे, इसलिए वे प्राय: चारों ओर घूमा करते और कमियों को दूर करने के लिए विवरणसहित आदेश दिया करते थे। यह गुलाबी और लाल इमारत एक विशाल दिव्य जहाज के समान थी जिसके कप्तान श्रील प्रभुपाद थे। वे इसके चौड़े बरामदों में टहला करते और अन्तर्वासियों को कड़े आदेश देते थे कि प्रत्येक वस्तु जहाज के अनुरूप रखी जाय । एक दिन प्रभुपाद अपने कमरे के पास बरामदे में टहल रहे थे । अन्य कमरों में ताले पड़े थे और अकेले टहलते हुए उन्होंने एक कमरे की खिड़की खोल कर अंदर झाँका । अचानक वे शतधन्य की ओर मुड़े जो कुछ दूरी पर उनकी सेवा में खड़ा था। प्रभुपाद ने कहा, "अंदर पंखा चल रहा है और यह कमरा बंद और खाली है। यह किसने किया है ?" शतधन्य नहीं जानता था। प्रभुपाद फिर बोले, “जिसने भी यह किया है, वह दुर्जन है । उसे जानना चाहिए कि वह दुर्जन है।” दो दिन बाद तक प्रभुपाद इस घटना का उल्लेख घिन घिनाकर करते रहे । एक दिन भयानक वर्षा हुई और आँधी आई और प्रभुपाद के कमरे के बाहर का बारह फुट चौड़ा संगमरमर का बरामदा पानी से भर गया । भवानंद गोस्वामी एक भक्त द्वारा निर्मित बड़ा-सा रबड़ - झाडू लेकर संगमरमर का फर्श साफ करने लगे और प्रभुपाद अपने कमरे के दरवाजे पर खड़े होकर उसे देखने लगे। उन्होंने कहा, "संगमरमर को साफ करने का यही ढंग है। इस पर मोम का पालिश नहीं करना चाहिए। काफी मात्रा में ताजा जल रखिए और प्रति दिन सवेरे इसे पोंछ दीजिए। इस तरह संगमरमर पर स्वतः पालिश हो जायगी और वह शीशे की तरह चमकने लगेगा ।' प्रभुपाद के मन में उन भक्तों के लिए बड़ा स्नेह तथा कृतज्ञता थी जिन्होंने मायापुर - केन्द्र के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया था। एक रात को उन्होंने भवानंद को अपने कमरे में बुलाया और भक्तों के विषय में पूछना शुरू कर दिया। अचानक वे रोने लगे। उन्होंने कहा, “मैं जानता हूँ कि तुम पश्चिम के रहने वाले लड़कों और लड़कियों के लिए यह कितना कठिन है। तुम लोग कितने समर्पित हो और मेरे इस मिशन में सेवा कर रहे हो। मुझे मालूम है कि तुम लोगों को प्रसाद तक नहीं मिल पाता। जब मैं सोचता हूँ कि तुम लोगों को दूध तक नहीं मिलता और तुम लोग अपना ऐश्वर्यपूर्ण जीवन त्याग कर यहाँ आए हो और फिर भी तुम्हारी कोई शिकायत नहीं है, तो मैं तुम सभी के लिए कृतज्ञता का अनुभव करता हूँ भवानंद : संगमरमर का काम करने वाले, निर्माण-स्थल के पास में ही, कहीं चटाई - घरों में रहते थे । इमारत के बाहर ही एक हैंडपम्प था। वहीं हम स्नान करते थे और मज़दूर सीमेण्ट के लिए पानी लेते थे । कुछ दूरी पर दो शौचालय थे— एक पुरुषों के लिए, दूसरा स्त्रियों के लिए। वे मात्र जमीन में दो छेद थे जिनके चारों ओर चटाई की दीवाल थी। जब तूफान आता और वर्षा होती तो हमें खेतों के कीचड़ में से होकर शौचालय जाना पड़ता था । उस स्थान के चारों ओर साँप थे। वह जंगली स्थान था ! यह निर्माण स्थल था। कोई निमार्ण स्थल में नहीं रहता, किन्तु हम रहते थे। श्रील प्रभुपाद ने हमें वहाँ आने के लिए बाध्य किया था। यह हमारे लिए अच्छा ही रहा । वहाँ न कोई स्नान-घर था, न कुछ और, केवल खुला सीमेंट का फर्श था। यद्यपि भक्तगण मायापुर निर्माण स्थल पर रहने की सारी कठिनाइयाँ झेलते रहे, किन्तु कभी - कभी उन्हें लगता कि वहाँ रहना बड़ा कठिन हो रहा है। लेकिन श्रील प्रभुपाद इसे कठिन न मानते और भक्तों को प्रोत्साहित करते रहते थे। “ मायापुर कितना अद्भुत है। तुम लोग केवल हवा और पानी पर रह सकते हो । " भवानंद : हम इतनी सारी कठिनाइयों को झेलने में समर्थ थे, क्योंकि हम उन्हें श्रील प्रभुपाद के आदेश के रूप में लेते थे। हमें वहाँ से चले जाने का कभी विचार भी नहीं आता था। कहीं जाकर मैं करूँगा क्या ? मेरे लिए यही आदेश था, “ मायापुर को स्वीकार करो। मैं तुम्हें मायापुर दे रहा हूँ। इसे लो, इसका विकास करो, इसका आनन्द लो ।” हमारे लिए अन्यत्र जाने का कोई प्रश्न ही नहीं था । आस-पास का क्षेत्र धान के खेतों का था और जायदाद के प्रवेश द्वार से मंदिर की इमारत तक पहुँचने के लिए, जो लगभग दो सौ गज की दूरी पर थी, भक्तों को धान के खेतों को एक-दूसरे से अलग करने के लिए बनाई गई मेड़ों पर से जाना पड़ता था । रसोई-घर जो तिरपाल और बाँसों से बना था, प्रवेश द्वार के निकट था । भक्तों को अधिकांश समय बिजली के बिना ही रहना पड़ता था क्योंकि बिजली प्राय: कट जाती थी । रात में वे मिट्टी के तेल का लैम्प जलाते थे । प्रभुपाद कहते थे कि प्रतिदिन लैम्प को खोल कर उसकी बत्ती काटनी चाहिए और शीशे को साफ करना चाहिए। उन्होंने कहा, “भविष्य में तुम लोगों को रेंडी के पौधे उगाने चाहिए और उनके बीजों को कुचल कर उनसे जलाने के लिए तेल निकालना चाहिए ।" प्रभुपाद ने भक्तों को बताया कि सादे आवासीय मकान किस प्रकार बनाना चाहिए। उनकी यह भी इच्छा थी कि जायदाद के सामने एक दीवाल बनाई जाय और उसमें फाटक लगा दिया जाय। भक्तों को दीवाल के सहारे छोटे-छोटे कमरे बनाने चाहिए जिन्हें वे कुटिया कहते थे। भक्तों को इन साधारण कुटियों में रहना चाहिए। उन्हें नारियल और केले के वृक्ष भी लगाने चाहिए । धन-संग्रह करना, जमीन खरीदना, मज़दूरों और सामान की व्यवस्था करना — यह सब बड़ा कठिन संघर्ष था जो नौकरशाही की ओर से होने वाले विलम्बों, प्रपत्रों, शुल्कों, आपूर्ति की कमियों और इस तरह की अन्य अनेक उलझनों से भरा था। प्रभुपाद कोई ढिलाई या अपव्यय सहन नहीं कर सकते थे । इमारत जो इतना कलात्मक, ठोस और उपयोगी रूप ग्रहण कर रही थी, वास्तव में भगवान् कृष्ण की ओर से एक भेंट थी । अतः कृष्ण की इस इमारत में रहना कृष्ण के साथ प्रेमपूर्ण आदान-प्रदान था । भक्तों को कृष्ण की सेवा की बात सोचनी चाहिए, न कि अपनी सुविधाओं की। इससे तो इस इमारत और इस जीवन का उद्देश्य ही भूल जायगा । दरवाजों को जोर से बंद करने से, यद्यपि यह मामूली-सी भूल है, प्रभुपाद को बड़ी बाधा होती थी । यह लापरवाही और अपव्यय का लक्षण था और प्रभुपाद कहते थे कि इस आवाज़ से उनका हृदय फटता था। एक बार प्रभुपाद अपने कमरे से बाहर निकल आए और बोले, “दरवाजा जोर से कौन बंद कर रहा है ? किसी को नहीं मालूम कि यह इमारत कहाँ से आई है ? तुम लोग समझते हो कि यह यों ही मिल गई है। इसलिए इसकी किसी को कोई परवाह नहीं है। " किन्तु अधिकांश समय प्रभुपाद गुलाब जैसी कोमलता तथा आत्मीय, सहज और स्नेहसिक्त स्वभाव का परिचय देते थे । मायापुर का पवित्र धाम आध्यात्मिक लोक, गोलोक, वृंदावन था; अतः वहाँ भक्तजन प्रभुपाद के साथ आध्यात्मिक संसार में रह रहे थे। जो भक्त मायापुर में रह रहे थे वे जानते थे कि संसार के अन्य सभी देशों की अपेक्षा यहाँ सीधे प्रभुपाद के कमरे में प्रवेश करके वे उनसे मिल सकते थे। कभी-कभी तो प्रभुपाद उनके कमरे में घुस जाते थे । जब वे काम करते होते, या पढ़ने या बातें करने में लगे होते, तो वे अन्दर चले जाते और उनसे बातें करते और पूछते थे कि उन्हें कैसा लग रहा है और भारत के जीवन से वे अपने को किस तरह समंजित कर रहे हैं। वे कहते, “यहाँ का जीवन कठिन है न ? मैं सोचता हूँ भारत में गरमी बहुत अधिक है । तुम लोगों का क्या विचार है ?" अभी इमारत अधूरी थी, तब भी बहुत-से अतिथि आने लगे थे । प्रभुपाद नित्य ही ऐसे अतिथियों के साथ कृष्णभावनामृत पर धैर्यपूर्वक बातें करते हुए घंटों बिता देते थे, जो उनके आन्दोलन के बारे में जानने के लिए आते या जो केवल अपने और अपनी विचारधारा के विषय में बात करने आते थे । कभी-कभी वे टिप्पणी करते कि अमुक व्यक्ति ने उनका समय बर्बाद किया है, किन्तु वे किसी से मिलने से इनकार नहीं करते थे। एक बार श्री बृजरतन मोहता नामक एक हिन्दू सज्जन, अपनी पत्नी के साथ, जो करोड़पति आर. डी. बिड़ला की पुत्री थीं, कलकत्ता से उनसे मिलने आए। श्रील प्रभुपाद ने अपने अतिथियों का समुचित ख्याल रखा उन्होंने व्यंजन - सूची का स्वयं निरीक्षण किया और अपने शिष्यों को श्री मोहता और उनकी पत्नी को परोसने खिलाने के सम्बन्ध में विशेष रूप से समझाया। प्रसाद वितरण वैष्णव शिष्टाचार का विशेष अंग था और प्रभुपाद इस बात पर सदैव बल देते थे कि शिष्यों द्वारा अभ्यागतों को प्रसाद तुरन्त दिया जाय । प्रभुपाद ने कहा, “जल, गरम पूरियाँ, बैंगन की भाजी और मिठाइयाँ, तुम लोगों को तुरन्त देना चाहिए ।" अतिथियों के संकोच करने पर भी प्रभुपाद उनसे पूरा भोजन करने का आग्रह करते थे। श्रीमती मोहता, भारत के सब से धनी परिवार की सदस्या होने पर भी, श्रील प्रभुपाद और उनके शिष्यों के सरल सत्कार से संतुष्ट थीं। जिस कमरे में वे और उनके पति ठहरे थे, वह अभी अधूरा था, उसके फर्श के पत्थर पर अभी पालिश नहीं हुई थी, चारों ओर निर्माण कार्य चल रहा था, भक्तजन उन्हें फर्श पर बैठने के लिए केवल एक चटाई और तकिया दे सके थे- तब भी वे बहुत संतुष्ट लगते थे और सराहना से भरे थे। भवानंद: प्रभुपाद ने मायापुर में हमारा परिचय भारतीय संस्कृति की अनेक बातों से कराया। वे हमसे अपने कमरे में चटाई फैलाकर उस पर चादर बिछवाते थे । सन् १९७० ई. में लॉस ऐन्जलीस में अपने कमरे में बिछे गलीचे पर डालने के लिए उन्होंने मुझसे कई चादरें एक साथ सिलवाई थीं। और तब वे अपने हाथों और घुटनों के बल नीचे उतर कर मेरे पास आ गए और हम ने चादर की सिकुड़नें ठीक की थीं। वही कार्य उन्होंने हमसे मायापुर में कराया, जहाँ हम चटाइयों को कमरे में एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैलाते थे और दीवाल से लगाकर मसनद रखते थे। उन्होंने कहा, “अब हमारे पास सफेद चादरें हो गई हैं, और तुम लोग इन्हें हर दिन बदल दिया करो ।” जब बंगाली सज्जन प्रभुपाद से मिलने उनके कमरे में आते थे तो वे इन चटाइयों पर कमरे के किनारे, अपनी पीठ इन मसनदों पर टिकाकर, बैठते थे। सब कुछ बहुत वैभवशाली था। पूरा वातावरण इस तरह का लगता मानो वे महन्त हों, घर के स्वामी या आचार्य । जो अभिजात बंगाली अतिथि आते वे भी देख सकते थे कि प्रभुपाद १९०० या १९२० के दशकों के पुराने वैभवशाली वातावरण की पुन: स्थापना में लगे थे। यह मल्लिक परिवार के साथ प्रभुपाद के पुराने दिनों से लगा था और उसमें तेजी से ह्रास हो रहा था। अब उस पुरानी संस्कृति का कहीं कोई नामोनिशान नहीं रह गया था, क्योंकि उन सभी परिवारों का पतन हो चुका था और उनकी सम्पत्ति नष्ट हो गई थी । संध्या समय जब प्रभुपाद की बत्ती की चारों ओर तरह-तरह के कीट-पतंगों का झुण्ड इकट्ठा हो जाता तो वे कभी-कभी टिप्पणी करते कि भगवान् की ये सृष्टियाँ कितनी अद्भुत हैं। एक दिन संध्या को वे बोले, "यह छोटा कीट अपने में चालक और उड़ने वाली मशीन दोनों है। सैंकड़ों-हजारों कीट-पतंग यहाँ एक साथ उड़ रहे हैं, किन्तु उनमें कोई टक्कर नहीं होती है। यह भगवान् की व्यवस्था है । वे आपस में टकराते नहीं, क्योंकि परम आत्मा उपस्थित है— प्रत्येक हृदय में एक । भौतिक वैज्ञानिक ऐसा अद्भुत यंत्र बनाकर तो देखें जिस में ऐसा चालक अन्तर्भूत हो कि कभी टकराए नहीं । जब एक व्यक्ति उड़ान भरता है और दो यान उड़ रहे होते हैं, तो उन्हें बहुत सावधान रहना चाहिए ।' कुछ भक्तजन प्रभुपाद के कमरे में चादर बिछी हुई चटाइयों पर बैठते थे और प्रभुपाद थोड़े ऊँचे आसन पर विराजते थे; उनकी पीठ श्वेत मसनद से टिकी होती थी। गुरु महाराज और शिष्य दोनों को कृष्णभावनामृत के सम्बन्ध में वार्ता करने में आनन्द आता था । भक्तजन प्रभुपाद के शब्दों को सुनना और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहते थे, और प्रभुपाद को उन्हें आदेश देने में प्रसन्नता होती थी । प्रभुपाद ने आगे कहना जारी रखा, “लेकिन कीट-पतंग सम्पूर्ण नहीं हैं। वे प्रकाश की ओर उड़ रहे हैं। इसका यह भी तात्पर्य है कि वे मृत्यु की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। इसलिए वे ठीक, भौतिकतावादियों जैसे हैं। भौतिकतावादी गगनस्पर्शी इमारतों का निर्माण कर रहे हैं, फिर भी वे नहीं जानते कि मृत्यु के समय क्या होगा । हेनरी फोर्ड और अन्य बड़े पूंजीपतियों को भी मरना पड़ा। फिर भी बहुत सारे लोग उनके समान बनना चाहते हैं । वे नहीं जानते