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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 45: ‟कृपया पुस्तकों का वितरण कीजिए”  » 
 
 
 
 
 
'कृपया पुस्तकों का वितरण कीजिए"

श्री

सैन फ्रान्सिस्को जुलाई ५, १९७०

ल प्रभुपाद

सैन फ्रान्सिस्को में १९७० ई. की रथ यात्रा में सम्मिलित हो

रहे थे। उस दिन ठंडक थी और तेज हवा चल रही थी और करीब

दस हजार लोग भगवान् जगन्नाथ की शोभा यात्रा में सम्मिलित होने के लिए गोल्डन गेटपार्क से निकले थे। श्रील प्रभुपाद हजारों सहभागियों के साथ उस शोभा यात्रा के बीच सड़क में नाचते रहे थे। सागर तट के सभा मण्डप में उन्होंने बृहत् श्रोता - मण्डली को सम्बोधित किया था और अपने शिष्यों को, हजारों लोगों को निःशुल्क शाकाहारी प्रसाद वितरण करते देखा था । किन्तु उन्हें विशेष प्रसन्नता उस समय हुई, जब एक भक्त कृष्ण, परम ईश्वर, खण्ड एक, की आधा दर्जन अग्रिम प्रतियाँ लेकर वहाँ पहुँचा ।

ने

अपने भक्तों और उत्सव में सम्मिलित होने वाले उत्सुक लोगों से घिरे प्रभुपाद

पुस्तक की एक प्रति हाथ में ले ली और वे राधा - कृष्ण के पूरे रंगीन चित्र से अलंकृत उसके आवरण पृष्ठ की सराहना करने लगे । पुस्तक का आकार बड़ा था— करीब साढ़े दस इंच लम्बा और साढ़े सात इंच चौड़ा । उसके रूपहले आवरण पर सुनहरे चमकते हुए बड़े अक्षरों में अंकित था— कृष्ण । ऐसा लगता था मानो प्रभुपाद के श्रद्धालु हाथों में एक दिव्य आश्चर्य विराज रहा हो ।

प्रभुपाद को दबाते हुए, उनके कंधों के ऊपर से भी झुक कर, पुस्तक को देखने का लोभ संवरण करने में, दर्शकों को कठिनाई हो रही थी । और वे अपनी प्रशंसोक्तियाँ रोक नहीं सके, जब प्रभुपाद ने, मुसकराते हुए, पुस्तक के पन्ने पलटे । उन्होंने पुस्तक के चित्रणों, मुद्रण, कागज और जिल्दसाजी का परीक्षण किया और कहा, “बहुत अच्छा ।” उन्होंने एक पृष्ठ को पढ़ते हुए उस पर ध्यान केन्द्रित किया। तब उन्होंने सिर ऊपर उठाया और कहा कि यह बहुमूल्य

पुस्तक, कृष्ण, अभी प्राप्त हुई है और प्रत्येक व्यक्ति को इसे पढ़ना चाहिए । उन्होंने पुस्तक की एक प्रति हाथ

एक प्रति हाथ में ली, जबकि शेष प्रतियों का ढेर उनके सामने रखा था और वे बोले – जो कोई पुस्तक खरीदना चाहता है, वह आगे आए और खरीद ले।

लोग पुस्तक माँगने के लिए शोर मचाने लगे और दस-दस डालर लिए हाथ आगे बढ़ाने लगे। एक-एक प्रति के लिए लोगों में हो-हल्ला मच गया । और प्रभुपाद ने देखते-देखते सारी की सारी प्रतियाँ बेच डाली; अपने लिए एक भी प्रति नहीं रखी ।

जहाँ तक भक्तों का सम्बन्ध है, रथ यात्रा की सबसे अधिक चमत्कारिक घटना श्रील प्रभुपाद द्वारा कृष्ण पुस्तक की बिक्री थी । समूहों में बैठ कर भक्त खरीदी गई प्रतियों का परिशीलन करने लगे और कृष्ण की बाल लीलाओं पर चर्चा करते हुए अमरीका

अमरीका के लोगों पर उनके प्रभाव का अनुमान लगाने लगे ।

ब्रह्मानंद ने बताया कि किस प्रकार १९६७ ई. में प्रभुपाद ने टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य ( भगवान् चैतन्य की शिक्षाएं) पुस्तक की अग्रिम प्रति २६, सेकंड एवन्यू, न्यू यार्क के अपने कमरे में सत्यव्रत को भेंट में दे दी थी । उस पुस्तक के पहुँचने के ठीक पहले प्रभुपाद अपने कमरे में बैठे सत्यव्रत से वार्तालाप कर रहे थे। सत्यव्रत उनका शिष्य था और गुरुभाइयों से मामूली सी बात पर झगड़ा हो जाने के कारण, कुछ समय से उसने आना बंद कर दिया था। जब टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य की प्रति पहुँची तो प्रभुपाद ने उसका प्रेमपूर्वक अवलोकन किया और तब उसे सत्यव्रत को उपहार में दे दिया ।

ब्रह्मानंद इस तरह श्रील प्रभुपाद को अपनी एकमात्र प्रति सत्यव्रत को देते हुए देख कर, भौंचक्का रह गया था। ब्रह्मानंद जानता था कि प्रभुपाद ने पुस्तक को लिखने में कितना परिश्रम किया था और उसने उसके प्रकाशन में स्वयं भी सहायता की थी और उन्होंने एक वर्ष तक उसके मुद्रित होने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की थी। तब भी, उसके पहुँचने के तुरन्त बाद प्रभुपाद ने उसे एक ऐसे शिष्य को उपहार में दे दिया था जो स्थायी रूप से उनका शिष्य भी नहीं था । सत्यव्रत ने पुस्तक ले ली, प्रभुपाद को धन्यवाद दिया और फिर ऐसा गया कि दुबारा दिखाई नहीं दिया ।

यद्यपि श्रील प्रभुपाद चाहते थे कि उनके शिष्यों में भी कृष्णभावनाभावित साहित्य को वितरित करने की उतनी ही व्यग्रता हो जितनी उनमें थी, लेकिन उनमें से कोई नहीं जानता था कि यह कैसे किया जाय। एक पत्रिका का वितरण करना और उसके लिए अल्प अनुदान माँगना एक बात थी— किन्तु एक सजिल्द

"कृपया पुस्तकों का वितरण कीजिये "

बड़े ग्रंथ की बात ही दूसरी थी । जब अप्रैल १९६७ ई. में, टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य की पूरी खेप जहाज से न्यू यार्क पहुँची थी, तो भक्त एक किराए का ट्रक करके बंदरगाह से उसे लाद कर, २६, सेकंड एवन्यू ले गये थे। फिर वहाँ से उन्होंने पुस्तक की प्रतियाँ इस्कान के केन्द्रों – लॉस ऐन्जीलिस, सैन फ्रांसिस्को, बोस्टन, मान्ट्रियल तथा अन्य स्थानों— को भेजी थीं। और वे वहाँ पड़ी हुई थीं।

कुछ भक्तों ने पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन छपाने और पुस्तक भण्डारों में उन्हें भुगतान पर रखने की कोशिश की थी। किन्तु उनकी बिक्री नहीं हुई। इन सजिल्द विशाल पुस्तकों की बिक्री कैसे हो, यह एक रहस्य बना रहा — जब तक एक महत्त्वपूर्ण घटना नहीं घटी, वह भी संयोग से ।

सन् १९७१ ई. में एक दिन सैन फ्रांसिस्को

में एक दिन सैन फ्रांसिस्को के एक पुराने शहरी भाग में कीर्तन करने के बाद मंदिर को वापिस जाते हुए दो ब्रह्मचारी कार में पेट्रोल लेने के लिए एक सर्विस स्टेशन पर रुके। जब कर्मचारी खिड़की पर पैसे के लिए आया तो एक भक्त ने उसे कृष्ण पुस्तक दिखाई। उस सहायक ने उसमें रुचि प्रदर्शित की और भक्तों ने कृष्णभावनामृत की महिमा का बखान आरंभ कर दिया। जब उन्होंने कहा कि पेट्रोल की कीमत के स्थान पर वह पुस्तक ले ले तो वह सहमत हो गया।

जो कुछ हुआ, उस पर विस्मित होकर और अपनी सफलता से उत्साहित होकर दोनों ब्रह्मचारी अगले दिन पुस्तक की कई प्रतियों के साथ एक पंसारी की दूकान के सामने जाकर खड़े हो गए। और इस बार फिर वही हुआ । इस बार पुस्तक की दो प्रतियाँ बिक गईं।

सैन फ्रान्सिस्को मंदिर के अध्यक्ष केशव ने लॉस ऐन्जीलिस में जी. बी. सी. के निरीक्षक ( और अपने भाई) करन्धर को फोन करके बताया कि क्या घटित हुआ था । केशव ने कहा, "यह एक आश्चर्य जैसा है ।" करन्धर ने इस प्रयोग को आगे बढ़ाने के लिए उसे प्रोत्साहित किया और शीघ्र ही सैन फ्रान्सिस्को मंदिर के आधे दर्जन भक्त घर-घर जाकर लोगों को पुस्तकें दिखाने लगे। जब बुद्धिमन्त एक दिन में पाँच-पाँच पुस्तकें बेचने लगा तो अन्य मंदिरों, विशेष कर लास ऐन्जीलिस, सैन डियागो और डेनवर के भक्तों ने इस उदाहरण का अनुकरण करना चाहा। और जिसने भी प्रयत्न किया और एक दो पुस्तकें बेच ली वह इस सुख - बोध के आवेश में बँध गया ।

श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों को बेचने से प्राप्त अनुभव और उसके विषय में

भक्तों के साक्ष्य का आनन्द एक विशेष प्रकार का था, जो उस प्रसन्नता से बिल्कुल भिन्न था जिसका अनुभव युवाजन, विक्रय की कोई विधि अचानक हाथ लग जाने से, साधारणतया करते हैं और जिसके परिणामस्वरूप वे बहुत सा धन कमाने के कगार पर पहुँच जाते हैं। भिन्नता इस बात में है कि भक्तों द्वारा पुस्तक का वितरण कृष्ण की सेवा है और इससे प्राप्त उल्लास दिव्य होता है जो बड़े से बड़े भौतिक सुख से भी परे है।

सामान्य व्यवसाय और कृष्ण - चेतना - युक्त साहित्य बेचने का व्यवसाय एक दूसरे से इतना ही भिन्न हैं जितना भौतिक जीवन आध्यात्मिक जीवन से और भौतिक दृष्टि से आध्यात्मिक जीवन को देखने पर कोई भी उसे समझ नहीं सकता । भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने कृष्णभावनामृत के परम आनंद को समझने के ऐसे अनुभव - जन्य प्रयत्नों की तुलना, मधु का स्वाद जानने के लिए बोतल को बाहर से चाटने के प्रयत्न से की है

उन युवकों और युवतियों को जो अमेरिका में पुस्तकों का वितरण करने लगे थे, ज्ञान हो गया था कि कृष्णभावनामृत देकर प्रभुपाद ने उन्हें नारकीय जीवन से बचा लिया था और अब वे औरों को कृष्णभावनामृत देने में उनकी सहायता करना चाहते थे। और उनकी पुस्तकों का वितरण करके, वे जो प्रचार कर रहे थे, वह आनन्द का वितरण था, आध्यात्मिक आनन्द का ।

१९७१ ई. के मध्य तक मंदिरों द्वारा प्रति सप्ताह कृष्ण पुस्तक की सैंकड़ों प्रतियाँ बिकने लगी थीं । करन्धर ने, जो प्रभुपाद का पुस्तक - कोष प्रबन्धक था, उत्तर अमेरिका के मंदिरों को और श्रील प्रभुपाद को, संकीर्तन समाचार पत्र भेजना आरंभ कर दिया। प्रत्येक मास की पुस्तक- बिक्री का परिणाम देकर समाचार-पत्र प्रतिद्वन्द्विता की भावना पैदा करने लगा। करन्धर के दिसम्बर १९७१ के पत्र ने उस वर्ष की प्रवृत्ति का सारांश दिया और भक्तों को प्रोत्साहित किया कि वे बिक्री बढ़ाएँ ।

हाल में, पुस्तकों के विक्रय को आगे बढ़ाने के कार्यक्रम के परिणामस्वरूप, सैन फ्रान्सिस्को मंदिर प्रतिदिन लगभग बीस कृष्ण पुस्तकें बेचता रहा है। उसकी तकनीक क्या है ? केशव प्रभु का कहना है, "केवल अपने कार्यकलापों में हम इसे प्राथमिकता देते हैं। आपको केवल यह करना है कि आप इसे करना 'चाहें' और तब अधिक से अधिक परिश्रम करके उसे करने की कोशिश करें। हम जहाँ कहीं भी जाते हैं वहाँ अपने साथ बी. टी. जी. की और कृष्ण पुस्तकें ले जाते हैं।" वह कहता है, “ सड़कों में, दरवाजे - दरवाजे पर, लांडरियों से लेकर पुस्तक भंडारों तक, सर्वत्र” हम पुस्तकों

का वितरण करते हैं। पुस्तकों की बिक्री बढ़ाने की नई आकर्षक तरकीबें निकालने के लिए हम हर तरह से अपने दिमागों पर जोर डालते रहे हैं । किन्तु हमारा अनुभव है कि इससे अधिक सफल और कोई तरीका नहीं है कि कृष्ण की अहैतुकी कृपास्वरूप इन पुस्तकों को स्वयं हाथ में लेकर दरवाजे - दरवाजे जाया जाय । तनिक सोचिए, हम प्रतिदिन कितने घंटे विशेष रूप से श्रील प्रभुपाद के साहित्य वितरण में बिताते हैं, जो उनका सबसे प्रिय विषय है।

किन्तु उस वर्ष के संकीर्तन की सर्वोत्तम उपलब्धि की स्वीकृति करन्धर के पत्र में नहीं, वरन् स्वयं प्रभुपाद के उस पत्र में थी जो उन्होंने कृष्ण - पुस्तक वितरण के "बादशाह" केशव को लिखा ।

मुझे समाचार मिलते रहे हैं कि किसी प्रकार भी मेरे सैन फ्रान्सिस्को के शिष्यों को पुस्तक-वितरण में कोई पछाड़ नहीं सकता । कभी-कभी वे एक दिन में सत्तर कृष्ण - पुस्तकें तक बेच लेते हैं। यदि यह सच है तो निश्चय ही जब मैं संयुक्त राज्य वापिस आऊँगा तो तुम्हारे मंदिर में रुकूँगा । मेरी पुस्तकों की इतनी बड़ी संख्या में बिक्री करके तुम मुझे अनुवाद करने में बड़ा प्रोत्साहन दे रहे हो। और तुम सब उस आदेश को पूरा करने में मेरी सहायता कर रहे हो जो गुरु महाराज ने मुझे दिया था । अतः मैं तुम सब का बड़ा आभारी हूँ और यह कार्य करने के लिए कृष्ण तुम्हें लाखों-लाखों बार कृपादान करेंगे। ।

आशा करता हूँ कि तुम और सैन फ्रान्सिस्को के मेरे सभी प्रिय शिष्य खूब स्वस्थ और प्रसन्नचित्त हैं।

इस पत्र की प्रतियाँ सभी इस्कान केन्द्रों को भेजी गईं। प्रभुपाद अपने शिष्यों को सदैव आशीर्वाद देते रहे थे, किन्तु किसी को स्मरण नहीं कि उन्होंने किसी शिष्य के बारे में कभी कहा हो कि कृष्ण उसे "लाखों-लाखों बार " कृपादान करेंगे।

यद्यपि प्रभुपाद का पत्र सामान्यतः किसी एक विशेष भक्त के लिए आदेश होता था, किन्तु व्यवहार में प्रायः वह सब के लिए माना जाता था । और प्रभुपाद के पत्रों से यह बात स्पष्ट होती थी कि पुस्तक वितरण उनके शिष्यों का सर्व-प्रधान कार्य था ।

मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि तुम लोग मेरी पुस्तकों और पत्रिकाओं की बिक्री बढ़ा रहे हो। यह इस बात का लक्षण है कि तुम्हारा प्रचार कार्य भी मजबूती से चल रहा है। तुम जितना ही मजबूत अपना प्रचार कार्य बनाओगे, उतनी ही अधिक पुस्तकों की बिक्री बढ़ेगी। मैं विशेष रूप से चाहता हूँ कि मेरी पुस्तकों का वितरण व्यापक स्तर पर हो ।

प्रभुपाद की अभिलाषा दिव्य साहित्य को संसारी साहित्य का स्थानापन्न बनाने की थी। उनका तर्क था कि प्रत्येक घर में कृष्णभावनाभावित साहित्य की कम-से-कम एक पुस्तक होनी चाहिए, क्योंकि यदि कोई व्यक्ति एक पृष्ठ भी पढ़ लेता है तो उसका जीवन परिपूर्णता की ओर उन्मुख हो सकता है। उन्होंने लिखा, “यदि पाठकों में से एक प्रतिशत भी भक्त बन जायँ तो संसार बदल जायगा ।" विज्ञापन देकर पुस्तकों के लिए आर्डर मँगाने वाले विज्ञापन - दाता जहाँ पाँच प्रतिशत ग्राहकों के अनुकूल उत्तर से संतुष्ट होते थे, वहां प्रभुपाद उससे भी कम, केवल एक प्रतिशत, से संतुष्ट होने वाले थे। वे सोचते थे कि एक प्रतिशत भी पुस्तक पढ़ें तो वे शुद्ध भक्त बन सकते हैं । भगवान् कृष्ण ने भी भगवद्गीता में इसकी पुष्टि की है, " हजारों व्यक्तियों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है, और सिद्ध व्यक्तियों में से कोई एक सचमुच मुझे जानता है।” अतः संसार को कृष्णभावनाभावित बनाने के लिए दिव्य साहित्य की लाखों प्रतियों के वितरण की आवश्यकता होगी।

श्रील प्रभुपाद चाहते थे कि उनके शिष्य यह समझें कि उन्हें पुस्तकें क्यों वितरित करनी चाहिएं और वे अपने पत्रों द्वारा उन्हें आदेश देते रहते थे ।

ईश्वर कौन है, इसे केवल चार शब्दों में संक्षिप्त किया जा सकता है—कृष्ण परम नियन्ता हैं । यदि तुम्हें यह विश्वास हो जाय और तुम उत्साहपूर्वक इसका प्रचार कर सकते हो, तो सफलता निश्चित है और तुम समस्त प्राणियों की सबसे बड़ी सेवा कर रहे होगे ।

उन्होंने जयाद्वैत को लिखा,

ये पुस्तकें और पत्रिकाएँ माया की सेना के अज्ञान को परास्त करने के लिए हमारे सबसे बड़े प्रचार - अस्त्र हैं। और ऐसे साहित्य का हम जितना ही अधिक सृजन और संसार में वितरण करेंगे उतना ही अधिक हम इस संसार को आत्मघात के पथ से उबार सकेंगे।

जगदीश को उन्होंने लिखा,

मैं तुम्हारी पुस्तक-बिक्री की रिपोर्ट से उत्साहित हुआ हूँ क्योंकि इससे सिद्ध होता है कि तुम अपना उत्तरदायित्व समझते हो कि अधिक से अधिक लोग हमारे साहित्य को पढ़ें। वस्तुतः हमारे प्रचार कार्य का यही दृढ़ आधार है—अन्य किसी आंदोलन को प्रचार करने का इतना बड़ा अधिकार प्राप्त नहीं है । और यदि कोई हमारे कृष्णभावनामृत दर्शन को पढ़ता है तो वह आश्वस्त हो जाता है

प्रभुपाद लगातार इस बात पर बल देते रहे कि कृष्णभावनामृत के समस्त कार्यक्रम, जिनमें अर्चा-विग्रह पूजन, जनता में हरे कृष्ण कीतर्न तथा बाहर जाकर भाषण देना, सम्मिलित थे, चालू रखे जायँ । ये सारे कार्यक्रम महत्त्वपूर्ण थे । किन्तु, जहाँ तक संभव था, अन्य कार्यक्रमों के साथ ही पुस्तक-वितरण भी होना चाहिए। एक संन्यासी को जिसका मुख्य कार्य जनता में भाषण देना था, प्रभुपाद ने लिखा,

अधिक से अधिक पुस्तकों का वितरण करो । यदि कोई हमसे दर्शन की बात सुनता है तो इससे उसको लाभ होगा। किन्तु यदि कोई हमसे एक पुस्तक खरीदता है तो उसका जीवन बदल सकता है। अतः पुस्तक बेचना सर्वोत्तम प्रचार कार्य हैं । पुस्तकें बेचो, स्कूल-कालेज जैसे सार्वजनिक स्थानों में कीतर्न करो । प्रचार करो । और फ्रांस में भगवानदास को लिखे गए एक पत्र में भी उन्होंने इसी बात पर बल दिया, " तुम्हारे तीन मिनट के उपदेश से क्या होगा ? किन्तु यदि वे एक पुस्तक खरीद लेते हैं तो उससे उनका जीवन बदल सकता है । "

पुस्तक- बिक्री में बढ़ोत्तरी की इस अवधि में, प्रभुपाद के एक नवदीक्षित संन्यासी के मन में यह धारणा उत्पन्न हुई कि भक्तों को अध्ययन में और अधिक समय लगाना चाहिए। न्यू यार्क मंदिर की यात्रा के दौरान इस नए संन्यासी ने खुले रूप में कहा कि भक्तों को श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों के अध्ययन में प्रतिदिन पाँच से आठ घंटे लगाने चाहिए । भक्त प्रभुपाद द्वारा निर्धारित एक नई समय-सारणी का अनुगमन कर रहे थे। जिसके अनुसार वे सवेरे के कार्यक्रम के बाद, दिन-भर सड़कों में कीर्तन और पुस्तक वितरण करते थे और शाम को लौट कर भगवद्गीता की कक्षा में उपस्थित होते थे । किन्तु अब विवाद उत्पन्न हो गया और प्रभुपाद को लॉस ऐन्जीलिस जरूरी फोन किया गया। जब प्रभुपाद को अपने सचिव से यह सब मालूम हुआ तो उन्होंने तुरन्त लिखा,

मेरा उत्तर है कि यह सड़कों का कीर्तन अवश्य चलता रहे, यह हमारा सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है । भगवान् चैतन्य के आन्दोलन का अर्थ संकीर्तन आन्दोलन है। आप प्रतिदिन केवल दो घंटे सोलह फेरी जप के लिए और दो घंटे सामूहिक पठन के लिए ले सकते हैं। और शेष समय आपको बाहर संकीर्तन में लगाना है। हमें पुस्तकें पढ़ना और पुस्तकों का वितरण, दोनों करना है, किन्तु पुस्तकों का वितरण मुख्य प्रचार कार्य है । कक्षा में दो घंटे का पठन पर्याप्त है, अतिरिक्त पठन भी कोई कर सकता है,

यदि उसके पास समय हो । हर समय पढ़ते रहना आवश्यक नहीं है। भागवत कक्षा के लिए एक घंटा सवेरे और श्रीमद्भगवद्गीता या भक्तिरसामृत सिन्धु के लिए एक घंटा सायंकाल पर्याप्त है।

जनवरी १९७२

श्रील प्रभुपाद ने जगदीश को लिखा, "मेरी पुस्तकों के वितरण के नए मार्गों के बारे में तुम्हें हमेशा सोचते रहना चाहिए ।" और भक्तों ने नए मार्ग ढूँढ़ निकाले — क्रय-विक्रय के केन्द्र, जन-संकुल मार्ग, वाहन खड़े करने के स्थान । अब वे पहले से अधिक लोगों से मिल रहे थे ।

जन-संकुल मार्गों और क्रय-विक्रय केन्द्रों में प्रवेश करने से भक्तों की पहुँच अमरीकी समाज के हृदय स्थल तक हो गई। अब उनकी भेंट धर्मिष्ठों, पापिष्ठों, धनी, निर्धन, काले, श्वेत सभी तरह के लोगों से होने लगी । पुस्तकों की बिक्री अब भी कठिन बनी रही। किन्तु भक्त धैर्य का परिचय देते रहे। वे पुस्तकों के भारी गट्ठर ढोते रहे और उस साहित्य का वितरण करते रहे जो उनकी समझ में सभी समस्याओं का समाधान करने वाला था ।

भक्त, खरीददारों को भौतिक शक्ति के चलते-फिरते शिकारों के रूप में देखते, जो केवल ऐन्द्रिय और मानसिक सुख के निमित्त रह रहे थे और अतः जिनकी दारुण मृत्यु अवश्यम्भावी थी। कोई भी गंभीर भक्त गीता के आधार पर दार्शनिक दृष्टि से भौतिकतावादियों की दुर्गति का वर्णन कर सकता था, किन्तु अब तो वे प्रत्यक्ष रूप से उनकी यह दुर्गति देख रहे थे। और प्रभुपाद की कृपा से वे दिग्भ्रमित आत्माओं को उनके दिव्य ज्ञान के अभाव से उबारने के लिए घोर प्रयत्न कर रहे थे।

तब नगर - नगर घूम कर पुस्तकों के बेचने की विधि की खोज हुई । लास ऐन्जीलिस के कुछ ब्रह्मचारियों को लगा कि मंदिर में बैठे रह कर वे उस समय को नष्ट कर रहे थे जिसका सदुपयोग पुस्तकों के वितरण में हो सकता था । अतः उन्होंने एक गाड़ी में कृष्ण पुस्तकें लाद लीं और ऐसे क्षेत्रों में गये जहाँ वे एक सप्ताह रह सकते थे और सादा जीवन बिताते हुए पुस्तकों के वितरण में मनचाहा समय लगा सकते थे। इस “ चलते-फिरते संकीर्तन" से पुस्तकों की बिक्री में एक और महत्त्वपूर्ण बाढ़ आई, क्योंकि इससे एक ऐसा वातावरण उत्पन्न हुआ जिसमें भक्त अपने कार्य में पूरे तन-मन से लग सकते थे । यह

“कृपया पुस्तकों का वितरण कीजिये

नया कार्यक्रम शीघ्रता से इस्कान की दुनिया में फैल गया, और श्रील प्रभुपाद को यह पसंद आया । .

