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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 50: लगड़ा आदमी और अंधा आदमी  » 
 
 
 
 
 
लंगडा आदमी और अंधा आदमी

९७५ ई. में बी. बी. टी. की भारी सफलता के बाद से प्रेस ने प्रभुपाद के लेखन का साथ बराबर बनाए रखा था। प्रभुपाद, उनके प्रेस और पुस्तक-वितरकों के मध्य एक प्रकार की मधुर दिव्य प्रतिस्पर्धा विकसित हो गई थी । नवम्बर १९७५

में प्रभुपाद ने एक प्रमुख पुस्तक - वितरक को लिखा था ।

बी. बी. टी. कहता है कि वह मेरे अनुवाद करने की गति से प्रकाशन कर रहा है और आप प्रकाशन की गति से वितरण करेंगे। यह बहुत अच्छा है। किन्तु मैं अपने अनुवाद - कार्य में अब भी आगे हूँ। अब उन्हें श्रीमद्भागवत का छठा स्कंध मुझे भेजना चाहिए। मैं सातवें स्कंध पर कार्य करना आरंभ कर चुका हूँ।

किन्तु हाल के महीनों में, प्रभुपाद का साहित्यिक उत्पादन कम होता रहा था, मुख्यतया उनके प्रबन्ध सम्बन्धी कार्यों में व्यस्त होने के कारण । बम्बई में निर्माण कार्य का उनके द्वारा सीधा पर्यवेक्षण, वृंदावन में उनका एक महीने तक प्रबन्ध में व्यस्त रहना, इस्कान की एक बड़ी फूट को शान्त करने का उनका संघर्ष - ये ऐसे कार्यकलाप थे जो लिखने के कार्य में सहायक नहीं हो सकते थे। मायापुर में जब भक्तगण दरवाजों को जोर से बंद करने पर नियंत्रण नहीं रख सके तो उन्होंने बड़े दुख के साथ शिकायत की कि यह 'हृदय - भंजक' आवाज उनके चिंतनशील अनुवाद - कार्य में बड़ी बाधक थी। उन्होंने बताया कि किसी-किसी तात्पर्य को वस्तुतः लिपिबद्ध करने से पहले, कभी-कभी वे उसके विषय में दो या तीन दिन सोचते थे ।

वस्तुतः श्रील प्रभुपाद के लेखन कार्य का वर्णन करने के लिए 'अनुवाद करना' शब्द अधूरा है। अनुवाद करने में केवल श्लोक और पर्याय सम्मिलित किन्तु प्रभुपाद के गहनतम चिन्तन – जिन्हें वे अपनी व्यक्तिगत आनन्दानुभूतियाँ

का

कहते थे— उनके भक्तिवेदान्त तात्पर्य थे । तात्पर्यो की रचना तथा श्लोकों अनुवाद तब सर्वोत्तम होता था जब वे उनके विषय में दिन-भर सोचते रहते थे, न कि ठीक तब-जब वे एक बजे रात में अपनी श्रुत - लेखन मशीन चला देते थे। वे अत्यन्त गहन और जटिल वैदिक ज्ञान का अनुवाद आधुनिक संदर्भ में कर रहे थे जिससे वह पाश्चात्य पाठकों के लिए बोधगम्य बन सके। और यह एक महानू, कठिन कार्य था ।

श्रीमद्भागवत पर लेखन के माध्यम से, संसार भर के लोगों से वार्ता करने के लिए, श्रील प्रभुपाद को बहुत अनुकूल परिस्थिति की आवश्यकता थी । इसलिए मायापुर उत्सव के बाद उन्होंने यात्रा का एक ऐसा कार्यक्रम बनाया जिससे वे एक महीने में हवाई पहुँच जाएंगे। वहाँ उन्हें आशा थी कि उनके साहित्यिक कार्य के लिए उपयोगी वातावरण मिलेगा। उनके यात्रा - सचिव, पुष्ट कृष्ण, ने मायापुर उत्सव के कुछ समय बाद ही, अग्रिम सूचना देते हुए हवाई लिखा,

प्रभुपाद को बहुत अधिक अनुवाद कार्य करना है। इसलिए बाहर का कोई कार्यक्रम तय न कीजिए। और यदि अतिथियों को आना है तो वे केवल पाँच बजे से साढ़े छह बजे शाम तक आएँ । यदि ऐसी व्यवस्था ढंग से हो जाती है तो प्रभुपाद वहाँ लेखन - कार्य करने के लिए कुछ समय रुकेंगे ।

चूँकि प्रभुपाद के यात्रा - कार्यक्रम में संयुक्त राज्य का दूसरा परिभ्रमण भी सम्मिलित था, इसलिए उनके सचिव ने न्यू वृंदावन में कीर्तनानन्द स्वामी को पहले ही लिख दिया,

हवाई

प्रभुपाद ने कुछ और बातें अभिव्यक्त की हैं। उन्होंने कहा है कि समय बीतने के साथ, अब उनकी रुचि कम से कम आगंतुकों से मिलने में रह गई है। उन्होंने उल्लेख किया कि महर्षि अरविन्द दर्शनार्थियों से वर्ष भर में केवल एक दिन, अपने जन्म-दिवस पर, मिलते थे । यद्यपि प्रभुपाद का विचार है कि अब ऐसा करना सम्भव नहीं है, तथापि मैने उनसे पूछा कि वे अनुवाद कार्य करने के लिए कुछ समय कहाँ जाकर रहना चाहते हैं। उन्होंने कहा— न्यू वृंदावन, और वहाँ वे न्यू यार्क की रथ यात्रा के बाद जाना चाहेंगे।

मई ३, १९७६

भारत के कई नगरों की संक्षिप्त यात्राओं के बाद और मेलबोर्न, आकलैंड तथा फिजी में थोड़े-थोड़े समय रुकते हुए श्रील प्रभुपाद निर्धारित समय पर हवाई

लेखन-कार्य

पहुँच गए। वे तुरन्त अपने लेखन कार्य में वृद्धि करने में लग गए। भक्त उत्सुकतापूर्वक उनके श्रुत-लेखन यंत्र पर अंक - सूचक संख्या हर रात देखते रहते थे जो उनके लिए एक प्रकार से मानवता के लिए प्रभुपाद के आशीर्वाद का माप था । भारत में वे प्रतिदिन सामान्यतया सौ अंकों से आगे नहीं जाते थे और कभी कभी कुछ भी नहीं करते थे। हवाई में उनकी दर दिन-प्रति-दिन बढ़ती गई और दो सौ से भी आगे जाकर तीन सौ तक पहुँच गई थी । हरिशौरी ने, जो वृंदावन से उनके सेवक के रूप में उनके साथ गया था, अपनी डायरी में लिखा, “प्रभुपाद अनुवाद - कार्य बड़ी तेज गति से कर रहे हैं, पिछली रात वे २९० अंक पर पहुँच गए।

मंदिर का पड़ोस बहुत शान्त था, बगीचानुमा कई एकड़ की सम्पत्ति उससे संलग्न थी। मंदिर के पीछे एक विशाल, शानदार बरगद वृक्ष था और उसके सामने विस्तृत तुलसी की झाड़ियाँ थीं, इतनी विस्तृत जितनी इस्कान में कहीं नहीं थीं। भक्त अपनी सब्जियाँ, फूल और आम स्वयं पैदा करते थे और नारियल तो इतनी अतिशयता से होता था कि वह निःशुल्क मिलता था। मौसम खुली

धूप का था, कभी-कभी वर्षा हो जाती थी ।

प्रभुपाद बीमार पड़ गए और वे रात में डेढ़ घंटे और दिन में एक या दो घंटे से अधिक नहीं सो सकते थे। किन्तु वे दिव्य थे, इसलिए सो सकने की अपनी असमर्थता का उपयोग, उन्होंने लेखन के समय में वृद्धि करके, अन्य तरीके के तौर पर किया । लेखन पर इतना बल देने के बावजूद, मंदिर में व्याख्यान देने, सवेरे भ्रमण करने, सागर तट पर विचार - वार्ता करने और प्रतिदिन के पत्रों का उत्तर देने का उनका कार्यक्रम जारी रहा। तब भी हवाई, कलकत्ता या वृंदावन से बहुत भिन्न था, जहाँ पुराने मित्र और नए प्रशंसक घण्टों उनके समय ले लेते थे । यहाँ अपने प्रशिक्षित कर्मचारियों के साथ वे अधिकतर अकेले थे।

वे होनोलूलू में लगभग एक सप्ताह रहे होंगे, जब एक दिन प्रात: काल वैकीकी तट पर घूमते हुए उन्होंने घोषणा की कि उस रात वे सातवें स्कंध का अंतिम तात्पर्य लिख कर पूरा कर लेंगे। जब हरिशौरी ने यह सुन कर प्रसन्नता व्यक्त की तो प्रभुपाद बोले, "अरे, मैं तो इसे बहुत शीघ्र समाप्त कर सकता हूँ, किन्तु मुझे तो तुम लोगों को समझाने के लिए लिखना पड़ता है। सामान्य लोगों के लिए प्रस्तुत करने में गंभीर चिन्तन और सावधानी अपेक्षित है। "

रात में करीब नौ बजे प्रभुपाद ने हरिशौरी को बुलाया और कहा कि वे शाम की मालिश नहीं कराएँगे; वे सातवें स्कंध को पूरा करने के लिए समय

चाहते थे। दरवाजा बंद करके वे अपने डेस्क के सामने बैठ गए और पूरी रात, पाँच बजे सवेरे तक, कार्य करते रहे। सातवें स्कंध के अंत में उन्होंने एक समापन - टिप्पणी लिखाई,

- श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्री वासादि गौर - भक्त-वृंद की

कृपा

से

न्यू नवद्वीप ( होनोलूलू) में पंचतत्त्व मंदिर में वैशाख शुक्ला एकादशी तदनुसार १० मई, १९७६ ई. को सम्पूर्ण हुआ । अतः हम आनन्दपूर्वक कीर्तन करें— हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ।

इसके तुरन्त बाद प्रभुपाद ने आठवें स्कंध में हाथ लगाया जिसका शुभारंभ इस प्रार्थना से किया - " सर्वप्रथम मैं अपने गुरु, कृष्णकृपाश्रीमूर्ति श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद, के चरणकमलों में अपना सादर, विनीत प्रणाम अर्पित करता हूँ।” प्रभुपाद ने लिखा कि उनके गुरु महाराज ने १९३५ ई. में राधा-कुण्ड में उन्हें आदेश दिया था कि मंदिर - निर्माण की अपेक्षा पुस्तक - लेखन पर अधिक बल दें। उन्होंने गुरु महाराज के आदेश का पालन करते

हुए सर्वप्रथम १९४४ ई. में बैक टु गाडहेड नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया था और १९५८ ई. में श्रीमद्भागवत शुरु किया था । ज्योंही भारत में उन्होंने श्रीमद्भागवत के तीन खण्ड प्रकाशित कर दिए त्योंही अगस्त १९६५ ई. में वे अमेरिका के लिए रवाना हो गए थे।

जैसा कि मेरे गुरु महाराज ने आदेश दिया था मैं निरन्तर पुस्तकें प्रकाशित करने का प्रयत्न करता रहा हूँ। अब सन् १९७६ में, मैने श्रीमद्भागवत का सातवाँ स्कंध पूरा कर लिया है और दसवें स्कंध का सारांश कृष्ण, द सुप्रीम पर्सनालिटी आफ गाडहेड के नाम से प्रकाशित हो चुका है। आठवाँ स्कंध, नवाँ स्कंध, दसवाँ स्कंध, ग्यारहवाँ स्कंध और बारहवाँ स्कंध — प्रकाशित होने अब भी शेष हैं। इसलिए इस अवसर पर मैं अपने गुरु महाराज से प्रार्थना करता हूँ कि इस कार्य को पूरा करने की मुझे शक्ति दें। मैं न तो कोई महान् विद्वान् हूँ, न महान् भक्त हूँ। मैं अपने गुरु महाराज का केवल एक तुच्छ सेवक हूँ, और अमेरिका के अपने शिष्यों के सहयोग से, मैं अपनी पूरी योग्यता लगा कर, इन पुस्तकों के प्रकाशन से गुरु महाराज को प्रसन्न करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। सौभाग्य से संसार भर के विद्वान इन प्रकाशनों की सराहना कर रहे हैं। आइए, हम सब मिल कर श्रीमद्भागवत के अधिक से अधिक खण्डों को प्रकाशित कर, कृष्णकृपाश्रीमूर्ति श्री भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर को प्रसन्न करें। प्रभुपाद ने कहा कि वे श्रीमद्भागवत को सामान्य व्यक्तियों के लिए सुबोध बना रहे हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उनके लेखनों में सार तत्त्व का