कि इसका तात्पर्य है कि उनकी भी मृत्यु होगी। वे इन छोटे कीट-पतंगों की तरह हैं । सवेरे हम उनका केवल ढेर पाते हैं—सभी मृत्यु - प्राप्त । " प्रायः जब प्रभुपाद अपने कमरे में बात करते होते तो बिजली चली जाती थी और भक्त मिट्टी के तेल का चिराग ले आते थे। और प्रतिदिन रात को जिस समय प्रभुपाद प्रवचन करते रहते तो पुजारी आता था और कमरे को लोहबान के धुएँ से भर जाता था। प्रभुपाद की डेस्क के सामने दीवार पर सागौन की लकड़ी से बने हुए बृहत् आसन पर विराजमान राधा और कृष्ण श्रीविग्रहों को घी का दीपक अपने मंद प्रकाश से आलोकित करता रहता था । इस ग्रीष्मकालीन यात्रा के मध्य प्रभुपाद ने मायापुर के विकास के सम्बन्ध में अपनी कल्पना की और अधिक अभिव्यक्ति दी । भक्तों को पहले ही मालूम हो चुका था कि योजना बृहत् थी और उसे पूरा करने में करोडों डालर लगेंगे। उनके पास अब एक इमारत हो गई थी, लेकिन यह तो केवल शुभारंभ था । सम्पूर्ण योजना में, इमारत का कुछ महत्त्व नहीं था। प्रभुपाद विराट मंदिर की बात करते थे, जिसके गुम्बद दिव्य नगर के ऊपर आकाश में उठे होंगे। इस मायापुर - चन्द्रोदय मंदिर में संसार का सबसे विशाल ताराघर होगा जो वैदिक साहित्य में वर्णित समस्त ब्रह्माण्ड को प्रदर्शित करेगा । ऐसी परियोजना को पूरा करने के लिए प्रभुपाद अपने शिष्यों को वैदिक कलाओं में प्रशिक्षित करना चाहते थे, जो अब बंगाल में मर रही थीं। कृष्ण और भगवान् चैतन्य की लीला को विशेष प्रकार के चित्रों के माध्यम से दिखाने में भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की बड़ी रुचि थी और अब प्रभुपाद चाहते थे कि स्थानीय कलाकारों के अधीन उनके शिष्य वैसी ही चित्रशैली सीखें। जून में बरद्राज, आदिदेव, मूर्ति तथा ईशान, गुड़िया बनाने की कला सीखने के लिए मायापुर पहुँचे । प्रभुपाद चाहते थे कि एक शिष्य मृदंग बनाना भी सीख ले और एक कुम्हार ईशान को साँचा बनाने और बर्तन पकाने की कला में प्रशिक्षण देने प्रतिदिन आने लगा। भक्तों ने प्रभुपाद की फूस की मूल कुटिया को कार्यशाला में बदल दिया और प्रभुपाद अपने अन्य शिष्यों को भी मायापुर आने के लिए आमंत्रित करने लगे । मायापुर पहले से ही, भगवान् कृष्ण चैतन्य की दिव्य जन्मभूमि होने के कारण, अद्भुत है। पाश्चात्य प्रतिभा का इस स्थली के विकास में उपयोग करने से, यह निश्चित रूप से संसार का अनुपम स्थान बन जायगा । प्रभुपाद कहते कि मायापुर नगरी पूर्ववर्ती आचार्यों की इच्छाओं की पूर्ति की चरम परिणति होगी। इसकी जनसंख्या पचास हजार तक बढ़ेगी और यह संसार की आध्यात्मिक राजधानी होगी । इसके मध्य में एक विशाल मंदिर होगा और ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के लिए अलग-अलग आवास होंगे । यह नगर अन्य सभी नगरों के लिए एक नमूना होगा। इस तरह एक दिन ऐसा आयेगा कि अन्य नगर नष्ट हो जायँगे और मानव जाति को मायापुर के आदर्श पर निर्मित नगरों में शरण लेनी होगी । मायापुर के विकास से कृष्ण - चेतनायुक्त संसार का आरंभ होगा। इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव में वृद्धि होगी और उनकी यह भविष्यवाणी सच होगी कि "हर नगर और हर गाँव में मेरा नाम जपा जायगा ।" प्रभुपाद ने कहा कि अन्त में मायापुर सरलता से पहुँचने योग्य होना चाहिए— नवद्वीप से पुल द्वारा, कलकत्ता से गंगा में मोटर बोट द्वारा और अन्य सभी स्थानों से हवाई जहाज द्वारा । बंगाल में लाखों लोग जन्म से भगवान् चैतन्य के अनुयायी थे और वे लोग कृष्णभावनामृत को अपनी संस्कृति का शुद्ध अंग मान कर इसे स्वीकार करेंगे। एक कहावत है : बंगाल जो करता है, शेष भारत उसका अनुकरण करता है। अतः यदि अमरीकी वैष्णवों के कृष्णभावनामृत के उदाहरण से बंगाल सुधर जाय और शुद्ध हो जाय तो सारा भारत उसका अनुगमन करेगा । और जब समस्त भारत कृष्ण - चेतनायुक्त हो जायगा तो सारा संसार उसका अनुगमन करेगा। प्रभुपाद ने अपने मायापुर के प्रबन्धकों से कहा, “मैंने तुम लोगों को ईश्वर का साम्राज्य सौंप दिया है, इसे ग्रहण करो, इसका विकास करो, और इसका आनंद प्राप्त करो। " जून के पूरे मास में प्रभुपाद मायापुर - चन्द्रोदय मंदिर की निर्माणधीन इमारत में प्रसन्नतापूर्वक रहते रहे यद्यपि लॉस ऐन्जीलेस के दिनों से ही वे खांसी से पीड़ित थे जो उनकी पाश्चात्य यात्रा के बीच ठीक नहीं हो सकी थी, किन्तु मायापुर आने के बाद उनके स्वास्थ्य में सुधार हो गया था । मायापुर में लॉस ऐन्जीलिस की तुलना में मैं काफी अच्छा हूँ। सब से बड़ा लाभ यह है कि यहाँ खुला वातावरण है और अच्छी बयार चलती रहती है जो साँस की किसी भी बीमारी में स्वभावतः बहुत अच्छी है । निश्चय ही मायापुर लॉस ऐन्जीलीस से कहीं अच्छा स्थान है क्योंकि आप को यहाँ स्वच्छ वायु प्राप्त होती है। मौसम बहुत गरम नहीं है, किन्तु हवा में कुछ उमस रहती है। कुल मिलाकर यह आनन्ददायक है । हमारी इमारत की स्थिति बहुत ही बढ़िया है और बहुत से सम्मानित बाहरी लोगों का अनुभव है कि जबकि बाहर की हवा में असह्य गरमी होती हैं, हमारी इमारत के अन्दर सुहावना वातावरण रहता है। प्रभुपाद सुखद समीर की प्रशंसा करते थे जो हर समय इमारत में से प्रवहमान रहता था। वे उसे 'वैकुण्ठ - समीर' कहते थे। लेकिन कभी-कभी अचानक भयानक तूफान आ जाता था। ये तूफान प्रचंड होते थे, किन्तु अच्छे भी लगते थे; नियान बल्बों की तरह बिजली की लगातार कौंधों से आकाश भर जाता था । एक दिन तूफान उठा और खिड़कियों से हवा के झोंके आने लगे। यह देख कर कि प्रभुपाद के कमरे की खिड़कियाँ और दरवाजे खुले हैं, शतधन्य दौड़ा और जल्दी-जल्दी उन्हें बंद करने लगा। किन्तु प्रभुपाद ने, जो अपनी डेस्क पर बैठे थे, कहा, “रुक जाओ, खिड़कियाँ खुली रहने दो। ' शतधन्य ने प्रतिवाद किया, "प्रभुपाद, तूफान आ रहा है।' प्रभुपाद ने कहा, "उन्हें खुली रहने दो।” उनके कमरे में से हवा पचास मील प्रति घंटे की गति से जा रही थी । प्रभुपाद मुसकराने लगे। उन्होंने कहा, " संसार में इस जैसा स्थान कोई नहीं है ।" उनका केसरिया हवा में फहरा रहा था। अपनी मायापुर इमारत की छत पर खड़े हुए प्रभुपाद महाप्रभु चैतन्य के जन्मस्थली की ओर देख रहे थे, जो वहाँ से आधे मील से भी कम दूरी पर थी। उन्होंने भवानंद महाराज से कहा, “वास्तव में चैतन्य महाप्रभु के जन्मस्थान पर उनका दावा इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। क्या कृष्ण इसलिए विख्यात हैं कि उनका जन्म मथुरा में हुआ ? नहीं, वे विख्यात हैं अपने कार्यकलापों के लिए। इसी तरह चैतन्य महाप्रभु मायापुर में आविर्भूत होने के लिए विख्यात नहीं हैं। वे अपने कार्यों के लिए, अपने प्रचार संकीर्तन के लिए, विख्यात हैं । मायापुर - चन्द्रोदय मंदिर चैतन्य महाप्रभु का प्रचार है। अतएव मैं ऐसा स्थान चाहता हूँ जो चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलापों के कारण इतना आकर्षक हो कि वहाँ प्रत्येक व्यक्ति आना चाहे । " *** मायापुर आने के पहले जब प्रभुपाद कलकत्ता में थे, तो उन्होंने अपने अनेक वरिष्ठ शिष्यों को अपने कमरे में बुलाया था और उनसे कहा था, "मेरे पास चैतन्य - भागवत का अनुवाद करने के लिए कई प्रार्थनाएँ आई हैं, किन्तु मैं पूरे 'चैतन्य चरितामृत' का अनुवाद करने जा रहा हूँ। क्या यह ठीक रहेगा ?" भवानंद गोस्वामी ने उत्तर दिया था, “बहुत अच्छा, प्रभुपाद, यह तो बहुत ही अच्छा रहेगा ।" दशकों पूर्व प्रभुपाद ने चैतन्य - चरितामृत पर आधारित निबन्ध लिखे थे और विगत वर्षों में उन्होंने कुछ श्लोकों का अनुवाद किया था और उनपर तात्पर्य लिखे थे। उसके बाद अमेरिका में १९६८ ई. में उन्होंने 'टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य' (भगवान् चैतन्य के उपदेश ) पूरा किया था, जो चैतन्य चरितामृत के कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों पर आधारित, एक सारभूत अध्ययन था । मायापुर में रहते हुए उन्होंने कृष्णदास कविराज के चैतन्य चरितामृत के सातवें अध्याय से आरंभ करके, उसके एक नए अनुवाद और व्याख्या की शुरुआत की । जब कार्य आगे बढ़ा तो उन्हें आश्चर्यजनक संवेग की अनुभूति हुई और उन्होंने कहा कि 'भगवान् चैतन्य' के आविर्भाव दिवस पर मार्च में वे सातवें अध्याय से आरंभ करके एक खण्ड प्रकाशित करेंगे। सम्पूर्ण चैतन्य चरितामृत को पूरा करने के निर्णय के साथ उन्होंने श्रीमद्भागवत पर कार्य रोक दिया । सातवें अध्याय के प्रथम कुछ श्लोकों में कृष्णदास कविराज कहते हैं, "मैं भगवान् कृष्ण के प्रति अपनी प्रणति निवेदित करता हूँ जिन्होंने अपने को पाँच रूपों में प्रकट किया है: भक्त के रूप में, भक्त के विस्तार के रूप में, भक्त के अवतार के रूप में, शुद्ध भक्त के रूप में और भक्ति की शक्ति के रूप में।" प्रभुपाद ने लिखा कि कलियुग में कृष्ण के प्रेम में उच्च स्थान पाने का एक ही मार्ग है कि पंच तत्त्व का या पाँच रूपों में भगवान् चैतन्य का अनुग्रह प्राप्त हो। हमें श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति प्रणति का निवेदन पंचतत्त्व मंत्र जप कर करना चाहिए— श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौर - भक्त वृंद । महामंत्र जपने के पहले इस मंत्र का जप करना चाहिए । हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । प्रभुपाद ने लिखा कि हरे कृष्ण महामंत्र जपने में दस प्रकार की भूलें होती हैं, किन्तु पंचतत्त्व महामंत्र जपने में इन पर विचार नहीं किया जाता ... हमें पहले श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण में जाकर पंचतत्त्व महामंत्र सीखना चाहिए और उसके बाद हरे कृष्ण महामंत्र जपना चाहिए । सातवें अध्याय के एक के बाद एक श्लोक से श्रील प्रभुपाद के मिशन के मूलभूत सिद्धान्तों की पुष्टि होती थी और अनुप्रमाणित होता था कि उनकी शिक्षा भगवान् चैतन्य महाप्रभु द्वारा आदिष्ट विधि के बिल्कुल अनुरूप थी । कृष्ण की सबसे बड़ी विशेषता यह समझी जाती है कि वे दिव्य प्रेम के भण्डार हैं । यह भण्डार कृष्ण के उपस्थित होने पर ही उपलब्ध हुआ, लेकिन उनके बाद वह बंद हो गया था । किन्तु जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने पार्षदों, पंचतत्त्व, के साथ आविर्भूत हुए तो उन्होंने बंद भण्डार को पुनः खोल दिया और कृष्ण के दिव्य प्रेम का जी भरकर आनन्द लिया। वे उस दिव्य प्रेम का जितना ही आस्वादन करते उतनी ही उनकी पिपासा बढ़ती जाती । श्री पंचतत्त्व ने स्वयं बार-बार नृत्य किया और इस प्रकार भगवान् की प्रेम-सुधा का पान करना सरल बनाया। वे पागलों की भाँति नृत्य करते, रुदन करते, हँसते और कीर्तन करते और इस प्रकार उन्होंने भगवान् के प्रेम का वितरण किया । इन श्लोकों की व्याख्या करते हुए प्रभुपाद ने लिखा, वर्तमान कृष्णभावनामृत आन्दोलन ठीक उसी सिद्धान्त का अनुगमन करता है और इसलिए केवल कीर्तन करने और नृत्य करने से हमने पूरे संसार में लोगों से अच्छा सहयोग प्राप्त किया है, किन्तु यह समझ लेना चाहिए कि इस कीर्तन और नृत्य का इस भौतिक संसार से कोई सरोकार नहीं है। वास्तव में वे दिव्य कार्याकलाप हैं, क्योंकि हम जितना ही अधिक अपने को कीर्तन और नृत्य में लगाते हैं उतना ही अधिक श्री भगवान् के दिव्य प्रेम के अमृत का स्वाद हमें प्राप्त होता है । कृष्णभावनामृत आन्दोलन" से प्रभुपाद का तात्पर्य केवल उनके शिष्यों और उनके कृष्णभावनामृत संघ से ही नहीं था, वरन् उनका तात्पर्य उस आन्दोलन से भी था जिसका शुभारंभ भगवान् चैतन्य ने किया था। जिस तरह मूल श्री भगवान् और मन्दिर में स्थापित कृष्ण के श्रीविग्रह एक ही हैं उसी तरह भगवान् चैतन्य का आन्दोलन और प्रभुपाद का कृष्णभावनामृत आन्दोलन अभिन्न हैं । श्री भगवान् के प्रेम के वितरण में चैतन्य महाप्रभु और उनके पार्षदों को इस बात का विचार नहीं था कि कौन अभ्यर्थी योग्य है और कौन योग्य नहीं है या कहाँ इस प्रेम का वितरण किया जाना चाहिए और कहाँ नहीं किया जाना चाहिए। उनकी कोई शर्तें नहीं थीं। पंचतत्त्व के सदस्यों को जहाँ भी अवसर मिलता था, वे श्री भगवान् के प्रेम का वितरण करते थे । श्रील