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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 43: एक मंदिर हो  » 
 
 
 
 
 
अप्रैल १९७२

श्रील प्रभुपाद अपना कृष्ण-बलराम मंदिर बनाने पर विचार कर रहे थे। अप्रैल १९७२ में उन्होंने अपने शिष्य सुरभि को, जिसने बम्बई केन्द्र के रेखा - चित्र बनाए थे, नकशे बनाने के लिए कहा। नकशे भारतीय पुनर्जागरण के वास्तुशिल्प पर आधारित होने थे। प्रभुपाद को गोविन्दजी मंदिर पसंद था, जो रूप गोस्वामी द्वारा निर्मित मूल गोविन्दजी मंदिर के निकट था । उनको उसके सामने का खुला मैदान जिसमें बहुत से मेहराब बने थे, बहुत पसंद था। उसके सामने ही सीढ़ियाँ थीं जो श्रीविग्रह के दर्शन क्षेत्र तक जाती थीं । उन्होंने सुझाव दिया कि इस मंदिर की कुछ विशेषताएँ उनके नए मंदिर में सम्मिलित कर ली जायँ । वृन्दावन के एक वास्तुशिल्पी की सहायता से सुरभि ने मंदिर का नक्शा तैयार किया और प्रभुपाद को वह पंसद आ गया।

यह वृन्दावन में सबसे शानदार मंदिर होगा। दिल्ली के अनेक उच्चवर्गीय सज्जन, जो भक्त भी हैं, सप्ताहांत यहाँ हमारे साथ बिताना पसंद करेंगे और उन्हें यह वैकुण्ठ जैसा लगेगा। तुम लोगों को कोई अद्भुत वस्तु बनानी चाहिए; अन्यथा तुम अमरीकी लड़कों के लिए यह अपयश का कारण बनेगा। मंदिर बन जाने से अमेरिका और भारत इस स्थिति से बरी हो जायँगे। और इस्कान की योजनाओं में हमारी वृन्दावन की यह योजना सबसे महत्त्वपूर्ण है ।

यद्यपि गुरुदास ने डाक द्वारा प्रभुपाद से सम्पर्क बनाए रखने की सावधानी बरती थी, किन्तु वृंदावन के कई मामलों के सम्बन्ध में उसने ढिलाई दिखाई थी — जैसे एक कुएँ की खोदाई कराने और नगरपालिका से उसके लिए अनुमति लेने के विषय में। ये ऐसे मामले थे जिनके बारे में प्रभुपाद ने उसे बार-बार याद दिलाया था। १९७२ की ग्रीष्म में प्रभुपाद ने लिखा,

मैं पहले से ही कहता आ रहा हूँ कि मैं वृन्दावन में गोविन्दजी मंदिर जैसा एक मंदिर चाहता हूँ । मैने कितने ही पत्र लिखे, किन्तु वह नहीं हुआ। कोई बात नहीं, अब मैं सुरभि की योजना पसंद करता हूँ |

दो सप्ताह बाद प्रभुपाद ने गुरुदास को उसी बात के बारे में फिर लिखा ।

मैं गोविन्दजी मंदिर जैसा एक मन्दिर चाहता था । क्या यह इतना कठिन है कि गत छह महीनों में तुम ने इतने इंजीनियरों से सलाह ली है ? कोई मामूली इंजीनियर नक्शा बनाकर उसे पास करा सकता था । अनावश्यक रूप से इतना अधिक पत्र-व्यवहार हुआ है।

प्रभुपाद का विचार था कि वृन्दावन में एक मंदिर बनाना इतना कठिन नहीं होना चाहिए। देर होने से उनका धीरज खोता जा रहा था। उन्हें इसकी भी चिन्ता थी कि भक्तों और वास्तुशिल्पियों के कारण मंदिर पर खर्च कहीं अधिक न आ जाय, इसलिए उन्होंने कहा कि जो नक्शा उन्होंने स्वीकार किया है उसे ही पूरा किया जाय, भले ही मूल योजना से मंदिर भवन थोड़ा सस्ता हो जाय । उन्हें इस बात की चिन्ता थी कि कोई योग्य शिष्य निर्माण की देख-रेख रखे जिससे इस्कान ठगा न जाय ।

अप्रैल १९७२ में ही प्रभुपाद कह चुके थे कि वृंदावन के श्रीविग्रह कृष्ण और बलराम होंगे। “कृष्ण श्याम वर्ण के और बलराम श्वेत वर्ण के होंगे और बैक टु गाडहेड पत्रिका के पिछले पृष्ठ पर छपी मुद्रा बहुत बढ़िया रहेगी । " उन्होंने कहा कि सामने सूचना पट्ट लगा दिया जाय, " श्रीकृष्ण-बलराम मंदिर । "

प्रभुपाद द्वारा कृष्ण और बलराम श्रीविग्रहों के चयन का एक कारण यह था कि वृन्दावन के अधिकतर मंदिर राधा और कृष्ण के ही थे। इनमें इस्कान के मंदिर को अनुपम होना था। दूसरा कारण यह था कि इस्कान की भूमि रमण-रेती में स्थित थी, जहाँ के वनों और कोमल बालुका राशि में कृष्ण और बलराम ने पाँच हजार वर्ष पहले अपनी लीलाओं का आनन्द लिया था । इसलिए रमण - रेती में कृष्ण और बलराम की किशोरावस्था की उन क्रीड़ाओं के उपलक्ष्य में समारोह मनाना और उनके श्रीविग्रहों की उपासना करना उपयुक्त था ।

यद्यपि वृन्दावन में कृष्ण का आविर्भाव हुए हजारों वर्ष बीत गए थे, तब भी वहाँ का वातावरण, वहाँ के अनेक दृश्य और निनाद वही थे । रेत के आर-पार मोर वैसे ही दौड़ते थे या मकानों की छतों अथवा वृक्षों पर वैसे ही बैठते थे। कबूतरों की गुटरू - गूँ, कोयलों की कू-कू और तोतों के हरे पंखों की उड़ान वृन्दावन के जंगलों के शाश्वत निनाद और दृश्य थे। अपनी पुस्तक 'कृष्ण, दि सुप्रीम पर्सनालिटी आफ गाडहेड' में प्रभुपाद ने वर्णन किया था कि रमण-रेती और उसके समान अन्य स्थानों में कृष्ण और बलराम तथा उनके गोप- सखा किस तरह क्रीड़ा किया करते थे।

मेरे प्रिय मित्रो, देखिए यह यमुना तट अपने सुखद वातावरण के कारण किस तरह अतीव सुंदर है और विकसित कमल किस तरह अपनी सुंगध से भौरों और पक्षियों को आकृष्ट कर रहे हैं। भौरों की भनभनाहट की गूँज जंगल के सुन्दर वृक्षों में भर रही है। यहाँ रेती कितनी स्वच्छ और कोमल है। अतः इसे हमारी क्रीड़ा और लीलाओं के लिए सर्वोत्तम स्थान समझना चाहिए ।

श्रीमद्भागवत के अनुसार वृंदावन में कृष्ण और बलराम के साथ गोपों का मित्रवत् क्रीड़ा करना सामान्य धर्मिष्ठों के ईश्वर - ज्ञान से कहीं परे और सर्वोच्च आध्यात्मिक उपलब्धि है। परम सत्य, जिसका चिन्तन कुछ लोग निराकार ब्रह्म समझ कर करते हैं, कुछ लोग जिसकी उपासना परम शक्ति समझ कर करते हैं, तथा कुछ अन्य जिसे सामान्य जीवात्मा मानते हैं, वृंदावन के गोपों का शाश्वत प्रिय मित्र था । जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य कार्यों के फलस्वरूप ही इन बालकों को रमण - रेती में कृष्ण और बलराम के साथ प्रिय बाल लीलाओं में सम्मिलित होने का अवसर मिला था ।

कृष्ण और बलराम के मंदिर की स्थापना करके, प्रभुपाद रमण - रेती में सभी लोगों के लिए, जिसमें विदेशी, दिल्ली के नित्य यात्री और उनके अपने शिष्य सम्मिलित थे, शान्त, दिव्य वातावरण की सृष्टि करना चाहते थे। उन्हें एक बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटक एजेंसी से पत्र मिल चुका था कि वे यात्रियों के आवास की व्यवस्था करें जिस से इस्कान के अतिथि गृह को आध्यात्मिक भारत की औपचारिक यात्रा में सम्मिलित किया जा सके। भारत के धार्मिक स्थानों की यात्रा पर लोग भारत निरन्तर आते रहते थे; दुर्भाग्य से वहाँ की अधिकतर आवासीय व्यवस्था अनधिकृत थी या ठगों से भरी थी । अतः इस्कान केन्द्र की अपनी महत्ता होगी। प्रभुपाद ने लिखा,

एक योरोपीय प्रचार केन्द्र बनाओ और जो भी पर्यटक और हिप्पी वृंदावन आएँ उन्हें सदस्य बनाने का प्रयत्न करो। उन्हें सुंदर प्रसाद दो और कीर्तन करने, मंदिर की सफाई करने और हमारी पुस्तकें पढ़ने में लगाओ; भक्त बनने के लिए उन्हें सभी सुविधाएँ प्रदान करो।

एक दूसरा विशेष महत्त्व भी था जिसके लिए प्रभुपाद ने अपने वृंदावन मंदिर के मुख्य उपास्य के रूप में कृष्ण और बलराम का चयन किया। भगवान् बलराम भगवान् कृष्ण का प्रथम विस्तार हैं और संकर्षण अवतार के रूप में सभी ब्रह्माण्ड को धारण करते हैं । अतएव वैष्णव बलराम की उपासना आध्यात्मिक शक्ति के लिए करते हैं। प्रभुपाद ने कहा, "अपनी दुर्बलताओं या अभावों पर विजय पाने के लिए तुम भगवान् बलराम से प्रार्थना कर सकते हो ।" आध्यात्मिक शक्ति के स्रोत के रूप में भगवान् बलराम मूल आध्यात्मिक गुरु भी कहे जाते हैं ।

इस्कान के अन्य विशाल मंदिरों की तरह वृन्दावन मंदिर में भी तीन वेदियाँ होंगी, और कृष्ण और बलराम की बगल में भगवान् चैतन्य और भगवान् नित्यानंद विराजेंगे। भगवान् चैतन्य तो भगवान् कृष्ण ही हैं और भगवान् नित्यानंद भगवान् बलराम हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिसकी घोषणा विश्व भर में कृष्ण-बलराम मंदिर करेगा । भगवान् नित्यानंद का उल्लेख विशेष रूप से कृपा - अवतार के रूप में किया जाता है जो पतित बद्धात्माओं के लिए सर्वाधिक दयालु रूप है। इस प्रकार भगवान् चैतन्य और भगवान् नित्यानंद के रूप में कृष्ण और बलराम की उपासना से कृष्णभावनामृत को अन्यों को वितरण करने में बल मिलेगा। प्रभुपाद राधा - श्यामसुंदर श्रीविग्रहों की स्थापना उनकी दो गोपी सेविकाओं, ललिता और विशाखा, के साथ भी करना चाहते थे ।

श्रील प्रभुपाद संभवत: पूरे समय वृन्दावन में नहीं रह सकते थे और जब भी वे बाहर चले जाते थे वहाँ की प्रगति धीमी पड़ जाती थी। मंदिर के अध्यक्ष गुरुदास के पास धन थोड़ा था और वित्तीय मामलों की देख-रेख करने में उसे कोई विशेष ज्ञान नहीं प्राप्त था। प्रभुपाद उसे “डैम चीप बाबू” कहते थे यह एक ऐसी उपाधि थी जो भारतीयों द्वारा उन पाश्चात्यों को दी जाती थी जो समझते थे कि उन्होंने बड़ा सस्ता सौदा कर लिया है जबकि वास्तविकता यह थी कि वे ठगे जा रहे होते थे ।

प्रभुपाद को अपने भक्तों की व्यय करने की आदत पर भरोसा नहीं था, इसलिए उन्होंने एक बड़ी जटिल प्रणाली विकसित कर रखी थी जिसके अन्तर्गत यात्रा पर होने पर भी वे इस्कान वृन्दावन के सभी चेकों को स्वयं अनुमोदन करते थे। गुरुदास को जब कुछ खर्च करना होता तो दिल्ली मंदिर का अध्यक्ष, तेजस, वृंदावन जाता और उसके खर्चों का अनुमोदन करता था । तब चेक बनाया जाता था और चेक को हस्ताक्षर के लिए प्रभुपाद के पास डाक द्वारा भेजा जाता था। जब चेक लौट कर दिल्ली आता था तो उस पर तेजस भी अपना हस्ताक्षर करता था और तब उसे गुरुदास के पास वृन्दावन भेजा जाता था ।

यद्यपि प्रभुपाद यही चाहते थे कि अपने मंदिरों की व्यवस्था का भार वे अपने ऊपर न लें, फिर भी वृंदावन में व्यय का हिसाब वे आखिरी पैसे तक देखना चाहते थे। इतना नियंत्रण होने पर भी गुरुदास से धन का दुरुपयोग हो ही जाता था— निर्माण के लिए अलग रखे गए धन को वह मंदिर के और कामों में खर्च कर बैठता था और इस तरह व्यापारियों की ठगी का शिकार बन जाता था ।

१९७२ ई. के कार्तिक में वृंदावन आने के बाद प्रभुपाद पूरे साल भर बाहर रहे और उसके मामलों का निर्देशन पत्र-व्यवहार द्वारा करते रहे। सभी महाद्वीपों में कृष्णभावनामृत आंदोलन के तेजी से फैलने के कारण उन्हें अनेक स्थानों में जाना होता था । तब भी बम्बई, मायापुर और वृंदावन की उनकी तीन बृहत् परियोजनाएँ उनके पत्र - व्यवहार और सर्वाधिक वित्तीय निवेश का सर्व प्रमुख विषय थीं ।

उनके प्रायः वृन्दावन अधिक न आने का एक कारण यह भी था कि गुरुदास द्वारा उन्हें लिखे गए पत्र बहुत आशापूर्ण होते थे और उनसे लगता था कि मंदिर का उद्घाटन १९७३ की जन्माष्टमी तक हो जायगा । निर्माण का कार्य सुरभि देख रहा था और वह जानता था कि कार्य बहुत धीमी गति से चल रहा है, तब भी गुरुदास मंदिर के निर्माण के उत्कृष्ट रूप से पूरा होने का सुंदर चित्र खींचता हुआ प्रभुपाद को लिखता था। इस अच्छे समाचार से प्रभुपाद को नई शक्ति मिलती थी और वे गुरुदास के वायदे पर विश्वास करते थे, यद्यपि कभी-कभी उन्हें संदेह भी होता था ।

यदि तुम अगली जन्माष्टमी तक निर्माण पूरा कर लेते हो तो यह तुम्हारे लिए बड़े गर्व की बात होगी और मैं संसार के किसी भी कोने से श्रीविग्रह की स्थापना के लिए वहाँ पहुँच सकता हूँ। किन्तु अब तुम्हें अपनी बात रखने के लिए बड़ा कड़ा परिश्रम करना चाहिए, अन्यथा मुझे बड़ी निराशा होगी और मुझे तुम पर क्रुद्ध होना पड़ेगा ।

प्रभुपाद ने वृंदावन के भक्तों को चेतावनी दी कि यदि उन्हें अपना वचन पूरा करना है तो वे कड़ा परिश्रम करें जिससे जून में वर्षाऋतु आने के पहले कार्य समाप्त हो जाय ।

किन्तु वृंदावन जाने वाला कोई भी देख सकता था कि भवन निर्माण समय पर कभी पूरा नहीं हो सकेगा। मंदिर क्षेत्र में केवल नींव भरी गई थी और इस्पात की छड़ें खड़ी थीं। वहाँ केवल तीन-चार भक्त रह रहे थे जो मजदूरों को इकठ्ठा करने, धन-संग्रह करने और निर्माण सामग्री जुटाने के संघर्ष में लगे थे। उस वर्ष गरमी बड़ी भयंकर थी, और भक्तों को, गरमी से तंग आकर, हर दिन दोपहर का समय अपने झोपड़ों में बिताना पड़ता था । सीमेंट और इस्पात की कीमतें दुगुनी हो गई थीं। तो भी गुरुदास के आशाभरे पत्रों के उत्तर में प्रभुपाद उसे उत्साहित करते हुए बराबर लिखते रहे कि उसे दृढ़ निश्चय के साथ कार्य आगे बढ़ाते जाना है।

किन्तु प्रभुपाद उस मामले की तह तक गये और उन्होंने गुरुदास को आगाह किया, “मैं केवल यही चाहता हूँ कि कार्य जोर से आगे बढ़ाया जाय और गलत बिलों का भुगतान न किया जाय। धन का उपयोग केवल निर्माण पर होना है।” जन्माष्टमी पर मंदिर के उद्घाटन की बात धीरे-धीरे समाप्त हो गई, लेकिन प्रभुपाद ने निराशा नहीं प्रकट की । प्रत्युत वे शिष्यों को प्रोत्साहित करते रहे और उन्हें आगे बढ़ाते रहे, यह कहते हुए कि कम-से-कम उनका कमरा पूरा करा दें ताकि जब अक्तूबर १९७३ में वे वृंदावन आएँ तो उनके ठहरने के लिए कोई स्थान हो ।

लेकिन जब प्रभुपाद सचमुच वृंदावन पहुँचे तो उनका कमरा पूरा होने से मीलों दूर था और उन्हें एक सप्ताह तक वृंदावन के अपने एक मित्र के घर में ठहरना पड़ा। उन्होंने गुरुदास को अपदस्थ नहीं किया, किन्तु उसे बेहतर प्रबन्धन और हिसाब-किताब रखना सिखाने का प्रयत्न जरूर किया। उन्होंने भारत के जी. बी. सी. सचिव, तमाल कृष्ण गोस्वामी, को वृंदावन परियोजना के लिए अधिक धन भेजने को लिखा ।

तो मैं वृन्दावन पहुँच गया हूँ, लेकिन जहाँ तक परियोजना का सम्बन्ध है, धन आने में इतनी अनियमितता क्यों है ? तेजियस की रिपोर्ट है कि गत तीन महीनों में आपने ५,००० /- रुपए भेजे हैं और इसके बाद कुछ नहीं ? परियोजना कैसे आगे बढ़ेगी ?

