जनवरी ९, १९७७ श्रील प्रभुपाद भोर होने के पूर्व ही प्रातः कालीन भ्रमण के लिए चल पड़े, उन्हें तथा भक्तों को हरे कृष्ण लैंड से सार्वजनिक सड़क तक का रास्ता मालूम था। वे बाहर निकले, बाएँ मुड़े, फिर दाहिने मुड़ कर उस भवन- खण्ड को पार करने लगे जिससे होकर रास्ता सागर तट को जाता था । आकाश-मण्डल प्रकाशित होने लगा। पहले तो वे स्थल से समुद्र को और समुद्र से आकाश को विलग नहीं देख पाए । किन्तु धीरे धीरे रंग की सूक्ष्म छबियों से क्षितिज का आभास होने लगा और वे अरब सागर के विस्तृत मैदान को देख सके जो अपने से भी विस्तृत आकाश - सागर से मिलने के लिए फैल रहा था। तारे टिमटिमा कर अस्त हो रहे थे। जब प्रभुपाद अपनी छोटी शिष्य मंडली के साथ विस्तृत सागर तट पर टहल रहे थे तो उनकी बाईं ओर झुके हुए ताड़ों की पंक्ति थी और दाईं ओर गरजती फेनिल उत्ताल तरंगें थीं । श्रील प्रभुपाद अपने कंधे के ऊपर स्लेटी ऊनी चादर, केसरिया रंग का रेशमी कुर्ता तथा धोती और हल्के लाल रंग के किरमिच के जूते पहने थे। वे एक छड़ी का भी इस्तेमाल कर रहे थे, किन्तु उस पर जोर देकर नहीं, वरन् हल्के से झुकते थे। वे तेजी से डग भरते तो छड़ी को आगे ले जा कर बालू में गड़ा देते थे और फिर उठा लेते थे। इस प्रकार वे लयपूर्वक डग भर रहे थे। वे तन कर चल रहे थे और सिर को ऊँचा उठाए थे। तब बम्बइया लोगों की एक लम्बी पंक्ति दिखाई पड़ी। उनमें जुहू में रहने वाले कई धनी व्यक्ति थे और प्रातः कालीन भ्रमण के लिए आए थे । कुछ नारियल वालों ने अपने ठेले लगा लिए थे। चुने हुए नारियलों के सिरे का थोड़ा-सा हिस्सा काट कर वे प्रथम ग्राहकों की प्रतीक्षा में थे। श्रील प्रभुपाद को सबेरे इसी समय घूमना पसंद था और, यदि मौसम अच्छा रहा, तो वे घूमने अवश्य निकलते थे, चाहे वे विश्व के किसी कोने में हों । किन्तु जुहू का समुद्र-तट उनके घूमने के विशेष प्रिय स्थानों में से था । के रास्ते में सफेद कमीज और सफेद पैंट पहने, डा. पटेल उनसे और उनके शिष्यों से आ मिले। उनके साथ अनेक मित्र थे जिसमें से अधिकतर डाक्टर और वकील थे। श्रील प्रभुपाद मौन थे, किन्तु अब वे बोलने लगे। सामने समुद्र तट की ओर संकेत करते हुए उन्होंने टिप्पणी की, “हर चीज कितनी सुंदर है, आकाश को देखिए, कितना निर्मल, कितना सुंदर है ! सब कृष्ण की कृपा है। पूर्णम् इदम् । अपने बेंत से उन्होंने लम्बे शालीन ताड़ के वृक्षों की ओर संकेत किया। उन्होंने कहा, "पेड़ को वृक्ष कहते हैं। वृक्ष - योनि में जन्म लेने की निन्दा की गई है। कृष्ण की योजना से वृक्ष भी बढ़िया ढंग से उगते हैं, वे सुंदर लगते हैं।” डा. पटेल ने कहा, “ वे सब कृष्ण के प्रतिनिधि हैं। यह सब कुछ पूर्ण है । " ईशोपनिषद् से उद्धरण देते हुए श्रील प्रभुपाद ने कहा, “पूर्णम्, पूर्णम् इदम्, पूर्णम् अदः । " श्रील प्रभुपाद ने नास्तिकों की विचारधारा के विरुद्ध बोलते हुए कि इस जटिल भौतिक सृष्टि का कोई स्रष्टा नहीं है, बताया कि जिस तरह उगता हुआ सूर्य प्रत्येक वस्तु को प्रकाशित करता है, उसी तरह यह संसार भगवान् की सृष्टि है। उन्होंने कहा, "भगवान् की सृष्टि पूर्ण है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति भगवान् से हुई है जो स्वयं पूर्ण है। - अण्डान्तरस्थ परमाणु छयान्तरस्थम् / गोविन्दम् आदि पुरुषम् तम् अहम् भजामि । परमाणु का अर्थ है अणु से भी छोटा। छह परमाणुओं से एक अणु बनता है। अणु का “यही आकार है— आप छह परमाणुओं को मिला दें। उस एक परमाणु में भी परम ईश्वर का निवास है । " डा. पटेल ने कहा, “उसने इसे बनाया और तब उसने इसमें प्रवेश किया वेद यही कहते हैं । " प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, परमात्मा हर वस्तु में है। पूरे मानव जीवन का उद्देश्य यह सब समझना और ईश्वर का गुणगान करना है। और मनुष्य सुअर जैसा जीवन बिता कर उसे नष्ट कर रहा है ।" प्रभुपाद फिर मौन हो गए। वे केवल मंद स्वर में हरे कृष्ण मंत्र गाते रहे । अब समुद्र-तट पर उजाला हो गया था और अनेक लोग, जो सवेरे के भ्रमण के लिए निकले थे, अथवा अपनी दौड़ लगा रहे थे, प्रभुपाद के सामने से गुजरते हुए उनका अभिवादन करने लगे। अभिवादन का तात्पर्य उनके प्रति आदर प्रकट करना था या कम-से-कम 'सुप्रभातम्' कहना था । उत्तर में प्रभुपाद सदैव 'हरे कृष्ण' कहते । सहसा प्रभुपाद फिर बोल उठे, "हमारे विरुद्ध बहुत बड़ा षड्यंत्र चल रहा है ।" डा. पटेल ने अनुमान लगाया, "गिरजाघर द्वारा ?" प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, चर्च द्वारा नहीं । " " तो फिर समाज द्वारा ?" प्रभुपाद ने गंभीरतापूर्वक 'हूँ' किया और कहा, 'अब वे इस आन्दोलन को नष्ट करने पर दृढ़ निश्चय हैं।” उन्होंने कोई विस्तार नहीं बताया और न डा. पटेल तथा अन्यों ने इससे कोई निष्कर्ष निकाला कि प्रभुपाद के मन में क्या था। डा. पटेल ने कहा कि जो कुछ भी हो, भारत में कृष्णभावनामृत आंदोलन के विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं चल सकता । प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “मैं भारत वर्ष में यह आन्दोलन चलाना चाहता था । मैने अनेक मित्रों से प्रार्थना की, "मुझे बस एक पुत्र दे दो।” किन्तु कोई राजी नहीं हुआ। उन्होंने कहा, 'स्वामीजी इससे क्या लाभ होगा, यदि मैं अपने पुत्र को वैष्णव या ब्राह्मण बनने दूँ ?' वे इस आन्दोलन को बहुत महत्त्व नहीं देते। वे तरह-तरह की योजना बना रहे हैं कि इस आन्दोलन को कैसे नष्ट किया जाय ।' सदैव श्रद्धालु भारतीय डा. पटेल ने उत्तर दिया, "अमरीकी लोग ऐसे ही होते हैं, वे सदा प्रचार करते रहते हैं । " प्रभुपाद ने कहा, “ अच्छे और बुरे लोग हर जगह होते हैं। कृष्ण कहते मनुष्याणाम् सहस्रेषु — हजारों मनुष्यों में से कठिनाई से एक मनुष्य अपने जीवन को पूर्ण बनाने में रुचि रखता है। यह कलियुग है । ' वे टहलते रहे और श्रील प्रभुपाद ने इस विषय में आगे कुछ नहीं कहा। इसकी बजाय वे भौतिकतावादी गृहस्थ जीवन के बारे में बातें करते रहे जिस में मुख्य सुख यौन-सम्बन्ध माना जाता है। उन्होंने कहा कि इस घृणित यौन-सुख से परे आध्यात्मिक जीवन का पूर्ण आनंद है। प्रभुपाद आधा घंटा टहलते रहे, फिर वे मुड़े और वापस लौटने लगे। वे सात बजे तक मंदिर लौट जाना चाहते थे ताकि अर्चा-विग्रहों को नमन कर सकें। तेज चलने के कारण कुछ लोग श्रांत अनुभव करने लगे थे, किन्तु श्रील प्रभुपाद उसी तेजी से चलते रहे। उनका सुनहरा चेहरा आत्मानुभूति से ऊर्जस्वित था । प्रभुपाद सत्संग के महत्त्व के सम्बन्ध में बात करने लगे। डा. पटेल बीच में बोल उठे, “सत्संग की बजाय लोग कुंभ मेला में जाते हैं।" वह हँसने लगे, मानों वह कोई अच्छा मजाक हो । किन्तु प्रभुपाद ने उन्हें सही किया। उन्होंने कहा, "नहीं, कुंभ मेला भी सत्संग है। यदि आप कुंभ मेले में कोई ज्ञानी ढूढ़ने जाते हैं तो आप का कुंभ मेले में जाना ठीक है। अन्यथा यत्-तीर्थ बुद्धिः सलिले न कर्हिचित स एव गो-खर । । यदि कोई सोचता है कि जल में स्नान करना ही कुंभ मेला है तो वह गधे या गाय के समान है। किन्तु यदि वह सोचता है 'यहाँ अनेक संतों का संगम है, इनके ज्ञान से लाभ उठाना चाहिए, तो ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान है । ' जब से श्रील प्रभुपाद का आगमन बम्बई में हुआ था तभी से उनसे इलाहाबाद में होने वाले आगामी कुंभ मेले के बारे में प्रश्न पूछे जा रहे थे। माघ मेला प्रतिवर्ष होता है किन्तु ज्योतिष की गणना के अनुसार कुंभ मेले के रूप में अधिक शुभ अवसर प्रति बारहवें वर्ष घटित होता है। और प्रत्येक बारहवाँ कुंभ मेला, जो १४४ वर्ष में केवल एक बार आता है विशेष रूप से शुभ होता है। १९७७ में ऐसा ही मेला होने वाला था और सरकार की ओर से उस अवसर पर इलाहाबाद के निकट पावन नदियों के संगम पर, श्रील प्रभुपाद ने कहा था कि वे जाएँगे । लगभग सवा करोड़ लोगों के आने का अनुमान लगाया जा रहा था। डा. पटेल ने कहा, “ तो श्रीमन्, आप कुंभ मेले में ट्रेन से जा रहे हैं ? " श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि उन्हें ट्रेन पसंद थी, किन्तु डा. पटेल ने कहा कि स्वास्थ्य के लिए यह ठीक न होगा और लम्बी यात्रा से बहुत कठिनाई होगी। उन्होंने प्रभुपाद को यह भी चेतावनी दी कि इलाहाबाद बहुत ठंडा होगा । और यदि प्रभुपाद मेले से जल्दी निकलना चाहेंगे तो भीड़ के कारण इसमें बहुत कठिनाई होगी। डा. पटेल ने हँस कर कहा, "मैं अपने एक मित्र से उस दिन इलाहाबाद से कुछ जल मंगाऊँगा और यहीं स्नान कर लूँगा।” डा. पटेल के मित्रों ने मेले के दिनों में इलाहाबाद की घोर सर्दी और भीड़ का वर्णन किया । किन्तु श्रील प्रभुपाद उससे नहीं डिगे। वे इलाहाबाद में अपने परिवार के साथ १९२३ ई. से १९३६ ई. तक रहे थे, इसलिए उससे अच्छी तरह परिचित थे ने कहा, प्रभुपाद “ मैं १९२५ ई. में मेले में गया था। मुझे याद है कि जल इतना ठंडा था कि छूने मात्र से मानो शरीर को काट रहा हो। किन्तु ज्योंही डुबकी लगा ली जाय – एक, दो, तीन... तो आप शीघ्र बाहर निकल आइए और सब कुछ ठीक लगने लगता है।' प्रभुपाद ने १९२८ ई. के मेले का उल्लेख किया जब वे अपने छोटे बच्चे को गोदी में लिए हुए थे । उन्होंने स्मरण करते हुए बताया, “मैं भीड़ के बीच में था और भीड़ इतनी अधिक थी कि मुझे डर लग रहा था कि यदि धक्कम - धक्का हुआ तो बच्चा खत्म हो सकता है, किन्तु कृष्ण की कृपा से ऐसा कुछ नहीं हुआ । " प्रभुपाद के सेवक हरिशौरी ने पूछा, "इस मेले का कारण क्या है ? क्या यह मोहिनी मूर्ति द्वारा गिराई गई कुछ अमृत की बूंदों के कारण होता है ?" प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "वास्तव में यह एक धार्मिक समागम है। सभी सम्प्रदायों के लोग उस पवित्र स्थान में एकत्र होते हैं और अपनी-अपनी विचार धाराओं का प्रचार करते हैं। भारत एक धर्म - प्रधान देश है। भारत के लोग जानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन भौतिक जीवन से अधिक महत्त्वपूर्ण है; यही भारत है । अब वे अधिक ध्यान भौतिक जीवन की ओर ले जा रहे हैं। अन्यथा सम्पूर्ण भारत में आध्यात्मिक जीवन का प्राधान्य है । ' सात बजने के पाँच मिनट पूर्व श्रील प्रभुपाद सागर तट से मुड़े और घूमते हुए हरे कृष्ण लैंड वापस आ गए। जब वे निकट पहुँचे तो उन्हें इस्कान होटल की दो मंजिला विशाल मीनारें और उनसे भी ऊँचे तथा भव्य मंदिर के गुम्बद दिखाई पड़े। ये इमारतें अभी तक पूरी नहीं हुई थीं। मंदिर के गुम्बदों पर संगमरमर लगना शेष था और सभी इमारतों में अनेक प्रकार के कार्य, अंतिम रूप से, बाकी होने थे। प्रभुपाद व्यग्रतापूर्वक उद्घाटन के बारे में सोच रहे थे किन्तु सुरभि महाराज के हिसाब से अभी देर थी । अतः उद्घाटन की तिथि अनिश्चित बनी रही। जब से १९७१ ई. में प्रभुपाद ने मि. एन. से जुहू की जमीन खरीदने का पहली बार प्रयत्न किया था, तब से हर बात में देर होना, आए दिन की बात हो रही थीं और निर्माण के उनके सभी प्रयत्नों में बाधाएँ आती रही थीं । अब भारत के सबसे बड़े मंदिर में राधा - रासबिहारी अर्चादिग्रहों की स्थापना में सफलता प्राप्ति का दिन उनके लिए निकट आ गया था। राधा - रासबिहारी की उपासना अभी भी उस अस्थायी मंदिर में हो रही थी जिसे भक्तों ने १९७१ ई. में निर्मित किया था । किन्तु जब प्रभुपाद निकट पहुँचे तो वे उस अस्थायी मंदिर के मामूली शेड के पीछे विशाल मंदिर की संरचना को देख सकते थे जो यह घोषणा कर रहा था कि रासबिहारी शीघ्र अपने महल में चले जायँगे । बम्बई में श्रील प्रभुपाद और उनके शिष्यों के कार्य को कृष्ण की कृपा प्राप्त हो रही थी । यद्यपि श्रील प्रभुपाद अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए निरन्तर यात्राएँ करते रहते थे किन्तु वे नियमित रूप से बम्बई लौटते रहते थे। अपने शिष्यों की अपेक्षा उन्हें अधिक स्पष्टता से इस बात की जानकारी हो जाती थी कि श्रमिक कब ढिलाई कर रहे हैं अथवा ठग रहे हैं। पहले की भाँति इस बार भी, प्रभुपाद कुछ काल तक रुकेंगे, परामर्श देंगे, फिर चल देंगे। इस्कान की भूमि में वापस आकर श्रील प्रभुपाद अर्चा-विग्रहों के सम्मुख गए और उनके मोहक सौन्दर्य को इस तरह निहारते रहे जिससे कभी कभी आभास होता कि सभी अर्चा-विग्रहों में ये विग्रह उन्हें सबसे प्रिय थे। राधा - रासबिहारी से उनका यह वायदा कि वे उनके लिए एक सुंदर मंदिर का निर्माण करेंगे शीघ्र ही वास्तविकता में बदलने वाला था, किन्तु कभी कभी वे संदेह प्रकट करते कि वे उसे देखने के लिए जीवित रहेंगे। अब वे ८१ वर्ष के थे और अपनी कुछ लगातार बीमारियों से चिन्तित थे । निस्सन्देह, प्रभुपाद के लिए मृत्यु की चेतावनी नई नहीं थी क्योंकि १९६५ ई. में पश्चिम में धर्मोपदेश आरंभ करने के दिन से वे कई बार गंभीर रूप से बीमार पड़ चुके थे। फिर भी उनके बार - बार यह कहने पर भी कि अब वे अवकाश लेना चाहते हैं उनके शिष्यों के लिए ऐसा सोचना दुष्कर था । हाँ, शिष्यों को चाहिए कि जैसे भी हो वे कार्य यथाशीघ्र पूरा कर डालें और बम्बई - मंदिर का उद्घाटन करा डालें और हाँ, उन्हें प्रभुपाद को आश्वस्त कर देना चाहिए कि वे अवकाश ग्रहण कर सकते हैं और अन्ततोगत्वा उन्हें श्रीमद्भागवत को पूरा कर देना है। किन्तु कृष्ण स्वतः उन्हें अपने शिष्यों के साथ बने रहने और कम-से-कम इन दो परियोजनाओं को पूरा होते देखने की अनुमति प्रदान करेंगे । जी. बी. सी. के लोगों में प्रत्येक मास कोई एक श्रील प्रभुपाद के साथ उनके सचिव रूप में कार्य करने के लिए रहता था। इस तरह वह प्रभुपाद से सीधे प्रशिक्षण और उनके सत्संग का लाभ पाता था। जनवरी १९७७ में सचिव रामेश्वर स्वामी थे। जब वे लास एंजिलिस से सीधी उड़ान से बम्बई पहुँच तो प्रभुपाद को कर प्रभुपाद के कमरे में बड़े तड़के प्रविष्ट हुए सचमुच प्रसन्नता हुई और उन्हें नई स्फूर्ति का अनुभव हुआ । प्रभुपाद रामेश्वर को एक विशेषज्ञ इस्कान प्रबन्धक मानते थे, विशेषकर कृष्णभावनामृत साहित्य के मुद्रण और वितरण में, जिसे प्रभुपाद अपने धर्मोपदेश के कार्य में प्रथम वरीयता देते थे। अपने गुरु महाराज के एक विनीत सेवक के रूप में रामेश्वर स्वामी ने जिज्ञासा की और कहा, “श्रील प्रभुपाद, आप दिख तो ठीक रहे हैं, किन्तु आप स्वस्थ तो हैं न ?" श्रील प्रभुपाद हँसे, "इस समय मैं बिल्कुल ठीक हूँ, क्योंकि तुम मेरे पास हो ।" कुछ ही क्षणों में वे इस्कान के प्रचार और प्रबन्धन की बातें करने लगे और प्रभुपाद ने रामेश्वर को सलाह दी कि धन का सबसे अच्छा उपयोग अधिक पुस्तकें प्रकाशित करना था। प्रभुपाद ने आगाह किया कि ज्योंही धन इकट्ठा होकर बढ़ने लगेगा उस पर टैक्स लग जायगा और वह सिर-दर्द पैदा करेगा । अच्छा यही होगा कि पुस्तकों के प्रकाशन में उसे तुरन्त व्यय कर दिया जाय । श्रील प्रभुपाद ने कहा, “पुस्तकें प्रकाशित कीजिए, बेचिए और खर्च कर डालिए। इस नीति का अनुसरण कीजिए और इन पुस्तकों का वितरण कीजिए । यही हमारा मुख्य धर्मोपदेश है। जैसे भी हो, हम अपनी पुस्तकों को द्वार-द्वार ले जायँ और वितरित करें। तभी हमारा धर्मोपदेश सफल होगा। जो भी इन्हें पढ़ेगा, वह लाभान्वित होगा। यह निश्चित है । —क्योंकि समस्त विश्व में इस तरह का कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। जन साधारण के लिए यह एक नई क्रान्ति है। जब श्रील प्रभुपाद ने पश्चिम में इस्कान के क्रियाकलापों के विषय में समाचार पूछा तो रामेश्वर ने उन्हें सबसे ताजे विवरण दिए कि किस तरह कृष्णभावनामृत आन्दोलन पर अमेरिका में न्यायालयों और समाचार पत्रों में आक्रमण हो रहे थे और उसे मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक खतरनाक और विशेष मत थोपने वाला सम्प्रदाय बताया जा रहा था। श्रील प्रभुपाद इस बात से पहले ही से अवगत थे और वस्तुतः यह वही " षड्यंत्र" था जिसका उल्लेख वे प्रातः कालीन भ्रमण में कर चुके थे। एक सम्प्रदाय - विरोधी अभियान इस समय आक्रमणशील रूप में सक्रिय था और हरे कृष्ण आन्दोलन को भी अन्य नए आन्दोलनों के साथ लपेटने का प्रयत्न कर रहा था । श्रील प्रभुपाद " कार्यक्रम विध्वंसकों" द्वारा भक्तों के अपहरण और उनके गहरे अवपीड़न से भलीभाँति अवगत थे और उन्होंने दिखा दिया था कि वे इससे बिल्कुल नहीं डरते। उन्होंने भक्तों को आश्वस्त किया कि कृष्ण उनकी रक्षा करेंगे और परिणाम अन्ततः उनके पक्ष में होगा। इस समय सबसे महत्वपूर्ण युद्ध, जिसमें प्रभुपाद कई महीनों से लगे थे, न्यू यार्क का एक कानूनी मुकदमा था, जहाँ मंदिर के अध्यक्ष, आदिकेशव स्वामी, पर आरोप लगाया जा रहा था कि वे मंदिर में भक्तों को बनाए रखने के लिए मनोवैज्ञानिक नियंत्रण अपना रहे थे। जब दो वयस्क भक्तों को कृष्णभावनामृत के प्रति उनके संकल्प से डिगाने में भाडे के विध्वंसक असफल रहे, तो उनके माता - पिता ने अभियोग लगाया। सम्प्रदाय - विरोधी भावना से एक सहायक एटार्नी जनरल सारी उपलब्ध कानूनी तथा सरकारी सुविधाओं का प्रयोग करते हुए अभियोग की पैरवी कर रहा था । यद्यपि नागरिक स्वतंत्रता - प्रेमी क्रुद्ध थे और उन्होंने भक्तों को विश्वास दिला रखा था कि विरोधी लोग कभी जीत नहीं सकते, तब भी मुकद्दमे के परिणाम भयावह हो सकते थे। मुकद्दमे में हरे कृष्ण आन्दोलन के वैधानिक धर्म होने के अधिकार को चुनौती दी गई थी, साथ ही वयस्क भक्तों के इस अधिकार को भी चुनौती दी गई थी कि अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध वे हरे कृष्ण आन्दोलन में सम्मिलित हो सकते थे। एक प्रश्न यह भी था कि क्या हरे कृष्ण आन्दोलन के सदस्य अपनी इच्छा से उसके सदस्य थे अथवा वे किसी तिकड़म या मानसिक नियंत्रण द्वारा आन्दोलन में रहने को बाध्य किए जा रहे थे। जब श्रील प्रभुपाद ने इस मुकद्दमे के बारे में पहले-पहल सुना तो वृंदावन से लिखे एक पत्र में उन्होंने जो उत्तर दिया वह माया की शक्तियों से युद्ध करने के लिए बिगुल बजाने के समान था । हमारा आन्दोलन वैधानिक है या नहीं, इसके लिए आप निम्नांकित तर्क दे सकते हैं । भगवद्गीता के इतने सारे संस्करण हैं। हमारे धर्मग्रंथ बाइबल से पुराने हैं। भारत में लाखों कृष्ण मंदिर हैं। न्यायाधीश और ज्यूरी के सदस्य हमारे ग्रंथ पढ़ें और विद्वानों तथा प्राचार्यों की सम्मति लें। जहाँ तक अपने बच्चों के ऊपर माता-पिता के अधिकार से सम्बन्धित बात है, उसके विषय में कुछ सुझाव इस प्रकार हैं। क्या माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे हिप्पी बनें ? वे इसे रोकते क्यों नहीं ? क्या माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे वेश्या - वृत्ति या मादक द्रव्य सेवन में प्रवृत्त हों ? वे इसे रोकते क्यों नहीं ? अब उन्हें इस आन्दोलन का वजन मालूम होने लगा है। पहले वे सोचते थे कि “ ये लोग आते और जाते रहते हैं।” किन्तु अब वे देख रहे हैं कि हम स्थायी हो रहे हैं। हमने अग्नि प्रज्जवलित कर दी है। यह जलती रहेगी। इसे रोका नहीं जा सकता। आप बड़े से बड़ा दमकल लाइए, किन्तु आग बुझने वाली नहीं है। मस्तिष्क को साफ करने वाली पुस्तकें चारों ओर पहुँच चुकी हैं। यदि ऊपर से वे रोक भी देते हैं तो अग्नि भीतर ही भीतर जलती रहेगी। हमारा प्रथम श्रेणी का अभियान पुस्तक वितरण है। घर-घर जाइए। असली लड़ाई तो अब है। कृष्ण तुम्हारी सब प्रकार से रक्षा करेंगे। अतः हरे कृष्ण कीर्तन कीजिए और युद्ध करते जाइए । बम्बई में श्रील प्रभुपाद के पास बैठ कर रामेश्वर स्वामी ने उन्हें बताया कि प्राचार्यों और धर्म - विज्ञानियों की एक राष्ट्रीय समिति न्यू यार्क के मुकद्दमे में कृष्णभावनामृत आन्दोलन की प्रतिरक्षा के लिए आगे आई है और अनेक वकील और मनोवैज्ञानिक आन्दोलन के प्रति संवेदनशील हैं। श्रील प्रभुपाद ने कहा, "यह कृष्ण की महती कृपा है। कृष्ण की इच्छा थी कि ये सब घटनाएँ हों। स्वयं कृष्ण को इतना महत्त्व तभी मिला जब उन्होंने अनेक राक्षसों का वध किया, न कि केवल माता यशोदा की गोद में लेटे रहने से। जब वे माता यशोदा की गोद में थे, उसी दिन से उन्होंने दैत्यों का वध करना आरंभ कर दिया था। अतएव कृष्ण ने इसे स्थापित किया कि वे परम ईश्वर हैं। इस तरह कृष्ण भी मुक्त नहीं थे, हम लोगों का तो क्या कहना । प्रह्लाद महाराज भी बरी नहीं थे। ज्योंही आप ईश्वर की बात आरंभ करेंगे उसका विरोध होने लगेगा। ईसा मसीह को सूली दी गई। उनकी कृपा है कि मुझे या मेरे शिष्यों को सूली पर नहीं चढ़ाया गया है, किन्तु आपको ऐसी चीजों के लिए तैयार रहना है। नित्यानंद प्रभु को शारीरिक आघात भोगना पड़ा था, हरिदास ठाकुर की बाईस बाजारों में पिटाई हुई थी । यह कार्य ही इस तरह का है।” रामेश्वर ने कहा, "वे अमेरिका में हर एक से यह प्रश्न पूछ रहे हैं, “हरे कृष्ण क्या है ?" श्रील प्रभुपाद ने कहा, "यह तो हमारे लिए लाभ की बात है। वे इस तरह हरे कृष्ण जप रहे हैं । " रामेश्वर ने जोड़ा, “उन्हें पराजित करने के लिए हमें कठोर परिश्रम करना होगा ।' प्रभुपाद बोले, "ओह, हाँ, यह अति आवश्यक है। आप सोते न रहें। कृष्ण ने अर्जुन से कभी नहीं कहा, “मैं आप का मित्र हूँ। मैं ईश्वर हूँ। आप यहाँ सोइए। मैं हर काम करूँगा ।" नहीं। आप को युद्ध करना जरूरी है। यह अपेक्षित है । कृष्ण ने कहा, 'आप युद्ध करें और मुझे स्मरण रखें। तब मैं हर काम करूँगा । कृष्ण का सदैव स्मरण करते रहने का यह अवसर है।" प्रभुपाद ने बताया कि भौतिकतावादियों के लिए सब से बड़ा सदमा यह है कि कृष्णभावनामृत आंदोलन अवैध यौनाचार, मांसाहार और मादक द्रव्य सेवन का विरोध करता है । उनके अनुसार, किसी व्यक्ति के लिए इन चीजों का परित्याग करना इतना आघात पहुँचाने वाला है कि उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि यह वास्तविक आध्यात्मिक अनुभव के कारण घटित हो रहा है। एक पहले के मुकद्दमे का निर्देश करते हुए प्रभुपाद ने कहा, “ जर्मनी में भी लोगों ने आरोप लगाया था कि वह बूढ़ा स्वयं लास ऐंजिलिस में बैठा है और उसने इन युवकों को अपने लिए धन संग्रह करने के लिए लगा रखा है। लोग इसी तरह सोच रहे हैं कि मुझ में मन पर नियंत्रण करने वाली कोई शक्ति है और मैने इन लड़कों को लगा रखा है और वे मेरे लिए धन कमा रहे हैं और मैं मजे कर रहा हूँ ।" श्रील प्रभुपाद को स्मरण हुआ कि किस प्रकार १९६९ ई. में ही जब अपने लास ऐंजिलिस मंदिर में उन्होंने कुछ कारें खरीदी थीं और भक्तों की संख्या बढ़ने लगी थी तो पड़ोस के लोग ईर्ष्या करने लगे थे । प्रभुपाद ने कहा कि मैने उन्हें भी कृष्णभावनामृत संघ में आने और रहने के लिए आमंत्रित किया था किन्तु उन्होंने सदैव नकारात्मक उत्तर दिया । प्रभुपाद ने कहा कि विरोधी जितना ही हो-हल्ला करेंगे, कृष्णभावनामृत आंदोलन उतनी ही ख्याति प्राप्त करेगा । उनका यह भी तर्क था कि लोग उनके सशक्त प्रचार के विरोध में प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे । उन्होंने कहा, " मैं हर एक की भर्त्सना करता हूँ कि वे सब कुत्ते और सुअर हैं। और संयुक्त राष्ट्र को मैने भौंकते हुए कुत्तों का दल कहा है। यह एक तथ्य है। और शिकागो में मैंने कहा, 'स्त्रियो, तुम्हें स्वतंत्रता नहीं मिल सकती । ' इसलिए मैं कटु आलोचना का पात्र बना । " । रामेश्वर के साथ अपनी बैठक श्रील प्रभुपाद ने यह कह कर समाप्त की कि भक्तों को बहुत सचेत रहना चाहिए और कृष्णभावनामृत आन्दोलन का संरक्षण बुद्धिसंगत ढंग से करना चाहिए। किन्तु उन्हें यह भी समझना चाहिए कि एक उच्चतर सिद्धान्त क्रियाशील है। इस विरोध से इस्कान की प्रामाणिकता का संकेत मिलता है। कृष्ण भी कभी - कभी विपत्तिग्रस्त क्रियाकलापों के केन्द्र में होते थे जैसे जब उन्होंने एक शिशु के रूप में कालिय तथा अन्य शत्रुओं से युद्ध किया था जब वे यमुना नदी में गिर गए थे। प्रभुपाद ने कहा, “वृन्दावन की यही खूबी है। जब कृष्ण कालिय से लड़ने के लिए यमुना में घुसे तो माता यशोदा, नन्द, मित्रों और परिवार के लिए कोई अच्छा समाचार नहीं था। बिल्कुल नहीं। उनकी सांस रुक गई थी। किन्तु फिर भी केन्द्र में थे। यही वृंदावन है। हर बात में कृष्ण केन्द्र में होते कृष्ण हैं। हमारी स्थिति भी इसी तरह की है। वे कृष्ण के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं—वे विरोध कर रहे हैं, किन्तु मैं प्रसन्न हूँ कि कृष्ण केन्द्र में हैं। बस । इस आन्दोलन की यही खूबी है। यद्यपि हम कठिनाई में पड़ जाते हैं, किन्तु केन्द्र में कृष्ण ही हैं।" अपने शिष्यों की एक टोली के साथ इलाहाबाद की यात्रा करना प्रभुपाद चाहते थे। किन्तु जब एक भक्त टिकट खरीदने गया तो उसने पाया कि सभी सीटें पहले ही भर चुकी थीं; इलाहाबाद के लिए, कुंभ मेले के इतने निकट समय पर, आरक्षण मिलने की कोई संभावना नहीं थी । किन्तु श्रील प्रभुपाद के एक बम्बई के मित्र, मि. गुप्त, सेंट्रल रेलवे में ऊँचे अधिकारी थे और प्रभुपाद की प्रार्थना पर उन्होंने इलाहाबाद जाने वाली एक गाड़ी में एक विशेष निजी डिब्बा, केवल प्रभुपाद और उनके शिष्यों के उपयोग के लिए, जुड़वाने की व्यवस्था कर दी । जनवरी ११ की प्रातः को प्रभुपाद बम्बई से इलाहाबाद की चौबीस घंटे से अधिक की ट्रेन यात्रा पर चल निकले। उनके प्रथम श्रेणी के डिब्बे में उनके साथ रामेश्वर स्वामी, जगदीश और हरिशौरी थे और ट्रेन के स्टेशन से प्रस्थान करने के साथ ही प्रभुपाद का धर्मोपदेश आरंभ हो गया । रामेश्वर ने हाल के ही कैलीफोर्निया में एक रेडियो- प्रदर्शन का उल्लेख किया जिसमें उसने भाग लिया था और जिसमें एक लूथर-पंथी पादरी ने कहा था कि कृष्ण एक यौन प्रतीक थे क्योंकि उनके पास अनेक पत्नियाँ और गोपियाँ थीं । प्रभुपाद ने कहा, “यदि हम मान भी लें कि कृष्ण यौन-सुख के पीछे पड़े रहते थे, तो यदि यौन-सुख बुरा है तो वे लोग उसके पीछे क्यों पड़े रहते हैं ?" रामेश्वर ने उत्तर दिया, “पादरी का कहना है कि यौन-सुख ईश्वर के लिए नहीं है।” श्रील प्रभुपाद डिब्बे में एक ओर बैठे थे और उनके शिष्य उनके सामने बैठे थे। ट्रेन की जोर की खड़खड़ाहट के कारण कभी कभी उनका वार्तालाप करना कठिन हो जाता था । प्रभुपाद ने कहा, कैसे हुआ ? ईश्वर ने "यदि यौन-सुख ईश्वर के लिए नहीं है तो वह उत्पन्न हर वस्तु की सृष्टि की है। की सृष्टि नहीं की ?” श्रील प्रभुपाद ने बताया कि संसार में है और आध्यात्मिक संसार में भी है। तो क्या ईश्वर ने यौन-सुख यौन सुख की स्थिति भौतिक भौतिक यौन-सुख मूल शुद्ध यौन-सुख का, जिसकी स्थिति परमात्मा में है, विकृत रूप है। अतएव कृष्ण का यौन-सुख भोग भौतिक यौन सुख से नितान्त भिन्न है। वस्तुतः वह बिल्कुल उल्टा है, ठीक उसी तरह जैसे वास्तविकता अपने प्रतिबिम्ब की उल्टी होती है। श्रील प्रभुपाद ने कहा, "तुम नहीं समझते कि विरोधी दल का सामना किस प्रकार किया जाता है।" वे स्फूर्ति से भरे थे, तर्क-वितर्क वे स्फूर्ति से भरे थे, तर्क-वितर्क के लिए तैयार थे और अपने शिष्यों को दिखाना चाह रहे थे कि विरोधी को किस प्रकार हराया जाता है। उन्होंने अपने गुरु को यदाकदा सिंह- गुरु कहा था और अब उनके शिष्य उन्हें उसी युद्धोन्मुख रूप में देख रहे थे । उन्होंने कहा, “जितना ही विरोध बढ़ेगा उतना ही हमें बचाव करना होगा ।' रामेश्वर ने पूछा, “श्रील प्रभुपाद, क्या हमें अपने मन में सोचते रहना कि एक दिन कृष्णभावनामृत आंदोलन को संसार के सभी नगरों और राष्ट्रों की व्यवस्था देखनी होगी ?" प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "हाँ, जरूर।" रामेश्वर ने पूछा कि भक्त इतनी विशाल, महत्त्वाकांक्षी योजना को किस प्रकार पूरा कर पाएँगे। प्रभुपाद ने बताया कि व्यवस्था का सरलीकरण होगा, क्योंकि नागरिकों का जीवन शुद्ध और स्वाभाविक होगा। इस प्रकार अनीश्वरवादी सरकार के बहुत-से भारी-भरकम और पापपूर्ण आयाम अनावश्यक हो जायँगे और अनेक उलझन भरी समस्याएँ सुलझ जायँगी। उन्होंने आत्मावलम्बी कृषक समुदायों का उदाहरण दिया जहाँ लोग स्थानीय स्तर पर अपनी जीविका कमा लेते हैं। उन्होंने कहा कि, किन्तु केवल शिक्षा और कृष्ण - चेतन आनंद के उच्चतर आस्वादन से ही जन-समाज को सरल जीवन से संतोष प्राप्त हो सकेगा । रामेश्वर ने पूछा कि क्या कृष्णभावनाभावित मनुष्यों के एक अल्प संख्यक दल के तौर पर सरकार में शक्तिशाली बन जाने से अमेरिका कृष्णभावनाभावित हो जायगा, जबकि जन-समाज कर्मी बने रहेंगे ? ने उत्तर दिया, "नहीं। आपको कृष्णभावनामृत का समावेश इस तरह प्रभुपाद करना है कि वे भक्त बन जायें। मान लीजिए कि बड़े-बड़े कल-कारखानों में हम प्रसाद वितरण और कीर्तन चालू कर दें, तो वे तुरन्त भक्त बन जायँगे । उनके हृदय स्वच्छ हो जायँगे; चेतो- दर्पण - मार्जनम् । रामेश्वर ने आगे पूछा, “किन्तु क्या यह रूस की तरह होगा, जहाँ एक छोटे समूह का ही नियंत्रण है ?" "नहीं, यह उस तरह का नहीं है। यहाँ लोगों का स्वभाव बदल जायगा । ' रामेश्वर ने सुझाव दिया, “ तो इसका तात्पर्य यह है कि जब पूरा जन- समाज कृष्णभावनाभावित हो जाय तभी कृष्णभावनाभावित सरकार होगी... । प्रभुपाद ने संशोधन किया, “नहीं, आप अल्प संख्या में होते हुए भी सरकार बना सकते हैं, किन्तु उस स्वभाव परिवर्तन के कारण, पूरा जन- समाज आप - जन-समाज के दृष्टान्त का पालन करेगा।" एक अर्थ में यह कोई तात्कालिक समस्या नहीं थी कि भक्तजन समस्त संसार के मामलों की व्यवस्था किस प्रकार करेंगे, क्योंकि भक्तों का राजनीतिक प्रभाव अभी नगण्य था । किन्तु ऐसे प्रश्नों के उत्तर देकर प्रभुपाद कृष्णभावनामृत आंदोलन के भावी लक्ष्यों और कार्य - विधियों का निर्धारण कर रहे थे। एक व्यवहार - पटु प्रबन्धक और स्वप्नदर्शी के रूप में रामेश्वर स्वामी ठीक-ठीक जानना चाहते थे कि श्रील प्रभुपाद भावी कृष्णभावनाभावित संसार को किस रूप में देख रहे थे। श्रील प्रभुपाद के पास इन प्रश्नों के उत्तर थे; किन्तु उन्होंने संकेत दिया कि सामाजिक और राजनीतिक प्रबन्ध किन्हीं कानून-कायदों की औपचारिकताओं से नहीं, वरन् शुद्ध कृष्ण - चेतना द्वारा होगा। लोगों के हृदयों को कीर्तन, श्रवण और शास्त्रानुशीलन से बदल दिया जायगा और तदनन्तर सारी व्यवस्था कृष्णभावनामृत के मूल सिद्धान्तों पर निर्मित की जायगी । जब ट्रेन घनी बस्ती वाले बम्बई के इलाकों से निकल कर ग्रामीण क्षेत्र में पहुँची तो श्रील प्रभुपाद ने खिड़की से बाहर की ओर देखा और वहाँ के दृश्य उन्हें अच्छे लगे। उन्होंने कहा, “हम खुले मैदान में आ गए हैं। यह कितना अच्छा है। और जब तक हम घनी बस्ती के इलाकों से निकलते रहे, वे नारकीय थे, केवल नारकीय । अब खुला मैदान है। कितना अच्छा है !" हरिशौरी ने कहा, “ नगर में प्रवेश करना ही आप की चेतना के लिए बोझ हो जाता है । " प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, वहाँ कितना गंदा रहता है। चीजें इधर-उधर पड़ी होती हैं, लोग नारकीय जीवन जीते हैं । यहाँ देखो। कितना खुला और सुहावना है । इसलिए कृषि - फार्मों को स्थापित करो।' जब रामेश्वर ने इस बात की ओर संकेत किया कि कृषि आधारित सामुदायिक जीवन की व्यवस्था के लिए बहुत पूँजी चाहिए तो प्रभुपाद ने केवल यह उत्तर दिया कि भक्तों को दृष्टान्त प्रस्तुत करना चाहिए और अन्य लोग उनके सफल ढंग का स्वतः अनुकरण करेंगे। रामेश्वर ने उल्लेख किया कि, यद्यपि अमेरिका में मंदिरों के अध्यक्षों में अधिक से अधिक लोगों को इस्कान में लाने की व्यग्रता है किन्तु अधिकांश लोग अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँच पाते । प्रभुपाद बोले, "इसलिए फार्मों की स्थापना करो । ' रामेश्वर ने सुझाया कि लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए कि अपने घरों में भी वे कुछ कृष्ण - चेतना रखें— अपने घर को ही मंदिर बनाएँ । प्रभुपाद ने असहमति जताई। “नहीं, उन्हें न्यू वृंदावन के फार्म पर जाना चाहिए ।" यदि लोगों को कठोर जीवन में रुचि नहीं हैं तो वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ फार्म पर आ जायँ और अपने घर में सुविधापूर्वक रहें । फार्म पर उन्हें पर्याप्त रोजगार मिलेगा। प्रभुपाद ने कहा कि लोग अधिकाधिक बेरोजगार होते जायँगे और उन्हें विवश होकर कृष्ण - चेतन कृषि फार्मों के सामुदायिक जीवन की शरण में आना होगा । हरिशौरी ने कहा, " तो हम यह आशा करें कि वर्तमान भौतिक परिस्थितियों से आगे की परिस्थितियाँ बहुत अधिक खराब होने वाली हैं ? " प्रभुपाद ने कहा, "वे हों या न हों, हमें इसकी चिन्ता नहीं है। हम लोगों को एक आदर्श समाज की स्थापना करनी चाहिए । ' यद्यपि प्रभुपाद बिना कुछ नाश्ता किए ही, बम्बई से चले थे, किन्तु वे चार घंटे लगातार बोलते रहे। और तब उन्होंने हरिशौरी से लंच परोसने को कहा । अन्य भक्त डिब्बे से चले गए । हरिशौरी प्रभुपाद के सारे व्यक्तिगत सामान कंधे से लटकाने वाले दो छोटे थैलों में रखता था। एक में तीन जोड़े कपड़े थे और दूसरे में प्रभुपाद की थाली, कटोरी, चम्मच, खाना, तिलक और शीशे जैसे सामान थे। केवल इन्हीं दो थैलों के साथ प्रभुपाद समस्त विश्व का भ्रमण करते रहे थे। यद्यपि वे एक धनाढ्य अन्तर्राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख थे, तथापि वे अपने लिए कुछ नहीं रखते थे और अल्प सामानों के साथ यात्रा करते थे। उनके पास जो भी अनुदान आते थे, उनकी पुस्तकों की बिक्री से जो भी लाभ होता था, उनके पास जो भी सम्पत्तियाँ थीं—–— सब इस्कान के नाम में था । इतने पर भी जब उस धूल भरी ट्रेन की यात्रा में उनके खाने का समय आया तो उनके सेवक ने उनके सामने चाँदी की थाली और कटोरियों में सुस्वादु शाकाहारी भोजन परोस कर प्रस्तुत किया । यद्यपि प्रभुपाद अपने पास कुछ नहीं रखते थे, किन्तु कृष्ण की कृपा से उनके लिए सारी व्यवस्था थी । श्रील प्रभुपाद अपनी सीट पर पालथी मार कर बैठ गए। उनके सेवक ने उनके सामने स्टेनलेस स्टील का टिफिन रखा और वे बताने लगे कि उसके किस खाने में से उन्हें क्या चाहिए । टिफिन के खानों में सब्जियाँ थीं, पूरियाँ थीं, फल थे और मिठाइयाँ थीं। जब प्रभुपाद को जो पसंद था उसे उन्होंने ले लिया और खाने लगे तो उन्होंने हरिशौरी से आग्रह किया कि वह भी प्रसाद ग्रहण करे। जब वे दोनों खा चुके और अवशिष्ट खाद्य हरिशौरी ने शेष भक्तों में बाँट दिया तो प्रभुपाद विश्राम करने लगे । तीसरे प्रहर प्रभुपाद के छोटे-से कम्पार्टमेंट में और अधिक भक्त इकट्ठे हो गए और रामेश्वर स्वामी ने जो मुद्दे उठाए थे अधिकतर उन्हीं के उत्तर के रुप में प्रभुपाद का धर्मोपदेश चलता रहा । रामेश्वर ने कहा, “ जहाँ तक मस्तिष्क - धुलाई या हृदय परिवर्तन कर देने की बात है उनका दावा है कि हमारी जीवन-शैली भक्तों को अपना बना कर उन्हें दुनिया से विलग कर देती है ।' प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, हमें तुमसे मिलने-जुलने में घिन आती है। कोई भी भद्र पुरुष गुण्डों से मिलना-जुलना पसंद नहीं करता। कौए कभी बत्तखों तथा हंसों के बीच रहना पसंद नहीं करेंगे और न ही हंस कौओं के बीच रहना चाहेंगे। यह प्राकृतिक विभाजन है। एक तरह के पक्षी एकसाथ उड़ान भरते हैं । " रामेश्वर : " उन लोगों के पास पाँच या छह परिस्थितियों की सूची है। उनका कहना है कि यदि ये सभी परिस्थितियाँ एकसाथ विद्यमान हों तो मस्तिषक - धुलाई के लिए यह उपयुक्त वातावरण होता है। उनका कहना है कि हम अपने सदस्यों पर इन्हीं परिस्थितियों को थोपते हैं।' प्रभुपाद : “हाँ, हम बुरे से अच्छा बनाने के लिए मस्तिष्क-धुलाई करते हैं। यही हमारा धंधा है। हम मस्तिष्क से सारी धूर्तता धो डालते हैं । तुम्हारा मस्तिष्क सारी रद्दी वस्तुओं — मांसाहार, अवैध मैथुन तथा द्यूत क्रीड़ा—से भरा पड़ा है। अतः हम उन्हें धो रहे हैं। ― चेतो दर्पण - मार्जनम् । शृण्वताम् स्व-कथा: कृष्णः पुण्य श्रवण कीर्तनः हृदि अन्तःस्थो हि अभद्राणि । अभद्राणि का अर्थ है खराब वस्तुएँ। खराब वस्तुओं की धुलाई या सफाई होनी चाहिए। क्या तुम अपना घर नहीं साफ करते ? क्या तुम अपना कमरा नहीं साफ करते ? क्या इसे मस्तिष्क की धुलाई कहेंगे? यदि तुम अपना कमरा अच्छी तरह साफ करो तो तुम्हें दोष कौन देगा ? किन्तु तुम इतने धूर्त हो कि हम पर दोषारोपण करते हो । — ' आप यह कूड़ा-करकट क्यों साफ कर रहे हैं ?' हम कूड़ा-करकट साफ कर रहे हैं और तुम विरोध कर रहे हो । यही तुम्हारी बुद्धि है । किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति कूड़ा-करकट साफ कर देते हैं। सफाई करना सभ्यता का नियम है। वही हम कर रहे हैं। स्पर्श " वैदिक सभ्यता के अनुसार तुम सचमुच अछूत हो । अब हम तुम्हारा करने आए हैं। अत: तुम सफाई करो - पहले साफ बनो । भारतीय सभ्यता के अनुसार कुत्ता अस्पृश्य है किन्तु वही तुम्हारा सबसे अच्छा मित्र है । अत: तुम अस्पृश्य हो । अतः हमें तुम्हारे मस्तिष्क की धुलाई करनी है। जब तक तुम्हारा मस्तिष्क धुल नहीं जाता तुम कृष्ण को समझ नहीं सकते। मनुष्य अपनी संगति तुम्हारा से जाना जाता है। तुम कुत्ते के साथ सोते हो, कुत्ते के साथ खाते हो, सब से अच्छा मित्र कुत्ता है, तो तुम ? तुम्हारी धुलाई - सफाई तो होनी ही चाहिए ।" रामेश्वर : " किन्तु उनकी दलील यह है कि अमेरिका में मानदंड यह है कि आप को विविध क्षेत्रों में पारंगत होना चाहिए— जैसे विज्ञान, संगीत, कला और साहित्य। संस्कृति और शिक्षा का यह मानदण्ड उन्हें योरप में पुनर्जागरण की धारणा से प्राप्त हुआ है। किन्तु अपने हरे कृष्ण आन्दोलन में हम अपने को इन चीजों से अलग कर रहे हैं और केवल एक तरह का साहित्य — कृष्ण साहित्य — ही पढ़ रहे हैं । ' प्रभुपाद : “यह दूसरे प्रकार का साहित्य संस्कृति नहीं है। ज्योंही तुम बदल जाते हो तो वह संस्कृति नहीं रहती । वह मनोधर्म हो जाता है— मानसिक कुचक्र । हाँ, हम तुम्हारी इन निरर्थक बातों को बंद करना चाहते हैं । यही हमारा उद्देश्य है । जो बुद्धिमान हैं, वे हमारे साथ आ गए हैं। आप भी आ जाइए।' रामेश्वर ने आपत्ति उठाई कि कृष्ण-चेतन बच्चे पब्लिक स्कूलों और विश्वविद्यालयों में जाने के लिए तैयार नहीं हैं। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि वे बचा लिए जा रहे हैं। रामेश्वर ने पूछा, “किन्तु यदि वे जीवन में बाद में बदलना चाहें तो ?" प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "वे जीवन में प्रारंभ से कृष्णभावनाभावित हो गए हैं। जीवन की यही पूर्णता है। वे अपने जीवन के प्रारंभ से ही पूर्ण बन गए हैं। और तुम स्कूलों और कालेजों में जाकर नितान्त असभ्य बनते जा रहे हो - -कुत्तों और बिल्लियों की तरह नंगे होकर सड़क में मैथुन कर रहे हो। तो ऐसी शिक्षा का क्या मूल्य है ? इन स्कूलों और विश्वविद्यालयों को बंद कर दो। जितनी जल्दी वे बंद हो जायँ, उतना ही मानव जाति के लिए अच्छा होगा ।' रामेश्वर : “ उनका कहना है कि यदि हमारे सदस्य भद्र पुरुष हैं तो वे हवाई अड्डों पर जाकर लोगों को तंग क्यों करते हैं ? " प्रभुपाद : “वे तंग नहीं करते, वे शिक्षित बनाते हैं। जब किसी चोर को सलाह दी जाती है 'कृपया चोरी मत करो, तो वह इसे तंग करना मानता है, किन्तु यह सदुपदेश है । रामेश्वर : " उनका कहना है कि यह उनके निजी जीवन पर हमला है। प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार है कि वह जैसा चाहे वैसा सोचे ।" प्रभुपाद : “हाँ, अतएव मुझे भी इस तरह से सोचने और पुस्तकें बेचने का अधिकार है।" रामेश्वर : " अतः यदि मैं आप के दर्शन को नहीं सुनना चाहता तो आप मुझ पर उसे थोपते क्यों हैं ?" : प्रभुपाद “यह थोपना नहीं है। यह अच्छा दर्शन है। हम उसका प्रचार कर रहे हैं— 'इसे स्वीकार करें, आप को इससे लाभ होगा।' और उनको लाभ हो रहा है। जो लोग हमारा साहित्य पढ़ रहे हैं वे लाभान्वित हो रहे हैं। आप बड़े-बड़े साइन बोर्ड लगा कर क्यों प्रचार करते हैं । — 'कृपया आइए, खरीदिए । ' आप अपनी तथाकथित अच्छाई हम पर क्यों लाद रहे हैं? आप ऐसा क्यों कर रहे हैं ?" घंटों तक इस तरह का वाग्युद्ध चलता रहा । रामेश्वर कृष्णभावनामृत आंदोलन । पर तर्कों के बाण चलाते रहे और श्रील प्रभुपाद उनको पराजित करते रहे । प्रभुपाद ने उन तर्कों को बचकाना और मूर्खतापूर्ण बताया और उन्होंने उस भौतिकतावादी मनोवृत्ति की तीव्र आलोचना की जहाँ से उनका उदय होता है। शास्त्र तथा तर्क से उन्होंने सिद्ध किया कि अभक्तों में कोई अच्छे गुण नहीं होते और ईश्वर चेतना के अभाव में वे पशुओं से भी गिरे हुए हैं। ऐसे व्यक्ति को आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है और उसकी आलोचना मानव जीवन के वास्तविक उद्देश्य के प्रति अज्ञान की सूचक है। ट्रेन मनमाड, जलगाँव, खण्डवा तथा अन्य छोटे-छोटे नगरों और जंक्शनों पर रुकती गई और प्रभुपाद तथा उनके शिष्यों के लिए दिन बड़ी शीघ्रता से बीत गया। प्रभुपाद कृष्णभावनामृत आन्दोलन के बचाव में तल्लीन थे। उन्हें चैतन्य के पक्ष में लड़ने में आनन्द आ रहा था । निस्सन्देह, वे मुख्यत: अपने शिष्यों के लाभ के लिए बोल रहे थे। किन्तु उसके भी आगे वे सभी प्राणियों के लिए अपनी दया और कृष्णभावनामृत आन्दोलन के प्रति अपनी समर्पण - भावना को अभिव्यक्त कर रहे थे । प्रभुपाद ने आगे कहना जारी रखा, “ वे अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए इतना सारा धन व्यय कर रहे हैं। वे यज्ञ नहीं कर रहे हैं तो वर्षा कैसे होगी ? युद्ध होगा, विध्वंस होगा। यह नितान्त गंदी सभ्यता है । वे हर एक को दिग्भ्रमित कर रहे हैं— सब की आत्मा का हनन कर रहे हैं। यह अंधे का अंधे को रास्ता दिखाने के समान है। हमारे मार्ग में कठिनाइयाँ आने पर भी हमें कृष्ण के नाम पर धंधा करना है। कुत्तों को भौंकने दो। हम चिन्ता नहीं करते। यदि हम कृष्ण के प्रति निष्ठावान् बने रहे तो हमारी यही विजय है। बाहरी परिणाम उतने महत्त्व का नहीं है। हमें कृष्ण के आदेशानुसार कार्य करना है। " निस्संदेह, हम अच्छा परिणाम देखना चाहते हैं, किन्तु यदि परिणाम अच्छा न भी हो तो हमें चिन्ता नहीं है। हमें कृष्ण के प्रति निष्ठावान् रहना है कि हमने बिना किसी को धोखा दिए भरसक प्रयत्न किया है। यही हमारा धर्म है । सेवक के रूप में हम अपने स्वामी को धोखा नहीं देंगे। — फल मिले, चाहे न मिले। भक्त को फल न मिले तो वह दुखी नहीं होता । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, "कोई चिन्ता नहीं, मैं 'हरिनाम' वाराणसी ले आया हूँ, किन्तु यहाँ सभी मायावादी हैं। अतः यदि वह नहीं स्वीकार किया जाता तो ठीक है, मैं उसे वापस ले जाऊँगा ।' किन्तु हमें अपना प्रचार कार्य पूरी शक्ति लगाकर करना हरे कृष्ण, है कि 'कृपया इसे स्वीकार करें ।' यही हमारा लक्ष्य है— हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे...।" श्रील प्रभुपाद की वार्ता धीरे-धीरे जप में बदल गई। कुछ देर तक वे जप करते रहते, फिर दूसरी बात पर बोलने लगते । के रामेश्वर स्वामी एक के बाद एक विवाद उठाता गया। वह सीधे प्रभुपाद मुख से उनकी बात सुन कर अपनी धारणाओं और धर्मोपदेश की योग्यता को दृढ़ बनाने को उत्सुक था । दृढ़ रामेश्वर ने कहा, “प्रायः वे कहते हैं कि हमारी चिन्ता का विषय धर्म नहीं है। प्रत्युत हम मस्तिष्क की धुलाई या मानसिक नियंत्रण करना चाहते हैं। आप प्रतिदिन कई घंटे जप - कीर्तन करते रहते हैं । प्रभुपाद तेज स्वर में बीच में बोल पड़े “ तो तुम्हें इससे क्या ? यह मेरा काम है। तुम इसके लिए परेशान क्यों हो ?” रामेश्वर : " किन्तु जब ये युवाजन घंटों जप - कीर्तन में लग जाते हैं तो आप उन्हें स्वयं सोचने का अवसर नहीं देते। " - प्रभुपाद : 'तुम सब चोर हो। तुम अपहरण करना चाहते हो। तो मैं तुम लोगों को अवसर क्यों दूँ? वे कीर्तन कर रहे हैं और तुम आरोप लगा रहे हो कि उनके मस्तिष्क की धुलाई हो रही है। तुम उन्हें कीर्तन न करने के लिए कहते हो, यही तुम्हारा काम है ? किन्तु तुम ऐसा नहीं कर सकते।' रामेश्वर : " किन्तु वे कहते हैं कि इससे उनके सोचने की स्वतंत्रता छिन जाती है । " प्रभुपाद : “यह बात विवादग्रस्त है। तुम स्वयं उनकी स्वतंत्रता छीनना चाहते हो, और फिर हम पर आरोप लगा रहे हो ।" प्रभुपाद ने कहा कि पहले इस बात की परीक्षा होनी चाहिए कि सच्चा धर्म क्या है। उन्होंने कहा, "हम कहते हैं कि ईश्वर प्रदत्त नियम धर्म है। और इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि ईश्वर को हम क्या नाम देते हैं। यदि हम 'कृष्ण' कहें तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे ईश्वर नहीं हैं। अतएव इसके पहले कि हम कृष्णभावनामृत को चुनौती दें, एक सामूहिक परिचर्चा और निर्णय होना चाहिए कि सच्चा धर्म क्या है। हम कहते हैं कि ईश्वर एक है और उसने नियम के रूप में हमें जो दिया है, वही धर्म है। रामेश्वर : “किन्तु ईसाई कहते हैं कि बाइबल के अनुसार यदि ईश्वर चाहता कि हम कृष्ण में विश्वास करें तो उसने सिनाय पर्वत पर वैसा कहा होता और उसने जीसस क्राइस्ट के माध्यम से कहा होता। जीसस ने कहा है, 'मैं ही केवल एक मार्ग हूँ' प्रभुपाद : "यह तो ठीक है । किन्तु जीसस तुमसे इसलिए अधिक नहीं बता सके, क्योंकि 'तुम धूर्त हो ? तुम तो उनके इस एक उपदेश का भी पालन नहीं कर सके कि तुम हिंसा मत करना।' यह जीसस क्राइस्ट की मूर्खता नहीं है। चूँकि तुम इतने बड़े धूर्त हो, इसलिए तुम उन्हें नहीं समझ सकते। इसलिए तुम धूर्तों से बचते रहे। क्योंकि उन्होंने जो कुछ कहा, उसका पालन तुम नहीं कर सकते। तो फिर तुम क्या समझोगे ? इसलिए उन्होंने कहना बंद कर वे दिया । " रामेश्वर : " वे यह भी कहते हैं कि आप पारिवारिक जीवन नष्ट कर रहे हैं " प्रभुपाद : " यह ठीक है । हम कृष्ण के परिवार में प्रवेश कर रहे हैं। " हरिशौरी : “किन्तु यदि आप सचमुच भगवान् के अनुयायी हैं तो आप परिवारों को क्यों भंग कर रहे हैं ? क्या आप को हर एक से प्रेम नहीं करना चाहिए ?" रामेश्वर: "ईश्वरीय आदेशों में से एक आदेश यह भी है कि हम अपने माँ-बाप का आदर करेंगे ।" प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि भक्त अपने माँ-बाप को कृष्णभावनामृत सिखाने के रूप में उनको प्रेम करता है। हरिशौरी : " मेरी माँ इसका प्रमाण हैं । जब मैं घर रहता था तो उन्होंने कहा कि मेरे साथ रहना असंभव है; जब मैं बाद में उनसे मिला तो मैं उन्हें बहुत भला लगा । प्रभुपाद : " ऐसे बहुत से उदाहरण हैं । हयग्रीव के माँ-बाप का भी यही हाल हुआ । रामेश्वर : "मेरे माँ - बाप भी ऐसा ही सोचते हैं। पहले मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं था । किन्तु अब, जब मैं भक्त बन गया हूँ, मैं उनकी सहायता करना चाहता हूँ । ' प्रभुपाद : " अनेक माँ-बाप हैं जो अपने बच्चों का भक्त बन जाना, पसंद करते हैं। हमारे शिष्यों में से कोई भी अपने माँ-बाप के प्रति अवज्ञापूर्ण नहीं है । क्यों? मैंने कभी नहीं कहा कि तुम अपने माँ-बाप का अनादर करो। ब्रह्मानंद के दीक्षा समारोह में उसकी माँ वहाँ खड़ी थी और मैंने ब्रह्मानंद से कहा कि 'पहले अपनी माँ की चरण-रज लो, फिर मुझे प्रणाम करो।' अतएव पहले उसने अपनी माँ के प्रति प्रणाम निवेदन किया। मैने उससे कहा, “तुम्हारी माँ बहुत अच्छी हैं, अन्यथा वह तुम्हारे समान पुत्र कैसे उपजातीं ?” मैं इसी तरह हमेशा कहता हूँ। मैं कभी नहीं कहता कि अनादर करो। किसी विशेष दशा में, जब माँ - बाप राक्षस हों, तो उनका साथ छोड़ देना चाहिए। किन्तु यह कभी नहीं कहा कि परिवार भंग कर दो।" रामेश्वर : "मेरे विचार से हम सारे तर्क समाप्त कर चुके हैं। " प्रभुपाद (तर्क-वितर्क के लिए अब भी उत्सुक ) : था कि हम भक्तों को खाने-पीने से वंचित कर रहे हैं। “ पहले पहल तुमने कहा ऐसा कहाँ है ?" रामेश्वर : “हाँ, यह उनकी दलील है कि हम भक्तों को दिन में केवल दो बार खाने देते हैं। और उसमें मांस नहीं होता और प्रोटीन बहुत कम होती है । " प्रभुपाद : "यह भक्त पर निर्भर है। यदि वह उस तरह का खाना पसंद करता है तो आपको उस पर खास तरह का खाना थोपने का अधिकार नहीं है। तब तो आप ज़बरदस्ती करते हैं । भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं और वे भिन्न-भिन्न तरह का खाना पसंद करते हैं। यदि कोई भक्त दिन में केवल दो बार खाना चाहता है तो आप उसे तीन बार खाने को क्यों मजबूर करते हैं? यह तो उसकी अपनी मर्जी है । " में रामेश्वर : " और केवल चार या पाँच घंटे का सोना — यह बहुत कम है । ' प्रभुपाद : "हाँ, अधिक सोना समय नष्ट करना है । ' रामेश्वर : " लेकिन इससे दिमाग कमजोर होता है । " प्रभुपाद : "जिस धूर्त को कुछ करना न हो, तो वह सोए । नेपोलियन केवल एक या दो घंटे सोता था — वह इतना व्यस्त पुरुष था । इसी तरह भक्त कृष्णभावनामृत बहुत व्यस्त होते हैं। कोई भी महान् व्यक्ति बहुत अधिक नहीं सोता । सोना केवल समय की बर्बादी है। यदि कोई अधिक नहीं सोता तो वह उसकी महानता का लक्षण है।" जब रामेश्वर स्वामी ने तर्क दिया कि विपक्षी दल के पास हमारे विरुद्ध प्रमाण देने के लिए मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ हैं तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हमारे अपने भी मनोवैज्ञानिक हैं। " पूरे तीसरे पहर और रात होने तक बातों में लगा कर, प्रभुपाद ने भक्तों को विश्राम करने को कहा। दस बजे वे लेट गए और हरिशौरी उनके पैरों की मालिश करने लगा । श्रील प्रभुपाद ने निष्कर्ष स्वरूप कहा, “वस्तुतः उनके तर्क पुष्ट नहीं हैं। अतः यह कृष्ण की योजना मात्र है कि वे हमारी प्रसिद्धि में सहायक बन रहे हैं। उससे हम और अधिक विख्यात हो जायँगे।” उन्होंने कहा कि विरोध तो केवल उपदेश देने का अवसर मात्र है। किन्तु कानूनी मुकद्दमों और अन्य कटु विरोधों से निपटने के लिए भक्तों को ठीक से धर्मोपदेश और प्रचार करना सीखना होगा। और उन्हें आत्म-बल में भी मजबूत बनना पड़ेगा। इलाहाबाद की चौबीस घंटे की यात्रा में प्रभुपाद रात-दिन अपने शिष्यों से बातें करते रह कर, उन्हें आगे के लिए तैयार करते रहे। इलाहाबाद जनवरी १२ वे सब ९ बजे सवेरे पहुँचे, और श्रील प्रभुपाद के आधा दर्जन संन्यासी शिष्यों तथा उनके साथ लगभग पचास भक्तों के कीर्तन - दल ने उनका स्वागत किया। वे प्रभुपाद की कार दिल्ली से इलाहाबाद लाए थे और प्रभुपाद ने स्टेशन से मेले तक की थोड़ी सी दूरी उस कार द्वारा तय की। पैदल और रिक्शों पर बैठे हजारों यात्रियों से सड़कें घिरी थीं, जिससे प्रभुपाद की कार - यात्रा बहुत धीमी थी। अंत में सड़क समाप्त हो गई, किन्तु यातायात त्रिवेणी के इर्द के रेतीले समतल मैदान तक चलता रहा । यहाँ कुछ ही दिनों में तम्बुओं का नगर बस गया था। बीस लाख यात्री पहुँच चुके थे और प्रतिदिन लाखों का आना जारी था। भारत के प्रत्येक आध्यात्मिक सम्प्रदाय का बांस की बाड़ों से घिरा तम्बुओं का अपना निजी शिविर होता था । प्रभुपाद की कार जब धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी तो वे यह देख कर मुसकराने लगे कि उनके शिष्यों की एक मण्डली शिविरों में घूम-घूम कर हरि - नाम - कीर्तन कर रही थी। किन्तु जब तक उन्होंने शिविरों से भरे सुदूर त्रिवेणी तक के भीड़ वाले मुख्य क्षेत्र को पार नहीं किया तब तक वे इस्कान शिविर नहीं पहुँचे । इस्कान के तम्बू, जिनमें से अधिकांश प्रभुपाद के पहुँचने से लगभग आधा घंटा पहले खड़े किए गए थे, गंगाद्वीप में रेलवे पुल के निकट स्थित थे । वहाँ से त्रिवेणी का स्नान स्थल बीस मिनट की दूरी पर था। मेले के प्रबन्धकों की ओर से वहाँ साधारण बाहरी शौचालयों, पानी की टोंटियों, कपड़े के पर्दे से बने एक रसोई-घर, जमीन में एक सुराख और कुछ ईंटों की व्यवस्था की गई थी । जैसी कि प्रभुपाद को आशा थी, वहाँ सब कुछ सामान्य कुंभ मेले के अनुरूप सीधा-सादा था; किन्तु शिविर के दूर स्थित होने से उन्हें अप्रसन्नता हुई। और जब उन्हें ज्ञात हुआ कि बिजली की रोशनी उनके क्षेत्र में नहीं पहुँची है तो उन्हें और अधिक अप्रसन्नता हुई । यदि वहाँ प्रकाश नहीं होगा तो लोग उनके सांध्य-कालीन कार्यक्रम में कैसे आएँगे ? उन्होंने भागवत और गुरुदास को बुलाया जिन पर इस्कान शिविर की व्यवस्था का भार था । वे चिल्ला कर बोले, "यह जमीन किसने प्राप्त की ?" भागवत ने कहा, "जब मैं यहाँ आया था तो यह एक खाली मैदान था । उन्होंने मुझसे कहा, 'हम आप को यह द्वीप दे रहे हैं। यहीं पर राज्यपाल हैं, कलपात्री महाराज हैं, महर्षि महेश योगी हैं, मेरा विचार है कि आप यहाँ सभी प्रमुख व्यक्तियों के साथ हैं । "" श्रील प्रभुपाद हँसने लगे, "तुम अनुभवहीन हो, इसलिए उन्होंने तुम्हें ठग लिया । चलो ठीक है, तुम नहीं जानते थे ।" किन्तु बाद में जब उन्हें मालूम हुआ कि भागवत और गुरुदास ने प्रसाद वितरण के लिए पर्याप्त खाद्य नहीं एकत्रित किया था, तो वे क्रुद्ध हुए । उन्होंने भागवत को फिर बुलवाया। उन्होंने पूछा, “आज रात में प्रसाद का वितरण क्यों नहीं हुआ ?" भागवत हकलाकर बोला, “प्रभुपादजी, मैं नहीं जानता। लोगों ने खाद्य नहीं खरीदा था । " प्रभुपाद क्रोधित हो उठे, “क्यों नहीं खरीदा गया ? तुम्हें क्या हो गया ? तुम अमरीकी लोग खूब पैसे खर्चने वाले हो— किन्तु तुम केवल उसे बर्बाद करते हो। तुम लोगों के पास खाद्यान्न का भण्डार नहीं है। तुम लोगों ने चावल, दाल, गेहूँ क्यों नहीं खरीदा ? इनका भण्डार क्यों नहीं है ? तुम्हें क्या हो गया ? तुम्हारे पास दिमाग नहीं हैं। एक रुपए का चावल खरीदने के लिए तुम टेक्सी का पाँच रुपए किराया जाने का और पाँच रुपए आने का देते हो। यही तुम्हारी मानसिकता है। तुम बेवकूफ हो। हर बार, जब तुम्हें किसी चीज की जरूरत होती है, तुम स्टोर जाते हो और उसे खरीदते हो। तुम नहीं जानते कि किस प्रकार एक बार में पर्याप्त सामान खरीद लिया जाता है और तब उसका इस्तेमाल किया जाता है। तुम इस तरह नहीं सोच सकते। और तुमने यहाँ रेलगाड़ी के पुल के नीचे जमीन क्यों ली है ? यह गलती क्यों की है ? यहाँ रेलगाड़ी का शोर-गुल रहेगा। यह पण्डाल ठीक नहीं रहा । प्रसाद का भी वितरण नहीं हो रहा है।" बीस मिनट तक डाँट पिलाने के बाद प्रभुपाद ने भागवत की छुट्टी की। थोड़ी देर के बाद उन्होंने भागवत को फिर बुलाया। उन्होंने 'भागवत महाराज' के संबोधन के साथ आरंभ किया यद्यपि भागवत संन्यासी नहीं था, "यदि आप प्रकाश की व्यवस्था करा सकें तो आप का यह काम बहुत अच्छा रहेगा । क्या आप यह कर सकते हैं ?" भागवत ने कहा कि वह कर सकता है और रात तक इस्कान शिविर में प्रकाश की व्यवस्था हो गई, यद्यपि अन्य शिविरों की भाँति यहाँ भी प्रकाश प्रायः बंद रहता था । पहली रात में इस्कान पण्डाल में कुछ ही लोग आए। मौसम ठण्डा था, आर्द्र था और तूफानी था। श्रील प्रभुपाद ने ठंडे बिस्तर में पड़े रहने के स्थान पर सारी रात अपने डेस्क के पीछे बैठने का निर्णय किया। उन्होंने अपने सब कपड़े पहन लिए — सिर तक का कोट, चादर, दस्ताने आदि । फिर वे अंधेरे में अपनी डेस्क के पीछे बैठ गये। मिट्टी के तेल से चलने वाले हीटर से तम्बू की ठंड जाने वाली नहीं थी । रामेश्वर स्वामी भी अधिकतर जगता रहा । रात में तम्बू को झकोर कर बहने वाली हवा से प्रायः हीटर चलाने वाला प्रकाश बुझ जाता था तो उसे वह फिर-फिर जलाता रहता था । सवेरा होने तक प्रभुपाद को भयंकर जुकाम हो गया। उनकी नाक बहने लगी और आँखों से पानी जाने लगा। वे स्नान के लिए संगम नहीं गए, किन्तु उन्होंने अपने तम्बू की बगल के नल के ठंडे जल का इस्तेमाल किया। उनके हाथ-पैर सूज गए जैसा कि उनकी पहले की बीमारियों में भी हो चुका था । जब भक्तों ने सुझाया कि प्रभुपाद शिविर में न रहें तो प्रभुपाद अपनी जिद पर अड़ गए। वे धर्मोपदेश करना चाहते थे। लोगों को उनके शिविर के बारे में जानकारी होने लगी थी और लोग आने लगे थे, इसलिए वे वहाँ रुक कर धर्मोपदेश करना चाहते थे। उन्होंने कहा कि कुंभ मेला भक्तों के लिए धर्मोपदेश करने का अवसर है, न कि केवल गंगा में नहाने का । भक्तगण प्रभुपाद के कमरे में गुरु- पूजा और श्रीमद्भागवत की कक्षा के लिए इकट्ठे हो गए। उनके पास प्रभुपाद को पहनाने के लिए कोई मालाएँ नहीं थी, परन्तु प्रभुपाद ने इस विषय में कुछ नहीं कहा। जब तक वे अपना छोटा व्याख्यान समाप्त करें, सूर्य निकल आया था। उन्होंने हरिशौरी से खाट बाहर बिछाने को कहा जहाँ उन्होंने विश्राम किया और बाद में धूप में मालिश कराई । मालिश कराते हुए प्रभुपाद ने रेलवे पुल की ओर देखा और कहा कि उन्हें अपने इलाहाबाद में पहले के दिनों से यह पुल याद था । उन्होंने कहा कि उनके पिताजी का १९३० ई. में इस पुल के नीचे उसी गंगाद्वीप में दाह-संस्कार किया गया था । उस दिन तीसरे पहर कुछ भक्त मायापुर से आए और पहुँचने के तुरन्त बाद उन्होंने प्रभुपाद से शिकायत की कि इस्कान पण्डाल की व्यवस्था बहुत दीन-हीन लगती थी। प्रभुपाद ने उनसे कहा कि उनकी जितनी अधिक पुस्तकें हो सके, बेच कर वे कार्यक्रम को उबारने का प्रयत्न करें। अतएव भक्तों ने की पुस्तकों के हिन्दी - संस्करण बेचने आरंभ कर दिए। प्रभुपाद भक्तगण कीर्तन करते और पुस्तकों का वितरण करते मुख्य सड़क पर वहाँ पहुँचे जहाँ विभिन्न शैवों के शिविर लगे थे और वे धूनी की चारों ओर केवल कौपीन धारण किए बैठे थे। उनमें से अधिकांश के बाल गुंथे थे, शरीर भस्म से पुता था और वे चिलम से गांजे का दम जोर जोर से खींच रहे थे। सड़क की दूसरी ओर करीब-करीब उनके ठीक सामने रामानुज सम्प्रदाय के वैष्णवों के शिविर थे । यद्यपि वे भी त्यागी थे और उनका रूप-रंग शैवों जैसा ही था, किन्तु उनका व्यवहार अधिक मैत्रीपूर्ण था। भक्तों को देख कर उन्हें प्रसन्नता हुई और वे चिल्ला उठे – हरे कृष्ण, हरे राम । भक्तों को लाखों यात्रियों की धर्म-भावना से विस्मय हुआ । कीर्तन दल को निकट आता देख अनेक लोगों ने उसे साष्टांग प्रणाम किया । अन्य जमीन पर लोट गए या ज़मीन के उस स्थान से धूल उठा कर अपने मुखों में डाल ली जहाँ भक्तों के चरण पड़े थे। और यद्यपि यात्रियों में से बहुत से यात्री गरीब थे, किन्तु आगे बढ़ कर उन्होंने उस पात्र में कम-से-कम कुछ पैसे डाल दिए जो एक भक्त लिए हुए चल रहा था। जो कोई एक रुपया देता था उसे एक पुस्तक मिलती थी और वह पुस्तक इतनी सर्व प्रिय हो गई कि लोग उसका नाम ले-लेकर माँगने लगे। कुछ लोग पैसे उछाल रहे थे और संन्यासी, अंचल की तरह फैलाए अपने शिरोवस्त्रों में, उन्हें समेट रहे थे। सूर्यास्त तक भक्तों ने करीब सात हजार पुस्तकें बेच दी थीं । दूसरी रात श्रील प्रभुपाद फिर बैठ गए और रामेश्वर स्वामी व्यर्थ ही हीटर चालू रखने का प्रयत्न करता रहा। हरिशौरी ने प्रभुपाद का श्रुत लेखन यंत्र उनकी डेस्क पर रख दिया था, किन्तु उन्होंने उसे छुआ नहीं। जनवरी १४ प्रभुपाद के इलाहाबाद में आने का तीसरा दिन था । यह कुंभ मेले का पहला स्नान - दिवस था और प्रभुपाद की पुस्तकों के वितरण के लिए यह विशेष अवसर था । लगभग पचास इस्कान भक्तों और अनेक भारतीय गुरुकुल - विद्यार्थियों के कीर्तन दल का, वह जहाँ भी गया, पूरे मेलाक्षेत्र में अच्छा स्वागत हुआ। तीसरे पहर एक बज कर तीस मिनट पर स्नान की शुभ बेला में, कीर्तन - दल त्रिवेणी की ओर चला। जब वह निकट आया तो पुलिस ने जल तक उनका मार्ग प्रशस्त कर दिया। संध्या समय तक भक्तों ने आठ हजार पुस्तकें वितरित कर दी थी। और उनके यहाँ आने के बाद यह पहला दिन था जब प्रभुपाद ने उनकी सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त की। उन्होंने कुछ संन्यासियों को मैले मैं तब तक रुकने का आदेश दिया जब तक उनकी सभी पुस्तकें न बिक जायँ । अगले दिन सवेरे, बीमारी के बावजूद, प्रभुपाद भ्रमण के लिए निकले। करीब पचीस भक्तों द्वारा घिरे वे बहुत धीरे-धीरे चल रहे थे। लम्बे-तगड़े संन्यासियों से घिरा उनका आकार छोटा था, किन्तु कुंभ मेले में आए तीर्थ यात्रियों ने आसानी से उनके प्रमुख पद की पहचान कर ली और भक्तों की भीड़ को चीरते हुए वे आगे आकर उन्हें दण्डवत प्रणाम कर रहे थे। जब प्रभुपाद लोगों को अपनी ओर आते देखते थे तो वे चलना बंद करके रुक जाते थे और भक्तों की आपत्तियों के बावजूद, उन्हें अपने पैर छूने देते थे। वे बीमार थे और अपनी पुस्तकों में उन्होंने बताया था कि यदि पापी लोग किसी भक्त के पैर छूते हैं तो वह बीमार पड़ सकता है; फिर भी उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की । मेले में श्रील प्रभुपाद के रुकने का कार्यक्रम २१ जनवरी तक था, किन्तु उनके भक्तों ने उन पर दबाव डाला कि वे किसी ऐसे स्थान में जायँ जो उनके स्वास्थ्य के लिए अधिक अनुकूल हो । उनमें से किसी ने उन्हें इतना बीमार पहले कभी नहीं देखा था और वे सब चिन्तित थे । प्रभुपाद ने कहा, “किन्तु मेरी इच्छा केवल यह है कि अनेक लोग प्रबुद्ध हो जायँ ।” खबर फैलने लगी थी कि हरे कृष्ण आन्दोलन के गुरु, श्रील प्रभुपाद, गंगाद्वीप में एक शिविर में पड़ाव डाले हैं और उनके दर्शनों के लिए अधिकाधिक लोग आने लगे थे। उन्होंने कहा कि कुंभ मेले में आने वाले तीर्थयात्रियों को आशा थी कि भारत के सभी संत-महात्मा और आध्यात्मिक गुरु वहाँ एकत्र होने वाले थे, इसलिए २१ जनवरी तक वहाँ रुकने के लिए उन्होंने अपने को विवश अनुभव किया । रामेश्वर स्वामी ने प्रभुपाद को परामर्श देने की कोशिश की; उन्होंने कहा, "श्रील प्रभुपाद, एक चीज, आप के लोगों को दर्शन देने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है और वह है आपकी पुस्तकों का लिखा जाना। आप का दर्शन यहाँ कुछ हजार लोग ही कर सकेंगे, किन्तु यदि आप लिखते रहें तो हम आपकी लाखों-करोड़ों पुस्तकें वितरित करेंगे। तब करोड़ों लोग आपके दर्शन पाएँगे । यहाँ लिखने की कोई सुविधा नहीं है। मौसम बहुत ठंडा है। आपका स्वास्थ्य दुर्बल है। चलिए भुवनेश्वर चलें, जहाँ मौसम कुछ गर्म है और जल स्वास्थ्यवर्धक है ।' श्रील प्रभुपाद पहले भुवनेश्वर का उल्लेख कर चुके थे; जिसका महत्व बिन्दु सरोवर के जल के कारण था, जिसमें विशेष औषधीय गुण बताए जाते थे। और उन्हें यह तर्क पसंद आया कि उनका लिखना अधिक महत्त्वपूर्ण था, अपेक्षा इसके कि वे इलाहाबाद में रह कर कुछ हजार लोगों को अपने दर्शनों से लाभान्वित करें। उनके व्यक्तिगत सहायक भक्तों को — जिनमें उनके सचिव, सेवक और रसोइया सम्मिलित थे— प्रभुपाद का इस तरह कठिनाइयाँ सहन करना जबकि उनका स्वास्थ्य इतना खराब था — बहुत दुखदायी लगा । अंत में प्रभुपाद जाने को राजी हो गए। उन्होंने गुरुदास और भागवत को और पण्डाल के खराब प्रबन्ध के लिए डाँट पिलाई । तब १५ जनवरी बुलाया के अपराह्न में उन्होंने प्रस्थान की तैयारी कर ली। रामेश्वर स्वामी और गुरुदास रेलवे का टिकट खरीदने स्टेशन गए किन्तु उन्होंने पाया कि कई सप्ताह तक टिकट उपलब्ध नहीं थे। विशेष रियायत के प्रयास में वे स्थानीय रेलवे कार्यालय गए जो एक पुनर्निमित सुसज्जित रेल के डिब्बे में स्थित था। वहाँ संयोग से उनके बम्बई के मित्र, मिस्टर गुप्त, मिल गए । और उन लोगों ने उन्हें प्रभुपाद की बीमारी और तुरन्त कलकत्ता के लिए प्रस्थान करने की उनकी इच्छा के बारे में बताया। मि. गुप्त ने बम्बई फोन किया और बम्बई से इलाहाबाद आने वाली एक ट्रेन में एक प्रथम श्रेणी का कोच जोड़े जाने की व्यवस्था कर दी। भक्तों ने मि. गुप्त को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। मि. गुप्त ने प्रस्ताव किया कि श्रील प्रभुपाद समस्त भारत की यात्रा उस तरह की एक राजसी कार में करें जैसे वे लोग करते हैं। भक्तों ने उनसे विचार-विमर्श किया कि उस तरह की रेलवे - कार उन्हें पट्टे पर या खरीद कर किस तरह प्राप्त हो सकती है और यह विचार रुचिकर संभावना की परिधि में लगा । किन्तु तात्कालिक चमत्कार तो हो ही गया था : प्रभुपाद को भीड़-भाड़ से भरे कुंभ मेले से कलकत्ता ले जाने के लिए, एक कोच का प्रबन्ध हो गया था । भीड़ में से मंद गति से चलती हुई प्रभुपाद की कार त्रिवेणी से उन्हें और उनके दल को इलाहाबाद स्टेशन ले गई जहाँ सरकारी आदमियों ने उनका और उनके दल का सामान उनके कोच तक पहुँचाने में सहायता की और उनकी हर सुविधा का ध्यान रखा। भक्तों के दृष्टिकोण से भगवान् के सच्चे भक्त के प्रति यह समुचित सम्मान प्रदर्शन था, एक ऐसे भक्त के प्रति जो संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति था । फिर ऐसा व्यवहार विरल ही था । श्रील प्रभुपाद बहुत प्रसन्न थे और उन्होंने अपने सचिव से मि. गुप्त के लिए एक धन्यवाद का पत्र लिखने को कहा जो प्रभुपाद की सुविधा का इतना ध्यान रख रहे थे, “जैसे एक पिता अपने पुत्र का रखता है।” उन्होंने मि. गुप्त और उनके परिवार को मायापुर में होने वाले गौर - पूर्णिमा उत्सव में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया । ट्रेन की यात्रा में प्रभुपाद ने कुभ मेले में इस्कान पण्डाल की कुव्यवस्था के प्रति अपनी अप्रसन्नता को पुनः दुहराया । वहाँ हरे कृष्ण पण्डाल में हजारों लोग आते थे, किन्तु उन्हें प्रसाद नहीं मिलता था । इस दृढ़ निश्चय को उन्होंने अपने एक पत्र में प्रकट किया कि ऐसी कुव्यवस्था की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए । पत्र सभी इस्कान मंदिरों के अध्यक्षों को सम्बोधित था । मेरा आशीष स्वीकार करें। प्रत्येक मंदिर में अब आप जो भी उत्सव करें, वहाँ प्रसाद के वितरण के लिए पर्याप्त सामग्री होनी चाहिए। आप दो या तीन प्रथम कोटि के रसोइये रख सकते हैं और उन्हें हमेशा रखना चाहिए। जब भी कोई अतिथि आए, उसे प्रसाद जरूर मिले। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि रसोइया एक समय के लिए दस-बीस व्यंजन बनाएँ जिनमें पूरी और सब्जी हो और आप उनके साथ हलवा, पकौड़े जोड़ सकते हैं। प्रबन्ध ऐसा हो कि आगन्तुकों को प्रसाद तुरन्त मिले। जब भी कोई भद्रजन आए उसे प्रसाद तुरन्त दिया जाय। जब दस-बीस व्यंजनों का प्रसाद - वितरण हो रहा हो तो रसोइयों को चाहिए कि आगे के दस-बीस व्यंजनो का प्रसाद तैयार करने में लगे रहें। यदि दिन के अंत में कोई आता है तो यह कहना ठीक नहीं होगा कि “ प्रसाद समाप्त हो गया" या " अभी तैयार नहीं है" या "प्रसाद तैयार करने के लिए सामान नहीं है । " ऐसी व्यवस्था कड़ाई से होनी चाहिए । मंदिर का प्रबन्ध श्रीमती राधाराणी, लक्ष्मीजी करती हैं; अतएव किसी चीज का अभाव क्यों हो? हमारा जीवन दर्शन है कि यदि कोई आता है तो वह प्रसाद ग्रहण करे, हरे कृष्ण गाए और प्रसन्न रहे । प्रत्येक वस्तु की आपूर्ति कृष्ण करते हैं, कृष्ण दरिद्र नहीं हैं । अतः हम आने वालों को कोई चीज मना क्यों करें ? इस नियम का पालन किसी भी मूल्य पर होना चाहिए। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। इसके लिए केवल अच्छे प्रबन्ध की जरूरत है। दिन के अंत में आप चीजें बेच सकते हैं, या यों ही दे सकते हैं। यदि हमारा विश्वास है कि कृष्ण प्रत्येक वस्तु देते हैं, या प्रत्येक व्यक्ति का भरण-पोषण करते हैं तो फिर हम कंजूसी क्यों करें ? इसका तात्पर्य तो यह होगा कि हम कृष्ण में विश्वास नहीं करते या सोचते हैं कि हम ही सब कुछ करते हैं या हम ही आपूर्तिकर्ता हैं। हमें विश्वास है कि कृष्ण हर वस्तु की आपूर्ति करेंगे ! सारा संसार आए, हम उसे खिला सकते हैं। अतएव इसे अच्छी तरह कीजिए । ऐसा तुरंत आरंभ कर दें। श्रील प्रभुपाद ने द कृष्ण कान्शियसनेस मूवमेंट इज आथोराइज्ड में प्रकाशित अपनी पुस्तकों की समीक्षाएं सुननी चाहीं । उनके सचिव एक के बाद एक समीक्षा पढ़ते गए जिन में प्राचार्यों ने प्रभुपाद के ग्रंथों की प्रशंसा की थी और उनसे प्रार्थना की थी कि वे इस तरह के बहुमूल्य ग्रंथों के प्रणयन में लगे रहें । समीक्षाएं सुनने के बाद प्रभुपाद विश्राम के लिए लेट गए । है ।" रामेश्वर स्वामी ने घोषित किया । ' कलम तलवार से बलवान् प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, यह एक क्रान्ति है । एक “हाँ, यह एक क्रान्ति है। एक के बाद एक पुस्तक रचते समय मैं बराबर यही सोचता रहा। साम्यवादियों ने अपने छूछे साहित्य और झूठे वादों से संसार भर के लोगों का जीवन परिवर्तित कर दिया है। तो परम ज्ञान के आधार पर आरंभ की गई क्रान्ति ऐसा क्यों नहीं कर सकती ?" जनवरी १८, १९७७ कुंभ मेले की घोर ठंडक के बाद प्रभुपाद ने कलकत्ता में कुछ दिन विश्राम किया। उनका जुकाम जाता रहा, किन्तु हाथों और पैरों में सूजन तथा अन्य तकलीफें बनी रहीं । बाहरी तौर पर वे मधुमेह और मन्दाग्नि के मरीज थे। उनकी शारीरिक शक्ति में भी कमी आने लगी थी जो इक्यासी वर्ष के व्यक्ति के लिए एक स्वाभाविक बात थी। उनकी अवस्था लगातार यात्रा, कठिन परिश्रम, आए दिन व्याख्यानों और थकाने वाले प्रबन्ध कार्य के उपयुक्त नहीं रह गई थी । तक इतना होने पर भी प्रभुपाद अपनी प्रत्यक्ष भौतिक स्थिति से परे थे । यद्यपि वे कभी - कभी उपचार के सम्बन्ध में पूछताछ करते थे, किन्तु वे अपने खराब स्वास्थ्य के प्रति अधिकतर उदासीन थे। डाक्टर का परामर्श पाने या स्वयं भी इस निर्णय पर पहुँचने के बाद कि उनके स्वास्थ्य के लिए क्या अच्छा है, क्या अच्छा नहीं है, वे कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए उन सब की प्राय: उपेक्ष कर देते थे। इसके पूर्व, वृंदावन में कुएँ का ताजा पानी पीने से वे कुछ अच्छा अनुभव करने लगे थे, इसलिए उन्होंने सोचा कि भुवनेश्वर के निकट स्थित प्रसिद्ध बिन्दु-सरोवर का जल पीने से उन्हें कुछ राहत मिल सकती है। इसके अतिरिक्त, इस्कान ने हाल में ही नगर के बाहर दान में मिले एक छोटे भूमि खण्ड पर अधिकार प्राप्त किया था और प्रभुपाद के उड़िया शिष्य गौर-गोविन्द स्वामी वहाँ पहुँच गए थे। वे वहाँ पर दो साधारण कुटीर बना चुके थे और एक मंदिर बनाने की योजना बना रहे थे । कलकत्ता से भुवनेश्वर की ट्रेन यात्रा बारह घंटे की थी; यह रामेश्वर स्वामी के लिए अधिक जानकारी प्राप्त करने का अच्छा अवसर था। प्रभुपाद के सचिव के रूप में उनका तीस दिन का कार्य-काल लगभग पूरा हो गया था; उसके -युद्ध बाद उन्हें लास ऐंजिलिस लौट कर अमरीकी बी. बी. टी. का कार्य - भार सँभालना था। वे भारत प्रभुपाद से यह जानने की इच्छा लेकर आए थे कि विश्व - होगा अथवा नहीं और यदि हुआ तो प्रभुपाद की पुस्तकों का वितरण किस तरह चालू रह सकेगा और भविष्य में संसार में कृष्ण चेतन व्यवस्था किस तरह स्थापित हो सकेगी। प्रभुपाद ने उनके अनेक प्रश्नों के उत्तर दे दिए थे, किन्तु कुछ प्रश्न अभी शेष थे। पुरी एक्सप्रेस कलकत्ता से लगभग दस बजे रात में रवाना हुई । मालिश कराने के बाद श्रील प्रभुपाद नीचे के बर्थ पर लेट कर आराम करने लगे । हरिशौरी और रामेश्वर ने उनके सामने के दो बर्थ ले लिए। आधी रात के करीब प्रभुपाद ने बत्ती जला दी, वे उठ बैठे और मंद स्वर में माला फेरते हुए जप करने लगे। कुछ ही क्षणों में रामेश्वर जाग गए और अपने गुरु महाराज को बैठा देख कर उन्होंने प्रणाम किया और स्वयं बैठ गए और उनके आदेश की प्रतीक्षा करने लगे। प्रभुपाद झटपट रूस और अमेरिका के बीच युद्ध की अनिवार्यता के सम्बन्ध में बात करने लगे। अमेरिका कृष्णभावनामृत को स्वीकार कर ले तो भी युद्ध अनिवार्य था — साम्यवाद की अनीश्वरता को रोकने का केवल यही एक उपाय था। जब रामेश्वर ने पूछा कि क्या वह युद्ध उनके जीवन काल में होगा तो प्रभुपाद ने कहा यह बताना कठिन था। उन्होंने कहा कि यह भक्तों के पुस्तकों और बैक टु गाडहेड पत्रिका के वितरण पर निर्भर था । यद्यपि रूस की सरकार सभी प्रकार के साहित्य को नियंत्रित करने का प्रयत्न कर रही थी, किन्तु कृष्ण चेतना पुस्तकें वहाँ प्रवेश पाने लगी थीं और उन्हें झटपट लोकप्रियता भी प्राप्त होने लगी थी । साम्यवादी नेता भयभीत किन्तु भारतीय संस्कृति के प्रति उनके मन में कुछ सम्मान का भाव भी था। प्रभुपाद ने कहा कि पुस्तक वितरण में वृद्धि होने से अमेरिका और उसके बाद सारा विश्व कृष्ण - चेतन हो जायगा । उन्होंने कहा, "इसलिए तुम्हें निरन्तर आगे बढ़ते जाना है। हमारा यह विरोध अर्थात् हमारे ऊपर मस्तिष्क - धुलाई का अभियोग सिद्ध करता है कि वे हमें एक संस्कृति के रूप में मान्यता देने लगे हैं। वे इसे पसन्द करें या नहीं, किन्तु वे इसे एक स्थायी वस्तु के रूप में स्वीकार करने लगे हैं। " प्रभुपाद ने कहा कि उनका कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं था किन्तु वे मानते थे कि भारतीय संस्कृति अमरीकी धन से जुड़ कर संसार की रक्षा कर सकती थी। उन्होंने कहा, “आपको समग्र संसार की दृष्टि से सोचना है। किसी एक राष्ट्र की दृष्टि से नहीं । यही हमारा उपदेश है। यही जी. बी. सी. का कर्त्तव्य है । " वार्ता दो घंटे से भी अधिक देर तक चलती रही। और रामेश्वर को प्रभुपाद के घनिष्ठ आदेशों से पूर्ण संतोष मिला । यद्यपि उन्होंने पहले भी पुस्तक-वितरण और के सम्बन्ध में इन्हीं प्रश्नों को पूछा था, किन्तु उस समय प्रभुपाद ने उत्तर नहीं दिया था। अब उन्होंने अपने कुछ विचारों को प्रकट किया, ठीक वैसे ही जैसे एक पिता अपने विश्वासपात्र पुत्र को अपने विचारों से अवगत कराता है। भुवनेश्वर में इस्कान भूमि खण्ड की दशा आदिम थी : दो छोटी-छोटी मिट्टी की दीवार वाली झोपड़ियाँ थीं जिन पर फूस की छतें पड़ी थीं। श्रील प्रभुपाद इनमें से एक झोपड़ी के एक बारह फुट लम्बे आठ फुट चौड़े कमरे में बस गए और उनके सेवक और सचिव दीवार की दूसरी ओर रहने लगे। भूमि - खण्ड में कुछ दिन पहले बिजली आ गई थी । इसलिए हरिशौरी ने बिजली का एक लैम्प और प्रभुपाद की श्रुत लेखन मशीन उनकी डेस्क पर रख दी थी । दूसरी छोटी इमारत, जो प्रभुपाद की झोपड़ी से लगभग पचीस फुट की दूरी पर थी, एक अस्थायी लघु मंदिर का काम दे रही थी। दोनों झोपड़ियों या इमारतों के बीच का स्थान एक जीर्ण-शीर्ण किरमिच की छत से ढका था । उसी के नीचे प्रभुपाद का व्यास-आसन था जिससे वे बाहर एकत्रित जन समूह को सम्बोधित कर सकें। भूमि खण्ड में दो किराए के तम्बू भी लगा दिए गए थे; ये उन भक्तों के ठहरने के लिए थे जो प्रभुपाद के अधिवास के बीच आ सकते थे। प्रभुपाद की प्रसाधन-सुविधाओं में उनकी झोपड़ी के पीछे लगभग पचीस फुट की दूरी पर निर्मित एक शौचालय था और उनके नहाने के लिए एक अलग स्नान- घर था । श्रील प्रभुपाद को आदिम सुविधाओं से कोई परेशानी नहीं थी; वस्तुतः वे उन्हें पसंद थीं। यद्यपि वे बीमार थे और व्यक्तिगत आराम के लिए वे चाहते तो पश्चिम के चुने हुए सुविधासम्पन्न भवनों में रह सकते थे— लंदन की किसी जागीरदारी में, पेरिस के किसी महल में, अथवा न्यू यार्क शहर के किसी सायबान के अपार्टमेंट में― किन्तु उन्हें उड़ीसा के धूल-गर्द भरे एक एकान्त भूमि- खण्ड में मिट्टी और घास फूस से बनी झोपड़ी का आदिम जीवन अच्छा लग रहा था और उससे वे बहुत प्रसन्न थे । बाहर के व्यास - आसन पर बैठे हुए प्रभुपाद ने भक्तों और स्थानीय लोगों के एक छोटे-से जन-समूह को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि चैतन्य महाप्रभु के दो प्रिय स्थान थे – बंगाल और उड़ीसा । और उड़ीसा ( जगन्नाथ पुरी) में उन्होंने अपने जीवन के अंतिम अट्ठारह वर्ष बिताए। वे वृंदावन और दक्षिण भारत गए थे, किन्तु उसके बाद वे अपने निजी पार्षदों, श्री रामानंद राय, सार्वभौम भट्टाचार्य और शिखी माहिति के साथ रहने के लिए यहाँ वापस आ गए थे। प्रभुपाद ने एक शास्त्रीय संदर्भ का उल्लेख किया जिसके अनुसार इस युग में आध्यात्मिक आंदोलन उत्कल अर्थात् उड़ीसा से आरंभ होगा । श्रील प्रभुपाद ने कहा कि गौड़ीय वैष्णवों के लिए उड़ीसा का विशेष महत्त्व है और उनके गुरु महाराज का भी जन्म पुरी में हुआ था । " अब हमारे पास यहाँ एक छोटा-सा स्थान हो गया है, इसकी कोई चिन्ता नहीं कि इसमें समय लगेगा, किन्तु धीरे - धीरे ही सही, यह निश्चय ही विकास करेगा। विशेषकर इसलिए भी कि भुवनेश्वर उड़ीसा की राजधानी होने जा रहा है। भविष्य में अनेक पर्यटक उड़ीसा की अन्य दर्शनीय वस्तुएँ देखने आएँगे। यह उड़िया लोगों पर निर्भर करता है कि वे इस केन्द्र का विकास करें। " प्रभुपाद ने गौर - गोविन्द स्वामी से बात की और उनसे विज्ञापन देने को कहा कि तीसरे पहर निजी बैठकें होंगी और रात में व्याख्यान - कीर्तन - प्रसाद का कार्यक्रम होगा । उस दिन संध्या - समय बहुत कम लोग आए । इस्कान की ओर से उड़ीसा में प्रचार-कार्य बहुत अल्प हुआ था और प्रभुपाद के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी । निःशुल्क प्रसाद के लिए अधिकतर स्थानीय किसान, ग्राम - वासी और गरीब लड़के इकट्ठे हुए। प्रभुपाद ने श्रोताओं से कहा कि वे तीन भाषाओं— अंग्रेजी, बंगाली और हिन्दी —— में बोल सकते थे। किन्तु उड़िया में नहीं, इसलिए उन्होंने अंग्रेजी में बोलने का निर्णय किया और गौर - गोविन्द से उनका अनुवाद कराया। वे कुछ वाक्य बोल कर चुप हो जाते थे और तब गौर - गोविन्द उड़िया में अनुवाद सुनाते थे। प्रभुपाद ने अपने सान्ध्यकालीन व्याख्यान में कहा, 'इस भौतिक संसार में परम ईश्वर की सर्वोच्चता के विरोध का प्रयत्न सदैव से होता आया है। वर्तमान समय में तथा कथित वैज्ञानिकों का एकमात्र धंधा ईश्वर की सर्वोच्चता का विरोध करना है। स्वाभाविक है कि हमारे इस आंदोलन को अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि वर्तमान समय में समग्र संसार व्यवहारत: ईश्वर-विहीन है। हमारे देश भारत में भी जहाँ परम ईश्वर कृष्ण ने भगवद्गीता का कथन किया था, इसी तरह का प्रयत्न चल रहा है। बड़े-बड़े विद्वान, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ भगवद्गीता को अपने हाथों में लेते हैं, यह दिखाने के लिए कि वे भगवद्गीता को समझने वाले महान् अधिकारी पुरुष हैं । किन्तु उनकी व्याख्याएँ ऐसी हैं जिनसे कृष्ण की अवज्ञा ही होती है।” प्रभुपाद लगभग दस मिनट बोले। किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया । भुवनेश्वर के गर्म दिन और ठंडी रातें प्रभुपाद के अनुकूल थीं। कुछ घंटे विश्राम करने के बाद वे उठे और श्रीमद्भागवत का अनुवाद करने लगे । बम्बई से कुंभ मेले के लिए प्रस्थान करने के बाद अनुवाद का यह पहला अवसर था। वे नवें स्कंध के अंत में पहुँच रहे थे। गौर - गोविन्द महाराज ने भगवान् नित्यानंद के आविर्भाव दिवस पर, २ फरवरी को, एक मंदिर के शिलान्यास का कार्यक्रम निश्चित किया था। प्रभुपाद उस दिन तक रहने के लिए राजी हो गए। उसके दूसरे दिन उन्हें प्रस्थान करना था । गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण प्रभुपाद को तली हुई वस्तुएँ खाना मना थीं । भुवनेश्वर में उनका भोजन बनाने वाली विशेषज्ञा, पालिका - देवी दासी और श्रुतिरूपा - देवी दासी कुशलतापूर्वक ऐसा भोजन तैयार करती थीं जो पौष्टिक था, किन्तु उस में घी नहीं होता था । किन्तु कभी कभी प्रभुपाद उनसे विशेष रूप से तली वस्तुओं का अनुरोध करते थे और बाद में शिकायत करते थे कि वे उनके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होती थीं। रामेश्वर स्वामी, गर्गमुनि स्वामी और भवानंद गोस्वामी, श्रील प्रभुपाद के साथ, उनकी कुटीर में बैठे हुए उनके कार्यक्रम के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर रहे थे। वे कह रहे थे कि इस्कान के शत्रु इतने मतान्ध थे कि प्रभुपाद का अमेरिका जाना खतरनाक होगा। श्रील प्रभुपाद बीच में बोल पड़े और उन्होंने विषय परिवर्तन कर दिया। उन्होंने कहा, "हमारी तात्कालिक समस्या मेरा स्वास्थ्य है । मुझे खाना पच नहीं रहा है। इसलिए मेरे हाथों और पैरों में कुछ सूजन है ।" रामेश्वर स्वामी ने पूछा, रहा है ?” 'क्या इससे आपके अनुवाद - कार्य पर असर पड़ प्रभुपाद ने कहा, “उस पर असर नहीं पड़ा है। वह चल रहा है। मैंने सत्रह खण्डों का अनुवाद कर दिया है। अनुवाद प्रभावित नहीं होगा।” उन्होंने हाथ बढ़ा कर श्रुत - लेखन यंत्र चालू कर दिया और कुछ सेकंड तक वे सब नवें स्कंध के चौबीसवें अध्याय से हाल में किए गए अनुवाद सुनते रहे । रामेश्वर स्वामी ने कहा, "हम जानते हैं कि डाक्टरों के सम्बन्ध में आप के विचार अच्छे नहीं हैं।" प्रभुपाद ने कहा, "मैं बिना किसी डाक्टर के मरना चाहता हूँ। मैं सख्त बीमार भी पड़ जाऊँ तो आप किसी डाक्टर को मत बुलाना । हरे कृष्ण गाइएगा । घबड़ाइएगा नहीं । मरना हर एक को है । हम बिना किसी डाक्टर के, शान्तिपूर्वक मरें। ये सारी ओषधियाँ, इंजेक्शन, परहेज — सब बेकार हैं। हरे कृष्ण का गान करें और कृष्ण पर निर्भर रहें। नारतस्य चागदम् उडंवति ... यह महाराज प्रह्लाद का श्लोक है। इसे सातवें स्कंध में से निकालो। हरिशौरी ने प्रभुपाद की पुस्तकों के खाने से श्रीमद्भागवत उठाया और उसमें से सातवे स्कंध का खण्ड दो निकाला। कुछ ही क्षणों में उन्होंने श्लोक ढूँढ निकाला और जोर से पढ़ा : " मेरे प्रभो नृसिंहदेव, ओ परमात्मा, जीवन की देहात्म बुद्धि के वशीभूत, बंधन में पड़ी आत्माएँ, तुम्हारे द्वारा उपेक्षित होकर अपने उन्नयन के लिए कुछ भी नहीं कर सकतीं। वे जिस भी उपचार का अवलम्बन करें, वह कदाचित् कुछ काल के लिए लाभकारी हो सकता है, पर अंत में निश्चय ही अस्थायी सिद्ध होगा । दृष्टान्त के लिए कोई, माँ-बाप अपने बच्चे की रक्षा नहीं कर सकते, कोई डाक्टर और औषध किसी मरीज को राहत नहीं दे सकते, और सागर में कोई नाव किसी डूबते व्यक्ति को नहीं बचा सकती।" प्रभुपाद ने कहा, "ये सब तथ्य हैं । ' गर्गमुनि स्वामी बोले, " अंततः यही होता है। किन्तु हो सकता है कि हम आपको अस्थायी तौर पर कुछ आराम पहुँचा सकें। क्योंकि जब आप बीमार हैं तो हमें लगता है...।" प्रभुपाद ने माना, “हाँ, लेकिन कोई गहन उपचार स्वीकार नहीं किया जायगा । बेहतर है कि उसे न लिया जाए; इससे अच्छा है कि हरे कृष्ण का जप करो। " भवानंद ने कहा, “श्रील प्रभुपाद इसके पूर्व जब आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था तो संसार भर में मंदिरों में लोग हरे कृष्ण जपने लगे थे— और एक अतिरिक्त कीर्तन आयोजित किया गया था। शायद हम लोग वही फिर कर सकते हैं। " प्रभुपाद ने कहा, “नहीं, मेरे स्वास्थ्य के लिए नहीं । आप सामान्य रूप से कीर्तन अवश्य करें । सेकंड एवन्यू में वह पहला दौरा, वह लगभग जानलेवा था। आप वहाँ उपस्थित थे, मेरा ख्याल है ?" प्रभुपाद गर्गमुनि की ओर मुड़े और वे १९६७ ई. के दिल के दौरे के बारे में याद करने लगे । हरिशौरी ने कहा कि एक होमियोपैथी के डाक्टर ने एक विशेष दवा बताई और प्रभुपाद उसका प्रयोग करने को राजी हो गए। गर्गमुनि ने बताया कि उनके पिता को भी इसी तरह सूजन होती थी, किन्तु वह शायद मधुमेह के कारण थी। प्रभुपाद ने कहा, "मुझे मधुमेह है" । गर्गमुनि ने कहा कि उनके पिता प्रतिदिन इन्सुलिन का इंजेक्शन लिया करते थे। प्रभुपाद ने कहा, “बहुत से लोग हैं जो दिन में एक बार इन्सुलिन का इंजेक्शन लेते हैं,” यद्यपि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था । प्रभुपाद का स्वास्थ्य सम्बन्धी मुख्य कार्यक्रम नियमित भोजन था, किन्तु उसका भी वे कड़ाई से पालन नहीं करते थे । शान्तिलाल नाम का एक भारतीय रसोइया भुवनेश्वर में उपलब्ध था, किन्तु गर्गमुनि और उनके साथियों का भोजन बनाने में वह बहुत अधिक मसाले और घी का इस्तेमाल करता था । कभी-कभी प्रभुपाद जो कुछ शान्तिलाल बनाता था उसमें से थोड़ा माँग लेते थे और इससे प्रभुपाद के सेवकों और रसोइयों की चिन्ता बढ़ जाती थी, यद्यपि वे इस विषय में कुछ कर नहीं सकते थे। हाल में गर्गमुनि भी बीमार पड़े थे और जब प्रभुपाद ने उन्हें पहली बार अपने रसोइए शान्तिलाल के साथ देखा तो उन्होंने कहा था, "मैं समझता था कि आप बीमार हैं।' गर्गमुनि ने उत्तर दिया था, “हाँ, किन्तु तब भी मुझे खाना पड़ता है। श्रील प्रभुपाद, आप बहुत सादा खाना खाते हैं। आप मसालेदार खाना नहीं खाते ?" प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “कभी कभी मुझे भी मसाले लेने पड़ते हैं। अन्यथा, कोई स्वाद नहीं रह जाता। और बिना स्वाद के जीवन का क्या अर्थ है ?" और तब विनोद के लहजे में प्रभुपाद और गर्गमुनि स्वामी ने एक दूसरे के प्रति समवेदना प्रकट करते हुए कहा कि वे स्वादिष्ट प्रसाद का खाना बंद नहीं करेंगे । गर्गमुनि स्वामी बोले, " चाहे हम मर जायँ ।" और यह कह कर वे हँसने लगे, प्रभुपाद भी हँस पड़े । श्रील प्रभुपाद के सचिव के रूप में यह रामेश्वर स्वामी का भारत में अंतिम दिवस था। प्रभुपाद की कुटीर में प्रविष्ट होकर उन्होंने भावी महायुद्ध के सम्बन्ध में जिज्ञासा की । उन्होंने आरंभ किया, “आपने कई बार उल्लेख किया है कि रूस और अमेरिका के बीच संघर्ष अनिवार्य है । " प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, यदि वे दोनों कृष्णभावनामृत को समझ लें तो संघर्ष नहीं होगा। अब हम रूसी भाषा में भी प्रकाशन कर रहे हैं । " जब रामेश्वर ने पूछा कि यदि अनेक नगरों पर बम - वर्षा हुई तो उस दशा में क्या होगा, इस पर प्रभुपाद ने कहा उस दशा में लोगों को बुद्धि आ जायगी और वे सादा, कृषिप्रधान जीवन अपना लेंगे, ठीक उसी तरह जैसे इस्कान के कृषि फार्मों पर लोग सामुदायिक जीवन का उदाहरण रख रहे हैं। प्रभुपाद ने कहा, "यह उनके लिए एक अच्छा सबक होगा । " " तो क्या यह संघर्ष कृष्णभावनामृत के प्रसार का एक हिस्सा है ?" "ओ, हाँ, परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् ; कृष्ण का उद्देश्य केवल अपने भक्तों की रक्षा करना ही नहीं है, वरन् दुराचारियों का विनाश करना भी है। संघर्ष का तात्पर्य है उनके दुष्कर्मों का विनाश — उनका समापन । " 'अतएव संघर्ष के पश्चात् लोगों को प्रभावित करने का अवसर आएगा ?" प्रभुपाद बोले, "हम प्रत्येक अवसर का उपयोग करेंगे। हम सबसे अच्छे अवसरवादी हैं। अनुकूल्येन कृष्ण । यह अवसर कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए अनुकूल है; हम उसे तुरन्त स्वीकार करेंगे। इससे अंतर नहीं पड़ता कि वह किस तरह आता है। हम जन-मत पर निर्भर नहीं करेंगे कि यह अच्छा है अथवा बुरा है। अच्छा का तात्पर्य यह है कि वह कृष्णभावनामृत के प्रसार के अनुकूल है। रामेश्वर ने कहा कि ऐसा लगता है कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन को और अधिक फैलना होगा, पहले इसके कि वह वास्तव में उतना प्रभावशाली बन सके जितना प्रभुपाद चाहते हैं । प्रभुपाद ने कहा, “यह बढ़ेगा, यह बढ़ रहा है। केवल हमारे कार्यकर्ताओं को एकनिष्ठ और कठोर बनना है और वह बढ़ेगा। किसी को इस पर आपत्ति नहीं होगी। यह सत्य है । केवल हमें बहुत कठोर और एकनिष्ठ होना है। और कोई भी इसका बढ़ना रोक नहीं सकेगा । " रामेश्वर ने कहा, “ केवल हम ही ऐसे होंगे जिन्हें वह दृष्टि प्राप्त है कि के बाद क्या करना है । " ने कहा, “हाँ, हमारी दृष्टि प्रभुपाद “हाँ, हमारी दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट है। हम कोई सिद्धान्त नहीं रख रहे हैं। हम सदैव केवल तथ्य प्रस्तुत करते हैं। और वह तथ्य साकार हो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे हमने कृषि फार्म का सामुदायिक जीवन आरम्भ किया। वह क्रमश: साकार रूप ग्रहण करता जा रहा है। अभी तक वह पूर्ण रूप से व्यवस्थित नहीं है । तब भी आशा है कि वह लोगों को शान्ति देगा । पर्याप्त आशा है।" कुछ दिनों के बाद प्रभुपाद से मिलने भुवनेश्वर के और अधिक लोग आने लगे। एक दिन सांयकाल अपने कमरे में बैठे हुए वे कई लोगों से बातचीत कर रहे थे कि उनमें से एक ने पूछा, “अच्छा स्वामीजी, बताइए कि वास्तव में ईश्वर क्या है ?" श्रील प्रभुपाद के नेत्र अविश्वासपूर्वक विस्फारित हो गए, "यह क्या है ?" उन्होंने कहा, 'आप भारत में रहते हैं और आप नहीं जानते कि ईश्वर क्या है ? यह कलियुग का पतन है ।" श्रील प्रभुपाद ने अपनी तीक्ष्ण आलोचना जारी रखी और तब बोले कि भारतीयों को वैदिक साहित्य और संस्कृति का विशेष लाभ प्राप्त है। इसलिए उन्हें जानना चाहिए कि ईश्वर क्या है । प्रभुपाद ने अगले दिन संध्या समय अपना पहला सार्वजनिक व्याख्यान दिया और उसमें लगभग १५० लोग सम्मिलित हुए । उन्होंने अपना व्याख्यान यह कह कर आरंभ किया, “पिछली रात एक महानुभाव ने प्रश्न किया था कि 'ईश्वर क्या है ? " श्रील श्रील प्रभुपाद ने समझाया कि श्री भगवान् "हमारे देश" भारतवर्ष, में साकार रूप में प्रकट होते हैं और अपने आदेश छोड़ जाते हैं जिन्हें आचार्यों ने स्वीकार किया है। प्रभुपाद ने बताया कि भारत को विशेष अनुग्रह प्राप्त है, क्योंकि भगवान् यहाँ अवतार धारण करते हैं और स्वयं अपने आदेश सुनाते हैं। उन्होंने आगे कहा, “किन्तु वर्तमान समय में हमारे युवाजन पूछ रहे हैं, 'ईश्वर क्या है?' तो ऐसा क्यों हो रहा है ? यह इसलिए हो रहा है कि हम पशु सभ्यता की ओर बढ़ रहें हैं। "के प्रभुपाद ने कहा कि देहात्म बुद्धि वाला कोई भी व्यक्ति जो अपनी पहचान परिवार, देश या जाति से सम्बन्ध जोड़ कर करता है— एक गाय या गधे से बेहतर नहीं है। वैदिक शास्त्र की यही सम्मति है। उन्होंने बार-बार चेतावनी दी कि भारतीयों को पतन की उस सीमा से बचना चाहिए जहाँ उन्हें पूछना पड़े कि ईश्वर क्या है। दुर्भाग्य से जब व्याख्यान समाप्त करने के बाद उन्होंने प्रश्न आमंत्रित किए तो फिर वही बात सामने आई । एक व्यक्ति ने पूछा, “मैं कृष्ण शब्द का अर्थ जानना चाहता हूँ ।" प्रभुपाद ने प्रत्युत्तरपूर्वक कहा, “आप नहीं जानते कि कृष्ण का क्या अर्थ है ? आप नहीं जानते ?" उस व्यक्ति ने उड़िया में कुछ कहा और तब अंग्रेजी में बोला, “व्युत्पत्तिमूलक अर्थ । " प्रभुपाद ने कहा, “कृष्ण का अर्थ है सर्व आकर्षक । कृष - कर्षति । हाँ, कृष्ण का अर्थ है आकर्षक, सर्व आकर्षक। और इसके अतिरिक्त आप कृष्ण को नहीं जानते ? यही कठिनाई है कि हमारे लोग इतने गिर गए हैं कि वे पूछते हैं कि ईश्वर क्या है, कृष्ण क्या हैं। यह वैसा ही है जैसे कोई रामायण का सातवाँ स्कंध पढ़ने के बाद पूछे कि 'सीता किसका पिता है?' यह स्थिति वैसी ही है। हम उस देश में पैदा हुए हैं जहाँ कृष्ण ने सब कुछ कह दिया है और अब हम पूछ रहे हैं, 'कृष्ण का क्या अर्थ है ? ईश्वर क्या है?' तो यही दशा है, अत्यन्त गिरी हुई दशा । ' जब प्रभुपाद कार में बैठे पार्क में प्रातः भ्रमण के लिए जा रहे थे तो उन्होंने देखा कि संजय गांधी के आगमन की घोषणा करने वाले सूचना पट्ट लगे थे और पताकाएँ फहरा रही थीं। संजय गांधी का विशेष राजनीतिक कार्यक्रम यह था कि हर एक को साक्षर होना चाहिए । खिड़की से बाहर के विपन्न, ऊसर भूखण्ड को देख कर प्रभुपाद ने कहा, "साक्षरता का लाभ क्या है जब लोग कंगाल हैं और भूख से मर रहे हैं ?” उन्होंने कहा कि स्थानीय लोग इस्कान के सांध्यकालीन कार्यक्रम में थोड़ी-सी खिचड़ी प्राप्त करने आते थे— इसलिए नहीं कि वह प्रसाद है, वरन् इसलिए कि वे भूखे हैं। इसलिए यदि वर्षों की शिक्षा के बाद वे पढ़ना सीख जाते हैं और उनकी कमाई अत्यल्प है और रोजगार की स्थिति वही रही तो शिक्षा से क्या लाभ? जीवन ऐसी शिक्षा के लिए नहीं है। प्रभुपाद को खेद था कि इतनी सारी भूमि बिना जोते- बोए बेकार पड़ी थी । कई लोगों को मंथर गति से दौड़ते देख कर प्रभुपाद ने टिप्पणी की कि हैं । अधिकांश लोग गरीब और भूखे हैं, जबकि थोड़े से लोग विशाल भवनों में रहते हैं, जरूरत से अधिक खाते हैं और चर्बी कम करने के लिए दौड़ लगाते श्रील प्रभुपाद ने कहा, “ तो वे लोगों को शिक्षित बनाएँगे और कुछ समय बाद ये लोग नक्सलाइट आन्दोलन में सम्मिलित हो जायँगे और अमीरों की हत्या करेंगे। नहीं, प्रत्येक व्यक्ति को खेतों पर काम में लगाना चाहिए ।" प्रभुपाद ने कहा इस्कान के लोगों को भी काम करना चाहिए, क्योंकि यदि वे समुचित रूप में कार्य में व्यस्त नहीं रहेंगे तो गप्पे हाँकेंगे और कामातुर बनेंगे। भुवनेश्वर पहुँचने के बाद श्रील प्रभुपाद जगन्नाथ पुरी जाने के लिए कई बार अपनी इच्छा व्यक्त कर चुके थे, जो वहाँ से एक घंटे की दूरी पर था। क्योंकि उन्हें आशा थी कि एक दिन वे पुरी में एक विशाल केन्द्र का निर्माण करेंगे, इसलिए वे कुछ बिकाऊ प्लॉट देखना चाहते थे। उन्होंने कहा कि वे १९५८ ई. से पुरी नहीं गए थे। क्योंकि उनके पाश्चात्य शिष्यों को जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी इसलिए प्रभुपाद कहते थे कि वे भी मंदिर में नहीं जायँगे। किन्तु वे पुरी यह देखने के लिए जाना चाहते थे कि उन्हें कैसा भूखण्ड वहाँ प्राप्त हो सकता है। एक दिन बड़े तड़के प्रभुपाद कार द्वारा बंगाल की खाड़ी - तट स्थित पुरी के लिए चल पड़े। उन्होंने कई जायदादें देखीं, किन्तु या तो उनकी स्थिति खराब जगह पर थी या इमारतें जीर्ण-शीर्ण थीं या दोनों ही बातें थीं। अपने लोगों के साथ प्रभुपाद सागर तट पर विचरते रहे; लहरें उछल रही थीं। वे हँसने लगे और बोले – “मैंने यहाँ खूब उछल-कूद की है। १९२० ई. या १९२१ ई. में मैं यहाँ आया था। उस समय मेरा विवाह हो चुका था । मेरा विवाह १९१८ ई. में हुआ था। बी. ए. की परीक्षा में सम्मिलित होने के बाद मैं यहाँ आया था। क्योंकि मैं प्रसन्नता से भरा था, इसलिए मैं उछल-कूद कर रहा था। जब लहरें पास आतीं तो मैं उछल पड़ता था । अब सत्तावन वर्ष बीत चुके हैं। लोग कहते हैं कि हमारा शरीर नहीं बदलता, लेकिन कहाँ है वह शरीर ? अब मैं छड़ी के सहारे चल रहा हूँ। उस समय मैं उछल रहा था । मैं अब भी यहाँ हूँ, मुझे याद है। किन्तु शरीर बदल गया है। इसे समझने में कठिनाई क्या है? मैं