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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 47: अमेरिका में प्रचार : भाग २  » 
 
 
 
 
 
लास एंजिलिस जुलाई २२, १९७५

न सप्ताह से अधिक हो गया था, जब प्रभुपाद ने बी. बी. टी. को दो महीने में सत्रह पुस्तकें छापने का आदेश दिया था। अब रामेश्वर और राधावल्लभ ने रिपोर्ट दी कि सभी विभागों में चौबीसों घंटे काम हो रहा था और

लक्ष्य प्राप्ति के लिए भक्त दृढ़ संकल्प थे। अधिकांश प्रेस कर्मचारी साढ़े चार बजे सवेरे मंगल आरती में उपस्थित होते थे, निर्धारित फेरियाँ माला जपते थे और देर रात तक काम में लगे रहते थे; कभी कभी वे केवल एक बार खाना खाते थे ।

इस्कान के अन्य विभागों से अतिरिक्त सम्पादक, चित्रकार, फोटोग्राफर, अनुक्रमणिका बनाने वाले टाइप करने वाले, प्रूफ पढ़ने वाले और ले - आऊट करने वाले लोग बुला लिए गए थे। श्रील प्रभुपाद की इच्छा पूरी करने के लिए प्रत्येक कर्मचारी सहयोग दे रहा था । ऐसा लगता था मानो इस एक कार्य के अतिरिक्त उनके लिए किसी अन्य चीज का अस्तित्व नहीं रह गया था ।

देश के सबसे बड़े मुद्रक, किंग्सपोर्ट प्रेस ने छपाई का काम अपने हाथ में ले लिया था। वह इस बात के लिए सहमत हो गया था कि वह अन्य सभी कार्यों को रोक दे ताकि उसके सभी प्रेस और जिल्दसाजी विभाग चौबीसों घंटे इस काम में लगे रहें, जब तक कि सभी सत्रह खण्ड छप नहीं जाते । न्यू यार्क की एक कागज कम्पनी किफायती शर्तों पर सारा कागज देने को राजी हो गई थी ताकि निर्धारित समय में काम पूरा हो सके। बी. बी. टी.

विशेष का सर्वश्रेष्ठ फोटोग्राफर भारत पहुँच कर चैतन्य लीला के स्थानों का, कर बंगाल और उड़ीसा में, फोटो खींचने में व्यस्त हो गया था ।

श्रील प्रभुपाद कलाकारों और बंगाली सम्पादकों को खुले तौर पर समय देकर

उनके प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे। उनके शिष्य दिन में कई बार संस्कृत और बंगाली शब्दों के सही प्रयोग के विषय में पूछने उनके पास आते थे। यह केवल भाषिक विद्वत्ता की बात नहीं थी, क्योंकि प्रत्येक शब्द का अनुवाद पूर्व आचार्यों की व्याख्या और स्वयं प्रभुपाद की कृष्णभावनामृत की अनुभूति के अनुरूप होना था। प्रभुपाद ने शिष्य - सम्पादकों को आगाह कर दिया था कि वे मनमाना परिवर्तन न करें, वरन् पूछ लें।

कलाकारों के प्रश्न आमतौर से यह होते कि श्रील प्रभुपाद की दिव्य दृष्टि के अनुसार चित्र में चीजें किस प्रकार दिखाई जानी चाहिएं। चित्रों को सब तरह से ठीक बनाने की अपनी इच्छा के कारण, उन्हें प्रभुपाद से असंख्य प्रश्न पूछने का लोभ होता था । प्रभुपाद ने कहा था कि उनके शिष्यों के दिव्य चित्र आध्यात्मिक जगत् के झरोखे थे; कलाकार नहीं चाहते थे कि उनकी कल्पना

दृश्य अस्पष्ट हो जायं ।

से

एक दिन रामेश्वर श्रील प्रभुपाद के कमरे में एक कलाकार के चित्र लेकर आया जिसकी दक्षता पर अधिक अनुभवी कलाकारों ने प्रश्न चिन्ह लगाया था । सम्बन्धित कलाकार गौरी - देवी दासी थी जिसमें कलात्मक प्रतिभा थी और जो पुस्तक-वितरण का काम करती थी, किन्तु जिसे पुस्तक छपाई की आपात सेवा में लगाया गया था । उसके द्वारा बनाया गया गुंडीचा मंदिर का चित्र रामेश्वर ने श्रील प्रभुपाद को दिखाया। प्रभुपाद का निर्णय : "अहा ! यह तो बहुत अच्छा है ।" एक वरिष्ठ कलाकार भी वहाँ उपस्थित था और उसने कई तकनीकी भूलों की ओर इंगित किया, किन्तु प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “एक अंधा चाचा कोई चाचा न होने से अच्छा है।” उन्होंने कहा, इसके अतिरिक्त पेंटिंग में ऐसी भक्ति भावना का चित्रण है जिसे पुस्तक के पाठक सराहेंगे।

लास एंजिलिस में श्रील प्रभुपाद की उपस्थिति के कारण, पुस्तक की छपाई के काम की भाग-दौड़ में बड़ी तेजी आ गई। प्रभुपाद के प्रातः कालीन भ्रमण में और उनकी कक्षा में शामिल हुए बिना ही या शाम को बगीचे में बैठ कर पठन कार्य किए बिना ही, प्रेस कर्मचारियों को दिव्य भावानुभूति होती थी । प्रभुपाद जिस चीज को सबसे अधिक चाहते थे कर्मचारी उसी पर दिन-रात लगे हुए थे और वे मन में तर्क करते थे कि प्रभुपाद से मिलने का समय निकालना स्वार्थपरता होगी। अपनी सारी शक्ति कृष्ण की सेवा में लगा देना ही उनके लिए अतीव आनन्ददायी थी ।

प्रेस दिन-रात व्यस्त था । भक्तों को सवेरे दो या तीन बजे अपने मेजों,

टाइपराइटरों या चित्र-फलकों पर मुँह के बल झुके हुए पाना आम दृश्य था । प्रूफ रीडरों के हाथों में पाण्डुलिपियाँ इतनी तेजी से आती जाती थीं कि उन्हें पता भी न लगता था । कोई कलाकार अपने अधूरे चित्र के सामने पड़ कर सो जाता और जाग कर देखता कि वह चित्र किसी दूसरे कलाकार के चित्र - फलक पर पूरा किया जा रहा है।

रामेश्वर, जिसे सोने का बहुत कम समय मिल पा रहा था, सभी लोगों में समन्वय स्थापित करने में लगा था जिनमें भारत- स्थित फोटोग्राफर, मुद्रक, कागज कम्पनी, सभी शामिल थे। कभी-कभी उत्पादन के विभिन्न पहलुओं पर वह सीधे राधावल्लभ के साथ काम करता ।

राधावल्लभ ने प्रतिदिन का लक्ष्य तय कर लिया और किसी भी कीमत पर वह उसे पूरा कराता था । प्रेस कर्मचारियों के लिए मानो वह सर्वत्र उपस्थित था — वह उन्हें प्रोत्साहित करता रहता, उनके लिए वस्तुओं की आपूर्ति करता, उनकी आवश्यकताएँ पूरी करता, उनसे मिन्नत करता और अपना निर्धारित कोटा पूरा करने के लिए उन पर जोर डालता। किन्तु एक रात अपने कार्यक्रम से हट कर वह प्रभुपाद के कमरे में घुसा जहाँ वे भक्तों के एक दल के साथ अनौपचारिक बैठक कर रहे थे। आँखें बंद किए हुए और धीरे-धीरे सिर हिलाते हुए प्रभुपाद अपने ही गाए हुए भजनों का टेप सुन रहे थे। आँखे खोल कर उन्होंने राधावल्लभ को औरों के मध्य बैठे देखा और कहा, “मैं तुम्हें देख रहा हूँ” उन्होंने फिर आँखें बंद कर लीं।

एक भक्त बोल उठा और कहा, "नहीं, नहीं, प्रभुपाद ! आप हमें परेशान नहीं कर रहे हैं।” किन्तु एक दूसरा भक्त राधावल्लभ की ओर मुड़ा और बोला, “मैं समझता हूँ कि प्रभुपाद तुम से बात कर रहे थे ।” राधावल्लभ ने अनुभव किया कि प्रभुपाद का आशय क्या था; वे उसे वापिस जाकर काम करने के लिए कह रहे थे। मानो प्रभुपाद उससे सचमुच यह कह रहे हों, “तुम यहाँ मुझे देखते हुए क्यों बैठे हो; वापिस जाकर अपने काम पर लग जाओ ।"

श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों की कार्यनिष्ठा से प्रसन्न थे। उन्होंने दो महीने में उनसे सत्रह पुस्तकों की छपाई पूरी करने को कहा था और वे, बजाय इसके कि उन्हें बताने की कोशिश करते कि यह कार्य क्यों असंभव था, उनके आदेश को इतनी गंभीरता से ले रहे थे कि वे उससे इनकार या उसमें परिवर्तन या संशोधन की भी बात नहीं सोच सकते थे। उनके आदेश में परिवर्तन के स्थान पर उन्होंने अपने जीवन में परिवर्तन कर लिया था । सामान्य कार्यक्षेत्र से आगे

बढ़ कर, वे असामान्य प्रयास के क्षेत्र में पहुँच गए थे। परिणामस्वरूप, प्रभुपाद और वे, दोनों बहुत संतोष का अनुभव कर रहे थे। जैसा कि प्रभुपाद ने कहा, यह एक ऐसी व्यवस्था थी जो भगवान् चैतन्य और सभी पूर्ववर्ती आचार्यों के संतोष के लिए संभव बन गई थी ।

श्रील प्रभुपाद ने अपनी संयुक्त राज्य की यात्रा को जारी रखने का निर्णय किया। उन्हें लगुना बीच से सैन डियागो और वहाँ से डलास पहुँचना था । उन्हें डलास से न्यू आरलिएंस और निकटस्थ मिस्सीसिपी में इस्कान का फार्म देखना था। फिर वहाँ से डिट्रायट, टोरन्टो, बोस्टन होते हुए न्यू यार्क पहुँचना था। न्यू यार्क से योरोप की यात्रा करते हुए अंततः भारत आना था ।

प्रभुपाद के दृष्टिकोण से कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए उनकी यात्रा आवश्यक थी। जैसा कि बर्कले पहुँचने पर उन्होंने अपने स्वागत भाषण में कहा था, “मैं साल में दो-तीन बार विश्व भ्रमण करता हूँ। मेरा धर्म है कि मैं देखूँ कि जिन शिष्यों ने मुझे गुरु स्वीकार किया है, वे पतन के गर्त में न गिरें । मेरी यही चिन्ता है । "

प्रभुपाद की चिन्ता अपने शिष्यों के लिए थी, किन्तु वह चिन्ता सभी लोगों के लिए भी थी । मानव समाज की पतित और अज्ञानतापूर्ण दशा से, विशेषकर पाश्चात्य जगत की दशा से, दुखी होकर वे अंग्रेजी भाषी जनसमाज की सहायता करना चाहते थे, जैसा कि उनके गुरु महाराज ने आदेश दिया था। दो वर्ष पूर्व, कलकत्ता में उनकी मनोस्थिति यही थी, जब वे बीमारी से उठे थे और लंदन की रथ यात्रा में सम्मिलित होने के लिए वायुयान से वहाँ पहुँचे थे। उनकी सबसे प्रबल इच्छा पश्चिम में प्रचार करने की थी जहाँ लोग मायावादी दर्शन के गहरे प्रभाव में थे, ईश्वर के अस्तित्व को नकार रहे थे और इन्द्रियों के भोग का गुणगान कर रहे थे। उन्होंने कहा कि लोग आसानी से अज्ञान का मार्ग नहीं छोड़ेंगे, किन्तु यदि वे एक व्यक्ति को भी शुद्ध भक्त बना लेंगे तो उनका कार्य सफल हो जायगा ।

प्रभुपाद की योजना अपनी महत्त्वपूर्ण भारतीय परियोजनाओं पर कुछ महीने गहन कार्य करने की थी । तब वे पश्चिम को लौट कर अपनी यात्राओं और प्रचार में लग जायँगे । जरूरत दोनों की थी— भारत में परियोजनाओं को विकसित करने की और पश्चिम में यात्रा करने की। जब बर्कले में योगी भजन और उनके साथियों ने आश्चर्य प्रकट किया था कि प्रभुपाद विश्व - यात्रा करके अपने शिष्यों को बनाए रखने में कैसे सफल हो रहे थे, तो उन्होंने स्वीकार किया

था कि यह बहुत कठिन कार्य था और वे अपने जी. बी. सी. सचिवों को आन्दोलन का नेतृत्व करने की शिक्षा देने की कोशिश कर रहे थे। किन्तु अभी तक, ऐसा लगता था कि जब तक उनमें यात्रा करने की शक्ति है तब तक वे यात्रा करना जारी रखेंगे।

लगुनाबीच

जुलाई २५, १९७५

लगुना बीच लास एंजिलिस के दक्षिण में दो घंटे की कार द्वारा यात्रा की दूरी पर स्थित था। बीच के निकट, घर को बदल कर बनाया गया मंदिर, आए हुए भक्तों और अतिथियों से भरा था। प्रभुपाद के गद्दीदार आसन पर बैठने के बाद मंदिर के कुछ नेता, एक-एक करके आगे आए और उनका पग - प्रक्षालन करने लगे ।

अपने भाषण में प्रभुपाद मादक द्रव्य सेवन के विरुद्ध बोले, “क्या यहाँ कोई है जो यह कह सके कि 'मैं नियंत्रक हूँ ?' क्या यहाँ कोई है जो इस प्रश्न का उत्तर दे सके ? आप सोच सकते हैं कि आप नियंत्रक हैं। किन्तु आप मादक द्रव्यों से नियंत्रित हैं। लगुना बीच नगर अवैध मादक द्रव्य केन्द्र के रूप में कुख्यात था। प्रभुपाद यहाँ भावुक आध्यात्मिकता की बात कह कर किसी की खुशामद करने नहीं आए थे, वरन् उनके भ्रम को चीर फेंकने के लिए आए थे। गुरु महाराज का पद - प्रक्षालन अच्छा था, लेकिन सच्चा भक्त बनने के लिए विधि-विधानों का कड़ाई से पालन करना जरूरी था । प्रत्येक व्यक्ति को चुनना था कि वह मादक द्रव्यों से नियंत्रित होगा या कृष्ण से ।