प्रभुपाद के लिए यह श्लोक उनके गुरु महाराज भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के इस उपदेश की सीधे पुष्टि करता था कि प्रत्येक जाति के लोग वैष्णव, ब्राह्मण और संन्यासी हो सकते थे। शास्त्रों से इसका सीधा साक्ष्य प्राप्त था, फिर भी भारत में जाति-चेतना से युक्त ब्राह्मण, प्रभुपाद की, ठीक वैसे ही प्रायः आलोचना किया करते थे, जैसे उनके गुरु महाराज की। साक्ष्य प्राप्त हो जाने के बाद अब प्रभुपाद ने अपने ईर्ष्यालु आलोचकों को ललकार बताई, कुछ दुष्ट ऐसे भी हैं जो योरोपियनों और अमेरिकनों को स्वीकार करने और उन्हें संन्यास आश्रम में दीक्षित करने के लिए कृष्णभावनामृत की आलोचना करके भगवान् चैतन्य के मिशन के विरुद्ध बोलने का दुस्साहस करते हैं । किन्तु अब प्रामाणिक कथन प्राप्त हो गया है कि श्री भगवान् का प्रेम वितरित करने में हमें इस बात का विचार नहीं रखना चाहिए कि प्रेम पाने वाला योरोपीय है, अमेरिकन है, हिन्दू है या मुसलमान है । कृष्णभावनामृत का प्रसार जहाँ भी संभव हो, करना चाहिए और जो इस प्रकार वैष्णव बन जाते हैं उन्हें ब्राह्मणों से हिन्दुओं से या भारतीयों से, बड़ा समझना चाहिए । श्री चैतन्य महाप्रभु की इच्छा थी कि उनके नाम का प्रसार संसार के हर गाँव और नगर में होना चाहिए। अतः जब चैतन्य महाप्रभु के धर्म का प्रचार सारे संसार में हो जायगा तो जो लोग इसे स्वीकार करेंगे, क्या उन्हें वैष्णवों, ब्राह्मणों और संन्यासियों के रूप में अंगीकार नहीं किया जायगा ? इस तरह के मूर्खतापूर्ण तर्क कभी-कभी ईर्ष्यालु दुष्टात्माओं द्वारा दिए जाते हैं, किन्तु कृष्णभावनामृत के शिष्य उन पर ध्यान नहीं देते। हम पंचतत्त्व द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का ठीक-ठीक अनुगमन करते हैं । एक दूसरी आलोचना जिसका सामना श्रील प्रभुपाद को करना पड़ता था, यह थी कि धर्मान्तरण पर उनका बल देना वास्तव में भारतीय आध्यात्मिकता के विरुद्ध था। प्रभुपाद के गुरुभाइयों तक ने कभी - कभी इस तरह की टिप्पणियाँ की थीं। उनसे भी अधिक, इस तरह का भाव निर्विशेषिकतावादी प्रकट करते थे जिनका तर्क था लोगों को धर्म की अपनी धारणा बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। धर्म एक आतंरिक या आध्यात्मिक मामला है और उसका प्रचार उत्साही धर्म प्रचारकों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। उनका कहना था कि प्रचार और धर्मान्तरण करना ईसाइयों का काम था, भारतीय धर्म के अनुयायियों का नहीं । किन्तु चैतन्य चरितामृत के आदि-लीला के सातवें अध्याय में श्री भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य ने आदर्श प्रचारक के रूप में अपने हृदय और भाव का उद्घाटन किया है। यद्यपि पंचतत्त्व के सदस्यों ने श्री भगवान् के प्रेम के भण्डार को भलीभाँति लूट लिया और उसका वितरण किया, फिर भी उस में कमी नहीं आई, क्योंकि यह अद्भुत भण्डार इस तरह परिपूर्ण है कि उसका प्रेम जितना ही वितरित किया जाता है उसमें उसकी सौगुनी वृद्धि होती जाती है। श्री भगवान् के प्रेम की बाढ़ सभी दिशाओं में फैल गई और इस प्रकार युवा, वृद्ध, पुरुष, नारी और बच्चे सभी उस बाढ़ में निमग्न हो गए । कृष्णभावनामृत आन्दोलन समस्त संसार को अपने में निमन कर लेगा, चाहे कोई सत्पुरुष हो, दुष्टात्मा हो, लंगड़ा हो, अपाहिज हो या अंधा हो । जब पंचतत्त्व के पहले पांच सदस्यों ने सारे संसार को श्री भगवान् के प्रेम सागर में डूबा पाया और जीवात्माओं में भौतिक आनन्द का बीज पूर्णतया नष्ट हो गया तो वे अतीव प्रसन्न हुए । । पंचतत्त्व के सदस्यों ने श्री भगवान् के प्रेम की जितनी ही अधिक वर्षा की, प्रेम की बाढ़ उतनी ही फैलती गई और समस्त संसार में उनका विस्तार हो गया । कृष्णभावनामृत के अन्तर्राष्ट्रीय संघ में युवा पुरुषों और स्त्रियों को प्रशिक्षित करने में श्रील प्रभुपाद के मन में यही भावना कार्य कर रही थी । वे भगवद्भक्तों को सशक्त बनाने के लिए भगवान् चैतन्य के इन शब्दों को प्रस्तुत कर रहे । कृष्णभावनामृत आन्दोलन के सदस्यों को विश्वास रखना चाहिए कि शुद्ध प्रचार करने से उन्हें सफलता मिलेगी ही । प्रभुपाद को ऐसा विश्वास था । शास्त्रों के वचन इस प्रकार हैं— वचन जो स्वयं श्री भगवान् के मुख से उच्चरित थे; प्रभुपाद के व्यक्तिगत अनुभव से भी उसकी पुष्टि होती थी। तभी तो वे लिख सके, हमारा कृष्णभावनामृत आंदोलन एक व्यक्ति ने आरंभ किया था और किसी ने हमारे जीवन-निर्वाह में सहायता नहीं की, किन्तु वर्तमान समय में हमारे संसार भर में हजारों-लाखों डालर खर्च हो रहे हैं और यह आन्दोलन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है । यद्यपि ईष्यालु व्यक्ति हम से जलते हैं, किन्तु यदि हम अपने सिद्धान्तों पर अटल रहेंगे और पंचतत्त्व के चरणचिह्नों का अनुगमन करते रहेंगे तो यह आन्दोलन बढ़ता जायगा और नकली स्वामी, संन्यासी, धर्मिष्ठ, दार्शनिक, वैज्ञानिक इसे रोक नहीं पाएँगे, क्योंकि यह सभी भौतिकतावादी विचारों से परे है। अतः जो लोग कृष्णभावनामृत आंदोलन के प्रचार में लगे हैं उन्हें दुष्टात्माओं और मूर्खों से भयभीत नहीं होना चाहिए । सातवें अध्याय के श्लोकों में कृष्णभावनामृत की विश्व व्यापी बाढ़ का वर्णन है । भगवान् चैतन्य के अनुग्रह की इस बाढ़ के संसार भर में फैल जाने से ये सारी आपत्तियाँ बह जायँगी कि योरोपीय और अमेरिकन ब्राह्मण या संन्यासी नहीं बन सकते । कृष्णदास कविराज के शब्दों से प्रभुपाद की इच्छा को बल मिला कि वे अपने विश्वव्यापी आंदोलन का आधार उस स्थान को बनाएँ जहाँ भगवान् चैतन्य का आविर्भाव हुआ था और जहाँ से उन्होंने संकीर्तन आंदोलन आरंभ किया था। पंचतत्त्व का आरंभ नवद्वीप में हुआ था और श्री भगवान् के प्रेम की तरंगें वहीं से बाहर चारों ओर फैल रही थीं। श्रीधाम मायापुर में कभी-कभी वर्षाऋतु के बाद बड़ी बाढ़ आ जाती है। यह इस बात का संकेत है कि भगवान् चैतन्य के आविर्भाव - स्थल से श्री भगवान् के प्रेम की बाढ़ को सारे संसार में फैल जाना चाहिए, क्योंकि इससे युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, बालक, सभी का हित होगा। श्री चैतन्य महाप्रभु का कृष्ण - चेतना - आंदोलन इतना शक्तिशाली है कि यह समस्त संसार को अपने में निमन कर सकता है और श्री भगवान् के प्रेम में सभी वर्गों के व्यक्तियों को अनुरक्त बना सकता है। 'आदि-लीला' के इस सातवें अध्याय में प्रभुपाद को अन्य बहुत से साक्ष्य मिले जो भगवान् चैतन्य के सिद्धान्तों के अन्तर्गत इस्कान को उनके उपदेशों और क्रियाकलापों के प्रचार के लिए अधिकृत करते थे। कृष्णदास कविराज कहते हैं कि भगवान् चैतन्य का संन्यास ग्रहण करना समाज के कतिपय वर्गों के उद्धार के लिए उनकी मात्र एक चाल थी, क्योंकि अन्यथा वे भगवान् चैतन्य को सम्मान न देते। अपनी टीका में प्रभुपाद ने समझाया कि उन्होंने भी समाज के अधिक से अधिक लोगों को कृष्णभावनामृत का लाभ पहुँचाने के लिए कई योजनाएँ बनाई थीं । उदाहरण के लिए, उन्होंने स्त्रियों को कृष्णभावनामृत आंदोलन में स्थान दिया। प्रभुपाद ने लिखा, “ अतः सिद्धान्त यह है कि प्रचारक को शास्त्र - विहित विधि-विधानों का यथावत् पालन करना चाहिए, साथ ही, उसे ऐसी योजनाएँ भी बनानी चाहिए कि पतितों के उद्धार के लिए भी उसका प्रचार कार्य पूरी तेजी से चलता रहे । ' *** जून २७, १९७३ प्रभुपाद मायापुर से कलकत्ता गए । उन्होंने तमाल कृष्ण गोस्वामी को लिखा, श्यामसुंदर का सुझाव है कि मैं लंदन में जार्ज... द्वारा प्रदत्त नए मकान में कुछ महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलने के लिए वहाँ जाऊँ । किन्तु मैं योरोप या अमेरिका पुनः जाने के पूर्व बम्बई के मामलों में निश्चित समझौता कर लेना चाहता हूँ । यदि बम्बई में मेरे कुछ दिन ठहरने के लिए उपयुक्त स्थान मिल सके तो मैं तुरन्त वहाँ आ सकता हूँ । और वहाँ से लंदन चला जाऊँगा । अपने यात्रा - कार्यक्रम पर विचार करते हुए प्रभुपाद ने एलबर्ट रोड स्थित कलकत्ता मंदिर में कुछ दिन बिताए । वे मिलने वालों को स्वतंत्रतापूर्वक आने देते और उनका कमरा प्रायः स्थानीय बंगाली लोगों तथा उनके अपने शिष्यों से भरा रहता । सब लोग उनके समक्ष सफेद चादर पर बैठते । संध्या - समय वे किसी के घर में एक घंटे तक कृष्णभावनामृत का उपदेश देने के लिए जाते, भले ही उसके लिए उन्हें शहर के घने भागों में से मीलों क्यों न यात्रा करनी पड़े। श्रील प्रभुपाद की बहन भवतारिणी ( प्रभुपाद के शिष्यों के लिए पिशिमां ) अपने प्यारे भाई को मिलने और सदा की भाँति उनके लिए भोजन बनाने कलकत्ता मंदिर आती रहती थीं। किन्तु एक दिन उनकी बनाई कचौरियाँ खाने के कुछ घंटे बाद प्रभुपाद के पेट में तेज पीड़ा होने लगी। वे दरवाजा बंद करके सोने लगे। उनके अनुयायियों को बड़ी चिन्ता हुई। जब उनका सेवक, श्रुतकीर्ति, कमरे में आया तो उन्हें छटपटाते देखा । "श्रील प्रभुपाद, क्या गड़बड़ हुआ ?" प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "मेरा पेट... वह नारियल की कचौरी अच्छी तरह पकी नहीं थी । " यह मरोड़ रात भर रही और कई भक्त प्रभुपाद के शरीर की, विशेषकर उनेक पेट की, मालिश करते रहे। किन्तु वे हर साँस के साथ कराहते रहे । पिशिमां खड़ी रहीं । किन्तु प्रभुपाद के भक्तों को उनकी उपस्थिति से डर लग रहा था कि इस बीमारी में भी वे कहीं कुछ और पकाने की न सोच रही हों । प्रभुपाद ने कहा कि भगवान् नृसिंह का चित्र पूजा घर से उतार कर उनके पलंग की बगल में रखा जाय । कुछ भक्तों को भय हुआ कि प्रभुपाद का अंत कहीं निकट तो नहीं है। दूसरे दिन प्रात: काल जब उनकी बीमारी बनी रही तो भक्तों ने स्थानीय कविराज ( वैद्यराज) को बुलाया । पुराने कविराज आए और उन्होंने प्रभुपाद की बीमारी को उग्र रक्तपेचिश बताया। उन्होंने दवाई दी पर उससे कोई लाभ न हुआ। बाद में प्रभुपाद ने भवानंद को बुलाया और तली हुई पूरियों के साथ थोड़ा पटल और नमक लाने को कहा । भवानंद ने विरोध किया और कहा कि तला भोजन उनके लिए सबसे बुरा सिद्ध होगा । प्रभुपाद ने कहा कि उनके बचपन में खूनी पेचिश के लिए उनकी माँ ने उन्हें यही दवा दी थी। तब उन्होंने अपनी बहन को बुलाया और बंगाली में बोलते हुए उनसे पूरियाँ और पटल तैयार करने को कहा। भोजन करने के कुछ घंटे बाद प्रभुपाद ने भवानंद को फिर बुलाया। अब वे ठीक लग रहे थे। उन्होंने कहा, "मेरी माँ ठीक कहती थीं । " लंदन से श्यामसुंदर का एक लंबा तार आया जिसमें उल्लेख था कि प्रवचन का एक सुंदर अवसर वहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। लंदन के हवाई अड्डे से उन्हें एक हैलीकाप्टर द्वारा मुख्य घटना स्थल पर ले जाया जायगा जहाँ सबसे बड़ी रथ यात्रा होने जा रही थी। जुलूस पिकेडिली लेन से चल कर ट्रैफाल्गर स्क्वायर के विशाल मंच पर समाप्त होगा। तार में आगे लिखा था कि लाखों अंग्रेज – जिनमें कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण व्यक्ति शामिल थे— प्रभुपाद को देखने के लिए आतुर थे। इसकी भी व्यवस्था हो रही थी कि प्रभुपाद महारानी के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार चार्ल्स को कृष्णभावनामृत का उपदेश दें। श्रील प्रभुपाद जानते थे कि कुछ वायदे बढ़-चढ़े थे, किन्तु इंगलैंड पहुँच कर वहाँ फिर से प्रचार करने की उनकी इच्छा बलवती थी । जार्ज हैरिसन ने भक्तों को एक लम्बी-चौड़ी जायदाद दी थी जो लंदन से पैंतालीस मिनट की दूरी पर थी और प्रभुपाद ने वहाँ जाने तथा जन्माष्टमी के दिन राधाकृष्ण विग्रहों की स्थापना के लिए कहा था। अब, जन्माष्टमी के एक महीना पूर्व ही, प्रभुपाद पर श्यामसुंदर के आमंत्रण का गहरा प्रभाव हो रहा था । यद्यपि रक्तपेचिश से वे निर्बल हो रहे थे, वे तुरन्त लंदन जाने की सोचने लगे । प्रभुपाद ने कलकत्ता में मौजूद जी. बी. सी. सचिवों और संन्यासियों को अपने कमरे में बुलाया । प्रभुपाद अपने पलंग पर बैठ गए, जबकि वे सब उनके सामने फर्श पर बैठे। प्रभुपाद ने उनकी सम्मति जानना चाही। उन्होंने कहा कि प्रभुपाद को स्वास्थ्यवर्धक जलवायु