वही हूँ। अन्यथा, मैं उन बातों को स्मरण कैसे कर रहा हूँ ? किन्तु वह शरीर अब नहीं रह गया है। तथा देहान्तर - प्राप्तिः । ये धूर्त इस सीधे-सादे दर्शन को क्यों नहीं समझ सकते ?" श्रील प्रभुपाद ने एक दिन सागर तट स्थित पर्यटक- गृह में बिताया और उनके एक गुरुभाई, श्यामसुंदर ब्रह्मचारी, जो स्थानीय गौड़ीय मठ के थे, उनसे मिलने आए। जब वे चले गए तो जगन्नाथ मंदिर की पुजारी समिति के एक सदस्य, श्री सेवाशिव रथ, भी प्रभुपाद से मिलने आए। प्रभुपाद ने उनसे इस्कान भक्तों के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश पा सकने की संभावना के सम्बन्ध में बात की । पाश्चात्य वैष्णवों को मंदिर - प्रवेश से वंचित करना दुराग्रहपूर्ण और मूर्खतापूर्ण था। क्योंकि इस्कान के सदस्य आध्यात्मिक जीवन में पूर्ण रूप से लीन थे, इसलिए केवल उनके जन्म या जाति के कारण, उन्हें मंदिर - प्रवेश के अयोग्य नहीं समझना चाहिए। सेवाशिव का रुख मैत्रीपूर्ण था और श्रील प्रभुपाद से सहमत थे; उन्होंने वायदा किया कि भक्तों की सहायता के लिए वे जो कुछ कर सकते हैं, करेंगे। उन्होंने प्रभुपाद को अपनी एक पुस्तक के बारे में भी बताया जिसे उन्होंने हाल में ही प्रकाशित कराया था और उन्होंने प्रभुपाद को अगले दिन संध्यासमय एक छोटी-सी पंडाल बैठक में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया जिसमें पुस्तक का विमोचन होना था । प्रभुपाद राजी हो गए। बाद में, प्रभुपाद पर्यटन - गृह में अपने कमरे के बाहर बरामदे में बैठे थे । प्रभुपाद देख रहे थे कि शान्तिलाल गर्गमुनि की गाड़ी के पिछले हिस्से में दोपहर का भोजन बना रहा था और घी में तले जाते हुए मसालों की गंध उठ रही थी। उन्होंने गर्गमुनि स्वामी को बुलाया और कहा कि जब शान्तिलाल भोजन तैयार कर ले तो उसमें से एक प्लेट भोजन उनके लिए लाया जाय। फिर तो शीघ्र ही प्रभुपाद चावल, दाल, पूरियों, मसालेदार सब्जियों और चटनी के भोजन का आनन्द लेने लगे। उन्होंने कहा कि शान्तिलाल बहुत अच्छा भोजन बनाता है और सभी इस्कान मंदिरों के भक्तों को उसकी कला सीख लेनी चाहिए । यदि मांस भक्षी ऐसा प्रसाद खा लें तो, उन्होंने कहा कि, वे अपनी पापपूर्ण आदत छोड़ देंगे । जब उस संध्या में प्रभुपाद अपने होटल के कमरे में कुछ शिष्यों के साथ बैठे थे तो वे स्मरण कर रहे थे कि किस प्रकार १९६५ ई. में वे अमेरिका गए थे और समुद्री - यात्रा में उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा था। प्रभुपाद ने कहा, "लोग कहते हैं कि तीसरी बार दिल का दौरा पड़ने से मनुष्य की मृत्यु अवश्यमेव हो जाती है। मुझे दो बार दौरा जहाज पर पड़ चुका था और तीसरी बार न्यू यार्क में । मेरी बाईं ओर लकवा मार गया था । मैं नहीं जानता कि मैं किस तरह बच गया। और एक लड़की, उस जहाज के कप्तान की पत्नी, ज्योतिष जानती थी । उसने कहा था, “स्वामीजी, यदि आप अपना सत्तरवाँ वर्ष पार कर लेंगे तो आप सौ वर्ष तक जीवित रहेंगे।" श्रील प्रभुपाद और उनके शिष्य हँसने लगे । प्रभुपाद ने आगे कहना जारी रखा, “तो, किसी तरह मैंने अपना सत्तरवाँ वर्ष पार कर लिया है। मैं नहीं जानता कि...। लोग कहते हैं कि मैं सौ वर्ष तक जीवित रहूँगा । किन्तु सत्तरवाँ वर्ष बड़ा कठिन था। तीन बार दिल का दौरा पड़ा और लकवा हुआ । और मैं बिना परिवार का था । उस समय तुम में से कोई मेरे साथ नहीं था । मैं अकेला था। मैं किसी पर निर्भर नहीं था । किन्तु जहाज पर मैंने देखा कि कृष्ण मेरी रक्षा करने जा रहे हैं। मैं उनके कार्य के लिए जा रहा था । ' भक्त बार-बार मस्तिष्क की धुलाई और कार्यक्रम के बिगाड़े जाने की चर्चा कर रहे थे। उस दिन संध्या समय एक भक्त ने बताया कि कभी-कभी विरोधी पक्ष प्रभुपाद के एक पूर्व शिष्य का साक्ष्य ले रहा था जो इस्कान आन्दोलन के विरुद्ध बोलने को तैयार था । प्रभुपाद ने कहा, “क्योंकि वह धूर्त है, इसलिए हमने उसे निकाल दिया है । मेरे गुरु महाराज ने उसे बहिष्कृत कर दिया था। इसलिए उसके साक्ष्य का मूल्य क्या है ? यह स्वाभाविक है कि जो हमें छोड़ जाता है वह हमारे विरुद्ध बोले । धर्मोपदेश में ऐसी बातें होती रहती हैं। हम निर्विघ्न मार्ग की आशा नहीं कर सकते।” भक्तगण सहमत हुए और उनमें से एक ने कहा कि जीसस क्राइस्ट के एक शिष्य ने उनके साथ विश्वासघात किया था । श्रील प्रभुपाद ने वर्तमान कठिनाई की तुलना उन कठिनाइयों से की जिनका सामना उन्हें पहली बार अमेरिका आने पर करना पड़ा था। उन्हें १९६७ ई. की अपनी लगभग जानलेवा बीमारी याद आई, फिर भारत वापसी याद आई जहाँ उन्होंने पुन: स्वास्थ्य लाभ किया। उन्होंने बताया कि अमेरिका लौटने पर भी वे रात में अच्छी तरह सो नहीं पाए थे, क्योंकि उनके कानों में कोई आवाज जैसी सुनाई देती थी । प्रभुपाद ने कहा, " जब तक यह शरीर है तब तक कोई न कोई कष्ट रहेगा । कृष्ण का उपदेश है कि कष्ट आते जाते रहते हैं। उनकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। आगमापायिनो' नित्यास्ताम्स्तीतिक्षव भारत । अतएव दैहिक कष्ट, मानसिक कष्ट और शत्रु — इस तरह की अनेक बाधाएँ आती रहेंगी। इनके विषय में क्या किया जा सकता है ? उन्हें सहन करना पड़ेगा। यह भौतिक संसार है। हम सब कुछ निर्विघ्न, बहुत आनन्ददायक की आशा नहीं कर सकते। यह संभव नहीं है। कृष्ण ने अर्जुन को भी यही उपदेश दिया था, हम जैसों का तो कहना ही क्या ? कृष्ण कभी नहीं कहते, " मैने एक माया रच दी है। तुम्हें कोई दुख नहीं भोगना पड़ेगा।" उन्होंने अर्जुन को कोई टिकिया नहीं दी थी । इसलिए हम लोगों को उसी तरह आचरण करना होगा। आधुनिक गुरु कहते हैं, 'मैं तुम्हें जादू का कोई भस्म दूँगा । फिर कोई कष्ट नहीं रह जायगा ।' किन्तु कृष्ण, उन्होंने क्या कहा ? उन्होंने कहा, 'नहीं, सहन करो।' उन्होंने यह नहीं कहा, ' तुम गधे हो। मैं तुम्हें कुछ भस्म दूँगा । - अर्जुन ने पूछा भी नहीं, “आप मुझे युद्ध करने को क्यों कहते हैं ? कोई भस्म दीजिए। मैं उसे फेंक कर उन्हें मारूँगा । " वे इतने बड़े मूर्ख नहीं थे कि अपने शत्रुओं को मारने के लिए कृष्ण से कोई जादू माँगते । वस्तुतः उन्होंने युद्ध किया । यही भगवद्गीता है। इसलिए जैसी स्थिति है उसका सामना करो और कृष्ण पर निर्भर रहो । यही हमारा धर्म है। किसी भस्म, चमत्कार या इन्द्रजाल की आशा मत करो। " दूसरे दिन सवेरे श्रील प्रभुपाद ड्योढ़ी में खड़े होकर भक्तों को बंगाल की खाड़ी में तैरते देख रहे थे। उन्होंने हरिशौरी को बुलाया और कहा कि मैं समुद्र में नहाना चाहता हूँ, तुम्हारा क्या विचार है ? हरिशौरी और वहाँ उपस्थित अन्य भक्तों ने सोचा कि यह विचार अच्छा था। उन्होंने कहा कि समुद्र का जल स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है । प्रभुपाद ने कहा कि वे इसकी परीक्षा करेंगे और दूसरे दिन सवेरे की मालिश के बाद एक गमछा पहन कर और एक तौलिया लेकर वे सागर तट पर गए । सागर तट उनके होटल से कोई सौ गज दूर था और जब तक प्रभुपाद पानी में पहुँचे उनके सभी शिष्य गमछे पहन कर उनके पीछे दौड़ लिए। कुछ भक्त पहले से ही समुद्र में थे और जब प्रभुपाद पानी के छोर पर पहुँचे तो वे सभी उनकी चारों ओर इकट्ठे हो गए। जब लहरें बढ़ती हुई आतीं और प्रभुपाद के पैरों को अपने भंवरों में घेर लेतीं तो हरिशौरी हथेलियों में जल लेकर प्रभुपाद के शरीर को नहलाने लगता — उनकी बाहों, छाती और सिर से सरसों का तेल छुड़ाने लगता जो मालिश के समय इन अंगों में उसने लगाया था। इसके तुरन्त बाद सभी भक्त प्रभुपाद के शरीर पर श्रद्धापूर्वक हथेलियों से जल उछालने लगे। प्रभुपाद करीब करीब घुटनों तक जल में खड़े थे, उनका स्वर्णिम शरीर सूर्य के प्रकाश में चमक रहा था और भक्तों के इस प्रकार उनके स्नान में सम्मिलित होने के कारण वे हँस रहे थे । भक्तों को लगा कि यह जल क्रीड़ा एक अभिषेक की तरह है और जब -गाने गुरुकृपा स्वामी अर्चा-विग्रह के अभिषेक का गीत — चिन्तामणि- प्रकर - समसु- लगे तो अन्य भक्त भी उसमें सम्मिलित हो गए । वे समुद्र द्वारा इस अभिषेक में भाग लेने लगे और गाने लगे। श्रील प्रभुपाद को उसमें आनन्द आ रहा था । कभी-कभी वे अपना सिर आगे बढ़ा देते थे, यह संकेत देने के लिए कि वे चाहते थे कि उनके सिर पर और अधिक जल डाला जाय। जब भक्त जल डालने लगते तो वे अपने नेत्र बंद कर लेते थे। जब एक बार क्षण-भर के लिए प्रभुपाद अपना संतुलन खो बैठे तो हरिशौरी ने उन्हें पकड़ लिया। प्रभुपाद के पैर रेत में धँसते जा रहे थे और जब उन्होंने एक पैर बाहर निकाला तो उसमें कीचड़ लगी थी । जब वे अपनी पांव की उंगलियां छटपटा रहे थे तो एक भक्त उन्हें साफ करने के लिए उन पर जल डालने लगा । तब प्रभुपाद झुके और समुद्र का जल अपने मुँह में लेकर उसे बाहर थूक दिया। केवल गुरुकृपा स्वामी इतने तेज निकले कि उन्होंने झट कुछ जल उठा लिया और उसे पी डाला । । से जब प्रभुपाद ने भक्तों को स्नान और उनकी मालिश में भाग लेने की अनुमति दी तो वे भावातिरेक में बह गए। दस मिनट के बाद प्रभुपाद जल से बाहर निकले और उन्होंने अपने वस्त्र बदले और वापस अपने होटल पहुँचे। वहाँ दो भक्त उन्हें एक आराम कुर्सी तक ले गए, उन्होंने उन्हें उस पर बैठाया और फिर उनके कमरे में पहुँचाया । तदनन्तर प्रभुपाद अपराह्न का विश्राम करने लगे । दोपहर बाद, सेवाशिव रथ, एक अन्य पुरी के ब्राह्मण के साथ प्रभुपाद भेंट करने के लिए पुनः आए। उन्होंने प्रभुपाद को कुछ जगन्नाथ का प्रसाद दिया और जगन्नाथाष्टकम् गाकर सुनाया । मौन प्रशंसा के साथ प्रभुपाद ब्राह्मणों से प्रसिद्ध स्तुति सुनते रहे जिसके प्रत्येक श्लोक का अंत जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे । मे । के साथ होता था । ( हे ब्रह्माण्ड के स्वामी ! मुझे अपना दर्शन दीजिए) जब दोनों ब्राह्मणों ने गाना बंद किया तब प्रभुपाद ने कहा, “ तो ये अमरीकी और योरोपीय वैष्णव जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे, के लिए लालायित हैं। अब ये आप के हस्तक्षेप से जगन्नाथ स्वामी का दर्शन पाने के योग्य हो सकते हैं। वे लालायित हैं— जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी । सेवाशिव रथ ने भक्तों के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश न पा सकने पर उनके साथ पुनः अपनी समवेदना प्रकट की। उन्होंने जो पुस्तक प्रकाशित की थी उसके बारे में प्रभुपाद को और अधिक बताया। वह श्रीमद्भागवत के जगन्नाथदास कृत उड़िया के अनुवाद के कुछ उत्कृष्ट श्लोकों का संकलन थी । सेवाशिव ने उस पर कुछ टीका भी लिखी थी और एक उत्सव में उस पुस्तक का उसी संध्या को विमोचन होना था । प्रभुपाद ने पुनः वायदा किया कि वे उत्सव में सम्मिलित होंगे और पुरी के ब्राह्मणों तथा धर्मिष्ठों को सम्बोधित करेंगे। उस संध्या में समुद्र तट के खुले पण्डाल समारोह में श्रील प्रभुपाद सम्मानित अतिथि थे और उनके शिष्य उनके साथ उत्साहपूर्वक कीर्तन करते हुए मंच तक गए थे। प्रभुपाद ने अपना आसन ग्रहण किया । कीर्तन समाप्त होने के बाद, जगन्नाथ मंदिर के प्रबन्धकों में से एक आगे बढ़ा और उसने श्रील प्रभुपाद को माल्यापर्ण किया। तब सेवाशिव ने उद्घोषणा की, “हम ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के प्रति आभार प्रकट करते हैं जो कृपापूर्वक इस अवसर पर उपस्थित हैं जब हम परम पावन जगन्नाथ दास गोस्वामी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए एकत्र हुए हैं, जो भगवान् चैतन्य के समकालीन थे ।" अचानक पाँच ब्राह्मण जो मंच पर बैठे थे, उठे और मंच छोड़ कर एक कीर्तन दल में सम्मिलित होने चले गए जो नजदीक के एक खेत में एक वेदी के सम्मुख कीर्तन कर रहा था । प्रभुपाद के भक्तों को यह विचित्र लगा कि वे लोग उस समय उठ कर चले गए जब प्रभुपाद अपना व्याख्यान आरंभ करने ही वाले थे। श्रील प्रभुपाद ने आरंभ किया, "मैं आप सब को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ” – इतने में ध्वनि - विस्तारक यंत्र में गड़बड़ी आ गई। श्रील प्रभुपाद रुक गए। उनका एक शिष्य बिजली का मिस्त्री भी था; उसने गड़बड़ी ठीक कर दी । श्रील प्रभुपाद ने पुनः अपना भाषण आरंभ किया, उनकी आवाज निकट के कीर्तन के विकर्षण से ऊपर सुनाई दे रही थी । प्रभुपाद कह रहे थे, "इस तरह हम अपने विनम्र ढंग से जगन्नाथ स्वामी की संस्कृति के प्रसार का प्रयास कर रहे हैं— जगन्नाथः स्वामी नयन- पथ-गामी भवतु मे । सेवाशिव ने प्रभुपाद को स्पष्टतः इसलिए बुलाया था कि वे उनकी नई पुस्तक के सम्बन्ध में बोलेंगे और प्रभुपाद अपने शिष्यों को निजी तौर पर बता चुके थे कि ये लोग उन्हें अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। किन्तु प्रभुपाद ने उस अवसर का उपयोग भगवान् जगन्नाथ के सम्बन्ध में बोलने में किया, न कि उड़िया के जगन्नाथ दास के सम्बन्ध में । उनके मन में एक विशेष संदेश था । ने आगे जारी रखा, “आपको यह जान कर अत्यन्त प्रसन्नता होगी प्रभुपाद कि मैने १९६७ ई. में रथ यात्रा का आरंभ सैन फ्रान्सिस्को में किया और तब से वह गत नौ या दस वर्षों से बराबर निकल रही है। और वहाँ की सरकार ने रथ-यात्रा के लिए एक दिन का अवकाश निश्चित कर रखा है। २० जुलाई सरकार की ओर से नियत रथ यात्रा का अवकाश दिवस होता है। और लोग रथयात्रा में सम्मिलित होते हैं। न केवल मेरे भक्त वरन् बाहर के लोग भी रथ यात्रा में भाग लेते हैं। लगभग दस से बारह हजार लोग सम्मिलित होते हैं और हम सब को प्रसाद वितरण करते हैं। वे हमारा आभार मानते हैं। और समाचार पत्र लिखते हैं कि लोगों में ऐसा हर्षातिरेक कभी नहीं होता जैसा वे रथ यात्रा के उत्सव में अनुभव करते हैं। पुलिस का कहना है कि पाश्चात्य देशों में ज्योंही भीड़ बड़ी होती है, वह उत्पात मचाने लगती है। किन्तु पुलिस को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि हमारी यह भीड़ खिड़की-दरवाजे तोड़ने वाली भीड़ नहीं है। ' इसके बाद हमने रथ यात्रा लंदन में आरंभ की। और लंदन के ट्राफाल्गर स्क्वायर में— जो लंदन नगर का सबसे प्रसिद्ध स्क्वायर है—वहां एक विशाल स्तंभ है जिसे नेल्सन स्तम्भ कहते हैं। हमारा रथ इतना ऊँचा था कि गार्डियन समाचार पत्र ने हमारी रथ यात्रा को नेल्सन स्तंभ की प्रतिद्वन्द्वी कह कर उसकी आलोचना की। इसके बाद हमने फिलाडेल्फिया में रथ यात्रा आरंभ की। गत वर्ष हमने रथ यात्रा न्यू यार्क में आरंभ की। और मेलबोर्न, सिडनी और पेरिस में भी हमारी रथ यात्राएँ निकलती हैं। " इस तरह पाश्चात्य देशों में, एक के बाद एक, हम रथ यात्रा आरंभ कर रहे हैं और जगन्नाथ स्वामी पाश्चात्य लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं। " अचानक मंच पर बैठे कुछ लोग आपस में उड़िया में जोर-जोर से बातें करने लगे। प्रभुपाद रुक गए, उनकी ओर मुड़े और बोले, “यह क्या है ?" बात-चीत बंद हो गई और वे आगे बोलते गए। " तो आपकी जगन्नाथ पुरी में अब संसार के प्रत्येक भाग से लोग आएँगे । यह कई दृष्टियों से लाभप्रद है। पर्यटन कार्यक्रम की दृष्टि से सरकार को लाभ होगा । जब लोग जगन्नाथ पुरी की ओर, जगन्नाथ स्वामी की ओर आकृष्ट होंगे तो यह कितना अच्छा होगा । किन्तु दुर्भाग्य से आप इन विदेशियों को मंदिर - प्रवेश की अनुमति नहीं देते। इसका समाधान कैसे निकल सकता है ? यह बाधा दूर की जानी चाहिए कि आप जगन्नाथ स्वामी को अपने घर में सीमित रखना चाहते हैं और उनका कृपा का विस्तार नहीं होने देना चाहते । । " वे जगन्नाथ हैं, अर्थात् ब्रह्माण्ड के स्वामी । वे केवल पुरीनाथ या उड़ियानाथ नहीं हैं। वे जगन्नाथ हैं। भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं, – भोक्तारम् यज्ञ - तपसाम् सर्व-लोक-महेश्वरम् । जगन्नाथ की यही परिभाषा है— सर्वलोक महेश्वरम् अर्थात् कृष्ण प्रत्येक वस्तु के स्वामी और नियंता हैं। तो आप सर्वलोक के निवासियों को जगन्नाथ के दर्शनों से क्यों वंचित रखते हैं ? श्री चैतन्य महाप्रभु ऐसी चीजों को कभी स्वीकार नहीं करते थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है— पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम । सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम । जब यह हो रहा है और वे यहाँ आने को इच्छुक हैं तो आप उन्हें रोकते क्यों हैं? कारण क्या है ? यह बहुत अच्छा नहीं है । " श्रील प्रभुपाद तर्क देते रहे कि जो विदेशी वैष्णव हो गए हैं उन्हें भगवान् जगन्नाथ के मंदिर में प्रवेश करने देना चाहिए। उन्होंने कहा वैष्णवों के प्रति दुर्व्यवहार की, भगवान् चैतन्य ने निन्दा की है। अतएव, प्रभुपाद ने घोषणा की कि वे पुरी विशेष रूप से इसलिए आए हैं कि यहाँ के नेताओं से प्रार्थना करें कि वे विदेशी भक्तों पर से आपराधिक प्रतिबंध हटा लें और उनके प्रति मैत्रीपूर्ण बन जाएँ। उन्होंने पुरी के नेताओं को आमंत्रित किया कि वे संसार - भर में राधा-कृष्ण और जगन्नाथ मंदिरों में जाएँ और देखें कि ये विदेशी किस तरह, कठोरतापूर्वक पापपूर्ण जीवन से बच कर, वास्तव में विशुद्ध वैष्णव बन गए हैं। प्रभुपाद ने कहा, “ उनमें अवैध यौन सम्बन्ध नहीं है। वे माँस भक्षण, मत्स्य या अंडा भक्षण नहीं करते, मादक द्रव्य सेवन नहीं करते, द्यूत-क्रीड़ा नहीं करते।" " आप उनका वैष्णव के रूप में स्वागत क्यों नहीं करते ? यही मेरी प्रार्थना है । मुझे आशा है कि यहाँ बहुत से विद्वान और भक्त उपस्थित हैं। उन्हें इस अदूरदर्शितापूर्ण प्रतिबंध को हटाने का प्रयत्न करना चाहिए। आइए, हम सब जगन्नाथ से मिल कर भक्ति का प्रचार समस्त विश्व के कल्याण के लिए करें । जब प्रभुपाद ने अपना भाषण समाप्त किया तो हरिशौरी ने आगे की ओर झुक कर प्रभुपाद से पूछा कि क्या वे प्रश्नों के उत्तर देना चाहेंगे। किन्तु सेवाशिव शीघ्रतापूर्वक प्रभुपाद की बगल में आया और कहा, "नहीं, उन्हें प्रश्न न पूछने दें।” सेवाशिव ने छोटी-सी पेपर बैक पुस्तक उठा ली जो उस संध्या के कार्यक्रम में की जाने वाली थी। उन्होंने कहा, "द भागवत आफ जगन्नाथ" और प्रस्तुत उसे श्रील प्रभुपाद को पकड़ा दिया और उनसे जैसे कि आशा की जाती थी, उसकी विशेषताओं और विमोचन के सम्बन्ध में बोलने की प्रार्थना की। श्रील प्रभुपाद ने उस छोटी-सी पुस्तक पर उदासीनतापूर्वक दृष्टि डाली और माइक्रोफोन पर बोलते हुए कहा, " तो मुझे क्या करना है ? निस्सन्देह मैं उड़िया भाषा नहीं जानता । किन्तु कहा जाता है कि यह जगन्नाथ का भागवत् है । आज इसका विमोचन किया जाता है ।" प्रभुपाद ने पुस्तक नीचे रख दी और जाने के लिए खड़े हो गए । श्रोता मण्डली तालियाँ बजाने लगी । तब श्रील प्रभुपाद अंधेरे में रेत पर आगे बढ़ चले और उनके शिष्य उनके पीछे चलते रहे। वे निकट के एक गौड़ीय मठ के मंदिर में गए जहाँ भक्तों ने कीर्तन किया । तदनन्तर वे पुरुषोत्तम मठ नामक एक दूसरे मठ के मंदिर में गए और भक्तों ने वहाँ भी कीर्तन किया । पुरुषोत्तम मठ के कीर्तन के बीच प्रभुपाद एक कुर्सी में बैठे रहे। जब वे जाने को तैयार हुए तो एक छड़ी का सहारा लेकर खड़े होने लगे, किन्तु जब वे आधा ऊपर ही उठे थे, कि अचानक वे बीच में ही कुर्सी पर गिर पड़े। हरिशौरी को उन्हें अपनी बाहों में पकड़ कर उठाना पड़ा। प्रभुपाद ने कुछ कहा नहीं, वे धीरे-धीरे हाल से बाहर गए और कार में बैठ गए। हर किसी ने प्रभुपाद के इस तरह गिरने को नहीं देखा था, लेकिन हरिशौरी ने अपने कमरे में वापस आने पर अपने एक गुरुभाई को लिखे गए पत्र में इसका यह कह कर उल्लेख किया कि “ यह प्रभुपाद के गिरते हुए स्वास्थ्य का एक और लक्षण था ।" निस्सन्देह, पुरी के पण्डितों में से किसी ने भी श्रील प्रभुपाद द्वारा ब्रह्माण्ड के स्वामी, भगवान् जगन्नाथ, पर दिए गए भाषण से उन के स्वास्थ्य में गिरावट को लक्ष्य नहीं किया था । भुवनेश्वर में जनवरी ३० को तीन बजे सवेरे श्रील प्रभुपाद ने श्रीमद्भागवत का दसवाँ स्कंध लिखाना आरंभ कर दिया। बगल के कमरे में उनके एक सेवक ने दीवार में से आवाज सुनी और वह इतना विह्वल हुआ कि उसने अन्य भक्तों को जगा दिया। दोनों कमरों के बीच की दीवार लगभग छः फुट ऊँची थी और उसके ऊपर फूस की छत तक एक खुला स्थान था। इस खुले स्थान प्रभुपाद के कमरे का प्रकाश दूसरे कमरे में जाता था और उनकी आवाज, से यद्यपि बहुत मद्धिम थी, फिर भी दूसरे कमरे में सुनाई देती थी। वे दसवें स्कंध के प्रत्येक अध्याय का संक्षिप्त विवरण बोल कर मशीन पर लिखा रहे थे । उन्होंने आरंभ किया, “प्रथम अध्याय, जिसमें उनहत्तर श्लोक हैं, भगवान् कृष्ण के अवतार के सम्बन्ध में जानने को महाराजा परीक्षित की उत्सुकता का वर्णन करता है और इसमें इसका भी वर्णन है कि किस प्रकार कंस देवकी की आठवी संतान द्वारा मारे जाने के भय से, उसके छह पुत्रों का वध कर देता है। दूसरे अध्याय में बयालीस श्लोक हैं...।" प्रभुपाद का नब्बे अध्यायों में से प्रत्येक का धैर्यपूर्वक वर्णन, उनके परम्परागत ज्ञान का निष्ठापूर्वक किया गया सार-संग्रह था । — उसमें न कोई मिलावट थी, न अपनी ओर से कोई व्याख्या थी, न कुछ जोड़ा गया था, न कुछ घटाया गया था । अतएव वे उसी पूर्ण विश्वास के साथ बोल रहे थे जिस विश्वास के साथ भागवत के मूल वक्ता शुकदेव गोस्वामी पाँच हजार वर्ष पूर्व महाराज परीक्षित से बोले थे । प्रभुपाद कह रहे थे, "केवल कृष्ण कथा का गायन करने अथवा उसके पुन: कथन से कोई व्यक्ति कलियुग के दोष से मुक्ति पा सकता है। कृष्णभावनामृत का यही उद्देश्य है : " कृष्ण - कथा का श्रवण करना और भौतिक बंधन से मुक्ति पाना । " अपने कम्बलों पर बैठे हुए भक्तजन सुन रहे थे; अब उन्हें सोना नहीं था । यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षण था । दसवाँ स्कंध पाँच हजार वर्ष पूर्व आरंभ होता है जब सारा संसार राक्षसी शासन से पीड़ित था और प्रभुपाद उस समय की परिस्थिति की तुलना वर्तमान परिस्थिति से कर रहे थे। उनके शब्द मद्धिम थे, किन्तु दुर्बल नहीं थे। वे बिना हिचक और निश्चयात्मक थे। उन्होंने लिखाया, “परम ईश्वर के निर्देश के बिना असुर अपने को स्वतंत्र सम्राट और राष्ट्रपति घोषित कर देते हैं और इसलिए अपनी सैन्य शक्ति बढ़ा कर उत्पात पैदा करते हैं। जब ऐसे उत्पात बहुत अधिक हो जाते हैं तब कृष्ण प्रकट होते हैं। इस समय भी संसार भर में बहुत-से आसुरी राज्य विभिन्न तरीकों से अपनी सैन्य शक्ति बढ़ा रहे हैं और इस तरह सारी परिस्थिति विपदा - ग्रस्त हो गई है। अतएव अपने नाम के हरे कृष्ण आंदोलन में कृष्ण प्रकट हुए हैं, जो निश्चय ही संसार का भार कम कर देगा। दार्शनिकों, धर्मिष्ठों और सामान्य जनता को चाहिए कि इस आंदोलन को अत्यंत गंभीरता से ले, क्योंकि मानव - कृत योजनाओं और उपायों से संसार में शान्ति स्थापित नहीं हो पायेगी । ' श्रील प्रभुपाद रणक्षेत्र में अपने तम्बू में बैठे हुए सेनापति की तरह थे और उनके शिष्य पैदल सैनिक की तरह थे। वे जानते थे कि, उपयुक्त सेनाधिकारियों के माध्यम से सूचना उन तक पहुँचने के पहले ही, वे प्रभुपाद की युद्ध-नीति सुन रहे थे। वे रोमांचित हो उठे । पूर्ण विश्वास के साथ उन्होंने सुना कि जैसे कृष्ण ने आसुरी शासकों को परास्त किया था, उसी तरह कृष्णभावनामृत आंदोलन वर्तमान युग की आसुरी संस्कृति का प्रतिकार करेगा । बाद में, सवेरे के भ्रमण में भक्तों में से एक ने प्रभुपाद को बताया कि वे प्रभुपाद के कमरे के दरवाजे पर उन के नाम का एक सूचना पट्ट लगा देने की योजना बना रहे थे कि ३० जनवरी १९७७ को प्रातः २ बज कर पचास मिनट पर उन्होंने यहाँ दसवाँ स्कंध आरंभ किया। प्रभुपाद को प्रसन्नता से भरा आश्चर्य हुआ कि भक्त उनका डिक्टेशन सुन रहे थे। प्रभुपाद ने कहा, “ दसवें स्कंध में कृष्ण की बाँसुरी सुनाई पड़ सकती है और उन्तीसवें से चौंतीसवें अध्यायों में उनका मुसकराता चेहरा दिखाई देता है । रामेश्वर स्वामी के स्थान पर हाल में ही प्रभुपाद के सचिव के रूप में एक मास के लिए जी. बी. सी. का एक अन्य व्यक्ति, सत् स्वरुप दास गोस्वामी, आ गया था। एक दिन सन्ध्या- समय प्रभुपाद के कमरे में बैठे हुए सत्स्वरूप दास ने उनसे पूछा, “श्रील प्रभुपाद, जब मैं पहले पहल यहाँ आया तो रामेश्वर महाराज ने मुझसे कहा कि आप बता रहे थे कि किस प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका में कृष्णभावनामृत का प्रचार होगा । किन्तु मैं उस दृश्य की कल्पना करने में अपने को असमर्थ पा रहा हूँ, क्योंकि अब इसके बिल्कुल विपरीत हो रहा है।" श्रील प्रभुपाद ने कहा, 'यह सच है, किन्तु इसने अभी-अभी ही तो जड़ें जमाई हैं। तुम्हें सींच कर इसकी रक्षा करनी है, तभी तुम फल पा सकते हो; तुम्हें इसे सुरक्षा प्रदान करनी है। लोगों को हमारे विषय में हमारी पुस्तकों के माध्यम से सुनना है और हमें पुस्तकों के विषय में बात करनी चाहिए ।" " तो ऐसा नहीं है कि यह रातोंरात हो जायगा ?" प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, यह धीरे-धीरे बढ़ेगा। बीज पड़ गया है। अब प्रत्येक घर में और अधिक पुस्तकें पहुँचा कर इसकी रक्षा करो। " पुनः प्रभुपाद ने न्यू यार्क न्यायालय में होने वाले मुकद्दमे की चर्चा की । उन्होंने कहा कि कम-से-कम उन्हें हमारी पुस्तकें पढ़ने को कहो । यही हमारा । बयान है। हमारा पक्ष यही है कि तुम पहले हमारी सारी पुस्तकें पढ़ लो और तब अपना निर्णय दो । इन्हें समाप्त कर लो, तब अपना फैसला दो। उन्हें ये सारी चौरासी पुस्तकें दो ।" श्रील प्रभुपाद इस विचार से उत्तेजित हो उठे कि सभी न्यायाधीश और वकील उनकी पुस्तकें पढ़ें। वे पूर्ण रूप में गंभीर थे और इसका आग्रह कर रहे थे कि भक्त, अधिकारियों से उनकी पुस्तकों को कानूनी साक्ष्य के रूप में पढ़वाएँ । श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा, “कृष्ण कहते हैं कि सब धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आओ” – सर्व-धर्मान् परित्यज्य । अब प्रश्न उठ सकता है, हम क्यों शरण में आएँ ? तब तुम दलील दे सकते हो और ऐसा तीन वर्ष तक करते रहो । सारी बात अपने से स्पष्ट हो जायगी कि ईश्वर क्या है, सृष्टि क्या है, तुम्हारी स्थिति क्या है, तुम्हें शरण में क्यों जाना चाहिए, आदि, आदि । तुम क्या सोचते हो ?" मैं । सत्स्वरूप ने कहा, “हाँ, हमें पुस्तकों का प्रचार अधिकाधिक करना चाहिए । न्यू यार्क पत्र लिखूँगा और उनसे इस विषय पर बल देने के लिए कहूँगा ।' प्रभुपाद ने कहा, “इन सारी पुस्तकों को न्यायालय में ले आओ। एक बार कलकत्ता में घोष नाम के एक बड़े वकील थे। एक मुकदमे में वे अपनी दलील के लिए बहुत सारी पुस्तकें ले आए। न्यायाधीश उनके मित्र थे, इसलिए बहुत मुलायम शब्दों में उन्होंने उनकी आलोचना की, 'ओ, मि. घोष आप तो पूरा पुस्तकालय उठा लाए हैं?' मि. घोष बोले, 'हाँ, मेरे प्रभो, आपको कानून सिखाने के लिए।' श्रील प्रभुपाद हँसे और फिर दुहराया, “हाँ, मेरे प्रभो, आपको कानून सिखाने के लिए । ' श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों से न्यू यार्क न्यायालय में ऐसी ही दलील का उपयोग करवाना चाहते थे । यदि न्यायाधीश आपत्ति करते हैं और कहते हैं, " हमें परेशान करने के लिए आप इतनी पुस्तकें क्यों लाए हैं?" तो भक्तों को कहना चाहिए, “आपको सुनना चाहिए, चाहे इसमें बारह वर्ष लग जाएँ, पर आप को सुनना होगा। यह कानून है ।" यह कठिन लग रहा था, किन्तु भक्त जानते थे कि उन्हें ऐसा करना पड़ेगा। मुकद्दमे की पैरवी के लिए यह श्रील प्रभुपाद का विशेष आदेश था । प्रभुपाद ने कहा, "हमें कहना होगा कि हमने मस्तिष्क धुलाई का प्रयत्न कभी नहीं किया। हमने ठीक शास्त्र के अनुसार किया है। यही हमारा साक्ष्य है। हमने कोई चीज गढ़ी नहीं है। अतः उन्हें हमारी सभी पुस्तकें पढ़नी चाहिए । मेरे विचार से तुम लोगों को अपना पक्ष इस प्रकार रखना चाहिए। हरिशौरी ने कहा, “हमारा बचाव पक्ष का बयान आप की पुस्तकों में पहले से लिखा है । " सत्स्वरूप ने पूछा, “कुछ भागों में, या हमें उनसे कहना चाहिए कि वे सभी पुस्तकें पढ़ें ? " प्रभुपाद ने उच्च स्वर में कहा, "सभी पुस्तकें, उनकी प्रत्येक पंक्ति । हमारा बचाव पक्ष हमारी चौरासी पुस्तके हैं। " गुरुकृपा स्वामी ने कहा, “किन्तु वे कहेंगे कि यदि हम इन सभी पुस्तकों को पढ़ेंगे तो हमारे मस्तिष्क की भी धुलाई हो जायगी । प्रभुपाद ने कहा, कहा, "यह मेरा धर्म है। तुम मेरे मस्तिष्क की धुलाई का प्रयत्न कर रहे हो और मैं तुम्हारे मस्तिष्क की धुलाई का । यही चल रहा है, यही संघर्ष है। यही मल्लयुद्ध है। तुम अपनी शक्ति लगा रहे हो, मैं अपनी शक्ति लगा रहा हूँ। अन्यथा, संघर्ष कहाँ है ? तुम्हें मुझसे न सहमत होने का अधिकार है, मुझे तुमसे न सहमत होने का अधिकार है। आओ, निर्णय हो जाय । " भुवनेश्वर में, भगवान् नित्यानंद के आविर्भाव दिवस पर, २ फरवरी को, श्रील प्रभुपाद ने शिलान्यास - समारोह किया। दिन में लगभग एक हजार लोग प्रसाद ग्रहण करने आए। सेवाशिव रथ भी उपस्थित रहे और उन्होंने भाषण दिया । प्रभुपाद के शिष्य, स्वरूप दामोदर और स्वयं प्रभुपाद ने भी भाषण दिए । बाद में प्रभुपाद ने अपने शिष्यों से परामर्श किया कि भुवनेश्वर केन्द्र की व्यवस्था कैसे की जाय। कुछ संन्यासियों ने प्रभुपाद से स्वीकार किया कि वहाँ उन्हें कोई अधिक संभावना नहीं दिखाई देती । प्रभुपाद ने प्रश्न किया, "क्यों नहीं ? यह उड़ीसा की राजधानी है। लोग यहाँ आते हैं। हमें हर कस्बे में केन्द्र स्थापित करना है। चाहे यह कोई बड़ा केन्द्र न हो किन्तु कुछ को यहाँ रहना और कार्य करना है। यदि लोग यहाँ हर रात आएँ और वह भी केवल खिचड़ी खाने के लिए, तो वह भी प्रचार है।" एक भक्त ने कहा कि यह केन्द्र नगर से बहुत अधिक दूर है और उड़ीसा के लोग बहुत अधिक गरीब हैं। इससे अच्छा विचार यह है कि पुरी में एक विशाल मंदिर बनाया जाय । श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि जगन्नाथ पुरी में मंदिर बनाना ठीक है, किन्तु भुवनेश्वर भी महत्त्वपूर्ण है । प्रभुपाद के उड़िया शिष्य, गौर - गोविन्द स्वामी ने कहा कि ज्योंही वार्षिक अखिल भारतीय तीर्थ यात्रा मेला समाप्त होगा, सभी भक्त चले जायँगे और एक-दो ब्रह्मचारियों के साथ केवल वे वहाँ रह जायँगे। प्रभुपाद की पुस्तकों का उड़िया में अनुवाद करने के लिए वे विशेष रूप से उपयुक्त व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने प्रभुपाद से कहा कि केन्द्र की व्यवस्था में मदद करने के लिए उन्हें कोई व्यक्ति दिया जाय । प्रभुपाद ने पूछा, 'वह मोटा आदमी कहाँ है ? उसे यहाँ लाओ।" और एक भक्त भागवत को लाने दौड़ता हुआ गया। जब भक्त ने भागवत को पाया, उस समय वह आगन्तुकों के तम्बू में बैठा, अन्य भक्तों को अपने न्यू यार्क जाने की योजना के बारे में बता रहा था। जब भक्त ने बताया कि श्रील प्रभुपाद उसे बुला रहे हैं तो उसने समझा कि यह शिलान्यास के सम्बन्ध में होगा, क्योंकि वह उसका प्रभारी था । किन्तु ज्योंही वह प्रभुपाद के कमरे में प्रविष्ट हुआ उसे लगा कि कुछ गंभीर बात होने जा रही है । श्रील प्रभुपाद मुसकराए और भागवत से पूछा कि वह कैसे था । " श्रील प्रभुपाद, मैं