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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 44: एक मंदिर हो  » 
 
 
 
 
 
एक मन्दिर हो

•ल प्रभुपाद के योरोप में पहले दो ठहराव रोम और जेनेवा में हुए थे। दोनों स्थानों में भक्तों ने निश्चित कर रखा था कि उनके व्याख्यान बाहर भी होंगे और प्रमुख व्यक्तियों से वे अपने कमरे में भी मिलेंगे। रोम का मंदिर पिआजा लोदी के निकट वाले व्यस्त चौराहे पर एक छोटे-से मकान में था। वहाँ यातायात निरन्तर चलता रहता था जिसका शोरगुल मंदिर भवन के अंदर प्रभुपाद के कमरे तक पहुँचता था। मंदिर के अध्यक्ष, धनंजय, ने क्षमा-याचना करते हुए कहा, " आशा है कि यातायात के शोरगुल से आपको बहुत अधिक बाधा नहीं होती है । "

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “ नहीं, शोरगुल बहुत प्रसन्नताकारी है। इसका तात्पर्य है कि यह रोम का बहुत महत्त्वपूर्ण भाग है। यह बहुत अच्छा स्थान है । "

विला बोरगीज के एक होटल के बड़े कमरे में, जिसमें पाँच सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था थी, प्रभुपाद ने एक हजार से अधिक श्रोताओं के सामने भाषण दिया । इटलीवासियों की इतनी उत्साहभरी भीड़ को देख कर प्रभुपाद को प्रसन्नता हुई। भीड़ का व्यवहार ऐसा था मानो वह पोप का आशीर्वाद प्राप्त करने को आ रही हो । लोग धर्मपरायण थे, किन्तु उन्हें इस बात की शिक्षा ठीक से नहीं मिली थी कि भगवान् की सेवा कैसे की जाती है। प्रभुपाद ने कहा कि यही एक दोष था । यद्यपि भक्तों ने पोप से प्रभुपाद का मिलना निश्चित किया था, किन्तु पोप अस्वस्थ थे, इसलिए प्रभुपाद की भेंट कार्डिनल पिगनेडोली से हुई, जो गैर- ईसाइयों से सम्पर्क के प्रभारी थे ।

जेनेवा की हवाई यात्रा में प्रभुपाद और उनके सचिवों ने हिमाच्छादित आल्प्स पर्वत का अवलोकन किया। जब वायुयान आल्प्स के शिखरों के ऊपर से उड़ हा था तो प्रभुपाद ने टिप्पणी की, "यह बहुत खतरनाक स्थल है, यहाँ अनेक

वायुयान ध्वस्त हो चुके हैं

जेनेवा में मेयर ने प्रभुपाद का सरकारी स्वागत समारोह किया। हर चीज राजनयिक शिष्टाचार के अनुरूप बहुत बढ़िया रही। बाद में मेयर ने स्पष्टवादिता के साथ पूछा, “यदि प्रत्येक व्यक्ति आप के कहने के अनुसार हो जाय तो क्या अर्थव्यवस्था चरमरा नहीं जायगी ?"

प्रभुपाद ने कहा- नहीं। और उन्होंने वही श्लोक उद्धृत किया जो वे हैदराबाद में सम्वाददाताओं को सुना चुके थे : अन्नाद् भवन्ति भूतानि । अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है और वर्षा विष्णु को अर्पित यज्ञ से पैदा होती है। प्रभुपाद का प्रस्ताव था कि यदि लोग अपना खेत जोतें - बोएँ और गाएँ रखें तो कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी । कृष्ण - चेतना वाले भक्त समाज में किसी भी प्रकार का कार्य कर सकते हैं। वास्तव में वे सिखा सकते हैं कि भगवद्-चेतना के सिद्धान्तों पर आधारित समाज का संगठन कैसे किया जाय ।

मंदिर को वापिस जाते समय प्रभुपाद ने पूछा, “क्या मेरे उत्तर ठीक थे ?" एक भक्त ने उत्तर दिया, कि उसका विचार था कि मेयर भक्तों को भिखारी समझते हैं। प्रभुपाद ने कहा, "इसीलिए मैने उनसे खेत जोतने-बोने के बारे में बताया। हम भिखारी नहीं हैं। हम सर्वश्रेष्ठ ज्ञान दे रहे हैं। मैंने उन्हें भगवद्गीता की एक प्रति दी, जो सर्वोच्च ज्ञान की पुस्तक है। वे हमें कुछ नहीं दे सके। तो भिखारी कौन है ?"

प्रभुपाद ने जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व स्वास्थ्य संगठन के तत्त्वावधान में बोलने के लिए एक आमंत्रण स्वीकार किया। मंदिर में वे भारतीय - विद्या विशेषज्ञ जीन हर्बर्ट और कई वैज्ञानिकों तथा आचार्यों से मिले ।

प्रभुपाद का एक प्रमुख शिष्य, करन्धर उनसे भेंट करने जेनेवा आया । करन्धर ने चार माह पूर्व संघ छोड़ दिया था, क्योंकि वह उसके विधि-विधान के चार नियमों का कड़ाई से पालन नहीं कर सकता था। उस समय तक वह संयुक्त राज्य में इस्कान का प्रमुख प्रबन्धक था। प्रभुपाद उस पर पूरी तरह निर्भर थे— चाहे दाई निप्पोन मुद्रकों से निपटने का मामला हो, पुस्तकों की विक्री का मामला हो, अथवा संयुक्त राज्य के मन्दिरों से धन संग्रह का मामला हो । संघ छोड़ने के बाद करन्धर को घोर पश्चाताप हुआ था, उसका हृदय परिवर्तन हो चुका था और उसने प्रभुपाद को तार भेजा था कि वह आकर एक बार पुनः उनके चरणकमलों में अपने को अर्पित करना चाहता है। श्रील प्रभुपाद ने उसकी वापसी का स्वागत किया था और वह तुरन्त हवाई जहाज द्वारा जेनेवा पहुँचा था ।

एक

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस

करन्धर से कुछ घंटे बात करने के बाद प्रभुपाद ने निर्णय किया कि भारत में जी.बी.सी. की भारी जिम्मेदारियाँ संभालने के लिए वह बिल्कुल उपयुक्त व्यक्ति होगा । उसे अपना मुख्यालय बम्बई में बनाना चाहिए और अनापत्तिक प्रमाण-पत्र प्राप्त करने में भक्तों की सहायता करनी चाहिए। प्रभुपाद का यह बहुत साहसी कदम था जो उनके शिष्यों में उनके विश्वास पर और भारत में कृष्णभावनामृत के नेतृत्व की तात्कालिक आवश्यकता पर आधारित था । उन्होंने हैदराबाद, बम्बई, कलकत्ता, मायापुर, दिल्ली और वृंदावन के मंदिरों के अध्यक्षों के लिए तुरन्त अपने सचिव को, एक पत्र लिखवाया जिसमें भारत में जी. बी. सी. कमिश्नर के रूप में करन्धर को अधिकृत किया गया । प्रभुपाद ने लिखा, "इससे मुझे बड़ी राहत है । उनको पूरा सहयोग दीजिए और भारत के लोगों को कृष्ण - चेतन बनाने के हमारे उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिल-जुलकर कार्य कीजिए।”

पेरिस

जून ८

पेरिस के ला साले प्लीएल में ढाई हजार श्रोता और मंच पर बैठे पचास भक्त, प्रभुपाद के आगमन की प्रतीक्षा में थे । कीर्तन के बाद प्रभुपाद ने अपना व्याख्यान आरंभ किया; पहले उन्होंने एक भक्त से बाइबल के सेंट जान के गास्पेल से यह अंश पढ़वाया, “प्रारंभ में शब्द था और शब्द ईश्वर था । " तब प्रभुपाद ने दिव्य ध्वनि के रूप में पवित्र नाम की शक्ति का व्याख्यान किया ।

श्रोताओं में अनेक उग्रवादी छात्र थे जो विशेषकर उत्पात मचाने आए थे। और प्रभुपाद ने एक ऐसी उपमा दी जिससे वे आन्दोलित हो उठे। उन्होंने भौतिक जगत् में बद्ध आत्माओं की तुलना उस नागरिक से की जो राज्य का नियम तोड़ने के कारण दण्डभागी होता है। ज्यों ही प्रभुपाद ने कहा कि अवज्ञाकारी नागरिकों को दण्डित किया जायगा, त्योंही छात्र छी-छी करके शोर मचाने लगे। प्रभुपाद अंग्रेजी में बोल रहे थे और उनकी शिष्या ज्योतिर्मयी देवी दासी ध्वनि - विस्तारक यंत्र पर प्रत्येक वाक्य का अनुवाद करती जा रही थी। जब छात्र शोर करने लगे तो प्रभुपाद ज्योतिर्मयी की ओर मुड़े और पूछा, “वे क्या कह रहे हैं ? "

उसने उत्तर दिया, “आपने जो उदाहरण दिया है वह उन्हें पसंद नहीं आया, क्योंकि वे यहाँ की सरकार को पंसद नहीं करते ।

तब प्रभुपाद ने उन प्रतिरोधकारियों को सम्बोधित किया, “आप इसे भले ही पसंद न करें, किन्तु वास्तविकता यही है कि यदि आप कानून तोड़ते हैं तो आप दण्डित होंगे।" वे निरपेक्ष कर्म-विधान के विषय में बोल रहे थे, किन्तु छात्रों ने इसे राजनीतिक अर्थ में ग्रहण किया । वे प्रभुपाद के विरुद्ध शोरगुल मचाते रहे और एक व्यक्ति उछल कर आगे बढ़ा और फ्रेंच में बोला, “आप आध्यात्मिक बातें कर रहे होंगे, किन्तु एक चीज मैं कभी नहीं कर सकता कि मैं राजसिंहासन पर बैठूं और लोगों से माँग करूँ कि वे मेरे चरणों में नतमस्तक हों। "

इन शब्दों को सुनते ही श्रोता - मण्डली प्रसन्नता प्रकट करने लगी और सीटियां बजाते हुए चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी “पार टेरे ! पार टेरे! पार टेरे!” प्रभुपाद ने उसका अनुवाद चाहा । ज्योतिर्मयी ने बताया कि वे कहते हैं, “ नीचे उतर आओ, नीचे उतर आओ।"

इस चुनौती के उत्तर में प्रभुपाद माइक्रोफोन में जोर से बोलने लगे, “मैं फर्श पर से भी बोल सकता हूँ, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इससे आप मुझे बेहतर समझेंगे। यदि आप ईश्वर - चेतना के विज्ञान से अवगत हैं तो आप भी व्यास आसन पर बैठ सकते हैं और लोग आप के चरणों पर नतमस्तक होंगे।"

शान्ति लौट आई, मानों उनके उत्तर

अचानक एक काला व्यक्ति उछल

प्रभुपाद के शक्तिशाली उत्तर से कक्ष में से प्रतिरोधकर्ताओं को संतोष हो गया हो। कर मंच पर चढ़ गया और श्रोता - मण्डली को सम्बोधित करने लगा। उसने प्रभुपाद और उनके भक्तों के पक्ष में बोलना आरंभ किया; फिर वह उनके विरोध में बोलने लगा। अंत में वह असंगत ढंग से बोलने लगा, तब प्रभुपाद मंच पर बैठे अपने भक्तों की ओर मुड़े और कहा, “बहुत अच्छा, अब कीर्तन करो।" भक्त ढोलकें और करताल लेकर खड़े हो गए और जोर-शोर से कीर्तन करने लगे । श्रोता - मण्डली के अधिकांश लोग भी शामिल हो गए और सारा प्रतिरोध कीर्तन में डूब गया ।

इस तुमुल दृश्य के बाद जब प्रभुपाद मंदिर को वापिस लौट रहे थे तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि भविष्य में सार्वजनिक सभाओं में श्रोताओं के सामने उनके लिए व्यास आसन की व्यवस्था न की जाय; उनके बैठने के लिए एक साधारण गद्दी रखी जाय। उन्होंने ऐसी विशाल श्रोता - मण्डली के सामने दर्शन की व्याख्या की उपयोगिता पर भी संदेह प्रकट किया। पेरिस के अपने

शेष दिनों में वे छोटी-छोटी श्रोता - मण्डलियों को सम्बोधित करते रहे, जिन्हें उनकी बात सुनने में वस्तुतः रुचि थी ।

फ्रँकफर्ट

जून १८

जब श्रील प्रभुपाद, पहुँचे तो हंसदूत और भक्तों का एक बड़ा दल उनके साथ हो लिए और बीस कारों और गाड़ियों सहित एक लम्बे जुलूस में वे नगर के बाहर पहाड़ी पर स्थिति दुर्ग स्क्लोस रेट्टेरशोफ इस्कान केन्द्र तक गए। प्रभुपाद ने कहा, “जब मैं एक जर्मन गाँव में मृदंग की ध्वनि सुनता हूँ तो मेरा हृदय प्रफुल्लित हो उठता है । "

भक्तों ने प्रभुपाद को स्कलोस दिखाया। उसका मध्य का कमरा एक बड़ा हाल था जिसकी छत दो मंजिलों जैसी ऊँची थी । हाल की ओर खुलता, दुमंजिले पर एक गलियारा था जिससे होकर प्रभुपाद के कमरे का रास्ता था। जिस समय प्रभुपाद अपने कमरे में बैठे थे, नीचे जर्मनी और एम्सटर्डम के सभी केन्द्रों से एकत्रित उनके शिष्य सोत्साह उद्धाम कीर्तन कर रहे थे। आधे घंटे के बाद हंसदूत बरामदे में प्रकट हुआ और प्रभुपाद के कमरे में आने के लिए भक्तों को संकेत दिया ।

भक्त किसी तरह प्रभुपाद के कमरे में सटकर खड़े हो गए या, कम से कम गलियारे में खड़े, प्रभुपाद की ओर देखते रहे। प्रभुपाद आराम की मुद्रा में बैठे अनौपचारिक रूप में बोलने लगे, उन्होंने कहा, “मैं जीवन-भर कड़ी मेहनत करता रहा । बेकार बैठना मुझे कभी भी पसंद नहीं था । अतएव भक्ति का तात्पर्य है कि प्रत्येक क्षण कृष्ण की सेवा में लगे रहो, कलकत्ता के नौकरों की तरह नहीं । वे कोई आज्ञा पाते हैं और डलहौजी पार्क जाते हैं और वहाँ पूरा दिन सोते हैं। जब वे देर से लौटते हैं तो स्वामी पूछते हैं कि 'दिन-भर तुम कहाँ रहे?' तो वे उत्तर देते हैं 'मैं आपके काम में व्यस्त था । ' तुम्हें इस तरह नहीं करना है, समझे ?"

प्रभुपाद हँसे और सभी भक्त हँसने लगे, यद्यपि उनमें से बहुत से अंग्रेजी बहुत कम समझते थे। उसके बाद प्रभुपाद ने चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी

को

उद्धृत किया कि उनका नाम प्रत्येक गाँव और नगर में सुनाई देगा। जर्मनी के गाँवो में भक्तों के कीर्तन से उनकी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो रही थी ।

उन्होंने आगे कहा, “किन्तु दुर्भाग्य से लोग आपत्ति करते है, उस व्यक्ति

की तरह जिसे खतरे से बचाया जा रहा हो ।” उन्होंने एक व्यक्ति का उदाहरण दिया जो छत पर से पतंग उड़ा रहा था। जब एक अन्य व्यक्ति उसे छत पर से गिरने की स्थिति में देख कर चिल्लाया " सावधान, तुम खतरे में हो ।” तो वह बहुत क्रोध में आ गया और बोला, “क्या ? तुमने मेरी गति रोक दी है ?" प्रभुपाद ने कहा कि कोई भी भला आदमी किसी को खतरे में देख कर चिल्ला उठता है, चाहे खतरे में पड़े व्यक्ति को इस पर आपत्ति ही क्यों न हो ।

प्रभुपाद के जर्मन भक्त उन्हें पास के नगरों में बोलने के लिए ले जाते थे और यद्यपि अधिकांश लोग प्रभुपाद का स्वागत उत्साहपूर्वक नहीं करते थे, किन्तु प्रभुपाद के भक्त उनकी और कृष्ण की सेवा के लिए अत्यधिक समर्पित हो जाते थे। सार्वजनिक सभाओं में प्रभुपाद एक छोटी-सी गद्दी पर बैठते थे जिससे उन लोगों का गुस्सा फिर न भड़के जो गुरु की परम्परा को नहीं समझ सकते

थे ।

एक सभा में एक धनाढ्य व्यक्ति ने, जिसके दो लड़के प्रभुपाद के शिष्य थे, पूछा, "नील नदी का एक घड़ियाल जर्मनी की नदी में कैसे तैर सकता है ? दूसरे शब्दों में, भारतीय रहन-सहन की एक विदेशी संस्कृति को आप जर्मनी में कैसे प्रत्यारोपित कर सकते हैं ?"