प्रभुपाद की उपस्थिति से उत्साहित होकर भक्त एकजुट हो गए। उन्होंने एक शामियाना खड़ा किया, नींव के खंभों को केले के तनों और फूलों से सजाया और एक छोटा-सा उत्सव मनाया। कई दिन शाम को प्रभुपाद ने करीब पचास स्थानीय लोगों के सामने भाषण दिया जो नींव की पंक्तियों के मध्य फोल्डिंग कुर्सियों पर बैठते थे ।

अपनी इच्छा पूरी करने के लिए प्रभुपाद दृढ़ निश्चय थे। एक मंदिर बनाने की उनकी इच्छा यथापूर्व बनी रही और उनके शिष्यों के छोटे-से दल को पूरा विश्वास था कि वह मंदिर निर्माण के अपने महत् उद्देश्य को पूरा करेगा । शिष्य जानते थे कि मंदिर का निर्माण वे केवल अपनी एक स्थानीय योजना के रूप में ही नहीं कर रहे थे, वरन् उसका महत्त्व समस्त संसार के लिए था। प्रभुपाद ने विशाल उद्घाटन के लिए अगस्त १९७४ की जन्माष्टमी की नई तिथि निश्चित की ।

सुरभि को वास्तुशिल्प और भवन निर्माण में पर्याप्त अनुभव प्राप्त था, किन्तु इसके पहले उसे ऐसे अलंकरण-युक्त निर्माण से वास्ता नहीं पड़ा था। इसलिए उसे संदेह था कि शिष्य एक वर्ष में कार्य पूरा कर सकेंगे। तेजास को भी संदेह था कि वह समय के अन्दर आवश्यक धन जुटा सकेंगे। गुरुदास को अपनी योग्यता पर भरोसा था और उसने प्रभुपाद को विश्वास दिलाया कि वे समय के अंदर कार्य पूरा कर लेंगे ।

सुबल वृन्दावन में रहना चाहता था, लेकिन केवल इस शर्त पर कि उसे प्रबन्धन के कार्य से मुक्त कर दिया जाय और कीर्तन करने तथा अमराइयों में विचरण करने को स्वतंत्र छोड़ दिया जाय। किन्तु उसे पश्चिम के लिए प्रस्थान किए काफी समय हो चुका था । वृन्दावन के प्रति प्रतिबद्ध होकर जो शिष्य वहाँ रहे जा रहे थे, वे जानते थे कि, कम-से-कम वर्तमान में, वृन्दावन में वास्तविक आध्यात्मिक मार्ग केवल एक था — और वह था कड़े परिश्रम का, चिन्ता का, मौसम की कठोरताओं को झेलने का और कृष्ण के विशुद्ध भक्त की सेवा में विशुद्ध साधन के रूप में कार्य करते रहने का ।

फरवरी १९७४ ई. में जब प्रभुपाद लॉस ऐंजीलीस से पूर्व की ओर यात्रा कर रहे थे तो उन्होंने गुरुदास को लिखा कि ज्योंही उनके लिए आवासीय कमरे तैयार हो जायँ वे वृन्दावन आना चाहते हैं। उन्होंने पूछा कि यह कब तक हो जायगा । गुरुदास ने सुरभि से सलाह माँगी, जिसने कहा कि एक में । महीने गुरुदास ने अधिक निश्चयात्मक बनने का प्रयत्न करते हुए प्रभुपाद को आमंत्रित किया कि वे अपने नए कमरों में तीन सप्ताह में रहना शुरु कर सकते हैं। किन्तु प्रभुपाद ने उसे तार भेजा कि वे दो सप्ताह में आ रहे हैं।

उस समय तक प्रभुपाद के आवास पर न छत पड़ी थी, न उसका फर्श बना था। बाहरी दीवारों के केवल कुछ हिस्से पूरे हुए थे। सुरभि ने अथक निर्माण शुरू किया; कारीगरों की दो टोलियाँ उसने तय की, एक दिन के लिए, दूसरी रात के लिए। दो सप्ताह तक निरन्तर कार्य हुआ जिस में कोनों को बुरी तरह काटा गया। पलस्तर और पेंटिंग का काम साथ-साथ चला, और परिणाम यह हुआ कि दीवारें गीली रह गईं। प्रभुपाद के पहुँचने के कुछ दिन पहले उन्होंने अस्थायी फर्श भी बना दिया, ईंटें बिछा दीं, उसके ऊपर गाय का गोबर लीप दिया, फिर उस पर गलीचा बिछाकर उस पर चादरें डाल दी । मौसम ठंडा हो चला था और कमरे को गरम रखने की कोई व्यवस्था नहीं थी ।

जिस दिन सवेरे प्रभुपाद पहुँचे सभी भक्त उनकी चारों ओर इकट्ठे हो गए। प्रभुपाद अपनी चौकी के पीछे बैठ गए और भक्तों की उपलब्धि की प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कहा कि यदि वे इसी तरह कड़ा परिश्रम करते रहे तो जन्माष्टमी के पूर्व वे सब कुछ तैयार कर लेंगे ।

पहुँचने के करीब-करीब साथ ही, प्रभुपाद में सर्दी-जुकाम के लक्षण प्रकट होने लगे । किन्तु अन्यत्र रहने की बात सुनने को वे तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा, "यह मेरा पहला निवास है, अब मैं यहीं रहूँगा । '

ईंट और पत्थर का बना उनका विस्तृत कमरा बहुत साधारण था और दिन के अधिकाशं भाग में उसमें अंधेरा रहता था । किन्तु प्रभुपाद उसे अपना वृन्दावन - निवास समझते थे। शीघ्र ही स्थानीय विशिष्ट अभ्यागत उनसे मिलने आने लगे और वे उनका सम्मान - पूर्वक स्वागत करते और अपने कमरे में बैठे, कृष्णभावनामृत के विषय पर, उनसे घंटों उत्साहपूर्वक बात करते रहते। संध्या समय वे व्याख्यान देते और कीर्तन कराते ।

वृंदावन में प्रभुपाद के सामने एक समस्या थी । गुरुदास ने प्रभुपाद को सूचित किया था कि मि. एस. ने जो जमीन दान में दी थी, उसमें वह पचास फुट वापस लेना चाहते थे। उनका कहना था कि निर्माण अभीष्ट तेजी से नहीं हो रहा था और उनका इरादा सामने का हिस्सा देने का कभी नहीं था। उसे वे दूकानों के लिए उपयोग में लाना चाहते थे, संभवतः वहाँ वे पेट्रोल पम्प भी लगा सकते थे। प्रभुपाद चौकन्ने हो गए। यदि मि. एस. ने जायदाद के सामने का हिस्सा ले लिया तो मंदिर की योजना नष्ट हो जायगी और उनके दान का स्वांग बन कर रह जायगा । उपयुक्त प्रवेश मार्ग मिले बिना, जायदाद किस काम की होगी ?

और अधिक पूछताछ से प्रभुपाद को मालूम हुआ कि गुरुदास को वास्तविक विक्री - पत्र अभी तक प्राप्त नहीं हुआ था। प्रभुपाद को घोर चिन्ता हुई, तब भी वे शान्त और दृढ़ संकल्प होकर काम करते रहे। उन्होंने कहा कि गुरुदास को चाहिए कि रजिस्ट्रार से विक्री - पत्र तुरन्त प्राप्त कर ले और जायदाद की चारों ओर ईंट की ऊँची दीवार बनवा दे । प्रभुपाद के सचिव ने मि. एस. को तार भेजा जो उस समय वृंदावन से बाहर थे, “हरे कृष्ण । प्रभुपाद इस समय वृंदावन में हैं और १३ तक रहेंगे। सामने के हिस्से का मामला वायदा के मुताबिक तय कर डालिए ।

मि. एस. ने तार से जवाब भेजा, “ सामने के हिस्से का उपयोग पूर्व निर्णय के अनुसार, अन्य कार्यों के लिए होगा। पत्र भेजा जा रहा है।" अचानक ऐसा लगने लगा कि प्रभुपाद के सामने, बम्बई जैसा, एक दूसरा केस आ गया है।

किन्तु मि. एस. के इस रवैये से निर्माण शीघ्र पूरा करने के सम्बन्ध में प्रभुपाद के आग्रह की पुष्टि होती थी । यदि जायदाद की चारों ओर दीवार बन गई होती और मंदिर का निर्माण पूरा हो गया होता तो मि. एस. के जमीन वापस लेने का प्रश्न ही न उठता। अब प्रभुपाद के अनुयायियों की समझ में आया कि किस कारण वे उन्हें इतनी शीघ्रता के लिए कहा करते थे । प्रभुपाद बहुत सावधान थे, वे बहुत आग्रही तथा आलोचक भी थे, किन्तु इसके लिए बहुत अच्छे कारण थे। कृष्णभावनामृत के विरोध में माया सतत क्रियाशील थी, इसलिए यदि भक्तों ने एक पल की भी ढिलाई की तो उन्हें भारी हानि उठानी पड़ेगी । यह प्रश्न तो कभी पूछा जाना ही नहीं चाहिए था कि, “इतनी जल्दी क्या है ? तुरन्त मंदिर बनाने की इतनी चिन्ता क्यों हो ?” ऐसे प्रश्न तो बुद्ध या आलसी करते हैं। जब तक वृंदावन में कृष्णभावनामृत आन्दोलन का मंदिर न हो जाय तब तक यह खतरा बराबर बना रहेगा कि हो सकता है कि मंदिर कभी बने ही नहीं । प्रभुपाद ने कलकत्ता के एक मित्र को लिखा,

मि. के. के इस कथन से मुझे बड़ी चिन्ता हुई है। उन्होंने स्वयं मुझ से कहा था कि श्रीमती राधारानी के निर्देश से उन्होंने वह जमीन हमें दान कर दी है। हमने मंदिर के निर्माण पर लाखों रुपए खर्च कर दिए हैं और अब यदि वे सामने का हिस्सा अन्य कार्यों के लिए उपयोग में लाते हैं तो मंदिर की दर्शनीयता को गहरी हानि पहुँचेगी ।... कृपा करके मि. के. के भाई, मि. एन.एस., से मिलिए और इस मामले को तय करा दीजिए जिससे हम मंदिर निर्माण के कार्य में आगे बढ़ते रह सकें। कृपया इसे अति आवश्यक समझें ।

वृन्दावन से मि. एस. की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर प्रभुपाद ने मि. एस. के भाइयों और उनके वकीलों से बात की। उन्होंने उनसे कहा कि श्रीमती राधाराणी के नाम में जो कुछ दान किया जा चुका है उसे वापस नहीं लिया जा सकता। मि. एस. के सहयोगी इससे सहमत थे, कम-से-कम उस क्षण, कि मि. एस. की स्थिति में कोई दम नहीं था। इस बीच जायदाद की चारों ओर शीघ्र बारह फुट ऊँची दीवार बनाने में मजदूर तेजी से काम में लगे रहे।

सवेरे के चार बजे थे; प्रभुपाद अपने अंधेरे ठंडे कमरे में बैठे थे। उनकी चौकी पर एक छोटा-सा लैंप जल रहा था । वे दो बजे उठ गए थे और श्रीमद्भागवत के तात्पर्य, मशीन पर लिखाने के लिए, मुख्य कमरे में आ गए थे। वे शान्त और मौन बैठे थे। वे ऊनी कनटोप और स्वेटर पहने थे और कंधों पर भूरे रंग की ऊनी चादर लपेटे हुए थे ।

दोहरे किवाडों की दूसरी ओर उनका सेवक बैठा अंदर झाँक रहा था यह देखने के लिए कि उसके आध्यात्मिक गुरु क्या कर रहे हैं। संयुक्त राज्य की अपनी पिछली यात्रा में प्रभुपाद ने सत्स्वरूप दास गोस्वामी के रूप में एक नया सचिव सेवक प्राप्त किया था। इतनी ठंड होने पर भी प्रभुपाद के नए सहायक को वृंदावन में होने से प्रसन्नता थी, क्योंकि इस प्रकार उसे अपने आध्यात्मिक गुरु के इतने अधिक निकट स्थित होने का अवसर प्राप्त हुआ था ।

प्रभुपाद ने घंटी बजाई। सेवक उछल पड़ा, उसने दोहरे किवाड़ खोले और कमरे के अंदर प्रविष्ट हुआ। बड़े कमरे के सुदूर कोने में उसने प्रभुपाद को अपनी चौकी के सामने बैठे देखा। वे गंभीर और रहस्यमय लग रहे थे। उनके सुंदर गहरे नेत्र चमक रहे थे। सत्स्वरूप ने उन्हें प्रणाम किया और इसे अपना सौभाग्य समझा कि वह अपने आध्यात्मिक गुरु के समक्ष वहाँ उपस्थित था । जब वह बैठ गया, तो उसने प्रभुपाद को हल्के से सिर हिलाते देखा और उसे लगा कि प्रभुपाद अपने सेवक के सौभाग्य को स्वीकार कर रहे हैं ।

सत्स्वरूप चौकी की दूसरी ओर फर्श पर प्रभुपाद के सामने बैठा था । भय और श्रद्धा से उत्तेजित सत्स्वरूप वह सब कुछ करने को तैयार था जो प्रभुपाद आज्ञा दें, किन्तु उसके मन में यह डर भी समा रहा था कि ऐसा न हो कि प्रभुपाद जो कुछ कहें, उसे कैसे पूरा करना है, वह न जानता हो ।

प्रभुपाद ने कहा, 'कृष्ण' का खण्ड दो लाओ।" उनका सेवक दौड़ पड़ा, खाने से ग्रंथ निकाला, उनके सामने रखा और बैठ गया ।