ठीक हूँ ।" " इस स्थान पर रहने और इसकी व्यवस्था देखने के सम्बन्ध में तुम्हारा क्या विचार है ?" “श्रील प्रभुपाद, मैं वास्तव में नहीं समझता कि मैं यहाँ रह सकता हूँ। यह बहुत कठिन है । " "क्या तुम यहाँ रह कर यह इमारत नहीं बनवा सकते ? " “ मैं कर सकता हूँ, किन्तु यह बहुत कठिन है। मैं तो न्यू यार्क जाने को बिल्कुल तैयार था । " भागवत ने उत्तेजित होकर प्रभुपाद को न्यू यार्क से आदि केशव स्वामी के एक तार के बारे में बताया जिसमें उन्होंने उसे न्यू यार्क पहुँच कर मंदिर के एक महत्त्वपूर्ण प्रचार विभाग का नेतृत्व करने को कहा था। श्रील प्रभुपाद बोले, “न्यू यार्क ? न्यू यार्क में बहुत सारे लोग पहले से हैं । तुम्हें न्यू यार्क नहीं जाना है । तुम्हें यहाँ रहना चाहिए ।' भागवत को इस पर आपत्ति थी । वह गर्गमुनि स्वामी के साथ कार्य नहीं कर सकता था जो भारत में इस क्षेत्र के जी. बी. सी. अधिकारी थे । प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि वे गर्गमुनि स्वामी को बंगलादेश भेज रहे थे। वे उड़ीसा में इस्कान के प्रभारी अब नहीं रहेंगे। प्रभुपाद भागवत के कार्य का पर्यवेक्षण स्वयं करेंगे। भागवत दास की दूसरी आपत्ति यह थी कि उसका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था और उसको नींद बहुत आती थी । प्रभुपाद ने प्रतिकार किया, "यह बहुत स्वास्थ्यकर स्थान है। तुम शौच के लिए बाहर खेत में जाओ और लोटे के जल से मल की सफाई करो, फिर लोटे को मिट्टी से मांज दो और उसी लोटे से स्नान कर सकते हो। इस तरह तुम स्वच्छ और स्वस्थ रहोगे । " दृढ़ तब भागवत ने अपनी अंतिम आपत्ति सामने रखी। उसने कहा, “श्रील प्रभुपाद, सच यह है कि मैं जप नहीं कर रहा हूँ। मैं समझता हूँ, मुझे न्यू यार्क जाना चाहिए। वहाँ अच्छी संगत मिल जायगी और नियमों के पालन में मैं सकूँगा । " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, ने उत्तर दिया, "यह ठीक है। तुम बहुत परिश्रम कर रहे हो, इसलिए यदि कभी कभी तुम जप नहीं कर पाते तो कोई हर्ज नहीं है। जब तक तुम कड़ा परिश्रम करते रहोगे, तो जप किसी अन्य समय कर सकते हो । " भागवत दास ने कहा, श्रील प्रभुपाद, गुरु अष्टकम के अनुसार, मेरी समझ में जब कोई अपने गुरु महाराज को प्रसन्न कर देता है तो वह कृष्ण को प्रसन्न करने के समान है । प्रभुपाद मुसकराए, “हाँ ।' "यदि आप चाहते हैं कि मैं यहाँ रहूँ तो मुझे यहाँ रहना चाहिए ।" “हाँ, मैं चाहता हूँ कि तुम यहाँ रहो, आजीवन सदस्य बनाओ और इस इमारत का निर्माण करो और इसके प्रबन्ध में सहायता करो। " यद्यपि प्रभुपाद ने एक मंदिर का शिलान्यास किया था, किन्तु केन्द्र के पास उसके लिए धन नहीं था, न कोई दाता दृष्टि में था और स्थापित धर्म - मण्डली भी नहीं थी । भक्तों के पास जो कुछ था, वह केवल श्रील प्रभुपाद में विश्वास था । श्रील प्रभुपाद की ट्रेन अगली रात ११ बजे जाने वाली थी। वे अपनी छोटी-सी कुटिया में बैठे अपने शिष्यों से बातें करते रहे, जब तक कि जाने का समय नहीं हो गया । वार्तालाप का विषय द्वितीय विश्व युद्ध की राजनीति से श्रीमद्भागवत के दसवे स्कंध तक फैला था। एक बात पर प्रभुपाद बता रहे थे कि मनुष्य किसी तरह प्रकृति के नियमों में परिवर्तन नहीं ला सकता। मनुष्य को दावा नहीं करना चाहिए कि उसे कुछ आता है या वह कुछ कर सकता है, जब तक कि वह जन्म, मरण, रोग और वृद्धावस्था के क्लेशों को रोक न सके। प्रभुपाद ने समझाया, " मेरी स्थिति का तात्पर्य है मेरा कर्म । यदि मैं आलीशान भक्तिवेदान्त भवन में रहूँ तो भी मुझे वही कष्ट रहेगा जो यहाँ इस कुटीर में है। यदि मैं सोचूँ 'अब मैं इस आलीशान महल में हूँ, इसलिए मैं सुखी हूँ' तो यह मूर्खता होगी। किन्तु लोग इसी तरह सोचते हैं। तो वे मरते क्यों हैं ? उन्हें मृत्यु पर काबू पा लेना चाहिए। क्या तुम, मेरे शिष्य, मेरी वृद्धावस्था में मेरी सहायता कर सकते हो ? तुम अपनी शक्ति-भर प्रयास कर सकते हो, परन्तु तुम्हें मानना होगा कि यह तुम्हारी शक्ति के बाहर है। किन्तु ज्योंही तुम परम धाम को पहुँचते हो, हर समस्या का समाधान निकल आता है।' प्रभुपाद ने आहार के विषय में बताया। घी स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है, किन्तु केवल उबाला हुआ भोजन खाना भूखा रहने के समान है। उन्होंने कहा कि वे उपवास कर सकते हैं - "यदि मुझे तीन दिन तक खाने को न मिले तो मैं रह सकता हूँ।” गर्गमुनि ने श्रील प्रभुपाद को बताया कि वे कलकत्ता में एक व्यक्ति के विषय में जानते थे जो नब्बे वर्ष का होने पर भी स्वस्थ था और अपने स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन का कारण वह केवल फलों का नियमित आहार बताता था। गर्गमुनि ने सुझाव दिया कि प्रभुपाद भी ऐसे आहार का प्रयोग करें। प्रभुपाद राजी हो गए। प्रभुपाद ने अपने गुरु महाराज के आहार का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि भक्तिसिद्धान्त सरस्वती बहुत कम खाते थे। किन्तु वे न केवल फल ही खाते थे, उन्हें नमकीन चीजें खाना भी पसंद था। उनका प्रिय भोजन बेसन और घी में तली मूंगफली से तैयार होता था । उस वार्तालाप के पश्चात् जब भक्त प्रभुपाद के प्रस्तावित फलाहार के विषय में टीका-टिप्पणी कर रहे थे तो हरिशौरी ने प्रेम-भरे लहजे में कहा " उन्होंने ऐसा पहले भी कहा था, किन्तु वे यह कभी नहीं करेंगे।' रात-भर की कलकत्ता की यात्रा में प्रभुपाद को विश्राम नहीं मिला, क्योंकि बगल के डिब्बे में दो शराबी थे। रात भर वे शोर मचाते रहे और एक दूसरे को सम्बोधित करते रहे, "ओह डा. मुकर्जी, ओह मिस्टर चैटर्जी ! ” घृणा पूर्ण शब्दों में प्रभुपाद ने कहा कि ये बंगाली ब्राह्मण परिवारों के नाम हैं, किन्तु अब वे पियक्कड़ बन गए हैं। जगन्नाथ पुरी हजारों वर्षों से एक पवित्र स्थान रहा है, किन्तु कुछ ही वर्षों में अब वह ऐसा नहीं रह जायगा । लोग पुरी को समुद्र तट स्थित एक मनोरंजन स्थल के रूप में ले रहे हैं— डा. मुकर्जी और मिस्टर चैटर्जी ऐसे ही लोगों में हैं। उन्हें आध्यात्मिक जीवन की तनिक हरे कृष्ण गाए आर सघर्ष कर भी समझ नहीं है । जब ट्रेन हावड़ा स्टेशन पहुँची तो प्रभुपाद उतरने के पहले कुछ देर बैठे रहे। मनुष्यों और मशीनों के शोर-गुल में खोमचे वालों की " चाय, चाय" की ऊंची आवाज विराम-चिह्न - सा लगा रही थी । प्रभुपाद ने दुख का उच्छवास लिया, “यह आधुनिक समाज ! " !" आज के मनुष्यों का चेहरा देखना भी दुखदायी है— उनका इतना अधिक पतन हो गया है। उनका चेहरा देखने से प्रदूषण होता है। गत रात दो लोगों ने मुझे कितनी बाधा पहुँचाई । और वे सोचते हैं कि वे सुखी हैं और जीवन का आनन्द ले रहे हैं। " सत्स्वरूप ने कहा, “किन्तु हमें खतरा उठाना है, हमें जाकर उनके बीच प्रचार करना है । " प्रभुपाद बोले, “हाँ, यदि आप प्रचार में लगे हैं तो आप पर इनका प्रभाव नहीं होगा। कभी-कभी योगी लोग हिमालय में चले जाते हैं, केवल ऐसे दूषित लोगों के चेहरों को देखने से बचने के लिए। वे किसी पवित्र एकान्त स्थल में योग का अभ्यास करते हैं। अन्यथा, यह क्या है ? केवल, 'चाय, चाय, चाय और सिगरेट और बीड़ी, व्यर्थ की बातें करना, मदिरा पीना ? तब भी वैदिक पद्धति भारत में अब भी विद्यमान है । गाँवों में सवेरे वे स्नान करते हैं । नगरों में भी, कम-से-कम वे लोग जो गाँवों से आते हैं, स्नान करते हैं। बम्बई में हम देखते हैं कि बहुत से गरीब लोग बहुत तड़के स्नान करते हैं। क्या आपने देखा है ? वे अपना फर्श धोते हैं, स्नान करते हैं । " वैदिक ग्राम में शुद्ध जीवन के भोले विचारों के साथ श्रील प्रभुपाद स्टेशन से बाहर आए - भीड़-भाड़ और शोर-गुल को पार करते हुए। वे कलकत्ता को भलीभाँति जानते थे, अपने शिष्यों में से किसी से भी अधिक अच्छी तरह । वे वहाँ भी गरीबी, अराजकता और राजनीतिक नारेबाजी से विचलित नहीं थे। यह उनका गृह नगर था । किन्तु वहाँ किसी से उनका सांसारिक लगाव नहीं था। वे वहाँ केवल कुछ दिन के लिए आए थे— केवल धर्मोपदेश के लिए। उसके बाद उन्हें मायापुर जाना था । मायापुर फरवरी ७, १९७७ मायापुर चन्द्रोदय मंदिर के द्वार पर ८० से अधिक बंगाली गुरुकुल बालकों तथा लगभग एक सौ अन्य भक्तों ने कीर्तन करते हुए प्रभुपाद का स्वागत किया । सम्पूर्ण इस्कान भूमि पुष्पों से प्रफुल्लित लग रही थी और हाल ही में पेंट की गई मंदिर की इमारत उषा काल की प्रथम रक्ताभ किरणों जैसी चमक रही थी। नवीन इमारत, जो लम्बी आवासीय इमारत थी, लगभग पूरी हो चुकी थी। जब प्रभुपाद की कार द्वार के भीतर घुसी और मंदिर की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगी तो प्रभुपाद ने धीमे से कहा, “ धाम को, परम धाम को लौट आए।" वे उन सैंकड़ों भक्तों से तीन सप्ताह पहले पहुँच रहे थे जो समस्त संसार से आने वाले थे और भगवान् चैतन्य के आविर्भाव दिवस पर गौर - पूर्णिमा उत्सव में उनके साथ सम्मिलित होने वाले थे । इस्कान मायापुर में श्रील प्रभुपाद के प्रधान शिष्य भवानंद स्वामी और जयपताक स्वामी, उन्हें गुरुकुल के बालकों और भक्तों की भीड़ में से होते हुए अर्चा-विग्रह कक्ष में ले गए जहाँ उन्होंने श्री श्री राधा माधव के दीप्तिमान स्वर्णिम रूप का अवलोकन किया और वे उनके समक्ष नत मस्तक हुए। श्रील हुए प्रभुपाद बाद में दुमंजिले पर स्थित अपने कमरे में बैठे ने भक्तों की प्रशंसा की कि उन्होंने भूमि को इतना सुन्दर और स्वच्छ बना रखा था। ने कहा, सैंकड़ों फूलों से उनका कमरा सजा था मानो भव्य उद्यान हो। प्रभुपाद " ये फूल ही तुम्हारी पहली सफलता हैं।" वे अपने प्रिय मायापुर के वातावरण में विशेष आनन्द और संतोष का अनुभव करते हुए बैठ गए। उन्होंने कहा कि, "यदि कृष्ण की सेवा के लिए कोई योजना प्रस्तुत करें तो वे अत्यंत प्रसन्न होते हैं। हमें कृष्ण की सेवा के लिए कुछ फूल चाहिए तो वे उसकी आपूर्ति कर रहे हैं। हम प्रत्येक वस्तु कृष्ण के लिए चाहते हैं, अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं। कृष्ण के लिए हम नाना प्रकार से प्रयत्न कर सकते हैं—यही भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का योगदान है । " श्रील प्रभुपाद ने बताया कि भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के पूर्व वैष्णवजन वृन्दावन में अवकाश का जीवन बिताते थे— कोई धर्मोपदेश नहीं करते थे । भक्तिसिद्धान्त सरस्वती पहले व्यक्ति थे जिन्होंने प्रदर्शित किया कि शुद्ध भक्त किस तरह कृष्ण की सेवा में विशाल इमारतों में रहते और स्वचालित वाहनों का प्रयोग करते हुए भी, परिष्कृत ढंग से धर्मोपदेश कर सकते हैं। प्रभुपाद ने कहा, "लोगों को ईर्ष्या हो सकती है कि ये भक्त शानदार इमारतों में रह रहे हैं, किन्तु भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर का कहना था कि केवल भक्त ही शानदार इमारतों में रह सकते हैं। केवल भक्त ही । ठीक जैसे सरकारी अधिकारियों को रहने के लिए सर्वोत्तम स्थल दिए जाते हैं, उसी तरह, जो भक्त हैं उन्हें समस्त सुविधाएँ मिलनी चाहिए । अपव्यय न हो, विलासिता न हो, किन्तु अच्छा भोजन, अच्छा आवास और अच्छी सुविधाएँ उन्हें मिलनी चाहिए— और हरे कृष्ण कीर्तन में उन्हें निरन्तर लगे रहना चाहिए । यही हमारा लक्ष्य है। यह नीरस नहीं हैं। विशेषकर, अमेरिका से और योरोप से आए हुए लोग भारत के लोगों की तरह कठोर जीवन के अभ्यस्त नहीं हो। आप लोगों को सुविधा की कम-से-कम जरूरतों की आपूर्ति होनी चाहिए ताकि आप की सेवा कर सकें। मैं यही करने का प्रयत्न कर रहा हूँ ।" तुम कृष्ण वहाँ उपस्थित भक्तों को प्रभुपाद ने कृष्णभावनामृत के निमित्त कार्य करने के लिए धन्यवाद दिया और अपना परिचित सूत्र दुहराया कि अमरीकी दिमाग और अमरीकी धन को भारतीय संस्कृति से मिला कर पूरे विश्व को स्वर्ग में बदला जा सकता है। बाद में श्रील प्रभुपाद नई इमारत को देखने गए जो पश्चिम बंगाल की सबसे लम्बी इमारत थी। जयपताक स्वामी ने बताया कि यह सात सौ फुट से भी अधिक लम्बी थी। श्रील प्रभुपाद बोले कि वह रेलगाड़ी की तरह लग रही है। उन्होंने एक-एक करके सभी कमरों का निरीक्षण किया और कहा कि उत्सव के पूर्व उन्हें तैयार हो जाना चाहिए। बरामदे में टहलते हुए उन्होंने कहा "ओह, यह तो फिफ्थ एवन्यू की तरह है । " अगले कुछ दिन शान्ति से बीते । वे सैंकड़ों गमलों में लगे पौधों के बीच छत पर सुबह देर तक बैठे रहते और मालिश कराते रहते। एक दिन कमरे के बाहर छज्जे की रेलिंग पर झुक कर उन्होंने नीचे के मैदान को देखा जहाँ एक स्त्री भगवान् की पूजा के लिए फूल तोड़ रही थी । वे बोले, "यह मंदिर है, यहाँ सदैव कुछ न कुछ चलता रहता है और अपने द्वारा तोड़े गए प्रत्येक फूल के साथ वह स्त्री अपने आध्यात्मिक जीवन में एक पग आगे बढ़ जाती है ।" प्रभुपाद को यह बात विशेष रूप से पसन्द थी कि मायापुर चन्द्रोदय मंदिर का नित्य विस्तार हो रहा था और उसमें सुधार हो रहा था। उन्हें बरामदे से बाहर की ओर निहारना, अतिथियों का आना, भक्तों का कार्यरत रहना तथा नई-नई योजनाओं का रूप लेना, देखना बहुत प्रिय था । किन्तु प्रभुपाद के स्वास्थ्य की खराबी बनी रही— उनका कहना था कि यह पित्त और वायु का असंतुलन था । एक दिन जब उनके सेवक ने पूछा कि आप को कैसा लग रहा है तो उन्होंने उत्तर दिया – “ बहुत खराब ।” किन्तु कभी-कभी यही “बहुत खराब सुबह" के बाद वे शाम को बहुत अच्छे हो जाते थे । भक्तगण प्रभुपाद की बीमारी को भौतिक दृष्टि से नहीं देखते थे, किन्तु उसकी चिन्ता तो उन्हें थी ही । वर्षों से वे स्वास्थ्य - संकटों से कई बार गुजरे थे और भक्तगण जानते थे कि ये बीमारियाँ दिव्य थीं जिनका नियंत्रण सीधे कृष्ण के हाथ में था । १९७४ ई. में जब वे वृंदावन में गंभीर रूप से बीमार थे तो उन्होंने कहा था कि उनकी बीमारी का कारण यह था कि उनके शिष्य कृष्णभावनामृत के विधि-विधानों का कड़ाई से पालन नहीं कर रहे थे। उनके शिष्य जानते थे कि यदि वास्तव में उन्हें प्रभुपाद के स्वास्थ्य की चिन्ता है तो उन्हें कठोरता से उनके आदेशों का पालन करना होगा। वे खतरों को मोल लेंगे- अधिक शिष्य बनाते रहेंगे, यात्राएँ जारी रखेंगे, उपदेश करते रहेंगे — किन्तु उनके शिष्यों का कर्त्तव्य है कि ऐसे कार्यों से बचें जिनका उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर हो । अधिकांश भक्तों का यही सोचना था कि प्रभुपाद शीघ्र स्वास्थ्य लाभ कर लेंगे और श्रील प्रभुपाद स्वयं इस विषय पर अधिक ध्यान नहीं देते थे; वे कृष्णभावनामृत आंदोलन के विस्तार में अत्यधिक तल्लीन थे। मायापुर पहुँचने के कुछ दिन बाद श्रील प्रभुपाद अपने गुरु भाई, भक्तिरक्षक श्रीधर महाराज, का आश्रम देखने कार और नाव द्वारा नवद्वीप गए। किन्तु खड़ी ढाल की पत्थर की सीढ़ियाँ चढ़ते समय प्रभुपाद के पाँव अचानक फिसल गए और वे लुढ़क पड़े। सौभाग्य से हरिशौरी उनके बिल्कुल निकट था और उसने उन्हें सँभाल लिया। दो सप्ताह के भीतर प्रभुपाद यह दूसरी बार गिरे थे। दोनों ही बार वे सक्रिय रूप से धर्मोपदेश में लगे थे और दोनों ही बार जो कुछ हुआ था उसका उल्लेख किए बिना, वे अपने मार्ग पर अग्रसर होते रहे थे । । भुवनेश्वर में श्रील प्रभुपाद ने स्वरूप दामोदर से वायदा किया था कि मायापुर - उत्सव के बाद वे उनके साथ मणिपुर जायँगे। प्रभुपाद ने कहा कि वैदिक साहित्य में मणिपुर का उल्लेख था । अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा, मणिपुर की थी और इस पर कृष्ण-चेतन क्षत्रियों का शासन था। अब श्रील प्रभुपाद, मणिपुर में जन्मे और पले स्वरूप दामोदर द्वारा प्रोत्साहित होकर, मणिपुर जाने और वहाँ कृष्णभावनामृत राज्य को पुनर्जागरित करने का प्रयत्न करने के लिए उत्सुक किन्तु गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण उनके मन में प्रश्न उठा कि उन्हें मणिपुर की यात्रा करनी चाहिए अथवा नहीं। थे । हरिशौरी को जो प्रभुपाद के साथ अठारह महीनों से लगातार रह रहा था, अनुभव हो रहा था कि प्रभुपाद के स्वास्थ्य में सुधार की संभावना नहीं थी । और एक अर्थ में, कृष्णभावनामृत आंदोलन का विस्तार प्रभुपाद के निर्देशन में, इतने व्यापक ढंग से हो रहा था कि कदाचित् प्रभुपाद का इस तरह यात्रा करना आवश्यक नहीं रह गया था, कम-से-कम उनकी ऊर्जा और शक्ति के वैसे असामान्य व्यय के साथ नहीं जैसा कि वे पिछले दस वर्षों से करते आ रहे थे। अब उन्हें यात्रा से अवकाश ले लेना चाहिए । गत वर्ष ग्रीष्म में जब वे संयुक्त राज्य में यात्रा कर रहे थे तब भी उन्होंने एक बार कहा था कि वे वहाँ केवल यह देख कर अपने को प्रोत्साहित करने के लिए जाना चाहते थे कि उनके शिष्य किस तरह स्वयं हर वस्तु की व्यवस्था करने में सक्षम हो गए हैं। वे कहा करते थे कि कृष्णभावनामृत आंदोलन के भवन की उन्होंने नींव डाल दी है और उसका ढांचा खड़ा कर दिया है; अब उनके अनुयायियों को केवल उसे पूरा करना है। वे प्रायः कहा करते थे कि उन्होंने भौतिकतावादी समाज के शरीर में इंजेक्शन लगा दिया है, अब उसका प्रभाव फैलेगा और वह अपना कार्य करेगा। वे यह भी कहते थे कि उन्होंने अग्नि प्रज्जवलित कर दी है, अब वह समग्र विश्व में फैलेगी। अतएव, यद्यपि वे अपने आंदोलन के लिए सदैव व्यग्र रहते थे, किन्तु उनमें आत्मविश्वास था । एक दिन प्रातः काल नाश्ता करने के बाद प्रभुपाद अपने बरामदे से मायापुर की भूमि को देख रहे थे। हरिशौरी की ओर मुड़ कर वे बोले, “यदि मैं इसी क्षण मर जाऊँ तो वास्तव में कोई हानि नहीं होगी। मैने हर काम के लिए नींव डाल दी है और यदि वे लोग मेरे द्वारा प्रवर्तित सारे कार्यक्रमों पर सही-सही चलते रहे तो सब कुछ सफल होगा ।" ऐसा वक्तव्य सुन कर हरिशौरी विचलित हो गया और अवाक् रह गया। तब प्रभुपाद ने फिर कहा, “किन्तु अभी भी मैं इस श्रीमद्भागवत को पूरा करना चाहता हूँ ।" इस्कान मायापुर में श्रील प्रभुपाद का पड़ाव शान्तिपूर्ण था, किन्तु पच्छिम से जी.बी.सी. के लोगों के पहुँचने के साथ, उन्हें अमेरिका में कृष्णभावनामृत के घोर विरोध के नवीनतम समाचार मिलने लगे। न्यू यार्क से आए तमाल कृष्ण गोस्वामी और ब्रह्मानंद स्वामी ने बताया कि उस मामले की सुनवाई मार्च के आखिरी दिनों में होने वाली थी, जिसमें आदिकेशव स्वामी पर मस्तिष्क नियंत्रण का अभियोग लगाया गया था और न्यायाधीश ने आदि - केशव स्वामी को अनुमति दे दी थी कि वे भारत आकर श्रील प्रभुपाद से मिल सकते हैं। उन्होंने प्रभुपाद को यह भी बताया कि कई अन्य भक्तों का अपहरण हो चुका था और कुछ मामलों में अभिभावकों ने भक्तों के अपहरण और संरक्षण का कानूनी अधिकार न्यायाधीशों से प्राप्त कर लिया था । प्रभुपाद ने पूछा, “विरोधी दल की शिकायत क्या है ?" पुनः उन्होंने, जैसा कि वे पहले रामेश्वर स्वामी से तर्क कर चुके थे, कृष्णभावनामृत आन्दोलन के बचाव पक्ष को प्रस्तुत किया, और उनके शिष्य भौतिकतावादी तर्कों को उन पर दागते रहे। उन्हें उन सभी तर्कों का उत्तर देना पड़ा जिनसे उनके शिष्य निरुत्साह हुए थे या उन्हें अपनी कमजोरी मालूम हुई थी । और इन सब के वे वास्तव में कृष्णभावनामृत के चरम प्रतिरक्षक थे । ऊपर, ब्रह्मानंद ने कहा, " वे कहते हैं कि हम जोम्बी हैं। " प्रभुपाद ने पूछा, “जोम्बी ? यह क्या है ?” हरिशौरी ने कहा, "जोम्बी एक तरह का रोबोट है। हम में दिमाग नहीं है । हम यंत्र की तरह हैं। उनका कहना है कि हमें मनचाहा करने की स्वतंत्रता नहीं है । " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “बच्चों में भी यही बात होती है। किन्तु पिता उन्हें रोकता है। बच्चे खेलना चाहते हैं, वे स्कूल जाना नहीं चाहते । पिता इसे पसंद नहीं करता । तो क्या इसे बच्चे की स्वतंत्रता पर पिता द्वारा अंकुश लगाना कहेंगे ? हर पिता यह कर रहा है। सरकार भी यही करती है। सरकार अपराधियों पर अंकुश क्यों लगाती है ?" प्रभुपाद अन्य समाचार भी जानना चाहते थे और तमाल कृष्ण गोस्वामी ने पेन्सिलवानिया में नए इस्कान फार्म तथा न्यू यार्क शहर में उपाहार गृह के बारे में बताया । ब्रह्मानंद स्वामी ने अफ्रीका में अपने नए फार्म के सम्बन्ध में बताया और उन्होंने तथा तमाल कृष्ण गोस्वामी ने बम्बई में हरे कृष्ण लैंड की गतिविधियों के बारे में अपनी धारणाएँ अभिव्यक्त कीं और विविध भारतीय भाषाओं में प्रभुपाद की पुस्तकों के प्रकाशनों में गोपाल कृष्ण द्वारा की गई प्रगति का उल्लेख किया। तमाल कृष्ण ने कहा, " तो अब ऐसा ही होने जा रहा है। वे संयुक्त राज्य की काँग्रेस में ऐसा कानून पास करवाना चाहते हैं कि यदि कोई संतान असामान्य हो तो उसके माँ-बाप को उसके मनोवैज्ञानिक उपचार का अधिकार होना चाहिए । चाहे संतान पचास वर्ष की हो और माँ - बाप सत्तर वर्ष के हों, यदि माँ-बाप हरे कृष्ण गाए आर सयप कर सोचते हैं कि संतान का दिमाग ठीक नहीं है तो संतान को मनोवैज्ञानिक उपचार के हवाले कर देने का उन्हें अधिकार है । " ने कहा, प्रभुपाद "यह बहुत खतरनाक है । " उन दोनों ने प्रभुपाद को उस एक भक्तिन के सम्बन्ध में बताया जिसका हवाई अड्डे में पुस्तकों का वितरण करते समय अपहरण कर लिया गया था । न्यायालय ने उस लड़की के माँ-बाप को कानूनी अधिकार दिया था कि वे उसे तीस दिन तक आरीजोना के उस विशेष केन्द्र में बंद रखें जिसका संचालन कृष्णभावनामृत के विरोधियों के हाथ में था । उन लोगों ने यह भी बताया कि अपहरण का समर्थन करने वाले विरोधियों में ईसाइयों और यहूदियों के ऐसे शक्तिशाली समुदाय सम्मिलित थे जो इसलिए सक्रिय हो उठे थे, क्योंकि वे देखते थे कि केवल कृष्णभावनामृत आन्दोलन ही नहीं, वरन् अन्य आन्दोलन भी, युवाजनों को उनके माँ-बाप के धर्म से अलग किए जा रहे थे । तमाल कृष्ण ने संकेत किया कि न्यू यार्क में चल रहे मुकदमे का एक संभाव्य परिणाम यह भी हो सकता है कि इस्कान को प्रामाणिक संस्था होने की मान्यता मिल जाय । अमेरिका में नागरिक अधिकारों के प्रतिरक्षकों को वैधानिक स्वतंत्रताओं पर मंडराते इस खतरे से बेचैनी हो रही थी और इसलिए इस मुकदमे में लोग बड़ी रुचि दिखा रहे थे। यह मुकदमा धार्मिक स्वतंत्रता के परीक्षण का मुकदमा बन गया था । तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को बताया कि उस दशक का यह सबसे बड़ा परीक्षण का मुकदमा था और अमेरिकन सिविल लिबर्टी यूनियन ने इसे अपनी मुख्य वरीयताओं में स्थान दे रखा था । ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा, “दो राज्यों ने कृष्णभावनामृत के प्रभाव को मिटाने वाले कार्यक्रमों को कानूनी जामा पहना दिया है। वे करों में भी छूट देते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसे कार्यक्रमों को सरकार समर्थन दे रही है । " प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, उन्हें डर है कि कृष्णभावनामृत के लोग सरकार पर अधिकार कर लेंगे ।" तमाल कृष्ण गोस्वामी ने सहमति जताई, “हाँ, उनमें से कुछ कह रहे हैं कि कृष्णभावनामृत संगठन बहुत शक्तिशाली है और हमारी आकांक्षा पूरे विश्व पर अधिकार जमाने की है । " श्रील प्रभुपाद हँस पड़े, “यह सही है। देखें क्या होता है। यह कृष्ण और दैत्य के बीच युद्ध का मामला है। हम अपना कर्त्तव्य करें और हरे कृष्ण जपें, हर चीज ठीक होगी। दैत्यों की संख्या बहुत अधिक है। प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के बालक थे और उनका पिता इतना बड़ा दैत्य था । तब भी प्रह्लाद महाराज विजयी रहे। उसी तरह आप सभी भी प्रह्लाद महाराज की तरह हैं । युद्ध चल रहा है। हरे कृष्ण जपें और कृष्ण पर निर्भर रहें। आप विजयी होंगे। नृसिंहदेव आएँगे । तो कृष्णभावनामृत का 'विष' अब कार्य कर रहा है। यह अच्छा है। यदि हम विजयी होते हैं तो यह एक महान विजय होगी।' जब वे वार्तालाप कर रहे थे, तभी बिजली चली गई, और प्रभुपाद का कमरा और शेष इमारत अंधकार में डूब गई। कुछ ही पलों में एक भक्त मिट्टी के तेल की लालटेन लिए हुए आया । प्रभुपाद याद करने लगे; वे बोले भारत में बिजली का प्रवेश - तब हुआ जब वे एक छोटे बालक थे। उन्होंने कहा कि प्रारंभ में हर घर के लोग बिजली नहीं लगवा सकते थे और यदि किसी व्यक्ति के घर में अच्छा गैस का प्रकाश होता था तो वह धनी समझा जाता था। उन्होंने बताया कि सड़कों में कार्बन की छड़ें लगाई जाती थी और जो आदमी इन्हें बदलता था वह इस्तेमाल की हुई छड़ों को सड़क में फेंक देता था और प्रभुपाद ने कहा, " 'जब कार्बन की छड़ें बदली जाती थी, वे फेंक देते थे और हम बच्चे फेंकी गई छड़ों को इकट्ठा किया करते थे । " तमाल कृष्ण ने पूछा, “आप उनका क्या करते थे ?" श्रील प्रभुपाद हँसने लगे और बोले, “खेलते थे— 'हमने कोई चीज इकट्ठी कर ली है।' तो बिजली हमारे जीवन में तब आई जब हम दस या बारह वर्ष के थे । " ब्रह्मानंद ने कहा, “तब भी आप पढ़ सकते थे। " प्रभुपाद ने कहा, "हाँ, लालटेन के प्रकाश में।" उन्होंने स्मरण से बताया कि उनके पिता लालटेनों के लिए मिट्टी का तेल खरीदा करते थे । उनके पिता धनवान नहीं थे। किन्तु सभी चीजें बड़ी मात्रा में खरीद कर और इकट्ठी करके वे अपने परिवार की जरूरतें पूरी किया करते थे। प्रभुपाद ने अंत में कहा कि उस समय जीवन सादा था, किन्तु सुसंस्कृत था । संन्यासियों ने प्रभुपाद को बताना आरंभ किया कि अर्जेन्टिना में किस तरह एक सैनिक अधिनायक ने सत्ता हथिया ली थी और उसने हरे कृष्ण आंदोलन पर सरकारी प्रतिबन्ध लगा दिया था। बीस हजार डालर मूल्य की पुस्तकें जब्त कर ली गई थीं और भक्तों को बंदी बना लिया गया था । अनेक अन्य लोग भी नियमित रूप से बंदी बनाए जा रहे थे या सड़कों में गोलियों से भूने जा रहे थे ।' हरे कृष्ण गाए आर सय कर प्रभुपाद ने कहा, “सर्वत्र स्थिति में गिरावट आ रही है । " ब्रह्मानंद ने जोड़ा, “बड़ी तेजी " बड़ी तेजी के साथ ।' श्रील प्रभुपाद : “ इससे कृष्णभावनामृत को बढ़ावा मिलेगा । यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानि: ' — निराश न हों, कृष्ण अपने इस आन्दोलन के माध्यम से कार्य करेंगे और इन राक्षसों को मारेंगे। यह कैसे होगा, इसे आप इस समय नहीं जान सकते। किन्तु यह होकर रहेगा। आइए, हम सच्चे सैनिक बने रहें । बस । और मान लीजिए, युद्ध में आप मारे जाते हैं। युद्ध का अर्थ है इस व्रत के साथ संघर्ष करना कि विजयी होंगे या मर जायँगे। क्योंकि यह माया के विरुद्ध युद्ध है। आप मरने से क्यों डरते हैं ? जब युद्ध होता है तो जानना चाहिए कि 'या तो मैं विजयी होने जा रहा हूँ या मरने ।' जीव वा मर वा । भक्तों के लिए जीना और मरना समान होता है। जब तक जीवन है वे कृष्ण की सेवा करते हैं, जब वे मरते हैं तब भी कृष्ण की सेवा करते हैं। जीव वा मर वा। त्यक्त्वा देहम् पुनर जन्म नैति माम् ऐति । मरने पर भक्त कृष्ण के परम धाम चला जाता है। तो क्षति किस बात की ? हम कृष्ण के लिए कार्य कर रहे हैं और यदि हम मरते हैं तो कृष्ण के पास चले जायँगे । तो हानि क्या है ?" । कुछ दिन बाद श्रील प्रभुपाद से मिलने के लिए आदि - केशव मायापुर पहुँचा । आदि - केशव केवल तेईस वर्ष का था और इन सारी बातों से उस में बड़ा तनाव पैदा हो रहा था। अपने वकील की राय के विरुद्ध वह निराश होकर प्रभुपाद से मिलने भारत आया था। मुकदमे की प्रारंभिक सुनवाइयों में वह कामकाजी सूट पहनता था और उसके बाल सामान्य ढंग से कटे थे । किन्तु अब प्रभुपाद के सामने वह मुण्डित सिर और केसरिया लिबास में प्रकट हुआ था । अन्य संन्यासी भी आ गए थे और सब प्रभुपाद का निर्देश प्राप्त करने के लिए उनके कमरे में इकट्ठे हो गए थे। प्रभुपाद ने आरंभ किया, “हमारा यह आन्दोलन मस्तिष्क की धुलाई नहीं है, प्रत्युत हम मस्तिष्क दे रहे हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि आप के पास मस्तिष्क या दिमाग होना चाहिए। तभी उसकी धुलाई का प्रश्न उठता १. जब-जब धर्म की हानि होती है। २. वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। भाल प्रभुपाद लालामृत है । किन्तु आप के पास दिमाग है ही नहीं। आप नहीं जानते कि यह जीवन क्या है। आप नहीं बता सकते कि एक मृत व्यक्ति और एक जीवित व्यक्ति में क्या अंतर है। आप के पास इतने बड़े-बड़े वैज्ञानिक और दार्शनिक हैं, किन्तु आप यह नहीं जानते। तो फिर आप में दिमाग है कहाँ ? सर्वप्रथम, अपने दिमाग का प्रमाण दो; तभी उसकी धुलाई का प्रश्न उठ सकता है। यह दिमाग की धुलाई नहीं है। यह हमारा आंदोलन दिमाग देने वाला है। दुर्भाग्य से आप के पास दिमाग नहीं है। इसीलिए आपको गलतफहमी है। इस बात की व्याख्या भगवद्गीता करती है। आप क्या समझते हैं, हम दिमाग की धुलाई कर रहे हैं या दिमाग दे रहे हैं ?" आदि-केशव ने कहा, “हाँ, यह बहुत अच्छा है ।" प्रभुपाद ने कहा कि भक्तों को आपस में विचार-विमर्श करना चाहिए और एक लेख लिख कर न्यायालय को भेज देना चाहिए। उनका मुख्य तर्क यह था कि अधिकांश लोग आत्मा के सम्बन्ध में अत्यन्त सामान्य सच्चाई को नहीं जानते। उन्हें ज्ञान की जरूरत है और कृष्णभावनामृत आंदोलन उन्हें आत्मा-विषयक जरूरी ज्ञान दे रहा है। अतएव, यह एक दिमाग देने वाला आंदोलन है। आदि-केशव ने विरोधियों की भूमिका ली। उसने कहा, "अच्छा, मेरे पास दिमाग है और वह कार्य कर रहा है। अन्यथा, मैं, इस समय आप से बात कैसे कर सकता था। मैं आप को उत्तर भी कैसे दे सकता था ?" प्रभुपाद ने कहा, “किन्तु यह बात करना और कुत्ते का भौंकना बराबर हैं। कुत्ता भौंक रहा है। अंतर क्या है ? वह एक भिन्न भाषा में बोल रहा है, बस इतनी ही बात तो है। कुत्ता भौंक रहा है और तुम बात कर रहे हो। अंतर क्या है ? " आदि- केशव ने कहा, “किन्तु वे कहते हैं, 'हमारे पास कला है, हमारे पास विज्ञान है ।' प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “तुम्हारे पास जो कुछ भी हो, तुम चरम प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते । " तर्कों का आदान-प्रदान होता रहा और कक्ष में उपस्थित अन्य भक्तों ने भी प्रभुपाद के तर्क को चुनौती दी। किन्तु प्रभुपाद अपने तर्क पर अटल रहे । यदि कोई व्यक्ति मृत और जीवित मनुष्य में अंतर नहीं कर सकता, यदि उसे आत्मा का ज्ञान नहीं है तो उसके पास दिमाग नहीं है। जब भक्तों ने शास्त्र में विश्वास की बात उठाई तो प्रभुपाद ने कहा कि वे शास्त्र के आधार पर दलील नहीं दे रहे थे, प्रत्युत तर्क के आधार पर बोल रहे थे। भक्त जो भी दलील देते, प्रभुपाद उसका जोरदार खण्डन करते । जब प्रभुपाद अपने लोगों को अभ्यास करा रहे थे कि किस प्रकार आक्रामक दलीलों से बचाव पक्ष प्रस्तुत किया जाता है, उस समय उनमें बीमारी या कमजोरी का लेशमात्र भी लक्षण नहीं था । है ।' आदि - केशव ने कहा, " वे कहते हैं कि यह बहस हमारी समझ से ऊपर श्रील प्रभुपाद बोले, “यदि तुम इसे अपनी समझ से ऊपर बताते हो तो इसका मतलब यह है कि तुम्हारे पास दिमाग नहीं है । " प्रभुपाद के साहचर्य से आदि - केशव में शक्ति और विश्वास उत्पन्न हुआ । आदि - केशव ने कहा, "उनकी शिकायत है कि यदि वह भक्त बन जाता है तो वह अपनी पहचान खो देता है। किन्तु वास्तव में वे नहीं जानते कि वे कौन हैं। हम उन्हें इसी तरह चुनौती देंगे कि पहचान खोने का क्या तात्पर्य है? तुम तो यह भी नहीं जानते कि तुम क्या हो । अतः तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है । " प्रभुपाद ने उत्साह से भर कर कहा, “हाँ, तुम्हारी पहचान क्या है ? तुम तो यह भी नहीं जानते। हम तुम्हें सिखा रहे हैं कि इस शरीर से अपना तादात्म्य करके तुमने अपनी पहचान खो दी है । ' आदि - केशव ने कहा, "उनके अधिकांश अभियोग हमारे आंदोलन के विषय में उनकी भ्रान्त धारणा पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए, वे कहते हैं कि हम पर्याप्त खाते नहीं या सोते नहीं । किन्तु उनके अपने वैज्ञानिकों के अध्ययनों से यह सिद्ध है कि हमारा भोजन अच्छा है । " श्रील प्रभुपाद : “यदि हमारा भोजन अच्छा नहीं है तो हम जीवित कैसे हैं ? दस वर्षों से हम अपर्याप्त भोजन कर रहे हैं ? तो हम जी कैसे रहे हैं ? तुम लोग नहीं जानते कि अच्छा भोजन क्या है, किन्तु परिणाम तुम्हें जानना है। एक गाय इतनी अधिक घास खाती है और एक मनुष्य प्लेट- भर थोड़ा-सा भोजन करता है। यदि गाय कहे, 'तुम मेरे समान पर्याप्त भोजन नहीं करते' तो क्या यह बात तर्क-संगत होगी ?" आदि - केशव ने कहा, "नहीं, यह तर्क-संगत नहीं होगी । " प्रभुपाद : " तो तुम लोग बिल्कुल गायों और गधों की तरह हो। तुम लोग पेटू की तरह खाते हो तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि मैं भी पेटू की तरह खाऊँ ?" तमाल कृष्ण गोस्वामी ने पूछा, “किन्तु प्रमाण क्या है ? वे लोग आत्मा का प्रमाण माँग सकते हैं । " । श्रील प्रभुपाद ने कहा, " प्रमाण यह है । यदि सक्रिय तत्व शरीर को छोड़ कर चला गया है, और यदि आप उसे समझते हैं, तो उसका स्थानापन्न ढूँढ लीजिए। यदि आप ऐसा नहीं कर सकते तो आप के पास दिमाग नहीं है।” प्रभुपाद ने दलील दी कि मृत्यु के समय, यद्यपि शरीर के अंग बने रहते हैं, किन्तु किसी चीज का अभाव हो जाता है। " तमाल कृष्ण ने कहा, “ किन्तु आपने उस चीज को देखा नहीं है।" प्रभुपाद ने कहा, “देखो चाहे न देखो। मैं देख सकता हूँ। यह व्यक्ति मृत क्यों है ? कोई चीज गायब हो गयी है । " तमाल कृष्ण ने कहा, "अच्छा, तो यह एक मशीन की तरह है । " श्रील प्रभुपाद आग-बबूला हो गए। “एक मशीन का स्थापन्न तुम ला सकते हो। तुम एक नया शरीर लाकर उसे मृत शरीर का स्थानापन्न क्यों नहीं बना लेते ? अत: तुम्हारे पास दिमाग नहीं है। यह एक बिल्कुल भिन्न चीज है ।" प्रभुपाद ने कहा कि आत्मा सम्बन्धी इस विचारधारा को न्यायालय में प्रस्तुत करना चाहिए। उन्होंने कहा, "वह बहुत मनोरंजक होगी। मुकदमा लम्बा खिंचेगा और हम अपना सम्पूर्ण दर्शन खोल कर रख सकते हैं। क्या मैं ठीक नहीं कह रहा हूँ ? गंभीरतापूर्वक बार- बार सोचो और संघर्ष करो । उन्हें बताओ। 