द्यपि श्रील प्रभुपाद ने कहा था कि मैं लास ऐंजिलिस में रुकूँगा, किन्तु उन्होंने शीघ्र ही अपनी यात्रा की पूर्वनिश्चित योजनाओं के पक्ष में निर्णय किया । देश भर के अपने शिष्यों के कल्याण की चिन्ता से लाचार होकर, वे संयुक्त राज्य और कनाडा के तेरह इस्कान केन्द्रों की यात्रा पर निकले। उनके लगभग आधा दर्जन संन्यासी शिष्य उनके साथ हो लिए। डेनवर जून २७, १९७५ श्रील प्रभुपाद को साश्चर्य प्रसन्नता हुई जब उन्होंने ईंट - निर्मित चर्च - भवन को कृष्ण मंदिर के रूप में देखा। मंदिर का हाल विस्तृत था और तीसरे पहर के सूर्य का प्रकाश कमरे में उमड़ पड़ता था । प्रभुपाद ने वेदी पर आसीन राधा और कृष्ण के लघु स्वर्णिम आकारों का अवलोकन किया। तब वे हाल के पिछले भाग में पहुँच कर व्यास आसन पर बैठ गए और उन्होंने अपने शिष्यों को अपने पद - प्रक्षालन की अनुमति दी । ये शिष्य अपने गुरु महाराज के साथ रहने के अभ्यस्त नहीं थे, इसलिए मानक औपचारिकताओं का पालन उनसे ठीक से नहीं हो पा रहा था; फिर भी वे उत्साह से भरे थे और आह्लादित थे। श्रील प्रभुपाद के सामने बैठ कर दशरथ 'ओ हे वैष्णव ठाकुर' पद हारमोनियम बजा कर गाने लगा । प्रभुपाद को उसका गाना पसंद आया । जब गाना समाप्त हुआ तो प्रभुपाद ने पूछा, “क्या तुम इसका अर्थ जानते हो ?" दशरथ ने उत्तर दिया, "हे श्रद्धास्पद वैष्णव, हे दया के सागर, अपने सेवक पर अनुग्रह कीजिए । ' एक अन्य भक्त ने जोड़ा, "मैं आपके चरणकमलों की छाया के लिए प्रार्थना करता हूँ ।" प्रभुपाद ने कहा, “हाँ ठीक है ।" और फिर वे गीत के कर्ता, नरोत्तम दास ठाकुर, के सम्बन्ध में बात करने लगे। तब उन्होंने नरोत्तम दास का एक अन्य गीत सुनाया 'छाड़िया वैष्णव-सेवा निस्तार पायछे केबा', उन्होंने कहा यह कृष्णभावनामृत-आंदोलन निस्तार के निमित्त है । " निस्तार का अर्थ माया के बन्धन से मुक्त होना है। जब हम वैष्णवों का भजन सुनते हैं, वह मुक्ति कहलाता है । " यद्यपि भक्तगण नरोत्तम दास ठाकुर और मुक्ति के विषय में पहले भी सुन चुके थे, किन्तु इस अवसर पर उन्होंने विशेष ध्यान से सुना; वैष्णव ठाकुर व्यक्तिगत रूप में उनके सामने मौजूद थे। वे आए थे उन्हें अपने मनोविकारों पर नियंत्रण करना सिखाने, संकीर्तन आन्दोलन को बढ़ाने के निमित्त उन्हें शक्ति प्रदान करने और नरोत्तम दास ठाकुर के शब्दों में “पवित्र नाम की महान् निधि प्राप्त करने के लिए आस्था की एक बूँद” का आशीर्वाद देने । लगभग चालीस भक्तों को सम्बोधित करते हुए श्रील प्रभुपाद ने कहा, "इस मंदिर को देख कर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। क्या आप लोगों ने इसे खरीदा है ? यह बहुत अच्छा है। इसमें अच्छा स्थान है। यहाँ के भक्त बहुत अच्छे हैं। । हमारी प्रक्रिया बहुत सीधी है— हम अपना जीवन वैष्णव की सेवा को अर्पित कर देते हैं और उनके निर्देशानुसार विष्णु के गुणों के श्रवण और कीर्तन में लग जाते हैं और पापपूर्ण कर्मों से बचते हैं। तब जीवन सफल हो जाता है । इसके लिए उच्च कुल में जन्म लेने या बहुत विद्वान् या धनाढ्य होने की आवश्यकता नहीं है । " श्रील प्रभुपाद को पार्क में ले जाने के लिए, डेनवर मन्दिर के एक मित्र ने अपनी लिंकन कांटीनेन्टल कार उधार दे दी थी जो पहले प्रेसीडेंट रिचर्ड निकसन की लिमोसिन रह चुकी थी । ब्रह्मानंद स्वामी ने कार की राजसी विशिष्टताओं की ओर प्रभुपाद का ध्यान आकृष्ट किया जिसमें उसकी शीशे की खिड़कियों का बुलेटप्रूफ ( अभेद्य ) होना भी था । । प्रभुपाद यह कह कर हँसे, "तो क्या बुलेट (गोली) की भी आशंका रहती है ? " ब्रह्मानंद ने टिप्पणी की कि संसार के नेताओं को नित्य चिन्ता घेरे रहती है । प्रभुपाद ने सहमति जताई— भौतिक संसार में हर कदम पर आपदा है। वे भारतीय राजनीति के सम्बन्ध में बात करने लगे : इन्दिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण में घोर मतभेद था। उन्होंने कहा, "दोनों ही की स्थिति आपदाग्रस्त है। मैं दोनों को भगवद्गीता के आधार पर लिखने की सोच रहा हूँ। क्या आप इसे समीचीन समझते हैं ?” जब श्रील प्रभुपाद ने इस बात का उल्लेख किया कि इंदिरा गांधी समय-समय पर अपनी गुरु, आनंदमयी, से मिलने जाती हैं तब ब्रह्मानंद ने टिप्पणी की कि उनकी गुरु ने हरे कृष्ण कीर्तन के विषय में अनुकूल सम्मति दी है। प्रभुपाद ने अपने संन्यासियों, तमाल कृष्ण, भवानंद और सत्स्वरूप, से पूछा, “ तो आप लोग क्या सोचते हैं ? क्या मुझे लिखना चाहिए ? हुँ ? आज रात मैने एक पत्र का प्रारूप बनाया है। आप लोग आएँ और देखें । हम एक बार प्रयत्न करें। हम हर एक की भलाई चाहते हैं। हर बुराई की एक ही ओषधि है— हरे कृष्ण । पर- दुःख - दुखी । सभी दुख में हैं । " भक्त सहमत हुए कि पत्र भेजना अच्छा विचार है, यद्यपि सभी को इसमें संदेह था कि राजनेता किसी के उपदेश पर ध्यान देंगे या वे पत्र पढ़ेंगे भी। तब प्रभुपाद ने डेनवर में कृष्णभावनामृत के प्रति जनता की रुचि के बारे में पूछा । सत्स्वरूप ने उत्तर दिया, “रविवार को उपस्थिति अच्छी रहती है। बहुत-से लोग आते हैं । " प्रभुपाद बोले, "तो लक्षण अच्छे हैं। " "यहाँ भी अच्छी पुस्तकों का वितरण होना चाहिए ।' प्रभुपाद ने स्वीकृति में सिर हिलाया । "यह बहुत सफल रहा है। जहाँ भी पुस्तक-वितरण अच्छे ढंग से चल रहा है, वहाँ सफलता मिल रही है। चूँकि लोग घोर अज्ञान के अंधकार में हैं, इसलिए वे इस अस्थायी जीवन को ही सब कुछ मान बैठे हैं। यह अत्यन्त भयावह स्थिति है। हम समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि वास्तविक जीवन क्या है । " वे सब पार्क में पहुँचे जो चीड़, द्विफल और बांज के लम्बे वृक्षों से भरा था। कार से उतर कर प्रभुपाद एक जलाशय के सामने खड़े हो गए; दूरी पर डेनवर का क्षितिज और राकी माउन्टेन की शृंखलाएँ दिखाई दे रही थीं । जलाशय से बत्तखों और हंसों की कां-कां ध्वनि सुनाई दे रही थी । भक्तों से भरी एक दूसरी कार पहुँची, और प्रभुपाद और उनके अनुयायी झील के किनारे बने पक्के मार्ग पर घूमने लगे, प्रभुपाद ने टिप्पणी की, “बहुत अच्छा पार्क है, और बहुत दूर भी नहीं है । " शीघ्र ही वे एक विशाल आधुनिक भवन पर पहुँच गए। वह प्राकृतिक इतिहास का संग्रहालय था । प्रभुपाद ने कहा, इसका मतलब डार्विन का सिद्धान्त है, बस न! इनकी सारी सभ्यता डार्विन के सिद्धान्त पर आधारित है। आप इतिहास कहाँ तक बता सकते हैं? क्या आप सूर्य का इतिहास जानते हैं ? इसकी सृष्टि कब हुई, यह कब प्रकट हुआ ? क्या डार्विन हमें सूर्य का, चन्द्रमा का या आकाश का इतिहास बता सकता है ? इतिहास कहां है ? इतिहास है, लेकिन आपका इतिहास कहाँ है ? आप केवल कल्पना करते हैं, 'एक खण्ड था, और वही सूर्य, चन्द्रमा के रूप में प्रकट हो गया । और मैं भी यह हूँ । ' आप सचमुच क्या जानते हैं ? यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में कैसे आया ?" ----- चमचमाती सुनहरी किरणों के साथ सूर्य उदित हुआ और उसने हवा को तेजी से गर्म कर दिया। भक्तों ने प्रभुपाद को डेनवर के विषय में अवगत कराया — “ मील - भर ऊँचा नगर”। उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अच्छा नगर है। प्रभुपाद ने कहा, यहाँ की जलवायु भारत — उत्तरी क्षेत्र पंजाब – जैसी है। उन्होंने यह भी सुना कि किस तरह कोलोराडो को "गाय क्षेत्र" कहते हैं, क्योंकि उसका मुख्य धंधा पशु वध है। प्रभुपाद एक चिड़ियाघर को पार करते हुए एक पहाड़ी से नीचे उतरे। उन्होंने गृह-युद्ध की एक तोप, अनेक रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियाँ, लम्बे-चौड़े घास के मैदान, और सर्वत्र चीड़ के ऊँचे वृक्ष देखे । जुलाई का महीना था, फिर भी हवा में ठंडक थी, किन्तु सूर्योदय की चमक निराली थी और पार्क का प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त मनोहारी था। तेजी से चलते हुए श्रील प्रभुपाद सुनहरी किरणों से स्नात लग रहे थे। वे अपनी भूरी चादर लपेटे हुए थे और बीच-बीच में अपने शिष्यों से बातें करते जाते थे । । प्रभुपाद ने गोपाल अग्रवाल की चर्चा की जिसके घर में १९६५ ई. में अमेरिका आने पर वे पहले पहल ठहरे थे। उन्होंने बताया कि गोपाल के पिताजी मथुरा के एक बहुत धनी व्यक्ति थे और गोपाल अमेरिका में एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बनने के लिए आए थे। प्रभुपाद ने कहा कि जितना सफल वे भारत में रह कर होते, उतना वे अमेरिका में नहीं हैं। गोपाल की पत्नी, सैली, कहती है कि उसका पति " अपने माँ-बाप की एक खोई हुई संतान है । ' प्रभुपाद ने कहा, "लोग कुछ वर्षों की इस अस्थायी जिन्दगी के लिए दिन-रात ६ १९७ कड़ा परिश्रम करते हैं। यद्यपि इससे कम परिश्रम करके वे परमात्मा के पास वापिस जा सकते हैं। एक अच्छी कार, एक सुंदर स्त्री और कुछ संतानें लोगों को इतने कड़े परिश्रम से मिल पाती हैं । उसी परिश्रम से, यदि वे कृष्णभावनामृत को समर्पित हों, तो वे परम धाम को वापिस जा सकते हैं, भगवान् को प्राप्त कर सकते हैं। इसमें गलती किस बात की है ? यहाँ कितने ही कृष्णभावनाभावित भक्त हैं। इन कर्मियों से तुलना करने पर इनमें कमी क्या दिखती है ? क्या आप दुखी हैं ? आप क्या सोचते हैं ? उन कर्मियों के सारे प्रयत्न निष्फल हो जायँगे और मृत्यु के बाद वे बिल्ली, कुत्ता या वृक्ष होंगे।" भक्त : “ श्रील प्रभुपाद, कभी कभी हम इसे बताते हैं और लोग समझ भी जाते हैं, फिर भी वे इस बारे में कुछ करते नहीं । : प्रभुपाद ः “ आपको उन्हें हमेशा कोंचते रहना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे जब कोई व्यक्ति सोता रहता है तो आप उसे बार-बार जगाते हैं, 'मि. जान, मि. जान, उठो, ओ शैतान, उठो । इस तरह क्यों पड़े हो ? मानव जीवन का यह सुनहरा अवसर तुम्हें मिला है। अब उठो और कृष्णभावनामृत अपनाओ और अपने जीवन की सभी समस्याएँ हल करो। " भक्त : “कुछ लोग कहते हैं कि यदि हम यह करना चाहते हैं तो हम इसे बेशक करें लेकिन दूसरों को उपदेश न दें और उन्हें मजबूर न करें। प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी ढंग होता है। श्रील प्रभुपाद : “किन्तु तुम मानव हो । शैतान, तुम सो रहे हो। हम तुम्हें जगाने की कोशिश कर रहे हैं। मान लो एक बालक मार्ग से हट रहा है और खतरे की ओर बढ़ रहा है। हम मनुष्य हैं, इसलिए हम कहेंगे, 'नहीं, नहीं, दाएं मार्ग पर चलो' । हम उसे बचाने की कोशिश करेंगे। हमारा कार्य ही है दूसरों की भलाई करना । चैतन्य महाप्रभु का यही महान् लक्ष्य है। यह नहीं है कि 'वह मनुष्य नरक में गिरने जा रहा है, उसे नरक में जाने दो। मुझे क्या, मैं तो प्रसन्न हूँ।' यह दयालु भाव नहीं है । ' भक्त : 'श्रील प्रभुपाद, वे प्रायः अनुभव करते हैं कि हम भौतिक संसार से पलायन कर रहे हैं। उनका कहना है कि हमारे पास कोई धंधा नहीं है और हमें जीविका के लिए कोई धंधा करना चाहिए ।" प्रभुपाद (एक काल्पनिक प्रतिवादी को सम्बोधित करते हुए ) : “ तुम अधम ! तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं—– तुम धंधा करो। किन्तु हम धनवान् लोग हैं। हम कृष्ण की संतानें हैं। तो हम, तुम गधे जैसा, काम क्यों करें ? गधा तो अनावश्यक रूप से कार्यरत रहता है। हम गधे नहीं हैं। " प्रभुपाद ने कहा : भगवद्गीता में प्रतिपादित है कि कृष्ण सभी के स्वामी हैं। अतएव कृष्ण के भक्तों से आशा नहीं की जाती कि वे गधों जैसा कड़ा परिश्रम करें। गधे कठोर परिश्रम करते हैं, मनुष्य नहीं । श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव का भी यही आदेश है। ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को बताया था कि मानव जीवन आहार और मैथुन के निमित्त कड़े परिश्रम के लिए नहीं है। वह सूअरों का धंधा है। प्रभुपाद : “ उनसे कहिए कि वे सूअरों जैसा परिश्रम कर रहे हैं। और हम मानवों का जीवन बिता रहे हैं। यही अंतर है। यदि कोई सूअरों जैसा कड़ा परिश्रम नहीं करता तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि वह पलायन कर रहा है ?" श्रील प्रभुपाद उत्साहपूर्वक अपनी विचारधारा को पल्लवित करते रहे। वे बड़ी गंभीरता से तर्क कर रहे थे, फिर भी वे प्रसन्नतापूर्वक ऐसा कर रहे थे। वे प्रदर्शित कर रहे थे कि परम ईश्वर का भक्त ही सौभाग्यशाली है। उनके साथ चलने और उनका कृष्ण - चेतन तर्क समझने की कोशिश करते हुए, भक्तगण मुसकरा और हँस रहे थे। । प्रभुपाद : “मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी था । हम मार्शल का सिद्धान्त पढ़ते थे । मार्शल कहता है कि मानव प्रकृति ऐसी है कि जब तक किसी व्यक्ति पर कोई जिम्मेदारी न हो, वह काम नहीं करेगा। अर्थशास्त्र की शुरुआत यही है। यदि किसी के पास खाने को पर्याप्त है तो वह काम नहीं करेगा। तो, यदि हमारे पास खाने को पर्याप्त है तो हम काम क्यों करें ? इसका उत्तर क्या है ? यह पलायन करना नहीं है। यह प्रकाश या ज्ञान पाने के समान है। कार्य न करना और फिर भी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाना, यही सुख है । किन्तु जीवन की आवश्यकताओं मात्र के लिए घोर परिश्रम करना, यह सूअरों और कुत्तों का काम है ।" भक्त : “ उनका विश्वास नहीं है कि यह हो सकता है । " प्रभुपाद : " हे दुष्टात्मा ! तुम हम लोगों को देखो। अपनी आँखें खोलो। देखो कि हम किसी धंधे में नहीं लगे हैं। हमारे पास खाद्य सामग्री का भण्डार नहीं है। तब भी हम चिन्तित नहीं हैं। हमें मालूम नहीं कि शाम को हमें खाने को क्या मिलेगा, फिर भी हम चिन्तित नहीं हैं। मैं तुम लोगों के देश में बिना किसी सहारे के आया था।” प्रभुपाद का तर्क था कि मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से गौओं और भूमि से हो सकती है। उन्होंने कहा कि अपने शरीर को कायम रखने के लिए मनुष्य ने अनावश्यक रूप से उलझन भरी व्यवस्था बना रखी है; इससे वह मानव जीवन के उद्देश्य को भूल गया है। जब एक भक्त ने दावा किया कि हर मनुष्य को भूमि प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता तो प्रभुपाद ने कहा कि यह कुव्यवस्था के कारण है। अमेरिका में भूमि पर्याप्त है। भक्त : “श्रील प्रभुपाद, लोग हम पर पराश्रयी होने का आरोप लगाते हैं। " श्रील प्रभुपाद : "नहीं, पराश्रयी वह है जो दूसरों की सम्पत्ति हड़प लेता है और उसे भोगने का प्रयत्न करता है। किन्तु हम दूसरों की सम्पत्ति का लाभ नहीं उठा रहे हैं। हम अपने पिता की सम्पत्ति का आनन्द ले रहे हैं। ईशावास्यम् इदं सर्वम् । कृष्ण स्वामी हैं। हमें पराश्रयी क्यों कहते हो ? हम कृष्ण की अच्छी संतानें हैं। और कृष्ण कहते हैं, 'कार्य मत करो, मैं तुम्हें हर वस्तु दूँगा ।' वास्तव में कृष्ण कहते हैं कि 'तुम इतना घोर परिश्रम क्यों करते हो ? मेरे प्रति समर्पित हो जाओ और मैं तुम्हें संरक्षण दूँगा — जो भी वस्तुएँ तुम चाहते हो, मैं दूँगा ।' अतः हम कृष्ण को अपना सभी कुछ समर्पित कर रहे हैं। हमें पराश्रयी क्यों कहते हो ?" । भक्त भलीभाँति अवगत थे कि श्रील प्रभुपाद परिश्रम करते थे। वे अपने विश्वव्यापी कृष्णभावनामृत संघ की व्यवस्था देखने के लिए अनवरत यात्रा करते रहते थे और नित्य आधी रात में उठ कर श्रीमद्भागवत के अनुवाद में लग जाते थे। और उनके शिष्य भी कड़ा परिश्रम करते थे। लेकिन वे, पशुओं की तरह या पशु- मानव जैसा, यथासमय नाशवान वस्तुओं के लिए, कार्य नहीं करते थे । और वे ऐसे भयावह उद्योगों में अपने को नहीं लगाते थे जिनसे मानव - प्रकृति का सर्वोत्तम भाग नष्ट हो जाता है। वे गधों की तरह कार्य नहीं करते थे कि यह दावा करें कि भगवान् के पवित्र नाम को भजने के लिए उनके पास दिन का कोई समय नहीं बचा है। प्रभुपाद : "यह एक सुन्दर पार्क है, लेकिन यहाँ कोई नहीं आता। हम कृष्णभावनाभावित लोग इसका लाभ उठा रहे हैं। तो वे पलायन कर रहे हैं या हम पलायन कर रहे हैं ? देखो, वे कितने मूर्ख हैं! वे कितना घोर परिश्रम करते हैं, लेकिन इस पार्क का लाभ नहीं उठा रहे हैं। हम उठा रहे हैं। तो हमारी नीति यह है कि तुम कड़ा परिश्रम करो और हम जाकर तुम से लाभ ले लेते हैं । यह पलायन करना नहीं है, यह बुद्धि का काम है । ' श्रील प्रभुपाद का उदाहरण भक्तों के लिए आह्लादकारी रहस्योद्घाटन था और इस स्पष्ट सच्चाई पर वे हँसने लगे। वे अपने गुरु महाराज के साथ पार्क में प्रसन्नतापूर्वक घूम रहे थे और अन्य कोई भी उस पार्क का आनन्द लेने नहीं आ रहा था । श्रील प्रभुपाद : " किन्तु हम जैसे ही उनसे कहते हैं, 'आप भी आइए और हमारे साथ हो जाइए।' तो वे ऐसा नहीं करेंगे। वे कहते हैं, 'नहीं, हमें इस तरह काम करना है।' हम हर एक से आने को कह रहे हैं, किन्तु कोई नहीं आता । यह उनकी ईर्ष्या के कारण है । इसीलिए वे कहते हैं कि हम पलायन कर रहे हैं और दूसरों की कमाई पर रहते हैं। वे देखते हैं कि हमारे पास कितनी कारें हैं और भक्तों के चेहरे चमक रहे हैं। हम अच्छे ढंग से खा-पी रहे हैं और हमारे पास कोई समस्या नहीं है। किन्तु यदि हम उनसे आने को कहते हैं तो यह उनके लिए कठिन हो जाता है। यदि हम उनसे हरे कृष्ण भजने को कहते हैं तो यह उनके लिए बहुत कठिन और भारी काम हो जाता है। ज्योंही वे हमारे पास आएँगे उन्हें मालूम हो जायगा कि यहाँ न चाय है, न मदिरा है, न मांस है और न सिगरेट है। तो कोई कह सकता है कि हम इन चीजों से पलायन कर रहे हैं । किन्तु हम प्रसन्नता से पलायन नहीं कर रहे हैं। प्रसन्नता से पलायन वे कर रहे हैं । " जब डेनवर में श्रील प्रभुपाद के पास कोई विशेष कार्यक्रम नहीं रहता था तो उनके कुछ लोग कभी - कभी उनके कमरे में जमा हो जाते थे। किसी किसी अवसर पर वे उन लोगों को अपने साथ नकली वाद-विवाद के लिए उकसाते थे । श्रील प्रभुपाद : “प्रत्येक वस्तु किसी न किसी अन्य वस्तु से उद्भूत होती है। इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। अब हम चुनौती देते हैं, "क्या आप जानते हैं कि वह परम सत्य क्या है ? " ब्रह्मानन्द : हम जानते हैं कि परम सत्य है, लेकिन इस समय हम साक्षात् रूप से नहीं बता सकते कि वह क्या है । प्रभुपाद ने तत्काल उत्तर दिया कि यदि कोई व्यक्ति स्वीकार करता है कि वह परम सत्य को नहीं जानता तो परम सत्य की वैदिक व्याख्या से इनकार करने का उसके पास कोई आधार नहीं रह जाता। वह व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता कि कृष्ण परम सत्य हैं। प्रभुपाद ने कहा, “यदि आप कोई दर्शन नहीं जानते तो उसके विषय में जानने वाले किसी अधिकारी से सुनिए । " सत्स्वरूप : “हाँ, यह विचार तर्क संगत है, और हमें कम-से-कम आपको सुनना चाहिए। किन्तु हमने सत्य के कितने ही रूपों के विषय में सुना है । तो हम आपके रूप को ही क्यों स्वीकार करें ?" प्रभुपाद : "यह तो यह कहने के समान है, 'मैंने कितने ही नकली सिक्के देखे हैं। तो मैं कैसे मान लूँ कि असली सिक्के भी होते हैं ?" नकली सिक्के हैं तो असली सिक्के भी जरूर होंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम असली सिक्कों को नकली सिक्कों से अलग करके पहचान नहीं सकते । ' एक अन्य संन्यासी ने दावा किया कि सत्य का कृष्ण चेतना वाला रूप हठधर्मी है, क्योंकि सत्य के अनेक रूप हैं और देवता अनेक हैं। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि किन्तु परम सत्य एक है, क्योंकि ईश्वर एक है। ईश्वर के प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं। यदि कोई व्यक्ति कृष्ण को ईश्वर नहीं स्वीकार करता तो उसे किसी ऐसे को सामने लाना होगा जो कृष्ण की अपेक्षा अधिक पूर्ण ईश्वर हो । किन्तु यदि कोई नहीं जानता कि ईश्वर कौन है तो वह कृष्ण से इनकार नहीं कर सकता । प्रभुपाद ने कहना जारी रखा, “यदि आप इस तरह बात करते रहेंगे तो हठधर्मी आप होंगे। आप नहीं जानते कि ईश्वर क्या है। फिर भी हठधर्मी के साथ आप कहते हैं कि कृष्ण ईश्वर नहीं हैं । " प्रभुपाद ने उन लोगों की तुलना उल्लुओं से की जो कृष्ण की परम सत्ता से इनकार करते हैं। उल्लू नेत्र खोल कर सूर्य का प्रकाश नहीं देखता । ऐसे लोग ईश्वर को देखने की माँग करते हैं, किन्तु जब ईश्वर स्वयं रूप धारण करके उनके सामने आता है या अपने शुद्ध प्रतिनिधि को भेजता है तो वे उसे नहीं देखते। ने डेनवर के एक दूसरे दिन के प्रातः कालीन भ्रमण में तमाल कृष्ण गोस्वामी प्रभुपाद को बताया कि कुछ भक्त स्वास्थ्य पर आहार सम्बन्धी पुस्तकें पढ़ रहे थे और मंदिर में अर्चा-विग्रह को समर्पित किए गए प्रसाद से दूर रह रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने तुरन्त उत्तर दिया कि यह अच्छा नहीं था। उन्होंने माना कि उपवास स्वास्थ्य के लिए लाभकर है, किन्तु भक्तों को कमजोर नहीं बनना चाहिए। उन्हें प्रसाद ग्रहण करना चाहिए और काम करना चाहिए । जब एक भक्त ने प्रभुपाद का बताया कि पेट भर अन्न खाने से उसे नींद आने लगती है और इसलिए उसे फल पसंद थे तो प्रभुपाद ने कहा कि यह ठीक है; अर्चा-विग्रह को फल चढ़ाया जाता है। जब यदुवर ने बताया कि लास ऐंजिलिस में किस प्रकार अर्चा-विग्रह का प्रसाद लेने की बजाय कुछ परिवार अपने घरों में भोजन बनाते थे तो भवानंद गोस्वामी ने अपने साक्ष्य पर कहा कि कितना अच्छा लगता था जब मायापुर के उत्सव में सैंकड़ों भक्त एकसाथ बैठ कर प्रसाद ग्रहण करते थे । प्रभुपाद : “ कठिनाई क्या है ? चपातियाँ और चावल कितना सादा खाना है । कठिनाई क्या है ?" हरिकेश : " अनेक भक्त आपको उद्धृत कर रहे हैं। वे कहते हैं कि अन्न खाने की जरूरत नहीं है और आपका कहना है कि अन्न पशुओं के लिए है । " प्रभुपाद : " किन्तु मैं अन्न खाता हूँ ।" हरिकेश : " मैने उन्हें यह बताया है । " प्रभुपाद : " वे कहते हैं 'प्रभुपाद ने कहा है।' और आप उन पर विश्वास कर लेते हैं । " प्रभुपाद ने कहा कि भक्तों को स्वास्थ्य सम्बन्धी ऐसे उपदेश नहीं सुनने चाहिए यदि उसका परिणाम यह हो कि उन्हें भगवान के प्रसाद से इनकार करना पड़े । प्रभुपाद : " इसलिए प्रसाद ग्रहण किया करो। जो कुछ हो, उसे होने दो।” तमाल कृष्ण : “ प्रसाद खाते-खाते, आओ, हम मर जायँ ।" प्रभुपाद : “हाँ (हँसी) भक्त ऐसा ही होता है। किन्तु हमें उत्तम कोटि का भोजन बनाना चाहिए। यदि वह प्रथम श्रेणी का होगा तो कोई शिकायत कहाँ रह जायगी ?" भ्रमण से लौटने के बाद श्रील प्रभुपाद ने इस प्रकरण को श्रीमद्भागवत की कक्षा में जारी रखा । " मैं सुन रहा था कि हम लोग — विशेषकर जो गृहस्थ हैं— प्रसाद नहीं ग्रहण कर रहे हैं। नहीं, यह ठीक नहीं। तुम सब को प्रसाद लेना चाहिए ।" प्रभुपाद ने वर्णन किया कि किस प्रकार भक्ति योग का आरंभ जिह्वा पर नियंत्रण से होता है— अर्थात् कीर्तन करने और कृष्ण का प्रसाद लेने से । उन्होंने आगे कहा, “इसलिए हमारी शाखाओं में भक्त एक साथ प्रसाद ग्रहण करते हैं। यह अच्छा है। हम मंदिर में प्रसाद लेना क्यों न पसन्द करें ? इसमें गलत क्या है ? नहीं, यह अच्छा नहीं। हर एक को प्रसाद लेना चाहिए। ... इसे प्रसाद - सेवा कहते हैं, प्रसाद - भोग नहीं । प्रसाद का अर्थ सेवा करना है। प्रसाद उतना ही अच्छा है जितना स्वयं कृष्ण, और उसका उसी तरह सम्मान करना चाहिए जैसे कृष्ण का । अतः प्रत्येक को विश्वास करना चाहिए कि प्रसाद भौतिक नहीं है। जो लोग कृष्णभावनामृत संघ से जुड़े हैं और भक्ति से जुड़े हैं, उन्हें प्रसाद ग्रहण करना चाहिए— प्रथम श्रेणी का प्रसाद । प्रसाद का स्वाद हर एक को पसंद है।' जुलाई २, १९७५ डेनवर से शिकागो जाते हुए प्रभुपाद ने वायुयान में टाइम पत्रिका के मुख पृष्ठ पर अपराध पर एक लेख देखा जिसका शीर्षक था, 'अपराध क्यों ? और क्या करना चाहिए ? " ओ हरे हवाई अड्डे पर जब वे उतरे तो सैंकड़ों भक्तों तथा संवाददाताओं ने जय-जयकार करते हुए उनका स्वागत किया । शिकागो मंदिर के अध्यक्ष, श्री गोविन्द ने आगे बढ़ते हुए कहा, "हे कृष्णकृपाश्रीमूर्ति, यह एन. बी. सी. टेलिविजन की मिस जोन्स हैं। " 'आप कैसे हैं ?” कहती हुई मिस जोन्स मुसकराई और कई अन्य सम्वाददाताओं ने प्रभुपाद के सामने माइक्रोफोन कर दिए । “मैं जानना चाहती हूँ कि आज का यह क्या अवसर है ? आप शिकागो क्यों आए हैं ? " श्रील प्रभुपाद ने अपना दाहिना हाथ उपदेश की मुद्रा में ऊपर उठाया और बाएँ हाथ में ली हुई छड़ी के सहारे वे झुक गए। उन्होंने उत्तर दिया, "मैने अभी टाइम पत्रिका में एक लेख देखा है। वह चार या पाँच पृष्ठों का है- 'अपराध: क्यों और उसका समाधान कैसे किया जाय।' यदि आप इस विषय में गंभीर हैं तो आप हमारी पद्धति और सुझावों को स्वीकार कर सकती हैं। आप इस अपराध को बंद कर सकती हैं।" " आपके पास अपराध को बंद करने का उपाय है ?" "हाँ, हाँ, मेरे पास है । क्या आप कुछ विस्तार से व्याख्या कर सकते हैं कि इसे कैसे करना है ?" श्रील प्रभुपाद ने सिर हिलाया, "उसके लिए हमें सुझाव देना है। सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक सभी तरह के परिवर्तन करने होंगे। अतः यदि आप आएँ तो हम विस्तार से बता सकते हैं कि यह कैसे किया जा सकता है ।" मिस जोन्स ने इस प्रकरण को छोड़ दिया और पूछा कि प्रभुपाद को अपने स्वागत के बारे में कैसा लगा । भक्तों को, प्रभुपाद को चारों ओर से घेर कर, उन्हें सुनने के लिए आतुर देख कर, वह घबरा गई थी । श्रील प्रभुपाद ने कहा, “भगवान् की कृपा से, मैं जहाँ भी जाता हूँ, लोग इसी तरह मेरा स्वागत करते हैं । " मिस जोन्स, "क्या आप इससे तनिक अधिक सौम्य वस्तु के अभ्यस्त हैं ? " " सौम्य ?” हवाई अड्डे के भारी यातायात और शोर-गुल के बीच भक्तों के साथ खड़े हुए प्रभुपाद गंभीरतापूर्वक इस शब्द पर विचार करते रहे। तब उन्होंने कहा, “हाँ, हमारा सारा प्रचार सौम्य है। हम भगवत् चेतना का वितरण कर रहे हैं। यह सबसे अधिक सौम्य आंदोलन है। लोगों को इसे बढ़िया ढंग से सीखना है । " "धन्यवाद" मिस जोन्स बोली, उसे पर्याप्त सामग्री मिल चुकी थी । किन्तु प्रभुपाद ने आखिरी शब्द जोड़े, “मेरा संदेश आपके देश में अपराध बंद करना है । यही मेरे आंदोलन का सारांश है । आप ने टाइम पत्रिका में 'अपराध और उसे कैसे बंद करना है, लेख पढ़ा है। अतः यदि आप मेरा उपदेश मानें तो वह बंद किया जा सकता है । " हवाई अड्डे के प्रवेश-द्वार से बाहर निकलते हुए, कार की पिछली सीट पर - बैठे प्रभुपाद ने कहा, “संसार अपराधियों से भरा है। अपराध का मतलब है पापी । प्रभुपाद के लिए इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था कि वे अपने कुछ शिष्यों के साथ कार में बैठे थे और सम्वाददाताओं से बात नहीं कर रहे थे । “यदि आप उन्हें केवल कानून से दबा देना चाहते हैं तो इसमें सफलता नहीं होगी । उनका उद्धार कीजिए। आप भी उनके साथ आइए। ऐसा नहीं है कि केवल इन अपराधियों का उद्धार होना है और आप अपराध करते रहें, जैसे बूचड़खानों का चलाना, या भ्रूण हत्या करना । आप स्वयं अपराधी हैं। समग्र राज्य । " प्रभुपाद मालिश कराने को तैयार बैठे थे । उनका नित्य प्रति का नियम ११.३० पूर्वाह्न में स्नान के पूर्व मालिश कराना और तत्पश्चात् प्रसाद ग्रहण करना था । किन्तु आज हवाई यात्रा के कारण, उनका कार्यक्रम प्रतिरुद्ध था। फिर भी जहाँ तक संभव था वे अपना सामान्य कार्यक्रम निभाना चाहते थे । उपेन्द्र उनके बैठने के लिए चटाई और मालिश के लिए सरसों का तेल ला रहा था । प्रभुपाद वहाँ बैठे अपने थोड़े से शिष्यों से बोले, " तो हम इसका समाधान निकाल सकते हैं। उन्हें हमारी बात सुनने के लिए आमंत्रित क्यों नहीं करते कि हम समाधान कैसे करेंगे ? इस बात पर हम बड़ी-बड़ी बैठकें कर सकते हैं। 'अपराध : क्यों और क्या करना है ?' यह बहुत उपयुक्त शीर्षक है । " प्रभुपाद अपराध के कृष्ण - चेतन विश्लेषण में लगे रहे। उन्होंने कहा कि जब तक समाज प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता रहेगा तब तक अपराध होते रहेंगे। उन्होंने इस बात को महत्त्वपूर्ण माना कि टाइम के लेख के अनुसार, देश के नेता बढ़ती हुई अपराध - दर से वास्तव में किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे और स्वीकार कर रहे थे कि वे समाधान नहीं जानते। उन्होंने कहा, अब हमारा काम इन नेताओं को समाधान देना है, यदि वे वास्तव में देश का भला चाहते हैं । " । श्रील प्रभुपाद ने प्राय: कहा था कि कृष्णभावनामृत से सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है और अब वे विशेष रूप से अपराध की समस्या का हल ढूंढ़ने को उत्सुक थे । अमेरिका के नेता अपनी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता को स्वीकार कर रहे थे और यदि वे वास्तव में सत्यनिष्ठ हैं तो उन्हें कृष्ण - चेतन समाधान स्वीकार कर लेना चाहिए। प्रभुपाद सरकारी अधिकारियों को उपदेश देने को तत्पर थे; कृष्णभावनामृत विशेष रूप से उनके लिए ही था । भगवद्गीता में कथन है कि राजर्षियों को चाहिए कि गीता के उपदेशों का नागरिकों में प्रचार करें। किन्तु क्या राज - पुरुष या नेता इस विषय में दत्तचित्त हैं ? श्रील प्रभुपाद को संदेह था । पर वे गंभीर थे और उस विशेष अवसर की प्रत्याशा करते थे जिसमें उन्हें अपराध का अंत करने के निमित्त शिकागो में नेताओं को उपदेश देना होगा। अपने कमरे में अपने शिष्यों के एक दल के साथ बैठे हुए प्रभुपाद ने भागवत से एक विशेष श्लोक पढ़वाया जिसका प्रारंभ कामस्य नेन्द्रिय- प्रीति: है । हरिकेश ने पढ़ा, 'सम्पूर्ण रूप से भ्रमित भौतिक सभ्यता इन्द्रियतृप्ति की इच्छाओं की पूर्ति की ओर गलती से निर्दिष्ट है। ऐसी सभ्यता में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, अंतिम लक्ष्य इन्द्रियों का परितोष होता है। राजनीति, समाज सेवा, परोपकार, लोकोपकार, और अन्तत: धर्म अथवा मोक्ष में भी, इन्द्रिय- परितृप्ति का रंग हर समय प्रधान रहता है। राजनीति के क्षेत्र में नेतागण अपनी व्यक्तिगत इन्द्रिय- परितृप्ति के लिए परस्पर लड़ा करते हैं । ' श्रील प्रभुपाद ने बीच में कहा, 'अब भारत में भी यही हो रहा है। ये सभी चीजें पूर्वज्ञात होती हैं। मैने इनके सम्बन्ध में तात्पर्य में विस्तार से बताया है । तब ?" हरिकेश आगे पढ़ने लगा, “ मतदाता तथाकथित नेताओं की तभी प्रशंसा करते हैं जब वे उनके इन्द्रिय- परितोष का वायदा करते हैं। ज्योंही मतदाताओं को अपनी इन्द्रियतृप्ति से असंतोष होता है वे नेताओं को गद्दी से उतार देते हैं। मतदाताओं की भौतिक इच्छाओं की पूर्ति न कर सकने पर, नेता उन्हें सदैव असंतुष्ट कर देते हैं। ' प्रभुपाद ने बीच में फिर कहा, “विरोध में सभाएँ होती हैं और जुलूस निकाले जाते हैं, किन्तु लोगों को संतुष्ट करने में कोई सक्षम नहीं होता, क्योंकि कोई नहीं जानता कि जनसमूह को संतुष्ट कैसे रखा जाय। ये धूर्त बिल्कुल नहीं जानते । मैने हमेशा कहा है कि वे सब के सब धूर्त हैं। अब वे पूछते हैं, "क्या किया जाय ?" उनके सामने अनेक समस्याएँ आएँगी । 'क्या किया जाय ?' – यह तो शुरुआत है। सारे संसार में कुव्यवस्था हो जायगी, यदि लोग कृष्णभावनामृत को स्वीकार नहीं करते। अनेक 'क्या किया जाय ?' उत्पन्न हो जायँगे। उन्हें बताओ कि ओषधि यहाँ हैं । उपदेश का यही समय है। वे सोच रहे हैं, वे सो रहे हैं, किन्तु अब वे सोच रहे हैं कि क्या किया जाय। वे इन्द्रियतृप्ति के पीछे अंधे होकर पड़े हैं, और अब 'क्या किया जाय' की स्थिति आ गई है। " उपदेश का यही अवसर है । केवल हम ही समाधान दे सकते हैं। संसार में अन्य कोई व्यक्ति या दल नहीं है। केवल हम हैं। तो उन्हें हमारे ज्ञान का लाभ उठाना चाहिए और इसका प्रयोग करना चाहिए। सभी संन्यासियों के लिए प्रचार का यह अच्छा अवसर है।" शिकागो का मन्दिर उसकी उपनगरी इवान्स्टन में था और प्रभुपाद के पहुँचने के दूसरे दिन, ४ जुलाई को, इवान्स्टन के मेयर, एडगर वानेमन जूनियर, प्रभुपाद से मिलने उनके घर पर आए । प्रभुपाद ने तत्काल टाइम पत्रिका के अपराध पर लेख का उल्लेख किया । उन्होंने कहा, "इसकी ओषधि प्रथम कोटि के व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने में है। उन्होंने मेयर को वैदिक समाज के चार प्राकृतिक वर्गों के सम्बन्ध में संक्षेप में बताया और कहा कि समाज का अब इतना पतन हो गया है कि प्रत्येक व्यक्ति चतुर्थ वर्ग का हो गया है, सबसे निम्न वर्ग का — और सभी डूब रहे हैं। उबरने की केवल यही आशा है कि प्रथम कोटि और द्वितीय कोटि के व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जाय । कुछ मेयर वानेमन ने स्वीकार किया, “निश्चय ही, हमें एक नए उपागम की जरूरत है, क्योंकि अब हमें सफलता नहीं हो रही है । " आधे घंटे से कुछ कम के वार्तालाप के पश्चात्, श्रील प्रभुपाद एक बहुत साहसपूर्ण प्रार्थना करने को तैयार हो गए। इसके पूर्व शिकागो में जी. बी. सी. सचिव, जगदीश, ने उल्लेख किया था कि सड़क-पार, नगरपालिका की एक बहुत बड़ी इमारत खाली पड़ी थी। श्रील प्रभुपाद ने मेयर से इसे दान कर देने की प्रार्थना करने का निर्णय किया। वे मेयर को पहले ही बतला चुके थे कि कृष्णभावनामृत से अपराध और मादक द्रव्य सेवन रोका जा सकता है और अब उन्होंने हरिकेश से हरे कृष्ण एंड काउन्टरकल्चर के लेखक डा. स्टिल्सन जुड़ा का एक पत्र पढ़ने को कहा। उस पत्र में डा. जुडा ने “ मादक द्रव्य के व्यसनी हिप्पियों को कृष्ण और मानवता के प्रिय सेवकों में बदलने के लिए " कृष्णभावनामृत आन्दोलन की सराहना की थी। प्रभुपाद ने कहा, "तो, हम इसे रोक सकते हैं, शर्त यह है कि हमें इस पर कार्य करने की सुविधा प्राप्त हो । जब मेयर ने सकारात्मक उत्तर दिया तो प्रभुपाद ने उनके सामने अपनी प्रार्थना रखी । प्रभुपाद ने कहा, “मैं सोच रहा था कि हमारे सामने यहाँ एक बड़ी इमारत है, मेरीवुड नाम की वह बड़ी इमारत । आप उसके बारे में जानते हैं ? " मेयर ने उत्तर दिया कि वह इवान्स्टन नगरपालिका का नया कार्यालय होने जा रहा है। श्रील प्रभुपाद को इस विषय में नहीं बताया गया था और वे हिचके । इस बीच मेयर कहते रहे कि किस प्रकार नगरपालिका के कार्यालय अब तक नौ स्थानों में बिखरे हैं। अब उन्हें इस बड़ी इमारत में एक स्थान पर किया जा सकता है। प्रभुपाद ने कहा, “ किन्तु यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। नगरपालिका का कार्य तो चल ही रहा है, किन्तु अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। तो हमें थोड़ा अवसर क्यों नहीं देते ?" मेयर वानेमन ने शालीनता से समझाया कि उन्हें नगर - प्रबन्धक से बात करनी पड़ेगी । इस प्रकार व्यवहार- कौशल के साथ उन्होंने अपने को वचनबद्धता से बचा लिया। प्रभुपाद ने अपनी बात जारी रखी, “यदि अधिकारियों के सहयोग से हमें कोई अच्छा स्थान प्राप्त हो जाता है तो हमारा सीधा-सादा कार्यक्रम, जैसा कि प्रोफेसर जुडा ने कहा है, मादक द्रव्य के व्यसनी हिप्पियों को भक्तों में बदलना है। हम प्रत्येक को आमंत्रित करेंगे कि वह आए, हरे कृष्ण मंत्र का गायन करे और प्रसाद ले। मैंने यह आन्दोलन न्यू यार्क में अकेले ही आरंभ किया था । ये सभी लड़के मेरे पास एक-एक करके आए। मेरी कार्यपद्धति यह थी : कीतर्न करना और प्रसाद वितरण करना । प्रसाद लेने में हर एक को प्रसन्नता होगी। वे ये पुस्तकें पढ़ेंगे, ये भक्त प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। मैं एक गरीब भारतीय हूँ। मैने उन्हें रिश्वत नहीं दी है, न मेरे पास पैसे हैं । " प्रभुपाद हँसने लगे । 