अभाव है, प्रत्युत वे सार - ही सार हैं । किन्तु स्वयं भागवत की सारभूत भावना के अनुरूप, प्रभुपाद उन सभी बातों का बहिष्कार कर रहे थे जो असंगत और चित्त - विक्षेपक थीं और पूर्व आचार्यों की टीकाओं से वे ऐसी बातें ग्रहण कर रहे थे जो पाठक के मन को शुद्ध भक्ति की ओर आकृष्ट करें। श्रीमद्भागवत के प्रारंभ में ही उसके प्रणेता, श्रील व्यास देव, कहते हैं कि भागवत्, भौतिक कामनाओं से प्रेरित सभी धार्मिकता से बच कर, केवल शुद्ध भगवत् - भक्ति का उपदेश देता है। अतः श्रीमद्भागवत को वैदिक ज्ञान के वृक्ष का परिपक्व फल कहा जाता है। जिस प्रकार स्वयं भागवत सारभूत आध्यात्मिक ज्ञान है, उसी प्रकार भागवत का अनुवाद और उसकी टीका करने में श्रील प्रभुपाद ने, बिना किसी ऊहापोह या विचलन के, शुद्ध संदेश देने की भावना से काम लिया है ।

श्रीमद्भागवत के अनुसार — कृष्णस् तु भगवान् स्वयम् । भगवान् कृष्ण परम ईश्वर हैं। वे सभी अवतारों के स्रोत, सभी कारणों के कारण हैं। और प्रभुपाद ने यह निष्कर्ष प्रत्येक पृष्ठ पर उद्घाटित किया है। यद्यपि संस्कृत के कुछ विद्वान् प्रभुपाद द्वारा कृष्ण पर अधिक बल दिए जाने से असहमत हैं, किन्तु प्रभुपाद का संस्कृत को ' कृष्णमय' बनाना कोई सनक नहीं है, वरन् प्राचीन परम्परा के सर्वथा अनुरूप है। ।

विश्वविद्यालय के जिन विद्वानों ने गंभीरतापूर्वक प्रभुपाद की पुस्तकों का अध्ययन किया, उन्होंने उनके परम्परा - निर्वाह के श्रद्धापूर्ण गुण की सराहना की । सारे संसार से समीक्षाएँ प्राप्त हुईं।

“ जिन लोगों की संस्कृत भाषा तक पहुँच नहीं है उनको ये पुस्तकें बड़े उत्तम ढंग से भागवत का संदेश पहुँचाती हैं। "...डा. अलक हेजिब संस्कृत तथा भारतीय अध्ययन विभाग, हार्वर्ड विश्वविद्यालय । ...

" यह गहराई से अनुभूत सुविचारित और सुन्दरतापूर्वक अभिव्यक्त कृति है । मेरी समझ में नहीं आता कि मैं भगवद्गीता के इस अनुवाद की प्रंशसा करूँ, इसकी व्याख्या की निर्भीक विधि की प्रशंसा करूँ अथवा इसके विचारों की अंतहीन उर्वरता की प्रशंसा करूँ । मैने ऐसी महत्वपूर्ण वाणी और शैली में गीता के विषय में कोई दूसरी कृति नहीं देखी है।... यह भविष्य में दीर्घकाल तक आधुनिक मानव के बौद्धिक तथा नैतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करती रहेगी। ... '

डा. शालिग्राम शुक्ल, प्रोफेसर, भाषाविज्ञान, जार्जटाउन विश्वविद्यालय ।

... पहली बार हमें इस महान् धार्मिक वरेण्य ग्रंथ का सहज ही प्राप्य संस्करण

उपलब्ध हुआ है जिससे भारतीय साहित्य के विद्वानों तथा कृष्णभावनाभावित परम्परा

के अनुगामियों को समान रूप से अवसर प्राप्त होगा कि वे मूल पाठ की तुलना आधुनिक अंग्रेजी अनुवाद से कर सकें और श्रील भक्तिवेदान्त की इस विद्वत्तापूर्ण टीका के माध्यम से इस कृति के गंभीर आध्यात्मिक अर्थ से परिचित हो सकें।

" जो भी इस टीका को ध्यानपूर्वक पढ़ेगा वह समझ जायगा कि अपनी अन्य कृतियों की तरह, यहाँ भी श्री भक्तिवेदान्त ने उत्कट भक्ति तथा भक्त की सौन्दर्यात्मक भावुकता एवं पाठविद् के बौद्धिक श्रम का स्वस्थ मिश्रण एकसाथ किया है। लेखक ने कहीं भी मूल अभिप्रेत अर्थ को किसी सैद्धान्तिक 'वाद' विशेष को बढ़ावा देने के विचार

से ओझल नहीं होने दिया है।

ये सुंदर ढंग से लिखे गए खण्ड उन सभी पुरुषों के पुस्तकालयों की श्रीवृद्धि करेंगे जो भारतीय अध्यात्म तथा धार्मिक साहित्य को पढ़ने के लिए कृत संकल्प हैं, चाहें उनकी रुचियाँ विद्वान् की प्रेरणा से उत्पन्न हुईं हों, भक्त की प्रेरणा से जगी हों या सामान्य पाठक की प्रेरणा से उद्वेलित हों । ” – डा. जे.

-डा. जे. ब्रूस लांग, एशियाई अध्ययन विभाग, कार्नेल विश्वविद्यालय ।

“श्री ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद द्वारा अनूदित यह अंग्रेजी संस्करण अनुपम है। इसमें मूल संस्कृत तथा बंगला श्लोकों के अंग्रेजी लिप्यंतरण, पर्यायवाची, अनुवाद तथा विस्तृत तात्पर्य दिए गए हैं जो सहज ही लेखक के तद्विषयक प्रकांड पांडित्य के प्रमाण हैं । " ... डा. ओ. बी. एल. कपूर, इमेरिटस अध्यक्ष एवं प्राचार्य, दर्शन विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ज्ञानपुर, भारत ।

वैदिक साहित्य में अध्यात्म के अनेक मार्गों और योग के अनेक रूपों का उल्लेख है और यदि टीकाकार द्वारा उच्चतम वैदिक निष्कर्ष अनुभूत नहीं है, तो भागवत का वास्तविक संदेश देने में वह आसानी से चूक कर सकता है। सचमुच, मायावादी टीकाकारों ने भागवत को अपने इस अनुमान के समर्थन में नियोजित करने का प्रयत्न किया है कि जीवात्मा और ब्रह्म में तादात्म्य है— यद्यपि इससे श्रीमद्भागवत के उद्देश्य का खण्डन होता है। वैदिक साहित्य के एक

। टीकाकार के रूप में, वैष्णव विद्वानों में भी श्रील प्रभुपाद सुविख्यात थे, क्योंकि वे श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में थे जो पतित पावन के रूप में महिमा - मंडित हैं । भगवान् चैतन्य के एक अनुयायी और अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में, श्रील प्रभुपाद पतित-आत्माओं के उद्धार का और उन्हें मौलिक कृष्णभावनामृत में लाने की परम्परा का सम्पादन निष्ठापूर्वक पूरी तरह से कर रहे थे ।

अतः प्रभुपाद द्वारा भागवत के संदेश को 'उपलब्ध' बनाने का अर्थ केवल सरलीकरण नहीं था। इसका अर्थ पाठक को आवश्यक रूप से वह ज्ञान देना था कि वह माया के संसार को त्याग कर कृष्णभावनामृत की शाश्वत मुक्ति अपनाए। प्रभुपाद सामान्य पाठक के लिए उस आध्यात्मिक सत्य को उपलब्ध

को

बना रहे थे जो योग का कठिन अभ्यास करने वालों और संस्कृत में दक्ष विद्वान ब्राह्मणों के लिए भी गुह्य और अनुपलब्ध था। प्रभुपाद उसे " नई बोतलों में पुरानी शराब” कहते थे ।

निराकारवाद के विरुद्ध वैष्णव- तर्क की रूपरेखा मध्वाचार्य और रामानुजाचार्य ने तैयार की थी और बाद में उसे भगवान् चैतन्य ने अचिन्त्य - भेदाभेद-तत्त्व के दार्शनिक सिद्धान्त का रूप दिया। इन शाश्वत सत्यों को प्रत्येक युग में किया जाना था, किन्तु वैष्णवों और निराकारवादियों के मध्य चलने वाले प्रस्तुत परम्परागत विवादों में वैदिक शास्त्र सदा से प्रामाणिक आधार रहता आया था।

किन्तु आधुनिक समाज इतना गिर चुका है कि कोई उपदेशक वैदिक शास्त्र के प्रमाण की दुहाई नहीं दे सकता — न ही कोई इसे स्वीकार करेगा । अतः श्रील प्रभुपाद की कृतियों में ऐसे सिद्धान्तों की चर्चा है जैसे—संयोगवश जीवन की उत्पत्ति, डार्विन का विकास, रासायनिक विकास, आदि। और उन्होंने अपने प्रखर तर्क द्वारा इन सभी को हराया और प्रतिपादित किया कि जीवन जीवन से आता है, मृत पदार्थ से नहीं । प्रभुपाद ने अपनी प्रथम कृतियों में से एक कृति 'ईजी जर्नी टु अदर प्लानेट्स' ('अन्य लोकों की सरल यात्रा') 'संसार के वैज्ञानिकों' को समर्पित की थी। इस पुस्तक में उद्धृत गीता के श्लोकों को उन्होंने वैज्ञानिक शब्दावली में रूपान्तरित करके उन्हें " पदार्थ और अपदार्थ" का नाम तक दिया था । वैदिक निष्कर्ष की स्थापना के लिए उन्होंने शास्त्र और तर्क दोनों का प्रयोग दक्षतापूर्वक किया ।

प्रभुपाद की कृतियों ने उन पाखण्डी योगियों, गुरुओं और "अवतारों" के झूठे उपदेशों से भी लोहा लिया जो इस कलियुग में भारत तथा पश्चिम दोनों में मिथ्या के ज्वार के रूप में प्रकट हुए थे। उनकी कृतियों ने आधुनिक राजनीतिक संस्थानों की भी आलोचना की और विश्लेषण किया कि राजतंत्रों का पतन क्यों हुआ, प्रजातंत्र का पतन क्यों हो रहा है और तानाशाही किस प्रकार नागरिकों को और अधिक तंग करेगी। इन कृतियों में सरकार द्वारा अनुचित कराधान और लोगों को सरल देहाती जीवन त्याग कर, मिलों में काम करने के लिए नगरों में लाने के सरकारी प्रचार की भी आलोचना शास्त्रों के प्रकाश में की गई ।

अपनी यात्राओं में श्रील प्रभुपाद ने मानव समाज में व्याप्त पतन को देखा था : यौन-स्वातंत्र्य, मादक द्रव्य सेवन के अधुनातम रूप, पशु-हत्या से सम्बन्धित अहितकर अपराध और मांस भक्षण । भगवद्गीता के एक तात्पर्य में उन्होंने विशेष

रूप से नाभिकीय नर संहार की आशंका पर विचार प्रकट किया।

ऐसे लोग संसार के शत्रु माने जाते हैं, क्योंकि अन्ततोगत्वा वे ऐसे अन्वेषण करेंगे या ऐसी कोई चीज बनाएँगे जो सब का विनाश कर देगी । अप्रत्यक्ष रूप में, यह श्लोक नाभिकीय आयुधों के आविष्कार की संभावना व्यक्त करता है जिसके लिए आज का संसार गर्व अनुभव करता है। किसी भी क्षण युद्ध आरंभ हो सकता है और ये परमाणु आयुध विनाश रच सकते हैं। ऐसी वस्तुएँ संसार के विनाश के लिए ही निर्मित की जाती हैं और यहाँ इसी की ओर संकेत है। मानव समाज में ऐसे हथियारों की खोज ईश्वर - विहीनता के कारण की जाती है। इनका उद्देश्य विश्व शान्ति और समृद्धि नहीं है।

प्रभुपाद की आलोचनाएँ सशक्त और प्रामाणिक थीं, एक सच्चे आचार्य के अनुरूप । समझौता न करने की उनकी प्रवृत्ति प्रभावोत्पादक थी। वे ऐसे भीरु विद्वान् नहीं थे जो किसी अज्ञात ऐतिहासिक संदर्भों का उल्लेख कर रहा हो । फिर भी उनकी कृतियों में प्रार्थना का विनीत स्वर था जो हृदय पर प्रभाव डालता था। कृष्ण के दासानुदास के रूप में उन्होंने हर एक से कृष्णभावनामृत को अपनाने और शाश्वतत्व, आनंद और ज्ञान की अपनी मूल वैधानिक स्थिति को प्राप्त करने का अनुरोध किया ।