'तुम्हारा देखना क्या है ? तुम लोग इस दीवार के उस पार नहीं देख सकते । तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि उधर कुछ नहीं है ? अपने देखने पर ही निर्भर क्यों रहते हो ? तुम बिल्कुल बिना दिमाग के हो रहे हो ।' मैं तो इसे अपना पूरा दर्शन समझाने का एक अच्छा अवसर मानता हूँ। इसे अन्यथा न लो । प्रत्युत इस मामले में अपने को पूर्ण योग्य सिद्ध करो। यह परीक्षा का मुकदमा है।” भक्तों ने प्रभुपाद को बताया कि किस तरह आलोचक श्रीमद्भागवत की खोजबीन कर रहे हैं और भक्तों के दर्शन के आधार में दोष निकालने का प्रयत्न कर रहे हैं। प्रभुपाद के इस वक्तव्य पर उन्हें न्यायालय में दी गई थी कि मनुष्य चन्द्रमा पर नहीं गया है। चुनौती श्रील प्रभुपाद ने कहा, "मैं स्वयं तुम लोगों के साथ वहाँ नहीं गया, तो मैं कैसे विश्वास कर सकता हूँ ? व्यावहारिक दृष्टि से मैं वहाँ नहीं गया। वे कुछ केवल कुछ समाचार हैं, तो मैं उन्हें कैसे स्वीकार कर सकता हूँ ? समाचार-पत्रों पर विश्वास करते हैं। बस यही तो है। तो हम कुछ वैदिक साहित्य पर विश्वास क्यों न करें। वैदिक साहित्य इतना प्रामाणिक है। आचार्यों ने उसे स्वीकार किया है ।' आगे भक्तों ने इस विषय में वार्तालाप आरंभ किया कि अभिभावक और कृष्णभावनामृत के विरोधी किस तरह शक्ति का प्रयोग उचित बताते हैं । तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, “इसमें न्यायालय में असली मुद्दा घनाच्छादित हो जाता है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का माँ - बाप के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील होना स्वाभाविक है । " श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "हमारे शास्त्र से उद्धरण क्यों नहीं देते कि वह पिता पिता नहीं है। पिता न स स्यात् — इस श्लोक को ढूँढो ।' प्रद्युम्न ने दराज में से पुस्तक निकाली और कुछ ही पलों में उस श्लोक पर अंगुली रख दी। उसने पढ़ा- ' गुरुर न स स्यात् स्वजनो न स स्यात्, पिता न स स्याज् जननी न स स्यात् / दैवम् न तत स्यात् न पतिश च स स्यानू, न मोचयेद् यः समुपेत- मृत्युम् । अर्थात् जो अपने आश्रितों का गुरु होने बारंबार के जन्म और मृत्यु से उद्धार नहीं कर सकता वह न तो के योग्य है, न पिता, न पति, न माता न उपास्य देव । प्रभुपाद ने पूछा, “तो वह पिता कैसे बन सकता है? इसका तात्पर्य क्या है ?" आदि- केशव स्वामी : " वे कभी कभी तर्क देते हैं कि...' प्रभुपाद बीच में बोले, “तुम अपनी बात की दलील दोगे, लेकिन हमारी बात अपनी जगह है। हम अपने दृष्टिकोण से दलील देंगे। जब तक कि पिता अपने पुत्र को जन्म - मृत्यु के चक्र से नहीं छुड़ाता, तब तक वह पिता नहीं है । " "यदि तुम श्रील प्रभुपाद कभी चूकते नहीं थे, उन्होंने निष्कर्ष में कहा, किसी दुष्ट को सत्परामर्श देने का प्रयत्न करो तो वह क्रुद्ध होता है। तो स्थिति कुछ ऐसी ही है। तब भी हमें अपना काम करना है। और हो भी क्या सकता है ? काम कठिन है। इसलिए यदि तुम कृष्ण को अति शीघ्रतापूर्वक प्रसन्न करना चाहते हो तो उपदेश के लिए संघर्ष करो : इदम् परमम् गुह्यम् मद्- भक्तेश्व भिधास्यति । तो कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए हमें अपना कार्य करना है । यही हमारा लक्ष्य है। जितनी भी बाधाएँ आएँ, हमें अपना कार्य करना है। मूढोऽयम् नाभिजानाति लोको माम् अजम् अव्ययम् । * वे सब मूढ़ हैं। तो हम उन्हें कुछ पाठ पढ़ाने में लगे रहे हैं । " बाद में श्रील प्रभुपाद ने एकान्त में और अधिक विस्तार से आदि - केशव स्वामी से बातें की। प्रभुपाद ने कहा, "लोगों ने मुझे बताया था कि तुमने बाल बढ़ा लिए थे।" आदि - केशव ने स्वीकार किया कि बात ऐसी ही थी, परन्तु अब आगे उसे ऐसा नहीं करना है। उसने कहा कि वह न्यायालय में गर्व के साथ जाना चाहता था और कहना चाहता था कि मैं प्रभुपाद का पुत्र हूँ और भक्त होने पर मुझे गर्व है । प्रभुपाद ने कहा कि यह उनकी भी इच्छा थी कि आदि - केशव न्यायालय में एक संन्यासी की वेशभूषा में जाय और हाथ में संन्यास - दण्ड लिए रहे। उसे तिलक लगाना चाहिए और सिर मुड़ा रखना चाहिए और धर्मोपदेश भी करना चाहिए । श्रील प्रभुपाद ने उसे बताया कि किस प्रकार लोगों ने उन्हें परामर्श दिया था कि अमेरिका में पहले पहल जाने पर उन्हें पाश्चात्य वेशभूषा धारण करनी चाहिए थी । आदि - केशव को हाल में ही प्रभुपाद के पत्र मिले थे, किन्तु इस समय प्रभुपाद उसे प्रत्यक्ष कह रहे थे कि वह सभी पुस्तकें न्यायालय में ले जाय और उन्हें साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करे। उसे साहसपूर्वक धर्मोपदेश करना चाहिए । आदि - केशव ने उल्लेख किया कि भारतीय दूतावास के एक अधिकारी ने उसे बताया था कि यदि आवश्यक हुआ तो भारत सरकार उसे शरण देगी। श्रील प्रभुपाद को यह सुन कर प्रसन्नता हुई। जब आदि - केशव ने स्वीकार किया कि कभी-कभी लम्बे कानूनी संघर्ष में वह हतोत्साह और अकेला अनुभव करता था तो प्रभुपाद ने कहा कि वह अपनी मदद के लिए अन्य लोगों को साथ ले जा सकता था । किन्तु आदि- केशव को मुख्य सहायता श्रील प्रभुपाद से चाहिए थी । वह प्रभुपाद की कृपा चाहता था। और प्रभुपाद ने, एक पिता के समान, अपने युवा और एक तरह *अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं मूर्ख और बुद्धिरहित मनुष्य के लिए प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिए अज्ञानी संसार मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्मा को तत्व से नहीं जानता है । ( भगवद्गीता ७.२५ ) से कृश - काय पुत्र को, जो युद्ध में जा रहा था, ढाढ़स और प्रोत्साहन दिया । प्रभुपाद ने कहा — भयभीत मत होना । वे बार-बार आदि - केशव को अधिक से अधिक अनुग्रह देने के लिए अपने कक्ष में बुलाते रहे। कभी वे उसे एक नयी तार्किक दलील बताते तो कभी निर्देश देते कि उसे न्यायालय में कैसे व्यवहार करना है । प्रभुपाद का सारभूत उपदेश, जिससे आदि - केशव अब अवगत और आश्वस्त हो चुका था, यह था कि उसे धर्मोपदेश करना चाहिए; कृष्ण उसकी रक्षा करेंगे। प्रभुपाद के सचिव के रूप में तमाल कृष्ण ने सत्स्वरूप का स्थान लिया । सत्स्वरूप की ड्यूटी के अंतिम दिन बड़े सवेरे श्रीमद्भागवत के श्लोकों और उनका तात्पर्य लिखाने के बाद श्रील प्रभुपाद ने उसे अपने कक्ष में बुलाया और कहा कि नाश्ते के लिए वे ककड़ी, भीगी हुई मूंग की दाल और फल चाहते हैं। उन्होंने बताया कि उन्होंने कुछ श्लोकों और उनके तात्पर्यो का डिक्टेशन अभी समाप्त किया था जिनमें आत्मा के देहान्तरण का वर्णन है। उन्होंने टेप को वापस घुमा कर डिक्टेशन को सुना था जिसमें कृष्ण के पिता वसुदेव, कंस को दार्शनिक तर्क देकर, आत्मा की नित्यता के सम्बन्ध में आश्वस्त करने का प्रयत्न करते हैं। वसुदेव का तर्क था कि मृत्यु के समय आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में चला जाता है, ठीक वैसे ही जैसे सड़क में चलते समय हम एक पाँव दूसरे पाँव के सामने रखते चलते हैं। और यह सुनते समय प्रभुपाद ने इसका प्रदर्शन श्रुत - लेखन - यंत्र पर दो उंगलियाँ "चला कर" किया। प्रभुपाद का डिक्टेशन आगे चलता रहा : वर्तमान समय में हरे कृष्ण आन्दोलन का बड़ा विरोध हो रहा है जिसे “ मस्तिष्क की धुलाई वाला" आंदोलन कहा जा रहा है। किन्तु, वास्तव में, पाश्चात्य देशों के तथाकथित वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और अन्य नेताओं के पास मस्तिष्क है ही नहीं । हरे कृष्ण आन्दोलन ऐसे मूर्ख व्यक्तियों की बुद्धि का उन्नयन करके उन्हें उठाने का प्रयत्न कर रहा है जिससे वे अपने मनुष्य शरीर का लाभ उठा सकें। वे हरे कृष्ण आंदोलन दुर्भाग्य से, नितान्त अज्ञान के वश में होने के कारण, को “ मस्तिष्क की धुलाई करने वाला” आन्दोलन समझते हैं। वे नहीं जानते कि भगवत् - चेतना के बिना, व्यक्ति को देहान्तरण की प्रक्रिया जारी रखने को मजबूर होना पड़ता है। अब वे ही तर्क जिन्हें प्रभुपाद ने संन्यासियों को सुनाया था भक्तिवेदान्त - तात्पर्यो में अमरत्व प्राप्त कर रहे थे। भविष्य में, जब कोर्ट का मुकदमा समाप्त हो चुका होगा और उसके सम्बन्ध में लोग अधिकांश में भूल गए होंगे, प्रभुपाद द्वारा किया गया परिस्थिति का मूल्यांकन बना रहेगा । २२ फरवरी को एक एयर इण्डिया हवाई जहाज, बोईंग ७४७ से, तीन सौ पचास भक्त कलकत्ता के डमडम हवाई अड्डे पर पहुँचे। यह विशेष उड़ान थी, जिसमें सभी भक्त थे और जो लास एंजिलिस से चल कर न्यू यार्क और लंदन रुकती हुई और कुछ और भक्तों को लेती हुई कलकत्ता पहुँची थी । कलकत्ता में उतरने वाली यह बोईंग ७४७ की पहली उड़ान थी, इसलिए कलकत्ता के मेयर, सैनिक अधिकारी, एयर इण्डिया के प्रमुख अधिकारी, तथा संचार माध्यमों के लोग इस ऐतिहासिक उड़ान का स्वागत करने के लिए मौजूद थे। भक्तों में से एक ने एक सम्वाददाता को बताया कि बोईंग ७४७ पश्चिम से कलकत्ता आने वाला हवाई जहाज भगवान् चैतन्य और श्रील प्रभुपाद का अनुग्रह था । तदनन्तर दस बसों में भर कर भक्तजन मायापुर के लिए रवाना हुए। शीघ्र ही मायापुर चन्द्रोदय मंदिर दिव्य कार्यकलापों से गूँजने लगा; गौर - पूर्णिमा उत्सव धूमधाम से आरंभ हो गया। न्यू यार्क के वैकुण्ठ अभिनेताओं ने संध्या समय रामायण का मंचन किया, और प्रभुपाद उस समय उपस्थित थे। दर्शकों ने नाटक देखा और जितनी प्रशंसा उन्होंने श्रील प्रभुपाद की की गई लगभग उतनी ही नाटक की भी की गई। पण्डाल के उद्घाटन - दिवस पर रात को सरकार के एक मंत्री ने उत्सवों का औपचारिक तौर पर उद्घाटन किया। उसने एक फीता काटा और नए भवन का उद्घाटन किया। मंत्री और प्रभुपाद साथ-साथ पहिली मंजिल के लम्बे गलियारे को पार करते हुए एक चित्र प्रदर्शनी देखने गए जिसमें संसार - भर के इस्कान केन्द्रों के चित्र दिखाए गए थे। गलियारे के बीचोंबीच प्रभुपाद एक स्थान पर खड़े हो गए और अपना सिर हिलाते हुए उन्होंने कहा, " यह सब समझ में नहीं आने वाला है।" मंत्री भी, जिस विशाल स्तर पर गौड़ीय वैष्णव धर्म का प्रचार हो रहा था, उससे चकित था । उसके बाद श्रील प्रभुपाद और उनके अतिथि मंच पर गए। मंत्री ने उद्घाटन भाषण दिया जिसमें उसने एक सुप्रसिद्ध निर्विशेषतावादी स्वामी का गुणगान किया और उसे एक दैवी अवतार बताया। उसने यह कह कर भगवान् चैतन्य के नाम का अपमान भी किया कि वह नहीं जानता था कि चैतन्य एक अवतार थे अथवा नहीं, अथवा नहीं, किन्तु वह इतना जानता था कि उन्होंने संसार के लिए अच्छा काम किया है। उसके बाद प्रभुपाद का भाषण हुआ जिसमें उन्होंने शास्त्रीय साक्ष्य के आधार पर मंत्री द्वारा अपने भाषण में व्यक्त किए गए गलत मत को सही किया। श्रील प्रभुपाद बंगाली में बोले जिसे उनके अधिकांश शिष्य नहीं समझ सके, किन्तु वे उसका सारांश समझ सकते थे। बाद में, जब प्रभुपाद कुछ शिष्यों के साथ अपने कक्ष में बैठे थे तो वे हँसने लगे। बाएँ हाथ की हथेली पर घूंसा चटकाते हुए उन्होंने कहा, “मैंने उसे ध्वस्त कर दिया । " गौर - पूर्णिमा को अब केवल एक सप्ताह रह गया था; हजारों बंगाली तीर्थयात्री हर रात इस्कान केन्द्र में आने लगे थे। वे पंक्तिबद्ध होकर मंदिर कक्ष में कीर्तन और राधा-माधव के दर्शन के लिए जाते और उसके बाद इस्कान की चित्र प्रदर्शनी देखने जाते थे । यह मायापुर में अभी तक आयोजित उत्सवों में सब से बड़ा उत्सव था। अमेरिका में विरोध के बावजूद भगवान् चैतन्य का आंदोलन विश्व को संकीर्तन की तरंगों से आप्लावित कर रहा था और प्रत्येक महाद्वीप से ५०० से अधिक भक्तों का यह मेला इस बात का सशक्त प्रमाण था कि विकासशील कृष्णभावनामृत आंदोलन का स्वास्थ्य ठीक था । रामेश्वर स्वामी प्रभुपाद की पुस्तकों के उत्पादन का सबसे ताजा समाचार लेकर वापस आए। केवल अंग्रेजी भाषा में श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों की ४,३४,५०,५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई थीं। और तेईस भाषाओं में, जिनमें रूसी भी सम्मिलित थी, प्रभुपाद की प्रकाशित पुस्तकों की कुल संख्या ५,५३,१४,००० थी। इनमें से नब्बे प्रतिशत से अधिक पुस्तकें बिक चुकी थीं । रामेश्वर ने प्रभुपाद को अभी-अभी प्रेस से छप कर आई हुई एक नई पुस्तक की प्रति भी भेंट की; वह थी श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध भाग १ की प्रति । राधावल्लभ ने सूचना दी कि भगवद्गीता यथारूप का अगला संस्करण इतना विशाल होगा कि उसे छापने के लिए आवश्यक कागज रेलगाड़ी के ७६ डिब्बों में ले जाना पड़ेगा। इस आश्चर्यजनक संख्या पर प्रभुपाद और भक्तजन हँस पड़े । प्रभुपाद ने भक्तों को उनके कठिन परिश्रम के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा, "यह मेरे गुरु महाराज का आशीर्वाद है। उनकी यही इच्छा थी। और चूँकि हम उसे पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए वे हमें आशीर्वाद दे रहे हैं। " श्रील प्रभुपाद बहुत सक्रिय बने रहे : वे भक्तों को प्रोत्साहित करते रहे, लिखते रहे और धर्मोपदेश करते रहे। किन्तु जब बसों में भर कर भक्त पहुँचे, उसके तुरन्त बाद वे पुनः बहुत बीमार हो गए। उनका व्यस्त कार्यक्रम भार बन गया, किन्तु वे उसे चलाते रहे । जी.बी.सी. के लोगों ने अपनी त्रिदिवसीय वार्षिक बैठक प्रारंभ की और हर शाम को वे प्रभुपाद से मिलते थे। प्रभुपाद उनके प्रस्ताव सुनते थे और कुछ संशोधनों के बाद उन्हें स्वीकृति दे देते थे। जी. बी. सी. की सूची में अंतिम प्रस्ताव था कि प्रभुपाद की बीमारी को देखते हुए समस्त इस्कान मंदिरों में चौबीस घंटे का कीर्तन हो । भक्तों ने १९७४ ई. में भी ऐसा ही किया था, जब प्रभुपाद बीमार पड़े थे। प्रभुपाद ने जब प्रस्ताव सुना तो उन्होंने कहा, “हाँ, कीर्तन ही समस्त रोगों की ओषधि है। गौर - पूर्णिमा पर श्रील प्रभुपाद ने दो सौ से अधिक शिष्यों को प्रथम दीक्षा दी और एक सौ शिष्यों को दूसरी बार दीक्षित किया। सामने के द्वार से भारी संख्या में लोग दिन भर आते रहे; और चार बजे अपराह्न से देर रात तक सड़कें भीड़ से भरी होती थीं और विशाल श्रोता - मण्डलियाँ कीर्तनों की ओर खिंची चली आती थीं । तीसरे पहर, श्रील प्रभुपाद से मिलने बंगाल के गृह मंत्री, तरुण कान्ति घोष, आए; वे राज्य के पुलिस दल के भी प्रभारी थे। प्रभुपाद ने अपने कक्ष में उनसे वार्तालाप किया और उन्हें इस्कान और कृष्णभावनामृत - दर्शन के बहुत अनुकूल पाया। श्रील प्रभुपाद ने, उत्सव के दूसरे भाग के लिए कुछ भक्तों के साथ वृंदावन जाने की बजाय, मायापुर में ठहरे रहने का निर्णय किया था; इसलिए प्रस्थान के पूर्व कुछ प्रमुख शिष्य उन्हें प्रणाम करने के लिए उनके कक्ष में आए। जब हरिकेश और आदि - केशव स्वामी उनके कमरे में एकसाथ प्रविष्ट हुए तो प्रभुपाद ने हरिकेश से कहा कि चूँकि साम्यवादी देशों के लोग इतने अधिक कष्ट भोग रहे हैं, इसलिए उनकी पुस्तकें उन्हें बिना मूल्य दी जायँ । आदि-केशव की ओर मुड़ते हुए उन्होंने कहा कि आदि-केशव के दुर्बल कंधों पर उन्होंने बहुत भारी जिम्मेदारी डाल दी है, किन्तु उसे विजयी होना चाहिए। उन्होंने कहा, “तो तुम हरिकेश और आदि - केशव हो, अर्थात् केश बंधु । अतः जाओ और प्रचार करो । सफलता प्राप्त करो। " श्रील प्रभुपाद ने इसी तरह जी. बी. सी. के अन्य लोगों से प्रेमपूर्वक वार्ता की जो संसार के विभिन्न भागों में अपने निर्धारित कार्यों के लिए प्रस्थान कर रहे थे । कुछ ही दिनों में मायापुर पुनः शान्त हो गया; वहाँ बाहर से आए केवल थोड़े से भक्त रह गए। लगभग दो सप्ताह बाद, जब श्रील प्रभुपाद अभी मायापुर में ही थे, न्यू यार्क के न्यायालय का निर्णय टाइम्स आफ इंडिया के मुख पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। उसे प्राप्त करते ही, तमाल कृष्ण गोस्वामी उसकी एक प्रति प्रभुपाद के कमरे में ले आया और उनके अनुरोध पर जोर से पढ़ने लगा । वाशिंगटन, मार्च १८ हरे कृष्ण आन्दोलन वैध धर्म है कल न्यू यार्क उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने हरे कृष्ण आन्दोलन को वैध घोषित किया और उसके अधिकारियों के विरुद्ध इन दो आरोपों को निरस्त कर दिया कि वे " अवैध बन्दीकरण" और " प्रयत्नसाध्य बलात् ग्रहण" के दोषी हैं। यह आरोप एक क्रुद्ध पिता की ओर से लगाया गया था कि उनके पुत्र तथा एक अन्य शिष्य को इस आन्दोलन ने, अवैध रूप से अपहृत करके, उनके मस्तिष्क की धुलाई की थी। न्यायमूर्ति ने आरोपों को निरस्त करते हुए कहा, “न्यायालय के समक्ष पूरा और मूल मुद्दा यह है कि क्या इस मामले के दोनों तथाकथित पीड़ितों और प्रतिवादियों को अपनी पसंद का धर्म पालन करने की अनुमति होनी चाहिए या नहीं, और इस प्रश्न का उत्तर जोरदार सकारात्मक है। न्यायमूर्ति जॉन लीही ने कहा, “हरे कृष्ण आंदोलन वैध धर्म है जिसकी जड़ें भारत में हजारों वर्ष पूर्व से जमी हुई हैं। मेरिल क्रेशोवर और एडवर्ड शेपिरो के लिए उचित था कि वे उस मत के नियमों का पालन करें और ऐसा करने के उनके अविच्छेद्य अधिकार से उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता । चर्च और राज्य की पृथकता को अवश्य बनाए रखना है। हमें कानूनों का राष्ट्र बने रहना है, व्यक्तियों का नहीं। ग्रैंड जूरी का अभियोग और बयान प्रतिवादियों के वैधानिक अधिकारों का खुला हनन था ।" न्यायमूर्ति ने कहा, "न्यायालय को प्रतीत हुआ कि लोग अपने मुकदमे को एक छोटे से भ्रामक मुद्दे पर आधारित करके गलत निर्णय छोटे-से पर पहुँचते हैं। अभिलेखों से किसी भी प्रतिवादी पर एक भी भ्रामक कथन का अथवा धोखाधड़ी का स्पष्ट दोषारोपण सिद्ध नहीं होता ।" न्यायमूर्ति ने कहा, "धर्म की स्वतंत्रता इसलिए कम नहीं की जा सकती कि इसके विश्वास तथा प्रथाएँ रिवाज के विरुद्ध हैं या कि समाज, अथवा अधिक परम्परागत धर्मों द्वारा इसे स्वीकार अथवा अस्वीकार किया जाता है। ईश्वर - प्राप्ति की खोज में अपने अंतःकरण के भावों के पालन की स्वतंत्रता के बिना संविधान में दी गई धर्म की स्वतंत्रता अर्थहीन हो जायगी। उसमें हस्तक्षेप का प्रयत्न, चाहे वह प्रत्यक्ष हो अथवा अप्रत्यक्ष, सद्भाव से प्रेरित हो अथवा नहीं, धर्म की स्वतंत्रता के लिए साक्षात् और सीधा खतरा है— उस धर्म की स्वतंत्रता के लिए जो नागरिकों का शाश्वत अपेक्षित अधिकार है।" हरे कृष्ण आन्दोलन पर कई वर्गों के लोग दबाव डालते रहे हैं: अत: इस निर्णय से आशा की जाती है कि हाल के महीनों में इसे जिस उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है, वह बंद हो जायगा । श्रील प्रभुपाद ने कहा, "मेरा मिशन अब सफल हुआ है। मैं १९६५ ई. में यहाँ आया था। बारह वर्षों बाद अब इसे मान्यता मिल रही है। मैं अकेले, अपनी पुस्तकें लिए सड़कों पर भटक रहा था। किसी को मेरी चिन्ता नहीं थी । " स्वरूप दामोदर वहाँ उपस्थित था और उसने प्रभुपाद से भक्तिवेदान्त इंस्टीट्यूट और मायापुर में धर्मोपदेश के सम्बन्ध में बातचीत की। और अन्य मामले भी प्रभुपाद के सामने लाए गए। किन्तु वे बार-बार न्यू यार्क से प्राप्त समाचार की चर्चा करते रहे। प्रभुपाद ने कहा, "हमारे लिए सबसे शुभ लक्षण यह है— हरे कृष्ण आंदोलन वैध धर्म है । ' श्रील प्रभुपाद की योजना बम्बई जाने की थी । तमाल कृष्ण गोस्वामी ने बताया कि बम्बई में बहुत सारे वरिष्ठ शिष्य इकट्ठे हो रहे थे। वे वृंदावन से वहाँ गए थे और प्रभुपाद की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रभुपाद ने कहा, "इसलिए मैं जा रहा हूँ। अपनी सारी असुविधाओं के बावजूद मैं वहाँ जा रहा हूँ।” तमाल कृष्ण ने पूछा, 'आप बम्बई में रुकना चाहते हैं ? कब तक ?" प्रभुपाद बोले, "मैं कहीं भी रुकना नहीं चाहता। मैं कार्य करना चाहता हूँ। रुकना —— मैं बड़ी-बड़ी इमारतों में, बड़े-बड़े नगरों में रुक चुका हूँ। अब मुझे अन्य कोई इच्छा नहीं है, अतिरिक्त कार्य करने की तमाल कृष्ण ने पूछा, “आप बम्बई में कब तक काम करना चाहते हैं ? " श्रील प्रभुपाद ने कहा, 'जब तक वहाँ काम है। इस का कोई अन्त नहीं है । बम्बई का कार्य व्यवस्थित होना है। कार्य ही हमारा जीवन है। कब तक का प्रश्न ही नहीं है। जब तक संभव हो। कृष्ण हमें सुअवसर दे रहे हैं। हमें गंभीरतापूर्वक उनका उपयोग करना चाहिए। यह हँसी-मजाक नहीं है । — 'हरे कृष्ण आन्दोलन वैध धर्म है ।' प्रभुपाद की उपस्थिति में भक्तों ने न्यायालय के निर्णय के महत्त्व पर विचार-विमर्श किया। उन्होंने न्यायमूर्ति की भी सराहना की और कहा कि न्याय विभाग का वह एक वरिष्ठ सदस्य था और अनुदार माना जाता था। श्रील प्रभुपाद ने कहा कि उसे एक बधाई का पत्र भेजा जाना चाहिए, “सही निर्णय के लिए ईश्वर आप का भला करे। ईश्वर की सेवा के लिए आप को लम्बी आयु मिले । " स्वरूप दामोदर ने कहा, "ईमानदार और सत्यनिष्ठ लोग आमतौर से हमारे आन्दोलन की सराहना करते हैं। केवल वही लोग जो ईष्यालु हैं ... ।” प्रभुपाद बीच में बोल पड़े, “ ईर्ष्यालु लोगों की हम चिन्ता नहीं करते। कभी भी चिन्ता नहीं करते। मैने चिन्ता नहीं की— कई बार — मेरे गुरु भाई भी नहीं करते। मैं अपना काम करता रहूँगा । चिन्ता क्यों ? हम अपना कर्त्तव्य कर रहे हैं, बस । उच्चतर आधिकारिक आदेश से। किसी का डर न मानें। हम अपनी इच्छापूर्ति के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। अतएव मणिपुर के लिए व्यवस्था करें। हम वहाँ जायँगे । ' स्वरूप दामोदर ने कहा कि वह दिल्ली जाएगा और प्रवेश-पत्र प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करेगा। किन्तु यह कठिन होगा, क्योंकि बहुत से विदेशियों को मणिपुर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी । उसने कहा कि अपना कार्य कर लेने के बाद वह बम्बई पहुँचेगा और प्रभुपाद से मिलेगा । प्रभुपाद ने कहा, “अब कड़ा परिश्रम करो। तुम सभी नवयुवक हो । और जैसे भी हो, तुम लोगों ने एक मरे घोड़े में जान डाल दी है। विगत पखवारे में मैं सोच रह था कि मैं मर गया। मैं कुछ इस तरह सोच रहा था— अब जीवन समाप्त हो गया है। मेरा अंत कभी भी हो सकता है—यह आश्चर्यजनक नहीं होगा। जीना आर्श्वजनक होगा । मेरा जीवन समाप्त हो गया है, यह आश्चर्यजनक नहीं है; कोई विलाप नहीं करेगा – 'ओ, वह एक वृद्ध व्यक्ति था, बयासी वर्ष का वृद्ध ।' किन्तु यदि मैं कुछ दिन और जीवित रहूँ तो वह आश्चर्यजनक होगा । यदि में मर जाता हूँ तो वह आश्चर्यजनक नहीं है । ' तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, "कृष्ण आश्चर्यजनक हैं। " प्रभुपाद ने कहा, “कृष्ण सदैव आश्चर्यजनक हैं। " भावानंद गोस्वामी ने कहा, “आप आश्चर्यजनक हैं ।' श्रील प्रभुपाद ने कहा, “मैं आश्चर्यजनक हूँ, जब तक मैं कृष्ण की सेवा करता हूँ। अन्यथा, मैं व्यर्थ हूँ, मेरा कोई मूल्य नहीं है। यदि मैं कृष्ण की सेवा कर सकूँ तो निश्चय ही मैं आश्चर्यजनक हूँ । श्रील प्रभुपाद बराबर कहते रहे कि कृष्ण सबसे अधिक आश्चर्यजनक हैं और कुछ भी कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि कृष्ण के आश्चर्यजनक होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मैं अब भी जीवित हूँ और सक्रिय हूँ। उन्होंने कहा, “यदि कृष्ण आश्चर्यजनक न होते, तो क्या यह संभव था कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह कर पाता ? मैं कौन हूँ? हम सस्ते ढंग से आश्चर्यजनक होना नहीं चाहते। हम कृष्ण की सेवा करके वास्तव में आश्चर्यजनक होना चाहते हैं । यही हमारा मिशन है। कृष्ण आश्चर्यजनक हैं, निस्सन्देह । कृष्ण से अधिक आश्चर्यजनक कौन हो सकता है ? मत्तः परतरं नान्यत् । सदैव स्मरण रखो कि कृष्ण आश्चर्यजनक हैं। कृष्ण को तुच्छ मत समझो — अपने में से किसी एक जैसा - यह मूर्खता है। कृष्ण सदैव आश्चर्यजनक हैं । वे सबसे अधिक आश्चर्यजनक व्यक्ति हैं । और वे कोई भी आश्चर्यजनक कार्य कर सकते हैं । " श्रील प्रभुपाद अमरीकी न्यायमूर्ति अमरीकी न्यायमूर्ति के निर्णय के विषय में प्रशंसापूर्ण टिप्पणियाँ करते रहे। उन्होंने कहा कि उन्हें डर था कि केस चौदह वर्ष ले लेगा, किन्तु उसने चौदह घंटे भी नहीं लिए। कृष्ण इतने आश्चर्यजनक हैं । मार्च २२ मायापुर के वरिष्ठ भक्तों को लगा कि प्रभुपाद इतने अधिक बीमार थे कि वे यात्रा करने के योग्य नहीं थे, अतः उन्हें वहीं रह कर स्वास्थ्य लाभ करना चाहिए। इसके अतिरिक्त बम्बई से प्राप्त समाचार परस्पर विरोधी थे। सुरभि स्वामी को पता लगा कि प्रभुपाद के कमरे अभी पूरे नहीं बने, इसके लिए अधिक समय चाहिए, अतः उसने प्रभुपाद को तार भेज दिया और प्रार्थना की कि वे अभी न आएं। किन्तु गिरिराज तथा अन्य भक्त बम्बई के आजाद मैदान के एक पण्डाल में प्रभुपाद के व्याख्यान का आयोजन कर रहे थे और गिरिराज ने प्रभुपाद को आमंत्रण भी भेज दिया था। प्रभुपाद ने इसे धर्मोपदेश का अच्छा अवसर समझा और उन्होंने जाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने अपने सचिव मायापुर से बम्बई एक तार भिजवाया। से प्रभुपाद मंगलवार को १३.