'अब उन्होंने अपना जीवन इस उद्देश्य के लिए अर्पित कर दिया है। इसलिए मैं इसे एक बड़े स्तर पर करना चाहता हूँ।" किन्तु व्यवहार - योग्य विकल्प भी थे। प्रभुपाद ने संकेत दिया कि कृष्णभावनामृत आंदोलन को, इमारत के एक हिस्से को, केवल एक वर्ष तक, इस्तेमाल करने दिया जाय। वे कृष्णभावनामृत के सामर्थ्य का वर्णन करते रहे। किन्तु मेयर के पास कुछ कहने को शेष नहीं था। प्रभुपाद ने प्रसाद लाए जाने का आदेश दिया और अपने अतिथि से कहा कि क्या उन्हें कुछ और जानना था । मेयर वानेमन ने उत्तर दिया, "नहीं, मुझे नहीं लगता है कि मुझे और कुछ पूछना है। किन्तु मैं समझता हूँ मैं आपके आन्दोलन के बारे में और अधिक जानना चाहूंगा । आप से वार्तालाप करके और आपकी बात सुन कर मुझे प्रसन्नता हुई है और मैं इसकी सराहना करता हूँ । मेयर के जाने के बाद एक शिष्य ने जानना चाहा कि एक बड़ी इमारत की क्या जरूरत थी। शिकागो मंदिर विशाल था और उसमें कोई भीड़ नहीं होती थी । प्रभुपाद ने कहा, “मेरा विचार अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट करने का है। यदि वे सहयोग दें तो हम अपने आंदोलन को और तेजी से आगे बढ़ा सकते हैं । " एक भक्त ने पूछा, “क्या अपने वर्तमान स्थान से हम ऐसा नहीं कर सकते ?" प्रभुपाद ने समझाया, "हम इसे छोटे स्तर पर कर रहे हैं। यह चल रहा है । किन्तु यदि हमें अधिकारियों की सहायता मिल जाय तो हम इसे बड़े स्तर पर चला सकते हैं । " लेफ्टिनेंट डेविड मोजी, जो शिकागो पुलिस विभाग का जन-सम्पर्क- प्रतिनिधि था, प्रभुपाद के अपराध रोकने के विचार में रुचि रखता था । श्रील प्रभुपाद ने उसके सामने अपना सीधा-सादा प्रस्ताव रखा। सरकार इस्कान को एक विशाल इमारत दे, जहाँ भक्त नियमित रूप से सार्वजनिक कीर्तन करेंगे और प्रसाद बाँटेंगे और लोग धीरे-धीरे शुद्ध हो जायँगे । मेयर वानेमन की तरह, लेफ्टिनेंट मोजी ने भी प्रभुपाद के प्रति आदर दिखाया और रुचि प्रदर्शित की। श्रील प्रभुपाद ने कहा, " जब तक आप हृदय स्वच्छ नहीं बनाते, तब तक केवल कानून से आपराधिकता बंद नहीं कर सकते। चोर और हत्यारे को कानून मालूम होते हैं, फिर भी वे दुष्कर्म करते हैं, क्योंकि उनका दिल साफ नहीं होता । और हमारी पद्धति दिल साफ करने की है । " लेफ्टिनेंट मोजी ने कहा, “महोदय, यह बहुत कठिन कार्य है। " प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि कार्य कठिन नहीं था; वे उसे छोटे पैमाने पर अभी भी कर रहे थे। उन्होंने कहा, "उनके सामने समस्या है 'अपराध क्यों और क्या करना है ?" और हम उसका उत्तर दे रहे हैं। आप इसका लाभ उठाएँ । अपराध क्यों ? हम कहते हैं, क्योंकि वे नास्तिक हैं। और क्या करना है ? – हरे कृष्ण कीर्तन करो और प्रसाद लो । यदि आप चाहें तो ऐसा कर सकते हैं, अन्यथा हम अपना काम कर ही रहे हैं। जैसे एक गरीब डाक्टर हो- - वह भी दवा देता है। किन्तु यदि उसे सुविधा दी जाय तो वह एक बड़ा औषधालय खोल सकता है। यही हमारा प्रस्ताव है। हम यह काम पहले से कर रहे हैं, किन्तु यदि अधिकारियों से हमें सुविधा मिले तो हम एक बड़ा स्थान, एक बड़े औषधालय की तरह, खोल सकते हैं। और समस्या बहुत बड़ी बन चुकी है, अन्यथा वे क्यों कह रहे हैं 'क्या किया जाय ?' इलिनास राज्य का विधायक जान पोर्टर भी, जो अपनी पत्नी के साथ आया था, अपराध का समाधान जानना चाहता था । किन्तु उसकी अधिक सीधी और व्यक्तिगत रुचि आध्यात्मिक जीवन में थी । उसने पूछा कि क्या, मंदिर में रहे बिना, आध्यात्मिक उन्नति संभव थी ? श्रील प्रभुपाद ने उससे कहा, हाँ, यदि वह हरे कृष्ण कीर्तन करे और यह कीर्तन कहीं भी किया जा सकता था । और उसे कृष्णभावनामृत-आंदोलन की मानक पुस्तकें पढ़नी चाहिए । मिस्टर पोर्टर ने कई ईसाई धार्मिक बातों के सम्बन्ध में भी कृष्णभावनामृत आंदोलन का विचार जानना चाहा। जैसे मूल पाप और मोक्ष । किन्तु श्रील प्रभुपाद ने सैद्धान्तिक या तुलनात्मक धर्म के विवाद में अपने को नहीं पड़ने दिया, किन्तु ईश्वर या उसके प्रतिनिधि के आदेशों के कड़ाई से पालन की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा, “मुख्य कार्य ईश्वर को समझना है । " ऐसा प्रतीत हुआ कि मिस्टर पोर्टर भक्तों के वास्ते किसी विशाल इमारत को प्राप्त करने में सहायक नहीं हो सकता था । किन्तु उसने विनीत भाव से आध्यात्मिक जीवन के बारे में जानना चाहा था । प्रभुपाद का कृष्णभावनामृत का प्रचुर दान, बिना किसी शर्त का था। चाहे कोई विधायक हो अथवा अपराधी, यदि वह निष्ठापूर्वक जानना चाहता था तो श्रील प्रभुपाद उसे भगवान् चैतन्य की कृपा का दान देने को सदैव तत्पर थे। श्रील प्रभुपाद की शिकागो - यात्रा में मंदिर के कई महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम सम्मिलित थे । तमाल कृष्ण गोस्वामी और विष्णुजन स्वामी, शिकागो, प्रभुपाद से मिलने और यह संस्तुति करने आए थे कि वे उन पचहत्तर नए भक्तों का दीक्षा - संस्कार करें जो राधा - दामोदर यात्रा संकीर्तन दल में सम्मिलित हो चुके थे और यह कि सप्ताहांत में प्रभुपाद को पुराने शिकागो के एक राधा-यात्रा जुलूस में सम्मिलित होना था । प्रतिदिन सवेरे प्रभुपाद इवान्स्टन मंदिर के विशाल कक्ष में, कई सौ भक्तों को सम्बोधित करते हुए, अजामिल के जीवन के बारे में बताते थे । प्रतिदिन वे पापी अजामिल के इतिहास के बारे में अधिक बताते थे जिसने मृत्यु - शैय्या पर भगवान् नारायण का नाम पुकार कर, मोक्ष प्राप्त किया था। चौथे दिन प्रभुपाद इस बात की व्याख्या कर रहे थे कि अजामिल ने अपने एक पुत्र का नाम नारायण क्यों रखा था । " कृष्ण की कृपा से, अपने जीवन के प्रारंभ में, अजामिल कृष्ण-भक्त बन गया था और उसने दीक्षा ली थी। तब वर्षों बाद कृष्ण ने उसे उपदेश दिया, 'तुम इस सबसे छोटे लड़के का नाम नारायण रखो। चूँकि इस लड़के से स्वभावतः तुम्हारा स्नेह होगा, इसलिए तुम कहोगे, 'नारायण, नारायण, यहाँ आओ; नारायण, खाना खाओ; नारायण, पानी पिओ; इस तरह तुम नारायण भजते रहोगे । श्रील प्रभुपाद अचानक सन्न रह गए और बोलने में असमर्थ हो गए। ऐसी बात पहले भी हुई थी, किन्तु बहुत कम। वे भावविभोर बने रहे और कक्ष अत्यन्त शान्ति में डूबा रहा। भक्त देख रहे थे कि प्रभुपाद शक्तिशाली आध्यात्मिक अनुभूति में निमग्न थे। बहुतों को ऐसा लगा कि जब उन्होंने 'नारायण' को पुकारा तो वे नारायण के आमने-सामने हो गए थे। वे कृष्ण को देख रहे थे और कृष्ण प्रदर्शित कर रहे थे कि वे अपने शुद्ध भक्त से कितने प्रसन्न थे। कृष्ण प्रभुपाद से सचमुच बहुत प्रसन्न थे और यद्यपि प्रभुपाद भौतिक संसार के अंदर ही अपने आन्दोलन के बहुत सारे धंधों में पूरी तरह व्यस्त रहते थे, किन्तु कृष्ण नित्य उनके साथ थे और आध्यात्मिक जगत से उन्हें आश्वस्त किया करते थे। भक्तों के लिए यह आन्दोलन आध्यात्मिक जगत के अस्तित्व की सम्पुष्टि करता था और इस बात की भी सम्पुष्टि करता था कि प्रभुपाद उस आध्यात्मिक जगत के प्राणी थे जो इस भौतिक जगत को कृष्णभावनामृत देने आए थे। अधिकांश भक्त अभी नए थे जो अब भी भौतिक जगत से बँधे थे और जिन्हें आध्यात्मिक जगत की झलक नहीं मिल पाई थी । किन्तु अब वे श्रील प्रभुपाद की भाव-विभोरता के माध्यम से आध्यात्मिक जगत को देख सकते थे । लगभग एक मिनट के बाद श्रील प्रभुपाद ने पुनः बाह्य संज्ञा प्राप्त की और उनके मुख से निकला " बहुत अच्छा ।" और तब उन्हीं शब्दों के साथ जिनका प्रयोग वे अपना व्याख्यान समाप्त करने में किया करते थे, उन्होंने कहा, "बहुत - बहुत धन्यवाद ।” तदनन्तर भक्तों ने तुमुल संगीतमय कीर्तन आरंभ किया । यह एक विशेष अवसर था और भक्तों ने इसे अपने हृदयों में रख लिया । श्रील प्रभुपाद ने शेराटन शिकागो में एक सम्वाददाता सम्मेलन किया जिसमें टेलीविजन और समाचार-पत्रों के लोग काफी संख्या में आए। एक मंच के ऊपर गद्दी पर बैठे हुए प्रभुपाद ने संचार माध्यमों के दल को सम्बोधित किया और वह दल शान्तिपूर्वक सुनता रहा। उन्होंने विषय प्रवर्तन “ जीवित प्राणियों के आध्यात्मिक अस्तित्व के विषय में वार्ता" के शीर्षक से किया। उन्होंने भौतिक संसार के अपरिहार्य दुखों का वर्णन किया और बताया कि किस प्रकार भगवान् की प्रेमा-भक्ति सीख कर उन्हें पार किया जा सकता है और इस तरह शाश्वत, आध्यात्मिक लोक को लौटा जा सकता है। जो व्यक्ति इस आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं, वे प्रथम श्रेणी के व्यक्ति हैं। और प्रभुपाद ने चार प्राकृतिक सामाजिक वर्गों का वर्णन किया। वक्तव्य समाप्त करने पर उन्होंने प्रश्नों का आह्वान किया। एक सम्वाददाता ने चुनौती दी कि समाज में चार वर्ग अमरीकी परम्परा की हर बात के विरुद्ध हैं, किन्तु श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि केवल प्रशिक्षण की आवश्यकता है। अमेरिका डाक्टरों, अभियंताओं, वकीलों को प्रशिक्षण दे रहा है और अमेरिका कुछ प्रथम श्रेणी के व्यक्तियों को भी प्रशिक्षण दे सकता है। "इस एक महिला सम्वाददाता : " इस सामाजिक संरचना में महिलाओं का स्थान कहाँ है? आप तो बराबर पुरुषों का ही उल्लेख कर रहे हैं।” प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि एक महिला एक पुरुष ( अपने पति) की सहायक है। यदि कोई महिला एक प्रथम श्रेणी के पुरुष ( एक ब्राह्मण) के प्रति निष्ठावान है तो वह भी प्रथम श्रेणी की हो जायगी । यदि उसका विवाह किसी द्वितीय श्रेणी के व्यक्ति (एक क्षत्रिय) से हुआ है तो उसे द्वितीय श्रेणी का समझा जायगा । यदि उसका विवाह किसी तृतीय श्रेणी के व्यक्ति (एक वैश्य) से हुआ है तो वह तृतीय श्रेणी की होगी। अपने पति के दर्जे के अनुसार वह प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ श्रेणी की होती है। महिला सम्वाददाता : 'आपका तात्पर्य यह है कि जब तक उसका विवाह न हो वह प्रथम, द्वितीय या तृतीय श्रेणी की होने के योग्य नहीं है ?" श्रील प्रभुपाद : "हाँ, एक स्त्री को संरक्षण चाहिए। बचपन में उसे पिता का संरक्षण चाहिए, यौवनावस्था में उसे पति का संरक्षण चाहिए और वृद्धावस्था में सयाने लड़कों का । उसी सम्वाददाता ने पूछा कि क्या प्रभुपाद का विचार है कि इंदिरा गांधी को राजनीतिक कठिनाइयों का सामना इसलिए करना पड़ रहा है कि वे एक स्त्री हैं और इसलिए अयोग्य हैं। प्रभुपाद ने हँसते हुए कहा, “आप मुझे आपात - कानून में क्यों फँसाना चाहती हैं । तब उन्होंने चाणक्य पंडित से उद्धरण दिया, "किसी स्त्री या राजनेता का विश्वास कभी मत करो। " प्रभुपाद ने एक सनसनी पैदा कर दी थी और कुछ ही घंटों में टेलीविजन और रेडियो स्टेशनों में सम्वाददाता सम्मेलन की चर्चा होने लगी थी, विशेष रूप से प्रभुपाद की स्त्रियों के विषय में टिप्पणियों पर । एक महिला पौरमुख्य ने, जिसकी प्रभुपाद से भेंट निर्धारित थी, फोन करके कहा कि वह अपना कार्यक्रम स्त्रियों के विषय में प्रभुपाद द्वारा व्यक्त दृष्टिकोण के कारण, रद्द कर रही है। एक टेलीविजन स्टेशन से फोन आया कि वे टेलीविजन पर एक भेंट - वार्ता करने शाम को उनके यहाँ आने का कष्ट करें एक ओर शिकागो के सम्वाददाता सांध्य और प्रातः कालीन संस्करणों के लिए अपनी कहानियाँ तैयार करने में लगे थे, दूसरी ओर प्रभुपाद की टिप्पणियों पर यूनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल एंड एसोशिएटेड वायर सर्विसेज का भी ध्यान गया । प्रभुपाद ने अपने कृष्णभावनामृत संदेश के साथ जनता तक पहुँचना चाहा था और इसलिए वे शिकागो में अपराध का समाधान प्रसारित करने का विशेष विचार लेकर आये थे, किन्तु उन्होंने एक ऐसा प्रकरण छेड़ दिया जो लोगों के लिए कहीं अधिक ध्यान का विषय बन गया था। अमेरिका में स्त्री-स्वातन्त्र्य के सर्वव्यापक माहौल के बीच, प्रभुपाद में ही वह साहस था कि वे समाज में स्त्रियों के वास्तविक स्थान के विषय में अपनी बात कह सके । भक्त इस विवाद से आन्दोलित थे और कृष्णभावनामृत दर्शन को अधिक गहराई से समझने और उसे ठीक-ठीक प्रस्तुत करने को आतुर थे । उनकी शिकायत थी कि सम्वाददाताओं में से किसी ने गहराई में जाने का प्रयत्न नहीं किया और न ही प्रभुपाद को आध्यात्मिक समानता के सम्बन्ध में उनके विचारों को प्रकट करने का अवसर दिया। तब भी जब प्रभुपाद को उस दिन शाम को मालूम हुआ कि संचार माध्यमों में उन्होंने इस कदर हलचल पैदा कर दी है, तो वे प्रसन्न हुए। वे उन्हें और अधिक बताने को तैयार थे। अपने कक्ष में शिष्यों के एक छोटे दल के सामने अपना तर्क दुहराते हुए उन्होंने कहा, “ स्त्रियाँ ही क्यों गर्भवती होती हैं ? पुरुष तो चल देता है और स्त्री को बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है और सरकार से भीख माँगनी पड़ती है । क्या यही स्वतंत्रता है ?" भक्त : “तब स्वतंत्रता गर्भनिरोध बन गई है। वे कहती हैं, "मैं बच्चा नहीं चाहती । प्रभुपाद : “ तो आप एक दूसरा पाप कर्म करते हैं। आपको इसका दण्ड मिलेगा ।" भक्त : “ श्रील प्रभुपाद, सारा सभ्य संसार, अमरीकी पाश्चात्य संसार, इस स्त्री-स्वातन्त्र्य के सिद्धान्त से दिग्भ्रान्त है । " प्रभुपाद : “ किन्तु वे स्वतंत्र कैसे होंगी। पहले मुझे आप यह बताएँ। मैं अपने अनुभव की बात नहीं करता। जब हम बात करते हैं तब हम शास्त्र के आधार पर बात करते हैं। स्त्री की परतंत्रता का वर्णन मनु- संहिता में हुआ है। महारानी कुंती का ही उदाहरण लीजिए — वे एक साधारण स्त्री नहीं हैं। वे विदुषी और उच्च पदस्थ महिला थीं। " ब्रह्मानन्द स्वामी : " यह एक बात हुई। हमारी भक्ति - परम्परा में आध्यात्मिक गुरु, स्त्रियाँ भी रही हैं, जैसे कुंती ।" प्रभुपाद : " इसीलिए मैं कहता हूँ कि कुंती अपने पुत्रों पर निर्भर थीं। मेरी स्थापना यही है। उनके पुत्रों का निष्कासन हुआ । किन्तु जब वे जंगल को गए तो कुन्ती उनके साथ गईं, क्योंकि उन्होंने सोचा, “मैं विधवा हूँ। मैं अपने पुत्रों पर निर्भर हूँ। इसलिए जहाँ वे रहेंगे, वहीं मैं रहूँगी।" भगवान् रामचन्द्र की पत्नी सीता का भी यही हुआ । भगवान् रामचन्द्र के पिता ने उनसे वन जाने की प्रार्थना की थी, सीता से नहीं । किन्तु सीता ने अपने पति के साथ वन जाना पसंद किया। जब उनके पति ने कहा, 'तुमको बनवास नहीं मिला है। तुम घर पर रहो।' तब उन्होंने कहा, 'नहीं, मैं आप पर निर्भर हूँ। जहाँ आप जायँगे, वहीं मुझे भी जाना है।' यही वैदिक संस्कृति है । " भक्त : “ उनका सतीत्व ही उनका सबसे बड़ा गुण था । किन्तु आजकल तो यह सच नहीं रह गया ।' प्रभुपाद : " आजकल अंतर आ गया होगा । किन्तु मैं तो वैदिक विचारधारा की बात कर रहा हूँ। बस । सभी परिस्थितियों में, जब तक कि पति सनकी या पागल न हो, पत्नी हर बात में उसके प्रति निष्ठावान और उसके अधीन रहती है। जब पति घर त्याग कर वानप्रस्थ आश्रम में चला जाता है तब भी स्त्री उसके साथ जाती है। जब वह संन्यास ले लेता है, तब स्त्री उसके साथ नहीं जाती । अन्यथा गृहस्थ आश्रम में, यहाँ तक कि वानप्रस्थ आश्रम में भी, स्त्री पति के साथ सदैव बनी रहती है और उसके अधीन रहती है। गांधारी के पति अंधे थे। जब गांधारी का विवाह निश्चित हुआ तब वह अंधी नहीं थी । किन्तु वह स्वेच्छा से अंधी बन गई और अपनी आँखों पर कपड़े की पट्टी बाँध कर रहती थी । वैदिक साहित्य में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं । पत्नी सदैव पति के अधीन और उसके प्रति निष्ठावान रहती है। इसी में उसकी पूर्णता है । अमरीकी लोग इस विचार को, हो सकता है, न पसंद करें, किन्तु वह अलग बात है । " टेलीविजन का एक पाँच सदस्यीय दल प्रभुपाद के घर पहुँचा । उसमें चार स्त्रियाँ थीं और एक पुरुष था । स्पष्ट था कि वे कोई तर्क प्रस्तुत करना चाहते थे। उन्होंने प्रकाश की व्यवस्था की और उपकरण यथा - स्थान स्थापित किये। इस बीच प्रभुपाद शान्त भाव से, अपनी चौकी के पीछे बैठे रहे। उनके कुछ शिष्य उनके सामने फर्श पर बैठे थे । साक्षात्कर्ता ने पहले प्रभुपाद से अमेरिका की समस्याओं का उनका समाधान पूछा। समाज की तुलना मानव शरीर से करते हुए, प्रभुपाद ने कहा कि यों तो शरीर के सभी अंग महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु उनमें सिर सबसे महत्वपूर्ण है। सिर के ठीक से काम न करने पर मनुष्य ( अथवा समाज) पागल हो जाता है । इसलिए प्रथम श्रेणी के मनुष्यों के प्रशिक्षण की आवश्यकता है। महिला सम्वाददाता ने पूछा, “इन चार वर्गों में स्त्रियों का स्थान कहाँ आता है ?" श्रील प्रभुपाद ने पुनः दुहराया कि स्त्रियाँ पुरुषों के अधीन हैं, इसलिए उनका स्थान उनके पतियों की स्थिति के अनुसार है ।" और इस तरह यह चलता रहा। प्रश्न चुनौतियों से पूर्ण थे— “क्या आप समझते हैं कि मैं आप से हीन हूँ?” साक्षात्कर्ता का उद्देश्य यह दिखाना था कि प्रभुपाद पूर्वाग्रह - ग्रसित थे, किन्तु वे तो केवल शुद्ध दर्शन की बात कर रहे थे। प्रभुपाद ने कहा, “आध्यात्मिक दृष्टि से सब समान हैं।" फिर भी भौतिक दृष्टि से पुरुष और स्त्री के बीच भेद पर उन्होंने बल दिया। उन्होंने कहा, "उदाहरण के लिए, स्त्री बच्चा पैदा कर सकती है, लेकिन पुरुष ऐसा नहीं कर सकता । क्या पुरुष के लिए गर्भ धारण करना संभव है ?" साक्षात्कर्ता : “यदि स्त्रियाँ पुरुषों के अधीन न हों तो क्या होगा ?" प्रभुपाद : " तब विघटन होगा, सामाजिक विघटन । इसीलिए पाश्चात्य देशों में इतने अधिक सम्बन्ध-विच्छेद होते हैं, क्योंकि वहाँ स्त्रियाँ पुरुषों के अधीन रहना स्वीकार नहीं करतीं।" साक्षात्कर्ता : " आपके पास उन स्त्रियों के लिए क्या उपदेश है जो पुरुषों के अधीन नहीं रहना चाहतीं ?" प्रभुपाद : "यह मेरा उपदेश नहीं है, किन्तु यह वैदिक ज्ञान का उपदेश है कि स्त्री को पतिव्रता और निष्ठावान होना चाहिए । श्रील प्रभुपाद फिर उसी बात पर आए कि स्त्रियाँ बच्चे पैदा करती हैं, किन्तु पुरुष ऐसा नहीं कर सकते। उन्होंने कहा, “प्रकृति से ही, ज्योंही आपको बच्चे होते हैं आपको पुरुष से सहायता की आवश्यकता होती है। नहीं तो आप कठिनाई में पड़ जाती हैं। " साक्षात्कर्ता : " अनेक स्त्रियों को बच्चे हैं, किन्तु अपने पतियों से उन्हें कोई सहायता नहीं मिलती। उनके पति नहीं होते हैं ।' प्रभुपाद : “तब उन्हें दूसरों से सहायता लेनी पड़ती है। आप इस बात से इनकार नहीं कर सकतीं। सरकार आपकी सहायता करती है। किन्तु सरकार को कठिनाई होती है। यदि पति अपनी पत्नी और बच्चों को अवलंबन देता है तो सरकार को बहुत सारे कल्याण - अनुदान से राहत मिल जाती है; इसलिए यह एक समस्या है। पुरुष और स्त्री साथ रहते हैं । स्त्री गर्भवती होती है और पति भाग जाता है। तब वह गरीब स्त्री अपने बच्चे के साथ कठिनाई में पड़ जाती है । उसे सरकार से भीख माँगनी पड़ती है। तो क्या आप समझती हैं कि यह बहुत अच्छी चीज है ? वैदिक विचार यह है कि स्त्री का ब्याह पुरुष से होना चाहिए और उस पुरुष को उस स्त्री का और बच्चों का भार अपने ऊपर लेना चाहिए जिससे वे सरकार या समाज के ऊपर भार न बनें । " साक्षात्कर्ता : “ उन स्त्रियों के बारे में आपका क्या कहना है जो बच्चे उत्पन्न नहीं करतीं ?" प्रभुपाद : " तो, वह एक अन्य अप्राकृतिक स्थिति है। कभी-कभी वे गर्भ निरोधक इस्तेमाल करती हैं। कभी वे गर्भपात कराती हैं— बच्चे को मार डालती हैं। यह भी कोई अच्छी चीज नहीं है। ये सब पाप - पूर्ण कार्य हैं। इनके लिए दुःख भोगना पड़ता है । " यह बहुत गरमागरम विवाद था। महिला साक्षात्कर्ता प्रभुपाद की अपमानजनक टिप्पणियों के लिए उनकी अवमानना पर उतारू थी । तब भी प्रभुपाद दृढ़ और अडिग बने रहे ; वे भौतिक सभ्यता की अनेकानेक विसंगतियों को रेखांकित करने वाले तर्क पर तर्क देते रहे। प्रभुपाद एक वर्ग के रूप में स्त्रियों के विरुद्ध कोई भेद-भाव नहीं करते थे और वास्तव में अपने कृष्णभावनामृत आन्दोलन में उन्होंने स्त्रियों को वैसा ही अवसर दिया था जैसा पुरुषों को और यद्यपि सम्वाददाता ने उन्हें गलत समझा और अंध पुरुषवादी कहा, किन्तु वास्तव में वे दयालु थे। वैदिक दृष्टि के अनुसार स्त्रियों की शोषणवादी पुरुषों से रक्षा होनी चाहिए। प्रभुपाद जानते थे कि उनकी बात को लोग पसंद नहीं कर रहे थे, किन्तु इस आशा में वे अपनी बात कहते रहे कि सत्य की विजय होगी और बुद्धिमान लोग उनकी बात को समझेंगे। महत्त्वपूर्ण बात 'स्वतंत्रता' थी, अस्थायी, सामाजिक या यौन-संबंधी बातें नहीं । दूरदर्शन - दल के जाने के बाद भी प्रभुपाद ने विचार-विनिमय जारी रखा । उन्होंने कहा कि भेंटवार्ता करने वाले का क्रुद्ध होना उनकी पराजय प्रदर्शित करता था । वे तर्क स्वीकार करने को अनिच्छुक थे । प्रभुपाद : "यह स्त्री स्वातंत्र्य सफल नहीं है। इसने अनर्थ पैदा किया है। जब स्त्रियाँ सरकार के कल्याण दान पर निर्भर हो जाती हैं तब सरकार को इस उद्देश्य से भारी कर लगाना पड़ता है। यदि वे सोचती हैं कि यह कोई समस्या नहीं है तो इस पर क्या कहा जा सकता है ? प्रकृति के नियम के अनुसार, यदि पति अपनी पत्नी और बच्चों