श्री मती इंदिरा गांधी से मिलने के अतिरिक्त, प्रभुपाद के भारत आने के, निस्सन्देह, और भी कारण थे। बारी-बारी से पाश्चात्य भ्रमण और भारत में वास उनका नियमित क्रम बन गया था । वे केन्द्र - दर - केन्द्र यात्रा करके अपने आंदोलन का संचालन कर रहे थे, किन्तु कम-से-कम पिछले पाँच वर्षों में वे अपना अधिकतर समय भारत को देते रहे थे । मायापुर और वृंदावन की उनकी महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं से, यद्यपि कृष्णभावनामृत-आन्दोलन की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी, किन्तु उन परियोजनाओं को अभी पूरी हुई नहीं कहा जा सकता था । और बम्बई में हरे कृष्ण लैंड में अभी भी कार्य चल रहा था। अमेरिका और योरोप में श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों को प्रेरित करके प्रबन्ध के कार्य में लगा कर अपने उद्देश्यों की प्राप्ति कर लेते थे, किन्तु भारत में प्रबंधक वही थे। उन्हें प्रबन्धक होना ही पड़ता था, नहीं तो उनके पाश्चात्य शिष्य ठगी का शिकार होकर, निरुत्साह हो जाते । इसलिए अत्यावश्यक प्रबन्धात्मक निर्णयों के कारण उन्हें बार-बार भारत आना पड़ता था । एक बात और भी थी, भारत के प्रति उनका विशेष झुकाव था । पवित्र धामों के लिए उनके मन में गहरा आकर्षण था – वृंदावन उनका घर था और मायापुर उनका उपासना स्थल था — और बम्बई जैसे स्थानों में लोगों से मिलने और उन्हें प्रभावित करने के अनुपम अवसरों को वे बहुत पसंद करते थे । भारत के मुख्य कार्यपालक अधिकारी से उनका आसन्न साक्षात्कार एक ऐसा सुअवसर था जो पश्चिम में विरल था । और इन सभी कारणों के साथ एक कारण और भी था, प्रभुपाद को वहाँ सबसे अधिक आराम मिलता था और वे सहज घर जैसा अनुभव करते थे। संयुक्त राज्य में और अधिक केन्द्रों में जाने की अपनी कुछ प्रतिबद्धताओं को तोड़ते हुए उन्होंने एक शिष्य को लिखा था, "मैं अटलांटा नहीं आ सका, क्योंकि आवश्यक कार्य से मुझे भारत आना पड़ा। बहुत अधिक यात्रा करने से मुझे असुविधा भी हो रही थी । " प्रभुपाद न्यू यार्क, लंदन और लास ऐंजिलिस थी।” का उल्लेख प्रायः उन्हें अपना विशेष घर कह कर करते थे और अमेरिका को अपनी पितृभूमि कहते थे। और जब एक शिष्य ने एक बार यह टिप्पणी की थी कि प्रभुपाद भारत में अधिक घर जैसा अनुभव करेंगे तो उन्होंने उत्तर दिया था, “मेरा एकमात्र घर कृष्ण का चरणकमल है।" जो भी कारण हो, अथवा भारत में रहने के प्रति प्रभुपाद की पसंद निश्चित रूप से थी । प्रभुपाद यह देख कर अप्रसन्न हुए कि हरे कृष्ण लैंड बम्बई में निर्माण-कार्य बहुत मंद गति से चल रहा है। मानसून के कारण नींव पानी से भर गई थी और थोड़ा-बहुत जो कार्य हुआ था वह बहुत निम्न कोटि का लगता था । प्रभुपाद ने कहा कि पूरी योजना छह महीने में समाप्त हो जानी चाहिए थी । किन्तु उन्होंने यह कह कर भक्तों को स्तम्भित कर दिया, कम-से-कम इसे मेरे जीवन काल में पूरा कर डालो । " सुरभि और मूर्ति ने उन्हें अन्य मंदिरों के नक्शे दिखाए। हैदराबाद के निकट नेलोर का एक प्रेमी व्यक्ति जमीन दान देने की बात कर रहा था और भक्तों ने पुस्तकालय और शयनागार के कमरों समेत एक मंदिर परिसर की योजनाएँ बना डाली थीं। प्रभुपाद ने योजनाओं को स्वीकृति दे दी। उन्होंने कहा कि मंदिर - भवन शास्त्र - विहित परम्परानुसार होने चाहिए, किन्तु अन्य भवनों में आधुनिक डिजाइनों का समावेश किया जा सकता है। उन्होंने हैदराबाद और फिजी के मंदिरों की योजनाओं का भी अध्ययन किया और उन्हें स्वीकृति प्रदान की । अगले दिन सवेरे श्रील प्रभुपाद ने सुरभि और मूर्ति को बुलाया और उनके साथ विभिन्न योजनाओं को सविस्तार रुचिपूर्वक देखा। किन्तु प्रधान मंत्री से मिलने के पहले अब उनके पास समय बहुत थोड़ा रह गया था और अगले दिन वे दिल्ली के लिए चल पड़े। नई दिल्ली अगस्त २२, १९७५, प्रात: काल ९.१५ बजे श्रील प्रभुपाद तथा उनके कई प्रमुख शिष्य प्रधान मंत्री के आवास पर पहुँच गए जहाँ उन्हें विकट सुरक्षा जाँच का सामना करना पड़ा । दो दिन पूर्व बंगलादेश के प्रधान मंत्री की हत्या हो चुकी थी और अफवाह थी कि अगला लक्ष्य श्रीमती गांधी थी । अतः उनका आवास सशस्त्र सैनिकों से घिरा था। बाहरी फाटक के रक्षकों ने निर्णय किया कि विदेशी लोग अंदर नहीं जा सकते; केवल श्रील प्रभुपाद अकेले प्रवेश कर सकते हैं। एक रक्षक ने दरवाजा खोला और दूसरे ने श्रील प्रभुपाद को कार के भीतर कर दिया जो उन्हें प्रधान मंत्री के सामने के दरवाजे पर ले गई । इस बीच भक्तगण चिन्तामग्न होकर बाहरी फाटक पर प्रतीक्षा करते रहे। प्रभुपाद जब भी कहीं जाते थे तो उनके कुछ भक्त सदा उनके साथ रहते थे; स्नेही माता - पिता की तरह ही, भक्तों को चिन्ता थी कि प्रभुपाद को कहीं भी उनकी सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है। प्रभुपाद ने एक छोटी-सी एड्रेस बुक में अपनी टेढ़ी-मेढ़ी हस्तलिपि में वे बिन्दु टाँक लिए थे जिन पर श्रीमती गांधी से उन्हें बातें करनी थीं । १. ५०० विदेशियों के आव्रजन के लिए अनुमति प्रदान करना । २. सारे सांसद दीक्षित ब्राह्मण हों । ३. संजय राजा । ४. कसाईघर बंद । ५. कीर्तन । ६. मांसाहार घर में — खुलेआम मांसाहार न हो । ७. वेश्यावृत्ति दण्डनीय हो । । ८. 'भगवद्गीता यथारूप' के अतिरिक्त कोई धार्मिक दल न हो । ९. सभी सरकारी अधिकारी कम-से-कम दो बार प्रतिदिन कीर्तन में सम्मिलित हों । १०. समस्त विश्व में कृष्णभावनामृत को सहायता दी जाय । प्रभुपाद सबसे प्रमुख मुद्दा सूची के शीर्ष पर था : श्रीमती गांधी को चाहिए कि के पाश्चात्य शिष्यों को भारत में रहने के लिए स्थायी अनुमति पत्र ( वीसा ) दें। इसके कुछ सप्ताह पूर्व ही मायापुर के कुछ विदेशी शिष्यों को देश छोड़ने के लिए कहा गया था। वर्षों से प्रभुपाद जब भी राज्यपालों, संसद - सदस्यों या अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों से मिलते तो उनसे स्थायी अनुमति - पत्र के लिए माँग करते रहे थे। भक्तों से निरन्तर कहा जाता था कि अपने छह मास के अनुमति - पत्र के नवीकरण के लिए वे देश छोड़ कर चले जायँ । इस प्रकार यात्रा पर होने वाले व्यय तथा भक्तों की सेवा में आने वाले व्यवधान से भारत में इस्कान के कार्य में सख्त बाधा आती थी । प्रभुपाद चाहते थे कि श्रीमती इंदिरा गांधी पाँच सौ भक्तों को भारत में स्थायी रूप से रहने की अनुमति प्रदान कर दें । श्रील प्रभुपाद की सूची में से एक दूसरा बिन्दु शास्त्रीय निर्देशों से सम्बन्धित था कि प्रधान मंत्री किस तरह अपने नेतृत्व को वैदिक युग के महान् राजर्षियों की विचारधारा से कृष्णभावनाभावित बनाएँ । ये भगवद्-भावनाभावित वही नियम थे जिनके विषय में वे जहाँ भी जाते थे, उपदेश देते थे और उनका यह दृढ़ विश्वास था कि यदि विश्व के नेता उनको व्यवहृत करें तो शान्ति, समृद्धि तथा सुख के युग का उदय हो सकता है। इंदिरा गांधी में अधिनायकवादी शासन की प्रवृत्ति थी, अतः वैदिक निर्देशों के अनुसार उसका संचालन उन्हें करना चाहिए । तब उनका शासन अत्यन्त प्रभावी और लाभप्रद हो सकेगा। एक