इंगलैंड में यात्रा - दल के विषय में आश्चर्यजनक समाचार से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । मैं समझता हूँ कि वहाँ के लोगों का कृष्णाभावनामृत-आन्दोलन की ओर रुझान उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। वे आप लोगों को अपने घरों में ठहरने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं, पुस्तकें खरीद रहे हैं, कोई-कोई कभी-कभी भक्त बन रहे हैं । मेरे लिए ये सब बहुत उत्साहपूर्ण लक्षण हैं। इसी तरह हर गाँव और नगर में रुकते हुए आगे बढ़ते रहो — इंगलैंड में, स्काटलैंड में, आयरलैंड में या ऐसा अन्य कोई स्थान हो, तो वहाँ भी । केवल उनके कुछ समय के लिए रुको, पुस्तकें वितरित करो और संकीर्तन जुलूस निकालो, प्रश्नों के उत्तर दो, कुछ पर्चे या सूचना - पत्र निःशुल्क बाँटो, जहाँ संभव हो प्रसाद या इस तरह की कोई छोटी चीज वितरित करो, और यदि वास्तविक रुचि दिखाई दे तो नगर के लोगों से किसी स्कूल में, किसी के घर में या किसी हाल में व्याख्यान की व्यवस्था करने की प्रार्थना करो। इस तरह मंजिल या सुविधा की चिन्ता किए बिना ही अपनी योजना की सफलता के लिए कृष्ण की कृपा पर निर्भर रहो । बस, उनके संदेश का प्रचार और उनकी पुस्तकों की बिक्री करते हुए, जहाँ कहीं लोगों में रुचि दिखाई दे, उनके बीच बढ़ते रहो। हमें वहाँ समय नष्ट नहीं करना है जहाँ रुचि न हो या जहाँ के लोग अमैत्रीपूर्ण हों । प्रचार के लिए अन्य बहुत सारे स्थान हैं ।

श्रील प्रभुपाद कहने लगे थे कि नए केन्द्रों की स्थापना अब उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं रह गई थी, क्योंकि यात्रा - दल सारे देश में घूम रहे थे। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि वानकूअर मंदिर के अध्यक्ष ने यात्रा के लिए एक बस की व्यवस्था कर ली है, तो उन्होंने लिखा,

मैं समझता हूँ कि माया के विरुद्ध युद्ध करने के लिए हमारा आन्दोलन एक छापामार सैनिक दल बनता जा रहा है। बस द्वारा इस तरह की यात्रा करना माया को खदेड़ कर संसार भर में कृष्णभावनामृत की स्थापना का सर्वोत्तम उपाय है।

प्रभुपाद को यह सुन कर प्रसन्नता हुई कि मंदिरों के अध्यक्ष और क्षेत्रीय नेता भी संकीर्तन - यात्रा - दलों के साथ प्रचार को जाने लगे थे। उन्होंने कहा कि सेनापति विषयक वैदिक धारणा यह है कि वह सब के आगे की पंक्ति में लड़े, सुरक्षित होकर पीछे न बैठा रहे। वे देख चुके थे कि किस तरह उनके कुछ प्रमुख शिष्य प्रबंध के कार्यकलापों में फँस कर रह गए थे । इसलिए उन्होंने उन सब को परामर्श दिया कि वे यात्रा करें, प्रचार करें और जहाँ कहीं भी जायँ, पुस्तकों का वितरण करें ।

वास्तव में यह इस्कान संस्था इसीलिए विद्यमान है कि मैं निरन्तर यात्रा करता रहा हूँ। इस वृद्धावस्था में भी मैं एक स्थान पर बैठा नहीं रहता हूँ । अतः आप लोग मेरे उदाहरण का अनुगमन करें और समस्त संसार में व्यापक प्रचार करें, यही चैतन्य महाप्रभु का प्रतिरूप है।

जब कैलीफोर्निया के एक भक्त ने अपने विवाहित जीवन का परित्याग करके संकीर्तन यात्रा पर निकलने के लिए श्रील प्रभुपाद की अनुमति के लिए लिखा तो उन्होंने उत्तर दिया कि पारिवारिक जीवन का परित्याग जरूरी नहीं था । भगवान् चैतन्य ने शिक्षा दी थी कि जब तक कोई पूरी तरह कृष्ण की सेवा करता है तब तक इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि वह संन्यासी है अथवा गृहस्थ । एक परिवार वाला व्यक्ति भी कभी-कभी यात्रा कर सकता था और पुस्तकें वितरित कर सकता था, चाहे वह अकेला हो, अथवा अपनी पत्नी के साथ ।

१९७२ के अंत के निकट, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट के समाचार पत्रक में, जो अब करन्धर के सहायक रामेश्वर द्वारा संकलित किया जाता था, पुस्तक - वितरण में लगातार वृद्धि के परिणाम छपे ।

पच्चीस से अधिक संकीर्तन - यात्रा - दलों के देश भर में भ्रमण से, जो लाखों बद्ध आत्माओं को प्रभावित कर रहा है, पुस्तकों के वितरण में आशातीत सफलता हो रही है। मध्य सितम्बर से अब तक हमने लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण (तीन भागों में) की पन्द्रह हजार से अधिक प्रतियाँ बेची हैं। और अगस्त के मध्य से अब तक हमने भगवद्गीता की बिना जिल्द नौ हजार और सजिल्द नौ सौ पचास प्रतियाँ बेची हैं । मैकमिलन ने भी गीता की बीस हजार प्रतियों में से जो उसने हमसे व्यावसायिक स्तर पर ली थी, सब की सब बेच डाली हैं और क्रिस्मस की भारी माँग को देखते हुए वह उसका पुनर्मुद्रण कर रहा है।

पुस्तक - वितरण में दूसरी उछाल १९७२ के अंत में आई। पिछले वर्ष भक्तों ने क्रिस्मस दिवस का लाभ उठाकर द्वार-द्वार जाकर कृष्ण- पुस्तक बेची थी, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया था कि क्रिस्मस का पर्व वास्तव में कितना महत्त्वपूर्ण हो सकता है ।

रामेश्वर : यह २२ दिसम्बर १९७२ की बात है कि संयोग से हमें लास ऐन्जीलिस में क्रिस्मस की भीड़ का पता चला। वस्तुतः हमने देखा कि भंडारों में लोग अधिकाधिक संख्या में जा रहे हैं और ये भण्डार कभी-कभी आधी रात तक खुले रहते हैं। मैं बरबैंक जोडी भण्डार के सामने खड़ा था। लास ऐन्जीलिस में पुरस्कारों के लिए हमारे बीच विकट स्पर्धा चल रही थी और वह चरम

कृपया पुस्तकों का वितरण कीजिये"

उत्कर्ष को पहुँच रही थी ।

अतः दिन-भर पागल की तरह वितरण करने पर मैने लगभग ३५० डालर एकत्र किए और ६५० पत्रिकाएँ बेचीं। रात्रि के दस बज रहे थे। मुझे दृढ़ विश्वास था कि यह इस्कान का नया विश्व रेकार्ड था और उस दिन कोई मुझे पछाड़ने वाला न था। यद्यपि भंडार बारह बजे तक खुला था, किन्तु बिक्री मंद पड़ रही थी और मैने सोचा कि, “मुझे घर लौटना चाहिए । निस्सन्देह, अन्य सभी लोग जा चुके हैं। आठ बजे के बाद कोई कभी नहीं रुका। वे सभी मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। मुझे उनसे प्रतीक्षा नहीं करानी चाहिए ।" इस तरह मेरा मन मुझे वापिस जाने के लिए तत्पर कर रहा था।

ग्यारह बजे तक भण्डार सूना हो गया था । मैं कार में बैठा और वापिस घर जाने लगा। मार्ग में मुझे सनसेट और वेस्टर्न पर दूसरा जोड़ी मिला जिसका नाम “ हालीवुड जोड़ी” था। मैं द्विविधा में पड़ गया कि रुकूँ या नहीं, क्योंकि उस भण्डार में बड़ी भीड़ थी और वह बारह बजे रात तक खुला रहने वाला था । किन्तु मैंने निश्चय किया, “नहीं, मुझे वापिस जाना है, क्योंकि अन्य भक्त मेरी प्रतीक्षा में होंगे कि मैंने कितनी पुस्तकें बेची हैं।" इसलिए मैं आगे बढ़ता

गया।

आखिर मैं मंदिर बारह बजने में दस मिनट शेष रहने पर पहुँचा और सीधे संकीर्तन कक्ष में चला गया। किन्तु वहाँ केवल एक व्यक्ति था, मधुकण्ठ, जो सचिव था । मैने कहा, "अरे, क्या सब लोग सो गए ? उसने कहा, "नहीं— अभी तक कोई नहीं आया ।" तो क्या आने वालों में सबसे पहला मैं था ! यह थी क्रिस्मस के पहले दिन की भीड़ की शोध । यह नितान्त अनियोजित थी । किसी ने किसी को इतनी देर तक रुकने का आदेश नहीं दिया था । हमने ऐसा स्वेच्छा से किया था ।

अंत में रात के करीब डेढ़ बजे सभी भक्त वापिस आ गए थे और हम घेरे में बैठे संकीर्तन मान - चित्र का अवलोकन कर रहे थे। उस रात हम सो नहीं सके, क्योंकि हम सभी बाहर जाने को आकुल थे। हम सोच रहे थे, "हमें इतने सारे बद्धजीव कहाँ मिलेंगे जिन्हें हम पुस्तकें बाँटेंगे ?" हमारा शोर-गुल और अट्टहास मदोन्मत्त समूह जैसा था। उससे अपने कार्यालय में, दूसरे कमरे में, सोया करन्धर जाग उठा । वह लड़खड़ाता, आँखें मलता हमारे कमरे में आया, किन्तु जब उसने हम लोगों को, और वहाँ जो कुछ हो रहा था, उसे देखा तो वह ठट्ठा मार कर हँसने लगा और हम सब को सोने के लिए भेजते

हुए बोला, “कल के लिए तैयार हो जाओ ।" इस तरह हमने २२, २३, २४ दिसम्बर की तीन दिन की स्पर्धा - दौड़ दौड़ी।

इसके पूर्व किसी ने भी हमारे आंदोलन के इतिहास में इतनी पुस्तकें वितरित नहीं की थी। जिस दिन २५ से ४० तक पुस्तकें बिक जाती थीं, वह बहुत ही शुभ दिन माना जाता था । किन्तु हम लोग इन तीन दिनों में प्रतिदिन पाँच से छह हजार पुस्तकें बेच रहे थे। एक मंदिर ने इन तीन दिनों में लगभग अठारह हजार पुस्तकें वितरित की थीं।

उस समय श्रील प्रभुपाद बम्बई में थे जहाँ जुहू में जमीन प्राप्त करने का उनका प्रयत्न उलझनों में फँस गया था। जमीन का मालिक अब जायदाद बेचने से मुकर रहा था और भक्तों को उसमें से निकालने की भी कोशिश में था, यद्यपि श्रील प्रभुपाद उस जमीन पर राधाकृष्ण श्रीविग्रहों की स्थापना कर चुके थे। इन बातों से प्रभुपाद चिन्तित थे, किन्तु अपना प्रतिदिन का कार्यकलाप उन्होंने जारी रखा था : वे प्रातः भ्रमण के लिए जाते थे, द नेक्टर आफ डिवोशन ( भक्तिरसामृत सिंधु) से संध्या समय व्याख्यान देते थे, संसार के अपने विभिन्न केन्द्रों से पत्र - व्यवहार करते थे और यहाँ तक कि जनवरी में बम्बई में एक पण्डाल कार्यक्रम करने की योजना बना रहे थे ।

जब प्रभुपाद को संयुक्त राज्य में लास ऐन्जीलिस और अन्य स्थानों से पुस्तक-वितरण के सम्बन्ध में समाचार मिला तो वे बहुत प्रसन्न और विस्मित हुए। वे संसार - भर के कई मामलों में उलझे थे, किन्तु उन सब को अलग रख कर, पुस्तक-वितरण की सफलता की खुशी में डूब गए। उन्होंने तुरन्त अपने निजी सचिव को बुलाया और पत्र लिखवाए ।

प्रिय रामेश्वर,

तुम्हारा २७ दिसम्बर १९७२ का पत्र मिला और २२-२४ दिसम्बर, १९७२ के इन तीन दिनों में बिकी पुस्तकों की संख्या जान कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। इस पर कठिनाई से विश्वास होता है कि एक मंदिर ने तीन दिनों में सत्रह हजार से अधिक पुस्तकें बेच डाली हैं। इससे ऐसा लगता है कि आपके देश के लोग कृष्णभावनामृत आंदोलन के प्रति कुछ-कुछ गंभीर बन रहे हैं, अन्यथा वे हमारी पुस्तकें क्यों खरीदते ? किन्तु वे यह देख सकते हैं कि हमारे बालक और बालिकाएँ, जो भक्त हैं, कृष्णभावनामृत संदेश को वितरित करने में कितने कर्त्तव्यनिष्ठ तथा गंभीर हैं; वे इन्हें देख कर तुरन्त प्रभावित होते हैं और इसलिए उन्हें सराहते हैं और हमारी पुस्तकें खरीदते हैं। संसार में यह अनुपम है। अतः मैं लास ऐन्जीलिस और संसार भर के अपने समस्त बालकों और बालिकाओं से अत्यन्त प्रसन्न हूँ जो हमारे दिव्य साहित्य के इस अद्वितीय गुण

"कृपया पुस्तकों का वितरण कीजिये "

को समझते और उसकी प्रशंसा करते हैं और समस्त कठिनाइयों के बावजूद स्वेच्छा से पुस्तक वितरण के लिए बाहर जाते रहते हैं। केवल इसी एक प्रयत्न के बल पर उनका अपने घर, परम धाम, जाना सुनिश्चित है।

उसी दिन प्रभुपाद ने करन्धर को एक पत्र लिखाया ।

मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि हमारा इतना सारा साहित्य बाँट पाना संभव हो सकेगा । अतः मैं समझता हूँ कि यह केवल कृष्ण की कृपा है जो उनके नाम पर तुम लोगों द्वारा किए गए कार्य के कारण प्राप्त हुई है। वस्तुतः यही मेरी सफलता का रहस्य है; इसलिए नहीं कि स्वयं मैने कोई आश्चर्यजनक कार्य किया है, वरन् इसलिए कि जो मेरी सहायता कर रहे हैं वे सत्यनिष्ठ हैं । उन्होंने अपना कार्य किया है । यही सारे संसार में, जहाँ अन्य लोग असफल रहे हैं, हमारी सफलता का कारण है। धूर्तता और झांसा - पट्टी के इस युग में थोड़ी भी कर्त्तव्यनिष्ठा बहुत कठिन चीज हो रही है, किन्तु मेरा सौभाग्य है कि कृष्ण ने तुम जैसे अच्छे बालकों और बालिकाओं को मेरे लिए भेज दिया है जो निष्ठापूर्वक कार्य कर रहे हैं। कृपया उन सब को मेरी आन्तरिक प्रशंसा पहुँचाना ।

क्रिस्मस में पुस्तक - वितरण में हुई सफलता को स्वीकार करते हुए प्रभुपाद ने जो पत्र लिखे और जिस तरह उन्होंने भक्तों को आश्वस्त किया कि वे परम-धाम जायँगे, उससे नए वर्ष में पुस्तक वितरण - आन्दोलन को नई गति प्राप्त हो गई। पुस्तकों के वितरण के लिए, नए स्थान और नई विधियों की खोज में भक्तजन लगे रहे। नित नए मानदण्ड स्थापित हो रहे थे और भक्तगण भविष्य के लिए और भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ बना रहे थे ।

फरवरी १९७३ ई. के समाचार-पत्रक में रामेश्वर ने एक कालेज के छात्र का पत्र प्रकाशित किया जिसने श्रील प्रभुपाद की एक पुस्तक पढ़ी थी । इस्कान की डाक में प्रत्येक मास इस तरह के सैंकड़ों पत्र प्राप्त हो रहे थे ।

महोदय,

कुछ सप्ताह पहले (मेरी समझ में डेनवर से) कुछ कृष्ण-भक्त यहाँ अर्कांसास विश्वविद्यालय में साहित्य - वितरण करने आए थे। एक युवक मेरे पास आया और प्रभुपाद कृत गीता के अनुवाद की एक प्रति खरीदने के लिए "मोटे स्वर" में बोला। पहले मैं शंकालु था ( क्योंकि बहुत सारे लोग अपने- अपने 'उत्तर' बेच कर धनी बन रहे हैं) और मैने उससे कहा कि मुझे परेशान न करे। लेकिन वह हठ करता रहा और अंत में मैं राजी हो गया ।

मैं गीता पढ़ता रहा हूँ और अभी तक उसे समाप्त नहीं कर सका हूँ। मैंने इसे

बहुत लाभप्रद पाया है। तर्क और अनुभव में विश्वास रखने वाले मेरे मन को इसमें किसी दिव्य पदार्थ का स्वाद मिल रहा है। मैं इसके बारे में दूसरों से भी विचार-विनिमय करता हूँ । मुझे पुस्तक के कुछ अनुच्छेद याद आ रहे हैं...

संक्षेप में, इसने सही अर्थों में मेरी रुचि को इस प्रकार जागरित कर दिया है जिस प्रकार ईसाइयत, जैन बौद्धधर्म और 'निम्न' योग साधना के रूपों के मेरे विस्तृत अध्ययन से, कभी नहीं हो पायी थी ।

संक्षेप में, मैं समझता हूँ कि अंत में मुझे आरंभ मिल गया है।

रामेश्वर संकीर्तन का नगाड़ा बजाता रहा ।

वास्तव में हमारे पुस्तक वितरण का प्रभाव कोई सही-सही नहीं आंक सकता । यदि यह ज्ञात हो जाय कि हम प्रतिमास कितनी पुस्तकें बेच लेते हैं तो हमारा नाम देश के सर्व- प्रमुख पुस्तक - विक्रेताओं की सूची में लिखा जायगा । उदाहरण के लिए, जैसा आप में से बहुत से लोग जानते हैं, हमारी गीता की बिक्री, पूर्व प्रकाशित गीता के किसी भी संस्करण से आगे हो गई है। मैकमिलन कम्पनी ने लाखों प्रतियाँ बेची है, जबकि हमने स्वयं, पिछले अगस्त में उसके पहली बार प्रकाशित होने के बाद, अब तक सत्ताईस हजार प्रतियाँ बेच डाली है।

पुस्तक - कोष में अधिक धन आने लगा था, इसलिए प्रभुपाद ने ट्रस्टियों (न्यासियों) की इस योजना को स्वीकृति दे दी थी कि पुस्तक की अधिक प्रतियाँ छापी जायँ और उन्हें गोदाम में रखा जाय, जहाँ से वितरण के लिए पूरा साल उन्हें मंदिरों के लिए उपलब्ध किया जाय। किन्तु गोदाम की व्यवस्था हो जाने पर भी पुस्तकों के लिए मंदिरों की माँगे पूरी करना कठिन हो रहा था ।

छोटे आकार की, आसानी से बिकने वाली पुस्तकें, जैसे बियांड बर्थ एंड डेथ (जन्म और मृत्यु से परे ), आन द वे टू कृष्ण (कृष्ण तक पहुँचने का मार्ग), राज - विद्या तथा द परफेक्शन आफ योग (योग की पराकाष्ठा ) -लाखों में छपी थीं। वितरक अपने थैलों में तरह-तरह की पुस्तकें भर कर निकलते थे : श्री ईशोपनिषद्, भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत और कृष्ण, दि सुप्रीम पर्सनेलिटी आफ गॉडहेड । इनके साथ वे छोटी पुस्तकें भी ले जाते थे । बैक टू गाडहेड पत्रिका की प्रतियाँ, तथा कृष्ण, दि रिजर्वायर आफ प्लेजर और आन चैंटिंग

हरे कृष्ण जैसी कम कीमत की पुस्तकें भी उनके साथ होती थीं।

टाम बाउड्री अपनी पत्नी के साथ सान्ताक्रूज, कैलीफोर्निया, में रहता था । बर्कली में भगवान् चैतन्य के आविर्भाव दिवस के उपलक्ष्य में हुए उत्सव में

सम्मिलित होने, जहाँ वह दिन-भर कीर्तन करता रहा, और श्रील प्रभुपाद की भगवद्गीता पढ़ने के बाद, उसे लगा कि उसे श्रील प्रभुपाद का शिष्य बन जाना चाहिए। वह जप करने लगा और अपनी पत्नी तथा मित्रों को कृष्णभावनामृत में अनुरक्त

करने का प्रयत्न करने लगा। जब ब्रह्मचारियों का एक यात्रा - दल सान्ताक्रूज में एक केन्द्र स्थापित करने के लिए गया तो टाम ने कहा कि वह उनके साथ सम्मिलित होना चाहता है। लेकिन वे लोग शंकालु थे। तब एक दिन वह सिर मुंड़ा कर और धोती पहन कर प्रकट हुआ ।

टाम बाउड्री: मैं प्रतिदिन कीर्तन- दल के साथ जाने लगा । तब धीरे-धीरे मैं बिक्री केन्द्रों में छोटी पुस्तकें बेचने के लिए कीर्तन - दल से अलग होने लगा । एक दिन मैं वापिस आ गया और ब्रह्मचारियों में से एक ब्रह्मचारी सर्वभौम ने मेरी आलोचना की। उसने पूछा कि मैंने बड़ी पुस्तकें कितनी बेची हैं। मैंने कहा, " मैने एक भी नही बेची है।" वह बोला, “तुम कितनी पुस्तकें ले गए थे?” मैने कहा, “मेरे पास एक भी पुस्तक नहीं थी ।" उसने कहा, “तब तुम माया में हो। तुम एक भी बड़ी पुस्तक नहीं ले गए थे? तो तुम उन्हें बेचने की आशा कैसे कर सकते हो ? प्रभुपाद चाहते हैं कि ये बड़ी पुस्तकें बेची जायँ ।” तो मैंने अपने में सोचा, "हाय, मैं जरूर माया में हूँ ।" मैने कहा, “तुम इन पुस्तकों को कैसे बेचते हो ?” उसने कहा, “तुम प्रभुपाद से प्रार्थना करो, वे ही कृपा करते हैं।” तो मैंने सोचा, “हाँ, इसमें सच्चाई है। कृष्णभावनामृत में हर चीज ऐसे ही काम करती है।

' 99

हूँ।”

मैं अपने घर गया। मैने इस बारे में सोचा और प्रभुपाद से प्रार्थना की कि मैं इन बड़ी पुस्तकों को बेच सकूँ। मैं पूरी संध्या प्रार्थना करता रहा और तब मैने आराम किया। सवेरे मैं उठा और यही बात मेरे मन में समाई रही। तब मैने छोटी पुस्तकों वाले अपने थैले में एक बड़ी पुस्तक ' टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य' (भगवान् चैतन्य के उपदेश ) रख ली। लेकिन छोटी पुस्तकें बेचने की धुन में मैं बड़ी पुस्तक के बारे में भूल गया ।

एकाएक एक महिला मेरे पास आई और बोली, " वह बड़ी पुस्तक क्या है, जिसे आपने यहाँ रखा है ?” तब मुझे प्रभुपाद से प्रार्थना की याद आई और मैने कहा, "यह टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य” है। मैने उसे पुस्तक दी और उसने मुझे तीन डालर दिए। जब मैं मंदिर वापिस गया तो मैने भक्तों को बताया कि किस प्रकार प्रभुपाद ने एक पुस्तक

बेची।

प्रघोष : मैं डेट्रायट मंदिर में सायंकालीन कक्षा में नियमित रूप से जाया

करता था और मंदिर के निर्माण में भक्तों की छोटी-मोटी सेवा किया करता था । प्रतिदिन रात में मैं चित्र बनाता था और भक्तों को संकीर्तन से लौटते देखता था । वे बहुत भाव-विभोर और प्रफुल्लित लगते थे और मुझे सदैव यह जानने की व्यग्रता रहती कि वे वहाँ बाहर क्या करते हैं कि इस तरह वापिस आते हैं। मैं अपनी सीढ़ी पर चढ़ कर चित्र बनाता रहता और उन्हें गर्म दूध पीते हुए बातें करते सुनता रहता। वे बात करते कि किस तरह उन्होंने एक व्यक्ति का दरवाजा खटखटाया और तब यह हुआ और उसके बाद वह हुआ । उनकी बातें मेरे लिए बड़ी आकर्षक होतीं ।

जब मैं मंदिर में आया और वहाँ, मेरे भक्त के रूप में रहते, एक सप्ताह बीत गया तो किसी भक्त ने पूछा कि क्या मैं बाहर जाकर पुस्तकें वितरित कर सकता हूँ । अतः मैं धोती पहन कर और तिलक लगा कर निकला। मैं सीधे लोगों के पास जाता, उन्हें एक कार्ड और एक पुस्तक देता, पुस्तक की विषयवस्तु के बारे में उन्हें बताता, प्रभुपाद का एक चित्र उन्हें दिखाता, और अनुदान माँगता। इससे मुझे जो आनन्द प्राप्त हुआ वह अविश्वसनीय था । बाहर जाना और पुस्तकें वितरित करना, अतीव आनंददायक साबित हुआ। हम में से कोई नहीं बता सकता था कि यह इतना आनंददायक क्यों था ।