प्रभुपाद ने कहा, " नृग राजा की कहानी पढ़ो।" प्रभुपाद के आदेश यद्यपि संक्षिप्त होते थे, किन्तु वे पूरे होते थे । उनका सेवक रुक गया, उसको प्रतीक्षा थी कि गुरु महाराज कुछ और तो नहीं कहेंगे। उसने पुस्तक खोली, फिर झिझकने लगा। उसने पूछा, “क्या जोर से पढूँ ? " प्रभुपाद ने सिर हिलाया और उनका सेवक उच्च स्वर में पढ़ने लगा ।

सत्स्वरूप समझ नहीं पा रहा था कि प्रभुपाद इतना सवेरे उससे यह क्यों करा रहे हैं जबकि साधारणतया उन्हें श्रीमद्भागवत पर डिक्टेशन देनी चाहिए थी। जब सत्स्वरूप उच्च स्वर से पढ़ रहा था, उस समय प्रभुपाद बिना हिले-डुले शान्त बैठे थे। ऐसा कुछ नहीं लग रहा था कि वे प्रसन्न थे, या सुन भी रहे थे। उस शान्ति में सत्स्वरूप अपने सस्वर पाठ के प्रति बहुत सचेत हो गया, और वह कहानी को ध्यानपूर्वक सुनने लगा ।

कहानी में वर्णन था कि राजा नृग ने दान में ब्राह्मणों को बहुत-सी गाएँ दी। किन्तु एक दिन एक गाय बहक कर वापस आ गई और राजा की अन्य गायों के झुण्ड में मिल गई और अनजाने में राजा ने वह गाय दान में दूसरे ब्राह्मण को दे दी। जब गाय का नया स्वामी उसे ले जा रहा था, तभी उसका पुराना स्वामी आकर उस पर दावा करने लगा। दोनों ब्राह्मणों में विवाद आरंभ हो गया। राजा नृग के समक्ष उपस्थित होकर उन्होंने अभियोग लगाया कि उसने दान में दी गई गाय को वापस ले लिया है— जो महापाप है। किंकर्तव्यविमूढ़ राजा बहुत विनयपूर्वक उस एक गाय के बदले दोनों ब्राह्मणों को एक-एक लाख गाएँ देने को तत्पर हो गया। लेकिन ब्राह्मणों में से कोई लेने को तैयार नहीं हुआ, क्योंकि मनु की विधि के अनुसार, एक ब्राह्मण की सम्पत्ति को किसी भी दशा में नहीं लिया जा सकता - राजा द्वारा भी । फलस्वरूप, दोनों ब्राह्मण क्रोध में वहाँ से चले गए और राजा नृग को अगला जन्म गिरगिट के रूप में लेना पड़ा।

कहानी पढ़ते समय प्रभुपाद के सेवक को सहसा यह अनुभूति हुई कि प्रभुपाद उससे वह कहानी स्वयं अपने सेवक द्वारा किए गए छल का भण्डाफोड करने के लिए पढ़वा रहे हैं। घबराहट में वह सोचने लगा कि उसने अपने गुरु महाराज से क्या छल या चोरी की है। वह अपनी कोई गलती नहीं सोच सका — जब तक कि अचानक उसे यह याद नहीं आया कि उसने भेंट में प्रभुपाद को दिया गया एक जोड़ा मोजा ले लिया था। प्रभुपाद को उपहार प्रायः मिलते रहते थे और उनकी आदत थी कि जब मोजे, रुमाल आदि उपहार वे स्वीकार कर लेते थे तो बाद में उन्हें अपने शिष्यों को दे देते थे । प्राप्त उपहारों में से वे उसके अल्पांश का ही उपयोग करते थे। चूँकि वृंदावन में ठंडक बहुत थी और सत्स्वरूप के पास मोजे नहीं थे इसलिए उसने एक सस्ती किस्म का जोड़ा पहनने के लिए ले लिया था, यह सोच कर कि प्रभुपाद उसे कभी इस्तेमाल करना नहीं चाहेंगे। उसने मान लिया कि प्रभुपाद को इस पर कोई आपत्ति नहीं होगी, किन्तु अब उसकी चोरी अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट हो गई थी ।

कहानी पूरी हो जाने के बाद प्रभुपाद मौन बने रहे और उनका सेवक भी चुप था। सत्स्वरूप ने सोचा कि “ शायद प्रभुपाद सो रहे हैं ।” यद्यपि उसका साहस कुछ कहने का, यहाँ तक कि हिलने का भी, नहीं हुआ। वे दोनों निश्चल बैठे रहे । सत्स्वरूप पुस्तक पर निगाह जमाए रहा और कभी-कभी प्रभुपाद की ओर देख लेता, उसे प्रतीक्षा थी कि प्रभुपाद कुछ कहें।

पाँच मिनट बीत गए। अंत में प्रभुपाद बोले, " अब इस अध्याय को ले जाओ और इसे टाइप कर डालो।” उनके सेवक ने आज्ञा स्वीकार की और वह उठ गया । किन्तु स्थिति अब भी स्पष्ट नहीं थी। उन्होंने कहानी पढ़ने को क्यों कहा था और इसे टाइप क्यों करा रहे हैं? तब प्रभुपाद फिर बोले, “मुझे एक पत्र लिखाना है ।" सत्स्वरूप के पास एक नोट पैड था और वह बैठ गया और तत्क्षण प्रभुपाद के शब्दों को लिखने लगा ।

पत्र मि. एस. के लिए था और उसमें उल्लेख था कि मि. एस. ने भूमि दान में दी थी और अब उसमें से वह पचास फुट का आगे का टुकड़ा वापस ले लेना चाहता था । प्रभुपाद ने मि. एस. को याद दिलाया कि मूल अनुबंध के अनुसार, उसने श्रीमती राधाराणी के अनुमोदन से सम्पूर्ण भूमि दान में दे दी थी। अब वह कैसे कह सकता था कि अब वह उसे वापस ले रहा है ? मि. एस. को अपने प्रस्ताव पर पुन: विचार करना चाहिए । इस सम्बन्ध में प्रभुपाद श्रीमद्भागवत से राजा नृग की कहानी संलग्न कर रहे थे। मि. एस. को इसे पढ़ना चाहिए और उसका आशय समझना चाहिए ।

प्रभुपाद के सेवक को राहत महसूस हुई। लेकिन उसे यह भी लगा कि उसका अपराध सही था और प्रभुपाद की चीजों के साथ बहुत अधिक स्वतंत्रता उसे नहीं लेनी चाहिए। और उसे एक दूसरा पाठ भी मिला; प्रभुपाद के सम्बन्ध में उसकी धारणा नितान्त व्यक्तिपरक थी । यद्यपि वह प्रभुपाद के साथ रहता आया था, किन्तु उनके विचारों और उद्देश्यों को वह ठीक-ठीक नहीं समझ पाया था । उसे लगा कि कदाचित् वह अकेला शिष्य नहीं है जिससे कभी-कभी ऐसी गलती होती हो । श्रील प्रभुपाद के अनेक आयामों को समझने का कोई कितना भी प्रयत्न करे किन्तु उनके सभी आयामों को पूर्णता से समझने की किसी को आशा नहीं करनी चाहिए । यहाँ तक कि जी. बी. सी. सचिव और अन्य प्रमुख भक्त भी जो उनके धंधों में हमेशा उनके साथ रहते थे नहीं समझ सकते कि प्रभुपाद क्या सोच रहे हैं। सत्स्वरूप महाराज ने निर्णय किया कि यही सबसे अच्छा है कि श्रील प्रभुपाद के आदेशों का सब समय पालन किया जाय; यह सोचते हुए वह पास के कमरे में गया और राजा नृग की कहानी टाइप करने लगा।

सूर्योदय के साथ प्रभुपाद अपने घर से बाहर धूल भरी गली में निकले और इस्कान वृन्दावन के भक्त उनके प्रातः कालीन भ्रमण में उनके साथ हो लिए। टहलते हुए उन्होंने कहा कि एक भक्त ने शिकायत की है कि बिजली हमेशा गायब रहती है। भक्त ने कहा था कि भारत आध्यात्मिक ज्ञान में आगे है और पश्चिम भौतिक ज्ञान में, दोनों को आपस में मिल कर चलना चाहिए । प्रभुपाद सहमत हुए । उन्होंने कहा, “हाँ, मेरा उद्देश्य यही है। दोनों को आपस में मिलाना ।'

प्रभुपाद जायदाद के सामने छटीकरा रोड पहुँचे और रोड के मध्य से दिल्ली की दिशा में बढ़ने लगे। सड़क की दोनों ओर विशाल नीम के वृक्ष खड़े थे। प्रभुपाद ने कहना जारी रखा, "जीवन का भौतिक पक्ष भी जरूरी है। पश्चिम में दाढ़ी बनाने के लिए भी लोगों के पास मशीन होती है। यह बहुत अच्छा है, लेकिन इसका दुरुपयोग भी हो रहा है। यह सब कुछ उस जरा-सी उत्तेजना की खातिर है जिसे 'संभोग' कहते हैं जो इतना महत्त्वहीन और घृणास्पद है। मनुष्य की सारी बुद्धि का उपयोग कुत्ते-बिल्ली जैसा हो रहा है । '

प्रभुपाद रुक गए, और एक भक्त ने पूछा, “प्रभुपाद हम कैसे जानें कि वृन्दावन कृष्ण का निवास है ? वृन्दावन में इतना अधिक प्रदूषण है । "

प्रभुपाद बोले, "यह इसलिए है कि तुम्हारी इन्द्रियाँ प्रदूषित हैं । किन्तु यदि तुम्हारे नेत्रों में प्रेम का अंजन लगा हो तो तुम वृंदावन को देख सकते हो । वृंदावन के विषय में निर्णय इसके इस बाहरी रूप से मत करो।'

जब प्रभुपाद सड़क से आगे बढ़ रहे थे तो अनेक लोगों ने " जय राधे" " हरे कृष्ण" कह कर उनको और उनके शिष्यों को अभिवादन कहा। कुछ लोग तो जूते उतार कर उनके सामने दण्डवत् हो गए। प्रभुपाद ने भी हाथ जोड़ कर, सिर हिला कर और 'हरे कृष्ण' कहते हुए उत्तर दिया ।

चुने हुए लोगों का यह दल सवेरे की ठंडी हवा में चलता हुआ खेतों, आश्रमों और अमराइयों को पार करता गया। चिड़िया, तोता, कोयल, कबूतर, मोर आदि अनेक प्रकार के पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ रहा था। कटाई के लिए तैयार गन्ने की फसल खेतों में खड़ी थी । प्रभुपाद जब और आगे बढ़े तो विशाल नीम वृक्षों के स्थान पर काँटेदार झाड़ियाँ दिखाई देने लगीं । गायों और भैसों के झुंड खेतों में चर रहे थे। आधे घंटे तक प्रभुपाद आगे बढ़ते गए। तब मुड़कर वे अपने मार्ग पर वापस लौटने लगे ।

सड़क पर वे एक ऐसे व्यक्ति के पास से गुजरे जो एक बाबाजी का श्वेत वस्त्र धारण किए था और आग ताप रहा था । प्रभुपाद ने कहा कि श्रीनिवास आचार्य - कृत षड्- गोस्वामी - अष्टकम् में संन्यास आश्रम के व्यक्ति के वास्तविक गुण गिनाए गए हैं। उसमें उन छह गोस्वामियों की महिमा का गान किया गया है जिन्होंने अपने सरकारी पदों का परित्याग करके भिक्षु बनना स्वीकार किया था। वे केवल एक वस्त्र पहनते थे और सदा कृष्ण और गोपियों का ध्यान करते थे।

प्रभुपाद ने कहा “वृन्दावन रूप और सनातन गोस्वामी का उपहार है। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे जिन से गरीब लोग लाभ उठा सकें और कृष्ण - चेतन बन सकें । आज हम रूप गोस्वामी की बहुत सारी नकल वृंदावन में देखते हैं। किन्तु किसी को रूप गोस्वामी जैसा वस्त्र नहीं धारण करना चाहिए, विशेषकर तब, जब वे अपनी सिगरेट पीने की आदत नहीं छोड़ सकते। यह उक्ति भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की देन है कि हमें अपना वेश अचानक बदलने का प्रयास नहीं करना चाहिए । परम सत्य के विषय में हमें सिद्ध आत्माओं से जानने का प्रयत्न करना चाहिए ।" प्रभुपाद ने कहा कि विशेष कर वृंदावन में रहने वाले, उनके शिष्यों को गोस्वामी बनना चाहिए। चाहे वे गृहस्थ रहें या संन्यास धारण करें, उन्हें चाहिए कि सादा जीवन बिताएँ और कृष्ण की सेवा में चौबीस घंटे लगे रहें ।

प्रभुपाद अपने कमरे में बैठे हुए गुणार्णव से वित्तीय मामलों के सम्बन्ध में बात कर रहे थे । उन्होंने पूछा, "बिल कहाँ है ?"

गुणार्णव ने बताया, “प्रभुपाद, मैं प्रतिलिपियाँ रखता जाता हूँ। मूल प्रतियाँ दिल्ली में तेजास के पास हैं।" उसने दिखाया कि किस प्रकार उसने वाउचरों के साथ सारे बिल संलग्न कर रखे थे ।

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "यह तो केवल एक व्याख्या हुई । मैं आडिटर हूँ;

। इस समय मैं ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी नहीं हूँ। क्या तुम नहीं समझते ? आडिटर बिलों को देखना चाहता है । तुम्हारी व्याख्या सुनना नहीं चाहता ।'

उस दिन पूरे समय प्रभुपाद गुरुदास, सुरभि, मि. लहड़ी (इंजीनियर) और यहाँ तक कि ठेकेदार मि. अलीबक्स को बुलाते रहे । यद्यपि ठेकेदार मुसलमान था, तब भी प्रभुपाद ने उससे अनुरोध किया, “ काम अच्छा कीजिए, क्योंकि यह कृष्ण मंदिर है। यदि आप का काम अच्छा होगा तो कृष्ण आप का भला करेंगे।" प्रभुपाद ने उसे विश्वास दिलाया कि धन कोई समस्या नहीं होगा। वे ऐसा प्रबन्ध करेंगे कि निर्माण पूरा होने तक, उनके अमेरिका के मंदिरों से हर महीने दस हजार डालर आते रहेंगे ।

प्रभुपाद ने पूछा, "क्या यह जन्माष्टमी तक पूरा हो जायगा ?"

गुरुदास ने दृढ़ता से कहा, “हाँ, पूरा हो जायगा । "

***

मायापुर

मार्च १९७४

कलकत्ता से मायापुर जाते हुए, प्रभुपाद हमेशा की तरह सुखद एकान्त अमराई वाटिका में रुके और फूस की एक चटाई पर बैठ कर ताजे फलों का अल्पाहार ग्रहण किया। उनके शिष्यों का एक दल और उनकी बहन, भवतारिणी, भी साथ थे और उन्होंने सब को प्रसाद ग्रहण कराया। तब वे अपनी कार में बैठे और कारवाँ मायापुर को चला ।

जब प्रभुपाद की कार मायापुर चन्द्रोदय मंदिर के निकट पहुँची तो इस्कान के भक्तों की एक विशाल भीड़ मिली, जो इस्कान की सम्पत्ति से दो मील से अधिक पहले ही, श्री वासांगन नामक स्थान पर, उनके स्वागत के लिए खड़ी थी । मायापुर चन्द्रोदय मंदिर की ओर धीरे-धीरे प्रभुपाद बढ़ते हुए चले और अमेरिका, इंगलैंड, योरोप, दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया तथा भारत के चार सौ भक्त हरे कृष्ण कीर्तन करते उनका अनुगमन कर रहे थे ।

प्रभुपाद मुसकराए। अपनी कार की पिछली सीट पर बैठे हुए उन्होंने बाहर की ओर देखा और अनेक श्रद्धालु भक्तों को पहचाना, जो उनकी कृपा-दृष्टि के प्यासे थे। भक्तों की भारी भीड़ से घिरी कार बहुत धीमी गति से चलती हुई फाटक के अंदर घुसी और लम्बा रास्ता तय करके मंदिर पहुँची । रास्ते । की दोनों और मंदिर की इमारतों की चारों ओर रंगीन गेंदे और तगर के फूल खिल रहे थे जिससे प्रभुपाद के आमोदमय स्वागत में चार चाँद लग रहे थे।

कुछ ही दिन पहले मंदिर-कक्ष बन कर तैयार हुआ था; संगमरमर का बना उसका फर्श चमक रहा था, दीवारों पर पेंट हो चुका था और नए झाड़-फानूस. से वह चमचमा रहा था । वेदी पर स्थित राधा-माधव के वैभवपूर्ण सुनहरे अर्चा-विग्रहों को प्रणाम करने के बाद प्रभुपाद मंदिर के बड़े कमरे को पार कर अपने व्यास आसन पर जा बैठे और अपने शिष्यों के, वास्तव में पहले इस अन्तर्राष्ट्रीय समूह को सम्बोधित किया। उन्होंने मायापुर में उनका स्वागत किया और स्वीकार किया कि उस दिन भक्तिविनोद ठाकुर की भविष्यवाणी सही सिद्ध हुई है। भक्तों ने विजयपूर्ण स्वर में नारा लगाया " जय ! जय श्रील प्रभुपाद !"