सरकारी अधिकारी ने श्रील प्रभुपाद की कार का दरवाजा खोला, उन्हें घर के भीतर ले गया और प्रधान मंत्री के समक्ष खड़ा किया। ज्योंही प्रभुपाद ने कमरे में प्रवेश किया श्रीमती गांधी खड़ी हो गईं। यद्यपि उन्होंने प्रभुपाद का हार्दिक स्वागत किया और बैठने को सीट दी, किन्तु वे तुरन्त जान गए कि श्रीमती गांधी विचलित हैं और अपने जीवन के प्रति भयभीत हैं। उन्होंने इसे खुले रूप में स्वीकार किया और कहा कि उनकी भेंट के लिए यह कोई अच्छा अवसर नहीं है । प्रभुपाद ने अनुभव किया कि वे इसे बेहतर समझतीं, यदि वे इस समय न मिलते, किन्तु इसकी अनुमति वे केवल इसलिए दे रही थीं, क्योंकि उन्होंने वादा किया था। उनसे मिलने के लिए श्रीमती गांधी का राजी होना, उन्होंने अनुभव किया, इस बात का द्योतक था कि आध्यात्मिक जीवन के प्रति उनके मन में कुछ आकर्षण था; किन्तु उनकी समझ में यह बात भी आ गई कि कम-से-कम इस बार वे अपना विस्तृत परामर्श नहीं दे सकते, जिसके बारे में वे सोचते रहे थे । श्रीमती गांधी ने प्रभुपाद द्वारा सारे विश्व में किए जा रहे कार्य की प्रशंसा की। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, " वे अच्छे लड़के हैं।" और पूछा कि क्या वे उन्हें स्थायी अनुमति - पत्र दे सकती थीं। वे राजी हो गईं, किन्तु पुनः उन्होंने अपनी वर्तमान चिन्ता का उल्लेख किया। उनकी वार्ता शीघ्र समाप्त हो गई और प्रभुपाद चले आए। कुछ दिन बाद श्रील प्रभुपाद अभी दिल्ली ही में थे कि उन्हें रामेश्वर का पत्र मिला । लास ऐंजिलिस में बी. बी. टी. आश्चर्यजनक ढंग से प्रभुपाद के आदेश - पालन को पूरा कर रहा था कि उनके सत्रह खण्ड दो मास में प्रकाशित हो जायँ। कम्पोज करने वालों, सम्पादकों, कलाकारों और कर्मचारियों ने आनंदपूर्वक अपना-अपना कार्य समय पर पूरा कर दिया था। जब मुद्रकों से कुछ पुस्तकों की पहली किस्त प्राप्त हुई थी और वे रुक्मिणी- द्वारकाधीश की वेदी पर भेंट की गई थीं तो भक्तों ने दिव्यं हर्षध्वनि की थी और बार-बार श्री प्रभुपाद के मंत्रों का जप किया था। भक्त अपने गुरु महाराज के आदेश की शक्ति का अनुभव कर रहे थे और अपने को उस कार्य को सम्पन्न करने में, साधनों के रूप में देख रहे थे जो कभी असम्भव प्रतीत हो रहा था । आज हमारे कम्पोजर ने चैतन्य चरितामृत का अंतिम खण्ड समाप्त कर दिया। अगले सप्ताह २० अगस्त तक सभी खण्ड मुद्रक के पास होंगे। अब वे पाँचवे स्कंध की कम्पोजिंग आरंभ करने जा रहे हैं और पूरा स्कंध व्यास पूजा तक निश्चित रूप से मुद्रक के हाथों में होगा। पुस्तकों के विमोचन का कार्य अधिक से अधिक अक्टूबर तक पूरा करने का वादा करते हुए, लगभग साठ भक्तों ने पत्र में हस्ताक्षर किए थे, 'इस्कान प्रेस के आपके अयोग्य सेवक' । उनकी ओर से रामेश्वर ने लिखा, हमने आपकी दिव्य पुस्तकों के उत्पादन तथा प्रत्येक नगर एवं गाँव में लाखों में वितरित करने में लगे रहने के अतिरिक्त, अन्य सारी आकांक्षाएँ त्याग दी हैं । अगले दिन प्रभुपाद ने दिल्ली से लिखा, जहाँ तक सभी बारह स्कंधों को प्राप्त करने की तुम्हारी इच्छा है, वह पूरी होगी । निश्चित रहो । कृष्ण तुम्हारी उत्कट इच्छा पूरी करेंगे । २१ अगस्त को रामेश्वर ने प्रभुपाद को एक तार भेजा, भगवान् बलराम, नित्यानन्द के अनुग्रह से आज 'श्रीचैतन्य चरितामृत' का अन्तिम खण्ड मुद्रक के पास जा रहा है। आपकी कृपा तथा दैवी आज्ञा से यह काम पूरा हो गया । यद्यपि श्रील प्रभुपाद वृंदावन की यात्रा पर चले गए, किन्तु भक्तों ने सभी पन्द्रह खण्डों की अग्रिम प्रतियाँ उनके अस्सीवें जन्मदिवस ३१ अगस्त तक उनके पास भेज दीं। मंदिर में प्रभुपाद द्वारा जन्मदिवस का उत्सव मनाने के बाद ही एक भक्त श्रीचैतन्य-चरितामृत के संपूर्ण छह खण्ड लेकर वृंदावन आ पहुँचा। श्रील प्रभुपाद ने अत्यन्त रुचि और आनन्द के साथ पुस्तकों का अवलोकन किया। वे कलात्मक कार्य से अत्यन्त प्रसन्न हुए और तुरन्त ही भगवान् चैतन्य की लीलाओं को पढ़ने में लीन हो गए। वे इतना अधिक प्रोत्साहित हुए कि उन्होंने वृन्दावन के भक्तों के समक्ष कह दिया कि अब मैं सारा भ्रमण छोड़ कर वृंदावन में रह कर अनुवाद करने की सोच रहा हूँ । इस्कान प्रेस के भक्तों का आदान-प्रदान इतना एकनिष्ठ था कि प्रभुपाद की उनसे आदान-प्रदान करने की इच्छा और बलवती हो उठी। उन्होंने 'मेरे प्रिय रामेश्वर और कम्पनी” को लिखा, तुम लोगों ने इन पुस्तकों के प्रकाशन तथा वितरण के कार्य को भी, अत्यन्त गंभीरता से ग्रहण किया है और यही हमारे उद्देश्य की सफलता है। तुमने इस कार्य को गंभीरता से लिया है और मैं जानता हूँ कि मेरे गुरु महाराज तुम से प्रसन्न हैं, क्योंकि वे यही चाहते थे। अत: इस प्रयास से तुम भगवान् के धाम को वापिस जाओगे । यद्यपि प्रभुपाद ने उल्लेख किया था कि अब वे वृंदावन में रह कर केवल श्रीमद्भागवत का अनुवाद करना चाहते हैं, किन्तु वृंदावन में उनका समय लिखने की अपेक्षा गहन व्यवस्था कार्यों में अधिक जाता था। चार मास पूर्व उन्होंने कृष्ण-बलराम मंदिर का शानदार उद्घाटन किया था; अब उन्हें यह दिखाना था कि मंदिर का प्रबन्ध कैसे किया जाना चाहिए। कृष्ण-बलराम मंदिर एक सुप्रसिद्ध पवित्र स्थान में वैदिक मंदिर परिसर था और उसका सूक्ष्म परीक्षण ऐसे व्यक्तियों द्वारा हो रहा था जो इस मामले में अत्यन्त दुराग्रही बन चुके थे कि किसी मंदिर का संचालन किस प्रकार करना चाहिए । प्रभुपाद को कमियाँ तुरन्त मिलीं। उन्होंने पाया कि अतिथि गृह में, जो अतिथियों के लिए था, न कि भक्तों के लिए, विवाहित भक्त अपने बच्चों के साथ रह रहे थे। उन्होंने कहा, यह उचित नहीं है और इन परिवारों को या तो निकट ही अपने लिए आवास ढूँढ़ना होगा या वृंदावन छोड़ देना होगा। नलसाजी, नगरपालिका की मलनल - व्यवस्था, वित्तीय प्रबन्ध, विग्रह - उपासना, - उपासना, सफाई और भक्तों के व्यवहार से सम्बन्धित समस्याओं का भी उन्हें सामना करना पड़ा। मन्दिर - जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र को और प्रत्येक भक्त को, उनके विशेष ध्यान की आवश्यकता थी । छोटी से छोटी कमियों में भी प्रभुपाद कभी-कभी बड़ी समस्याओं का बीज पाते और वे तुरन्त उसकी ओर इंगित कर देते । और चूँकि उनके शिष्य उनके शब्दों को इतनी गंभीरता से लेते थे मानो वे सीधे से आ रहे हों इसलिए उनकी डाँट का प्रभाव प्रायः भयंकर होता था । कृष्ण प्रभुपाद बहुत कठोर काम लेने वाले थे। वैष्णव के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह 'गुलाब की तरह कोमल और वज्र के समान कठोर" होता है, किन्तु प्रभुपाद अपने व्यक्तित्व का वज्रवत् पक्ष अधिक प्रदर्शित करने लगे थे । कभी कभी नए शिष्य की अपने गुरु महाराज के विषय में ऐसी धारणा होती है कि उन्हें सदैव बहुत शान्त, और जो कुछ भी घटित हो उससे प्रसन्न, रहना चाहिए और यही उसके दिव्य भावनामृत में स्थित होने का लक्षण है। किन्तु श्रील प्रभुपाद कई तरह के मनोभाव प्रदर्शित करने लगे थे — जिसमें क्रोध का भाव भी सम्मिलित था । भगवद्गीता में क्रोध का उसके भौतिक रूप में वर्णन इस प्रकार है कि वह