५० बजे आ रहे हैं। कमरे जैसी भी अवस्था में हों तैयार रखें । किन्तु जब प्रभुपाद बम्बई पहुँचे तो वे इतने दुर्बल थे कि वे वायुयान की सीढ़ियों से नीचे उतर नहीं पा रहे थे और हवाई जहाज के कर्मचारियों को उन्हें नीचे उतारने के लिए लिफ्ट की व्यवस्था करनी पड़ी। उनके जमीन पर आने के बाद कई भक्त चलने में उनकी सहायता करने लगे । यद्यपि वे कमजोर लग रहे थे किन्तु जब उन्होंने हवाई अड्डे पर भक्तों को अपनी प्रतीक्षा करते देखा तो वे खुल कर मुसकराने लगे । कार में श्रील प्रभुपाद ने बम्बई मंदिर के बारे में पूछा, और हरिशौरी ने उन्हें सूचित किया कि उनके कमरे अभी तैयार नहीं थे, न शौचालय बना था, न नल लगा था, न खिड़की-दरवाजे लगे थे, मजदूर फर्श पर पालिश कर रहे थे। प्रभुपाद ने इन कमियों की अनदेखी कर दी और कहा कि जैसे भी हो, उन्हें मंदिर में जाना है। भक्तों को इमारत की दशा का ज्ञान था, अतः बहुत अधिक चिन्तित हो उठे। ऐसा संभव नहीं प्रतीत होता था कि कोई वहाँ रह सके । किन्तु प्रभुपाद ने कहा कि वे रहेंगे । वे हरिशौरी ने कहा कि उसे आश्चर्य था कि प्रभुपाद ने ऐसी हालत में यात्रा का निर्णय किया था और प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, आखिरी रात तक मेरे आने की कोई संभावना नहीं थी, तब भी, किसी तरह, हम इस समय यहाँ हैं।" प्रभुपाद यात्रा कर रहे थे और धर्मोपदेश कर रहे थे क्योंकि यही उनका जीवन था। तीस वर्ष से अधिक समय से वे कृष्णभावनामृत आंदोलन का विस्तार करते रहे थे— पहले भारत में, फिर अमेरिका और सारे विश्व में। जब तक कृष्ण उन्हें लेशमात्र भी शक्ति देते रहेंगे, वे यह काम जारी रखेंगे। वे नगर में व्याख्यान देना चाहते थे, वे हरे कृष्ण लैंड में अपने विशाल मंदिर के निर्माण की प्रगति देखना चाहते थे । यद्यपि मंदिर अभी पूरा नहीं हुआ था किन्तु वे वहाँ जाकर रहने लगेंगे और भक्तों को दिखाएँगे कि उसका उपयोग कैसे करना चाहिए। जब वे हरे कृष्ण लैंड के प्रवेश द्वार पर पहुँचे तो प्रभुपाद वहाँ से इस्कान होटल की ऊँची मीनारों और मंदिर के अधूरे, किन्तु विशाल गुम्बदों को देख सकते थे। इन बृहत् संरचनाओं के सामने वह छप्पर बौना लगता था जो उस समय श्री श्री राधा - रासबिहारी का अस्थायी निवास था । ये अर्चा-विग्रह उस छप्पर में १९७१ ई. से थे जब प्रभुपाद उन्हें वहाँ लाए थे, इस वायदा के साथ कि उनके लिए वे एक सुंदर मंदिर का निर्माण कराएँगे । और अब, बहुत अधिक कठिनाई और संघर्ष के बाद, वह वायदा शीघ्र ही पूरा होने वाला था । राधा - रासबिहारी शीघ्र ही भारत के एक सबसे शानदार और वैभवशाली मंदिर में पहुँचने वाले थे । हरे कृष्ण लैंड व्यस्तता में डूबा था क्योंकि कोई दो सौ कारीगर अपने तरह- तरह के कौशलों का प्रदर्शन मंदिर - होटल परिसर के निर्माण में कर रहे थे। सुरभि स्वामी और उसके सहायक उनका दिशानिर्देश कर रहे थे। एक दर्जन आदमी होटल के विशाल कांक्रीट दीवार के ढांचे को आच्छादित करने के लिए लाल पत्थर की सिलें काट रहे थे; लगभग पचास संगमरमर के कारीगर हथौड़ों से चिप्पियाँ काट कर मंदिर में सजावटी खंभे और मेहराब बना रहे थे; और राजगीर तथा भीतरी अलंकरण के विशेषज्ञ प्रेक्षागृह को पूरा करने में लगे थे। अधिकतर कार्य पूरा हो गया था, किन्तु तब भी हर चीज, बिना मांस के हड्डी की तरह, नंगी मालूम पड़ती थी । होटल में खिड़कियाँ या दरवाजे नहीं लगे थे। फर्नीचर तथा पर्दे तो थे ही नहीं। मंदिर अधिकांश में अब भी अधूरी संरचना था । कार्य - दल तेजी से क्रियाशील था । उसका मुख्य ध्यान होटल की एक मीनार के शीर्ष पर प्रभुपाद के कमरों को पूरा करने पर केन्द्रित था । किन्तु यह काम भी अभी नहीं हो पाया था । अतएव, सुरभि स्वामी और गिरिराज के आदेशानुसार, चित्रकारदास, प्रभुपाद की कार को होटल के आगे बढ़ा कर जायदाद के पिछले भाग में ले गया, जहाँ वे पुरानी चालों के एक आवास में प्रायः ठहरा करते थे । भक्तजन प्रसन्नतापूर्वक प्रभुपाद के कमरे पर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वे उनके पद प्रक्षालन और आरती करने के लिए आवश्यक सामग्रियों के साथ तैयार थे। उन्होंने दिन का अधिकतर भाग प्रभुपाद के कमरों को साफ करने में लगा दिया था जो लिली फूलों की मालाओं से सजाए गए थे और अगरबत्तियों से महकाए गए थे। भक्तों का एक दल आवास के बाहर मृदंगों और करतालों के साथ कीर्तन करता खड़ा था और कुछ ब्रह्मचारिणियाँ तैयार खड़ी थीं कि जब श्रील प्रभुपाद कार से उतर कर ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों की ओर बढ़ेंगे तो वे उनके सामने फूलों की पंखड़ियाँ बिखेरेंगी। किन्तु प्रभुपाद की चित्तवृत्ति भिन्न थी। उन्होंने कहा, "मैं इस आवास में फिर कभी नहीं जाऊँगा, मुझे मेरे नए आवास में ले चलो। चित्रकार ने उस बात को दुहराया जिसे प्रभुपाद पहले ही सुन चुके थे : “श्रील प्रभुपाद, आप का आवास अभी तैयार नहीं है । उसे तैयार होने में कुछ दिन और लगेंगे। श्रील प्रभुपाद बोले, “सुरभि महाराज को बुलाओ ।" वे अडिग थे । आवास के अंदर के और उसके सामने खड़े भक्त चकित थे कि श्रील प्रभुपाद कार से उतर क्यों नहीं रहे हैं। जब चित्रकार प्रभुपाद को होटल वापस ले जा रहा था, तभी सुरभि पीछे दौड़ते हुए आ गए। प्रभुपाद ने कार की खिड़की से पूछा, “मेरा आवास तैयार क्यों नहीं है ?" दौड़ कर उनके पास पहुँचने पर सुरभि ने बताया कि उसे कुछ दिन की और आवश्यकता थी और इस बीच प्रभुपाद अपने पुराने आवास में ठहर सकते थे। प्रभुपाद ने चिल्लाकर कहा, “तुम वह करो जो मैं कह रहा हूँ। " कार रुक गई। प्रभुपाद ने उसी उच्च स्वर में बोलते हुए कहा, “यदि मैं वहाँ अभी नहीं जाता तो मेरा आवास कभी पूरा नहीं होगा। मैं वहाँ अभी जाऊँगा ।' “हाँ, श्रील प्रभुपाद, ” कहते हुए सुरभि यह देखने के लिए दौड़े कि लिफ्ट चलाया जा सकता था या नहीं। इस बीच सभी एकत्रित भक्त, समाचार सुन दौड़ पड़े और जब प्रभुपाद अपने नए आवास में प्रवेश करने लगे तो वे उनके साथ हो लिए। कर, श्रील प्रभुपाद को लगा कि उनका समय सीमित था और यदि वे आग्रह पर नहीं तुलते तो उनके शिष्य देर पर देर करते जायँगे। जमीन के मालिक और सरकार ने उनके लिए सालों की देर यों ही कर दी थी। उनके जमीन खरीदने के बाद भी पुलिस कमिश्नर ने टिप्पणी जड़ दी थी कि कीर्तन से " उत्पात " होगा और उसने अनापत्ति प्रमाण-पत्र देने से मना करके निर्माण में महीनों की देर कर दी थी। किन्तु इतनी सारी देर होने के बावजूद प्रभुपाद अड़े रहे और अंत में विजयी हुए। नहीं, वे अपने पुराने आवास में रहने नहीं जायँगे । अब नए बम्बई - मंदिर में जान आनी चाहिए— क्योंकि अब वे वहाँ पहुँच गए हैं। लिफ्ट ने काम नहीं किया । इसलिए भक्तगण प्रभुपाद को एक पालकी में बैठा कर सीढ़ियों से उन्हें उनके पाँचवी मंजिल के आवास में ले गए। आवास गड्डमड्ड था और फर्श संगमरमर की मोटी, चरबीदार पालिश से ढका था जो कारीगर उपयोग में ला रहे थे। वहाँ उपस्थित लगभग एक दर्जन कारीगर घबरा - से गए कि उनके कार्य में बाधा क्यों डाली जा रही है । भक्तगण ढोलों, करतालों और आरती के सामान के साथ वहाँ हड़बड़ाते पहुँच गए थे, किन्तु इधर-उधर खड़े रहे; उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। कमरा खाली था, वहाँ कोई फर्नीचर नहीं था, डेस्क नहीं था और बैठने की जगह नहीं थी । किन्तु प्रभुपाद ने इस अस्तव्यस्त परिदृश्य पर नजर डाली और कहा, "मैं यहाँ फर्श पर बैठ रहा हूँ ।" एक भक्त ने एक ऊनी चादर निकाली और उसे कमरे के एक एकान्त सूखे भाग में बिछा दिया और प्रभुपाद उस पर बैठ गए। उन्होंने कहा, “अब तुम जो कुछ चाहते हो, कर सकते हो ।" कुछ भक्त फर्श धोने में लग गए तो अन्य भक्त श्रील प्रभुपाद के उपयोग के लिए डेस्क, कुर्सी, पलंग आदि फर्नीचर इकट्ठा करने को दौड़ पड़े। सुरभि स्वामी ने, सहमे हुए, प्रभुपाद का पद - प्रक्षालन किया और उनकी आरती उतारी। इस बीच चिकने फर्श पर फिसलने से बचते हुए भक्तजन श्रीगुरु चरण- पद्म गाकर गुरु- वंदना करते रहे। प्रभुपाद ने सारे परिदृश्य का अवलोकन संतोष भरी दृष्टि से किया और कहा, “ आप सब को बहुत धन्यवाद ।' जब स्वागत समारोह समाप्त हो गया तो श्रील प्रभुपाद को उनके सचिवों के साथ अकेले छोड़ दिया गया। उन्होंने कहा कि उनका आवास उन्हें पसंद था। उन्होंने एक रात वहाँ बिताई, किन्तु दूसरे दिन, वे एक सप्ताह के लिए, मि. कार्तिकेय महदेविया के मकान में जाने को राजी हो गए। सप्ताह भर वे बम्बई - पण्डाल कार्यक्रम में भाग लेंगे, जो मि. महदेविया के घर के निकट ही था । और इससे सुरभि स्वामी को आवास तैयार कराने का वांछित समय मिल जायगा । श्रील प्रभुपाद बिना सहायता के न खड़े हो सकते थे, न चल-फिर सकते थे। मि. महदेविया के घर से भक्तजन उन्हें पालकी में कार तक ले जाते थे, कार से पण्डाल के व्याख्यान मंच के पीछे वाले कमरे तक ले जाते थे और वहाँ से मंच तक। उसके बाद भवानंद स्वामी सहायता देकर उन्हें व्यास - आसन पर बैठाते थे । पहले के पण्डाल उत्सवों की तुलना में, जिनमें एक शाम को कभी-कभी तीस हजार लोग तक आते थे, यह उत्सव छोटा था, जिस में एक रात में करीब एक हजार लोग ही सम्मिलित होते थे। इतनी छोटी उपस्थिति का मुख्य कारण यह था कि भारत में अभी-अभी आम चुनाव हुए थे और लोग राजनीति में डूबे थे । काँग्रेस दल के लोक-सभा में पराजित होने के बाद, २२ मार्च को, प्रधान मंत्री इन्दिरा गाँधी ने त्याग पत्र दे दिया था। एक-दो दिन के अंदर जनता दल से नए प्रधान मंत्री का चुनाव होना था । बहुत से बम्बइया, जो अन्यथा पण्डाल-व्याख्यान में सम्मिलित हुए होते, या तो समाचारों के सुनने में दत्तचित्त थे, या रैलियों में सम्मिलित हो रहे थे या राष्ट्रीय राजनीति और इंदिरा गाँधी के पतन के सम्बन्ध में बातों में लगे थे। किन्तु जो छोटा सा जन-समूह पण्डाल - व्याख्यान में आ रहा था वह उसमें बड़ी रुचि दिखा रहा था। प्रभुपाद निराश नहीं थे । प्रभुपाद बोलते थे, और ध्वनि - विस्तारक यंत्र उनकी मंद वाणी को चारों ओर फैला देता था। उन्होंने कहा, "भवानंद स्वामी श्रीमद्भागवत से दो या तीन श्लोक सुनाएँगे, जो हमारे कृष्णभावनामृत आंदोलन का मुख्य विषय है। पहला श्लोक तरवः किम् न जीवन्ति से आरंभ होता है।" भवानंद ने उच्च स्वर में सुनाया । 'क्या वृक्ष जीवित नहीं हैं ?” “क्या धोंकनी साँस नहीं लेती ?" 'क्या हमारी चारों ओर पशु चारा नहीं खाते और वीर्य का उत्सर्जन नहीं करते ?" उन्होंने श्रील प्रभुपाद का तात्पर्य पढ़ कर सुनाया और तब अगला श्लोक पढ़ा। " जो व्यक्ति कुत्तों, सुअरों, ऊँटों और गधों के समान हैं वे ही ऐसे लोगों की प्रशंसा करते हैं जो पापों से उद्धार करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं के विषय में श्रवण नहीं करते।" इस श्लोक के लम्बे तात्पर्य को भवानंद ने जब पढ़ कर समाप्त किया तब प्रभुपाद ने अपना व्याख्यान आरंभ किया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार आत्मा एक जीवन से दूसेर जीवन में देहान्तरण किया करता है, किन्तु लोग इस साधारण तथ्य से अवगत नहीं हैं। उन्होंने कहा, " कम-से-कम भारत में इस दशा में परिवर्तन होना चाहिए ।" प्रत्येक व्यक्ति इस आध्यात्मिक ज्ञान की अनुभूति नहीं कर सकता, किन्तु कम-से-कम एक आदर्श संस्था इसके लिए होनी चाहिए। और, उन्होंने कहा, कृष्णभावनामृत आंदोलन का यही उद्देश्य है— ऐसे आदर्श ब्राह्मणों को उत्पन्न करना जो शेष समाज को शिक्षा देकर, मार्ग-दर्शन करेंगे। कहा, "यह कार्य तथाकथित राजनीतिज्ञ नहीं कर सकते । यह भारतीय सभ्यता है । अतीत में भगवान् रामचन्द्र भी, जो स्वयं राजा थे, और स्वयं भगवान् थे— बुद्धिमान ब्राह्मणों, ऋषियों और संत- पुरुषों से राज्य के काम-काज में परामर्श लिया करते थे। समाज में वर्ग-भेद आवश्यक है। कृष्णभावनामृत आंदोलन में बहुत सारे कार्य करने को हैं । यह न सोचें कि वहाँ केवल हरे कृष्ण कीर्तन होता है। हरे कृष्ण कीर्तन मुख्य चीज है, क्योंकि यदि आप हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं तो आपके मन में हर चीज क्रमशः स्पष्ट हो जायगी। प्रभुपाद ने बताया कि उन्होंने अमेरिका में विरोध पर कैसे विजय प्राप्त की और किस तरह अब वहाँ लोग कृष्णभावनामृत को गंभीरता से ले रहे हैं। जब उन्होंने अमरीकी धन और भारतीय संस्कृति को एक करने की अपनी योजना का उल्लेख किया तो लोगों ने खूब तालियाँ बजाई। श्रील प्रभुपाद ने निष्कर्ष में कहा, “मुख्य वस्तु ज्ञान है। इसलिए इस ज्ञान को अपनी पुस्तकों में बंद न रखें वरन् इसे चारों ओर फैलाएँ। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि भारत के नेता अब आगे आएँ और इस आन्दोलन में सम्मिलित हो कर संसार का भला करें। आप को अनेक धन्यवाद ।” जन समूह की करतल ध्वनि दीर्घ जयजयकार में बदल गई। प्रभुपाद की आवाज कमजोर थी और उनका शरीर करीब-करीब स्थिर बना रहा, किन्तु उन्होंने ऐसी शक्ति का प्रदर्शन किया जो इन शारीरिक परिसीमाओं को पार कर गई थी । वास्तव में उनकी उपस्थिति पहले से कहीं अधिक प्रभावशाली थी। उनकी ऊर्जा स्पष्ट या आत्मा की विशुद्ध ऊर्जा थी— शारीरिक प्रतिबन्धों से परे । गिरिराज स्वामी ने लोगों से प्रश्न आमंत्रित किए और उनसे मंच के सामने आकर माइक्रोफोन में बोलने को कहा । महिला : “क्या आध्यात्मिक जीवन बहुत भार वाला नहीं होता ?" प्रभुपाद : " क्या आप सोचती हैं कि आप भार नहीं ढो रही हैं ? तो उचित लाभ के लिए आप पर भार क्यों न डाला जाय ? आप पर कितनी व्यर्थ की चीजों का भार है । तो सही चीज के लिए भार क्यों न सहें ? बुद्धिमानी इसी में है ?" जब प्रभुपाद प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे तो वे उत्तरोत्तर अधिक शक्तिशाली बनते जा रहे थे, यद्यपि वे गतिहीन बने रहे, यहाँ तक कि वे अपने हाथ भी नहीं हिला रहे थे। उनके उत्तर इतने लम्बे नहीं थे, जैसा कि सामान्यतः होते थे— ऐसा लगता था कि वे अपनी ऊर्जा की बचत कर रहे थे । किन्तु प्रत्येक उत्तर वे पूरे बलाघात और विश्वास से दे रहे थे । अच्छी वेशभूषा में मध्यम आयु का एक भारतीय आगे बढ़ा और उसने पूछा, “स्वामीजी, जीवन में स्वास्थ्य का क्या महत्व है और आप लोगों को अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए क्या शिक्षा देते हैं ? और आप के मिशन से स्वास्थ्य का क्या सम्बन्ध है ?" प्रभुपाद : "स्वास्थ्य क्या है ? सब से पहले आप को यह समझना है कि आप चाहे जितने स्वस्थ हों आपकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। तो आप किस समस्या का समाधान कर लेंगे ? जन्म - मृत्यु - जरा - व्याधि - दुःख - दोषानुदर्शनम् । — यह कृष्ण कहते हैं, इसे मैंने नहीं गढ़ा है। यद्यपि आप स्वस्थ बने रहने का प्रयत्न कर सकते हैं, प्रकृति का नियम है कि आप को मरना जरूर है। आप अपनी सहायता कैसे कर सकते हैं ? अन्ततः आप को मृत्यु के मुख में जाना है। जब तक आप के पास यह भौतिक शरीर है, तब तक स्वास्थ्य का प्रश्न ही नहीं उठता। आप को दुःख भोगना है। आप बहुत बड़े वैज्ञानिक हो सकते हैं, किन्तु प्रकृति का नियम तो काम करेगा ही । प्रकृतेह क्रियमाणानि । मूर्ख लोग झूठे दंभ से उन्मत्त होकर सोचते हैं, 'मैं अपना स्वास्थ्य सुधार रहा हूँ। मैं इसे सुधार रहा हूँ... ।' वस्तुतः वे कुछ नहीं सुधारते। वे भौतिक प्रकृति के पाश में पूर्णत: बंधे होते हैं। वे स्वतंत्र रूप में कुछ नहीं कर सकते। यही प्रकृति का नियम है । " एक अन्य व्यक्ति ने पूछा कि क्या प्रभुपाद, "इस धार्मिक आधार पर " राजनीतिक प्रश्नों का समाधान कर सकते हैं। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, जब हम कृष्ण - चेतन हो जायँगे तो सभी प्रश्नों का समाधान निकल आएगा ।' एक अन्य व्यक्ति ने पूछा, "आत्मा को समझने का सरल तरीका क्या है ? मैं आत्मा को समझना चाहता हूँ ।" श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "यह बहुत सरल है। किन्तु आप की शिक्षा ऐसे मूर्खतापूर्ण ढंग से हुई है कि आप नहीं समझ सकते । " श्रील प्रभुपाद ने संक्षेप में बताया कि शरीर भौतिक तत्त्वों से बना है, किन्तु एक तत्व उनसे भी श्रेष्ठ है। उन्होंने कहा, "कोई भी समझ सकता है । भगवद्गीता में हर वस्तु की व्याख्या है। किन्तु लोग मन से उसे समझना नहीं चाहते। में पहले पण्डाल – व्याख्यान के बाद दूसरे दिन सवेरे श्रील प्रभुपाद कार्तिकेय महदेविया, तमाल कृष्ण गोस्वामी, और भवानंद गोस्वामी के साथ बैठे थे । मायापुर प्रभुपाद के स्वास्थ्य के अत्यन्त कमजोर हो जाने के बाद से वे प्रायः घंटों अकेले और मौन बैठे रहते थे। जब कभी वे बोलते थे तो उनकी आवाज प्रायः फटी हुई या बहुत कमजोर होती थी; किन्तु अन्यथा उनका वार्तालाप सदैव की भाँति ही होता था : पूर्णतया कृष्णभावनाभावित । वास्तव में, श्रील प्रभुपाद उन मूढ़ों की अपनी असमझौतावादी आलोचना में अधिकाधिक दृढ़ होते जा रहे थे जो कृष्ण को परम ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। वे भौतिकतावादी सभ्यता की निन्दा करते थे और उसे कुक्कुर - सभ्यता या बांबी - सभ्यता कहते थे । एक कुत्ता अपने चारों पैरों से भागता है, मनुष्य भी चार पहियों पर दौड़ लगा रहा है, किन्तु यदि वह जीवन का अर्थ नहीं समझता तो वह एक कुत्ते से बेहतर नहीं है। मनुष्य और चीटियाँ लम्बी-लम्बी संरचनाएँ करते हैं, किन्तु यदि कोई मनुष्य आत्मा और कृष्ण के विषय में नहीं जानता तो उसके गगनचुम्बी महलों के बावजूद, उसकी सभ्यता एक शानदार वल्मीक से अधिक नहीं है। प्रभुपाद ने कहा, “यदि अधिक श्रोता आएँ तो मैं इस वल्मीक सभ्यता का पूरा वर्णन करूँगा । स्वास्थ्य, कैसा स्वास्थ्य, सब व्यर्थ की बात है । उस आदमी को धक्के देकर यहाँ से निकाल दिया जायगा ।" श्रील प्रभुपाद का संकेत उस व्यक्ति की ओर था जिसने पण्डाल में स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रश्न पूछा था। प्रभुपाद ने पूछा, " यदि कोई मरने जा रहा है, वह स्वस्थ कैसे है ? ' मैं इतना स्वस्थ हूँ कि मैं कल मरने जा रहा हूँ । यही है उनका स्वास्थ्य ?" तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, " लगभग सभी प्रश्न शरीर से सम्बन्धित थे ।" प्रभुपाद : "कृष्ण कहते हैं, न हन्यते हन्यमाने शरीरे । ऐसा व्यक्ति स्वस्थ है । शरीर के नष्ट होने पर भी आप न मरें यही स्वस्थ जीवन है। यह स्वस्थ जीवन क्या है ? शरीर नष्ट हो जाता है— और उसके साथ सब कुछ नष्ट हो जाता है। वस्तुतः हर वस्तु नष्ट नहीं होती, किन्तु इस सम्बन्ध में लोग अज्ञान में रखे जाते हैं। वे सोचते हैं देह के साथ हर वस्तु नष्ट हो जाती है। किन्तु यह सत्य नहीं है। कृष्ण स्पष्ट रूप में कहते हैं— न जायते मृयते वा कदाचिन्, यदि आप प्रश्न नहीं पूछते तो सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यही है कि यह कैसे संभव है । प्रभुपाद ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन के बावजूद हर व्यक्ति को मरना है। उन्होंने कहा, 'स्वास्थ्य कहां है ? इस तरह की मूर्खता - भरी बातें सारे संसार में चल रही हैं। अतः संगठित हो जाओ। वास्तविकता उन पर प्रकट करो और उसका प्रसार करो, क्रमशः, किन्तु निश्चयात्मक रूप में । " तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, “ तो लोक- प्रिय बनने के लिए हमें अधीर बन कर समझौता नहीं करना चाहिए ।" श्रील प्रभुपाद बोले, " अधीर होने का कोई प्रश्न नहीं है। आप के पास एक हीरा है, यदि उसका कोई खरीददार नहीं है तो इसका यह तात्पर्य नहीं है कि आप उसे फेंक दें। आप को जानना चाहिए कि 'यह एक हीरा है। यदि मैं इसे चाहता हूँ तो इसका मूल्य मुझे चुकाना होगा।' मैं इसे ही स्थापित करना चाहता हूँ। भारत की संस्कृति को इस तरह नष्ट क्यों होने दिया जाय ? मैं कोई सस्ता देश-भक्त नहीं हूँ। मैं भारतीय संस्कृति को पूरे विश्व को देना * 'आत्मा न कभी जन्म लेता है न मरता है । ( भगवद्गीता २.२० ) चाहता हूँ। मैं लोगों को धोखा नहीं दूँगा कि हाथ में भगवद्गीता लेकर व्यर्थ की बातें करूँ। मैं भगवद्गीता को यथारूप प्रस्तुत करना चाहता हूँ। यही मेरा मिशन है। मैं किसी को धोखा क्यों दूँ ?" मि. महदेविया ने कहा, "हम आप के संदेश को समुचित रूप में समझने का प्रयत्न करेंगे। प्रभुपाद ने कहा, " भारत की महान् संस्कृति का इन धूर्त नेताओं के कारण विनाश क्यों होने दिया जाय ? उन्हें रोकना चाहिए। कृष्णभावनामृत सर्वग्राही है। जैसे आर्थिक प्रश्न : अन्नाद् भवन्ति भूतानि । कृष्ण कहते हैं कि अन्न उपजाओ, यह व्यावहारिक है। किन्तु जब मैं यात्रा कर रहा था तो मैंने देखा कि लाखों क्लार्क शिक्षा पाने के लिए आ रहे थे। और अन्न कौन उपजा रहा है ? तब इन क्लार्कों को इन कबूतरखानों में अन्न देना पड़ता है, उन्हें राशन पर निर्भर होना पड़ता है। क्या यही सभ्यता है ? झुंड के झुंड लोग आ रहे हैं। वे चींटियों की तरह चले आ रहे हैं। और जब आप गावों में जायँ तो वे खाली मिलते हैं। खाद्यान्न उपजाने में किसी की रुचि नहीं । हर एक की रुचि नगर मैं कबूतरखानों जैसे घरों में रहने और सिनेमा देखने, वेश्यालयों में जाने, क्लबों में जाने, मदिरा पीना सीखने और 'भद्र पुरुष' बनने में है। क्या यही सभ्यता है ? मानव जीवन का उद्देश्य नष्ट हो जाता है। आप नहीं जानते कि आप कार्यालय क्यों जाते हैं, खाना क्यों खाते हैं। लोग पशु-मानसिकता लिए मानवता दिखा रहे हैं, कुत्तों की मानसिकता । विश्वविद्यालयीय शिक्षा कुत्ता - मानसिकता है। कुत्ता पूँछ हिलाने लगता है, ज्योंही आप उसे कुछ खाना देते हैं। " मि. महदेविया ने कहा, "हाँ, हाँ, किसी पद के लिए आवेदन पत्र मांगें, तो पाँच पदों के लिए पाँच दर्जन लोग आवेदन करते हैं । " प्रभुपाद ने कहा, "क्या यही शिक्षा है ? इससे तो अच्छा होगा कि शिक्षा न प्राप्त की जाय। जो शिक्षित नहीं हैं वे पाँच रुपए के आलू खरीद कर कहीं भी बैठ सकते हैं। इतना अधिक धन व्यय करने और माँ-बाप के पैसे पर रहने के बाद इन शिक्षितों के पास न तो कोई धंधा है, न कुछ खाने को। तब वे किसी राजनीतिक दल की योजना बनाते हैं— नक्सलाइट अथवा इस दल का, या उस दल का — और किसी राजनीतिक आंदोलन में सम्मिलित हो जाते हैं और इंदिरा गांधी की सहायता करते हैं। प्रचार के लिए उन्हें पैसे मिलते हैं।" मि. महदेविया ने कहा, “किन्तु अब वह सब समाप्त हो गया है। वह योजना बिल्कुल असफल हो गई है।" अनेक अन्य भारतीयों की तरह मि. महदेविया को भी आशा थी कि नए चुनावों के बाद अब स्थिति में सुधार होगा । प्रभुपाद बोले, "नहीं, एक दूसरा चुनाव आएगा । बेरोजगारी बनी हुई है। जब मैं बच्चा था तब सरसों का तेल तीन आने में था, अब तेरह रुपए किलो है। क्या सरकार में परिवर्तन होने से तेरह रुपए से तीन आने हो जायेगा ? फिर लाभ क्या ? मल तो मल ही है, चाहे आप उसे जिस ओर से लें । " कुछ भक्त कमरे में आए और बैठ गए, प्रभुपाद उन्हें धर्मोपदेश के लिए प्रोत्साहित करने लगे। उन्होंने कहा कि लोगों को राहत सरकार से नहीं, प्रत्युत कृष्णभावनामृत से मिलेगी । कृष्ण और उनके भक्त हर एक के लिए हैं, किसी । विशेष राष्ट्र या व्यक्ति के लिए नहीं । प्रभुपाद ने कहा, "लोग अंधकार में हैं। और राजनीतिज्ञ उन्हें कुत्तों, सूअरों और ऊँटों की तरह रख रहे हैं; उनसे वोट प्राप्त कर वे नेता बन रहे हैं। गत रात में किसी ने प्रतिवाद नहीं किया, जब मैंने लोगों को कुत्ते, सूअर और ऊँट कहा था। किसी ने आगे बढ़ कर यह नहीं कहा, 'आप बड़ी कड़ी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, क्योंकि मैं सत्य कह रहा था । ' हृदयानंद गोस्वामी ने कहा, "उन्हें आप का यह विचार विशेष पसंद आया कि अमरीकी धन और भारतीय संस्कृति का मेल कराया जाय। इस पर उन्होंने तालियाँ बजाई थीं । " प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, यह मेरा मिशन है। मैं उसे पूरा कर रहा हूँ। मैं अमेरिका से धन ला रहा हूँ। मुझे अन्य कोई नहीं दे रहा है। यह हँसी-मजाक नहीं है। दस लाख रुपए । अन्य कौन ला सकता है।' गोपाल कृष्ण ने कहा, " बड़ी-बड़ी निर्यात कम्पनियाँ भी इतना नहीं लातीं ।' प्रभुपाद ने कहा, "और अमेरिकन प्रसन्न हैं। उनके पास धन है और वे संस्कृति पा रहे हैं। मैं संयुक्त राज्यों के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ। यह संयुक्त राष्ट्र संघ नहीं, जिसमें सभी दुष्ट, चोर और धोखेबाज भरे हैं, वे भौंकने वाले कुत्ते हैं, किन्तु मैं वास्तविक संयुक्त राष्ट्र के लिए प्रयास कर रहा हूँ। आइए, हम उसके लिए परस्पर सहयोग करें। " श्रील प्रभुपाद के शिष्य उनको ऐसा बोलते हुए सुनने के लिए इकट्ठे हो गए और उन लोगों ने कृष्णभावनामृत द्वारा अज्ञान की शक्तियों के निराकरण न्यू का संकल्प किया। उन्होंने कहा कि उन शिष्यों को धीरे-धीरे, किन्तु निश्चयात्मक रूप में आगे बढ़ना चाहिए, जैसा कि उन्होंने किया था। उन्होंने विनम्र होकर यार्क की सड़कों में “भटकते हुए" आरंभ किया था । और उसके पहले राधा - दामोदर मंदिर में अकेले रहते थे। किन्तु अब बम्बई मंदिर बन गया है, एक ऐसा विशाल भवन जिसमें हजारों अतिथि अर्चा-विग्रहों के दर्शन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए एकत्र होंगे। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “उत्साहपूर्वक कार्य करो। तुम सब युवक हो ।” तमाल कृष्ण बोले, “श्रील प्रभुपाद, हमारा उत्साह आप से प्राप्त हो रहा है । " प्रभुपाद ने मंद स्वर में कहा, “मैं एक वृद्ध व्यक्ति हूँ।” किन्तु उनके भक्तों ने इसे स्वीकार नहीं किया। श्रील प्रभुपाद नव-यौवन थे— आध्यात्मिक दृष्टि से सदैव नवीन । प्रत्येक रात को श्रील प्रभुपाद एक भिन्न भक्त से एक श्लोक और उसका तात्पर्य पढ़वाते थे। हृदयानंद गोस्वामी और गिरिराज जैसे प्रमुख शिष्य व्याख्यान देते थे और बाद में प्रभुपाद बोलते थे । वे संसार के लिए भारत के असली संदेश पर बल देते रहे और इसे दुर्भाग्य कहते थे जब उस संदेश की लोग, विशेषकर भारतीय, उपेक्षा करते थे। उनके साहसपूर्ण वक्तव्यों को आधार बना कर कुछ शिष्यों ने पण्डाल के बाहर एक इश्तहार लगा दिया, "आधुनिक सभ्यता विफल है। एकमात्र समाधान कृष्णभावनामृत है । " अपने सान्ध्यकालीन व्याख्यानों में श्रील प्रभुपाद अपने श्रोताओं को परामर्श देते कि वे किसी राजनीतिक दल से अपना तादात्म्य न करें। उन्होंने कहा, एक दिन कोई व्यक्ति प्रधान मंत्री है और अगले दिन वह निष्कासित हो जाता है । यद्यपि प्रभुपाद ने अपनी व्याख्यान माला का आरंभ इस क्षमा-प्रार्थना से किया था कि स्वास्थ्य की खराबी के कारण वे अधिक नहीं बोल पाएँगे, किन्तु हर रात वे इसी बात पर बल देते रहे कि कृष्णभावनामृत ही एकमात्र समाधान था । और व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर - काल में वे प्रायः विस्फोटक हो जाते थे । मंच के सामने से एक व्यक्ति ने माइक्रोफोन द्वारा पूछा, “कीर्तन करते समय आप राम तथा कृष्ण, दोनों नामों का जप करते हैं, किन्तु यहाँ मैं राम का कोई चित्र नहीं देख रहा हूँ। कारण क्या है ?" प्रभुपाद ने पूछा, " आप देखते नहीं, किन्तु आप सुनते तो हैं ?" उस व्यक्ति ने आग्रहपूर्वक कहा, “मैं देखता नहीं ।" श्रील प्रभुपाद उबल पड़े, “किन्तु आप सुनते नहीं ।" और वे समझाते रहे कि जिसे आप देखते नहीं उसे समझने का सर्वोत्तम उपाय उसके बारे में है। सुनना एक अन्य व्यक्ति ने पूछा कि इस भौतिक संसार में एक धार्मिक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति कैसे रह सकता है। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "इसीलिए आप को अपनी आध्यात्मिक पहचान की समझ होनी चाहिए । किन्तु, चूँकि आप मूर्ख और दुष्ट हैं, इसलिए आप सोचते हैं, 'मैं यह शरीर हूँ ।” उन्होंने कहा कि इस ज्ञान की अनुभूति के लिए आध्यात्मिक गुरु से दीक्षा लेना आवश्यक है। श्रील प्रभुपाद को मालूम था कि प्रश्नकर्ताओं में से अधिकांश ऐसे थे जिनका इरादा उनका अनुयायी बनना नहीं था, इसलिए कभी-कभी उनकी मूर्खता के लिए, बड़े भाई के रूप में, वे उन्हें डाँट भी बताते थे। उनका दार्शनिक प्रश्न पूछना भी, मूर्खतापूर्ण था, क्योंकि उनका अनुगमन करने का उनके मन में कोई इरादा नहीं होता था । किन्तु श्रील प्रभुपाद कृष्णभावनामृत का हीरा उनके सामने रखते रहे, यह जानते हुए भी कि उसके क्रय के लिए उनके पास एकनिष्ठा का धन नहीं था। फिर भी वे उसे बराबर पेश करते रहे, अपनी निजी शारीरिक दशा के भारी मूल्य पर । जब एक व्यक्ति ने काव्यमय भाषा में प्रभुपाद से प्रश्न किया कि वे कृपापूर्वक उसे आत्मा के बारे में बताएँ तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "यह स्पष्ट किया जा चुका है कि आप, शरीर के अंदर, आत्मा हैं।” प्रभुपाद ने इसका विस्तार किया कि निर्जीव वस्तुओं से इन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से श्रेष्ठ है, बुद्धि मन से श्रेष्ठ है और आत्मा सर्वश्रेष्ठ है। उन्होंने कहा, "यह जानने के लिए अध्ययन जरूरी है। शिक्षा जरूरी है। शिक्षा प्राप्य है; पुस्तकें मौजूद हैं, शिक्षक मौजूद हैं। दुर्भाग्य से इस आध्यात्मिक शिक्षा में आप की रुचि नहीं है। आप की रुचि अब प्रौद्योगिकी में है— हथौड़ा कैसे चलाएँ, बस ।” प्रतिदिन शाम को कोई प्रमुख व्यक्ति पण्डाल में आता था और कार्यक्रम की प्रस्तावना करता था। एक शाम को बम्बई हाई कोर्ट के जज, जे. एम. गांधी, बोले; उसके बाद भवानंद गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत के पाँचवे स्कंध से भगवान् ऋषभदेव की शिक्षाओं के पहले दो श्लोक और उन पर प्रभुपाद के तात्पर्य को उच्च स्वर में पढ़ा। श्रील प्रभुपाद ने संक्षिप्त भाषण दिया, फिर प्रश्न आमंत्रित किए गए। एक व्यक्ति ने पूछा, “यदि ईश्वर सर्वत्र है तो उसकी उपस्थिति प्रत्येक व्यक्ति द्वारा क्यों नहीं अनुभव की जाती ?" श्रील प्रभुपाद ने कहा, “प्रत्येक व्यक्ति बुद्धिमान नहीं होता। अधिकांश में लोग मूर्ख होते हैं। मनुष्याणाम् सहस्रेषु । यह कथन भगवान् का है कि 'लाखों मनुष्यों में से कोई एक मनुष्य पूर्ण बनने का प्रयत्न करता है। और लाखों पूर्ण मनुष्यों में से कोई एक भगवान् को समझ सकता है।' इसलिए भगवान् या ईश्वर को समझना आसान नहीं है। किन्तु यदि हम उसे समझने का प्रयत्न करें तो ईश्वर हमारी सहायता करेगा। बात बस इतनी है । " एक अन्य व्यक्ति ने कहा कि उसके पास कई प्रश्न थे । “ मेरा पहला प्रश्न यह है कि मैं नहीं समझता कि ईश्वर मैथुन का विरोधी है। मैं गंभीरतापूर्वक कह रहा हूँ कि मैने कई व्याख्यान सुने हैं और हमेशा इस बात पर बल दिया जाता है मानो ईश्वर मैथुन का विरोधी है। किन्तु मैं नहीं समझता कि ऐसा है।" श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "ईश्वर मैथुन का विरोधी कभी नहीं रहा । किसने ऐसा कहा ? ईश्वर ने कहा है, धर्माविरुद्धो कामोऽस्मि : 'मैथुन जो धार्मिक जीवन के विधि-विधानों के विरुद्ध नहीं है, वह मैं हूँ।' ईश्वर ने कभी नहीं कहा, 'मैथुन बंद करो ।' अन्यथा, गृहस्थ आश्रम क्यों होता ? आश्रम का अर्थ कृष्णभावनामृत । किन्तु आप आश्रम की स्थापना करें और आश्रम के विधि-विधानों का पालन करें। यही ठीक होगा। अन्यथा, आप प्रकृति के नियमों के बंधन से बँध जायँगे ।' है तब उस व्यक्ति ने प्रभुपाद के उस तात्पर्य का निर्देश किया जिसे भवानंद गोस्वामी ने पढ़ा था और जिसमें प्रभुपाद ने शूकर- सदृश मात्र इंद्रिय-तृप्ति के लिए रहने वाले मनुष्य की निन्दा की थी। वह व्यक्ति बोला, “आप का एक प्रमुख वक्तव्य यह है कि एक व्यक्ति मोटर ट्राम पर जाता है, उस पर दो घंटे खड़ा रहता है, अपने धंधे के स्थान पर पहुँचता है और वहाँ सवेरे के नौ बजे से लेकर शाम के पाँच बजे तक काम करता है, फिर घर वापस आता है, खाना खाता है और मैथुन करता है, आदि-आदि। मैंने अनेक व्यक्ति देखे हैं जो कड़ा परिश्रम करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं और उन्हें अच्छी तरह पालते हैं, मैथुन-सुख भोगते हैं, किन्तु बहुत अच्छा जीवन व्यतीत करते हैं। मैं नहीं समझता कि इसमें कोई बात गलत है ।" प्रभुपाद ने कहा, “ तो, यदि कोई बात गलत नहीं है, तो बहुत अच्छा है । किन्तु इस तरह का जीवन बहुत रुचिकर नहीं है । " वह व्यक्ति बोलता रहा, “मैं देखता हूँ कि कुत्ता भी... । " । श्रील प्रभुपाद ने उसे बीच में रोका, किन्तु उनका उत्तर मुलायम और विनम्र था, "यदि आप वैसा जीवन पसन्द करते हैं और समझते हैं कि वह अच्छा है, तो यह आप की अपनी पसंद की बात है । किन्तु मैं नहीं समझता कि केवल रोटी के लिए इतना कड़ा परिश्रम करना कोई अच्छी बात है । " वह व्यक्ति बोला, “ नहीं, मैं आप से सहमत हूँ ।' तब श्रील प्रभुपाद ने और अधिक उच्च स्वर में बोलना आरंभ किया, “यदि आप सहमत हैं, सहमत हैं तो फिर असहमति किस बात पर है ? ठीक है, आगे कुछ नहीं ।" उस व्यक्ति के पास और भी प्रश्न थे। किन्तु तमाल कृष्ण ने किसी अन्य व्यक्ति से प्रश्न पूछने को कहा । " क्या आप सहमत हैं कि ईश्वर केवल एक धारणा है ? यदि नहीं, तो कृपया तर्कपूर्ण कारण बताइए ।” प्रभुपाद, “मैं क्यों सहमत होऊँगा कि ईश्वर केवल एक धारणा है ?" " क्योंकि मैं उसके लिए तर्क चाहता हूँ ।" " आप तर्क नहीं जानते, आप को तर्क सीखना है।' " किन्तु तब भी मैं चाहूँगा कि आप तर्कपूर्ण व्याख्या दें । " “हाँ, लेकिन आपको सीखना होगा कि उसे कैसे जानें। इसके लिए गुरु होते हैं। जिस तरह आप तर्कपूर्ण ढंग से नहीं सिद्ध कर सकते कि बिना पिता के बच्चा हो सकता है।" श्रील प्रभुपाद ने बताया कि प्रत्येक वस्तु, जिसे हम देखते हैं, धरती से उत्पन्न होती है और वेदों में धरती को माता कहा गया है। किन्तु पिता के बिना बच्चा नहीं हो सकता; जहाँ माता और बच्चा हैं, वहाँ पिता का होना अनिवार्य है। अतः ईश्वर हर वस्तु का पिता है। श्रील प्रभुपाद के शिष्य उन से आग्रह कर रहे थे कि वे अपने पर बहुत अधिक जोर न डालें, अतः जब स्वरूप दामोदर आ गया तो श्रील प्रभुपाद ने उससे संध्या का व्याख्यान देने को कहा। स्वरूप दामोदर द्वारा कृष्णभावनामृत की वैज्ञानिक प्रस्तुति से प्रभुपाद बहुत प्रभावित हुए। एक भक्त ने टिप्पणी की कि स्वरूप दामोदर का भाषण श्रोताओं के लिए बहुत अधिक तकनीकी या प्राविधिक हो गया था, किन्तु एक अन्य भक्त ने उत्तर दिया कि भाषण चाहे और लोगों को पसंद न आया हो, किन्तु श्रील प्रभुपाद को वह पसंद था, इसलिए