प्रभुपाद अपनी पुस्तकों को व्यवहार - योग्य बना रहे थे, किन्तु ऐसा करने के लिए सावधानी और गहन चिन्तन अपेक्षित था। प्रभुपाद में एक पाठ - विद् विद्वान् की विचारमग्नता और एक दिव्य सामाजिक और राजनीतिक सुधारक की व्यवहार - बुद्धि का अद्भुत मेल था । न जाने कितने विद्वानों ने भगवद्गीता का अंग्रेजी - संस्करण प्रस्तुत किया होगा, किन्तु उनका एक भी पाठक कृष्ण का भक्त नहीं बना था । लेकिन प्रभुपाद की भगवद्गीता यथारूप हजारों भक्त बना रही थी ।

न्यू

प्रभुपाद ने बहुमूल्य वैदिक साहित्य को केवल प्रस्तुत ही नहीं किया, उससे भी अधिक उनका काम यह था कि वे पश्चिम में गए और वहाँ, यार्क नगर से आरंभ करके, वैदिक साहित्य पर आधारित एक नई जीवन-पद्धति को स्थापित किया। फलतः उन्होंने, सर्वाधिक भौतिकतावादी मनुष्यों को त्याग और भक्ति के मानदण्ड तक लाने का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया । अतएव, उनकी पुस्तकें इन प्रत्यक्ष अनुभवों को प्रतिबिम्बित करती हैं, और अपने तात्पर्यों में उन्होंने कई बार उन कठिनाइयों और सफलताओं का वर्णन किया है जिनका सामना, उनके भौतिकतावादी समाज में, आध्यात्मिक सिद्धान्तों को प्रवेश कराने

के प्रयत्न में, हुआ था।

श्रीमद्भागवत के छठे स्कंध में उन्होंने नारद मुनि को दक्ष द्वारा दिए गए उस समय के अभिशाप का वर्णन किया है। जब नारद मुनि ने दक्ष के पुत्रों को शुद्ध कृष्णभावनामृत में दीक्षित किया था तब ईर्ष्यालु पिता ने, नारद को अपना शत्रु मान कर, उन्हें अभिशाप दिया था कि वे, बेघरबार, सदैव भटकते रहेंगे। अपने तात्पर्य में प्रभुपाद ने लिखा था कि नारद मुनि को उनके शिष्यों के माता-पिताओं से भी शाप मिला था, इसलिए संसार में, उनके बहुत सारे आश्रयों के होते हुए, उन्हें सदैव भ्रमण करते और उपदेश देते रहना था ।

और सातवें स्कंध में हिरण्यकशिपु राक्षस द्वारा उसके पुत्र प्रह्लाद पर किए गए अत्याचारों पर टिप्पणी करते हुए, श्रील प्रभुपाद ने उन कठिनाइयों का वर्णन किया था जिनका सामना इस्कान के भक्तों को पुस्तकों के वितरण में हिरण्यकशिपु के आधुनिक प्रतिरूपों के कारण करना पड़ता था ।

इस प्रकार प्रभुपाद अपने साहित्य को स्वयं अपने व्यक्तित्व की विचारमग्नता से रंग रहे थे जो एक शुद्ध भक्त का भागवत की सेवा को शरीर, मन और वाणी से निष्ठापूर्वक समर्पण था। चूँकि भागवत शब्द केवल परमात्मा के विषय में वर्णन का ही निर्देश नहीं करता, वरन् परमात्मा के भक्त का भी समावेश के करता है, अतः श्रील प्रभुपाद स्वयं भी भागवत थे। और उनकी पुस्तकों माध्यम से भागवत पुस्तक और भागवत व्यक्ति दोनों के प्रति सेवा की प्रेरणा प्राप्त होती है।

हवाई पहुँचने के दो सप्ताह के अंदर प्रभुपाद आठवें स्कंध तक पहुंच गए; उनकी औसत प्रतिदिन तीन सौ अंक तक पहुँच गई। उनके स्वास्थ्य में सुधार आ गया, यद्यपि उन्हें नींद बहुत ही कम आती थी । प्रभुपाद ने कुछ सोच कर कहा, “ अधिक न सोना आध्यात्मिक दृष्टि से अच्छा है । '

जब यह समाचार प्राप्त हुआ कि एक मंदिर के अध्यक्ष और उनके जी. बी. सी. के अधिकारियों के बीच समस्या उत्पन्न हो गई है तो प्रभुपाद ने उसे एक अन्य कठिनाई का उदाहरण माना जिससे उनके लेखन में, जो उनके प्रचार कार्य का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग था— बाधा होने जा रही थी । इसलिए उन्होंने सभी जी. बी. सी. सदस्यों को सम्बोधित करते हुए एक पत्र लिखा ।

मेरे प्रिय जी. बी. सी. शिष्यो,

मेरा शुभाशिष स्वीकार करें। गत दस वर्षो से मैने ढाँचा तैयार करके दे दिया है और हम अब ब्रिटिश साम्राज्य से अधिक हो गए हैं। ब्रिटिश साम्राज्य भी हमारे जैसा विस्तृत नहीं था । उनके पास विश्व का केवल एक खण्ड था और हमारा फैलाव अभी पूरा नहीं हुआ है। हमें अधिकाधिक, असीम रूप में, फैलते जाना है। किन्तु मैं अब आप को स्मरण कराना चाहता हूँ कि मुझे श्रीमद्भागवत का अनुवाद पूरा करना है। यह हमारा सबसे बड़ा अभिदान है। हमारी पुस्तकों से हमारा सम्मान बढ़ा है। लोगों को मंदिर या गिरजा की उपासना में विश्वास नहीं है। वे दिन बीत गए हैं । किन्तु निस्सन्देह हमें मंदिरों को बनाए रखना है, मनोबल ऊँचा रखने के लिए यह जरूरी है। केवल बुद्धिवाद से काम नहीं चलेगा, व्यावहारिक शुद्धीकरण आवश्यक है।

अतः मेरा आप से अनुरोध है कि प्रबन्धन की जिम्मेदारी से मुझे अधिक से अधिक राहत दें जिससे मैं श्रीमद्भागवत का अनुवाद पूरा कर सकूँ । यदि मैं सदा प्रबन्ध में लगा रहा तो मैं पुस्तकों का काम नहीं कर सकता। यह दस्तावेज़ की बात है । मुझे हर शब्द बहुत सोच-विचार करके चुनना पड़ता है और अगर मुझे प्रबन्ध के सम्बन्ध में सोचना - विचारना पड़ा तो मैं पुस्तकों के बारे में नहीं सोच सकता। मैं उन धूर्तों की तरह नहीं हूँ जो जनता को धोखा देने के लिए दिमागी मायाजाल रचते हैं। इसलिए मेरा यह कार्य पूरा नहीं हो सकता, जब तक मेरे निजी सहायक, जी. बी. सी. के लोग, मंदिरों के अध्यक्ष, और सभी संन्यासी सहयोग न करें। मैने अपने सर्वोत्तम लोगों को जी. बी. सी. में रखा है और मैं नहीं चाहता कि जी. बी. सी. के लोग मंदिर - अध्यक्षों के प्रति असम्मानपूर्वक व्यवहार करें। स्वाभाविक है कि आप मुझसे परामर्श करें, किन्तु यदि मूल सिद्धान्त ही गलत है तो काम कैसे चलेगा ? इसलिए कृपा करके प्रबंधन कार्य में मेरी सहायता करें, जिसमें मैं श्रीमद्भागवत को पूरा करने को समय पा सकूँ । यह संसार को हमारी स्थायी देन होगी ।

श्रीमद्भागवत पर अपनी उत्कृष्ट प्रगति बनाए रख कर हवाई में प्रभुपाद को एक अन्य पुस्तक भी प्रारंभ करने का अवसर मिला। उनके दीर्घ कालीन शिष्य और सम्पादक, हयग्रीव, ने प्रभुपाद को लिखा कि वे पश्चिमी दार्शनिकों पर भेंट - वार्ता की पुस्तक - माला तैयार करने में सहायता करने को तत्पर हैं। यह वही योजना थी जिसे प्रभुपाद ने अपने पूर्व सचिव, श्यामसुंदर, के साथ आरंभ किया था, किन्तु जब श्यामसुंदर ने इन्कान में अपना पद त्याग दिया था तो उनके साथ मिल कर जो बहुत सारा कार्य प्रभुपाद ने किया था उसके टेप और प्रतिलेख आदि श्यामसुंदर से कहीं इधर-उधर हो गए थे ।

हयग्रीव ने सुकरात और प्लेटो से आरंभ करके इस कार्य को फिर शुरू करने का प्रस्ताव किया। प्रक्रिया कुछ इस तरह थी कि हयग्रीव प्रभुपाद

के

समक्ष किसी पाश्चात्य विचारक के दर्शन का सार प्रस्तुत करेंगे और प्रभुपाद वैदिक दृष्टिकोण से, बिना किसी पूर्व तैयारी के, उसका खण्डन अथवा मण्डन

करेंगे।

पूर्व वर्षों में की गई भेंट - वार्ताओं के प्रति प्रभुपाद और उनके शिष्यों में बड़ा उत्साह था। और प्रभुपाद ने उसका नाम भी " द्वन्द्वात्मक अध्यात्मवाद" रख दिया था। किन्तु जब श्यामसुंदर से टेप खो गए तो योजना खत्म-सी हो गई थी। अब हयग्रीव, जो अंग्रेजी का भूतपूर्व प्राचार्य और बैक टु गाडहेड पत्रिका का अमेरिका में मूल सम्पादक था, हवाई आने की अनुमति माँग रहा था जिससे प्रभुपाद के साथ कुछ समय तक रह कर वह दर्शन पर उस पुस्तक को पुनर्जीवित कर सके ।

अनेक अन्य शिष्यों की तरह ही, हयग्रीव ने भी कड़ाई से विधि-विधानों का पालन करना छोड़ दिया था। श्रील प्रभुपाद ने इस यथार्थ को स्वीकार कर लिया था कि दीक्षा लेने के बाद भी कुछ शिष्यों को इन्द्रिय-भोग का तीव्र आकर्षण रोक पाना कठिन होगा और वे इस्कान के अन्तर्गत सक्रिय भक्ति का मार्ग त्याग देंगे। प्रारंभिक वर्षों में उन्हें और उनके अनुयायियों को बड़ा आघात पहुँचता था, यदि कोई भक्त उनका संघ छोड़ कर चला जाता था, किन्तु जब ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहीं और कभी कभी प्रमुख विश्वसनीय भक्त भी उनके शिकार होते गए तो प्रभुपाद ने समय के साथ उनको सहन करना वियोग में प्रभुपाद स्वीकार कर लिया । किन्तु ऐसे किसी वियुक्त पुत्र या पुत्री के वियोग में का दुखी होना कभी बंद नहीं हुआ, विशेषकर जब वह शिष्य या शिष्या ऐसी हो जिसने प्रभुपाद की सेवा किसी विशिष्ट रूप में की हुई हो। और उन्होंने उनसे अपने स्नेह को, अथवा उन्हें पुनः वापस लौटने के खुले स्नेहपूर्ण आमंत्रण को, कभी नहीं रोका।

में

हयग्रीव एक ऐसा ही शिष्य था जो प्रभुपाद के पास १९६६ ई. के ग्रीष्म न्यू

यार्क में आया था। उसने प्रभुपाद की अमूल्य सेवा की थी, किन्तु अंतत: वह कृष्णभावनामृत के सरल किन्तु कड़े सिद्धान्तों का पालन नहीं कर सका था। अब भौतिक जीवन का चढ़ाव उतार देखने के बाद, उसने अपने, प्रिय गुरु महाराज के पास पुनः लौटने का संकल्प जुटाया था ।

हयग्रीव प्रभुपाद के कमरे में प्रविष्ट हुआ । “यह आप का वही पुराना हयग्रीव

है, प्रभुपाद” उसने कहा और सिसकता हुआ फर्श पर गिर पड़ा।

प्रभुपाद ने उसे एक माला दी और पूछा कि वह और उसका परिवार कैसा है। तब अन्य भक्तों के बीच प्रभुपाद ने वर्णन किया कि हयग्रीव किस तरह कृष्ण द्वारा उनके पास संसार भर में कृष्णभावनामृत फैलाने में सहायता के लिए भेजा गया था ।