भक्तिविनोद ठाकुर ने लिखा था,

अहा ! वह दिन कितना शुभ होगा जब भाग्यशाली अंग्रेज, फ्रांसीसी, रूसी, जर्मन और अमरीकी लोग पताका, मृदंग और करताल लेकर सड़कों और कस्बों में घूम कर कीर्तन करेंगे। वह दिन कब आएगा ?

भक्तिविनोद ठाकुर की भविष्यवाणी सही उतरी थी। उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की थी, “ शीघ्र ही एक महान संत का आगमन होगा जो चैतन्य महाप्रभु के आन्दोलन को सारे संसार में फैलाएगा।" वह महान् संत, जिसे सभी जातियों और पृष्ठभूमियों से शिष्य तैयार करने और उन्हें अपने घरों से हजारों मील दूर मायापुर में एकत्रित कर देने की शक्ति प्राप्त थी, श्रील प्रभुपाद थे। और यद्यपि वे अपने को आचार्यों का एक साधन मात्र मानते थे, किन्तु उनके शिष्य उन्हें भगवान् चैतन्य और भगवान् नित्यानन्द के अनुग्रह का साकार रूप समझते थे । जैसा कि चैतन्य - चरितामृत में कहा गया है— यद्यपि आमार गुरु चैतन्य दास । तथापि जानिए आमि तान्हार प्रकाश । यद्यपि मैं जानता हूँ कि मेरे गुरु श्री चैतन्य के दास हैं, किन्तु मैं उन्हें भगवान् का पूर्णांश भी मानता हूँ ।

मंदिर - कक्ष से प्रभुपाद सीढ़ियाँ चढ़ कर अपने कमरे में गए। वे संतुष्ट थे कि भवन अब उनकी सैंकड़ों आध्यात्मिक संतानों को शरण देकर अपने उद्देश्य की पूर्ति कर रहा था। संसार के विभिन्न भागों से आए अपने प्रमुख शिष्यों का वे स्वागत करने लगे और उनसे पुस्तकों के वितरण का उत्साहजनक समाचार सुन कर उनकी समस्यायों का समाधान करने लगे। उन्होंने कहा कि धाम में होने का हर एक को लाभ उठाना चाहिए— मंदिर में कीर्तन चौबीसों घंटे चलता रहना चाहिए, केवल श्रीमद्भागवत पर नियमित कक्षा के समय को छोड़ कर ।

भक्तों को प्रसन्नता थी कि उन्हें धाम में एकत्र होने का अवसर मिला है। जयपताक स्वामी और अच्युतानंद स्वामी जो भारत का अनुभव रखते थे, भक्तों के दल को आस-पास के पवित्र स्थानों की परिक्रमा पर ले जाते थे । मायापुर की यह यात्रा भक्तों के लिए भारत की तीर्थयात्रा का प्रथम आधा भाग थी; दस दिन के बाद उन्हें वृन्दावन जाना था ।

मायापुर में एकत्रित हुए लगभग सभी भक्त संसार के उन भागों में प्रचार कार्य कर चुके थे जहाँ तमोगुण और रजोगुण की प्रवृत्ति की प्रधानता थी । प्रतिदिन उन्हें भौतिकतावादी लोगों के मध्य रहना पड़ता था, अतः स्वाभाविक था कि वे थक गए थे। इसलिए मायापुर की यह तीर्थयात्रा उनके लिए स्वच्छीकरण का अवसर बन कर आई थी । यद्यपि वे जन्म से अथवा संस्कृत- वेदों के ज्ञान में ऊँचे नहीं थे, किन्तु प्रभुपाद ने उन्हें स्वीकार कर लिया था और उनके भक्त होने का यही प्रमाण था । धर्म का अर्थ समझने के लिए वे सच्चे अभ्यर्थी थे । मायापुर में गंगा और मथुरा में यमुना में स्नान करके वे नई शक्ति प्राप्त करेंगे और इस प्रकार स्वच्छ और तरोताजा होकर अपने-अपने देश में वापिस जाकर अधिक सक्रियतापूर्वक प्रचार कार्य करेंगे।

नरोत्तमदास ठाकुर के एक गीत में धर्म की अनुभूति के लिए तीर्थयात्री की योग्यता का वर्णन है :

गौरांग संगी-गणे, नित्य-सिद्ध करि-माने

से याय व्रजेन्द्र - सुत - पाश

श्री गौड़ - मण्डल - भूमि, येबा जाने चिन्तामणि

तार हय व्रज-भूमे वास

जिनकी बुद्धि में यह बात आ गई है कि वृन्दावन धाम के शाश्वत पार्षद् नवद्वीप के पार्षदों से भिन्न नहीं हैं, वे ही नन्द महाराज के सुत, कृष्ण, की सेवा में संलग्न हो सकते हैं। ऐसे सौभाग्यशाली पुरुष ही पवित्र धाम मायापुर को सेवा-स्थल के रूप में देखते हैं, क्योंकि उनके दिव्य चक्षु नवद्वीप धाम के शाश्वत आदर्श पार्षदों की कृपा से खुल गए हैं। अतः वे उत्साही पुरुष ही अपने दिव्य चक्षुओं से नवद्वीप के पवित्र धाम की वास्तविकता को अनुभव करते हैं। और इसीलिए वे वृन्दावन धाम से, पवित्र नवद्वीप धाम को अभिन्न मानते हुए, अपने शाश्वत पूर्ण आध्यात्मिक शरीरों में वहाँ रह कर कृष्ण की सेवा में लगे रहते हैं।

अस्तु, भक्तों के मायापुर आने का मुख्य कारण श्रील प्रभुपाद के संसर्ग में आना था। वे हर समय यात्रा पर रहते थे और उनके भक्त अल्पकाल के लिए उनके सम्पर्क में तभी आ सकते थे जब वे उनके क्षेत्र से होकर गुजरते थे । मायापुर और वृंदावन में प्रतिदिन उनके साथ प्रातः भ्रमण में या मंदिर में, रहना भक्तों के लिए उत्सव का सर्वाधिक आह्लादकारी भाग था ।

मायापुर में अधिवास से प्रभुपाद की प्रसन्नता में कई गुना अभिवृद्धि इसलिए हो गई थी कि उनके अन्तर्राष्ट्रीय परिवार की बहुत बड़ी संख्या वहाँ एकत्र हुई थी। वे इसे चाहते भी थे, मायापुर तो भक्तों के लिए ही था । प्रभुपाद तो यहाँ तक सोचते थे कि यदि संभव हो, तो सभी भक्त स्थायी रूप से मायापुर में रहें और कीर्तन करते रहें, यद्यपि वे मानते थे कि संसार भर में प्रचार की दृष्टि से यह व्यावहारिक नहीं था। उन्हें मंदिर - कक्ष के ऊपर अपने कमरे में बैठे हुए निरन्तर तुमुल कीर्तन को सुन कर बड़ा संतोष होता था। उन्होंने कहा, " भक्तिविनोद ठाकुर का कहना था कि चौदहों लोकों में पवित्र नामों के कीर्तन के अतिरिक्त, कुछ भी मूल्यवान नहीं है । "

प्रभुपाद के अनुरोध पर जी. बी. सी. के सभी सदस्य मायापुर में एकत्रित हुए थे । उनका उद्देश्य इस्कान के विश्व भर के प्रचार कार्यों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना और उसके बाद में इन प्रचार कार्यों के लिए निर्देश जारी करने के लिए प्रस्ताव पास करना था। प्रभुपाद की उपस्थिति में वे पहली बार इस तरह समूह - रूप में मिले थे और प्रभुपाद ने उन्हें बताया कि वे अपनी बैठक का संचालन किस तरह करें। उन्होंने कहा कि उन्हें केवल बातें नहीं करनी है। वरन् उनमें से किसी को एक प्रस्ताव रखना चाहिए जिस पर उन्हें बहस करके, मतदान करना चाहिए । कार्य - वृत्त में हर प्रस्ताव का उल्लेख होना चाहिए ।

प्रभुपाद ने कहा, “पूरे वर्ष के लिए अपनी कार्य-योजना बना लीजिए। और तब, आप जो भी निर्णय करें, उस पर अमल करें और उसे बदलें नहीं। तब अगले वर्ष आप पुनः मिलें और पुनः विचार-विमर्श करें ।” प्रभुपाद लम्बी बैठकों के पक्ष में नहीं थे, किन्तु उन्हें संतोष था कि उनके जी. बी. सी. सचिव, कृष्णभावनामृत आन्दोलन को बढ़ाने के उद्देश्य से, कार्यसूची के सभी मुद्दों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे थे ।

मायापुर उत्सव की एक मुख्य विशेषता यह थी कि वहाँ हाल में प्रकाशित चैतन्य - चरितामृत के एक खण्ड की कई अग्रिम प्रतियाँ पहुँच गई थीं। इस खण्ड में, 'आदि - लीला' के अध्याय सात से अध्याय ग्यारह तक सम्मिलित किए गए थे और उसमें श्रील प्रभुपाद के शिष्यों द्वारा निर्मित रंगीन चित्रों का भी समावेश था। नवें अध्याय में, विशेषकर चैतन्य महाप्रभु द्वारा आरंभ किए गए संकीर्तन की महिमा का गान था और उसके प्रत्येक श्लोक से प्रभुपाद के आन्दोलन की प्रामाणिकता की आह्लादपूर्वक पुष्टि होती थी ।

कृष्णदास कविराज ने नवद्वीप धाम का वर्णन उस स्थान के रूप में किया है जहाँ चैतन्य महाप्रभु ने कृष्णभावनामृत के “वृक्ष" का बीजारोपण किया था । एक श्लोक में वे कहते हैं, “इस प्रकार चैतन्य - वृक्ष की शाखाओं का समाज - संकुल निर्मित हुआ जिसकी महान् शाखाएँ समस्त ब्रह्माण्ड में फैल गईं। ” और श्रील प्रभुपाद ने इस श्लोक का निष्कर्षात्मक तात्पर्य एक वाक्य में यों लिखा है, " हमारा अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ इस चैतन्य - वृक्ष की शाखाओं में से एक शाखा है । "

प्रभुपाद कृत चैतन्य - चरितामृत का अनुवाद और व्याख्या चैतन्य - वृक्ष का फल है। यह पूरी तरह प्रामाणिक और परम्परागत है, किन्तु यह केवल शैक्षणिक या प्राविधिक नहीं है। इसकी शिक्षाओं में इस बात पर बल दिया गया है कि भक्ति - सेवा को सब तक पहुँचाने की चैतन्य महाप्रभु की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति की अपनी इच्छा होनी चाहिए। प्रभुपाद की व्याख्या से कोई संदेह नहीं रह जाता कि वे कृष्णभावनामृत आंदोलन के सदस्यों से क्या अपेक्षा रखते हैं।

संकीर्तन आंदोलन के प्रचारकों का एकमात्र उद्देश्य निरंतर, निर्बाध प्रचार करते जाना है । इसी तरीके से श्री चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन आन्दोलन का संसार में प्रवेश कराया था ।

इस खण्ड में चैतन्य - चरितामृत का एक सबसे महत्त्वपूर्ण श्लोक भी समाविष्ट था : भारत-भूमिते हैला मनुष्य जन्म यार । जन्म सार्थक करि कर पर उपकार ।" जिसने मनुष्य के रूप में भारतभूमि में जन्म लिया है उसे परोपकार करके अपना जीवन सफल बनाना चाहिए ।" इस श्लोक के तात्पर्य में प्रभुपाद ने भारतीयों की विशेष पवित्रता की व्याख्या की कि वे संकीर्तन समारोह में सम्मिलित होने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । दुर्भाग्य यह है कि भारत के वर्तमान नेता लोगों को ईश्वर से दूर लिए जा रहे हैं। और उन्हें धर्म और अधर्म के कार्यों में भेद करने और पुनर्जन्म में विश्वास करने से रोक रहे हैं। भारतीयों का यह विशेष दायित्व है कि वे संसार को वैदिक सिद्धान्तों में प्रशिक्षित करें ।

प्रभुपाद ने लिखा, “यदि सभी भारतवासी भगवान् चैतन्य महाप्रभु के बताए मार्ग पर चलते, तो भारत संसार को एक अद्वितीय उपहार दे सकता था और इस तरह भारत अपने को महिमा - मण्डित कर सकता था ।" इसके अतिरिक्त, यह केवल भारतवासियों का ही नहीं, वरन् प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह कृष्णभावनामृत आंदोलन में योगदान करे। “प्रत्येक व्यक्ति को निश्चित रूप से जानना चाहिए कि मानव समाज का सर्वश्रेष्ठ कल्याण कार्य यह है कि वह मानव में भगवत् - चेतना अर्थात् कृष्ण भावनामृत जागरित करे ।"

प्रभुपाद अपने शिष्यों के साथ मायापुर में पूरा एक सप्ताह रहे। वे प्रतिदिन व्याख्यान देते थे और घंटों छोटे-छोटे दलों में लोगों से मिलते थे। गौर पूर्णिमा के दिन वे गंगाजी गए और उनका पवित्र जल अपने सिर पर डाला, जबकि उनके शिष्यों ने ऊँचे किनारे से जल में छलाँग लगाई और वे तैरने लगे। अगले दिन उन्होंने वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया जहाँ उनके शिष्यों से उनकी पुनः भेंट होनी थी और उन्हें उनको धाम से परिचित कराना था ।

***

यद्यपि प्रभुपाद के बहुत से शिष्यों को भारत में रहने और यात्रा करने का अनुभव नहीं था, वे अपच, दस्त और कुछ शिष्य सांस्कृतिक सदमा तथा गृह - वियोग से पीड़ित थे; फिर भी बोरिया-बिस्तर पीठ पर बाँधे वे मायापुर से कलकत्ता, कलकत्ता से दिल्ली और अंत में दिल्ली से वृंदावन जा पहुँचे ।

वृन्दावन मंदिर और अतिथिगृह अभी भी निमार्णाधीन थे, इसलिए भक्तों को निकट के फोगेल आश्रम में ठहरना पड़ा । प्रभुपाद ने कृष्ण-बलराम मंदिर के निकट नवनिर्मित कमरों को पुनः अपना अधिवास बनाया। भक्त नित्य प्रात:कालीन भ्रमण में और सवेरे की भागवत् - कक्षा में उनसे मिलते थे। प्रभुपाद कभी-कभी संध्या समय भी फोगल आश्रम में खुले मण्डप में बैठ कर उनसे बात करने के लिए आते थे ।