प्रभुपाद मंदिर की बगल में एक पड़ोसी के घर में ठहरे थे। उनके मिलने वालों में सर्वप्रथम ऋषि दास था जो अपनी दीक्षा का परित्याग कर चुका था और कृष्णभावनामृत से दूर हट गया था। सिर पर लम्बे घुंघराले बाल और दाढ़ी रखे, ऋषि दास संयोग से उधर आ गया था कि अपने भूतपूर्व आध्यात्मिक गुरु से थोड़ी देर के लिए मिल ले। प्रभुपाद ने उत्साहपूर्वक ऋषि दास का स्वागत किया; दोनों में मुसकान का विनिमय हुआ और दोनों हँसे । किन्तु ऋषि

। का व्यवहार निर्लज्ज या लगभग अवज्ञापूर्ण था और उसने पश्चाताप का कोई चिह्न नहीं प्रकट होने दिया । प्रभुपाद को इस लड़के की, जिसे उन्होंने कुछ

वर्ष पहले संन्यास की दीक्षा दी थी, यह दशा देख कर प्रसन्नता नहीं हुई ।

पूर्व वर्षों में जब प्रभुपाद का कोई प्रिय शिष्य उन्हें छोड़ कर चला जाता था तो उन्हें रुलाई आ जाती थी। उन दिनों किसी शिष्य का पतन बहुत विरल था, लगभग नहीं के बराबर था । किन्तु कुछ सालों से, प्रभुपाद को ऐसी बहुत-सी दुर्घटनाएँ देखनी पड़ीं, उनके जी. बी. सी. नेताओं और संन्यासियों के बीच भी । १९६७ ई. में उनकी शिष्याओं में से एक पहली शिष्या, कृष्ण- देवी दासी अपने पति सुबल को छोड़ कर एक अन्य लड़के के साथ भाग गई थी तो प्रभुपाद ने सुबल को यह कह कर ढाढ़स दिया था कि कृष्ण का भक्त बनना बहुत विरली बात होती है। श्रील प्रभुपाद ने कहा था, " आश्चर्यजनक यह बात नहीं है कि कृष्ण - देवी दासी छोड़ कर चली गई है, वरन् यह है कि हम कृष्णभावनामृत में अडिग बने रह सकते हैं । "

यद्यपि भक्त लोग कृष्णभावनामृत को विभिन्न कारणों से छोड़ते थे, किन्तु श्रील प्रभुपाद को यही दिखाई देता कि वे माया द्वारा ठगे गए हैं। परिणाम लगभग हमेशा वही होता चाहे भगोड़े ने नए धर्म के बहाने छोड़ा हो, नए आर्थिक लाभों के लिए छोड़ा हो या अन्य किसी कारण से छोड़ा हो; आमतौर से वह आत्म-सत्कार के कड़े मार्ग को छोड़ कर इन्द्रियों की तृप्ति का जीवन अपना लेता था या लेती थी ।

ऋषि के बारे में निश्चितरूपेण यही सच था । जब प्रभुपाद ने पूछा कि वह अपने जीवन के साथ क्या कर रहा है तो वह हँसा और बोला कि सैक्सोफोन बजा रहा हूँ। अब यह पूछने की आवश्यकता नहीं रह गई थी कि वह सोलह फेरी माला जप रहा था या नहीं, अथवा चारों नियमों का पालन कर रहा था या नहीं । किन्तु ऋषि प्रभुपाद को आश्वस्त करना चाहता था कि सब कुछ बहुत बढ़िया है। उसने कहा, “मैं समझता हूँ कि मैं अब अधिक स्वतंत्र हूँ । '

प्रभुपाद ने चुनौती दी, “क्या तुम समझते हो कि तुम्हें स्वतंत्रता है ?" ऋषि ने उत्तर दिया, “हाँ कुछ है, अध्ययन और कार्य करने से । " प्रभुपाद ने पूछा, “तुम्हारी अवस्था क्या है ? "

" उन्तीस ।"

प्रभुपाद ने आग्रहपूर्वक पूछा, “क्या तुम्हें इस बात की स्वतंत्रता है कि तुम्हारी अवस्था आगे न बढ़े ?"

“नहीं।”

" तब तुम्हारी स्वतंत्रता कैसी ? "

ऋषि तनिक हँसा, “मुझे चिन्ता नहीं है । "

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “यह ठीक है। किन्तु मैं शोध कर रहा हूँ। मैं अब अठहत्तर वर्ष का हूँ। मैं मरना नहीं चाहता । किन्तु मरना तो होगा ही । तुम्हें भी वृद्ध तो होना ही होगा। कोई वृद्ध होना नहीं चाहता । "

कृष्णभावनामृत दर्शन की कुछ बातों का स्मरण करके ऋषि ने प्रभुपाद के विरोध में तर्क देने का प्रयत्न किया। उसने कहा कि यद्यपि वृद्ध होना उसकी मजबूरी है, किन्तु आत्मा के कायान्तरण के कारण, मृत्यु के पश्चात् वह स्वतंत्र हो जायगा । और जो भी हो, अन्य प्रकार की स्वतंत्रताएँ भी तो हैं।

प्रभुपाद अपने मूल तर्क पर अड़े रहे और बोले, “ मृत्यु अनिवार्य है। कोई वृद्धावस्था नहीं चाहता। हर कोई यौवन चाहता है । एक वृद्ध मनुष्य भी बीच पर स्वास्थ्य की खोज में जाता है। मैं यौवन चाहता हूँ, किन्तु मैं इसे पा नहीं सकता । तो स्वतंत्रता कहाँ है ?"

प्रभुपाद तब, विस्तार से, ऋषि और कमरे में बैठे अन्य भक्तों के लाभ के लिए बोलते रहे। उन्होंने कहा कि माया के वशीभूत व्यक्ति कहते हैं कि वे स्वतंत्र हैं । मादक द्रव्य का व्यसनी या शराब पीने वाला समझता है कि वह स्वतंत्र है — सड़क पर पड़े रहने के लिए। तो भी उसके कार्य उसे भौतिक प्रकृति के कड़े कानूनों में जकड़ देते हैं। कानून तोड़ने वाला कहता है कि वह राज्य के कानून से स्वतंत्र है, लेकिन उसे जेल जाना पड़ता है। तो उसके यह कहने का क्या लाभ कि वह स्वतंत्र है ? प्रभुपाद ने बताया, "इसीलिए कृष्ण कहते हैं कि जो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता तुम्हें मिली है उसे मुझको समर्पित कर दो।"

झूठी स्वतंत्रता पर प्रभुपाद की टिप्पणियाँ तर्कपूर्ण थीं। अपने पहुँचने के दो घंटे के अंदर उन्होंने लगुना बीच के रहस्यवादियों का भंडाफोड़ कर दिया था । ऋषि मुसकराता रहा और तर्क देता रहा, किन्तु प्रभुपाद के सामने वह एक निरा युवा था जिसके पास कोई सही उत्तर नहीं था । प्रभुपाद की रुचि वाद-विवाद में नहीं थी, वे केवल अपने शिष्यों की सहायता करना चाहते थे। दूसरी ओर ऋषि के पास जो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता थी उसका प्रयोग वह कृष्ण के प्रतिनिधि की अवज्ञा में कर रहा था; उसका विश्वास अपनी युवावस्था, नशाखोरी और संगीत में था ।

दरवाजा खुला। एक शिष्य ने घोषणा की, “श्रील प्रभुपाद, ये कुछ प्राचार्य हैं जो हमारे धर्म-समाज के अंग हैं।" प्रभुपाद ने नए अतिथियों का स्वागत

किया और उन्हें अपने सामने के गद्दों पर बैठने को कहा ।

प्रभुपाद ने कहा, “मैं इस लड़के से स्वतंत्रता के विषय में बात कर रहा था; मैं कहता हूँ कि स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं है। हम सदैव परावलम्बी हैं। इस विषय में आपका क्या मत है ?" प्राचार्यों में से एक ने कहा कि मैं सहमत हूँ। उसके बाद प्रभुपाद वार्ता करते रहे। प्राचार्यों के साथ उनकी वार्ता एक घंटे से अधिक चली ।

वार्ता के अंत के निकट, उपेन्द्र का तीन वर्ष का लड़का, सौम्य, कमरे के पीछे से प्रभुपाद के पास पहुँच गया । प्रभुपाद ने उसे कुछ पैसे, जो उनकी डेस्क पर पड़े थे, दिये। लड़का पैसे लेकर अपनी माँ के पास दौड़ गया और उसने पैसे उसे दे दिए। प्रभुपाद ने याद करके बताया, “हाँ, जब मैं छोटा था, उस समय यदि मुझे पैसे मिल जाते थे तो मैं उन्हें माँ को दे देता था । लेकिन जब मुझे मां पर गुस्सा आता था तो मैं अपने पैसे वापिस माँग लेता था। कभी-कभी मैं माँ के पर्स में से पैसे चुराकर चार्ली चैपलिन के चलचित्र देखने जाया करता था।” उन्होंने कहा कि उनका प्रिय 'हार्ड टाइम्स' फिल्म का वह दृश्य था जिसमें चार्ली चैपलिन एक चाकू और फोर्क के साथ एक बूट खाने को, मेज पर बैठता था ।

सेन डियागो

जुलाई २७, १९७५

बल्बोवा पार्क में एक उत्सव में सम्मिलित होने के लिए श्रील प्रभुपाद ने तड़के के अंधकार में सेनडियागो के मार्ग में सेनडियागो फ्रीवे को पार किया । रास्ते में सेन क्लीमेंट आया जहाँ भूतपूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ठहरे थे । प्रभुपाद निक्सन के भण्डाफोड़ और त्याग पत्र के सम्बन्ध में पढ़ते रहे थे और अपने व्याख्यानों में प्रायः उनकी चर्चा करते थे। कभी-कभी वे इसे उदाहरण के रूप में सुनाया करते थे कि किस तरह सब से शक्तिशाली लोग भी चिन्ता और हानि के घेरे में आ जाते हैं और कभी-कभी यह स्पष्ट करने के लिए कि चारों स्वाभाविक वर्णाश्रमों में लोगों को समुचित प्रशिक्षण देने की कितनी आवश्यकता है।

एक भक्त ने बताया कि मि. निक्सन, बिना किसी सामाजिक प्रतिष्ठा के,

अपने देशवासियों की घृणा का पात्र बन कर, वहाँ रह रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने कहा,

" तब तुम लोगों को वहाँ जाना और उसे उपदेश देना चाहिए। क्योंकि उस व्यक्ति ने सब कुछ खो दिया है और पश्चाताप कर रहा है, इसलिए परम सत्य के विषय में सुनने में उसकी रुचि हो सकती है । प्रभुपाद ने एक ऐसा ही उपागम महात्मा गांधी पर भी आजमाया था।

बल्बोआ पार्क में भक्तों ने घास के मैदान में जो दूकानें, रंगीन खेमें और मंच तैयार किए थे उनसे प्रभुपाद बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने बृहत् जन-समूह को सम्बोधित करना आरंभ ही किया था कि भीड़ में से एक आदमी चिल्लाने लगा। प्रभुपाद ने पूछा कि वह क्या कह रहा था तो एक भक्त ने बताया, "श्रील प्रभुपाद, यह आदमी कह रहा है कि वह प्रतिमास एक बार से अधिक स्त्री - संभोग करना चाहता है।

प्रभुपाद माइक्रोफोन में बोले - “ वह बाधा उत्पन्न कर रहा है । "

एक तनावपूर्ण पल के बाद प्रभुपाद ने अपना व्याख्यान जारी रखा, "तो जिस तरह यह आदमी यौन सम्बन्ध की बात कर रहा है उसी तरह सम्पूर्ण भौतिक संसार इस यौन सम्बन्ध से विमोहित है ।" उसके चीख-भरे प्रतिवाद को अपने भाषण का एक नया केन्द्रबिन्दु बनाते हुए श्रील प्रभुपाद ने प्रह्लाद महाराज के वक्तव्य को उद्धृत किया कि सभी भौतिक पाशों का आरंभ यौन सम्भोग से होता है जो दिव्य आनन्द की तुलना में अत्यंत तुच्छ और घृणास्पद है । प्रभुपाद ने जोर देकर कहा, “किन्तु वास्तविक आनन्द इन्द्रियातीत है। हम स्थूल इंद्रियों से जो आनन्द प्राप्त करते हैं वे अस्थायी हैं । किन्तु स्थायी आनंद दिव्य होता है । '

उन्होंने आगे कहा, “यह आदमी कह रहा था कि वह प्रत्येक मास कम-से-कम एक बार यौन-सुख चाहता है। हाँ, इस बात की अनुमति है। मासिक धर्म के पाँच दिन बाद पति-पत्नी उपयुक्त संतान पाने के लिए यौन-सम्बन्ध कर सकते हैं।” प्रभुपाद ने वैदिक पारिभाषिक शब्द गर्भाधान-संस्कार का प्रयोग किया जिससे विवाह की सीमा में यौन-सम्बन्ध को शुद्ध करने की प्रक्रिया का जिक्र होता है। भक्तों को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि यौन सम्बन्धों की दृष्टि से बिल्कुल स्वतंत्र, दक्षिणी कैलीफोर्निया के जन-समूह के सामने, प्रभुपाद दायित्वपूर्ण विहित यौन सम्बन्ध का पक्ष समर्थन कर रहे थे । सामान्यतया ऐसे मामलों पर यदि कभी वे अपना विचार प्रकट करते भी थे, तो वह गृहस्थों को लिखे गए पत्रों में होता था । किन्तु यदि अमेरिका के लोग यौन सुख पर तुले थे