जब हयग्रीव ने कहा कि वह प्रभुपाद को एक दिन के लिए भी नहीं

भूला था तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "और मैं भी तुम्हें नहीं भूला। मैं सोचा करता था 'क्या हयग्रीव चला गया है ?' मैं इसी तरह सोचा करता था ” प्रभुपाद की वाणी रुद्ध हो गई, उनके नेत्रों में आँसू भर गए और वे बोल नहीं सके। अंत में उन्होंने हर एक को कमरे से चले जाने को कहा ।

प्रभुपाद और हयग्रीव प्रतिदिन मिलने लगे, कभी-कभी दो या तीन घंटों के लिए भी । 'द्वन्द्वात्मक अध्यात्मवाद' फिर आरंभ हो रहा था। वह श्रीमद्भागवत के आठवें स्कंध के साथ-साथ चलने लगा था और हयग्रीव फिर अपने स्थान पर लौट आया था, श्रील प्रभुपाद के चरण कमलों पर ।

मूल

यद्यपि प्रभुपाद ने जी. बी. सी. को लिख दिया था कि वे इस्कान की समस्याओं को स्वयं हल कर लिया करें, किन्तु उनका अपने को समस्याओं से अवगत रखना जारी रहा, क्योंकि उनके सहायक अनिच्छापूर्वक सारे खराब समाचार उन तक पहुँचाते रहते थे। एक दिन मधुद्विष स्वामी से एक तार मिला, जो संयुक्त राज्य के एक क्षेत्र में इस्कान के प्रभारी थे और जी. बी. सी. के उत्साही सदस्य थे। मधुद्विष को इस्कान में अपनी मजबूत स्थिति बनाए रखने में बड़ी कठिनाई हो रही थी। अधिकतर मामलों में, प्रभुपाद के शिष्यों की कठिनाई विषयासक्ति की ओर उनके रुझान से होती थी । प्रभुपाद के शिष्य उनके विरुद्ध कभी नहीं हुए थे, न ही वे कृष्णभावनामृत के वैचारिक निष्कर्षों को प्रायः निषेध करते थे । वे केवल माया के चक्कर में फँस जाते थे ।

मधुद्विष ने तार द्वारा जी. बी. सी. से त्याग पत्र दे दिया था । यद्यपि वह भक्ति में बना रहना चाहता था, किन्तु आध्यात्मिक दुर्बलता के कारण वह त्याग-पत्र देने को विवश अनुभव कर रहा था। तार में कोई विस्तार नहीं था, किन्तु प्रभुपाद तक अफवाह पहुँची थी कि वह किसी प्रेम जाल में फँसा था और उसने मंदिर छोड़ दिया था। प्रभुपाद ने कहा कि पाश्चात्यों के संन्यास लेने

के विरुद्ध यही उनके गुरु भाइयों का मुख्य तर्क था, वे अपनी कठोर प्रतिज्ञाओं को निभा नहीं पाएंगे। उन्होंने कहा कि उनके एक जर्मन गुरु भाई ने भी स्त्रियों के साथ गहरा सम्बन्ध स्थापित करके उच्छृंखला फैलाई थी।

प्रभुपाद ने उदास मन से कहा, “मैं क्या कर सकता हूँ ? मुझे सभी तीसरे दर्जे के लोगों के साथ काम करना पड़ रहा है— सभी धूर्त और मूर्ख हैं । केवल से ही काम चल रहा है । " प्रभुपाद ने मधुद्विष को जवाब में

की कृपा कृष्ण तार भेजा कि वह आए और उनसे बात करे । यद्यपि उन्होंने अपनी भावनाओं के मजबूत पर काबू रखा, किन्तु भक्तों ने देखा कि वे उद्विग्न थे। किसी पुत्र स्नेह - बंधन का यह दूसरा उदाहरण था, ऐसे पुत्र का जिसने उनकी विस्मयकारी सेवा की थी, ऐसे शिष्य का जिसे उन्होंने धैर्यपूर्वक सालों प्रशिक्षित किया था । प्रभुपाद का सक्रिय प्रबन्धन से अवकाश ले लेना फिर संदेहास्पद लगने लगा

था ।

श्रील प्रभुपाद ने कहा कि वे धूर्तों, बदमाशों अथवा किन्हीं को भी कृष्णभावनामृत के प्रसार में लगाने का प्रयत्न कर रहे थे। नियमों का कड़ाई से पालन करने वाले अनुयायियों का मिलना कठिन हो रहा था, पर वे कर भी क्या सकते थे? उन्होंने कहा कि संन्यास से किसी का पतन होने पर वह गृहस्थ बन जाता है, किन्तु बिल्कुल त्याग करके किसी को जाना नहीं चाहिए। हरिशौरी ने चैतन्य - चरितामृत से छोटा हरिदास और महाप्रभु चैतन्य की कहानी का उल्लेख किया । हरिशौरी ने कहा उस कहानी से तो यही प्रकट होता है कि किसी पतित संन्यासी का भगवान् चैतन्य की कृपा पुनः प्राप्त करना बहुत कठिन था ।

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "जो संन्यास से पतित होता है उसे वनताशी कहते हैं- अर्थात् वह जो वमन करके उसे फिर खा लेता है । '

हरिशौरी ने कहा, “तो यदि वे फिर गृहस्थ बन जाते हैं तो भगवान् चैतन्य की कृपा कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? "

प्रभुपाद ने कहा,

कहा, “यदि गुरु महाराज यह सुविधा प्रदान करते हैं और ऐसी व्यवस्था कर देते हैं तो कृष्ण उस व्यवस्था को स्वीकार कर लेंगे और बाद में वह पुनः संन्यासी बन सकता है।” प्रभुपाद ने कहा कि ऐसा पहले हो चुका था और प्रभुपाद ने कई उदाहरण दिए जब उन्होंने पतित संन्यासियों को विवाह कर लेने और भक्ति में बने रहने को कहा था। उन्होंने कहा, "वस्तुतः यह बड़ी लज्जाजनक स्थिति है। किन्तु किया क्या जाय ? भारत में मेरे गुरुभाई और संन्यासी इस बात के लिए मेरी आलोचना करते हैं कि मैं पाश्चात्यों को

ब्राह्मण और संन्यास की दीक्षा देता हूँ, पश्चिम के देशों में अर्चा-विग्रहों की स्थापना करता हूँ और स्त्रियों को मंदिरों में रहने की अनुमति देता हूँ । किन्तु यह सब करते हुए भी मैं कृष्णभावनामृत का प्रसार कर रहा हूँ। और इतनी कड़ाई करने पर भी वे कुछ नहीं कर रहे हैं। यदि मैं भेद-भाव करूँ तो मैं फिर अकेला हो जाऊँगा, जैसा कि मैं वृंदावन में था और फिर 'एक चूहा बन जाऊँगा' । '

हो,

हरिशौरी ने कहा, "ऐसा लगता है कि इसके पहले कि हमारा शुद्धीकरण

कई पीढ़ियाँ बीत जायँगी । "

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “यदि कोई निष्ठावान् है तो एक पीढ़ी में ही उसका शुद्धीकरण हो सकता है।

उस शाम को जब प्रभुपाद इस तैयारी में थे कि पूरी रात अनुवाद में बिताएँगे, मधुद्विष का विचार तब भी उनके मन पर छाया रहा। फिर भी वे “गजेन्द्र हाथी का संकट" शीर्षक अध्याय से श्लोकों का अनुवाद करने लगे । अध्याय में हाथियों के राजा गजेन्द्र का वर्णन था जो स्वर्ग में रहता था। एक दिन गजेन्द्र अपनी पत्नियों के साथ नदी में स्नान कर रहा था। तभी मगर ने अकस्मात् उस पर आक्रमण किया। मगर ने अपने जबड़े गजेन्द्र के एक पैर में जमा दिए । यद्यपि गजेन्द्र बड़ा शक्तिशाली था, किन्तु जल में वह मगर के मजबूत

पाश से अपने को मुक्त नहीं कर सका ।

श्रील प्रभुपाद ने लिखाया, "इसके पश्चात् जल में खींचे जाने और कई वर्षों तक संघर्ष - रत रहने के कारण गजेन्द्र की मानसिक, शारीरिक और ऐन्द्रिय शक्तियों में बड़ा ह्रास हो गया। इसके विपरीत जल का जीव होने के कारण मगर की शारीरिक और ऐन्द्रिय शक्तियों में तथा उसके उत्साह में वृद्धि होती गई । ”

प्रभुपाद ने कहा था, “मैं इसे शीघ्रता से समाप्त कर सकता हूँ, किन्तु मुझे सोचना है कि इसे सामान्य व्यक्ति के लिए कैसे तैयार करूँ ।" उस घटना का महत्त्व वे कैसे प्रतिपादित करें, जो लाखों वर्ष पूर्व दो पशुओं के बीच किसी आकाशीय लोक पर घटित हुई थी ? उसे कैसे स्पष्ट किया जाय और सुबोध बनाया जाय ? उसे सारगर्भित संस्कृत शब्दों और विश्वनाथ चक्रवर्ती, सनातन गोस्वामी और भक्तिसिद्धान्त सरस्वती जैसे आचार्यों की परम्परानुरूप टीकाओं का मर्म कैसे ग्राह्य हो ? अपने कक्ष के शान्त एकान्त में श्रील प्रभुपाद अपना तात्पर्य लिखाने लगे ।

“ हाथी और मगर के संघर्ष में अंतर यह था कि यद्यपि हाथी बहुत अधिक शक्तिशाली था किन्तु वह अन्य के स्थान, जल, में था । एक हजार वर्ष पर्यन्त उसे कोई भोजन नहीं मिला, इसलिए उसका शारीरिक बल क्षीण हो गया । और चूँकि उसका शारीरिक बल क्षीण हो गया, इसलिए उसका दिमाग भी कमजोर हो गया और उसकी इन्द्रियों की शक्ति घट गई। किन्तु जल का जीव होने के कारण मगर को कोई कठिनाई नहीं थी । वह अपना भोजन प्राप्त कर रहा था, इसलिए उसे मानसिक शक्ति और ऐन्द्रिय प्रोत्साहन मिल रहा था । अतः हाथी का बल क्षीण होता गया और मगर अधिकाधिक बलशाली बनता

गया।

" अब इस घटना से हम यह शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं कि माया के विरुद्ध युद्ध में, हमें अपने को ऐसी स्थिति में नहीं डालना चाहिए जिसमें हमारी शक्ति, उत्साह और इन्द्रियां जोरदार ढंग से युद्ध न कर सकें। हमारे कृष्णभावनामृत आन्दोलन ने वास्तव में माया की शक्ति के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है, जिस माया के फंदे में सभी जीवात्माएँ सभ्यता की भ्रामक धारणा लिए सड़ रही हैं। इस कृष्णभावनामृत आन्दोलन के सैनिकों के लिए आवश्यक है कि वे सदैव शारीरिक शक्ति, उत्साह और इन्द्रिय-बल से समन्वित हों। अपने को सक्षम बनाए रखने के लिए उन्हें अपने को जीवन की सामान्य परिस्थिति में रखना जरूरी है।"

प्रभुपाद ने आगे लिखाया, “सामान्य जीवन क्या है, यह हर एक के लिए एक जैसा नहीं है। इसलिए वर्णाश्रम विभाजन है— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। विशेषकर, इस कलियुग में उपयुक्त यही है कि संन्यास न लिया जाय...