का भार अपने ऊपर ले लेता है तो समस्या का समाधान तुरन्त मिल जाता है। किन्तु पुरुष लाभ उठाता है और स्त्री को गर्भवती बनाने के बाद उसे छोड़ जाता है। तब स्त्री कठिनाई में पड़ जाती है और सरकार कठिनाई में पड़ जाती है । " भक्त : “ और बच्चा बड़ा होकर अपराधी बन जाता है।' प्रभुपाद : “हाँ, यह एक दूसरी समस्या है। वे दूरदर्शी नहीं हैं। इसलिए हमें से उपदेश ग्रहण करना है। हम इस ज्ञान का प्रसार कर रहे हैं कि आप से शिक्षा ग्रहण करें तो आप प्रसन्न रहेंगे ।' कृष्ण कृष्ण सत्स्वरूप : "श्रील प्रभुपाद, यदि हम ये चीजें टेलीविजन पर और समाचार-पत्रों में कहें और लोग नाराज हो जायें और सभी लोग नाराज हो जायें, जैसा कि वह महिला अभी हुई थी तो इससे भी क्या हमारा अच्छा प्रचार होता है ?" प्रभुपाद : “नहीं, तब हम हरे कृष्ण कीर्तन करेंगे। किन्तु भगवद्गीता में इन सभी चीजों पर विचार किया गया है— वर्णसंकर और प्रथम श्रेणी तथा द्वितीय श्रेणी का पुरुष । यदि हमें कृष्णभावनामृत-आंदोलन को आगे बढ़ाना है तो हमें चर्चा करनी होगी। यदि वे इसे पसंद नहीं करते तो अच्छा होगा कि हम कीर्तन करें। हम किसी चीज पर बहस न करें। यदि आप भगवद्गीता से सुनने को राजी नहीं हैं तो आइए हम एक साथ हरे कृष्ण कीतर्न करें; बस । किन्तु इन चीजों पर भगवद्गीता में विचार हुआ है। वहाँ कहा गया है कि जब अवांछित जन-संख्या होती है और वह बढ़ती है तो सब नरक बन जाता है। इसलिए यदि आप नारकीय व्यक्तियों की वृद्धि चाहते हैं तो बहस मत कीजिए । किन्तु यदि आप सोचते हैं कि यह एक समस्या है तो इस पर विचार करना होगा । " सत्स्वरूप : “ब्राह्मणों के रूप में हमें सत्यनिष्ठ होना है। हांगकांग में उन्होंने आप से पूछा था कि उस गुरु के सम्बन्ध में आपका क्या विचार है जो कहता है कि मैं ईश्वर हूँ। आपने कहा था कि आप अपने को वश में नहीं रख सके थे और उसके विरुद्ध बोल पड़े थे। प्रभुपाद: "हाँ, मैने कहा था कि वह बड़ा मक्कार है। मैं और क्या कह सकता हूँ? और अब तो यह सिद्ध भी हो चुका है। जैसा कि मैने अपनी पुस्तक इजी जर्नी टू अदर प्लेनेट्स में कहा है, यह चन्द्र- यात्रा बचकाना है, और यह अब सिद्ध भी हो चुका है। अब वे चन्द्र-अभियान की बात नहीं करते, क्योंकि वह विफल रही है ।' अगले दिन सवेरे श्रील प्रभुपाद घूमने के लिए लोयोला पार्क गए। मार्ग में एक भक्त शिकागो ट्रिब्यून के प्रातःकालीन संस्करण से उच्च स्वर में समाचार पढ़ने लगा। उसके आरंभ में कहा गया था, “क्षमा करें, यदि यह कहानी अच्छी तरह नहीं लिखी गई है। मैं एक स्त्री हूँ ।" लेख में आगे लिखा था : अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापक आचार्य सतहत्तर वर्षीय कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने बुधवार को ऐसा कहा कि संघ का उद्देश्य भगवत् भक्ति और भौतिक पदार्थों के त्याग द्वारा विश्व में शान्ति की स्थापना है। स्वामी पालथी मार कर एक कीमती दिख रही गद्दी पर बैठे थे । वे चारों ओर ताजे फूलों की मालाओं और ध्वनि विस्तारक यंत्रों से घिरे थे। शेराटन शिकागो होटल का वह कान्फ्रेंस रूम, जिसे उन्होंने किराए पर लिया था, सुलगती अगरबत्तियों से महक रहा था । वे नगर में शनिवार को डेढ़ बजे स्टेट स्ट्रीट पर निकलने वाले कृष्ण जुलूस में भाग लेने के लिए आए हैं। जुलूस में वे फूल-मालाओं से सजे रथ पर सवारी करेंगे। उसके बाद वे वायुयान द्वारा फिलाडेल्फिया जायँगे जहाँ वे और उत्सवों और दार्शनिक वार्ताओं में सम्मिलित होंगे। अपने जीवन-दर्शन की व्याख्या करते हुए वे कभी-कभी अपनी सुनहरी घड़ी पर दृष्टि डालते थे। उनके पाँच प्रशंसक शिष्य उनकी बगल में घुटनों के बल बैठे थे। लेख आगे बढ़ता गया — इस भाव को अन्तर्निहित करता हुआ कि श्रील प्रभुपाद अंध पुरुषवादी थे । “उन्होंने कहा कि उनकी वर्ग-व्यवस्था में स्त्रियों का - - पुत्रियों और पत्नियों के रूप के अतिरिक्त कोई स्थान नहीं है। एक अनब्याही स्त्री अनुमानतः उनके लिए वर्गविहीन है । " कार की पिछली सीट पर बैठे हुए श्रील प्रभुपाद मंद-मंद मुसकराए और बोले, "यह यथार्थ है । वह वेश्या है, बस । यदि आप वर्गीकरण करते हैं तो वह वेश्या है । अन्य कोई मार्ग नहीं है । भक्त ने लेख पढ़ना जारी रखा। स्वामी इस समय लास ऐंजिलिस में रहते हैं और वहाँ अपने अनुयायियों को प्रशिक्षण देते हैं। उनकी आय उनकी पुस्तकों, पत्रिकाओं और अगरबत्तियों की बिक्री से होती है । वे कहते हैं कि उनके लगभग १०,००० अनुयायी हैं। उन्होंने कहा, "हमारे पास बहुत अधिक नहीं हैं, प्रथम श्रेणी का पुरुष पाना कठिन है।” कितने दुख की बात है कि जन-संख्या में आधी स्त्रियाँ हैं । ने कहा, “ तो यह बुरा नहीं है।" और उन्होंने कृष्णभावनामृत संघ प्रभुपाद में स्त्रियों के लिए अपना सकारात्मक प्रस्ताव सामने रखा । " हमारी नीति डलास में प्रथम श्रेणी के पुरुष पैदा करना होनी चाहिए। और हम लड़कियों गुरुकुल को दो बातें सिखाएँगे : अपने पति के प्रति सत्यनिष्ठ और विश्वास - योग्य कैसे बना जाय, और बढ़िया भोजन कैसे बनाया जाय। यदि उनमें ये दो योग्यताएँ आ जाती हैं तो उनके लिए अच्छा पति ढूँढने की गारंटी मेरी होगी । इसलिए ऐसा करने की कोशिश करो।' पार्क में प्रभुपाद का साथ देने के लिए कई कारों में भर कर भक्त पहुँच गए। लगभग एक दर्जन जिज्ञासु शिष्य ठीक उनके पीछे-पीछे चलने लगे और प्रभुपाद लेक मिशिगन के किनारे-किनारे छायादार ऊँचे वृक्षों से आच्छादित मार्ग पर आगे बढ़ते गए। मार्ग की चौड़ाई इतनी थी कि केवल कुछ ही शिष्य अगल-बगल चल सकते थे, इसलिए अधिकांश शिष्य मार्ग के बाहर की घास पर इस तरह चलने लगे कि वे श्रील प्रभुपाद की बात सुनते रह सकें । प्रभुपाद कह रहे थे, “सामान्य शिक्षा पर्याप्त है— ए, बी, सी, डी । ऊँची शिक्षा प्राप्त करने के बाद वेश्या बन जाओ - कितनी बेहूदा बात है । वेश्या बनने के लिए शिक्षा की जरूरत नहीं है। इसलिए डलास गुरुकुल में कोई समस्या नहीं है । लड़कियों को शिक्षा दो कि विश्वास- योग्य, सत्यनिष्ठा पत्नी कैसे बना जाता है, कैसे अच्छा भोजन बनाया जाता है। उन्हें कई तरह के भोजन बनाना सिखाओ । क्या यह बहुत कठिन है ? ये दो ही योग्यताएँ हैं लड़कियों की । हमारे यहाँ बहुत-सी कहानियाँ हैं— जैसे दमयंती, पार्वती, सीता की कहानियाँ । ये इतिहास । की महान् महिलाएँ हैं। हमारी लड़कियों को उनका जीवन चरित पढ़ना चाहिए । और पन्द्रह - सोलह साल की अवस्था होने तक उनका विवाह हो जाना चाहिए । यदि वे योग्य हैं तो उनके लिए उपयुक्त पति पाना कठिन नहीं होगा । यदि कोई स्त्री पतिव्रता है तो वह सुंदर न भी हो, तो भी अपने पति की प्रेमभाजन होगी । इसलिए उन्हें उसी तरह प्रशिक्षित करो। " वापिस लौटने से पहले प्रभुपाद रुक गए और उन्होंने सुझाव दिया कि सभी लोग घास पर बैठ जायँ । एक भक्त ने अपनी ऊनी चादर प्रभुपाद के लिए बिछा दी और सभी शिष्य अपने गुरु महाराज के सम्मुख बैठ गए। इस तरह के विशेष और अप्रत्याशित अवसर उन्हें आनन्द से विह्वल बना देते थे और टेलीविजन के किसी सम्वाददाता या शिकागो ट्रिब्यून की सम्मतियाँ असंबद्ध और महत्त्वहीन लगने लगती थीं। भक्तों की प्रायः यह इच्छा रहती कि ऐसे व्यक्ति इस तरह के अवसरों पर उपस्थित होते और वे देख सकते कि श्रील प्रभुपाद उस तरह के नहीं थे जिस तरह का वे उन्हें सोचा करते थे । श्रील प्रभुपाद ने स्त्री और पुरुष के बीच ठीक सम्बन्ध पर विचार प्रकट करना आरंभ किया। उन्होंने कहा, “ स्त्रियों और पुरुषों को अलग-अलग रहना चाहिए। यह भी अत्यन्त आवश्यक है। मक्खन और आग को एक दूसरे से दूर रखना चाहिए। अन्यथा मक्खन पिघलेगा । आप उसे रोक नहीं सकते।' भक्त : “श्रील प्रभुपाद, श्रीमद्भागवत के एक तात्पर्य में आप कहते हैं कि पचास वर्ष पहले भी भारत में स्त्रियों और पुरुषों के लिए मकान में अलग-अलग कमरे होते थे और दिन के समय पति अपनी पत्नियों को देखते भी नहीं थे । तो क्या अपने आन्दोलन में हमें इस मानदण्ड का विकास करना चाहिए ?" प्रभुपाद : “हाँ, यही अच्छा है। उदाहरण सामने है कि मक्खन को आग से जितनी दूर संभव हो, उतनी दूर रखा जाय । अन्यथा मक्खन पिघलेगा । पुरुष मक्खन है, स्त्री आग है। इसीलिए प्रतिबंध है, चाहे पुरुष पिता या भाई या पुत्र ही क्यों न हो । — मात्रा, स्वस्रा, दुहित्रा वा । कोई कह सकता है कि पुत्री, माता या बहिन की उपस्थिति में काम-वासना का विचार नहीं उठ सकता । किन्तु शास्त्र कहता है— नहीं, इसकी संभावना है। इसलिए उनको साथ नहीं बैठना चाहिए। लोग कह सकते हैं कि यह शिक्षा दसवीं श्रेणी के धूर्त पर लागू होती है । किन्तु शास्त्र की अगली पंक्ति में कहा गया है— विद्वांसम् अपि कर्षति । यह दसवीं श्रेणी के धूर्त का प्रश्न नहीं है— प्रथम श्रेणी का विद्वान् भी आकृष्ट हो सकता है। बलवान् इन्द्रिय-ग्रामो विद्वांसमपि कर्षति । इन्द्रियाँ इतनी प्रबल है कि वे महान् विद्वानों को भी भ्रष्ट कर देती हैं। " भगवान् ब्रह्मा अपनी पुत्री के प्रति आकृष्ट हो गए थे। देखिए ऐसा भी उदाहरण है । भगवान् शिव को मोहिनी - मूर्ति ने आकृष्ट कर लिया था । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, "मैं काठ की स्त्री भी देखता हूँ तो उसकी ओर आकर्षण अनुभव करता हूँ।” प्रभुपाद हँसने लगे " वे हमें यह सूचना हमारी शिक्षा के लिए देते हैं कि ऐसा संभव है । तो क्या अब हम चलें ?" कार में लौटने पर प्रभुपाद ने इन्दिरा गांधी और भारत के बारे में समाचार जानना चाहा। उनकी कुछ नीतियाँ गहरे विवाद का कारण बन गई थीं और उनका राजनीतिक विरोध बढ़ रहा था। सबसे ताजा समाचार उनके आपात - शासन का था । प्रभुपाद ने कहा, “यदि इन्दिरा गांधी मेरी सलाह मानें तो मैं उन्हें उनके पद पर बनाए रख सकता हूँ और वे भारत की अधिक सेवा कर सकती हैं। सारी जनता तुरन्त उनका समर्थन करने लगेगी ब्रह्मानंद स्वामी ने पूछा, "उन्हें आपकी क्या शिक्षा होगी ?" ने प्रभुपाद कहा, "मेरा पहला कदम सभी जमाखोरों को बंदी बनाना और खाद्यान्नों को मुफ्त वितरित करना होगा। जनता तुरंत उनकी आभारी हो जायगी । खाद्यान्नों का विशाल भण्डार देश में है और जमाखोरों ने उन्हें छिपा रखा है। ऊँचा मूल्य पाए बिना वे उन्हें बेच नहीं रहे हैं। यही चल रहा है। वे तुरन्त जनता को अपने पक्ष में कर सकती हैं। कुछ जमाखोरों को फाँसी पर लटका देना चाहिए जिससे भविष्य में कोई जमाखोरी न करे। लोग भूखे हैं और वे कहती हैं कि उनके पास गरीबी दूर करने के कुछ कार्यक्रम हैं । यही बात है । यदि वे गरीबों को सभी उपयोग की वस्तुओं की पूर्ति निःशुल्क कर सकें तो सारी जनता उन्हें तुरन्त चाहने लगेगी । और जमाखोरों को ऐसा दंड देना चाहिए कि औरों के लिए वह उदाहरण बन जाय । तब कोई जमाखोरी नहीं करेगा । लेकिन नेता बनी रहने के लिए उन्हें आध्यात्मिक शक्ति की जरूरत है, नहीं तो यह दूसरा अनर्थ होगा । यदि वे नेता बनी रहना चाहती हैं तो उन्हें आध्यात्मिक उपदेशक बनना होगा। उनका वैष्णवी बनना जरूरी है। फिलाडेल्फिया जुलाई ११, १९७५ प्रभुपाद के स्वागतों में प्रायः लोग सहज ही बड़ी संख्या में इकठ्ठे हो जाते थे। उनके किसी नगर में पहुँचने के पहले वहाँ के मंदिर में भक्तों की बाढ़ आ जाती थी; दूसरे केन्द्रों के भक्त भी वहाँ उमड़ पड़ते थे। सिवाय थोड़े से भक्तों के, जैसे प्रभुपाद के लिए भोजन बनाने में लगी स्त्री, उनके रहने के कमरे में अन्तिम टाइलें लगाने वाले पुरुष, यात्रा के रथ को सजाने में लगे भक्त, शेष सभी लोग हवाई अड्डे पर उनका स्वागत करने पहुँच जाते थे । हवाई अड्डे पर श्रील प्रभुपाद को बहुत तड़क-भड़क का अभ्यास था । लययुक्त करताल बजते थे, मृदंग पर थाप पड़ती रहती थी और सैंकड़ों प्रमुदित शिष्य सामूहिक कीर्तन करते रहते थे। केवल जब वे उच्छृंखल या उत्पातकारी बन जाते, तभी प्रभुपाद आपत्ति करते थे । अन्यथा, कृष्ण के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें अपना उत्साह भरा स्वागत देख कर प्रसन्नता होती थी, और वे फूल-मालाएँ और प्रणाम उसी तरह स्वीकार करते थे जैसे कोई वायसराय सम्राट की ओर से नजराना स्वीकार करता है। प्रभुपाद की कृपा से समस्त प्रशस्ति और समस्त उपासना सीधे कृष्ण को पहुँच रही थी । । इस प्रकार फिलाडेल्फिया में, जैसा कि लगभग प्रत्येक हवाई अड्डे के स्वागत में होता था, श्रील प्रभुपाद बहुत संतुष्ट थे । स्नेह भरे नेत्रों से वे अपने आध्यात्मिक पुत्रों और पुत्रियों के परिचित चेहरों को निहार रहे थे। भक्तगण उनके गले में मालाएँ पहनाने को आगे बढ़ रहे थे तो सम्वाददाता अपने कैमरों, ध्वनि-प्रसारक यंत्रों और नोटपैडों के साथ उनके निकट पहुँच जाते थे। सम्वाददाता, प्रभुपाद को भक्तिमय प्रशंसा अर्पित करने नहीं आए थे, फिर भी उन्हें प्रचार का अवसर देकर एक प्रकार से वे भी उनकी सेवा कर रहे थे । एक महिला सम्वाददाता ने पूछा, "ऐसा कहा गया है कि कृष्ण चेतना आन्दोलन लिंग भेद अथवा जाति-भेदभाव वाला है, क्योंकि भक्तों और वैदिक शास्त्रों में स्त्रियों और काले लोगों के विरुद्ध प्रवृति मिलती है। क्या आप इस पर टिप्पणी करेंगे ?" वह बहुत तेज गति से बोली थी और ब्रह्मानंद स्वामी ने उसकी बात को श्रील प्रभुपाद के लिए दुहराया, "वह कह रही है कि आप स्त्रियों और काले लोगों को हीन स्थान देते हैं । " प्रभुपाद : "हम आध्यात्मिक दृष्टि से समान स्थान देते हैं। भौतिक दृष्टि से एक मनुष्य सेवक है, एक मनुष्य स्वामी है। आप इससे कैसे बच सकते हैं ? क्या आप सोचते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति स्वामी होगा और कोई भी सेवक नहीं होगा ? भौतिक दृष्टि से ? भौतिक दृष्टि से एक पिता है, एक पुत्र है; एक स्वामी है, एक सेवक है; एक पुरुष है, एक नारी है। आप इसे कैसे रोक सकते हैं ? किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से वे सभी समान हैं । यहाँ भी समाचार का वही प्रकरण था जो शिकागो में शुरू हुआ था और यहाँ भी वे ही चुनौतियाँ सामने आईं। सम्वाददाता : "तो, जो भौतिक रूप में घटित हो रहा है वह महत्त्वहीन है ?" प्रभुपाद : “भौतिक दृष्टि से भेद है। किन्तु जब आप आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचते हैं और प्रत्येक, वस्तु के अन्दर आत्मा को देखते हैं, वहाँ सब समान हैं। जैसे आप लाल कमीज पहने हैं और मैं इससे भिन्न कपड़े पहने हूँ। इस तरह का अंतर रहना ही है। संसार में जाने कितने पुरुष हैं, कितनी स्त्रियाँ हैं। सबके पहनावे भिन्न भिन्न हैं। आप यह नहीं कह सकते कि पहनावे से वे सब समान हैं । किन्तु पहनावे के अंदर सभी प्राणी एक हैं। हम यह अंतर भौतिक दृष्टि से करते हैं, आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं ।" एक अन्य सम्वाददाता ने कहा: “मैं एक प्रश्न करना चाहता हूँ। वह क्या वस्तु है जो आप दे रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप इतने सारे लोग सांवेगिक रूप में आपके अनुकूल हो रहे हैं ?" प्रभुपाद : “क्योंकि वे आध्यात्मिक रूप में शिक्षित हो रहे हैं। हम भौतिक स्तर के ऊपर हैं। इसलिए हमारे यहाँ यह भेद नहीं है कि एक भारतीय है, एक अमरीकी है, एक काला है, एक गोरा है। ऐसा कोई भेद नहीं है। हर एक ईश्वर का सेवक है। ठीक है ?" एक अन्य सम्वाददाता ने कहा कि गुरु अनेक हैं और उसने पूछा कि प्रभुपाद यह क्यों सोचते हैं कि वे ही सत्य की शिक्षा दे रहे हैं। प्रभुपाद : " क्योंकि हम सत्य बोलते हैं। हम डींग नहीं हाँकते कि 'मैं ईश्वर हूँ ।' हमें यथास्थिति का ज्ञान है कि ईश्वर महान् है और हम सब उसके सेवक हैं । " प्रश्न सम्वाददाताओं की परम्परागत श्रद्धाहीन पूछताछ की शैली में पूछे जा रहे थे, किन्तु प्रभुपाद उनका उत्तर शालीन ढंग से दे रहे थे— कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को परिलक्षित करते हुए । उन्होंने पूछा, “मैं कैसे कह सकता हूँ कि मैं ईश्वर हूँ ?” और उन्होंने अपना सिर झुका लिया, "नहीं, हम डींग नहीं मारते। हम वास्तविक सत्य कहते हैं। इसीलिए इसका असर होता है। यदि मैं कोई छल-कपट की बात करूँ तो कुछ समय तक वह काम करेंगी, लेकिन टिकाऊ नहीं होगी । " हूँ?" सम्वाददाता : " आपका उत्सव कल है । उसमें क्या-क्या होगा ?" प्रभुपाद : "उत्सव ? यह कृष्ण या भगवान् का स्मरण है। वे अपने भ्राता और भगिनी के साथ कुरुक्षेत्र गए थे। इस अवसर की स्मृति में हम इस रथ यात्रा का आयोजन करते हैं । " श्रील प्रभुपाद किराए की कैडिलक लिमोसीन कार में कीर्तनानन्द स्वामी, ब्रह्मानंद स्वामी और फिलाडेल्फिया मंदिर के अध्यक्ष रवीन्द्र स्वरूप के साथ बैठ गए। प्रभुपाद ने कहा, “फिर वही प्रश्न पूछा गया। तो, उत्तर तो ठीक था ? " ब्रह्मानंद ने कहा, “हाँ, वह बहुत अच्छा था । प्रभुपाद : "भौतिक दृष्टि से भेद है, आप एक ढंग से कपड़े पहने हैं, मैं दूसरे ढंग से पहने हूँ। किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से कोई अंतर नहीं है । " कार के चालक ने पीछे की सीट की ओर देखा, "यदि आपको पीछे अधिक वायु चाहिए तो वहाँ कंट्रोल लगा है । ' ब्रह्मानंद ने कहा, प्रभुपाद ने कहा, " श्रील प्रभुपाद, हम वातानुकूल यंत्र चालू कर सकते हैं । " "ठीक है, ठीक है। किन्तु बाहर अच्छा है । " उन्होंने खिड़कियाँ खोल दीं। प्रभुपाद को याद आया कि वे पहले दो बार फिलाडेल्फिया आ चुके हैं। १९६९ ई. में वे न्यू यार्क सिटी से कुछ भक्तों के साथ टेम्पल विश्वविद्यालय में भाषण देने आए थे। और उसके पहले, १९६५ ई. में बटलर, पेन्सिलवानिया से वे पेन्सिलवानिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नार्मन ब्राऊन से भेंट करने आए थे । रवीन्द्र स्वरूप ने बताया कि वह टेम्पल विश्वविद्यालय का एक छात्र रह चुका था और श्रील प्रभुपाद के वहाँ भाषण देने के एक वर्ष बाद उसने स्वामी निखिलानंद की कक्षा में अपना नाम लिखाया था । रवीन्द्र स्वरूप : “ वहाँ के छात्र आपको याद करते थे। उन्होंने मुझे बताया था कि आप ने स्वामी निखिलानंद से पूछा था, ' तो आप वेदान्त पढ़ रहे हैं । किन्तु वेदान्त क्या है ?' और यह कोई नहीं जानता था । तब आपने कहा वेद का अर्थ है 'ज्ञान' और अन्त का अर्थ है 'अन्त'; अतः वेदान्त का अर्थ है ज्ञान का अन्त, अर्थात् कृष्ण। उन्होंने ऐसा पहले कभी नहीं सुना था, यद्यपि वे वेदान्त का अध्ययन कई घंटे कर चुके थे। " प्रभुपाद : “यही तो कठिनाई है। जो मूर्ख हैं, वही प्रमुख बन बैठे हैं। जिसे कोई ज्ञान नहीं है, वह शिक्षक की भूमिका कर रहा है। इसी तरह जैसे कोई नहीं जानता कि वेदान्त क्या है, और वह वेदान्त पढ़ रहा है। यह कितना सीधा सत्य है— वेद का अर्थ है 'ज्ञान' और अंत का अर्थ है 'अंत' । कोई अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। किन्तु आधुनिक पद्धति यह है कि