तब होता है जब मनुष्य के काम की पूर्ति नहीं होती। इसलिए एक यथार्थ साधु, क्योंकि उसे कोई काम - लालसा नहीं है, कभी क्रोध के वश में नहीं होता । किन्तु वैष्णव कवि नरोत्तम दास का कथन है कि क्रोध का उपयोग भी कृष्ण की सेवा में किया जा सकता है। नरोत्तम दास भगवान् राम के शाश्वत सेवक हनुमान का उदाहरण देते हैं जिन्होंने रावण और भगवान् के अन्य शत्रु राक्षसों से युद्ध करने में महान् क्रोध का प्रदर्शन किया था । रूप गोस्वामी ने भी भक्ति - रसामृत - सिन्धु में लिखा है कि भक्त को कृष्ण या वैष्णवों की निन्दा सहन नहीं करनी चाहिए और ऐसी निंदा के प्रति भक्त का क्रोध न्यायोचित दिव्य कहा जायगा । भगवान् कृष्ण ने भी जब अहिंसक अर्जुन को युद्ध के लिए अभि-प्रेरित किया तो उसमें क्रोध को उत्तेजित किया था और वह युद्ध दिव्य था, जबकि युद्ध के लिए अर्जुन की अनिच्छा भौतिक थी । । प्रभुपाद किन्तु भावुकों और निराकारवादियों में यह धारणा दृढ़ है कि साधु को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए । जब दिल्ली के एक बृहत् पण्डाल उत्सव में ने एक व्यक्ति के प्रति, जो कृष्ण के विरुद्ध बोल रहा था, क्रोध प्रकट किया तो श्रोताओं में से बहुतों ने उन्हें गलत समझ लिया और कुछ तो उठ कर चले भी गए थे । प्रभुपाद के शिष्य उनका क्रोध स्वीकार कर लेते थे । वे सिद्धान्ततः इसका के स्वागत भी करते थे; किन्तु इसे सह लेना कठिन था । आध्यात्मिक गुरु लिए जरूरी है कि वह अपने शिष्य के मिथ्या अहंकार का विच्छेदन करे ताकि वह शुद्ध सेवा में लग सके। इसलिए गुरु का क्रोध-प्रदर्शन शिष्य के लिए अच्छा है । चाणक्य पंडित के अनुसार पुत्र और शिष्य के प्रति उदार नहीं होना चाहिए । यदि इनके साथ कठोरता का व्यवहार नहीं किया गया तो वे बिगड़ जायँगे । किन्तु वृंदावन में प्रभुपाद का क्रोध केवल छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए नहीं था । उनकी प्रबल इच्छा थी कि मंदिर मजबूती से स्थापित हो जाय। उन्हें विश्वास था कि उनके शिष्य उनके इतने स्वामी भक्त थे कि वे प्रभुपाद की डाँट फटकार को सही अर्थ में लेंगे — अर्थात् उनकी कृपा के अर्थ में । मंदिर में प्रातः कालीन भक्ति-कार्यक्रमों में भक्तों की उपस्थिति के प्रति प्रभुपाद बहुत सजग थे। मंदिर के अध्यक्ष को बुला कर उन्होंने पूछा कि कुछ भक्त लगातार अनुपस्थित क्यों रह रहे थे। उन्होंने कहा कि मंगल आरती बड़ी महत्त्वपूर्ण है और उस समय हर एक का उपस्थित रहना आवश्यक था। समय की पाबन्दी भी महत्त्वपूर्ण थी। उन्होंने कहा कि मंगल आरती का समय घड़ी के अनुसार बदलता रहेगा, किन्तु उसे हमेशा सूर्योदय से डेढ़ घंटा पूर्व होना चाहिए । प्रभुपाद सवेरे टहलने का समय इस प्रकार रखते थे कि अर्चा-विग्रह के दर्शनों के लिए मंदिर का दरवाजा खुलने के कुछ मिनट पहले वापस आ जायँ । एक बार जब भक्तों से घिरे हुए वे प्रतीक्षा कर रहे थे उन्होंने अपनी घड़ी पर दृष्टि डाली और अक्षयानंद स्वामी से पूछा, " समय क्या है ?" इस बात से सावधान होकर कि प्रभुपाद ठीक समय के बारे में पूछ रहे थे, अक्षयानंद ने उत्तर दिया कि सात बज कर तीस सेकंड हुए हैं। प्रभुपाद ने अपना सिर हिलाया और आँखों में उदासी भर कर कहा, "ब्राह्मण होना बहुत कठिन है। तीस सेकंड देर हो गई । अर्चा-विग्रह को सजाने में वे लोग इतनी देर क्यों कर रहे हैं ?" है। अक्षयानन्द ने बताया कि अर्चाविग्रह को सजाने में लगभग डेढ़ घंटा लगता प्रभुपाद ने उत्तर दिया, " वे लोग आलसी हैं। " “कितना समय लगना चाहिए, श्रील प्रभुपाद ?" " अधिक से अधिक आधा घंटा । " अक्षयानंद हक्का-बक्का रह गया, क्योंकि वह कोई ऐसा पुजारी नहीं जानता था जो इस समय सीमा के निकट भी पहुँचता हो । वह चुप रह गया । प्रभुपाद ने ललकारा, “ कठिनाई क्या है ? अधिक से अधिक आधा घंटा ?" वृंदावन पहुँचने के कुछ समय बाद ही प्रभुपाद ने देखा था कि सामने के दरवाजे वाला रास्ता साफ नहीं था । उन्होंने जोरदार शब्दों में प्रतिवाद किया था, “यह साफ क्यों नहीं है ? सूर्योदय के पहले ही इसे साफ हो जाना चाहिए । मैं इसे साफ देखना चाहता हूँ।” मंदिर का नायक आस्ट्रेलिया का हरिशौरी नाम का एक अंग्रेज था, जिसका काम यह देखना था कि सब कुछ साफ-सुथरा है। किन्तु उसने इस काम को अधिकतर स्वयं अपने ऊपर ले लिया था। रास्ते के सम्बन्ध में प्रभुपाद की टिप्पणी सुन कर उसने समस्या को सुधारने का निश्चय किया था । — मंगल - आरती के तुरन्त बाद वह दौड़ कर मंदिर के दरवाजे पर पहुँचता था और पथरीले मार्ग तथा सामने की सीढ़ियों पर जल डाल देता था और फिर पागल जैसा उस पर तेजी से बड़ी रबर - झाडू घुमाता था; इस तरह जब तक प्रभुपाद वहाँ पहुँचें, वह हिस्सा चमकने लगता था । जब प्रभुपाद टहल कर लौटते तब तक फाटक के बाहर का मार्ग भी साफ हो गया होता था । श्रील प्रभुपाद ने रास्ते के विषय में आगे कुछ और नहीं कहा जो एक प्रकार से स्वीकारात्मक लक्षण था । भक्तों से समय पर मंदिर के गुम्बद के नीचे का घंटा बजवाना श्रील प्रभुपाद के लिए बड़े परिश्रम का कार्य था; हाल- कक्ष का घंटा बजवाना तो और भी मुश्किल था । उनकी इच्छा थी कि गुम्बद का घंटा प्रति पूरे घंटे को घोषित किया करे और प्रति आधे घंटे पर बजा करे। यह काम चौकीदार का था और गुणार्णव को देखना था कि यह काम ठीक से हो रहा है। किन्तु कई सप्ताह से समस्याएँ उत्पन्न हो गई थीं, विशेषकर रात में जब चौकीदार को नींद आने लगती थी । श्रील प्रभुपाद के लिए इस प्रकार अविश्वसनीय ढंग से घंटा बजाना वृन्दावन की पूरी मन्दिर व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ उद्घाटित कर देता था। उन्होंने इसे स्पष्ट कह भी दिया, "मैं इस मंदिर की व्यवस्था के बारे में निर्णय, घंटा बजाने के आधार पर, कर रहा हूँ।” यदि चौकीदार सोता रहता है और यदि मंदिर के कर्ता-धर्ता एक साधारण आदेश का पालन नहीं कर सकते तो मंदिर और अतिथि गृह की व्यवस्था, इतनी सारी जटिलताओं के साथ, सुगमता से कैसे चलेगी ? अक्षयानंद स्वामी और गुणार्णव कभी कभी सोचते कि घंटा बजाने की समस्या वे कभी नहीं हल कर पाएँगे, विशेषकर इसलिए भी कि उनके पास पहले से बहुत सारे अन्य काम करने को थे । किन्तु श्रील प्रभुपाद कठोर बने रहे। यदि घंटा समय से कुछ मिनट भी देर से बजता तो वे यह जानने की मांग करते कि गलती किसकी है। रात में आम तौर पर केवल वे ही न सोने वालों में थे, किन्तु घंटा समय पर न बजा तो वे अक्षयानंद और अन्य लोगों को जगा कर डाँट पिलाते थे । एक दिन आधी रात को उन्होंने अपने यात्रा - सचिव हरिकेश को जगाया, " क्या तुम्हें वह सुनाई दे रहा है ? " हरिकेश ने कान तान कर सुनने की कोशिश की । “मुझे कुछ नहीं सुनाई देता । "प्रभुपाद ने दुहराया, "तुम्हें यह नहीं सुनाई देता ?" “मुझे खेद है, किन्तु कुछ सुनाई नहीं देता । " "ठीक है। बाहर जाओ और चौकीदार को जगाओ और उससे घंटा बजाने को कहो । " हरिकेश अंधेरे में बाहर गया, सोते हुए चौकीदार को जगाया, उससे घंटा बजवाया और तब वापस आकर सोया । उधर चौकीदार भी सो गया । साढ़े बारह बजे प्रभुपाद ने