प्रभुपाद ने लक्ष्य किया कि बहुत से भक्त उनकी पहले दिन की सायंकालीन बैठक में उनके कक्ष में उपस्थित नहीं थे; तो उन्होंने इस सम्बन्ध में पूछताछ की। उन्हें मालूम हुआ कि अनेक भक्त वृंदावन में प्रसिद्ध प्राचीन मंदिरों और तीर्थ स्थलों को देखने गए थे, कुछ बाजार में चीजें खरीदने गए थे, शेष कुछ सो रहे थे। प्रभुपाद ने चिढ़कर कहा, "सब को वापिस लाओ । तीर्थयात्रा पर आने का तात्पर्य है कि वहाँ जाओ जहाँ साधु हों। मैं यहाँ हूँ तो हर कोई यहाँ-वहाँ क्यों जा रहा है ?” यह सुन कर प्रभुपाद के कमरे में इतने सारे शिष्य आ गए कि वे समा नहीं सके।

प्रभुपाद तपस्या के विषय में बात करने लगे। उन्होंने कहा, “वृंदावन में तपस्वी लोग ठंडी ऋतु में भी नग्न रहते हैं। भौतिक जीवन के लिए पुनर्जन्म न लेने के लिए वे कृतसंकल्प होते हैं।” उन्होंने समझाया कि जन्म के पहले प्राणी किस प्रकार पेट में जकड़ा रहता है; उसकी दशा वैसी ही होती है जैसे किसी के हाथ-पैर बांध कर उसे सागर में फेंक दिया जाय। माता के शरीर के भीतर के कृमि, भ्रूण के चर्म को काटते रहते हैं और प्राणी को यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। प्रभुपाद ने कहा कि माया के वशीभूत होकर हम सोचते हैं कि हम सुखी हैं और फलतः हमें फिर किसी अन्य माता के पेट में जन्म लेना पड़ता है। और हो सकता है कि एक जन्म में हम बहुत धनाढ्य हों, किन्तु यह भी हो सकता है कि अगले जन्म में हमें खटमल, सूअर अथवा कुत्ता होकर जन्म लेना पड़े ।

प्रभुपाद बोले, "इसलिए यह जीवन तपस्या के लिए है। किन्तु इस युग में हम कठोर तपस्या नहीं कर सकते। अतः हमारी तपस्या गरीब, सनकी लोगों को सुधारना है। कृष्ण के नाम में हमें स्वैच्छिक कष्ट झेलना चाहिए। कृष्ण का आगमन पतित आत्माओं के उद्धार के लिए होता है, इसलिए यदि आप कुछ सहायता करेंगे तो कृष्ण प्रसन्न होंगे। कृष्ण स्वयं आते हैं, वे अपने भक्तों को भेजते हैं, पुस्तकें देते हैं, फिर भी हम इन्द्रियों के भोग के पीछे पड़े रहते हैं। अतः हमारी तपस्या यही है कि हम पतित आत्माओं को सुधारने का प्रयत्न करें । "

प्रभुपाद के उपदेश से उनके शिष्यों का उत्साह बढ़ा, जिनका कार्य अनेक देशों के नागरिकों में प्रचार करना था। वे प्रभुपाद की आज्ञा पर मायापुर और वृन्दावन के दर्शनों के लिए आए थे, किन्तु उनका वास्तविक कार्य अपने - अपने देशवासियों की पतित आत्माओं का उद्धार करना था और प्रभुपाद के उपदेश ने उन में दृढ़ संकल्प भर दिया ।

बाद में एक भक्त ने प्रभुपाद से कहा कि कभी-कभी भौतिकतावादियों की तुलना में एक भक्त से निपटना अधिक कठिन होता है, और उसने इस सम्बन्ध में माखनचोर नामक एक भक्त का प्रसिद्ध उदाहरण दिया। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, " तुम्हारी तपस्या यही है कि तुम माखनचोर के साथ काम करो। हमें चिन्ता झेलनी पड़ेगी। एक समझदार व्यक्ति का एक सनकी व्यक्ति के साथ काम करना प्रसन्नता का कार्य नहीं है, किन्तु कृष्ण की सेवा आनन्ददायक है।” प्रभुपाद ने वर्णन किया कि किस प्रकार कृष्ण के लिए चिन्ता और भार वहन करने के लिए उन्होंने वृंदावन के शान्त जीवन का परित्याग किया था। ठीक जैसे वृद्धावस्था में उन्होंने अमेरिका जाने का खतरा उठाया था, उसी तरह कृष्णभावनामृत के प्रचार के लिए उनके शिष्यों को जो भी कठिनाइयाँ उठानी जरूरी हों उन्हें झेलना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा, “कार्य कोई आनन्ददायक नहीं है, किन्तु बहुत सारे भक्त बनाना आनंददायक है । "

यद्यपि भक्तजन वृन्दावन के विभिन्न मंदिरों का दर्शन उसके मनोभाव को आत्मसात् करने के लिए, कर रहे थे, किन्तु उन्हें यथार्थ आनंद तब प्राप्त होता था जब श्रील प्रभुपाद अपने कमरे में बैठे हुए उन्हें वृन्दावन पर व्याख्यान सुनाते थे। उन्होंने कहा, “वृन्दावन परमहंसों के लिए है। तुम विषय आसक्त होकर वृन्दावन को नहीं देख सकते। कसौटी यह है कि तुमने आहार, निद्रा और मैथुन पर कितनी विजय प्राप्त कर ली है। यह न सोचो कि केवल वृंदावन पहुँच कर तुम गोस्वामी बन जाओगे। जो कोई वृंदावन भौतिक सुख की भावना लेकर आता है वह यहाँ बंदर या कुत्ता बन कर पुनर्जन्म पाता है। यही उसका दंड है । किन्तु यहाँ के कुत्ते भी वैष्णव हैं।

" लोग सारी सांसारिक चिन्ताओं और परिवार को त्यागने के लिए वृंदावन आते हैं। अतः किसी को भयभीत नहीं होना चाहिए। उसे इसकी चिन्ता करनी चाहिए कि क्या होने वाला है। वृंदावन में अनेक भक्त हैं जो यहाँ की गर्मी या सर्दी से क्षुब्ध नहीं होते। लेकिन वृंदावन में एक खतरा यह है कि ऐसे लोग भी मिलते हैं जो बात तो गोपियों की करते हैं और पीते बीड़ी हैं। वे सहजिया कहलाते हैं। हमें देखना है कि अपने व्यक्तिगत व्यवहार से भक्त कौन है ? यदि कोई पैसे की तलाश में हो, बीड़ी पीता हो और औरतों की इच्छा रखता हो और बात गोपियों की करता हो, तो ऐसे व्यक्ति की स्थिति क्या होगी ? श्री चैतन्य महाप्रभु सार्वजनिक रूप से गोपियों की बात कभी नहीं करते थे । वास्तविक वृंदावन का अर्थ प्रसाद खाना और सोना नहीं है, वरन् वृन्दावन चन्द्र (कृष्ण) का उपदेश मानना और उनके संदेश का प्रसार करना है। यही उनका संदेश हैं, यही वृन्दावन हैं । वृन्दावन धाम पूजनीय है। यहाँ कोई अपराध मत करो। इसे चिन्तामणि - धाम अथवा कृष्ण समझो । नरोत्तमदास ठाकुर कहते हैं कि विषयी बन कर वृंदावन को नहीं देखा जा सकता । अतः गौर - निताइ की शरण में जाकर हमें आहार, निद्रा और मैथुन से मुक्त होना चाहिए। तभी हम वृंदावन देख सकते हैं। यहाँ अपराध मत करो। वृंदावन का एक विशेष प्रभाव है । "

प्रभुपाद ने कहा कि वृन्दावन का आध्यात्मिक गुण यह है कि यहाँ जो भक्ति की जाती है उसका प्रभाव अन्यत्र की गई भक्ति से सौ गुना अधिक होता है । किन्तु यहाँ किए गए अपराध का भी असर सौ गुना अधिक होता है। इसलिए साधारण लोगों को वृंदावन जैसे पवित्र स्थान में तीन दिन से अधिक रहने की शिक्षा नहीं दी जाती, अन्यथा वे ढीले हो जायँगे और पापकर्मों में प्रवृत्त होने लगेंगे। प्रभुपाद ने कहा, “अच्छा हो कि यहाँ आओ, शुद्ध बनो और चौथे दिन यहाँ से चले जाओ। वृन्दावन में सबसे बड़ा अपराध अवैध यौन-सम्बन्ध स्थापित करना है। इसलिए यहाँ आकर कृष्ण से आँख-मिचौनी मत खेलो। वे अपने नेत्रों से सब कुछ देखते हैं। सूर्य ही उनका नेत्र है। कृष्ण तुम्हारे मन में भी बसते हैं। वे सर्वज्ञाता हैं। जिन्हें भक्त बनना है, उन्हें सत्यनिष्ठ भी होना होगा। उन्हें धोखाधड़ी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कृष्ण सब कुछ जानते हैं। कृष्ण के और उनके प्रतिनिधि के प्रति निष्ठावान् रहो। भगवद्गीता यथारूप का प्रचार करो । आध्यात्मिक गुरु बनो । ”

संध्या के व्याख्यान के बाद प्रभुपाद ने बताया कि कुछ सहजिया लोग किस तरह उनके व्याख्यान से उठ कर चले गए थे। उन्होंने कहा, “ वे इतने आगे बढ़े हैं कि वे केवल राधाराणी और कृष्ण के चुंबन और परिरम्भण के विषय में सुनना चाहते हैं । वे मेरे व्याख्यान को सामान्य व्याख्यान समझते हैं।” प्रभुपाद ने समझाते हुए बताया कि वे एक व्याख्यान में केवल एक श्लोक पर बोलते हैं, किन्तु वह व्याख्यान वैसा ही होता है जैसा कि कृष्ण का व्याख्यान था । उन्होंने कहा कि उनके गुरु महाराज ने श्रीमद्भागवत के केवल पहले श्लोक पर ही तीन महीने तक व्याख्यान दिया था और उसके लिए उन्हें बड़ा सम्मान प्राप्त हुआ था ।

एक दिन प्रभुपाद को मालूम हुआ कि उनका एक भक्त इस्कान भक्तों का साथ छोड़ कर राधाकुण्ड पर बाबा लोगों के साथ रहने लगा है। प्रभुपाद को बड़ा क्रोध आया; उन्होंने उस लड़के को तुरन्त बुलवाया। जब वह आ गया तो प्रभुपाद उससे मिलने के लिए बाहर आ गए। वे केवल धोती पहने थे। उन्होंने कठोर शब्दों में अपने शिष्य से कहा कि वृंदावन के बंदर भी साधारण रूप में रहते हैं किन्तु उनकी रुचि केवल खाने और मैथुन में होती है। क्रोध से काँपते हुए प्रभुपाद बोले, "बंदर मत बनो। क्यों नहीं तुम यहाँ आते और मेरे साथ रहते ?"

लड़के ने उत्तर दिया, “बाबा लोगों ने कीर्तन के लिए मुझे कुछ सुविधाएँ दी हैं । "

प्रभुपाद ने जोर से कहा, “तुम मेरे यहाँ आओ। मैं तुम्हें सुविधा दूँगा । किन्तु बंदर मत बनो।” लड़के ने प्रभुपाद के अनुकम्पापूर्ण लगाव के सामने आत्मसमर्पण कर दिया ।

प्रभुपाद को वृन्दावन में रह रहे अपने शिष्यों से ज्ञात हुआ कि कुछ स्थानीय गोस्वामियों की उनके विरुद्ध एक शिकायत थी । उन्हें बैक टु गाडहेड में प्रकाशित एक लेख पढ़ने को मिला था जिसे वे अपमानजनक समझते थे। वह लेख प्रभुपाद के शिष्य हयग्रीव ने लिखा था और उसमें एक बात यह कही गई थी कि वृंदावन में जो गोस्वामी दुराचार करते हैं उन्हें अगले जन्म में सूअर या वानर बनना पड़ेगा। प्रभुपाद ने कहा कि वक्तव्य सही है। वक्तव्य में आधुनिक युग में रह रहे किसी विशेष गोस्वामी के बारे में नहीं कहा गया है, वरन् उस गोस्वामी की ओर संकेत किया गया है जो वृंदावन में पापपूर्ण जीवन बिताता है । यह कोई एक व्यक्ति का मत नहीं था, वरन् वृन्दावन के मूल गोस्वामियों का प्रामाणिक निष्कर्ष था ।

यमुना दासी अपने पति, गुरु दास, के साथ वृन्दावन में रहती थी, लेकिन प्रभुपाद को वह कभी-कभी ही दिखाई देती थी । अतः एक दिन उन्होंने उसे बुलवाया और पूछा कि वह उनका व्याख्यान सुनने और उनकी सेवा करने क्यों नहीं आती । यमुना ने स्वीकार किया कि वह उनसे भयभीत थी, कयोंकि कुछ दिनों से वे डाँटने-फटकारने की मुद्रा में थे । ( उसका संकेत प्रभुपाद के उस आग्रह की ओर था कि मंदिर अति शीघ्र बने) प्रभुपाद ने कहा कि यह उनके आग्रह का ही परिणाम है कि मंदिर बन रहा था । किन्तु यमुना ने प्रभुपाद के क्रोध से भयभीत होने की बात को पुनः स्वीकार किया ।

प्रभुपाद बोले, "तुम अपने गुरुजी से भयभीत हो सकती हो, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तुम उनसे मिलने न आओ।” उसके बाद उन्होंने एक कहानी सुनाई कि भगवान् बलराम ने किस प्रकार यमुना नदी को अपने सामने आने के लिए बाध्य किया था। जब प्रभुपाद यह कहानी सुना रहे थे तो सभी भक्तों को यह अनुभूति हो रही थी कि प्रभुपाद केवल भगवान् बलराम की लीला का वर्णन नहीं कर रहे कि किस तरह उन्होंने यमुना नदी को धमकाया, वरन् वे अप्रत्यक्ष रूप से अपनी शिष्या यमुना के बारे में भी बता रहे थे। भगवान् बलराम की लीला में भावविभोर होकर प्रभुपाद ने बताया कि मधु - पान से विह्वल भगवान् ने किस तरह यमुना नदी को अपने सामने आने के लिए धमकाया। लेकिन जब यमुना नहीं आई तो भगवान् बलराम ने अपने हल से पृथ्वी खोद डाली और यमुना को अपने सामने प्रवाहित होने को बाध्य कर दिया । प्रभुपाद ने कहा, “ उसी तरह मैं तुम्हें अपनी सेवा के लिए घसीट लाऊँगा ।' यमुना दासी अपनी मूर्खतापूर्ण हिचकिचाहट छोड़ कर प्रभुपाद की सेवा में आकर उनका भोजन बनाने को राजी हो गई ।

यद्यपि वृन्दावन में तीसरे पहर गरमी हो जाती थी, किन्तु सवेरे ठंड रहती थी । प्रभुपाद ने स्वेटर पहना, ऊनी शाल ओढ़ी और ठोढ़ी के नीचे बटनदार ऊनी कनटोप लगाया, फिर अपने शिष्यों के साथ वे छटीकरा रोड पर पौ फटने के पहले ही भ्रमण के लिए निकल पड़े। वे चलते रहे और बात करते रहे, सुनने के लिए उनके आस-पास इस्कान के नेता और संन्यासी उनकी बात चलते रहे। उनका भ्रमण इतना लम्बा हो गया कि उनके शिष्य थक गए और कुछ ने मजाक किया कि प्रभुपाद भ्रमण करते हुए दिल्ली वापस जा रहे हैं। जब सूर्योदय हुआ तो हवा धीरे-धीरे गरम होने लगी ।