“ इससे हम समझ सकते हैं कि इस युग में संन्यास आश्रम वर्जित है, क्योंकि लोगों में शक्ति नहीं है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने चौबीस वर्ष की अवस्था में संन्यास लेकर एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया था, किन्तु सार्वभौम भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को भी उपदेश दिया था कि वे अत्यन्त सावधान रहें, क्योंकि उन्होंने अल्प आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया था । उपदेश देने के लिए हम युवा बालकों को संन्यास दे रहे हैं, किन्तु वास्तव में यह अनुभव किया जा रहा है कि वे संन्यास के योग्य नहीं हैं।

इसमें कोई हानि नहीं है यदि कोई सोचता है कि वह संन्यास के योग्य नहीं है; यदि वह बहुत अधिक कामातुर हो तो उसे उस आश्रम में जाना चाहिए

जहाँ कामुकता के लिए अनुमति है— अर्थात् गृहस्थ आश्रम में । एक स्थान में कमजोर पाए जाने का यह तात्पर्य नहीं है कि वह माया के मगर के विरुद्ध युद्ध बंद कर दे। उसे चाहिए कि कृष्ण के चरणकमलों की शरण में जाय, जैसा कि हम गजेन्द्र को जाते देखेंगे। साथ ही काम तृप्ति के लिए हम गृहस्थ भी बने रह सकते हैं ।

“ युद्ध बंद करने की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए श्री चैतन्य महाप्रभु की संस्तुति है, स्थाने स्थिताः श्रुति-गताम् तनु-वाणमनोभिः । व्यक्ति को जो भी आश्रम ठीक लगे उसमें रह सकता है; यह आवश्यक नहीं कि वह संन्यास ले ले। यदि कोई कामातुर है तो वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर सकता है। किन्तु उसे युद्ध जारी रखना चाहिए। जो दिव्यानुभूति की स्थिति में है उसका दिखावटी संन्यास लेना, कोई श्रेय की बात नहीं है । यदि संन्यास अनुकूल न पड़े तो गृहस्थ बन कर माया के विरुद्ध बलपूर्वक युद्ध किया जा सकता है। किन्तु युद्ध बंद करके पलायन नहीं करना चाहिए।

माया की शक्ति से सीधा सामना करके श्रील प्रभुपाद ने अपने अनुभवों को प्रस्तुत किया। उन्होंने मधुद्विष का मामला लिया और उसके भौतिक आयामों से उसका परिष्कार किया और सभी स्थानों में सभी मनुष्यों के लिए उसे उपदेश - स्वरूप बना कर अमर कर दिया ।

प्रभुपाद का कार्य अपने शिष्यों को मजबूत बनाना था, जिससे उनका पतन न हो । गृहस्थ आश्रम में भी इन्द्रियतृप्ति का उनका 'मगर' बहुत बलशाली था । और अवैध यौन-सम्बन्ध पाश्चात्य लोगों का 'स्थायी रोग' था । इसी पर उनका पालन-पोषण हुआ था और वे इस में फंसे हुए थे और उन का समाज उन्हें, प्रोत्साहित करता था। इस मानसिकता में परिवर्तन लाना अत्यन्त कठिन था । अतः लिखने के साथ-साथ प्रभुपाद को अपने शिष्यों को सँभालने और उन्हें सशक्त प्रचारक बनाने के लिए, यात्रा करते रहना और उपदेश देते रहना जारी रखना जरुरी था ।

जिस प्रकार प्रभुपाद ने पश्चिम में प्रचार करने के उद्देश्य से वृंदावन के राधा - दामोदर मंदिर में पहले लिखना छोड़ दिया था, उसी प्रकार वे प्रचार के लिए हवाई के अपने विश्राम स्थल में लिखना छोड़ सकते थे। किन्तु वे जहाँ भी जायँ, किसी भी हालत में हों वे लिखना जारी रखने के लिए तैयार थे। उन्होंने हवाई में एक महीना रहने की योजना बनाई थी, स्थायी रूप से नहीं । उनके शिष्य, प्रेरणा और शक्ति के लिए, उन्हें देखना चाहते थे और जब तक वे जीवित

थे, यही उनका उद्देश्य था ।

पहले लास एंजिलिस जाना चाहते थे जो अब उनके शिष्य - समुदाय प्रभुपाद का एक विशाल और उन्नतिशील केन्द्र बन चुका था । वहाँ वे उनके नए मंदिर-कक्ष को देखेंगे जिसके तोरण संगमरमर के बने थे और जिसकी दीर्घा शानदार दिव्य चित्रों से अलंकृत थी। मंदिर में वे रुक्मिणी - द्वारकाधीश विग्रहों की वैभवपूर्ण उपासना का अवलोकन करेंगे। गोल्डन अवतार रेकार्डिंग स्टूडियो और फेट अजायब - घर में, जो भगवद्गीता के उपदेशों का प्रदर्शन करने के लिए बहुविध चित्र - माध्यमों का उपयोग करता था, प्रभुपाद कृष्णभावनामृत का अधुनातम प्राविधिक प्रयोग देखेंगे। वे अपनी वाटिका में बैठेंगे और कृष्ण पुस्तक का वाचन सुनेंगे और वेनिस बीच पर डा. स्वरूप दामोदर से वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर विचार करते

हुए भ्रमण करेंगे। और निस्सन्देह, पुस्तक-वितरण की उमड़ती हुई लहरों में वे और अधिक तेजी लाएँगे। एक दिन कार में बैठे हुए उन्होंने कहा था – “मेरी पुस्तकें दस हजार आने वाले वर्षों तक मानव समाज के लिए विधि-पुस्तकें होंगी । '

तब वे कुछ दिन डिट्रायट में उस महल में रहेंगे, जिसे उन्होंने एक वर्ष पूर्व खरीदा था। वे देखेंगे कि जो विस्मयकारी उपहार कृष्ण ने उनके शिष्यों को दिया था उसकी देखभाल शिष्य गण कैसे कर रहे हैं और वे उन्हें बताएँगे कि कृष्णभावनामृत की एक प्रदर्शन वस्तु के रूप में उन्हें उसका इस्तेमाल किस तरह करना चाहिए। स्वयं अपने लिए प्रभुपाद किसी महल में रहने की रुचि नहीं रखते थे और निरन्तर यात्रा उनके लिए कठिन सिद्ध हो रही थी, चाहे उनके रहने की व्यवस्था कैसी भी हो । विशाल भवन, वैभव, अमरीकी धन और विशेषज्ञता — सब कुछ कृष्ण की प्रसन्नता के लिए था ।

डिट्रायट से प्रभुपाद टोरन्टो जायँगे जहाँ, एक वर्ष पूर्व, उन्होंने अपने शिष्यों और भारतीय समुदाय के लोगों को नगर में एक विशाल चर्च खरीदने को प्रोत्साहित किया था। अब हाल के महीनों में ही उन्होंने उसे सचमुच खरीद लिया था और वे

प्रभुपाद के पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

वे न्यू वृंदावन भी जायँगे जहाँ भक्त दो वर्षों से उनके वहाँ लौटने की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। वे उन्हें उस नए विशाल व्यास आसन पर बैठ कर राधा - वृंदावन चन्द्र विग्रहों का अवलोकन करते देखना चाहते थे जो उन्होंने उनके लिए उत्कीर्ण करके बनाया था और उस महल में निवास करते देखना चाहते थे जो वे उनके

लिए बना रहे थे। और वे उन्हें उनके प्रिय शिष्य कीर्तनानंद स्वामी के साथ पुनः देखना चाहते थे । वे न्यू वृंदावन की गायों का दूध पिएँगे और वर्णाश्रम - धर्म के सम्बन्ध में शिक्षा देंगे। वे सरल ग्रामीण जीवन की प्रशंसा करेंगे और नगरीय औद्योगिक सभ्यता की मूर्खताओं की धज्जियाँ उड़ा देंगे ।

चार जुलाई १९७६ को, संयुक्त राज्य की स्वतंत्रता के द्विशतवार्षिक दिवस पर, श्रील प्रभुपाद वाशिंगटन डी.सी. में इस्कान मंदिर पर होंगे। वहाँ स्मारकों पर वे लाखों लोगों के समक्ष विशाल कीर्तन करेंगे। और जुलाई ६ को वे वाशिंगटन में इस्कान स्थापना का दसवाँ वार्षिकोत्सव मनाएँगे ।

तब वे न्यूयार्क जायँगे — उस नगर के प्रथम पूर्ण स्तरीय रथ यात्रा के लिए। वे इस्कान द्वारा हाल में प्राप्त किए गए गगनचुम्बी भवन में रहेंगे — जो मध्य नगर मनहट्टन का बारह - मंजिला भवन था ।

श्रील प्रभुपाद कभी - कभी कहा करते थे कि उनका सबसे बड़ा डर यह था कि उनके शिष्य एक दूसरे के साथ लड़ेंगे और इससे उनके आंदोलन में गहरे विभाजन होंगे। इसलिए वे यात्रा करते थे और अपने महान् प्रभाव का प्रयोग सभी तत्वों को मिलाने में करते थे। वे देख चुके थे कि जिन्हें उन्होंने भारी जिम्मेदारी दी थी, ऐसे लोग भी इन्द्रिय-तृप्ति के चक्कर में फँस गए थे । किन्तु वे यह भी देख चुके थे कि उनके अपने शिष्यों के साथ होने से किस प्रकार उनकी शक्ति बढ़ जाती थी ।

वे मानवता को परम ईश्वर कृष्ण पर निर्भर घोषित कर रहे थे और प्रचलित अधोगति के विरुद्ध जोरदार क्रान्ति कर रहे थे । यद्यपि अमेरिका अपनी द्विशतवार्षिकी पर भगवत् - चेतना का त्याग कर रहा था, श्रील प्रभुपाद का इस्कान नवीन और जीवन्त था और अमेरिका तथा अन्यत्र सभी स्थानों में शुद्ध भगवत् चेतना का संचार कर रहा था । बैक टु गाडहेड के सबसे ताजे अंक के मुखपृष्ठ पर एक चित्र था, जिसे प्रभुपाद ने बहुत पंसद किया था और जिसमें द्विशतवार्षिकी में प्रदर्शित लाल, श्वेत और नीले रंगों में बने चित्र के समक्ष एक भक्त हरे कृष्ण गाता हुआ चित्रित किया गया था । मुखपृष्ठ पर शीर्षक था - "भगवान् पर हमारी निर्भरता की घोषणा

प्रभुपाद को अंततः भगवान् चैतन्य के संकीर्तन आन्दोलन की सफलता में पूरा विश्वास था । यद्यपि वे अस्सी वर्ष के हो रहे थे, किन्तु वे सबसे बलवान भक्त थे। वे जहाँ भी जाते थे वहाँ जीवन और शक्ति ले जाते

अतः उन्होंने

इसे जारी रखा।

न्यूयार्क सिटी

जुलाई ९, १९७६

जयानंद कार चला रहा था। तमाल कृष्ण गोस्वामी और रामेश्वर स्वामी भी साथ में थे। उन्होंने श्रील प्रभुपाद और हरिशौरी को ला गार्डिया हवाई

अड्डे से कार में बैठाया था। जब वे मनहट्टन की ओर बढ़ने लगे तो प्रभुपाद

ने

पूछा, 'यहाँ सब ठीक से चल रहा है न ?"

तमाल कृष्ण ने उत्तर दिया कि अभी तो हर चीज यहाँ आरंभ ही हुई है। उसने कहा, “आप देखेंगे कि सारा कार्य प्रगति पर है । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, ठीक से प्रबन्ध कीजिए, कृष्ण हमें सब कुछ प्रदान कर रहे हैं। किसी चीज़ का अभाव नहीं है। यदि हम निष्ठापूर्वक कार्य करें तो कृष्ण हमें बुद्धि देंगे — हर वस्तु देंगे। उनकी कृपा से हर वस्तु उपलब्ध है । यही कृष्ण हैं । वे हमें कुछ भी दे सकते हैं

जब उनकी कार विशाल ब्रुकलिन ब्रिज के पास पहुँची तो प्रभुपाद ने पूछा, " मेरी समझ में यही ब्रुकलिन ब्रिज है ? मैं कभी यहाँ आया करता था और ब्रिज के पास बैठा करता था ! "

तमाल कृष्ण ने पूछा, “जल के निकट ?” वे न्यू यार्क में प्रभुपाद के पहले के कार्यकलाप के बारे में सुन कर अत्यंत मुग्ध थे । " आप जल के पास बैठा करते थे ?"