वाले स्थान, लॉस ऐन्जीलीस या हवाई जाना चाहिए और वहाँ विश्राम करके अपना स्वास्थ्य सुधारना चाहिए। भक्तों ने हवाई के पक्ष में निर्णय किया और प्रभुपाद विनम्र भाव से सहमत हो गए । हवाई की जलवायु बहुत अच्छी थी और वहाँ प्रभुपाद के लिए बाधाएँ कम थीं । अचानक प्रभुपाद तन कर बैठ गए। उन्होंने कहा कि वे पश्चिम लौटेंगे, लेकिन वे लंदन जायँगे, हवाई नहीं । और स्वास्थ्य लाभ के लिए नहीं, वरन् प्रचार के लिए । उन्होंने कहा, "मुझे लोहे के गरम रहते उसे पीटने दीजिए। मैं समझता हूँ यह एक अंग्रेजी कहावत है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आप लोहे को ( मनचाहे ) आकार में रख सकते हैं। पश्चिम में लोग अपने जीवन से ऊब चुके हैं। इसलिए हम उन्हें आध्यात्मिक प्रकाश देना चाहते हैं । " प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से तुरन्त आश्वस्त कर दिया। प्रभुपाद ने आगे कहा, " पश्चिम में दो भ्रामक सिद्धान्त हैं। एक यह है कि जीवन पदार्थ से आता है। दूसरा यह है कि मृत्यु के बाद जीवन नहीं होता — अतः इस जीवन का आनन्द लो। वे कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु पदार्थ है । अतः ज्यों-ज्यों यह कृष्णभावनामृत आंदोलन बढ़ेगा, साम्यवादियों की पराजय होगी। लोग कहते हैं कि वे एकता का प्रयास कर रहे हैं किन्तु उनके पास इतनी बुद्धि नहीं है कि वे देख सकें कि एकता कैसे प्राप्त की जा सकती है । उन्होंने एक विशाल जटिल लीग आफ नेशन्स बनाया था और अब यूनाइटेड नेशन्स बनाया है, किन्तु ये सभी असफल हो जायँगे। यह रथ यात्रा की सरल विधि सारे संसार में फैल रही है। जगन्नाथ का अर्थ है— विश्व का स्वामी । अतः हमारे इस्कान के माध्यम से जगन्नाथ अब अन्तर्राष्ट्रीय भगवान् हैं। इसलिए मैं पश्चिम जाकर ये चीजें उन्हें देना चाहता हूँ। यद्यपि प्रभुपाद तुरन्त लंदन की हवाई यात्रा के लिए शरीर से अक्षम थे जहाँ सक्रिय प्रचार का कार्य उनकी प्रतीक्षा कर रहा था, किन्तु उनके शिष्य इसे कृष्ण का दूसरा चमत्कार स्वीकार करते हुए मान गए। *** लंदन जुलाई ७, १९७३ परविध: वह रथयात्रा का दिन था। मैने प्रभुपाद को मंदिर के भीतर आते देखा। लेकिन वह बहुत हृष्ट-पुष्ट नहीं लग रहे थे। मैं सचमुच चकित था, फिर मेरी समझ में आया कि उनकी शक्ति बहुत कुछ आध्यात्मिक है। ध्रुवनाथ : परेड के मैदान में हम लोग मार्बल आर्क पर जहाँ से जुलूस आरंभ होना था, श्रील प्रभुपाद की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने व्यास-आसन अच्छे ढंग से सजाया था। सभी लोग आशा कर रहे थे कि प्रभुपाद रथ पर स्थापित इस व्यास - आसन पर बैठ कर सड़कों से होकर निकलेंगे, जैसा कि उन्होंने अन्य रथ-यात्राओं में किया था। अतः जब प्रभुपाद आए और उन्होंने व्यास-आसन पर बैठने से इनकार कर दिया तो हमें प्रसन्नता भी हुई और आश्चर्य भी । उन्होंने संकेत किया कि वे नाचेंगे और जुलूस का नेतृत्व करेंगे । योगेश्वर : वे सीढ़ी ले आए जिससे प्रभुपाद रथ पर चढ़ कर व्यास - आसन पर बैठ सकें। किन्तु उन्होंने उन सबों को दूर रहने का इशारा किया और वे रथों के साथ-साथ नाचते हुए आगे चलने लगे । धीरशान्त: मेरा टखना मुड़ गया था, अतः मैं चल नहीं सकता था । इसलिए मैं रथ पर चढ़ गया। फलत: मैं प्रभुपाद को भलीभाँति देख सकता था । रेवतीनन्दन महाराज रथ से ही ध्वनि प्रसारक यंत्र पर कीर्तन कर रहे थे। किन्तु पन्द्रह मिनट तक जुलूस चलने के बाद प्रभुपाद ने भक्तों से कहा कि वे रेवतीनन्दन महाराज और अन्यों से नीचे आने को बोलें और उनके साथ सड़क में कीर्तन का नेतृत्व करें । रेवतीनन्दन : जब प्रभुपाद ने रथ पर व्यास - आसन देखा तो वे बोले, "नहीं, मैं मात्र एक भक्त हूँ। मैं जुलूस के साथ चलूँगा । " एक विशाल भव्य कीर्तन हुआ। हंसदूत ने नेतृत्व किया, मैने किया, श्यामसुंदर ने किया। विभिन्न भक्तों ने इस विचित्र कीर्तन का नेतृत्व बारी-बारी किया । और प्रभुपाद अपनी करतालें लिए पूरे समय ठीक कीर्तनियों के मध्य बने रहे। वे आगे-पीछे, ऊपर-नीचे उछल और नाच रहे थे । रोहिणीनन्दन : रथ धीरे-धीरे जा रहा था। प्रभुपाद रथ से बीस-तीस फुट आगे चलते हुए जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। इस बीच रथ के ऊपर लगे ध्वनि - प्रसारक यंत्र से कीर्तन चल रहा था। प्रभुपाद ने सभी लोगों को रथ से नीचे उतारा और अपनी चारों ओर कर लिया और वे सब हरे कृष्ण का कीर्तन करने लगे। कभी-कभी वे चारों ओर घूम जाते और हवा में अपने दोनों हाथ राजसी ढंग से ऊपर उठाते हुए कहते, “जय जगन्नाथ !” जब हम लोग थोड़ा आगे बढ़ जाते तो वह मुड़ कर रथ के आने की प्रतीक्षा करते। कभी वे नाचने लगते तो कभी हवा में दोनों हाथ ऊपर उठाए खड़े हो जाते । शारदीया दासी : प्रभुपाद नाचते थे और कुछ फुट चलने के पश्चात् एक चक्कर लगाते और बाहें उठाए हुए श्रीविग्रहों की ओर देखते। फिर कुछ समय तक नाचते, अर्चा-विग्रहों का ध्यान करते और फिर चक्कर लगाकर आगे बढ़ जाते। इस प्रकार वे पूरे रास्ते नाचते रहे। भक्तों ने उन्हें भीड़ से बचाने के लिए हाथ से हाथ मिलाकर एक वृत्त बना लिया था । यह विस्मयकारी, दिव्य दृश्य था। प्रभुपाद श्रीविग्रहों की ओर देख रहे थे और सभी शिष्य उनके पीछे थे। सुदुर्जय: प्रभुपाद ने हमें आश्चर्यचकित कर दिया। हम नहीं जानते थे कि वे बीमार हैं अथवा नहीं, कमजोर हैं या नहीं, उन्हें चक्कर आ रहा है या नहीं। कभी वे बहुत बीमार लगते थे, कभी अठ्ठारह साल के लड़के जैसे दीखते थे। वे हम सबों को आश्चर्यचकित किए हुए थे। वे अपने हाथ में बेंत लिए हुए थे, किन्तु नाचते समय उसे ऊपर उठा लेते थे। थोड़ी देर के बाद श्यामसुंदर मेरे पास आया और बोला, “सुनो, प्रभुपाद पहुँच नहीं पाएँगे। वे बहुत बीमार हैं। तुम उनके पीछे-पीछे कार में चलो, उनसे तीस सेकंड की दूरी पर रहो ताकि हम उन्हें कार में तुरंत बैठा सकें।” प्रभुपाद पार्क लेन में नीचे की ओर जा रहे थे और बीच-बीच में वे पीछे की ओर मुड़ कर अपने हाथ ऊपर उठा देते थे । वे इतनी तेजी से चल रहे थे कि रथ उनका साथ नहीं दे पाता था। उन्हें रुक-रुक कर रथ की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। वे पीछे मुड़ कर, अपने हाथ उठा देते थे और कहते थे, "हरि बोल !” उन्होंने ऐसा कई बार किया। वे इतनी तेजी से चल रहे थे कि बीच में उन्हें रुकना पड़ता था । भक्तजन नाच रहे थे। मौसम सुहावना था। भीड़ अपार थी । ध्रुवनाथ : सड़क पर चलते लोग जड़ बन कर प्रभुपाद को देखते रह जाते थे। उनकी जैसी अवस्था का व्यक्ति एक बालक की तरह नाच रहा था और उछल-कूद रहा था, यह दृश्य देखने ही योग्य था । और तब लगभग हर पाँच मिनट के बाद प्रभुपाद पीछे मुड़ जाते थे और जगन्नाथ की ओर देखने लगते थे। भक्तजन मार्ग से हट जाते थे जिससे वे जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा को भलीभाँति देख सकें। किन्तु थोड़ी देर में पुलिस आ गई और उसने हमें चेतावनी दी कि हम इस तरह मार्ग में रुक-रुक कर नहीं चल सकते। हमें चलते रहना था, क्योंकि यातायात में बहुत बाधा हो रही थी । भक्तजन जोर से कीर्तन कर रहे थे, नाच रहे थे और काफी कोलाहल था । श्रुतकीर्ति : जब प्रभुपाद नाच रहे थे, तो पुलिस वाले लगातार आ रहे थे और किसी अधिकारी की तलाश कर रहे थे। अंत में वे मेरे पास आए और बोले, “आप अपने लीडर से कहिए कि बैठ जायँ । उनके कारण बड़ी बाधा हो रही है। हर व्यक्ति उग्र हो रहा है और हम भीड़ को सँभाल नहीं पा रहे हैं।” तो मैने कहा, “ठीक है ।" किन्तु प्रभुपाद से मैने कुछ नहीं कहा। अतः वे फिर आए और बोले, "आप उनसे कहिए। उन्हें बैठना ही होगा । " तो मैने कहा, "बहुत अच्छा ।" मैने प्रभुपाद को थपथपाया। पूरे समय वे भाव-विभोर थे । वे रथ के सामने स्वयं नाच रहे थे और हर एक को नाचने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। वे हाथ से इशारा करते थे और भक्तों को नाचते रहने के लिए प्रोत्साहित करते थे । वे जुलूस का संवेग बनाए चल रहे थे। तो मैने कहा, "प्रभुपाद, पुलिस के लोग चाहते हैं कि आप बैठ जायँ । उनका कहना है कि आप जुलूस में अव्यवस्था फैला रहे हैं।” प्रभुपाद ने मेरी ओर देखा, फिर वे मुड़ गए और आगे चलते रहे। पुलिस की पूरी उपेक्षा कर, वे नाचते रहे। और पुलिस वाले कुछ नहीं कर सके। न तो प्रभुपाद रुके और न पुलिस वाले उनसे कुछ कह सके । परविध : मैं पूरे जुलूस - मार्ग में बैक टु गाडहेड पत्रिका बाँटता रहा। मैं थक कर चूर था और जुलूस के साथ-साथ चलने में मुझे घोर कठिनाई हो रही थी । किन्तु प्रभुपाद बराबर चल रहे थे और एक तरुण की भाँति नाच रहे थे। उनकी आध्यात्मिक शक्ति पर मैं चकित था । ध्रुवनाथ : जब हम पिकेडिली सर्कस पहुँचे तो प्रभुपाद ने एकाएक पूरा जुलूस रोक लिया। स्वभावत: पिकेडिली सर्कस लोगों से ठसाठस भरा था। प्रभुपाद तीन मिनट तक जुलूस रोके रहे और भक्तों को अपनी चारों ओर लिए नाचते रहे, नाचते रहे । रोहिणीनन्दन : जब हम लोग पिकेडिली सर्कस पहुँचे तो प्रभुपाद सचमुच नाचने लगे। वे जमीन से ऊपर उछल रहे थे। रथ रोक दिया गया। यह बहुत कुछ चैतन्य चरितामृत के वर्णन के समान था कि भगवान् चैतन्य रथ यात्रा जुलूस की अगुवाई कैसे करते थे । अतः रथ रोक लिया गया और तब प्रभुपाद इसके चलने की प्रतीक्षा करने लगे । योगेश्वर : अंत में जब हम ट्रैफाल्गर स्क्वायर पहुँचे और प्रभुपाद ने भक्तों द्वारा लगाया गया विशाल तम्बू और अन्य व्यवस्थाओं को देखा तो उन्होंने पुनः अपने हाथ ऊपर उठा दिए। वे जुलूस के सारे रास्ते - भर नाचते और चलते रहे थे। कम-से-कम एक घंटा हो रहा था और प्रभुपाद चलते और नाचते रहे थे । — हाइड पार्क से आरंभ करके ट्रैफाल्गर स्क्वायर तक । रोहिणीनन्दन : जब प्रभुपाद ट्रैफाल्गर स्क्वायर पहुँचे तो वे नेल्सन स्तम्भ के चबूतरे पर एक छोटे-से व्यास - आसन पर तुरन्त बैठ गए और उन्होंने कृष्ण के पवित्र नाम के विषय में एक भाषण दिया । यह उनके विराट कीर्तन और नर्तन के तुरन्त बाद था । अगले दिन के समाचार पत्रों में उत्सव के सम्बन्ध में अच्छी खासी खबर छपी और प्रभुपाद ने इसके विषय में अपने लॉस ऐन्जीलिस के एक शिष्य को इस प्रकार लिखा । तुम्हें जान कर प्रसन्नता होगी कि लंदन की रथ यात्रा अत्यन्त सफल रही। 'डेली गार्डियन' ने हमारे रथ का चित्र प्रमुख पृष्ठ पर दिया और लिखा कि हमारी रथ-यात्रा ट्रैफाल्गर स्क्वायर में लार्ड नेल्सन की स्मृति में बनाए गए स्तम्भ के मुकाबिले की थी । मेरा स्वास्थ्य अच्छा है और मैं नित्य भ्रमण करने जाता हूँ और प्रातः कालीन कक्षाएँ लेता हूँ। एक दूसरे पत्र में प्रभुपाद ने लिखा, यहाँ पर हमारे उत्सव का भव्य स्वागत हुआ है और मैं सारी घटना से इतना प्रभावित था कि हाइड पार्क से ट्रैफाल्गर स्क्वायर तक मैं पूरे रास्ते चलता और नाचता रहा। प्रभुपाद भक्तिवेदान्त मनोर में नियमित रूप से रहने लगे। उन्होंने लिखा, "यह 'भक्तिवेदान्त मनोर' सबसे अच्छा, बढ़िया स्थान है। यह बहुत शान्त और निर्विघ्न है और गाँव बहुत साफ-सुथरा है।” दुमंजिले पर स्थित प्रभुपाद का कमरा इतना विस्तृत था कि उसमें पचास अभ्यागत आराम से बैठ सकते थे। उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं जो लम्बे-चौड़े मैदान की ओर खुलती थीं। प्रभुपाद ने कहा कि यदि भक्तगण झील और मैदान की सफाई कर सकें तो वे भक्तिवेदान्त मनोर में ही रह कर शान्तिपूर्वक अनुवाद - कार्य करेंगे। उन्होंने कहा कि उन्हें कुछ गाएँ लानी चाहिए और कुछ और अधिक जमीन में खेती करनी चाहिए । यद्यपि बहुत समय से भक्त मनोर में नहीं रह रहे थे और उन्होंने न इमारत और मैदान में कोई सुधार ही किया था, प्रभुपाद ने उस में एक स्थान की ओर इशारा करते हुए कहा कि वहाँ एक दिन वे एक तीस - मंजिला मंदिर बना सकते हैं जो पूरे लंदन का सबसे विशाल भवन होगा। उनका प्रस्ताव था कि वे कम-से-कम दो महीने वहाँ रहेंगे और जन्माष्टमी के दिन राधाकृष्ण अर्चा-विग्रहों की स्थापना करेंगे। वे मंदिर - कक्ष और वेदी के निर्माण की भी देख-रेख करेंगे। प्रत्येक दिन छह बजे सवेरे प्रभुपाद मनोर से एक घंटे के प्रातः भ्रमण के लिए जाते थे। उनके साथ कौन-कौन