हम लोग रात में जगते रहते थे। सभी ब्रह्मचारी एक बड़े कमरे में रहते थे। हम अपने स्लीपिंग बैग में फर्श पर पड़े रहते और एक दूसरे से कानाफूसी करते रहते, “तुमने वहाँ लोगों से क्या कहा ?" रात में तरह-तरह की बातें होती रहतीं, बत्तियाँ बुझी रहतीं और हर एक बात करते हुए यह बताने की कोशिश करता कि प्रभुपाद की पुस्तकों को वह लोगों के सामने कैसे प्रस्तुत कर रहा है।

जगद्-धात्रीदेवी दासी : मेरी पहली सेवा मंदिर की सफाई करना था । मैं पूरा मंदिर साफ करती थी। मैं खिड़की से बाहर उन लोगों को देखा करती जो संकीर्तन के लिए तैयार होकर गाड़ियों में इकठ्ठे होते थे और मैं बराबर सोचती कि सचमुच यह कार्य मुझे भी बहुत पंसद आएगा । अंत में हमारे मंदिर में दो दल बनाए गए, एक पुरुषों का, दूसरा महिलाओं का और ग्रीष्म ऋतु में हम वाशिंटन स्टेट के मेले में पुस्तकें बाँटने गए। पुरुषों और महिलाओं में प्रतिद्वन्द्विता रहती कि अधिक पुस्तकें कौन बाँटता है।

सूर : मैं कृष्णभावनामृत आंदोलन में सिएटल में १९७३ में सम्मिलित हुआ और मुझे पहले ही दिन पुस्तक वितरण के लिए भेज दिया गया। लास ऐन्जीलिस

से हमें हमेशा उन पत्रों के बारे में खबर मिलती रहती जो प्रभुपाद वहाँ भेजते थे। हम जो भी सुनते उसके केंद्र में प्रभुपाद की यही इच्छा रहती कि उनकी पुस्तकें खूब वितरित की जायँ । यह सुन कर संकीर्तन दल में बाहर जाने के इच्छुक नए-नए भक्त आगे आने लगे। हम प्रभुपाद की पुस्तकों को वितरित करने वाली सेना के सैनिक बनना चाहते थे ।

हम स्पो - केन मेले में गए और स्पो - केन मंदिर के अध्यक्ष ने प्रभुपाद को एक पत्र लिख कर उनसे आने की प्रार्थना की और हमारे पुस्तक - वितरण के परिणाम के बारे में उन्हें बताया। तब प्रभुपाद से हमें उत्तर मिला कि वे आ नहीं सकते, किन्तु भक्तों को मेले में जाकर उनकी ओर से प्रचार करना चाहिए । उन्होंने कहा, "मेरे इस महान लक्ष्य को पूरा करो कि संयुक्त राज्य के प्रत्येक पुरुष और स्त्री के पास हमारी एक पुस्तक हो ।”

हम इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे कि श्रील प्रभुपाद हमें आदेश दें कि वे किस बात से प्रसन्न रहते हैं। हमारा पुस्तक वितरण बराबर बढ़ता गया और हमने सोचा कि इतना आनन्द पहले कभी नहीं आया था। यह कठोर जीवन जैसा नहीं था। कुछ भक्त सोच रहे थे, “संकीर्तन के लिए बाहर जाना बहुत कठिन काम है।" हम सोच रहे थे, “तुम लोग बिल्कुल जड़ हो ! संकीर्तन के लिए जाना और पुस्तकें बेचना बड़ा ही आनन्ददायक कार्य है।” यह इन्द्रिय-तृप्ति के लिए आनन्ददायक नहीं था, वरन् आत्मा के लिए था, क्योंकि यह हमारे गुरु महाराज और कृष्ण से जुड़ा हुआ था । मैं इसको इसलिए पसंद करता था । और जब पहली बार प्रघोष से मिला तो मुझे मालूम हो गया कि वह सचमुच समर्पित था और प्रभुपाद का सच्चा प्रेमी था, क्योंकि पुस्तकों के वितरण द्वारा वह प्रभुपाद को प्रसन्न करने के प्रति समर्पित था ।

प्रघोष : हम सान्ता बार्बरा, कैलीफोर्निया में पुस्तक वितरण कर रहे थे। उस क्षेत्र में पहले भी कई बार कार्य हो चुका था और वहाँ के लोग सचमुच घमंडी थे। मैं कुछ ब्रह्मचारियों के साथ वहाँ गया और एक पूरे दिन में सात घंटों के प्रयत्न के बाद केवल एक पुस्तक बेच पाया। भक्त के रूप में मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैं बराबर लगा रहा और रुका नहीं । किन्तु एक समय ऐसा आया कि मैं और आगे सहन नहीं कर सकता था।

मैने

एक पुस्तक एक व्यक्ति को देने की कोशिश की और उसने बड़े घिनौने ढंग से मुझे उत्तर दिया। मैं कितनी सद्भावना से यह कर रहा था, लेकिन जब उसने ऐसा किया तो मुझ पर जैसे वज्रपात हो गया । मन में आया कि

उस भले मानस की नाक पर एक घूँसा जड़ दूँ। मुझ में भावना की बाढ़ आ गई और आँसू बहने लगे, सड़क के किनारे पड़े एक पुराने टेलीफोन के खम्भे पर मैं बैठ गया और फूट कर रोने लगा ।

तब यह भक्त मेरे पास आया और मुझे इस तरह बैठे पाया मानो मैने संसार में अपना सबसे प्रिय मित्र खो दिया हो। उसने कहा, “प्रभु, मामला क्या है ?" मैंने कहा, “मैं नहीं जानता कि मामला क्या है। बस मैं पुस्तक - वितरण नहीं कर सकता। कोई भी पुस्तक लेने को तैयार नहीं। मैं यहाँ सात घंटे से बैठा हूँ। क्या तुम जानते हो कि मैने कितनी पुस्तकें बेची हैं? केवल एक पुस्तक ।' तब वह बैठ गया, मुझे उपदेश दिया और फिर स्वस्थ - चित्त बनाया ।

अगले दिन मैने पहले से अच्छा करने की कोशिश की। मैं पुस्तकों का थैला लेकर गया और पूरी दोपहर तक एक के बाद दूसरे व्यक्ति के पीछे भागता रहा। तब मैने एक लड़की को एक पुस्तक दिखाई और उसने कहा कि वह पैसे में भुगतान नहीं कर सकती, किन्तु वह प्रसन्नतापूर्वक उसका बदला देगी। मैं युवा था और भोला-भाला था और एक मिनट तक मेरी समझ में नहीं आया कि वह किस बदले की बात कर रही है। अंत में जब मुझे समझ आई तो मैं बोल पड़ा, “हरे कृष्ण", और मैने उससे पुस्तक वापिस ले ली, सिर से विग उतार ली और दौड़ता हुआ दूसरे पार्किंग अड्डे पर जा पहुँचा । दिन-भर मैं एक के बाद दूसरे आदमी के पास भागता रहा और सच्चे मन से कृष्ण से प्रार्थना करता रहा। दिन समाप्त होते-होते बहुत सारी पुस्तकें बिक

गईं ।

लवंग लतिका - देवी दासी : जब मैं पहले-पहल लास ऐन्जीलिस आई तो श्रीमती ने मुझे बताया कि श्रील प्रभुपाद ने कहा था कि पूरा समय मंदिर में बिताना माया है। प्रभुपाद चाहते थे कि हम घर-घर जाकर बी. टी. जी. पुस्तकें वितरित करें। मैने अन्य भक्तों से सीखा कि पुस्तकें कैसे बाँटी जाती हैं। बहुत से ऐसे अनुभवी भक्त थे जो यह जानते थे, इसलिए मैने उन्हीं का अनुसरण किया । वे जो करते और कहते थे, वही मैं भी करती और कहती थी। इस तरह यह बहुत आसान हो गया। जब कोई व्यक्ति पुस्तक लेता था और अनुदान देता था तो मैं उसे भगवान् चैतन्य का ही कार्य समझती थी । मैं समझ रही थी कि हर काम कृष्ण की आंतरिक शक्ति के अधीन हो रहा था ।

टाम बाउड्री सान्ताक्रूज से लास ऐन्जीलिस आ गया था और रामेश्वर तथा

अन्य पुस्तक - वितरकों के साथ अपने को सम्बद्ध कर लेने से वह बहुत जल्दी एक नेता बन गया। उसने जून १९७२ में दीक्षा ग्रहण की और त्रिपुरारी दास नाम प्राप्त किया। वह प्रतिदिन मंदिर के निकट किसी सूपर बाजार में वाहनों के अड्डे पर जाता और इजी जर्नी टू अदर प्लैनेट्स की दो सौ प्रतियाँ बेच आता । एक दिन लास ऐन्जीलिस में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में लांग बीच पर वह और कुछ अन्य पुस्तक - वितरक, योग के एक प्रसिद्ध नेता द्वारा दिया जा रहा एक व्याख्यान सुनने पहुँच गए।

रामेश्वर : मुझे याद है, जब वे वापिस आए तब मंदिर - कक्ष में मैं गीता पर कक्षा ले रहा था। अचानक दरवाजा खुला और वे वहाँ खड़े थे । त्रिपुरारी बाहर के लिबास में था और लड़कियाँ साड़ियाँ पहने थीं । वे भाग कर मंदिर में घुसे। कोई भी देख सकता था कि कोई विशेष बात हुई है, क्योंकि उनके चेहरे चमक रहे थे। वे बोल भी नहीं सकते थे। वे स्तब्ध थे। पूरा मंदिर समाचार जानने को उत्सुक था, इसलिए मैने शीघ्र कक्षा समाप्त कर दी। तब त्रिपुरारी ने हमें बताया कि उसने भगवद्गीता के सम्पूर्ण, सजिल्द संस्करण की सत्रह प्रतियाँ वितरित की थी— केवल दो घंटे में । लीलाशक्ति ने तेरह, वृन्दावन ने ग्यारह, तिलक ने ग्यारह और माखनलाल ने नौ प्रतियों का वितरण किया था । ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था । हम सभी आश्चर्यचकित थे कि बड़ी पुस्तक की कोई इतनी प्रतियाँ भी बेच सकता है ।

कुछ दिन बाद त्रिपुरारी सवेरे-सवेरे सैन डियागो फ्रीवे में एक चलते हुए संकीर्तन दल के साथ जाने के लिए, गाड़ी में जा रहा था । उसे लास ऐन्जीलिस हवाई अड्डे का मार्ग चिह्न दिखाई दिया और सहज ही उसने वहाँ कोशिश करने का निर्णय किया। उस दिन वहाँ एक दर्जन बड़ी पुस्तकें बेच लेने के बाद उसे लगा कि पुस्तक - वितरण के लिए हवाई अड्डा बहुत उपयुक्त स्थान है। वह नियमित रूप से हवाई अड्डा जाने लगा और प्रतिदिन तीस-चालीस पुस्तकें बेचने लगा। कभी कभी तो एक ही व्यक्ति भगवद्गीता की छह प्रतियाँ खरीद लेता

था।

अप्रैल ११, १९७३,

श्रील प्रभुपाद वायुयान द्वारा न्यू यार्क से लास ऐन्जीलिस पहुँचे और प्रेमी भक्तों के एक दल ने उनका स्वागत किया ।

त्रिपुरारी: प्रभुपाद तीसरे पहर दो बजे पहुँच रहे थे और सभी भक्त उनका स्वागत करने जा रहे थे। वह ईस्टर का सप्ताहान्त भी था — हवाई अड्डे पर पुस्तक-वितरण के लिए एक महान दिन । उस समय हवाई अड्डे पर एकमात्र मैं पुस्तकें बेचता था । बिक्री अच्छी चल रही थी और डेढ़ बजे तक मैं करीब तीस पुस्तकें बेच चुका था। तब मैंने धोती पहन ली और कृष्णकृपाश्रीमूर्ति प्रभुपाद के स्वागत के लिए आगमन - क्षेत्र में गया। जब वे सीमावर्ती, भवन में पहुँचे तो उन्होंने मेरी ओर देखा और मुसकराए और भाव-विभोर होकर मैं द्रवित हो

गया।

सीढ़ियों से नीचे आते हुए हम कीर्तन करते रहे, और जब हम बाहर निकले तो सभी भक्त मंदिर वापिस जाने लगे। तब मैंने सोचा, “ मंदिर जाने और अन्य भक्तों के साथ कीर्तन करने से क्या लाभ? मेरा काम तो बाहर जाकर पुस्तकें वितरित करना है। प्रभुपाद के प्रति मेरी यही सेवा है ।" इस तरह अकेला मैं था जो मंदिर वापिस नहीं गया। मैं वहाँ रुक गया और सड़सठ पुस्तकें बेची। जब मैं वापिस आया तो मुझे मालूम हुआ कि करन्धर प्रभुपाद को बता चुका था कि मैं किस तरह पुस्तकें वितरित करने में लगा था। जब मैंने यह सुना तो मेरा उत्साह बढ़ गया और उस पूरे सप्ताह भर मैं हर दिन पुस्तकें बेचता

रहा ।

लास ऐन्जीलिस में श्रील प्रभुपाद प्रातः कालीन भ्रमण या तो प्रशान्त महासागर के तट पर करते थे या शेवियट हिल्स पार्क में। हर दिन प्रातः काल कुछ शिष्य उनके साथ हो लेते। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में आरगेनिक - रसायन विज्ञान में पी. एच. डी. के एक शोध छात्र, थाउडम सिंह, भी उनके साथ जाते । श्रील प्रभुपाद डा. सिंह से पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति विषयक वैज्ञानिक सिद्धान्त पर नियमित रूप से चर्चा करते। दिन-प्रतिदिन प्रभुपाद डार्विन के मूर्खतापूर्ण और अवैज्ञानिक सिद्धान्त की बखिया उधेड़ते रहते ।

जब प्रभुपाद अपने शिष्यों के छोटे-से दल के साथ घूमने निकलते थे, उस समय सूर्योदय हो ही रहा होता था। हवा ठंडी होती थी । श्रील प्रभुपाद सिर तक ढकने वाला केसरिया ओवरकोट पहने होते थे। उनके शिष्य स्वेटर पहने या चादर लपेटे उनके पीछे-पीछे चलते रहते थे और उनकी बात सुनते तथा प्रश्न पूछते जाते थे ।

किन्तु अधिकांश वार्ता प्रभुपाद और डा. सिंह के बीच होती थी, जो भौतिकतावादी वैज्ञानिक की भूमिका सम्पन्न करते थे। डा. सिंह निरीश्वरवादी तर्क प्रस्तुत करते और श्रील प्रभुपाद शास्त्र और तर्क से उनका खण्डन करते । प्रभुपाद ने कहा, “मैं तो वैज्ञानिकों से कहता हूँ कि यदि जीवन की उत्पत्ति रसायनों से हुई और आपके विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है तो आप अपनी प्रयोगशाला में जैव-रासायनिक विधि से जीव की उत्पत्ति क्यों नहीं कर लेते ?"

सवेरे के इन भ्रमणों में पुराने भक्तों ने एक दिन रामेश्वर का परिचय प्रभुपाद से कराया और उनकी प्रार्थना पर रामेश्वर श्रील प्रभुपाद को पुस्तक - वितरण के सम्बन्ध में बताने लगा । उसने उल्लेख किया कि कभी कभी पुस्तक - वितरकों की भेंट निर्विशेषवादियों से हो जाती थी और वे उन्हें भगवद्गीता यथारूप लेने को मना लेते थे ।

प्रभुपाद रुक गए और गंभीरतापूर्वक रामेश्वर की ओर देखने लगे। उन्होंने पूछा, “तुम उनसे क्या कहते हो ?"

रामेश्वर ने पुस्तकें बेचने की अपनी कुछ तरकीबें प्रभुपाद को बताई ।

कुछ क्षण बाद प्रभुपाद बोले, "हमारे लोगों को हमारी पुस्तकों का भी अध्ययन करना चाहिए ।"

जिस दिन सवेरे त्रिपुरारि प्रभुपाद के साथ भ्रमण पर गया उस दिन प्रभुपाद बहुत कम बोले, क्योंकि वे तट पर केवल घूमते रहे। जब वे अपनी कार की ओर लौट रहे थे, केवल तब एक भक्त ने कहा, “प्रभुपाद, त्रिपुरारि भी साथ है। "

प्रभुपाद मुड़े और मुसकराए। उन्होंने पूछा, “अहा ! पुस्तक - वितरण का कार्य कैसा चल रहा है ?"

यह त्रिपुरारि के लिए अपने गुरु महाराज से साक्षात् वार्ता का पहला अवसर था और एक बार में ही वह बहुत कुछ कह लेना चाहता था । अधीर उत्साह में वह अपनी अनुभूतियों को उगलने लगा । प्रभुपाद बीच में ही बोले, "यह मानव जाति की सबसे अच्छी सेवा है।" और उन्होंने भगवद्गीता से उद्धरण दिया, "मेरे लिए उससे अधिक प्रिय भक्त कोई नहीं है, जो मेरे संदेश का प्रचार करता है। "

रामेश्वर और त्रिपुरारि के प्रभुपाद के साथ संक्षिप्त संगति के अतिरिक्त, लास ऐन्जीलिस में पुस्तक - वितरकों में से किसी अन्य को, अपने आध्यात्मिक गुरु साक्षात् भेंट या व्यक्तिगत वार्ता का अवसर नहीं मिला। किन्तु उनसे उनके

से

सम्बन्ध की प्रगाढ़ता इस तरह के साक्षात् सम्पर्क पर निर्भर नहीं थी ।

त्रिपुरारि: श्रील प्रभुपाद से मेरा साहचर्य न्यूनाधिक उनसे अलग रहने और क्षेत्र में कार्य करने का था। जबकि बहुत से पुराने शिष्यों ने प्रभुपाद से व्यक्तिगत रूप में प्रशिक्षण पाया था, मुझे ऐसा कोई प्रशिक्षण नहीं मिला। मैंने प्रभुपाद से प्रशिक्षण अपने हृदय के अंदर ही पाया। मैं समझता हूँ, यही हाल हमारे सभी पुस्तक-वितरकों का है। प्रभुपाद के प्रति उनका भाव अत्यन्त निकटता का है, किन्तु उनसे उनका साक्षात् व्यक्तिगत सम्पर्क अधिक कभी नहीं हुआ । प्रभुपाद से उनकी निकटता और उन्हें भलीभाँति जानने का उनका भाव, वस्तुत: प्रभुपाद के प्रति उनकी सेवा के कारण है जिसे प्रभुपाद अपना जीवन और प्राण मानते हैं— और वह सेवा है उनकी पुस्तकों का वितरण ।

श्रील प्रभुपाद को अपने बगीचे में बैठना पसंद था जिसमें गुलाब, चमेली, गेंदा, केला, पुदीना, अंगूर की बेल आदि के पौधे लगे थे। फौवारे की आवाज सुनना भी उन्हें पसंद था। बगीचा, जिसमें लान था, फूलों की क्यारियाँ थीं, झाड़ियाँ थीं और प्रभुपाद के बैठने के लिए आसन बना था, चारों ओर से पक्की ईंटों की ऊँची दीवार से घिरा था। जब प्रभुपाद से मिलने विशेष अतिथि आते थे तो शिष्य उनके लिए कुर्सियाँ निकाल लाते थे, किन्तु स्वयं शिष्य लान पर बिछी पतली चटाइयों पर बैठते थे और ऊँचे आसन पर बैठे श्रील प्रभुपाद की ओर निहारा करते थे। संध्या समय चारों ओर शान्ति और नीरवता रहती जिससे मंदिर में होने वाले कीर्तन को प्रभुपाद सुन सकते थे । वेनिस बुलवार्ड से गुजरने वाली कारों की आवाज भी उन्हें सुनाई देती थी। पास के कराटे स्कूल में लोगों का हो-हल्ला एक ऐसा विघ्न था जिसे सहन करना प्रभुपाद ने स्वीकार कर लिया था ।

प्रभुपाद बैठे हुए एक घंटे या उससे अधिक देर तक कृष्ण — दि सुप्रीम पर्सनालिटि आफ गाडहेड का वाचन सुनते रहते और उनकी चारों ओर घास पर बैठे उनके शिष्य इस दिव्य आनन्द में उनके सहभागी बनते रहते । कृष्णलीला सुनते हुए प्रभुपाद को पूरा संतोष प्राप्त होता । वे सिर ऊँचा किए हुए, गंभीर मुद्रा में सीधे तन कर बैठते थे। यह बैठक अनौपचारिक होती थी, किन्तु उनकी उपस्थिति से इसका विशेष महत्त्व हो जाता था। बीच-बीच में वाचक को रोक कर वे टिप्पणी करने लगते थे। तब रात हो जाती थी और वाचन समाप्त करा कर वे बगीचे से चले जाते थे। बजरी वाले मार्ग पर चलते हुए वे मंदिर - भवन

को पार करते और दूसरी मंजिल पर अपने कमरे में चले जाते ।

प्रभुपाद

को लास ऐन्जीलिस का यह बगीचा इतना पसंद था कि इसी तरह का एक बगीचा उन्होंने मायापुर मुख्यालय में भी लगवाने का निर्णय किया ।

जहाँ तक मायापुर के भवन का सम्बन्ध है, मेरा सुझाव है कि आप छत पर एक से वाटिका लगाएँ। भवन की छत पर छह इंच मिट्टी डाल दें, फिर उस पर बहुत तुलसी के बिरवे और अन्य सुंदर झाड़ियाँ लगाएँ। मुझे वाटिका बहुत पसंद है। ठीक जैसे लास ऐन्जिलिस मंदिर में, उन्होंने यहाँ मेरे लिए बहुत सुंदर वाटिका लगा दी है और मैं उसमें प्रतिदिन संध्या समय बैठता हूँ। इसलिए आप मायापुर में भी एक उत्तम कोटि का बगीचा लगाएँ ।

रात में लगभग दस बजे प्रभुपाद सामान्यतया अपने सोने के कमरे में जाते थे और लेट जाते थे। उनका सेवक, श्रुतकीर्ति उनकी टाँगों की मालिश करता था और तब प्रभुपाद अपने नेत्र बंद कर लेते थे । इस बीच रामेश्वर नीचे की सीढ़ी पर बैठा प्रतीक्षा करता रहता था कि उनका सचिव या सेवक प्रभुपाद का कोई आदेश लेकर आ सकता है।

रामेश्वर : मैं श्रील प्रभुपाद से इतना डरता था कि उनके कमरे में नहीं जाता था, अतः आखिरी सीढ़ी पर बैठा उनके आदेश की प्रतीक्षा करता रहता था । मैं वहां बैठा रहता और उनके केवल एक शब्द की प्रतीक्षा करता रहता । श्रील प्रभुपाद प्राय: कुछ कहते रहते और वह मुझ तक पहुँच जाता था। तब प्रतिदिन सवेरे संकीतर्न दल के लोग मुझे घेर लेते थे और पूछते थे, “उन्होंने क्या कहा ?" वे उनके अमृत तुल्य वचनों की मुझसे याचना करते थे। यह बहुत गहन अनुभूति थी। हमें लगता कि हम प्रभुपाद से सीधे सम्बन्ध से साक्षात् जुड़े हैं।

प्रभुपाद के कमरे के बाहर प्रतीक्षा करते हुए, मुझे दिव्य आनन्द की अनुभूति होती, यह सोच कर कि हम अपने गुरु महाराज के प्रति अपने शुद्ध प्रेम की भेंटस्वरूप, पुस्तकों का वितरण कर रहे हैं। हम भक्त, पहली बार हवाई अड्डे जा रहे थे। लास ऐन्जीलीस के भक्तों के अतिरिक्त आन्दोलन में से अन्य किसी को हवाई अड्डे जाने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए यह एक विशेष बात थी। बड़ी पुस्तकों की उतनी संख्या में बिक्री कोई नहीं कर रहा था जितनी हम कर रहे थे।

एक समय जब श्रील प्रभुपाद ने मेरी प्रतिदिन की संकीर्तन - रिपोर्टों में से एक रिपोर्ट देखी तो उन्होंने पूछा, "यह रामेश्वर कौन है ?"