यौन-सुख

तो प्रभुपाद की ओर से इसके लिए उन्हें स्वतंत्रता थी । वे केवल इस बात पर बल देते थे कि यौन-सुख सीमित और दायित्वपूर्ण हो । स्वच्छन्द यौन-सम्बन्ध करने का प्रतिफल दुख है ।

प्रभुपाद ने कहा, “ यौन सम्बन्ध की मनाही नहीं है। किन्तु यौन सम्बन्ध की जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। अन्यथा मनुष्य अनेक पापपूर्ण कार्यों में लिप्त हो जाता है। एक महीने में एक बार यौन सम्बन्ध किया जा सकता है। यह विहित है। क्योंकि स्त्री को महीने में एक बार रजोधर्म होता है। इसलिए यौन-सम्बन्ध का उद्देश्य अच्छी संतान प्राप्त करना है, इन्द्रियों की तृप्ति नहीं। यदि यह विधान अनुसार रहे तो संसार नरक नहीं बनेगा । यदि यह अविहित होगा तो संसार नरक हो जायगा । यौन सम्बन्ध की मनाही नहीं है, लेकिन उसे विधान सम्मत रूप में होना चाहिए जिससे जनसंख्या अच्छी हो और मनुष्यं सुख से रह सके ।

के

विशेषकर वर्तमान समय में यदि आप कृष्ण चेतन बच्चे पैदा करते हैं तो वह भगवान् की बड़ी सेवा होगी क्योंकि हम कृष्ण चेतन आबादी चाहते हैं । अन्यथा, यह संसार नरक बनने जा रहा है। बड़े-बड़े साम्राज्य हो गए हैं, जैसे रोमन, ग्रीक और बाद में मुगल, ब्रिटिश साम्राज्य; नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी जैसे लोग हुए हैं। ये सभी शक्तिशाली साम्राज्य और मनुष्य पैदा हुए और समाप्त हो गए। केवल उनके नाम शेष हैं। बाकी कुछ नहीं है। मैं आपके देश आया, क्योंकि मैंने सुना था कि आपका देश बहुत अच्छा है। आकर मैंने देखा कि वास्तव में आपका देश बहुत अच्छा है— आपके नगर, आपकी इमारतें, आपके लोग भी— क्योंकि मेरे शिष्य अधिकांश में अमरीकी हैं और वे मेरे आंदोलन को बढ़ाने में बहुत सहायता कर रहे हैं।

" मैंने अमरीकी जीवन का अध्ययन अच्छी तरह किया है। वे बहुत अच्छे दिल वाले लोग हैं। उनमें केवल कृष्ण चेतना की कमी है। इस कमी के कारण, बावजूद आपकी सारी सम्पन्नता के, आप दिग्भ्रमित और हताश हो रहे हैं। मैं सुनता हूँ कि तीन में से एक व्यक्ति मनोरोग विज्ञानी का मरीज है। क्यों, आप दुखी क्यों है ? आपको दुखी क्यों होना चाहिए ? आपके पास सब कुछ है— पर्याप्त खाद्यान्न, जमीन, धन, बुद्धि । तों आप दुखी क्यों हों ? इसका कारण जानने की कोशिश आपको करनी चाहिए। कारण यह है कि कृष्ण चेतना के बिना, भगवत्चेतना के बिना, कोई सुखी नहीं हो सकता ।'

बाहर की भीड़ अब शान्त और एकाग्रचित्त थी । प्रभुपाद लगभग चालीस मिनट बोले । कृष्णभावनामृत दर्शन के सभी पक्षों पर उन्होंने प्रकाश डाला और

अमरीकी पुरुषों और महिलाओं से इस प्रार्थना के साथ अपना भाषण समाप्त किया कि वे कृष्णभावनामृत-आन्दोलन से गंभीरतापूर्वक सहयोग करें और इस प्रकार सुखी बनें। लोगों ने उनके भाषण पर तालियाँ बजाईं और भक्तगण पूरे तीसरे पहर आगंतुकों के साथ कीर्तन करते रहे, नाचते रहे और सब को प्रसाद वितरण करते रहे।

एक भारतीय आगन्तुक प्रभुपाद को बता रहा था कि भारत को अणु हथियार क्यों बनाना चाहिए और सैनिक शक्ति क्यों बढ़ानी चाहिए, किन्तु प्रभुपाद उससे असहमत थे। उन्होंने बताया कि इसका कारण विशुद्ध क्षत्रियों का अभाव था । अब साहसी लोग नहीं रह गए हैं, इसलिए अब एक स्त्री देश की प्रभारी है।

समाचार पत्रों में भी इस तरह के तमाम समाचार छप रहे थे कि मायाक्वेज नाम का यू. एस. व्यापारी जहाज, जो कम्बोडिया की बारह - मील की सीमा के अंदर जा रहा था, बिना किसी चेतावनी के पकड़ लिया गया था । राष्ट्रपति फोर्ड ने कड़े कदम उठाए थे और संयुक्त राज्य के नौसैनिक भेज दिए थे। जहाज को छुड़ाने में पन्द्रह नौसैनिक मारे गए थे और पचास घायल हो गए थे और संयुक्त राज्य ने कम्बोडिया पर बम - वर्षा की थी। प्रभुपाद ने कहा कि यह उचित था कि संयुक्त राज्य अपने देश से बाहर गए नागरिकों की रक्षा के लिए कड़े कदम उठाए। उन्होंने जोर देकर कहा कि, “अमेरिका को शक्तिशाली होना चाहिए। किन्तु सबसे पहले लोगों को कृष्ण चेतन बनना चाहिए। यदि सचमुच यह कृष्ण - चेतन राष्ट्र बन जाय तो यह घोषणा कर सकता है कि 'यदि किसी ने हमारे एक भी नागरिक का बाल बांका किया तो युद्ध होगा ।'

श्रील प्रभुपाद जोरदार शब्दों में बोलते रहे। उन्होंने श्रोताओं के सामने एक शक्तिशाली अमेरिका का दृश्य प्रस्तुत किया जो कृष्णभावनामृत में संसार का नेतृत्व करेगा। इससे लोगों में विशुद्ध देश भक्ति की आशाओं का संचार हुआ,

- जैसा कि वैदिक संस्कृति के युग में था जब भगवत् - चेतन नेताओं द्वारा संसार पर शासन होता था ।

अगले दिन सवेरे हवाई अड्डे के लिए प्रस्थान करने के पूर्व श्रील प्रभुपाद बल्बोआ पार्क में टहले । पक्षियों की मधुर चहचहाट सुन कर वे बोले, वे प्रसन्न हैं। उन्होंने कहा, "वे फल खाते हैं और सवेरे ही सवेरे गा रहे हैं।

रामेश्वर : " किन्तु जब हम लोगों से कहते हैं कि अगले जन्म में वे पशु या पक्षी होंगे तो वे कहते हैं कि ठीक है, क्योंकि ये जीव मनुष्यों से अधिक सुखी हैं। "

प्रभुपाद : “किन्तु चूँकि तुम धूर्त हो, इसलिए तुम यह नहीं जानते कि तुम अधिक सुखी हो सकते हो — घर वापिस जा सकते हो, परमात्मा के पास वापिस जा सकते हो। तुम यह नहीं जानते । "

भक्तगण प्रभुपाद की टिप्पणी सुनने के लिए उनके सामने सभी तरह के प्रकरण लाना चाहते थे । वार्तालाप के विषय तेजी से बदलते रहते थे। भक्त कभी कभी सामयिक पतन के भयानक उदाहरण प्रभुपाद के सामने लाते थे या कभी कभी अपना संदेह मिटाने के लिए वे स्वयं अनीश्वरवादी बन जाते थे। या कभी कभी वे प्रभुपाद का ध्यान सामान्य हलचलों की ओर आकृष्ट करते थे । विषय या प्रकरण कैसा भी होता, प्रभुपाद भक्तों को यह सिखाते कि उन्हें किस प्रकार दिव्य दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। इस प्रकार वे उन्हें स्वयं अपनी विशुद्धता और मानवीयता का भी परिचय देते थे। जब एक भक्त ने बताया कि बल्बोवा पहला व्यक्ति था जिसने प्रशान्त महासागर को देखा, तो पहले तो प्रभुपाद प्रभावित होते हुए दिखाई दिए, किन्तु एक मिनिट बाद उन्होंने ताना मारा, "वहाँ पहले से और लोग भी थे। इसे ये लोग नहीं जानते । प्रशान्त और अंध महासागरों का वर्णन कवि कालिदास के कुमारसंभव काव्य में आया है । प्रशान्त, अंध महासागर सभी का उल्लेख है । ये मूर्ख कुछ नहीं जानते । वे कहते हैं, 'यहाँ आने वालों में मैं पहला हूँ।' मानो उनके पहले कोई था ही नहीं । जरा देखो । "

प्रभुपाद ने पिछले दिन पार्क में हुए उत्सव पर भक्तों को बधाई दी और कहा कि ऐसे उत्सव उन्हें हर दिन करने चाहिए। वे हँस कर बोले, " तुम इतने धनी हो, तुम कर सकते हो । लगातार उत्सव करो। उनसे कहो, 'आओ, प्रसाद लो, कीर्तन करो।' ठीक उसी तरह — वह क्या है? मुझसे किस ने कहा ? – लगातार मालिश ।

तमाल कृष्ण गोस्वामी, "हाँ, यहाँ चौबीसों घंटे चलने वाले मालिश-घर हैं । "

प्रभुपाद ने हँसते हुए कहा, “चौबीसों घंटे। उसी तरह चौबीसों घंटे निःशुल्क प्रसाद बाँटो । बुलाओ लोगों को । किन्तु वे इसके लिए भूखे नहीं हैं। ”

घास के मैदान की ओर बढ़ते हुए उन लोगों ने एक व्यक्ति को सिर के

बल खड़ा देखा। प्रभुपाद ने पूछा, "क्या यह हमारा आदमी है ?" भक्त हँसने लगे और बोले, "नहीं, यह योग कर रहा है।

रामेश्वर ने कहा, "यह अमर होना चाहता है । "

प्रभुपाद बोला, “नहीं, इससे लोग स्वस्थ रहते हैं।

तमाल कृष्ण, "इससे शरीर ठीक रहता है। '

प्रभुपाद ने कहा, “यह शीर्षासन कहलाता है— सिर के बल खड़ा होना । शीर्षासन, पद्मासन, योगासन, आसन कई तरह के हैं । "

तमाल कृष्ण : “हम उनका अभ्यास नहीं करते । "

:

प्रभुपाद

ने व्यंग्य करते हुए कहा, “हाँ, हमारे पास सोने से समय नहीं बचता । " भक्त उनकी व्यंग्योक्ति पर हँसने लगे। प्रभुपाद ने आगे जारी रखा, "नहीं तो, यह बुरा नहीं है। यह बुरा नहीं हैं। इससे स्वास्थ्य अच्छा रहता है। योगासन से । "

प्रभुपाद के मुख से हठ योग की आश्चर्यजनक रूप में ऐसी प्रशंसा सुन कर एक भक्त ने अनिवार्य प्रश्न पूछ लिया, “ तो, यदि हमारे पास समय हो तो क्या हम यह कर सकते हैं ? "

किन्तु तब तक उनका टहलना समाप्त हो गया था और वे अपनी कारों तक वापिस पहुँच गए थे। श्रील प्रभुपाद मंद-मंद मुसकराने लगे मानो वे जानते थे कि उन्हें एक विवादग्रस्त प्रश्न में फँसाया जा रहा था। वे बोले,

" हरे कृष्ण,

कार में सवार होकर उन्होंने जोड़ा “ जरूरत नहीं है । '

डलास

जुलाई २८, १९७५

एक सम्वाददाता ने डलास के फोर्थवर्थ हवाई अड्डे पर पूछा, “स्वामी, आप यहाँ क्यों आए हैं ?"