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, उस नदी के किनारे, क्योंकि मैं बावरी स्ट्रीट में रहता था। वह यहाँ से बहुत दूर नहीं है । इसलिए मैं यहाँ आया करता था, घूमा करता था और पुल के नीचे बैठ कर सोचा करता था, “मैं भारत कब लौहूँगा ?" वह हँसने लगा। उसने अन्य स्थानों के बारे में पूछा जैसे कोई अपने पुराने मित्रों के बारे में पूछ रहा हो — फुल्टन स्ट्रीट सबवे स्टेशन, और चैम्बर्स स्ट्रीट ।

से

तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को बताया कि एम्पायर स्टेट बिल्डिंग इस्कान केन्द्र नहीं है और उन्हें ग्यारहवीं मंजिल स्थित अपने कमरे से इसका सुंदर

दूर

दृश्य दिख सकेगा । तमाल कृष्ण ने कहा, "हमारी इमारत शहर के थिएटर, रेस्टारेंट तथा आमोद-प्रमोद विभाग के बीच में है ।

प्रभुपाद ने कहा, “न्यू यार्क में मुझे घर - सा लगता है, क्योंकि पहले मैं यहीं आया था। मैं सड़क पर इधर-उधर घूमा करता था । मैं सितम्बर १९६५ से लेकर जुलाई १९६७ तक निरन्तर न्यू यार्क में रहा ।

रामेश्वर स्वामी ने कहा, “आज प्रातः तमाल कृष्ण स्वामी ने कक्षा ली। वे बता रहे थे कि, क्योंकि आप इस नगर में आए हैं हम उसके सौभाग्य को नहीं समझ सकते । "

प्रभुपाद ने कहा, "हाँ, जब मैंने निश्चय किया कि मैं विदेश जाऊँगा तो मैने लंदन जाने का कभी नहीं सोचा। मैंने यहीं आने का निश्चय किया । सामान्यतः लोग लंदन जाते हैं, किन्तु मैने सोचा, “मैं न्यू यार्क जाऊँगा ।'

तमाल कृष्ण ने टिप्पणी की, "बहुत प्रगतिशील ।

प्रभुपाद हँसे, "मैं नहीं जानता । यह कृष्ण का आदेश है। मैं जा सकता था, क्योंकि लंदन अधिक निकट था । किन्तु मैने सोचा, "नहीं, मैं न्यू यार्क जाऊँगा; कभी कभी मैं स्वप्न देखता कि मैं न्यू यार्क गया हुआ हूँ ।"

ज्यों ज्यों वे विभिन्न बस्तियों से गुजरते, श्रील प्रभुपाद को पुराने दिनों का स्मरण हो जाता। उन्होंने डा. मिश्र के योग स्टूडियो तथा १०० सेवेंटी सेकंड स्ट्रीट स्थित अपने कमरे का उल्लेख किया जहाँ से उनका टेपरेकार्डर तथा टाइपराइटर चोरी चले गए थे । वेस्ट एंड सुपरेट भी रास्ते में आया जहाँ से वे फल खरीदते

थे ।

खिड़की से बाहर झाँकते हुए प्रभुपाद ने कहा, “कभी - कभी मैं सोचता हूँ कि मैं इस हिस्से में निरुद्देश्य आया करता था। हाँ, कभी कभी मैं सेकंड एवन्यू में टहलने आता था । "

अपने वरिष्ठ शिष्य का स्मरण करते हुए जो उस समय चुपचाप स्थिर गति से कार चला रहा था प्रभुपाद ने कहा, 'हमारा जयानंद एक टैक्सी चलाया करता था और हरे कृष्ण जपता रहता था । और एक दिन वह मेरे पास पाँच हजार डालर ले आया । यह भगवद्गीता के प्रकाशन के लिए दिया गया था ।

मैं समझता हूँ कि उसे मैकमिलन ने ले लिया । "

तमाल कृष्ण

ने कहा,

" तब आपने उसे टीचिंगूस आफ लार्ड चैतन्य की सभी प्रतियाँ बेचने का भार दिया । मुझे स्मरण है । '

जयानंद बोल पड़ा, “बहुत प्रतियाँ नहीं बेच पाया ।" प्रभुपाद हँसने लगे । जयानंद मौन बना रहा, उसका ध्यान नगर के मध्य कार चलाने पर था ।

तमाल कृष्ण ने कहा, “मैं समझता हूँ कि आप की कार चलाने के लिए यह सबसे अच्छा और उपयुक्त व्यक्ति है । "

प्रभुपाद बोले, "वह कार चला रहा है और हरे कृष्ण जप रहा है। बहुत अच्छा लड़का है।'

जब वे मनहट्टन की भीड़ में से निकल रहे थे तब एक टैक्सी ड्राइवर उन पर बड़े जोर से चिल्लाया ।

प्रभुपाद ने पूछा, "वह क्या कह रहा है ?"

तमाल कृष्ण ने कहा, ' वह कह रहा है कि हमारी कार बहुत अच्छी है। यह अच्छा है कि वे इसे पसंद करते हैं । "

प्रभुपाद हँसे और बोले, “उससे कहो ' तुम हमारे पास क्यों नहीं आ जाते ? टैक्सी क्यों चला रहे हो । आओ, हमारे साथ हो जाओ । '

रामेश्वर ने कहा, “यह कार फोर्ड कम्पनी का कैडिलक संस्करण है । वे समझ नहीं सकते, क्योंकि हम कहते हैं कि हम भौतिक ऐश्वर्य के पीछे नहीं हैं। उनकी समझ में नहीं आ सकता कि हम ऐसी कारों में क्यों चलते हैं। '

प्रभुपाद ने कहा, "वे समझते हैं कि हम अनावश्यक दूसरों की आलोचना करते हैं, किन्तु हम अपने लिए सभी चीजें चाहते हैं । एक मनुष्य की भाँति — जब तक वह जीवित है, उसका साज-श्रृंगार, वस्त्राभूषण, सब कुछ अच्छा है, ठीक है । किन्तु जब वह मर जाता है, तब सब कुछ बेकार हो जाता है। इसी तरह आध्यात्मिक चेतना के बिना हम मृत समान हैं, क्योंकि शरीर मृत है। चूँकि जीवात्मा है, केवल इसीलिए शरीर चलता-फिरता है। मुख्य वस्तु जीवात्मा है । इसलिए यदि आप केवल शरीर को अच्छी तरह संवारते - सजाते रहते हैं तो इसका तात्पर्य यह है कि आप मृत शरीर को सजा रहे हैं। इसका क्या मूल्य है ? क्या बात स्पष्ट हो गई ? "

" शरीर का महत्त्व है, क्योंकि उसमें आत्मा है। जब तक शरीर में जीवात्मा है, तब तक, यदि आप शरीर का श्रृंगार करते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति उसकी सराहना करेगा। किन्तु यदि आप मृत शरीर का शृंगार करते हैं तो हर एक कहेगा, 'वह कितना मूर्ख है!' उसी तरह आध्यात्मिक ज्ञान के बिना शारीरिक धारणा पर निर्भर यह मृत सभ्यता हास्यास्पद है। हमें उसका तिरस्कार करना है। कृष्णभावनामृत स्वीकार करो तो हर चीज का मूल्य है। ठीक जैसे 'एक' की बात है । उसमें शून्य जोड़ो तो वह 'दस' हो जायगा । एक और शून्य जोड़ दो तो वह 'सौ' हो जायगा । किन्तु उस 'एक' के बिना यह शून्य है । यह निरा व्यर्थ है।

तमाल कृष्ण ने कहा, "वह 'एक' कृष्ण है । "

रामेश्वर ने जोड़ा, “और कृष्ण का प्रतिनिधि । '

।”

जब वे पचपनवे स्ट्रीट के आगे पहुँचे तो भक्तों ने प्रभुपाद को इस्कान

इमारत दिखलाई जिस पर एक बगल में सुनहरे अक्षरों में 'हरे कृष्ण' लिखा हुआ था । इमारत के सामने एक बड़ा सा पीला ध्वज फहरा रहा था जिस पर चैतन्य महापभु के एक भक्त को संकीर्तन करते अंकित किया गया था और बगल में 'हरे कृष्ण केन्द्र' अंकित एक तिरपाल चमक रही थी । प्रभुपाद की कार देख कर प्रवेश द्वार पर सैंकड़ों भक्तों ने उनका जय-जयकार किया और वे उनके नाम का कीर्तन करने लगे ।

मायापुर उत्सव के बाद यह इस्कान भक्तों का सबसे बड़ा जमघट था। अनेक भक्त सुदूर स्थानों से प्रभुपाद से भेंट करने आए थे और छह सौ से अधिक भक्त उस इमारत में ठहरे हुए थे । कीर्तन खूब जोर-शोर से हुआ। राधा-गोविन्द

। विग्रहों के समक्ष खड़े हुए प्रभुपाद प्रसन्न लग रह थे। तीसरी वेदी पर भगवान् जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा का चित्र था और प्रभुपाद बोले कि वे उसे रथ यात्रा के दिन देखने को उत्सुक थे ।

जब प्रभुपाद विशाल हरे रंग के व्यास - आसन पर बैठे तो पहले तो इतने भाव-विभोर हो गए कि वे बोल नहीं सके। फिर उन्होंने कहा, “पहले मैं आप सब को धन्यवाद देता हूँ कि आप सब मुझे इस नए मंदिर में ले आए, क्योंकि जब मैं पहलेपहल यहाँ आया था तो मेरी इच्छा थी कि मैं यहाँ न्यू यार्क में एक मंदिर बनाऊं और मैं अवसर की तलाश में था ।” उन्होंने अपने कुछ प्रथम निःसहाय प्रयासों का उल्लेख किया कि वे मैनहट्टन में पचीस फुट चौड़ा और एक सौ फुट लम्बा भूखण्ड खरीदना चाहते थे, किन्तु उन्हें धन नहीं प्राप्त हो सका था।

उन्होंने कहा, "मेरे पास कोई स्थान नहीं था। मंदिर की तो बात ही क्या, मेरे लिए रहने तक के लिए कोई स्थान नहीं था । अतः उस दशा में मैं भारत वापस जाने की सोच रहा था । वस्तुतः, प्रति सप्ताह मैं जहाज की कम्पनी जाया करता था। इस प्रकार यह एक लम्बी गाथा है, कि मैं यहाँ न्यू यार्क में पहले एक मंदिर बनाने का संकल्प लेकर आया था। किन्तु आज से दस वर्ष पूर्व, १९६५ ई. में, यह संभव न था । किन्तु कृष्ण की कृपा से, मेरे गुरु महाराज के अनुग्रह से, आप को यह स्थान प्राप्त हुआ है। अतः मैं आप लोगों को इस मंदिर का निर्माण करने के लिए धन्यवाद देता हूँ ।

अपने व्याख्यान में बाद में प्रभुपाद ने जोर देकर कहा कि किस प्रकार गुरु महाराज और कृष्ण बद्ध - आत्माओं की, भौतिक संसार के निरन्तर दुखों से, रक्षा कर रहे थे। उन्होंने कहा, "इस अवसर को हाथ से मत जाने दें। तथाकथित

वैज्ञानिकों, दार्शनिकों या राजनेताओं से दिग्भ्रमित होकर मूर्ख न बनो। कृष्णभावनामृत केवल गुरु और कृष्ण की कृपा से संभव है। गुरु

को अपनाओ। और यह

की कृपा

से और कृष्ण

यही रहस्य है।

की

कृपा से आप सभी सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ

तस्यैते कथिता हि अर्था: प्रकाशन्ते महात्मनः

अतः जो गुरु-पूजा हम कर रहे हैं वह आत्म - प्रशंसा के लिए नहीं है, यह असली शिक्षा है। आप प्रतिदिन गाते हैं— गुरु- मुख-पद्म-वाक्य चित्तेते करिया ऐक्य' ।

मैं आप से निस्संकोच कहता हूँ, इस कृष्णभावनामृत आन्दोलन को जो थोड़ी-बहुत सफलता मिली है, मेरा विश्वास है कि वह मेरे गुरु महाराज के वचनों में मेरे विश्वास के कारण मिली है। आप भी इसे जारी रखें, तब आप को हर प्रकार की सफलता मिलेगी। बहुत बहुत धन्यवाद ।"

बहुत

तब श्रील प्रभुपाद ने पूरी बारह - मंजिली इमारत का चक्कर लगाया । वे कम बोले, किन्तु जो कुछ उन्होंने देखा उनमें से लगभग सभी को अनुमोदित किया। ऐसा लगता था कि उनके शिष्य उनकी ओर से सारी व्यवस्था ठीक से देख रहे थे। उनका आवास सुव्यवस्थित था, बैठक के लिए अलग कक्ष था और विश्राम के लिए अलग ।

अपनी डेस्क के सामने बैठ कर उन्होंने पूछा, “ तो न्यू यार्क में मुझे फिर रुकना है ?"