दिन-प्रतिदिन श्रील प्रभुपाद उन भावनाभावित रिपोर्टों को देखते थे जिनमें हाल में प्रकाशित चैतन्य - चरितामृत के आदि - लीला से अमृत तुल्य उद्धरण भरे होते थे। उन्होंने अनुभव किया कि ये शिष्य भावनाभावित हैं, अतः उन्होंने पूछा, "ये कौन हैं ?" उन्हें पता चल गया था कि हम संकीर्तन से प्रेम करते हैं। हम पर यह कोई कृत्रिम बोझ नहीं था जिसे हम ढो रहे थे। उन्हें ज्ञात हो गया था कि हमें कोई संघर्ष नहीं करना पड़ रहा था। यह कौतुक, आनन्द और भाव-विभोरता जैसी चीज थी। हमारे आन्दोलन का पूरा दर्शन उसमें निहित था। हम चैतन्य - चरितामृत के दर्शन में अपने को पूरी तरह ढाल रहे थे जिसे भगवान् चैतन्य अपने विश्वस्त पार्षदो के संग भगवत् - प्रेम का प्रसार करने को आविर्भूत हुए थे और उन्होंने कभी यह भेद-भाव नहीं किया कि कौन योग्य प्रशिक्षणार्थी है और कौन अयोग्य है। ठीक ये ही श्लोक हम अपने नित्य प्रति के पत्र में समाविष्ट कर रहे थे। हमारी चित्तवृत्ति यही थी और प्रभुपाद को इससे प्रेम था ।

श्रुतकीर्ति के दृष्टिकोण से संध्याकालीन मालिश का समय विशेष समय होता था, क्योंकि उस समय श्रील प्रभुपाद दिन-भर के प्रबन्धात्मक कार्यों के भार से मुक्त होते थे। श्रुतकीर्ति वाटिका से रात में खिलने वाले बहुत सारे चमेली के फूल लाता था और मालिश के समय प्रभुपाद सुगंधित फूलों को अपनी नासिका के पास रख लेते थे। उस समय वे, कृष्ण- पुस्तक के वाचन के समय से भी अधिक, शान्त और आराम में होते थे । दिन-भर कड़े परिश्रम के बाद उनके पास कोई काम नहीं होता था । यद्यपि केवल तीन घंटे के विश्राम के बाद ही उन्हें फिर उठ जाना होता था, किन्तु इस समय वे आराम से लेटे होते थे और मंद स्वर में जप करते हुए विचारों में डूबे रहते थे ।

किसी-किसी संध्या - बेला में वे मालिश कराने में देर कर देते थे और माला फेरते

हुए अपने सोने के कमरे में टहलते रहते थे, अथवा बिस्तर पर बैठ कर जप करते रहते थे। किन्तु अधिकतर रात में वे पीठ के बल लेट जाते थे और श्रुतकीर्ति उनकी टांगों की मालिश करता था । यदि कभी वे अपने सेवक से बात भी करते थे तो वह इस्कान की व्यवस्था के सम्बन्ध में नहीं होती

थी। वे दीवार पर टँगा कोई चित्र देखते और कहते, “कृष्ण कितने सुन्दर हैं ? कृष्ण की ओर भला कोई आकृष्ट क्यों नहीं होता ?" या कभी कभी वे अपने बचपन की बातें करते या इसी तरह अन्य अनौपचारिक बातें। किन्तु आराम की इस बेला में भी, संकीर्तन के परिणामों के बारे में सुनना उन्हें अच्छा लगता

और

इसलिए कभी-कभी वे रामेश्वर की प्रतिदिन की रिपोर्ट पढ़ने लगते या कृष्णभावनामृत-आन्दोलन के प्रचार के बारे में कुछ कहने लगते ।

एक दिन रात में रामेश्वर की संकीर्तन की भावनाभावित रिपोर्ट पढ़ने के बाद, प्रभुपाद इतने द्रवित हो गए कि उन्होंने रिपोर्ट के पृष्ठभाग पर ही एक संदेश लिख डाला । २० अप्रैल १९७३ की तारीख डालते हुए उन्होंने लिखा, -

मेरे प्रिय बालको और बालिकाओ, भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की महिमा का प्रसार करने के लिए तुम लोग कितना कड़ा परिश्रम कर रहे हो । मेरे गुरु महाराज तुम सब पर बहुत प्रसन्न होंगे। निश्चय ही मेरी अपेक्षा हजारों बार अधिक, मेरे गुरु महाराज तुम्हें आशीष देंगे और इससे मुझे संतोष ही होगा। सभी एकत्रित भक्त यशस्वी हों ।

ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी

पुनश्च : प्रत्येक भक्त को यथासंभव शीघ्र संकीर्तन दल में जाना चाहिए । सीढ़ी के नीचे चुपचाप बैठे हुए रामेश्वर के मन में यह संकोच भले ही रहा हो कि प्रभुपाद से उसे रंचमात्र भी मान्यता मिलती है या नहीं, किन्तु जब उसे उनके हस्तलेख के रूप में सर्वोत्तम पुरस्कार प्राप्त हुआ तो अपने इस सौभाग्य में, जो भी भक्त तब जग रहे थे, उन्हें सहभागी बनाने के लिए वह चिल्लाता हुआ तेजी से भाग पड़ा ।

त्रिपुरारि : प्रतिदिन सवेरे की मंगल आरती के बाद एक छोटा-सा दल मंदिर के द्वार के आस-पास इकट्ठा हो जाता था, क्योंकि मंदिर में प्रातःकालीन जप के समय बोलना वर्जित था । अतः रामेश्वर द्वार पर खड़े-खड़े जप कर रहा था और उसने हमें अपने पास बुलाया और द्वार पर भक्तों का एक समूह जमा हो गया। उसने प्रभुपाद की टिप्पणी दिखाई। कुछ अन्य भक्त, यह देख कर कि हम जप के समय बात कर रहे हैं, अधीर हो उठे। उन्हें लगा कि हम बाधक हो रहे हैं, या हम अपनी सेवा अथवा जप में दत्तचित्त नहीं है। किन्तु वास्तव में हम संकीर्तन के विषय में सोचने में तन्मयता से निमग्न थे और जब हमने पुनः जप आरंभ किया तो हम बाहर जाकर, प्रभुपाद को प्रसन्न करने की अभिलाषा के साथ, संकीर्तन में लग गए।

प्रभुपाद के ये शब्द कि “प्रत्येक भक्त को जितना शीघ्र हो सके संकीर्तन दल में जाना चाहिए”, अन्य मंदिरों में भी पहुँच गए। और यद्यपि श्रील प्रभुपाद ने शीघ्र ही भारत के लिए लास ऐन्जीलिस से प्रस्थान कर दिया, किन्तु उनका संदेश वहाँ बना रहा और भक्तों के विश्वास को प्रगाढ़ बनाता रहता ।

१९७३ ई. की गर्मियों में भक्तों ने देखा कि संगीत - गोष्ठियों में वे कुछ ही घंटों में कृष्ण पुस्तक की सैंकड़ों प्रतियाँ वितरित कर सकते थे। यह कृष्ण पुस्तक, जो अब पेपरबैक में जार्ज हैरिसन की प्रस्तावना के साथ उपलब्ध थी, युवकों के लिए विशेष आकर्षक सिद्ध हो रही थी। जुलाई में रामेश्वर ने प्रभुपाद को यह बताते हुए लंदन लिखा कि लास ऐंजिलिस मंदिर प्रति सप्ताह दो हजार पुस्तकें वितरित कर रहा है और एक संगीत - संगोष्ठी में भक्तों ने दो घंटे में छह सौ पुस्तकें वितरित कीं ।

लास ऐंजिलिस के भक्तों ने तय किया कि त्रिपुरारि कुछ अन्य प्रमुख संकीर्तनकर्ताओं के साथ दूसरे मंदिरों में जाकर अनुभवों का आदान-प्रदान करे। रामेश्वर ने प्रभुपाद को लिखा " श्री श्री रुक्मिणी - द्वारिकाधीश (लास ऐंजिलिस मंदिर के अर्चा-विग्रह ) की कृपा है कि हम अन्य केन्द्रों में इतने भक्त भेज सके। यह न्यू द्वारका का असली ऐश्वर्य है।” श्रील प्रभुपाद ने इसका उत्तर ३ अगस्त को भेजा ।

इसमें सन्देह नहीं कि पुस्तक - वितरण हमारा सर्व - प्रमुख कार्य है। मंदिर खाने और सोने के लिए नहीं है, अपितु ऐसा स्थान है जहाँ से हम अपने सैनिकों को माया से लड़ने के लिए भेजते हैं । माया से युद्ध करने का अर्थ है कि बद्धजीवों की गोद में लाखों पुस्तकें डाली जायँ । जिस तरह युद्ध में आकाश से बम बरसते हैं उसी तरह... ।

मुझे तुम लोगों का यह कार्यक्रम भी अच्छा लगता है, जिसमें तुम अपने श्रेष्ठतम व्यक्तियों को दूसरों को शिक्षित करने के लिए भेजते हो । अन्य लोगों को शिक्षा देना ही वास्तव में कृष्णभावनामृत आंदोलन को आगे बढ़ाना है। इस कार्यक्रम को चलाते रहो जिससे भविष्य में हमारे आन्दोलन का प्रत्येक व्यक्ति पुस्तक - वितरण की कला जान जाय । मैं इसके लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करता हूँ ।

एक महिला का पत्र, जिसने हाल ही में प्रभुपाद की कुछ पुस्तकें प्राप्त की थी, जुलाई के बी. बी. टी. समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ । पत्र टी. डब्लू.ए. की उड़ान के दौरान उसी की लेखन सामग्री पर लिखा गया था ।

सैन फ्रान्सिस्को हवाई अड्डे पर, लंदन के लिए मेरे प्रस्थान के पूर्व आपके एक अनुयायी

ने

कृष्ण पुस्तक मुझे दी थी... मैने अपने को इतना प्रसन्न, प्राधिकृत अथवा सम्मानित

जो एक अधिक अच्छा शब्द होगा, कभी नहीं अनुभव किया। मैं इस भौतिकतावादी

चूहा - दौड़ से ऊब गई हूँ।

मैं भौतिक सम्पन्नता और दौड़-धूप से रहित उच्च प्रकार का जीवन चाहती हूँ ।

लंदन से वापिसी में उस महिला ने शिकागो हवाई अड्डे पर राज विद्या नामक एक अन्य पुस्तक खरीदी और अधिक सहायता के लिए याचना की ।

अंत में उसने लिखा, "यह अतीव सुंदर है । "

त्रिपुरारि ज्यों-ज्यों यात्रा करके संकीतर्न की अपनी विधि सिखाता गया त्यों-त्यों अधिकाधिक भक्त उसके उदाहरण का अनुगमन करने लगे और पुस्तक-वितरण के समय विग और परम्परागत वस्त्र धारण करने लगे। इस तरह के पहनावे से उनका लोगों तक पहुँचना पहले से आसान हो गया और पुस्तक - वितरण की उनकी क्षमता में वृद्धि हो गई। किन्तु कुछ भक्तों को ऐसा पहनावा पसंद नहीं आया ।

सितम्बर १९७३ में एक दिन, बम्बई में जुहू सागर तट पर श्रील प्रभुपाद के प्रातः कालीन भ्रमण के समय, कुछ संन्यासी भक्तों ने यह मामला उनके सामने रखा । प्रभुपाद ने जुहू बीच पर टहलते हुए कुछ भद्रजनों की ओर संकेत किया जो भक्तों को सदा हाथ जोड़ कर “ हरे कृष्ण" कहते हुए सम्मान देते थे । एक सच्चे वैष्णव का यही लक्षण है, श्रील प्रभुपाद ने कहा । जो कोई भी उन्हें देखता है वह तुरन्त कृष्ण के बारे में सोचने लगता है। अतएव भक्तों को सुस्पष्ट रूप से वैष्णव - लक्षणों जैसे तिलक, शिखा और गले में माला को धारण करना चाहिए जिससे लोग तुरन्त जान जायँ कि “ये हरे कृष्ण लोग हैं । "

एक संन्यासी ने टिप्पणी की कि अमेरिका में अब पुस्तक-वितरण के लिए भक्त विग पहनते हैं और हिप्पियों जैसी वेश-भूषा धारण करते हैं। वह अपने लोगों को ऐसा नहीं करने देता क्योंकि इससे तो अपना उद्देश्य ही विजित हो जाता है, यदि लोग यह भी न जान सकें कि वे एक भक्त से बात कर रहे हैं। निष्कर्षतः उसने कहा कि यदि कोई भक्त पुस्तक - वितरण करना चाहता है तो कृष्ण उस भक्त की सहायता ऐसा स्थान पाने में करेंगे जहाँ वह अपना वेश बदले बिना अपना कार्य कर सके ।

प्रभुपाद अन्य लोगों का मत जानने के लिए उनकी ओर उन्मुख हुए। एक भक्त ने कहा कि अमेरिका में भक्तों के वेश बदलने का कारण यह है कि अन्यथा कुछ स्थानों में उन्हें पुस्तक - वितरण की अनुमति नहीं मिलेगी। प्रभुपाद ने लोगों का मत सुना और तब अपना निर्णय दिया : यह वेश-परिवर्तन तुरन्त बंद कर देना चाहिए। हम किसी भी परिस्थिति में अपने मानदण्ड का बलिदान नहीं करेंगे। उन्होंने कहा, "हमें कड़ाई से अपने सिद्धान्तों का पालन करना

है। इस तरह लम्बे बाल रखना और कर्मी पहनावा पहनना एक बार फिर हिप्पी बनने की प्रवृत्ति का द्योतक है। चूँकि पहले आप हिप्पी थे, इसलिए यह प्रवृति अब भी मौजूद है। इसलिए इसे बंद कर देना चाहिए ।'

मंदिर वापिस जाते हुए प्रभुपाद ने देखा कि एक गरीब आदमी सड़क के किनारे खुले में मल त्याग कर रहा था। प्रभुपाद ने कहा, "जनमत के बावजूद वह अपना मानदण्ड बदल नहीं रहा है। क्या हम अपना मानदण्ड उसी कड़ाई के साथ नहीं बनाए रख सकते जैसे अमेरिका के लोग अपने यहाँ कर रहे हैं ?"

प्रभुपाद के सचिव, तमाल कृष्ण गोस्वामी, ने एक पत्र का प्रारूप बनाया और उस पर अपने हस्ताक्षर किए और प्रभुपाद ने भी एक पंक्ति पर हस्ताक्षर किए जिस पर अंकित था, "स्वीकृत"; पत्र में लिखा था कि सभी संकीर्तन भक्तों को सदा तिलक लगाना चाहिए, धोती और गले में माला पहननी चाहिए और सिर पर शिखा रखनी चाहिए। और पुस्तक वितरण में सहायता के लिए उन्हें छद्मवेश पर नहीं, वरन् कृष्ण पर निर्भर रहना चाहिए। किन्तु पत्र के अंत में एक 'पुनश्च' था - - "प्रभुपाद ने उपर्युक्त का निरीक्षण करने के बाद जोड़ा है 'यदि भक्त चाहें तो वे कोट और पैंट पहन सकते हैं... लेकिन तिलक, शिखा और माला – ये चीजें जरूर होनी चाहिए।'

श्रील प्रभुपाद पहले भी अपने विभिन्न पत्रों में इस विषय पर लिख चुके थे। कनाडा में जगदीश के पत्र का उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा था कि पश्चिमी पोशाक पहनने और हैट या विग लगाने में कोई आपत्ति नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया था, "कृष्णभावनामृत-आन्दोलन को सफल बनाने के लिए जो भी अनुकूल स्थिति हो उसे हमें स्वीकार करना चाहिए । पुस्तक वितरण में हमें कभी - कभी ऐसे साधन भी अपनाना चाहिए।” किन्तु फरवरी १९७३ में उन्होंने रूपानुग को लिखा था कि वे नहीं चाहते थे कि उनके भक्त हिप्पियों की वेशभूषा धारण करें ।

" इसे बंद कर देना चाहिए। हमें किसी को मौका नहीं देना चाहिए कि वह हमें हिप्पी कहे । किन्तु भक्त मेरे साहित्य को विशेष परिस्थितियों में वितरित करने के लिए महिलाओं और भद्र पुरुषों की तरह सम्मान्य वेश-भूषा पहन सकते हैं। ..

जहाँ भी कई व्यक्ति होंगे, वहाँ मत भिन्नता जरूर होगी।'

श्रील प्रभुपाद चाहते थे कि व्यवस्था सम्बन्धी विवरण उनके सामने न आएं।

उनके जी.बी.सी. के लोगों को चाहिए कि वे आपस में विचार-विमर्श कर लें और तब अपने निष्कर्ष प्रभुपाद के सामने अंतिम निर्णय के लिए प्रस्तुत करें। प्रभुपाद ने लिखा था, “इससे मैं श्रीमद्भागवत के अपने अनुवाद पर स्वतंत्रता से ध्यान केन्द्रित कर सकूँगा । "

प्रभुपाद का भारत से पत्र करन्धर को लास ऐंजिलीस में मिला। किन्तु यह घोषणा करने के पहले कि पश्चिमी वेश-भूषा में सभी संकीर्तन बन्द कर दिए जायँ, वह चाहता था कि प्रभुपाद उसका पक्ष भी सुन लें । पुस्तक - वितरण के समय भक्तों के पश्चिमी वेश-भूषा पहनने के लाभों के सम्बन्ध में उसने एक विस्तृत रिपोर्ट दी। उसका निष्कर्ष था कि जिस चीज पर प्रभुपाद को मुख्य आपत्ति मालूम होती थी वह थी भक्तों की हिप्पियों जैसी असम्मानजनक वेश-भूषा । उसने प्रभुपाद को सूचित किया कि पुस्तक - वितरक अब वास्तव में साफ सुथरे, सजे-धजे और आकर्षक दिखते हैं। उसने कहा कि यदि पुस्तक-वितरकों पर जनता के बीच केवल मुंड़े सिर और धोती पहन कर जाने का प्रतिबंध लगाया जाता है तो पुस्तक वितरण की संख्या करीब दो-तिहाई कम हो जायगी । उसने लिखा, “यदि कहीं अतिशयता हुई या नियमों का ठीक से पालन नहीं हुआ है तो उन्हें ठीक करना चाहिए, बजाय इसके कि पूरा कार्यक्रम छोड़ दिया जाय ।'

इस बार प्रभुपाद ने पाश्चात्य पहनावे के पक्ष में लिखा ।

ने

हाँ, तुम पहले की तरह ही पुस्तक वितरण जारी रख सकते हो। इसमें कोई हर्ज नहीं है। मैं समझता था कि मेरे लोग हिप्पियों की तरह होते जा रहे हैं। किन्तु अब तुम्हारे पत्र से मालूम हुआ कि बात ऐसी नहीं है। इसलिए मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हमारा मुख्य उद्देश्य पुस्तक - वितरण है और समस्त संसार से जो समाचार मुझे मिल रहे हैं, उनसे पता लगता है कि प्रगति बहुत उत्साहवर्धक है ।

वितरकों की विधियों को लेकर एक असहमति पैदा हो गई। कुछ लोगों

इस्कान सचिव को लिख कर शिकायत की थी कि उन्हें बहका कर या उन पर दबाव डाल कर उनसे पुस्तकें खरीदवाई गई थीं। इस शिकायत का उत्तर भक्तों ने अपने-अपने ढंग से दिया ।

पुस्तक-वितरकों ने प्रभुपाद के इस आदेश का समर्थन किया कि जितनी संख्या में हो सके, पुस्तकें वितरित की जायँ । उन्होंने तर्क किया कि केवल इसलिए पुस्तक-वितरण के कार्य को धीमा नहीं किया जाना चाहिए कि

कुछ लोगों ने आपत्ति उठाई है। उन्होंने श्रील प्रभुपाद के इस कथन का उद्धरण दिया कि संकीर्तन के विरोध का अर्थ है कि वह शुद्ध और सच्चा है ।

प्रभुपाद इस बात की व्याख्या अपनी पुस्तकों में कर चुके थे जब वे मुस्लिम शासन द्वारा चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन दलों के रोके जाने की ऐतिहासिक घटना का वर्णन कर रहे थे। प्रभुपाद ने लिखा था ।

हमें समझ लेना चाहिए कि ऐसी घटनाएँ भूतकाल में, आज से पाँच सौ वर्ष पहले हो चुकी हैं और उनका आज भी होते रहना इस बात का द्योतक है कि हमारा संकीर्तन आन्दोलन वास्तव में प्रामाणिक है, क्योंकि यदि संकीर्तन कोई नगण्य सांसारिक घटना होता तो राक्षस लोग इस पर आपत्ति न उठाते ।

अमेरिका के लोगों ने सार्वजनिक कीर्तन, भक्तों के पहनावे, कृष्णभावनामृत आंदोलन के दर्शन और आहार पर भी आपत्ति की थी। कोई न कोई तो आपत्ति करता ही रहेगा । पुस्तक - वितरकों ने कहा कि मुख्य चीज तो बद्धजीवों को उबारने की है जिन्हें अगले जन्म में नारकीय जीवन मिलने वाला है। यदि कोई व्यक्ति एक पुस्तक पा लेता है और उसका एक पृष्ठ भी पढ़ लेता है, तो उसका जीवन बदल सकता है।

किन्तु अन्य भक्त, जिनमें मंदिरों के अध्यक्ष भी सम्मिलित थे, शिकायतों से आन्दोलित थे। किसी को याद आया कि प्रभुपाद इस बात पर १९७० ई में अपने विचार दे चुके हैं।

हर कार्य बहुत उत्साह से करो। हमारे सभी कार्य खुले होने चाहिएं जिससे हमारे लक्ष्य की आलोचना कोई न कर सके। इसलिए हमारा प्रत्येक व्यवहार वैष्णव स्तर पर होना चाहिए। चूँकि हम हर चीज कृष्णभावनामृत में, कृष्णभावनाभावित ढंग से, करते हैं, अतः भगवान् कृष्ण हमारे ऐसे सत्यनिष्ठ कार्यों में सहायता करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक हमें सारी सुविधाए प्रदान करेंगे।

प्रभुपाद चाहते थे कि पुस्तक - वितरक उनके आदेशों का पालन करें। किन्तु उन्होंने उन्हें ऐसी आजादी नहीं दी थी कि वे जो चाहें सो करें और दावा करें कि उन्होंने जो कुछ किया है वह कृष्ण के लिए किया है । प्रचार विशेषज्ञता की अपेक्षा रखता था, लोगों से कोई पुस्तक खरीदवाना ही काफी नहीं था, उनके मन में सही धारणा उत्पन्न करना भी जरूरी था ।

पुस्तक वितरकों का मानना था कि वे भरसक ठीक कार्य कर रहे हैं, किन्तु वे अपने को सुधारने की कोशिश करेंगे। यदि अन्य पुस्तक - वितरक सोचते हैं कि वे इससे अच्छा कर सकते हैं तो उन्हें करके दिखाना चाहिए कि किसी को उत्तेजित किए बिना पुस्तक वितरण कैसे किया जा सकता है। पुस्तक वितरण

का कार्य प्रतिदिन, सारा दिन करना कठिन था। लोग मन और इन्द्रियों से पहले ही उद्वेलित हैं और अपने व्यवसायों से, सरकारों से और व्यक्तिगत सम्बन्धों से वे वैसे ही परेशान हैं; इसलिए आश्चर्य नहीं कि कोई निरीह भक्त उन्हें

क्षुब्ध कर बैठता हो ।

प्रश्न यह था कि पुस्तक - वितरक अपने काम में कैसी तरकीबें अपनाएँ । वितरकों का कहना था कि वे छात्र थे और युवाजनों से मादक पदार्थों का सेवन छुड़वाने में सहायता कर रहे थे, अथवा उनके द्वारा वितरित पुस्तकें ऐसी थीं जो आधुनिक जीवन की विकट स्थितियों का समाधान बताती थीं। इनमें से कोई भी कथन असत्य नहीं था, किन्तु कभी - कभी बलाघात की अतिशयता हो जाती थी ।

कोई प्रौढ़ भक्त अधिक अधिकार से बात कर सकता था । त्रिपुरारि लोगों को बताता था कि पुस्तकें किस प्रकार एक प्राचीन सभ्यता का वर्णन करती हैं जिसमें लोग जानते थे कि जीवन कैसे यापन करना चाहिए। वह अपने को एक ऐसे संगठन के सदस्य के रूप में प्रस्तुत करता था जिसके सम्प्रदाय सारे संसार में फैले हैं जिनमें लोग एक वैकल्पिक जीवन शैली के आदर्श का लाभ उठा सकते हैं । त्रिपुरारि और उस जैसे अन्य भक्त जब आध्यात्मिक जीवन की बात करते, तो वे व्यक्तिगत और अनौपचारिक तौर पर दार्शनिक, दोनों स्तरों पर बात कर सकते थे। वे अजनबी लोगों को शीघ्रता से अपना मित्र बना लेते थे और पुस्तक खरीदने के लिए उन्हें आश्वस्त कर देते थे। किन्तु पुस्तक-वितरण करने वाले भक्तों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही थी और उनमें बहुत से अनुभवहीन थे।

श्रील प्रभुपाद का दर्शन स्पष्ट था, किन्तु उसकी व्याख्या में विभिन्नता बनी हुई थी। किसी विशेष तरकीब का उल्लेख किए बिना ही, प्रभुपाद पुस्तक-वितरण की पवित्रता पर बल देते और पुस्तक वितरकों को, बिना रुके, आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करते रहते। मुख्य चीज पुस्तक-वितरण थी ।

भक्त और अधिक स्पष्टीकरण के लिए प्रभुपाद पर जोर डालते रहे । पुस्तक - वितरकों को इस बात की चिन्ता थी कि पुस्तक - वितरण के महत्त्व को किसी तरह कम न होने दिया जाय, जबकि अन्य जिम्मेदार इस्कान नेताओं को इस बात की चिन्ता थी कि अवांछनीय तरकीबों से संघ की प्रगति में बाधा पड़ सकती है। प्रभुपाद ने न्यूयार्क में बलि - मर्दन के प्रश्नों का उत्तर अपने एक पत्र में दिया जो विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण बन गया ।

वास्तविक प्रचार पुस्तकों की बिक्री है। आपको किसी को चिढ़ाए बिना पुस्तक-बिक्री की तरकीब जाननी चाहिए। आपके व्याख्यान का प्रभाव केवल तीन मिनट रहेगा, किन्तु किसी ने पुस्तक का एक पृष्ठ पढ़ लिया तो उसका जीवन बदल सकता है। हम किसी को चिढ़ाना नहीं चाहते, किन्तु यदि कोई आपकी आक्रामक तरकीब से चिढ़ कर चला जाता है तो आप नासमझ हैं और यह आपकी विफलता है। न तो आप कोई पुस्तक बेच सके और न वह व्यक्ति आपके पास रुका। किन्तु यदि वह पुस्तक खरीद लेता है तो वह वास्तविक सफल प्रचार है ।