हरिकेश को फिर खटखटाया। " क्या तुमने फिर कुछ सुना ?" हरिकेश ने कहा, "नहीं, श्रील प्रभुपाद ।" " तो बाहर जाओ और उसे फिर जगाओ । ' मंदिर के गुम्बद के घंटे को समय पर बजाने के साथ, दोनों घंटों को साथ-साथ ठीक स्थिति में रखना भी एक समस्या थी। घंटे भारी पीतल के बने थे और रस्सी से बजाए जाते थे । प्रभुपाद चाहते थे कि आरती - कीर्तनों के समय मंदिर - कक्ष का घंटा लगातार बजता रहे। इसकी व्यवस्था करने में गुणार्णव को कई सप्ताह लग गए। और मंदिर के गुम्बद का घण्टा एक विशेष कठिनाई उत्पन्न कर रहा था; उसमें लगी रस्सी पत्थर की दीवाल पर घिसने से जल्दी ही टूट जाती थी । गुणार्णव अधिक मोटी रस्सी ले आया तो उससे घंटानाद की स्पष्टता नष्ट हो गई और उसमें सामंजस्य न रहा । प्रभुपाद ने इसे तुरन्त लक्ष्य कर लिया । गुणार्णव एक जंजीर ले आया — वह बहुत भारी साबित हुई। एक नाइलोन की रस्सी लाया—वह टूट गई । वृंदावन में बहुत कम चीजें मिलती थीं और प्रत्येक परिवर्तन का तात्पर्य विलम्ब था, कभी-कभी कई दिनों का विलम्ब । ऐसा लगने लगा कि घंटा किसी तरह से ठीक से नहीं बज सकता । प्रभुपाद ने गुणार्णव से गरारी का इस्तेमाल करके देखने को कहा । गुणार्णव इस विशेष आदेश को किसी कारण स्वीकार नहीं कर सका। उसने सोचा कि रस्सी गरारी से छटक जायगी। एक भक्त एक गरारी खरीद भी लाया, किन्तु गुणार्णव ने कहा कि यह बेकार है । जब प्रभुपाद ने गुणार्णव को अपने कमरे में बुलाया और मांग की, “ गरारी के पहिए कहाँ हैं ?” तो गुणार्णव ने कहा कि उसने उन्हें वापस भेज दिया था। प्रभुपाद चिल्लाए, “तुम दुष्ट ! मैं गरारी माँग रहा हूँ और तुमने उसे वापस भेज दिया !" गुणार्णव ने क्षमा-याचना की, वह दौड़ा हुआ गया और एक गरारी ले आया । इसने काम नहीं किया। तब गुणार्णव को एक सुराखदार ब्रैकेट बनाने का विचार आया । दूसरे दिन सवेरे प्रभुपाद अपने कमरे से बाहर निकले और घंटा चेक करने के लिए घूमते हुए मंदिर के सामने पहुँचे । गुणार्णव और अन्य सभी के लिए यह मामला असहनीय होता जा रहा था । प्रभुपाद बोले, “लाओ, घंटा सुना जाय ।' रस्सी को पूरे जोर से खींच कर एक भक्त ने घंटा बार - बार बजाया । प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, यह ठीक नहीं है। " गुणार्णव ने प्रभुपाद को काठ के ब्रैकेट की व्यवस्था दिखाई और प्रभुपाद ने सोचा कि यह विचार अच्छा है । गुणार्णव ने सुराख में चरबी लगाकर उसे और सुधारने की कोशिश की और कुछ समय तक यह तरकीब काम करती रही। किन्तु रस्सी फिर टूट गई । प्रभुपाद का सवेरे का भ्रमण सामान्यतया प्रबन्धात्मक और प्रशासनिक बातों से भरा होता था; वे भक्तों को बताते रहते कि ठगे जाने से वे अपने को कैसे बचा सकते हैं, उन्हें धन कैसे संग्रह करना और बचाना चाहिए, मंदिर को कैसे स्वच्छ रखना चाहिए, आदि, आदि । ये वार्तालाप विशेष व्यक्तियों को लक्ष्य करके होते थे और आमतौर से आलोचनात्मक होते थे । इसलिए सवेरे का भ्रमण कभी कभी बहुत तनावपूर्ण हो जाता था । एक दिन सवेरे गुणार्णव ने प्रभुपाद को नई पुस्तकों की प्रदर्शनी देखने के लिए आमंत्रित किया । प्रभुपाद को प्रसन्न करने के एकनिष्ठ प्रयास स्वरूप, भक्तों ने मंदिर के प्रवेश-द्वार के अंदर ठीक बगल में एक पुस्तक प्रदर्शनी लगाई थी । पुस्तकों के लिए, अंदर से ही प्रकाशित, खाने बने थे, एक पुस्तक प्रदर्शन - मंजूषा थी और बिक्री के लिए एक काउन्टर था । यह पुस्तक प्रदर्शनी मंदिर - प्रबन्धकों की एक प्रकार से विजय थी । प्रकाश व्यवस्था ठीक चली और श्रील प्रभुपाद की पुस्तकें बढ़िया ढंग से सजा कर रखी गई थीं। वृन्दावन में जी. बी. सी. सचिव, गोपाल कृष्ण, भी उपस्थित थे । उन्होंने श्रील प्रभुपाद को बताया कि मंदिर वस्तुतः प्रथम कोटि का था और सब चीजें अब ठीक-ठीक चल रही थीं। जब गोपाल कृष्ण, अक्षयानन्द स्वामी, गुणार्णव और अन्य लोग पुस्तक प्रदर्शनी की विशेषताएँ बता रहे थे तो प्रभुपाद मौन थे, फिर वे अचानक आन्दोलित हो उठे । उन्होंने कहा, .." आप कहते हैं कि हर चीज प्रथम कोटि की है, किन्तु मैं देख रहा हूँ कि यह पंचम कोटि की है। जरा देखिए । उन्होंने अपनी छड़ी को फर्श पर पटका और फिर उसे उठा लिया और संकेत करते हुए बोले, "मैं छह हजार मील चल कर आपको एक चिड़िया के घोसले के बारे में बताने आया हूँ।” वहाँ एकत्र भक्तों ने ऊपर की ओर देखा और पाया कि झाड़-फानूस के अंदर चिड़िया का एक बड़ा घोसला है। बाहर निकले हुए तिनकों के अंदर चिड़ियाँ बैठी थीं। इतने पर भी, अभी तक उनकी गंदी, भद्दी उपस्थिति का किसी को पता नहीं था । श्रील प्रभुपाद ने अपने पत्रों और पुस्तकों में बताया था कि आध्यात्मिक गुरु का एक कर्त्तव्य यह है कि वह अपने शिष्यों के दोषों को अनावृत करें— चाहे दोष थोड़ा ही क्यों न हो। और योग्य शिष्य गुरु के सामने अपने को आध्यात्मिक ज्ञान से हीन और सदैव मूर्ख समझता है; इसलिए वह आध्यात्मिक गुरु की आलोचना को उनकी अनुकम्पा मानता है। एक दिन श्रील प्रभुपाद मंदिर के प्रबन्धकों से मिल रहे थे । वे व्यावहारिक विचार चाहते थे, मात्र भावुकता नहीं। उन्होंने वृन्दावन में ज्यादा खर्च की शिकायत की, जो अब बम्बई में भी हो रहा था जहाँ निर्माण कार्य अभी शुरू हुआ ही था। उन्होंने कहा, “तुम यहाँ पैसे लुटाओगे और सुरभि बम्बई में लुटाएगा। इस बर्बादी को रोकने के लिए तुम्हारी क्या योजना है ? तुम क्या करोगे ?" किसी को नहीं मालूम था कि क्या कहना है। लम्बी चुप्पी रही । अंत में अक्षयानंद बोला, “हम कृष्णभावनाभावित हो जायँगे । ' प्रभुपाद का उद्गार था, यह अव्यावहारिक सुझाव है ।' अक्षयानन्द स्वामी नित्य वज्रपात की आशा करते थे, किन्तु इससे प्रभुपाद के साथ रहने की उनकी इच्छा में कोई कमी नहीं आई। एक दिन सवेरे के में ने कहा कि वृंदावन का मौसम गरमी और सर्दी दोनों में बहुत कठोर है। सर्दी में, ठंडक के साथ, कभी-कभी वर्षा भी आ जाती है । भ्रमण प्रभुपाद अक्षयानंद ने कहा, “प्रभुपाद, चाहे आकाश से मल-मूत्र और पीप तथा रक्त की वर्षा हो, तब भी हमें वृंदावन में रहना चाहिए । " श्रील प्रभुपाद के मुख पर लगभग शरारत भरी मुसकान आ गई और वे बोले, "ओह, आप ऐसी उम्मीद करते हैं क्या ?" भक्तगण हँसी में फूट पड़े। एक अन्य अवसर पर अक्षयानंद स्वामी ने पूछा, “क्या शास्त्र में कही गई यह बात सच है कि दिन में एक बार शौचालय जाने वाला व्यक्ति योगी होता दो बार जाने वाला भोगी होता है और तीन बार जाने वाला रोगी होता है ?" है, प्रभुपाद ने कहा, “हाँ,” और वे आगे बढ़ते रहे। कुछ देर बाद उन्होंने कहा, “किन्तु दिन में एक ही बार शौचालय जाने का प्रयत्न मत करो। " "अच्छा, " अक्षयानंद ने उत्तर दिया । श्रील प्रभुपाद मुसकराने लगे, “क्या तुम समझते हो कि दिन में एक बार शौचालय जाकर तुम योगी बन जाओगे ?" हरिशौरी का अपने आध्यात्मिक गुरु से व्यक्तिगत सम्पर्क बहुत कम था । लेकिन एक दिन वृन्दावन में प्रभुपाद ने उसे बुलाया— उसकी एक गंभीर त्रुटि बताने के लिए। मंदिर के एक नायक की हैसियत से, हरिशौरी ने एक बुड्ढे को मंदिर में विग्रह के सामने खाने से मना