९७५ ई. के मध्य श्रील प्रभुपाद जी. बी. सी. के समक्ष प्रबन्धन की समस्याओं का उल्लेख बार-बार करते रहे। मायापुर में जी. बी. सी की वार्षिक बैठक में उन्होंने इसका विशेष रूप से उल्लेख किया । इस्कान की स्थापना के दिन से वे कहते रहे थे कि, "यह अकेले एक व्यक्ति का काम नहीं है। उन्होंने जी. बी. सी. की रचना इसीलिए की थी कि उनके विश्वव्यापक बनते हुए संगठन के प्रबन्ध को व्यक्तिगत रूप से देखने के डगमगाते बोझ से उन्हें राहत मिले। उन्होंने एक जी. बी. सी. के सदस्य को लिखा था, "सदैव याद रखिए कि आप उन थोड़े से नेताओं में से एक हैं जिन्हें मैंने यह जिम्मेदारी सौंपी है...और आपका काम बहुत बड़ा है । " प्रभुपाद अपने आन्दोलन की प्रगति को एक आश्चर्यजनक सफल घटना मानते थे और इसे अपने तुच्छ प्रयत्नों के प्रति भगवान् चैतन्य की प्रत्यक्ष कृपा का प्रमाण समझते थे । इस्कान उनकी अपने गुरु महाराज के प्रति सेवा का प्रतीक था और अब उनके शिष्यों को चाहिए कि वे इसे बनाए रखें और अपने आध्यात्मिक गुरु की सेवा के रूप में इसका सतत उन्नयन करें। उन्होंने कहा कि उनकी इच्छा संसार से प्रस्थान करने के पूर्व १०८ फूलते - फलते मंदिरों को देखना है । उन मंदिरों को जीवित रखना उनके एकनिष्ठ अनुयायियों का काम होगा। उन्होंने आस्ट्रेलिया में अपने जी. बी. सी. प्रतिनिधि को लिखा, PIPER मेलबोर्न, लंदन, बम्बई, पेरिस, सभी स्थानों के मंदिर बहुत सुंदर हैं। प्रत्येक वस्तु चमकदार और वैभवशाली है। अर्चा-विग्रह एकनिष्ठ सेवा का प्रमाण है । अब यह जी. बी. सी. का कर्त्तव्य है कि इसे बनाए रखें। उसका कर्त्तव्य है कि शिष्यों को प्रोत्साहित करे और उनकी देखभाल करे । कृष्णभावनामृत के किसी उपदेशक के सामने समस्याओं का होना अनिवार्य था । इसीलिए बहुत से साधुजन किसी पवित्र स्थान में रहना पसंद करते थे और उपदेशक होने से बचते थे । किन्तु भक्तिसिद्धान्त सरस्वती और भगवान् चैतन्य के सम्प्रदाय के महान् आचार्यों की मुख्य चिन्ता यह थी कि वे अधिक से अधिक बद्ध जीवात्माओं को भगवद्-भक्ति का संदेश पहुँचा सकें। तो भी, इस मार्ग पर चलने के लिए सहिष्णु होना अत्यन्त आवश्यक था । वित्तीय आवश्यकताएँ, राष्ट्रीय और स्थानीय शासकीय प्रतिबंध, भगवद्भक्ति के मूढ़ दानवी शत्रु, नए भक्तों में परस्पर ईर्ष्या, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा और आपसी असहमति, अवैध यौन सम्बन्ध और मादक द्रव्य सेवन के प्रयत्न से उत्पन्न संघर्ष और पतन, आदि, ऐसी समस्याएँ थीं जो उपदेशक के मार्ग को कंटकाकीर्ण बनाती थीं । किन्तु श्रील प्रभुपाद जानते थे कि संघर्ष उचित था, चाहे उसका परिणाम एक जीवात्मा मात्र को जीवन-मरण के चक्र से मुक्त कराना क्यों न हो । श्रील प्रभुपाद चाहते थे कि उनके अधिक उन्नत शिष्य उनके संघर्ष में सहभागी बनें। और जब उन्होंने अपने कुछ वरिष्ठ सदस्यों में योग्यता और निष्ठा देखी तो उन्होंने कुछ मामले उनके सुपुर्द करने का प्रयास किया और वे स्वयं श्रीमद्भागवत के बारहों स्कंधों का अनुवाद पूरा करने के अपने जीवन के महान् लक्ष्य पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने लगे । भक्तगण अपने उत्साह में प्रभुपाद पर सदैव जोर डालने लगे कि वे अधिक से अधिक पुस्तकों का अनुवाद और लेखन करें जिससे वे उन्हें पढ़ सकें और वितरित कर सकें। श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि वे अपनी शक्ति-भर कोशिश कर रहे थे, किन्तु यह कार्य यांत्रिक नहीं था; उसके लिए बड़ी एकाग्रता और मानसिक शान्ति की जरूरत थी । ऐसा नहीं हो सकता था कि वे लिखें भी और साथ ही दर्जनों चुनौती देने वाली उलझन भरी समस्याओं का सामना भी करें । जब गुरुकुल के लिए उत्तरदायी जी.बी.सी. के सदस्य ने यह योजना भेजते हुए प्रभुपाद को लिखा कि सभी इस्कान केन्द्रों को गुरुकुल की शिक्षा-पद्धति की सहायता करनी चाहिए तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "जहाँ तक केन्द्रों पर, सहायता के लिए, भार डालने की बात है, इस मामले पर जी. बी. सी. में विचार होना चाहिए ।" जब स्टाकहोल्म केन्द्र में एक विवाद उठ खड़ा हुआ और भक्तों ने प्रभुपाद से निर्णय देने की प्रार्थना की तो उन्होंने उत्तर दिया, "इस पर जी. बी. सी. की पूरी बैठक में विचार होना आवश्यक है।” और उन्होंने यह भी जोड़ दिया, " हमारे सभी शिष्यों को गुरु बनना होगा, । गुरु बनना होगा, किन्तु उनमें योग्यता नहीं है । " श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यौन सम्बन्ध के लिए आकर्षण, अनावश्यक परिवर्तन, और गुरुभाइयों में आपसी लड़ाई ——ये सभी पच्छिम के 'रोग' हैं। कृष्णभावनामृत पूर्णता प्राप्त करने का मार्ग है और यदि उनके शिष्य आग्रहपूर्वक और निष्ठापूर्वक उस मार्ग पर चलते रहें, तो वे निश्चय ही सफल होंगे। किन्तु कभी-कभी प्रभुपाद ने देखा कि पच्छिमी रोग उनके शिष्यों को विजित कर देते थे और जी. बी. सी. के सदस्य भी इसे रोक नहीं पाते थे। तो भी, यदि वे प्रभुपाद को ऐसी परेशानियों से नहीं बचा पाएँगे तो प्रभुपाद उच्चतर कार्य कैसे कर पाएँगे? उन्होंने कहा, “जी. बी. सी. इस प्रकार व्यवस्था देखे कि किसी शिकायत का मौका न आए, ताकि मैं अनुवाद करने की फुरसत पा सकूँ ।" इस सिद्धान्त की व्याख्या उन्होंने श्रीमद्भागवत के चौथे स्कन्ध में की थी, गुरु जब शिष्य बड़े हो जायँ और उपदेश देने योग्य बन जायँ तब आध्यात्मिक को अवकाश लेकर किसी एकान्त स्थान में बैठ कर लिखना चाहिए और निर्जन - भजन करना चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि एकान्त स्थान में मौन बैठ कर भक्ति - साधना करनी चाहिए । अब कृष्णभावनामृत संघ के भक्त संसार के विभिन्न भागों में उपदेशकों के रूप में सेवा कर रहे हैं। अब वे अपने आध्यात्मिक गुरु को सक्रिय उपदेश के कार्य से अवकाश लेने दे सकते हैं। अपने आध्यात्मिक गुरु के जीवन के अंतिम चरण में उनके शिष्यों को चाहिए कि उपदेश का कार्य अपने हाथों में ले लें। लेकिन यह हवा को नियंत्रण में लाने के समान था । जब भी कठिनाइयाँ बढ़ जाती थीं तो वे उनके पास वैसे ही दौड़ते थे जैसे बच्चे भाग कर अपने पिता के पास जाते हैं। कभी- कभी कोई शिष्य उनसे पुस्तकें लिखने को कहता और उसी के साथ उनके सामने कोई विषम समस्या उपस्थित कर देता । अमेरिका के एक प्रमुख भक्त ने उन्हें रिपोर्ट की कि कुछ भक्त नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं, किन्तु प्रभुपाद कृपया भारत में ही रहें और शान्त रह कर पुस्तकें लिखते रहें। प्रभुपाद ने उत्तर लिखा, यदि पुरानी आदतें लौट आती हैं तो हर चीज समाप्त हो जायगी। यदि मेरा मन इस तरह क्षुब्ध होता रहेगा तो मैं पुस्तकें कैसे लिख सकता हूँ ? यह संभव नहीं है। अच्छा होगा कि आप मुझे किसी बात की सूचना न दें और मुझे वृंदावन में रहने दें। कभी - कभी श्रील प्रभुपाद "मुझे वृंदावन में रहने दो” शब्दों को इस तरह बोलते थे मानो वे समस्याग्रस्त पूरे संघ का प्रबन्ध त्याग रहे हैं। हर एक जानता था कि वे इस्कान को कभी नहीं छोड़ेंगे, वे कृष्णभावनामृत-आंदोलन के नेतृत्व द्वारा संसार को बचाने के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर चुके थे । किन्तु उनके शिष्य वयस्क कब बनेंगे ? श्रील प्रभुपाद ने लिखा, "मैं चाहता हूँ कि जी. बी. सी. प्रबन्ध के कार्य से मुझे पूरी तरह राहत दे दे, जिसका तात्पर्य यह है कि उन्हें वैसा ही प्रबन्ध करना होगा जैसा मैं करता हूँ।” और वे प्राय: कहते थे, " वैसा ही करो, जैसा मैं कह रहा हूँ ।" जब स्वयं जी. बी. सी. सचिवों के मध्य विवाद और असहमतियाँ उत्पन्न हो जातीं तो प्रभुपाद उन्हें जी. बी. सी. कमेटी को भेज देते थे । मैंने जी. बी. सी. की नियुक्ति मामलों के शान्तिपूर्ण प्रबन्ध के लिए की थी, किन्तु अब आप अपने में ही अशान्ति पैदा कर रहे हैं । तो मैं शान्त रह कर अपने अनुवाद कार्य में कैसे लग सकता हूँ ? इसलिए इन सब बातों को इस समय स्थगित रखना चाहिए और जब हम मायापुर में मिलेंगे तो पूरे जी. बी. सी. में हम इन पर विचार-विनिमय करेंगे। आध्यात्मिक आकाश का प्रश्न और इस तरह के सभी प्रश्नों को इन्तजार करना होगा, जब तक कि हम मायापुर में इन पर विचार नहीं करते । श्रील प्रभुपाद जी. बी. सी. को इस्कान के सभी मामलों को तय करने के लिए जिम्मेदार मानते रहे। वे चाहते थे कि उनके सभी शिष्य जी. बी. सी. को, अच्छा हो या बुरा, अपना अधिकारी मानें और उनका विश्वास था कि जब जी. बी. सी. के सभी सदस्य उनके निर्देशन में मिल-जुलकर बैठेंगे तो वे सभी समस्याओं का हल पा लेंगे। किन्तु इस बात में बराबर संदेह था कि वे वस्तुतः प्रभुपाद को अवकाश लेने देंगे ताकि वे शान्तिपूर्वक पुस्तकें लिख सकें । १९७५ ई. में इस्कान के कुछ सदस्यों के बीच, जिसमें जी. बी. सी. के भी कुछ सदस्य सम्मिलित थे, यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि क्या विवाहित गृहस्थ पुरुष भक्त भी इस्कान में वस्तुतः आध्यात्मिक गुरु बन सकते हैं। यद्यपि कृष्णभावनामृत के दर्शन में स्पष्ट कहा गया है कि कोई भी भक्त, वह चाहे किसी भी आश्रम का हो, योग्य और पवित्र हो सकता है, फिर भी विवाद चलता रहा। सितम्बर में एक संन्यासी जी. बी. सी. सदस्य प्रभुपाद को केवल यह बताने के लिए संयुक्त राज्य से वायुयान द्वारा वृंदावन पहुँचा कि कोई एक अन्य जी. बी. सी. सदस्य, गृहस्थ होने के कारण, गुरु बनने योग्य नहीं था । किन्तु श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यह मामला जी. बी. सी. की वार्षिक बैठक में तय किया जा सकता है । किन्तु जब दूसरे दिन रामेश्वर का एक पत्र मिला जिसमें प्रार्थना की गई थी कि प्रभुपाद अपना अनुवाद - कार्य जारी रखें तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि वे तो अपना लिखने का कार्य करते रहने को तैयार थे, किन्तु जब एक सदस्य दस हजार मील की दूरी हवाई जहाज द्वारा तय करके केवल एक अन्य सदस्य के विरुद्ध शिकायत करने पहुँचता है तो “मैं क्या कर सकता हूँ ? " यदि आप सभी प्रमुख लोग आपस में मिल कर कार्य नहीं कर सकते तो अन्य लोग आप से सहयोग कैसे कर सकते हैं ? आपसी मतभेद हो सकते हैं। तब भी आपको सहयोग करना चाहिए, नहीं तो समस्याओं और निर्णयों से मेरे राहत पाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? तृतीय वार्षिक अन्तर्राष्ट्रीय उत्सव का समय निकट आ रहा था और विभिन्न असंतुष्ट दलों के बीच की चिरकालिक समस्याएँ जी. बी. सी. के न्यायालय में समाधान की प्रतीक्षा कर रही थीं। श्रील प्रभुपाद को मायापुर १७ जनवरी को पहुँचना था, जी.बी.सी. की बैठकों और भक्तों के एकत्र होने के लगभग दो मास पूर्व ही । संभवतः एक हजार भक्तों के सम्मिलित होने से आनन्दपूर्ण कीर्तनों, कक्षाओं और परिक्रमाओं के आयोजन किए गए थे। साथ ही समस्याएँ भी होनी थीं । प्रभुपाद ने स्पष्ट कर दिया था कि विवादों को हल करने का उपयुक्त ढंग उनके सम्बन्ध में गपशप करते रहना या आदेश के लिए उन पर दबाव डालना नहीं है, वरन् जी. बी. सी. का विश्वास प्राप्त करना है। प्रभुपाद स्वयं जी.