जायँगे, इस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था, और कभी कभी तो बीस भक्त तक उनके पीछे लग लेते थे। वे सुनने की कोशिश में रहते कि प्रभुपाद क्या कहते हैं । क्षितिज की ओर देखते हुए प्रभुपाद ने टिप्पणी की कि 'लेचमोर हीथ' से उन्हें वृन्दावन का स्मरण हो आता है । प्रभुपाद गली में चलते हुए राउंड बुश नामक स्थान पर पहुँचते, गेहूँ के एक खेत का चक्कर लगाते और अंत में लेचमोर हीथ और मनोर लौट आते । स्थानीय पुलिस का एक आदमी शिष्यों का मित्र बन गया था और नित्य प्रभुपाद को नमस्कार करता था । प्रभुपाद को उस छोटे से गाँव की स्वच्छता बहुत पसंद थी और वे मनोर मैदान पर पड़े छोटे-से छोटे कचरे की ओर भी प्रायः उंगली उठा देते थे। वे कहते थे कि यह गाँव अमेरिका के नगरों की तुलना में कहीं अधिक साफ-सुथरा था । श्यामसुंदर ने प्रभुपाद से वायदा किया था कि उनसे मिलने बहुत से लोग आएँगे और प्रभुपाद ने उत्तर में कहा था कि जब तक उनके आन्दोलन में रुचि रखने वाले लोग उनके पास आते रहेंगे वे इंगलैंड में ठहरे रहेंगे। हर दिन-रात में प्रभुपाद से मिलने एक-दो मेहमान आ जाते थे— जिन में विद्वान् पादरी और कभी - कभी विख्यात पुरुष शामिल होते थे । वे प्रभुपाद के साथ एक-दो घंटे रुकते थे। प्रबुद्ध लोगों के सम्मुख कृष्णभावनामृत की विचारधारा को प्रस्तुत करने के लिए प्रभुपाद विशेष रूप से उत्सुक रहते थे। वैष्णव परम्परा में गीता और भागवत के संसार के सबसे बड़े दार्शनिक के रूप में प्रभुपाद ने वैदिक साहित्य के निष्कर्षों को पूर्णतः आत्मसात् कर लिया था। नास्तिक दर्शनों और सभी चुनौतियों की काट करने में वे निष्णात थे और वे जानते थे कि ईसाइयों, मायावादियों, अनीश्वरवादियों और उनकी तरह के अन्य लागों से किस बात की आशा की जा सकती है। यदि कोई अभ्यागत किसी ऐसे दार्शनिक या सम्प्रदाय का उल्लेख करता जिसे प्रभुपाद न जानते होते तो वे सरल भाव से पूछ बैठते, “उनकी विचारधारा क्या है ?" अनिवार्यतः वे उस 'नई' विचारधारा का मूल्य आंक कर कहते कि यह वही पुरानी, परिचित सांसारिकता से लिप्त विचारधारा है जिस में शायद एक नया मोड़ मिला दिया है। वे आसानी से उसे पराजित कर देते या कृष्णभावनामृत से मिलाकर उसे पूर्णता प्रदान करते । प्रभुपाद कृष्ण की महिमा का गुणगान करने और उनका संदेश दुहराने को सदा उत्सुक रहते थे और पूरे उत्साह एवं ताजगी के साथ वे उन्हीं बातों को फिर-फिर दुहराते थे जिन्हें वे पहले कई बार कह चुके होते थे । वे कहते थे । कि वे उस गाय के समान हैं जो हर खेत में दूध देती है। उन्हें कोई भारत में रखे, अमेरिका में रखे या इंगलैंड ले जाय वे भगवद्गीता का वही अमृततुल्य दूध सर्वत्र देंगे । प्रभुपाद का पूरा दिन दर्शन को समर्पित था— चाहे वे चैतन्य - चरितामृत पर बड़े तड़के डिक्टेशन दे रहे हों, प्रातः भ्रमण के लिए निकले हों, भगवद्गीता पर भाषण दे रहे हों या अभ्यागतों से वार्तालाप कर रहे हों। स्काटलैंड में जब एक व्यक्ति ने चुनौती दी थी कि भगवान् को दर्शन के माध्यम से प्रस्तुत करने की जरूरत नहीं है तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, "आप मुझसे किस विषय पर वार्ता की आशा रखते हैं, क्या मैं परियों की कहानियाँ सुनाऊँगा ?" दर्शन आवश्यक था — विशेषकर तथा कथित प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए, जिनके मन में तरह-तरह की बौद्धिक शंकाएँ उठती रहती हैं। इसके अतिरिक्त, कृष्ण के सम्बन्ध में लोगों को बराबर बताते रहना, प्रेम का लक्षण है। दूसरों के कष्टों से द्रवित होकर प्रभुपाद सदैव कृष्ण के संदेश के बारे में बात करते थे और ऐसा करने में वे कभी थकते नहीं थे। वे सच्चे मन से उन निरीश्वरवादी विचारकों से असंतुष्ट थे जो लोगों को भ्रमित करते हैं, क्योंकि भौतिकतावादी और निर्वैशेषिक दर्शनों से किसी व्यक्ति के जीवन के दुख से मुक्ति पाने के सारे अवसर नष्ट हो जाते हैं । प्रभुपाद जब भी किसी को मायावादी सिद्धान्त के पक्ष में बोलते सुनते तो वे आगबबूला हो जाते थे । वे इसे सहन नहीं कर सकते थे। उन्हें उसे सही मार्ग पर लाना पड़ता था। जब, मनोर में अपने एक व्याख्यान के बाद प्रभुपाद ने एक लड़के को यह कहते सुना कि किसी ने उसे बताया था कि हरे कृष्ण का कीर्तन "एक प्रकार की झाँसा - पट्टी है" तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, "कौन कहता है कि झाँसा पट्टी है ? वह मूर्ख कौन है ? वह दुष्ट कौन है ?” कृष्ण की महिमा बनाए रखने के लिए वे अनीश्वरवादियों से लड़ने को तैयार थे। ये प्रभुपाद की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ थी; अतः बिना रुके वे चलते जा सकते थे, और आगे चलते जा सकते थे। वे लोगों को कृष्णभावनामृत देना चाहते थे। उन्हें दूसरा जीवन नहीं मिलना था। अपने कक्ष के एकान्त में विश्राम करते हुए भी वे सदैव कृष्णभावनामृत की ही बात करते थे । भक्तों ने अनेक सुविख्यात ब्रिटिश नागरिकों को श्रील प्रभुपाद से मिलने के लिए आमंत्रित किया था । आमंत्रितों की ओर से अच्छी प्रतिक्रिया रही। अर्थशास्त्री अर्न्स्ट शूमेकर ने प्रभुपाद से मिलने का वचन दिया और दार्शनिक सर अल्फ्रेड जे. आयर ने भी । जब श्यामसुंदर ने प्रभुपाद को बताया कि आयर विख्यात दार्शनिक हैं तो प्रभुपाद ने पूछा, “उनका दर्शन क्या है ? " श्यामसुंदर ने उत्तर दिया, " वे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते । " प्रभुपाद बोले, "मैं उन्हें प्रमाण दूँगा । मैं उनसे पुछूंगा कि “ ईश्वर के अस्तित्व” से उनका तात्पर्य क्या है। मैं उनसे ईश्वर के अस्तित्व की कमियों की एक सूची बनाने को कहूँगा ।" प्रभुपाद को दार्शनिकों से मिल कर उन्हें कठिनाई में डाल कर पराजित करना पसंद था । इतिहास वेत्ता अर्नोल्ड टायन्बी वृद्ध और अशक्त थे; अतएव प्रभुपाद उनसे उनके घर पर मिलने को सहमत हो गए। डा. टायन्बी की रुचि मृत्यु के बाद जीवन की चर्चा करने में थी, अतः उन्होंने प्रभुपाद से 'कर्म' के विषय में पूछा। उन्होंने कहा, अधिकतर लोग मृत्यु से डरते हैं । प्रभुपाद ने इसे स्वीकार किया और कहा कि एक ज्योतिषी के अनुसार भारत के एक हाल के नेता ने कुत्ते के रूप में जन्म लिया है। उन्होंने कहा, “अतः वे भयभीत हैं कि उनका पतन होगा ।" जब टायन्बी ने पूछा कि क्या कर्म बदला जा सकता है, तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया – हाँ, किन्तु केवल भक्ति से । टायन्बी, " पश्चिम में इस तरह सोचने वाले बहुत लोग नहीं हैं । ' प्रभुपाद : " वे कम बुद्धिवाले हैं। यह अच्छा नहीं है। यदि वे कृष्णभावनामृत को स्वीकार कर लें तो वे अपना कार्य करते हुए नगर में रह सकते हैं, किन्तु वे अपनी चेतना में परिवर्तन ला सकते हैं । तब हर चीज स्वतः प्राप्त हो जायगी ।' श्रील प्रभुपाद ने उस ग्रंथ के बारे में पूछा जो टायन्बी लिख रहे थे, और प्रोफेसर टायन्बी ने उत्तर दिया कि वह ग्रंथ वर्तमान ग्रीस पर प्राचीन ग्रीस के प्रभाव के सम्बन्ध में था। प्रभुपाद ने कहा, “ ग्रीक लोग भारत से आए थे । वैदिक संस्कृति पहले समस्त संसार में फैली थी। धीरे-धीरे एक नए प्रकार की संस्कृति का आगमन हुआ जैसे अभी हाल का भारत और पाकिस्तान का विभाजन । प्रभुपाद ने बताया कि किस तरह भविष्य में सरकारें बदमाशों और चोरों के हाथों पड़ जायंगी जिनका एकमात्र धंधा जनता का शोषण होगा । खाद्यान्नों का अभाव होगा । और सरकारें इतना अधिक कर थोपेंगी कि जनता परेशान होकर जंगलों की शरण में जाने को बाध्य होगी। केवल ईश्वर - चेतना वाले लोग स्वतंत्र होंगे। भविष्य दोषों का सागर होगा, किन्तु बचाव का एक मार्ग होगा : केवल कृष्ण के नाम का जप करने से दोषों से मुक्ति हो सकेगी। प्रभुपाद ने कहा कि आज भी हिप्पी लोग जंगलों को जा रहे हैं, लोग अपनी पत्नियों और धन से अलग होकर निराशा में जंगलों और पहाड़ों की राह ले रहे हैं। प्रभुपाद ने कहा, "इस तरह आप भविष्य के बारे में बता सकते हैं । " अर्नोल्ड टायन्बी : “भारत में क्या राजनेता लोग वेदों को रखते हैं ?" प्रभुपाद : “नहीं, उन्होंने वेदों को फेंक दिया है। वर्तमान भारत के राजनेताओं को वेदों से संतोष नहीं है। उन्होंने वेदों को पानी में फेंक दिया है। मैंने भारतीयों और अमरीकनों में नए सिरे से आरंभ किया है और अगले दस हजार वर्षों में कृष्णभावनामृत की वृद्धि होगी । तब कलियुग का बुरा समय होगा। दस हजार वर्ष कोई अल्प काल नहीं है। कृष्ण के लिए यह हमारा धर्म है।' अर्नोल्ड टायन्बी : “क्या आप बहुत अधिक यात्रा करते हैं ? " प्रभुपाद : “हाँ, समग्र संसार की । " एक दाढ़ी वाला युवा पादरी, जो सामाजिक कार्यों में सक्रिय था, प्रभुपाद से मिला और प्रभुपाद के उकसाने पर उसने मांसाहार और बाइबल के विषय में उनसे बहस छेड़ दी। बहस के बीच हंसदूत और प्रद्युम्न मांसाहार के विरुद्ध बाइबल से उक्तियाँ उद्धृत करते रहे। पादरी के जाने के बाद प्रभुपाद ने हंसदूत को अपने कमरे में बुलाया और कहा, “यह बहुत अच्छा नहीं था कि हम बाइबल के आधार पर बोलते रहे। यह अच्छा होता कि हम गीता के आधार पर बोलते। हम उनसे समझौता का सहयोग प्राप्त करने के लिए परेशान क्यों हों? वे कभी आश्वस्त न होंगे। पोप से मिलने से क्या लाभ होगा ?” प्रभुपाद ने कहा, “ मांसाहार की ओर जिनका झुकाव है वे बाइबल से कोई-न-कोई उद्धरण खोज लेंगे, जैसे प्रलय के पश्चात् नोहा का प्रतिज्ञापत्र । उन्होंने कहा, " हम यह भी नहीं जानते कि बूचड़खाने में कैसी भयावह चीजें घटती रहती हैं। इन्हें कोई नहीं देखता । ' अगले दिन प्रातः भ्रमण में प्रभुपाद पादरी से हुई बहस के बारे में बात करते रहे। उन्होंने कहा, “धर्म के नाम पर वे लोग हत्या करते हैं। भागवत् में कहा गया है कि धर्म को इस तरह ठगने वाले लोगों को ठोकर मार कर निकाल दिया जाता है; केवल भगवान् के आराधकों को शरण मिलती है।' भक्त : “पिछली रात पादरी ने कहा कि ईसा मसीह माँस खाते थे । " प्रभुपाद : " तो ईसा मसीह अपना ही खण्डन करते थे। उन्होंने ही कहा है, 'तू हत्या नहीं करेगा।' किसी को ईश्वर की नकल नहीं करनी चाहिए। भारत में हिप्पियों की तरह रहने वाले साधू गांजा पीते हैं और शिव का भक्त होने का दावा करते हैं। नहीं, हमें शक्तिशाली नियंताओं का अनुकरण नहीं करना चाहिए। उस पादरी ने यह भी कहा था कि बाइबल में यह नहीं कहा गया है कि 'तू हत्या नहीं करेगा, वरन् लिखा है कि 'तू वध नहीं करेगा।' अतः मैने उससे कहा कि यदि मूल हिब्रू में वास्तव में 'तू वध नहीं करेगा' है तो ईसा मसीह जरूर चतुर्थ या दसवीं श्रेणी के वधिकों को उपदेश दे रहे होंगे । और इसका प्रमाण यह है कि उन्होंने उनका वध कर दिया । तो ऐसे लोग ईश्वर के विषय में क्या समझ सकते हैं ? जब मैंने ऐसा कहा तो पादरी चुप हो गया। वह उत्तर नहीं दे सका।' एक दूसरा पादरी प्रभुपाद से मिलने आया और फिर वही प्रश्न उठ खड़ा हुआ। प्रभुपाद ने उससे पूछा, “ तो आप हत्या के पक्ष में हैं ? " पादरी ने उत्तर दिया, “यह एक गिरा हुआ संसार है । " प्रभुपाद ने कहा, “यह एक गिरा हुआ संसार है। किन्तु हमें गिरे हुओं के मध्य नहीं होना है।' पादरी ने नोहा के सौंगध पत्र का संदर्भ दिया। प्रभुपाद ने कहा, “संभव है कि नोहा ने उस समय इसकी अनुमति दे दी हो । वह समय प्रलय का था । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि आप हमेशा ऐसा करें। कठिन समय में जीवन की रक्षा के लिए कुछ भी खाया जा सकता है, किन्तु अब स्वस्थ रहने के लिए, बूचड़खाना के बिना, कितनी ही वस्तुएँ अत्यधिक मात्रा में प्राप्त हैं। भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं, "गायों की रक्षा करो, यह वैश्यों का धर्म है । " यद्यपि प्रभुपाद ईसाइयों से सहर्ष वादविवाद करते थे, किन्तु वे एकान्त में स्वीकार करते थे कि उनसे तर्क करना व्यर्थ है । वे कभी मानेंगे नहीं, हार कर भी ।" जनता में प्रचार का सर्वोत्तम उपाय हरे कृष्ण का कीर्तन था, जैसा कि रथ यात्रा उत्सव में हुआ था । कीर्तन करो, नर्तन करो, प्रसाद लो और हर एक को शामिल होने के लिए आमंत्रित करो। उन्होंने कहा, "वे ( ईसाई पादरी) तो अपने उपदेशों का भी पालन नहीं करते। एक लड़का मेरे पास आया और बोला कि वह बात करना चाहता था । उसने कहा, “मैं एक ईसाई हूँ ।" मैने उत्तर दिया, "तुम ईसाई नहीं हो । तू हत्या नहीं करेगा । " कलकत्ता से एक व्यक्ति प्रभुपाद से मिलने आया, किन्तु ज्यों ही उसने कृष्ण के बारे कुछ कहना शुरू किया प्रभुपाद ने उसे टोका, "कृष्ण को समझना बहुत कठिन है। हम अभी यह समझने का प्रयत्न कर रहे हैं कि दूसरा जन्म भी होता है । " वह व्यक्ति बोला, “किन्तु ईसाइ कहते हैं कि दूसरा जीवन नहीं होता। वर्तमान जीवन के अंत में आप या तो स्वर्ग जाते हैं, अथवा नरक ।' प्रभुपाद ने कहा, “यदि वे स्वर्ग जाने की बात करते हैं तो वह अगला जीवन है। किन्तु कृष्ण का ज्ञान हजारों व्यक्तियों में से केवल किसी श्रेष्ठ पुरुष को ही होता है । ' मि. कुमार नाम के एक व्यक्ति, जो कभी - कभी लंदन के मंदिर में रहते थे, प्रभुपाद के पास अनेक प्रश्न लेकर आए। उन्होंने कहा कि वे इस्कान के लिए कार्य करना चाहते हैं, किन्तु उन्हें भारत में अपनी माँ को भेजने के लिए पैसे चाहिए थे। प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, हमारे लोग चौबीस घंटे कार्य, बिना एक पाई लिए, करते हैं।” मि. कुमार ने इस्कान में सुधार लाने की भी बात की। उन्होंने कहा कि भक्तों को विद्वान् बनने के लिए अधिक अध्ययन करना चाहिए, विशेषकर संस्कृत का । प्रभुपाद ने अपनी असहमति जताई, उन्होंने कहा, "जिस चीज की हमें जरूरत है वह है समर्पण। मैं कोई बड़ा संस्कृत का विद्वान् नहीं हूँ। फिर भी मैं काम चला रहा हूँ। और विद्वान् भी मानते हैं कि ठीक चल रहा है। मेरे गुरु महाराज के गुरु महाराज — गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज — निरक्षर थे। तो भी उनके शिष्य भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद अपने समय के सबसे बड़े विद्वान् थे। लेकिन जब गौर किशोर बोलते थे तो वह विशुद्ध शास्त्र से बोलते थे। हमारा सिद्धान्त यह नहीं है कि कोई चीज सीखने में समय लगाएँ, विशेषज्ञ बनें, और तब प्रचार करें, किन्तु आप जो कुछ भी जानते हैं, उसका प्रचार कीजिए । प्रातः की कक्षा, सायंकालीन कक्षा और यदि वे मेरी पुस्तकें पढ़तें हैं, तो वह पर्याप्त होगा । " एक दिन भक्त गण प्रभुपाद के पास किसी समाचार-पत्र की कतरन लाए जिसमें आक्सफोर्ड के एक प्रोफेसर, डा. डी. जेहनर ने किसी धार्मिक सम्मेलन में कहा था कि भगवान् कृष्ण और उनकी भगवद्गीता के उपदेश “अनैतिक” । डा. जेहनर ने कहा था कि एक विख्यात हत्यारा कदाचित् भगवद्गीता से प्रभावित हुआ था, क्योंकि कृष्ण कहते हैं कि आत्मा अमर है, अतः कोई हत्या कर सकता है। श्रील प्रभुपाद प्रोफेसर के अज्ञान से निराश हुए, प्रात: भ्रमण के दौरान श्रील प्रभुपाद ने अपने सचिव को तर्क लिखाए जिनका प्रयोग डा. जेहनर के पत्र में करना था । जार्ज हैरिसन प्रभुपाद से उनके शिष्यों की ही भाँति विनीत भाव से मिला । प्रभुपाद और हैरीसन दोनों ने प्रसाद साथ-साथ ग्रहण किया जिसमें समोसे, हलवा, सब्जियाँ, श्रीखंड तथा पूरियाँ थीं। जब वे प्रसाद का आनंद ले रहे थे, प्रभुपाद ने उल्लेख किया कि वृंदावन के कुछ पंडे बड़े खाऊ होते हैं। एक बार एक ने तो इतना खा लिया कि वह मरने लगा, किन्तु उसने पुत्र को आश्वस्त किया, “इतना तो है कि मैं खाने से मर रहा हूँ, भूख से नहीं। भूख से मरना अयशकर है।” जार्ज से बातें करते समय प्रभुपाद मुसकरा रहे थे और मनोर के दान के लिए उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा, " क्या आपने मेरा कमरा देखा है ? यह वास्तव में आप का मकान है, किन्तु कमरा मेरा है । " जार्ज ने प्रतिरोध करते हुए शिष्य जैसे विनम्र स्वर में कहा, "नहीं, यह कृष्ण का घर है और कमरा आपका है। " जब जार्ज ने प्रभुपाद से एकान्त में कहा कि कृष्ण-भक्ति अंगीकार करने से उसके मित्र छूटते जा रहे हैं तो प्रभुपाद ने कहा कि चिन्ता मत करो। उन्होंने गीता से पढ़ कर यह उद्धरण उसे सुनाया जिसमें कृष्ण कहते हैं कि मुझे केवल भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है। जार्ज ने कहा, "भविष्य में इस्कान इतना विशाल हो जायगा कि इसे कार्यकारी प्रबन्ध की आवश्यकता होगी। प्रभुपाद : " मैने संसार को बारह मण्डलों में विभाजित कर दिया है जिसके बारह प्रतिनिधि हैं। जब तक वे आध्यात्मिक सिद्धान्तों का पालन करते रहेंगे, तब तक कृष्ण उनकी सहायता करेंगे । " जाने के पूर्व जार्ज ने प्रभुपाद को विश्वास दिलाया कि वह मंदिरों की संख्या बढ़ाने में उनकी सहायता करेगा। बाद में प्रभुपाद ने टिप्पणी करते हुए कहा, " जार्ज को कृष्ण से आंतरिक आशा मिल रही है । " एक दिन एक पुराना परिचित, एलेन गिन्सबर्ग, आ टपका । वह डेनिम्स, गेलिस और एक पुरानी कमीज पहने था और एक छोटा भारत - निर्मित हारमोनियम लिए था। प्रभुपाद ने पूछा “तुम अभी भी हरे कृष्ण का जप कर रहे हो ?” एलेन ने उत्तर दिया, "हाँ, मैं अभी भी हरे कृष्ण का जप करता हूँ, किन्तु मैं दूसरी चीजों का भी स्वागत करता हूँ।” एलेन ने पूछा " क्या आप मेरा जप और हारमोनियम बजाना सुनना चाहेंगे ?” प्रभुपाद ने सिर हिलाकर उसका स्वागत किया। एलेन ने हारमोनियम बजाते हुए ऊं का जप आरंभ किया। हर बार ओम् कहने में उसका स्वर गहरा होता जा रहा था — ओऽऽम् । जब जप समाप्त हुआ प्रभुपाद हंसने लगे। उन्होंने कहा, “तुम जो कुछ जपना चाहो, जप सकते हो, किन्तु हरे कृष्ण जप करते रहो। जब तक हरे कृष्ण का जप करते रहोगे, बाकी सब कुछ ठीक है।” तब प्रभुपाद ने अनेक भक्तों को एक महान् आनन्दप्रद कीर्तन में भाग लेने की अनुमति दी । जार्ज हैरिसन के माध्यम से एक अन्य सुप्रसिद्ध पॉप गायक और संगीतज्ञ, डोनोवन, हरे कृष्ण आन्दोलन के महान् नेता, श्रील प्रभुपाद, के पास भेंट करने के लिए आया । डोनोवन के साथ उसके संगीतज्ञ मित्र तथा मिनी स्कर्ट पहने दो मित्र युवतियाँ थीं। वे प्रभुपाद के सम्मुख बेढंगे रूप में चुप चाप बैठ गए। प्रभुपाद ने कहा, "वेदों में एक श्लोक है जिसका अर्थ है कि संगीत शिक्षा का सर्वोत्कृष्ट रूप है।” यह कह कर वे बताने लगे कि एक संगीतज्ञ कृष्ण की सेवा किस प्रकार कर सकता है। प्रभुपाद ने कहा, “तुम्हें अपने मित्र जार्ज का अनुकरण करना चाहिए। हम तुम्हें विषयवस्तु बताएँगे और तुम गीत लिखना । " प्रभुपाद ने कहा कि कृष्ण की सेवा में कुछ भी, यहाँ तक कि धन भी लगाया जा सकता है। डोनोवन की युवती मित्र ने बीच में टोका, "किन्तु धन तो भौतिक है । " प्रभुपाद ने कहा, “तुम कैसे जानती हो कि क्या भौतिक है और क्या आध्यात्मिक है ?" फिर वे डोनोवन की ओर मुड़े, “क्या तुम जानते हो ?” डोनोवन ने नम्रभाव से कहा कि मेरा दिमाग मोटा है, लेकिन मैं प्रयत्न करता हूँ। फिर उसकी युवती मित्र उसके ऊपर झुक कर उसके कान में कुछ फुसफुसाई । इस पर डोनोवन उठ खड़ा हुआ और बोला, “अच्छा, अब हमें चलना चाहिए ।" प्रभुपाद ने आग्रह किया कि कम-से-कम कुछ प्रसाद तो ग्रहण कर लें। ज्योंही अतिथि गए, प्रभुपाद और उनके शिष्य हँसने लगे। प्रभुपाद ने कहा, 'वह सोच रही थी...." और उन्होंने शिष्यों को वाक्य पूरा करने को प्रोत्साहित किया । योगेश्वर बोला, “हाँ, वह सोच रही थी कि यदि कृष्ण उसे स्वीकार कर लेंगे तो वह उसे खो देगी।" प्रभुपाद को अपने महत्त्वपूर्ण अतिथियों के समक्ष प्रवचन करना इतना पसन्द था कि वे जहाँ भी जायँ ऐसा करते रहना चाहते थे। उन्होंने अपने एक शिष्य को एक पत्र में लिखा, “जहां भी मैं जाऊं, कृष्णभावनामृत आंदोलन के विषय में महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को मुझसे बातें करने के लिए आमंत्रित करने की यह नीति पूरी तरह जारी रखनी चाहिए।" मनोर में एक मास बीत गया किन्तु जन्माष्टमी तथा प्रतिमा स्थापना के लिए अभी कई सप्ताह शेष थे । अतः जब भगवान् ने प्रभुपाद को पेरिस आकर राधाकृष्ण श्रीविग्रहों को स्थापित करने को आमंत्रित किया तो प्रभुपाद ने उसे स्वीकार कर लिया । *** पेरिस ९ अगस्त, १९७३ भक्तों ने सिटी हाल में प्रभुपाद के सरकारी अभिनन्दन का प्रबन्ध किया था । पेरिस के मेयर और उसकी सरकार के अन्य अधिकारियों की उपस्थिति में प्रभुपाद ने कहा कि यदि सरकारी नेता नागरिकों को प्रामाणिक ईश्वर - भक्ति की शिक्षा नहीं देते, तो वे उत्तरदायित्वपूर्ण नेता नहीं हैं। अगले दिन के समाचार-पत्र में संवाददाता ने इस भाषण को इस तरह छापा कि स्वामी ने नैपोलियन बोनापार्ट तक की आलोचना की । भगवान: पेरिस के ४ रयू ले स्योर मंदिर में हमारा प्रवेश अभी हाल में ही हुआ था । हमने ४८ इंच के राधा और कृष्ण के अर्चा-विग्रह प्राप्त कर लिए थे। प्रभुपाद प्रद्युम्न से मन्त्रोच्चारण कराकर अर्चा-विग्रहों को पूजा सामग्रियाँ अर्पित कर रहे थे और स्वयं व्यास- आसन पर बैठे-बैठे निर्देश दे रहे थे। मैं सहायता कर रहा था। एक बार जब मैं पीछे मुड़ा तो मैंने देखा कि प्रभुपाद मेरी ठीक बगल में खड़े हैं और वस्तुएँ अपने हाथ में लेकर उन्हें श्रीमती राधाराणी के कमल जैसे मुख पर पोत रहे हैं। जब श्रीविग्रह वेदी पर स्थापित हो चुके तो श्रील प्रभुपाद ऊपर आए और उन्होंने आरती की। वस्तुएँ दे दे कर मैं उनकी सहायता करता रहा । स्थापना के बाद हम ऊपर श्रील प्रभुपाद के कमरे में गए और उनसे आग्रह किया कि कृपापूर्वक श्रीविग्रहों का नामकरण करें। वे अपनी कुर्सी में बैठ गए और बोले कि ये श्रीविग्रह राधा - पेरिस - ईश्वर कहलाएँगे । फिर वे कहने लगे कि भारत के लोग शिक्षा के लिए इंगलैंड और इन्द्रियतृप्ति के लिए पेरिस इसलिए आए हैं कि उन्हें कुछ युवतियाँ, कुछ फ्रांसीसी लड़कियाँ मिल जायँ, क्योंकि पेरिस की स्त्रियों के मुखमण्डल सबसे सुंदर माने जाते हैं। प्रभुपाद ने कहा, "राधारानी इतनी सुंदर है जैसे कोई पेरिस की लड़की हो । और कृष्ण इन सबसे सुंदर लड़की की खोज में आए हैं। अतः वे पेरिस - ईश्वर हैं । *** अगस्त १५ प्रभुपाद लंदन वापस आए जहाँ उन्हें भारत से ताजा डाक मिली । हैदराबाद में इस्कान की जमीन के इकरारनामा के सम्बन्ध में कानूनी उलझन पैदा हो गई थी। प्रभुपाद ने अपने शिष्य महांस को लिख कर आगाह किया कि वह बम्बई के मामले की तरह हैदराबाद में एक नए मामले में न फँसे । जब प्रभुपाद को यह समाचार भी मिला कि वृंदावन में निर्माण कार्य प्रगति पर है तो उन्होंने लिखा, मुझे यह जान कर प्रसन्नता हुई है कि किस प्रकार तुम लोग वृंदावन मंदिर की योजना को पूरा करने में लगे हो और अपने मस्तिष्क पर भार डाल रहे हो कि यह योजना कैसे पूरी हो। मैं कृष्ण से भी सदैव प्रार्थना कर रहा हूँ कि वे इसे अच्छी तरह पूरा करने के लिए तुम लोगों को सुबुद्धि दें। हवाई के एक शिष्य को लिखे गए पत्र में प्रभुपाद ने खेद प्रकट किया कि वे उसे पहले नहीं लिख सके, मैं बम्बई में जुहू की जमीन के बारे में जो मि. एन. की थी, बहुत व्यस्त था । अब वह मर कर अपनी गति को प्राप्त हो गया है, लेकिन उसने हमारे लिए कितनी कठिनाइयाँ पैदा कर दी थीं।... अब भी कुछ कमी है। लेकिन मुझे आशा है कि उसे शीघ्र दूर कर लिया जायगा । बम्बई में तमाल कृष्ण गोस्वामी को लिखते हुए प्रभुपाद ने वहाँ की कठिनाइयों के विषय में पहले जैसी ही चिन्ता व्यक्त की । यद्यपि भक्तों का भूमि पर अधिकार था और उन्होंने अपना अस्थायी मंदिर वहाँ बना लिया था, किन्तु उसे खरीदने के लिए कोई समझौता अभी दिखाई नहीं दे रहा था । यदि श्रीमती एन. हमें भूमि बेच नहीं देती तो हमारा अगला कदम क्या होगा ?... हमने उसके विरुद्ध एक फौजदारी केस दर्ज कर रखा है कि उसने बलपूर्वक हमें जमीन से निकालने की कोशिश की, उस केस का क्या हुआ ? मतलब यह है कि यदि वह जमीन की विक्री हमारे हाथ नहीं करती और साथ ही हमारा धन क्षतिपूर्ति और व्याज के साथ वापस नहीं करती और समय-समय पर हमें जमीन से निकालने की कोशिश करती है तो ऐसी हालत में हमें क्या कदम उठाने होंगे ? उसने हमें इतना कष्ट दिया है और हमारे लिए इतनी कठिनाइयाँ पैदा की हैं... । और प्रभुपाद ने मायापुर में अपने शिष्यों को लिखा, तो, मायापुर का निर्माण कार्य मेरे वहाँ पहुँचने के पहले अच्छी तरह पूरा हो