किया था । बुड्ढा घबरा गया था और एक युवा बंगाली पुरुष उसका पक्ष लेकर, हरिशौरी पर चिल्लाया था कि मंदिर में किसी की आलोचना करने का उसे अधिकार नहीं है। हरिशौरी ने उसकी उपेक्षा करने की कोशिश की थी, लेकिन युवा बंगाली का चिल्लाना जारी था। उसने हरिशौरी को धमकाया था कि वह उसे मंदिर से बाहर फेंक देगा और उसकी शिखा काट देगा। अंत में हरिशौरी ने युवक की बाहें मरोड़ दी थीं और चौकीदार से उसे बाहर फेंक देने को कहा था। श्रील प्रभुपाद ने शीघ्र ही इस घटना के बारे में सुना और हरिशौरी को बुलाया । हरिशौरी ने सोचा, “कितना अशुभ है, मेरे गुरु महाराज ने मुझे पहली बार बुलाया और वह भी इस तरह की दुर्घटना के संदर्भ में । " प्रभुपाद ने उसे तुरन्त डाँट नहीं बताई, किन्तु पहले जो कुछ हुआ था उसके बारे में उससे अपनी बात बताने को कहा। हरिशौरी को यह अवसर अच्छा लगा और वह पूरी कहानी कहने लगा। जब उसने उल्लेख किया कि उस बुड्ढे ने कहा कि अधिकार के साथ बात करो और हरिशौरी ने उसे बताया कि वह मंदिर का नायक है, तो प्रभुपाद ने उसे बीच में टोका, "हुँ ।” प्रभुपाद ने अपने शिष्य को चुभती हुई नजरों से देखा । " मंदिर के नायक का अर्थ प्रधान सेनापति नहीं है । विग्रह के सामने प्रसाद खाने की बात तुमने कहाँ सुनी है ?" । हरिशौरी ठीक संदर्भ याद नहीं कर पाया और वह घबरा गया। उसने कहा, " मैं समझता हूँ मैने इस बारे में आपकी किसी पुस्तक में पढ़ा था । " "हुँ" प्रभुपाद ने उस पर फिर से दृष्टि डाली। वे उसकी अज्ञान भरी भूल को समझ सकते थे । हरिशौरी ने जो कुछ किया था, भारत में अपनी अनुभवहीनता के कारण, उसका अन्तर्निहित गंभीर अर्थ वह नहीं समझ सका था । वस्तुतः, इस्कान भक्तों और वृंदावन निवासियों के बीच सम्बन्ध की संवेदनशीलता को दृष्टि में रखते हुए, प्रभुपाद को उसकी भूल को क्षमा कर देना चाहिए था । यह उसकी अज्ञान - पूर्ण त्रुटि थी, किन्तु अज्ञान को क्षमा का बहाना नहीं बनाया जा सकता । प्रभुपाद ने कहा, "यह बड़ा अपराध है । वह बाहर जाकर कहेगा कि विदेशियों ने उसे बाहर फेंक दिया है। यह बहुत खराब है । प्रभुपाद ने हरिशौरी को गंभीर दृष्टि से देखा। उन्होंने कहा, “अब तुम मालूम करो कि वह आदमी कहाँ रह रहा है और उसे यहाँ वापस लाओ। उसे लौट आने को आमंत्रित करो ।' हरिशौरी ने उस बंगाली युवक को ढूँढ़ने का पूरे दिन भरसक प्रयत्न किया । ऐसा कहा गया कि वह मथुरा में किसी होटल में रुका था। लेकिन हरिशौरी को सफलता नहीं हुई। निराश होकर वह मंदिर लौट आया और वह ज्योंही लौट आया एक भक्त ने आकर उसे बताया कि प्रभुपाद उससे मिलना चाहते हैं। उसने सोचा, "ओह, नहीं ! अब प्रभुपाद वास्तव में क्रोधित होंगे।" हरिशौरी प्रभुपाद के कमरे में प्रविष्ट हुआ जो अतिथियों से भरा था । प्रभुपाद ने कहा, "यह लड़का आ गया है।" और जब हरिशौरी ने कमरे में चारों ओर देखा तो उसने वहाँ युवक बंगाली को बैठे पाया । वह आदमी मुसकराया और बोला, “हरे कृष्ण" । वे एक-दूसरे के गले मिले और परस्पर क्षमा-याचना करने लगे । श्रील प्रभुपाद फर्श पर रखी फलों की टोकरी की ओर संकेत करते हुए हरिशौरी से बोले, “तो तुम इसे यह फल दो। इसके बाद उन्होंने उन दोनों को जाने को कह दिया और कमरे में बैठे अन्य लोगों को वे उपदेश देने में लग गए। दोनों की असहमति का समाधान हो गया, किन्तु ये स्वयं प्रभुपाद थे जिन्होंने युवक बंगाली का हृदय परिवर्तन किया और एक विस्फोटक घटना को शमित किया । प्रभुपाद की वृन्दावन की शिष्याओं में, जिसे उनकी आलोचनाओं का लाभ मिला, वह दैवी शक्ति थी, जो उनके आवास की सफाई के लिए जिम्मेदार थी। अन्य उसकी सहायता करते थे, किन्तु वह निरीक्षक थी। जब प्रभुपाद ने देखा कि एक शीशा साफ नहीं किया गया है तो उन्होंने पूछा कि सफाई कौन करता है और उनके सेवक ने उत्तर दिया, " दैवी शक्ति ।" प्रभुपाद बोले, “तो उसी को सब कुछ करना है ?" यह आलोचना उन आलोचनाओं जैसी भारी नहीं थी जो प्रभुपाद मंदिर के कुछ प्रबन्धकों की कर चुके थे। किन्तु दैवी शक्ति ने इसे एक संकेत समझा कि उसे अपनी सेवा के सभी पहलुओं के प्रति अधिक सचेत रहना चाहिए । विग्रहों के लिए प्रसाद तैयार करने वाली, किशोरीदेवी दासी, ने श्रील प्रभुपाद से अपनी सेवा के कुछ आयामों के विषय में पूछा। उन्होंने उसे परामर्श दिया कि कृष्ण के लिए वैसा ही प्रसाद तैयार करो जैसा अच्छी भूख वाले एक युवा पुरुष का भोजन होता है। कृष्ण को दस पूरियाँ, चार चपातियाँ, बड़ी मात्रा में चावल, दो समोसे, दो कचौरियाँ, दो बड़े और हर प्रकार की दो मिठाइयाँ — इतना मिलना चाहिए । उनको अर्पित होने वाला प्रसाद गरम होना चाहिए। उन्होंने कहा, “ तो अब तुम्हें प्रत्येक को सिखाना है कि प्रसाद कैसे बनाया जाता है। तुम्हें हर एक को वह देना चाहिए जो तुमने पाया है। " किशोरी श्रील प्रभुपाद के लिए तीसरे पहर एक माला भी लाती थी । उसे शीतलता - दायक बनाने के लिए वह उस पर जल छिड़क देती थी। दो दिन तक प्रभुपाद ने कुछ नहीं कहा, किन्तु तीसरे दिन वे बोले, “ इसे ले जाओ । इस पर जल क्यों छिड़क देती हो ? यह बहुत खराब लगता है।' । विशाल का ऐसा अभ्यास था जिसे अन्य भक्त सनक समझते थे। वह दरवाजे पर खड़ा हो जाता था और जब श्रील प्रभुपाद वहाँ से गुजरते थे तो उच्च स्वर में संस्कृत के श्लोक सुनाने लगता था । एक दिन सवेरे प्रभुपाद दरवाजे से प्रकोप की मुद्रा में निकले और जैसा कि विशाल का अभ्यास था वह आगे बढ़ कर श्लोक सुनाने लगा । प्रभुपाद ने कहा, "कोई उपयोगी कार्य क्यों नहीं करते। इस पानी को झाडू से निकाल दो ।" श्रील प्रभुपाद अतिथि गृह के भोजन का स्वाद नमूने के लिए रोज चखते थे और प्रायः उसमें सुधार के लिए सुझाव देते रहते थे। नव-योगेन्द्र प्रतिदिन उपाहारगृह से प्रभुपाद के लिए एक प्लेट में व्यंजन लाता था और तब हर व्यंजन पर प्रभुपाद की टिप्पणी लिखता जाता था । अगले दिन रसोइए प्रभुपाद की टिप्पणी को आधार बना कर व्यंजनों में सुधार लाने का प्रयत्न करते थे । ऐसा ही प्रत्येक विभाग के साथ था। कार में चलते समय भी प्रभुपाद पूछते थे, “तुम इसका तेल - पानी नियमित रूप से देखा करते हो ? क्या इसकी सर्विस कराते रहते हो ?" प्रभुपाद कहते थे कि अन्य मंदिर घर से दूर है, किन्तु वृंदावन घर है। किन्तु जो उनके साथ वहाँ रहना चाहता था उसे उनकी निरन्तर छान-बीन और तीक्ष्ण आलोचना की परीक्षा में पास होना जरूरी था । उसको कठिन परिश्रम और त्याग का जीवन स्वीकार करना जरूरी था । और विशेष त्याग का तात्पर्य विशेष आशिष था । जब एक भक्त ने वृन्दावन के अपने कर्त्तव्यों से मुक्ति के लिए क्षमा माँगनी चाही ताकि वे पश्चिम में एक कृषि फार्म चला सके तो प्रभुपाद ने कहा बीस कृषि फार्म खोलना भी उतना महत्व नहीं रखता जितना वृंदावन में रहना । जो लोग धैर्यपूर्वक स्थिर रहे, अन्ततः सभी कठिनाइयाँ उन्हें अमृत लगने लगीं, जैसा कि भक्तिविनोद ठाकुर ने व्यक्त किया था, "जब सेवा में कठिनाइयाँ उठ खड़ी होती हैं तो मैं उन्हें सुख का स्त्रोत पाता हूँ ।" राधाष्टमी के दिन श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण-बलराम