कुछ भक्तों को आशा थी कि प्रभुपाद वृंदावन में रहते हुए कृष्ण की लीलाओं के स्थलों और कृष्ण तथा गोपियों के बारे में और अधिक बात करेंगे और वे स्वयं कृष्ण की लीलाओं के स्थलों को देखना चाहेंगे। किन्तु प्रभुपाद को अपने भक्तों के प्रचार कार्य और कृष्ण-बलराम मंदिर के निर्माण के बारे में विचार-विनिमय की अधिक उत्कण्ठा थी । प्राय: जब भक्त वृंदावन का प्रकरण उठाते तो प्रभुपाद वृंदावन के बाबा लोगों की धोखाधड़ी और वहाँ फैले भ्रष्टाचार की आलोचना करने लगते। अथवा वे केवल उस दिव्य दृष्टि की बात करने लगते जिसके द्वारा वृंदावन समुचित रूप से देखा जा सकता था। वे कहते कि वृंदावन वहीं है जहाँ एक शुद्ध भक्त रहता है। वे इस बात पर बल देते कि भक्तों का मुख्य कार्य वृंदावन से बाहर जाकर प्रचार करना है ।

जब वे सड़क पर चलते होते थे तो यातायात में, मुख्य रूप से, पैदल चलने वाले, साइकिल पर दूध ले जाने वाले श्रमिक, या बैलगाड़ियों पर चलने वाले लोग होते थे। कभी-कभी ही भोंपू बजाती हुई कोई मोटर गाड़ी गुजरती थी । करीब करीब हर व्यक्ति जो प्रभुपाद के निकट से गुजरता था 'जय राधे' या 'हरे कृष्ण' कह कर उन्हें नमस्कार करता था । अथवा लोग हाथ जोड़ कर या सिर झुका कर उन्हें नमस्ते कहते थे । एक युवक जो साइकिल रिक्शा पर विपरीत दिशा में जा रहा था, जब प्रभुपाद के निकट पहुँचा तो रिक्शा को रोक कर नीचे उतर गया और अपने जूते उतार कर उनके सामने साष्टांग मुद्रा में सड़क पर लेट गया । प्रभुपाद ने मुसकरा कर कहा, “तुम बहुत अच्छे लड़के हो ।” प्रभुपाद रुक गए। उन्होंने ने कहा, के सामान्य " यह वृन्दावन है ।" वृन्दावन लोगों की, किसी सन्त पुरुष की ओर सम्मान प्रदर्शित करने की, सरल प्रकृति प्रभुपाद के लिए, वृन्दावन की मूल भावना की अभिव्यक्ति थी । वृन्दावन भारत के शेष बचे खुचे उन कतिपय स्थानों में से था जहाँ एक सामान्य पुरुष, सड़क पर चलते-चलते, राधाराणी और कृष्ण के नाम का उच्चारण करता था । ऐसी असाधारण घटनाओं को समझना ही वृंदावन को समझना था ।

एक भक्त ने पूछा कि यदि वृंदावन के इतने सारे निवासी पतित आत्माएँ हैं तो इस कथन का क्या अर्थ है कि वृंदावन में जन्म लेना ही मुक्त होना है ? भक्त ने कहा, "कृष्ण" पुस्तक में कहा गया है कि वृंदावन के निवासियों को आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता नहीं होती। कृष्ण ही उनके आध्यात्मिक गुरु हैं । '

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, उन्हें एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक गुरु प्राप्त हैं । किन्तु आध्यात्मिक गुरु के होते हुए भी कोई उनकी आज्ञा का पालन न करे तो उसकी क्या हालत होगी ? अतः वे पतित हैं जो वृंदावन में रहते हुए व्यर्थ के काम करते हैं। लेकिन वे भाग्यशाली भी हैं कि वे वृंदावन में पैदा हुए हैं। पर वे उस सौभाग्य का दुरुपयोग करते हैं ।”

वृंदावन की भूमि रूखी-सूखी थी। प्रभुपाद ने कहा कि वृन्दावन रेगिस्तान बनता जा रहा है और भविष्य में वह और भी रेगिस्तान हो जायगा । उन्होंने कहा कि यह अधर्म के कारण है । “पश्चिम में अमेरिका और जर्मनी में इतनी हरियाली दिखाई देती है, किन्तु वह यहाँ नहीं है।

तब भक्तों ने प्रभुपाद से पूछा, “क्या पश्चिम वृंदावन की तुलना में अधिक अधार्मिक नहीं है ?"

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, मैं पश्चिम में तुम्हारे पास गया और तुम कृष्ण के बारे में कुछ नहीं जानते थे । तुम यह भी नहीं जानते थे कि मांसाहार और अवैध यौनाचार करना बुरा है। किन्तु जब मैने तुमसे इसे बंद करने को कहा तो तुम मान गए। लेकिन कृष्ण की भूमि, वृंदावन में वे यह सब कुछ कर रहे हैं। इसलिए यह तुम्हारे यहाँ से भी खराब है और कृष्ण इसके लिए स्वयं उन्हें दण्डित कर रहे हैं। "

प्रभुपाद का वृंदावन में सवेरे का भ्रमण उतना ही भावोत्तेजक और ज्ञान - बोधक होता जितना उनका औपचारिक व्याख्यान । प्रातः कालीन दो भ्रमण-वार्ताओं में लगातार उन्होंने एक इस्कान वर्णाश्रम कालेज की स्थापना की विस्तृत योजना का आख्यान किया । भगवद्गीता में वर्णन है कि किस प्रकार, व्यक्ति की प्रकृति और व्यवसाय के अनुसार, समाज को चार वर्णों में विभाजित करना चाहिए ।

प्रभुपाद ने कहा कि यद्यपि कृष्णभावनामृत संघ के सदस्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक चार सामाजिक विभागों से ऊपर हैं, फिर भी उन्हें पूर्णतया इन विभागों के अन्तर्गत कार्य करते हुए लोगों को उपदेश देना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति ब्राह्मण नहीं बन सकता, किन्तु कृष्ण की प्रसन्नता के लिए, अपने विशिष्ट कर्त्तव्य का पालन करते हुए वह वही पूर्णता प्राप्त कर सकता है। प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को आश्चर्य में डालते हुए कहा, “हम सैनिक शिक्षा भी देंगे । सैनिक तिलक लगाएँगे और 'हरे कृष्ण', 'हरे कृष्ण' कहते हुए मार्च करेंगे। वे सैनिक फौजी बैण्ड के साथ मार्च कर सकते हैं और लड़ सकते हैं।'

प्रभुपाद को वर्णाश्रम धर्म की स्थापना कठिन नहीं लगती थी । इस्कान को प्रभुपाद वर्णाश्रम की धारणा पर आधारित एक कालेज की स्थापना से आरंभ करना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा, “बेरोजगारी नहीं होनी चाहिए। हम कहेंगे 'बेकार क्यों बैठे हो ? मैदान में आओ। यह बैल लो, यह हल लो। काम करते जाओ । बेकार क्यों बैठे हो ?' यही कृष्णभावनामृत आन्दोलन है। किसी को बेकार बैठने और सोने नहीं देना है । सब को कुछ न कुछ रोजगार खोजना है, चाहे ब्राह्मण के रूप में कार्य करो, चाहे क्षत्रिय के रूप में और चाहे वैश्य के रूप में । बेरोजगारी क्यों हो ?"

" जिस तरह यह शरीर कार्य कर रहा है— जिसका मतलब है कि टाँगे कार्य कर रही हैं, हाथ, मस्तिष्क और पेट कार्य कर रहे हैं। तो बेरोजगारी क्यों हो ? इस बेकारी को बंद करो और तुम देखोगे कि सारे संसार में शान्ति हो जायेगी। कोई शिकायत नहीं रह जायगी । सब लोग प्रसन्नतापूर्वक हरे कृष्ण कीर्तन करेंगे। यह खेत देखो, यहाँ कोई कार्य नहीं कर रहा है। सब लोग मिलों में कार्य करने नगरों में चले गए हैं। यह अभिशप्त सभ्यता है । "

समारोह की समाप्ति के निकट एक दिन सवेरे के भ्रमण में एक भक्त ने कहा कि समारोह लगभग समाप्त होने को है, और भक्तों को अपने केन्द्रों में वापिस लौट जाना है। प्रभुपाद ने कहा, “हाँ,” और उन्होंने सवेरे का घूमना बन्द कर दिया, यह कहते हुए कि, “हमारा मुख्य कार्य घूम-घूम कर प्रचार करना है । "

जब भक्तजन दिल्ली और उसके आगे की यात्रा की तैयारी में लगे थे तभी गिरिराज बम्बई से एक चिन्ताजनक समाचार लेकर वृंदावन पहुँचा । बम्बई नगरपालिका ने उन्हें मंदिर निर्माण के लिए अनुमति देने से इनकार कर दिया था । गिरिराज के कहने के अनुसार दो प्रकार की अनुमति चाहिए थी : नियम के अनुसार निर्माण की अनुमति और पुलिस आयुक्त से अनापत्तिक प्रमाणपत्र । अनापत्तिक प्रमाणपत्र देने में पुलिस को दो मुद्दों पर विचार करना था — मंदिर से यातायात में बाधा होगी या नहीं, और मंदिर होने से साम्प्रदायिक या धार्मिक तनाव तो नहीं उत्पन्न होगा । नगरपालिका अपनी अनुमति देने में देर कर रही थी और कह रही थी कि पहले उसे पुलिस से अनापत्तिक प्रमाणपत्र चाहिए। और पुलिस कह रही थी कि अनापत्तिक प्रमाणपत्र देने के पहले उसे नगरपालिका की अनुमति चाहिए। गिरिराज नौकरशाही के इस मामले से निपटने की कोशिश में लगा था कि पुलिस के एक आयुक्त से एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें अनापत्तिक प्रमाणपत्र देने से सीधे इनकार कर दिया गया था। आयुक्त के अनुसार मंदिर में कीर्तन से " उपद्रव" उत्पन्न होगा ।

गिरिराज की इस रिपोर्ट से प्रभुपाद को घोर चिन्ता हुई। अगले दिन प्रातः भ्रमण में उन्होंने गिरिराज से कहा, “तुम्हें तुरन्त आपत्ति खड़ी करनी चाहिए । सरकार बिल्कुल अयोग्य है। शुद्ध भक्त सदा कीर्तन में लीन रहते हैं। और सरकार कहती है कि यह 'उपद्रव' है। आयुक्त को कम-से-कम भलमनसाहत दिखानी थी; वह कह सकता था कि कीर्तन उस समय ऊँचे स्वर में न हो जब लोग विश्राम कर रहे होते हैं । किन्तु उसने केवल यह कहा है कि कीर्तन 'उपद्रव ' है।” प्रभुपाद ने कहा कि बम्बई में अनेक बुद्धिजीवी लोग हैं और वे भी इस तरह के निर्णय का समर्थन नहीं करेंगे।

प्रभुपाद ने कहना जारी रखा, “तुम्हें सभी वैष्णवों को संगठित करना है। भगवद्गीता में कहा गया है, 'सततम् कीर्तयन्तो माम् : हमें कृष्ण का कीर्तन निरन्तर करना है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है— कीर्तनियः सदा हरिः । और यह दुष्ट कह रहा है कि 'कीर्तन उपद्रव है' ? हुँ । क्या यह संभव नहीं है कि हम इसके विरुद्ध आन्दोलन खड़ा करें ? उसे हमारे कीर्तन को 'उपद्रव' कहने का क्या अधिकार है ? वह मीठी भाषा में कह सकता था कि 'भजन भक्तों के लिए बहुत अच्छा हो सकता है, किन्तु उससे दूसरे लोगों को बाधा होती है । इसलिए हम अनुमति नहीं दे सकते।' वह ऐसा कह सकता था, किन्तु फिर भी वे भजन बंद नहीं कर सकते। लेकिन उसकी टिप्पणी है कि भजन उपद्रव है। हरे कृष्ण कीर्तन भारत की संस्कृति है । हमें कीर्तन - दल तैयार करके प्रचार करना है और इसके लिए संघर्ष करना है । "

जी.बी.सी. के एक सदस्य ने प्रस्ताव रखा कि पश्चिम लौटने की बजाय कुछ भक्त रुक जायँ और बम्बई जाकर बड़े स्तर पर प्रतिरोध संगठित करें। पहले तो प्रभुपाद ने इस तरह के मनोभाव का समर्थन किया और उसकी तुलना उस काजी के विरुद्ध किए गए चैतन्य महाप्रभु के प्रतिरोध से की जिसने नवद्वीप में उनका संकीर्तन आन्दोलन बंद कर दिया था, परन्तु पुनः विचार करने के बाद उन्होंने निर्णय किया कि सरकार से लड़ाई करना बुद्धिमानी नहीं होगी । भक्तों को ऐसी लड़ाई में विजय की आशा नहीं और जनता भी इसे पसंद नहीं करेगी। प्रभुपाद ने सुझाव दिया कि भक्तों को बम्बई में बृहत् स्तर पर कीर्तन-कार्यक्रम चलाना चाहिए और बम्बई की जनता को कृष्णभावनामृत की महत्ता के विषय में निश्चयात्मक रूप से उपदेश देना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा, " जब बम्बई के लोग कृष्णभावनामृत के महत्त्व के विषय में आश्वस्त हो जायँगे तो वे देखेंगे कि मंदिर बन कर रहता है । "

तात्कालिकता की मुद्रा में प्रभुपाद ने वृन्दावन से बम्बई के लिए प्रस्थान किया। गुरुदास और वृंदावन के अन्य लोगों को उन्होंने आखिरी निर्देश दिया, "झूठे गोस्वामियों को चुनौती देने के लिए यहाँ एक सच्चे गोस्वामी का होना आवश्यक है। किन्तु यदि तुम भी झूठे बन जाते हो तो तुम चुनौती नहीं दे सकोगे।'

***

बम्बई

मार्च २०, १९७४

शिष्य और इस्कान के आजीवन सदस्य प्रभुपाद से, पुलिस आयुक्त द्वारा हरे कृष्ण लैंड में मंदिर - निर्माण के लिए अनुमति न दिए जाने को लेकर, उसका सामना करने के विषय में विचारविमर्श करते रहे। विडम्बना यह थी कि इस्कान की भूमि एक ओर एक विशाल सिनेमा हाल से लगी हुई थी जहाँ हर दिन संध्या समय, चलचित्र आरंभ होने के पूर्व और बाद में यातायात की लम्बी लाइन लग जाती थी। भोंपू बजाती हुई मोटर - गाड़ियों और सैंकड़ों पैदल चलने वालों के कारण बहुत कोलाहल और भीड़-भाड़ हो जाती थी । यदि पास-पड़ोस के लोगों और सरकार को एक सिनेमा- घर का होना सह्य था तो निष्पक्ष भाव से देखने पर वे कीर्तन को 'उपद्रव' कैसे कह सकते थे ?