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “आप टाई और सूट में कृष्ण चेतन बन सकते हैं"

एक अन्य व्यक्ति ने पूछा, "क्या यह कीर्तन आत्म सम्मोहन नहीं है ? " प्रभुपाद ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "नहीं, यह शुद्धिकरण है।" इस तरह चलता रहा — अधिकांश लोग चुनौती देते रहे। केवल कुछ ही निष्ठावान् जिज्ञासु

थे ।

प्रभुपाद

के फ्रँकफर्ट में रहते उनसे मिलने और रुचि लेने वाले दो विशिष्ट अभ्यागत आए: फादर एमैनुयल, जो एक बेनीडिक्टाइन संत थे और बैरन वान डरखेम जो एक प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक और आध्यात्मिक लेखक थे। दोनों व्यक्ति प्रभुपाद की दार्शनिक व्याख्याओं से आकृष्ट हुए थे और कई दिनों तक उनके साथ प्रातः कालीन भ्रमण में जाते रहे।

श्रील प्रभुपाद का अगला पड़ाव आस्ट्रेलिया था। उन्होंने एक ऐसी योजना

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस एक

तैयार की थी जिसके अनुसार उन्हें तीन नगरों में तीन रथ यात्राओं में सम्मिलित होना था : पहली मेलबोर्न में, तब दूसरी एक सप्ताह बाद शिकागो में, और दो दिन बाद तीसरी सैन फ्रन्सिस्को में । उसके बाद उन्हें लास एन्जीलीस, डलास और न्यू वृन्दावन जाना था। समय इस तरह निश्चित किया गया था कि २५ जुलाई तक वृन्दावन में उनकी वापसी हो सके, ताकि दो सप्ताह बाद कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन समारोह में वे सम्मिलित हो सकें ।

अब

वे कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन दिवस का उल्लेख नियमित रूप से करने लगे थे जिससे संसार के कोने-कोने से उनके भक्त, उस समय पर उनके साथ होने के लिए वृंदावन पहुँच सकें। १७ जून को उन्होंने जर्मनी से लंदन में जयहरि को लिखा था,

इस समय मैं योरोप की यात्रा पर हूँ और गत सप्ताहों में मैंने रोम, जेनेवा, पेरिस में कई कार्यक्रम किए हैं और अब जर्मनी में कर रहा हूँ। इसलिए मेरे पास आप के प्रस्ताव का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने और उस पर निर्णय लेने का समय नहीं है । सब से अच्छा यह होगा कि मेरे यहाँ के कार्यक्रम के पूरा होने पर आप आएँ और स्वयं मुझसे मिलें । मेरी योजना जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन तथा स्थापना समारोह के लिए वृंदावन पहुँचने की है। यदि आप वृंदावन आ सकें तो आप से विचार-विमर्श करके मैं योजना बना सकता हूँ कि आप की भक्ति - साधना के लिए क्या सर्वोत्तम होगा ।

फ्रंक- फर्ट से आस्ट्रेलिया की चौबीस घंटे की उड़ान की समाप्ति पर भक्तों ने मेलबोर्न हवाई अड्डे पर एक उधार ली गई रोल्स रायस मोटर गाड़ी में उनको बैठाया । सम्वाददाताओं ने उनकी कार को तुरन्त पहचान लिया। एक समाचार-पत्र की सुर्खी थी " कृष्णकृपा श्रीमूर्ति ने रोल्स रायस में नगर प्रवेश किया ।' कहानी यों आरंभ हुई, “ साठ युवा हरे कृष्ण भक्तों ने अपने गुरु का दण्डवत् प्रणामों द्वारा नगर में स्वागत किया, किन्तु मेल्बोर्न की सरकार की ओर से कोई उत्साह नहीं दिखाई दिया ।" एक दूसरी कहानी इस प्रकार शुरू हुई, " शोफर - चालित रोल्स रायस कार से लाए जा रहे भौतिकता विरोधी हरे कृष्ण संघ के संस्थापक भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद का तुलमेरीन हवाई अड्डे पर आज स्वागत होगा, ” एक समाचार पत्र ने श्रील प्रभुपाद का एक बड़ा चित्र छापा जिसमें वे मुसकरा रहे थे। शीर्षक था “एच. डी. जी. हमको उत्तेजित करने यहाँ पहुँच गए हैं।” कहानी की शुरुआत यों हुई,

हरे कृष्ण आन्दोलन के संस्थापक कृष्णकृपाश्रीमूर्ति भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद 'कुत्ते '

के जीवन से हमें उबारने के लिए यहाँ आ गए हैं। कृष्णकृपाश्रीमूर्ति हमें आगाह करते हैं कि यदि हम कुछ आध्यात्मिक ज्ञान नहीं विकसित करते तो हम कुत्ता - मानसिकता वाले होकर रह जायँगे ।

प्रभुपाद के आगमन के समाचार - विवरण का अंत उनके हवाई अड्डे पर पहुंचने के साथ ही नहीं हो गया। अगले दिन जब भक्त रथ यात्रा का रथ तैयार कर रहे थे तभी एक असाधारण घटना हुई, जिसकी रिर्पोट 'द हेराल्ड' के मुख पृष्ठ पर यों छपी,

कृष्ण सम्प्रदाय ने अग्निसात् होते कार्यालय से महिलाओं को बचाने के लिए चन्दोवा का इस्तेमाल किया ।

कृष्ण सम्प्रदाय के भिक्षुओं ने कल मेलबोर्न में अपने धार्मिक रथ के ऊपर लगे पेण्ट किए हुए चंदोवा को सुरक्षा - जाल की तरह फैला दिया जिसमें पाँच रोती-चिल्लाती महिलाओं ने धधकती हुई तीन मंजिली इमारत से कूद कर अपनी जान बचाई।

विवरण के साथ दो विशाल चित्र प्रकाशित थे जिसमें हरे कृष्ण भक्त बड़ी किरमिच का चंदोवा पकड़े हुए थे ।

यद्यपि समाचार माध्यमों को, प्रभुपाद के प्रति भक्तों का प्रेम, समझ नहीं आ रहा था, किन्तु महिलाओं का बचाव एक ऐसा कार्य था जिसका हर कोई वर्णन कर रहा था। 'द आस्ट्रेलियन' में एक स्तम्भ लेखक ने लिखा,

जिस बात से इस बचाव कार्य का प्रभाव दो गुना हो जाता है वह यह है कि उसमें पवित्र गलीचे का इस्तेमाल किया गया— किसी मामूली शयन कक्ष के गलीचे का नहीं — लीचे की सिलाई कल मेलबोर्न में होने वाले एक धार्मिक उत्सव में इस्तेमाल के लिए हो रही थी ।

स्तम्भ लेखक ने संकोचपूर्वक यह भी अनुमान लगाना चाहा था कि भक्तों का वह 'पवित्र गलीचा' जो धार्मिक उत्सव में कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी के चन्दोवे के लिए प्रयुक्त होने जा रहा था, पुनः इस्तेमाल योग्य रह गया था या नहीं ।

आप जानते हैं कि यह स्वामी आप के मामूली स्वामियों में से नहीं है। वे हरे कृष्ण सम्प्रदाय के संस्थापक हैं और उनका सम्प्रदाय उन्हें ब्रह्माण्ड का स्वामी मानता है। किन्तु भक्तों के प्रवक्ता ने कहा था कि 'गलीचे' का प्रयोग उत्सव में किया जायगा । यह घटना अगले दिन होने वाले उत्सव के लिए अच्छा विज्ञापन बन गई।

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस एक

ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान् जगन्नाथ और उनके शुद्ध भक्त श्रील प्रभुपाद रथ-यात्रा

में मेलबोर्न की मुख्य सड़कों से होकर निकले। जहाँ तक समाचार माध्यमों जुलूस द्वारा रिपोर्ट का प्रश्न है, प्रभुपाद कह चुके थे कि हरे कृष्ण पवित्र नाम छपने मात्र से पाठकों का बहुत भला होता है, चाहे नाम का उल्लेख आदर के साथ हो अथवा अनादर के साथ ।

अमोघ : : प्रभुपाद भगवान् जगन्नाथ से टाउन हाल के निकट सिटी स्क्वायर में मिले। रथ पर एक व्यास आसन था, किन्तु उन्होंने रथों के आगे-आगे भगवान् चैतन्य के श्रीविग्रह के सामने चलना पसंद किया। प्रभुपाद एक सुनहरे रंग की ऊनी टोपी, बादामी रंग की गले तक की जर्सी, चमकदार केसरिया रंग की रेशमी धोती और कुर्ता पहने थे। कंधे पर चारों ओर वे सफेद रेशमी चादर लपेटे थे। उनके गले में आर्किड और अनेक पीले फूलों की माला पड़ी थी। मेलबोर्न में यह जाड़े की ऋतु थी और बहुत ठंड थी, लेकिन वे अपना हाथ ऊपर उठाए हुए कीर्तन कर रहे थे और नाच रहे थे।

हमारे पास करीब ग्यारह नए मृदंग थे। तीन व्यक्ति बड़े-बड़े ढोलक भी बजा रहे थे। और हम लोगों ने श्रील प्रभुपाद की चारों ओर घेरा बना रखा था। सभी ढोलक बजा रहे थे, हरे कृष्ण गा रहे थे, स्वयं प्रभुपाद कीर्तन कर रहे थे और जुलूस नगर में आगे बढ़ता जा रहा था— यह सब भावविभोर कर देने वाला था। स्वानसन स्ट्रीट से बढ़ते हुए प्रभुपाद अपनी दिव्य शक्ति से मानो नगर को विजित करते जा रहे थे ।

सभापति : मौसम की दृष्टि से यह बहुत अच्छा दिन नहीं था। प्रभुपाद रथ-यात्रा में स्वानसन स्ट्रीट और बर्क स्ट्रीट के कोने पर सम्मिलित हुए और उसके आगे, उन्होंने उसका नेतृत्व किया। वे लगभग दो मील पैदल चले। सभी भक्त तीन समूहों में बँट कर कीर्तन कर रहे थे, किन्तु जब प्रभुपाद रथ-यात्रा में सम्मिलित हुए तो हम सभी उनकी चारों ओर इकट्ठे हो गए। वे जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। उनके पीछे चैतन्य महाप्रभु की चौदह - फुट लम्बी मूर्ति थी और उसके पीछे तीन रथ थे। जुलूस में चलते हुए बीच-बीच प्रभुपाद रुक जाते थे और मुड़कर चैतन्य महाप्रभु को देखने लगते थे। वे केवल रुक जाते थे और एक-दो मिनट तक चैतन्य महाप्रभु की ओर देखते थे और फिर मुड़ कर आगे चलने लगते थे— जुलूस का नेतृत्व करते हुए । यह एक ऐसा भाव-विभोर कर देने वाला अनुभव था कि लगता था कि प्रभुपाद ने मेलबन और आस्ट्रेलिया पर विजय पा ली है ।

गौर गोपाल : मैं पूरी शोभा यात्रा में ढोल बजाता हुआ प्रभुपाद की बगल में चलता रहा। पूरे समय उन्हें एक विशेष लय में गाना बहुत पसंद था। वे अपने हाथ हवा में ऊपर कर लेते थे और नाचने लगते थे।

वैकुण्ठनाथ : रथ-यात्रा आगे बढ़ रही थी । प्रभुपाद चल रहे थे और एक स्थान पर उन्होंने मुझ से कहा, "मेरे लिए थोड़ा जल लाओ ।" मैं घबराहट में सन्न हो गया, क्योंकि वहाँ कोई स्थान नहीं था जहाँ से पानी मिलता। तो कृष्ण पर अपने को छोड़ता हुआ मैं अत्यन्त तेजी से दौड़ता हुआ एक मकान पर पहुँचा और वहाँ रह रहे लोगों से कुछ पानी माँगा। उन्होंने जल दे दिया और उसे लेकर मैं प्रभुपाद के पास पहुँचा। जब मैं जल ले जा रहा था तो आकाश में बड़ा-सा इन्द्रधनुष दिखाई दे रहा था। थोड़ी वर्षा भी शुरू हो गई थी। वह बहुत स्पष्ट इन्द्रधनुष था और उसका छोर उस विशाल भवन के ऊपर तक पहुँच रहा था जहाँ हमारी रथ-यात्रा समाप्त हुई ।

हरि शौरि : एक्जिबिशन बिल्डिंग्स नाम से एक विशाल भवन था, और हमने उसका एक भाग किराए पर ले लिया था जिसकी छत लगभग अस्सी फुट ऊँची थी। इसलिए रथों का ऊपर का सिरा नीचा करके उन्हें अंदर ले जाया गया और हाल के अंदर सिरों को फिर ऊँचा कर दिया गया। तीनों रथों को अंदर ले जाकर उनके सिरों को उठा दिया गया। उसके बाद प्रभुपाद अंदर आए और हर एक व्यक्ति बैठ गया । सब मिलाकर वहाँ लगभग एक हजार व्यक्ति थे। श्रील प्रभुपाद रथ में ही व्यास आसन पर बैठे और वहाँ से भाषण दिया ।

सभापति : यद्यपि यह बहुत ठंडा और खराब दिन था, फिर भी एक्जिबिशन बिल्डिंग्स में एक हजार व्यक्ति उपस्थित थे। प्रभुपाद का भाषण संक्षिप्त था । उन्होंने सब को धन्यवाद दिया कि वे आए और भगवान् चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन में सम्मिलित हुए। उन्होंने कहा कि वे सब लोगों की प्रशंसा करते हैं कि लोग भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने और रथ यात्रा में भाग लेने आए थे। उन्होंने कहा कि वास्तव में गाने और नाचने का यह सारा क्रियाकलाप श्री चैतन्य महाप्रभु के कारण है।

मेलबोर्न के समाचार-पत्रों ने रथ यात्रा का समुचित विवरण छापा : " करतालों और कीर्तनों का एक दिन,” “स्वामी के जुलूस में रथों की प्रधानता । " एक समाचार पत्र ने लिखा, “कृष्ण से चौंकिए नहीं : पादरी । "

एक

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस

रेवरेंड गार्डन पावेल ने कल स्काट्स चर्च में कहा कि हरे कृष्ण युवकों को मेलबोर्न की सड़कों में देख कर आस्ट्रेलियावासियों को खतरा नहीं अनुभव करना चाहिए, न उनका उपहास करना चाहिए ।

उन्होंने कहा कि हरे कृष्ण सम्प्रदाय आधुनिक युवकों के आध्यात्मिक मूल्यों और परम्परागत सद्गुणों की ओर लौटने का एक लक्षण हो सकता है।

लेख में भक्तों की " अतिशय भौतिकतावाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया" की प्रशंसा की गई और रथ यात्रा की घटनाओं का विवरण दिया गया। मेलबोर्न में एंग्लिकन चर्च के प्रधान बिशप रेवरेंड पावेल ने श्रील प्रभुपाद से भेंट की और इसी का परिणाम था कि बिशप ने अपने रविवार के उपदेश में कहा कि 'हरे कृष्ण' कोई खतरे की चीज नहीं है। श्रील प्रभुपाद ने बिशप की टिप्पणी को बहुत महत्त्वपूर्ण माना ।

मेलबोर्न में अपने एक सप्ताह के पड़ाव में प्रभुपाद ने टाउन हाल में एक विशाल उत्सव में भाग लिया जहाँ उनकी प्रेरणा से भाव-विभोर करने वाला लम्बा कीर्तन चलता रहा जिसमें भगवान् चैतन्य के श्रीविग्रह के सामने एक हजार लोग घेरा बनाकर गाते और नाचते रहे। वे सेंट पास्कल्स टीचिगं कालेज भी गए, जो फ्रांसिस्कनों का गुरुकुल था । वहाँ के भिक्षुओं ने उनका भलीभाँति स्वागत किया। गुरुकुल के प्रशिक्षणार्थियों ने बुद्धिमत्तापूर्ण दार्शनिक प्रश्न किए और एक ने पूछा कि प्रभुपाद उनके सम्प्रदाय के संस्थापक, असिसी के सेंट फ्रान्सिस के बारे में क्या विचार रखते हैं । उस प्रशिक्षणार्थी ने संक्षेप में बताया कि किस प्रकार सेंट फ्रान्सिस, हर वस्तु का नाता ईश्वर से जोड़ते हैं और प्रकृति के सभी जीवधारियों को बन्धु- वृक्ष, बन्धु-पक्षी आदि नामों से सम्बोधित करते हैं। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि सेंट फ्रान्सिस का दृष्टिकोण सर्वोत्तम प्रकार

भगवद्- भावना - सिक्त है।

से

उसी शाम को प्रभुपाद की भेंट रेवरेंड जे. ए. केली से हुई जो आस्ट्रेलिया में रोमन कैथलिक चर्च के विकार जेनरल ( प्रति धर्माध्यक्ष ) थे। प्रभुपाद ने उस प्रातः काल सेंट पास्कल में दिए गए अपने भाषण का रेकार्ड उन्हें सुनाया और बाद में रेवरेंड ने प्रभुपाद से पूछा कि क्या वे उनके साथ अपना फोटो खिंचवाएँगे जो उनकी धार्मिक पत्रिका में प्रकाशित किया जायगा । समाचार-पत्रों ने फिर खबर छापी - " स्वामी द्वारा एकता के संदेश का प्रसार ।'

कल रोमन कैथलिक यारा थियोलोजिकल यूनियन का मठ, जो अन्यथा आमतौर से बहुत शान्त रहता है, हरे कृष्ण कीर्तन से गूँज उठा । कृष्णकृपाश्रीमूर्ति भक्तिवेदान्त स्वामी

प्रभुपाद

ने

कहा, "इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि आप किस धर्म के अनुयायी

जब तक आप भगवान् को प्रेम करते हैं और उसकी सेवा करते हैं।

हमें भौतिकतावाद के रोग से छुटकारा पाना है, अन्यथा अभाव हमेशा बना रहेगा । " विचार-विनिमय के पश्चात् संस्था की छात्र परिषद् के अध्यक्ष पैट्रिक मैकलूर (२५) ने कहा कि बहुत सी बातों में हमारे बीच सहमति है। विशेष रूप से हम इस अपेक्षा में एकमत हैं कि हमें भौतिकतावाद को खत्म करना चाहिए ।"

मि. मैकलूर ने आगे कहा कि आपसी बातचीत से स्पष्ट हुआ कि चर्च में खुलापन और सहिष्णुता है। अंत में वे बोले – “हो सकता है कि उनके पास हमसे कहने को कुछ हो । "

जुलाई १

मेलबोर्न में प्रभुपाद ने गुरुदास को वृंदावन एक पत्र लिखवाया । अब कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन को छह सप्ताह से भी कम रह गए थे और श्रील प्रभुपाद को वृंदावन से नियमित समाचार नहीं मिल रहे थे। उनकी चिन्ता यह थी कि एक शानदार समारोह के लिए हर चीज समय पर तैयार हो जाय ।

प्रिय गुरुदास,

मेरा आशीर्वाद स्वीकार करें। मैं आस्ट्रेलिया में आखिरी दो दिन बिता रहा हूँ, उसके बाद मुझे संयुक्त राज्य जाना है। इस बीच वृंदावन में जन्माष्टमी को होने वाले संस्थापन- समारोह के विषय में मैं तुम्हें कुछ निर्देश देना चाहता हूँ।

मुख्य बात यह है कि समारोह का संचालन स्वयं हमारे लोग करेंगे। हम उन लोगों पर सहायता के लिए निर्भर नहीं रहेंगे जो हमें अपने से हीन समझ कर हमारे साथ खाना भी पसंद नहीं करेंगे। पेरिस, न्यू यार्क, आस्ट्रेलिया आदि संसार के सभी स्थानों में हमारे लोग, पुरुष और स्त्री, अर्चा-विग्रहों की उपासना भलीभाँति कर रहे हैं और मुझे उनकी उपासना पर गर्व है। कोई कारण नहीं है कि वृंदावन में समारोह का संचालन करने के लिए हम सोचें कि हम किसी भारतीय गोस्वामी पर निर्भर हैं। इसे अच्छी तरह समझ लो और इस विषय में आश्वस्त हो जाओ। उन्हें निमंत्रित करो और आने दो। किन्तु अपने समारोह का संचालन हम स्वयं करेंगे।

तुम हर गोविन्द नाटक - मण्डली और अपने अभिनेताओं को भी बुलाने की व्यवस्था रखो । प्रसाद की मात्रा दिन-भर आने वालों के लिए प्रभूत होनी चाहिए । रसोई-घर को चलते रहना चाहिए । इसलिए देख लो कि आटा, चावल और घी काफी मात्रा में उपलब्ध रहे। आजीवन सदस्यों को आमंत्रित किया जाय और उनका अच्छी तरह ध्यान रखा जाय । हम अपनी व्यवस्था खुद संभालेंगे। अगर वे आते हैं, तो अच्छा है, लेकिन अगर नहीं आते तो हम अपना प्रबन्ध स्वयं कर लेंगे। हमारी ओर से हर चीज अच्छी तरह होनी चाहिए।

मथुरा और वृंदावन के सभी बड़े अधिकारियों को आमंत्रित करना चाहिए। गोस्वामियों और गुरुभाइयों को भी । स्थानीय मारवाड़ियों और पार्थक को भी आमंत्रित करना ।

वास्तव में एक सामान्य निमंत्रण पत्र वितरित करके हम प्रत्येक व्यक्ति को आमंत्रित करेंगे। सभी वृंदावन - वासियों को आमंत्रित किया जायगा कि वे आएँ, अर्चा-विग्रह का दर्शन करें और प्रसाद लें। आजीवन सदस्यों के लिए विशेष व्यवस्था होनी चाहिए । जैसे मि. बिड़ला तथा अन्य सम्मानीय व्यक्ति । धन का कोई प्रश्न नहीं है। प्रथम श्रेणी की व्यवस्था होनी चाहिए। कृष्ण सभी खर्चों की व्यवस्था करेंगे, इसलिए सब कुछ शानदार ढंग से करो । शानदार से मतलब यह है कि प्रसाद का भण्डार भरापूरा रहे और मंदिर खूब सजाया जाय। आंतरिक सजावट और श्रृंगार का काम यमुना, मदिरा और जयतीर्थ कर सकते हैं। वे इसके विशेषज्ञ हैं। शास्त्रीय निर्देश प्रद्युम्न से प्राप्त कर सकते हो । ...