प्रभुपाद की स्थिति साफ थी : पुस्तकें बिकनी चाहिए, किन्तु होशियारी से । और ऐसा न हो कि किसी के मन में संदेह रह जाय, इसलिए प्रभुपाद ने पुनः दुहराया कि पुस्तक वितरण प्रचार का सर्वोत्तम रूप है: “ आपके प्रचार की सफलता की ठोस पुष्टि बिकी हुई पुस्तकों की संख्या से होगी ।" प्रभुपाद ने यह भी लिखा, “कला तो वह है कि, कई पुस्तकें बिक जायँ और कोई चिढ़े नहीं । "

पुस्तकों का वितरण लाखों में होता रहा और अनेक लोगों ने पुस्तक प्राप्त होने पर धन्यवाद भेजे । शिकायत तो कभी ही आई, किन्तु इस्कान के अंदर पुस्तक - वितरण की तरकीब के सम्बन्ध में बहस चलती रही। जब इस्कान शिकागो के अध्यक्ष, श्री गोविन्द ने प्रभुपाद को लिखा तो प्रभुपाद ने उन्हें प्रोत्साहित किया कि वे भक्तों की अतिशयतावादी तरकीबों में सुधार लाएँ ।

तो, पुस्तकें बेचने के लिए झूठ बोलना वांछनीय नहीं है। यदि हम केवल यह कहते रहें कि कृष्ण कितने अद्भुत हैं तो यह झूठ नहीं है । किन्तु, अन्यथा बातें— झूठी बातें करने से हमें सत्यनिष्ठा में प्रशिक्षण नहीं मिलेगा। किसी से झूठ बोलना और किसी से न बोलना, यह अच्छा दर्शन नहीं है । ब्राह्मण तो सदैव सत्यवक्ता होते हैं, अपने शत्रुओं से भी । हमारी पुस्तकों में ऐसे गुण पर्याप्त मात्रा में हैं कि यदि आप उनका सच्चे मन से वर्णन करें तो लोग पुस्तकें खरीदेंगे। आपको इसी कला का विकास करना है, झूठ बोलने की कला का नहीं। आप उन्हें परम सत्य का ज्ञान अपने उपदेश से कराइए, तिकड़म से नहीं। कृष्णभावनामृत-आन्दोलन के विकास का यह अधिक परिपक्व स्तर है।

नवम्बर १९७३

सैंकड़ों स्त्री-पुरुष प्रतिदिन पुस्तकें वितरित करने जाते थे । नवम्बर में एक दिन न्यू यार्क सिटी मंदिर के भक्तों ने १३२०० पुस्तकें वितरित करके इस्कान

का विश्व रेकार्ड तोड़ दिया। उसी दिन उन्होंने १५००० लोगों को प्रसाद भी बाँटा । १९७३ ई. के वर्ष में इस्कान की पुस्तक बिक्री का कुलयोग ४,१६९,००० था। जब श्रील प्रभुपाद को यह संख्या ज्ञात हुई तो उन्होंने रामेश्वर को लिखा,

मुझे तुम्हारे इन शब्दों में विश्वास है कि अगले वर्ष की संख्या गत वर्ष की संख्या से काफी ऊपर होगी। आध्यात्मिक शक्ति की यही प्रकृति है, यदि हम अपनी शक्ति का प्रयोग करें तो यह बराबर बढ़ती रहती है।

१९७४ ई. के आरंभ में श्रील प्रभुपाद पुनः लास ऐंजिलिस वापिस आए । एक दिन सवेरे पुस्तक वितरण पर बल देते हुए उन्होंने श्रीमद्भागवत पर एक व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा, श्रीमद्भागवत जैसा साहित्य सारे ब्रह्माण्ड में दूसरा

नहीं है। उससे किसी की प्रतिद्वन्द्विता या तुलना नहीं हो सकती। उसका प्रत्येक शब्द मानव समाज के कल्याण के लिए है— प्रत्येक शब्द । इसीलिए हम पुस्तक वितरण पर इतना बल देते हैं। यदि किसी तरह पुस्तक किसी के हाथ लग जाती है तो वह लाभान्वित होगा। कम से कम वह कहेगा, 'मैंने इसका इतना मूल्य दिया है, देखें इसमें क्या है ।' यदि वह एक श्लोक भी पढ़ लेता है तो उसका जीवन सफल हो जाता है— केवल एक श्लोक । एक शब्द ! यह इतनी उत्तम चीज है। इसलिए हम इतना बल दे रहे हैं। कृपया पुस्तकें वितरित कीजिए, पुस्तकें वितरित कीजिए, पुस्तकें वितरित कीजिए । "

१९७४ ई. का आरंभ एक प्रकार के गंभीर गतिरोध के साथ हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने वियतनाम युद्ध के विरोधियों के विरुद्ध निर्णय दिया । वे प्राइवेट व्यापार- मार्केटों में राजनीतिक पर्चे नहीं बाँट सकते थे । लाभ न कमाने वाले नागरिकों के दल - जिनमें धार्मिक दल भी सम्मिलित थे— निजी स्थानों में लोगों से अनुनय-विनय करने का काम केवल उन स्थानों के मालिकों की अनुमति से कर सकते थे। इस प्रकार जिन मार्केटों का उपयोग भक्त पुस्तक - वितरण के लिए अब तक करते आए थे वे उनके कार्य-क्षेत्र से बाहर हो गए।

जिस कानून ने भक्तों को निजी सम्पत्ति के प्रयोग से वंचित किया उसी ने सार्वजनिक स्थानों में उनकी पहुँच भी करा दी। जब इस्कान भक्तों ने लास वेगास हवाई अड्डे के विरुद्ध, जो उस नगर के आधिपत्य में था, कानूनी मुकदमा

किया तो उन्हें इस आधार पर तुरन्त आज्ञा मिल गई कि हवाई अड्डा उनके भाषण की स्वतंत्रता का अपहरण कर रहा है। इस आदेश से पुस्तक-वितरण में एक नए युग के आरंभ की संभावना प्रकट हुई। इससे सभी बड़े हवाई अड्डों में संकीर्तन संभव हो गया।

भक्तों ने इसे इस प्रमाण के रूप में ग्रहण किया कि पुस्तक-वितरण बढ़ाने के लिए कृष्ण प्रभुपाद के माध्यम से कार्य कर रहे हैं। इसके पूर्व किसी आध्यात्मिक गुरु ने वैदिक साहित्य का इतने बड़े स्तर पर वितरण नहीं किया था । यह एक दूसरा लक्षण था कि श्रील प्रभुपाद कृष्ण के अधिकृत प्रतिनिधि थे । और प्रभुपाद के आदेशों के पालन के अपने प्रयास से, भक्त भी कृष्ण द्वारा अधिकृत हो रहे थे । किन्तु यह तभी संभव था यदि भक्त समर्पण और त्याग के परीक्षणों से गुजरने के लिए तैयार हों ।

प्रघोष : मैं एक दिन हवाई अड्डे गया और एक काले आदमी के पास पहुँच कर बोला, “क्षमा करें।” इतना था कि उसने मेरे मुँह पर एक घूँसा जमाया और मुझे गिरा दिया। उस समय मेरे दिमाग में कई विचार आए। उस दिन सवेरे की कक्षा में त्रिपुरारि ने जो शब्द कहे थे वे जैसे मेरे कानों में गूँजने लगे : "हमें दृढ़ संकल्प होना है। ”

मैं वापिस खड़ा होकर फिर प्रयास

... अत: मैने अपने से

... अतः मैने अपने से कहा, “ठीक है,

करता रहूंगा।” मैं खड़ा हो गया और एक दूसरे आदमी की ओर मुड़ने की प्रेरणा के साथ उसके पास गया और प्रभुपाद की एक पुस्तक उसे दी ।

एक अन्य अवसर पर एक पति-पत्नी का जोड़ा मेरे पास आया । किन्तु पति का मुझसे जैसे कुछ लेना-देना नहीं था। जब स्त्री ने देखा कि पुस्तक आध्यात्मिक है तो वह रुक गई और बोली, “यह पुस्तक कैसी है?” मैने बड़ी रुखाई से कहा, “यह पुस्तक जन्म और मृत्यु के बारे में बताती है और उसके बाद के बारे में भी ।" वह बोली, " अहा !” तब वह अपने पति की ओर मुड़ी और कहा, “इसे खरीद लीजिए।” लेकिन उसने कहा, “मुझे नहीं चाहिए। आओ चलें।" वह बोली, “कृपया । " उसके पति ने कहा, “तुम खरीदो ।" और वह चला गया।

वह मेरे पास रुक गई और बोली, “क्या इस पुस्तक के बारे में आप मुझे कुछ और बताएँगे ?” मैने बताना आरंभ किया और अंत में कहा, कहाँ से आ रही हैं ?” वह बोली, “मैं रोचेस्टर से आ रही हूँ । ” तब उसने "आप यह रहस्य खोला कि वह मेयो क्लिनिक से आ रही थी और उसे जीवनलेवा

कैंसर था। और वह मरने वाली थी । उसने कहा, “मैं निराशा की इस घड़ी में यह पुस्तक पढ़ना चाहती हूँ।” उसने मुझे दस डालर दिए और कहा, “आपको बहुत-बहुत धन्यवाद ।” तब पुस्तक लेकर वह तेजी से चली गई।

कुछ समय बाद वह फिर आई और मुझे वहीं पाया। उसने मुझसे हाथ मिलाया और धन्यवाद दिया। इस तरह के अनुभव जो हम भक्तों को दिन-प्रति-दिन हो रहे हैं, हम में यह भावना उत्पन्न करते हैं कि हम किसी विशेष वस्तु के दूत या प्रतिनिधि हैं। इससे श्रील प्रभुपाद और उनके कार्य के निष्पादन के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और बढ़ जाती है। हम ऐसे चमत्कार घटित होते देखते रहते हैं।

केशव भारती : मैं सैन फ्रान्सिस्को हवाई अड्डे में पुस्तकें वितरित करता रहता था। मेरी समझ में यह हवाई अड्डा जरा मुश्किल था और यदि मैं लास ऐंजिलिस में होता तो मैं संभवतः उतनी ही पुस्तकें वितरित कर लेता जितनी त्रिपुरारि करता है। मुझे अपने पर कुछ गर्व था । तब मुझे त्रिपुरारि के साथ पुस्तक-वितरण का अवसर मिला ।

मैं बहुत खुली तरह का और लोगों से जल्दी हिल-मिल जाने वाला व्यक्ति हूँ, इसलिए किसी को रोक लेना या ऐसा कुछ करना मेरे लिए कभी कोई समस्या नहीं रहा। लेकिन आधा घंटा बीत गया, फिर एक घंटा बीत गया और इस बीच त्रिपुरारि ने पाँच और फिर दस पुस्तकें बेच डाली और मुझे कोई व्यक्ति नहीं मिला जिसे मैं रोक सकूं या उससे हाथ भी मिला सकूँ। यह अविश्वसनीय बात थी! किन्तु मैं जानता था कि यह इसलिए हुआ कि

मैं

बहुत अधिक घमंडी था। एक घंटा और बीत गया और कोई मुझसे हाथ मिलाने तक के लिए नहीं रुका। मैं घबरा गया, क्योंकि मैं प्रभुपाद की पुस्तकें बेचना चाहता था। अंत में मैं निराश होकर बैठ गया। मैं करीब-करीब रोने

लगा ।

त्रिपुरारि मेरे पास आया और उपदेश देने लगा । उसने कहा ऐसे कठिन समयों में मुझे भगवान् चैतन्य और नित्यानंद की प्रार्थना करनी चाहिए और चिन्ता नहीं करनी चाहिए। ऐसा होता ही रहता है। तब मैंने अपने को सँभाला, और दस या पन्द्रह व्यक्ति लगातार मेरे पास आए और मुझसे बात करने लगे और कुछ ने पुस्तकें खरीदी। जब हमने बाद में इस पर विचार-विमर्श किया तो हमारी समझ में आया कि हम भगवान् चैतन्य के हाथों में केवल उपकरण हैं। इस तरह हमने संकीर्तन - दर्शन का विकास किया । पुस्तक-वितरण के माध्यम

से हमने जाना कि प्रभुपाद कौन हैं और हम उनके और अधिक प्रशंसक बन

गए।

लवंग लतिका: मैं सारा दिन सबसे ऊपर की सीढ़ी पर खड़ी रहती थी और वहाँ से हजारों व्यक्ति गुजरते थे। और हम सैंकड़ों पुस्तकें वितरित करते थे। हम प्रभुपाद की पुस्तकों से पंक्तियाँ उद्धृत करते रहते थे । त्रिपुरारि हंस के नीर-क्षीर विवेक के बारे में बताता । हम लोगों को समझाने में इस पंक्ति का बार-बार प्रयोग करते। हम कहते कि ये महान ऋषि किस प्रकार पानी से दूध अलग करना जानते थे, अर्थात् वे सारभूत अंश को अलग कर सकते थे। त्रिपुरारि यह भी कहता कि पुस्तकों में दिए गए चित्र आध्यात्मिक संसार के झरोखे हैं। हम कहते, "यह पुस्तक सूर्य की तरह प्रकाशवान है जो इस कलियुग में अज्ञान के अंधकार को दूर भगा देगी + "

मैंने देखा कि पुस्तक-वितरण का सर्वोत्तम उपाय स्वयं प्रभुपाद के शब्दों का प्रयोग करना है । प्रभुपाद ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति पुस्तक की एक पंक्ति पढ़ कर किसी को सुनाता है तो वह आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर सौ - गुना आगे हो जाता है। एक बार एक भक्त ने प्रभुपाद से शिकायत की कि कुछ लोग कुछ पुस्तकें फेंक दे रहे हैं। लेकिन तब हम समझ जाते कि प्रभुपाद चाहते थे कि पुस्तकों का वितरण अधिक से अधिक संख्या में हो, यह नहीं कि आप पुस्तक केवल ऐसे व्यक्ति को दें जिसे आप समझते हैं कि वह बुद्धिमान है और पढ़ेगा। प्रभुपाद का कहना था कि यदि कोई पुस्तक की एक पंक्ति भी पढ़ लेता है तो वह उससे बहुत प्रभावित होगा । अतः हमारी समझ में यह बात आई कि प्रभुपाद पुस्तकों का वितरण वृहत् पैमाने पर चाहते था, न कि केवल उन लोगों तक सीमित रख कर जिन्हें विशेष उपयुक्त व्यक्ति समझा

जाय ।

सूर : वैशेषिक मेरे साथ हवाई अड्डे में पुस्तकें बेच रहा था। वह लोगों के पास जाता और कहता, “महाशय, आप कैसे हैं ? श्रीकृष्ण संकीर्तन आन्दोलन की जय हो, जो मानवता के लिए प्रमुख वरदान है और हृदय को विमल करने वाला है।” वह पुस्तक से भगवान् चैतन्य के शिक्षाष्टक को बाँचता जाता और पुस्तकें बेचता जाता । पुस्तकों के मुख-पृष्ठ पर कृष्ण के चित्र तथा भक्ति दृश्य होते और कभी कभी तो कुछ भक्तों की समझ में न आता कि लोग इन चित्रों का सम्बन्ध पुस्तक से कैसे जोड़ेंगे। किन्तु प्रभुपाद की इच्छा थी कि इनका वितरण हो और उनका यह कहना था कि हमें पुस्तक की श्रेष्ठता

के

के अनुसार प्रचार करना चाहिए । जब एक भक्त ने पूछा कि पुस्तक बेचने के लिए हम क्या कहें तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, — कृष्ण स्वधामोपगते...। जिस श्लोक का अर्थ यह है कि श्रीमद्भागवत सूर्य के समान प्रकाशमान है और इसका उदय इस अंधकार के युग में लोगों को धर्म प्रदान करने के लिए हुआ है । अत: हम भी उसी श्लोक का उच्चारण करके धर्म पर इन पुस्तकों का वितरण करते रहें ।

हम लोग बाहर जाते और देखते कि लोग सचमुच कृष्णभावनामृत-आन्दोलन से प्रभावित हो रहे हैं। वे देखते कि भक्तजन अत्यन्त निष्ठावान तथा गंभीर हैं, अतः वे प्रभावित होते । संकीर्तन के समय हम नित्य देखते कि लोग प्रभुपाद की पुस्तकों की प्रशंसा कर रहे हैं। कुछ लोग तंग भी करते, किन्तु इसके विषय में प्रभुपाद कह चुके थे कि कठिनाइयाँ सदैव आएँगी । अतः हमें जो भी अनुभव होता प्रभुपाद से उसकी पुष्टि होती रहती। श्रील प्रभुपाद का कहना था कि पुस्तक-विक्रेता को कभी-कभी कठिनाई होगी, क्योंकि कभी लोग उसे स्वीकार करेंगे, कभी अस्वीकार कर देंगे । किन्तु उसे सहन करना होगा ।

हवाई अड्डे में हमें प्राध्यापक, वकील सभी तरह के लोग मिलते जो रुक जाते और बातें करते। वे हमें चुनौती देते और हम निरन्तर प्रभुपाद की पुस्तकों और उनके आंदोलन का समर्थन करते और प्रभुपाद की ओर से बोलते। हमारा यह समर्थन उस समय की अपेक्षा कहीं अधिक जोरदार था जब हम छोटे बालक थे और मोटर - अड्डों के इर्द-गिर्द स्त्रियों से बात करते हुए उनसे एक पैकेट अगरबत्ती के लिए पचास सेंट देने का अनुरोध करते थे। अब हम लोग प्रभुपाद की पुस्तकें विद्वानों के सामने प्रस्तुत कर रहे थे, मायावादियों, वैज्ञानिकों, व्यवसायियों आदि के सम्र्पक में आ रहे थे— शिकागो, न्यू यार्क, लास ऐंजीलिस और सैन डियागो के लोगों के संपर्क में, जो बड़े कुशाग्र बुद्धि वाले थे। कुशाग्र बुद्धि के साथ ये बड़े कठोर थे । और उनके साथ आध्यात्मिक द्वन्द्व करने तथा आन्दोलन की प्रतिरक्षा करने मात्र से ही हम प्रभुपाद की पुस्तकों को समझने में परिपक्व हो गए और जान गए कि पुस्तकों को कैसे प्रस्तुत किया जाय कि जो लोग आश्वस्त नहीं भी होना चाहते थे उन्हें भी हम आश्वस्त कर सकें। हमें

प्रभुपाद की पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ा ।

१९७४ ई. में केवल पुस्तक - वितरण के लिए कई नए दलों का निर्माण

हुआ । त्रिपुरारि लास ऐंजिलीस के दूत के रूप में यात्रा करता रहता था, किन्तु अब, श्रील प्रभुपाद की अनुमति से, उसने कुछ प्रमुख पुस्तक - वितरकों का एक भक्तिवेदान्त

बुक ट्रस्ट (बी. बी. टी.) संकीर्तन दल का निर्माण किया। बी. बी. टी. वितरकों ने देश के विभिन्न हवाई अड्डों में अड्डा जमा लिया और इस तरह पुस्तक-वितरण में उल्लेखनीय वृद्धि हो गई ।

प्रभुपाद ने त्रिपुरारि को लिखा, “आपके पूरे कार्यक्रम को मेरी स्वीकृति है । " जब त्रिपुरारि ने पूछा कि क्या वह संन्यास ले सकता है तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि वह एक संन्यासी से कहीं अधिक कार्य कर रहा था । एक पत्र में प्रभुपाद ने उसे " पुस्तक - वितरण का अवतार" कहा।

पुस्तक - वितरण ने आगे एक और डग तब भरा जब तमाल कृष्ण गोस्वामी, जो भारत में श्रील प्रभुपाद के चार वर्ष तक क्षेत्रीय सचिव रह चुके थे, अमेरिका लौटे। उन्होंने अपने मित्र विष्णुजन के साथ मिल कर एक राधा दामोदर - संकीर्तन दल बनाया जो एक बस में राधा - कृष्ण - विग्रहों को रख कर पुस्तक वितरण के साथ पूरे देश में उत्सवों का आयोजन करता हुआ यात्रा करने लगा ।

तमाल कृष्ण गोस्वामी : जब हमने राधा - दामोदर - दल का निर्माण किया तो हमारा विचार, उत्सवों का आयोजन करके और उनमें हरे कृष्ण कीर्तन करके तथा प्रसाद वितरण करके, अधिक से अधिक भक्त बनाने का था। जब कृष्ण ने इतने अधिक श्रेष्ठ युवकों को भेजा तो उन्हें सदा व्यस्त रखना कठिन हो गया। तब अचानक श्रील प्रभुपाद का एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि पुस्तक - वितरण के लिए कीर्तन, सार्वजनिक कीर्तन से अच्छा था। इस दिव्य आदेश से हमारे राधा - दामोदर दल का मार्ग बदल गया। उसके बाद मैंने पुस्तक वितरण पर अधिक से अधिक ध्यान केन्द्रित किया और इससे प्रभुपाद को अधिकाधिक प्रसन्नता हुई। मैं भारत में चार वर्ष तक रह चुका था, किन्तु हमारा मुख्य कार्य आजीवन सदस्य बनाना था । किन्तु अब जबकि मैं अमेरिका में था— श्रील प्रभुपाद मुझे स्मरण करा रहे थे कि प्रचार का तात्पर्य उनकी पुस्तकों का वितरण था । इसलिए मुझे यह प्रेरणा मिली कि मेरे दल को इतनी पुस्तकें वितरित करनी चाहिए कि उनकी संख्या इस्कान के विश्व-भर के पुस्तक-वितरण के बराबर हो जाय। मैं दिन-रात यही सोचने में लगा रहता कि अधिक से अधिक पुस्तकें कैसे बिकें कि अमेरिका में दिव्य साहित्य की बाढ़ आ जाय । श्रील प्रभुपाद ने मुझे लिखा कि उनकी मुख्य अभिलाषा यही थी कि सम्पूर्ण अमेरिका को वैष्णवों में बदल दिया जाय ।

जब तक हमने राधा - दामोदर दल नहीं बनाया था तब तक पुस्तक वितरण का ढंग यह था कि किसी व्यक्ति को उसके अनुदान के अनुरूप छोटे, मध्यम

या बड़े आकार की पुस्तक दी जाती थी । किन्तु प्रभुपाद ने मुझसे कहा कि.. पुस्तक-वितरण के सभी प्रकारों में उनकी बड़ी पुस्तकों का वितरण करना सबसे महत्त्वपूर्ण था। इसलिए मैं सदैव यही सोचता रहता कि बड़े आकार की पुस्तकों का वितरण कैसे बढ़ाया जाय। समस्या यह थी कि लोग छोटे-छोटे अनुदान देते थे, और शायद ही कभी इतने बड़े अनुदान देते कि उनको एक बड़ी पुस्तक दी जा सके। तब कृष्ण ने मुझे यह विचार दिया कि कई व्यक्तियों के छोटे अनुदानों को मिला देने से उनमें से कम-से-कम एक को बड़े आकार की एक पुस्तक दी जा सकती थी, जबकि शेष को बैक टु गाडहेड पत्रिका या छोटे आकार की पुस्तक दी जा सकती थी । इस तरीके से हमने बड़े आकार की पुस्तकों की बिक्री में अत्यधिक वृद्धि कर ली। प्रभुपाद ने हमारे इस विचार का पूरा समर्थन किया। उनकी अनुमति थी कि जब तक बुक फंड को पुस्तकों के लिए अनुदान आता रहे, तब तक पुस्तकें शीघ्रतापूर्वक बेची जायँ, अनुदान के कम या अधिक होने का ध्यान न किया जाय। इस तरह हमारे राधा - दामोदर दल ने एक महीने के अंदर बड़े आकार की पचास हजार पुस्तकें बेच डाली ।

श्रील प्रभुपाद ने राधा - दामोदर दल में विशेष रुचि प्रदर्शित की और अधिक बसें खरीदने के लिए बी. बी. टी. से उसे ऋण लेने की अनुमति दी । इस प्रकार नई ग्रेहाउंड बसों में यात्रा करने के लिए संकीतर्न सेना तैयार हो गई । १९७४ ई. के अंत तक राधा दामोदर दल के पास तीन बसें, वैन और अनेक सदस्य

- - हो गए। प्रभुपाद बसों को 'सचल मंदिर' कहते थे और उन्होंने राधा - दामोदर दल से अपना कार्यक्रम चलाते रहने का आग्रह किया, इस विश्वास के साथ कि भगवान् चैतन्य उनसे प्रसन्न हो रहे हैं। प्रभुपाद ने लिखा, “मुझे प्रसन्नता है कि मेरी पुस्तकों का महत्त्व आप की समझ में आ गया है। इसीलिए मैं उस पर इतना जोर दे रहा हूँ। प्रत्येक व्यक्ति के पास ये पुस्तकें होनी चाहिए । '

श्रील प्रभुपाद राधा - दामोदर दल को प्रोत्साहित करते थे कि वह अपनी बसों की संख्या बढ़ा कर सैंकड़ों में कर ले और इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु के हर गाँव और हर नगर में कृष्णभावनामृत पहुँचाने के महान् लक्ष्य को पूरा करे । जब लास ऐजिंलिस मंदिर, त्रिपुरारि के बी. बी. टी दल और राधा - दामोदर दल के बीच कड़ी दिव्य प्रतिस्पर्द्धा उठ खड़ी हुई तो प्रभुपाद प्रसन्नतापूर्वक उसे देखते रहे और उसका समर्थन करते रहे।

१९७४ ई. में एक दूसरे दल का निर्माण हुआ, जिसका नाम था बी. बी. टी. पुस्तकालय दल । इसका आरंभ हृदयानंद गोस्वामी ने अपने यात्रा - दल में से