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "यह मेरा घर है ।" उत्तर से उनके शिष्य अत्यन्त प्रसन्न हुए । “मेरे इतने सारे लड़के-लड़कियाँ है, पोते-पोतियाँ हैं। मैं उनसे मिलने आया हूँ।”

श्रील प्रभुपाद ने श्रीमद्भागवत के तात्पर्य में डलास गुरुकुल के विषय में लिखा था। उन्होंने लिखा था कि कृष्णभावनामृत-आन्दोलन, टेक्सास के डलास - गुरुकुल के अपने विद्यालय में, वैष्णवों की एक नई पीढ़ी को प्रशिक्षित कर रहा है।

वहाँ एक सौ से अधिक लड़के-लड़कियाँ नामांकित थे और प्रभुपाद जब

भी संयुक्त राज्य की यात्रा पर आते तो उन्हें यहाँ आना बहुत अच्छा लगता था। संयुक्त राज्य के अन्य इस्कान केन्द्रों की भाँति यहाँ भी प्रभुपाद प्रबन्धात्मक कार्यों में अपने को पूरी तरह लिप्त नहीं होने देते थे; किन्तु वे आते जरूर थे और शिक्षकों से मिलते थे जो अपने प्रश्नों के साथ हमेशा तैयार रहते थे चूँकि पश्चिम में कृष्ण - चेतन शिक्षा का पहले से कोई नमूना मौजूद नहीं था, और चूँकि भक्तों की इच्छा गुरुकुल को ठीक उसी ढंग से विकसित करने की थी जैसा कि प्रभुपाद चाहते थे, इसलिए उन्हें लगता कि पाठ्यक्रम, अध्यापन विधि, स्वास्थ्य-रक्षा, मनोरंजन आदि के बारे में प्रभुपाद से पूछते रहना चाहिए ।

एक सौ डिग्री तापमान वाले मौसम में स्कूल के बच्चे शर्ट नहीं पहनते थे और प्रभुपाद अपने कमरे में बिजली का पंखा चलाते थे। प्रभुपाद ज्योंही अपने कमरे में पहुँचे उन्होंने कहा कि सभी बच्चे और वयस्क उनके कमरे में आ जायँ और एक-एक करके सभी उनके कमरे में दाखिल हो गए और सबने अपना एक-एक हाथ आगे निकाला और प्रभुपाद ने उसमें एक-एक बड़ा रसगुल्ला रख दिया। उस दिन संध्या समय प्रभुपाद मंदिर के पीछे मैदान में चारों ओर घूमने वाली एक कुर्सी में बैठे। भक्त मोर के पंखों से बने बड़े पंखे से उन्हें हवा करने लगे। उस समय टिड्डी समूह वृक्षों में जोर से भिनभिना रहा था । प्रभुपाद अपने शिष्यों के साथ फलते-फूलते तुलसी के पौधों के बीच बैठे रहे और कृष्ण पुस्तक का वाचन सुनते रहे। प्रभुपाद की ओर से यह भी एक पाठ था कि गुरुकुल का संचालन कैसे करना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे वे शिक्षकों के कठिन प्रश्नों के उत्तर देते थे । गुरुकुल में प्रत्येक वस्तु कीर्तन और कृष्ण के सम्बन्ध में वार्ता सुनने पर आधारित होनी चाहिए ।

ब्रह्मानंद स्वामी, कृष्ण द्वारा अपनी प्रेमिका रुक्मिणी को बचाने का प्रसंग पढ़ रहा था कि श्रील प्रभुपाद एकाएक बीच में बोले कि जब वे कृष्ण के रथ में पलायन कर रहे थे और अन्य राजकुमार उन पर आक्रमण कर रहे थे तब रुक्मिणी ने घोड़े की बागडोर अपने हाथ में ली थी और स्वयं रथ हाँका था । कृष्ण ने अपना धनुष-बाण सँभाल लिया था और अपने प्रतिद्वन्द्वियों को हरा दिया था। भक्त विस्मित थे । वे कृष्ण पुस्तक के गहन अध्येता थे, किन्तु उन्हें कहीं भी इस विशेष घटना का उल्लेख नहीं मिला था। उनमें से किसी ने कभी रुक्मिणी के बागडोर लेने की बात नहीं सुनी थी, न उन्होंने उसके बारे में इस तरह कभी सोचा था । किन्तु प्रभुपाद ने उन्हें विश्वास दिलाया कि रुक्मिणी ने लड़ाई के बीच कृष्ण का रथ निर्भयतापूर्वक चलाया था ।

जब प्रभुपाद इस तरह बात कर रहे थे, गुरुकुल के प्रधान शिक्षक, दयानंद —, ने अधिक सुविधाजनक स्थिति में बैठने के लिए एक टाँग फैला दी। प्रभुपाद उनकी ओर मुड़े और रूखे शब्दों में बोले, " अपने पैर तुलसी के निकट न ले जाएँ, वह शुद्ध भक्त है । "

जब ब्रह्मानंद ने कृष्ण पुस्तक से एक प्रार्थना पढ़ी जिसमें वर्णन था कि कृष्ण सभी भौतिक तत्त्वों के स्रष्टा हैं तो प्रभुपाद बोल उठे, “यदि हम यह नहीं मानते कि कृष्ण ने आकाश बनाया तो उसे किसने बनाया ?” टेक्सास के आकाश का नीलापन अब गोधूलि में बदल रहा था और अतिथियों तथा भक्तों ने आकाश की ओर देखा और तदनन्तर वे प्रभुपाद की ओर देखने लगे ।

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "भगवद्गीता के अनुसार कृष्ण ने आकाश बनाया— - भूमिर आपोऽनलो वायुः खम्। तो हमें इस तरह अध्ययन करना चाहिए— अहम् सर्वस्य प्रभवः । आकाश सबसे बड़ा भौतिक पदार्थ है, किन्तु उसे कृष्ण ने बनाया । कृष्ण का अध्ययन इस तरह करो। उनका अध्ययन केवल गोपियों के साथ मत करो । – तब तो तुम उन्हें गलत समझोगे। तुम जितना ही अधिक कृष्ण का अध्ययन करोगे उतने ही अधिक पक्के उनके अनुयायी बनोगे। अनधिकृत व्यक्ति आकाश की सृष्टि करने वाले कृष्ण का चित्रण कभी नहीं करते। वे कृष्ण को सदैव गोपियों के साथ नृत्य करते देखना पसंद करते हैं, और इस तरह वे अपने काम- लोलुप क्रियाकलापों के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश करते हैं। "

डलास के दो समाचार-पत्रों में प्रभुपाद के आगमन की खबरें छपी थीं। दि डलास टाइम्स हेराल्ड ने श्रील प्रभुपाद का एक चित्र छापा था जिसमें वे गुलाब की मालाएँ पहने हुए बैठे थे। उनका दाहिना हाथ उठा था, उनकी तर्जनी अंगुली बाहर निकली थी और वे उपदेश की मुद्रा में थे। शीर्षक था : " नंगे पैर स्वामी ने कृष्ण प्रशंसक भीड़ जुटाई "

इस दावे के अतिरिक्त कि श्रील प्रभुपाद नंगे पैर थे ( वास्तव में वे जूते पहने थे और पालथी मार कर बैठते समय उन्होंने उन्हें उतार दिया था ), लेख में डलास के कृष्ण-भक्तों को लेकर एक और विवाद का भी उल्लेख था । लेख में डलास फोर्टवर्थ हवाई अड्डे के अधिकारियों के विरुद्ध इस्कान की एक निषेधाज्ञा का भी वर्णन था, जिन्होंने भक्तों को साहित्य - वितरण करने और

अनुदान लेने से मना कर दिया था ।

लेख को सुन कर श्रील प्रभुपाद ने टिप्पणी की थी, "यह अच्छा साहित्य है। इसे प्रोत्साहन मिलना चाहिए ।" इसे पढ़ कर लोगों में समझ आएगी और वे अपनी संवैधानिक स्थिति को समझ सकेंगे। नहीं तो लोग अपराध से तंग किए जाते रहेंगे और वे नहीं जान सकेंगे कि क्या करना चाहिए ।

श्रील प्रभुपाद को यह जानने में विशेष रुचि थी कि समाचार पत्र में भारतीय राजनीति पर पूछे गये प्रश्न का उनका उत्तर किस रूप में छपा था ।

... स्वामी ने उत्तर दिया कि "श्रीमती गांधी का रुझान किसी प्रकार के आध्यात्मिक बोध की ओर है और यदि उन्होंने इसे पूरी तरह विकसित कर लिया तो स्थिति सुधर जायगी ।

" जनतंत्र का कोई लाभ नहीं यदि उसके नेताओं के पास आध्यात्मिक मूल्य नहीं हैं । महात्मा गांधी व्यवहार में एक अधिनायक थे किन्तु वे ऊँचे नैतिक चरित्र के व्यक्ति थे, इसलिए जनता ने उन्हें स्वीकार किया। अधिनायकवाद अच्छा हो सकता है, बशर्ते कि अधिनायक का आध्यात्मिक विकास हुआ हो ।

श्रील प्रभुपाद से इन्दिरा गांधी के विषय में बार- बार पूछा जा रहा था । संयुक्त राज्य की सरकार उनके हाल में लगाए गए आपात प्रशासन की आलोचक थी और विशेष रूप से शिकागो में स्त्रियों के विषय में की गई प्रभुपाद की टिप्पणियों का अर्थ सम्वाददाताओं ने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की आलोचना के रूप में लगाया था। शिकागो और डलास दोनों स्थानों में प्रभुपाद ने इस बात पर बल दिया था कि राजनीति से उनका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं था, यद्यपि उन्होंने कहा था कि कृष्ण के बिना राजनीति व्यर्थ है ।

प्रभुपाद भारत सरकार से अच्छा सम्बन्ध बनाए रखने को उत्सुक थे, इसलिए भारतीय नेताओं के विरुद्ध वे सार्वजनिक रूप में बोलना नहीं चाहते थे। उन्होंने प्रायः अपनी यह इच्छा प्रकट की थी कि वे प्रधान मंत्री से मिलना चाहते थे और उन्हें आश्वस्त करना चाहते थे कि कृष्णभावनामृत-आन्दोलन भारतीय जनता और सारे विश्व के लिए अच्छा कार्य कर रहा था और वे उनसे प्रार्थना करना चाहते थे कि प्रधान मंत्री आंदोलन की सहायता करें। भारत में प्रवेश पत्र प्राप्त करना भक्तों के लिए सदैव एक समस्या थी । उन्हें बार- बार देश और उसकी सेवा को छोड़ कर जाना पड़ता था । प्रवेश पत्र का नवीकरण करा कर फिर से आना बहुत महंगा पड़ता था । अब कुछ भक्तों को, विशेषकर मायापुर में रह रहे भक्तों को, देश छोड़ने को कहा जा रहा था, क्योंकि श्रीमती गांधी

के राजनीतिक कार्यों के कारण अमेरिका का रुख उनके विरुद्ध हो गया था । हाल में प्रभुपाद को दिल्ली से भक्तों का एक पत्र मिला था कि वे एक बैठक के आयोजन का प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिए प्रभुपाद को डलास टाइम्स हेराल्ड में इंदिरा गांधी पर प्रकाशित अनुकूल टिप्पणी पसंद आई थी और उन्होंने कहा था कि इसे सुरक्षित रखा जाय ।

जिस दिन श्रील प्रभुपाद को न्यू आरलियन्स के लिए प्रस्थान करना था, उस दिन सवेरे ह्वाइट राक लेक के निकट घूमते हुए वे भक्तों के मुख्य दल से पीछे रह गये थे और उन्होंने अपने सेवक से कहा था, "मैं ठीक नहीं अनुभव कर रहा हूँ।” कुछ संन्यासी जो आसपास थे चिन्ताकुल होकर उनके बिल्कुल निकट चले आए थे। प्रभुपाद ने यह भी कहा, “कल भी ऐसा ही था । '

"क्या यह गरमी के कारण है, श्रील प्रभुपाद ?"

“मैं नहीं जानता, किन्तु अब मुझे सिरदर्द हो रहा है और मेरी सांस कुछ फूल रही है।"

"क्या आज सवेरे की यात्रा रद्द कर दी जाय ?"

श्रील प्रभुपाद ने उत्तर नहीं दिया। किन्तु उन्होंने स्वीकार किया कि गरमी के कारण, हो सकता है, उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो गई हो। जब उनसे पूछा गया कि खाना उन्हें पसंद था तो उन्होंने कहा, “बहुत पसंद तो नहीं है, खाना बनाने वालों का हमेशा बदलते रहना ठीक नहीं होता।" ब्रह्मानंद स्वामी ने सुझाव दिया कि स्वास्थ्य के लिए एक अन्य कठिनाई लगातार हवाई यात्रा भी हो सकती है। किन्तु जब ब्रह्मानंद ने न्यू आरलियन्स की यात्रा रद्द करने की बात फिर कही तो श्रील प्रभुपाद बोले, "नहीं, नहीं।" और वे आगे बढ़ते गए।

जुलाई ३१

न्यू आरलियन्स की यात्रा के दौरान मौसम तूफानी था । उपेन्द्र के साथ प्रथम श्रेणी में बैठे हुए श्रील प्रभुपाद खिड़की से बाहर देख रहे थे कि आवाज आई, " अपनी सीट की पट्टी बाँध लें ।" यह वायुयान उतरने के निर्धारित समय से दस मिनट पूर्व की घोषणा थी ।

एकाएक वायुयान तेजी से नीचे की ओर उतरा। यात्री चीख उठे, उन्होंने पट्टी बाँध ली और कुर्सी का हत्था मजबूती से पकड़ लिया। भयभीत और अवाक् उपेन्द्र ने सोचा — यदि मुझे मरना है तो ठीक है, क्योंकि प्रभुपाद यहाँ हैं। वायुयान का नीचे उतरना अचानक रुक गया, किन्तु प्रचंड वायु के झोंकों में फँस कर वायुयान झटके खाने और लहराने लगा । सिर के ऊपर की धानियाँ खुल गईं और सामान बाहर गिर कर यात्रियों से टकराते हुए, फर्श पर जा गिरे। श्रील प्रभुपाद उपेन्द्र की ओर मुड़े और पूछा, “यह इस तरह झूल क्यों रहा है ?"