कर्णपुर के मि. जयपूर्ण भी मुझ से मिलने आए थे, इसलिए उन्हें भी आमंत्रित करना चाहिए। सभी स्थानीय आश्रमों और संन्यासियों को भी आमंत्रित करना । प्रणव के बारे में कोई समाचार नहीं है; मैने एक तार भेजा था, किन्तु कोई उत्तर नहीं

आया ।

पूरा प्रबन्ध मिल-जुलकर करना चाहिए। आपस में लड़ाई मत करना । मेरी यही चिन्ता है। मैं वृंदावन के लिए २५ जुलाई तक प्रस्थान करूँगा । इस बीच मुझे लॉस ऐंजीलीस के पते पर उत्तर भेजना ।

तुम्हारा सतत शुभेच्छु ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी

समारोह के सम्बन्ध में गुरुदास को प्रभुपाद से सीधे निर्देश प्राप्त हुआ। अन्य शिष्यों को, जिन्हें उन्होंने पत्र लिखा, कृष्ण-बलराम मन्दिर के उद्घाटन समारोह में सम्मिलित होने के लिए उन्होंने आमंत्रित किया । पश्चिम अफ्रीका में च्यवन महाराज को सम्बोधित एक पत्र में उन्होंने लिखा,

आप मुझसे मिलना चाहते हैं और मुझे भी आप से कुछ महत्त्वपूर्ण विचार-विनिमय करना है । इसलिए अच्छा होगा कि हम जुलाई के अंत में वृन्दावन, भारत में मिलें । आज मैं शिकागो और सैन फ्रान्सिस्को में रथ यात्रा में सम्मिलित होने संयुक्त - राज्य के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ, किन्तु जुलाई के अंत में मैं वृंदावन पहुँच जाऊँगा ।

जन्माष्टमी के दिन हम वहाँ बहुत बड़ा उत्सव मना रहे हैं जब श्री अर्चा-विग्रहों की

माँ स्थापना कर, हम कृष्ण-बलराम मंदिर का उद्घाटन करेंगे। अतएव आप भी अवश्य आएँ और समारोह में सहायता करें। इसलिए हमारी भेंट जुलाई के अंत में वृन्दावन में होगी ।

मेलबोर्न में ला ट्रोब विश्वविद्यालय में श्रील प्रभुपाद का कार्यक्रम पेरिस में ला सैले प्लेयेल में उग्रवादियों के साथ हुई खेदजनक घटना की एक प्रकार से पुनरावृत्ति साबित हुआ। यहाँ भी श्रोता - मण्डली में निःशुल्क प्रवेश पाने वाले छात्रों की बड़ी संख्या थी और यहाँ भी प्रभुपाद के शिष्यों ने उनके लिए एक

मानक व्यास - आसन सजा रखा था। भक्तों ने मंच पर कीर्तन किया और

प्रभुपाद का परिचय दिया। तब प्रभुपाद ने अपना व्याख्यान इस मूल बात को बताते हुए आरंभ किया कि आत्मा और शरीर में क्या अंतर है और यह जानकारी लोगों के लिए आवश्यक क्यों है । किन्तु दस मिनट भी नहीं बीते थे कि श्रोता - मण्डली में से एक युवक खड़ा हो गया और प्रभुपाद को अपशब्द कहने लगा । अंत में उसने जोड़ दिया, “आप का अपने रोल्स रायस के बारे में क्या कहना है ?"

श्रोता - मण्डली, जो अभी तक शान्त बैठी थी, इस प्रतिरोध के बाद बेचैन हो उठी और शोरगुल मचाने लगी। श्रील प्रभुपाद के तीन शिष्य, जो अधिक आक्रमणशील थे, पहली पंक्ति को छोड़कर, श्रोता - मण्डली के पीछे वहाँ पहुँच गए जहाँ से वह युवक शोर मचा रहा था। इस बीच श्रील प्रभुपाद ने बोलना बंद कर दिया और सहिष्णु बन कर प्रतीक्षा करने लगे। शोरगुल बंद हो गया तो उन्होंने फिर आरंभ किया, “ जैसा कि मैं समझा रहा था, इस भौतिक जीवन में हम एक शरीर से दूसरा शरीर पाते रहे हैं। जीवन की यह बहुत अच्छी स्थिति नहीं है । कोई मरना नहीं चाहता, किन्तु मरने को हम सब विवश हैं। "

पाँच मिनट के बाद अपशब्दों की वर्षा पुनः होने लगी । इस बार प्रभुपाद के तीनों शिष्यों ने शोर करने वालों को ढकेल कर पिछले दरवाजे से बाहर कर दिया। लड़ाई के मध्य एक छात्र ने अपने बूट में से एक चाकू निकाल लिया, किन्तु एक भक्त ने उसे निहत्था कर दिया ।

सभागृह में वातावरण तनावपूर्ण हो गया था और लोग जोर-जोर से बातें करने लगे थे। कुछ जाने के लिए खड़े हो गए। मधुद्विष स्वामी ने माइक्रोफोन में बोलते हुए छात्रों से अनुरोध किया कि वे शान्त हो जायँ और श्रील प्रभुपाद को बोलने दें। श्रोता - मण्डली में कुछ छात्र हिंसा पर उतारू लगते थे और भक्तों को प्रभुपाद की सुरक्षा के बारे में चिन्ता होने लगी। किन्तु प्रभुपाद बोलने को तत्पर थे। उन्होंने प्रश्न आमंत्रित किए।

छात्र: "मैं एक ईसाई हूँ। मैं जानना चाहता हूँ कि ईसा मसीह के विषय में आप की राय क्या है ?"

श्रील प्रभुपाद : "हम भी आप की तरह ईसा मसीह का आदर करते हैं, क्योंकि वे ईश्वर के प्रतिनिधि हैं, ईश्वर

ईश्वर के पुत्र हैं। हम भी ईश्वर के बारे में ही बात करते हैं। इसलिए हम उनका आदर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक करते हैं । "

प्रश्न : " आप भी ईसा मसीह के पुत्र हैं ?"

एक

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस

श्रील प्रभुपाद : “हाँ, मैं ईसा मसीह का सेवक हूँ। मैं नहीं कहता कि मैं ईसा मसीह हूँ ।"

प्रश्न :

" मैं जानना चाहता हूँ कि क्या आप में ईसा मसीह की शक्ति है ? " श्रील प्रभुपाद; "नहीं, मुझ में ईसा मसीह की शक्ति नहीं है । "

प्रश्न : " तो, मैं ईसा मसीह की शक्ति रखता हूँ। (हँसी) क्योंकि मैं एक ईसाई हूँ ।"

श्रील प्रभुपाद : "ठीक है। आप क्रिश्चियन हैं, हम कृष्णियन हैं। व्यवहार में यह एक ही बात है।” (हँसी और करतल ध्वनि)

छात्र: "एक प्रश्न और है। मेरा विश्वास है कि जीसस वापिस आने वाले हैं, कृष्ण नहीं आएँगे। जीसस के आने पर तुम लोग क्या करोगे ?"

श्रील प्रभुपाद : “ जब वे आएँगे, तो हम उनका स्वागत करेंगे। यह बहुत अच्छा समाचार है कि जीसस आ रहे हैं।"

छात्र: " जीसस की कोई ख्याति नहीं थी । वे सैंडल पहनते थे और दो चोरों ने मिल कर उन्हें सूली पर चढ़ा दिया । और आप रोल्स रायस की सवारी करके अपनी आध्यात्मिकता दिखाते हो । आप गद्दी पर बैठते हो और धन में डूबे हो। तुम कृष्ण वाले केवल धन चाहते हो ।"

श्रील प्रभुपाद : "हमें धन नहीं चाहिए ।"

छात्र: " और तुम कहते हो हिंसा हिंसा है और तुम उसमें विश्वास करते हो । जीसस तो अपना दूसरा गाल भी आगे कर देते थे और अपने अनुयायियों से भी यही चाहते थे । " ( करतल ध्वनि)

श्रील प्रभुपाद : " यह कृष्णभावनामृत आंदोलन कोई भावनापूर्ण धार्मिक पद्धति नहीं है। यह एक विज्ञान है, एक दर्शन है।" प्रभुपाद ने समझाया कि ईश्वर के विज्ञान को समझना ईसाइयत और हिन्दुत्व दोनों से परे है। मुख्य लक्ष्य ईश्वर का प्रेम सीखना है।

दूसरा छात्र: "मैं कृष्णमूर्ति के विषय में पूछना चाहता हूँ। कृष्णमूर्ति कहते हैं कि जब आप पश्चिमी संसार में बोल रहे हों तब आप को चाहिए कि अपने को एक पाश्चात्य की तरह प्रस्तुत करें, एक भारतीय की तरह या इस तरह नहीं जैसे आप भारत में बोलते हों । कृष्णमूर्ति का कहना है कि एक उच्च आसन पर बैठने और भिक्षु का वेश बनाने के स्थान पर आप को पाश्चात्य वेशभूषा में होना चाहिए और कुर्सी पर बैठना चाहिए। आप की इस विषय में क्या राय है ?"

श्रील प्रभुपाद :

'वास्तव में भगवद्- चेतना वाला कोई व्यक्ति न पाश्चात्य होता है न प्राच्य । भक्त जहाँ भी जाता है वहाँ लोग उसका जिस तरह भी स्वागत करते हैं, वह उसे स्वीकार करता है। इन भक्तों ने मेरे लिए यहाँ ऊँचा आसन बना दिया है तो मैने उस आसन को स्वीकार किया है। यदि वे मुझे फर्श पर बैठाना चाहते तो मैं उसे भी प्रसन्नता से स्वीकार कर लेता। मुझे न उसमें कोई आपत्ति है, न इसमें । किन्तु भक्त आदर देते हैं और आदर पाते हैं, यह उनके लिए अच्छा है क्योंकि हमें परम ईश्वर का और उसके प्रतिनिधि का आदर करना चाहिए। आजकल बात भिन्न हो गई है। छात्र आदर करना नहीं सीख रहे हैं। वास्तव में यह परम्परा के अनुसार नहीं है। वैदिक पद्धति

अनुसार ईश्वर के प्रतिनिधि का आदर ईश्वर की तरह होना चाहिए । ”

के

एक अन्य छात्र (ऊँचे स्वर में ) :- " क्या आप अपने आन्दोलन को आज के संयुक्त राज्य से उद्भूत ज्ञानोदय का विस्तृत रूप मानते हैं ? आप का आन्दोलन व्हाइट हाउस के मनोवैज्ञानिक युद्ध विभाग में विशेष रूप से क्या भूमिका निभाता है ? क्या आप इस वर्ष चार जुलाई को संयुक्त राज्य के विरुद्ध हमारे प्रदर्शन में भाग लेने आ रहे हैं और वास्तविक राजनीतिक समस्याओं का सामना करने को तैयार हैं ? "

अनेक छात्र फिर शोर मचाने लगे। मधुद्विष स्वामी ने माइक्रोफोन लिया, “यदि आप चाहें तो मैं आप को उत्तर दूँगा । हमारा आंदोलन संयुक्त राज्य से नहीं निकला है। अगर आप को कोई भ्रांति हो कि हर वस्तु संयुक्त राज्य से चलती है तो वह आप का पूर्वाग्रह है, मेरा नहीं । ( करतल ध्वनि) दूसरी बात यह है कि हमारे गुरु महाराज अपना आन्दोलन आरंभ करने के लिए संयुक्त राज्य इसलिए आए कि वहाँ के लिए समुद्री जहाज पर उन्हें मुफ्त टिकट मिल गया। यदि आपने उन्हें मुफ्त टिकट भेजा होता तो शायद वे पहले आस्ट्रेलिया ही आए होते। वे भगवद्- प्रेम का प्रसार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। वे किसी तरह का राजनीतिक आन्दोलन नहीं शुरू करना चाहते। वे एक क्रान्तिकारी भगवद्-चेतना की चिनगारी जलाना चाहते हैं। मेरा विचार है कि आप की भी रुचि क्रान्ति में है। हम भी क्रान्ति चाहते हैं। किन्तु हम ऐसी क्रान्ति चाहते हैं जिससे लोगों को अपने में शान्ति ढूँढने में सहायता मिले, चाहे वे साम्यवादी हों, मार्क्सवादी हों, या आप की तरह कुछ भी हों। हमारा प्रयत्न लोगों की इस बात में सहायता करना है कि वे अपनी शान्ति पाएँ चाहे वे...'

मधुद्विष स्वामी की इन टिप्पणियों से, पहले से भी अधिक शोर होना आरंभ

हो गया। पूरे हाल में छात्रों के हल्ला मचाने के साथ हलचल बढ़ती गई । शान्तिपूर्ण दार्शनिक विचार-विनिमय की कोई संभावना नहीं रह गई थी।

भक्तों की सबसे बड़ी चिन्ता प्रभुपाद को सुरक्षित रूप में हाल से बाहर ले जाने की थी । प्रभुपाद अपने व्यास आसन से उठे और शिष्यों के मार्ग - रक्षण में बगल के दरवाजे से बाहर चले गए। जब वे बाहर निकले तो छात्रों की भीड़ दरवाजे के बाहर इकट्टी हो गई, लेकिन, बिना किसी घटना के, वे प्रतीक्षा करती कार में बैठ गए। जब वे छात्रों की भीड़ में से धीरे-धीरे बाहर जा रहे थे तो एक छात्रा ने अपने पैर के बूट से कार को ठोकर लगाई। और जब भक्त अपनी गाड़ियों में सवार हो रहे थे तो छात्रों ने उन पर पत्थर फेंके । अंत में, जब भक्त परिसर से बाहर निकल रहे थे तब उन्हें एक ऊँचे मार्ग से होकर गुज़रना पड़ा वहाँ प्रतीक्षा कर रहे कुछ छात्रों ने उनकी गड़ियों पर काला पेंट फेंका।

अपनी कार में बैठे हुए प्रभुपाद अधिकतर शान्त बने रहे, किन्तु वे विरक्त लग रहे थे। उन्होंने कहा कि भविष्य में वे भाषण केवल कक्षाओं में करेंगे जहाँ के लिए वे आमंत्रित होंगे; अब वे खुले में भाषण नहीं देंगे।

मेलबोर्न से हवाई जहाज द्वारा, रात में हवाई रुकते श्रील प्रभुपाद

शिकागो हुए, पहुँचे । कार्यक्रम के अनुसार उन्हें शिकागो में केवल दो दिन रुकना था। जहाँ उन्हें नगर की पहली रथ यात्रा उत्सव में भाग लेना था ।

संसार - भर में बड़े नगरों में रथ यात्रा निकालने में प्रभुपाद की गहरी रुचि थी। बड़ी-बड़ी भीड़ों में लोग प्रायः कृष्ण- चेतना वाले दर्शन को नहीं सुन सकते थे, क्योंकि वे बेचैन हो जाते थे, क्रोधित होते थे और हिंसा पर भी उतर आते थे। किन्तु रथ यात्रा उत्सव से हर एक का मनोरंजन होता था और सभी लाभान्वित हो सकते थे। श्रील प्रभुपाद ने भविष्य पुराण से उद्धरण देते हुए द नेक्टर आफ डिवोशन ( भक्तिरसामृत सिंधु) में लिखा था, “जो व्यक्ति रथ-यात्रा के साथ, उसके आगे या पीछे, चलता है, वह चाहे नीच परिवार में ही उत्पन्न हुआ हो, उसे विष्णु के समान वैभव की प्राप्ति अवश्यमेव होगी । "

भारत में जगन्नाथ पुरी, जो जगन्नाथ उपासना का मूल स्थान है, कोई पश्चिम - निवासी, भगवान् जगन्नाथ का दर्शन तभी पा सकता है जब वार्षिक

रथ-यात्रा उत्सव में उनका श्रीविग्रह रथ पर सवार होकर, मंदिर से बाहर आता है। इसके अलावा बहुत कम पश्चिम निवासी वास्तव में जगन्नाथ पुरी जाते थे, किन्तु श्रील प्रभुपाद और उनका कृष्णभावनामृत आंदोलन भगवान् जगन्नाथ को, उनके नगर की मुख्य सड़कों से रथ-यात्रा निकाल कर, सब को उपलब्ध करा रहे थे। एक सामान्य अमेरिकन या आस्ट्रेलिया - निवासी को यह विचित्र लग सकता है, किन्तु भगवान् जगन्नाथ और उनके अनुयायियों के दृष्टिकोण से यह बिल्कुल उचित था । भगवान् जगन्नाथ, जो सारे विश्व के स्वामी हैं, सब के लिए हैं, किसी की राष्ट्रीयता या धर्म कुछ भी हो ।

१९७४ ई. का यह उत्सव सैन फ्रांसिस्को का आठवाँ रथ यात्रा उत्सव होगा । और अब प्रभुपाद के आग्रह पर भक्तगण अधिकाधिक नगरों में ऐसे उत्सव मनाना आरम्भ कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद इस तरह के प्रचार को अत्यधिक महत्त्व देना चाहते थे; इसलिए अपने कार्यक्रम को बदल कर वे शिकागो आए थे, जहाँ वे पहले कभी नहीं पहुँचे थे। उनका उद्देश्य केवल एक घंटे के लिए भगवान् जगन्नाथ के रथ पर बैठकर स्टेट स्ट्रीट में चलना था । प्रभुपाद का विश्वास था कि उनके शिष्य, प्रत्येक महाद्वीप के बड़े-बड़े नगरों में रथ-यात्रा निकाल कर झूठे धर्म को विजित कर देंगे । और साथ ही गाने, नाचने, भोज में सम्मिलित होने तथा भगवान् का दर्शन पाने से लोग कृष्ण की ओर आकृष्ट होंगे ।

पुराने शिकागो नगर में प्रभुपाद एक भलीभाँति अलंकृत बड़े रथ के सामने खड़े थे। वे उत्सुक थे रथ पर चढ़ कर उस मंच पर बैठने को जहाँ से जुलूस में वे नगर का परिभ्रमण करेंगे। किन्तु चढ़ने के लिए कोई सीढ़ी नहीं थी, इसलिए वे प्रतीक्षा में खड़े रहे जब तक कि भक्त दौड़ कर एक हार्डवेअर स्टोर जाकर एक सीढ़ी न ले आए। तब वे रथ पर चढ़े और व्यास - आसन पर बैठ गए।