मंदिर से लगे हुए एक विशाल गुरुकुल भवन का शिलान्यास किया। उन्होंने कहा कि जब यह बन कर पूरा हो जायेगा तो भक्तों को चाहिए कि समग्र विश्व से उसमें पाँच सौ विद्यार्थियों को दाखिला दें। वैभवपूर्ण मंदिर और अतिथि गृह के माध्यम से और शीघ्र ही गुरुकुल के माध्यम से भी, श्रील प्रभुपाद का इरादा अधिकाधिक लोगों को वृंदावन में कृष्ण की शरण में आकृष्ट करना था । इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए वे प्रत्येक वस्तु न्योछावर करने को तैयार थे — अपना शान्तिपूर्ण लेखन - कार्य भी। और इस लक्ष्य - प्राप्ति के लिए वे अपने शिष्यों से भी चाहते थे कि वे त्याग करें। श्रील प्रभुपाद ने कहा कि निरन्तर भ्रमण उनके लिए उत्तरोत्तर असुविधाजनक होता जा रहा था। उनके भारत वापस लौटने का यह भी एक कारण था । किन्तु वे भ्रमण एकदम बंद नहीं कर रहे थे। जब तक वे भ्रमण नहीं करते उनका आन्दोलन जीवन्त और स्वस्थ नहीं रह सकता था । इसलिए असुविधा के बावजूद, वे भ्रमण के लिए तैयार थे। उनके भक्तों का उन्हें भ्रमण के लिए आमंत्रित करना कभी बंद नहीं हुआ और हाल में ही, पुष्ट कृष्ण स्वामी ने उन्हें दक्षिण अफ्रीका आने के लिए आमंत्रित किया था। जब प्रभुपाद सहमत हो गए तो पुष्ट कृष्ण ने झट डरबन और जोहन्स बर्ग में दस उत्सवों और अन्य कार्यक्रमों की योजना बना डाली थी जिसमें अक्तूबर के तीन सप्ताह लगने थे । हिन्दू - प्रधान मारिशस द्वीप के भक्तों ने भी प्रभुपाद को वहाँ आने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने यह भी उल्लेख किया था कि प्रधान मंत्री उनसे मिलना चाहते हैं । प्रभुपाद राजी हो गए। वृंदावन से प्रस्थान करके उनके संक्षिप्त पड़ाव दिल्ली, अहमदाबाद और बम्बई में थे, फिर वे अफ्रीका के लिए रवाना हो गए। मारिशस अक्तूबर १, १९७५ प्रबन्ध के कार्यों से मुक्त होकर अब प्रभुपाद अभिरुचि रखने वाले समूहों को व्याख्यान देने के लिए पहले से अधिक स्वतंत्र थे । समाचार-पत्रों और सरकारी मंत्रियों की ओर से मारिशस में उनका स्वागत अच्छा रहा, किन्तु जनता की ओर से पूछे जाने वाले प्रश्नों से आध्यात्मिक ज्ञान में उनकी सच्ची अभिरुचि के अभाव का पता चलता था : " क्या शाकाहारी होना आवश्यक है ?" "क्या आत्मा तीसरी आंख में बन्द है?" "आप हठधर्मी दिखते हैं। क्या आपके जीवन-दर्शन में कोई सन्देह है ? " फिर भी लोग सम्मानयुक्त थे और उन्होंने श्रील प्रभुपाद को एक महत्त्वपूर्ण नेता और आध्यात्मिक प्रभु माना। वे वहाँ एक सप्ताह रहे। डरबन अक्तूबर ५ यह प्रभुपाद की दक्षिण अफ्रीका की पहली यात्रा थी । गत दो वर्षों से वहाँ के भक्त उनके लिए अनुमति - पत्र प्राप्त करने की कोशिश कर रहे थे, किन्तु वहाँ की सरकार विदेशी धर्म प्रचारकों से सतर्क थी। इसलिए नौकरशाही की ढील ने महीनों ले लिए थे। भक्तों को सरकारी अधिकारियों के पुनरीक्षण के लिए प्रभुपाद की पुस्तकों की प्रतियाँ तक भेजनी पड़ी थीं । । एक सप्ताह भर श्रील प्रभुपाद रात में कम-से-कम एक हजार श्रोताओं को सार्वजनिक भाषण देते रहे । श्रोता अधिकतर हिन्दू थे, किन्तु बहुत से गोरे भी । डरबन विश्वविद्यालय, वेस्टविले में प्रभुपाद के भाषण के बाद वहाँ के एक प्राचार्य ने यह कह कर उनके भाषण की निन्दा करनी चाही कि "यह तो हिन्दू धारणा है ।" श्रील प्रभुपाद ने बार - बार समझाने की कोशिश की कि कृष्णभावनामृत के सिद्धान्त विश्वजनीन और वैज्ञानिक हैं, किन्तु वह व्यक्ति कहता रहा कि यह हिन्दू संस्कृति है । विश्वविद्यालय के रेक्टर डा. एस. पी. ओलिवियर प्रभुपाद की प्रस्तुति के प्रति सद्भाव प्रकट किया और उनसे लम्बी वार्ता के लिए बाद में वे रुके रहे। डा. ओलिवियर ने अपनी वार्ता यह कह कर आरंभ की, “मैं समझता हूँ आप बिल्कुल ठीक कह रहे थे, किन्तु आज रात बहुत थोड़े लोग आपकी बात को समझ सके कि यह एक वैज्ञानिक वास्तविकता है ।' ने जोहान्सबर्ग अक्तूबर १२ श्रील प्रभुपाद का जोहान्सबर्ग हवाई अड्डे पर आगमन सांस्कृतिक दृष्टि से दक्षिण अफ्रीका के लिए असाधारण था — गोरे लोग एक भारतीय के सामने नतमस्तक हो रहे थे। भक्तों ने एक पीली मर्सीडीज-बेंज उधार ली थी और उसे ऐसे स्थान में खड़ी किया था जो सरकार के मंत्रियों और अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए आरक्षित था। किसी ने आपत्ति नहीं की । जब श्रील प्रभुपाद पहुँचे तो भक्तों ने फूल की पंखड़ियाँ बरसाईं, कुछ युवा योरोपीय दर्शक नतमस्तक और इस नयाचार से प्रभावित होकर पुलिस ने श्रील प्रभुपाद को सलाम किया और आदरपूर्वक उनके लिए उनकी मर्सीडीज का दरवाजा खोल दिया । हुए डरबन की तरह ही प्रभुपाद के भाषण में श्रोताओं की उपस्थिति अच्छी रही। उन कार्यक्रमों में अपनी पुस्तकों की बिक्री के लिए प्रभुपाद बहुत व्यग्र थे और वे पुस्तक-काउन्टरों पर जाकर अपने शिष्यों से पूछते थे “क्या वे पुस्तकें खरीद रहे हैं ?” उनकी इच्छा यह थी कि न केवल हिन्दू, वरन् योरोपियन लोग भी उनकी पुस्तकें खरीदें। । प्रभुपाद जातीय भेदभाव के विरुद्ध जोरदार शब्दों में बोले । किन्तु महात्मा गांधी से, जो अपने स्पष्ट विचारों के कारण दक्षिण अफ्रीका में जेल में डाल दिए गए थे, प्रभुपाद में भिन्नता थी; वे शास्त्रीय प्रमाण के आधार पर बोले । उन्होंने कहा, "यह काले-गोरे का गोरखधंधा क्या है ? यह पागलपन है। यह जीवन की दैहिक धारणा है।" दक्षिण अफ्रीका में साधारणतया ऐसे वक्तव्यों को विस्फोटक राजनीति समझा जाना था, फिर भी श्रील प्रभुपाद के कथन की हर एक ने सराहना की, क्योंकि वे विशुद्ध आध्यात्मिक स्तर पर बोल रहे थे । दक्षिण अफ्रीका में प्रभुपाद के एक शिष्य, राधा, ने एकान्त में पूछा कि जोहान्सबर्ग में जातीय प्रकरण पर कैसा व्यवहार करना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा इसका एकमात्र समाधान था — सामूहिक हरि नाम संकीर्तन । जब राधा ने एक सामुदायिक कृषि फार्म शुरू करने के बारे में पूछा तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, " ग्रामीण क्षेत्रों में जाने को इतना उत्सुक मत बनो । प्रचार नगरों में ही ठीक रहेगा।” उन्होंने कहा कि दक्षिण अफ्रीका में इतने थोड़े समय में उनके भक्तों ने जो कुछ किया है उससे वे बहुत प्रसन्न थे । । । जब प्रभुपाद जोहान्सबर्ग में थे तभी रामेश्वर और उसके दल ने अपना वायदा पूरा किया और श्रीमद्भागवत के पाँचवे स्कंध के दोनों खण्ड की प्रतियां उनके पास पहुँचा दीं। श्रील प्रभुपाद एक विश्वविद्यालय में अपने भाषण के समय इन पुस्तकों को ले गए और उसमें से भगवान् ऋषभदेव के उपदेशों को पढ़ कर सुनाया। उन्होंने उस श्लोक से आरंभ किया जिसमें ऋषभदेव अपने पुत्रों को उपदेश देते हैं कि इंद्रियों की परितृप्ति मात्र के लिए जीवन बिताना ठीक नहीं । मारिशस अक्तूबर २४, प्रभुपाद प्रधान मंत्री से मिलने के लिए वापस आए थे। मित्र भाव प्रकट करने के लिए, प्रधान मंत्री ने प्रभुपाद के मारिशस में रुकने की अवधि तक के लिए, उनके उपयोग के वास्ते चालक सहित एक मोटर कार भेज दी थी। एक दिन प्रभुपाद ग्रामीण क्षेत्रों की सैर के