बी.सी. के निर्णय को स्वीकार करने, या यदि आवश्यक हुआ, तो उसमें संशोधन करने को तैयार थे। इसलिए सच्चे भक्तों को भी उस निर्णय को मानने से हिचकना नहीं चाहिए । मायापुर की बैठक में हम जो कुछ भी निर्णय लेंगे, वह एक वर्ष तक प्रभावी रहेगा। इसलिए जो कुछ भी करना है वह जी. बी. सी. के बहुमत से होगा। जी. बी. सी. के निर्णय के बिना मैं कोई निर्णय नहीं देना चाहता। मेरी शिकायत केवल यह है कि मैंने जी. बी. सी. की नियुक्ति इसलिए की थी कि मुझे प्रबन्ध के कार्यों से राहत तिमिले । किन्तु इसके विपरीत, वाद-विवाद और प्रतिवाद मेरे पास आते रहते हैं। तो मेरा मन शान्त कैसे रह सकता है ? इसलिए सब से अच्छा यह होगा कि हम मायापुर की बैठक की प्रतीक्षा करें और वहाँ सब लोग मिल-जुलकर निर्णय करें कि क्या करना है। यदि कोई कमियाँ हैं तो उनके विषय में मायापुर में जी. बी. सी. की बैठक में विचार होगा । एक व्यक्ति सारे संसार की व्यवस्था कैसे देख सकता है ? जनवरी १७, १९७६ कलकत्ता से मायापुर जाते हुए प्रभुपाद एक अमराई में रुके और उन्होंने फल, वड़ा, मूंगफली और मिष्ठान्नों का अल्पाहार ग्रहण किया। मायापुर पहुँचने के पहले ही वे बंगाल के ग्रामांचल के शान्त वातावरण का आनन्द लेने लगे थे । शीघ्र ही वे मायापुर चन्द्रोदय मंदिर पहुँचने वाले थे, जो परम पिता परमात्मा की उपासना का उनका विशेष स्थल था । पचास से अधिक वयस्क भक्त और गुरुकुल के तीस छोटे युवा बंगाली बच्चे मुख्य द्वार पर श्रील प्रभुपाद की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रभुपाद ने हाल में ही प्रवेश द्वार के ऊपर बने विशाल गुम्बद का पहली बार अवलोकन किया । एक मोटी, बीस फुट की फूलमाला प्रवेश द्वार पर एक ओर से दूसरी ओर तक फैली थी और उसके सामने भवानंद स्वामी रेशम की छोटी गद्दी जिस पर एक कैंची रखी थी, लिए खड़े थे। कार से चमचमाती धूप में बाहर निकलते हुए प्रभुपाद ने कैंची ली और माला को काट दिया और इस प्रकार प्रवेश-द्वार का शुद्धीकरण किया। प्रभुपाद मुसकराए। प्रवेश द्वार के खुलने के साथ सब ने हर्ष - ध्वनि की । प्रभुपाद ने प्रवेश किया और भाव-विभोर करने वाले कीर्तन दल ने उनका अनुगमन किया । जब प्रभुपाद राधा-माधव मंदिर की ओर चले तो जहाँ भी वे दृष्टि डालते थे उन्हें प्रफुल्लित पुष्प दिखाई देते थे। मिट्टी के पात्रों से जलते हुए लोबान का महकता धुँआ उठ रहा था और दूसरी मंजिल पर खड़ी स्त्रियाँ आगन्तुक प्रभुपाद पर गुलाब के फूलों की पंखुड़ियाँ बरसा रही थीं। मुख्य भवन सुन्दर ढंग से अलंकृत था । नारंगी रंग के रेशमी छाते के नीचे चलते हुए, भक्तों और पवित्र नाम के उल्लासपूर्ण कीर्तन के बीच, प्रभुपाद राजसी और विजयी प्रतीत होते थे । मंदिर के अंदर, जहाँ छत से दर्जनों मालाएँ लटक रही थीं, प्रभुपाद राधा-माधव के स्वर्णिम विग्रहों के सामने गए और उन्हें साष्टांग प्रणाम निवेदन किया। उन्हें लगा कि वे वैकुण्ठ में थे। उन्होंने कहा कि भक्तों ने जैसी व्यवस्था की है उससे लगता है कि कृष्ण मुसकरा रहे हैं। उस दिन बाद में जब प्रभुपाद का सेवक हरिशौरी उनकी मालिश कर रहा था तब उसने सुझाव दिया कि अवकाश के लिए यह अच्छा स्थान होगा । ने उत्तर दिया, " या तो वृंदावन या मायापुर । अन्य कोई स्थान नहीं । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, यह निश्चित है । " तीसरे पहर प्रभुपाद ने मैदानों और भवनों का निरीक्षण किया। वे प्रसाद - कक्ष के बृहत् आकार से प्रसन्न थे, जिसमें बारह सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था थी। उन्होंने टिप्पणी की कि कक्ष का आकार उन्हें बम्बई रेल्वे स्टेशन की याद दिलाता था। किन्तु जब उन्होंने रसोई घर की सीढ़ियाँ गंदी देखीं तो उन्होंने इसकी कड़ी आलोचना की । एक भक्त ने बताया कि सीढ़ियाँ हमेशा साफ रहती थीं, किन्तु जो भक्त इन्हें साफ करता था वह उस समय जप करने में लगा था। प्रभुपाद ने कहा, “तुम जप में लगे हो, और यह तीन सौ सालों से साफ नहीं की गई है। पहले इसे साफ करो, तब जप करो। जप के बहाने वे केवल ऊँघ रहे हैं।” उन्होंने कहा कि जो कोई भी तमोगुण से प्रभावित कोई चीज देखता है और उसे ठीक नहीं करता, तो वह स्वयं तमोगुण से प्रभावित हो रहा है। प्रभुपाद जलांगी के तट तक उस नाव को देखने गए जो भक्तगण गाँव-गाँव जाने के लिए प्रयोग करते थे। नाव पर सवार होकर उन्होंने यात्रा और प्रचार के सरल जीवन की प्रशंसा की। वे गायों और बछड़ों को देखने गोशाला में भी गए और उन्होंने इस्कान के खेत में पैदा होने वाले उस वर्ष के पहले गन्ने के रस का प्याला पिया । जब प्रभुपाद मैदानों से होते हुए प्रस्तावित मायापुर नगर स्थल की ओर जा रहे थे तो सुरभि ने बताया कि विभिन्न भवन कहाँ स्थित होंगे। प्रभुपाद ने सुझाव दिया कि उन्हें अपनी योजना पश्चिम बंगाल की सरकार के सामने प्रस्तुत . करके उसके लिए आवश्यक भूमि की माँग करनी चाहिए । श्रील प्रभुपाद मायापुर नगर के विषय में चिन्तन करते रहे और कुछ दिन बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल सरकार के मुख्य सचिव को भूमि प्राप्त करने में सहायता देने की प्रार्थना करते हुए एक पत्र लिखा। उन्होंने मुख्य सचिव को सूचित किया कि इस्कान को एक साम्प्रदायिक धार्मिक संगठन समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। भगवद्गीता में कृष्ण का “हम शरीर मात्र नहीं है" से आरंभ होने वाला उपदेश वैज्ञानिक है और इसलिए उसका सम्बन्ध किसी धर्म - विशेष से नहीं है। प्रभुपाद ने जोर देकर यह भी कहा कि इस्कान का कार्यक्रम, विशेषकर मायापुर के लिए सोचा गया कार्यक्रम, आध्यात्मिक शिक्षा द्वारा सभी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान करेगा। उन्होंने योजना की ऐसी विशेषताओं का वर्णन किया जो मुख्य सचिव को खासतौर पर अच्छी लगने वाली थीं, जैसे परियोजना में विदेशी धन का निवेश, मायापुर आने वाले पर्यटकों की बाढ़, निर्माण और नगर के रख-रखाव के लिए हजारों स्थानीय कर्मिकों को रोजगार । परियोजना का उनका वर्णन चित्ताकर्षक था । सांस्कृतिक प्रदर्शनी भवन के इर्द-गिर्द, समग्र ग्राम का सामुदायिक विकास उद्घाटित होगा । यह केन्द्रीय सांस्कृतिक प्रदर्शनी भवन कई स्तरीय योजना का पहला स्तर होगा । इसमें संसार का सबसे बड़ा तारा मण्डल - घर होगा, जिसका नाम होगा "बोध - मंदिर " । यह भवन तीस से भी अधिक मंजिलों वाला होगा और उसमें ऐसी प्रदर्शनियाँ होंगी जो ब्रह्माण्ड के सभी स्तरों और जीवन- दशाओं, सभी ग्रह - मण्डलों की ठीक स्थितियों का चित्रण, प्रकाशों, प्रतिमानों, डायोरम मूर्तियों और भित्ति चित्रों द्वारा करेंगी । जनता के लिए भी प्रतिदिन प्रदर्शनियों और पर्यटन का आयोजन होगा और ऐसे सचल सोपान होंगे जो लोगों को प्रदर्शनी - भवन की ऊपरी मंजिलों तक ले जायँगे। तारा मण्डल - घर में इस संसार और इसके परे के जीवन के विविध स्तरों को प्रदर्शित करने वाली जो वस्तुएँ दिखाई जायँगी उनका आधार वैदिक साहित्य होगा, विशेष कर श्रीमद्भागवत । यह "बोध मंदिर" सुंदर मार्गों, प्रवेश-द्वारों, वाटिकाओं और जलाशयों से घिरा होगा । उसकी परिधि की चारों ओर, एक हजार फुट लम्बे चार मंजिले चार भवन होंगे। उनका इस्तेमाल प्रारंभिक कक्षा से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक की सामान्य और विशेष शिक्षा देने के लिए किया जायगा । पत्र में श्रील प्रभुपाद ने इस्कान परियोजनाओं के लिए जमीन खरीदने में कठिनाइयों का उल्लेख किया, क्योंकि सभी स्थानीय भूस्वामी प्रचलित बाजार दर से अपनी कीमतें बहुत बढ़ा कर बता रहे थे । यदि सरकार बाजार दर पर जमीन उपलब्ध करा दे तो इस्कान अपना जरूरी काम तुरन्त शुरू करा देगा और विधिवत् उद्घाटन भी भगवान् चैतन्य महाप्रभु के वार्षिक जन्मोत्सव पर मार्च १६, १९७६ को सम्पन्न हो जायगा । इस बीच प्रभुपाद स्वयं अपनी ओर से भी काम आरंभ करने के लिए पर्याप्त जमीन प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे । मायापुर नगर परियोजना के लिए विशाल धन - राशि की जरूरत थी और उसको पूरा विकसित करने में कई वर्ष का समय लगना था। किन्तु प्रभुपाद का विश्वास था कि पूरी होने पर, वह भगवान् चैतन्य की महिमा का उद्घोष करेगी और उसकी संभावनाएँ अपरिमित होंगी । मायापुर । विख्यात हो जायगा और संसार भर के लोग वहाँ कालातीत वैदिक ज्ञान का अनुपम, आधुनिक व्यावहारिक रूप देखने को आकृष्ट होंगे। प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को समझाया कि यद्यपि कोई संन्यासी परम्परा से अपने को धन के मामलों में नहीं उलझाता, किन्तु भक्तों की इच्छा लक्ष्मी और नारायण को एक करने की है। उन्होंने कहा कि इस कहावत में सच्चाई है कि “गरीब की कोई नहीं सुनता।" और यदि वे विज्ञापन करें कि ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी मायापुर के एक रिक्त मैदान में उपदेश देंगे तो उनको सुनने कोई नहीं आएगा। विशेषकर पाश्चात्यों को एक सुविधाजनक आकर्षक स्थान में बैठ कर कृष्ण ' के विषय में सुनने का सुभीता होना चाहिए। इसलिए प्रभुपाद ने योजना बनाई कि इस्कान के दिव्य नगर में आने वाले अतिथियों को अच्छी तरह टिकाना चाहिए। धीरे-धीरे सारा संसार कृष्णभावनामृत के कलात्मक, दार्शनिक और मानवीय आयामों के उर्जस्वित प्रदर्शन से गहराई से प्रभावित होकर रहेगा । प्रभुपाद ने सुरभि से मायापुर नगर का एक मास्टर प्लान ( विस्तृत योजना) तैयार करने को कहा। रात भर जग कर सुरभि ने एक प्रारंभिक वास्तुशिल्पीय खाका तैयार किया जिसमें ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के अलग-अलग विशेष क्षेत्र प्रदर्शित किए। खाके में मंदिर, स्कूल, सड़कें, पगडंडियाँ, आवासीय भवन, कुटीर, स्टेडियम, हवाई पट्टी आदि सभी दिखाए गए थे। इसके अतिरिक्त आत्म-निर्भरता - सूचक पवन चक्की, नहरें, खेत आदि भी प्रदर्शित थे । जब सुरभि प्रभुपाद के पास नक्शा लेकर आया उस समय वे मालिश करा रहे थे। उनका सुनहरा शरीर सरसों के तेल से चमक रहा था जबकि हरिशौरी सावधानीपूर्वक जोर से उनके सिर, पीठ, छाती और बाहों की मालिश कर रहा था। प्रभुपाद आराम की मुद्रा में थे और मौन थे; उनके नेत्र चिन्तन में बंद थे । किन्तु जब सुरभि मायापुर का नक्शा लेकर प्रविष्ट हुआ तो वे सचेत हो गए। प्रभुपाद ने नक्शा पसन्द किया और वे उसके बारे में एक घंटा बात करते रहे । अब सुरभि को विधिवत् नक्शा बनाकर उसे व्यावसायिक वास्तुशिल्पियों और उपयुक्त सरकारी विभागों के पास ले जाना चाहिए। मायापुर आने वाले भक्तों को भी इसे देख लेना चाहिए। पौराणिक कथाओं से संबंधित और सुदूर - गामी सुदूर-गामी प्रभाव वाला मायापुर नगर यथार्थ रूप लेने जा रहा था । ज्यों-ज्यों उत्सव निकट आ रहा था, कुछ संन्यासी पहुँचने लगे थे, इस आशा में कि भक्तों की बाढ़ आने के पहले, वे श्रील प्रभुपाद से अधिक आत्मीय संसर्ग बना सकें। संन्यासियों के बीच विचार-विमर्श का एक सबसे बड़ा मुद्दा इस्कान में गृहस्थों की भूमिका से सम्बन्धित विवाद तथा स्त्रियों और बच्चों का संन्यासियों और ब्रह्मचारियों पर पड़ने वाला प्रभाव था । कुछ संन्यासियों का सुझाव था कि इस्कान की संरचना ऐसी होनी चाहिए जिससे गृहस्थों से संन्यासियों और प्रचारकों को अलग रखा जा सके। वे अपने विचार श्रील प्रभुपाद के सम्मुख रखने लगे। तब प्रभुपाद ने उनका मार्गदर्शन किया। एक दिन सवेरे के भ्रमण में जयपताक स्वामी ने पूछा कि किसी व्यक्ति को संन्यास ग्रहण करने के लिए क्या मानदण्ड प्राप्त करना चाहिए । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "संन्यासी बनने के लिए उसके पहले के तीन आश्रम हैं— पहले ब्रह्मचारी बने, फिर गृहस्थ बने, उसके बाद वानप्रस्थ हो । एक के बाद दूसरा । किन्तु यदि कोई योग्य है तो वह सीधे संन्यास ले सकता है। और वह योग्यता भी बहुत सरल है। यदि आप पूर्ण कृष्ण चेतन हो जायँ तो आप में योग्यता तत्काल आ जायगी — ब्रह्मभूयाय कल्पते । ज्योंही आप कृष्णभावनामृत में अपने को पूरी तरह तल्लीन कर लेते हैं, आप संन्यासी से अधिक हो जाते हैं।" हरिशौरी ने, जो एक गृहस्थ था, पूछा कि क्या कृत्रिम रूप से संन्यास आश्रम स्वीकार करना वस्तुतः एक अन्य प्रकार के इन्द्रिय- भोग में लिप्त होना है । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “ ज्योंही हम किसी चीज का निर्माण करते हैं, वह कार्य इन्द्रियतृप्ति हो जाता है। जब हम सोचते हैं, "मैं अपनी इच्छा की पूर्ति करना चाहता हूँ, बस” तो वह इन्द्रियतृप्ति है। हम चाहे किसी वृक्ष के नीचे बैठें अथवा किसी महल में, मूल सिद्धान्त इन्द्रियतृप्ति है। पिछले दिन मैं हीरा - चोर और खीरा - चोर की बात कर रहा था । एक सोचता है कि मैं एक ककड़ी चुराऊँगा; दूसरा सोचता है कि यदि मैं चोरी करूँगा तो एक हीरे की चोरी करूँगा । किन्तु चोरी की प्रवृत्ति दोनों में है। कोई सोच सकता है कि मैं तो केवल एक ककड़ी चुरा रहा हूँ, यह उतना आपत्तिजनक नहीं है। किन्तु कानून की निगाह में दोनों अपराधी हैं। इसलिए यदि हम कल्पना करें— 'हाँ, मुझ में चोरी की प्रवृत्ति है, किन्तु मैं हीरा नहीं चुराऊँगा, खीरा चुराऊँगा', तो यह केवल मानसिक छल है। चोर तो मैं हूँ ही ।" जयपताक स्वामी : " तो क्या कृष्णभावनामृत में गृहस्थ जीवन में खीरा - चोर होने की अनुमति है ?” प्रभुपाद : “हाँ, खीरा चोर । वेश्याओं के पीछे भागने वाला हीरा - चोर है, और गृहस्थ खीरा - चोर है। बस ।” हरिशौरी ने फिर पूछा कि क्या कृत्रिम संन्यास एक प्रकार का इन्द्रिय-भोग है। शिष्यों में मत भिन्न-भिन्न थे और वे चाहते थे कि प्रभुपाद इस बात को स्पष्ट कर दें, ताकि कोई एकदल प्रभुपाद का कोई उद्धरण देते हुए यह दावा न करे कि वही विश्वजनीन है। ने कहा, " संन्यास या त्याग कृत्रिम नहीं है। यह एक प्रक्रिया है । प्रभुपाद हमें इन्द्रिय-भोग का त्याग करना है। इसलिए एक प्रक्रिया अपनानी पड़ेगी । जैसे किसी स्वास्थ्य-क्लब में होता है— वहाँ कृत्रिम तैराकी भी होती है, क्या नहीं होती ? कृत्रिम तैराकी वास्तविक तैराकी नहीं है। किन्तु वह अभ्यास के लिए होती है। दयानंद : " किन्तु कभी - कभी लोग त्याग करके बड़े अहंकारी हो जाते हैं। यह क्या है ?" प्रभुपाद अपना उत्तर जारी रखते हुए कहते गए कि त्याग का वस्तुतः अभ्यास करना पड़ता है। उन्होंने कहा, “प्रत्येक को मंगल आरती में उपस्थित होना चाहिए। यह अनिवार्य है, नहीं तो प्रसाद नहीं मिलेगा। यदि आप बीमार हैं तो फिर खाना भी नहीं चाहिए। मंगल आरती के समय सोना नहीं चाहिए, क्योंकि कोई कहता है कि वह बीमार है, पर प्रसाद ग्रहण करने के समय वह पेटू की तरह खाता है । " यदि भक्तों की यह इच्छा थी कि प्रभुपाद गृहस्थ और संन्यासी में भेद निरपेक्ष रूप से स्पष्ट कर दें तो वह नहीं हुआ । प्रत्युत उन्होंने प्रत्येक भक्त के लिए अपेक्षित गुण और अभ्यास पर बल दिया । एक अन्य दिन सवेरे के भ्रमण में हृदयानंद गोस्वामी ने संन्यासियों में चलने वाले विवाद की चर्चा की । हृदयानन्द गोस्वामी : "हम सोचते हैं कि यह अच्छा होगा कि नगर के केन्द्र उपदेशकों के लिए रखे जायँ और स्त्रियों और बच्चों को कृषि फार्मों पर रखना अधिक आसान होगा। वहाँ वे कुछ काम कर सकते हैं और अपने लिए भोजन पैदा कर सकते हैं । ' प्रभुपाद : "हां, फार्म पर वे रह सकते हैं और कुछ हाथ का काम कर सकते हैं।' गुरुकृपा स्वामी : " यद्यपि वे ऐसा करेंगे नहीं, श्रील प्रभुपाद । " प्रभुपाद : “तब उन्हें वहाँ न रहने दिया जाय। यदि वे नियमों का पालन नहीं करते, तो लाभ ही क्या ?" एक अन्य संन्यासी ने कहा कि जब बहुत सारे गृहस्थ बड़े-बड़े सामुदायिक केन्द्रों में इकट्ठे हो जाते हैं तो आलस्य का वातावरण पैदा हो जाता है, किन्तु जब बहुत-से ब्रह्मचारी एकसाथ उपदेश - कार्य करते हैं तो उनमें अधिक गतिशीलता होती है। प्रभुपाद : “जो भी हो, प्रत्येक को व्यस्त होना चाहिए। बस । बेकार जीवन ठीक नहीं। आलस्य को कभी बढ़ने मत दो। यदि हम अपने बीच कोई आलसी पुरुष रखते हैं तो हर चीज बर्बाद हो जायगी । ' भक्त : “श्रील प्रभुपाद, मैंने सुना है कि आप कहते हैं कि हमारा संघ प्रेम-लीला में मग्न रहने वाला संघ नहीं है । किन्तु प्रेमाचार तो चल रहा है। " अपने दो शिष्यों के अनुचित करतबों की ओर निर्देश करते हुए, प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, मैने वृंदावन में देखा है । " अन्य शिकायतें भी सामने आईं। एक प्रमुख व्यक्ति ने कहा कि मंदिर को ऐसी स्त्रियों और उनके बच्चों के पालन-पोषण का भार नहीं दिया जाना चाहिए जिनके पति न हों। एक अन्य शिकायत यह थी कि ब्रह्मचारीगण पुस्तकें बेच कर वस्तुतः गृहस्थों को पाल रहे हैं। प्रभुपाद दार्शनिक और व्यावहारिक ढंग से उत्तर देते रहे कि जो भी कमियाँ सामने आएँ उन्हें ठीक करना चाहिए । इन्द्रियासक्ति, आलस्य और मंदिर के कार्यक्रमों से अनुपस्थिति को सहन नहीं करना चाहिए । किन्तु भक्ति में इस प्रकार की कमियों की निन्दा का सम्बन्ध किसी विशेष दल से नहीं था । मायापुर में पहुँचने के कुछ समय बाद ही, प्रभुपाद ने अपने एक पत्र में भी इस तरह के मामले पर चर्चा की थी । एक मि. चैटर्जी ने कलकत्ता से लिखा था कि वे भगवान् चैतन्य की भक्ति का उपदेश कर रहे थे और वे अपने लिखे कुछ लेख श्रील प्रभुपाद को दिखाने को उत्सुक थे। मि. चैटर्जी ने लिखा था, "मेरा प्रतिपाद्य यह है कि हम संन्यास ग्रहण करके अपने भगवान्, गौरांग, को प्रत्यक्ष देख सकते हैं। जो गृहस्थ हैं वे परमात्मा तक नाम संकीर्तन करके पहुँचते हैं।” श्रील प्रभुपाद ने अपने उत्तर से पत्र लेखक को प्रोत्साहित किया, आपका विषय ठीक है । भगवान् चैतन्य के बहुत से भक्त गृहस्थ रहे हैं, जैसे अद्वैत आचार्य या यहाँ तक कि भगवान् नित्यानंद भी । भगवान् चैतन्य ने अपना गृहस्थ जीवन छोड़ दिया था। मुख्य बात कृष्ण को समझने की है— वास्तविक योग्यता यही है कि कोई कृष्ण को कितनी अच्छी तरह जानता है, चाहे वह गृहस्थ हो, या संन्यासी हो । श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने गाया है: “गृहे वा वने ता थाके, हे गौरांग बोले डाके” – “इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कोई घर में रहता है या वन में, जब तक वह भगवान् चैतन्य के नाम का कीर्तन करता है, वह वैष्णव है।" भगवान् चैतन्य ने कहा है, "किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय, एई कृष्ण तत्त्व वेत्ता, सेई गुरु हय । —— चाहे कोई बाह्मण हो, संन्यासी हो, अथवा शूद्र हो वह यदि कृष्णवेत्ता है तो आध्यात्मिक गुरु बन सकता है।' ( चैतन्य - चरितामृत ८. १२८ ) ” इसलिए आप आइए और हम आपके लेखों पर विचार-विमर्श करेंगे। अपने कमरे में आराम से बैठे हुए, श्रील प्रभुपाद अपने अस्थायी सचिव, दयानन्द, से हाल में प्राप्त कुछ पत्र पढ़वा कर सुन रहे थे। एक पत्र एक मंदिर के अध्यक्ष का था जिसमें उन्होंने भक्तों को नियंत्रण में रखने की कठिनाइयों का वर्णन किया था। प्रभुपाद ने दयानन्द से पत्र का सारांश करवाया । दयानन्द ने कहा, " वे कहते हैं कि भक्तों का व्यवहार ठीक नहीं और जब वे आलोचना करते हैं तो भक्त उनकी आलोचना को स्वीकार नहीं करते । ' ने कहा, "केवल आलोचना करना ही हमारा तरीका नहीं है। हमें प्रभुपाद अपने आचरण से दिखाना होगा ।" दयानन्द ने प्रभुपाद द्वारा उत्तर में लिखे जाने । वाले पत्र में टाइप करने के लिए इस बिन्दु को नोट कर लिया । दयानन्द ने जारी रखा, “श्रील प्रभुपाद, अब वे अपने गृहस्थ जीवन के बारे में पूछ रहे हैं। " प्रभुपाद बोले, "यह गुरु का काम नहीं है कि बताए कि यौन-सम्बन्ध और पारिवारिक जीवन को कैसे समुन्नत किया जाय। पश्चिम के ये पुरुष और स्त्रियाँ सुखी नहीं हैं। वे विवाह करते हैं, पर सुखी नहीं हैं। इसलिए मेरी संस्तुति है कि वे ब्रह्मचर्य और संन्यास का जीवन स्वीकार करें ।' प्रभुपाद के साथ कमरे में और भी अनेक शिष्य थे और उनमें से एक ब्रह्मचारी जगद्गुरु, बोल उठा, “क्योंकि उन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है, इसलिए उनके सामने इतनी समस्याएँ हैं । ' प्रभुपाद ने कहा: “जो भी हो, किन्तु वे सुखी नहीं हैं, इसलिए मैं ब्रह्मचर्य और संन्यास के जीवन की संस्तुति करता हूँ ।" उससे प्रभुपाद ने वृंदावन में पति-पत्नी के जीवन में जो शैथिल्य देखा था, वे पहले से ही क्षुब्ध थे। अब एक गृहस्थ का यह पत्र सुन कर जो अपने गृहस्थ जीवन के बारे में अनुचित रूप से पूछ रहा था, उनका ध्यान फिर वृन्दावन पर गया और उन्होंने वृन्दावन के जी. बी. सी. सदस्य, गोपाल कृष्ण, को जो अभी हाल में मायापुर पहुँचे थे, बुलवाया। गोपाल कृष्ण के कमरे में प्रवेश करने के पूर्व ही प्रभुपाद ने कहना आरंभ कर दिया, “यह प्रेमाचार के लिए कोई निःशुल्क होटल नहीं है। वृंदावन कोई मजाक का स्थान नहीं है। कृष्ण के प्रति उन्हें गंभीर बनना है और मैं हर चीज की व्यवस्था करूँगा। धन की चिन्ता न करें, किन्तु व्यवस्था ठीक रखें। धन का अभाव नहीं है। अभाव व्यवस्था का है। मंदिर में इतने अधिक बच्चे क्यों हैं ? यह केवल पतिविहीन स्त्रियों का स्थान नहीं है। बच्चों को हमेशा व्यस्त रखना चाहिए, जिससे वे सब जगह उत्पात करते न घूमें। ' श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यदि माताएं गैरजिम्मेदारी का व्यवहार करती हैं और केवल अपने बच्चों की ही देखभाल करना चाहती हैं तो उन्हें वृंदावन से हटा देना चाहिए। दो स्त्रियाँ मिलकर एक नर्सरी चला सकती हैं और अनेक बच्चों की देखभाल कर सकती हैं और अन्य स्त्रियाँ अन्य काम कर सकती हैं। प्रभुपाद ने कहा, “ छत पर जाकर केवल प्रेम-लीला नहीं करनी है। और फिर योजना बनाकर चम्पत हो जाना ठीक नहीं।” उन्होंने इस बात पर बल दिया कि चूँकि समस्त भारत के लोग वृंदावन आते हैं, इसलिए इस्कान केन्द्र को सभी तरह से आदर्श होना चाहिए। नहीं तो लोग समझेंगे कि प्रभुपाद के शिष्य केवल हिप्पी हैं और कोई भी हमारे यहाँ नहीं आएगा। बच्चों की देखभाल का एक अच्छा उदाहरण मायापुर है जहाँ एक गुरुकुल की स्थापना हो चुकी है। प्रभुपाद ने कहा, “बच्चों का स्वागत है । लेकिन उन्हें रत्न बनाइए, उन्हें बर्बाद करके वर्ण संकर हिप्पी मत बनाइए । गैरजिम्मेदार गृहस्थ जीवन के विषय में प्रभुपाद के इन बोझिल शब्दों से मायापुर में एकत्र संन्यासियों के आपसी तर्क-वितर्कों में और भी गरमाहट आ गई। उनमें से कुछ को लगा कि गृहस्थों को मंदिरों में रहना नहीं चाहिए । उस शाम को जब अनेक संन्यासी प्रभुपाद के कमरे में एकत्र हुए तो उन्होंने इस्कान में परिवारों और बच्चों की स्थिति के सम्बन्ध में उनसे विचार-विनिमय किया । एक संन्यासी ने उल्लेख किया कि उसे कुछ मंदिरों में उपदेश नहीं करने दिया जा रहा था, क्योंकि वह विवाह के विरुद्ध था और ब्रह्मचारी जीवन पसंद करता था। दूसरों ने शिकायत की कि महंगी जायदादें आवासों के रूप में प्रयुक्त करने के लिए खरीदी जा रही थीं । उपदेश - कार्य ठप्प हो रहा था, उन्होंने कहा, और ब्रह्मचारियों से कहा जा रहा था कि यदि वे कामातुर अनुभव करते हों तो उन्हें विवाह कर लेना चाहिए । प्रभुपाद ने इस बात को अनुभव किया कि संन्यासियों के प्रतिवाद में भारी बल था और उन्हें विभिन्न आश्रमों के बीच वैर भाव का भी आभास हुआ । उन्होंने कहा कि इन बातों का निर्णय जी. बी. सी. को करना चाहिए और उनके निर्णयों के विरुद्ध आचरण किसी को नहीं करना चाहिए। किन्तु संन्यासीगण जो कुछ कह रहे थे उसके प्रति भी उन्होंने अपनी सहानुभूति प्रकट की। उन्होंने सुझाव दिया कि परिवारों को कृषि फार्मों पर रह कर सेवा करनी चाहिए और वहाँ वे कृष्णभावनामृत में आत्म-निर्भर होकर रह सकते हैं। प्रभुपाद ने कहा, “हमारा उपदेश का पूरा कार्यक्रम भौतिक जीवन से अनासक्ति पर आधारित है— उसमें यौन-सम्बन्धों को एकदम बंद कर देना है। गृहस्थ जीवन एक तरह से उन लोगों को एक रियायत है, जो इसे तुरन्त बंद नहीं कर सकते । नहीं तो विवाह की आवश्यकता नहीं है। यह केवल एक भार है। यौन-सम्बन्ध, वैध हो अथवा अवैध, अंत में कठिनाई का कारण बनता है । " मार्च ७ जी. बी. सी. सदस्यों की बैठक हुई। प्रक्रिया यह अपनाई गई थी कि कार्य - सूची बनाई जाय, हर प्रकरण पर विचार-विनिमय हो और तब मतदान द्वारा प्रस्ताव पारित किए जायँ । दिन के अंत में सब लोग श्रील प्रभुपाद के कमरे में उनके पास जाएंगे और दिन-भर के प्रस्ताव उनके अनुमोदन या संशोधन के लिए पढ़ कर सुनाए जाएंगे। पहले दिन का अधिकांश समय प्रत्येक जी. बी. सी. सदस्य का क्षेत्र और उनके कर्त्तव्य निर्धारित करने में लगा । इसका विवरण प्रभुपाद को सुनाया गया और उन्होंने उसका अनुमोदन किया । प्रभुपाद ने गृहस्थ और संन्यास जीवन पर भी लोगों को सम्बोधित किया और कहा कि सभी भक्तों को कृष्ण के परिवार से सम्बद्ध होना चाहिए, 'मलमूत्र वाले परिवार' या 'शूकर- शूकरी जैसे परिवार' से नहीं । संन्यास जीवन का तात्पर्य झूठे परिवार का त्याग है, किन्तु कृष्णभावनामृत वाले परिवार का नहीं । प्रभुपाद ने कहा कृष्णभावनामृत समाज त्याग पर आधारित है और इसलिए सभी निष्ठावान् भक्त उतने ही अच्छे हैं जितने संन्यासी । परिधान से वस्तुतः कोई अंतर नहीं सामान्यतया गृहस्थ श्वेत वस्त्र पहनते हैं, ब्रह्मचारी और संन्यासी गेरुआ वस्त्र पहनते हैं। पड़ता, चाहे वह श्वेत हो अथवा गेरुआ, यद्यपि एक आदर्श गृहस्थ को क्रमशः आगे बढ़ते हुए औपचारिक संन्यास आश्रम तक पहुँचना चाहिए। उन्होंने कहा कि उनके सभी शिष्यों को गुरु बनना चाहिए और प्रत्येक को हजारों शिष्य बनाने चाहिए, जैसा कि स्वयं उन्होंने किया था। इस प्रकार कृष्णभावनामृत का प्रचार सर्वत्र करना चाहिए । उन्होंने कहा, “जी. बी. सी. में विचार-विनिमय करो और कोई निर्णय लो। प्रश्न करो और मतदान कराओ। किन्तु यदि ब्रह्मचारी दल, गृहस्थ दल, संन्यासी दल- - इस तरह के दल बनाओगे तो सब समाप्त हो जायगा। हर चीज खुले रूप में करनी चाहिए। हमें कृष्ण के लिए कार्य करना है। यह फुसफुसाहट कैसी ? यह बहुत अच्छा नहीं है। अगले दिन जब सवेरे के भ्रमण में श्रील प्रभुपाद मायापुर के मैदानों का चक्कर लगा रहे थे तो जी. बी. सी. के उपाध्यक्ष, मधुद्विष स्वामी, ने उस दिन की जी. बी. सी. की बैठक की तैयारी के बारे में मार्गदर्शन मांगा। मधुद्विष : जिन विषयों पर आज जी. बी. सी. की बैठक में हम विचार करने जा रहे हैं, वे इस्कान के अंदर ब्रह्मचारियों, गृहस्थों और संन्यासियों की भूमिकाओं के बारे में हैं । भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय के अपने एक तात्पर्य में आप कहते हैं कि संन्यासी को किसी युवा को विवाह करने से कभी हतोत्साहित नहीं करना चाहिए। किन्तु दूसरी ओर हम समझते हैं कि संन्यासी को चाहिए कि वह युवा व्यक्ति को ब्रह्मचारी बना रहने के लिए प्रोत्साहित करे; तो मुझे लगता है कि यहाँ कोई परस्पर विरोध है । " । प्रभुपाद : " समय और परिस्थिति के अनुसार । जैसे कृष्ण कहते हैं— नियतम् कुरु कर्म त्वम् : अपने निर्धारित कर्म में सदैव लगे रहो। और अंत में कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज – सब निर्धारित कर्मों का त्याग करके मेरी शरण आओ । (श्रीमद्भगवद्गीता - १८.६६ ) तो अब आप समायोजन कीजिए । यहाँ कोई विरोध नहीं है, वरन् समय और परिस्थिति के अनुसार कहा गया है। । मधुद्विष: “किन्तु क्या कोई निष्कर्ष है ? " प्रभुपाद : “असल उद्देश्य है कि आपको कृष्ण का शाश्वत सेवक बनना है । आप चाहे कर्म से चलें, ज्ञान से चलें, अथवा योग से चलें, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अंतिम लक्ष्य कृष्ण तक पहुँचना है। अर्जुन ने कृष्ण की कृपा युद्ध करके और वध करके प्राप्त की थी। हरे कृष्ण । " प्रभुपाद आगे कुछ नहीं बोले। उन्होंने जी. बी. सी. की सृष्टि ठीक ऐसी ही समस्याओं के लिए की थी, और उन्होंने अपने जी. बी. सी. के लोगों को व्यक्तिगत रूप से, अपने पत्रों और पुस्तकों में निर्देश दे दिए थे। अब उन लोगों को इन निर्देशों का समय और स्थान के अनुसार प्रयोग करना था । दिन-भर बहस चलती रही और सन्ध्या तक जी. बी. सी. की बैठक हुई, इस्कान के अन्तर्गत आश्रमों के विभाजन पर प्रस्तावों की एक सूची तैयार के मंदिरों हो गई : बिना पति वाली स्त्रियाँ, जिनके बच्चे साथ हों, इस्कान में नहीं रह सकतीं। पति और पत्नी इस्कान के मन्दिरों में नहीं रह सकते चाहे वे अलग-अलग रहना चाहें। विवाह करने के पहले भक्तों के पास ऐसे साधन होने चाहिए कि वे अपना निर्वाह कर सकें और इस्कान के भरोसे रहने की आशा न रखें; विवाह के बाद एक गृहस्थ अपनी पत्नी के लिए वित्तीय दृष्टि से तब तक जिम्मेदार होगा, जब तक कि वह संन्यास नहीं ले लेता । प्रभुपाद के कमरे में जब प्रस्ताव पढ़ कर उन्हें सुनाए जाते थे तो सामान्यतः उनकी ओर से कोई शाब्दिक प्रतिक्रिया नहीं होती थी । समर्थन में उनकी आदत प्रायः सिर हिला देने की थी, कभी-कभी वे टिप्पणी भी कर देते थे । किन्तु जब उन्होंने इस प्रस्ताव को सुना कि बिना पति वाली स्त्रियाँ, जिनके बच्चे मुख हों, इस्कान के मंदिरों में नहीं रह सकतीं, तो उनके से एक विचारणीय 'हुम्म' निकला। तब उन्होंने कहा, “जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मेरी चिन्ता केवल यह है कि उनका मानव जीवन बेकार न जाय ।" वे संघ के आधिकारिक प्रधान के स्वर में नहीं बोल रहे थे जिसे प्रस्तावों को रद्द कर देने का अधिकार था, वरन् वे एक शुद्ध भक्त की अत्यन्त व्यक्तिगत, विनीत वाणी में बोल रहे थे। उन्होंने कहा “इतने संघर्ष के बाद उन्हें यह मानव जीवन प्राप्त हुआ और मैं नहीं चाहता कि वे यह अवसर खो बैठें। जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं स्त्री, पुरुष, बालक, धनी, निर्धन, शिक्षित, मूर्ख में कोई भेद नहीं करता । वे सभी आएँ और कृष्णभावनामृत को स्वीकार करें, जिससे उनका मानव जीवन नष्ट न हो । " यद्यपि जी.बी.सी. के लोगों के पास साधारणतया कहने को बहुत कुछ होता था, किन्तु प्रभुपाद के इन शब्दों के बाद वे मौन बने रहे। अंत में, तमाल कृष्ण गोस्वामी, जो अब उस वर्ष के लिए जी. बी. सी. के अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे, बोले, “हाँ, श्रील प्रभुपाद, तो हम उस प्रस्ताव को निकाल देंगे ।" प्रभुपाद ने उस प्रस्ताव को भी अस्वीकृत कर दिया जिसमें कहा गया था कि एक गृहस्थ को अपनी पत्नी की आर्थिक सहायता अपने शेष जीवन में तब तक करनी होगी जब तक कि वह संन्यास नहीं ले लेता । उन्होंने कहा, “आप में से प्रत्येक गुरु बने। जिस तरह मेरे पास पाँच या दस हजार शिष्य हैं, उसी तरह आप में से भी प्रत्येक दस हजार शिष्य बनाए । इस प्रकार चैतन्य - वृक्ष की शाखाएँ, उपशाखाएँ विकसित करें। किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से आपको मजबूत होना है। इसका तात्पर्य यह है कि आप माला की पूरी फेरियों का जप करें और चारों नियमों का पालन करें। यह कोई दिखावटी प्रदर्शन नहीं है। यह कोई भौतिक चीज नहीं है। कीर्तन करें और चारों नियमों का पालन करें और असहाय की भाँति कृष्ण से प्रार्थना करें। हम में उत्साह होना चाहिए। यदि हम उत्साह खो देंगे तो हर चीज में ढिलाई आ जायगी । मैं वृद्धावस्था में वृंदावन से बाहर निकला, मेरे पास धन नहीं था, कुछ नहीं था । किन्तु मैने कहा, "आओ, प्रयत्न करें।" भगवान् सहसा बोल पड़ा, "श्रील प्रभुपाद, अब भी आप में बहुत उत्साह है । " प्रभुपाद मुसकराए, “हाँ, मैं उत्साह रखता हूँ। मुझे नहीं लगता कि मैं एक वृद्ध व्यक्ति हूँ ।" भगवान् ने कहा, “हम तो कभी - कभी सोचते हैं कि हम वृद्ध हो गए हैं।" प्रभुपाद ने कहा, "वृद्ध कोई नहीं है। न हन्यते हन्यमाने शरीरे—शरीर के नष्ट होने के साथ आत्मा नष्ट नहीं होता । (गीता २.