नगर हजारों ग्राहकों और श्रमिकों से भरा था। शिकागो में रहने वाले विशाल भारतीय समुदाय के अनेक सदस्य भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त करने और अपनी सुपरिचित परम्परागत शोभा यात्रा को देखने बाहर निकल आए थे। और सारे मध्य पश्चिमी जगत् से प्रभुपाद के सैंकड़ों शिष्य रथ की रस्सियाँ खींचने को इकट्ठे हो गए थे। वे कीर्तन कर रहे थे, प्रसाद और बैक टु गाडहेड पत्रिका बाँट रहे थे, और महान् रथ अमेरिका की एक सब से व्यस्त सड़क में से होता हुआ आगे बढ़ रहा था ।

मोटर साइकिलों पर सवार कई पुलिसकर्मी जुलूस के आगे-आगे चल रहे थे, किन्तु उनकी मुद्रा, उड़ीसा के राजा की तरह बिल्कुल नहीं थी, जो भारत क्षुद्र सेवक में परम्परा से रथ यात्रा में आगे-आगे चलता है। राजा प्रति वर्ष की भाँति अपने को प्रस्तुत करता है और जुलूस के आगे-आगे सोने की मूँठ वाली झाडू से भगवान् जगन्नाथ के सामने सड़क बुहारता चलता है। शिकागो पुलिस का इरादा यही लगता था कि जुलूस जितनी जल्दी हो सके पूरा हो जाय। बड़ी रुखाई और कड़ाई के साथ वह केवल यह देख रही थी कि मोटर - गाड़ियों का सामान्य यातायात चलता रहे। पुलिसवाले मानते थे कि जुलूस निकालने के लिए भक्तों के पास अनुमति थी, लेकिन वे उन्हें बराबर उकसाते रहे कि रथ को तेजी से खींचे, अन्यथा वे पूरे जुलूस को समाप्त कर देंगे ।

किन्तु कृष्ण की कृपा से सब को, जिस में पुलिस के लोग भी शामिल थे, संतोष हुआ जब कई मीलों तक शान्तिपूर्वक चलता हुआ जुलूस, अंत में सिविक सेंटर प्लाज़ा पहुँच गया। गगनचुम्बी इमारतों और शोरगुल के बीच

ने खुले में ।

श्रोताओं को सम्बोधित किया । व्याख्यान के तुरन्त बाद भक्तों

प्रभुपाद ने खुले ने कीर्तन और प्रसाद वितरण आरंभ कर दिया । उत्सव से प्रभुपाद प्रसन्न थे ।

सैन फ्रान्सिस्को

जुलाई ७

हजारों लोग गोल्डेन गेट पार्क से गुजरने वाले तीनों रथों का मीलों तक अनुगमन करते रहे। श्रील प्रभुपाद, सुभद्रा श्रीविग्रह के नीचे, बीच वाले रथ पर बैठे थे। वे वही आस्ट्रेलिया वाली सुनहरे रंग की ऊनी टोपी पहने थे, भारी श्वेत स्वेटर पहने थे और उनके गले में लाल गुलाब के फूलों की माला थी। हाल की लम्बी यात्रा के बावजूद, वे स्वस्थ और स्फूर्तिमय लग रहे थे। उन्होंने भक्तों और जुलूस में चलने वाले लोगों के समुद्र पर दृष्टि डाली और इस दिव्य दृश्य से उन्हें बहुत संतोष हुआ ।

दस हजार की भीड़ के सामने बोलते हुए प्रभुपाद ने कहा कि अमरीकियों को कृष्णभावनामृत के प्रचार में विश्व का नेतृत्व करना चाहिए। वे बोले, “मैं जानता हूँ कि यहाँ उपस्थित सभी अमरीकी पुरुष और महिलाएँ शिक्षित और प्रबुद्ध हैं। और मैं अमरीकियों का आभारी हूँ जिन्होंने संसार भर में मेरे आन्दोलन

को फैलाने में मदद की है। जब चैतन्य महाप्रभु ने पहले पहल यह आन्दोलन

आरंभ किया तो उन्होंने कहा था, भारत भूमिते हैल मनुष्य जन्म । यार जन्म सार्थक करि कर पर उपकार ।" इस प्रकार उन्होंने अपनी इच्छा प्रकट की कि जिसने मनुष्य

के रूप में भारत-भूमि में जन्म लिया है उसे कृष्णभावनामृत आन्दोलन को समझना चाहिए और मनुष्य जाति के कल्याण के लिए इसका प्रचार समस्त संसार में करना चाहिए। उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की कि सारे संसार के गाँवों और नगरों में कृष्णभावनामृत आन्दोलन फैलेगा ।

" आप सभी युवा अमरीकनों के सहयोग से, जो कृपापूर्वक इस आन्दोलन को फैलाने में मदद कर रहे हैं, यह समस्त संसार में वास्तव में विख्यात हो गया है। अभी हाल में मैं मेलबोर्न, आस्ट्रेलिया गया था, जहाँ हमने ऐसा ही उत्सव किया था और उसमें हजारों लोगों ने भाग लिया, हमारे साथ नाचा और गाया। तब मैं शिकागो गया जहाँ हमने वैसा ही समारोह किया। अब मैं आज सवेरे यहाँ आया हूँ और मुझे यह देखकर प्रसन्नता है कि आप भी इस आन्दोलन में सम्मिलित हो रहे हैं।'

जब प्रभुपाद बोल रहे थे उस समय उनकी उँगलियाँ हल्के-हल्के करताल पर चल रही थीं और उनकी आँखें आधी बंद थीं। उन्होंने अपने शब्दों का चयन पूरे विश्वास के साथ किया और उनके शब्दों की प्रतिध्वनि पूरे मैदान में गूँज रही थी । प्रभुपाद ने अपने श्रोताओं से अनुरोध किया कि वे यह न समझें कि कृष्णभावनामृत आंदोलन साम्प्रदायिक है; यह सब के लिए है, क्योंकि अहम् की वास्तविक प्रकृति आध्यात्मिक है। पवित्र नाम का गायन और नाच मामूली बात नहीं है।

यह सब के लिए उपलब्ध है, जो भी इस महामंत्र का जप करे — हरे

कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । आप में से अधिकतर युवा हैं और मैं वृद्ध हूँ जो किसी भी क्षण मर सकता है। इसलिए मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि इस आन्दोलन को गंभीरता से लें । आप स्वयं इसे समझें और अपने पूरे देश में इसका प्रचार करें। अमेरिका के बाहर के लोग आमतौर से अमरीका का अनुगमन और नकल करते हैं। मैं सारी दुनिया में घूम रहा हूँ और हर जगह देखता हूँ कि आप की नकल पर दूसरे देशों में भी गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं और वे अन्य बातों में भी आपकी नकल कर रहे हैं। अतः यदि आप कृष्ण भावनाभावित हो जाएं और भगवान् के भावनात्मक प्रेम में विभोर हो कर कीर्तन करें और नाचें, तो सारा

संसार आप का अनुसरण करेगा। इस प्रकार सारा संसार वैकुण्ठ बन सकता है और वहाँ फिर कोई कष्ट नहीं रह जायगा । बहुत-बहुत धन्यवाद ।'

था;

गुरुदास ने इस्कान के सभी केन्द्रों को पत्र भेज कर भक्तों को वृंदावन में कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन समारोह में उपस्थित होने को आमंत्रित किया उसने बम्बई और कलकत्ता के आजीवन सदस्यों को आमंत्रित किया था और गाड़ियों में उनके लिए आरक्षण करा रखा था। प्रभुपाद भी अपने शिष्यों को जन्माष्टमी के अवसर पर वृंदावन आमंत्रित कर रहे थे। लॉस ऐंजीलिस में सैंकड़ो भक्तों के सामने भाषण देते हुए

हुए उन्होंने कहा, "मैं तुम सभी को कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन के लिए वृंदावन आने को आमंत्रित कर रहा हूँ ।"

प्रभुपाद ने अपने गुरुभाइयों को भी डाक से आमंत्रण भेजा और जब उनमें से एक, नवद्वीप के श्रीधर महाराज ने आमंत्रण स्वीकार किया तो प्रभुपाद

ने उत्तर में उन्हें सुविधाजनक आवास के लिए विश्वस्त किया और कलकत्ता से वृंदावन की यात्रा के लिए सब से आसान रास्ता भी बताया। श्रील प्रभुपाद ने श्रीधर महाराज को अपने प्रचार के बारे में भी लिखा ।

आप को जान कर प्रसन्नता होगी कि हमारी पुस्तकें खूब बिक रही हैं। गत वर्ष हमने लगभग चालीस लाख पुस्तकें बेची थीं और इस वर्ष छह मास के अंदर ही हमने गत वर्ष का कोटा पूरा कर दिया है और इसलिए हम सहज ही आशा कर सकते हैं कि इस वर्ष हम गत वर्ष से दो गुनी बिक्री करेंगे। कठिनाई केवल यह है कि हम फैल कर अब एक विश्व संस्था बन गए हैं और इसको बनाए रखने के लिए बहुत कुशल प्रबन्ध की आवश्यकता है। कृष्ण की कृपा से सब ठीक चल रहा है।

जहाँ तक प्रचार के लिए यात्रा का प्रश्न है, यह मेरे लिए अब कुछ कठिन हो गई है, क्योंकि मुझे भी वही दिल की बीमारी है जो आप को है । फिर भी मैं चलता-फिरता रहता हूँ, केवल उन युवा लड़कों और लड़कियों को प्रोत्साहित करने के लिए जो मेरे लिए इतना कार्य कर रहे हैं।

१५ जुलाई को, वृन्दावन पहुँचने की प्रस्तावित तिथि के केवल दस दिन पहले, उन्होंने लगभग एक-सा पत्र अपने संन्यासी शिष्यों को लिखा कि वे वृंदावन आएँ जिससे उनकी अनेक व्यक्तिगत समस्याओं और कार्यक्रम के मसलों का समाधान निकाला जा सके जो प्रभुपाद के व्यस्त यात्रा - कार्यक्रम के कारण लम्बे समय से लटके पड़े थे ।

मैं आप को हार्दिक आमंत्रण भेजता हूँ कि आप वृंदावन में हमारे उद्घाटन समारोह में सम्मिलित हों। उस समय वहाँ हमारे सभी संन्यासी उपस्थित होंगे। आप भी एक नियमित संन्यासी होने के नाते आएँ और भाग लें। यह मेरी इच्छा है ।

जब करन्धर, जो हाल में ही भारत में जी. बी. सी. का सचिव नियुक्त हुआ था, इस बात में संदेह प्रकट करने लगा कि समय पर हर काम हो जायगा, तो प्रभुपाद ने लॉस ऐंजीलीस से उसे जवाब दिया,

उत्सव बहुत शान से होना चाहिए । इसे सस्ता नहीं बनाना है । यदि धन की कमी हो तो उसकी व्यवस्था की जा सकती है। प्रसाद सभी अतिथियों के लिए भरपूर होना चाहिए। आप ऐसी ही योजना बनाइए और मैं वित्त की व्यवस्था करूँगा । प्रसाद वितरण पूर्णरूपेण चलते रहना होगा ।

जहाँ तक समय पर मंदिर न बन सकने की बात है, वह आप की जिम्मेदारी है। मैं क्या कर सकता हूँ ?

यद्यपि प्रभुपाद ने करन्धर को जोरदार जवाब दे दिया था, किन्तु भारत में उनके प्रधान प्रबन्धक की ओर से जो संदेहात्मक टिप्पणी प्राप्त हुई थी उसने उन्हें चिन्तित कर दिया। उन्होंने सुरभि को लिखा जो वृंदावन में निर्माण का इनचार्ज था, “मैं मन में कुछ विक्षुब्ध हूँ, क्योंकि करन्धर का पत्र कहता है कि कुछ कार्य उत्सव के समय भी चलता रह सकता है।'

लॉस ऐंजीलिस में प्रभुपाद को समाचार मिला कि लंदन की रथ यात्रा, जो उस मास के अंत में होने वाली थी, स्थानीय अधिकारियों द्वारा रद्द कर दी गई है। उनका कहना था कि गत वर्ष के जुलूस से यातायात बहुत बाधित हुआ था। प्रभुपाद ने आग्रह किया कि भक्तों को इस अनुचित आदेश का प्रतिरोध करना चाहिए। उन्होंने कहा, “यह धार्मिक भेदभाव है।” और उन्होंने परामर्श दिया कि लंदन में रहने वाले सहानुभूतिपूर्ण भारतीयों को अपने राजदूत से मिलना चाहिए और मामले को महारानी के सम्मुख प्रस्तुत करने का अनुरोध करना चाहिए । । हाल में ही मेलबोर्न के रेवरेंड पावेल द्वारा दिए गए वक्तव्य का उपयोग यह दिखाने के लिए किया जा सकता है कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन से ईसाइयों को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । प्रभुपाद ने प्रतिरोध प्रकट किया, “पुलिस की आपत्ति का यह तात्पर्य है कि पूरे धार्मिक समारोह पर रोक लगा दी जाय ? यह क्या है ? केवल कुछ तकनीकी गलती के कारण वे हमारे पूरे धार्मिक समारोह को रोक देंगे ?"

एक

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस

प्रभुपाद ने कहा कि यदि नगर के अधिकारी जुलूस पर प्रतिबंध जारी रखते हैं तो भक्तों को चाहिए कि हाइड पार्क में एक अचल रथ निर्मित करें और निकाले बिना ही वहाँ उत्सव मनाएँ । प्रभुपाद ने कहा “उत्सव के बाद जुलूस हम श्रीविग्रह को एक पालकी में ट्रैफाल्गर स्क्वायर ले जायँगे । रथ अपनी जगह पर रहेगा। यह नहीं चलेगा। किन्तु हम श्रीविग्रहों को पालकी मैं बैठाएँगे और ट्रैफाल्गर स्क्वायर जायँगे। पुलिस कमिश्नर की अनुमति इसके लिए प्राप्त करो और वहाँ पहुँचने के बाद हम उत्सव के साथ-साथ प्रतिरोध करेंगे। उन्हें इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती । किन्तु रथ दिखाई पड़ना चाहिए। और जनता को मालूम होना चाहिए कि दुष्ट पुलिस ने जुलूस रोक दिया है। "

प्रभुपाद ने अपने आदेश को कई बार दुहराया। अपने अनुयायियों को आदेश देते समय उनका मन बहुत संजीदा था । " मेरे गुरु महाराज कहा करते थे 'प्राण आछे यार सेइ हेतु प्रचार — जिसमें प्राण है वह प्रचार कर सकता है। मृत व्यक्ति प्रचार नहीं कर सकता। इसलिए तुम प्राणवान् बनो; मृत व्यक्ति की तरह मत बनो। मेरे सभी गुरुभाइयों की तरह नहीं; वे मृत व्यक्ति हैं। इसलिए वे मेरे कार्यों से ईर्ष्या करते हैं। उनमें जीवन नहीं है। यदि तुम लोग आराम की जिन्दगी चाहते हो, श्रीविग्रह का दर्शन कराकर सोना चाहते हो, तो अपने आन्दोलन को विफल समझो।"

प्रभुपाद को यह सुनना सह्य नहीं था कि उनका रथ यात्रा जैसा महत्त्वपूर्ण उत्सव रोका जा रहा है। उन्होंने कहा, “हम सभी नियमों का पालन करेंगे, लेकिन हमें यह उत्सव अवश्य करना है। गत वर्ष उन्होंने देखा था कि सैंकड़ों-हजारों लोग ट्रैफाल्गर स्क्वायर में कड़ी धूप में तीन घंटे तक खड़े रहे। और वे चर्च नहीं जाते। अतः उन्होंने देखा है कि हमारे आन्दोलन में कुछ विशेषता है। अन्यथा, लोग इतनी रुचि क्यों प्रदर्शित करते ?"

ब्रह्मानंद स्वामी : "हाँ, ठीक सैन फ्रान्सिस्को पत्र में छपने की तरह उन्होंने स्वीकार किया 'यह सबसे अधिक लोकप्रिय उत्सव है । "

प्रभुपाद : "हाँ, सैन फ्रान्सिस्को में पन्द्रह हजार लोगों ने शान्त भाव से मेरा भाषण सुना । अतः वे देख रहे हैं कि हमारे आन्दोलन में कुछ चीज है । किन्तु कभी-कभी कुछ पार्टियाँ नहीं चाहतीं कि हम बिना आपत्ति के आगे बढ़ते जायँ; इससे तो उनका खात्मा हो जायगा ।'

लॉस ऐन्जीलिस से प्रस्थान करने के दिन प्रभुपाद ने वहाँ एकत्रित भक्तों को मंदिर में सम्बोधित किया और उन्हें प्रोत्साहित किया कि वे कृष्णभावनामृत

के प्रति निष्ठावान् बने रहें। और उन्होंने उसकी महत्ता के प्रति अपनी निजी भावनाएँ भी अभिव्यक्त कीं। उनकी निरन्तर यात्रा उनके भक्तों के लिए थी— जिससे

वे

मजबूत बने रहें। और यदि वे मजबूत बने रहेंगे और प्रभुपाद द्वारा दिए गए सरल कार्यक्रम का अनुसरण करते रहेंगे तो उनकी सफलता निश्चित है। उन्होंने कहा, “ किसी तरह हमने यह कार्यक्रम पश्चिम के देशों में आरम्भ किया है और आप लोग इतने प्रबुद्ध हैं कि आपने इस पर तुरन्त अधिकार पा लिया है । इसलिए इसे मानक बनाए रखिए; तभी आप का जीवन सफल होगा। यह कोई कठिन नहीं है। लेकिन मार्ग से विचलित मत हो। तब तुम पक्के होगे : माम् एव ये प्रपद्यन्ते मायाम् एताम् तरन्ति ते। यदि आप कृष्णभावनामृत में दृढ़ रहें तो माया आपका स्पर्श नहीं कर सकती ।

" अतः यही मेरी प्रार्थना है। मैं सारे विश्व की यात्रा कर रहा हूँ, मैं यह देखने जा रहा हूँ कि डलास और न्यू वृंदावन में काम कैसे चल रहा है । मेरा यात्रा करना स्वाभाविक है। मैंने यह आन्दोलन आरंभ किया है। मैं देखना चाहता हूँ कि यह अच्छी तरह चले । विचलित मत हो । यही मेरी प्रार्थना है । " प्रभुपाद रोने लगे और अपने भाषण का अंत यह कह कर किया, “ तब आप पक्के रहेंगे। बहुत-बहुत धन्यवाद ।”

न्यू वृन्दावन

जुलाई १८, १९७४

करन्धर का एक पत्र श्रील प्रभुपाद को मिला जिसमें सूचना थी कि उसने भारत की जी. बी. सी. से त्याग पत्र दे दिया है। उस पर इतनी जिम्मेदारी थी कि वह उसको निभा नहीं सकता था, क्योंकि कृष्णभावनामृत आंदोलन में उसका प्रवेश हाल में ही हुआ था। वह आध्यात्मिक कार्यों में लगा रहेगा, लेकिन जी. बी. सी. में नहीं रहेगा; श्रील प्रभुपाद को फिर धक्का लगा और अपने कमरे में न्यू वृन्दावन में कई जी. बी. सी. के सदस्यों के सामने उन्होंने पूछा, “अब क्या करना है ? हम क्या करें ? क्या भारत की इन परियोजनाओं को छोड़ दिया जाय ?"