लिए जा रहे थे। जब वे दाहिनी ओर से कार में चढ़ने को हुए तो पुष्ट कृष्ण स्वामी ने सुझाव दिया, 'श्रील प्रभुपाद, दूसरी ओर आइए। उधर अधिक सुरक्षित है।" और प्रभुपाद मान गए। वे आधे घंटे तक सुंदर ग्रामीण क्षेत्र में गन्ने के खेतों, पर्वतों तथा समुद्र-तट से गुजरते हुए सैर करते रहे। एक स्थान पर रुक कर वे समुद्र तट पर खड़ी एक चट्टान से गुजरे। जब वे लौट कर कार के पास आए तो ब्रह्मानन्द स्वामी ने दाहिनी ओर का दरवाजा खोला। इस पर प्रभुपाद बोले, "नहीं, दूसरी ओर अधिक सुरक्षित रहेगा।” ठीक वैसे ही जैसा कि पुष्ट कृष्ण ने पहले सुझाया था । कुछ मिनट बाद प्रभुपाद की काली साइट्रोन कार एक मोड़ पर मुड़ रही थी कि सहसा उसी रास्ते में उनकी ओर आती एक वोल्कस वैगन कार प्रकट हुई। प्रभुपाद पुष्ट कृष्ण के पीछे बैठे थे और ब्रह्मानन्द चालक के पीछे। वोल्कस वैगन के प्रकट होने के एक क्षण पूर्व, श्रील प्रभुपाद पालथी मार कर तथा कार के फर्श पर अपनी छड़ी टिका कर उसके सहारे बैठ गए थे । ज्योंही वोल्कस वैगन उनकी ओर तेजी से बढ़ी कि चालक ने ब्रेक लगा दिया जिससे प्रभुपाद की कार बाईं ओर घूम गई; किन्तु वाल्कस वैगन भी उसी दिशा में मुड़ गई। फलस्वरूप दोनों में आमने-सामने भिड़न्त हो गई। पुष्ट कृष्ण का सिर विंडस्क्रीन ( हवा - रोक) शीशे से जा टकराया जिससे शीशा गया। चालक का सिर भी शीशे से टकराया और उसका चेहरा खून से सन गया । टूट श्रील प्रभुपाद पिछली सीट पर बैठे रहे, किन्तु उनकी मुखाकृति गंभीर हो गई। दहशत में आकर ब्रह्मानंद ने सहसा प्रभुपाद को बाँहों में ले लिया, मानो वह उनकी रक्षा कर रहा हो, किन्तु संकट तो टल चुका था । तब ब्रह्मानंद कार से कूद पड़ा और एक मोटर वाले को रोकने की कोशिश करने लगा । पुष्ट कृष्ण बाहर निकला और उसने कार का पिछला दरवाजा खोला और देखा कि प्रभुपाद के मुख पर चोट आ गई है, उनके पाँव से रक्त निकल बोले रहा है और शीशे के टूटे टुकड़े उनके पैर के नीचे बिखरे हैं। प्रभुपाद नहीं और न ही संकेत दिया कि उन्हें कैसा लग रहा है। सहसा पुष्ट कृष्ण को लगा कि मोड़ पर बेकार हुई कार खतरनाक स्थिति में है । अतः वह सड़क में ब्रह्मानंद से जा मिला कि मोटर वालों को आगाह कर दे और किसी को रोकने की कोशिश करे । साइट्रोन और वोल्कस वैगन, दोनों कारें क्षतिग्रस्त हो गई थीं और वोल्कस वैगन में बैठे पुरुष तथा स्त्री दोनों को चोटें लगी थीं । कुछ मोटर वाले तत्काल रुक गए और जब घायल व्यक्तियों को मदद मिल चुकी, तब प्रभुपाद और उनके शिष्य एक कार में बैठे और मंदिर वापस आ गए। हरिकेश व्यग्रतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहा था और उसे आश्चर्य हो रहा था कि प्रभुपाद को इतना विलम्ब क्यों हो रहा है। तभी सहसा प्रभुपाद का प्रवेश हुआ। वे तन कर चल रहे थे और कुछ बोल नहीं रहे थे। जब हरिकेश ने देखा कि तीनों को चोट लगी है तो वह चिल्ला उठा, “हे भगवान् ! यह क्या हुआ ? क्या हुआ ?” किन्तु प्रभुपाद अपने कमरे में गए और चुपचाप बैठ गए। एक भक्त चोटों के लिए पट्टियाँ लाया। चोटें प्रभुपाद की ठुड्डी, हाथ तथा टांग में और पुष्ट कृष्ण तथा ब्रह्मानंद के सिर में थीं । दुर्घटना के बाद से श्रील प्रभुपाद कुछ भी नहीं बोले थे । अन्ततोगत्वा वे बोले- आसन्न अपि क्लेशद आस देहः । और उन्होंने अनुवाद किया — “ ज्योंही तुम यह भौतिक देह स्वीकार करते हो त्योंहि नाना प्रकार के क्लेश आ घेरते हैं। हम शान्तिपूर्वक कार में बैठे थे कि अगले ही क्षण दुर्घटना हो गई । " उन्होंने संक्षेप में टक्कर की बात की और ब्रह्मानंद स्वामी ने बताया कि किस तरह दुर्घटना के ठीक पहले प्रभुपाद ने छड़ी के सहारे अपने को सुस्थिर कर लिया था, और इससे अधिक गहरी चोटों से वे बच गए। प्रभुपाद ने कहा, “थोड़ी रेजिन तथा हल्दी ले आओ और इसे थोड़ी सी राई (एक प्रकार का धान्य) के साथ मिला कर गरम करो।" वे पुनः भागवत् दर्शन और व्यावहारिक ओषधीय उपचार की बात करने लगे थे। किन्तु वह एक भयावह दुर्घटना तो थी ही और प्रभुपाद ने भक्तों से कीर्तन करने को कहा । उन्होंने कहा कि कृष्ण ने उनकी रक्षा की थी। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि दोनों कारें विनष्ट हो गई थीं, चोटें नगण्य थीं । प्रभुपाद एक योद्धा की तरह तीन स्थानों पर पीली पुल्टिस लगवा कर बैठे थे और हरिकेश उच्च स्वर में चैतन्य - चरितामृत में से “हरिदास ठाकुर का अन्तर्धान होना” प्रसंग पढ़ रहा था । तब श्रील प्रभुपाद यात्रा करने के खतरों के बारे में चर्चा करने लगे और अपने विस्तृत दौरों की उपादेयता पर संदेह प्रकट करने लगे। श्रीमद्भागवत और अन्य वैष्णव साहित्य का अनुवाद करने का उनका महान् लक्ष्य मोटर - गाड़ियों में यात्रा करके अपने जीवन को खतरे में डालने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण था । बम्बई लौटने से पहले वे नैरोबी जाने का विचार कर रहे थे, किन्तु उन्होंने कहा कि अब वे नैरोबी की यात्रा रद्द कर देंगे। उन्होंने कहा कि वे बम्बई कभी नहीं छोड़ना चाहते थे, किन्तु उन लोगों ने अफ्रीका में इतनी सारी योजनाएँ बना रखी थीं कि उन्हें आना पड़ा। कदाचित् यह दुर्घटना इस बात की सूचक थी कि उन्हें भारत लौट जाना चाहिए । अगले दिन सवेरे ब्रह्मानंद स्वामी और पुष्ट कृष्ण स्वामी के साथ प्रभुपाद, लंगड़ाते हुए सदैव की भाँति भ्रमण पर निकले, यद्यपि उन्हें अपने चोट ग्रस्त घुटने का अधिक ध्यान था । उन्होंने अपने शिष्यों के साथ इस विषय पर पुनः विचार-विमर्श किया कि उन्हें नैरोबी जाना चाहिए या भारत वापस लौट जाना चाहिए । इस्कान नैरोबी के अध्यक्ष, च्यवन, ने तर्क दिया कि प्रभुपाद को नैरोबी जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि वहाँ के भक्त प्रभुपाद की प्रतीक्षा में थे और उन्होंने इसके लिए प्रबन्ध कर रखा था । यदि प्रभुपाद नैरोबी की यात्रा इस समय रद्द कर देते हैं तो संभवत: लम्बे समय तक उनका वापस आना नहीं होगा । अन्य लोग इस मत के थे कि इस अभिघाटज घटना के बाद श्रील प्रभुपाद से यात्रा करते रहने के लिए कहने का प्रश्न ही नहीं उठता। उन्हें सीधे बम्बई जाना चाहिए । प्रभुपाद ने दोंनो मत सुने । किन्तु नैरोबी के भक्तों के निराश होने के विचार का, दुर्घटना के बाद उनके स्वास्थ्य लाभ की अपेक्षा, उन पर अधिक प्रभाव था । उन्होंने नैरोबी जाने का निर्णय किया । किन्तु नैरोबी में कुछ दिन रहने के बाद ही प्रभुपाद भारत लौटने को व्यग्र होने लगे। उन्हें बम्बई की कुव्यवस्था तथा कर्मचारियों, स्टोर कीपर और चौकीदारों के षड्यंत्र से निर्माण - सामग्रियों के चुराए जाने के विषय में, समाचार मिल रहे थे। जब प्रभुपाद ने यह समाचार सुना तो वे इतने खिन्न हो उठे कि अनुवाद करना बंद कर दिया । यहाँ तक कि उन्होंने भोजन करना भी बंद कर दिया । यद्यपि वे बम्बई से हजारों मील दूर थे, किन्तु वहाँ के किसी भी भक्त की अपेक्षा उन्हें अधिक दुख हो रहा था। भक्तों में से बहुतों को तो, वास्तव में, पता भी नहीं था कि चोरी हो रही है। जब ब्रह्मानंद स्वामी ने पूछा कि वे भोजन क्यों नहीं कर रहे