२० ) वृद्धावस्था में कभी-कभी लोग निरुत्साह हो जाते हैं । किन्तु मुझमें उत्साह है।' प्रभुपाद ने कहा कि वे अधिकतर प्रस्तावों से प्रसन्न थे, क्योंकि उनसे यह संकेत मिलता था कि एक मजबूत जी. बी. सी. अब उन्हें राहत देने को तैयार है ताकि वे अनुवाद - कार्य पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें। उन्होंने कहा कि भक्तों को कड़ाई से उन बातों का साल भर अनुगमन करना होगा जिन पर जी. बी. सी. में सहमति हुई थी। जब तक प्रभुपाद स्वीकार न करें तब तक कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए और अगली वार्षिक बैठक में लोग जैसा चाहें, आवश्यक परिवर्तन किए जा सकेंगे । तब जी. बी. सी. के अध्यक्ष ने बैठक के एक अनिर्णीत मामले पर मतदान की माँग की। इस मामले पर विचार हो चुका था, किन्तु चूँकि इसे स्वीकृत नहीं किया गया था, इसलिए मतदान की जरूरत थी। हर एक ने अपना दाहिना हाथ उठा कर 'हाँ' कहा। श्रील प्रभुपाद ने भी अपना दाहिना हाथ उठाया । उनके शिष्य उनके इस प्रिय व्यवहार पर तत्काल हँसने लगे । ने कहा, “हाँ, मैं केवल जी. बी. सी. का अनुसरण कर रहा हूँ । प्रभुपाद आप जो भी कहें, मुझे उसका अनुसरण करना है । ' जब मंदिरों के अध्यक्षों को जी. बी. सी. के प्रस्तावों के बारे में मालूम हुआ तो बहुतों ने आपत्ति की। उन्हें मालूम था कि प्रभुपाद ने उन्हें स्वीकृति दे दी है, किन्तु उन्होंने सोचा कि कुछ संन्यासी प्रस्तावों का जो वास्तविक अर्थ और अभिप्राय लगाएँगे और जिस तरह उनकी व्याख्या करेंगे, उससे संघ में फूट पड़ जायगी। अनेक मंदिरों के अध्यक्षों को, जो गृहस्थ थे, लगा कि उनके साथ भेद-भाव किया गया है। वे अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए मौका चाहते थे । प्रभुपाद को अध्यक्षों के असंतोष का पता था और अगले दिन सवेरे के भ्रमण में उन्होंने यह विषय उठाया। संन्यासियों, जी. बी. सी. के लोगों, मंदिरों के अध्यक्षों और अन्यों से घिरे हुए प्रभुपाद ने विषय के सभी पहलुओं को स्पष्ट किया। उनका प्रयत्न अपने आध्यात्मिक परिवार को सामंजस्य के सूत्र में बाँधना था । “मैंने सुना है कि गृहस्थों की बहुत अधिक आलोचना या निंदा से विक्षोभ उत्पन्न हो सकता है। हुम्म ?" “हाँ,” मधुद्विष ने स्वीकार किया । प्रभुपाद ने कहा, “ तो, मैं सोचता हूँ कि गृहस्थों को स्वयं एक छोटी-सी समिति गठित करनी चाहिए और बजाय इसके कि कोई चीज उन पर थोपी जाय, समिति को ही तय करना चाहिए कि उन्हें क्या करना है। क्योंकि इस युग में कोई भी कठोरता के साथ शास्त्रों में वर्णित प्रतिबन्धों का पालन नहीं कर सकता । " के तमाल कृष्ण को इस विचार पर आपत्ति थी कि गृहस्थ जी. बी. सी. प्रस्तावों में संशोधन करें। उनका तर्क था, “ अपने प्रस्तावों में हमने यह कहीं नहीं कहा है कि गृहस्थों को कैसे रहना चाहिए । प्रस्तावों में केवल यह कहा गया है कि हमारे संघ का संचालन किस तरह किया जाय। यह नहीं कहा गया है कि गृहस्थ कैसे रहें। और आपत्तिजनक बिन्दुओं को प्रभुपाद ने स्वयं ठीक कर दिया है। " प्रभुपाद ने आगे कहा, “मैं समझता हूँ कि इसे और भी निश्चित कर लेना चाहिए। तीन या चार गृहस्थों की एक छोटी-सी समिति बना दीजिए। तब आप निश्चय कर लें कि आपको कैसे रहना है । " विषय को बदलते हुए प्रभुपाद ने पूछा कि पण्डाल कब बन रहा है। आज पश्चिम के ३५० भक्त पहुँचने वाले हैं। पंडाल का मंच अब तक बन जाना चाहिए था । और नाटक आदि क्रियाकलाप शाम को आरंभ हो जायँगे। किन्तु गृहस्थ- संन्यासी विवाद में बुरी तरह उलझे हुए भक्तगण उस विवाद को और आगे बढ़ाने से अपने को रोक नहीं सके । विषय पर लौटते हुए पुष्ट कृष्ण स्वामी ने पूछा, "भोग - लिप्त जीवात्मा और संन्यस्त जीवात्मा में क्या अंतर है ? " प्रभुपाद ने पूछा, "हुम्म ?" यद्यपि प्रश्न उन पर ही दागा गया था, किन्तु वे संतुलित और दल - गत मतभेदों से अलग रहे। क्या करना है, इस पर वे बिल्कुल सुनिश्चित थे, किन्तु उसे सिखाने का उनका ढंग सुविचारित और आनुक्रमिक था। वे पहले से जानते थे कि दृढ़ निश्चय शिष्यों के विरोधी दृष्टिकोणों में सामंजस्य लाना कठिन काम था। वर्षों से वे ही अंतिम निर्णय करते रहे थे और अपने शिष्यों को सिखाते रहे थे कि संयुक्त रूप में कैसे आगे बढ़ना चाहिए। एक बार फिर एक ऐसा मुद्दा तैयार हो रहा था जिसका समाधान उन्हें ही निकालना था— यदि वे उनकी बात मानने को तैयार हुए तो । पुष्ट कृष्ण: "उदाहरण के तौर पर, जैसा कि हम विचार करते रहे हैं, ब्रह्मचारियों और गृहस्थों की प्रवृत्तियाँ भिन्न होती हैं । ब्रह्मचारी का दृष्टिकोण त्याग का होता है । यदि कोई ब्रह्मचारी अपने ब्रह्मचारी जीवन का गृहस्थ बनने के लिए त्याग कर दे तो इसका तात्पर्य यह है कि उसका रुझान भोग लिप्सा की ओर अधिक है, किसी सीमा तक । तो इस स्थिति में क्या करना है ?" प्रभुपाद : “यदि आप भोग का सुख लेना चाहते हैं तो आपको कौन मना कर सकता है ?" का सुख तमाल कृष्ण: " किन्तु हम उसे समर्थन नहीं दे सकते। हम उसे इन्द्रियों भोगने में सहायता नहीं दे सकते। अपनी सहायता वह स्वयं करे ।' प्रभुपाद : " आश्रम चार हैं— ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। इनके सम्बन्ध में स्थितियाँ और दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न हैं। उसका तात्पर्य हैं कि प्रत्येक व्यक्ति समान मंच पर नहीं होता। मंच भिन्न-भिन्न हैं । किन्तु सम्पूर्ण रूपेण लक्ष्य यही है कि भोग की प्रवृत्ति का त्याग कैसे हो। इसी की अपेक्षा है । " पुष्ट कृष्ण : श्रीमद्भागवत में हम पाते हैं कि शुकदेव गोस्वामी प्रात: काल गृहस्थों के पास कुछ आध्यात्मिक ज्ञान देने जाते थे और भेंट में कुछ दूध स्वीकार करते थे। इसलिए संन्यासियों और त्यागियों को गृहस्थों की भोग- लिप्सा और उससे होने वाले प्रभावों के कारण उनका संसर्ग पसंद नहीं आता। अतएव हम अपने संघ में भी पाते हैं कि जो ब्रह्मचारी बने रहना चाहते हैं उनके लिए हमारे ही संघ में इन्द्रिय-सुख की इच्छा वालों का संसर्ग, उनके अपने आध्यात्मिक जीवन के लिए हानिकर सिद्ध हो रहा है।' प्रभुपाद : “ तो आपका प्रस्ताव क्या है ? क्या आप उन्हें दूर भगा देना चाहते हैं ?" मधुद्विष: “यदि संसर्ग नहीं रहेगा तो वे कभी भी शुद्ध नहीं होंगे।" तमाल कृष्ण: "नहीं, समस्या यह नहीं है, क्योंकि हम एकत्र होते हैं साहचर्य या संसर्ग के लिए। लोग मंदिर में कीर्तन के लिए, व्याख्यान के लिए, प्रसाद के लिए आते हैं... ये सांझे के कार्यकलाप हैं। प्रश्न यह नहीं है कि हम सभी आश्रमों के बीच कुछ सांझे के क्रियाकलापों में भाग न लें। किन्तु रहने की व्यवस्था अलग-अलग होनी चाहिए ।" प्रभुपाद: "अब, आप तो मंदिर में भी इस बात की शिकायत करते हैं कि पति - पत्नी आपस में बात कर रहे हैं।" प्रभुपाद जिस आनुक्रमिक ढंग और व्यवहार कौशल से विषय का प्रवर्तन कर रहे थे उससे लगता था कि वे जैसे लजा रहे हों। आपस में बँटे हुए अपने शिष्यों के दिलों और दिमागों के बारे में भी वे अधिक स्पष्टता से सुन रहे थे। तमालकृष्ण : “हाँ, वे श्रीमद्भागवत की बात नहीं कर रहे हैं। " प्रभुपाद : "वह तो आपको सर्वत्र मिलेगा ।' भागवत : "कभी कभी यह शिकायत की जाती है कि ब्रह्मचारियों में बहुत अधिक घृणा का भाव मिलता है। किन्तु क्या यह एक ब्रह्मचारी में गुण की बात नहीं है कि इन्द्रिय-भोग के प्रति उसमें घृणा का स्वस्थ भाव हो ? प्रभुपाद : "मैं समझा नहीं । ' भक्त प्रभुपाद के इतना निकट घिर आए जितना संभव था। यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण बिन्दु था । पुष्ट कृष्ण: "वे कहते हैं कि कभी-कभी ब्रह्मचारियों और संन्यासियों के मन में भी स्त्रियों और पारिवारिक जीवन के प्रति घृणा या अनिच्छा का भाव मिलता है। किन्तु कभी कभी गृहस्थ, संन्यासियों और ब्रह्मचारियों की यह कह कर आलोचना करते हैं कि 'यह मतान्धता है।' गृहस्थों का कहना है कि यह उतना ही खराब है जितना इन्द्रिय-भोग का सुख, क्योंकि संन्यासी उसी चीज का चिन्तन कर रहा है, चाहे वह उसके विरुद्ध सोचता है। तो भागवत दास का प्रश्न यह है कि क्या 'तटस्थ रहना ठीक है या घृणा भाव रखना ठीक है ?" प्रभुपाद : “ यह सभी मतान्धता है। वास्तविक ऐक्य तो कृष्णभावनामृत का प्रसार करना है । — कलौ नास्ति एव नास्ति एव... कलियुग में आप कड़ाई से पालन नहीं कर सकते, न मैं कर सकता हूँ। यदि आप मेरी आलोचना करते हैं तो मैं आपकी आलोचना करता हूँ। यह वास्तविक कृष्णभावनाभावित जीवन बहुत दूर हट जाना है । " से पुष्ट कृष्ण: " तो क्या यह कहना ठीक होगा कि यदि हम कृष्णभावनाभावित नहीं हैं और यदि यह गृहस्थ की समस्या नहीं है तो यह कुछ और ही समस्या है ?" प्रभुपाद : “हाँ, हमें स्मरण रखना चाहिए कि चाहे हम गृहस्थ हों, ब्रह्मचारी हों या संन्यासी हों, शास्त्र के विधानों का पालन पूरा-पूरा कोई नहीं कर सकता । कलियुग में यह संभव नहीं है। यदि मैं आपकी गलती निकालूँ और आप मेरी गलती निकालें तो यह केवल दलगत लड़ाई होगी और हमारा वास्तविक उद्देश्य बाधित होगा । इसलिए चैतन्य महाप्रभु की संस्तुति है कि हरिनाम - कीर्तन कड़ाई से करना चाहिए, यह सभी के लिए एक समान नियम है— चाहे कोई ब्रह्मचारी हो, गृहस्थ हो अथवा संन्यासी हो । सब को सदा हरिनाम कीर्तन करना चाहिए, तब सभी में समायोजन स्थापित हो जायगा; नहीं तो आगे बढ़ना नामुमकिन है। हम विवरण की उलझनों में फँस कर रह जायेंगे। इसे नियमाग्रह कहते हैं। मैं समझता हूँ मैने उसकी पूरी व्याख्या कर दी है । ' है।" मधुद्विष: हाँ, द नेक्टर आफ इन्सट्रक्शन ( उपदेशामृत ) में । । प्रभुपाद : “नियमाग्रह कोई अच्छी चीज नहीं है । नियम का अर्थ है विधि-विधान और आग्रह का अर्थ है, 'स्वीकार न करना' । अग्रह का अर्थ इसका उलटा है— विधि-विधानों के पालन को स्वीकार करने की बहुत अधिक चिन्ता । किन्तु इससे कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता। दोनों को नियमाग्रह कहते हैं, इसलिए मूल सिद्धान्त यही है कि नियमाग्रह की संस्तुति न की जाय । यदि हम चौबीस घंटे कीर्तन के सरल तरीके से कृष्णभावनामृत में आगे बढ़ते रहें— कीर्तनीयः सदा हरिः - तो हर चीज में अपने आप समायोजन आ जाता है। “ कलियुग में आपको ऐसा नहीं मिलेगा कि हर चीज ठीक-ठीक हो रही है । यह बहुत कठिन है जैसे हमारे कवि एलन गिन्सबर्ग हैं। वे मुझ पर हमेशा दोष लगाते रहे, 'स्वामीजी आप बहुत रूढ़िवादी और कठोर हैं।' वस्तुतः मैने उनसे कहा, 'मैं कभी कठोर नहीं रहा, न मैं रूढ़िवादी हूँ । यदि मैं रूढ़िवादी बन जाऊँ तो मैं यहाँ एक मिनट नहीं रह सकता ।' अतः मैं रूढ़िवादी नहीं हूँ। मैं एक लड़के के साथ रह रहा था। उसका नाम काल इयरगेन्स था । मैं भोजन बना रहा था और मैने फ्रिज में उसकी बिल्ली के लिए कुछ मांस के टुकड़े देखे । फिर भी मैंने अपना खाना उस फ्रिज में रखा। किया क्या जाय ?" वे एक घंटे से बात कर रहे थे और प्रभुपाद के आदेश बहुत स्पष्ट थे । किन्तु अभी वार्ता समाप्त नहीं हुई थी । किन्तु इतना तो स्पष्ट था कि नियंत्रण किसके हाथ में था । उस दिन सवेरे कुछ समय बाद, कलकत्ता हवाई अड्डे से बसों में सवार ३५० भक्तों का कारवाँ मायापुर की सीमा पर पहुँचा। आने वाले कुछ भक्तों के लिए मायापुर की यह उनकी पहली यात्रा थी और यहाँ पहुँचने के हर्षोत्साह से पच्छिम से उनकी लम्बी यात्रा की थकान जाती रही। सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त होकर, वे श्रीधाम मायापुर के दर्शन को और श्रील प्रभुपाद से पुन: मिलने आए थे। तीन घंटे की यात्रा के बाद बसें मायापुर की सीमा में प्रविष्ट हुईं थीं। लगातार हार्न बजाती हुई ये बसें चक्करदार भक्तिसिद्धान्त रोड पर आगे बढ़ती जा रही थीं और भक्तगण गौड़ीय मठ के मंदिरों, श्रीवास आंगन, भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की समाधि और चैतन्य महाप्रभु की आविर्भाव-स्थली को एक के बाद एक देखते जा रहे थे। सड़क पर जो भी ग्रामीण पैदल या रिक्शों पर चल रहे थे, वे सड़क से शीघ्रतापूर्वक एक तरफ हट जाते थे। भैंसें, बकरियाँ, गाएँ भी एक ओर हो जाती थीं । स्थानीय लोग गौरपूर्णिमा का उत्सव मनाने के लिए आए हुए उन सैंकड़ों पाश्चात्यों का दृश्य आश्चर्य और विस्मय