भक्तों ने उत्तर दिया, “किन्तु श्रील प्रभुपाद, भारत की वे परियोजनाएँ आप को बहुत प्रिय हैं। "

प्रभुपाद ने पूछा, "लेकिन किया क्या जाय ?"

गुरुदास के अतिरिक्त, वृंदावन का अन्य कोई भक्त नहीं सोचता था कि

निर्धारित महान् उद्घाटन के समय तक इमारत तैयार हो जायगी । काम हमेशा की तरह बहुत धीमी गति से चल रहा था और अर्चा-विग्रह - कक्ष के अतिरिक्त शेष भूमि निर्माण स्थली बनी हुई थी । न मंच बने थे, न अर्चा-विग्रह थे । तेजास का विचार था कि गुरुदास प्रभुपाद के अप्रसन्न होने से इतना डरता था कि वह मानने को तैयार नहीं था कि इमारत समय पर तैयार नहीं हो सकेगी। तिथि निश्चित हो चुकी थी और प्रभुपाद कोई बहाना सुनना पसंद नहीं करते थे। उन्होंने लिखा, "यह कार्य जन्माष्टमी तक होना ही है। देर का कोई प्रश्न नहीं है।” गुरुदास ने माना कि इमारत का निर्माण जन्माष्टमी तक पूरी तरह नहीं हो पाएगा, लेकिन उसने तर्क किया कि उद्घाटन समारोह फिर भी हो सकता है, यद्यपि मंदिर का आखिरी काम तब तक पूरा नहीं हुआ होगा ।

चूँकि भारत में कोई जी. बी. सी. का नियमित सचिव नहीं रह गया था, इसलिए प्रभुपाद को वृंदावन में मंदिर निर्माण के विषय में ठीक समाचार नहीं मिलते थे। जब अप्रैल में तमाल कृष्ण गोस्वामी पश्चिम में प्रचार करने चले गए, उसके कई महीने बाद प्रभुपाद ने करन्धर की नियुक्ति उनके स्थान पर की थी । अब कुछ सप्ताह बाद ही करन्धर ने त्यागपत्र दे दिया था । अतः केवल गुरुदास की रिपोर्ट ही प्रभुपाद को मिली थी। जुलाई का अंत निकट आ रहा था और भक्त वृंदावन के लिए प्रस्थान की तैयारी में जुट गए थे — केवल घोर विफलता का मुँह देखने को ।

वृन्दावन

अगस्त ४, १९७४

जब प्रभुपाद की कार रमण-रेती में इस्कान की भूमि में पहुँची, तो भक्तों के एक दल ने कीर्तन और फूलों से उनका स्वागत किया। संसार के विभिन्न मन्दिरों से बृहत् उद्घाटन समारोह के लिए लगभग पचीस भक्त पहले ही पहुँच चुके थे और वृन्दावन के भक्तों के साथ मिल कर वे सब प्रसन्नतापूर्वक प्रभुपाद की चारों ओर घेरा बनाकर खड़े हो गए। उनके लिए कोई विधिवत् स्वागत द्वार नहीं बनाया गया था और प्रभुपाद अर्ध-निर्मित दीवारों, बालू और ईंट के ढेरों से होते हुए अर्चा-विग्रह - भवन की ओर बढ़ने लगे। वहाँ भी शृंगार - सँवार का अभाव स्पष्ट दिखाई देता था और मिट्टी चारों ओर बिखरी पड़ी थी ।

तो

निर्माण-स्थली का निरीक्षण करते हुए उन्होंने पूछा, “यह क्या है ? यहाँ कुछ दिखाई नहीं देता। मंदिर कहाँ है ? तुमने तो मुझे बताया था कि मंदिर

पूरा हो गया है।” गुरुदास, सुरभि, गुणार्णव और अन्य शिष्य जिन पर निर्माण की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी थी, उत्तर देने में असमर्थ थे। उनके चेहरे सफेद पड़ गए।

प्रभुपाद अत्यन्त कुपित थे, “इसका उद्घाटन कैसे होगा ? ”

बाहर से आए भक्त भी आपस में बात करने लगे, "यह तैयार नहीं है। इसका उद्घाटन हम कैसे कर सकते हैं ? "

एक भक्त ने कहा, “किन्तु प्रभुपाद, सारी दुनिया से भक्त यहाँ जमा हो रहे हैं।"

प्रभुपाद बोले, “उन्हें तुरन्त रोक दो उद्घाटन नहीं होगा । "

मोह का अंत हो गया था कि प्रभुपाद का क्रोध बड़ा भयानक शान्तचित्त और प्रसन्न मुख नहीं

प्रभुपाद ने बुलबुला तोड़ दिया था, इस विशाल उद्घाटन समारोह होने जा रहा है। था और जो भक्त उन्हें घेर कर खड़े थे अब रह गए थे। प्रभुपाद ने व्यंग्य किया, “तुम लोग इस मन्दिर का उद्घाटन करने जा रहे थे ? "

उद्घाटन में शामिल होने के लिए, जापान से आया हरिकेश बोला, " मंच तैयार है, हम अर्चा-विग्रह की स्थापना कर सकते हैं। और ... ।

प्रभुपाद चिल्लाए, “तुम लोग इस मंदिर का उद्घाटन नहीं कर सकते। मंदिर तैयार नहीं है । "

तब प्रभुपाद अपने घर में चले गए। उनके पीछे वृंदावन के प्रबन्धक और कुछ अन्य प्रमुख व्यक्ति भी गए । प्रभुपाद के इस क्रोध में जो उनसे दूर रह सका वह अपने को सुरक्षित अनुभव कर रहा था। सुरभि की पत्नी, प्रभुपाद के प्रचण्ड क्रोध से डर कर भागती हुई कृष्ण से प्रार्थना करने चली गई ।

कमरे में पहुँच कर प्रभुपाद का क्रोध और बढ़ गया। गुरुदास के कुप्रबन्ध के लिए उन्होंने उसे खूब घुड़की पिलाई। वे सुरभि पर भी चिल्लाए । वे सबों पर आग-बबूला हुए। किसी को साहस नहीं हुआ कि कोई सुझाव दे या बहाना बनाए । डर से सभी के चेहरे फक थे, सभी उदास थे। अचानक प्रभुपाद ने पूछा कि क्या इस सारी गड़बड़ी के बावजूद मंदिर का उद्घाटन संभव था । सुरभि की ओर मुड़ कर वे बोले, “क्या तुम कम-से-कम अर्चा-विग्रहों का कमरा तैयार कर सकते हो ? यह हमारे संघ के लिए अपमान की बात है । लोग क्या सोचेंगे ? हम चारों ओर इसकी घोषणा कर चुके हैं। "

सुरभि ने, डरते हुए और दूसरे विस्फोट का सामना करने की तैयारी करते हुए, कहा, “श्रील प्रभुपाद, वास्तव में इस विषय में किसी को कोई जानकारी

एक

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस

नहीं है । "

अपना स्वर कुछ बदलते हुए प्रभुपाद बोले, “ ओह ? तुमने कोई प्रचार नहीं किया है ? आमंत्रण पत्र नहीं भेजे गए हैं ?"

" अभी तक नहीं, प्रभुपाद । वृन्दावन के लोगों को आमंत्रण पत्र नहीं भेजे गए हैं। वे इसके उद्घाटन की आशा अभी नहीं करते, क्योंकि जो यहाँ आए हैं वे देखते हैं कि मंदिर का उद्घाटन अभी संभव नहीं है। वे जानते हैं कि यह तैयार नहीं है।

त्योरी चढ़ाते हुए प्रभुपाद ने कहा, "यह तो एक तमाशा बन गया । घोर विफलता है यह ।” विरक्ति से भर कर उन्होंने वृंदावन के प्रबन्धकों को घूर कर देखा, "हमें उद्घाटन करना है। जन्माष्टमी पर उद्घाटन कैसे होगा ?"

सुरभि ने कहा, “ श्रील प्रभुपाद, दरवाजे तैयार नहीं हैं। अभी लकड़ी की कटाई चल रही है । " प्रभुपाद ने यमुना से अर्चा-विग्रहों के बारे में पूछा। उसने कहा कि उनका सामान खरीद लिया गया है, लेकिन सिंहासन अभी तैयार नहीं

हैं ।

प्रभुपाद ने पूछा, “तुम्हारा मत क्या है ? "

यमुना बोली, “मैं कुछ कहने के बिल्कुल अयोग्य हूँ। और यद्यपि मुझे बोलने का अधिकार नहीं है लेकिन मैं समझती हूँ कि मंदिर का उद्घाटन लगभग असंभव है। पुजारी भी नहीं है ।

विफलता की स्वीकृति के साथ प्रभुपाद ने अंतिम निर्णय के भाव से कहा, “ तब हम उद्घाटन नहीं करेंगे। किन्तु हमने दुनिया भर के लोगों को आने के लिए आमंत्रित कर रखा है, और मुझे यहाँ के बारे में कुछ बताया नहीं गया । अब तुम्हीं लोग निर्णय करो। "

प्रभुपाद ने पूछा “हम उद्घाटन कब कर सकते हैं ? क्या यह दिवाली पर संभव है ? दिवाली कब है ?"

" अक्तूबर, श्रील प्रभुपाद ।"

एक भक्त ने सुझाव दिया, “ श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का आविर्भाव दिवस. कैसा रहेगा ? यह दिसम्बर के अंत में आता है । "

प्रभुपाद मौन थे । वे अप्रसन्न लग रहे थे। सुरभि ने कहा, "अभी छह महीने लगेंगे, वास्तव में सात महीने।" तब प्रभुपाद ने अप्रैल में राम नवमी का दिन चुना। उद्घाटन भक्तों के मायापुर और वृंदावन में वार्षिक जमाव के साथ हो सकता है।

सुरभि फिर बोला । वह भारत में निर्माण के अनुभवों के कारण बहुत निराशावादी हो गया था। उसने कहा, “श्रील प्रभुपाद, सब कुछ निर्भर करता है हमारे सीमेंट पाने पर। हमें सीमेंट गवर्नमेंट से प्राप्त करना होता है। हमारे अभी उद्घाटन करने में सबसे बड़ी बाधा यही रही है। यदि सीमेंट मिल जाय तो संभवत: हम उद्घाटन तीन महीने में कर सकते हैं । '

प्रभुपाद ने जैसे पराजय स्वीकार कर ली हो— तिथि निश्चित करने से कोई लाभ नहीं। वे बोले-

बोले— “ उद्घाटन अगली जन्माष्टमी के पहले हो जायगा ।" उनका स्वर व्यंग्य से भरा था । "यदि सीमेंट मिल गया तो यह तीन महीने बाद हो सकेगा । "

बाद में, भिन्न-भिन्न लोगों से मिलने पर प्रभुपाद अपनी अप्रसन्नता प्रकट करते रहे, विशेष कर गुरुदास के प्रति। वे प्रश्न पूछते थे, किन्तु उनके उत्तरों से संतुष्ट नहीं होते थे। उन्होंने गुरुदास से हिसाब-किताब मँगाया और तब उसे और अधिक डाँट पिलाई। जयपुर के महंगे होटल में गुरुदास के ठहरने की रसीद पाकर प्रभुपाद ने घोर आपत्ति की । गुरुदास जैसे अकेला पड़ गया। जब प्रभुपाद की उससे वार्ता समाप्त हुई तो गुरुदास अपने कमरे में चला गया । और वहाँ से तब तक नहीं निकला जब तक कि प्रभुपाद ने उसे दुबारा नहीं बुलाया ।

प्रभुपाद ने

वृन्दावन में मंदिर के अध्यक्ष बदलने की चर्चा शुरू कर दी । उन्होंने हरिकेश का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि गुरुदास और उसकी पत्नी को अतिथि गृह का प्रभारी बनाया जा सकता है जो इस समय तक जमीन में केवल गड्ढे के रूप में था। उन्होंने गुरुदास को पुनः बुलाया और पूछा कि यदि उसे वृंदावन अतिथि गृह का प्रभारी बना दिया जाय तो कैसा रहेगा। उन्होंने उसे यह भी सुझाया कि वह वृन्दावन में जयपुरिया अतिथि गृह जाय और अतिथि- गृह की व्यवस्था के बारे में वहाँ से जानकारी प्राप्त करे ।

गुरुदास ने कहा, “ किन्तु प्रभुपाद, जयपुरिया अतिथि गृह में किराया इतना कम लिया जाता था कि मुझे लगता है कि उसे आर्थिक सहायता अन्यत्र से मिलती है। "

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "यह मिस्टर जयपुरिया मारवाड़ी व्यवसायी है। वह अतिथि - गृह पर हानि नहीं उठा रहा है। वह लाभ कमा रहा है। यह प्रबन्ध की कला है। इसे वहाँ जाकर तुम्हें देखना और सीखना है।” किन्तु गुरुदास भारत में प्रबन्धन और जीवनयापन की कठोरता से बिलकुल थक गया था जबकि प्रभुपाद का ध्यान हमेशा उधर ही रहता था और उनकी आलोचनाएँ तथा उनकी

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मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस

माँगें इतनी जबर्दस्त थीं कि सब कुछ बहुत कठिन हो रहा था। वह और उसकी पत्नी वृंदावन छोड़ने की सोचने लगे थे ।

प्रभुपाद ने सुरभि पर दबाव बनाए रखा और वे दिन में उसे बार-बार बुलाते थे। उन्होंने माँग की, “श्रीविग्रहों के दरवाजे अभी तक क्यों नहीं लगे ?"

सुरभि ने उत्तर दिया, “प्रभुपाद, मैं प्रयत्न कर रहा हूँ। कई चीजें करनी हैं।"

प्रभुपाद ने कहा, "कोई बात नहीं । तुम्हें इसे कराना है। ये भाड़े के लोग तुम्हें ठग रहे हैं। तुम अपने को मत ठग जाने दो। इन सभी भक्तों के लिए धन- संग्रह करना आसान नहीं है। यह सब कृष्ण का धन है और इसे केवल कृष्ण के कामों में ही लगाया जा सकता है। इस धन की रक्षा करो और इसे गलत हाथों में न पड़ने दो। मैं नहीं चाहता कि ठेकेदार हमारी परियोजनाओं की कीमत पर धनाढ्य बनें। और उस इमारत में मैं संगमरमर चाहता हूँ । संगमरमर कहाँ है ?"

सुरभि ने पूछा, “मुझे संगमरमर कहाँ से मिलेगा ?"

प्रभुपाद ने चिल्लाकर कहा, “तुम ये प्रश्न मुझसे क्यों पूछते हो ? विशेषज्ञ तुम हो। मैं

कुछ नहीं जानता। अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करो ।'

अंततः प्रभुपाद का अपने शिष्यों के प्रति क्रोध केवल आनुषंगिक था—यह उनकी मूर्खता की प्रतिक्रिया थी जिसके वे पात्र थे। यह उन्हें प्रशिक्षित करने और उनकी परीक्षा लेने का एक ढंग भी था। किन्तु प्रभुपाद का यह दिव्य असंतोष और निराशा अधिक गहरी थी कि वृंदावन में उनकी भक्ति अभी तक प्रतिफलित नहीं हुई । वे कृष्णभावनामृत आन्दोलन के गौरव स्वरूप एक अद्भुत मंदिर चाहते थे, ऐसा मंदिर जो सारे विश्व में कृष्ण- चेतना की स्थापना कर सके। अपने गुरु महाराज के लिए यह उनकी भेंट थी और उन्होंने कृष्ण को ऐसा वचन दिया था । किन्तु अभी तक वह पूरा नहीं हुआ था ।

जहाँ तक प्रभुपाद के शिष्यों के काम पूरा न कर सकने का प्रश्न था, उस विफलता के बोझ और दुख को प्रभुपाद को स्वयं झेलना था। उनके शिष्य तो कृष्ण की सेवा में उनके साधन थे । यदि ये साधन ठीक से काम नहीं करते तो दुख उन्हें झेलना है, जैसे बाहों या टाँगों के ठीक से काम न करने की दशा में शरीर को दुख झेलना पड़ता है। उनकी इच्छाओं को उनके शिष्यों द्वारा पूरा न किया जाना उनकी अपनी हानि थी । इस प्रकार जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन में शिष्यों की विफलता को उन्होंने अपना

दिव्य विलाप माना ।

प्रभुपाद के मन की चिन्ता, यद्यपि दिव्य थी, फिर भी वह यथार्थ थी, वह शिष्यों को शिक्षा देने का केवल बहाना नहीं था । उनके शिष्य अपने गुरु महाराज को सस्ते ढंग से “प्रसन्न " भी नहीं कर सकते थे। उपयुक्त ढंग से प्रभुपाद की सहायता करने के लिए शिष्यों को उनकी दिव्य मनोवृत्ति को समझना और तदनुसार कार्य करना था। प्रभुपाद अपने शिष्यों से व्यावहारिक और यथार्थ सेवा चाहते थे । शिष्य केवल भावना प्रेरित सेवा से उन्हें प्रसन्न करने की आशा नहीं कर सकते थे, उन्हें कड़ा परिश्रम करना था । भक्ति को गत्यात्मक होना था । प्रभुपाद अपने शिष्यों से चाहते थे कि वे उनकी परियोजनाओं में मदद करें जिससे प्रभुपाद अपने गुरु महाराज की सेवा कर सकें—परियोजनाएँ ऐसी थीं कि उनके पूरा होने पर संसार की विपत्ति कैट सकती थी ।

कंक्रीट प्राप्त करना एक समस्या हो रही थी । सुरभि, गुणार्णव, तेजास और अन्य -- हमेशा इसी सोच और प्रयत्न में लगे रहते कि 'सीमेंट कैसे मिले ?” प्रतिमास वे सरकार से परमिट पाने की प्रतीक्षा करते रहे; तब भी ऐसा लगता था कि मानो सारे भारत में सीमेंट नहीं है। प्रभुपाद के तथाकथित उद्घाटन के लिए आने के बाद, भक्त बस और रिक्शे से प्रतिदिन मथुरा की दौड़ लगाते रहे कि एक-दो बोरी भी मिल जाय ।

कभी-कभी उन के साथ धोखा भी हो जाता। एक बार बीस बोरी सीमेंट में अन्य चीजें मिला दी गई थीं और जब उस सीमेंट का इस्तेमाल एक स्तंभ के निर्माण में किया गया तो चार दिन तक वह गीला बना रहा और अंत में गिर गया। और अंततः जब काम पूरा करने के लिए काफी सीमेंट पहुँच गया तो भक्तों को निश्चय हो गया कि यह सब प्रभुपाद की उपस्थिति के कारण संभव हुआ है।