उपेन्द्र ने उत्तर दिया, " तूफान आया है।” उसने देखा कि प्रभुपाद शान्त थे। उनके चेहरे पर कुछ खीझ थी, ठीक किसी छोटी सी घटना के समय जैसी या उसी तरह जब कभी उनका भजन आने में देर हो जाती थी ।

तूफान और वर्षा में विमान चालक, अंततः पहियों को हवाई पट्टी पर भूमि के स्पर्श में ले आया और बिना किसी दुर्घटना के विमान उतर गया। यात्रियों ने राहत की सांस ली; तब लोगों ने वाह-वाह और साधुवाद कहा। श्रील प्रभुपाद अप्रभावित लग रहे थे। उन्होंने उपेन्द्र से पूछा कि मंदिर पहुँचने में कितना समय लगेगा ।

श्रील प्रभुपाद और उनका दल एस्प्लनेड बुलवार्ड की बड़ी हवेली पर पहुँचे तो उस समय भारी वर्षा हो रही थी। न्यू आरलियन्स मंदिर के अध्यक्ष, नित्यानंद, को प्रभुपाद के आगमन की सूचना दो सप्ताह पहले मिल गई थी। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक यहाँ और मिस्सीसिपी फार्म, दोनों स्थानों के सभी भवनों की रंगाई-पुताई करा डाली थी । किन्तु पूरा बाजार छान डालने के बावजूद, वे करेला पाने में असमर्थ रहे थे जिसके बारे में उन्होंने सुन रखा था कि पाचन ठीक रखने के लिए श्रील प्रभुपाद प्रतिदिन खाते थे । इसलिए उन्होंने प्रभुपाद के एक सचिव के माध्यम से उसे डलास से मँगाने की व्यवस्था की थी । नित्यानन्द और आरलियन्स के अन्य भक्तों को लगा कि प्रभुपाद के स्वागत की जितनी तैयारियाँ संभव थीं, वे कर चुके थे ।

- घर के प्रवेश द्वार तक संगमरमर की चौड़ी सीढ़ी बनाई गई थी जिसे प्रभुपाद ने अपनी छड़ी का सहारा लिए धीरे-धीरे चढ़कर पार किया। तीसरी मंजिल पर खड़े भक्तगण उस समय प्रभुपाद पर फूल की पंखड़ियाँ बरसा रहे थे। कार

से मकान तक का पूरा मार्ग लगभग २५० फुट था जो तीन फुट चौड़े सफेद कपड़े से ढका था और व्यास आसन तक सीधे पहुँचता था। प्रभुपाद ने गौर - निताइ, राधा-राधाकांत और भगवान् जगन्नाथ के अर्चा-विग्रहों को नमन किया और फिर वे बैठ गए। फिर उन्होंने निर्णय किया कि प्रवचन के लिए अब बहुत देर हो चुकी थी। इसलिए वे तुरन्त अपने कमरे में चले गए, जो साथ वाली बिल्डिंग में ही था ।

श्रील प्रभुपाद ज्योंही अपने कमरे में पहुँचे उनका परिचय सिटी हाल के एक अधिकारी से कराया गया जो मेयर के कार्यालय से न्यू आरलियन्स में उनका स्वागत करने आया था। प्रभुपाद ने शालीनतापूर्वक नगर की प्रतीकात्मक चाभी और एक प्रशस्ति पत्र स्वीकार किया जिसमें एक सम्मानित आगन्तुक के रूप में उनका स्वागत और गुणगान किया गया था। अवसर का लाभ उठा कर वे उस अधिकारी को उपदेश देने लगे; उन्होंने उसे नगर का एक अधिकारी न समझ कर बद्ध आत्माओं में से एक आत्मा मान लिया ।

जब स्वागत की हलचल समाप्त हो गई और प्रभुपाद ने स्नान कर लिया, प्रसाद ग्रहण कर लिया तथा विश्राम कर लिया तब उन्होंने नित्यानंद को बुलवाया । जब नित्यानन्द उनके कमरे में प्रविष्ट हुए उस समय प्रभुपाद के माथे पर चन्दन का लेप लगा था और वे ताजे फूलों की माला पहने थे। नित्यानंद ने प्रणाम किया। अपने गुरु महाराज के साथ कमरे में अपने को अकेला पाकर नित्यानन्द कुछ संकोच में पड़ गए और भयभीत हुए। प्रभुपाद ने अपने मेज पर से फोटो का एक अलबम उठाया जिसमें मिस्सीसिपी कृषि फार्म के चित्र थे । वे बोले, " आप जानते हैं कि मैं यहाँ मुख्य रूप से आपका फार्म देखने आया हूँ ।"

अगले दिन सूर्योदय से पहले ही श्रील प्रभुपाद कृषि फार्म के लिए वर्षा में दो घंटे की यात्रा पर चल पड़े। उन्हें उसी रात न्यू आरलियन्स लौटना था, क्योंकि अगले दिन सवेरे ही उन्हें डिट्रायट के लिए उड़ान पकड़नी थी ।

कैरीर, मिस्सीसिपी, में वर्षा बंद हो गई थी और श्रील प्रभुपाद ने चारों ओर मंद-मंद लहराती भूमि को देखा। इस्कान फार्म जो जमीन को साफ करके बनाया गया था और चारों ओर देवदारु वन से घिरा था, एक पहाड़ी पर स्थित था। इसके पहले के स्वामी ने इसका उपयोग घोड़े के फार्म के रूप में किया था और वर्तमान चौदह कमरों का ईंट का मकान, विशाल बखार और अनेक

छप्पर — सभी अच्छी हालत में थे । प्रभुपाद को जमीन पसंद आई और उन्होंने कहा कि यह ठीक बंगाल की तरह दिखाई दे रही है।

न्यू आरलियन्स के अधिकांश भक्त प्रभुपाद के सान्निध्य में होने के लिए भाग कर फार्म पर पहुँचे थे और उनकी प्रातः कालीन भागवत कक्षा के लिए, मंदिर के कक्ष में एकत्र होकर, प्रतीक्षा कर रहे थे। किन्तु, उन्होंने, ज्योंही बोलना आरंभ किया बहुत सारी मक्खियाँ भिनभिनाती हुई आईं और उनके सिर और शरीर पर बैठ गईं। एक भक्त उन्हें चँवर डुलाने लगा, किन्तु उससे कुछ नहीं हुआ।

प्रभुपाद ने कहा, “और पास आ जाओ, यह चँवर विशेष रूप से मक्खियाँ भगाने के लिए ही है। यह शरीर को छुए भी तो कोई हानि नहीं । "

व्याख्यान के अंत में श्रील प्रभुपाद फार्म के सम्बन्ध में बोलने लगे, "यह स्थान जो मैं देख रहा हूँ, यद्यपि मैने इसे पूरा नहीं देखा है, बहुत अच्छा स्थान है। गृहस्थ यहाँ आएँ और छोटा कुटीर बना कर रहें, अपने लिए खाद्यान्न और सब्जी-भाजी उत्पन्न करें, गाय रख कर उसका दूध लें, अच्छा भोजन प्राप्त करें और समय बचाएँ । नगर जाने के लिए आप कार से सैंकड़ों मील की यात्रा क्यों करते हैं ? और फिर सैंकड़ों मील वापिस आने का अनावश्यक कष्ट क्यों उठाते हैं ? इस स्थान पर स्थायी रूप से रहें, अपना खाद्यान्न उत्पन्न करें, अपने लिए कपड़े बनाएँ और शान्तिपूर्वक रहें। समय बचाएँ और हरे कीर्तन करें। यही यथार्थ जीवन है।

कृष्ण

"यह मूखर्तापूर्ण जीवन क्या है— बड़े-बड़े नगर और व्यस्तता में डूबे लोग । किसी मित्र से मिलना हो तो तीस मील जाओ। यदि किसी को डाक्टर से मिलना है तो उसे पचास मील जाना पड़ता है। अगर किसी काम पर जाना है तो सौ मील और । तो यह कैसा जीवन है ? यह जीवन नहीं है। संतोष के साथ रहो। किसी भक्त का जीवन प्रयोजन होना चाहिए। हमें भौतिक वस्तुएँ चाहिए — किन्तु उतनी ही जितनी की जरूरत है। हमें कृत्रिम जीवन नहीं चाहिए ।

श्रील प्रभुपाद 'केवल यंत्र, यंत्र, यंत्र, यंत्र' के जीवन की निंदा करते रहे। उन्होंने भक्तों से कहा कि वे अपने व्यवहार से उदाहरण दे करके दिखाएँ कि सादा जीवन कैसे बिताया जाता है और कृष्णभावनामृत में उन्नति कैसे की जाती

है। यदि वे ऐसा कोई आदर्श प्रस्तुत कर सकें तो अन्य लोग उनका अनुसरण

करने का यत्न करेंगे।

यद्यपि नित्यानंद तथा अन्य भक्त कई महीनों से फार्म पर रह रहे थे, किन्तु

के शब्दों से उन्हें वास्तविक दिशा और परियोजना के उद्देश्य का ज्ञान प्रभुपाद मिला। ऐसा लग रहा था मानो अब वे परियोजना में जीवन फूँक रहे हों ।

श्रील प्रभुपाद अपने कमरे में गए और ब्रह्मानंद स्वामी, सत्स्वरूप दास गोस्वामी, हरिकेश, जगदीश और उपेन्द्र के साथ बैठे। जब वे वर्णाश्रम के विषय में बोलने लगे तब उन्होंने नित्यानंद को बुलवाया। उन्होंने कहा कि उन्हें मशीन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। काम आदमियों और पशुओं को करना चाहिए ।

नित्यानन्द ने पूछा कि गृहस्थों को खाद्यान्न सहकारिता के आधार पर उत्पन्न करना चाहिए या एक - एक परिवार के आधार पर प्रभुपाद ने कहा, "उन्हें मिल कर काम करना चाहिए, नहीं तो सामुदायिक केन्द्र में रहने से क्या लाभ ?" जब उपेन्द्र ने पूछा कि दूध का इस्तेमाल कैसे किया जाना चाहिए तो श्रील

ने एक

विधि बताई जिसे उन्होंने भारतीय विधि कहा। उन्होंने बताया, प्रभुपाद

" जिस तरह नन्द महाराज गायें रखते थे, उसी तरह ( भारत में ) अनेक गाँव हैं। वे एक बड़ा कड़ाह रखते हैं। और जो दूध इकट्ठा होता है उसे वे उसी कड़ाह में रख देते हैं। उसे आग पर चढ़ा कर गरमाया जाता है। पूरा परिवार, जब जी चाहे, उसमें से दूध पी सकता है। रात में जो दूध बच जाता है, उससे दही बना देते हैं। अलगे दिन वे चाहे दूध पियें, चाहे दही खायें। तब बचे

हुए दूध का भी दही बना दिया जाता है और सब को सुरक्षित कर दिया जाता है। जब पर्याप्त दही इकट्ठा हो जाता है तब उसे मथते हैं और मक्खन निकाल लेते हैं। वे उस मक्खन को ले लेते हैं और मक्खन से निकला पानी मट्ठा कहलाता है । चपातियाँ खाने में वे दाल की बजाय यह मट्ठा इस्तेमाल करते हैं। यह बहुत स्वास्थ्यकर और स्वादिष्ट होता है। इस बीच मक्खन से घी बना लिया जाता है। इस तरह एक बूंद भी व्यर्थ नहीं जाने देते ।

श्रील प्रभुपाद ने कहा प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकतानुसार दूध पिए और घी नगरों में इस्कान के आहार - गृहों में इस्तेमाल हो सकता है। दही का भी इस्तेमाल आहार - गृहों में सन्देर्श, रसगुल्ले या अन्य व्यंजन बनाने में किया जा सकता है।

श्रील प्रभुपाद ने बल दिया कि फार्म को भलीभाँति संगठित करना चाहिए और उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्गों के लोगों को काम में लगाना चाहिए। न कोई आलस्य और न कोई बेरोजगारी। उन्होंने कहा, “ नहीं तो लोग आलोचना करेंगे कि हम केवल खा रहे हैं, सो रहे हैं और श्रम से बच रहे हैं।"

नित्यानंद ने पूछा कि क्या फार्म पर मशीन का इस्तेमाल तुरन्त बंद कर दिया जाय ।

प्रभुपाद ने समझाया, “हम मशीन के विरुद्ध नहीं हैं। आप मशीन का प्रयोग कर सकते हैं । किन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप मशीन से काम लें और लोग बेकार बैठे रहें । वास्तविकता यह है । आप मशीन इस्तेमाल कर सकते हैं, किन्तु पहली बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को काम मिलना चाहिए। यदि आपके पास बहुत लोग हैं तो आप मशीन क्यों इस्तेमाल करते हैं ? "

श्रील प्रभुपाद ने यह भी बताया कि वैदिक संस्कृति में क्षत्रिय कर इकट्ठा करते थे और नागरिकों की रक्षा करते थे, जबकि शूद्र खेतों में या व्यवसायों में कार्य करते थे। स्त्रियाँ भोजन बनाती थीं, सूत कातती थीं, कपड़ा बुनती थीं और दूध उत्पादन का काम देखती थीं। निम्न वर्ग के लोग, जैसे चर्मकार, जो मरी हुई गायों का चमड़ा इस्तेमाल करते थे, मांस खा सकते थे । “किन्तु ऐसा नहीं था कि कोई प्राचार्य हो, फिर भी मांस भक्षण कर रहा हो । यह आज के पतित समाज का काम है। शिक्षक का अर्थ है ब्राह्मण, फिर भी वह मांस खा रहा है। कितना भयावह है ! इसलिए आप मेरे बताए अनुसार करें और ऐसा ही संगठन बनाएँ। मैं आपको विचार दे सकता हूँ, किन्तु मैं अधिक दिन जीवित नहीं रहूँगा। यदि आप मेरे विचारों पर चल सकते हैं तो आप पूरा संसार बदल सकते हैं। विशेष कर, यदि आप अमेरिका को बदल सकते हैं तो सारा संसार बदल जायगा । "

श्रील प्रभुपाद भावुक हो उठे और उनके नेत्रों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा, "यह हमारा कर्त्तव्य है। चैतन्य महाप्रभु ने पर उपकार की व्याख्या की है कि यदि सब को नहीं तो जितने संभव हों उतनों को बचाओ। यही मानव जीवन है । यही कृष्णभावनामृत है कि उनकी रक्षा करो जो अंधकार में हैं । '

उन्होंने कहा, "ऐसा मत सोचो कि 'कृष्णभावनामृत मेरा व्यवसाय है। इससे मुझे रोटी, कपड़ा और मकान मिल रहा है।' भारतवासी ठीक यही कर रहे हैं। इस तरह नहीं। पर - उपकार ही कृष्णभावनामृत है । पर उपकार से कृष्ण प्रसन्न होंगे। वे स्वयं लोगों की भलाई के लिए आते हैं। और यदि आप लोगों की भलाई करेंगे तो कृष्ण कितने प्रसन्न होंगे। ठीक जैसे मैं सभी केन्द्रों की यात्रा कर रहा हूँ और यदि मैं पाता हूँ कि मेरे विद्यार्थी, मेरे लोग अच्छा काम कर रहे हैं और सब कुछ ठीक तरह से चल रहा है तो मुझे कितनी प्रसन्नता

होगी। तब मैं यह परिश्रम बचाकर शेष जीवन पुस्तकें लिखूँगा । इसी तरह,

यदि कृष्ण देखते हैं कि उनकी ओर से तुम इन धूर्तों को उबारने का प्रयत्न कर रहे हो तो अपने इस काम से तुम कृष्ण को कितना प्रसन्न करोगे ! वैष्णव की विशेषता है: पर- दुःख दुखी होना। वह औरों को दुख में देख कर दुखी हो जाता है। यही वैष्णव का लक्षण है ।" श्रील प्रभुपाद उठे और कमरा छोड़ कर चले गए— इस प्रकार उन्होंने इस आत्मीय बैठक का समापन किया।

जब हरिकेश ने कहा कि श्रील प्रभुपाद का भोजन बनाने में वह ढाई घंटे लगाता है तो प्रभुपाद बोले, "तुम नहीं जानते कि भोजन कैसे तैयार किया जाता है। मैं तुम्हें दिखाऊँगा और उसे एक घंटे में तैयार कर दूँगा ।” हरिकेश ने, जैसे विश्वास न करके, कहा, “एक घंटे में ? यह तो आश्चर्यजनक बात है !"