अपने भाषणों में प्रभुपाद मुख्य रूप से सरकार से अनुमति न मिलने के मुद्दे को लेते थे, फिर भी वे इस से अधिक व्यापक सिद्धान्त पर भी बल देते थे कि किस प्रकार कलियुग में सरकारें धार्मिक जीवन पर प्रतिबंध थोपती जा रही हैं। उन्होंने कहा, “सरकार की नीति यह है कि धर्म जनता की बुद्धि को मंद करने वाला है। उसका मानना है कि धर्म एक भावप्रवणता है। वह बूचड़ खाने खोलना चाहती है और उसमें इन चंचल भटकती गायों का वध कर देना चाहती है। उसका निष्कर्ष यह है कि धर्म की कोई कीमत नहीं है। इसलिए उसका निर्णय है कि इन मंदिरों को और इस भजन को प्रोत्साहन न दिया जाय। उनकी दृष्टि में यह बेकार है । "

प्रभुपाद के कुछ बम्बई के मित्रों ने सुझाव दिया कि वे राजनीतिक दल, जन-संघ, के माध्यम से कार्य करें, जो हिन्दुत्व का समर्थक था और इस प्रकार वे उसके साथ मजबूत राजनीतिक मोर्चा बनाएँ । किन्तु प्रभुपाद इस अवसर का लाभ प्रचार के लिए उठाना चाहते थे। उन्होंने कहा, “मेरा सुझाव है कि हम जोरदार प्रचार करें। बड़े-बड़े हालों में बैठकें करो जिससे जनता की समझ में आ जाय कि, कम-से-कम, यह आंदोलन बहुत महत्त्वपूर्ण है। विज्ञापन छपाओ कि विभिन्न विषयों पर हमारे व्याख्यान होंगे। तब मैं आऊँगा और बोलूँगा ।'

'उस बैठक में एक भले आदमी को अध्यक्ष बनाओ। जनमत तैयार करो ताकि सब लोग आएं और हस्ताक्षर करें कि 'हाँ, मंदिर होना चाहिए ।' हम शास्त्रीय साक्ष्यों के आधार पर इसे सिद्ध करेंगे। जैसा कि भगवद्गीता में कहा है: चतुर्विधा भजन्ते माम् जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । यह भजन शब्द जो भजन्ते से निष्पन्न है सुकृतिनः अर्थात् धर्मिष्ठ मनुष्यों के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है। इसका विपरीतार्थक शब्द दुष्कृतिनः अर्थात् दुष्टात्मा पुरुष है। अतः भजन धर्मिष्ठों के लिए है जैसा कि भगवद्गीता की संस्तुति है। और भगवद्गीता का सम्मान सारे संसार में है। इतना होने पर भी उसने भजन को 'उपद्रव' कहा है ! वह कितना दुष्ट और मुर्ख है ! हमें स्पष्ट करना है कि भजन का बड़ा महत्त्व है। भगवद्गीता का उद्देश्य सभी सांसारिक समस्याओं का शमन करना है, किन्तु भारत के लोग उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं ।

" मेरे शिष्य भी बोल सकते हैं और कह सकते हैं 'आप हमारे साथ आइए । हम विदेशी हैं, किन्तु हम जानते हैं कि कृष्ण न इसके लिए है, न उसके लिए। तो आप भारतीय पीछे क्यों रह रहे हैं ? आप अपनी संस्कृति को स्वीकार करें। हमने कृष्ण को स्वीकार किया है और कृष्ण कहते हैं कि कीर्तन करने मात्र से सभी प्रदूषणों से मुक्ति मिल सकती है। तो आप हमारे साथ क्यों नहीं आ जाते ? यहाँ क्या कमी है ? आप के शास्त्र में यह कहा गया है और हमने उसे अंगीकार कर लिया है। और हम पहले से अच्छा अनुभव कर रहे हैं। तो आप इतने उदासीन क्यों हैं? आप तो शिक्षित हैं, शिष्ट हैं !' इसी तरह का प्रचार करना है ।

श्रील प्रभुपाद ने सीधे राजनीतिक आन्दोलन का विचार त्याग दिया था, किन्तु पुलिस आयुक्त के निर्णय के विरुद्ध वे बराबर बोलते रहे और उस निर्णय को उलटवाने के बारे में विचार करते रहे। उन्होंने मामले पर सभी दृष्टिकोणों से विचार किया और उसके पक्ष एवं विपक्ष के विषय में सोचा। एक बार उनके मन में यह भी आया और उन्होंने कहा कि यदि उन्हें मंदिर बनाने की अनुमति नहीं मिलती तो उन्हें एक होटल बनाना चाहिए। उन्होंने कहा, “मैं अनुमति प्राप्त करने का यत्न कर रहा हूँ, यदि अनुमति नहीं मिलती, तो एक होटल बनाएँगे ।" तमाल कृष्ण गोस्वामी ने सुझाया - " सामने एक होटल और उसके पीछे एक मंदिर ।'

प्रभुपाद ने कहा- -"हाँ" और उन्होंने अपने लोगों को विरोधी नेताओं से सम्पर्क करने का निर्देश दिया। भूमि प्राप्त करने में संघर्ष की तरह ही, यह वर्तमान संघर्ष भी लम्बा कानूनी संघर्ष का रूप लेने जैसा हो रहा था । किन्तु संघर्ष में भी प्रभुपाद सदैव लोकोत्तर बने रहे। बम्बई के उष्णकटिबन्धीय मौसम का आनन्द लेते हुए वे अपनी दिनचर्या पहले की तरह निभाते थे।

यद्यपि जुहू लैंड पर इस्कान की अनेक कोठरियाँ थीं, किन्तु भक्तों को उनमें से किसी को भी उपयोग में लाने में सफलता नहीं हुई थी, क्योंकि सभी में किराएदार रह रहे थे। लेकिन हाल में ही जब एक किराएदार ने एक मकान खाली किया तो भक्तों ने उसे प्रभुपाद के लिए ठीक कर दिया था। यह एक मामूली मकान था; उसमें दो छोटे कमरे थे और एक छोटा-सा रसोई घर था । किन्तु अब पहली बार प्रभुपाद को हरे कृष्ण लैंड में अपने मकान में रहने का अवसर मिला था ।

प्रभुपाद को अपने घर के बाहर संकरे बरामदे में बैठना और धूप में मालिश कराना पसंद था । जुहू लैंड का सर्वेक्षण करते हुए, जिसमें अनेक ऊँचे नारियल के वृक्ष खड़े थे और खजूर के लम्बे पत्ते मंद बयार में सरसरा रहे थे, प्रभुपाद ने कहा कि हरे कृष्ण लैंड एक स्वर्ग है। भक्तगण प्रसन्न थे ।

एक दिन प्रभुपाद ने मालिश के दौरान देखा कि ठेकेदार, जिनको उन्होंने निर्धारित मूल्य पर नारियल ले जाने की अनुमति दी थी, बाजार में बेचने के लिए लम्बे-लम्बे पत्ते भी लिए जा रहे थे। झट खड़े होकर उन्होंने बरामदे से पुकारा, “चैत्यगुरु ।” भूमि की देखभाल करने वाला उनका शिष्य शीघ्र ही उनके सामने उपस्थित हो गया । प्रभुपाद ने कहा, “मैं अपनी आँखें बन्द नहीं कर सकता । अन्य कोई इन चीजों को देखने वाला नहीं है! तुम ठगे जा रहे हो !

प्रत्येक दिन प्रात:काल जब प्रभुपाद जुहू सागर तट पर घूमने निकलते तो अनेक भारतीय भद्रजन उनके साथ हो लेते। जब कभी प्रभुपाद महान् राजनीतिक और आध्यात्मिक नेताओं की आलोचना, भगवद्गीता की उनकी नासमझी को लेकर, करते तो ये भद्रजन क्षुब्ध हो उठते । उसी तरह जब ये लोग प्रभुपाद से तर्क-विर्तक करने लगते तो प्रभुपाद के शिष्य क्षुब्ध हो जाते ।

एक दिन जब प्रभुपाद ने एक लोकप्रिय नायक की आलोचना की तो एक डाक्टर ने उनसे बहस शुरू कर दी और प्रभुपाद के इस वक्तव्य की आलोचना की कि कृष्ण परम सत्य या परम ईश्वर हैं। उस डाक्टर और अन्यों ने जोरदार शब्दों में कहा कि परम सत्य में कई वस्तुएँ हैं और अन्ततः सभी वस्तुएँ एक हैं। भक्तों के लिए अपने को वश में रखना कठिन हो रहा था, किन्तु फिर भी प्रभुपाद इन सभी लोगों को अपने मित्र मानते थे ।

दूसरे दिन, सवेरे प्रभुपाद ने अपने कमरे में अपने शिष्यों को बताया कि ये लोग वास्तव में मायावादी थे। उन्होंने कहा, "हमारा एक कार्यक्रम रहेगा। हम सागर तट पर घूमेंगे, लेकिन हम केवल हरे कृष्ण गाएँगे । यदि वे हमसे बात करना चाहेंगे तब भी हम हरे कृष्ण गाते रहेंगे। हम केवल गाते रहेंगे; यदि वे चाहेंगे तो हमारे साथ घूमते रहेंगे ।"

एक भक्त ने कहा, “प्रभुपाद, यदि हम ऐसा करेंगे तो वे अशांत हो जायँगे ।

प्रभुपाद ने कहा, “यदि वे हरे कृष्ण नहीं भी गाएँगे और केवल सुनते रहेंगे तो भी वे लाभान्वित होंगे। मायावादी दर्शन बहुत खतरनाक है। चैतन्य महाप्रभु कहते थे कि जो भी उसे सुनता है उसका सर्वनाश हो जाता है । "

एक भक्त ने पूछा कि एक मायावादी अपने को कृष्ण भक्त के रूप में क्यों छिपाता है । प्रभुपाद ने बताया कि वह सभी के प्रति उदार होने का आदर पाने के लिए ऐसा करता है । किन्तु यदि कोई औरत कहे कि वह उदार है और किसी भी व्यक्ति का स्वागत करने को तैयार है तो यह प्रस्ताव उदार जरूर है पर अच्छा नहीं है । प्रभुपाद ने कहा, “ घूमते हुए हम कृष्ण नामक की पुस्तक पढ़ेंगे। मैं अपने शिष्यों के साथ घूमूँगा । यदि वे लोग चाहते हैं तो हमारे साथ घूमें और सुनें । किन्तु यदि वे प्रश्न करना चाहेंगे तो उन्हें बिना किसी तर्क - विर्तक के गुरु का उत्तर स्वीकार करना होगा। क्या यह ठीक रहेगा ?"

अगले दिन यद्यपि चुनौती देने वाले, घूमने में साथ देने, नहीं आए, फिर भी प्रभुपाद ने गिरिराज से कृष्ण नामक पुस्तक ऊँचे स्वर में पढ़ते रहने को कहा। एकाएक प्रभुपाद ने मायावादियों को विपरीत दिशा से आते देखा । किन्तु जब वे निकट आए तो प्रभुपाद से बचने के लिए अलग हट कर चलते गए। लेकिन उनमें से एक पूरे दल के प्रतिनिधि के रूप में प्रभुपाद के पास आया और बोला कि अब वे लोग प्रभुपाद के साथ नहीं घूमेंगे । आपस में मिल कर उन्होंने तय किया था कि प्रभुपाद के साथ उनकी वार्ता से बहुत अधिक तर्क-वितर्क और आलोचना - प्रत्यालोचना पैदा होने लगी थी । उसने अंत में जोड़ा, "भारत में अनेक संत हैं। "

प्रभुपाद ने कहा, " मैं पुलिस - मैन हूँ और मुझे चोर पकड़ना है।” कुछ दिन के बाद वह दल फिर प्रभुपाद से घूमने में मिलने लगा और फिर वही विवाद आरंभ हो गया । प्रभुपाद के कुछ शिष्य क्षुब्ध हुए । किन्तु प्रभुपाद प्रसन्न बने रहे। वे बड़े भाई की तरह अपने मित्रों को सही रास्ते पर लाते रहे और उन्हें शुद्ध कृष्णभावनामृत का उपदेश देते रहे।

प्रभुपाद फलों और मूंगफली का नाश्ता करते थे। लगभग ग्यारह बजे वे गमछा पहन कर अपने बरामदे में बैठ जाते थे और उनका सेवक सरसों के तेल से उनकी मालिश करता था । मालिश कराते समय वे अपने बम्बई के एक-दो शिष्यों से वार्तालाप करते थे और उन्हें आवश्यक निर्देश देते थे। दोपहर के भोजन के बाद वे एक या दो घंटे विश्राम करते थे और उठने के बाद एक गिलास नारियल का पानी या गन्ने का रस पीते थे। संध्या समय वे अभ्यागतों से मिलते थे और लगभग दस बजे विश्राम करते थे। वे रात में एक बजे उठते थे और डेस्क के सामने मच्छरदानी में बैठ जाते थे। और प्रातः कालीन भ्रमण का समय आने तक, चैतन्य - चरितामृत का अनुवाद और तात्पर्य बोल कर मशीन पर लिखवाते थे।

प्रभुपाद गिरिराज और बम्बई के अन्य प्रबन्धकों को दिन-भर में कई बार बुलाकर मंदिर के लिए अनुमति प्राप्त करने के उपायों पर विचार करते थे । जब प्रभुपाद के बम्बई के मित्र उनसे मिलने जाते तो उन्हें प्राय: अपने घर की छत पर बैठे हुए पाते। सफेद सूती चादर पर बैठे और मसनद के सहारे टिके हुए प्रभुपाद भगवद्गीता के दर्शन पर घंटों बोलते रहते। वे अपने मिलने वालों से अनुरोध करते कि बम्बई में कृष्णभावनामृत को मजबूती से स्थापित करने में वे उनकी सहायता करें।

एक दिन मालिश कराते समय उन्होंने अपने सेवक से एकांत में कहा, "मेरी अवस्था के अधिकांश लोग अवकाश प्राप्त कर लेते हैं। मैं और अधिक समय प्रबन्धन के कार्य को नहीं दे सकता। मैं केवल कुछ लिखना चाहता हूँ । ' प्रभुपाद ने पूछा कि क्या संसार में कोई ऐसा स्थान है जहाँ वे छह महीने के लिए जा सकते हैं, जहाँ वे बिल्कुल अकेले रह सकें, जहाँ उनके कार्य में बाधा डालने कोई न पहुँच सके, जहाँ उन्हें कोई डाक न मिले।

प्रभुपाद के सेवक ने तेहरान का सुझाव दिया । प्रभुपाद ने उस पर विचार किया और तब न्यू वृन्दावन सुझाया। उन्होंने महात्मा गांधी की चर्चा की जो रात में भी नहीं सो सकते थे क्योंकि लोग हमेशा उनके पीछे पड़े रहते थे, यद्यपि वे गुप्त रूप से यात्रा करते थे ।

ठीक उसी दिन पेरिस से भगवान का पत्र मिला जिसने प्रभुपाद को अपने योरोपीय केन्द्रों की यात्रा करने को आमंत्रित किया था। प्रभुपाद इस पत्र से उत्साहित हो गए। उन्होंने कहा कि वे जायँगे ।

उनके सेवक ने कहा, “किन्तु आज ही कुछ पहले आपने कहा था कि आप कहीं दूर जाना चाहते हैं जहाँ आप अकेले हों ।

प्रभुपाद हँसे, "इस जीवन में मेरे लिए यह संभव नहीं होगा। इससे अच्छा है कि मैं यात्रा करता रहूँ और युद्धभूमि में मर जाऊँ । एक सैनिक के लिए युद्धभूमि में मर जाना गौरव की बात है। क्या ऐसा नहीं है ?"