से देख रहे थे। तब आगन्तुक भक्तों को मायापुर के समतल भूपटल पर इस्कान के मायापुर चन्द्रोदय मंदिर का गुलाबी, सुंदर आकार दिखाई दिया, जिसका निर्माण श्रील प्रभुपाद ने उनके लिए कराया था और वह धाम जिसके सम्बन्ध में उन्होंने इतना अधिक सुन रखा था दिखने लगा। जब बसें इस्कान की इस सम्पत्ति के प्रवेश द्वार पर पहुँची तो भक्तगण नई गुम्बदों और पुष्प - वाटिकाओं को देख कर हर्ष - ध्वनि करने लगे। और प्रभुपाद को देखने की उनकी उत्सुकता बढ़ गई। पंजीयन कराना, अपने कमरे ढूंढ़ पाना, उनमें पहुँच कर व्यवस्थित होना, आदि कुछ औपचारिक उलझनें थीं, किन्तु उनके कारण कोई बड़ी समस्या नहीं पैदा हुई । आगन्तुक भक्त अब अन्य गुरुभाइयों के बीच घर पर पहुंच गए थे। शीघ्र ही वे गंगा में स्नान कर सकेंगे और फिर पवित्र स्थानों की परिक्रमाओं के सम्बन्ध में कार्यक्रम की घोषणा सुन सकेंगे। कुछ भक्त आराम करने लगे, शेष संसार के विभिन्न स्थानों से आए मित्रों से मेल-मिलाप करने लगे। उन्होंने बाजा समाचार सुने और गंगा की तेज धारा के विषय में तथा पेचिश और मच्छरों से बचने के बारे में, अनुभवी शिष्यों की शिक्षाएँ सुनी। संध्या होने के पूर्व ही सब अपने-अपने कमरों में पहुँच गए थे और उन्होंने प्रसाद पा लिया था । प्रवेश द्वार के ऊपर एक छोटे कमरे में शहनाई वादक एक सांध्य राग निकालने और भक्तगण तेज प्रकाश से आलोकित एकत्र होने लगे । लगे। आकाश अंधकार में डूबने लगा मंदिर - कक्ष में विशाल कीर्तन के लिए ये भक्त संसार के विभिन्न नगरों में कठोर परिश्रम करते रहे थे और उनका मायापुर आना उनके लिए उनके कठिन जीवन और धैर्यपूर्ण सेवा का एक प्रकार से पुरस्कार था। अब वे विश्राम कर सकते थे और आध्यात्मिक जीवन का आनन्द प्राप्त कर सकते थे। उनके ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं थी, सिवाय इसके कि वे अर्चा-विग्रहों की उपासना करें, श्रील प्रभुपाद से मिलें और उनका व्याख्यान सुनें, हरे कृष्ण कीर्तन करें, और भगवान् चैतन्य के शाश्वत धाम में कृष्णभावना से परिपूर्ण बने रहें । जब प्रभुपाद ने सुना कि अब उनके मायापुर के उपासना स्थल में लगभग छह सौ भक्त एकत्र हो गए हैं तो वे अतीव प्रसन्न हुए । उन्होंने पूछा कि क्या प्रसाद और आवास स्थान पर्याप्त हैं और क्या प्रत्येक भक्त के लिए पूरी कार्य-योजना बन गई है। उन्होंने कहा, अन्यथा यदि भक्त बेकार रहेंगे तो वे ऊब जायँगे या गप्पें लड़ाने लगेंगे। उन्होंने कहा कि प्रत्येक को चाहिए कि केवल हरे कृष्ण का कीर्तन करे, परिक्रमा करे अथवा कृष्ण कथा कहें और सुनें । भारत : इस्कान को एकता बद्ध करना आगंतुकों में से कुछ, विशेषकर मंदिरों के अध्यक्ष, गृहस्थों और संन्यासियों की आपसी फूट की ओर खिंच गए। अब चूँकि सभी मंदिरों के अध्यक्ष वहाँ उपस्थित थे और सब में असंतोष था, इसलिए उन्होंने एक विशेष बैठक की माँग की। उन्हें इस्कान में गृहस्थों पर प्रतिबन्ध लगाना पसंद नहीं था और जब उन्होंने बातें की और आपस में मतों की तुलना की तो उन्हें अपनी शिकायतों के लिए एक समान बिन्दु मिला। अधिकांश आपत्तियाँ उत्तर अमेरिका के मंदिरों के अध्यक्षों की ओर से थीं और तमाल कृष्ण गोस्वामी के नेतृत्व वाले चलते-फिरते राधा - दामोदर संकीर्तन दल को लक्ष्य करके उठाई गई थीं। संघर्ष कम-से-कम एक वर्ष से जोर पकड़ रहा था, जब से तमाल कृष्ण ने राधा - दामोदर दल का निर्माण किया था। उस एक वर्ष के अंदर दल की संख्या १५० तक पहुँच गई थी और दल के सदस्य समग्र उत्तर अमेरिका की यात्रा करते हुए श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों का वितरण करते रहे थे । प्रभुपाद ने दल की सराहना की थी। उसने अमेरिकन बी. बी. टी. की कुल आमदनी का तीस से चालीस प्रतिशत तक जुटाया था। राधा - दामोदर दल के सदस्य आध्यात्मिक क्षेत्र के उन्नत संन्यासियों के साथ रहते थे और उन्होंने अपने में तप और त्याग के लक्षण विकसित कर लिए थे। ब्रह्मचर्य के प्रति उनमें उत्साह दिखाई देता था और विवाहित जीवन की आवश्यकता उन्हें नहीं महसूस होती थी । राधा - दामोदर दल ने पुस्तक - वितरण में सभी प्रतिमान तोड़ दिए थे और अन्य सभी क्षेत्रों और मंदिरों से वह आगे निकल गया था । संकीर्तन - सैनिकों की अभिजात सेना के रूप में पुस्तक-वितरण के क्षेत्र में वे समस्त संसार के नेता माने जाने लगे थे। इस दल के अस्सी से अधिक सदस्य मायापुर उत्सव में भाग लेने आए थे और वहाँ के सर्वोत्तम भवन का एक विशेष खण्ड उनके आवास के लिए आरक्षित किया गया था । किन्तु त्याग और संकीर्तन के प्रति अपने उत्साह में राधा दामोदर दल के कुछ ब्रह्मचारियों ने मंदिर - जीवन और गृहस्थों के प्रति जैसे कृपा के भाव का प्रदर्शन आरंभ कर दिया था। यह भौतिक धारणा उस बिन्दु तक पहुँच गई थी जहाँ कुछ लोग किसी भक्त की योग्यता का निर्धारण इस आधार पर करने लगे थे कि वह श्वेत वस्त्र ( अर्थात् गृहस्थों का वस्त्र ) धारण करता है या केसरिया वस्त्र जो संन्यासियों और ब्रह्मचारियों का परिधान माना जाता है। श्वेत वस्त्र धारण करने वाला कोई भी भक्त आध्यात्मिक रूप से उन्नत भक्त नहीं हो सकता था। मंदिरों के अध्यक्षों को लगा कि कम-से-कम ऐसी भ्राँति राधा - दामोदर दल के कुछ अधिक अपरिपक्व सदस्यों के मन में पैदा हो गई थी । किन्तु सबसे बड़ी शिकायत दार्शनिक की अपेक्षा व्यावहारिक अधिक थी । अध्यक्षों ने दावा किया कि राधा दामोदर दल मंदिरों से भक्तों की चोरी कर रहा था। मंदिरों के अध्यक्षों ने अपनी कहानियों का मिलान किया और ऐसे अनेक उदाहरण यह सिद्ध करने के लिए दिए कि मंदिर में सेवा - रत भक्तों को बहका कर उन्हें राधा दामोदर - दल का सदस्य बनाया गया था । अध्यक्षों ने कहा कि इस विचार धारा का कि संन्यासी गृहस्थों से श्रेष्ठ होते हैं, अवसरवादी प्रयोग हो रहा था। इसका प्रयोग लोगों को अर्थात् सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मचारियों को, आश्वस्त करने के लिए किया जा रहा था कि वे प्रभुपाद के मंदिरों में अपने पदों का त्याग करके राधा - दामोदर दल में सम्मिलित हो जायँ । इससे प्रायः गंभीर कठिनाइयाँ पैदा हो रही थीं । मंदिरों के अध्यक्षों का विचार था कि राधा - दामोदर दल का प्रचार कार्य असंतुलित और स्वार्थ से प्रेरित था । असहमति बढ़ कर इतनी तीक्ष्ण हो गई थी कि कुछ मंदिरों ने राधा - दामोदर दल को अपने यहाँ आने से मना कर दिया था और कुछ ने राधा - दामोदर मंदिर के संन्यासियों को अपने यहाँ भक्तों के सामने व्याख्यान देने पर प्रतिबंध लगा दिया था । किन्तु राधा - दामोदर मंदिर के लोग इसे गृहस्थों की ओछी बुद्धि और आसक्ति का एक और प्रमाण मानते थे। श्रील प्रभुपाद इस विस्फोटक मामले पर उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करते हुए अपने निर्धारित कार्य —–— अतिथियों का स्वागत करने, तथा मंदिर और उत्सव की व्यवस्था का पर्यवेक्षण करने में लगे रहे। वे प्रतिदिन मंदिर में भाषण करते थे और लोगों को संतोष प्रदान करते थे । किन्तु अपने सेवकों और सचिवों को उन्होंने बताया कि आपसी फूट से उन्हें चिन्ता हो रही थी । इस बात से वे अशान्त थे कि मंदिरों के अध्यक्ष रुष्टं थे । एक दिन इस चिन्ता के कारण वे तीसरे पहर की अपनी झपकी भी नहीं ले सके । मालिश कराते हुए उन्होंने हरिशौरी से कहा, “यह एक बहुत गंभीर मामला है । —– यह संन्यास और गृहस्थ के बीच भेद-भाव का मामला। इससे हर चीज नष्ट हो जायगी । " हरिशौरी ने इस फूट की तुलना उस फूट से की जिसने गौड़ीय मठ को नष्ट कर दिया था । एक अन्य समय जब प्रभुपाद अपने कमरे में बैठे थे तो उन्होंने एक सुंदर बुक - मार्क उठा लिया जो एक ब्रह्मचारिणी ने उनके लिए बनाया था। उन्होंने कहा, “इतनी बढ़िया सेवा ! इसे कैसे ठुकराया जा सकता है। मैने कभी भी उन्हें सेवा करने से केवल इस कारण नहीं रोका कि वे स्त्रियाँ हैं । " रामेश्वर प्रभुपाद के कमरे में आया और उन्हें हाल के कुछ बी. बी. टी. प्रकाशन दिखाए। उन्होंने कुछ व्यवसाय - सम्बन्धी बातें की और फिर अंत में वे संन्यासी - गृहस्थ मुद्दे पर आ गए। जब रामेश्वर अपनी राय देने लगा तो प्रभुपाद ने कहा कि अन्य उपलब्ध संन्यासियों और जी. बी. सी. के लोगों को भी विचार-विमर्श के लिए बुला लिया जाय । रामेश्वर मंदिर का पक्ष ले रहा था और उसने उन वित्तीय और व्यावहारिक समस्याओं का वर्णन किया जिनका सामना मंदिरों को, उनके आदमियों के राधा - दामोदर पार्टी में चले जाते रहने से, करना पड़ रहा था। जब लोग मंदिरों को छोड़ कर चले जाते थे तो मंदिरों के पुस्तक-वितरण में ह्रास हो जाता था। बस यात्रा - दलों में सम्मिलित होने के भारी प्रचार के समक्ष मंदिर के श्रद्धालु भक्त इस बात से कैसे संतुष्ट बने रह सकते थे कि वे मंदिरों के रख-रखाव के लिए अधिकतर पैसे जमा करने का काम करें, चाहे वे पुस्तक - वितरण भले ही न कर सकें ? मंदिर के भक्त तो पुस्तक - वितरण से मिलने वाले आनन्द के भी इच्छुक थे, किन्तु यात्रा - दलों की अपंग करने वाली चालबाजियों से, अब वह आनन्द अधिकाधिक कठिन होता जा रहा था । रामेश्वर ने प्रभुपाद से प्रार्थना की कि वे इस दार्शनिक भ्रान्ति को स्पष्ट कर दें कि गृहस्थ इतने उन्नत नहीं होते कि वे ब्रह्मचारियों की सँभाल कर सकें। प्रभुपाद ने संन्यासी छोटा हरिदास की कहानी बताई जिसे, उसके एक स्त्री से रंचमात्र संपर्क के कारण, चैतन्य महाप्रभु ने बहिष्कृत कर दिया था। तब भी भगवान् चैतन्य ने एक गृहस्थ, शिवानंद सेन को गले लगा लिया था, यह सुन कर कि शिवानंद सेन की स्त्री गर्भवती थी । प्रभभुपाद ने कहा कि यद्यपि भगवान् चैतन्य का अपने संन्यासियों से जो सम्बन्ध था वह गृहस्थों से उनके सम्बन्ध से भिन्न था, फिर भी दोनों ही दिव्य थे। गृहस्थों को अपने पारिवारिक कर्त्तव्यों के निर्वाह के लिए और कृष्ण चेतन संतान पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था । कमरे में उपस्थित संन्यासियों को सम्बोधित करते हुए प्रभुपाद ने कहा कि गृहस्थों के क्रियाकलापों पर इतनी लम्बी चर्चा करना उन संन्यासियों के लिए सर्वथा असमीचीन था। इसका तात्पर्य यह है कि गृहस्थों की अपेक्षा संन्यासी यौन-सम्बन्ध के विषय में अधिक सोच रहे थे । यदि संन्यासी विवाहित जीवन के विषय में दिन-भर बातें करते रहेंगे तो वे प्रदूषित हो जायँगे । तब अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए प्रभुपाद ने एक कहानी सुनाई। एक बार दो ब्राह्मण एक नदी पार करने वाले थे कि वहाँ एक स्त्री प्रकट हो गई। नदी पार करने में उसे सहायता की जरूरत थी । अतएव एक ब्राह्मण उसे अपनी पीठ पर बैठा कर ले जाने को राजी हो गया। दूसरे ब्राह्मण को इससे आघात पहुँचा, किन्तु उसने कुछ कहने से अपने को रोका। नदी पार करने के बाद स्त्री ने दोनों को धन्यवाद दिया और अपनी राह चली गई। दोनों ब्राह्मण अपने रास्ते पर आगे बढ़ते रहे, किन्तु दूसरा ब्राह्मण घंटों उसी घटना की बात करता रहा। उसने कहा, “तुमने उस स्त्री को अपनी पीठ पर