मंदिर के अध्यक्ष, आदि केशव स्वामी, ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, यह आपकी विजयपूर्ण वापसी है।"

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, मेरा मनोभाव ऐसा ही है । "

भक्तों को उत्सुकता थी कि वे कमरों की विशेषताएँ बताएँ, जैसे खिड़की से दिखाई देने वाले दृश्य और अपेक्षाकृत शान्ति ।

१. उन महान् आत्माओं के अन्दर, जिनकी भगवान् और गुरु दोनों में निश्चित भक्ति है,

समस्त वैदिक ज्ञान का सार स्वयमेव प्रकट हो जाता है । (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.२३) २. जिन्होंने मुझे दिव्य दृष्टि का उपहार दिया है, वे जन्म-जन्मांतर से मेरे भगवान् हैं।

है । "

रामेश्वर स्वामी ने कहा, "अनुवाद - कार्य करने के लिए यह बहुत शान्त

श्रील प्रभुपाद बोले, "हां, ठीक कहते हैं। जब मेरे

गुरु महाराज ने प्रस्थान किया तो मैं अकेला रह गया था। तो उन्होंने मेरी देख-भाल के लिए कितने

गुरु भेज दिए हैं। आप सब मेरे गुरु महाराज के प्रतिनिधि हैं । "

ही

एक भक्त ने कहा, “हम लोग गुरु - दास हैं । "

कुछ

प्रभुपाद ने कहा, “तो आप मेरी देखभाल कर रहे हैं। मैं आपका बहुत अधिक कृतज्ञ हूँ। मुझे कभी कभी अपना बचपन याद हो आता है। मैं अपने पिता का बहुत अधिक लाड़ला पुत्र था । मैने पुस्तक में इसे स्वीकार किया है । मेरे पिताजी बहुत धनी व्यक्ति नहीं थे, फिर भी मैं जो

माँगता था वे मुझे देते थे। वे मुझे कभी दण्ड नहीं देते थे, केवल प्यार देते थे। तब मैने मित्र बनाए और मेरा विवाह हुआ । कृष्ण की कृपा से मुझे हर एक प्यार करता था । और मैं इस परदेश में बिना किसी जान-पहचान के आया। अतः

कृष्ण

मैं ने मुझे प्यार देने के लिए कई पिता भेजे। इस प्रकार बहुत सौभाग्यशाली हूँ। अंत समय में अगर मैं शान्तिपूर्वक रह रहा हूँ, तो यह कृष्ण

की कृपा है । कृष्ण की कृपा से हर चीज संभव है। इसलिए हमें कृष्ण के चरण-कमलों में स्थिर रहना है। तब हर चीज संभव होगी । '

न्यू यार्क में प्रभुपाद के दस दिन के पड़ाव के बीच भक्तों में विजयोल्लास का भाव बना रहा। भक्तों को नगरपालिका से अनुमति मिल गई थी कि वे फिफ्थ एवन्यू पर रथ यात्रा निकाल सकते हैं। प्रभुपाद ने कहा था कि न्यू यार्क संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण नगर है और एक गगनचुम्बी इमारत संसार के लिए कृष्णभावनामृत का दीपस्तंभ होगी। तो अब इस्कान के पास मनहट्टन में अपनी एक निजी गगनचुंबी इमारत थी, फिफ्थ एवन्यू में रथ यात्रा निकालने की उन्हें अनुमति थी और प्रभुपाद स्वयं वहाँ उपस्थित थे।

एक दिन सवेरे प्रभुपाद वहाँ गए जहाँ रथ तैयार हो रहे थे और जयानंद और उसके आदमियों ने उन्हें विशाल पहियों का उत्कृष्ट रूप दिखाया। जयानंद ने, जो श्वेतरक्तता केंसर की बीमारी के अंतिम दौर में चल रहा था, रथ यात्रा के संगठन और रथों की तैयारी के पर्यवेक्षण में अपने को इस तरह निमग्न कर रखा था कि वह प्रभुपाद और सभी भक्तों का अत्यंत प्रिय बन गया था ।

प्रभुपाद

सवेरे के भ्रमण के लिए कार से सेंट्रल पार्क जाया करते थे। परिचित बस्तियों से गुजरते हुए उन्हें १९६५ ई. और १९६६ ई. के दिन याद आते थे । एक दिन कीर्तनानंद स्वामी उनके साथ कार में गए ।

कीर्तनानंद ने कहा, “मेरी सबसे अच्छी स्मृतियाँ उन प्रारंभिक दिनों की हैं। श्रील प्रभुपाद, विशेषकर उन सवेरे की कक्षाओं की, जब आप अपनी डेस्क के पीछे बैठते थे। सूर्य की किरणें कमरे में प्रवेश करती रहती थीं और आप एक घंटे तक व्याख्यान देते रहते थे । "

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, केवल हयग्रीव और तुम और..." प्रभुपाद और कीर्तनानंद ने उन प्रारंभिक दिनों के कुछ अन्य भक्तों को स्मरण किया: उमापति, कार्ल इयरजेन्स, जिम ग्रीन, रायराम, सत्स्वरूप, ब्रह्मानंद ।

थे ।"

प्रभुपाद ने कहा, “ उस समय कीर्तनानंद महाराज केवल एक चपाती खाते

तमाल कृष्ण ने पूछा, "और कुछ नहीं ?"

प्रभुपाद ने कहा, “मैं देना चाहता था, किन्तु वे एक लेते या दो । बस । बाद में एक दर्जन और वह लड़का स्त्रधीश, वह कम-से-कम बीस चपातियाँ खाता था। मैं कहता, ‘स्त्रधीश क्या और दूँ ?' वह कहता, 'हाँ।' मैं चार देता और वह चारों खत्म कर देता । मैं फिर चार देता । "

कीर्तनानंद ने कहा, “आरंभ में हम सभी प्रभुपाद की प्लेट से खाते थे प्रसाद की एक प्लेट थी । और प्रभुपाद उसमें से थोड़ा-थोड़ा हर एक को देते थे और हर एक संतुष्ट हो जाता था । "

प्रभुपाद ने कहा, “मैं कुछ प्रसाद बचा लेता था। कोई बाद में आता तो मैं उसको भी प्रसाद देता था ।

कीर्तनानंद ने स्मरण किया, “कक्षा के बाद आप हमेशा प्रसाद बाँटते थे, कीर्तन और कक्षा के बाद ।"

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ। मैं ताली बजाता था। बैठक में मैं छह डालर से कम नहीं इकठ्ठा करता था और बीस डालर से अधिक भी नहीं । सप्ताह में तीन बार ।'

यद्यपि

प्रभुपाद के लिए यह विजय की बात थी कि उनके संघर्ष के प्रारंभिक दिन बीत चुके थे, किन्तु वे जब उन्हें याद करते थे तो एक विशेष प्रकार की मधुर स्मृति में डूब जाते थे। उनके मनोभाव बदलते रहते और कभी कभी वे उनको मिला देते थे । —कभी समय था जब असहायावस्था के दिन थे, फिर

कृष्ण पर नितान्त निर्भरता के दिन आए जब उनके साथ कोई नहीं था,

और उनका वर्तमान परितोष का समय जब वे सैंकड़ों श्रद्धालु भक्तों से घिरे थे। बीते हुए दिनों का स्मरण करते हुए, उनके मूल लक्ष्य की उपलब्धि हो रही थी कि 'हमारे विश्वव्यापी आन्दोलन का दीपस्तम्भ' इस्कान न्यू यार्क होगा।

संध्याकाल में जब सूर्यास्त हो रहा होता था, श्रील प्रभुपाद को गगनचुम्बी इमारत की छत पर बैठना बहुत अच्छा लगता था और उनके शिष्य उनके साथ बैठा करते थे । यद्यपि इमारत मिडटाउन में स्थित थी, पर चूँकि वह वेस्ट - साइड में थी इसलिए मध्य मनहट्टन की तीव्रता से दूर होने का अनुभव कराती थी । प्रभुपाद मनहट्टन की क्षितिज की ओर निहारा करते थे और हडसन नदी से चलने वाली ठंडी बयार जुलाई की गर्मी कम कर देती थी ।

एक दिन संध्या समय, कुछ शिष्यों ने नगर में चल रहे कुछ जघन्य कार्यकलापों का श्रील प्रभुपाद से जिक्र किया। उन्होंने उन्हें वेश्यावृत्ति, अश्लील चित्रण, निरकुंश अपराधजनित हिंसा और मांसाहारी लोगों की विचित्र प्रेतपूजा और सनकों के बारे में बताया जिस में मानवीय भ्रूण का खाना भी सम्मिलित था ।

प्रभुपाद ने कहा, इस का अर्थ यह हुआ कि हम वास्तव में पशुओं में

प्रचार कर रहे हैं। "

एक रात छत पर रामेश्वर स्वामी ने श्रील प्रभुपाद को कृष्णभावनामृत के माध्यम से विश्व को जीतने की अपनी योजना उद्घाटित करने को कहा । प्रभुपाद मौन हो गए। अन्त में उन्होंने कहा, "नहीं, यदि मैं तुम्हें अपनी योजनाएं बता दूं, तो वे बिगड़ सकती है।” उन्होंने कहा कि उनके पास योजना तो है, किन्तु वे अभी इसके लिए तैयार नहीं थे ।

पचास फुट ऊँचे तीन रथों की रथ यात्रा फिफ्थ एवन्यू के ग्रांड आर्मी प्लाजा से आरंभ होकर नगर के पुराने भाग की ओर चली । युवा पुरुष, साड़ियाँ पहने स्त्रियाँ, भारतीय, न्यू यार्क के नागरिक — सैंकड़ों की संख्या में लोग — विशाल रथों की रस्सियाँ खींच रहे थे। रेशम की पीली, हरी, लाल और नीली • पताकाएँ हवा में फहराते हुए रथ धीरे-धीरे शान से दक्षिण की ओर बढ़ने लगे। जुलूस के समय मौसम बहुत अच्छा था। सैंकड़ों लोग कीर्तन कर रहे थे और नाच रहे थे। हजारों लोग देख रहे थे । और जुलूस को फिफ्थ एवन्यू से, “जो संसार का सबसे प्रसिद्ध स्ट्रीट था, लगभग पचास भवन खण्डों को पार करते हुए वाशिंगटन स्क्वायर पार्क तक जाना था ।

प्रभुपाद जुलूस में थर्टी फोर्थ-स्ट्रीट ( चौंतीसवें राजमार्ग) में सम्मिलित हुए।

जब वे सुभद्रा के रथ पर चढ़ने के लिए आगे बढ़े तो भक्तों ने उन्हें घेर लिया। पुलिस के लोग और सभी दर्शक कृष्ण के प्रतिनिधि के प्रति उनकी इस अकस्मात् श्रद्धा से विस्मित रह गए। यद्यपि रथ-यात्रा का आंतरिक अर्थ गोपियों की यह इच्छा प्रकट करना है कि कृष्ण वृंदावन वापस आएँ, किन्तु ये भक्त प्रभुपाद के न्यू यार्क वापस लौटने पर अधिक भाव-विभोर थे ।

रथ-यात्रा प्रभुपाद के दस वर्ष तक न्यू यार्क नगर में प्रचार करते रहने की एक आलंकारिक, उपयुक्त पराकाष्ठा थी। जब वे पहली बार यहाँ आए थे तो उनके पास धन नहीं था; रहने के लिए अपनी कोई जगह नहीं थी और ऐसा कोई स्थान नहीं था जहाँ लोग एकत्र होकर कृष्ण के बारे में सुनते। अब वे पूर्ण वैभव से घिरे, फिफ्थ स्ट्रीट में, रथ यात्रा के उत्सव में सम्मिलित हो रहे थे और उनके राधा-गोविन्द - विग्रहों के पास गगनचुंबी भवन था । १९६५ ई. में वे सड़क में अकेले थे, अब वे अपने छह सौ शिष्यों के साथ थे, जो उच्च स्वर में पवित्र नाम का कीर्तन कर रहे थे और लाखों बद्ध आत्माओं को लाभान्वित कर रहे थे।

सुभद्रा के रथ के सामने जयानंद चल रहा था, जो रथ को सही रास्ते पर चलते रहने के लिए उस की परिचालन जिव्हा को पकड़े हुए था । रथ पर आराम से बैठे हुए प्रभुपाद बीच-बीच में जयानंद को प्रेमपूर्वक देख लिया करते थे। जयानंद बायाँ हाथ रथ की रस्सी पर लगाए था, और दाहिना हाथ ऊपर उठाए, वह प्रभुपाद की रथ यात्रा की जय-जयकार कर रहा था और लोगों को रस्सी खींचने और हरे कृष्ण गाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा था ।

जब जुलूस वाशिंगटन स्क्वायर पार्क पहुँचा तो वह जन समूह से परिपूर्ण था । एक अस्थायी मंच का निर्माण किया गया था और उस पर श्रील प्रभुपाद और अर्चा-विग्रहों को आसीन किया गया । कीर्तनानंद स्वामी ने जन-समूह प्रभुपाद का परिचय दिया और प्रभुपाद बोलने के लिए खड़े हुए।

को

प्रारंभ में राधा - यात्रा का महत्त्व समझाते हुए प्रभुपाद ने उस कहानी का वर्णन किया कि किस तरह उड़ीसा के राजा की प्रार्थना पर दो हजार वर्ष से भी पहले, जगन्नाथ-विग्रहों का निर्माण काठ - उत्कीर्ण करके किया गया था। जब विग्रहों के पूरी तरह बनने से पहले राजा शिल्पी के काम में बाधा डालने लगा तो शिल्पी चला गया । “किन्तु राजा ने निश्चय किया कि 'मैं इस अधूरे विग्रह की उपासना करूँगा, चिन्ता की कोई बात नहीं है।