कुछ ब्रह्मचारियों को न्यू इंगलैंड के लब्ध प्रतिष्ठ विश्वविद्यालयों में भेज कर किया । पुस्तकालय दल के लोगों ने श्रील प्रभुपाद की सभी पुस्तकों का पूरा सेट प्राचार्यों को बेचने का प्रयास किया और अपने पहले प्रयासों में ही उन्हें महान् सफलता मिली।

संजोए हुए थे । अमेरिका

श्रील प्रभुपाद अपने मन में यह विचार कब से आने के पूर्व ही वे अपने श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध की प्रतियाँ लेकर भारत के पुस्तकालयों में गए थे। नई दिल्ली में उनके प्रयासों के फलस्वरूप संयुक्त राज्य की काँग्रेस के पुस्तकालय के लिए, उनके प्रारंभिक खण्डों की प्रतियाँ खरीदी गई थीं। संयुक्त राज्य के सभी पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों के लिए उनकी पुस्तकों के खरीदे जाने की उनकी इच्छा अब एक वास्तविकता में बदल रही थी। कुछ ही महीनों के अंदर प्राचार्यों ने अनुकूल समीक्षाएं लिखनी आरंभ कर दी और कुछ ने तो प्रभुपाद की पुस्तकों को अपने यहाँ के कालेज पाठ्यक्रम में रखने का भी निर्णय किया । प्रभुपाद ने लिखा, “पुस्तकों के लिए भेजे जाने वाले आर्डरों से मुझे प्रसन्नता है । प्रयत्न कीजिए कि पुस्तकालयों से ऐसे आर्डरों की संख्या बढ़ कर पचास हजार हो जाये ।'

१९७४ ई. में एक अन्य दल का भी निर्माण हुआ, वह था नाम- हट्ट । उसका निर्माता था दो संन्यासियों के नेतृत्व में बना ब्रह्मचारियों का एक दल । नाम- हट्ट दल यात्रा करके पुस्तकें वितरित करता था और उससे प्राप्त लाभ प्रभुपाद की बम्बई, मायापुर और वृंदावन में चलने वाली परियोजनाओं में दे देता था ।

१९७४ ई. के सितम्बर में जब श्रील प्रभुपाद कई सप्ताहों तक बीमार रहे तो पुस्तक - वितरण की रिपोर्टें ही उनकी ओषधि थीं । उन्होंने पुस्तकालय दल को लिखा, "जब मैं पुस्तकों की बिक्री की रिपोर्ट प्राप्त करता हूँ तो मुझमें नई शक्ति आ जाती है। इस दुर्बल अवस्था में भी आप की रिपोर्ट से मुझे बल मिला है। और उसी बीमारी में उन्होंने रामेश्वर को लिखा,

जहाँ तक बिकने वाली पुस्तकों की संख्या का प्रश्न है, कृपया इसी तरह प्रयत्न करते रहें। मेरे जीवन की केवल यही एक सान्त्वना है। जब मैं सुनता हूँ कि मेरी पुस्तकें अच्छी तरह बिक रही हैं तो मुझमें एक युवक जैसी स्फूर्ति आ जाती है।

श्रील प्रभुपाद पुनः स्वस्थ हो गए और १९७४ ई. के अंत तक उनके बी. बी. टी. का स्वास्थ्य भी असाधारण रूप से अच्छा था। मंदिरों में क्रिस्मस की तूफानी

दौड़ शुरू हो गई थी। बी. बी. टी. ने प्रभुपाद को रिपोर्ट भेजी कि अमेरिका में साल भर में करीब तीन लाख सत्तासी हजार सजिल्द पुस्तकें बिक चुकी थीं । गत वर्ष से ६७ प्रतिशत की वृद्धि हुई थी । बैक टु गाडहेड की चालीस लाख प्रतियाँ बिकी थीं - ८९ प्रतिशत की वृद्धि हुई । अमरीकी बी. बी. टी. ने मंदिरों को सब मिला कर छियासठ लाख अड़सठ हजार पुस्तकें बेची, जिसका तात्पर्य था ६० प्रतिशत की वृद्धि ।

ऐसे समाचारों से प्रभुपाद “ एक युवक की तरह स्फूर्तिवान हो जाते थे । ' और प्रभुपाद और उनका पुस्तक वितरण - आन्दोलन १९७५ ई. की ओर इस लक्षण के साथ बढ़े कि १९७४ की आश्चर्यजनक संख्या से भी पुस्तकों की बिक्री दुगुनी या तिगुनी हो जायगी ।

श्रील प्रभुपाद

ने अपने बी. बी. टी. का निर्माण, एक स्वतंत्र संस्था के रूप में, १९७२ में किया था जिससे उनकी पुस्तकों का प्रकाशन और वितरण जारी रहे। बी. बी. टी. का उद्देश्य एकमात्र इस्कान के लाभ के लिए कार्य करना होगा, फिर भी वह एक स्वतंत्र संस्था होगी ।

ट्रस्ट के दस्तावेज में उल्लेख है कि पुस्तकों की बिक्री से होने वाली आय को इस्कान के मंदिरों के दो फण्डों में बाँटा जाय । एक का उपयोग पुस्तकों के प्रकाशन में होगा और दूसरे का इस्कान के लिए जायदाद खरीदने और मंदिरों का निर्माण करने में । प्रभुपाद का विश्वास था कि यदि इस पचास-पचास प्रतिशत सिद्धान्त का पालन किया जायगा तो कृष्ण इस्कान को सुनिश्चित रूप से सफल करेंगे। वे इस सिद्धान्त का निर्देश अपने वार्तालापों तथा पत्रों में, यहाँ तक कि श्रीमद्भागवत के तात्पर्यों में भी, निरन्तर करते रहते थे ।

श्रील प्रभुपाद ने अपने बी. बी. टी. के न्यासियों को अधिकार दिया था कि वे प्रकाशन की योजनाएँ बनाएँ और फिर उन योजनाओं को उनकी स्वीकृति के लिए उनके सामने रखें ताकि वे बी. बी. टी न्यासियों के पालन के लिए मानदण्ड और मार्ग - निर्देशन निश्चित कर दें। प्रभुपाद के परामर्श से ही उनमें कोई परिवर्तन किया जा सकता था ।

और परिवर्तनों के प्रति प्रभुपाद विशेष रूप से अनिच्छुक थे। वे पुस्तक के आकार का चयन करते थे, चित्रों का निश्चय करते थे, टाइप के आकार

के बारे में सुझाव देते थे, और जहाज से पुस्तकें भेजने और मंदिरों के पास बेचने की नीति का निर्धारण करते थे। इस तरह वे बी. बी. टी. के प्रकाशन से सम्बन्धित लगभग सभी ब्योरों की देखरेख करते थे । यहाँ तक कि यदि कुछ मंदिर अपने भुगतान नहीं भेजते थे तो प्रभुपाद ऐसे मामलों में भी दखल देने लगते थे।

यह अच्छा नहीं है कि ऐसे बड़े मंदिर भी, जो सारे समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत करते हैं, अपने बिलों का भुगतान नहीं करते। यह अत्यन्त अनियमित है । मैं प्रशासकीय कार्यों से अवकाश लेने का प्रयास कर रहा हूँ, किन्तु यदि जी. बी. सी. के अध्यक्ष और अन्य लोग ऐसी अनियमितताएँ करते हैं तो मुझे शान्ति कैसे मिलेगी ? प्रत्येक वस्तु स्वतः संचालित होनी चाहिए, तभी मुझे शान्ति मिलेगी ।

वे बहुत कठोर प्रबन्धक थे। उन्होंने कहा था, “वैदिक शास्त्र के अनुसार अग्नि, ऋण और शत्रु के प्रति कभी उदासीन नहीं होना चाहिए। जैसे भी संभव हो, उनका शमन करना चाहिए ।"

श्रील प्रभुपाद ( अन्य चीजों के साथ) पुस्तक वितरण को इस्कान की आर्थिक मजबूती का आधार मानते थे । अन्य धंधे भी सहायक हो सकते थे, किन्तु पुस्तक- बिक्री सबसे उत्तम थी क्योंकि इसमें प्रचार के साथ आय का योग था— जैसा कि उन्होंने एक मंदिर के अध्यक्ष को लिखा ।

मुझे इससे बड़ा उत्साह मिला है कि हमारी पुस्तकों का वितरण बहुत अच्छे ढंग

से हो रहा है। संसार भर में हमारा यह सर्व - प्रमुख व्यवसाय है। यदि आप इस पर पूरा ध्यान देते हैं तो धन की कमी कभी नहीं होगी ।

और एक अन्य अवसर पर,

जहाँ तक संघ के प्रमुख व्यक्तियों द्वारा व्यवसाय पर बल देने की बात है, आप को समझना चाहिए कि व्यवसाय का अर्थ क्या है । व्यवसाय का अर्थ है प्रचार करना । प्रचार करने के लिए वित्तीय सहायता चाहिए, अन्यथा व्यवसाय की कोई जरूरत नहीं रह जायगी । जहाँ तक मैं समझता हूँ हमारा पुस्तक - व्यवसाय हमारे आन्दोलन के अवलंभ के लिए पर्याप्त है।

श्रील प्रभुपाद बी. बी. टी. द्वारा मंदिरों को दिए जाने वाले ऋणों की भी देख-रेख करते थे। जिस जी. बी. सी. सचिव अथवा मंदिर के अध्यक्ष को ऋण की जरूरत होती थी, उसे श्रील प्रभुपाद के पास जाना पड़ता था । १९७३ और १९७४ में उन्होंने डलास, हवाई, सिडनी, शिकागो और वानकूअर में इमारतों,

क्रय या मंदिरों के सुधार के लिए काफी मात्रा में ऋण स्वीकृत किए। उन्होंने राधा - दामोदर दल को भी " चलते-फिरते मंदिर" या बसों की खरीददारी के लिए ऋण स्वीकार किए और एक ऋण दक्षिण अमेरिका में पुस्तकों के प्रकाशन के लिए दिया । कीर्तनानंद महाराज को न्यू वृंदावन के लिए प्रति वर्ष पचास हजार डालर का ऋण स्वतः प्राप्त होता था । किन्तु प्रभुपाद ऐसी योजनाओं के लिए ऋण की प्रार्थना अस्वीकार कर देते थे जिसे वे बी. बी. टी. के उद्देश्यों से असंगत समझते थे । ६ नवम्बर को उन्होंने रामेश्वर को लिखा,

नहीं, हम बी. बी. टी. का धन ऐसे उद्देश्यों के लिए ऋण में नहीं दे सकते जो बी. बी. टी. के अनुबंध में नहीं है। गायों, उपकरणों और आहार- गृहों के वास्ते लिए गए ऋणों को वापिस करना जरूरी है। प्रकाशन और मंदिर निर्माण के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य के लिए ऋण नहीं दिया जा सकता ।

१९७४ ई. में आरंभ करके प्रभुपाद ने बी. बी. टी. के लाभों का उपयोग भारत में वृंदावन, मायापुर और विशेष रूप में, बम्बई के मंदिरों के निर्माण में किया । रामेश्वर ने भक्तों को बी. बी. टी. के इस विशेष उद्देश्य से अवगत

कराया।

श्रील प्रभुपाद स्वयं सभी भारतीय कार्यक्रमों और खर्चों की देख-रेख कर रहे हैं । ...

यदि एक रूपए का भी दुरुपयोग होता है तो प्रभुपाद क्षुब्ध हो जाते हैं और ( कृपापूर्वक) भक्तों को डाँट पिलाते हैं- “ इस धन का उपार्जन अनेक भक्तों के पसीने से होता है, तो आप इसके बारे में सावधान क्यों नहीं रहते ?" श्रील प्रभुपाद चाहते हैं कि हमारा वृंदावन मंदिर —– श्री श्री कृष्ण-बलराम मंदिर – जन्माष्टमी तक पूरा हो जाय । प्रभुपाद श्री मायापुर का मंदिर भी पूरी तरह निर्मित देखना चाहते हैं । ... इस सम्बन्ध में एक मनोरंजक बात जो मुझे बताई गई है वह यह है कि भारत में दस पैसे में एक ईंट आती है। संयुक्त राज्य में दस पैसे का अर्थ एक पेनी है। जरा सोचिए कि हर पेनी जो आप जुटा सकते हैं भारत में एक ईंट खरीद सकती है। इन दिव्य लक्ष्यों की प्राप्ति में हर पेनी का महत्त्व है !

प्रभुपाद ने लिखा, “भारत में ये स्थान आध्यात्मिक दृष्टि से शक्तिशाली हैं। मायापुर और वृंदावन में मंदिरों की स्थापना से हम अपने आंदोलन की शुचिता को सुनिश्चित कर सकते हैं । "

१९७४ ई. के अक्तूबर में प्रभुपाद ने, जर्मनी में अपने जी. बी. सी. सचिव हंसदूत को लिखा, “जब भी किसी भाषा में कोई प्रकाशन होता है तो वह

मुझे सौ गुना जीवन्त बना देता है।” यद्यपि भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का श्रील प्रभुपाद को यही आदेश था कि वे अंग्रेजी में प्रचार और प्रकाशन करें, किन्तु प्रभुपाद ने उस आदेश का विस्तार करके उसमें सभी भाषाओं और संसार के सभी देशों को सम्मिलित कर लिया था। प्रभुपाद ने १९७२ ई. में योरोप के अपने एक प्रथम भक्त को लिखा था, “मेरी पहली चिन्ता यह है कि मेरी पुस्तकों का प्रकाशन और वितरण समस्त संसार में अधिक से अधिक हो । " प्रभुपाद सदैव अंग्रेजी में लिखते थे, किन्तु १९६८ ई. के बाद से, जब इस्कान का विस्तार अन्य देशों में होने लगा था, वे विदेशी भाषाओं में भी अपनी पुस्तकों के प्रकाशन की बात किया करते थे ।

जब १९७२ ई. में भगवद्गीता का जर्मन - संस्करण प्रकाशित हुआ तब प्रभुपाद ने हंसदूत को लिखा था, “आपने जर्मन भाषा में भगवद्गीता का प्रकाशन करके ठीक काम किया है और आपकी इस महान् सेवा की मैं सराहना करता हूँ।” १९७३ ई. तक अनेक संकीर्तन दल सारे जर्मनी में यात्रा करने लगे थे और प्रति सप्ताह भगवद्गीता की सैंकड़ों प्रतियाँ वितरित करने लगे थे। हंसदूत ने वादा किया था कि वह प्रतिमास एक पुस्तक का जर्मन भाषा में अनुवाद करेगा और जब १९७४ ई. की हेमन्त ऋतु में प्रभुपाद ने हाल में प्रकाशित छह जर्मन अनुवादों के बारे में सुना तो उन्होंने उत्तर में लिखा, "मेरे लिए वह अतीव हर्ष का समाचार है । धन्यवाद । योरोप को जर्मन पुस्तकों से आप्लावित कर दें। "

श्रील प्रभुपाद कहते थे कि जब भी वे कोई पुस्तक प्रकाशित करते हैं तो उन्हें लगता है कि उन्होंने एक साम्राज्य जीत लिया है। उनकी पुस्तकें उस आध्यात्मिक क्रान्ति का आधार थीं जो — अंततः मानव समाज को बदल देगी और उसे कलियुग के दुष्प्रभावों से बचा लेगी ।

प्रभुपाद ने अनुरोध किया, "स्पेनिश भाषा में साहित्य प्रभूत मात्रा में उत्पन्न कीजिए । जब हृदयानंद गोस्वामी दक्षिण अमेरिका में क्षेत्रीय प्रमुख नियुक्त हुए थे तो प्रभुपाद ने आदेश दिया था कि मंदिरों के निर्माण से पुस्तक-वितरण को वरीयता दी जाय । प्रभुपाद ने लिखा था, “संयुक्त राज्य में विशाल मंदिरों के निर्माण के पूर्व ही, मैं प्रकाशन करने लगा था। अतएव आपको भी पूर्व आचार्यों के पद- चिह्नों पर चलना चाहिए ।"

हृदयानंद गोस्वामी ने मैक्सिको में एक स्पेनिश बी. बी. टी. का निर्माण किया था और पुस्तक - वितरण को प्राथमिकता दी थी । १९७४ ई. के प्रारंभ में जब

स्पेनिश बी. बी. टी. ने श्रीमद्भागवत - प्रथम खण्ड, भगवद्गीता और कृष्ण, परम ईश्वर, के अनुवादों के प्रकाशन की पूरी तैयारी कर ली थी, तब प्रभुपाद ने लिखा,

अपने कृष्णभावनाभावित दर्शन की इन पुस्तकों का इतनी सारी विभिन्न भाषाओं में प्रकाशन करके हम, वास्तव में, संसार भर के सभी लोगों में, विशेष कर पाश्चात्य देशों में, अपने आन्दोलन का समावेश कर सकते हैं और हम सभी राष्ट्रों को अक्षरशः कृष्ण - चेतन राष्ट्र बना सकते हैं।

जब स्पेनिश बैक टु गाडहेड की एक लाख प्रतियाँ छपीं तो प्रभुपाद ने लिखा, "अब इन्हें हर एक को दीजिए।” स्पेनिश पुस्तकों का वितरण, अमेरिका के बाद, संसार में सबसे आगे हो गया ।

श्रील प्रभुपाद के दक्षिण योरोप में प्रतिनिधि, भगवान् ने फ्रेंच और इटालियन भाषाओं में प्रकाशन आरंभ कर दिया था और १९७२ के दिसम्बर में ही वह फ्रेंच में प्रभुपाद की पुस्तक इजी जर्नी टू अदर प्लेनेट्स को प्रकाशित कर चुका था । १९७४ ई. के आरंभ से फ्रांस में तीन दल प्रतिदिन एक हजार पुस्तकें बेचने लगे थे, जिन में एक पुस्तक फ्रेंच भगवद्गीता - यथारूप भी थी। भगवान् बैक टु गाडहेड का इटालियन संस्करण पहले ही निकाल चुका था और फ्रेंच में श्री ईशोपनिषद् छप रहा था ।

भक्तगण जहाँ भी जाते, वे अपना कार्यक्रम जानते थे; वह था हरे कृष्ण कीतर्न करना, वैध भक्ति के सिद्धान्तों का पालन करना और श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों के प्रकाशन और वितरण की व्यवस्था करना । जब भक्तों का पहला दल दक्षिण अफ्रीका पहुँचा तो उसने प्रभुपाद की इच्छा का अनुगमन किया और प्रभुपाद ने उत्तर में उसे लिखा था, “तुम्हारी यह रिपोर्ट बड़ी उत्साहवर्धक रही कि तुम लोगों ने केपटाउन में दो दिन में गीता की एक सौ दस प्रतियाँ बेची।"

श्रील प्रभुपाद प्रायः सोचा करते थे कि उनकी पुस्तकों का प्रकाशन रूसी भाषा में हो और उन्होंने रूस के शिक्षा तथा संस्कृति विभाग के मंत्री को लिखा और सुझाव दिया कि वे "प्राचीन वैदिक साहित्य अर्थात् भगवद्गीता का अनुवाद अपने यहाँ प्रकाशित करें, जिसे लंदन की सुप्रसिद्ध प्रकाशन संस्था, एम. एस. एस. मेकमिलन कम्पनी, पहले ही छाप चुकी है।” उन्होंने अपने शिष्यों से भी अमेरिका में रूसी अनुवाद प्रकाशित करने के बारे में बात की ।

प्रभुपाद की भेंट जब भी किसी ऐसे व्यक्ति से होती जो विदेशी भाषा में

रुचि और योग्यता रखता हो, वे उससे अपनी पुस्तक का अनुवाद करने की प्रार्थना करते । १९७२ ई. में उन्होंने लिखा था,

यह जान कर मेरा भी उत्साह बहुत बढ़ गया है कि मेरी कुछ पुस्तकों का जापानी अनुवाद शीघ्र प्रकाशित होने वाला है, क्योंकि पुस्तकों और पत्रिकाओं के बिना हमारे पास प्रचार के लिए क्या अधिकार या क्या आधार रह जाता है ?

इसी तरह प्रभुपाद ने इन्डोनेशिया में अपने एक अमेरिकन भक्त को लिखा,

मुझे यह जान कर विशेष प्रसन्नता हुई है कि तुम्हारे पास एक चीनी लड़का है जो कुछ अनुवाद - कार्य कर रहा है। हाँ, संसार में चीनी भाषा बोलने वालों की संख्या बहुत बड़ी है और उसमें धीरे-धीरे प्रवेश पाने की जरूरत है, विशेष कर चीनी भाषाओं में हमारे साहित्य के विस्तृत वितरण से । इसलिए कृष्ण के प्रति उसकी सेवा सबसे बड़ी है ।

बाद में जब प्रभुपाद ने सुना कि उस चीनी लड़के, यशोमति - सूत, ने भगवद्गीता के तीन अध्यायों का चीनी अनुवाद पूरा कर लिया है तो उन्होंने लिखा कि उन तीन अध्यायों को एक छोटी पुस्तक के रूप में तुरन्त छाप दिया जाय ।

पुस्तक-वितरण प्रतियोगिता में इस्कान आस्ट्रेलिया ने बड़ा नाम कमाया और १९७४ ई. तक विश्व - नेतृत्व में वह लास ऐंजिलिस इस्कान तथा राधा - दामोदर दल को पीछे छोड़ जाने के प्रयत्न में था । १९७४ ई. की हेमंत ऋतु तक आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के लगभग बीस शीर्ष वितरकों में से हर एक प्रतिदिन बीस से अधिक बड़ी सजिल्द पुस्तकें बेचने लगा था । १९७३ ई. और १९७४ ई. के बीच, अमेरिका की भाँति आस्ट्रेलिया के केन्द्रों में भी पुस्तक - वितरण दुगुना हो गया ।

जब १९७० ई. में अमेरिका में पुस्तक-वितरण आरंभ हो ही रहा था, इंगलैंड में पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं । किन्तु एक वर्ष के अंदर वहाँ कृष्ण पुस्तक का वितरण आरंभ हो गया था और श्रील प्रभुपाद ने लिखा था, "लंदन केन्द्र के मेरे सभी शिष्य बड़े तीक्ष्ण बुद्धि हैं, और उन्हें केवल इस एक कार्य को लेकर एकजुट हो जाना चाहिए कि सारे ब्रिटेन में कृष्ण पुस्तक की बिक्री हो ।' १९७४ ई. तक भक्तगण बड़ी बहादुरी के साथ पुस्तकों के वितरण में लग गए थे। छह दिन की एक व्यस्त अवधि में उन्होंने टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य की छह सौ, श्रीमद्भागवत की चार सौ और बैक टु गाडहेड पत्रिका की एक हजार प्रतियाँ बेची।

भारत की स्थिति विशेष थी । वहाँ प्रभुपाद ने पुस्तक - वितरण का कार्यक्रम इस्कान के आजीवन सदस्यों के माध्यम से आरंभ किया। धनाढ्य भारतीयों का रुझान पुस्तकों को इस्कान की सदस्यता के एक अंश के रूप में स्वीकार करने का था, क्योंकि उससे उन्हें संसार भर में इस्कान के मंदिरों में निःशुल्क आवास का लाभ मिल जाता था । किन्तु, अन्य स्थानों की भाँति, भारत में भी श्रील प्रभुपाद चाहते थे कि उनकी पुस्तकों का वितरण कालेजों, पुस्तकालयों, प्रमुख नागरिकों और जनसामान्य के बीच हो ।

१९७४ ई. के अंत तक प्रभुपाद के शिष्य बैक टु गाडहेड का हिन्दी और बंगाली संस्करण छापने को तैयार हो गए। जब प्रभुपाद ने सुना कि भारत में उनके पाश्चात्य शिष्यों को शिकायत है कि उनके पास पर्याप्त कार्य नहीं है तो उन्होंने उत्तर दिया, “मुझे प्रसन्नता है कि आप मेरी कृष्ण पुस्तक की अच्छी बिक्री प्रतिदिन कर रहे हैं। हमारे सभी लोगों को पुस्तकें लेकर बाहर जाना चाहिए। इससे पर्याप्त कार्य रहेगा।” उन्होंने भारत में अपने जी. बी. सी. सचिव को लिखा, "उन सभी को विशेष रूप से पुस्तक वितरण में लगाएँ, और अपने साथ कुछ संकीर्तन दल ले जाइए । '

प्रभुपाद ने दिल्ली में अपने मंदिर के अध्यक्ष, तेजास, को लिखा था, "भारत में पुस्तकों के बिना हम कोई प्रगति नहीं कर सकेंगे।” प्रभुपाद ने भारत में अपने प्रमुख व्यक्तियों को "पचास-पचास" के कठोर सिद्धान्त में भी प्रशिक्षित किया था । " आजीवन सदस्यता या अन्य साधनों की आमदनी का पचास प्रतिशत बी. बी. टी. को जाना है और पचास प्रतिशत निर्माण और अन्य परियोजनाओं में लगना है ।" प्रभुपाद के आदेश पर अमेरिकन बी. बी. टी. की ओर से भारत को पुस्तकों का अनुदान दिया जा रहा था और १९७४ ई. तक वह तीन लाख डालर के मूल्य का साहित्य दे चुका था । यद्यपि पुस्तक प्रकाशन और वितरण में अमेरिका सबसे आगे था, किन्तु प्रभुपाद को पूर्वानुमान था कि उनकी पुस्तकों का प्रकाशन और वितरण समस्त विश्व में होगा — और अन्ततः वह अमेरिका से बढ़ जायगा ।