हम बिना सीमा के बढ़ते जाते हैं, किन्तु अंत तक कभी नहीं पहुँचते । क्या यही बात नहीं । है ? तुम्हारा क्या मत है ? " रवीन्द्र स्वरूप : “हाँ, यह सच है । हम निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते । " एक बड़े कबाड़ के मैदान से गुजरे जो रद्द करके खंडित की गई मोटर गाड़ियों से भरा था। प्रभुपाद बोले, " मोटर कार ।" कीर्तनानंद : " यही इनके ज्ञान का अंत है— रद्द वस्तुओं का ढेर ।” प्रभुपाद : “हाँ, उनका समय बनाने और नष्ट करने में जाता है। वे यह नहीं पूछते, 'यह बनाना और बिगाड़ना क्यों ? स्थायी क्यों नहीं ?' यह प्रश्न उनके मन में नहीं उठता और वे उसका समाधान नहीं कर सकते। वे सोचते हैं कि यह बनाना और बिगाड़ना ही प्रकृति है । किन्तु हम एक दूसरी प्रकृति की जानकारी दे रहे हैं जहाँ बनाना और बिगाड़ना नहीं है— हर चीज स्थायी है । किन्तु उन्हें विश्वास नहीं होगा कि ऐसी कोई चीज है। हम यह जानकारी दे रहे हैं कि आप अपने को शाश्वत कैसे रख सकते हैं। मानव समाज के लिए यह सब से बड़ा उपहार है। मनुष्य शाश्वत रहना चाहता है, किन्तु वह नहीं जानता कि शाश्वत कैसे रहा जाता है। उसकी शक्ति का क्षय गगनचुम्बी इमारतों के बनाने में हो रहा है। लेकिन वह अपने शरीर को शाश्वत बनाने के बारे में चिन्ता नहीं करता । हम इसके बारे में हर जगह अपनी सभाओं में बताया करते हैं, लेकिन इसे समझने के लिए उनके पास दिमाग नहीं है। वे श्यूकिल नदी के किनारे-किनारे तेज घुमावदार बलखाती सड़कों पर, कार में चलते रहे। फेयर माउंट पार्क से गुजरते हुए भक्तों ने प्रभुपाद को बताया कि उसमें एक हजार एकड़ विस्तार वाला जंगल है । प्रभुपाद ने कीर्तनानंद स्वामी से पूछा कि यह न्यू वृंदावन से कितनी दूर है और वे आपस में बात करने लगे। जब प्रभुपाद ने वहाँ के गृहस्थों के बारे में पूछा तो कीर्तनानंद ने उत्तर दिया, “न्यू वृंदावन में बहुत अच्छे गृहस्थ दम्पति रहने लगे हैं, बहुत अच्छे परिवार ।" प्रभुपाद बोले, "यह जरूरी है। गृहस्थ जीवन में शान्ति की बड़ी आवश्यकता है । " एक दो मंजिले मकान को बदल कर इस्कान - केन्द्र बनाया गया था। मंदिर - कक्ष भक्तों से भरा था और अन्य लोग बड़े हाल के बरामदे में एकत्रित थे । प्रभुपाद को प्रवेश करते देखने को सभी उत्कण्ठित थे । मंदिर - कक्ष में अपने आसन पर बैठे हुए श्रील प्रभुपाद ने कहा, “आपके हार्दिक स्वागत के लिए बहुत धन्यवाद । प्रेस के सम्वाददाता मुझसे पूछ रहे थे कि हम पुरुष और स्त्री तथा काले और गोरे में भेद-भाव क्यों करते हैं। किन्तु हम उस तरह का भेद-भाव नहीं करते।” श्रील प्रभुपाद ने समझाते हुए बताया कि प्रत्येक को भौतिक दृष्टि से समान बनाने का प्रयत्न सदैव विफल रहेगा, जैसे संयुक्त राष्ट्रों का एकता का प्रयत्न विफल रहा है। भगवद्गीता का कथन है समद्रष्टा को शरीरों का अंतर दिखाई देता है, किन्तु वह सभी प्राणियों को आध्यात्मिक दृष्टि से समान मानता है श्रील प्रभुपाद ने जारी रखा, “यदि हम पुरुष और स्त्री में, काले और गोरे अनुचित भेद-भाव करते होते तो इस मंदिर में हम एक साथ बैठे आनन्द कैसे ले रहे हैं ? ऐसा इसलिए है कि आध्यात्मिक मंच पर हम सब बराबर हैं। हम यह नहीं कहते कि तुम स्त्री हो, इसलिए तुम मेरी शिष्या नहीं बन सकती, या तुम काले हो, इसलिए तुम मेरे शिष्य नहीं बन सकते। नहीं, हम हर एक का स्वागत करते हैं। इसलिए लोगों में गलतफहमी न हो, आप एक वक्तव्य जारी कर सकते हैं कि हमारा यह कहना है कि यदि आप हर एक को समान देखना चाहते हैं और हर एक के साथ समान व्यवहार करना चाहते हैं तो आपको आध्यात्मिक मंच, अर्थात् कृष्णभावनामृत में आना होगा। भौतिक दृष्टि से यह संभव नहीं है। किन्तु लक्ष्य एक होना चाहिए। यदि कृत्रिम ढंग से आप भेद-भाव नहीं रखना चाहते, तो वह स्थायी नहीं होगा । " ठीक जैसे आपके देश में, काले और गोरे समान अधिकार रखते हैं । किन्तु उनमें कभी-कभी जातीय संघर्ष क्यों होता है ? इसका कारण भौतिक स्तर है । हमारा तात्पर्य है कि आप आध्यात्मिक मंच पर पहुँच जायँ और तभी यह समानता संभव होती है। आप प्रत्यक्ष देख सकते हैं। यहाँ जब आप कीर्तन कर रहे हैं और नाच रहे हैं तो लड़का भी नाच रहा है, पिता भी नाच रहा है, काला नाच रहा है, गोरा नाच रहा है, वृद्ध नाच रहा है, युवा नाच रहा है । आप प्रत्यक्ष देखते हैं कि हर एक नाच रहा है और वे कुत्ते की भाँति कृत्रिम नाच नहीं नाच रहे हैं, वरन् आध्यात्मिक आनंद में नाच रहे हैं । अपने व्याख्यान के बाद प्रभुपाद ने प्रश्न आमंत्रित किए । रवीन्द्र स्वरूप : " संशयवाद से निपटने का सबसे अच्छा उपाय क्या है ?" प्रभुपाद: "संशयवाद - बदमाशी ( भक्त हँसते हैं); हम बदमाशी पर विचार नहीं करेंगे। हम बुद्धि की बात करेंगे। संशयवाद — संशयवादी किसी चीज में विश्वास नहीं करते। उनके लिए हर चीज झूठी है। वे इतने निराश होते हैं कि सोचते हैं कि हर चीज झूठी है। हमें ऐसे लोगों से कुछ लेना-देना नहीं है। इससे क्या लाभ होगा ? संशयवाद यही है न ? संशयवाद और क्या है ? " रवीन्द्र स्वरूप : " निराशावाद, बस।" प्रभुपाद : " किसी को निराश क्यों होना चाहिए। हम कहते हैं आप आध्यात्मिक मंच पर आ जाओ और आप प्रसन्न रहेंगे। हम निराशा से सब का उद्धार करना चाहते हैं। कभी-कभी लोग निराश होकर आत्महत्या कर लेते हैं। हम कहते हैं, 'आप निराश क्यों हैं, आध्यात्मिक मंच पर आ जाइए और आप प्रसन्न रहेंगे ।' अतएव हम उसके संशयवाद के विचार को स्वीकार नहीं करते; हम उसकी पतित दशा से उसका उद्धार करना चाहते हैं। यही हमारा लक्ष्य है। " जीवात्मा स्वभाव से प्रसन्न है। उसके लिए निराशा का कोई प्रश्न नहीं है । आप कृष्ण का चित्र कहीं भी देखें। वे कितने प्रसन्न दिखाई देते हैं। गोपियाँ प्रसन्न हैं, गोप प्रसन्न हैं, कृष्ण प्रसन्न हैं। केवल प्रसन्नता ही प्रसन्नता है । निराशा कहाँ है ? अतः आप भी उस मंच पर आ जाइए और आप भी प्रसन्न रहेंगे । कृष्ण के पास आइए, कृष्ण के साथ नाचिए, कृष्ण के साथ खाइए। हम आपको यही जानकारी दे रहे हैं। निराशा का प्रश्न कहाँ है ? कृष्ण के पास आइए । कृष्ण स्वयं प्रदर्शित करते हैं कि वे वृंदावन में कितने प्रसन्न हैं । और वे आमंत्रित कर रहे हैं, "मेरे पास आओ ।" प्रभुपाद कृष्णभावनामृत में प्रसन्नता का वर्णन भावविभोर होकर करते रहे और अंत में बोले, "क्या यह ठीक है ?" कई स्वर एकसाथ उठे, "हाँ!” श्रील प्रभुपाद की उपस्थिति में न कोई संशय रह गया, न निराशा । श्रील प्रभुपाद फिलाडेल्फिया मुख्य रूप से रथ यात्रा के लिए आए थे। भक्त जन १९७० ई. से रथ यात्रा निकाल रहे थे, यद्यपि प्रारंभिक वर्षों में यह उत्सव छोटे पैमाने पर होता था। पहले उत्सव में भक्तों ने छोटे आकार के अर्चा-विग्रहों को सजे हुए सिगार बाक्स पर रख कर जुलूस निकाला था। उन्होंने अर्चा-विग्रहों को श्यूकिल नदी के किनारे एक मंच पर रख दिया था और कीर्तन किया था । अन्य लोग पिकनिक मना रहे थे और धूप में चारों ओर लेटे थे। अगले वर्ष का उत्सव पहले से कुछ बड़ा था। एक फुट के आकार के अर्चा-विग्रहों को पालकी में बैठा कर जुलूस निकाला गया था । तब भी वह बहुत महत्वाकांक्षी उत्सव नहीं था, लेकिन श्रील प्रभुपाद ने उसकी सराहना करते हुए लिखा था । मुझे जान कर प्रसन्नता हुई है कि तुम लोगों ने रथ यात्रा उत्सव बढ़िया ढंग से मनाया । अगले वर्ष तुम यह नियमित समारोह रथ के साथ आयोजित कर सकते हो, जैसा कि हम सैन फ्रान्सिस्को और लंदन में कर रहे हैं। यह अच्छा रहेगा। इसकी चिन्ता न करो कि रथ छोटा होगा, किन्तु उत्सव करो जरूर । प्रभुपाद का पत्र पहुँचने के ठीक बाद ही, रवीन्द्र स्वरूप मंदिर का अध्यक्ष हो गया था और उसने निश्चय किया था कि १९७२ ई. में वह वास्तविक रथ के साथ रथ-यात्रा आयोजित करेगा । अतः भक्तों ने इसे कर दिखाया — उन्होंने छोटा ही सही, किन्तु एक रथ बनाया और वे जुलूस में उसे खींच कर वाशिंगटन स्क्वायर पार्क तक ले गए। १९७३ ई. में उन्होंने विशाल रथ बनाया और उत्सव में सहायता करने के लिए अन्य केन्द्रों के भक्त भी आ गए थे। श्रील प्रभुपाद ने पुनः लिखा रथ-यात्रा में या तो एक या तीन रथ होने चाहिएं। यह बड़ा सुखद समाचार है कि एक टेलीविजन स्टेशन रथ यात्रा उत्सव पर विशेष कार्यक्रम करने वाला है। ये उत्सव आम लोगों को यह दिखाने के लिए अच्छे हैं कि कृष्णभावनामृत ही वास्तविक आनन्द है। अन्य हर वस्तु कृत्रिम है । रथ-यात्रा उत्सव के लिए आपकी योजनाएँ बहुत बढ़िया हैं । १९७४ ई. के ग्रीष्म में रवीन्द्र स्वरूप ने प्रभुपाद को फिलाडेल्फिया में प्रचार - क्रियाकलापों के सम्बन्ध में लिखा था और अपने जगन्नाथ - अर्चाविग्रहों के चित्र भेजे थे। श्रील प्रभुपाद उन चित्रों से द्रवित हो गए थे। आप जिस सुंदर ढंग से वहाँ अर्चाविग्रहों की पूजा कर रहे हैं, जैसा कि आप के द्वारा प्रेषित रंगीन चित्रों से स्पष्ट है, उसके लिए मैं आपको सैंकड़ों बार धन्यवाद देता हूँ। अपने बचपन से ही मैं भी भगवान् जगन्नाथ की पूजा कर रहा था। जब मैं छह वर्ष का था तब मेरे पिताजी ने मुझे एक रथ दिया था और मैं पड़ोस में रथ यात्रा निकाला करता था। अब पश्चिम में आप भगवान् जगन्नाथ की पूजा इतने ठाट-बाट से कर रहे हैं कि मुझे इससे अत्यंत प्रसन्नता होती है। आप जिस रूप में फिलाडेल्फिया मंदिर में अर्चाविग्रहों की उपासना कर रहे हैं उसके लिए पुनः धन्यवाद । जहाँ तक रथ-यात्रा समारोह है, आप उसकी तैयारी में लगे रहें और अगले वर्ष मैं उसमें उपस्थित रहूँगा । किन्तु आप नगर के लोगों के लिए एक शानदार उत्सव करते रहें। मुझे विश्वास है कि वह सफल रहेगा । १९७५ ई. में श्रील प्रभुपाद ने डेनवर से फिलाडेल्फिया के भक्तों को आश्वस्त करते हुए लिखा था, “हाँ, मैं तुम्हारे नगर शुक्रवार जुलाई ११, १९७५ को प्रातः शिकागो से आ रहा हूँ। मैं वहाँ के प्राचार्यों से मिलने की आशा करता हूँ ।" इसलिए जब शिकागो के शिष्यों ने प्रभुपाद को वहाँ रुकने और उनके उत्सव में सम्मिलित होने के लिए मनाना चाहा तो प्रभुपाद ने मना कर दिया – शिकागो का उत्सव उसी समय होने को था, जिस समय फिलाडेल्फिया में होने जा रहा था । श्रील प्रभुपाद के पहुँचने के कुछ ही देर बाद वर्षा होने लगी और पूरे शुक्रवार और शनिवार - भर उसका क्रम चलता रहा। जब प्रभुपाद के प्रातः कालीन भ्रमण का समय आया और वर्षा तब भी हो रही थी, तो उन्होंने कहा, " तो आज मेरा घूमना कार में होगा ।" कुछ संन्यासियों और जी. बी. सी. के लोगों के साथ कार में बैठ कर प्रभुपाद वर्षा में निकल पड़े और फेयरमाउंट पार्क में चक्कर लगाते रहे। वर्षा का क्रम शनिवार को उस समय तक चलता रहा जब रथ-यात्रा का जुलूस निकलना था । जुलूस को इन्डिपेन्डेन्स माल से शुरू होना था और वालनट स्ट्रीट से होते हुए ब्राड स्ट्रीट और फिर सिटी हाल का चक्कर लगाते हुए फिलाडेल्फिया म्यूजियम आफ आर्ट के पीछे घास के ढालू मैदान पर समाप्त होना था । प्रभुपाद नगर में कार से उस स्थान पर पहुँचे जहाँ रथ यात्रा के मध्य में उन्हें जुलूस में शामिल होना था । वर्षा रुक गई थी, किन्तु घने डरावने बादल आकाश में छाए थे। चालीस फुट ऊँचा विशाल रथ राजसी विन्यास के साथ वालनट स्ट्रीट में बढ़ता रहा। जब तक वह इलेवेंथ - स्ट्रीट पहुँचा, श्रील प्रभुपाद, उसके दो ब्लाक पहले ही, अपनी कार से उतर गए थे और भगवान् जगन्नाथ की ओर पैदल चलने लगे थे। भक्तों का एक बड़ा दल प्रभुपाद को घेरे हुए था और रथ पर बैठे भक्त प्रभुपाद को अपनी ओर आते देख सकते थे। भक्तों के दोनों दल एक हो गए और कीर्तन की धूम मच गई। प्रभुपाद अब रथ के सामने खड़े थे, वे अपने हाथों और घुटनों के बल नीचे झुके और भगवान् जगन्नाथ को प्रणति - निवेदन में उन्होंने अपने मस्तक से सड़क का स्पर्श किया। प्रभुपाद ने कहा कि यह रथ अब तक के रथों में सबसे अच्छा था । उन्हें विशाल, मजबूत पहिए विशेष पसंद आए जो छोट-छोटे गोल, हीरे की शकल के शीशों से सजाए गए थे। रथ पर चढ़ कर वे अर्चाविग्रहों के नीचे बैठे और कई दिनों में पहली बार बादल फट गए और सूर्य चमकने लगा । अब लोग कार्यालयों और दुकानों से बड़ी संख्या में बाहर निकलने लगे । वे पटरियों पर खड़े हो गए और सड़क में आकर जुलूस में शामिल होने लगे । जब रथ सिटी हाल का चक्कर लगा रहा था तो भक्तों का गायन और भी तेज हो गया और उसकी ध्वनि चारों ओर की ऊंची इमारतों से प्रतिध्वनित होने लगी। फिलाडेल्फिया की रथ यात्राओं में आज की भीड़ सबसे अधिक थी । ईसाई रूढ़िवादी विघ्न डालने की कोशिश कर रहे थे, वे बड़ी पताकाएँ लिए थे जिन पर लिखा था, “ चुस्त बनो और अपने आपको बचाओ।" और "प्रायश्चित करो या जल मरो” । किन्तु उनका प्रतिरोध उस बड़े जन समूह और तुमुल कीर्तन में निष्प्रभावी साबित हुआ। एक समय जब श्रील प्रभुपाद विशेष रूप से संतुष्ट दिखाई दे रहे थे, रथ पर बैठा एक भक्त उनकी ओर झुका और पूछा कि उत्सव के सम्बन्ध में प्रभुपाद क्या सोचते हैं। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि वे सोचते हैं कि अमरीकी वैष्णव अब स्थायी रूप से पश्चिम में रहने लगे हैं। आर्ट म्यूजियम के पीछे का पार्क प्रतीक्षा -रत लोगों से भरा था। श्रील प्रभुपाद ने मंच पर अपना आसन ग्रहण किया और ध्वनि - विस्तारक यंत्र के सामने बोलना शुरू किया, "इस महान् नगर, फिलाडेल्फिया, की महिलाओ और सज्जनो ! सबसे पहले मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ। इस आंदोलन में भाग लेने के लिए आप में इतनी कृपा और इतना अधिक उत्साह है। इसलिए मैं आपका अत्यन्त आभारी हूँ। मैं उन अमरीकी लड़कों और लड़कियों का विशेष रूप से आभारी हूँ जो पाश्चात्य देशों में कृष्णभावनामृत-आन्दोलन फैलाने में मेरी इतनी मदद कर रहे हैं। " प्रभुपाद ने समझा कर बताया कि किस प्रकार सभी जीवात्माएँ शाश्वत हैं, किन्तु भौतिक शरीरों को स्वीकार कर लेने के कारण, जन्म, मरण, व्याधि और वृद्धावस्था के दुख भोगने को बाध्य हैं। मानव रूप । मानव रूप में जीवात्मा, जीवात्मा, आध्यात्मिक लोक को वापिस जाने अथवा भौतिक संसार में जन्म जन्मांतर के भोग का निर्णय कर सकता है । प्रभुपाद ने पूछा, “किन्तु इस भौतिक शरीर में रह कर हम एक शरीर के बाद दूसरे शरीर का परिवर्तन क्यों सहन करते रहें? हमें अपना मूल आध्यात्मिक शरीर धारण करना चाहिए। यही वांछनीय है । यही बुद्धिमानी है । " प्रभुपाद ने हरे कृष्ण कीर्तन का विज्ञान सब को समझाया और हर एक को इसे करने का प्रयत्न करने को आमंत्रित किया। उन्होंने कहा, "इस हरे कृष्ण मंत्र के लिए हम कोई शुल्क नहीं लेते। हम सर्वत्र इस मंत्र को जपते हैं जैसा कि आप ने इस रथ यात्रा में देखा है । हमारा साधन केवल हरे कृष्ण मंत्र है। और ये हजारों लोग हमारे पीछे केवल हरे कृष्ण मंत्र गाते हुए चल रहे हैं। इसलिए आप समझ सकते हैं कि इस हरे कृष्ण मंत्र में कितनी शक्ति है। महिलाओ और सज्जनो ! हमने आपको अपना अनुगमन करने के लिए कुछ दिया नहीं है; हम केवल हरे कृष्ण कीर्तन करते हैं। इसलिए यह अत्यन्त शक्तिशाली है। हरे कृष्ण कीर्तन करने से आप कभी थकेंगे नहीं। आप प्रत्यक्ष देख रहे हैं। आप चौबीस घंटे कीर्तन करते रहें, फिर भी कभी थकेंगे नहीं। इसीलिए कहा गया है, गोलोकेर प्रेम-धन: इस कीर्तन की लहर आध्यात्मिक संसार से आती है।' में श्रील प्रभुपाद ने रथ यात्रा का अंतरंग अर्थ बताया : राधा-राणी का कुरुक्षेत्र से मिलना और उन्हें वृंदावन वापिस ले जाने का प्रयत्न करना। उन्होंने कृष्ण कहा, 'यह अत्यन्त भाव - प्रवण मनोस्थिति है। जो भक्त आगे बढ़ चुके हैं वे ही इसका आनन्द ले सकते हैं। अपने सम्बोधन को समाप्त करते हुए उन्होंने हर एक को आमंत्रित किया कि वह कृष्णभावनामृत साहित्य का अवलोकन करे और उसे समझने का प्रयत्न करे । भक्तों ने बारह सौ पाउंड हलवा, बड़ी मात्रा में सब्जियाँ, मिठाइयाँ और फलाहार तैयार किया था जिसे उन्होंने बड़ी दक्षतापूर्वक एकत्रित जन समूह को परोसा । प्रभुपाद हर बात से संतुष्ट थे और अपने घर को लौट गए, जबकि भक्तगण सूर्यास्त तक कीर्तन में और उत्सव में आने वाले हजारों लोगों के सत्कार में लगे रहे। रथ-यात्रा के दूसरे दिन श्रील प्रभुपाद ने कमरा - भर लोगों से भेंट की जिनमें दो सम्वाददाता और उनके अनेक शिष्यों के माता-पिता थे। सम्वाददाता मिस सैन्डी निक्सन थी जो स्वच्छंद लेखिका थी, और फिलाडेल्फिया इन्क्वाइरर की मिस जोन्स थी । मिस जोन्स वही महिला थी जो श्रील प्रभुपाद से हवाई अड्डे पर मिल चुकी थी । मिस निक्सन के गले में जप की माला देख कर प्रभुपाद ने कहा, "वह एक भक्त है। वह जप कर रही थी । " मिस निक्सन ने कहा कि वह लोक विख्यात गुरुओं पर एक पुस्तक लिख रही थी और प्रभुपाद से लगभग पन्द्रह प्रश्न पूछना चाहती थी। वह बोली, " मैं आप से प्रश्न पूछने जा रही हूँ और अधिकांश का उत्तर मैं स्वयं दे लूँगी ।' श्रील प्रभुपाद उसे पसंद करते प्रतीत हो रहे थे, चाहे कारण यही हो कि वह जपमाला पहने थी, लेकिन कुछ भक्तों ने उसके यह कहने पर आँखें सिकोड़ ली कि जो प्रश्न वह पूछने जा रही थी उनके उत्तर वह जानती थी । मिस निक्सन ने पूछा, “कृष्णभावनामृत का विकास कैसे हुआ ?" श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “कृष्णभावनामृत प्रत्येक मनुष्य के अंतस्थल में है। आप देख रही थी कि पूरे जुलूस में वे किस तरह भावाभिभूत होकर कीर्तन और नृत्य कर रहे थे। तो क्या आप समझती हैं कि यह कृत्रिम है ? नहीं, केवल दिखाने के लिए कोई मनुष्य घंटों कीर्तन और नृत्य नहीं कर सकता । इसका तात्पर्य है कृष्णभावनामृत का जागरण ।' श्रील प्रभुपाद ने धैर्यपूर्वक और सावधानीपूर्वक प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दिया – ईसा मसीह के सम्बन्ध में, गुरु के सम्बन्ध में, भक्तों की दैनिक जीवन-चर्या के सम्बन्ध में। अनीश्वरवादी समाज की बुराइयों का विवेचन करते हुए उन्होंने गो-वध का उल्लेख किया। उन्होंने कहा, “यह एक निरीह पशु है । यह ईश्वर की दी हुई केवल घास खाती है और दूध की पूर्ति करती है। और दूध पर हम जीवित रह सकते हैं। और हमारी कृतज्ञता है कि हम उसका गला काट देते हैं ? क्या यही सभ्यता है ? आप क्या कहती हैं ?" मिस निक्सन ने उत्तर दिया, "मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ। मैं चाहती हूँ कि ये चीजें मैं न कहूँ, आप कहें। मैं प्रश्न औरों के लिए पूछ रही हूँ जो, निस्संदेह, कृष्णभावनामृत नहीं समझते।" भक्तों ने फिर आँखें सिकोड़ीं । प्रभुपाद कभी - कभी किसी व्यक्ति के दृष्टिकोण का या उसके सूक्ष्म संकेत का उत्तर नहीं देते थे; इसका यह मतलब नहीं था कि वे उसे समझते नहीं थे। वे कभी कभी अप्रत्यक्ष ढंग से कही गई बात का उत्तर नहीं देते थे, अथवा मूर्खतापूर्ण बात के प्रति अपनी प्रतिक्रिया नहीं प्रकट