जाना चाहिए। जब मैं अगली बार वहाँ आऊँ तो न तो वहाँ कोई मजदूर होने चाहिए और न खट-खट करने वाले बढ़ई । मैं मायापुर में बराबर रहा होता, किन्तु खटर-पटर के कारण मुझे भागना पड़ा। वहाँ का कार्य पूरा हो जाय तभी मैं आ सकता हूँ, अन्यथा नहीं । प्रभुपाद ने अमेरिका के दर्जनों पत्रों का भी उत्तर दिया, जहाँ उनके भक्त उनकी पुस्तकों के वितरण में और अधिक गहरी रुचि लेने लगे थे। उनके पत्रों में गंभीर प्रश्न थे जिनका समाधान केवल प्रभुपाद ही कर सकते थे । पुस्तकों का वितरण कितना महत्त्वपूर्ण था ? क्या भक्तजन अपना चोला छोड़ सकते थे और सामान्य पाश्चात्य वेशभूषा धारण कर सकते थे जिससे जनता में पुस्तकों के वितरण में अधिक सुविधा हो ? क्या सड़कों में संकीर्तन करना पुस्तक-वितरण से अधिक महत्त्वपूर्ण था ? बस या ट्रक द्वारा देहात की यात्रा कैसी रहेगी ? क्या वे ट्रकों में श्रीविग्रहों के साथ जा सकते थे ? भक्तों ने प्रभुपाद को लिखे अपने पत्रों में सामान्य रूप से अपने विचारों का उल्लेख किया, किन्तु उन्हें प्रभुपाद के स्पष्ट उत्तर की सम्मानपूर्वक प्रतीक्षा थी । कृष्णभावनामृत आन्दोलन अब विशाल हो गया था और उसके विशालतर होने की संभावना थी । और इस्कान के अंदर प्रभुपाद की इच्छा इतनी शक्तिशाली थी कि उनका केवल एक पत्र वर्षों के लिए नीति-निर्धारण कर देता था। प्रभुपाद मैनोर के अपने कमरे में शान्तिपूर्वक बैठे, नित्यप्रति के अपने कार्यक्रमों, जैसे स्नान करना, प्रसाद ग्रहण करना, संध्या को अभ्यागतों से मिलना आदि, में लगे प्रतीत होते थे, किन्तु साथ ही वे संसार भर के हजारों युवकों और युवतियों को दिशा-निर्देश देने और माया के विरुद्ध युद्ध में तत्पर करने का काम भी करते रहते थे। मेरी पुस्तकों के वितरण के लिए पाश्चात्य वेश-भूषा में जाने में कोई आपत्ति नहीं है । हमेशा अपना चोला धारण करना आवश्यक नहीं है, किन्तु शिखा रखना और तिलक लगाना जरूरी है। जैसा तुम ने लिखा है सिर पर नकली बालों की टोपी या हैट पहन सकते हो। कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए जो भी अनुकूल स्थिति हो वह हम स्वीकार कर सकते हैं। अपने सिद्धान्त हमें नहीं भूलने हैं, किन्तु पुस्तकों का वितरण करने के लिए हम उनका अनुकूलन कर सकते हैं। किसी भी तरह पुस्तकों का वितरण करो और यदि तुम लोगों से थोड़ी देर कीर्तन करा सको तो तुम्हारा पहनावा क्या है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । भक्तों की ओर से इस स्पष्टीकरण के लिए प्रार्थना बराबर आती रही कि प्रभुपाद की पुस्तकों के बृहत् वितरण के उद्देश्य की पूर्ति में वे बाह्य साधन को कहाँ तक न्यायोचित बताते हैं । प्रभुपाद में कोई भौतिक प्रेरणा नहीं थी, इसलिए उन्हें स्पष्ट दिखाई देता था कि कृष्ण भक्ति के प्रचार के लिए क्या करना जरूरी है। तुमने जो सचल संकीर्तन दल का और पुस्तकों के विक्रय का प्रश्न उठाया है, तो, हाँ, हमें धन चाहिए । पुस्तकों का विक्रय ही वास्तविक प्रचार है । पुस्तकों से अच्छा कौन बोल सकता है ? जो पुस्तकें खरीदेगा, वह उन्हें कम-से-कम देखेगा तो । वास्तविक प्रचार पुस्तकों की विक्री करना है। किसी को नाराज किए बिना ही पुस्तकों की विक्री की तरकीब तुम्हें आनी चाहिए। तुम्हारे व्याख्यान से लगभग तीन मिनट का प्रभाव होगा, किन्तु यदि कोई पुस्तक का एक पृष्ठ पढ़ लेता है तो उसका जीवन ही बदल जायगा। लेकिन हम किसी को नाराज करना नहीं चाहते । यदि तुम्हारे आक्रामक व्यवहार से चिढ़ कर कोई चला जाता है तो यह तुम्हारी मूर्खता और विफलता होगी। न तो तुम पुस्तक बेच पाओगे, न वह तुम्हारे पास रुकेगा । किन्तु यदि वह पुस्तक खरीद लेता है तो वही सफल प्रचार है। मेरे गुरु महाराज का यही प्रमाण पत्र है कि यदि कोई ब्रह्मचारी एक पैसे की पत्रिका बेच लेता है या कोई ब्रह्मचारी हमारी पत्रिका की कुछ प्रतियाँ बेच लेता है तो वे बहुत प्रसन्न हो जाते थे और कहते थे कि, "ओह, तुम कितने अच्छे हो ।” अतः साहित्य का वितरण हमारा असली प्रचार है। यदि तुम इस मामले में ठीक से नहीं चल सकते तो यह तुम्हारी गलती है । तुम्हारी सफलता इस बात से सिद्ध होगी कि तुमने कितनी पुस्तकें बेची हैं। तुम जो भी चीज बेचना चाहो उसके लिए चर्चा द्वारा कुछ समर्थन जुटाना पड़ता है, इसी से कृष्ण की सेवा के लिए ग्राहक कुछ धन देता है। यह उसका भी सौभाग्य है, क्योंकि वह दिव्य ज्ञान के सम्बन्ध में कुछ पढ़ने का अवसर पाता है। लेकिन यदि तुम उसे चिढ़ा देते हो और वह चला जाता है, तो यह तुम्हारी मूर्खता या कम - बुद्धि होगी । भक्तों को दिए गए प्रभुपाद के निर्देश इतने महत्त्वपूर्ण होते थे कि उन से प्राप्त कोई पत्र उतना ही प्रभावशाली होता था जितनी उनकी व्यक्तिगत भेंट । ऐसे पत्रों से वे संसार भर में अपने शिष्यों के जीवन और उनके मामलों की देख-रेख करते थे। हर दिन दोपहर के पहले वे अपने सचिव को बुलाते और उससे आने वाले पत्रों को जोर से पढ़वाते और उनका उत्तर साधारणतया अविलम्ब लिखवा देते थे । वे प्राय: कहा करते थे कि गुरु के शरीर या उनकी व्यक्तिगत उपस्थिति से उनकी वाणी अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतः अपने पत्रों से वे अपने सच्चे अनुयायियों के लिए कृष्ण-भक्ति का मार्ग बनाते और प्रशस्त करते रहते थे। अमेरिका में प्रभुपाद का प्रचार कार्य मुख्यतः उनकी पुस्तकों के वितरण के माध्यम से चल रहा था, जबकि भारत में मंदिरों की स्थापना से । तब भी दोनों विधियाँ उनके लिए एक जैसी थीं। और यद्यपि उनकी दृष्टि - सीमा में समस्त संसार था, फिर भी वे अपने को अपने गुरु महाराज का केवल विनीत सेवक कहते थे। उनका प्रयत्न सदैव अपने गुरु महाराज की सेवा करने का होता, चाहे वे मेनोर के लॉन में बैठे किसी छोटे बच्चे से छेड़खानी कर रहे हों, अपने किसी सहायक को " प्रतिबद्ध आत्माओं के अंचलों में हजारों-लाखों पुस्तकों की वर्षा कर देने" को कह रहे हों, श्रीमद्भागवत के तात्पर्यो के अगले वाक्यांश के सम्बन्ध में पूरे उत्साह और तन्मयता से विचार कर रहे हों अथवा बम्बई में चल रहे श्रीमती एन. के षड्यंत्र पर चिन्ता कर रहे हों । प्रभुपाद को बम्बई से एक आपात्कालिक फोन मिला। गिरिराज चाह रहा था कि वे बम्बई आएँ और श्रीमती एन. से स्वयं जुहू की जमीन की खरीददारी तय कर लें । गिरिराज ने एक नए वकील, मि. बाखिल, से परामर्श किया था जिसकी राय थी कि मामला तय करने के लिए प्रभुपाद की उपस्थिति आवश्यक थी । इस्कान के एक अन्य वकील, मि. चंदवाल, की भी राय थी कि प्रभुपाद का अविलम्ब बम्बई पहुँचना आवश्यक था । अतः गिरिराज ने प्रभुपाद को फोन करके प्रार्थना की थी कि श्रीमती एन. से सदा-सदा के लिए निपटारा कर लेने के लिए वे बम्बई आ जायँ । प्रभुपाद राजी हो गए। वे जन्माष्टमी तक एक सप्ताह और लंदन में रहेंगे, उसके बाद बम्बई जायँगे । अगस्त २१ इंगलैंड में भारत के राजदूत, मि. रसगोत्रा, जन्माष्टमी - समारोह में सम्मिलित हुए और उन्होंने प्रभुपाद के महान् कार्य की सराहना करते हुए उनका परिचय कराया । प्रभुपाद ने, कृष्ण के आगमन को संकट - ग्रस्त भौतिक संसार की शान्ति के लिए एक मात्र समाधान बताते हुए, भाषण दिया। उन्होंने कहा, “विशेष रूप से भारत में, ईश्वर को समझने के लिए कितनी बड़ी पूँजी है। वहाँ हर वस्तु है, पहले से तैयार । किन्तु हम उसे स्वीकार नहीं करते। तो ऐसे रोग की ओषधि क्या है ? हम शान्ति खोज रहे हैं किन्तु उस चीज को स्वीकार नहीं करते जो शान्ति देगी। यही हमारा मर्ज है। अतएव कृष्णभावनामृत आन्दोलन हर एक के हृदय में सुप्त कृष्ण - चेतना को जगाने का प्रयत्न कर रहा है। अन्यथा, ये योरोपीय और अमेरिकन तथा अन्य देशों के लोग, जिन्हें आज से चार-पाँच वर्ष पूर्व कृष्ण के नाम का भी पता नहीं था, इतनी गंभीरता से कृष्णभावनामृत को क्यों स्वीकार करते ? अब कृष्ण - चेतना हर एक के हृदय में जाग गई है । ' प्रभुपाद ने ब्रह्म-संहिता से श्लोक सुनाए जिनमें कृष्णलोक में कृष्ण के अलौकिक शाश्वत निवास का वर्णन है। उन्होंने समझाकर बताया, “किन्तु कृष्ण सभी स्थानों में भी हैं। यदि आप भक्त हैं तो आप उन्हें पा सकते हैं। यदि आप उन्हें पाना चाहें तो आप की इच्छा से दस गुणा अधिक बार वे आप की ओर दौड़ते आते हैं। हमें केवल उनका स्वागत करना है। मंदिर में श्रीविग्रह की उपासना का तात्पर्य कृष्ण की उपासना है, जो परम ईश्वर हैं। उन्होंने अनुग्रहपूर्वक रूप ग्रहण किया है ताकि आप उस रूप की उपासना कर सकें। इसलिए यह न समझिए कि हमने एक संगमरमर की मूर्ति स्थापित कर दी है। दुर्जन कहेंगे "ये मूर्तिपूजक हैं।" नहीं, हम व्यक्तिगत कृष्ण की उपासना कर रहे हैं । कृष्ण ने अनुग्रहपूर्वक यह रूप इसलिए धारण किया है, क्योंकि हम उनके विराट् अथवा सर्वव्यापी रूप को नहीं देख सकते । कृष्ण की सेवा में चौबीसों घंटे लगे रहिए । इस अर्चा-विग्रह की स्थापना का यही उद्देश्य है । बम्बई सितम्बर १५, १९७३ यहाँ पहुँचने के दूसरे दिन प्रभुपाद श्रीमती एन. के सालीसिटरों से मिले और उनकी शर्तें सुनीं। स्थिति आशाजनक दिखाई देने लगी थी, किन्तु परिणाम का पता नहीं था। मंदिर तोड़वाने के अपने प्रयास के विरुद्ध जनता की प्रतिक्रिया से, श्रीमती एन. बदल चुकी थी । उसने अपने वकील से कहा कि यदि प्रभुपाद एक बार में बारह लाख रुपए का शेष भुगतान कर दें तो वह स्वीकार कर लेगी। प्रभुपाद राजी हो गए, किन्तु वे तब तक रुपयों का प्रबन्ध नहीं करना चाहते जब तक उन्हें निश्चय न हो जाय कि श्रीमती एन. सचमुच लेने को तैयार थी । बम्बई के वकील और इस्कान के आजीवन सदस्य, श्री असनानी, श्रीमती एन. से बराबर मिलते रहते थे और उसे समझाते रहते थे कि वह प्रभुपाद से सहयोग करे । उसके वकील सहमत थे। फिर भी प्रभुपाद के बम्बई में रहते कई सप्ताह बीत जाने पर भी, श्रीमती एन. की उनसे भेंट नहीं हुई। एक बार प्रभुपाद से मिलने के लिए श्री असनानी श्रीमती एन. को लेने गए, किन्तु उसकी तबियत अच्छी नहीं थी । नित्य - प्रति श्री असनानी प्रभुपाद से कहते " श्रीमती एन. कल आएगी।” इस तरह की टाल-मटोल से प्रभुपाद निराश हो गए, और यह देख कर उनके सचिवों ने मि. असनानी से कहा कि यद्यपि वे जानते थे कि मि. असनानी अच्छा ही चाहते हैं किन्तु अब उनकी रुझान इस ओर हो रही है कि मामले को अपने दूसरे वकीलों के हाथ में दे दें। मि. असनानी ने मामले को निपटाने और हस्तान्तरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए अड़तालीस घंटे का समय माँगा। श्रीमती एन. अपने दूसरे घर में थी जहाँ, जब मि. असनानी उससे मिले, वह अपनी बीमारी से अभी - अभी ठीक हुई थी। उन्होंने कहा, “ माताजी, मेरे गुरु महाराज कल जा रहे हैं। यदि आप आज रात को नहीं चलती तो जमीन का मामला एक साल के लिए लटक जायगा ।" श्रीमती एन. तैयार हो गई और लगभग नौ बजे रात्रि में वह श्री असनानी के साथ श्री भोगीलाल पटेल के घर पहुँची जहाँ प्रभुपाद कीर्तन तथा भगवत् - चर्चा का कार्यक्रम चला रहा थे। प्रभुपाद छत पर भाषण के लिए तैयारी कर रहे थे, किन्तु यह सुन कर कि श्रीमती एन आई है वे भाषण रोक कर उससे बात करने के लिए नीचे अपने कमरे में चले आए। दोनों में संक्षिप्त वार्ता हुई, फिर उससे क्षमा माँगते हुए प्रभुपाद भाषण देने छत पर चले गए । करीब आधी रात के समय वे अपने कमरे में फिर आए । श्रीमती एन. उनकी अभी भी प्रतीक्षा कर रही थी। वह फूट-फूट कर रो पड़ी और प्रभुपाद के चरणों पर गिर कर सिसकते हुए बोली, “मैंने जो कुछ किया है, उसके लिए मुझे खेद है। कृपा करके मुझे क्षमा करें।" उसने वचन दिया कि जो कुछ प्रभुपाद चाहेंगे, वह करेगी। प्रभुपाद ने उसे दया की दृष्टि से देखा और उसके मन की बात समझ ली । उन्होंने कहा, “तुम मेरी पुत्री - तुल्य हो । चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारी देखभाल करूँगा । तुम्हारे शेष जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति मैं करूँगा ।" और प्रभुपाद ने कहा कि वे अब भी उन सारी शर्तों को स्वीकार करते हैं जो उसने पहले रखी थीं कि वे शेष बारह लाख और विलम्ब की क्षतिपूर्ति के लिए पचास हजार