साल भर में एक या दो बार विश्व भ्रमण प्रभुपाद की नित्यचर्या बन गई थी। अपने गुरु महाराज के बारे में वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा था, “हिन्दुओं को सागर पार जाने की अनुमति नहीं थी, किन्तु आप अपने भक्तों को प्रचार के लिए सागर तट भेजते हैं।” हिन्दुओं पर सागर - पार जाने की निषेधाज्ञा उन्हें उनकी पवित्र भारत भूमि को छोड़ने से बचाने के लिए लगाई गई थी, क्योंकि अनेक भारतीयों ने बाहर जाने के बाद अपनी संस्कृति का त्याग कर दिया था । जब प्रभुपाद छोटे थे तब उनके एक चाचा ने सुझाव दिया था कि वे एक दिन लंदन जाएँ और एक वकील बने, किन्तु प्रभुपाद के पिता ने इसका प्रतिवाद किया था; वे नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र पश्चिम के पापपूर्ण रहन-सहन का शिकार बनने को भेजा जाय। वर्षों बाद प्रभुपाद प्रचारक के रूप में वहाँ के पापपूर्ण जीवन में परिवर्तन लाने के लिए लंदन गए । वैष्णवों को इसी कारण यात्रा करनी चाहिए ।

योरोप की यात्रा के लिए प्रस्थान करने के ठीक पहले प्रभुपाद ने अपने कई शिष्यों को समझाया कि उन्हें भी यात्रा करके प्रचार कार्य करना चाहिए । उन्होंने कहा कि जब तक भक्त युवा हैं उन्हें ऐसा करना चाहिए और जब वे कृष्ण - चेतना में परिपक्व हो जायँगे तो वे मायापुर जा सकते हैं जहाँ वृद्ध और अवकाश का जीवन बिताते हुए उन्हें हरे कृष्ण भजना चाहिए। अंत में प्रभुपाद ने जोड़ा, “जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं उतना परिपक्व नहीं हुआ हूँ ।"

एक पल के लिए भक्त शान्त थे, तब एक ने साहस करके कहा, "श्रील प्रभुपाद, यदि आप कहते हैं कि आप परिपक्व नहीं हैं तो हम कभी भी यह नहीं सोच सकते हैं कि हम वृद्ध या परिपक्व हो गए हैं और अवकाश ले सकते हैं ? " प्रभुपाद मुसकराए और बोले अपने लिए निर्णय उन्हें स्वयं करना होगा । किन्तु वे अभीष्ट रूप में परिपक्व नहीं थे।

तमाल कृष्ण गोस्वामी बोले, " तो हम भी कभी इतने परिपक्व नहीं होंगे कि हम अवकाश ले सकें । "

***

अप्रैल १८

योरोप जाने के पहले प्रभुपाद ने दक्षिण भारत के अपने शिष्यों का हैदराबाद में एक तीन दिवसीय पण्डाल - कार्यक्रम में सम्मिलित होने का आमंत्रण स्वीकार किया। वे ज्योंही हैदराबाद हवाई अड्डे पर पहुँचे, सम्वाददाताओं के एक दल ने उनसे भेंटवार्ता की प्रार्थना की।

प्रभुपाद राजी हो गए और एक सम्वाददाता ने इस तकनीकी दार्शनिक प्रश्न से आरंभ किया कि प्रभुपाद की दार्शनिक विचारधारा अद्वैतवादी थी या द्वैतवादी । दक्षिण भारत, वैष्णवों और शंकराचार्य के अनुयायियों के बीच चलने वाले प्राचीन दार्शनिक वाद-विवादों में इस तरह डूबा हुआ था कि एक मामूली प्रेस रिपोर्टर तुलनात्मक दार्शनिक विचारधाराओं के विषय में जानने को आतुर था।

प्रभुपाद ने प्रश्न का उपहास करते हुए कहा, "ऐसी चीजों पर बहस करने से क्या लाभ, कोई चाहे द्वैत हो अथवा अद्वैत ? कृष्ण कहते हैं— अन्नाद् भवन्ति भूतानि । अन्न का अर्थ अनाज है। लोगों के पास अनाज नहीं है। अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है और वर्षा यज्ञ से होती है। इसलिए यज्ञ कीजिए। आप को समाज चार वर्गों में विभाजित करना है। आप चाहे द्वैत हों अथवा अद्वैत, आपको अन्न चाहिए। "

प्रभुपाद के सचिव ने भगवान् को पेरिस लिखते हुए, उसे प्रभुपाद के स्थान और कार्यक्रम से अवगत रखा।

आप हमसे यहाँ २९ या ३० अप्रैल तक सम्पर्क कर सकते हैं, जिस के बाद हम पुन: बम्बई वापिस जाएँगे। उत्सवों के सम्बन्ध में आप का विचार बढ़िया है। यहाँ लोगों ने तीन दिवसीय पण्डाल - कार्यक्रम आयोजित किया था । गत रात्रि में लगभग एक हजार लोग आए थे। और प्रभुपाद के व्याख्यान के बीच एकदम शान्त बैठे रहे; फिर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ने को धक्कामुक्की करने लगे । भक्तों ने श्रीविग्रहों को मंच पर स्थापित किया था, व्यास - आसन सजाया था और अतिथियों के लिए बहुत सारा प्रसाद तैयार किया था ।

अप्रैल २५

हैदराबाद से प्रभुपाद वायुयान द्वारा तिरुपति गए। वहाँ तिरुमल की पहाड़ियों मध्य भारत का सबसे धनाढ्य मंदिर है जिसमें बालाजी नाम से विष्णु के अर्चा-विग्रह का निवास है। मंदिर के प्रबन्धकों ने सम्मान सहित प्रभुपाद और उनके दल का स्वागत किया और उन्हें पहाड़ी के किनारे दो कुटीरों में ठहराया। मंदिर की नीति के अनुसार श्रीविग्रहों का दर्शन पाने के पहले लोगों को लम्बी पंक्ति में खड़े रह कर प्रतीक्षा करनी पड़ती है और दर्शन भी अत्यंत संक्षिप्त मिलता है, क्योंकि प्रतिदिन वहाँ लगभग पन्द्रह हजार लोग दर्शन के लिए आते हैं। गैर - हिन्दुओं को प्रायः दर्शन की अनुमति नहीं है । किन्तु श्रील प्रभुपाद और उनके शिष्यों को बालाजी के एकांत दर्शन की विशेष सुविधा का सम्मान दिया गया।

एक लम्बे परम पावन मंदिर - गर्भ के अंतिम सिरे पर श्री अर्चा-विग्रह सिंहासनासीन हैं। द्वार के दोनों ओर वैकुण्ठ के द्वारपालों, जय और विजय, की विशाल प्रतिमाएँ हैं। गर्भ गृह में प्रकाश या तो दीवारों में लगी टार्चों से आता है या पुजारियों द्वारा पकड़ी टार्चों से। गैलरी में अर्चा-विग्रह के निकट पहुँचने वाले दर्शनार्थी परम्परागत रूप में 'गोविन्द' 'गोविन्द' का नारा देते हैं । किन्तु जब प्रभुपाद प्रविष्ट हुए तो उन्होंने गाया - गोविन्दम् आदि पुरुषं तम् अहं भजामि ।

बाद में अपने कुटीर में प्रभुपाद ने टिप्पणी की कि लाखों लोगों का बालाजी के दर्शन के लिए आना इस बात का प्रमाण है कि लोगों में, सरकारी प्रचार के बावजूद, भगवान् के प्रति आकर्षण है। यद्यपि हो सकता है कि अधिकांश लोग भगवान् के पास अपने सांसारिक दुखों की निवृत्ति के लिए अथवा धन प्राप्ति के निमित्त जाते हैं, फिर भी वे 'गोविन्द' पवित्र नाम बोलते तो हैं।

एक भक्त ने प्रभुपाद से पूछा कि अर्चा-विग्रह का नाम बालाजी क्यों है । प्रभुपाद ने उत्तर दिया “बालाजी का अर्थ बालक है। अर्थात् गाय चराते कृष्ण, वैकुण्ठवासी कृष्ण नहीं ।"

प्रभुपाद को काटेज में रहने और प्रसाद ग्रहण करने में प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुझाव दिया कि न्यू वृंदावन में कुटीर इसी तरह के बनने चाहिए और इस्कान को चाहिए कि मंदिर बालाजी मंदिर की तरह बनवाए। उनके गुम्बद सोने के होने चाहिएं और दर्शकों के लिए विस्तृत सुविधाएँ होनी चाहिए ।

एक दिन प्रभुपाद से मिलने आए तिरुपति मंदिर के एक अधिकारी ने उल्लेख किया कि मंदिर की प्रति मास की आय लगभग पचास लाख रुपए है। प्रभुपाद ने पूछा कि इस आय का उपयोग कैसे होता है। जब मंदिर के पुजारी ने बताया कि अधिकांश धन भवनों के पुनर्नवीनीकरण पर खर्च होता है तो प्रभुपाद ने कहा मंदिर का पुनर्नवीनीकरण अच्छा है, किन्तु उससे अच्छा यह होगा कि कृष्ण के संदेश का विश्व भर में प्रचार किया जाय। प्रभुपाद ने कहा - " बालाजी कृष्ण हैं । उनके संदेश का प्रसार होना चाहिए। हमें शिक्षा देने के लिए वे चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए थे । " । "

प्रभुपाद ने पुजारी को बताया कि किस तरह लंदन में बहुत-से पुराने गिरिजाघरों का प्रयोग नहीं हो रहा है। उन्होंने पूछा, “प्रचार के बिना मंदिर की आत्मा को सुरक्षित कैसे रखा जा सकेगा ?” पुजारी ने शेखी बघाड़ी कि वे एक दूसरा मंदिर बना रहे हैं और उसमें पंचोपासना की स्थापना करेंगे ( पाँच अर्चा-विग्रहों की उपासना जिसकी संस्तुति मायावादी शंकराचार्य ने की थी ) प्रभुपाद को आश्चर्य हुआ । उन्होंने कहा – “ आप के नेता रामानुज हैं, उन्होंने पंचोपासना की संस्तुति कभी नहीं की । "

तिरुपति में दो दिन रहते हुए प्रभुपाद बालाजी श्रीविग्रह का दर्शन करने दिन में तीन या चार बार जाते थे। और वे जब भी जाते थे, पुजारी लोग गर्भ - गृह से अन्य सभी दर्शकों को हटा देते और जब तक प्रभुपाद चाहते थे उन्हें टार्चों के प्रकाश में खड़े हुए रत्नों से मंण्डित अद्भुत बालाजी का एकान्त दर्शन करने देते थे ।

***

बम्बई

अप्रैल २९

यद्यपि प्रभुपाद को कुछ ही दिनों में रोम के लिए प्रस्थान करना था किन्तु उनके और भारत की परियोजनाओं के प्रबन्धकों के सामने एक समस्या थी । तमाल कृष्ण गोस्वामी प्रभुपाद से प्रार्थना कर रहे थे कि वे उन्हें अमेरिका जाने दें। भारत में चार वर्ष तक प्रबन्ध का भार उठाने के बाद वे अमेरिका में एक दूसरे प्रकार का प्रचार करने को उत्सुक थे। उनके गुरु भाई - मित्र विष्णुजन स्वामी ने अमेरिका में अपनी बस यात्रा से प्रभुपाद को प्रसन्न किया था और उन्होंने तमाल कृष्ण को विश्वस्त किया था कि यह प्रचार का सबसे उपयुक्त तरीका है। श्रील प्रभुपाद ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था, यद्यपि अनमनस्क भाव से । निश्चय ही अमेरिका में प्रचार के लिए यह बहुत अच्छा रहेगा और तमाल कृष्ण के लिए भी यह अच्छा रहेगा। लेकिन भारत में क्या होगा ? एक बार फिर प्रभुपाद का इस तथ्य से सामना हो रहा था कि भारत में इस्कान के एकमात्र प्रबन्धक वे स्वयं हैं ।

उन्होंने मायापुर में आय-व्यय के लेखे पर एक बार फिर ध्यानपूर्वक दृष्टि डाली । उनको इस बात की चिन्ता थी कि सभी धन सावधानीपूर्वक रखा जाय और केवल उसी उद्देश्य पर खर्च हो जिसके लिए वह निर्दिष्ट है। उन्होंने जयपताक स्वामी को लिखा,

भूमि के निमित्त धन का व्यय केवल भूमि खरीदने पर किया जाय । यदि मैं एक रसोई घर बनाने के लिए धन भेजूँ तो उसे उसी पर खर्च करना जरूरी है ।

और यह कि, यदि आप भूमि खरीदें तो उसका समुचित उपयोग हो... और यदि आप वास्तव में कुछ अन्न और सब्जियाँ पैदा करते हैं तो फिर खाने-पीने पर व्यय करने के लिए अधिक धन की क्या आवश्यकता है? भूमि खरीदने और उसे जोतने - बोने का खतरा लिए बिना, भरण-पोषण के लिए प्रति व्यक्ति पर प्रति माह एक सौ रुपए चाहिए। मैं समझता हूँ इस समय वहाँ लगभग २० लोग हैं, इसलिए भरण-पोषण के लिए अधिक से अधिक दो हजार रुपए की जरूरत है। मैं अक्षम हूँ यह समझने में कि आप की योजना क्या करने की है। किन्तु मेरा मोटा आकलन यही है ।

आप ने अपने लम्बे पत्र में समझाने की कोशिश की है। मैने अभी तक उसे पढ़ा नहीं है। इस बीच आप इसी सिद्धान्त पर चलिए धन उसी उद्देश्य पर खर्च किया जाय जिसके निमित्त वह निर्धारित है, इससे हिसाब साफ रहेगा।

श्रील प्रभुपाद के एक पहले के पत्र से भवानंद और जयपताक कुछ हतोत्साहित हुए थे कि उन्होंने अपने गुरु महाराज को अप्रसन्न कर दिया है। किन्तु प्रभुपाद ने उन्हें फिर आश्वस्त कर दिया ।

मैं जानता हूँ कि तुम मेहनत और निष्ठा से कार्य कर रहे हो। मुझे आप लोगों की आलोचना नहीं करनी है । किन्तु संगठन के अध्यक्ष और आप लोगों का गुरु होने के नाते मेरा कर्त्तव्य है कि मैं आप के दोष निकालूँ । चैतन्य महाप्रभु भी अपने आध्यात्मिक के गुरु के समक्ष अपने को अपराधी के रूप में प्रस्तुत करते थे। आध्यात्मिक गुरु समक्ष अपराधी होना अच्छी योग्यता है क्योंकि इससे दोष के दूर होने का अवसर मिलता है। किन्तु यदि कोई समझे कि वह सर्वथापूर्ण है तो फिर उस के शुद्धिकरण का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। जब मैं दोष निकालूँ तो तुम्हें खेद नहीं होना चाहिए । यह मेरा मूल कर्त्तव्य है । चाणक्य पंडित का कथन है कि शिष्यों और पुत्रों में दोष जरूर निकालना चाहिए, यह उनके लिए अच्छा है ।

प्रभुपाद ने वृंदावन की वित्तीय स्थिति की भी छान-बीन की। वृंदावन में गुरुदास अध्यक्ष था और दिल्ली में रहते हुए तेजास उसका वित्तीय पर्यवेक्षक था । तेजास की सब से ताजा प्रार्थना की समीक्षा करते हुए प्रभुपाद ने लिखा,

मैं रजिस्ट्री द्वारा उन सारे चेकों की सूची भेज रहा हूँ जिनके लिए आपने प्रार्थना की थी । अर्चा-विग्रहों के पहनावे के लिए वृंदावन के टेलर, ललित प्रसाद, को दिए जाने वाले तीन हजार रुपए का चेक मैं नहीं भेज रहा हूँ। अर्चा-विग्रहों के सामानों पर होने वाले खर्च को गुरुदास और यमुना अलग से माँगेंगे, यह निर्माण के फंड से नहीं जायगा, जैसी कि आप ने प्रार्थना की है। इसके अतिरिक्त, मैंने गुरुदास को सलाह दी है कि दर्जी को कोई भुगतान न करें और अर्चा-विग्रहों के पहनावे स्वयं भक्तों से तैयार कराएँ ।

प्रभुपाद को हिसाब-किताब में कुछ विसंगतियाँ मिलीं जिन्हें ठीक करने के लिए उन्होंने तेजास को लिखा,

मेरी चेक बुक के अनुसार १७,६००.०० रुपए का चेक काटने के बाद केवल १८,७४५.८१ रुपए बचने चाहिए। किन्तु आप १००, ३१३.६४ रुपए की बचत बताते हैं । यह अंतर क्यों है ? मुझे पूरा हिसाब भेजिए ।

गुरुदास और तेजास ने प्रभुपाद को आश्वस्त किया था कि कृष्ण-बलराम मंदिर, उद्घाटन के लिए जुलाई १९७४ तक तैयार हो जायगा । प्रभुपाद ने आमंत्रण-पत्र का डिजाइन स्वयं बनाया और कहा कि उसे मुद्रित कराकर प्रमुख व्यक्तियों को भेजा जाए।

संस्थापक- आचार्य एवं कृष्णभावनामृत संघ के सदस्य प्रार्थना करते हैं कि श्री और श्रीमती..... कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन समारोह में अगस्त ८ से १० तक सम्मिलित होने और प्रसाद ग्रहण करने की कृपा करें।

ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी संस्थापक- आचार्य

गुरुदास अधिकारी

स्थानीय अध्यक्ष

सुरभि दास अधिकारी

सचिव

अब केवल तीन महीने शेष थे और प्रभुपाद की योजना मई से जुलाई तक यात्रा पर रहने की थी । धन को दिल्ली से वृन्दावन स्थानान्तरित करने का आदेश देने के बाद वे यात्रा पर निकल गए। विशाल उद्घाटन के लिए वे तीन महीने में वापिस आ जायँगे ।

 
 
 
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