करते थे, जैसे मिस निक्सन का कृष्णभावनामृत की विशेषज्ञा बनने का दावा । और प्रायः वे किसी व्यक्ति के तुच्छ वार्तालाप या सांसारिक विचारों की केवल उपेक्षा कर जाते थे। किन्तु वे जिस व्यक्ति से भी बात करते थे उससे हमेशा सम्पर्क रखते थे और उसकी भलाई की बात सोचा करते थे । वे जानते थे कि मिस निक्सन को उन प्रश्नों के उत्तर नहीं मालूम थे जो वह पूछ रही थी और वे यह समझते थे कि, थोड़े समय के लिए जपमाला पहनने के बावजूद, वह एक विनीत शिष्या की तरह प्रश्न नहीं पूछ रही थी । फिर भी वे उसके प्रति दयालु थे और उसके तथा उसके पाठकों के बोध के लिए उसके प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे । मिस निक्सन आगे बढ़ती गई : " स्त्री-स्वातंत्र्य के सम्बन्ध में आप क्या विचार रखते हैं ? " प्रभुपाद मौन बने रहे और एक भक्त ने दुहराया, "वह स्त्री - स्वतंत्र्य के बारे में जानना चाहती है। स्त्री-स्वातंत्र्य के विषय में आपकी भावना क्या है ? " श्रील प्रभुपाद ने कहा, “मैं उस पर विचार विनिमय नहीं चाहता, क्योंकि..." प्रभुपाद की गंभीर मुद्रा धीरे-धीरे मुसकान में बदल गई और तब वे हँसने लगे । हर एक हँसने लगा। उनकी शिकागो की टिप्पणी विख्यात थी । एक ओर वे एक दूसरा विवाद नहीं उठाना चाहते थे, किन्तु वे विषय को स्पष्ट भी कर देना चाहते थे । उन्होंने जारी रखा: “चूँकि आपने पूछा है, इसलिए मैं स्पष्ट कर दूँ कि मूर्ख स्त्रियाँ किस प्रकार कुशाग्र-बुद्धि पुरुषों से धोखा खा रही हैं। आपके देश में आपको स्वतंत्रता दी गई है। स्वतंत्रता का अर्थ समान अधिकार है। क्या यही बात नहीं है ? पुरुष और स्त्री समान अधिकार रखते हैं । " मिस निक्सन : " इस देश में कोशिश हो रही है प्रभुपाद : "ठीक है। कोशिश हो रही है। किन्तु आप महिलाएं स्वयं नहीं देख सकतीं कि इस तथाकथित समान अधिकार का अर्थ है आपके साथ धूर्तता । अब मैं इस बात को अधिक स्पष्टता से कहता हूँ। एक पुरुष और एक स्त्री मिलते हैं। वे प्रेमी-प्रेमिका बन जाते हैं । तब वे संभोग करते हैं और स्त्री गर्भवती हो जाती है और आदमी चला जाता है। भोली-भाली औरत को बच्चे का भार उठाना पड़ता है और सरकार से अनुदान की भिक्षा माँगनी पड़ती है— कृपा करके मुझे धन की सहायता कीजिए । यही है आपकी स्वतंत्रता । तो क्या आप स्वीकार करती हैं कि यह स्वतंत्रता है। आपका उत्तर क्या है ?" श्रील प्रभुपाद ने चुनौती - भरी दृष्टि से दोनों महिलाओं को देखा। वे अपने प्रश्न पूछ चुकी थीं, अब वे पूछ रहे थे । मिस जोन्स : "मेरा उत्तर इस प्रश्न का क्या है कि मैं अपने बच्चे को मार डालूंगी या नहीं ? यही प्रश्न है न ?” प्रभुपाद : "हाँ, वे मार रही हैं अब, गर्भपात । " मिस जोन्स : “हाँ, उसने अपना चुनाव किया है । " प्रभुपाद : " आपने अपने बच्चे की हत्या का चुनाव किया है। क्या यह बहुत अच्छा चुनाव है ?" मिस निक्सन : " यह सबसे घिनौना अपराध है, जो कोई कर सकता है । " श्रील प्रभुपाद (मिस जोन्स से ) : “ क्या आप समझती हैं कि यह बहुत अच्छा धंधा है ?" मिस जोन्स : “मैं समझती हूँ कि यह बहुत उलझा हुआ प्रश्न है ।' प्रभुपाद : “ इसीलिए मैं कहता हूँ कि स्वतंत्रता के नाम में वे आपके साथ धोखा कर रहे हैं। आप इसे नहीं समझतीं । वे आप को ठग रहे हैं; आप सोचती हैं कि आप स्वतंत्र हैं । " मिस निक्सन : " वे उस दायित्व को भूल जाते हैं जो स्वतंत्रता के साथ आता है । " प्रभुपाद : “हाँ वे ( पुरुष ) जिम्मेदारी नहीं लेते। वे दूर भागते हैं। वे आनंद लेते हैं और चल देते हैं। और औरत को जिम्मेदारी ढोनी पड़ती है। या तो बच्चे की हत्या कर दो या उसको पालने के लिए भीख माँगो क्या आप समझती हैं कि भीख माँगना अच्छा है ? भारत में, यद्यपि वे गरीबी से पीड़ित हैं, फिर भी वे स्वतंत्र नहीं हैं। वे अपने पतियों के संरक्षण में रहती हैं और वह जिम्मेदारी लेता है। स्त्री को न तो बच्चे की हत्या करनी पड़ती है, न उसे पालने के लिए उसे भीख माँगनी पड़ती है । " तो स्वतंत्रता किसे कहेंगे ? एक पति के अधीन रहना स्वतंत्रता है या हर एक से भोगी जाने के लिए आजाद होना स्वतंत्रता है ? स्वतंत्रता है नहीं, फिर भी वे सोचती हैं कि वे स्वतंत्र हैं। इसका मतलब यह है कि किसी बहाने पुरुष स्त्रियों के साथ प्रवंचना कर रहे हैं। यही बात है । तो स्वतंत्रता के नाम में वे एक अन्य वर्ग द्वारा प्रवंचित होने को राजी हैं । यही परिस्थिति है । ' प्रभुपाद ने बताया कि कृष्णभावनामृत-आन्दोलन में स्त्रियों को सर्वाधिक सम्मान दिया जाता है। उन्होंने कहा, “ पुरुष द्वारा इस शोषण से उन्हें बचाने के लिए हम उन्हें सिखाते हैं कि तुम यह करो, तुम वह करो। तुम ब्याह कर लो, सुव्यवस्थित हो जाओ। स्वतंत्रतापूर्वक इधर-उधर भटको मत। हम उन्हें ऐसी ही शिक्षा देते हैं । किन्तु जहाँ तक कृष्णभावनामृत है, हम वितरण समान रूप से करते हैं। ऐसा कोई प्रश्न नहीं है कि, 'अरे, तुम तो औरत हो, कम बुद्धिमान या अधिक बुद्धिमान हो, इसलिए तुम नहीं आ सकती।' हम ऐसा नहीं कहते । हम औरत, मर्द, गरीब, अमीर — सभी का स्वागत करते हैं, क्योंकि उस मंच पर समता है। यही समता है। " इसके बाद मिस जोन्स ने प्रश्न पूछना आरंभ किया। श्रील प्रभुपाद के शिकागो पहुँचने के दिन से वह उनका प्रचुर भौतिक वैभव देख रही थी । उसने आरंभ किया, “ आपने कहा है कि आप बहुत छोटे हैं और आप ईश्वर नहीं हैं। तो भी मुझे, एक बाह्य व्यक्ति होने के नाते, ऐसा लगता है कि भक्त आपके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं मानो आप ईश्वर हों । " प्रभुपाद : “हाँ, यह भक्तों का कर्त्तव्य है । ठीक जैसे एक सरकारी अधिकारी का। स्वयं वह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु जब तक वह सरकार के आदेश को लागू करता है, उसका सम्मान सरकार जैसा होना चाहिए । यही नियम है। एक मामूली पुलिस का आदमी भी आता है तो आपको उसे आदर देना है, क्योंकि वह सरकारी आदमी है। किन्तु उसका आशय यह नहीं है कि उसका आदर होता है। यदि वह सोचता है, 'मैं सरकार बन गया हूँ, लोग मेरा आदर कर रहे हैं,' तो वह मूर्ख है। किन्तु शिष्टाचार का नियम यही है कि जब सरकारी आदमी आए तो आप उसे सरकार जैसा ही आदर मिस जोन्स : "मुझे आश्चर्य है कि भक्त आपके लिए किस तरह अनेक सुंदर भौतिक वस्तुएँ लाते हैं। उदाहरण के लिए जब आप हवाई अड्डे से चले तो आप एक सुंदर, बड़ी और अनोखी कार में चले। मैं तो आश्चर्यचकित थी।" प्रभुपाद : " यह उन्हें आदर करना सिखाना है। यदि आप किसी सरकारी आदमी का आदर सरकार की तरह करते हैं तो आपको उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। यदि आप आध्यात्मिक गुरु को ईश्वर की तरह आदर देते हैं तो आपको उन्हें ईश्वर जैसी ही सुविधाएँ देनी चाहिए। नहीं तो, भक्त मेरे साथ ईश्वर जैसा व्यवहार कैसे करेंगे, क्या केवल मन में ? नहीं, व्यवहार में भी । " मिस जोन्स : “मुझे खेद है, आपने अभी क्या कहा है ?” प्रभुपाद : “यदि आध्यात्मिक गुरु के साथ ईश्वर जैसा व्यवहार होना है तो भक्तों को यह प्रदर्शित करना आवश्यक है कि वे उसे ईश्वर जैसा कैसे मानते हैं। ईश्वर सुनहरे रथ में यात्रा करता है तो यदि आध्यात्मिक गुरु के लिए मामूली मोटर कार की व्यवस्था होती है, तो भी यह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि उसके साथ ईश्वर जैसा व्यवहार होना है। यह मोटर कार ईश्वर के लिए क्या है ?" प्रभुपाद के इस साहसपूर्ण तर्क पर भक्त हँसने लगे। उन्होंने इस तरह कभी नहीं सोचा था : यदि गुरु भगवान् का प्रतिनिधि है तो उसके लिए, इस भौतिक संसार की एक कैडिलक कार मात्र की व्यवस्था किए जाने पर, यह वितण्डा क्यों ? प्रभुपाद : "भक्तों में अब भी कमी रह गई है । यदि भगवान् आपके घर आते हैं तो क्या आप उनके लिए एक मामूली मोटर कार लाएँगे। या उनके । लिए एक सुनहरी मोटर गाड़ी की व्यवस्था करेंगे? आपका तर्क है कि वे मेरे लिए एक सुंदर मोटर गाड़ी लाए थे। मैं कहता हूँ वह इतने पर भी अपर्याप्त है । गुरु के साथ ईश्वर जैसा व्यवहार करने में अब भी कमी रह गई है । व्यवहार कुशल बनिए।" मिस जोन्स को ऐसा नहीं लगा कि यह सब केवल मजाक था। उसके पास एक दूसरा प्रश्न था । उसके प्रश्न अधिक चुनौतीपूर्ण होते जा रहे थे । प्रभुपाद ने उसे समझाया कि किस तरह चीजों को उपयुक्त परिदृश्य में समझने के लिए उसके पास आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि का होना आवश्यक था । " किन्तु आपके पास वैसी दृष्टि नहीं है— इसलिए शिष्यों द्वारा मेरे लिए एक सुन्दर मोटर कार की व्यवस्था किए जाने पर आपको ईर्ष्या हो रही है। अतः आपको अन्तर्दृष्टि से काम लेना है। एक अंधा व्यक्ति देख नहीं सकता। आँखों का प्रयोग देखने के लिए होना चाहिए ।" मिस जोन्स के पास एक प्रश्न और था । उसने कहा कि कृष्णभावनामृत समझने के लिए जो सबसे कठिन वस्तुएं हैं, उनमें से एक है अर्चा-विग्रह । पश्चिम में पल कर बड़े होने वाले किसी व्यक्ति की समझ में, यह कैसे आए कि अर्चाविग्रह भगवान् के प्रतिनिधि हैं ? श्रील प्रभुपाद ने पहले यह समझाया कि शरीर में रहने वाला दिव्य आत्मा ही वास्तविक आत्मभाव है। उन्होंने कहा, "इसलिए जैसे आप आत्मा को नहीं देख सकतीं उसी तरह आप परम आत्मा या ईश्वर को नहीं देख सकतीं। किन्तु आपके प्रति अपनी कृपा प्रकट करने के लिए वह काठ या पत्थर के रूप में प्रकट होता है, ताकि आप उसे देख सकें । " दोनों सम्वाददाताओं के प्रश्न समाप्त हो गए और उन दोनों ने प्रभुपाद को धन्यवाद दिया । तब उनका ध्यान कक्ष में उपस्थित अन्य लोगों पर गया। जब एक भक्त के पिता ने कहा कि वह कोई धर्म नहीं मानता तो प्रभुपाद ने परोक्ष रूप में उत्तर दिया कि वह पिता मूर्ख था । उस व्यक्ति ने इसे स्वीकार किया । किन्तु भक्त की माँ का रुझान धर्म की ओर अधिक था और प्रभुपाद ने उसकी प्रशंसा यह कह कर की कि लड़का माँ के लक्षण प्राप्त करता है। एक अन्य अतिथि बोला, “स्वामी, मैं आप से पूछना चाहता हूँ कि क्या आप मेरे लिए प्रार्थना करेंगे ?" प्रभुपाद ने मंद स्वर में कहा, “मैं तो हर एक के लिए प्रार्थना करता हूँ । यह मेरा धंधा है; अन्यथा, मैं यहाँ क्यों आया हूँ।' एक महिला ने प्रभुपाद से कहा, “एक माँ के रूप में मैं भी आपको धन्यवाद देना चाहती हूँ। मेरी लड़की जॉय, कृष्णभावनामृत पा गई है। कल दीक्षा के लिए उसकी संस्तुति की गई है । " प्रभुपाद : हम तो हर एक के लिए संस्तुति करते हैं। प्रत्येक अमेरिकन को दीक्षित हो जाना चाहिए, हमारी यही संस्तुति है; आप जितनी जल्दी इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेंगी, आपके लिए अच्छा ही होगा। ईश्वर को जानना और प्रेम करना; क्या इसमें कोई कठिनाई है ? कुछ लोगों की रुचि इसमें हो गई है, अन्य लोगों की भी क्यों न हो ? " प्रभुपाद ने फिर उस पिता पर दृष्टि डाली जिसने कहा था कि वह कोई धर्म नहीं मानता, उन्होंने कहा, “आपके लड़के की रुचि है, पिता की रुचि क्यों न हो ? कारण क्या है ?" इस तरह सान्ध्य दर्शन चलता रहा, फिर कुछ घंटों के बाद प्रभुपाद ने उसे समाप्त किया और प्रसाद बाँटा । जब अन्तिम अतिथि चला गया तो कई महिला - भक्तों ने प्रभुपाद से पूछा कि उनकी शिष्याओं की स्थिति वास्तव में क्या थी ? वे मुसकराए। उन्होंने 'जब एक महिला कृष्णभावनाभावित हो जाती है तो उसका मस्तिष्क स्वतः बड़ा हो जाता है ।" भक्त हँसने लगे । कहा, प्रभुपाद को मुसकराते देख कर उनके भक्त उन्हें अच्छी तरह समझ गए : जो भी भक्त बन जाता है, वह पुरुष हो या स्त्री, वह अधिक कुशाग्र-बुद्धि हो जाता है। पुरुष या स्त्री के अधिकारों के सम्बन्ध में प्रभुपाद की दिव्य दृष्टि शारीरिक उपाधि से परे जाती थी। उनकी दृष्टि में बुद्धि की परख भौतिक— लिंग, नस्ल, अथवा राष्ट्रीयता — नहीं थी, वरन् वह आध्यात्मिक जीवन के लिए व्यक्ति की इच्छा पर आधारित थी । एक महिला भक्त ने प्रभुपाद से स्त्रियों की स्थिति के सम्बन्ध में एक और प्रश्न पूछा । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “आप तो स्त्री नहीं हैं; आप एक भक्त हैं ।” श्रील प्रभुपाद कई प्रोफेसरों से मिलने को राजी हो गए, जो रवीन्द्र स्वरूप के परिचित थे । पेन्सिल्वानिया विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में बी. ए. और टेम्पल विश्वविद्यालय से एम. ए. करने के बाद, रवीन्द्र स्वरूप अब टेम्पल विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. के लिए शोध कर रहा था । वह पढ़ाई-लिखाई को माया का एक अंग मान कर उसे, एक बार, छोड़ कर कृष्णभावनामृत में पूरी तरह रम गया था, किन्तु प्रभुपाद ने उसे आगे की डिग्री के लिए शोध करने को प्रोत्साहित किया था । जब श्रील प्रभुपाद फिलाडेल्फिया में थे तो वे आगमनात्मक तर्क की प्रक्रिया के विरुद्ध बोले थे । एक दिन सवेरे के भ्रमण में रवीन्द्र स्वरूप ने कहा था, "प्रभुपाद, आपने आगमनात्मक प्रणाली की अभी जो आलोचना की है, वैसी ही आलोचना जान स्टुअर्ट मिल और बर्टूण्ड रसेल ने भी की थी, किन्तु बाद में वे संशयवादी बन गए थे। इसलिए वे कहते हैं कि ज्ञान जैसी कोई चीज है ही नहीं ।" श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, "यह एक दूसरी मूर्खता की बात है। यह भी एक अनुमान है— 'क्योंकि मैं विफल रहा, इसलिए ज्ञान है ही नहीं ।" डा. योगेश पटेल जो भारत में जन्म लेकर पश्चिम में शिक्षित हुए थे और बौद्ध धर्म और मायावादी हिन्दू-दर्शन के अध्येता थे, टेम्पल विश्वविद्यालय के धर्म - विभाग में पढ़ाते थे। एक दिन अपने दो स्नातक छात्रों के साथ डा. पटेल तीसरे पहर उस समय आ टपके जब श्रील प्रभुपाद अपने कमरे में अपने कई शिष्यों के साथ वार्तालाप कर रहे थे । रवीन्द्र स्वरूप ने परिचय कराया । प्रभुपाद : “ तो आप हिन्दू धर्म पढ़ाते हैं । " डा. पटेल : "जी हाँ ।" प्रभुपाद : “हिन्दू धर्म क्या है ?" डा. पटेल : "मैं नहीं जानता। आप बताएँ कि हिन्दू धर्म क्या है ।" प्रभुपाद : " आप नहीं जानते ? आप हिन्दू धर्म पढ़ाते हैं और आप नहीं जानते कि यह क्या है। ये हमारे डा. स्वरूप दामोदर हैं। वे भी पी. एच. डी. हैं। आइए, इस विषय में उनका मत जानें। ( स्वरूप दामोदर की ओर मुड़ते हुए) आप इसके बारे में क्या सोचते हैं ? वे पढ़ाते हैं, लेकिन वे जानते नहीं ।' स्वरूप दामोदर : "धोखेबाज, श्रील प्रभुपाद । इसी को धोखेबाज कहते हैं । " प्रभुपाद : " तो आपने इनका निर्णय सुन लिया कि आप धोखेबाज हैं । " । डा. पटेल क्रोध में आ गए और श्रील प्रभुपाद से जोर-जोर से बोलने लगे । प्रोफेसर और श्रील प्रभुपाद में तत्काल वाग्युद्ध छिड़ गया । डा. पटेल : " आप मुझे पढ़ा रहे हैं ? यदि मैं कहता हूँ कि मैं नहीं जानता कि धर्म क्या है तो आप मुझे पढ़ाइए । ' प्रभुपाद : " एक आध्यात्मिक गुरु आपका सेवक नहीं है। आप पहले मेरे छात्रों की तरह सिर मुंड़ा डालिए, तब मैं आपको पढ़ाऊँगा । आपको आध्यात्मिक को प्रणाम करना और उसके प्रति समर्पित होना है। तब वे सत्य का उद्घाटन करेंगे। गुरु डा. पटेल ने कहा जब वे पहली बार कमरे में आए थे तो उन्होंने प्रभुपाद को प्रणाम किया था । प्रभुपाद : "तो आपको मेरी पहली शिक्षा यह है कि यह धोखाधड़ी बंद कीजिए।” अब तक श्रील प्रभुपाद और डा. पटेल जोर-जोर से बोलने लगे थे। अधिकाशं भक्त सन्न होकर मौन थे । उनमें से कुछ, जैसे ब्रह्मानंद स्वामी, को लगा कि किसी तरह भेंट-वार्ता समाप्त कर दी जाय । प्रभुपाद : " आप मुझसे पूछते हैं कि धर्म क्या है ? मेरा उत्तर है— सर्व धर्मान् परित्यज्य । कृष्ण कहते हैं कि धर्म का अर्थ है— शरणम् व्रज — पूर्णत: समर्पण । " डा. पटेल : "समर्पण से आपका तात्पर्य क्या है ?" प्रभुपाद : “आपको समर्पण का अर्थ नहीं ज्ञात है ? कोश लाओ। आइए, देखते हैं।' डा. पटेल ( चिल्लाकर ) : "नहीं! मैं समर्पण का संस्कृत में व्युत्पत्तिवाचक अर्थ जानना चाहता हूँ ।" प्रभुपाद : " आप आध्यात्मिक गुरु नहीं चाहते। आपको संस्कृत का एक शिक्षक चाहिए। हम अपना समय और अधिक व्यर्थ नहीं गवाएँगे ।" ब्रह्मानंद स्वामी ने इसे अपने लिए एक संकेत मान लिया। उन्होंने डा. पटेल से प्रस्थान करने को कहा, "इसके पहले कि आप आक्रामक बन जाते हैं।" तब ब्रह्मानंद स्वामी और डा. पटेल उठे और एक साथ कमरे से बाहर चले गए। श्रील प्रभुपाद क्रोध से काँपते रहे। वरिष्ठ भक्त रवीन्द्र स्वरूप को डाँट - भरी निगाह से देखने लगे। वह प्रभुपाद से मिलने के लिए इस तरह का आदमी कैसे लाया ? रवीन्द्र स्वरूप भयभीत और त्रस्त था । इसके पहले किसी ने प्रभुपाद को इतने क्रोध में भड़कते कभी नहीं देखा था । रात भर जाग कर रवीन्द्र स्वरूप अगले दिन सवेरे प्रभुपाद के सामने एक तैयार की हुई क्षमा-याचना के साथ गया । उसने कहा, “श्रील प्रभुपाद, मुझे सचमुच खेद है कि कल रात मैं उस प्रोफेसर को आपसे मिलने ले आया । मैं नहीं जानता था कि वह इतना धूर्त है ।" श्रील प्रभुपाद ने आश्चर्य से दृष्टि ऊपर की। उन्होंने कहा, "सब ठीक है । ' और तब वे संतोष की मुद्रा में बोले, “कम-से-कम उसे डाँट तो मिल गई । " हिन्दू धर्म के एक अन्य अध्यापक डा. थामस हापकिन्स प्रभुपाद से मिलने आए, किन्तु बिल्कुल भिन्न मनोभाव के साथ। आरंभ में ही उनके बीच निकट सौहार्द स्थापित हो गया। डा. हापकिन्स ने श्रीमद्भागवत और गीता के आपसी सम्बन्ध के विषय में पूछा, और प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि भागवतम् गीता के एक स्नातक - अध्ययन की तरह है, वह वहाँ से आरंभ होता है जहाँ गीता समाप्त होती है। डा. हापकिन्स : यदि कोई आपके साहित्य का छोटा-सा संकलन करना चाहे, उदाहरण के लिए एक-दो श्लोकों में, तो आप उसके संकलन में क्या रखना चाहेंगे ? प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "वह दो श्लोकों में व्यक्त है—“ धर्मस्य ही आपवर्गस्य... " और उन्होंने उनका अनुवाद पढ़वाया, "सभी धर्मों का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है । उनका प्रयोग सांसारिक लाभ के लिए कभी नहीं करना चाहिए। और भी, जो चरम सेवा में लीन है उसे सांसारिक लाभ का प्रयोग इन्द्रियों की तृप्ति के लिए नहीं करना चाहिए ।' प्रभुपाद ने तात्पर्य पढ़वाया और इसका आगे विस्तार किया। उन्होंने बताया कि किस तरह लोग केवल भौतिक लाभ के पीछे पड़े रहते हैं और जीवन के असली लक्ष्य की उपेक्षा करते हैं । डा. हापकिन्स : " तो क्या आप समझते हैं कि यह आप का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण संदेश है जो आप देना चाहते हैं ? " प्रभुपाद : “यही सबसे महत्त्वपूर्ण संदेश है, क्योंकि आप यह भौतिक शरीर नहीं हैं। मान लीजिए आपके पास यह कमीज है। तो, यदि आप इसी कमीज को सुरक्षित रखने का प्रयास करते रहें तो क्या यह अच्छी बुद्धिमानी की बात होगी ? अपने शरीर की परवाह किए बिना ? उसी तरह हम आत्मा है, शरीर तो वस्त्र के समान है। सारे भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति केवल शरीर की रक्षा में लगा है। कोई नहीं जानता कि आत्मा क्या है, उसकी अपेक्षा क्या है । " डा. हापकिन्स वैष्णव धर्म की ऐसी उदार व्याख्या से प्रसन्न लगते थे। जब डा. हापकिन्स ने शिव के सम्बन्ध में पूछा तो प्रभुपाद ने बताया कि यद्यपि शिव को भगवान् विष्णु के समान नहीं समझना चाहिए, किन्तु वे सबसे भगवान् अच्छे वैष्णव, विष्णु के प्रमुख भक्त, थे और उनकी उपासना इसी रूप में होनी चाहिए। और भगवान् राम ? श्रील प्रभुपाद ने बताया कि राम भगवान् कृष्ण के एक अवतार थे । प्रोफेसर हापकिन्स को यह सुन कर प्रसन्नता हुई। प्रभुपाद ने यह भी बताया कि मध्व, रामानुज, और विष्णु स्वामी — ये सभी महान् आचार्य थे। डा. हापकिन्स ने तब महाराष्ट्र के संत तुकाराम के विषय में पूछा । । प्रभुपाद : “हाँ, तुकाराम विष्णु को परमात्मा मानते थे। वे चैतन्य महाप्रभु की पद्धति, संकीर्तन, को स्वीकार करते थे। और वे चैतन्य महाप्रभु को अपना गुरु समझते थे । इसलिए तुकाराम और चैतन्य में कोई अंतर नहीं है। डा. हापकिन्स : “भगवान् विट्ठल और कृष्ण एक ही हैं ?" प्रभुपाद : "भगवान् विट्ठल विष्णु हैं । " डा. हापकिन्स : “और तमिलनाडु के अलवर, आदिवासी — आप उनकी शिक्षाएँ भी स्वीकार करते हैं ? तो असली प्रश्न वैष्णव और अन्यों के बीच का है ?" प्रभुपाद : "हाँ, प्रश्न यही है — वैष्णव और अवैष्णव । वास्तविक अंतर वैशेषिक और निर्वैशेषिक का है । " डा. हापकिन्स : " आप शिव के उपासकों को निर्वैशेषिक मानते हैं ?" प्रभुपाद : “हाँ, निर्वैशेषिक । शंकराचार्य ने कहा है कि परम सत्य, अन्ततः निर्वैशेषिक है और उपासकों के लाभ के लिए साकार की कल्पना की जा सकती है । " जब डा. हापकिन्स ने उल्लेख किया कि शिव के कुछ उपासक वैशेषिकतावादी लगते हैं तो प्रभुपाद ने, शंकर के अनुसार, शैवों की असली मानसिकता का आख्यान किया। प्रभुपाद ने कहा, 'इस समय मैं भक्त हूँ, किन्तु ज्योंही मैं पूर्णता प्राप्त कर लेता हूँ, मैं परमात्मा के साथ एक हो जाता हूँ।' यही उनका सिद्धान्त है । 