रुपए का भुगतान करें। प्रभुपाद और श्रीमती एन. ने अंतिम रूप से दस्तावेज पर हस्ताक्षर के लिए एक नवम्बर की तिथि अस्थायी तौर पर निश्चित की। श्रीमती एन. से भेंट होने के तुरन्त बाद प्रभुपाद भोगीलाल पटेल के घर से श्री सेठी के घर में चले गए जहाँ वे शेष समस्याओं को सुलझाने में दत्तचित्त हो गए— जैसे सी. कम्पनी को तैयार करना कि वह अपना दावा वापस ले ले। उसके बाद प्रभुपाद श्री सी. एम. खटाऊ के घर में चले गए जो हरे कृष्ण लैंड से, जहाँ वे पहले बाँस के ढाँचे में चटाइयों की दीवालों से निर्मित एक सामान्य ग्रीष्म- कुटीर में रहा करते थे, केवल दो ब्लाक की दूरी पर था। आमतौर पर पट्टों पर हस्ताक्षर पुरानी बम्बई में रजिस्ट्रार के कार्यालय में उसकी उपस्थिति में होते थे, किन्तु मि. असनानी ने रजिस्ट्रार को प्रभुपाद के स्थान पर आने की व्यवस्था कर दी थी । शाम को साढ़े छह बजे प्रभुपाद, दो खिड़कियों के बीच की दीवाल के सहारे, अपने-सामने नीची चौकी रखे हुए बैठे थे। कमरे में श्रीमती एन., उसके वकील, रजिस्ट्रार, मि, असनानी, श्री तथा श्रीमती पटेल और करीब आठ भक्त उपस्थित थे जिससे कमरा गरम हो गया और दम घुटने लगा। जब रजिस्ट्रार हस्ताक्षर के लिए कागज तैयार करने लगा तब श्रीमती एन. प्रभुपाद की दाईं ओर बैठी थी । श्रील प्रभुपाद विचार - मन बैठे थे। कमरे में कागजों की सरसराहट और कलम की खिच खिच के अतिरिक्त पूर्ण शान्ति थी। पट्टे के कागजों की तैयारी और उन पर हस्ताक्षर होने में बीस मिनट से अधिक समय लग गया । प्रभुपाद ने श्रीमती एन. को भुगतान किया और उसने पट्टे पर हस्ताक्षर कर दिए । कानूनन अब भूमि इस्कान की हो गई । गिरिराज : हस्ताक्षर के समय कमरा शान्त था और हर एक को ऐसा लग रहा था मानो कोई बहुत महत्त्वपूर्ण घटना घटने जा रही है। —मानो विश्व की दो महान् शक्तियाँ हस्ताक्षर कर रही हों। जब श्रीमती एन. ने हस्ताक्षर कर दिए तो लोगों ने शान्ति से कागजों को हस्तान्तरित होते देखा । वह रोने लगी । तमाल कृष्ण गोस्वामी ने धीरे से उससे पूछा कि वह क्यों रो रही है तो श्रीमती एन. ने बताया कि उसी दिन श्री मंतर ने आकर उससे कहा था कि उसे एक अन्य खरीददार मिल गया है जो उसे प्रभुपाद से अधिक धन देने को तैयार था। वास्तव में जब हम सब श्रीमती एन. को देख रहे थे तो हम सोच रहे थे कि उस समय उसे वे सारी घटनाएँ याद आ रही होंगी जो पहले हो चुकी थीं— जैसे उसने हमारे साथ जो गलतियाँ की थीं, उसके पति की मृत्यु - महीनों के मिले जुले संघर्षों की तरह, समय बड़ा गहन था । जहाँ तक प्रभुपाद, भक्तों और प्रभुपाद के शुभेच्छुकों का प्रश्न है, उनके वर्षों के स्वप्न, उनकी इच्छाएँ और उनके प्रयत्न फलीभूत हो रहे थे । श्रील प्रभुपाद ने भक्तों से कहा कि वे समाचार पत्रों को सूचित कर दें। फिर उन्होंने सभी को भोजन के लिए अपने कमरे के बाहर हाल में बुलाया । दो पंक्तियों में चटाइयाँ बिछा दी गईं। भक्त पत्तलें ले आए और उन्हें हर एक के सामने रख दिया। दो पंक्तियों में बैठे अतिथियों को भक्तों ने विविध व्यंजन परोसना प्रारम्भ कर दिया । प्रभुपाद खड़े थे । वे परोसने का निरीक्षण कर रहे थे। तब वे बोले, 'आरंभ किया जाय,” भक्तों ने कई तरह के व्यंजन बनाए थे― चावल, दाल, कई तरह के पकौड़े (आलू, गोभी, तथा बैंगन के), आलू की सब्जी, पापड़, बर्फी, गोभी की रसेदार सब्जी, लड्डू, चमचम, सेवई की खीर, हलवा तथा नींबू-पानी । यह अत्यन्त उल्लास तथा प्रसन्नता का अवसर था । श्रीमती वारियर ( हरे कृष्ण - भूमि की एक किराएदार ) : हस्ताक्षर के बाद सभी भक्त 'जय' कह रहे थे और सभी प्रसन्न थे। तब प्रभुपाद ने बम्बई परियोजना पर एक भाषण दिया। उन्होंने लोगों को बताया कि मंदिर पूरी तरह संगमरमर का होगा। कोई भी चीज ऐसी नहीं होगी जो संगमरमर की न हो। कुछ लोग पूछ रहे थे कि सब कुछ संगमरमर का कैसे संभव होगा और प्रभुपाद ने लोगों को समझाया कि ऐसा संभव है और यह किया जायगा। वे परियोजना का काल्पनिक चित्र खींच रहे थे और उनका वर्णन सुन-सुन कर सभी लोग पुलकित हो रहे थे। यह संसार के सात आश्चर्यों में से एक जैसा होगा। सारे संसार के लोग इससे आकृष्ट होंगे और इसे देखने आएँगे। यह बम्बई का एक लैंडमार्क होगा। प्रभुपाद ने पूरी परियोजना का इस प्रकार वर्णन किया जैसे वे उसे अपने मन के नेत्रों से देख रहे हों। उन्होंने कहा कि जब यह बन कर पूरा हो जायगा तो यह हमारी कल्पना से बढ़ कर होगा। यह आश्चर्यजनक होगा । भोज के काफी समय बाद जब सब लोग चले गए तो प्रभुपाद अपने कमरे में गए। अपनी चौकी का सहारा लेते हुए वे बोल उठे, “यह अच्छा संघर्ष था !" बाद में बम्बई की भूमि के संघर्ष की कहानी बताते हुए प्रभुपाद कहा करते कि यह इस बात का प्रमाण है कि कृष्णभावनामृत के व्यक्ति के लिए कोई समस्याएँ नहीं होतीं। कई महीने बाद जब वे योरोप की यात्रा पर थे तो उन्होंने कहा, "हमने बम्बई की परियोजना पर अठारह-बीस लाख रुपए खर्च किए । उस जायदाद की कीमत वास्तव में पचास लाख रुपया होगी। लोगों को आश्चर्य है और कुछ को ईर्ष्या है। लेकिन अगर तुम वहाँ आओ तो तुम देखोगे कि वह बहुत ही अच्छा स्थान है। यह बीस हजार वर्ग गज का मानो स्वर्ग - उद्यान है, इस पर छह इमारते हैं। अतएव जब हम कृष्णभावनामृत को प्राप्त कर लेते हैं तब कोई समस्या नहीं रह जाती। निस्सन्देह, भूमि में बहुत अधिक संभावनाएँ थीं, बहुत अधिक संभावनाएँ थीं, किन्तु वे यह क्यों कह रहे थे कि कोई समस्याएँ नहीं थीं ? " कोई समस्याएँ नहीं” का तात्पर्य यह था कि श्रील प्रभुपाद जानते थे कि स्वयं कृष्ण ने किस प्रकार अपने भक्तों के लिए सब व्यवस्था कर दी थी। जब उन्हें धन की आवश्यकता हुई तो धन इतनी मात्रा में आया कि सामान्य अवस्था में उसका संग्रह असंभव था । घोर विरोध को भी कृष्ण ने दूर कर दिया था। प्रभुपाद के लिए नियमित आय का कोई साधन नहीं था और श्रीमान् एवं श्रीमती एन. जैसे व्यक्तियों से लड़ने के लिए उनके पास कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं था; किन्तु चूँकि प्रभुपाद कृष्ण के प्रति समर्पित थे, इसलिए उनके लिए कोई समस्या न थी । संसार की सभी समस्याएँ अभक्तों की पैदा की हुई थीं जो परमात्मा के आदेशों का उल्लंघन करते थे। प्रभुपाद ने कहा, "जो कोई भी भक्ति योग में है वह समझ सकता है कि उसकी सभी समस्याएँ सुलझ जाती हैं। हम इसे व्यवहार में देख सकते है | और इतना होने पर भी श्री प्रभुपाद को भक्तिहीनों द्वारा पैदा की गई समस्याओं का सामना करना पड़ता था। करीब दो वर्षों से वे कृष्ण की सेवा के निमित्त भूमि के लिए संघर्ष करते रहे थे। वे चाहे बम्बई में हों या अन्यत्र, अपने अनुभवहीन शिष्यों की सहायता के लिए वे बराबर चिन्तित रहते थे, क्योंकि शिष्य विरोधी दल की चालों से निपटने में समर्थ नहीं थे। यह उनके लिए एक अग्नि परीक्षा थी, उनके धैर्य की कसौटी थी, और उनके साहस को एक चुनौती थी । किन्तु चूँकि वे माया से भ्रमित नहीं हुए थे, इसलिए उनके लिए "कोई समस्या न" थी। प्रभुपाद ने अपने दृष्टान्त से यह दिखा दिया कि यदि कोई श्रद्धापूर्व भक्ति योग का पालन करता है तो माया उसका स्पर्श नहीं कर सकती । जिस दिव्य विज्ञान का उपदेश वे अपने व्याख्यानों में या अनौपचारिक विचार-विनिमय में करते थे, उसी का प्रदर्शन उन्होंने व्यक्तिगत रूप में किया। कृष्ण-चेतना के प्रति वे निष्ठावानू थे, इसलिए उनकी सभी समस्याएँ समंजित हो गई थीं । भगवद्गीता में कृष्ण ने कहा है कि जो उनके प्रति समर्पित होता है, वह अपनी सभी समस्याओं पर आसानी से विजय पा लेता है। भक्त समझता है कि माया की समस्याओं पर विजय कृष्णार्पण से होती है, अर्थात् कृष्ण के प्रतिनिधि, गुरु महाराज, के आदेशों के प्रति समर्पण से होती है। अब चूँकि भूमि इस्कान को प्राप्त हो गई थी, इसलिए प्रभुपाद अपने स्वप्न को साकार करने के लिए आगे बढ़ सकते थे। इसमें संदेह नहीं कि इमारतों के निर्माण और कृष्णभावनामृत के प्रचार के प्रयासों में उन्हें और अधिक माया-जनित समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, किन्तु सबसे बड़े संघर्ष में उन्हें विजय मिल चुकी थी। श्री श्री राधा - रासबिहारी का वैभवपूर्ण मंदिर इसे सिद्ध कर देगा। भविष्य में भक्त और अतिथि भारत के मुख्य नगर में आ सकते हैं और हरे कृष्ण लैंड में प्रथम श्रेणी के होटल में ठहर सकते हैं और मंदिर के आध्यात्मिक वातावरण को सुगमता से आत्मसात् कर सकते हैं। और भक्तजन, जब तक कि वे प्रभुपाद के आदर्श और निर्देशों को नहीं भूलते, इस अवसर का पूरा उपयोग कृष्ण के सेवा-भाव में सफलतापूर्वक कर सकते हैं। प्रभुपाद ने सहिष्णुता और कृष्ण पर निर्भरता का जो मूल्य चुकाया था, वह कभी व्यर्थ नहीं जाएगा । श्रील प्रभुपाद ने अपनी सहिष्णुता से न केवल हरे कृष्ण लैंड पर सुविधाओं की सृष्टि की थी और सतत अग्रगामी योजनाएँ चालू की थीं, वरन् साधु-आचरण का जीता जागता उच्च आदर्श भी प्रस्तुत किया था। श्रीमद्भागवत में भगवान् कपिलदेव, साधु का वर्णन करते हुए कहते हैं : तितिक्षवः कारुणिका: सुहृदः सर्व- देहिनाम् अजात शत्रवः शान्ता साधवः साधु भूषणा: " साधु का लक्षण यह है कि वह सहिष्णु है, दयालु है, सभी प्राणियों के प्रति सुहृद् है। उसका कोई शत्रु नहीं है, वह शान्त रहता है, शास्त्रों का अनुगमन करता है और उसका चरित उदात्त होता है । ' क्योंकि वह सहिष्णु होता है, इसलिए भौतिक प्रकृति द्वारा पैदा की गई कठिनाइयों से वह क्षुब्ध नहीं होता । जुहू की जायदाद प्राप्त करने के प्रयत्नों में प्रभुपाद को शत्रुओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, लेकिन वे सहिष्णु बने रहे। वे कभी-कभी कहते थे, "हमें सहन करना पड़ेगा ।" और साधु न केवल तितिक्षु वरन् कारुणिक भी होता है। जब इस्कान के अस्थायी मंदिर पर पुलिस का आक्रमण हुआ था तो प्रभुपाद इसे एक संकेत समझ कर उस स्थान को छोड़ने और विदेशियों में कृष्ण-चेतना फैलाने में सहायता करने के प्रयत्न को त्यागने का विचार कर सकते थे। वे कह सकते थे, "इस परेशानी से क्या लाभ? ऐसी कोशिशों से क्या मिलेगा ?” भारत के बाहर वे करीब सौ मंदिरों का निर्माण करा चुके थे। यदि बम्बई के लोग कृष्ण - चेतना नहीं पसंद करते तो क्यों न उन्हें उनके भाग्य पर छोड़ दिया जाय और अन्यत्र जाया जाय । किन्तु नहीं, एक निष्ठावान् साधु होने के कारण प्रभुपाद दयालु थे। चूँकि वे कृष्णभावनामृत का करुणामय संदेश देने के लिए आए थे, इसलिए हर एक को धैर्यपूर्वक वह संदेश उन्हें देना था। लोग दिग्भ्रमित थे और केवल इंद्रियतृप्ति के लिए वे पशुओं की तरह रह रहे थे और कर्मानुसार उन्हें अगले जन्म में दुख भोगना पड़ेगा। इस कठिन परिस्थिति से द्रवित होकर वे पतित जीवात्माओं की सहायता करना चाहते थे, चाहे वे उनके इस कार्य की सराहना न करें । श्रीमद्भागवत में भी साधु को सुहृदः सर्व - देहिनाम् कहा गया है । – साधु के हृदय में एक ही इच्छा रहती है कि सब का भला हो । वह राष्ट्रीयता से बँधा नहीं होता, इसलिए वह अपने को भारतीय, अमेरिकन या यहाँ तक कि मानव भी न समझ कर, शाश्वत जीवात्मा समझता है जिसका उद्देश्य सभी प्राणियों का हित करना है। श्रीमद्भागवत में साधु को अजात शत्रु कहा गया है क्योंकि वह किसी को अपना शत्रु नहीं मानता। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने को साधु का शत्रु कह सकते हैं, किन्तु साधु प्रत्येक के साथ सर्वोत्तम मित्र जैसा व्यवहार करता है और उसका प्रयत्न हर जीव को कृष्ण तक पहुँचाने का होता है। श्रील प्रभुपाद कृष्णभावनामृत के प्रचार का प्रयत्न कर रहे थे इसलिए ईर्ष्यालु लोग बराबर उनका विरोध करते रहे। किन्तु जैसा कि उन्होंने बम्बई में बड़े उदात्त ढंग से प्रदर्शित किया; “हम क्या कर सकते हैं? हम केवल सहन कर सकते हैं।" इस प्रकार मंदिर की नींव पड़ने के पूर्व ही प्रभुपाद ने एक साधु के सभी आभूषणों को प्रदर्शित कर दिया था। शान्त और कृष्ण पर निर्भर रहकर वे विजयी हो गए। और जो कोई भी ऐसे महान् व्यक्तित्व की सेवा करता है, श्रीमद्भागवत कहता है कि उसके लिए मुक्ति का द्वार उन्मुक्त रहता है। |