श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्यों के बीच दिव्य प्रतियोगिता उत्पन्न कर दी थी । १९७१ ई. में उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक देखा था कि कृष्ण पुस्तक के वितरण में केशव सैन फ्रान्सिस्को में संघ का नेतृत्व कर रहा था। प्रभुपाद ने वादा किया था कि यदि केशव अपने बन्धु करन्धर से पुस्तक - वितरण में आगे निकल जाता है तो वे लास ऐंजिलिस छोड़ कर सैन फ्रान्सिस्को में रहने लगेंगे। विगत वर्षों

में वे इस तरह की प्रतिद्वन्द्विता को उकसा कर पुस्तक वितरण की अग्नि को भड़काते रहे थे। वे पुस्तक - वितरण के प्रमुख व्यक्तियों से रिपोर्ट माँगते और फिर पत्र लिख कर पुस्तक - वितरण के ज्वर को और बढ़ा देते ।

समस्त इस्कान प्रभुपाद से ताजा आंकड़े जानने की प्रतीक्षा करता जिससे पुस्तक - वितरकों को आगे, और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती रहती । जब जनवरी १९७४ में श्रील प्रभुपाद ने व्याख्यान दिया था “ पुस्तक वितरण कीजिए, पुस्तक वितरण कीजिए, पुस्तक वितरण कीजिए" तो श्रोताओं में से अनेक भक्तों ने उनके आदेश के पालन को उसी क्षण अपना जीवन अर्पित कर दिया था । और जब लास ऐंजिलिस के अपने कमरे से प्रभुपाद ने अपने हाथ से लिख भेजा था " प्रत्येक को जितनी जल्दी हो सके संकीर्तन दल के साथ जाना चाहिए " तो उस एक अकेली पंक्ति ने अनेक शिष्यों के हृदयों में बलिदान और समर्पण की भावना पैदा कर दी थी और उन्होंने उस आदेश को अपने प्राण और आत्मा के रूप में ग्रहण किया था ।

यद्यपि रामेश्वर आरंभ से ही संकीर्तन - सागर की लहरों में फंस चुका था, किन्तु रामेश्वर की सेवा का निर्धारण श्रील प्रभुपाद के इस पत्र

से हुआ,

समस्त विश्व में हमारी पुस्तकों के वितरण का कार्यक्रम बनाओ। हमारी पुस्तकों की सराहना विद्वत्-समाज में हो रही है, इसलिए हमें इसका लाभ उठाना चाहिए । हमने जो भी प्रगति की है वह इसी पुस्तक - वितरण के कारण है। इसलिए आगे बढ़ते रहो और अपना मन इससे एक क्षण के लिए भी विरत मत होने दो।

जब लंदन के भक्तों ने श्रील प्रभुपाद को पुस्तकों और पत्रिका की बिक्री में बढ़ोत्तरी की रिपोर्ट दी तो उन्होंने आपसी प्रतिद्वन्द्विता के लिए उनका आह्वान किया ।

मैंने सुना है कि सैन फ्रान्सिस्को में वे प्रतिदिन ७५ कृष्ण पुस्तकों से कम नहीं बेच रहे हैं। यह सुन कर मैं बहुत प्रोत्साहित हुआ हूँ। इसलिए अब तुम लोग भी इस दिव्य प्रतिद्वन्द्विता की भावना से काम करो और दयानंद तथा इंगलैंड के अन्य लोगों से परामर्श करके प्रथम श्रेणी के पुस्तक - विक्रेता बनो ।

स्काटलैंड में लोग शायद पूरी तरह नहीं जानते थे कि संयुक्त राज्य में पुस्तक वितरण का कार्य किस बड़े पैमाने पर चल रहा है; वहाँ प्रचार करने वाले एक संन्यासी शिष्य को लिखते हुए प्रभुपाद ने न्यू यार्क में बिक्री के सब से ताजे आंकड़े दिए और टिप्पणी की, “न्यू यार्क सबसे आगे है । "

श्रील प्रभुपाद पूरे संघ को भी प्रोत्साहित करते कि वह अपने गत वर्ष की उपलब्धियों से प्रतिद्वन्द्विता करे । “किसी तरह, जहाँ तक संभव हो, पुस्तक - वितरण पहले से दो गुना या तीन गुना किया जाय। इसे कीजिए । ” ज्योंही बी. बी. टी. पुस्तकालय दल का निर्माण हुआ, प्रभुपाद ने उसके सदस्यों से पचास हजार आर्डर लेने को कहा। और उन्होंने राधा दामोदर दल को बसों की संख्या बढ़ा कर एक सौ करने को कहा। लास ऐंजिलिस, राधा - दामोदर दल और आस्ट्रेलिया के बीच प्रतिद्वन्द्विता विशेष रूप से बहुत करारी थी और प्रभुपाद उन सबों को प्रोत्साहित करते थे, जैसे एक संगीताचार्य अपने आर्केस्ट्रा के सभी वादकों को उकसाता रहता है।

श्रील प्रभुपाद कभी बिना सोचे-समझे, डींग - भरा आदेश नहीं देते थे। उन्हें अपने प्रत्यक्षतः अप्राप्य प्रतीत होने वाले लक्ष्यों और उन्हें प्राप्त करने के लिए अपेक्षित दृढ़ संकल्प और त्याग का भलीभाँति ज्ञान था और वे चाहते थे कि उनके भक्त उसी पूर्ण समर्पण के साथ कार्य करें जैसा कि वे स्वयं करते थे । वे चाहते थे कि शिष्य अपनी पूरी शक्ति लगा दें। उनका तर्क

गैंडे पर निशाना" लगाने जैसा था । यदि गैंडे पर निशाना लगाने का किसी का प्रयत्न निष्फल जाता है तो कोई उसकी आलोचना नहीं करेगा। किन्तु यदि वह सफल हो जाता है तो वह एक चमत्कार होगा। प्रभुपाद ने रूपानुग को लिखा ।

आपकी संकीर्तन - रिपोर्ट बहुत उत्साहवर्धक है, विशेष कर उस एक लड़की गौरी दासी की, कि उसने १०८ बड़ी पुस्तकें बेच कर इस्कान में महिलाओं का रेकार्ड कायम किया है। यह बहुत चमत्कारपूर्ण है। इसके पूर्व इसे असंभव माना जाता, लेकिन कृष्ण की कृपा से अब हर चीज संभव हो रही है। सभी को प्रोत्साहित कीजिए कि अधिकाधिक बिक्री करें।

कुछ भक्त अपने गुरुभाइयों और गुरु बहिनों के प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता के जोर के नारे से घबरा गए। यह तो भौतिक संसार की प्रतिद्वन्द्विता जैसी मालूम हुई, जिसे उन्होंने हमेशा के लिए पीछे छोड़ देने की आशा की थी । किन्तु प्रभुपाद ने दिव्य प्रतियोगिता के प्रति उचित दृष्टिकोण की व्याख्या की ।

जीवित प्राणियों में प्रतियोगिता और लाभ की प्रवृत्ति बराबर रहती है। ऐसा नहीं है कि किसी कृत्रिम साधन से इन्हें दूर किया जाय। वस्तुतः हमने रूस में देखा कि समाज से प्रतियोगिता और लाभ कमाने के विचार हटा देने से वहाँ के लोग प्रसन्न नहीं थे और ये चीजें अब भी चल रही हैं । अतः हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम उनसे कोई भिन्न हैं। अंतर केवल यह है कि हम लाभ कृष्ण की प्रसन्नता के

में

लिए कमाते हैं और हमारी प्रतियोगिता अन्य किसी की अपेक्षा कृष्ण को प्रसन्न करने की है । गोपियों तक में कृष्ण को प्रसन्न करने की प्रतियोगिता है और उनमें आपसी द्वेष भी है। किन्तु यह द्वेष भौतिक नहीं, वरन् दिव्य है। वे सोचती हैं, अहा, उसने मुझ से बढ़कर चमत्कार किया है; यह कितना अच्छा है। अब मुझे उससे भी बड़ा चमत्कार करके दिखाना चाहिए । इसी तरह की सोच चलती रहती है । अत: मैं प्रसन्न हूँ कि हमारी पुस्तकों को प्रकाशित करके सारे संसार में कृष्णभावनामृत-आंदोलन फैलाने के लिए तुम अपने गुरुभाइयों से प्रतियोगिता की इच्छा रखते हो ।

जब एक मंदिर की कोई चलती फिरती संकीर्तन पार्टी किसी अन्य नगर पुस्तक - वितरण का कार्य तन्मयता से करती थी तो स्थानीय मंदिर के अधिकारी प्रायः घबरा जाते थे। यह समस्या श्रील प्रभुपाद के सामने आती थी और अनिवार्यतः उनसे प्रार्थना की जाती थी कि वे स्थिति को भांप कर प्रतिद्वन्द्विता की अनि का शमन करें। प्रभुपाद ने केशव और भूतात्मा को लिखा, जो सैन फ्रान्सिस्को से चल कर लंदन पहुँचे थे और पुस्तक - वितरण में प्रदर्शित उत्साह से स्थानीय भक्तों में विक्षोभ का कारण बने थे ।

अन्ततः, यह स्थानीय मंदिर के अध्यक्ष पर निर्भर करेगा कि आपका दल उनके लिए अनुकूल है या नहीं। हर बात पर विचार करके, यदि वे सहमत हों, तो आप रुक सकते हैं। यदि वे समझते हैं कि सम्प्रति आपका रुकना उनके प्रतिकूल है तो वे आपको अपने यहाँ से जाने का आदेश दे सकते हैं । किन्तु ऐसी स्थिति से बचने के लिए अच्छा होगा कि जी. बी. सी. के लोगों से पहले ही बात कर ली जाय । हमारा आंदोलन सहकारी है जिसके केन्द्र में कृष्ण और कृष्ण आन्दोलन की समृद्धि है; और हमें प्रयत्न करना चाहिए कि हम अधिकाधिक पुस्तकें बेचें । परन्तु, आपस में हर चीज के बारे में परामर्श करके चलें, और किसी को चिढ़ाए बिना, हर चीज बढ़िया ढंग से करें । यही कला है।

शीर्ष पुस्तक - वितरकों के शक्तिशाली प्रयासों को देख कर, कुछ भक्त ईर्ष्यालु, या कम-से-कम हतोत्साह हो गए और सोचने लगे कि वे बेकार हैं और श्रील प्रभुपाद को प्रसन्न करने में असमर्थ हैं। यह समस्या प्रभुपाद के सामने भी आई और उन्होंने उत्तर दिया, “प्रतियोगिता तो हमेशा होनी चाहिए, इससे जीवन्तता बनी रहती है। प्रतियोगिता को जीवन से अलग नहीं किया जा सकता । . कोई पूर्ण समाज प्रतियोगिता समाप्त नहीं कर सकता, किन्तु वह ईर्ष्या को समाप्त कर देता है, क्योंकि कृष्ण के समक्ष प्रत्येक व्यक्ति निर्बल है।” किन्तु प्रतियोगिता की भी एक सीमा है, जैसा कि प्रभुपाद ने फ्लोरिडा में एक शंकालु ब्रह्मचारी को समझाया ।

जो पुस्तकें हम वितरित करते हैं उनकी संख्या उतना महत्त्व नहीं रखती; महत्त्व इस बात का है कि हम अपनी शक्ति-भर कृष्ण की सेवा करें और फल के लिए उन पर निर्भर रहें। लेकिन इसे उस बिन्दु तक नहीं ले जाना चाहिए कि हम कृष्णभावना खो बैठें। जब आप में ऐसी भावनाएँ हों तो भूल से उन्हें ईर्ष्या न समझें, वरन् उसे अपने अन्य गुरुभाइयों द्वारा की गई सेवा की अप्रत्यक्ष सराहना मानें। यही आध्यात्मिकता है । भौतिक संसार में जब कोई हमसे किसी बात में आगे बढ़ जाता है तो हम क्रोधित हो जाते हैं और उसे अवरुद्ध करने की कोशिश करते हैं, किन्तु आध्यात्मिक जगत में यदि कोई हम से बढ़ कर सेवा करता है तो हम सोचते हैं, “अहा, उसने कितना अच्छा किया है, हमें उसके सेवा कार्य में मदद करनी चाहिए।'

हो सकता है कि प्रतियोगिता उत्प्रेरक रही हो, किन्तु तत्परतापूर्वक श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों के वितरण में लगे रह कर, कृष्णभावनामृत आन्दोलन के सदस्य वियोग में कृष्ण-भक्ति का आनंद अनुभव कर रहे थे जोकि आध्यात्मिक आनंद का सर्वोच्च रूप है। श्रील प्रभुपाद के गुरु महाराज प्राय: कहते थे “भगवान् को देखने का प्रयत्न मत करो, वरन् ऐसा आचरण करो कि भगवान् तुम्हें देखें । " दूसरे शब्दों में, कृष्ण के सेवक के सेवक के सेवक के आदेश का विनम्रतापूर्वक पालन करने से प्रभुपाद के शिष्य निश्चित रूप से कृष्ण का प्रेमपूर्ण ध्यान आकृष्ट करेंगे।

श्रील प्रभुपाद ने कहा कि कृष्ण का ध्यान आकृष्ट करने का सबसे सरल उपाय किसी अन्य व्यक्ति को कृष्णभावनाभावित करना था । इसलिए पुस्तक-वितरकों को उनके गुरु महाराज से विशेष प्रकार की पारस्परिकता की अनुभूति होती थी और इससे प्रेरित होकर वे निरन्तर सेवा और वितरण में लगे रहते थे ।

संजय : दार्शनिक दृष्टि से हमने देखा कि बाहर जाना और पुस्तकें बाँटना एक ऐसा काम था जो हमारे गुरु महाराज चाहते थे कि हम करें। हम इसे जानते थे। वह हमारे लिए स्पष्ट था । हमें आदर्श का भी सही ज्ञान था कि ये पुस्तकें और पत्रिकाएँ संसार को बदल देंगी । कृष्ण- चेतना प्राप्त कर लेने पर आप देखते हैं कि सचमुच संसार कितना विखण्डित है, यहाँ की वस्तुएँ कितनी प्रदूषित हैं, यहाँ के लोग कितने ईर्ष्यालु हैं और भौतिक जीवन कितना भयावह है। आप यह सब कुछ देख सकते हैं। आप यह अनुभव नहीं करते कि आप स्वयं इसे बदल सकते हैं, किन्तु आप अनुभव करते हैं कि जो कोई प्रभुपाद

की पुस्तकों में से एक भी प्राप्त कर लेता है और उसका अवलोकन करता है, वह आध्यात्मिक ढंग से बदल जायगा । इसमें कोई संदेह नहीं । हमने यह भी अनुभव किया कि भविष्य में ज्यों-ज्यों कृष्णभावनामृत का प्रसार होगा, संसार में महान् परिवर्तन घटित होगा । प्रभुपाद भी कहते थे कि यदि लोग इन पुस्तकों में से किसी एक का स्पर्श भी करें तो उनका जीवन बदल जायगा । हमारा विश्वास प्रभुपाद की पुस्तकों में था और श्रील प्रभुपाद में था ।

केशव भारती : जब आप कोई पुस्तक किसी को देते हैं, तो प्रभुपाद से एक प्रकार की पारस्परिकता की अनुभूति होती है। जब कोई व्यक्ति एक पुस्तक लेता था और उसकी तुलना किसी अगरबत्ती या अन्य किसी वस्तु के लेने से करता था तो हमारी आंतरिक अनुभूति में नाटकीय अंतर आ जाता था। हम इन पुस्तकों को वितरित करते हुए पूरे दिन भर प्रभुपाद के संसर्ग का अनुभव करते थे। कुछ भक्तों के भौतिक रूप से प्रभुपाद के निकट होने से ऐसा नहीं था कि हम अपने को उपेक्षित अनुभव करते हों । पुस्तक-वितरकों को सदैव सशक्त जीवन-स्फूर्ति मिलती रहती थी। हमने हरिदास ठाकुर के बारे में पढ़ा था जो बाहर जाकर, धरती पर लोट कर, लोगों से कीर्तन करने की याचना करते थे। ऐसी चीजें हम लोगों को उत्प्रेरित करती रहती थीं ।

वैशेषिक : हमारे पास प्रभुपाद की पुस्तकें थीं और उनके बहुत सारे पत्र थे । हम यह भी जानते थे कि यदि हम उनकी बहुत-सी पुस्तकें वितरित करेंगे तो हमारे नाम समाचार - पत्र में छपेंगे और हम सोचा करते कि प्रभुपाद उन्हें किस तरह पढ़ेंगे। मैं औरों के साथ मुकाबले में चलने की कोशिश कर रहा था। कभी-कभी दो घंटे बीत जाते थे और किसी को कोई पुस्तक मैं दे नहीं पाता था। अन्य लोग पागलों की भाँति पुस्तकें बेच रहे थे। मैं कोशिश करता तो लोग मेरे मुँह पर थूकने के सिवाय सब कुछ करते। वे मुझे धक्का दे देते। मेरे लिए यह बहुत असह्य बात थी। कभी-कभी मैं चल देता और रोने लगता था। बड़ा कठिन समय था । किन्तु मैं जानता था कि पुस्तक-वितरण से प्रभुपाद को प्रसन्नता होती थी और मैं उसमें सहभागी बनना चाहता था ।

हम सोचा करते कि किस तरह प्रभुपाद एक डिकटेशन लेने वाली मशीन के पीछे बैठे इन पुस्तकों के लिखने में इतना समय दे रहे हैं। हम इस बात पर चिन्तन करते कि किस तरह वे केवल कुछ घंटे सोते हैं और हर अन्य काम को कम-से-कम समय देकर इन पुस्तकों को लिख रहे हैं। इसलिए हम

लोग भी अपनी अन्य गतिविधियों को कम करके पुस्तकों के वितरण के लिए बाहर जाते थे। प्रभुपाद कहते थे कि एक भक्त की मनोवृत्ति छह गोस्वामियों जैसी होनी चाहिए। इसलिए हम प्रतिदिन उनकी प्रार्थनाएं गाया करते थे। हम को उनसे वास्तविक सम्बन्ध की अनुभूति होती थी। आरंभ में ही एक भक्त ने मुझसे कहा था, “प्रभुपाद कहाँ हैं, जानते हो ?” और तब उसने बताया, " वे अपनी पुस्तकों में हैं ।” हमारी यही मनोवृत्ति सदैव रहती थी । हम सदैव उस सम्बन्ध की अनुभूति करते थे ।

जगद्धात्रीदेवी दासी : जब मैं प्रभुपाद की पुस्तकें वितरित कर रही थी तो मैं जानती थी कि मैं उनके लिए सबसे प्रसन्नताकारी कार्य कर रही थी। मैं उनके गुरु महाराज के आदेशों के पालन में सहायता कर रही थी, इसलिए वे प्रसन्न थे और वे और अधिक प्रसन्न होते थे, यदि मैं इसे बढ़िया ढंग से करती थी। मैं हर समय भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की कहानी सुना करती थी कि वे किस प्रकार प्रसन्न होते थे यदि कोई बाहर जाकर उनकी एक पत्रिका भी बाँट आता था, क्योंकि महत्त्व वास्तव में संकीर्तन की मनोवृत्ति का था और बाहर जाकर बद्ध आत्माओं को कृष्ण की कृपा पहुँचाने का प्रयत्न करने का था। मैं सदा कल्याण-कार्यों में लगी रहना चाहती थी। मुझे यह भाव पसंद था कि मैं लोगों के लिए कुछ कर रही हूँ। लोगों की सहायता करना जीवन का सर्वश्रेष्ठ कार्य है। आप परमात्मा तक पहुँचने में उनकी सहायता कर रहे हैं। मेरे लिए यही प्रेरक शक्ति थी । और दूसरे जीवित प्राणियों को कृष्ण के पास पहुँचाने से हम अपने आप शुद्ध हो जाते हैं ।

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त्रिपुरारि : मैं अधिकतर प्रभुपाद की महानता से अनुप्रेरित होता था कि वे अपने

गुरु महाराज का अनुसरण कितने एकाग्र भाव से कर रहे हैं। यह उनके गुरु महाराज का आदेश था, इसलिए वे ऐसा कर रहे हैं। मैं बहुत विद्वान् या तीक्ष्ण बुद्धि वाला कभी नहीं रहा। मैने कभी नहीं सोचा कि मेरे पास बहुत अधिक बुद्धि या प्रतिभा है। मुझे किसी प्रकार के हुनर में कभी कोई व्यावहारिक प्रशिक्षण नहीं मिला और मेरी शिक्षा भी अधिक नहीं हुई। मैने इसे इसी तरह लिया कि मैं पतितों से भी पतित से बात कर रहा हूँ और मैं स्वयं भी पतितों से भी पतित हूँ। मैं वही कर रहा था जो प्रभुपाद चाहते थे, और वह भी इसलिए क्योंकि वे ऐसा चाहते थे। मैं प्रभुपाद से प्रार्थना करता था कि वे मेरी यह जानने में सहायता करें कि वे पुस्तक-वितरण क्यों चाहते थे। तब मेरे अंदर प्रेरणा जागरित होती और पुस्तक वितरण के बारे में

होने वाली हर बात में वह बाहर आ जाती।

उस समय मेरे आध्यात्मिक जीवन पर गहरा प्रभाव होता जब अन्य सभी भक्त प्रभुपाद के साथ मंदिर लौट जाते और मैं अकेला हवाई अड्डे में रह जाता। मैं प्रभुपाद से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित था। किन्तु उनके साथ मेरा सबसे घनिष्ठ संसर्ग उनके आदेशों के पालन और कार्य तथा सेवा करने के माध्यम से था, न कि गुरु महाराज के निकट रह कर उसका आनन्द लेने से ।

वृन्दावन - विलासिनी देवी दासी : जब प्रभुपाद ने लास ऐंजीलिस में अपना सुप्रसिद्ध व्याख्यान दिया “ पुस्तक - वितरण कीजिए, पुस्तक वितरण कीजिए, पुस्तक वितरण कीजिए", मैं उसी क्षण से इस कार्य को आरंभ कर देना चाहती थी । वे रामेश्वर को जब भी लिखते, तो वास्तव में यह “ रामेश्वर एंड कम्पनी" के लिए होता। हम सभी अपने को उसमें सम्मिलित समझते। हम शाश्वत पुस्तक-वितरक हैं— एक दल के रूप में। और मैं उसका एक भाग बनना चाहती थी। यह महाप्रभु चैतन्य का शाश्वत कीर्तन दल था और हम सभी उसका अंग बनना चाहते थे। यह हर लोक में चल रहा है, हर ब्रह्मांड में चल रहा है। मैं जानती हूँ कि श्रील प्रभुपाद के लिए यह आह्लादकारी है।

मैं

पुस्तक - वितरण में उसी तरह सम्मिलित होना चाहती थी जैसे कि वह कुरुक्षेत्र का युद्ध हो । यह युद्ध है, किन्तु कृष्ण ठीक वहीं हैं । यह दूसरे नम्बर का कुरुक्षेत्र है । मुझे विश्वास है कि सभी पुस्तक - विक्रेता इसी तरह अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है कि कृष्ण ठीक वहाँ हैं और उनकी विजय होने जा रही है। आपको केवल उनकी शरण लेनी है। आप इस लड़ाई में भले ही न जीतें, किन्तु पूरे युद्ध में विजय आपकी होगी । इसलिए मैं प्रभुपाद से अपने को निरन्तर सम्बन्धित पाती हूँ क्योंकि वे अपनी पुस्तकों में उन महान् भक्तों के बारे में बताते हैं जिनकी शरण में हम जा सकते हैं। यह केवल उनकी कृपा के कारण है। वे हमें ये पुस्तकें दे रहे हैं और वे इन पुस्तकों में हैं।

सूर : हमें प्रभुपाद की पुस्तकें बेचने का इतना नशा था कि हम कोई अन्य कार्य नहीं करना चाहते थे । हम सीधे हवाई अड्डे जाते थे और पुस्तकों का वितरण आरंभ कर देते थे। हम रुकते नहीं थे, सिवाय बीस मिनट दोपहर के खाने के लिए या बीस मिनट कुछ पढ़ने के लिए; अन्यथा हम रात के साढ़े सात या आठ बजे तक, बिना रुके, पुस्तकें बेचते रहते थे। हमें वास्तव ऐसा लगता कि प्रभुपाद हमारी रक्षा कर रहे हैं।

में

एक बार हवाई अड्डे पर मुझे एक बी. बी. टी. समाचार-पत्र दिया गया ।

थकान के कारण या किसी झूठी भावुकता के आवेश में, मैं पुस्तक-वितरण के सम्बन्ध में प्रभुपाद की टिप्पणियाँ पढ़ने लगा और मैं अत्यन्त द्रवित हो गया। हवाई अड्डे पर मैं अकेला था और मैं रोने लगा, यह सोच कर कि संसार भर में भक्त कितने अच्छे हैं, कितने दयालु हैं और कितने परिश्रमी हैं कि दिन-रात पुस्तक-वितरण में लगे रहते हैं । प्रभुपाद और कृष्णभावनामृत आंदोलन की सराहना से मेरा मन भर गया। समाचार-पत्र में प्रभुपाद ने पुस्तक-वितरण के सम्बन्ध में कुछ कहा था और उसने मेरा मर्म - स्पर्श कर लिया । पुस्तकों में हम इतने लीन थे कि प्रभुपाद जब भी उनके वितरण के बारे में कुछ कहते, हम पागल जैसे हो जाते। इसके मूल में प्रभुपाद से हमारा सम्बन्ध था। हम इतने बड़े लोग नहीं थे कि हम किसी मीटिंग में प्रभुपाद के साथ बैठ सकते और उनका निजी ध्यान आकृष्ट करते । मायापुर उत्सव के दौरान प्रात: कालीन भ्रमण में कभी-कभी हम संन्यासियों के बीच घुस कर उनके निकट पहुँच जाते, किन्तु उनसे हमारा अधिकांश सम्बन्ध पुस्तक-वितरण के माध्यम से था। वे जब भी पुस्तक-वितरण के लिए कुछ कहते, तो वही हमारे लिए सब कुछ