'प्रारंभिक अवस्था में जब मैं पूर्ण नहीं हूँ तब मैं किसी काल्पनिक ईश्वर की उपासना करता हूँ। किन्तु जब मैं पूर्ण बन जाता हूँ तब उपासना की आवश्यकता नहीं रह जाती। मैं एक हो जाता एक अध्येता होने के नाते डा. हापकिन्स को भगवान् चैतन्य महाप्रभु के प्रामाणिक दर्शन के विषय में सुन कर प्रसन्नता हुई। जब प्रभुपाद ने स्मार्त - ब्राह्मणों को भी निर्वैशेषिकतावादी बताया तो डा. हापकिन्स को आश्चर्य हुआ । प्रभुपाद ने कहा, "उनकी पहचान करना बहुत कठिन है। अधिकांश तथाकथित वैष्णव निर्वैशेषिकतावादी हैं । " डा. हापकिन्स : “ तो कोई वास्तविक भक्त है या नहीं, इसकी परख इस बात से नहीं होती कि वह इस समय भक्त है। वरन् इस बात से होती है कि शाश्वत भक्ति को ही वह अपना लक्ष्य मानता है ।' प्रभुपाद : “हाँ, वह नित्य- युक्त है। जिसका तात्पर्य है— शाश्वत रूप में। " डा. हापकिन्स ने, इस कसौटी पर रखते हुए, श्री अरविन्द के बारे में पूछा, जो निर्वैशेषिकतावाद से ऊपर लगते हैं। प्रभुपाद सहमत हुए । प्रभुपाद ने व्याख्या की, “ वे कहते हैं कि मायावादी दर्शन के परे भी कुछ है। वह भक्ति है। किन्तु अरविन्द समझ नहीं सकते थे, क्योंकि उन्होंने सिद्ध पुरुषों से शिक्षा नहीं ली थी । वे स्वयं - सिद्धि प्राप्त करना चाहते थे । " डा. हापकिन्स : “ तो उनकी समस्या यह थी कि वे अपने ही प्रयास से यह करना चाहते थे ? " प्रभुपाद : “हाँ, वे गुरु- परम्परा से होकर नहीं चले । इसलिए इसमें बहुत समय लगता है।" डा. हापकिन्स जाना चाहते थे और उन्होंने प्रभुपाद का जो समय लिया, उसके लिए और उनके ज्ञान के लिए उन्हें धन्यवाद दिया । प्रभुपाद ने पूछा, 'आप भी हमारे साथ क्यों नहीं आ जाते ? पूरे मानव समाज को हमारे साथ हो जाना चाहिए।” डा. हापकिन्स ने उत्तर दिया कि वे लम्बे समय से भक्तों के मित्र रहे हैं और उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि अंत में वे संन्यासी हो जायँगे । प्रभुपाद ने कहा कि संन्यास का मतलब केवल वेश-भूषा बदलना नहीं है, वरन् हर वस्तु को कृष्णार्पण करना है । । जुलाई १५, १९७५ श्रील प्रभुपाद फिलाडेल्फिया से वायुयान द्वारा सीधे सैन फ्रान्सिस्को पहुँचे । वे और उपेन्द्र प्रथम श्रेणी में गए जबकि ब्रह्मानंद स्वामी, हरिकेश और प्रद्युम्न किफायती श्रेणी में गए। विशाखा - देवी दासी भी श्रील प्रभुपाद का फोटो खींचने के लिए साथ आई थी । जब वायुयान उतरने के लिए उचित उंचाई पर मंडराने लगा तो औपचारिक वेश-भूषा में एक व्यक्ति कैबिन में से निकला। उसकी नजर तुरन्त श्रील प्रभुपाद पर पड़ी जो खिड़की के पास बैठे थे। वह उनके पास पहुँच गया। जब उसने प्रभुपाद की ओर झुक कर पूछा कि वे कैसे हैं तो प्रभुपाद समझ गए कि वह उनसे बात करना चाहता है। इसलिए उन्होंने उपेन्द्र से उठ कर अपनी सीट उसे देने को कहा । प्रभुपाद ने अनुमान लगाया, "आप कप्तान हैं ?" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया : "नहीं, मैं फ्लाइट सुपरवाइजर हूँ और पाइलट और क्रू के कार्य का निरीक्षण करने आया हूँ। क्या यह ठीक रहेगा, यदि मैं आप से एक दार्शनिक प्रश्न करूँ ?" प्रभुपाद ने प्रसन्नतापूर्वक सिर हिलाया । "क्या प्रत्येक वस्तु ईश्वर द्वारा सृजित है ?" श्रील प्रभुपाद ने कहा- हाँ और वेदान्त - सूत्र उद्धृत किया— जन्माद्यस्य यतः । ने कहा — जिस वस्तु का भी अस्तित्व है उसका मूल उद्गम ईश्वर प्रभुपाद है । फ्लाइट सुपरवाइजर ने पूछा: " तो पाप क्या है ? क्या पापी भी ईश्वर की सृष्टि है ?" प्रभुपाद ने समझाया, है। ईश्वर का सामने का "ईश्वर के लिए न पाप है न पुण्य । हर वस्तु पुण्य भाग पुण्य है और उसका पृष्ठ भाग पाप है। इस उदाहरण को लें तो शरीर में छाती और पीठ बराबर हैं। ऐसा नहीं है कि जब पीठ में कुछ दर्द होता है तो हम उसकी परवाह नहीं करते और परवाह केवल तब करते हैं जब छाती में दर्द होता है। नहीं, यद्यपि यह पृष्ठ भाग है, किन्तु वह उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना सामने का भाग । "तो क्या उसी प्रकार पाप और पुण्य दोनों समान महत्त्व के हैं ? नहीं । ईश्वर के लिए कोई चीज बुरी या पापपूर्ण नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे सूर्य के लिए कहीं अंधेरा नहीं है। किन्तु हमारे लिए प्रकाश भी है और अंधकार भी है। यदि आप अपनी पीठ सूर्य की ओर रखें तो आपको अंधकार मिलेगा । और यदि आप सूर्य के सामने रहें तो अंधकार नहीं रहेगा । "हम अंधकार पैदा कर लेते हैं अपनी स्थिति में परिवर्तन करके । यदि ईश्वर के सामने न रह कर हम ईश्वर की ओर अपनी पीठ कर लेते हैं तो अंधकार हो जाता है। अन्यथा अंधकार का कोई प्रश्न ही नहीं है। सूर्य में, जैसा कि वह है, अंधकार को कोई स्थान नहीं है। इसलिए ईश्वर सर्वरूपेण पुण्य है। लेकिन, जब हम ईश्वर को भूल जाते हैं तब पाप छा जाता है। और जब हम सदैव ईश्वर - चेतन रहते हैं तो सर्वत्र पुण्य का राज रहता है। क्या यह ठीक है ?" ऐसा लगता था कि उस व्यक्ति की समझ में बात आ गई थी और उसने उत्तर स्वीकार कर लिया। वह एक दूसरा प्रश्न पूछने ही को था कि अच्छे कपड़े पहने और कुछ-कुछ नशे में धुत एक यात्री उनके पास पहुँचा और प्रभुपाद से बोलने लगा । श्रील प्रभुपाद ने उस आदमी की ओर देखा और पूछा, "क्या आप मृत्यु से डरते हैं?" वह मदहोश व्यक्ति कुछ हकलाया, शान्त हुआ और वहाँ से चला गया । फ्लाइट सुपरवाइजर ने श्रील प्रभुपाद से अपनी भेंट को एक विरल सुअवसर समझते हुए, पुन: पूछा: " क्या आप बता सकते हैं कि कोई शान्ति कैसे प्राप्त कर सकता है ?" श्रील प्रभुपाद गीता से उद्धरण देने लगे - भोक्तारम् यज्ञ तपसाम्... और विशाखा को संकेत करके उन्होंने गीता की एक प्रति माँगी। भक्तों ने आपस में परामर्श किया, किन्तु भगवद्गीता की प्रति किसी के पास नहीं थी । जब प्रभुपाद ने यह सुना तो उन्हें क्रोध आ गया, यद्यपि अतिथि की उपस्थिति में उन्होंने अपने इस भाव को दबाया। उन्होंने उस व्यक्ति को बताया कि कोई व्यक्ति ईश्वर को परम - नियंता, परमानंद और सब का हितैषी माने तभी वह शान्ति पा सकता है। प्रभुपाद ने कहा, “ मूर्खतावश हम दावा करते हैं कि भूमि हमारी जायदाद है । इसीलिए हमें शान्ति नहीं मिलती। किन्तु, वास्तव में, ईश्वर सब का स्वामी है । " श्रील प्रभुपाद और फ्लाइट सुपरवाइजर दोनों को वार्तालाप में बड़ा आनन्द आया और जब फ्लाइट सुपरवाइजर प्रभुपाद से क्षमा-याचना करते हुए जाने लगा तो उसने प्रभुपाद से प्रेम से हाथ मिलाया । । प्रभुपाद ने प्रद्युम्न को बुलाया। उनके नेत्रों में दिव्य क्रोध झलक रहा था । उन्होंने उपेन्द्र और प्रद्युम्न को गीता की कोई भी प्रति साथ न रखने के लिए डाँट लगाई। उन्हें चाहिए था कि एक प्रति सदैव अपने साथ रखें। प्रद्युम्न ने बताया कि यद्यपि उसके पास भगवदगीता यथारूप की प्रति नहीं थी, किन्तु किसी अन्य लेखक की एक प्रति वह साथ लिए था । इससे प्रभुपाद का क्रोध और बढ़ गया। तब उन्होंने उपेन्द्र को आदेश दिया कि भगवद्गीता यथारूप, चैतन्य चरितामृत खण्ड एक और श्रीमद्भागवत - इन तीन ग्रंथों को साथ लिए बिना उसे यात्रा पर कभी नहीं निकलना है। बर्कले जुलाई १५, १९७५ दो सप्ताह से कम के अंदर प्रभुपाद पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक की यात्रा करके वापस आ गए थे । इस्कान बर्कले के थोड़ा समय पहले मुख्यालय बनाए जाने के बाद, यह उनकी पहली यात्रा थी । यह एक विस्तृत चर्च - परिसर था और सदा की तरह अनेक पाश्चात्य केन्द्रों से सैंकड़ों भक्त प्रभुपाद से मिलने वहाँ एकत्र हो गए थे । अपने आगमन सम्बोधन में उन्होंने विशेष रूप से गुरु के पद का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि वैदिक ज्ञान का सार, केवल गुरु में अटल कृष्ण और विश्वास रखने वाले पर, उद्घाटित होता है । प्रभुपाद बोले, " बाहरी लोग सोच । सकते हैं कि गुरु बहुत घमण्डी है और बैठा हुआ शिष्यों से आदर प्राप्त कर रहा है। किन्तु वास्तविकता यह है कि उन्हें इसी तरह सिखाना पड़ता है कि गुरु को आदर कैसे अर्पित किया जाता है।" श्रील प्रभुपाद को इस गलतफहमी का सामना बार-बार करना पड़ता था । एक वर्ष पूर्व पेरिस में उग्र छात्रों ने उन्हें तंग किया था, जिन्हें उनके ऊँचे आसन पर बैठने से ईर्ष्या हुई थी । और अमेरिका में सम्वाददाता उनका वर्णन प्रायः ऐसे गुरु के रूप में करते थे जो अपने शिष्यों द्वारा जुटाए गए सांसारिक सुखों का उपभोग कर रहा था । किन्तु प्रभुपाद की यह मान्यता थी कि ऐसे धूर्तों के आधिक्य के बावजूद, जो 'गुरु' शब्द को बदनाम करना चाहते थे, जो भी व्यक्ति सच्चे मन से दिव्य विज्ञान सीखना चाहता है, उसे प्रामाणिक के पास जाना होगा, वही ईश्वर का प्रतिनिधि है । गुरु श्रील प्रभुपाद ने कहा, "एक गुरु का कार्य अपने अधीन शिष्य को पतन से बचाना है । —जैसे मैं साल भर में दो-तीन बार विश्व का भ्रमण करता हूँ। मेरा कर्त्तव्य है कि मैं देखूँ कि मेरे शिष्य जो मुझे गुरु स्वीकार कर चुके हैं, पतन के गर्त में नहीं गिरें । मेरी यही चिन्ता है। " तो कोई गुरु और कृष्ण का प्रतिनिधि कैसे बन सकता है ? प्रत्येक व्यक्ति कहेगा, 'मैं कृष्ण का प्रतिनिधि हूँ, मैं गुरु हूँ।' नहीं। मूल वस्तु का निरूपण श्री चैतन्य महाप्रभु ने किया है जो कहते हैं, हैं, — आमार आज्ञा गुरु हञा तार एइ देश : 'तुम मेरे आदेश से गुरु बनते हो' । तो, गुरु का अर्थ है वह व्यक्ति जो श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश का पालन करता है—न कि कोई स्वयं बना हुआ गुरु । " श्रील प्रभुपाद ने कहा कि कभी कभी लोग पूरे विश्व में आश्चर्यजनक कार्य करने के लिए उन्हें श्रेय देते हैं। उन्होंने स्वीकार किया, " किन्तु मुझे नहीं पता कि मैं कोई आश्चर्यजनक व्यक्ति हूँ। पर मैं एक चीज जानता हूँ कि मैं वही कह रहा हूँ जो कृष्ण ने कहा है। बस मैं कोई अतिरिक्त चीज नहीं जोड़ रहा हूँ, न कोई परिवर्तन कर रहा हूँ। मैं भगवद्गीता को यथारूप प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह श्रेय मैं ले सकता हूँ ।' । प्रभुपाद बराबर बल देते रहते थे कि गुरु को कृष्ण के संदेश को दुहराते रहना चाहिए । यदि कोई तथाकथित गुरु धूर्तता करना चाहे तो वह दूसरी बात है । धूर्तता करने वाले और उसका शिकार बनने वाले लोग हमेशा रहेंगे । सामान्यतः ऐसे गुरु लोगों को इस तरह धोखा देते हैं कि वे उन्हें पापकर्मों को छोड़ने के लिए कहे बिना ही, अपना शिष्य स्वीकार कर लेते हैं। प्रभुपाद ने कहा, “यदि मैं आपसे कहूँ कि आप सभी दुष्कर्म कर सकते हैं, केवल मंत्र लीजिए और मुझे १२५ डालर दे दीजिए, तो वे इसे पसंद करेंगे । " यदि इस तरह धोखा देना होता तो अब तक मैं करोड़ों डालर इकट्ठे कर चुका होता, किन्तु मैं यह नहीं चाहता। मैं एक ऐसा छात्र चाहता हूँ जो मेरे आदेशों का पालन करता है। मुझे करोड़ों डालर नहीं चाहिए । – एकर चन्द्रस तमोहन्ति न च ताराः सहस्रशः । यदि आकाश में एक चन्द्रमा है तो प्रकाश के लिए वह पर्याप्त है। लाखों तारों की जरूरत नहीं है। मेरा मानना है कि मैं चाहता हूँ कि कम-से-कम एक शिष्य शुद्ध भक्त बन जाय । निस्सन्देह, मेरे पास अनेक निष्ठावान् और शुद्ध भक्त हैं। यह मेरा सौभाग्य है । किन्तु, यदि, मुझे एक ही मिला होता तो भी मैं संतुष्ट रहता । लाखों तारों की जरूरत नहीं है । " में उस क्षेत्र में अधिवास पर प्रतिबन्धों के कारण, भक्तों को बर्कले मंदिर को आवास के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं थी । किन्तु, चूँकि पड़ोस तुरन्त उपयुक्त कमरे प्राप्त नहीं थे, इसलिए भक्तों ने श्रील प्रभुपाद और उनके निजी स्टाफ को कुछ दिन मंदिर में ही रखने का निर्णय किया, इस आशा में कि अधिकारी इसे जान नहीं पाएँगे । किन्तु, पहले ही दिन दो बजे रात में पुलिस जाँच के लिए आ गई। श्रील प्रभुपाद जग चुके थे और श्रीमद्भागवत के अनुवाद में लगे थे; तभी पुलिस ने उनके कमरे के निकट बाहरी दरवाजे को जोर से खटखटाया। यंग माइक, जिसे कुछ दिनों में दीक्षा लेनी थी, संतरी के रूप में नियुक्त था । उसने दरवाजा खोला और उसके चेहरे पर तीन टार्चों का प्रकाश पड़ा। अधिकारी अंदर घुस गए और उन्होंने अपना परिचय पत्र दिखाया । एक ने रूखी आवाज में कहा, 'तुम्हें यहाँ सोने की अनुमति नहीं है । " माइक बोला, "मैं सो नहीं रहा था । " इधर आओ, हमने तुम्हें अपने स्लीपिंग बैग में देखा है । " माइक ने प्रतिवाद किया, "नहीं, मैं वहाँ लेटा हुआ अपने गुरु महाराज के पहरे पर था । " श्रील प्रभुपाद को उनके कमरे के ठीक बाहर का यह शोर-गुल आसानी से सुनाई दे रहा था । अन्य भक्त जो इसी इमारत में प्रभुपाद के साथ रात बिता रहे थे अपने कमरों से बाहर निकल आए और अपने गुरु महाराज के आगमन के विशेष अवसर को लेकर अधिकारियों को दलील देने लगे। पुलिस का एक आदमी चारों ओर घूम कर, दरवाजे खोल कर, कोनों में टार्च के प्रकाश में चीजें चेक करने लगा। उस समय करीब सभी आधा दर्जन भक्त पुलिस अधिकारियों के साथ प्रभुपाद के कमरे के बाहर हाल में खड़े थे । पुलिस के एक आदमी ने पूछा, “वृद्ध सज्जन कहाँ हैं ?" मंदिर के अध्यक्ष, बहुलाश्व ने प्रार्थना की कि श्रील प्रभुपाद के कार्य में बाधा न डाली जाय । किन्तु पुलिस वालों ने शिष्ट बनने का प्रयत्न बिल्कुल नहीं किया; वास्तव में, वे स्पष्टतः घिनौने लोग थे। एक पुलिस वाले ने प्रभुपाद के कमरे की एक खिड़की को जोर से खटखटाया। बहुलाश्व ने प्रार्थना की, ने प्रार्थना की, “ उनकी शान्ति भंग न करें। वे बहुत वृद्ध हैं। वे सो नहीं रहे हैं। यह वह समय है जब वे लिखते हैं और हम सभी उनके व्यक्तिगत सहचर हैं। हम उनकी सहायता के लिए यहाँ रह रहे हैं। हम नियमों का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं ।' " 99 एकाएक पुलिस के एक आदमी ने प्रभुपाद के कमरे का दरवाजा खोल दिया और उनके चेहरे पर टार्च का प्रकाश फेंक दिया। तीनों पुलिस वाले अंदर झाँकने लगे, जबकि प्रभुपाद उनकी ओर चिन्तित, फिर भी तटस्थ, बैठे देखते रहे । पुलिसवालों ने प्रभुपाद के साधारण और मन्द प्रकाश वाले कमरे के कोनों में अपनी टार्चों का प्रकाश फेंका। कोई कुछ बोला नहीं और दस सेकंड के बाद उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया। पुलिस वालों और भक्तों के बीच बहस चलती रही। भक्त दावा करते रहे कि वे इमारत को आवास के रूप में इस्तेमाल नहीं कर रहे थे और पुलिस वाले उन पर नियम उल्लंघन का आरोप लगाते हुए नोट लिखते रहे। इस चेतावनी के साथ कि वे फिर वापिस आएँगे, पुलिस वाले चले गए। इस घटना से प्रभुपाद के कार्य में आधे घंटे की बाधा हुई थी । किन्तु जब इमारत में शान्ति लौट आई तब प्रभुपाद ने श्रीमद्भागवत के श्लोकों का अनुवाद फिर आरंभ कर दिया और उसका तात्पर्य स्वतःचलित डिकटेटिंग मशीन को बोल कर लिखाने लगे प्रभुपाद ने एक सम्वाददाता सम्मेलन करना स्वीकार कर लिया। वे सम्वाददाताओं को नियमित रूप से सम्बोधित करना पसंद करते थे, क्योंकि, यद्यपि, उनकी रिपोर्टें प्रायः नकारात्मक होती थीं या विवाद को ही जन्म देती थीं, फिर भी आमतौर पर वे जितना अंश सत्य का छापते थे वह क्षतिकारक अंश से ज्यादा जोरदार हो जाता था । कृष्ण का पवित्र नाम सदैव छप जाता था और आमतौर से प्रभुपाद के प्रवचन का या भगवद्गीता का भी उल्लेख हो जाता था। प्रभुपाद के बारे में व्यक्तिगत विवरण सामान्यतया अप्रिय नहीं होते थे । वे समाचार-पत्रों से, कृष्णभावनामृत दर्शन के सम्बन्ध में, अब बहुत अधिक छापने की आशा नहीं रखते थे, यद्यपि कभी कभी कुछ छप भी जाता था । वे प्रायः सम्वाददाताओं से प्रार्थना करते थे कि जो छापें, सही-सही छापें, गलत न छापें या — प्रभुपाद के कथन में से कुछ छोड़ न दें । किन्तु सम्वाददाताओं को ओछी बातें छापने में अधिक आकर्षण था । १९६८ ई. में मान्ट्रियल में एक सम्वाददाता ने प्रभुपाद के सामान्य जूतों पर ही टिप्पणी लिख डाली थी— “हश - पपी हाई प्रीस्ट ।" जो भी हो, प्रभुपाद सम्वाददाता के साक्षात्कारों और सम्वाददाता सम्मेलनों को अपने प्रचार का एक साधन मानते थे। सम्वाददाता सम्मेलन मंदिर में हुआ और उसमें लगभग एक दर्जन सम्वाददाता और फोटोग्राफर उपस्थित थे । ब्रह्मानंद स्वामी ने सम्वाददाताओं से उनके प्रश्नों को एक कागज पर लिखवा लिया, जिससे कोई एक भक्त उन्हें प्रभुपाद के लिए पढ़ सके। प्रभुपाद ने फोटोग्राफरों से कहा कि प्रश्नोत्तर के मध्य वे फोटो न खींचें, क्योंकि इससे लोगों का ध्यान हट जायगा । भक्त : “ श्रील प्रभुपाद, क्या आप इस देश में