चढ़ाया और अपना शरीर स्पर्श करने दिया ।" और आगे भी वह बात करता रहा । अंत में पहले ब्राह्मण ने उसे ठीक कर दिया, “मैं उसे अपनी पीठ पर दस मिनट तक ढोता रहा, किन्तु तुम तो उसे अपने मन पर तीन घंटों से ढो रहे हो । " मंदिर - अध्यक्षों ने जयाद्वैत को, जो कृष्णभावनामृत - दर्शन का विशेषज्ञ, एक ब्रह्मचारी था, प्रभुपाद के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए चुना । समान दृष्टिकोण वाले कुछ जी. बी. सी. सदस्य भी उसके साथ गए और चूँकि अधिक विरोध राधा दामोदर दल का था, इसलिए तमाल कृष्ण गोस्वामी भी अपने दल का बचाव करने वहाँ उपस्थित हुए । राधा - दामोदर दल के अनेक सदस्य, जो साल भर की कड़ी संकीर्तन सेवा के बाद आध्यात्मिक आनंद की आशा में मायापुर आए थे अपनी आलोचना सुन रहे थे और प्रतिशोध लेना चाहते थे । उत्सव के आह्लादकारी आध्यात्मिक वातावरण के लिए राजनीतिक फूट का खतरा उत्पन्न हो गया था । जयाद्वैत ने प्रभुपाद को बताया कि मंदिर - अध्यक्षों को ऐसा लगता था कि यह प्रचार कि गृहस्थ ब्रह्मचारियों के नेतृत्व के अयोग्य थे, केवल एक चाल थी। असली मुद्दा आदमियों और धन का था । मन्दिर के ब्रह्मचारियों को गृहस्थों के अधीन काम न करने को कह कर, राधा - दामोदर मंदिर के संन्यासी उन्हें मंदिर के प्रति उनकी अधिकृत सेवा से बहका कर, दूर हटा रहे थे । तमाल कृष्ण सहमत थे कि यदि ऐसा गल्त प्रचार किया जा रहा हो तो उसे बंद कर देना चाहिए, किन्तु उनकी मान्यता थी कि उनका दल वास्तव में ऐसी विचार धारा का प्रचार नहीं कर रहा था । प्रभुपाद के समक्ष इस तरह के अभियोग और प्रति - अभियोग लगाए जाते रहे। तब उन्होंने अपना मत व्यक्त किया, “ मानक यह होना चाहिए कि गृहस्थ और संन्यासी में भेद-भाव न किया जाय। हमें केवल कृष्णभावनामृत में उन्नति देखनी चाहिए । – एई कृष्ण - तत्त्व - वेत्ता सेई 'गुरु' 'हय' –सामाजिक पद की परवाह न करके, जो कृष्ण-तत्त्व जानता है, वही वस्तुतः गुरु होने के योग्य है। इसी सिद्धान्त का अनुगमन होना चाहिए— कि कृष्णभावनामृत में किसने कितनी प्रगति की है। फलेन परिचीयते । परिणाम से निर्णय करो, परिधान से नहीं। हमें भक्त की स्थिति देखनी चाहिए। दल-गत नीति का अनुगमन करने से सब नष्ट हो जायगा । " प्रभुपाद ने कहा कि ब्रह्मचारी सामान्यतः संन्यासी की सहायता करता है और संन्यासी प्रचारक या उपदेशक होता है। गृहस्थ भी मंदिर की देखभाल करने के लिए उपयुक्त व्यक्ति है। इसलिए अगर कोई ब्रह्मचारी किसी संन्यासी के साथ यात्रा करना चाहता है तो वह ठीक है । प्रभुपाद ने कहा, “किन्तु यदि उसके ऊपर कोई जिम्मेदारी है तो उसे जरूर रुकना चाहिए।” उन्होंने कहा कि मुख्य बात यह है कि सभी भक्तों को चाहिए कि वे अपने को छहों गोस्वामियों के सेवक मानें। भक्तों के सामने यह सारी समस्या इसलिए उठ गई थी कि वे "भूल गए थे कि हम कृष्ण के सेवक हैं। ' प्रभुपाद आगे कहते गए, “ऐसा नहीं है कि एक विशेष प्रकार की सेवा संन्यासी के लिए अथवा गृहस्थ के लिए है। भक्त को कृष्ण दास होना चाहिए । एक सेवक की सेवा का निर्णय उसके परिणाम से किया जाता है। यह दल अथवा वह दल कैसा ? एई कृष्ण - तत्त्व- वेत्ता, सेई 'गुरु' हय । भक्तिविनोद एक गृहस्थ थे, भक्तिसिद्धान्त संन्यासी थे। तो क्या एक, दूसरे से अच्छा है ? नहीं । इसलिए डराना-धमकाना नहीं होना चाहिए; अब हम विश्व व्यापी संस्था बन गए हैं। प्रभुपाद ने बार - बार इस श्लोक को दुहराया - किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय / एई कृष्ण - तत्त्व - वेत्ता सेई 'गुरु' हय । इस प्रकार उन्होंने इस दावे का खण्डन किया कि किसी भक्त की योग्यता का निर्णय उसके वर्णाश्रम से होता है। प्रभुपाद ने जोर देकर कहा कि जो कृष्ण-तत्त्व- वेत्ता है, जो कृष्ण की सेवा में निरन्तर लगा है, वही व्यक्ति सच्चा भक्त है। प्रभुपाद ने कहा कि एक संन्यासी उपदेश कर सकता है। किन्तु वह व्यवस्था भी देख सकता है। एक गृहस्थ व्यवस्था देख सकता है, किन्तु वह उपदेश भी कर सकता है। यद्यपि प्रभुपाद इन मुद्दों को पहले ही उठा चुके थे, किन्तु अब उन्होंने उन्हें अन्तिम रूप से तय कर दिया। उन्होंने कहा कि दोनों में यह भेद-भाव खत्म होना चाहिए। यह कृष्णभावनामृत नहीं है। और जी. बी. सी. को चाहिए कि गृहस्थों के विरुद्ध भेद-भाव करने वाले सभी प्रस्तावों को हटा दे। प्रभुपाद ने बल देकर कहा कि असली मानदण्ड कृष्ण का सेवक है। कृष्ण को समर्पित भाव के साथ, भक्त में किसी भी प्रकार की वांछित सेवा करने की विशेषता और इच्छा होनी चाहिए। उन्होंने उदाहरण दिया कि पचास वर्ष पूर्व जब वे कलकत्ता में बोस की प्रयोगशाला में प्रबन्धक थे तब कर्मचारी हड़ताल पर चले गए थे। शेष कर्मचारियों से उन्होंने कहा था, "आओ, हम डिब्बा - बन्दी का काम करें।” उन्होंने वह तुच्छ काम करना स्वीकार कर लिया और हड़ताल समाप्त हो गई। इसी तरह जैसी भी सेवा आवश्यक हो, उसे करने के लिए भक्त को तैयार रहना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा, "हमें कृष्ण का अत्यन्त दृढ़ सेवक होना चाहिए । ' प्रभुपाद ने कहा कि संभवतः वे पहले प्रामाणिक संन्यासी हैं जिन्होंने अपने शिष्यों के विवाह की व्यवस्था की है। उन्होंने कहा कि निश्चय ही वे वैधानिक सिद्धान्तों की अवमानना को प्रोत्साहन नहीं देते, किन्तु वास्तविक कार्य तो कृष्ण की सेवा है। यदि उसमें विवाह की व्यवस्था भी शामिल है तो उसे करना चाहिए। उन्होंने कहा, “ किन्तु विभाजन इस प्रकार का है कि संन्यासी प्रचार या उपदेश - कार्य में ही पूरी तरह लगा रहता है। और संन्यासी के उपदेश - कार्य को रोकना नहीं चाहिए । जो कुछ कार्य जिसके सिर पर हो उसे उन्हें संभालना चाहिए। यदि कहीं कोई कमी है तो उसे ठीक कर लेना चाहिए। हर प्रकार की अफवाह में कुछ न कुछ सत्य का अंश होता है । " प्रभुपाद, न केवल तात्कालिक झगड़ों को परिभाषित करके उन्हें हल कर रहे थे, वरन् वे सभी भक्तों को कृष्णभावनामृत के समर्पित और अभिप्रेरित स्तर तक उठा रहे थे। वे न तो किसी दल का पक्ष ले रहे थे न शान्ति स्थापित करने के लिए सिद्धान्त को निर्बल कर रहे थे। वे अपने शिष्यों की बुद्धिमत्ता से अपील कर रहे थे। और उससे भी बढ़ कर बात यह थी कि वे उनके हृदयों में प्रवेश करके उन्हें संतुष्ट कर रहे थे और एक दूसरे के साथ मिल कर काम करने की उनमें सच्ची इच्छा जगा रहे थे । जब प्रभुपाद ने अपनी बात बंद की तो उन्होंने लोगों की प्रतिक्रिया का आह्वान किया। जयाद्वैत ने कहा कि उसकी समझ में प्रभुपाद ने जो निर्णय सुनाया है उससे अध्यक्षों को पूर्ण संतोष हो जाना चाहिए। तमाल कृष्ण बोला कि जी. बी. सी. को भी संतोष होना चाहिए और प्रभुपाद की कृपा से अब सब लोगों को मिल कर सद्बुद्धि के साथ आगे बढ़ना चाहिए । सभी भक्त प्रसन्नता से भरे हुए, प्रभुपाद के कमरे से बाहर निकले। अब वे आपस में मिल-जुल कर उत्थानकारी, राजनीति - विहीन गौर - पूर्णिमा के उत्सव में भाग लेने को तैयार थे। अगले दिन सवेरे प्रभुपाद प्रातः भ्रमण के लिए मायापुर भवन की छत पर गए। ज्योंही वे छत पर चक्कर लगाने लगे, कम-से-कम दो दर्जन भक्त, जिनमें अधिकतर मंदिर - अध्यक्ष और संन्यासी थे, उनके साथ हो लिए। मंदिर - अध्यक्षों को लग रहा था कि उनकी विजय हुई है। उनका अपना पक्ष विजयी हुआ था और सैद्धान्तिक गलतफहमियाँ दूर हो गई थीं । अब हर चीज स्पष्ट थी। पूरे मामले से प्रभुपाद में भक्तों की श्रद्धा में वृद्धि हुई थी और उनकी समझ में आ गया था कि, आत्म-प्रतिष्ठा की मिथ्या धारणा का त्याग करके, उनके आदेश का पालन करने में ही बुद्धिमानी है । की जब वे टहल रहे थे तो, विगत दिनों के तनाव से मुक्ति देने वाले परिहास मुद्रा में, पंचद्रविड़ स्वामी ने प्रभुपाद से विचित्र प्रकार के प्रश्न पूछने आरंभ कर दिए। उन्होंने कहा, “श्रील प्रभुपाद, एक बात ऐसी है जो मेरी समझ में नहीं आती। वह है चैतन्य - चरितामृत में साक्षी - गोपाल की कहानी में अर्चा-विग्रह का युवा ब्राह्मण के साक्ष्य के लिए आना । वह युवा व्यक्ति वृद्ध ब्राह्मण की सेवा कर रहा था । तब वृद्ध ब्राह्मण ने उससे अपनी कन्या का विवाह कर देने का वचन दिया । और उसका साक्ष्य देने के लिए अर्चा-विग्रह का आना हुआ । यदि युवा पुरुष इतना सच्चा भक्त था तो उसने अर्चा-विग्रह को अपने विवाह में साक्षी होने के लिए इतनी दूर से क्यों बुलाया ? फिर वह एकाकी क्यों नहीं बना रहा? और उसने केवल अपने विवाह के लिए अर्चा-विग्रह को क्यों बुलाया ?" केवल शब्दों में ही परिहास नहीं था, वरन् जिस ढंग से वे कहे गए थे, उनमें भी परिहास था। पंचद्रविड एक अतिशय आलोचनापूर्ण संन्यासी की भूमिका में मजाक कर रहा था। प्रभुपाद भी तुरन्त मजाक की मुद्रा में आ गए : "हम विवाह के विरुद्ध नहीं हैं। हम अवैध यौन सम्बन्ध के विरुद्ध हैं । किन्तु चूँकि तुम्हें कोई स्त्री नहीं चाहती, इसलिए तुम कह रहे हो कि किसी को विवाह नहीं करना चाहिए । जरा यह मनोविज्ञान देखिए । " भक्त उन्मुक्त हँसी हँसने लगे । प्रभुपाद ने कहा, “यह, 'अंगूर खट्टे हैं का दर्शन है। क्योंकि तुम्हें कोई स्त्री नहीं लेना चाहती, कोई नहीं चाहता, इसलिए तुम्हें यह अस्वीकृति खल रही है और तुम सोचते हो कि शादी किसी को नहीं करनी चाहिए ।" गौर - पूर्णिमा के दिन, जो महाप्रभु चैतन्य के आविर्भाव का दिवस था, प्रातः कालीन व्याख्यान में प्रभुपाद ने भागवत के उस श्लोक को अपनी वार्ता का विषय बनाया जो प्रह्लाद महाराज ने भगवान् नृसिंह को सुनाया था। उस श्लोक (भागवत ७.९.३८) में — अप्रत्यक्ष रूप में श्री चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव का निर्देश है। मेरे प्रभु, इस प्रकार आपने विविध रूपों में अवतार धारण किया है— मनुष्यों के रूप में, पशुओं के रूप में, महान् संत के रूप में, देवताओं के रूप में, मत्स्य रूप में, और कच्छप रूप में। इस प्रकार आप समस्त सृष्टि और विभिन्न ग्रहों की स्थितियों का संरक्षण करते हैं और प्रत्येक युग में दानवीय सिद्धान्तों का संहार करते हैं। अतएव, मेरे प्रभु, धर्म के सिद्धान्तों की रक्षा कीजिए। इस कलियुग में आप परमात्मा के रूप में अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं करते, इसलिए आप का नाम त्रियुग पड़ गया है, अर्थात् केवल तीन युगों में प्रकट होने वाला । अपने व्यास - आसन पर आराम से बैठे श्रील प्रभुपाद ने पूरे लम्बे हाल में बैठे हुए शिष्यों पर, अपने पढ़ने के चश्मे से अपने नेत्रों को ऊपर की ओर उठा कर दृष्टि डाली। दो शिष्य उन्हें लम्बे चामर से हवा कर रहे थे। अनेकों शीशे के झाड़-फानूस चमचमा रहे थे। हाल के दूसरे सिरे पर राधा-माधव और भगवान् चैतन्य के चित्र विराज रहे थे । प्रभुपाद ने कहा, “ तो यहाँ पर श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में एक परम विशेष कथन है । " वे अवतार हैं। वे वही परमात्मा हैं, किन्तु वे आच्छन्न । हैं। आच्छन्न का अर्थ ढका हुआ है, जो प्रत्यक्ष न हो। क्योंकि वे एक भक्त के रूप में प्रकट हुए थे ।" श्रील प्रभुपाद ने बताया कि कलियुग में परमात्मा, भक्त के रूप में क्यों प्रकट हुए। “जब भगवान् कृष्ण प्रकट हुए तो उन्होंने आदेश दिया कि प्रत्येक व्यक्ति 'मेरे प्रति समर्पण करे।' किन्तु लोगों ने कहा, 'यह कौन व्यक्ति है जो ऐसा कह रहा है? उसे क्या अधिकार है ? हम क्यों समर्पण करें ?' किन्तु वे स्वयं श्री भगवान् थे, वे आदेश दे सकते थे। वे परमात्मा थे। परन्तु हम उलटा सोचते हैं 'यह व्यक्ति कौन है ? यह हमें आदेश क्यों दे रहा है ? हम समर्पण क्यों करें ?' कृष्णभावनामृत की पूरी प्रक्रिया समर्पण की है, कृष्ण के प्रति समर्पण की, श्रील प्रभुपाद ने समझाया । किन्तु कृष्ण को समर्पित होने का ढंग यह है कि उनके भक्त, उनके प्रतिनिधि, को समर्पण किया जाय । 