सीमेंट पहुँचने पर प्रभुपाद गुणार्णव से हर बोरी गिनवाते रहे। आठ बजे सवेरे से साढ़े नौ बजे रात तक सीमेंट से भरे ट्रकों का आना जारी रहा। हर ट्रक पर चार कुली थे जो सीमेंट की भारी बोरियाँ ट्रक से उतार कर स्टोर - शेड में ले जाते थे। पैड और कलम हाथ में लिए गुणार्णव सारा दिन बाहर खड़ा रहा और अंदर जाने वाली हर बोरी को नोट करता रहा। श्रील प्रभुपाद अपने कमरे से कई बार बाहर आए और गंभीरतापूर्वक सब देखते रहे । संध्या - समय जब कार्य समाप्त हो गया तो प्रभुपाद ने गुणार्णव को बुलाया और पूछा, “तो कितनी बोरियाँ आईं ?” गुणार्णव ने ठीक-ठीक संख्या बताई ।

एक

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस

प्रभुपाद ने पूछा, "क्या स्टोर में ताला लगा दिया गया है ? "

“हाँ, श्रील प्रभुपाद ।”

प्रभुपाद सीमेंट पहुँचने की बात इस तरह कर रहे थे मानो सोने की आमद हुई हो ।

अगस्त १२

प्रभुपाद बहुत दुर्बल अनुभव कर रहे थे। यह उनके आविर्भाव दिवस का अगला दिन था और वे अपने घर के मुख्य कमरे में चौकी के सामने बैठे थे। वे अपने आसन पर लेट गए और उन्होंने अपना सिर बगल के एक तकिये पर रख दिया। अगले दिन वे इतने कमजोर लगने लगे कि न चल सकते थे और न खड़े हो सकते थे। उनकी भूख जाती रही और उन्हें १०४ डिगरी बुखार हो गया । एक स्थानीय डाक्टर आया और उसने प्रभुपाद का परीक्षण करके मलेरिया बताया। उसने कुछ ओषधियाँ बताई जिन्हें प्रभुपाद ने एक-दो बार लिया, फिर बंद कर दिया। एक दूसरा डाक्टर आया और उसने कोई और ही ओषधियाँ बताई । प्रभुपाद बोले – “ इन डाक्टरों को बुलाना बंद करो; कोई डाक्टर मुझे अच्छा नहीं कर सकता । "

यह बरसात का मौसम था, अगस्त का महीना । बहुत से भक्त बीमार पड़ गए थे। श्रुतकीर्ति जो हाल में ही प्रभुपाद का निजी सेवक बन कर अपने पद पर आया था मलेरिया से ग्रस्त हो गया; तब कुलाद्रि जो उद्घाटन समारोह में भाग लेने भारत आया था, स्वेच्छा से उसकी मदद करने लगा। तो उसे भी मलेरिया हो गया । अन्य भक्त भी, मलेरिया, पीलिया, पेचिश और अन्य अनेक पाचनसंबंधी बीमारियों में जकड़ गए ।

मौसम घनाच्छादित गर्म और उमस से भरा था। हजारों तरह के कीड़े-मकोड़े दिखाई देने लगे। कभी-कभी आकाश कई दिनों तक बादलों से ढका रहता । तापमान नब्बे डिगरी से ऊपर पहुँच जाता । तब सूर्य निकल आता और असह्य ताप से हर चीज को भाप के रूप में ऊपर खींचने लगता । वृन्दावन का यह सब से खराब मौसम था। जब प्रभुपाद की हालत खराब होती गई तो भक्त बहुत उदास हो गए और अपने गुरु महाराज के जीवन के लिए भी उनमें डर उत्पन्न हो गया। वे प्रभुपाद का बिस्तर मकान के बाहर उनके छोटे-से बरामदे में निकाल लाए। वहाँ कुछ ठंडा था । उनके सेवक उनकी मालिश करते थे और पंखा झलते थे। कई दिन बीत गए, लेकिन प्रभुपाद ने कुछ अंगूर और

संतरे की कुछ फाँकों के अतिरिक्त कुछ नहीं खाया। उन्होंने बताया कि उनके पिताजी की मृत्यु इसी तरह कुछ न खाने से हुई थी । प्रभुपाद की ऐसी टिप्पणी से उनके शिष्य और भी डर गए और वे गोस्वामियों की समाधियों पर प्रार्थना करने जाने लगे कि उनके गुरु महाराज अच्छे हो जायँ 1

एक दिन हरिकेश ने पूरी रात प्रभुपाद के कमरे की बगल में जाग कर काट दी और वह मंद स्वर में लगातार हरे कृष्ण मंत्र भजता रहा । प्रभुपाद को यह पसंद आया । उन्होंने कहा, “यही कीर्तन सचमुच हमें जीवन देता है । " इसके बाद भक्तों ने बारी बाँध ली, जिससे वह कीर्तन लगातार चलता रहा ।

प्रभुपाद ने बताया कि उनकी बीमारी इस्कान के नेताओं के पापों के कारण है, जिनमें से अस्सी प्रतिशत कड़ाई से विधि-विधानों का पालन नहीं कर रहे थे । वृंदावन में भी कुछ भक्त नियमपूर्वक चार बजे सवेरे नहीं उठ रहे थे। प्रभुपाद बहुत कम बोल रहे थे; अपनी बीमारी के इस कारण की बात उन्होंने बहुत संक्षेप में कही थी, किन्तु संक्षिप्त होते हुए भी उसने भक्तों पर वज्रपात कर दिया था । दोषी कौन है, इसे तो अपने बारे में हर भक्त ही अलग-अलग बता सकता था । किन्तु “ ओह, भगवान् हम क्या करते रहे हैं ?” का भाव सब में समान रूप से व्याप्त था और वृंदावन में सभी भक्त विधि-विधानों के पालन में तुरन्त सावधान हो गए ।

सवेरे की भागवत् कक्षा में जो भक्त व्याख्यान देते थे वे प्रभुपाद की पुस्तकों में बताए गए विषय को भलीभाँति समझाकर बताते थे। दीक्षा के समय कृष्ण भक्त के सभी विगत पापपूर्ण कर्मों के फल से, उसे मुक्त कर देते हैं । किन्तु भक्त के गुरु महाराज कृष्ण का प्रतिनिधि होने के नाते, उसके कर्मों के निराकरण में भी भागी होते हैं। कृष्ण अनंत है, इसलिए इन कर्मों से कभी प्रभावित नहीं होते, जबकि आध्यात्मिक गुरु, पूर्णतः शुद्ध होने पर भी, सीमित हैं। अतः आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्यों के दोषपूर्ण कर्मों के प्रतिफल में आंशिक रूप से भागी होता और कभी-कभी बीमार हो जाता है। जीव गोस्वामी आगाह करते हैं कि आध्यात्मिक गुरु को बहुत अधिक संख्या में शिष्य नहीं स्वीकार करने चाहिए। इसमें उस पर कर्म के अत्यधिक भार का जोखिम है । आध्यात्मिक गुरु न केवल अपने शिष्यों के विगत कर्मों को स्वीकार करता है, वरन् यदि दीक्षा के बाद शिष्य पाप कर्म करता है तो उनके कारण भी वह कभी-कभी बीमार पड़ सकता है।

प्रभुपाद ने कहा कि उनका 'दुष्कर्म' यह था कि उन्होंने बहुत सारे शिष्य

स्वीकार किए थे, किन्तु कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए यह अपरिहार्य था । आध्यात्मिक गुरु कभी - कभी कष्ट झेलता है, इसलिए कि उसके शिष्य जान सकें कि "हमारे पाप कर्मों के लिए हमारे आध्यात्मिक गुरु दुख भोग रहे हैं । " और इसका भविष्य में पाप कर्म करने वालों पर अच्छा असर होता है। लेकिन अब पहली बार प्रभुपाद अपनी गंभीर बीमारी के लिए विशेष रूप से अपने शिष्यों को दोष दे रहे थे। शिष्य अपने आध्यात्मिक गुरु के मूलभूत आदेशों की अवहेलना करके, उन्हें गहरा कष्ट पहुँचा रहे थे। शिष्य समझ रहे थे कि उनके गुरु महाराज मामूली मलेरिया के रोगी नहीं थे और वे यह भी जानते थे कि उन्हें अपनी गलतियों को सुधारना है और कृष्ण से प्रार्थना करनी है कि प्रभुपाद शीघ्र स्वस्थ हो जायँ ।

प्रभुपाद की हालत इतनी गंभीर थी और उनके वक्तव्य का निहितार्थ इतना व्यापक था कि उनके सचिव ब्रह्मानंद स्वामी को लगा कि सब से अच्छा यह होगा कि पूरे कृष्णभावनामृत संघ के लोगों को इसकी सूचना दे दी जाय। चूँकि प्रभुपाद को चौबीस घंटे के कीर्तन से प्रसन्नता हुई थी, इसलिए ब्रह्मानंद स्वामी ने सोचा कि यह कार्यक्रम संसार में इस्कान के सभी मंदिरों में आरंभ कर दिया जाय। कुछ तार भेज दिए गए और यह समाचार चारों ओर शीघ्र फैल गया कि प्रत्येक मंदिर में निरन्तर कीर्तन किया जाय और प्रभुपाद के स्वास्थ्य लाभ के लिए कृष्ण से प्रार्थना की जाय ।

वे

कुछ वरिष्ठ शिष्यों को १९६७ ई. की याद आ गई, जब वे रात भर जग कर प्रभुपाद के दिल का दौरा जैसी लगने वाली बीमारी से अच्छा होने के लिए कीर्तन करते रहे थे। उस समय प्रभुपाद ने उन्हें प्रोत्साहित किया था कि

" मेरे भगवान् नृसिंह की एक स्तुति गाएँ और उनसे प्रार्थना करें, गुरु महाराज ने अभी अपना कार्य पूरा नहीं किया है, कृपा करके उन्हें बचा लें ।” प्रभुपाद ने कहा था कि उनके शिष्यों की सच्ची प्रार्थना के कारण कृष्ण ने उनके प्राणों की रक्षा की थी। अब १९७४ ई. में १९६७ ई. की अपेक्षा शिष्यों की संख्या अधिक थी और वे सभी प्रभुपाद वे स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रार्थना कर रहे थे, किन्तु अब, जैसा कि प्रभुपाद कह चुके थे, ऐसे भक्तों की संख्या भी अधिक थी जो अपने अनुचित व्यवहार से उन्हें कष्ट पहुँचा रहे थे। उनका वह संदेश - " मेरे शिष्यों के नेताओं में से अस्सी प्रतिशत विधि-विधानों का पालन नहीं कर रहे हैं, यही कारण है कि मैं बीमार हूँ," - तार द्वारा प्रसारित नहीं किया था । वह बहुत अधिक भारी था ।

प्रभुपाद वृन्दावन एक समारोह के लिए आए थे, पर कोई समारोह न हो सका। अब वे बहुत बीमार थे और उनका सेवक उन्हें अपनी बाहों में उठा कर शौचालय आदि ले जाता और वापिस ले आता था । अन्य भक्त भी बड़ी निष्ठा से उनकी मालिश और सेवा कर रहे थे। उनके लिए कीर्तन निरन्तर चल रहा था। इस बीच वे केवल कृष्ण पर निर्भर थे और प्रतीक्षा कर रहे थे कि वे अच्छे हो जायँ और अपने कार्यों में लग जायँ ।

जिस अवस्था में प्रभुपाद थे उसे वे कृष्ण की कृपा समझ कर झेल रहे थे; उसी बीच समाचार आया कि उत्तर प्रदेश के राज्यपाल उनसे मिलने आ रहे हैं। राज्यपाल, अकबर अली खाँ नामक, एक मुसलमान थे और उस क्षेत्र की यात्रा पर थे । सेठ बिशनचन्द ने, जो राज्यपाल और प्रभुपाद दोनों के मित्र थे, संस्तुति की थी कि राज्यपाल मंदिर देखने जायँ ।

प्रभुपाद ने सोचा कि शायद राज्यपाल भक्तों की सहायता के लिए राजी हो जायें और कम-से-कम स्टील और सीमेंट का परमिट सरकार से दिला दें। इसलिए बीमार होते हुए भी प्रभुपाद ने आग्रह किया कि भक्त प्रांगण में राज्यपाल का स्वागत करें और वे स्वयं जाकर उनका अभिवादन करेंगे। शैय्या पर पड़े हुए और मंद आवाज में बोलते हुए प्रभुपाद ने आदेश दिया कि भोज के लिए व्यंजन तैयार किए जायँ और प्रांगण में मेजें और कुर्सियाँ लगा दी जायँ ।

भक्तों ने प्रभुपाद से प्रार्थना की कि उन्हें सब कुछ करने दिया जाय और राज्यपाल से कहने दिया जाय कि उनके गुरु महाराज बीमार हैं। लेकिन प्रभुपाद ने कहा, " वे आए हैं तो मैं स्वयं जाऊँगा और उनसे मिलूँगा । "

श्रुतकीर्ति ने प्रभुपाद को एक नई रेशम की धोती पहनाई। प्रभुपाद ने अपने माथे पर वैष्णव तिलक लगाने की कोशिश की, लेकिन वह भी एक संघर्ष साबित हुआ और उसमें पाँच मिनट से अधिक लगे। जब वे जाने को तैयार थे, तो प्रभुपाद ने अपने सेवक से पूछा - " क्या मैंने तिलक लगा लिया है । " वे बुखार से भ्रान्तचित्त लग रहे थे और खड़े होने में असमर्थ थे। श्रुतकीर्ति और अन्य लोगों ने मिल कर उन्हें एक कुर्सी में उठाया और ले जाकर प्राँगण के मध्य बैठाया, जहाँ कई मेजों पर प्रसाद और प्रभुपाद की पुस्तकों को सजा

कर रखा गया था ।

राज्यपाल के आने के ठीक पहले वहाँ बहुत से पुलिस के लोग और सैनिक आ गए। उन्होंने रस्सी से उस क्षेत्र को चारों ओर से घेर लिया। मंदिर के सामने वे यातायात नियंत्रित करने लगे और राज्यपाल के आने तक उन्होंने लोगों

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस एक

को बाहर रोके रखा । गुणार्णव ने एक लाल लम्बा कालीन इस्कान की जायदाद के सिरे से प्रांगण तक बिछा रखा था। भक्त कालीन की दोनों ओर खड़े करताल, और मृदंग बजाते हुए कीर्तन कर रहे थे। जब राज्यपाल आए तो सुरभि ने उन्हें एक माला पहनाई। माला को तुरन्त हटाते हुए राज्यपाल लाल कालीन पर चलते हुए प्रांगण में पहुँचे । प्रभुपाद खड़े हो गए ।

प्रभुपाद को सीधे खड़े होते और राज्यपाल से हाथ मिलाते देख कर भक्त विस्मित रह गए। प्रभुपाद और राज्यपाल कुछ देर खड़े रहे और तब बैठ गए। मेहमानों के अतिरिक्त हर एक जानता था कि प्रभुपाद बहुत थकान के योग्य नहीं हैं। उन्होंने देखा कि प्रभुपाद काँप और हिल रहे हैं, फिर भी वे अतिथि के प्रति शिष्टाचार बरत रहे थे और मुसकरा रहे थे। भक्त घोर चिन्ता में थे कि प्रभुपाद के जीवन का अंत कभी भी आ सकता है, तब भी वे अपने आध्यात्मिक गुरु का साथ देते हुए सामाजिकता का प्रदर्शन कर रहे थे । आमंत्रित किए जाने पर राज्यपाल ने एक भाषण दिया, यह बताते हुए कि किस प्रकार भारत का भविष्य उद्योग में निहित है।

उसके बाद प्रभुपाद बोलने के लिए खड़े हुए। वे अपनी कुर्सी पर झुके हुए थे । उनकी आँखे एकदम काली थी और वे मुश्किल से अपनी दृष्टि जमा पा रहे थे । यद्यपि पिछले दो सप्ताह से वे कम बोलते रहे थे, इस समय वे बीस मिनट बोले। राज्यपाल शालीनता के साथ उन्हें सुनते रहे। उसके बाद प्रभुपाद ने राज्यपाल और उनके साथ के लगभग पन्द्रह मंत्रियों के साथ प्रसाद ग्रहण किया। राज्यपाल के जाने के बाद भक्त प्रभुपाद को उठाकर उनके कमरे में ले गए जहाँ वे बेहोश हो गए। उन्हें १०५ डिग्री बुखार था ।

राजनीतिक अतिथियों और सैनिक रक्षकों के जाने के बाद मंदिर - स्थली फिर सामान्य शान्ति में डूब गई और प्रभुपाद के पलंग के पास बैठ कर भक्तों ने मंद कीर्तन आरंभ कर दिया । प्रभुपाद की शक्ति और संकल्प पर विस्मित, भक्त अनुभव करने लगे कि कृष्णभावनामृत में उनका स्वयं का योगदान वास्तव में कितना कम था ।

पूरे दो सप्ताह के बाद प्रभुपाद का ज्वर अंत में उतर गया। एक कठिन परीक्षा का अंत हो गया। बरसात खत्म हो रही थी, किन्तु मंदिर निर्माण की पुरानी समस्या बनी रही ।

और वैसी ही दृढ़ प्रभुपाद की इच्छा-शक्ति थी । उनके शिष्य भी दृढ़ संकल्प थे कि वे सरकार की लाल फीताशाही और मजदूरों की ढिलाई पर विजय

पा लेंगे। अब आध्यात्मिक नियमों का उल्लंघन कोई नहीं करेगा।

प्रभुपाद ने अपनी बीमारी के बारे में बात करना बंद कर दिया और संसार में सभी भक्तों को उनके स्वास्थ्य में सुधार के बारे में बता दिया गया। अब उन्हें आपात्कालीन कीर्तन बंद करने और अपने नित्य के कार्यों में लग जाने को कह दिया गया । प्रभुपाद ने भी मंदिर - निर्माण के सम्बन्ध में अपना नित्य का कार्य आरंभ कर दिया।

जो भी हो, एक बात स्पष्ट थी; प्रभुपाद सम्पूर्णरूपेण आध्यात्मिक थे। और उनके साथ कार्य करने वाले भक्त एक आध्यात्मिक अनुबंध में आबद्ध थे; ऐसे अनुबन्ध में जो प्रेम और विश्वास पर आधारित था। वे उनका कर्म स्वीकार कर रहे थे और भक्त उनके आदेश पालन के लिए वचनबद्ध थे। अब, उनकी विफलताओं से जनित निराशा के बावजूद, वह अनुबन्ध अपनी जगह पर स्थिर था । यदि वे उन्हें अपनी अहैतुकी कृपा देते रहेंगे तो भक्त उनके आदेशों का पालन करते रहेंगे । अन्यथा, वे बिना आध्यात्मिक शक्ति के रह जायँगे। प्रभुपाद के लिए कृपा न देते रहने का कभी कोई प्रश्न ही नहीं था। जब अपने भक्तों के कारण उन्हें बीमारी झेलनी पड़ी थी तब भी उनको त्याग देने का विचार उनके मन में कभी नहीं आया ।