हैं तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "जब मेरा धन चुराया जा रहा हो तो मैं कैसे खा सकता हूँ ?” बम्बई नवम्बर १, श्रील प्रभुपाद का वायुयान नैरोबी से बम्बई १ बजे रात में पहुँचा, तब भी मंदिर पर आत्मीय आजीवन सदस्यों, शिष्यों और यहाँ तक कि मंदिर की भूमि पर रहने वाले कुछ किराएदारों के समूह ने इतना तड़के उनका स्वागत किया । जब वह समूह उनके साथ उनके कमरे तक गया उन्होंने एकान्त में बताया कि वे गंभीर रूप से दुर्घटनाग्रस्त हो गए थे। उन्होंने अपने घुटने का निशान भी दिखाया। वे बोले कि वापस लौटने से उन्हें राहत थी । बम्बई से एक पत्र में उन्होंने लिखा, दुर्घटना बड़ी अनर्थकारी थी, किन्तु तब भी कृष्ण ने रक्षा की... संभवतः यहाँ कुछ समय तक इस भूमि पर मंदिर - निर्माण कार्य पूरा कराने के लिए मुझे रुकना होगा । इस्कान बम्बई श्रील प्रभुपाद का कार्यालय था और उन्होंने तुरन्त कार्य आरंभ कर दिया। उन्होंने इंजीनियर को बर्खास्त कर दिया, जो इतने खराब, धीमे काम के लिए तथा सामान की चोरी के लिए जिम्मेदार था। पहले प्रभुपाद ने किसी निर्माण कम्पनी को ठेका देने से बचने की कोशिश की थी, और सारा काम विभिन्न छोटे-छोटे ठेकेदारों को देकर, पूरी योजना का निरीक्षण सुरभि के हवाले कर दिया था । किन्तु इससे काम नहीं हो पा रहा था । श्रील प्रभुपाद परिवर्तन चाहते थे, किन्तु कोई स्पष्ट विकल्प उपलब्ध नहीं था। उन्होंने सुरभि से कहा, "हमने कृष्णभावनामृत को शाश्वत आनन्द का जीवन बिताने के लिए अपनाया था, किन्तु शाश्वत आनन्द के स्थान पर मैं शाश्वत चिन्ता भोग रहा हूँ।” उन्होंने सुरभि, गिरिराज तथा अन्यों से अपील की कि वे कुछ करें। एक दिन एक आजीवन सदस्य, जो एक निर्माण इंजीनियर था, साइट (निर्माण स्थल) पर आया और उसने श्रील प्रभुपाद से कहा कि मंदिर और होटल छह महीने में आसानी से पूरे हो सकते हैं। तब प्रभुपाद ने सुरभि को फटकार बताई जिसने कहा था कि छह मास का समय पर्याप्त नहीं होगा। सुरभि ने सोचा, “अब मैं कहीं का न रहा; मुझे सेवा से हाथ धोना पड़ेगा। तब एक दूसरा आजीवन सदस्य, श्री ओंकार प्रकाश धीर, रविवार के भोज में आया जो भारत की एक सबसे बड़ी, सुविख्यात निर्माण कम्पनी, ई. सी. सी., का मुख्य अभियंता था। उसने कार्य का निरीक्षण किया। उसकी खराब गुणवत्ता से वह स्तम्भित रह गया। उसने कहा कि दो-तीन वर्षों में यह फट कर गिर जायगा । गिरिराज, बम्बई की उक्त सबसे बड़ी और सक्षम निमार्ण कम्पनी को ठेका देने के विचार से प्रभावित हुआ और उसने प्रभुपाद से बात की। प्रभुपाद भी प्रभावित थे। पहले तो सुरभि को बुरा लगा कि काम उसके हाथों से लिया जा रहा है, किन्तु मि. धीर से मिलने के बाद उसे भी प्रस्तावित परिवर्तन पसंद आ गया । ई. सी. सी. के साथ ठेका हो गया और श्री धीर ने एक प्रगति विवरण प्रस्तुत किया जिसमें कार्य की प्रत्येक अवस्था का विवरण था और यह बताया गया था कि कार्य कब समाप्त होगा । लागत के अधिक होने के बावजूद, प्रभुपाद को ठेकेदार की व्यावसायिक विधियाँ पसंद आईं। अब सारा कार्य ढंग से और शीघ्रता से समाप्त हो सकेगा और इसी का सबसे अधिक महत्त्व था । प्रभुपाद नवम्बर मास के अधिकांश समय तक यहीं रहे और निर्माण कार्य तेजी से बढ़ने लगा। प्रभुपाद ने सुरभि को बताया कि थोड़ी सी बचत के लिए किफायतशारी नहीं करनी है। मंदिर को एक मणि के समान सुंदर होना है जिससे सारे भारत से लोग यहाँ आकर रहना पसंद करें। वृंदावन में निर्माण के समय प्रभुपाद बार-बार कहते थे, “इतना अधिक क्यों ?" “ इससे सादा क्यों नहीं ?” किन्तु अब वे बल दे रहे थे, “ इससे अधिक क्यों नहीं ?" मंदिर को ऐश्वर्यशाली तथा अलंकृत होना चाहिए और सर्वत्र संगमरमर लगना चाहिए । होटल को सर्वोत्तम होना चाहिए जिसमें सुंदर सजे हुए कमरे और सुरुचिपूर्ण आहार - गृह हो । और वातानुकूलित प्रेक्षागृह बम्बई में सर्वश्रेष्ठ भवन होना चाहिए । होटल के कमरों की बात करते हुए प्रभुपाद ने कहा, “ फर्श पर संगमरमर क्यों न हो ? " सुरभि ने कहा, "यह बहुत खर्चीला पड़ेगा ?" प्रभुपाद बोले, " खर्च की परवाह मत करो। क्या हम फर्श पर संगमरमर लगा सकते हैं ? तो फिर करो ।” सुरभि ने ऐसा ही किया, किन्तु होटेल के गलियारों में सस्ता पत्थर लगाकर उसने कुछ धन बचाने का प्रयत्न किया। जब ने इसे देखा तो वे अप्रसन्न हुए । उन्होंने कहा कि उसे पूरा संगमरमर प्रभुपाद का होना चाहिए था । बम्बई में निर्माण के लिए धन मुख्य रूप से अमेरिका में प्रभुपाद की पुस्तकों की बिक्री से आ रहा था और प्रभुपाद को इसकी नियमित सूचनाएँ प्राप्त होती रहती थीं। १८ नवम्बर को रामेश्वर ने तार द्वारा यह शुभ संदेश भेजा । बी. टी. जी. की दस लाख प्रतियाँ अभी प्रकाशित हुई हैं। भक्तगण पागल जैसे हो गए हैं। एक मास के भीतर सभी को बेचने का वचन दिया है। स्पेनिश गीता अभी-अभी प्रकाशित । आपके चरण-कमलों में करोड़ों रुपए प्राप्त होंगे। यह सब केवल आपकी कृपा से संभव । जब इस्कान डेनवर के मंदिर अध्यक्ष ने प्रभुपाद से पूछा कि क्या वे रत्नों का व्यवसाय आरंभ कर सकते हैं तो प्रभुपाद ने उसे अस्वीकार करते हुए लिखा, वे व्यापार क्यों करना चाहते हैं ? इससे बुरा वातावरण तैयार होता है। हम तो केवल एक व्यवसाय करेंगे और वह है पुस्तक-विक्रय । बस । ज्योंही व्यवसाय के पीछे तुम कर्मी बनते हो, आध्यात्मिक जीवन क्षतिग्रस्त हो जाता है। इस व्यवसाय को अब कहीं भी प्रोत्साहन न दिया जाय। यह अच्छा नहीं कि संकीर्तन न करके व्यवसाय किया जाय । संकीर्तन बहुत अच्छा है। परिस्थितिवश गृहस्थ अन्य व्यवसाय कर सकते हैं, किन्तु तभी, जब वे ५० प्रतिशत दान में दे दें। किन्तु संकीर्तन सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय है। प्रभुपाद की कल्पना थी कि पुस्तक वितरण से न केवल बम्बई के निर्माण कार्य के लिए अपितु इससे भी अधिक महत्त्वाकांक्षी मायापुर की योजनाओं के लिए धन मिल सकता है। पुस्तक-वितरण अच्छा व्यवसाय था और यह सर्वोत्तम उपदेश - कार्य भी था । यह प्रभुपाद का नुस्खा था— अमरीका के धन और भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का मिश्रण। और उन्होंने रामेश्वर को प्रोत्साहित किया कि वह उनके इस नुस्खे के अनुसार अमेरिका में संकीर्तन को अनुप्रेरित करे, अमेरिका के पास धन है, अतः यह अंधे और लंगड़े व्यक्तियों के बीच सहयोग है । इससे भारत और अमेरिका के सम्बन्ध अच्छे होंगे। अगली बार जब मुझे इन्दिरा गांधी से मिलने का अवसर मिलेगा तो मैं उन्हें बता दूँगा कि हम कितनी अधिक विदेशी मुद्रा ला रहे हैं । तुम्हारे इस उत्साहवर्धक आश्वासन से कि ज्यों-ज्यों पुस्तक-वितरण बढ़ेगा त्यों-त्यों बी. बी. टी. द्वारा भेजी जाने वाली राशि में वृद्धि होगी, हम कुरुक्षेत्र परियोजना और जगन्नाथ पुरी - परियोजना प्रारंभ करने जा रहे हैं। अभी तो हम भारत में ही सारा खर्च कर रहे हैं, किन्तु अन्ततः हम सर्वत्र खर्च करेंगे। इससे अमरीकियों की आध्यात्मिक स्थिति सुधरेगी । सदैव गुरु और कृष्ण पर निर्भर रहो और तुम्हारी उन्नति सदैव ही सुनिश्चित रहेगी । |