'अतएव आज के दिन श्री चैतन्य महाप्रभु पतित जीवात्माओं को कृपा का दान देने के लिए अवतरित हुए थे जो इतने मूढ़ हैं कि वे कृष्णभावनामृत को अपना नहीं सकते। महाप्रभु स्वयं उन्हें शिक्षा दे रहे थे। यही यह कीर्तन है । ' उस दिन सवेरे कुछ देर से प्रभुपाद मंदिर कक्ष में पुनः आए, इस बार वे दीक्षा देने आने थे । पन्द्रह भक्त ब्राह्मण की दीक्षा ले रहे थे, पच्चीस को प्रथम दीक्षा मिल रही थी और सात संन्यास की दीक्षा ले रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने फिर वही श्लोक सुनाया जो इस उत्सव की टेक बन गया था, किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय – कोई चाहे गृहस्थ हो, संन्यासी हो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। जो कोई कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों को जानता है, उसे 'गुरु' बनना चाहिए। कैसे ? – येई कृष्ण - तत्त्व - वेत्ता; जो कोई भी कृष्ण - तत्त्व को जानने वाला है, जो कोई कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों को जानता है, वही गुरु बन सकता है। गुरु का पद संन्यासियों और ब्राह्मणों को मिलता है । ब्राह्मण बने बिना कोई संन्यासी नहीं बन सकता, और संन्यासी सभी वर्गों और सभी आश्रमों का गुरु है। अतः उपदेश - कार्य के लिए हमें इतने अधिक संन्यासियों की आवश्यकता है। कृष्णभावनामृत के अभाव में संसार भर के लोग दुख भोग रहे हैं। " श्रील प्रभुपाद ने नवयुवकों को चेतावनी दी कि वे कठोर संन्यासियों की तरह रहें। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि उनके सभी शिष्यों को गुरु की योग्यता प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षण लेना चाहिए। उन्होंने उद्धरण दिया—यारे देख तारे कह कृष्ण- उपदेश । चाहे आप इस क्षेत्र में हों, या उस क्षेत्र में, इस से कोई अन्तर नहीं पड़ता, आप घर पर हों या बाहर हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप 'गुरु' बन जायँ – आप में से हर एक । 'मैं गुरु कैसे बन सकता हूँ, मुझमें कोई योग्यता नहीं है।' चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि आप में किसी योग्यता की जरूरत नहीं है। केवल एक योग्यता प्राप्त कीजिए कि आप भगवद्गीता के उपदेशों को दुहराते रहें- यारे देख तारे कह कृष्ण उपदेश । आप गुरु बन जायं । कृष्ण- उपदेश का एक धूर्त या मूर्ख की भान्ति अपमिश्रण न होने दें। इसे उसी रूप में प्रस्तुत करें जैसा वह भगवद्गीता में है। तभी आप गुरु बन सकते हैं। आप अपने परिवार में गुरु बन सकते हैं, अपने समाज में गुरु बन सकते हैं, अपने राष्ट्र में गुरु बन सकते हैं, आप जहाँ भी हैं, वहीं गुरु बन सकते हैं। और यदि यह संभव है तो बाहर जाइए और गीता के महान् उद्देश्य का प्रचार कीजिए। इसीलिए हमारे आन्दोलन का नाम है कृष्णभावनामृत । कृष्ण जो कुछ कहते हैं, उसे स्वीकार कीजिए और उसका प्रचार कीजिए। आप गुरु बन जाते हैं । " गौर - पूर्णिमा के दिन हर एक ने चन्द्रोदय तक अनाहार व्रत रखा और अधिकतर भक्त गंगाजी में स्नान करने गए। जयपताक स्वामी ने उन्हें बताया कि शास्त्रानुसार जो कोई गौर - पूर्णिमा के दिन मायापुर में गंगास्नान करता है वह जन्म - मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है। संध्या होते-होते बड़ी संख्या में तीर्थ-यात्री आने लगे । समस्त पश्चिमी बंगाल से प्रतिवर्ष लोग मायापुर के मंदिरों में दर्शन को आते थे, विशेषकर भगवान् चैतन्य महप्रभु के आविर्भाव स्थल के और, हाल में, इस्कान के मायापुर के चन्द्रोदय मंदिर के दर्शन के लिए । कलकत्ता में लोगों ने इस्कान के गौर पूर्णिमा उत्सव के बारे में विज्ञापन देखा था और लाखों ग्रामीणों ने पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी इमारत और राधा - माधव के 'स्वर्णिम' विग्रह के सम्बन्ध में सुन रखा था। भक्तों ने प्रसाद से अतिथियों का स्वागत किया और श्रील प्रभुपाद कृत भगवद्गीता के बंगाली संस्करण गीतार गान की प्रतियाँ बेचीं । रात होते-होते लोगों की भारी भीड़ प्रवेश द्वार से आने-जाने लगी। भीड़ से उठी धूल बादल की तरह छा गई और हवा में रिक्शों की घंटियों, स्त्रियों के गाने, मित्रों के आपस में बातें करने और मंदिर से निकलते कीर्तन की प्रवर्धित ध्वनि भर गई। अधिकांश आगन्तुक मंदिर में होकर निकल जाते थे, चित्रों की प्रदर्शनी देखते थे, और कुछ देर रुक कर कीर्तन सुनते थे या बाहरी पण्डाल के मंच पर चलने वाले अभिनय का अवलोकन करते थे । यद्यपि उत्सव में आने वालों की संख्या एक लाख से ऊपर चली गई होगी, किन्तु वातावरण शान्त बना रहा, क्योंकि लोग बिना धक्का-मुक्की के, तीर्थ-स्थान के प्रति परम्परागत सम्मान का प्रदर्शन करते हुए, आगे बढ़ रहे थे। ध्रुवनाथ : उत्सव का सबसे अधिक भाव-विभोर करने वाला समय तब आता जब प्रात:काल अर्चाविग्रहों की आराधना करने के बाद श्रील प्रभुपाद मंदिर की परिक्रमा करते थे । अर्चा-विग्रह - कक्ष के दोनों ओर एक-एक घंटा था और जब हम लोग प्रभुपाद के साथ परिक्रमा करते हुए घंटे के पास पहुँचते तो एक भक्त रस्सी खींच कर प्रभुपाद के हाथ में दे देता था । भक्तगण भावविभोर होकर कीर्तन और नाच करने लगते थे और प्रभुपाद उनकी संगत करने को रस्सी खींच कर घंटा बजाते रहते थे और साथ ही वे अपना बायाँ हाथ उठा कर भक्तों को संकेत देते थे कि वे अधिकाधिक नाचें और कीर्तन करें। आनकदुन्दुभि: श्रील प्रभुपाद बरामदे में बैठ कर समग्र मायापुर का अवलोकन करते थे। मैंने देखा कि वे गायों को चराते कुछ लड़कों को निहार रहे थे। उस पूरे दृश्य को निहारने में वे निमग्न थे। तब किसी ने उन्हें एक द्विनेत्री दूरबीन दी और वे मायापुर के आर-पार देखने लगे। उनकी एक उंगली हवा में उठी थी। वे एक सेनापति जैसे दिखाई दे रहे थे। वे भक्तिविनोद ठाकुर के घर के आर-पार देख रहे थे और तब उन्होंने भगवान चैतन्य का आविर्भाव-स्थल लक्षित किया। उन्होंने बड़ी बारीकी से उसे देखा और तब कहा, "वहाँ निर्जन है, कोई नहीं है।' सत्स्वरूप दास गोस्वामी : एक दिन प्रभुपाद ने जी. बी. सी. के सदस्यों को बुलाया। तीसरे पहर का समय था और हम देख रहे थे कि वे बहुत आनंदमग्न थे। वे मंदिर में चलने वाला कीर्तन सुन रहे थे। उन्होंने कहा हर एक को मायापुर आना चाहिए और चौबीसों घंटे कीर्तन करना चाहिए। उन्होंने कहा, “यहाँ कितना अधिक स्थान है। सवेरे की कक्षा कितनी अच्छी होती है— दस लाख वर्ष पूर्व दी गई प्रह्लाद महाराज की शिक्षाएं एक पाँच वर्ष का बच्चा बोल रहा था। भक्तिविनोद ठाकुर के कथनानुसार केवल कीर्तन ही समस्त संतोष का स्रोत है। कीर्तन में भौतिकता का लेश भी नहीं है। अजामिल ने नारायण का नाम पुकारा और उसकी रक्षा हो गई । ' प्रभुपाद ने कहा कि भक्तों की टोलियाँ मायापुर इस तरह आएँ कि वहाँ हर समय पाँच सौ लोग उपस्थित रहें। तब एक भक्त ने कहा, "अमेरिका में अधिक कीर्तन करने का प्रयत्न चल रहा है, बारह घंटे प्रतिदिन; अंत में चौबीस घंटे प्रतिदिन कीर्तन का कार्यक्रम बनाने की योजना है। " श्रील प्रभुपाद बोले, "हाँ, सर्वत्र, यह कीर्तन चलते रहना चाहिए। बैठकों, प्रस्तावों, विघटनों, क्रान्तियों से कोई समाधान नहीं मिलते, इसलिए कीर्तन ही चलना चाहिए ।" गोपवृन्द-पाल : मैं पहरे पर था। प्रभुपाद रात को बारह या एक बजे उठ जाया करते थे। वे ऊपर की मंजिल पर थे और मैं उनसे एक मंजिल नीचे था। बालकनी में आगे-पीछे घूमते हुए वे खूब कीर्तन करते थे। मैं उन्हें नहीं देख सकता था, किन्तु उनके घुटे हुए सिर की परछाईं देख सकता था। वे एक ओर दस कदम चलते और फिर दूसरी ओर दस कदम चलते थे। मेरा पहरा तीन घंटे का था, मैं बैठ गया और अपना जप करने लगा और प्रभुपाद के सिर को आगे-पीछे जाते-आते देखने लगा। कभी-कभी जब वे ऊँचे स्वर में कीर्तन करने लगते थे तो मुझे सुनाई दे जाता था । मुझे भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का स्मरण हो आया क्योंकि श्रील प्रभुपाद ने उस बालकनी का वर्णन कई बार किया था जिसमें भक्तिसिद्धान्त सरस्वती आगे पीछे घूमा करते थे और कृष्णभावनामृत आन्दोलन के प्रसार की कल्पना करते रहते थे। उसी तरह प्रभुपाद भी टहल रहे थे और सोच रहे थे कि कृष्णभावनामृत का प्रसार कैसे हो । आनकदुन्दुभि: प्रभुपाद के कमरे में दीवार पर चंदन की लकड़ी में उत्कीर्ण राधा और कृष्ण का एक सुंदर चित्र था, ठीक उसी तरह का जैसा कृष्ण पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर है। राधा और कृष्ण खड़े हैं, राधाराणी की एक बाँह कृष्ण को लपेटे है; कृष्ण के हाथ में बाँसुरी है और उनका परिधान राधा पर फैला है। जब दर्शन के लिए कमरे में कोई अतिथि न होते तो प्रभुपाद बैठ जाते और उस चित्र को देखा करते थे। वह उन्हें अत्यंत प्रिय था। जब मैं माला लेकर ऊपर उनके पास जाता, तो वे उसे दर्शन - काल में डेढ़ घंटे के लिए धारण कर लेते थे। दर्शन के बाद वे उठते और माला उतार कर रख देने के बाद शौचालय में जाते थे। तब वे वापस आते थे और माला राधा और कृष्ण को दे देते थे। कई बार मैने ऐसी मालाएँ दीं जो छोटे सफेद सुगंधित फूलों की बनी थीं। ये फूल मुझे जननिवास से मिलते थे । प्रभुपाद माला लेकर उसे राधा - कृष्ण पर बड़े ही सुंदर ढंग से रखते थे। जिस ढंग से वे वह छोटी माला चढ़ाते थे वह अर्चा-विग्रह उपासना की पूर्णता था । जननिवास : प्रभुपाद के जाने के ठीक पहले मैं उनके कमरे में गया और मैने उनसे पूछा, “श्रील प्रभुपाद, लोबान चाहिए ?" उस समय कमरे में और कोई नहीं था और वे बैठे हुए जप कर रहे थे। लोबान जला कर मैं कमरे को उससे धुएँ से भरने लगा। धुआँ पूरे कमरे में भर गया और प्रभुपाद ने खिड़कियाँ बंद कर रखी थीं। उन्होंने मेरी ओर देखा और कहा, “इससे आध्यात्मिक बोध के कितने सुंदर वातावरण की सृष्टि होती है। यह कितना अच्छा है! कितना अच्छा !” तब वे पुन: जप करने लगे । पुष्ट कृष्ण: जब प्रभुपाद ने मायापुर उत्सव का अंत में समापन कर दिया तो मैंने उनसे पूछा कि क्या वे थक गए हैं। प्रभुपाद ने कहा, “ थकना कैसा ? इतने सारे लोग आ रहे हैं और कृष्ण के विषय में सुन रहे हैं। जब आप उपदेश करते होते हैं, तो ताजा अनुभव करते हैं । |