दो सप्ताह तक अनुवाद - कार्य न करने के बाद प्रभुपाद ने उसे फिर शुरू कर दिया। वे चैतन्य चरितामृत पर तेजी से कार्य कर रहे थे और वहाँ पहुँचे थे जहाँ 'मध्यलीला' में भगवान् चैतन्य और सनातन गोस्वामी के बीच विचार-विमर्श होता है । सवेरे चार बजे उठ कर प्रभुपाद ने उसी स्थान से पुनः आरंभ किया जहाँ छोड़ा था। उन्होंने बंगाली अनुवादों और व्याख्याओं का अनुशीलन किया, फिर स्वलेखन यंत्र को चलाकर वे उसमें बोलने लगे। उनकी आवाज कमजोर, रूखी और फुसफुसाहट भरी थी । किन्तु ज्यों-ज्यों वे बोलते गए उनकी आवाज में जान आती गई और एक घंटे में वे अपनी सामान्य आवाज में बोलने लगे । जिस समय उन्होंने वृंदावन से प्रस्थान किया, वे असाधारण तेजी से कार्य कर रहे थे, और एक दिन में दो टेप तैयार कर लेते थे ।

बम्बई

नवम्बर १९७४ से जनवरी १९७५ तक प्रभुपाद बम्बई में रहे। इस बीच

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस एक

वे दृढ़ता एवं धैर्यपूर्वक अनापत्तिक प्रमाण-पत्र प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे जिससे वे राधा - रासबिहारी का सुंदर मंदिर बनाना आरम्भ कर सकें। इस परियोजना में प्रभुपाद के गहरे लगाव का गिरिराज और अन्य लोगों पर बड़ा प्रभाव था और उन्होंने अपना जीवन हरे कृष्ण लैंड को अर्पित कर दिया था। जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने भगवद्गीता में लिखा था, “ जीवन का इसके अतिरिक्त अन्य कोई उद्देश्य नहीं है कि कृष्णभावना के साथ कृष्ण को प्रसन्न करें। इस उद्देश्य से कार्यरत होते हुए व्यक्ति को केवल कृष्ण के बारे ही सोचना चाहिए और कहना चाहिए, 'मैं यह विशेष कार्य करने के लिए कृष्ण द्वारा नियुक्त हूँ।' इस तरह कार्य करते हुए व्यक्ति स्वभावतः कृष्ण के विषय में सोचने लगेगा... कृष्ण का यह आदेश प्रामाणिक गुरु से चल रही गुरु- परम्परा द्वारा प्राप्त होता है । "

प्रभुपाद प्रत्येक शिष्य को अवसर देते थे कि वह किसी विशेष योजना से संबद्ध होकर सेवा करे और स्थानीय लोगों में कृष्णभावनामृत का वितरण करने के निमित्त अपने को अर्पित कर दे। पूरा विश्व उनका क्षेत्र था और वे एक राजाधिराज की तरह थे जो अपने स्वामिभक्त पुत्रों को विस्तृत भूमि देना चाहता था । किन्तु उनका भूमि और परियोजनाएँ देना किसी भौतिक स्वामित्व के निमित्त नहीं था ( जो सदैव मायिक या भ्रामक होता है ) वरन् परमात्मा की सेवा के निमित्त था । कृष्ण हर वस्तु के स्वामी थे और इसलिए कोई प्रचारक कृष्ण के राज्य के किसी विशेष क्षेत्र में रह कर उसके निवासियों को मायां के पंजे से मुक्त करने का प्रयत्न कर सकता है। बम्बई में हरे कृष्ण लैंड प्रभुपाद की बृहत् योजनाओं में से एक था, किन्तु उसका विकास धीरे-धीरे हो रहा था, मानो कृष्ण चाहते थे कि पहले भक्त प्रभुपाद के आदेशों के पालन के कई परीक्षणों में से गुजर लें, और बाद में वे योजना को प्रतिफलित होने दें।

यद्यपि जुहू लैंड में इस्कान की आधे दर्जन आवासीय इमारतें थीं, किन्तु कानून किसी किराएदार को निकालने का निषेध करता था। लेकिन कोई कानून यह नहीं कहता था कि मालिक किसी इमारत में एक और मंजिल नहीं जोड़ सकता। इसलिए प्रभुपाद ने मि. सेठी से, जो एक पक्के आजीवन सदस्य और निर्माण के ठेकेदार थे, प्रार्थना की थी कि वे कम-से-कम दो इमारतों में ऊपर कमरे बना दें। मि. सेठी ने उत्साहपूर्वक यह आदेश स्वीकार कर लिया था और निमार्ण के लिए अनुमति भी प्राप्त कर ली थी ।

अब काम पूरा हो जाने पर कमरों का उपयोग ब्रह्मचारियों के आवासों, कार्यालयों और पुस्तक भण्डार के रूप में हो रहा था । अंततः भक्तों ने फूस

की झोपड़ियाँ खाली कर दी थीं जो भूमि में प्रवेश के पहले दिन से ही उनका आवास थीं। इस निर्णय से उन्हें न केवल गंदी, चूहों से भरी झोपड़ियों में रहने से राहत मिली थी, वरन् इन झोंपड़ियों को गिरा कर ध्वस्त कर देना भी संभव हुआ था और इन झोपड़ियों का ध्वस्त होना उन शर्तों में से एक थी जिसके पूरी होने पर ही नगरपालिका अनापत्तिक प्रमाण-पत्र देने को तैयार

थी ।

ने

नगरपालिका की दूसरी बड़ी आपत्ति यह थी कि मंदिर में होने वाले भजन से उपद्रव होगा और इस आपत्ति को दूर करना सब से जरूरी था। जब पुलिस प्रभुपाद द्वारा बनाए गए मंदिर और होटल के नकशे को देखा तो वह मान गई कि इतने बड़े मंदिर के अंदर होने वाले कीर्तन से इतना शोर-शराबा नहीं होगा जितना इस समय हो रहा था । अतः पुलिस हरे कृष्ण लैंड का मास्टर प्लान स्वीकार करने और अपनी आपत्ति वापस लेने को राजी हो गई, यदि इस्कान फूस की झोपड़ियों को ध्वस्त कर दे और सम्पर्क मार्ग को इस तरह चौड़ा कर दे कि किराएदार भूमि के पिछले भाग में स्थित मकानों तक पहुँच सकें। इन कानूनी माँगों में से हर एक में विवाद के कई मुद्दे शामिल थे; यह शतरंज की बाजी की तरह का एक लम्बा खेल था । किन्तु प्रभुपाद बहुत अनुभवी, सावधान और दृढ़ संकल्प थे। उन्होंने हरे कृष्ण लैंड में कई महीने रहने का निर्णय किया जिससे वे गिरिराज, सेठी तथा अन्य शुभेच्छुकों की मदद कर सकें।

इस बीच प्रभुपाद ने आग्रह किया कि हरे कृष्ण लैंड में आध्यात्मिक कार्यकलाप बिना रुके चलते रहने चाहिए। एक स्थायी मंदिर के बिना भी प्रत्येक रविवार को भोज के लिए वहाँ पाँच से सात सौ तक अतिथि आते थे। गिरिराज ने प्रभुपाद को सूचित किया था कि बम्बई में जन्माष्टमी का उत्सव बहुत सफल रहा और कई हजार लोग उस अवसर पर अर्चा-विग्रहों का दर्शन और प्रसाद पाने के लिए आए थे।

श्रील प्रभुपाद का, जो अब न्यू यार्क या लॉस ऐन्जीलिस जैसे स्थानों में एक सप्ताह या उससे भी कम समय तक रुकने के अभ्यस्त थे, बम्बई में तीन महीने की लम्बी अवधि के लिए रुकना, इस बात की पुनः पुष्टि करता था कि हरे कृष्ण लैंड उन्हें बहुत प्रिय था । यह उनका विशेष शिशु था जब खतरा मंडराता तब वे चौकन्ने और रक्षात्मक बन जाते थे और जब सफलता मिलती, तब वे गर्वित हो जाते और दुनिया को बता देना चाहते थे ।

प्रभुपाद संतुष्ट थे कि कम-से-कम कुछ निर्माण कार्य हमेशा चल रहा था । उन्होंने मि. सेठी से जायदाद की चारों ओर ईंट की एक दीवार बनाने को कहा, यद्यपि दीवार के कुछ हिस्से कभी - कभी रात में गुंडे गिरा देते थे । प्रभुपाद ने कहा, “कुछ बनाते रहिए, भले ही एक ईंट ही लगाएं, किन्तु निर्माण बढ़ता जाय । " ठीक जैसे बम्बई की जायदाद प्राप्त करने में विक्री- पत्र मिलने के पहले ही जायदाद पर अधिकार कर लेने का महत्त्व प्रभुपाद समझते थे, उसी तरह नगरपालिका से निर्माण की अनुमति प्राप्त होने के पहले ही उनका आग्रह निर्माण करते रहने का था। उन्होंने कहा, “निर्माण अवश्य आरंभ कर देना चाहिए, चाहे आप के पास काफी आदमी और ईंटे हों या नहीं। थोड़ा-थोड़ा ही सही, निर्माण कीजिए ताकि लोग समझें कि काम शुरू हो गया है । "

श्रील प्रभुपाद को वृन्दावन से समाचार मिला था कि उत्तर प्रदेश के नव-नियुक्त राज्यपाल श्री चेन्ना रेड्डी ने मंदिर - स्थल का निरीक्षण किया है। यह जान कर उन्होंने मंदिर के उद्घाटन के लिए पुनः निर्धारित होने वाली तिथि पर उन्हें आमंत्रित करने का निर्णय किया ।

महामहिम,

... सम्प्रति भगवान् रामचन्द्र के जन्म-दिवस, रामनवमी, पर उद्घाटन की तिथि निश्चित की गई है। संभवतः यही तिथि कायम रहेगी, क्योंकि हम निर्माण कार्य की प्रगति पर निर्भर हैं। यदि आप अपनी सहमति सूचित करें तो हम आमंत्रण-पत्र पर मुख्य अतिथि और उद्घाटनकर्ता के रूप में आप का नाम छाप सकेंगे।

आप हमारे सदस्य पहले से हैं, साथ ही आप भगवान् कृष्ण के महान् भक्त भी हैं । इसलिए यह हमारे लिए गौरव की बात होगी, यदि आप हमारे इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेंगे।

राज्यपाल को पत्र लिखने के साथ ही प्रभुपाद ने एक पत्र सुरभि को वृंदावन भी लिखा,

... मार्च के अंत तक हर चीज शतप्रतिशत पूरी हो जाय । ठेकेदार धोखेबाजी तो नहीं कर रहा है? यदि ऐसा हुआ तो काम कभी भी पूरा नहीं होगा । केवल हमारे पैसे खर्च होंगे। जो फोटो मैंने देखे हैं उनसे कोई खास प्रगति का पता नहीं चलता । क्या करना है ?

मैं कोई बहाना सुनना नहीं चाहता। मैं हर चीज को पूरा देखना चाहता हूँ । यदि अब भी कोई संदेह हो तो कृपया मुझे साफ-साफ बताइए ।

प्रभुपाद के पास भिन्न-भिन्न स्थानों की यात्रा के लिए आमंत्रण आ रहे थे।

एक दूसरे विश्व भ्रमण की संभावना पैदा हो रही थी । प्रभुपाद ने हृदयानंद गोस्वामी को, जो उन्हें मेक्सिको सिटी और कारकस आमंत्रित कर रहे थे, लिखा ।

...हाँ, मैं वहाँ आने का बहुत इच्छुक हूँ । इस समय मैं बम्बई में हूँ और मंदिर बनाने के लिए सरकार से अनुमति पाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। और ऐसा लगता है कि संभवतः अगले सप्ताह में हमें अनुमति मिल जायगी। यदि ऐसा होता है तो मैं तुरन्त होनोलुलू के लिए प्रस्थान कर दूँगा । होनोलुलू से मैं सीधे मेक्सिको सिटी और वहाँ से कारकस जा सकता हूँ। उसके बाद जनवरी के अंत तक आस्ट्रेलिया । यदि बम्बई का मामला हल नहीं होता तो मुझे यहाँ जनवरी के मध्य तक रहना होगा और उसके बाद या जनवरी के मध्य में या अंत तक मैं आस्ट्रेलिया जाऊँगा और वहाँ एक महीना रहूँगा ।

मध्य जनवरी १९७५ में सरकार ने अन्ततः अनापत्तिक प्रमाण-पत्र जारी किया । प्रभुपाद प्रफुल्लित थे और उन्होंने तुरन्त शिलान्यास का आयोजन करने को कहा। मार्च १९७२ में जब वे जायदाद में पहली बार प्रविष्ट हुए थे तब भूमि-पूजन और शिलान्यास समारोह कर चुके थे। तब भी वे इस तरह का एक दूसरा उत्सव. चाहते थे जो वास्तव में मंदिर निर्माण के आरंभ होने का सूचक होगा। इसलिए उन्होंने एक उत्सव आयोजित किया जिसमें बम्बई के सभी आजीवन सदस्यों और इस्कान के मित्रों को आमंत्रित किया गया ।

श्रील प्रभुपाद यात्रा पर निकलने को तैयार थे और उन्होंने बम्बई के अपने नेताओं से, पहले से कहीं अधिक जोर देकर कहा कि मन्दिर निर्माण का कार्य बिना किसी रुकावट के चलता रहना चाहिए। निस्संदेह सरकार की ओर से नए प्रकार का प्रतिरोध होगा । किन्तु ऐसे प्रतिरोधों पर कृष्ण की कृपा से पहले की तरह विजय प्राप्त की जा सकती है। लेकिन भक्तों को बहुत दृढ़ संकल्प होना होगा । हरे कृष्ण लैंड में प्रभुपाद के लिए कार्य करने का यही पुरस्कार था — कि कठिनाइयों के सम्मुख दृढ़ संकल्प की प्राप्ति होती है और यह ज्ञान होता है कि सेवा में अटल रहने से कृष्ण और कृष्ण के सच्चे भक्त को प्रसन्न किया जा सकता है।

१९७५ ई. के फरवरी-मार्च में श्रील प्रभुपाद ने विस्तृत यात्राएँ की । पूर्व की ओर से वे टोकियो और हवाई होते हुए लॉस ऐन्जीलीस पहुँचे। यात्रा में

एक

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस

उद्घाटन

ही उन्हें सूचना मिली कि राज्यपाल रेड्डी ने राम नवमी पर वृंदावन मंदिर के में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया है। उन्हें सुरभि से भी उत्साहजनक रिपोर्ट मिली कि इस बार उद्घाटन समारोह निश्चित रूप से होगा । प्रभुपाद ने लिखा, "मैं उत्साहित हूँ यह जान कर कि तुम हर चीज समय पर पूरा कर लेने की आशा रखते हो। मैं यही चाहता हूँ ।"

प्रभुपाद मेक्सिको और कारकस गए। लोगों के पत्रों का उत्तर देते हुए उन्होंने पुन: कहा कि वे शीघ्र ही वृन्दावन में हर एक से मिलेंगे। एक आजीवन सदस्य को, जिसने विदेशों में मंदिरों के दर्शनार्थ यात्रा पर उनसे परामर्श माँगा था, उन्होंने लिखा,

बीस मार्च तक मैं कलकत्ता पहुँच जाऊँगा । आप मुझे वहाँ मिलें तो मैं व्यक्तिगत रूप से आप को परामर्श दूँगा । आप मायापुर उत्सव में श्रीचैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव

। दिवस समारोह के दौरान तथा वृंदावन में राम नवमी पर कृष्ण-बलराम मंदिर के उद्घाटन समारोह में भी सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित हैं। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल तथा अन्य अनेक सम्माननीय एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्ति भी वहाँ आएँगे। मुझे आशा है कि आप भी अपनी पत्नी, माताजी, और पुत्र के साथ आएँगे और उत्सव में भाग ले कर हमारा उत्साहवर्धन करेंगे।

दक्षिण अमेरिका से प्रस्थान कर प्रभुपाद तेजी से आगे बढ़ते गए और भारत छोड़ने के एक महीने के अंदर उन्होंने मिआमी, अटलांटा, डलास,

और न्यू यार्क की यात्राएँ पूरी कर ली। उसके बाद वे लंदन गए, वहाँ से चल कर तेहरान में रुके और फिर १६ मार्च को भारत वापिस आ गए। दस वर्षों में यह प्रभुपाद का आठवाँ विश्व भ्रमण था ।

२३ मार्च को बड़े सवेरे प्रभुपाद पाँच कारों के कारवाँ में कलकत्ता मन्दिर से मायापुर चले। प्रभुपाद पहली कार में बैठे थे। उसके बाद की तीन कारों में उनके संन्यासी शिष्य थे और अंतिम कार में उनकी बहिन, भवतारिणी, और अन्य महिलाएँ थीं। हमेशा की भाँति प्रभुपाद इस बार भी अमराई बगीचे में रुके।

दैवी - शक्ति दासी : वे सब गोलाकर में बैठ गए, जैसे चरवाहे बैठते हैं। प्रभुपाद मध्य में बैठे फलों का अल्पाहार कर रहे थे। यह एकादशी का दिन था और मैने

प्रभुपाद

के लिए खजूर और नारियल के गरी का स्वादिष्ट केक बनाया था। जब प्रभुपाद ने अपना टिफिन खोला और उसे देखा, तो वे बोले, "अहा, यह क्या है ? इसे किसने बनाया है ?” अच्युतानंद स्वामी ने बताया कि इसे

मैने बनाया है और वे सीधे उसे खाने लगे। प्रभुपाद ने कहा कि वह उन्हें अच्छा लग रहा था। तब सब ने अपने हाथ धोए और हम फिर मायापुर के लिए चल पड़े ।

मायापुर

मार्च २३, १९७५

इस वर्ष के उत्सव के लिए संसार के सभी भागों से लगभग पाँच सौ भक्त एकत्र हुए थे और प्रभुपाद उनके मध्य आकर्षण के केन्द्र थे― चाहे वे निकट के खेतों में प्रातः कालीन भ्रमण में हों, राधा-माधव मंदिर में प्रवेश कर रहे हों अथवा चैतन्य - चरितामृत पर व्यख्यान दे रहे हों । प्रतिदिन सवेरे कक्षा लेने के बाद वे अपने शिष्यों के साथ मंदिरकक्ष की परिक्रमा करते थे । अर्चा-विग्रहों के मंच की दोनों ओर पीतल के घंटे छत से लटक रहे थे और परिक्रमा करते समय प्रभुपाद एक घंटे को रस्सी के सहारे खींच कर कई बार बजाते थे । उधर कीर्तन उद्दाम चलता रहता था । तब हाथ में छड़ी लिए वे मंच के पीछे से दूसरी ओर चले जाते और दूसरा घंटा बजाते थे ।

प्रभुपाद को चारों ओर से घेर कर चलने वाले भक्त कूदते - उछलते चलते और बराबर हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे गाते रहते थे । प्रसन्नता से मुसकराते हुए प्रभुपाद पूरे मंदिर-कक्ष में भक्तिसिद्धान्त सरस्वती, गौरकिशोर दास बाबाजी, और भक्तिविनोद ठाकुर के चित्रों के सामने से होते हुए चक्कर लगाते और घूमते हुए पहले घंटे के पास फिर पहुँचते और उसे जोर से बजाते थे। इस प्रकार आधी दर्जन बार आनन्दमय परिक्रमा के बाद वे मंदिर छोड़ते थे और कीर्तन तब भी उच्च स्वर से चलता रहता था। बाहर सवेरे की खुली धूप में पहुँच कर वे चौड़ी सीढ़ियों से ऊपर अपने कमरे में चले जाते थे 1

उस उत्सव के बीच कम से कम दो अवसरों पर सवेरे का व्याख्यान देते हुए प्रभुपाद भाव-विभोर हो गए थे। एक बार वे अपने शिष्यों के त्याग की प्रशंसा करते हुए बोल रहे थे, जो अमेरिका, योरोप और आस्ट्रेलिया से, अपने घरों को छोड़ कर, इतनी दूर सेवा करने और मायापुर में उत्सव में सम्मिलित होने आए थे। वे कह रहे थे, “आप सभी युवा हैं, आप को अच्छा अवसर मिला है, किन्तु मैं वृद्ध हूँ। मेरे लिए कोई अवसर नहीं है..."