प्रभुपाद आगे बोलते गए, "इस तरह भक्त की उपासना चल रही है और

कृष्ण उसे स्वीकार करते हैं... यदि वह प्रेम और श्रद्धापूर्वक की जाती है । भगवद्गीता में वे कहते हैं— पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम् / यो मे भक्तया प्रयच्छति । — कोई मुझे भक्तिपूर्वक किंचित् पत्र, पुष्प, फल और जल अर्पण करता है, उसे मैं खाता हूँ और स्वीकार करता हूँ ।

" इसका तात्पर्य यह है कि संसार का सबसे गरीब मनुष्य भी कृष्ण की उपासना कर सकता है। कोई बाधा नहीं है— अहैतुकी अप्रतिहता — अहैतुकी भक्ति के मार्ग में सांसारिक परिस्थितियाँ बाधा नहीं बन सकतीं । भक्ति के लिए जाति, धर्म, देश या राष्ट्र का कोई बंधन नहीं है। अपने सामर्थ्य के अनुसार परम ईश्वर की उपासना हर कोई कर सकता है।

" और हमारा कृष्णभावनामृत आन्दोलन इस बात का प्रचार करने के लिए है कि परम ईश्वर की उपासना कैसे की जाती है। यही हमारा उद्देश्य है, क्योंकि परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित किए बिना, परमात्मा से शाश्वत सजातीयता को पुन: जागरित किए बिना, हम सुखी नहीं हो सकते । "

प्रभुपाद ने समझा कर बताया कि सभी प्राणी परम पिता कृष्ण या ईश्वर की संतान हैं। किन्तु केवल मानव जीवन के रूप में ही प्राणी परमात्मा के साथ अपने सम्बन्ध को समझ सकता है। यदि कोई अपने जीवन का दुरुपयोग करता है और कृष्ण के प्रति अपने कर्त्तव्य को नहीं समझता तो उसका जीवन चौपट हो जाता है।

"अतएव कृपया इस कृष्णभावनामृत आंदोलन को आप कोई साम्प्रदायिक आन्दोलन न समझें। यह ईश्वर का विज्ञान है। आप ईश्वरीय विज्ञान को समझने का प्रयत्न करें। चाहे आप इसे सीधे स्वीकार कर लें या इसे दर्शन और विज्ञान के माध्यम से समझें। हमारे पास अनेक ग्रंथ हैं। आप इस आन्दोलन से लाभ उठाएँ, हम इतना सारा साहित्य क्यों वितरित कर रहे हैं, आप इसे समझें । गंभीर और शान्त मन से आप हमारे आंदोलन को समझें । हमारा केवल यही एक उद्देश्य है । बहुत-बहुत धन्यवाद ।"

जब श्रील प्रभुपाद मंदिर वापस जाने को हुए तो प्रसाद का वितरण आरंभ हो गया। और 'कलि और उसका साथी पाप' नाटक के अभिनेता रंगमंच पर उतरने की तैयारियाँ करने लगे ।

सभी प्रमुख टेलीविज़न स्टेशनों ने अपने सांध्यकालीन कार्यक्रम में इस जुलूस और उत्सव को अच्छा स्थान दिया और दूसरे दिन प्रात: काल समाचार-पत्रों में चित्र तथा लेख छपे। प्रभुपाद ने विशेष रूप से न्यू यार्क डेली न्यूज के

बीचोंबीच छपे समाचार को बहुत पसंद किया जिसमें अनेक चित्रों के साथ बड़े-बड़े अक्षरों में शीर्षक था “फिफ्थ एवन्यू जहाँ पूर्व पश्चिम से मिलता है । '

प्रभुपाद ने कहा, "इस करतन को कई स्थानों को भेजो। इसे इंदिरा गांधी को भेजो। इसका शीर्षक बहुत बढ़िया है। यही मुख्य बात है — “पूर्व पश्चिम से मिलता है" जैसा कि मैं सदैव कहता हूँ अंधा व्यक्ति लंगड़े व्यक्ति से मिलता है और एकसाथ हो जाने से आश्चर्यजनक कार्य कर जाते हैं, अलग-अलग रहने पर वे कुछ भी नहीं कर पाते। एक लंगड़ा है, दूसरा अंधा है। भारतीय संस्कृति और अमरीकी धन का यही हाल है। किन्तु यदि वे मिल जाएँ तो सारे संसार को बचा सकते हैं।

श्रील प्रभुपाद ने न्यू यार्क टाइम्स में प्रकाशित लेख में

में प्रकाशित लेख में से पढ़वा कर सुना कि किस प्रकार जुलूस में सैंकड़ों भारतीय सम्मिलित हुए, “जो यह देख कर प्रसन्न थे कि न्यू यार्क जैसे शहर में भी वे अपनी श्रद्धा बनाए रख सकते हैं । " लेख में उद्धरण था कि एक प्रवासी भारतीय कह रहा था कि "हम यार्क सिटी, अमेरिका को प्यार करते हैं। यह विश्व का सबसे सुंदर स्थान है । अन्य कोई देश हमारे इस उत्सव के लिए इतनी स्वतंत्रता नहीं प्रदान कर

न्यू

सकता । "

प्रभुपाद ने कहा, “यह सही है। मैं हमेशा से यही कहता रहा हूँ। जब मैं टामकिन्स स्क्वायर पार्क में था तो टाइम्स ने ही मेरे कार्यकलापों के बारे में छापा था।'

समारोह-स्थल पर सात हजार लोगों को प्रसाद बाँटा गया था । और जब भक्तगण रथों को लेकर देर में रात को लौट रहे थे उस समय भी सैंकड़ों लोग उनके साथ-साथ कीर्तन कर रहे थे। भक्तों के बीच बात आरंभ हो चुकी थी कि अगले वर्ष उत्सव में और क्या सुधार किया जाय। वे एक प्रेस क् रख सकते हैं और प्रभुपाद ने सुझाव दिया कि वे किराए का एक छोटा-सा मकान ले लें जिसका नाम गुण्डिचा * हो, जहाँ भगवान् जगन्नाथ एक सप्ताह रह सकते हैं। तब भक्तगण एक अन्य जुलूस निकालें और उत्सव करें जिसमें भगवान् जगन्नाथ को फिफ्टी फिफ्थ स्ट्रीट स्थित मंदिर वापस लाया जाय ।

तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, “विगत रात भर हम पार्क की जमीन साफ

उड़ीसा का मंदिर जहाँ अपनी रथ यात्रा लीलाओं के समय भगवान् जगन्नाथ प्रथा के अनुसार प्रत्येक वर्ष ठहरते हैं।

कर रहे थे। एक स्त्री ने, जो पार्क के ठीक बगल में रहती है, कहा,

"मैने अपने यहाँ के जीवन काल में ऐसा उत्सव होते कभी नहीं देखा है ।" और इस पार्क के प्रभारी अधिकारी ने सी. बी. एस . टेलीविज़न को बताया कि “मुझे यह कहते प्रसन्नता हो रही है कि यह पार्क सैंकड़ों वर्ष पूर्व बना था जब अमेरिका धार्मिक था और वाशिंगटन स्क्वायर पार्क में अभी भी आध्यात्मिक जीवन विद्यमान है।"

प्रभुपाद ने कहा, "तो क्यों नहीं मेयर से कहते कि यहाँ एक मंदिर बनवा दें" सभी भक्त हँस पड़े। किन्तु प्रभुपाद के विचार से ऐसी बातें निश्चित रूप से संभव थीं ।

श्रील प्रभुपाद का स्वास्थ्य बिगड़ रहा था, जैसा कि प्रायः होता था जब वे अधिक यात्रा करते थे। विशेषकर न्यू यार्क में उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था। उनके कार्यक्रम में था कि वे लंदन, पेरिस, तेहरान, बम्बई होते हुए हैदराबाद पहुँचेंगे, जहाँ इस्कान के एक नए मंदिर के उद्घाटन समारोह का संचालन करेंगे। वरिष्ठ शिष्यों ने उनसे प्रार्थना की कि इंगलैंड तथा भारत जाने से पूर्व वे थोड़ा विश्राम कर लें। उन्होंने पेन्सिलवानिया में इस्कान फार्म में एक दिन बहुत आनंद से बिताया था और भक्तों ने सुझाया था कि वे वहाँ दो या तीन महीने रहें, विश्राम करें, अपना स्वास्थ्य सुधारें और लिखें। प्रतिदिन वे प्रार्थना करते कि प्रभुपाद वहाँ रुके रहें। जब उन्होंने सुना कि जी. बी. सी. सदस्यों ने एक स्वर संस्तुति की है कि वे यात्रा पर तुरन्त न निकलें तो प्रभुपाद बोले, "बहुत अच्छा, मैं नहीं जाऊँगा ।'

किन्तु वे जी. बी. सी. द्वारा रोके नहीं जा सकते थे, केवल कृष्ण ही उन्हें रोक सकते थे। वे हवाई जहाज का टिकट प्राप्त कर चुके थे। और यात्रा पर निकलने के लिए दृढ़ निश्चय थे ।

प्रभुपाद के प्रस्थान के दिन कुछ भक्त उनके कमरे में अंतिम प्रयास के लिए आए कि वे यात्रा पर न निकलें। वे कुछ बोले नहीं, यद्यपि वे चलने के लिए सन्नद्ध थे। उनके सेवक उनके थैलों में सामान भर रहे थे और जाने के लिए सारी चीजें तैयार थीं। यहाँ तक कि जब वे अपना कमरा छोड़ कर लिफ्ट पर चढ़ रहे थे तब भी कुछ लोग उनके पीछे लगे थे और प्रार्थना कर रहे थे कि वे न जाएँ ।

रामेश्वर स्वामी ने कहा, “प्रभुपादजी, पुन: विचार कर लें।” शारीरिक दुर्बलता और शिष्यों के आग्रह के बावजूद प्रभुपाद अभी तक प्रफुल्ल - चित्त बने थे,

किन्तु अब उनकी मुद्रा बदल गई ।

एक भक्त ने कहा, “ यात्रा न करें।” दूसरे ने कहा, और विश्राम कीजिए ।'

'रुक जाइए, बैठिए

प्रभुपाद मुड़े और उनकी आँखें गहरा गईं। वे इस भौतिक जगत से इतने सम्पर्करहित कभी नहीं प्रतीत हुए थे। उन्होंने कहा, “मैं कृष्ण की सेवा में लड़ते रहने के लिए आशीर्वाद चाहता हूँ—अर्जुन की तरह ।

हर एक मौन बना रहा और प्रभुपाद का यह महत्त्वपूर्ण उपदेश हर एक की स्मृति में स्थायी हो गया । लिफ्ट का दरवाजा पहली मंजिल पर खुला और जब प्रभुपाद अपनी कार में सवार होने लगे, उस समय प्रतीक्षा - रत सैंकड़ों शिष्यों ने उनकी जय-जयकार करते हुए कीर्तन किया ।

हवाई अड्डे की ओर आगे बढ़ते हुए भक्तों ने कलियुग के अध: पतन की वार्ता फिर आरंभ की। प्रभुपाद ने उन्हें उपदेश दिया, “किन्तु आप लोगों को प्रचार करते रहना है। आप को इन लोगों के पास जाकर उन्हें बचाने का प्रयास

करना है ।"

जब श्रील प्रभुपाद ने अमेरिका से प्रस्थान किया तो भक्त जानते थे कि वे उनके साथ तब तक बने रहेंगे जब तक भक्त उनके उपदेशों का पालन करते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी था कि वे उनसे विदा हो रहे थे तो उनके पास वापस भी आएँगे। वे भारत से न्यू यार्क आए थे, अब वे भारत लौट रहे थे, वहाँ से वे पश्चिम पुनः आएँगे । वे पूर्व और पश्चिम के बीच निरन्तर यात्रा पर थे, दोनों संस्कृतियों को एक में जोड़ रहे थे — लंगड़े व्यक्ति को अंधे व्यक्ति से । वे अर्जुन की तरह संघर्ष कर रहे थे, नारद मुनि की तरह निरन्तर यात्रा कर रहे थे, इस तरह वे परम ईश्वर, कृष्ण की महिमा का प्रसार कर रहे थे। वे कभी रुकने वाले नहीं थे और जो निष्ठापूर्वक उनका अनुगमन करते हैं वे सदैव उनके साथ होंगे।

बम्बई

 
 
 
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