तब प्रभुपाद ने अपनी कमीज उतार दी और वे मिस्सीसिपी के उस छोटे-से रसोई-घर में घुस गए। जब भक्तगण खुले दरवाजे से झाँक रहे थे, प्रभुपाद ने अपनी घड़ी पर दृष्टि डाली और कहा, “इस समय बारह बजे हैं। "

उन्होंने उसी तीन खाने वाले पीतल के कुकर से काम लिया जो वे १९६५ में अमेरिका लाए थे। नीचे के खाने में उन्होंने मूंग की दाल और पानी रखा, बीच के खाने में चावल और ऊपर के खाने में तरह-तरह की कटी तरकारियाँ, जैसे कुम्हड़ा, मटर, आलू और गोभी । कुकर को मद्धिम आँच पर रख कर, उन्होंने एक कड़ाही में एक इंच के बराबर घी डाला और उसे आँच पर चढ़ा दिया। उसके बाद उन्होंने एक बैंगन के टुकड़े किए और उनमें हल्दी और नमक लगाया और फिर गरम घी में उन्हें तल दिया । आटे में पानी मिलाने के बाद उन्होंने गूँध कर उसकी लोई बना ली और फिर वे चपातियाँ बेलने लगे। बीच-बीच में वे अपनी घड़ी देखते जाते थे और जब पैंतालिस मिनट बीत गए तब उन्होंने कुकर का ढक्कन हटा दिया और उसे उलटा करके उसका छोटा तवा बना लिया । उस पर उन्होंने घी डाला और कुछ करेला पकाया, तब होशियारी से उसमें जीरा, सौफ, लालमिर्च और हींग मिलाई । भाप में पकाई सब्जियों पर उन्होंने नींबू निचोड़ दिया और कुछ मिनटों में सब समाप्त कर दिया ।

श्रील प्रभुपाद ने अपनी रिस्ट वाच को देखा और कहा, “एक घंटा। हमने नौ चीजें बनाई हैं। " तब वे रसोई से बाहर आ गए और उनका सेवक परोसने की तैयारी में लग गया । प्रभुपाद ने कहा हर एक को, जिसने उन्हें भोजन

बनाते देखा है, कुछ प्रसाद मिलना चाहिए ।"

तीसरे पहर पाँच बजे प्रभुपाद फार्म देखने गए। भुसौरे में उन्होंने देखा कि बछड़े दूध पी रहे थे।

उन्होंने पूछा, “बैलों का आप क्या करते हैं ?"

. हिचकिचाए हुए विद्यार्थी की तरह नित्यानन्द ने उत्तर दिया, “जोताई करते हैं । "

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, उनका इस्तेमाल जोताई और सामान ढोने में होना चाहिए । जोताई में आप को अधिक आदमी लगाने हैं। एक हल में दो बैल इस्तेमाल होते हैं।

एक घास के मैदान से निकलते हुए प्रभुपाद ने पूछा कि कटी हुई घास अभी तक खेत में क्यों पड़ी है। नित्यानंद ने बताया कि वह इस इन्तजार में था कि वर्षा के बाद घास सूख जाय। प्रभुपाद ने आगाह किया कि वर्षा कटे घास को बर्बाद कर देगी। उसे शीघ्र हटा देना चाहिए। एक तीन एकड़ गन्ने के खेत में पहुँच कर वे एक पाँत सीधे चलते गए, फिर बीच खेत में घुस गए। गन्ना उनके सिर के कई फुट ऊपर तक बढ़ा था। खेत की दूसरी ओर निकल कर वे देवदारु वन के किनारे पहुँच गए।

प्रभुपाद ने कहा, “ये वन प्रकृति की देन हैं। आप वृक्ष काट कर अपना घर बनाते हैं, शेष बचे वृक्षों को काट कर जलाने के काम में लाते हैं। तब साफ हुई जमीन को आप जोत कर खाद्यान्न उत्पन्न करते हैं। यह स्वाभाविक है ।" प्रभुपाद ने आधुनिक समाज की इस बर्बादी पर दुख प्रकट किया कि वह पेड़ काट कर व्यर्थ के ढेरों समाचार पत्र छापता है। उन्होंने दो एकड़ का प्लाट देखा जिस पर भक्तों ने आडू, नारंगी, नाशपाती, अंजीर आदि फलों के पेड़ लगाए थे। पच्चीस विशाल पेकन वृक्ष भी उन्होंने देखे ।

किन्तु उन्हें असंगतियाँ मिलीं । प्रभुपाद के निरीक्षण के लिए नित्यानन्द ने दो ट्रेक्टर, एक बड़ी चारा काटने की मशीन, घास काटने की मशीनें, पाँचे, एक धौंकनी, एक चौपहिया गाड़ी सब को एक पंक्ति में खड़ा कर दिया था । लेकिन जब प्रभुपाद ने मशीनों को खुले में खड़ा पाया तो उन्होंने पूछा कि इन्हें आड़ में क्यों नहीं रखा जा रहा था । नित्यानंद ने उत्तर दिया कि उनके लिए आड़ (शेड) अभी बन रहा था ।

प्रभुपाद बोले, “इस बीच वे नष्ट हो जायँगी। जब तक आपका शेड बनेगा तब तक उनमें जंग लग जायगा और वे बेकार हो जायँगी।” उन्होंने एक हिन्दी कहावत सुनाई और उसका अनुवाद किया, “ एक स्त्री एक मेले में जाने के लिए सज रही थी, किन्तु जब तक वह सज कर तैयार हुई तब तक मेला समाप्त हो गया था । " भक्त हँसने लगे, किन्तु नित्यानंद गंभीर हो गया ।

आगे कहते गए, “इन मशीनों को काम में लाओ, नहीं तो जब प्रभुपाद तक ये काम लायक हैं, इन्हें बेच दो । किन्तु इन्हें इस उपेक्षित ढंग से बेकार ।

मत रखो। "

नित्यानन्द ने पच्चीस एकड़ में पैदा हो रहा सोरगम ( Sorghum - ज्वार, बाजरा, चरी आदि) प्रभुपाद को दिखाया । यह अन्न पशुओं के लिए था और कटने पर इसे खत्ती में रख दिया जाना था ।

प्रभुपाद ने पूछा, "तो क्या हर चीज जानवरों के लिए ही है ? मनुष्य के लिए कुछ नहीं ?"

नित्यानन्द ने कहा, “गाएँ हमारे लिए दूध देती हैं । '

प्रभुपाद बोले, "यह ठीक है, किन्तु आप कोई खाद्यान्न नहीं पैदा कर रहे हैं ? क्यों ?” प्रभुपाद के आदेश स्पष्ट थे । घूमना समाप्त करने के ठीक पहले उन्होंने नित्यानंद से फिर पूछा, “ये बैल क्या करेंगे ?"

पाठ याद किए हुए किसी विद्यार्थी की तरह नित्यानंद ने उत्तर दिया, हल जोतेंगे।

“ये

प्रभुपाद ने कहा, "हाँ, इसी की जरूरत है। इनसे हल जोतने और बोझ ढोने का काम लिया जाय । और जब तक हमारे लोग कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित नहीं है तब तक वे सोचेंगे, 'गायों की देखभाल करने की क्या जरूरत है ? अच्छा होगा, शहर चलें, पैसे कमाएँ, और इन्हें खा जायँ ।'

यह आदेश उन आदेशों की तरह था जो प्रभुपाद विभिन्न मंदिरों में राधा-कृष्ण विग्रहों की स्थापना के बाद देते रहे थे। यदि भक्तों में उत्साह नहीं बना रहा तो उन्होंने चेतावनी दी थी कि विग्रह-अर्चा केवल कर्मकाण्ड में बदल कर रह जायगी, और अंत में भक्तों को गुरु महाराज की ओर से यह भार उन पर डाला जाना भी बुरा लगने लगेगा। इसी तरह फार्म का भी हाल है। यदि बैलों का उपयोग स्वाभाविक ढंग से नहीं करते और दूध का इस्तेमाल ठीक से नहीं होता तो अंत में वे जानवरों से छुट्टी पा लेना चाहेंगे। लेकिन प्रभुपाद के बताए ढंग से चलने पर भक्त, गाँए और बैल सहयोगपूर्वक अच्छी तरह

रहेंगे और कृष्ण इससे प्रसन्न होंगे।

यद्यपि श्रील प्रभुपाद ने कृष्णभावनामृत-आंदोलन के अन्य क्षेत्रों में सालों से अब तक न जाने कितने व्यावहारिक उपदेश दिए थे, किन्तु यह पहला अवसर था जब उन्होंने वर्णाश्रम समाज के संचालन पर इतने सारे व्यावहारिक सुझाव दिए । ऐसे होनहार कृष्ण - चेतन फार्म समुदाय को देख कर उन्हें संतोष हुआ और वे बहुत प्रसन्न थे। घर में प्रवेश करते ही उन्होंने कहा कि वे न्यू आरलियन्स लौटने को तैयार थे। कृष्ण की सेवा में यह बहुत व्यस्त, उत्पादक दिन रहा और कल भी ऐसा ही रहेगा।

डिट्रायट

अगस्त २, १९७५

हेनरी फोर्ड का प्रपौत्र, एल्फ्रेड फोर्ड, डिट्रायट में

प्रभुपाद के कुछ शिष्यों

के सम्पर्क में आकर तथा श्रीमद्भगवद् गीता यथारूप पढ़ कर कृष्णभावनामृत के प्रति आकर्षित हुआ था । उसने कृष्णभावनामृत के नियमों को स्वीकार कर लिया था, नित्यप्रति सोलह माला जप करने लगा था और अब श्रील प्रभुपाद का अम्बरीष नाम से दीक्षित शिष्य बन गया था। आज अम्बरीष हवाई अड्डे पर, अपनी लिंकन कांटीनेन्टल लिमोसीन मोटर कार में बैठा, प्रभुपाद से मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहा था। प्रभुपाद को आते देख कर, अम्बरीष चालक की सीट से निकल कर बाहर आया और प्रणाम किया । उसने अपनी मोटर कार का पिछला दरवाजा प्रभुपाद के लिए खोला, फिर बंद किया और अपनी सीट पर लौट आया, मानो कोई नौकर चालक हो ।

दूर निकल जाने पर प्रभुपाद ने कहा, "हम भक्तों के पास भी एक कार है, किन्तु उससे हम मंदिर-मंदिर जाकर पुस्तकें वितरित करते हैं। कृष्ण के लिए किसी भी वस्तु का उपयोग हो सकता है। यहाँ, यह एक धनी व्यक्ति का पुत्र, एल्फ्रेड फोर्ड, है । हम उसे थोड़ी-सी आध्यात्मिक शिक्षा देते हैं और वह सुखी है । "

डिट्रायट में श्रील प्रभुपाद के शिष्यों में एक थी एलिजाबेथ रूथर, जो अब लेखश्रवन्ती - देवी दासी थी, और मजदूर नेता वाल्टर रूथर की पुत्री थी । अम्बरीष ने प्रभुपाद को बताया कि फोर्ड और रूथर परिवार एक दूसरे के शत्रु रहे थे,

किन्तु अब उनके दो वंशज कृष्णभावनामृत में शान्तिपूर्वक साथ-साथ काम कर रहे थे। प्रभुपाद इन दोनों शिष्यों की विनयशीलता से प्रसन्न थे और यद्यपि वे इन्हें कुछ विशेष स्थान देते थे, किन्तु वे इस बात पर मोहित नहीं थे कि वे विख्यात परिवारों से थे। अम्बरीष और लेखश्रवन्ती अपने को वैष्णवों का विनीत दास समझते थे ।

मंदिर के मार्ग में प्रभुपाद की कार एक विशाल आधुनिक इमारत के सामने से गुजरी जिस पर कई राष्ट्रों के झंडे फहरा रहे थे और एक विशाल सूचना - पट्ट लगा था : “ वर्ल्ड हेडक्वार्टर्स फोर्ड (विश्व मुख्यालय, फोर्ड ) " एक भक्त अम्बरीष की ओर मुड़ा और पूछा, “क्या आप यहीं कार्य करते हैं ? "

पिछली सीट से प्रभुपाद बोल उठे, "नहीं, ये इसके मालिक हैं।'

जब वे एक विशाल नगरीय पुनर्विकास परियोजना के सामने से जा रहे थे

तो प्रभुपाद ने पूछा, "यह क्या है ?"