बन जाता था ।

लवंग लतिका - देवी दासी : श्रील प्रभुपाद को बोलते हुए सुनने से, और यह जान लेने से कि वे सदा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथों से पढ़ कर बोलते हैं, तथा उनके इस उपदेश से कि हमें ज्ञान का वितरण लोगों के बीच करना है, हमारा कार्य बहुत सरल हो गया था । अर्थात् इन सब से हम जान गए थे कि प्रभुपाद की इच्छा क्या है। वे हमसे नित्य कहते रहते कि वे हमें जो ज्ञान दे रहे हैं उसका प्रसारण औरों तक करना है। श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों के साथ अमेरिका में प्रचार के लिए आए थे। हमें भी वही करना है, क्योंकि यही प्रभुपाद की इच्छा है। उन्होंने इन पुस्तकों के अनुवाद में कितना समय लगाया ताकि उनका वितरण हो सके। हमें इन पुस्तकों को औरों को देना है और लोगों से कहना है कि वे इन्हें अपने घरों में रखें।

वृन्दावन, इंडिया,

अप्रैल २०, १९७५,

की

श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण-बलराम मंदिर के भव्य उद्घाटन के लिए अर्चाविग्रहों स्थापना की। लगभग एक हजार शिष्य उपस्थित थे और उत्तर- प्रदेश के

राज्यपाल मुख्य अतिथि थे। वर्षों के कड़े परिश्रम के बाद मंदिर का उद्घाटन, श्रील प्रभुपाद और उनके आन्दोलन के लिए एक प्रकार की चरम विजय था । कृष्ण-बलराम को सर्वप्रथम आरती करने के बाद, वेदी पर खड़े हुए प्रभुपाद ने जन-समूह को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि यह अन्तर्राष्ट्रीय मंदिर है जहाँ गौर-निताइ, कृष्ण-बलराम और राधाकृष्ण की आराधना करने और शरण पाने के लिए समस्त संसार से लोग आ सकते हैं।

बाद में, उस दिन शाम को प्रभुपाद जी. बी. सी के कुछ लोगों के साथ अपने कमरे में बैठे थे। गरमी के कारण उनके कुर्ते के बटन खुले थे, उनकी टाँगें और नंगे पैर नीची मेज के नीचे फैले थे, उनके लोग डेस्क पर जलते दीपक के मंद प्रकाश में उनके निकट बैठे थे, प्रभुपाद आराम की मुद्रा में थे। उन्होंने कहा कि यह मील का पत्थर था, किन्तु उन लोगों को अब भी आगे बढ़ना था, अपनी सफलता का स्वाद चखते हुए बैठे नहीं रहना था । मंदिर और अतिथि गृह को चलाने के लिए अब भी कई कार्य करने थे ।

"इस

श्रील प्रभुपाद वृंदावन के परे की बात सोच रहे थे। उन्होंने कहा, मंदिर का निर्माण इतना महत्त्वपूर्ण है कि ऐसे मंदिर की स्थापना के लिए मैं कई लाख रुपए खर्च कर सकता हूँ। मंदिर के इतना महत्त्वपूर्ण होने पर भी, पुस्तकों का उत्पादन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है ।" मंदिर के वैभवपूर्ण उद्घाटन के मध्य भी, श्रील प्रभुपाद का यह कहना, पुस्तक - उत्पादन की प्राथमिकता का महत्त्वपूर्ण पुनः पुष्टीकरण था । प्रभुपाद कह रहे थे कि पुस्तक उत्पादन अधिक

आवश्यक था ।

किन्तु श्रील प्रभुपाद अप्रसन्न लग रहे थे, क्योंकि उनके संस्कृत- संपादक के कारण उनके चैतन्य चरितामृत में महीनों की देर हो गई थी। उन्होंने त्योरी चढ़ाते हुए कहा कि यद्यपि उन्होंने चैतन्य - चरितामृत को समाप्त कर दिया था, किन्तु वह अभी तक अप्रकाशित पड़ा था। उन्होंने श्रीमद्भागवत के चौथे स्कन्ध के चारों खण्ड पूरे कर दिए थे और पाँचवा खण्ड वे आरंभ करने जा रहे थे; फिर भी चौथे स्कन्ध का केवल एक खण्ड छप पाया था ।

वहाँ उपस्थित एक भक्त ने, जो प्रभुपाद की बात को नहीं समझ रहा था, कहा कि चूँकि प्रभुपाद हवाई जा रहे थे, इसलिए वहाँ वे शान्तिपूर्वक लिख सकेंगे। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि जब उनकी पाण्डुलिपियाँ प्रकाशित न हो रही हों तब उन्हें लिखने का उत्साह नहीं होता ।

बी. बी. टी. प्रेस जो अभी तक न्यू यार्क में था, अब लास ऐंजिलिस स्थानान्तरित

होने वाला था जहाँ रामेश्वर उसका नया प्रेस - निरीक्षक बनने को था । रामेश्वर को यह बात वृंदावन में मालूम हुई; चैतन्य - चरितामृत के प्रकाशन में विलम्ब का भी पता उसे नहीं था । उसने प्रभुपाद से वायदा किया कि वह लास ऐंजिलिस में प्रेस तुरन्त स्थापित कराएगा और चैतन्य चरितामृत का प्रकाशन आरंभ करा देगा ।

यह एक असाधारण कार्य था कि श्रील प्रभुपाद ने १९७३ और १९७४ के दौरान अठारह महीने में सम्पूर्ण चैतन्य - चरितामृत की पाण्डुलिपि पूरी कर दी थी। उन्हीं महीनों में वे अनेक प्रबन्धात्मक मामलों में बुरी तरह उलझे थे और लगातार यात्राएँ कर रहे थे। उन्हें बड़े महत्त्व के मामलों को उन नेताओं से निपटाना पड़ा था जो अपने पदों से हट गए थे; उन्हें भारत में जी. बी. सी. के कार्यों को स्वयं देखना पड़ता था और इस्कान के अन्य प्रबन्धात्मक मामलों को भी उन्हें निपटाना पड़ता था। बी. बी. टी. की ओर से अनेक बड़े ऋण उन्होंने मंजूर किए थे और संसार के सभी क्षेत्रों में इस्कान के विस्तार और विकास को स्वीकृति प्रदान की थी। साथ ही वे बड़ी संख्या में प्राप्त पत्रों के नित्य उत्तर लिखते थे, अतिथियों से रोज वार्ता करते थे और जहाँ भी जाते थे वहाँ नियमित रूप से भागवत पर व्याख्यान देते थे । उन्हें लिखने का समय केवल तब मिलता था जब वे रात में एक बजे उठ जाते थे और वे दृढ़तापूर्वक प्रतिदिन दो या तीन घंटे यह कार्य करते रहे थे ।

जब श्रील प्रभुपाद वृंदावन से आस्ट्रेलिया की यात्रा पर गए उस बीच रामेश्वर और राधावल्लभ ने लास ऐंजिलिस में बी. बी. टी. के नए कार्यालय की स्थापना की। प्रभुपाद को अपने चैतन्य - चरितामृत की पाण्डुलिपि के प्रकाशन की अब भी चिन्ता थी। आस्ट्रेलिया से उन्होंने लिखा,

कीमा

चैतन्य - चरितामृत पूरा हो गया है ( १२ भाग) और उसके केवल तीन भाग प्रकाशित मुख हैं और अब पाँचवा स्कन्ध भी लगभग समाप्त हो गया है। तो ये भाग प्रकाशित क्यों नहीं हो रहे हैं? यह हमारा पहला काम है। ये भाग (जिनकी संख्या १७ है) तुरन्त प्रकाशित किए जायँ । विलम्ब क्यों हो रहा है ? संयुक्त राज्य के मुद्रक की जिल्दसाजी

। दाई निप्पन से अच्छी है । इसलिए कुछ का मुद्रण संयुक्त राज्य में हो सकता है और कुछ का जापान में, किन्तु शेष भागों का प्रकाशन कम-से-कम समय में हो जाना चाहिए । जब मैं देखता हूँ कि इतने भाग अप्रकाशित पड़े हैं तो अनुवाद करने का उत्साह नहीं होता। जब उन्हें प्रकाशित देखता हूँ तो और अधिक लिखने को उत्साहित होता हूँ। हम इसके बारे में हवाई में बात करेंगे। अब तुम और हंसदूत मिल कर प्रकाशन के कार्य में शीघ्रता लाओ। यह तुम्हारा काम है । बिक्री भी बढ़ाओ। इस

सम्बन्ध में त्रिपुरारि महाराज तथा अन्यों से प्रार्थना करो। इस समय भवानंद स्वामी और गर्गमुनि स्वामी भी वहीं हैं । बिक्री बढ़ाने में वे भी कुशल हैं। सब लोग मिल-जुलकर प्रयत्न करो और चैतन्य - चरितामृत का प्रकाशन जितनी जल्दी हो सके, पूरा करो ।

लास ऐंजिलिस में रामेश्वर, प्रेस की इमारत के लिए केवल पट्टे की कार्यवाही पूरी कर सका था। बी. बी. टी. के कलाकार अभी-अभी पहुँचे थे; सम्पादक, प्रूफ-रीडर्स तथा अन्य उत्पादन कर्मचारी शीघ्र ही पहुँचने वाले थे। प्रेस के लिए एक कम्प्यूटर टाइपसेटर खरीद लिया गया था और भक्तों को उसके प्रयोग में प्रशिक्षित किया जा रहा था। कुछ दीवारें तोड़ कर बढ़ई फोटो - प्रयोगशाला और अंधेरा कमरा बनाने में लगे थे। नल आदि की अतिरिक्त व्यवस्था होनी थी और पूरा प्रेस एक महीने में तैयार हो जाना था। श्रील प्रभुपाद जून में आने वाले थे, और तब तक हर चीज को पूरा और चालू हालत में होना था ।

जब मई में श्रील प्रभुपाद हवाई पहुँचे, उस समय लास ऐंजिलिस में प्रेस शुरू होने की तैयारी में था । श्रील प्रभुपाद का सचिव लास ऐंजिलिस अक्सर फोन किया करता था, “ प्रभुपाद नाराज हैं। वे अप्रकाशित पुस्तकों के बारे में प्राय: बात करते हैं। अच्छा हो, उनके पहुँचने तक हर चीज तैयार हो जाय । "

रामेश्वर और राधावल्लभ ने चैतन्य चरितामृत की पाण्डुलिपि के प्रकाशन में आने वाली कठिनाइयों और आवश्यकताओं की जाँच की थी; उनका निष्कर्ष था कि उसके कुल सत्रह खण्ड होंगे। उनकी खोज से एक सबसे बड़ी यह कठिनाई सामने आई कि उनके पास कोई निपुण बंगाली सम्पादक नहीं था ।

चैतन्य - चरितामृत का अधिकांश बंगाली में था । यद्यपि बी. बी. टी. सम्पादक संस्कृत में निष्णात थे, किन्तु वे बंगाली अच्छी तरह नहीं जानते थे, इसलिए काम की गति मंद थी। श्रील प्रभुपाद अपनी पुस्तकों में बहुत-से चित्र भी चाहते थे और कला - विभाग को उनके इस आग्रह को पूरा करने के लिए कई महीने चाहिए थे।

बी. बी. टी. श्रील प्रभुपाद से इतना पहले कभी नहीं पिछड़ा था । रामेश्वर और राधावल्लभ ने अपने दिमागों पर जोर डाल कर पुस्तकों को जल्दी और बढ़िया रूप में निकालने के लिए एक नया उत्पादन कार्यक्रम बनाया। पुराने कार्यक्रम के अनुसार एक पुस्तक के निकलने में तीन या चार महीने लगते थे, किन्तु नए कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने निश्चय किया कि वे प्रतिमास एक पुस्तक निकालेंगे। इस तरह, अन्ततः वे श्रील प्रभुपाद के साथ मिल जायँगे । रामेश्वर व्यग्र था कि प्रभुपाद के लास ऐंजीलिस पहुँचने पर वह अपनी यह

योजना उनके सामने प्रस्तुत करे ।

के सचिव से फोन पर फोन आता रहा । प्रभुपाद को प्रेस की इमारतों प्रभुपाद की तैयारी के बारे में मालूम हुआ था, किन्तु उन्होंने यह भी सुना था कि बी. बी. टी. इमारतों के सामने उनके नाम का प्रदर्शन नहीं हुआ था। वे बराबर आग्रह करते थे कि इस्कान की गुरु- परम्परा को सुरक्षित रखा जाय । भविष्य की बात सोचते हुए उनका कहना था कि यदि इस्कान के संस्थापक आचार्य के रूप में ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी के नाम पर बल नहीं दिया जाता तो भविष्य में ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं जो इस्कान के नेतृत्व और उसकी सम्पत्ति के स्वामित्व पर अपना दावा प्रकट करें। इमारतों को शीघ्र तैयार करने की व्यस्तता के कारण बी. बी. टी. प्रबन्धकों ने इस महत्त्वपूर्ण बात पर ध्यान नहीं दिया था ।

जून २०, १९७५

लास ऐंजिलिस पहुँचने पर श्रील प्रभुपाद का आह्लादपूर्ण स्वागत हुआ। उनके साथ प्रमुख संन्यासी और जी. बी. सी. सचिव भी थे जिनमें कीर्तनानंद स्वामी, विष्णुजन स्वामी, ब्रह्मानंद स्वामी, तमाल कृष्ण गोस्वामी तथा अन्य अनेक सम्मिलित थे। बाद में, अपने कमरे में— जो इस्कान के उनके सबसे प्रिय कमरों में से एक था— बैठे हुए उन्होंने अपनी ढेरों अप्रकाशित पुस्तकों के सम्बन्ध में संक्षिप्त वार्ता की। वे कुछ-कुछ क्षुब्ध लगते थे, किन्तु इस विषय में उन्होंने कुछ कहा नहीं। परन्तु मंदिर और रुक्मिणी - द्वारकाधीश विग्रहों को देख कर वे बहुत प्रसन्न हुए ।

अपने संक्षिप्त स्वागत भाषण में वे बता चुके थे कि वे अपने शिष्यों पर अपनी पुस्तकें शीघ्र प्रकाशित करने के लिए इतना जोर क्यों डाल रहे थे। अपने मखमली गद्दीदार व्यास आसन से उन्होंने कहा था, "स्वयं मुझ में कोई योग्यता नहीं है, किन्तु मैं अपने गुरु महाराज को संतुष्ट करने का प्रयत्न करता हूँ, बस । मेरे गुरु महाराज ने मुझसे कहा था 'यदि तुम्हें कुछ धन मिले तो पुस्तकें छापो' । एक निजी बैठक हुई थी, उसमें वार्ता हुई थी । मेरे कुछ प्रमुख गुरुभाई भी वहाँ थे । — यह राधा-कुण्ड की बात है । उस स्थान में मेरे गुरु महाराज ने मुझसे कहा था, 'बागबाजार में हमारे पास यह संगमरमर का मंदिर है, इसके लिए कितनी अनबन है। और हर एक यही बात करता रहता है कि कौन भक्त यह कमरा लेगा और कौन वह कमरा लेगा। इसलिए मैं यह मंदिर और

संगमरमर बेचना चाहता हूँ और पुस्तकें छापना चाहता हूँ।' हाँ, तो मैने यह उनके मुँह से सुना था कि पुस्तकें उन्हें बहुत प्रिय हैं। उन्होंने स्वयं ही मुझसे कहा था, 'यदि तुम्हें कुछ धन मिले, तो पुस्तकें छापो ।' इसलिए मैं इस बात पर इतना बल दे रहा हूँ कि पुस्तक कहाँ है ? पुस्तक कहाँ है ? इसलिए कृपया मेरी सहायता कीजिए । यही मेरी प्रार्थना है। जितनी अधिक पुस्तकें संभव हों, उन्हें छापिए; जितनी अधिक भाषाओं में संभव हो, पुस्तकें छापिए । और उन्हें समस्त विश्व में वितरित कीजिए। तब कृष्णभावनामृत-आन्दोलन अपने आप विस्तार पाएगा ।

अगले दिन सवेरे वेनिस बीच पर भ्रमण करते हुए श्रील प्रभुपाद ने एक असामान्य चेतावनी जारी की। भक्तों से घिरे वे घूमते रहे और अपनी छड़ी मुलायम रेत में धँसाते रहे। उन्होंने कहा, "ये सत्रह अप्रकाशित खण्ड हमारे आन्दोलन के लिए एक बड़ी समस्या हैं। '

रामेश्वर ने ध्यानपूर्वक स्वीकार किया, “हाँ, प्रभुपाद ।" वह चिन्तित था । अन्य शिष्यों ने भी सिर हिला कर समवेदनापूर्वक सहमति जताई। कुछ न कुछ करना ही होगा ।

प्रभुपाद ने कहना जारी रखा, “हाँ, पुस्तकें शीघ्र प्रकाशित होनी हैं। "

रामेश्वर ने सविनय उत्तर दिया, “हाँ, प्रभुपाद

निष्कर्ष स्वरूप श्रील प्रभुपाद बोले, “तो मैं समझता हूँ कि वे दो महीने में छप जायँगी । '

रामेश्वर को पक्का विश्वास नहीं था कि उसने प्रभुपाद की बात को ठीक-ठीक सुना था। प्रेस अभी खुला ही था। कलाकारों के कमरे में अभी प्रकाश की भी व्यवस्था नहीं हुई थी। दो महीने का समय अंतर्कपूर्ण था, असंभव था । यही समय था कि श्रील प्रभुपाद को मुद्रण बढ़ाने की योजना के बारे में बता दिया जाय, वह प्रभुपाद के निकट आ गया ।

उसने आरंभ किया, “श्रील प्रभुपाद, हम लोग इस सम्बन्ध में बैठकें करते रहे हैं। और चूँकि प्रेस अब यहाँ आ गया है और स्थापित हो गया है, इसलिए हम मुद्रण चार गुना बढ़ा सकते हैं। हम समझते हैं कि आपकी एक पुस्तक चार महीने में छापने के स्थान पर अब हम एक मास में एक पुस्तक छाप सकते हैं।" उस समय रामेश्वर और राधावल्लभ प्रभुपाद की एक बगल में

तथा तमाल कृष्ण गोस्वामी एवं ब्रह्मानंद स्वामी दूसरी बगल में साथ-साथ चल

रहे थे।

के

प्रभुपाद मुख से निकला, “एक पुस्तक प्रति मास", मानो वे सस्वर सोच रहे हों और उस पर विचार कर रहे हों। वे बोले,

एक वर्ष से ऊपर। यह तो वांछित गति नहीं हुई।”

इसका तात्पर्य है

अन्य भक्त रामेश्वर और राधावल्लभ की ओर देख रहे थे, जो आपस में

एक दूसरे की ओर देख रहे थे ।

श्रील प्रभुपाद ने फिर कहा, “तुम लोगों को सभी पुस्तकें दो महीने में छापनी हैं।" उन लोगों ने इस बार प्रभुपाद की बात को स्पष्टता से सुना और दोनों प्रबन्धकों को विश्वास नहीं हुआ; वे स्तब्ध रह गए ।

रामेश्वर ने कहा, “श्रील प्रभुपाद मेरे विचार में यह असंभव है। यह तो हो सकता है कि हम पहले से जल्दी-जल्दी करें ... ।

श्रील प्रभुपाद चलते-चलते सहसा खड़े हो गए और उन्होंने अपनी छड़ी को रेत में मजबूती से जमा दिया । रामेश्वर की ओर मुड़ कर वे, बिना किसी क्रोध के, किन्तु अत्यन्त गंभीर मुद्रा में, बोले “ असंभव एक ऐसा शब्द है जो केवल मूर्खों के कोश में मिलता है । "

रामेश्वर को सहसा अनुभव हुआ कि उसका आध्यात्मिक जीवन कसौटी पर है। “असंभव” कहने का तात्पर्य यह होगा कि कृष्ण के प्रतिनिधि में उसका विश्वास नहीं है; परमात्मा की शक्ति में उसका विश्वास नहीं है। उसे अपने भौतिक अनुमान को और तर्क - बुद्धि को छोड़ना होगा ।

रामेश्वर और राधावल्लभ अवाक् खड़े रहे, जबकि श्रील प्रभुपाद और उनके साथ के अन्य लोग आगे बढ़ चले। दोनों भक्त उनके साथ मिलने को तेजी से आगे बढ़े। प्रत्येक व्यक्ति उनकी ओर देख रहा था, मानो कह रहा हो, "आ जाओ, शंका करना छोड़ो, इसे करना है।” रामेश्वर ने श्रील प्रभुपाद से पूछा कि क्या प्रेस में वह अन्य भक्तों के साथ इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श करके, रिपोर्ट दे सकता है । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, हाँ, कुछ भी करो जो जरूरी हो ।” रामेश्वर और राधावल्लभ पीछे रह गए, जबकि श्रील प्रभुपाद तथा अन्य लोग समुद्र-तट पर घूमते रहे ।

प्रभुपाद मंदिर वापिस आए और उन्होंने प्रेस की नई सुविधाओं — कला भवन तथा सम्पादक-भवन—का निरीक्षण किया। दूसरी मंजिल के एक बाहरी बरामदे में घूमते हुए उन्होंने नीचे दोनों भवनों के बीच दो फुट जमीन की खाली पट्टी

श्रील

प्रभुपाद लीलामृत

देखी। वे रुष्ट-से हुए और बोले कि उस पर घास लगा देनी चाहिए ।

ले-आउट कक्ष में एक मेज पर नन्द महाराज के जूते लिए हुए बालक कृष्ण का एक पारदर्शी चित्र रखा था; उसे देख कर श्रील प्रभुपाद हँसने लगे । उन्होंने टाइप सेट करने वाले नए उपकरण का अनुमोदन किया जो पहले के उपकरण से अधिक तेजी से कार्य करता था । और जब भक्तों ने उसे चला कर दिखाया तो प्रभुपाद बोले कि भारत में वे ऐसा प्रेस लगाने का स्वप्न देखा करते थे।

राधावल्लभ के कार्यालय में प्रभुपाद उत्पादन - प्रबन्धक की कुर्सी पर बैठ गए और उस बड़े सूचना पट्ट को देखने लगे जिस पर पुस्तक - उत्पादन के सम्बन्ध में लिए जाने वाले सभी कदमों को प्रदर्शित किया गया था। वे हँसे और बोले,

" मेरे समान किसी व्यक्ति के लिए, यह समझ सकना तो और भी कठिन है । "

श्रील प्रभुपाद दोनों भवनों के हर कमरे में गए और उन्होंने सभी उपकरण देखे । निष्कर्ष में उन्होंने कहा कि यह आधुनिक तकनीक बहुत बढ़िया है यदि उससे दो महीने के अंदर सत्रह पुस्तकों के मुद्रण का लक्ष्य पूरा किया जा सके, अन्यथा उनका यह उपकरण व्यर्थ है — भौतिक वैज्ञानिकों की तकनीक की तरह जिन्होंने चन्द्रमा पर पहुँचने का प्रयत्न किया था ।

मंदिर में प्रातः कालीन कार्यक्रम में, रामेश्वर और राधावल्लभ का प्रयत्न जप करने और प्रभुपाद की कक्षा में ध्यान केन्द्रित करने का था, किन्तु जो विचार उनके मन पर छाया रहा, वह था दो महीनों में पुस्तक के सत्रह खण्डों का मुद्रण और प्रेस के कर्मचारियों से मिलने के पश्चात् उन्हें विश्वास हो गया था कि यह हो सकता है। ऐसा लगता था मानों कोई रहस्यमय शक्ति अवतरित होने जा रही थी । किसी-न-किसी तरह यह हो सकता था । अतः उन्होंने योजना प्रस्तुत की और कर्मचारियों को आश्वस्त कर दिया ।

है ।"

बाद में श्रील प्रभुपाद से बात करते हुए रामेश्वर ने कहा, "यह हो सकता

प्रभुपाद बोले, "हुम्म ।”

रामेश्वर ने कहा कि लेकिन कुछ शर्तें थीं । बंगाली में सम्पादन ठीक चले, इसके लिए आवश्यक था कि सम्पादक श्रील प्रभुपाद से नियमित रूप से परामर्श कर सके। प्रभुपाद सहमत हो गए और उन्होंने कहा कि वे लास ऐंजिलिस में जब तक आवश्यक हो रुकने को तैयार हैं, यह सुनिश्चित करने के लिए कि दो महीने में लक्ष्य की पूर्ति हो जाय । रामेश्वर ने दूसरी शर्त यह रखी

कि कलाकार जितनी तेजी से संभव हो, कार्य करेंगे, किन्तु चित्र, हो सकता है, सर्वोत्तम कोटि के न हों। प्रभुपाद बोले, “चाचा बिल्कुल न होने से एक अंधा चाचा होना अच्छा है।” जब रामेश्वर ने कहा कि कलाकारों के सामने अनेक तकनीकी प्रश्न हो सकते हैं तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि उनके प्रश्नों का उत्तर देने को वे समय निकालेंगे। वे इस बात से भी सहमत हुए कि चैतन्य लीला से सम्बन्धित भारत के पवित्र स्थानों के फोटो चित्रों का उपयोग पेंटिग्स के साथ-साथ किया जा सकता है।

श्रील प्रभुपाद से मिलने के बाद रामेश्वर और राधावल्लभ को लगा कि उन्हें एक मौका मिला है। वे प्रभुपाद के कमरे से सीढ़ियों से दौड़ते हुए नीचे आए । लम्बी दौड़ शुरु हो गई ।

 
 
 
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