हरे कृष्ण आन्दोलन के विरोध पर कुछ टिप्पणी करेंगे ?" प्रभुपाद : “उन्हें विरोध क्यों करना चाहिए ? विरोध का कारण क्या है ? यदि वे ईसाई या यहूदी धर्मावलम्बी हैं तो हम उनसे ईश्वर के पवित्र नाम का कीर्तन करने को कह रहे हैं। तो इसमें आपत्ति क्यों होनी चाहिए ? क्या आपत्ति का कोई कारण है? आपत्ति क्या है ?" इस भक्त : “ कुछ आपत्तियाँ ये हैं कि हरे कृष्ण आन्दोलन के अनुयायी सड़कों में या हवाई अड्डों में पहुँच कर लोगों को परेशान करते हैं । " प्रभुपाद : “हवाई अड्डा स्वयं एक परेशानी है। वहाँ इतना अधिक शोर-गुल होता है, इतनी दुर्घटनाएँ होती हैं। तो इस जरा-सी परेशानी को वे सहन क्यों नहीं कर सकते ? इसका तात्पर्य असहनशीलता है। उनके लिए हमारा कीर्तन परेशानी से भरा है। क्योंकि हम कीर्तन करते हैं, अतः वे परेशान होते हैं। हवाई अड्डे में हम कीर्तन नहीं करते। हम लोगों से इतना कहते हैं— 'यह एक बहुत अच्छी पुस्तक है; इससे आपको लाभ होगा। यदि आप पसंद करें तो इसे ले सकते हैं।' तो इसमें क्या गलती है ? बताओ, क्या गलती है ? यदि मैं तुम्हें कोई अच्छी चीज दूं तो क्या यह गलती है ? आप कोई पुस्तक पढ़ें- हमारे पास पचास पुस्तकें हैं, और आप किसी में भी कोई दोष निकालें। यदि हम कोई खराब साहित्य वितरित करें जो समाज कल्याण के विरुद्ध हो तब आप आपत्ति कर सकते हैं। लेकिन आप देखें तो आप हमारी सारी पुस्तकें यहाँ लाएँ और देखें । आप कोई पृष्ठ खोलें, उस पर आपको कुछ अच्छा ही मिलेगा । आप ऐसे साहित्य को जो आम जनता के हित का हो, वितरित करने से रोक क्यों रहे हैं ? उसमें दोष क्या है ?" । भक्त : “ एक चीज जो लोग कहते हैं वह यह है कि भक्त, लोगों से अनुदान माँगते हैं। हम केवल पुस्तकें नहीं वितरित करते, वरन् धन माँगते हैं। यही परेशानी है । " प्रभुपाद : " किन्तु लोग देते हैं। यदि वे परेशानी अनुभव करते हैं तो देते क्यों हैं ? जिसे परेशानी होगी वह देगा नहीं । किन्तु यदि वह समझता है कि पुस्तक अच्छी है तो वह कहेगा, 'ठीक है, लाओ इसे खरीद लें।' इसे आप परेशानी क्यों समझते हैं ? यदि यह परेशानी है तो लोग खरीद क्यों रहे हैं। वे अपना धन देते हैं, गाढ़े पसीने से कमाया धन। क्या आप समझते हैं कि वे परेशानी अनुभव करते हैं और साथ ही धन भी देते हैं ? " प्रभुपाद की इस तर्कसंगत टिप्पणी पर सम्वाददाता हँसने लगे। अब वे उनसे सीधे प्रश्न पूछने लगे । सम्वाददाता : “जब आप मर जायँगे तो संयुक्त राज्य में आपके आन्दोलन का क्या होगा ?" प्रभुपाद : "मैं कभी नहीं मरूँगा।" भक्तगण : "जय हरिबोल ।" प्रभुपाद : "मैं अपनी पुस्तकों में जीवित रहूँगा और आप उसका लाभ उठाएँगे।” सम्वाददाता : “ हरे कृष्ण आन्दोलन सामाजिक विरोध में क्यों नहीं लगता । " प्रभुपाद : "हम सबसे अच्छे समाज सेवक हैं। लोग धूर्त और मूर्ख हैं और हम उन्हें ईश्वर - चेतना का सुंदर विचार सिखा रहे हैं। हम सबसे अच्छे सामाजिक कार्यकर्ता हैं। हम सारे अपराध बंद कर देंगे । आपका सामाजिक कार्य क्या है ? हिप्पी और अपराधी पैदा करना सामाजिक कार्य नहीं है। सामाजिक कार्य का तात्पर्य है कि लोग शान्त, बुद्धिमान, विवेकपूर्ण और ईश्वर - चेतन —- प्रथम कोटि — के मानव हों। यह है सामाजिक कार्य। यदि आप चौथे दर्जे, पाँचवें दर्जे, दसवे दर्जे के मनुष्य पैदा करते हैं तो वह कैसा सामाजिक कार्य होगा ? हम यह नहीं पैदा कर रहे हैं। देखिए, ये हैं प्रथम दर्जे के मानव । इनमें कोई बुरी आदत नहीं है— अवैध यौन सम्बन्ध, मादक द्रव्य सेवन, मांस भक्षण, द्यूत - क्रीड़ा — कुछ भी नहीं । वे सब युवा व्यक्ति हैं। वे इनमें से किसी के आदी नहीं हैं । सामाजिक सेवा यह है । में जब एक सम्वाददाता ने हरे कृष्ण आन्दोलन के राजनीतिक प्रभाव के बारे पूछा तो प्रभुपाद ने कहा, “यदि यह भगवत् - चेतना फैलेगी तो प्रत्येक मनुष्य भलीभाँति योग्य बन जायगा ।" उन्हें कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के परिसर में सवेरे के भ्रमण में हुए एक विचार-विनिमय का स्मरण हो आया । “छात्र मनोविज्ञान का अध्ययन कर रहे हैं, किन्तु परिणाम यह है कि वे निराशा में मीनार से नीचे गिर रहे हैं। और शीशा लगाकर लोग उन्हें सुरक्षित रख रहे हैं । " बहुलाश्व ने आगे समझाया कि प्रभुपाद का आशय क्या था : " बर्कले परिसर में १९६० ई. के दशक में छात्र घंटे की मीनार से कूद कर आत्महत्या कर लेते थे। तब उन्हें कूदने से रोकने के लिए वहाँ शीशा लगा दिया गया। अतः प्रभुपाद समझा रहे थे कि यही उनकी शिक्षा है कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे आत्महत्या कर लेते हैं । " ब्रह्मानंद : " श्रील प्रभुपाद, एक सम्वाददाता जानना चाहता है कि यह रथ यात्रा उत्सव क्या है ? यह हमारे पच्छिमी संसार में क्यों निकाली जा रही है ?" प्रभुपाद : “यदि ईश्वर सब का स्वामी है तो वह पच्छिमी संसार का भी स्वामी है। क्या इसमें कोई विवाद है? यदि हम कहें कि ईश्वर पच्छिमी जगत का स्वामी है, तो इसमें गलती क्या है ? इसलिए यदि पच्छिमी जगत ईश्वर को भूल गया है और ईश्वर उसे स्मरण कराने आता है तो इसमें गलती क्या है ?" सम्वाददाता : " किन्तु इन विशाल रथों का और अन्य चीजों का, जो आप इस्तेमाल करते हैं, उद्देश्य क्या है ? प्रभुपाद : “विशाल रथ का तात्पर्य है कि ईश्वर महान् हैं। उन्हें विशाल रथ की जरूरत है। (भक्त हँसते हैं) वे छोटे रथ में सवारी क्यों करें ?" प्रभुपाद बोलते रहे जब तक कि सभी प्रश्न समाप्त नहीं हो गए। अब सम्वाददाता जो कुछ भी लिखें, यह उन पर था, किन्तु प्रभुपाद ने इस अवसर का पूरा उपयोग भगवान् कृष्ण की महिमा का गान करने और अपने आंदोलन के बारे में समझाने में किया। उनका उद्देश्य बस वही होता था, चाहे वे सम्वाददाता सम्मेलन में बोल रहे हों, जन सभा को सम्बोधित कर रहे हों, व्यक्तिगत वार्तालाप में लगे हों, अथवा अनुवाद में व्यस्त हों । " रूस बर्कले परिसर में एक दिन प्रातः भ्रमण में प्रभुपाद ने कहा कि परमाणु युद्ध अनिवार्य है। भक्तों ने परमाणु अस्त्रों के प्रसार का प्रश्न उठाया था : के पास इतने अस्त्र हैं, चीन के पास इतने अस्त्र हैं, संयुक्त राज्य के पास इतने हैं...।" प्रभुपाद : " हर एक के पास अस्त्र हैं। भारत के पास भी । " भक्त : “ इनका इस्तेमाल करने से सभी डरते हैं । " प्रभुपाद : " इस्तेमाल तो करना ही है। यह प्रकृति का विधान है ( हँसते हैं) जिससे सभी मर जायँ — यह प्रकृति का विधान है।" तमाल कृष्ण गोस्वामी : " जब किसी को कोई 'जब किसी को कोई शक्ति मिलती है तो वह उसका प्रयोग करना चाहता है। जैसे उस दैत्य की कहानी है । भगवान् शिव ने उसे शक्ति दी कि वह जिसका सिर स्पर्श करेगा वह कट कर गिर जायगा ।' प्रभुपाद: "हाँ, जैसे आप के देश में इतनी अधिक कारें है कि मेरे समान गरीब के पास भी सदा कार रहती है। किसी को एक कदम पैदल नहीं चलना है । क्योंकि बहुत सी कारें हैं, इसलिए उनका इस्तेमाल स्वाभाविक है। उसी तरह, अब बहुत से अस्त्र हैं तो उनका इस्तेमाल होगा ही । यही स्वाभाविक परिणति है। उनका इस्तेमाल जरूर होगा । " बहुलाश्व : “वे युद्ध इसीलिए करते हैं कि अस्त्रों का इस्तेमाल हो । " प्रभुपाद : “हाँ, बिल्कुल ठीक।" भक्त : “ कठिनाई केवल यह है कि यदि एक व्यक्ति आणविक अस्त्र का प्रयोग करता है तो उससे समूची मानव जाति नष्ट हो जायगी । इसलिए उसके इस्तेमाल से अन्ततः सभी डरते हैं । प्रभुपाद: "जो भी हो, उनका इस्तेमाल तो होना ही है। इसमें कोई सन्देह नहीं । इसलिए हम कह सकते हैं कि युद्ध होगा। यह कोई ज्योतिष नहीं है। यह स्वाभाविक निष्कर्ष है ।' भक्त : “ इससे सर्वनाश हो जायगा । " प्रभुपाद : "सर्वनाश हो अथवा आंशिक हो, यह तो देखना है । किन्तु अस्त्रों का प्रयोग अवश्यम्भावी है । " भक्त : “ आणविक युद्ध की आशंका की छाया में, क्या कृष्णभावनामृत का प्रचार अधिक सरल नहीं होगा ?" प्रभुपाद : "नहीं, आशंका तो मौजूद है। लेकिन लोग इतने मूर्ख हैं कि उससे भयभीत नहीं हैं। आशंका है— कि सब को मृत्यु निगल जायगी । यही समस्या है । किन्तु चिन्ता किसे है? वे इसकी उपेक्षा कर रहे हैं। वे बचाव का कोई उपाय नहीं कर सकते।" यदुबर : " तो युद्ध ही उनमें कुछ समझदारी लाएगा ?" प्रभुपाद ः “नहीं, युद्ध तो चल रहा है। लेकिन वे इतने मूर्ख हैं कि वे मानेंगे नहीं । वे धूर्त हैं । इसीलिए उन्हें मूढ़ कहते हैं । " । तमालकृष्ण : "इन मूर्खों को, इसीलिए, उपदेश देना बहुत कठिन है, प्रभुपाद ।” प्रभुपाद : "नहीं, हरे कृष्ण कीर्तन करो। वह पर्याप्त होगा । " श्रील प्रभुपाद अणु-युद्ध के विषय में इतने निष्कर्षात्मक रूप में विरले ही कभी बोले थे। इसी वर्ष पहले मायापुर में एक दिन सवेरे के भ्रमण में उन्होंने कहा था कि तृतीय विश्व युद्ध होकर रहेगा। उनके इस कथन से इस्कान - संसार में सनसनी फैल गई थी । किन्तु पहले, वे इसका विकल्प भी बताते थे कि यदि संसार के लोग कृष्णभावनामृत को स्वीकार कर लें तो संचित कर्मों को उलटा जा सकता था। किन्तु अब तो उनका कहना था कि युद्ध अनिवार्य था। बर्कले में श्रील प्रभुपाद के रहते, उनसे भेंट करने के लिए आने वालों में थे— एच. एच. एच. फाउन्डेशन के संस्थापक योगी भजन, डिवाइन लाइफ सोसायटी के अध्यक्ष, स्वामी चिदानंद और वर्ल्ड फेलोशिप आफ रिलीजन के अध्यक्ष जैन नेता, स्वामी सुशील मुनि । स्वामी सुशील सफेद पगड़ी पहने थे और अहिंसावादी जैनों की परम्परा के अनुसार, जो हवा में उड़ने वाले कीटाणुओं की हत्या से भी बचते हैं, मुख पर सफेद कपड़े की पट्टी बाँधे थे। योगी भजन सिक्खों की परम्परागत वेशभूषा, सफेद पगड़ी और ढीला-ढाला सफेद चोला पहने थे। उनके साथ उनके कुछ पाश्चात्य शिष्य भी वैसी ही वेष-भूषा में थे। श्रील प्रभुपाद से तरह-तरह के स्वामियों और योगियों का मिलने आना कोई असाधारण बात नहीं थी। किसी विशेष विचारधारा से सहमत न होते हुए भी, प्रभुपाद हार्दिक रूप से सभी अतिथियों का अपने साधारण - से घर में हमेशा स्वागत करते थे। हवाई में योगी भजन श्रील प्रभुपाद को यूनिटी आफ मैन कांफेरेंस (मानव - एकता सम्मेलन) में भाग लेने के लिए आमंत्रित करने के लिए भी उनके पास गए थे। उसमें अन्य अनेक साधु पहले ही आमंत्रित किये जा चुके थे। श्रील प्रभुपाद ने कड़े शब्दों में कहा था कि केवल किसी बैठक में बुलाकर लोगों को इकट्ठा कर देना ही एकता नहीं है। असली एकता तभी प्राप्त की जा सकती है जब बैठक में सम्मिलित होने वाले, शास्त्रों में उद्घाटित ईश्वर का प्रामाणिक विज्ञान स्वीकार करने को सहमत हों । अब योगी भजन प्रभुपाद को दूसरी यूनिटी आफ मैन कांफरेंस के लिए आमंत्रित करने आए थे । स्वामी सुशील और स्वामी चिदानंद ने श्रील प्रभुपाद और उनके इस्कान की प्रशंसा करने में विशेष उत्साह प्रदर्शित किया। स्वामी चिदानंद ने कहा, 'आपका आन्दोलन कुछ विशेष प्रकार का है। यह सारे संसार में फैला है और हजारों लोग उसमें शामिल हैं। हम उसका वर्णन नहीं कर सकते। यह कितना विस्मयकारी है और इस युग में आपने उसे कितने आश्चर्यजनक ढंग से संगठित किया है। ईश्वर की कृपा के बिना कुछ नहीं हो सकता था । यह बात विस्मयकारी है कि एक मास में पत्रिका की छह लाख प्रतियाँ निकलीं और सब की सब बिक गईं। " स्वामी सुशील ने जोड़ा, “आपने उन्हीं पुराने सिद्धान्तों का बिना किसी परिवर्तन के, एक आधुनिक ढंग से, प्रतिपादन किया है। बंगाल में आपके आश्रम के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। जब हम जान गए कि वहाँ चैतन्य महाप्रभु का एक आश्रम है तो हमें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं हुई कि हम कहाँ ठहरेंगे। जो चीज मुझे प्रभावित करती है, वह यह है कि आप कहीं समझौता नहीं करते । " उन्होंने गो- वध के भयानक पाप का उल्लेख किया और श्रील प्रभुपाद ने उन्हें बताया कि न्यू वृंदावन में उनका आन्दोलन किस प्रकार गायों की रक्षा कर रहा है। जब स्वामी सुशील ने पूछा कि वे युवाओं को ईश्वर में किस तरह अनुरक्त करते हैं तो प्रभुपाद ने उदाहरण दिया कि दिल्ली में सबसे लोकप्रिय मिठाई की दुकान वह है जहाँ हर चीज शुद्ध घी में बनाई जाती है । प्रभुपाद ने कहा, "यदि चीज अच्छी है तो ग्राहकों की कमी नहीं रहेगी।” उन्होंने आगे बताया कि उनकी शिक्षाएँ केवल भगवद्गीता पर आधारित थीं— कृष्ण को आत्मसर्पण । जब स्वामी सुशील ने पूछा कि प्रभुपाद किस तरह अपने अनुयायियों को कृष्ण की शरण में ले गए तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "यह ईश्वर ने किया, ईश्वर कहते हैं— माम् एकम् शरणम् व्रज । इसलिए यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम उसकी शरण में जायँ । भगवान् चैतन्य कहते हैं, “यारे देख तारे कह कृष्ण उपदेश ।” अर्थात् आप जिससे मिलें उसको कृष्ण की गीता में कही गई शिक्षाओं का उपदेश दें। मेरा कोई उपदेश नहीं है, यह सब केवल कृष्ण का उपदेश है। हम सभी मूढ़ हैं। हमारे पास कोई उपदेश नहीं हो सकता। इसलिए जो कृष्ण की शिक्षाएँ हैं, हम उन्हीं को कहते जाते हैं। कृष्ण कहते हैं, उस तरह करो, और हम उसी तरह करते हैं । यही हमारा रहस्य है । मैं इसी तरह करता हूँ और सभी लोगों को वही सिखाता हूं। मैं निर्मित धर्म के बिल्कुल विरुद्ध हूँ । एवम् परम्परा प्राप्तम् — जैसे कृष्ण कहते हैं । " स्वामी सुशील के इस प्रश्न के उत्तर में कि जन-जन को एकत्रित कैसे किया जा सकता है, प्रभुपाद ने श्रीमद्भागवत से एक श्लोक सुनाया जिसमें संसार की विभिन्न जातियों का उल्लेख है और कहा गया है कि उन्हें कृष्ण के शुद्ध भक्त की शरण में ले जाकर, शुद्ध किया जा सकता है। प्रभुपाद के अतिथियों ने कांफरेंस में आने के लिए उन्हें पुन: आमंत्रित किया और स्वामी सुशील ने अपनी ओर से जोड़ा, “आज आप से मिल कर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई। हम किसी समय आपको अपने योग- धर्म की बैठक में बुलाना चाहेंगे।" प्रभुपाद ने कहा, “हम आएँगे। आपके 'फेलोशिप' का क्या हुआ ?" स्वामी चिदानंद बोले, "इसे 'वर्ल्ड फेलोशिप आफ रिलीजन' कहते हैं । 'यूनिटी आफ मैन कांफरेंस' योगीजी का संगठन है । " योगी भजन ने पूर्व आमंत्रण का उल्लेख करते हुए कहा, "हमने उसमें आपको आमंत्रित किया था । " स्वामी चिदानंद : " किन्तु अब दूसरी कांफरेंस करने जा रहे हैं। " योगी भजन : “हाँ, दूसरी बैठक मेक्सिको में है। हम उसमें भी आप को बुलाएँगे ।' श्रील प्रभुपाद मुसकराए और बोले, " मैने तो आप से पहले ही कह दिया है कि एकता होने की नहीं ।" इस स्पष्ट टिप्पणी से सब हँसने लगे । "आप प्रभुपाद के विश्लेषण का स्मरण करते हुए स्वामी चिदानंद ने कहा, कहते हैं कि जब तक प्रत्येक मनुष्य भगवत् - चेतन नहीं हो जाता तब तक ... । योगी भजन बोले, " जब ईश्वर की इच्छा होगी तब हर एक ईश- चेतन हो जायगा। इसमें बड़ी बात क्या है ? " श्रील प्रभुपाद ने कहा, “भगवान् स्वयं कहते हैं— दुःखालयम् अशाश्वतम् । संसार दुख का घर है; इस संसार में कोई सदा नहीं रह सकता । यहाँ से सब को जाना है। मुख्य समस्या जन्म, मरण, वृद्धावस्था और रोग की है। हम इनका समाधान पाने की चिन्ता नहीं करते, किन्तु ये ही मुख्य समस्याएँ हैं । स्वामी चिदानंद ने पूछा, "हम जन्म, 'हम जन्म, वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु के विषय में क्या कर सकते हैं?" श्रील प्रभुपाद भगवद्गीता का उपदेश सुनाते रहे। प्रभुपाद के अतिथि, प्रत्यक्षतः उनसे कोई असहमति न जताते हुए, सम्मानपूर्वक उनकी बातें सुनते रहे और उनसे प्रश्न करते रहे। उन्होंने प्रभुपाद को हिन्दू धर्म के प्रसार की क्षमता रखने वाला एक महान् आध्यात्मिक गुरु माना । योगी भजन बोले, " वे महान् हैं। मैं यही जानना चाहता हूँ कि वे यह कैसे कर सकते हैं। वार्तालाप का विषय बदला और प्रभुपाद ने कहा कि योगी भजन सिक्ख सम्प्रदाय के हैं जो अपने वीर लड़ाकों के लिए विख्यात है। श्रील प्रभुपाद बोले, “ब्रिटिश लोगों को पराजय देने वाले सिक्ख थे। मैने इसे देखा है। यह केवल सिक्खों के कारण था । सिक्ख क्षत्रिय हैं। उनमें कुछ ब्राह्मण हैं, ब्राह्मण-क्षत्रिय । ” स्वामी सुशील : "हाँ, मैने अपने कुछ छात्रों से कहा कि तुम लोग प्रभुपादजी के पास जाओ और वे तुम्हें ब्राह्मण-क्षत्रिय बना देंगे ।" प्रभुपाद : "हाँ, हम इसी तरह सहयोग करें। आप क्षत्रियों का काम करें और हम ब्राह्मणों का काम करें। ब्राह्मणों के लिए दिमाग की जरूरत है, क्षत्रियों के लिए बल की । " अहिंसा की बात चली तो श्रील प्रभुपाद ने तर्क दिया कि यदि कोई भगवत् - चेतन नहीं बनता तो निस्संदेह वह हिंसक बन जायगा । योगी भजन : “हाँ, जब उनमें समझ आती है तब वे ईश्वर को स्मरण करते हैं। " प्रभुपाद (हँसते हुए) : “यहाँ पश्चिम में केवल हिंसा है, अन्य कोई वस्तु नहीं ।" प्रभुपाद के अतिथि उनके साथ हँसने लगे । बाद में उन्होंने कुछ फोटो खिंचाए और श्रील प्रभुपाद ने उन दोनों को और अपने कुछ शिष्यों को आमंत्रित किया कि सब एक साथ बैठ कर कृष्ण का प्रसाद ग्रहण करें। श्रील प्रभुपाद ने अगले दिन सैन फ्रांसिस्को में होने वाली रथ-यात्रा में सम्मिलित होने के लिए अपने अतिथियों को आमंत्रित किया और वे सहमत हो गए। जुलाई २०, १९७५ यह इस्कान की अब तक की गई न केवल सबसे बड़ी रथ यात्रा थी, वरन् भक्तों का आज तक का सबसे विशाल जमघट था, उस वर्ष इसके पहले मायापुर में हुए जमघट से भी बड़ा । उत्सव - स्थल की तैयारियों में प्रसाद-वितरण के बूथ, अर्चाविग्रहों की साज-सज्जा की प्रदर्शनी, स्मारिकाएं और प्रभुपाद की पुस्तकों की प्रदर्शनी सम्मिलित थीं । गोल्डेन गेट पार्क से गुजरने वाले जुलूस में, आठ सौ से अधिक भक्तों के साथ हजारों अन्य लोग शामिल हुए । रथ के निर्माताओं ने सामान्य काठ के पहियों के स्थान पर स्टील के पहिये लगाने का निर्णय लिया था, इसलिए कठिनाई पैदा हुई । श्रील प्रभुपाद ने आगाह किया था - " यह तुम्हारा अमरीकी रोग है कि परिवर्तन करते रहो । पुरानी डिजाइन को मत बदलो ।” लेकिन वे बदल चुके थे। सुभद्रा के रथ में सवार होने के कारण प्रभुपाद को कोई व्यक्तिगत असुविधा नहीं हुई, क्योंकि उसके पहिए काठ के थे। किन्तु अन्य दो रथ ठीक से नहीं चल सके। वे इतने जोर से हिलने लगे कि जुलूस के बीच उनकी अरों में सहायता के लिए धरनें लगानी पड़ीं। शीघ्र ही पहियों का आकार टेढ़ा-मेढ़ा हो गया और वे इस तरह चरमराने और खड़खड़ाने लगे मानो गिरने वाले हों। किन्तु किसी तरह बड़ी कठिनाई के साथ तीनों रथों ने अपना मार्ग तय किया । रथ-यात्रा के क्रियाकलापों के मध्य एक भक्त ने श्रील प्रभुपाद से पूछा कि क्या वे जगन्नाथ पुरी में कभी किसी रथ यात्रा में सम्मिलित हुए थे। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "नहीं, मैं अपनी निजी रथ यात्रा निकालता था । " ती |