अम्बरीष ने कहा, "यह डिट्रायट का पुनर्जागरण केन्द्र कहा जाता है । "

प्रभुपाद

ने उत्तर दिया, "उनका पुनर्जागरण कभी नहीं होगा ।'

डिट्रायट मंदिर एक पुराने ईंट के मकान में था और मंदिर कक्ष तिमंजिले पर स्थित था। उसका पट्टा शीघ्र ही समाप्त होने वाला था और मंदिर के अध्यक्ष, गोवर्धन, किसी नए स्थान की तलाश में थे। उन्होंने प्रभुपाद को सम्भावित मकानों के फोटो दिखाए जिनमें एक फोटो मोटर उद्योग में लाखों के मालिक, दिवंगत लारेंस फिशर, के मकान का था । गोवर्धन ने बताया कि यह स्थान संभवतः बहुत महँगा पड़ेगा और उसका पड़ोस बहुत खराब था ।

किन्तु प्रभुपाद का रुझान उस ओर हो गया। वास्तव में भक्तगण मकान के सम्बन्ध में जिस बात को खराब समझते थे, प्रभुपाद उसे ही अच्छा मानते थे, या कम-से-कम वह बात ऐसी थी जिसको आसानी से सुधारा जा सकता था। जहाँ तक उस क्षेत्र में अपराधों की ऊँची संख्या की बात थी, उन्होंने कहा, “ डरने की कोई बात नहीं । हरे कृष्ण कीर्तन करो और प्रसाद बाँटो । पड़ोस के सभी लोगों को, चाहे वे चोर हों, या उचक्के हों, प्रसाद लेने और कीर्तन करने को आमंत्रित करो। तुम देखोगे कि एक भी चोरी नहीं होगी । "

भक्तों ने इस बात पर जोर देकर कहा कि डिट्रायट संयुक्त राज्य में अपराधों की राजधानी है और जिस झोंपड़पट्टी क्षेत्र में वह इमारत थी वह नशीली

दवाओं की तिजारत, डकैतियों और हत्यारों के लिए कुख्यात था । किन्तु प्रभुपाद ने फिर कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। उन्होंने कहा, "मैं बावरी में रह चुका हूँ।" और उन्होंने बताया कि किस प्रकार नंगे लुच्चे वहाँ उनके सामने के दरवाजे पर पेशाब कर देते थे और रास्ते में लेटे रहते थे। किन्तु जब वे अपने घर में घुसने को आते तब वे उठ जाते थे और कहते थे, “हाँ, श्रीमान् आइए, श्रीमान् । "

प्रभुपाद ने कहा, “ स्थान ले लो और वहाँ प्रतिदिन चौबीस घंटे हरे कृष्ण कीर्तन करो। यदि कोई चोर आता है तो हम कहेंगे, 'हाँ, पहले प्रसाद लो, फिर जो चाहो वह ले जाओ।' आखिर हमारे पास है ही क्या ?"

गोवर्धन, अम्बरीष और जी. बी. सी. के कई लोगों को साथ लेकर प्रभुपाद इमारत देखने गए। मकान मालिक से उनकी भेंट हुई और एक स्त्री भी मिली जिसने अपना परिचय अचल सम्पत्ति के एक एजेंट (अभिकर्ता) के रूप में दिया ।

जब मालिक ने उन्हें घुमा कर मकान दिखाया तो प्रभुपाद को वह और अधिक पसंद आया। वह राजसी इमारत चार एकड़ भूमि में स्थित थी और उसकी चारों ओर एक ऊँची पत्थर की दीवाल थीं। उसमें बगीचे थे और पगडंडियाँ थीं जो बेमरम्मत पड़ी थीं तथा उसमें फव्वारे थे और तैरने का तालाब भी था । कुछ भक्तों के विचार से वह इमारत बहुत तड़क-भड़क वाली थी और उसकी उच्छृंखल साज-सज्जा १९२० ई. की लगती थी, किन्तु श्रील प्रभुपाद को उसमें महान् संभावनाएँ दिखाई दीं ।

ज्योंही उन्होंने ड्योढ़ी में पैर रखा और इटली की अलंकृत खपरैलें और संगमरमर की मेहराबें देखीं, वे मुसकराने लगे। प्रभुपाद का दल अब लाबी ( सभाकक्ष) में प्रविष्ट हुआ, जिसकी ऊँची भीतरी छत पुरातन शैली में तराशी गई पत्तियों, गुलाबों और हाथ से रंगे प्लास्टर के पुष्पों से आच्छादित थी । उसके आगे वे बालरूम (नृत्य कक्ष) में गए जिसका फर्श संगमरमर का बना था और जिसकी मेहराबी छत इस तरह रंगी थी कि वह बादलों और तारों से आच्छादित सांध्यकालीन नीला आकाश लगती थी । विशेष प्रकाश योजना के कारण वह प्राकृतिक तारों के प्रकाश का प्रभाव उत्पन्न करती थी। कक्ष के एक सिरे पर तीन मेहराबें उस डिजाइन से ठीक-ठीक मिलती थीं जो प्रभुपाद ने अपने मंदिरों में अर्चा-विग्रहों की वेदिकाओं के लिए स्वीकृत की थीं। वहाँ तीन वेदिकाएँ स्थापित की जा सकती थीं और बहुत थोड़े सुधार के साथ,

बालरूम को मंदिर में बदला जा सकता था। प्रभुपाद ने मालिक से बालरूम की उपयुक्तता के सम्बन्ध में कोई टीका-टिप्पणी नहीं की, किन्तु भक्तों को

यह बात स्पष्ट थी ।

फिर प्रभुपाद का दल इमारत में स्थित एक ऐसे जलागार पर पहुँचा जिसमें कई डोंगियाँ रखी जा सकती थीं। इस जलागार का मुँह एक नाले में खुलता था जो पास स्थित डिट्रायट नदी में गिरता था। प्रभुपाद ने कहा कि प्रचार कार्य के लिए भक्त कोई नौका प्राप्त कर सकते थे 1

ज्यों-ज्यों प्रभुपाद अपने दल सहित एक के बाद दूसरे विशाल कक्ष में प्रवेश करते रहे, उन्हें अनेक उत्कीर्ण प्रसार स्तम्भ, हाथ की नक्काशी वाले फर्श, इटली और यूनान की टाइलों से जड़ी दीवारें तथा सुनहरी पत्तियों से निर्मित आकृतियों से अलंकृत छतें देखने को मिलती रहीं। कई कमरे दुष्प्राप्य शीशे के झाड़-फानूस से सजे थे। वहाँ निवास कक्ष थे, पुस्तकालय कक्ष थे, एक भोजन कक्ष था, एक बिलियर्ड कक्ष था, एक संगीत कक्ष था, दो मुख्य शयन कक्ष थे और अन्य अनेक शयन कक्ष थे— सभी अपने में अति रंजित शान-शौकत वाले। प्रभुपाद ने भक्तों से एकान्त में कहा “ इसका एक-एक कमरा समूचे मूल्य के लायक है ।'

मकान मालिक मकान पर मायन, मूरिश, स्पेनिश, ग्रीक और इटालियन प्रभावों की बात करता जा रहा था और उसने बताया कि भोजन कक्ष के हाथ से तराशे गए घुमावदार दो स्तंभ एक प्राचीन योरोपीय महल से खोद कर निकाले गए थे। प्रभुपाद जिधर भी दृष्टि डालते, ऐश्वर्य ही ऐश्वर्य दिखाई देता था : अन्त:पुर स्थित संगमरमर का फौव्वारा, बहुवर्णभासी टाइलों से जड़ी दीवाल, हाथ से रंगे गए शृंग। यहाँ तक कि विशाल स्नान कक्ष भी सम्मोहक आयातित टाइलों और सुनहरी आभा के कारण अपने में बेजोड़ थे ।

जब परिचयात्मक भ्रमण समाप्त हो गया तो प्रभुपाद, उनके अनुयायी, मकान मालिक और अचल सम्पत्ति की एजेंट - सभी संतरण ताल के निकट छतरी के नीचे आंगन में एक मेज पर बैठ गए। श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों से पहले ही कह चुके थे कि मकान मालिक को चाहिए कि यह मकान इस्कान के उपदेश कार्य के लिए दान दे दे और उन्होंने ब्रह्मानंद स्वामी से ऐसा अनुरोध करने को कह रखा था। चूँकि मालिक ने मूल्य का उल्लेख नहीं किया था, इसलिए प्रभुपाद बोल पड़े ।

उन्होंने प्रारंभ किया, “ तो हम तो भिखारी हैं, " वे गंभीर थे, फिर भी वे

परिहास का आभास देते जा रहे थे। अम्बरीष और उपेन्द्र ने संकोच में अपना चेहरा ढक लिया था। प्रभुपाद ने निडर होकर कहा, “हमारे पास पैसा नहीं है । इसलिए हम आप से याचना कर रहे हैं कि यह मकान हमें दे दें । '

मालिक ने अपनी अचल सम्पति एजेंट की ओर अविश्वासपूर्वक देखा और वह अधीर होकर हँस पड़ा। उसने कहा, "इसका तो प्रश्न ही नहीं उठता। मैं यह नहीं कर सकता ।"

एजेंट भी आश्चर्यचकित और उद्विग्न हो उठी। उसने धीमे से कहा, "वे ऐसा नहीं कर सकते । '

मालिक ने समझाया, “मैं इसे आपको नहीं दे सकता, क्योंकि इसकी देखभाल करने में मैंने हानि सही है । इसलिए मुझे अपना धन वापस लेना है । यह जायदाद मेरी आय का प्रमुख अंश है । "

प्रभुपाद ने कहा, "तो आप इसका कितना चाहते हैं ?"

उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, “मुझे कम-से-कम तीन लाख पचास हजार डालर चाहिए।"

भक्तों में से किसी को बोलने का साहस नहीं हुआ । प्रभुपाद ने क्षण-भर सोचा और तब कहा, "हम आप को तीन लाख डालर नकद देंगे।"

उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, "मुझे सोचना पड़ेगा । "

अचल सम्पत्ति की एजेंट खड़ी हो गई, यह कहते हुए कि इस तरह का सौदा सीधे मालिक से नहीं किया जाता । किन्तु प्रभुपाद ने उसकी उपेक्षा की और मकान मालिक से बात करते रहे कि मकान कितना सुंदर है । तब प्रभुपाद खड़े हो गए और अपने साथियों के संग बगीचे में थोड़ी देर घूमते रहे ।

गोवर्धन ने प्रभुपाद से पूछा कि क्या मकान उन्हें पसंद था । और प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, ऐसा मकान किसे पसंद न होगा ?"

गोवर्धन बोले, " अम्बरीष इसे नहीं पसंद करते । " "ओह ?"

अम्बरीष ने कहा उसकी समझ में यह हवेली माया है।

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, किन्तु माया कृष्ण भी है। हम कृष्ण की सेवा में कुछ भी इस्तेमाल कर सकते हैं।"

बगीचे का मार्ग छोड़ कर और कारों की ओर लौटते हुए, प्रभुपाद ने अम्बरीष से पूछा, "तो क्या यह संभव है ? "

“हाँ, प्रभुपाद ! यह संभव है । '

मंदिर में लौटते ही अम्बरीष और लेखश्रवन्ती ने आपस में बात की। उसको उत्तराधिकार में थोड़ा सीमित धन मिला था, किन्तु लेखश्रवन्ती एक लाख पच्चीस हजार दे सकती थी । शेष के लिए अम्बरीष को तैयार होना था ।

अगले दिन मकान मालिक श्रील प्रभुपाद से मिलने आया। उसके साथ दो स्त्रियाँ थीं जो कुछ-कुछ नशे में मालूम हो रही थीं। वह यह बताने आया था कि प्रभुपाद का प्रस्ताव उसे स्वीकार था । प्रभुपाद हँसे और मकान खरीदने की अपनी इच्छा उन्होंने फिर दुहराई ।

बाद में श्रील प्रभुपाद ने इस खरीददारी के प्रति खुल कर अपना आनन्द प्रकट किया। “देखो न, मेरे पास एक छदाम भी न था, फिर भी मैंने उसे तीन लाख डालर का प्रस्ताव दे दिया। और अब कृष्ण ने धन का प्रबन्ध

कर दिया है।'

का जैसा कि प्रभुपाद ने मकान मालिक से कहा था कि, "मैं एक संन्यासी मेरे पास धन नहीं है।" और अपने शिष्यों से ३ लाख डालर एकत्र करने के बाद भी उनके पास धन नहीं था । कुछ ही दिनों में वे टोरन्टो के लिए रवाना हो गए, अपने साथ कुछ न ले जाते हुए । प्रत्येक वस्तु कृष्ण की थी और कृष्ण की सेवा में लगनी थी ।

टोरन्टो

अगस्त ७, १९७५

घोर दाँत की पीड़ा और जबड़े की सूजन के बावजूद, श्रील प्रभुपाद ने व्याख्यानों, साक्षात्कारों और अन्य कार्यकलापों का क्रम जारी रखा। वे फल के रस के अतिरिक्त कोई चीज खा या चबा नहीं सकते थे। जब उनसे किसी दन्त चिकित्सक से मिलने को कहा गया तो उन्होंने भक्तों से कहा कि चिन्ता न करें, उन्हें कठिनाइयों का अभ्यास था ।

टोरन्टो का मंदिर एक छोटे पुराने घर में था और प्रभुपाद की रुचि एक नया मकान खोजने में भक्तों की सहायता करने में थी । अचल सम्पत्ति के जिन दलालों के पास वे गए थे उन्होंने शहर के पुराने हिस्से में एक बहुत महंगे चर्च की बिक्री के बारे में उन्हें बताया था। मंदिर के अध्यक्ष, विश्वकर्मा, ने इमारत पर नजर डाली थी, किन्तु उसके मालिक लगभग पाँच लाख डालर माँग रहे थे, जिसमें एक बड़ी रकम तुरन्त देनी थी। जब प्रभुपाद चर्च को देखने गए तो उन्होंने निर्णय किया कि किसी तरह उसे अवश्य प्राप्त करना चाहिए ।

यदि आवश्यक हुआ तो वे बी. बी. टी. का पूरा दो महीने का संग्रह टोरन्टी के मंदिर को उधार के रूप में भेज देंगे। प्रभुपाद ने भक्तों से कहा कि वे तीन लाख नगद डालर का प्रस्ताव दें, किन्तु जब उत्तमश्लोक गया तो चर्च के डाइरेक्टर ने उसका प्रस्ताव यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि उससे कहीं अधिक का प्रस्ताव वह पहले ही अस्वीकार कर चुका था ।