और इन शब्दों के साथ अचानक वे पूर्णतः मौन हो गए । पाँच सौ शिष्यों

के सम्मुख उनके इस मौन से, समय के रुक जाने का भाव उत्पन्न हुआ । हर एक प्रतीक्षा करने लगा। अंत में एक शिष्य हरे कृष्ण कीर्तन करने लगा और श्रील प्रभुपाद को बाह्य संज्ञा पुनः प्राप्त हुई, उनके मुख से निकला “ हरे कृष्ण" । उन्होंने भक्तों से कीर्तन करने को कहा और वे अपने कमरे में चले गए ।

ने जी. बी. सी. की वार्षिक बैठकों का पुनः लेखा-जोखा लिया और प्रभुपाद स्वयं उसके निर्णयों का अनुमोदन किया अथवा उनमें परिवर्तन किया । इस्कान सचमुच उन्नति कर रहा था, किन्तु जैसा कि प्रभुपाद ने अपने मित्र, वयोवृद्ध गोपाल आचार्य, से मद्रास में कहा था, “कृष्ण और कृष्ण-संघ अभिन्न हैं । यदि भक्त कृष्ण-संघ के विषय में चिन्तन करते हैं तो स्वभावतः वे कृष्ण का विस्मरण नहीं करेंगे । "

वार्षिक भारत - तीर्थयात्रा में भक्तों के सम्मिलित होने पर बल देकर प्रभुपाद इस्कान के आध्यात्मिक आधार को ठोस बना रहे थे— इस्कान जो उनका दिव्य संघ था। इस तरह भक्तों को एकत्र करना ही उनका कारण था कि वे धामों में केन्द्रों के निर्माण के लिए प्रार्थना और संघर्ष करते रहे थे । वे मायापुर और वृंदावन के शुद्धि-कारक शरण-स्थलों का विस्तार अपने सभी वर्तमान और भावी अनुयायियों के लिए करना चाहते थे। थोड़ा-थोड़ा करके उनकी योजना पूरी हो रही थी और भगवान् चैतन्य के आन्दोलन से सम्पूर्ण संसार को सुरक्षा मिलने लगी थी ।

वृन्दावन अप्रैल १६

जब प्रभुपाद वृंदावन में कृष्ण-बलराम मंदिर का अंततः उद्घाटन करने पहुँचे तो मंदिर के शीर्ष पर तीन ऊँचे गुम्बदों को देख कर उन्हें आश्चर्यजनक प्रसन्नता हुई। ये गुम्बद उनके पिछली बार आने के बाद, पिछले आठ महीनों में निर्मित किए गए थे। उनकी अनुपस्थिति में ही चार मंजिला अन्तर्राष्ट्रीय अतिथि- गृह भी बन कर पूरा हुआ था । सुरभि ने रात और दिन की दोनों पालियों में कामगरों का पर्यवेक्षण करके समय पर काम पूरा कराया था।

मध्य का गुम्बद और उसकी अगल-बगल में दोनों वेदियों के ऊपर के दोनों गुम्बद अत्यन्त शानदार थे। उनका भव्य रूप मन को उच्च विचारों की ओर ले जाता था और भौतिक संसार के परे अस्तित्व की ओर इंगित करता था । गुम्बदों की शक्ति और सुन्दरता से भान होता था कि उनके नीचे परमात्मा के

श्रीविग्रहों का वास है। मंदिर लोगों को ज्ञान देने और अज्ञान मिटाने के लिए होता है और उसके ऊपर के गुंबद इस उद्देश्य को वाग्मिता के साथ ज्ञापित करते हैं। वृन्दावन के प्राकृतिक दृश्यों के ऊपर निर्भीक खड़े उन गुम्बदों को, कृष्ण और बलराम की आराधना के उद्घोषक के रूप में, मीलों से देखा जा

सकता था ।

प्रत्येक गुम्बद के शीर्ष पर तीनों लोकों के प्रतिनिधि स्वरूप तीन गोलों का पीतल का कलश है जिसके ऊपर विष्णु का सुदर्शन चक्र है। सुदर्शन चक्र स्वयं कृष्ण है और इस महिमामय प्रतीक को मंदिर के शीर्ष पर देख कर भक्तों को विजय और संतोष का अनुभव होता है। अतिथि भी इसका अवलोकन संभ्रम से करते हैं । सुदर्शन चक्र के ऊपर पीतल की विजय पताकाएँ हैं ।

पूरी हो गई इमारत को चारों ओर घूम कर देखते हुए प्रभुपाद लगातार गुम्बदों की ओर निहार रहे थे। उन्होंने कहा, "अहा, गुम्बद कितने अच्छे दिखाई दे रहे हैं ! तुम लोग क्या सोचते हो ?” वे अपने साथ के शिष्यों की ओर मुड़े ।

हंसदूत बोला, " वे बहुत शानदार हैं । "

तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, “हाँ प्रभुपाद, मैं समझता हूँ कि सुरभि ने बहुत अच्छा काम किया है । '

प्रभुपाद मुसकराए, “हाँ, हर एक कह रहा है कि सुरभि ने बहुत अच्छा काम किया है।" प्रभुपाद सुरभि की ओर मुड़े जो कई सप्ताह से सोया नहीं था। वे कहते गए, “ किन्तु मैं यह नहीं कहता। केवल मैं। मैं तो तुम्हारी आलोचना कर रहा हूँ। मेरा यही काम है । मुझे तो हर समय शिष्यों की आलोचना करनी है।

इस भारतीय वार्षिक तीर्थयात्रा पर विश्व के कोने-कोने से वृन्दावन आने वाले इस्कान के भक्तों की संख्या छह सौ से कम नहीं थी । मुख्य कार्यक्रम अर्चा-विग्रहों की स्थापना और मंदिर का उद्घाटन था। आखिरी तैयारियाँ जोरों पर चल रही थीं— सफाई, अलंकरण, प्रसाद तैयार करना। अनेक महत्वपूर्ण आजीवन सदस्य और अतिथि पहुँच गए थे और चालीस कमरों वाले अतिथि-गृह में अपने-अपने कमरों में ठहरे थे। प्रभुपाद की कल्पना साकार हो रही थी । उन्होंने वृंदावन में संभवत: सब से सुंदर और वैभवपूर्ण मन्दिर का निर्माण किया था जो सक्रिय भक्ति और प्रचार की भावना से, निश्चय ही अत्यंत जीवन्त था। उसके साथ ही कृष्ण-भक्ति के साधक यात्रियों के लिए उन्होंने स्थानीय होटलों में सब से अच्छे होटल की सृष्टि की थी ।

मन्दिर हो : अध्याय चौवालीस एक

मैदान में घूमते हुए प्रभुपाद कुछ नीचे धंसे हुए प्राँगण में पहुँचे। उसका संगमरमर का फर्श स्वच्छ था और चमक रहा था। यह अमेरिका में कोई किराए का मकान नहीं था जो अन्य उद्देश्य के लिए बनाया गया हो । यह एक मंदिर था, वैकुण्ठ के मन्दिरों की तरह का, जिनका वर्णन श्रीमद्भागवत में है। प्रभुपाद ने कहा, “यह पृथ्वी का वैकुण्ठ है, मैं समझता हूँ कि यह मन्दिर भारत में सबसे बढ़ कर है ।"

प्रभुपाद तमाल वृक्ष के सामने खड़े हुए मुसकराते रहे। वृक्ष की आदरणीय शाखाएँ प्राँगण के एक कोने में पूरी तरह फैली थीं और प्रभुपाद ने बताया कि किस तरह उसे काट देने पर विचार हुआ था, किन्तु उन्होंने रोक दिया था । तमाल वृक्षों का सम्बन्ध श्रीमती राधाराणी की लीलाओं से है और बहुत विरल हैं। वृंदावन में शायद केवल तीन तमाल वृक्ष हैं— एक मंदिर में यहाँ, एक सेवा कुंज में और एक राधा दामोदर मंदिर के प्रांगण में। प्रभुपाद ने कहा कि तमाल वृक्ष इतना हरा-भरा और प्रफुल्लित है कि इससे ज्ञात होता है कि भक्तों की भक्ति - साधना निष्ठायुक्त है।

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इस बात से विश्वस्त होकर कि मंदिर सचमुच तैयार हो गया है, प्रभुपाद मंदिर और अतिथि गृह के मध्य स्थित अपने घर में प्रविष्ट हुए । उन्हें बहुत-सी बातों के विवरण पर ध्यान देना था और बहुत से अभ्यागत शिष्य प्रतीक्षा में थे।

इस प्रकार रमण - रेती में, जहाँ पहले कोई मंदिर नहीं था, एक सच्चे भक्त ने इच्छा की, “यहाँ एक मंदिर हो और सेवा हो ।" और जो पहले कभी रिक्त स्थान था अब तीर्थस्थान बन गया। सच्चे भक्त की इच्छा में ऐसी ही शक्ति होती है।

उपसंहार

श्रील प्रभुपाद भारत में अपनी सेवा या भक्ति के सम्बन्ध में प्राय: कहा करते थे, " वृंदावन मेरा निवास है; बम्बई मेरा कार्यालय है; और मायापुर वह स्थान है जहाँ मैं परमात्मा की उपासना करता हूँ।

बम्बई भारत का सबसे बड़ा व्यावसायिक नगर है । प्रभुपाद का व्यवसाय

कृष्ण की शुद्ध सेवा था, और बम्बई में रहते हुए वे भारत में कृष्णभावनामृत के प्रबन्धात्मक आयामों में अधिक दत्तचित्त होते थे। उन्होंने इस्कान की मुख्य शाखा को बम्बई में रखते हुए भारत में उसकी संस्थापना की थी । अतः भारत में इस्कान की अन्य सभी शाखाएँ उनकी बम्बई की मुख्य शाखा की कानूनी तौर पर उपशाखाएँ थीं । प्रभुपाद ने अन्य नगरों की अपेक्षा बम्बई में अधिक वकीलों और व्यवसायियों को इस्कान का आजीवन सदस्य बनाया और उसके अधिक मित्र पैदा किए। इसलिए वे जब भी बम्बई में होते तो वे केवल बम्बई केन्द्र के सम्बन्ध में ही कानूनी सलाह न लेते वरन् भारत में अपने अन्य मामलों के सम्बन्ध में भी विचार-विमर्श करते ।

चूँकि बम्बई एक आधुनिक नगर है जिसमें पाश्चात्य नगरों के स्तर की व्यावसायिक और कार्यालयीन सुविधाएँ उपलब्ध हैं, इसलिए प्रभुपाद, भारतीय बाजार के निमित्त अपनी पुस्तकों के अंग्रेजी संस्करण तथा उनके हिन्दी अनुवादों को प्रकाशित करने के लिए, अपने बुक ट्रस्ट की भारतीय शाखा बम्बई में स्थापित करना चाहते थे ।

वृन्दावन और मायापुर की तरह बम्बई नगर कोई धाम नहीं है, वरन् भीड़ से भरा एक धनाढ्य नगर है । इस्कान के सबसे बड़े अनुदानकर्ता वहाँ रहते थे। यद्यपि बम्बई में प्रभुपाद की प्रवृत्ति पूर्णतया दिव्य थी, और उनके कार्यकलाप भी दूसरी जगहों जैसे ही थे— अर्थात् भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत पर व्याख्यान, तथा अर्चा-विग्रहों की उपासना — फिर भी बम्बई को प्रभुपाद अपना कार्यालय कहते थे। और यद्यपि वह उनका कार्यालय था तो भी वहाँ वे एक मंदिर चाहते थे ।

प्रभुपाद ने कहा, “ मायापुर वह स्थान है जहाँ मैं परम ईश्वर की उपासना करता हूँ। प्रभुपाद की धारणा मायापुर में एक ऐसा मंदिर बनाने की थी जो उनके आन्दोलन का सब से बड़ा मंदिर होगा। वे और उनके अनुयायी परम ईश्वर की उपासना वहाँ उस शानदार ढंग से करेंगे कि सारा संसार प्रभुपाद के उपासना स्थल, मायापुर चन्द्रोदय मंदिर, की ओर आकृष्ट हो जायगा ।

श्रीमद्भागवत के मतानुसार इस युग के लिए निर्धारित उपासना, संकीर्तन है । संकीर्तन उपासना का उत्स मायापुर है, जो चैतन्य महाप्रभु का मूल धाम है। श्रीमद्भागवत का कथन है, “कलियुग में भगवान् कृष्ण भगवान् चैतन्य के स्वर्णिम रूप में प्रकट होंगे और उनका कार्यकलाप हरे कृष्ण जप करना होगा । बुद्धिमान लोग उनकी उपासना इसी रूप में करेंगे।" श्रील

मन्दिर हो : अध्याय चावालास एक

प्रभुपाद चाहते थे कि चैतन्य महाप्रभु की उपासना उनके आविर्भाव - स्थान मायापुर में अद्भुत ढंग से हो और इस प्रकार उन भूतपूर्व - आचार्यों की भविष्यवाणी को वे सार्थक करें, जो नवद्वीप के मैदानों में महान् वैदिक नगर के उत्थान की कल्पना करते थे ।

मायापुर को प्रभुपाद अपनी उपासना का स्थल इसलिए भी मानते थे कि उनके गुरु महाराज, भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने वहाँ बृहत स्तर पर प्रचार किया था और उनकी समाधि भी वहीं थी। चूँकि श्रील प्रभुपाद का समस्त प्रचार उनके गुरु महाराज की सेवा के निमित्त था, इसलिए वे मायापुर में प्रचार करके उनकी उपासना करते थे । मायापुर कृष्णभावनामृत के प्रचार का मूल - उद्गम और प्रतीक था क्योंकि वहाँ पर भगवान् चैतन्य और नित्यानंद ने वास्तव में संकीर्तन आन्दोलन आरंभ किया था जिसे अब प्रभुपाद समस्त संसार में फैला रहे थे।

श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्ण का प्रेमस्वरूप संकीर्तन आंदोलन सारे संसार में फैलाना चाहते थे, इसलिए अपने जीवन काल में उन्होंने उसे अनुप्राणित किया। उन्होंने विशेष रूप से रूप गोस्वामी को वृंदावन और नित्यानंद को बंगाल भेजा और स्वयं वे दक्षिण भारत गए। इस तरह उन्होंने संसार में अपने मत के प्रचार का कार्य कृपापूर्वक अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावना संघ के लिए छोड़ा।

वृन्दावन प्रभुपाद का निवास है। भारत के धार्मिक लोग और पश्चिम के धर्म- ज्ञानी प्रभुपाद को वृंदावन का वैष्णव साधु समझते थे। जब उन्होंने न्यू यार्क नगर में अपना प्रचार आरंभ किया तो वे अपना परिचय प्राय: " वृंदावन से आया हुआ" कह कर देते थे। एक बार उन्होंने कहा था, “मैं इस समय यहाँ संसार के सब से बड़े नगर न्यू यार्क में बैठा हूँ, किन्तु मेरा हृदय वृंदावन के लिए तड़पता रहता है। मैं उस पवित्र स्थान, वृंदावन, को वापिस जाकर बड़ा प्रसन्न होऊँगा ।"

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वृंदावन के लोग भी प्रभुपाद को अपने नगर का सफल व्यक्ति मानते थे। १९५४ ई. में पारिवारिक जीवन से अलग होने के बाद, प्रभुपाद रहने लिए वृंदावन गए थे। पहले वे केशी-घाट के निकट एक मन्दिर में रहे, बाद में राधा- दामोदर मंदिर में चले गए । १९५९ ई. में सन्यास लेने के बाद भी वे वृन्दावन में रहते रहे और जब वे वहाँ नहीं रहते थे तब भी राधा - दामोदर मंदिर में उनके दो कमरे आरक्षित रहते थे।

वृन्दावन कृष्णभावनामृत का घर है, कृष्ण की बाल लीलाओं का स्थल

है; यह वह स्थल है जहाँ स्वयं भगवान् चैतन्य ने छह गोस्वामिया को भेजा था जिन्होंने वहाँ के पवित्र स्थानों की खुदाई करवाई थी, दिव्य साहित्य लिखा था और मंदिर बनवाए थे। किसी भी भक्त को वृंदावन अपना ही घर लगता है, और हजारों वृन्दावनवासी अपनी थैलियों में जपमाला लिए होते हैं और हरे कृष्ण जपते रहते हैं तथा वैष्णव तिलक और वेशभूषा धारण करते हैं। वृंदावन राधा और कृष्ण का था और वर्तमान समय में भी वृंदावन के निवासी इसे स्वीकार करते हैं ।

अन्ततोगत्वा, वृंदावन केवल शुद्ध भक्त को ही दृष्टिगोचर होता है । वृंदावन कृष्ण के साथ शाश्वत सम्बन्ध में स्थिर सभी आध्यात्मिक पुरुषों का शाश्वत निवास है। भारत में वृंदावन गोलोक वृन्दावन का दिव्य प्रतिरूप है, गोलोक वृन्दावन, वह शाश्वत लोक है जहाँ के आध्यात्मिक संसार में कृष्ण वास करते हैं। शुद्ध भक्त इस संसार में अपना जीवन समाप्त करके गोलोक वृंदावन प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं। अतएव, कृष्ण के एक शुद्ध भक्त के रूप में, प्रभुपाद स्वभावतः वृंदावन को अपना घर समझते थे । वे कभी-कभी कहा करते थे कि यदि वे बीमार हुए तो वे अस्पताल न जाकर, वृंदावन वृंदावन की महिमा का प्रसार

जाकर अपने अंतिम दिन बिताना पसंद करेंगे।

करने के लिए प्रभुपाद ने वृंदावन का परित्याग किया था, किन्तु घर से दूर गए यात्री की भाँति, वे सदा वहीं लौटने की सोचा करते थे ।

 
 
 
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