किन्तु श्रील प्रभुपाद ने चर्च प्राप्त करने के विचार का त्याग नहीं किया और उन्होंने भारतीयों की बैठक में इसका उल्लेख किया। कार्यक्रम के अंत में जब आमंत्रणकर्ता ने प्रभुपाद से प्रार्थना की कि उन सब को आशीर्वाद देने वे पुनः आएँ तो प्रभुपाद ने इस अवसर का लाभ उठा कर अनुरोध किया कि जो लोग वहाँ उपस्थित थे उन सब को भक्तों की सहायता चर्च खरीदने के लिए धन-संग्रह में करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि वे चर्च वस्तुतः खरीद लेते हैं तो प्रभुपाद लौट कर पुनः टोरन्टो आएँगे। वहाँ उपस्थित अनेक सज्जनों ने सहायता करने का वचन दिया ।

श्रील प्रभुपाद का उत्तरी अमेरिका का भ्रमण सहसा ठप हो गया। नई दिल्ली से तेजास का तार आया कि यदि प्रभुपाद श्रीमती इंदिरा गांधी से साक्षात्कार करना चाहते हैं तो उन्हें तुरन्त आना होगा। तार में कोई विवरण नहीं था और उनका सचिव दिल्ली मंदिर से फोन द्वारा सम्पर्क नहीं कर पा रहा था। किन्तु प्रभुपाद को और कुछ जानने की जरूरत नहीं थी। उन्होंने कहा कि जब शुभ अवसर आए तो भक्त को तुरन्त काम करना चाहिए ।

हरिकेश ने यात्रा की योजना ऐसी बनाई जिससे वे रात में मान्ट्रियल रुक सकें । मान्ट्रियल से उन्हें हवाई जहाज द्वारा पेरिस पहुँचना था जहाँ दिल्ली के लिए रवाना होने के पहले प्रभुपाद कुछ आराम कर सकें। प्रभुपाद के आसन्न प्रस्थान का समाचार फैलते ही टोरन्टो के अनेक भक्त अपनी परियोजनाओं के सम्बन्ध में उनके अंतिम आदेश प्राप्त करने के लिए प्रभुपाद से मिलने का प्रयत्न करने लगे। रामेश्वर ने भी लास ऐंजिलिस से फोन किया और हरिकेश पर दबाव डाला कि वह प्रभुपाद से श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध के सम्पादकीय सम्बन्ध में कुछ प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर ले। किन्तु भागवत की ब्रह्माण्ड संरचना विषयक व्याख्या पर पूछे गए प्रश्नों को प्रभुपाद ने यह कह कर अस्वीकार

के

कर दिया कि वे अबोधगम्य हैं। उन्होंने बी. बी. टी. को आदेश दिया कि पुस्तकें

यथारूप छापी जायँ ।

प्रभुपाद, न केवल प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से मिलने की आशा से उत्साहित होकर भारत लौट रहे थे, वरन् उनके सामने उनकी अधूरी परियोजनाएँ भी थीं, विशेषकर बम्बई की हरे कृष्ण लैंड की परियोजना । ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा कि उनके विचार से प्रभुपाद को ऐसे अवसर की प्रतीक्षा थी कि वे अपना पाश्चात्य भ्रमण समाप्त करके भारत की परियोजनाओं का प्रबन्ध स्वयं देखने के लिए यहाँ वापस आ सकें। प्रभुपाद ने अभी अभी वृंदावन में सुरभि को एक पत्र लिखवाया था जिसमें निराशा व्यक्त की थी कि उनके बिना काम पूरा नहीं हो सका ।

तुम सब मुझे केवल पत्र लिखते रहते हो । वहाँ बिना मेरी व्यक्तिगत उपस्थिति के तुम कुछ नहीं कर पाते। केवल पत्राचार । सतर्क रहो कि ( जमीन खरीदने के ) इस सौदे में कोई काम चोरी-छिपे न होने पाए। यह अत्यन्त जोखिम भरा है, इसलिए सावधान रहो। मुझे बम्बई के निर्माण कार्य की नियमित रिपोर्ट भेजते रहो। मैं

बहुत चिंतित रहता हूँ । इसलिए तुम्हारी नियमित रिपोर्ट पाकर मुझे प्रसन्नता होगी ।

बोस्टन, न्यू वृंदावन और न्यू यार्क के भक्तों को प्रभुपाद के अचानक प्रस्थान के समाचार से गहरा आघात पहुँचा – अब वे उनके मंदिरों को नहीं देख सकेंगे ! और उन्होंने इस कठोर सत्यानुभूति का संघात अनुभव किया कि प्रभुपाद उन्हें किसी भी क्षण छोड़ सकते हैं। शिष्यों के साथ हमेशा रहने के लिए वे बाध्य नहीं थे और शिष्यों को भी यह मान कर नहीं चलना चाहिए कि वे हमेशा उनके साथ उपस्थित रहेंगे। शिष्यों के साथ उनके आदेश थे, और यही पर्याप्त था । निस्सन्देह, कई महत्त्वपूर्ण निर्णय अब भी लिए जाने थे। बोस्टन में भक्तों ने आशा की थी कि वे उनके साथ कोई नई इमारत खोजेंगे। लेकिन उनके आदेशों का पालन करते हुए, वे स्वावलम्बी हो सकते

वे स्वावलम्बी हो सकते थे और उनकी अनुपस्थिति में भी उनकी इच्छा की पूर्ति कर सकते थे ।

वे

जिन भक्तों ने हाल में ही अपने मंदिरों में प्रभुपाद का स्वागत किया था अनुभव कर रहे थे कि उनके साथ बिताए गए वे क्षण कितने महत्त्वपूर्ण थे। उनके साथ भक्तों को व्यक्तिगत संसर्ग का जो अवसर मिला था उसका आनंद लेना चाहिए, उसे स्मरण रखना चाहिए और उसके अनुसार व्यवहार करना चाहिए । पुस्तक - वितरकों को पहले से ज्ञात था कि उनका कार्य प्रभुपाद के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था, और यही पर्याप्त था । लास ऐंजिलिस में

प्रेस कर्मचारी प्रभुपाद के अमेरिका में अधिवास पर निर्भर नहीं थे। उनका मिशन उनके सामने था — दो महीने में सत्रह पुस्तकें और उसके लिए वे दिन-रात कार्य कर रहे थे।

श्रील प्रभुपाद का संयुक्त राज्य और कनाडा में भ्रमण ठीक एक विचारशील संन्यासी के मनोभाव से युक्त था। और वे अपनी जी. बी. सी. के लोगों को दिखा रहे थे कि उन्हें केवल अपने डेस्क के पीछे बैठ कर व्यवस्था नहीं चलानी है, वरन् भ्रमण करना और प्रचार करना है । प्रभुपाद ने बल देकर कहा कि भ्रमण का तात्पर्य निरुद्देश्य भटकना या आमोद-प्रमोद की खोज करना नहीं है। भ्रमण करते हुए प्रचारक को कृष्णभावनामृत समाज के लिए कुछ ठोस कार्य करना होता है। वह भी श्रील प्रभुपाद डलास गुरुकुल, मिस्सीसिपी फार्म और रथ-यात्रा में दिखा चुके थे। डिट्रायट में उन्होंने एक आलीशान इमारत प्राप्त कर ली थी और टोरन्टो में वे विस्मयकारी चर्च के लिए प्रार्थना कर रहे थे जिसे भारतीयों की वित्तीय सहायता से खरीदा जाना था । शिकागो में वे दिखा चुके थे कि अपराध तथा स्त्री-स्वातन्त्र्य जैसे आधुनिक प्रकरणों पर उपदेश कैसे दिया जाता है, बिना किसी से कोई समझौता किए। उनके शिष्य उनकी समानता या उनका अनुकरण नहीं कर सकते, किन्तु कृष्ण की ओर से निःस्वार्थ कार्य का उनका दृष्टान्त उनके शिष्यों के लिए आदर्श बन सकता था ।

प्रभुपाद के बहुत-से नगरों में भ्रमण करने के बावजूद, संयुक्त राज्य में अधिकांश लोग उनके पद को स्वीकार नहीं करते थे। संवाददाता उनसे भेंट-वार्ता करते थे, किन्तु उनकी सतही कहानियों की ओर लोगों का ध्यान नहीं जाता था । प्रेस के लिए नए-नए व्यक्तियों और घटनाओं का नित्य जो ताँता बँधा रहता था, प्रभुपाद भी उनमें से एक प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति थे। जैसा कि गीता में कृष्ण ने भविष्यवाणी की थी, सहस्रों लोगों में से कोई एक सिद्धि की खोज करता है। हजारों में से उस एक व्यक्ति की अथक खोज में, जो भी उनसे मिलने आया, उससे वार्ता करने का उत्साह और स्वीकृति, प्रभुपाद सदैव प्रदर्शित करते रहे थे। और रथ यात्राओं और अन्य सार्वजनिक उत्सवों के माध्यम से वे लाखों लोगों को संभावनापूर्ण आध्यात्मिक जीवन का प्रथम स्वाद दे रहे थे। एक शुद्ध भक्त के साथ एक पल का भी संसर्ग लोगों को अगले जन्म के अत्यंत अशुभ परिणाम से बचा सकता है।

संयोग से लाभान्वित होने वाले लाखों लोगों के अतिरिक्त, प्रत्येक नगर में कुछ ऐसे भी सौभाग्यशाली थे, जिन्होंने यह अनुभव किया कि उनके जीवन

पर श्रील प्रभुपाद का गहरा प्रभाव पड़ा है। फिलाडेल्फिया में प्रोफेसर थामस हापकिन्स, शिकागो में पादरी जान पोर्टर, सैन फ्रांसिस्को की हवाई यात्रा में एक फ्लाइट सुपरवाइजर, फिलाडेल्फिया में प्रशंसा से भरी एक माँ और कई अन्य सब समझते थे कि प्रभुपाद से उनकी भेंट उनके लिए विशेष महत्त्व की थी ।

श्रील प्रभुपाद अपने भ्रमण की एक खास वजह बताया करते थे । बर्कले में उन्होंने कहा था, “मेरा धर्म यह देखना है कि मेरे शिष्य जिन्होंने मुझे अपना गुरु स्वीकार किया है, पतित न हों। यही मेरी चिन्ता है।" और जैसा कि उन्होंने प्यार-भरे शब्दों में डलास में कहा था, "मेरे इतने पुत्र-पुत्रियाँ और पौत्र-पौत्रियाँ हैं, इसलिए मैं उनसे मिलने आया हूँ ।" वे अपने शिष्यों के आध्यात्मिक पिता थे और इस्कान का प्रत्येक केन्द्र उनका घर था । प्रतिपाश्चात्य देशों का भ्रमण करते हुए प्रभुपाद को इस बात से संतोष था कि किन्तु उनका आन्दोलन शक्तिशाली होता जा रहा था । विरोध भी बढ़ रहा था, उसे उन्होंने इस्कान की प्रामाणिकता के एक और लक्षण के रूप में लिया । उनकी मूल योजना अब भी अपनी जगह स्थिर थी और इस भ्रमण में वे उसी को आगे बढ़ा रहे थे। अमेरिका के कृष्ण - चेतन बन जाने की संभावना थी — कम-से-कम उन्हें और उनके शिष्यों को इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए । यदि उन्हें सफलता होती है तो उसके दिव्य प्रभाव से सम्पूर्ण संसार का उत्थान किया जा सकता है।

प्रभुपाद को अमेरिका में उपदेश - कार्य करना अच्छा लगता था । उन्होंने कहा था, "मेरे अधिकांश विद्यार्थी अमरीकी हैं। और वे इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने में कृपापूर्वक मेरी सहायता करते हैं।” किन्तु सैन डियागो में एक व्यक्ति चिल्लाकर बोला था कि उसे कृष्णभावनामृत में विहित से अधिक यौन-सम्बन्ध चाहिए। इसलिए प्रभुपाद का आकलन था कि अमेरिका के लोग मन से अच्छे हैं, किन्तु कृष्णभावनामृत के अभाव में वे दिग्भ्रमित, हताश और पतित होते जा रहे हैं।

श्रील प्रभुपाद पहली बार १९६५ ई. में कृष्णभावनामृत का बीज बोने आए थे । वह कार्य हो चुका था। अब देश के आर-पार दर्जनों केन्द्र हो गए थे और संसार के अन्य भागों में भी बहुत से केन्द्र स्थापित हो गए थे, इसलिए प्रभुपाद को लगने लगा था कि उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी हो रही हैं। वे यह भी स्वीकार करते थे कि कृष्णभावनामृत को अमेरिका और विश्व में सर्व - प्रमुख शक्ति बनाना ऐसी वस्तु थी जिसे वे अपने जीवनकाल में नहीं देख सकेंगे।

उन्होंने कहा था,

" यह एक व्यक्ति का कार्य नहीं है।" और उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति से― चाहे वह अमेरिकन हो, भारतीय हो या संसार के किसी देश का हो, कहा था कि वह भगवान् चैतन्य की कृपा के वितरण में भागीदार बने ।

किन्तु उनकी सहायता करने को कुछ विरले ही आगे आए और उन्होंने उनके साथ काम किया । इसलिए उनके लिए भ्रमण करना, जहाँ तक उनकी शक्ति में था, उनके संगठन को अधिक से अधिक मजबूत बनाने का एक प्रयास था । वस्तुतः वे औरों के लिए जी रहे थे और वे नहीं सोचते थे कि उन्हें अधिक लम्बे समय तक जीना है। वे इस्कान का निर्माण करने और जितना संभव हो, पतित आत्माओं का उद्धार करने के लिए भ्रमण जारी रखना चाहते

थे । और वे अपने सत्यनिष्ठ अनुयायियों और अन्यों पर, जो उनकी पुस्तकें पढ़ेंगे, यह प्रभाव जमाना चाहते थे कि प्रत्येक मनुष्य को इस काम को उठाना चाहिए और कृष्णभावनामृत के वितरण द्वारा दूसरों के लाभ के लिए जीवन यापन करना चाहिए ।

 
 
 
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