उसे सफल कहा जायगा । स्वरूप दामोदर के भाषण के बाद श्रील प्रभुपाद पाँच मिनट तक बोले और फिर बिना किसी प्रश्नोत्तर के चले गए। अगली रात को प्रभुपाद बिल्कुल नहीं बोले, किन्तु वे मंच पर बैठे रहे । भारत के दो विख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ डा. केशव राव दाते और डा. शर्मा के व्याख्यान हुए । श्रील प्रभुपाद को डा. दाते द्वारा माल्यार्पण किया गया था; प्रभुपाद धैर्यपूर्वक, शान्त भाव से संतोष का अनुभव करते हुए व्यास - आसन पर बैठे रहे कि प्रमुख बम्बईनिवासियों द्वारा कृष्णभावनामृत आन्दोलन के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया जा रहा है। डा. दाते ने हृदय रोग के बारे में भाषण दिया और बताया कि चिन्ता पर नियंत्रण करके उस रोग का निराकरण किया जा सकता है। उसके बाद उन्होंने श्रील प्रभुपाद और उनके आन्दोलन की सराहना की। डाक्टरों के संक्षिप्त भाषणों के बाद स्वरूप दामोदर ने दूसरा वैज्ञानिक व्याख्यान दिया और स्लाइड्स (परिकलन - पट्टिकाएँ ) दिखाईं। बाद में श्रील प्रभुपाद ने स्वरूप दामोदर तथा अन्यों से कहा, "यह वैज्ञानिक कार्यक्रम मुझे कृष्णभावनामृत का उपदेश करने के लिए अतिरिक्त शक्ति दे रहा है।' तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, "ऐसा लगता है कि आप पहले की अपेक्षा अब विज्ञान पर अधिक बल दे रहे हैं । " प्रभुपाद ने कहा, “आधुनिकृत व्यक्ति को विश्वस्त करने के लिए यह आवश्यक है। कदाचित् मैं पहला व्यक्ति हूँ जिसने इन अप्रामाणिक वैज्ञानिकों का प्रतिवाद किया है । " स्वरूप दामोदर बोला, "जी हाँ, उनसे हर व्यक्ति भयभीत है, अतिरिक्त श्रील प्रभुपाद के । सच तो यह है कि श्रील प्रभुपाद से मिलने से पहले मैं नहीं जानता था कि मामला इतना गंभीर है। मैने इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं था । " प्रभुपाद ने कहा, "इसीलिए मैने इसे इतनी गंभीरता से लिया । प्रतिदिन सवेरे के भ्रमण में मैं तुम्हें खोजता और पूछता था 'वैज्ञानिक कहाँ है ?' मैने सोचा, 'यहाँ मेरे पास एक वैज्ञानिक को प्रभावित करने का अवसर है, और वह फलदायी होगा ।' यही मेरा उद्देश्य था । इसीलिए मैं तुम्हें तरह-तरह से परेशान कर रहा था । " स्वरूप दामोदर ने कहा, “प्रभुपाद यह आप की असीम कृपा है। " प्रभुपाद ने कहा, "क्योंकि मैं प्राविधिक शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता और वह कर सकता है, इसलिए मैं चाहता था कि उसे प्रशिक्षित करना चाहिए। " गिरिराज ने ऐसा प्रबन्ध किया कि लोक सभा के लिए जनता दल के नव-निर्वाचित सदस्यों में से कोई एक आए और श्रील प्रभुपाद से मिले । एक सज्जन, मि. रतन लाल राजदा, हरे कृष्ण आन्देलन के नेता, प्रभुपाद, से मिलने को उत्सुक थे । अतः जिस समय मि. राजदा शिवाजी पार्क में एक राजनीतिक रेली में भाग ले रहे थे, गिरिराज भेंट के बारे में बात करने के लिए वहाँ गए थे । गिरिराज ने बाद में प्रभुपाद को बताया, "जब मैं वहाँ गया तो उन्होंने मुझे अपने साथ मंच पर बैठने को कहा। तो मैने वैसा किया। किन्तु क्या वह गलत था ?” प्रभुपाद बोले, “क्यों नहीं, वह तुम्हें सम्मान दे रहे थे । " गिरिराज ने बताया कि मि. राजदा ने रैली में प्रथम वक्ता होने को कह दिया था जिससे वे श्रील प्रभुपाद से मिलने के लिए स्वतंत्र हो जायँ, क्योंकि अगले दिन उन्हें केन्द्रीय सरकार की किसी बैठक के लिए दिल्ली चले जाना था । गिरिराज ने कहा कि मि. राजदा दक्षिण बम्बई से लोक सभा के सदस्य थे, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र था; और उन्होंने इसके पूर्व भी इस्कान की सहायता की थी जब वह मंदिर गिराने की कोशिश के विरुद्ध केस लड़ रहा था । मि. राजदा कक्ष में प्रविष्ट हुए और उन्होंने श्रील प्रभुपाद को सम्मानपूर्वक प्रणाम किया। उन्होंने कहा कि वे श्रील प्रभुपाद से एक बार पहले भी मिल चुके थे, किन्तु तब से वह उन्नीस महीने जेल में रहे। श्रील प्रभुपाद को आश्चर्य-सा हुआ, उन्होंने कहा, कहा, "जेल ?" मि. राजदा ने बताया कि इन्दिरा गांधी के राजनीतिक आपात काल में उन्हें जेल भेज दिया गया था। उन्होंने कहा १,५०,००० से अधिक "देशभक्तों" को जेल की सजा हुई थी जिनमें जे. के. प्रकाश और वर्तमान प्रधान मंत्री, मोरारजी देसाई, भी थे। मि. राजदा ने कहा, "जब गिरिराज ने बताया कि आप यहाँ हैं तो मैंने उनसे कहा कि मैं निश्चय ही आप के दर्शन करना चाहूँगा ।' प्रभुपाद धीरे-धीरे बोलने लगे, “भौतिक समायोजन के लिए ऐसा प्रयत्न... । इंदिरा गांधी के राज में हम कुछ खतरा अनुभव करते थे। अब हमारे मन में दूसरा भाव है। यह भौतिक समायोजन है। भौतिक समायोजन से क्षणिक लाभ हो सकता है, किन्तु वह स्थायी रूप से लाभदायक नहीं होता । " मि. राजदा ने उत्तर दिया, "जब तक आध्यात्मिक समायोजन नहीं होता तब तक स्थायी लाभ नहीं हो सकता ।" मि. राजदा स्पष्टतः संस्कृत वैदिक ज्ञान से अवगत थे और एक संत पुरुष से मिलने को जाने के महत्त्व से भी अवगत थे । किन्तु प्रभुपाद इस बात पर अड़े रहे कि लोग सचमुच नहीं समझते कि आध्यात्मिक जीवन क्या है। उन्होंने उल्लेख किया कि भौतिक शरीर की रचना विभिन्न तत्त्वों से हुई है, फिर भी जीवात्मा इन तत्त्वों से भिन्न है। उन्होंने कहा “जब तक हम इस तथ्य को नहीं समझते, जिसका भगवद्गीता में बहुत बढ़िया ढंग से वर्णन है, तब तक इस भौतिक समायोजन से हम कभी सुखी नहीं हो सकते। मि. राजदा प्रभुपाद के दृष्टिकोण से सहमत हुए, किन्तु उन्होंने कहा कि निर्वाचनों के बाद एक महान परिवर्तन घटित हुआ है। उन्होंने कहा, “ मूल अंतर यह है कि पहले शासकों में कोई नैतिक मानदण्ड नहीं था ।" मि. राजदा की श्रील प्रभुपाद से पूर्ण सहमति थी – या वे पूर्ण रूप से उनसे सहमत होना चाहते थे— फिर भी वे भिन्न-भिन्न स्तरों पर बोल रहे थे। दोनों इस बात पर बल दे रहे थे कि शासन में आध्यात्मिकता जरूरी है, किन्तु मि. राजदा का निष्कर्ष यह था कि अब उनके राजनीतिक दल में ऐसी आध्यात्मिकता मौजूद थी । श्रील प्रभुपाद ऐसे लोगों के बारे में बात करते रहे जो ईश्वर की बात करते हैं, किन्तु जिन्हें आत्मा की भी पहचान नहीं है। उन्होंने स्पष्ट नहीं किया यह आलोचना पहले की सरकार पर लागू होती थी या वर्तमान सरकार पर; यद्यपि उनकी टिप्पणी से लगता था कि यह दोनों पर लागू होती थी। जिस किसी को भी दिव्य ज्ञान नहीं है और जो कोई भी आत्मा और पदार्थ का अन्तर जाने बिना भौतिक क्षेत्र में कार्य करेगा उसका अंत इसी प्रकार गौरवहीन होगा । मि. राजदा ने कहा, "नहीं, पिछले शासकों में से अधिकांश साम्यवादी थे । वे कहते थे कि धर्म अफीम है। वे धर्म में बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे।" प्रभुपाद ने कहा, "इसलिए वे कुछ कहते हैं, हम कुछ कहते हैं। वह कुछ कहता है, आप कुछ गढ़ते हैं । किन्तु कोई नहीं जानता कि वास्तविकता क्या है । कठिनाई यही है। जब तक आप वास्तविकता न जाने तब तक यह सुझाव देना और कहना, 'मेरा यह सुझाव है', इससे कोई समाधान नहीं निकलता । संसार - भर में यही हो रहा है। न ते विदुः स्वार्थ- गतिम् विष्णुम् * सब की चिन्ता केवल भौतिक पदार्थों की है— उनके बाह्य रूपों की है— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि । किन्तु वे नहीं जानते कि इनके ऊपर भी एक तत्त्व है। जब तक आप को उसका ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक कल्याण कार्यों का कोई प्रश्न नहीं है । वह ज्ञान भारत में उपलब्ध है । " श्रील प्रभुपाद ने मि. राजदा के आगमन को निष्ठा और गंभीरता से प्रेरित माना, इसलिए वे उन्हें कृष्णभावनामृत से पूरी तरह आश्वस्त करना चाहते थे, यदि वे सचमुच शासन में धर्म और नैतिकता के सिद्धान्तों का प्रवेश कराने उत्सुक थे । असली धर्म जीवन के अंतिम लक्ष्य के रूप में, आत्म-बोध से आरंभ होता है। सरकार पर धार्मिक होने की मोहर लगा देने मात्र से सफलता नहीं मिल सकती । के श्रील प्रभुपाद ने स्वीकार किया, “अब हमें अच्छी सरकार मिल गई है। बहुत अच्छा। अब आप को उन सुविधाओं का लाभ उठाना चाहिए जो भारत में उपलब्ध हैं। हमारे देश में भगवद्गीता है। यदि आप भगवद्गीता से निर्देश लें तो पूरे मानव समाज का लाभ हो सकता है। आप इस तथ्य से अवगत नहीं हैं । यही कमी है। बड़े-बड़े नेता भी, यद्यपि वे भगवद्गीता के अध्येता होने का दावा करते हैं, किन्तु उसके बारे में कुछ नहीं जानते यद्यपि इस में इस तथ्य का स्पष्ट वर्णन है। भारत में ऐसा कौन नेता है जो भगवद्गीता को नहीं जानता ? हर एक जानता है। जब मोरारजी देसाई को सरकार ने कैद करना चाहा तो उन्होंने कहा, “रुकिए, मुझे भगवद्गीता का पाठ समाप्त कर लेने दीजिए।" क्या यह सच नहीं है ? मि. राजदा ने उत्तर दिया, "हाँ ।" श्रील प्रभुपाद : 'मुझे अपनी भगवद्गीता पढ़ लेने दीजिए, उसके बाद आप * लोग नहीं जानते कि उनका सबसे बड़ा स्वार्थ विष्णु है । ( श्रीमद्भागवत ७.५.३१) मुझे चाहे जितना परेशान कर सकते हैं । ' मि. राजदा ने आगे इतना और जोड़ा कि मि. देसाई जेल में भी भगवद्गीता का ध्यानपूर्वक अध्ययन करते थे । प्रभुपाद ने कहा, “ किन्तु अब वे कहते हैं “जनता मेरा भगवान् है ।' क्या उन्होंने हाल में ही ऐसा नहीं कहा था ? मि. राजदा ने स्वीकार किया कि मोरारजी ने ऐसा कहा था किन्तु बाद में उन्होंने उसका स्पष्टीकरण किया था । श्रील प्रभुपाद ने दलील दी, “यह सरकार का दायित्व है कि वह लोगों को ईश्वर - चेतन बनाए । यह बहुत सरल है। स्वयं भगवान् ने बताया है कि भगवद्- चेतन कैसे बना जा सकता है। यह बहुत आसान चीज है— मनमना भव मद्भक्तः । एक बच्चा भी यह कर सकता है तो नेता लोग क्यों नहीं कर सकते ? लोग उनके आदर्श का अनुगमन करेंगे। वे भगवद्- भावना - भावित क्यों नहीं बनते ? वे मन से इसे करें तो सब कुछ ठीक हो जायगा । वे ईश्वर के अस्तित्व का उल्लंघन कर रहे हैं और भगवद्गीता पढ़ रहे हैं, यही उनकी स्थिति है।" श्रील प्रभुपाद ने मि. राजदा को विस्तार से बताया कि किस तरह वे अकेले कृष्णभावनामृत आन्दोलन का प्रचार करते रहे थे। वर्षों तक वे पश्चिम में कार्य करते रहे थे और अब अपने आन्दोलन को भारत ला रहे थे। उन्होंने कहा, "हमारे साथ सहयोग कीजिए। आप इतने कृपालु हैं, आप मुझसे मिलने आए हैं। आप में इच्छा है। अतः आइए, हम इसे गंभीरता से लें । " मि. राजदा भाव-विह्वल हो उठे और बोले, “हाँ महानुभाव, हाँ महानुभाव, आप ठीक कह रहे हैं । ' प्रभुपाद ने कहा, “यह गंभीर मामला है, किन्तु किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया है। भगवद्गीता लोक प्रिय ग्रंथ है। हर व्यक्ति भगवद्गीता रखता है और कहता है 'मैं भगवद्गीता का अध्ययन करता हूँ।' किन्तु यदि समाज के नेता वास्तव में आदर्श प्रस्तुत करें तो अन्य लोग उनका अनुसरण करेंगे । ' मि. राजदा : "यह ठीक है। इसके लिए गंभीरता से प्रयत्न करना चाहिए । केवल जबानी जमा-खर्च से काम नहीं चलेगा। बात सही है ।" मि. राजदा ने प्रभुपाद को स्मरण कराया कि उन्होंने जुहू मंदिर की किस तरह सहायता * सदैव कृष्ण के बारे में सोचो और उनका भक्त बनो । ( भगवद्गीता ९.३४ ) की थी जब उसे गिराने का प्रयत्न हो रहा था । प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, आपने बड़ी सेवा की है। अब वह केवल गिराया ही नहीं गया, वरन् वहाँ खड़ा है। " मि. राजदा ने कहा, “हाँ, वहाँ खड़ा है, और बहुत ही सुंदर मंदिर है । ' मि. राजदा ने श्रील प्रभुपाद और मोरारजी देसाई की भेंट की सम्भावना का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि यदि प्रभुपाद के लिए सुविधाजनक हो तो भेंट की व्यवस्था की जा सकती है। प्रभुपाद ने कहा, “मेरा जीवन इसी एक उद्देश्य के लिए अर्पित है। मेरे लिए कोई भी समय सुविधाजनक है। वर्तमान में मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है, तब भी मैं आया हूँ। मैं प्रयत्न करता रहूँगा, अपने जीवन के अंतिम क्षण तक । यदि मैं लोगों का कुछ भला कर सकूँ — तो यही मेरा संकल्प है । यह जीवन क्या है ? जीवन का अंत आज, कल या अगले दिन हो जायगा । किन्तु यदि आप सोद्देश्य रहें, तो यही मुख्य बात है । अन्यथा वृक्ष भी जीते रहते हैं— हजारों वर्ष । इससे क्या लाभ ?" मि. राजदा ने पुष्टि की कि भेंट की व्यवस्था निश्चित रूप से की जा सकती है। वे प्रधान मंत्री से मिलेंगे और समय तय करेंगे । श्रील प्रभुपाद बोले, “ तो इसमें कृष्ण का कोई उद्देश्य है कि आप निर्वाचित हुए हैं। " मि. राजदा : " यह उनके आशीर्वाद से हुआ है । " श्रील प्रभुपाद ने कहा, "उनके आशीर्वाद का लाभ उठाइए। कुछ सेवा कीजिए। ' पण्डाल की अंतिम निर्धारित संध्या में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने परिचयात्मक भाषण दिया । किन्तु प्रभुपाद उपस्थित नहीं थे। जब भक्तों ने पण्डाल को एक सप्ताह आगे बढ़ाने के लिए कहा तो प्रभुपाद राजी हो गए। किन्तु उन्होंने कहा कि वे हरे कृष्ण धाम में अपने नवनिर्मित आवास में चले जायँगे । प्रस्थान के पूर्व, श्रील प्रभुपाद ने मि. महदेविया और श्रीमती महदेविया से बात की। प्रभुपाद ने अपने एक शिष्य से एक बढ़िया साड़ी खरीद कर मंगवाई और उसे श्रीमती महदेविया को भेंट किया । " मैं आप लोगों के साथ ठहरा था और यह उसकी स्मृति में एक भेंट है, इसे अस्वीकार न करें।" उन्होंने मि. महदेविया को एक टेप रेकार्डर दिया और उनकी पुत्री, प्रीति, को एक साड़ी तथा नौकरों को कुछ रुपए । श्रीमती महदेविया बहतु प्रसन्न थीं, किन्तु उन्होंने प्रतिवाद किया और कहा कि प्रभुपाद का अपने घर में स्वागत-सत्कार करना उनके लिए परम्परागत कर्त्तव्य और प्रसन्नता की बात थी। इसके पहले प्रभुपाद मि. महदेविया की उपस्थिति में टेप रेकार्डर बजाया करते थे और उसकी आवाज की मि. महदेविया प्रशंसा करते थे। अब, जबकि श्रील प्रभुपाद ने उन्हें टेप रेकार्डर भेंट किया तो उन्होंने प्रतिवाद किया, "नहीं, प्रभुपाद, मैने आपसे यह नहीं कहा था कि आप यह टेप रेकार्डर मुझे दे दें; मैं तो केवल यह कहता था कि यह बहुत अच्छा टेप रेकार्डर है । ' । प्रभुपाद ने आग्रहपूर्वक कहा, "नहीं, नहीं, यह आप के लिए है, आपको इसे रखना है । " जब श्रील प्रभुपाद हरे कृष्ण लैंड में अपने सुंदर आवास में दाखिल हुए तो उन्होंने कहा कि सुरभि स्वामी से कोई नहीं बढ़ सकता । “मैं समझता हूँ मेरे लिए रहने का इससे सुंदर स्थान दुनिया में और कहीं नहीं है” – उन्होंने कहा । " लास एंजिलिस, न्यू यार्क बहुत बड़े नगर हैं, लंदन और पेरिस भी हैं । किन्तु कोई इस तरह का सुखप्रद, राजसी महल प्रदान नहीं कर सकता । " यह देख कर कि एक बड़े कमरे में उनके विविध कार्यों के लिए किस तरह व्यवस्था की गई है, श्रील प्रभुपाद ने कहा, "यह कमरा राधा - दामोदर मंदिर में मेरे कमरे जैसा है। उसके एक कोने में मैं लिखता था, दूसरे में बैठता था और तीसरे में प्रसाद पाता था" यह तुलना बेमेल थी, क्योंकि राधा - दामोदर मंदिर का कमरा एक छोटी-सी कोठरी था, किन्तु प्रभुपाद दोनों को सम्बद्ध करके देख रहे थे : वृंदावन की शुरुआत को बम्बई के चरम उत्कर्ष से। स्थान चाहे जो हो, व्यक्ति वे ही थे । — विनम्र भाव से किंचित् प्रसाद ग्रहण करते, अपनी पुस्तकें लिखते और महत्वाकांक्षापूर्वक कृष्णभावनामृत के प्रसार की योजनाएँ बनाते । श्रील प्रभुपाद ने अपने कई शिष्यों तथा डा. शर्मा से बम्बई में अपने दैनिक कार्यक्रम के विषय में विचार-विमर्श किया। उन्होंने कहा कि वे अर्चाविग्रह के दर्शनों के लिए नीचे आया करेंगे और प्रति रविवार को व्याख्यान दिया करेंगे। वे विशिष्ट अवसरों पर आगन्तुकों से अपने आवास पर मिला करेंगे, किन्तु ऐसा कभी-कभी ही करेंगे। उन्होंने कहा 'सामान्यतः लोग भेंट के लिए चले आते हैं और पूछते हैं, “आप कैसे हैं? आप को कैसा लग रहा है ?” इस तरह हर व्यक्ति आधे घंटे का समय ले लेता है। इस तरह समय गँवाने से क्या लाभ? ' आप कैसे हैं ?' सभी जानते हैं कि मैं ठीक नहीं हूँ ।"" तमाल कृष्ण गोस्वामी ने कहा, “ तो वे प्रातः काल मंदिर में आ सकते हैं । " प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, यदि वे सचमुच मुझे मिलना चाहते हैं, मैं वहाँ तो जाता ही हूँ; वे आधे घंटे तक मुझे मिल सकते हैं। जहाँ तक बात करने का प्रश्न है, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। 'आप कैसे हैं ? आपको कैसा लग रहा है ?' – यह कोई बात करना नहीं है।' गर्गमुनि स्वामी ने कहा, "इसकी बजाय वे नीचे जाकर आप की कुछ पुस्तकें खरीद सकते हैं । " प्रभुपाद ने स्वीकृति के तौर पर में सिर हिलाते हुए कहा, “हाँ! यह समय का अपव्यय है। मैं इसे बंद करना चाहता हूँ; मैं ऐसे प्रश्नों का उत्तर नहीं देना चाहता कि 'आप कैसे हैं ?' उन्होंने कहा कि अपना समय और शक्ति बचा कर वे अपने पुस्तक - लेखन का कार्य कर सकते थे। भक्तों ने विश्वास दिलाया कि सभी को उनका यह कार्यक्रम पसंद है और सब को प्रसन्नता होगी कि वे दशम स्कंध पर कार्य कर रहे हैं। प्रभुपाद ने घोषणा की, “मैं समझता हूँ कि मैं आज से कार्य आरंभ कर सकूं। अब मुझे बहुत अच्छा स्थान मिल गया है और पूरी स्वतंत्रता है। अतः कोई कठिनाई नहीं होगी । " यह स्पष्ट था कि अब प्रभुपाद प्रातः कालीन भ्रमण पर नहीं जायँगे। श्रील प्रभुपाद से निकटता से सम्बन्धित सभी लोगों को नई जीवन-शैली स्वीकार करनी होगी जिसमें सवेरे का भ्रमण नहीं होगा और कक्षाएं बहुत कम होंगी । किसी ने सुझाया कि प्रभुपाद छत पर घूमना पसंद कर सकते हैं, किन्तु वह भी कठिन प्रतीत हो रहा था । श्रील प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, एक मंजिल मैं चढ़ सकता हूँ। अभी नहीं, किन्तु चढ़ सकता हूँ। आप सब मेरे आराम के लिए इतना अधिक प्रयत्नशील हैं। मैं नहीं जानता कि मैं इसका बदला चुका सकूँगा या नहीं। किन्तु मैं अपनी शक्ति-भर कोशिश करूँगा । आप का ऋण चुकाना संभव नहीं है। आप सब इतने कृपालु हैं। मैं कृष्ण भगवान् से प्रार्थना कर सकता हूँ कि वे अपना आशीर्वाद आप को दें जिससे आप अपनी भक्ति में अटल रह सकें और उनके संदेश को सारे विश्व में फैला सकें। अन्यथा मेरे पास अन्य कोई साधन नहीं है। आप की सहायता के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता था। आप बहुत कृपालु हैं । कृपा करके अपना सहयोग जारी रखें। यह आन्दोलन पर - उपकार के लिए है। मुझे संसार के अन्य मंदिरों से समाचार मिले हैं—वे बहुत अच्छा कर रहे हैं। यह सच है न ? भारत के बाहर के अन्य मंदिर – वे बहुत अच्छा कर रहे हैं।” स्वरूप दामोदर ने, जो पश्चिम से अभी लौटा था, वहाँ के मंदिरों में भक्ति के सफल मानदण्ड के सम्बन्ध में बताया । प्रभुपाद शान्ति चाहते थे जिससे वे अपना कार्य कर सकें, और उन्होंने एक स्त्री के सम्बन्ध में एक छोटी कहानी का वर्णन किया जिसके टनटन करते कंगनों से उनके पति को बाधा होती थी। पति ने एक कड़ा गायब कर दिया, फिर भी टिंक-टिक-टिंक से उसे बाधा होती रही। वह एक के बाद एक कड़ा गायब करता रहा जब तक कि अंत में केवल एक ही बच गया। उसके बाद टिंक - टिंक - टिंक बंद हो गया । प्रभुपाद ने अपने सचिवों को विशेष रूप से कहा कि वे बाहरी कमरे में इकट्ठे होकर बातें न किया करें। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “आप में से हमेशा वहाँ केवल एक रहे, और वह पुस्तकें पढ़ता रहे। तब कोई शोर नहीं होगा। ज्योंही आप दो हो जायँगे, फिर वही टिंक - टिंक - टिंक आरंभ हो जायगा । मैं ऐसा नहीं चाहता।' तमाल कृष्ण ने कहा, "ऐसा नहीं होने पाएगा। यदि कोई मुझसे मिलने आता है तो मैं कमरे से बाहर चला जाऊँगा । " श्रील प्रभुपाद बोला, “हाँ, ऐसा ही प्रबन्ध करो । यहाँ शान्ति और गंभीरता रहनी चाहिए ।' तमाल कृष्ण ने कहा, "यह आपका आवास है। यहाँ अन्य किसी को नहीं आना चाहिए ।" श्रील प्रभुपाद ने कहा, "और अपने लोगों से मिलने का हम एक समय नियत कर लेंगे। परन्तु नियम शान्ति का होना चाहिए । यही ठीक रहेगा । तब मैं कार्य करने को स्वतंत्र हूंगा । प्रभुपाद अपनी नवीन परिस्थिति की प्रशंसा करते रहे। कमरे खूब हवादार थे और सूर्य का उनमें पर्याप्त प्रकाश रहता था । अन्य इस्कान इमारतें, जैसे लंदन का भक्तिवेदान्त भवन, बहुत अच्छा था, किन्तु अधिकांश मौसमों में वे, 'आप सर्दी के कारण, खिड़की-दरवाजे नहीं खोल सकते थे। उन्होंने कहा, को सिमट कर रहना पड़ता है। डेट्रायट और लंदन में आप कोई खिड़की नहीं खोल सकते।" किन्तु यहाँ बम्बई में तापमान सब तरह से अभीष्ट था और प्रभुपाद की खिड़की के बाहर हरा-भरा था । कई दिन बीत गए और बम्बई में अधिकांश भक्तों को प्रभुपाद के दर्शन नहीं हुए । हुए। वे इस बात के अभ्यस्त थे कि प्रभुपाद सवेरे नीचे उतरते थे और उनके साथ जुहू बीच पर एक घंटा टहलते थे। और वे इसके भी अभ्यस्त थे कि प्रभुपाद अर्चा-विग्रहों के दर्शन के लिए आते थे, प्रातः कालीन कक्षाएँ लेते थे और अपराह्न में लोगों को दर्शन देते थे । वे सदैव सुगम्य रहे थे, विशेष कर भारत में, और लोगें को छूट थी कि वे उनसे लगभग किसी भी समय मिल सकते थे। वे अपने भक्तों से बड़े प्रेम से मिलते थे और उनकी समस्याएँ या प्रश्न बड़ी सहानुभूति के साथ सुनते थे। अतः उनके भक्तों के लिए उनसे न मिल पाना, जबकि वे उन्हीं के बीच रह रहे थे, सचमुच मानसिक आघात के समान था । उनके साथ केवल दो या तीन सचिव रहते थे और जब कभी अन्य भक्त उनके कमरों में आ जाते थे तो उन्हें लगता कि वे प्रभुपाद के लिए भार हो रहे हैं और अवसर मिलते ही वहाँ से बाहर निकल जाते थे। मंदिर - कक्ष में प्रकट हुए और हटा दिया ताकि वे उस पर एक दिन श्रील प्रभुपाद अप्रत्याशित रूप से कुछ भक्तों ने व्यास - आसन से प्रभुपाद का चित्र में हैं और बैठ सकें। उन्होंने आगाह नहीं किया था कि वे आ रहे हैं, इसलिए भक्तों से अनेक अनुपस्थित थे । किन्तु खबर फैल गई कि प्रभुपाद आए भक्त दौड़ते हुए वहाँ पहुँच गए। गुरु- पूजा-आरती के पश्चात् श्रील प्रभुपाद ने भक्तों के समूह को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि उन्हें खेद है कि वे प्रायः नीचे नहीं आ पाते थे । वे तो चाहते थे कि सभी भक्तों के लिए प्रसाद बनाएँ और उन्हें परोस कर खिलाएँ। उन्होंने कहा कि रविवार को वे व्यंजन बनाएँगे और सभी भक्तों को प्रसाद के लिए अपने कमरे में बुलाएँगे। उन्होंने कहा, “मैं मंदिर प्रतिदिन आऊँगा और आठ बजे तक दर्शन और और यदि कोई प्रश्न आया, तो वार्तालाप के लिए रहूँगा। आमतौर पर यह प्रतिदिन होगा। और रविवार के दिन तुम लोग कोई समय तय कर सकते हो, जब मैं संध्या - समय बोलूँगा । और आगे कृष्ण की इच्छा, जैसा वे चाहें। किन्तु सम्प्रति यही कार्यक्रम चलेगा । ' प्रभुपाद की विनम्रता और भक्तों के मनोभावों की उनकी सही परख से भक्त उनके प्रति प्रेम में विह्वल हो उठे। उनमें से कुछ तो यहाँ तक सोचने लगे थे कि प्रभुपाद उन्हें भूल गए हैं और कुछ अन्य चीजें उनके लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई हैं। किन्तु अब वे उन्हें फिर विश्वस्त कर रहे थे । यद्यपि वे असमर्थ लगने लगे थे किन्तु अपने भक्तों के साथ उनका पूरा आदान-प्रदान चल रहा था। वे उनसे कह रहे थे कि जिस तरह वे, भक्त, उनसे नियंत्रित हैं, उसी तरह प्रभुपाद भी भक्तों की प्रेमपूर्ण भक्ति से नियंत्रित हैं। श्रील प्रभुपाद ने तब गुरु पूजा का महत्त्व समझाया; उन्होंने उस गीत के कुछ शब्दों का विश्लेषण किया जो प्रतिदिन प्रात:कालीन पूजा के समय शिष्य गाते थे। उन्होंने कहा, आवश्यकता 'प्रेमा - भक्ति' की है। प्रेमा-भक्ति जहाँ होइते, अविद्या विनाश जाते, दिव्य ज्ञान । तो दिव्य ज्ञान क्या है ? प्रभुपाद ने बताया कि यह गुरु का कर्त्तव्य है कि वह आत्मा का दिव्य ज्ञान जाग्रत करे। क्योंकि गुरु दिव्य-ज्ञान उद्घाटित करता है, इसलिए उसकी पूजा होती है। जो भक्त नहीं हैं, उनके लिए दिव्य-ज्ञान कभी प्रत्यक्ष नहीं होगा और वे अपने शरीर के आधार पर अपने को अमरीकी, हिन्दू या मुसलमान आदि मानते हैं। प्रभुपाद ने कहा, "हम गुरु की पूजा करते हैं, क्योंकि वे हमें दिव्य ज्ञान देते हैं। यह ज्ञान नहीं कि कैसे खाएँ, कैसे सोएँ, कैसे यौन-सुख भोगें, या कैसे अपनी प्रतिरक्षा करें। आमतौर पर राजनीतिक नेता या सामाजिक नेता यह ज्ञान देते हैं कि कैसे खाएँ, कैसे सोएँ, कैसे मैथुन करें या कैसे प्रतिरक्षा करें। गुरु का इन चीजों से कोई मतलब नहीं होता। उसके पास दिव्य ज्ञान होता है । इसी की जरूरत है। यह मानव जीवन एक अवसर है कि हम उसे जगाएं: दिव्य-ज्ञान हृदे प्रकाशित और यदि मनुष्य उस दिव्य ज्ञान से अंधकार में रहता है तो उसका जीवन नष्ट हो जाता है। इसे स्मरण रखो। यह जीवन खतरे से भरा है और जन्म-मृत्यु की तरंगों में पुनः प्रक्षिप्त हो सकता है। हम नहीं जानते कि हम कहाँ जायँगे। यह बहुत गंभीर मामला है। कृष्णभावनामृत दिव्य-ज्ञान है । यह कोई सामान्य ज्ञान नहीं है । " तो तुम लोगों को इन शब्दों को सदैव स्मरण रखना चाहिए, दिव्य-ज्ञान हृदे प्रकाशित। और क्योंकि आध्यात्मिक गुरु दिव्य ज्ञान से हमें प्रबुद्ध बनाता है, इसलिए हम उसके आभारी हैं । —यस्य प्रसादाद् भगवत- प्रसादो / यस्य प्रसादान् न गतिः कुतोऽपि । * तो यह गुरु पूजा अत्यन्त आवश्यक है, ठीक जैसे अर्चा-विग्रह गुरु महाराज की कृपा से कृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु महाराज के अनुग्रह बिना कोई उन्नति संभव नहीं । (श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कृत श्री श्री गुरु- अष्टक) की उपासना आवश्यक है। यह कोई सस्ती प्रशंसा नहीं है। यह प्रबुद्ध बनने की, दिव्य ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया है। आपको बहुत-बहुत धन्यवाद । " प्रभुपाद अपने भक्तों को केवल यही याद नहीं करा रहे थे कि वे उन्हें भूले नहीं थे, वरन् उन्हें यह भी याद करा रहे थे कि उन्हें गुरु-पूजा और गुरु के प्रति उपासना - भाव से अनुपस्थित नहीं होना चाहिए, चाहे वे व्यक्तिगत रूप से उनके सामने उपस्थित न भी हों । श्रील प्रभुपाद अधिकांश में अपने कमरे में अकेले रहते थे। दिन में वे एक डेस्क से दूसरी डेस्क तक जाते-आते रहते थे, या तो श्रुत - लेखन यंत्र पर भागवत का डिक्टेशन देने के लिए या प्रसाद ग्रहण करने के लिए, अथवा अतिथियों से वार्ता करने के लिए। लिखने में उन्हें विशेष रूप से बहुसर्जकता प्राप्त थी । प्रातः एक या दो बजे उठ कर वे अपनी श्रुत - लेखन मशीन पर नब्बे, सौ और कभी-कभी दो सौ अंक तक डिक्टेशन दे देते थे। जितना वे पहले महीनों में करते थे, यह उससे भी ज्यादा था । किन्तु उन्हें भूख नहीं लगती थी । वे कोई भारी चीज नहीं खा सकते थे, कभी-कभी वे एक प्याला दूध भी नहीं पी सकते थे। पालिका दासी और कभी - कभी क्षीर-चोर - गोपीनाथ, जो एक बंगाली भक्त था, उनके रसोइया थे। श्रील प्रभुपाद को क्षीर-चोर - गोपीनाथ का 'शुक्त' पसंद था जो नीम की पत्तियों, बैंगन, करेला, आलू, शकरकंदी और दही से तैयार किया जाता था । एक दिन सवेरे श्रील प्रभुपाद ने संतरे का रस माँगा, किन्तु रसोई-घर में कोई संतरा नहीं था । गोपीनाथ संतरे लेने के लिए भागा, किन्तु जब वह लौटा तो प्रभुपाद अपनी घंटी बजा रहे थे। गोपीनाथ अंदर गया और बोला, “मैं अभी ला रहा हूँ। रस निकालने में थोड़ा समय लगता है।” कुछ मिनट बाद जब रस नहीं आया तो श्रील प्रभुपाद अपनी घंटी बार-बार बजाने लगे। जब अंत में गोपीनाथ रस के साथ प्रविष्ट हुआ तो प्रभुपाद क्रोध में बोले, “मैं बीमार हूँ, मुझे भूख नहीं लगती है, और जब कुछ भूख लगती है तो घंटो लगा देते हो ।” उन्होंने कहा कि वे रस नहीं चाहते, किन्तु गोपीनाथ ने तुम उसे किसी तरह मेज पर रख दिया । श्रील प्रभुपाद ने गिलास उठाया और रस पी लिया। उन्होंने शान्त भाव से कहा, “तुम मेरी सेवा कितनी अच्छी तरह कर रहे हो। मैं तुम्हें हमेशा डाँटता रहता हूँ। जब आदमी बुड्ढा हो जाता है तो उसे क्रोध जल्दी आता है । " गोपीनाथ को डाँट खाना बुरा नहीं लगा था, किन्तु श्रील प्रभुपाद के इन विनम्र शब्दों से उसकी हालत खराब हो गई। वह इतना भावुक हो गया कि बोल नहीं सका। तब भी उसने रुंधे गले से कहा, “श्रील प्रभुपाद, कृपया इस तरह न बोलिए । मुझसे गलतियाँ होती हैं। यदि आप उन्हें ठीक नहीं करेंगे, तो कौन करेगा ?" इस तरह के छोटे-मोटे व्यक्तिगत आदान-प्रदान श्रील प्रभुपाद और उनके सहायकों के बीच होते रहते थे। किन्तु कभी-कभी वे इतने शान्त और अन्तर्मुखी हो जाते थे जितने पहले कभी नहीं थे । वे अपना समय कीर्तन और पठन में लगाते थे और विशेष अवसरों पर ही किसी अतिथि से मिलते थे । श्रील प्रभुपाद द करेंट पत्रिका के सहायक सम्पादक, मि. कोशी, से मिलने को राजी हुए। मि. कोशी का व्यवहार श्रद्धापूर्ण होने की बजाय उत्तेजक था, वह एक सजीव भेंटवार्ता की खोज में आया था । प्रभुपाद की रुचि किसी पत्रिका के लेख द्वारा लोगों तक पहुँचने में तो थी, किन्तु किसी सम्पादक की चाटुकारी करना या अपने सिद्धान्तों से समझौता करना उन्हें पसंद नहीं था। विशेषकर पिछले कुछ दिनों से, जैसा कि बम्बई पण्डाल में हुआ, वे बहुत स्पष्ट और सीधे शब्दों में बोलने लगे थे। जो कोई भी उनके पास जाता था उसे वे कृष्ण के बारे में बताते थे और कृष्ण को न स्वीकार करने के लिए जिम्मेदार, उनकी माया का पर्दाफाश करते थे। मि. कोशी ने प्रभुपाद से पूछा कि उन्हें भारत से पहले अन्य देशों में मान्यता क्यों मिली । श्रील प्रभुपाद ने कहा, "क्योंकि भारतीय इतने कंगाल हैं कि वे हीरा नहीं खरीद सकते। हीरा उपलब्ध है। किन्तु वे मन से इतने दरिद्र हैं, उनकी शिक्षा इतनी खराब है कि वे कुछ समझ नहीं सकते । “शिक्षा खराब है ? " — मि. कोशी ने पूछा । श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, उन्हें पढ़ाया जाता है, तुम्हारा यह शरीर ही सब कुछ है; कुत्तों और बिल्लियों की तरह नाचो । बस, यही उनकी शिक्षा है । राष्ट्रीयता क्या है ? यह है 'तुम यह शरीर हो, बिल्लियों और कुत्तों की तरह उछलो - कूदो' तुम एक समूह हो; कौओं की तरह समूह में इकट्ठे होकर नाचते हो और बोलते हो — का, का, का। यही सिखाया गया है; अतः एक समूह में का, का, का करो, किन्तु आप यह राष्ट्रीयता शब्द भगवद्गीता में नहीं पाते। ये सभी शब्द उधार लिए हुए हैं।' " 19 मि. कोशी ने पूछा, “ तो आपका विकल्प क्या है ?" प्रभुपाद ने कहा, " हम अन्तर्राष्ट्रीयता का उपदेश कर रहे हैं। हमारे यहाँ । पीड़ित नहीं हैं । विकास करें तो सब का स्वागत है । कृष्णभावनामृत में सम्मिलित हो जाइए। उसमें ईसाई, हिन्दू, अफ्रीकन, मुसलमान —— सब को स्थान है। वह वास्तविक संयुक्त राष्ट्र है। यदि वे यह सोचते होते कि 'मैं अमरीकी हूँ' तो वे एक गरीब भारतीय के पीछे क्यों लगते ? भारत के बाहर भारतीयों को गरीबी से पीड़ित समझा जाता है, और यह एक सच्चाई है। किन्तु वास्तव में हम गरीबी से यदि हम भगवद्गीता का, जो हमारे ज्ञान का मानदण्ड है, हम सबसे धनी सिद्ध होंगे। हम सारे संसार को ज्ञान की भेंट दे सकते हैं । ' प्रभुपाद ने कहा कि यह खेद का विषय है कि विद्वान् और राजनीतिज्ञ गीता का पाठक होने का दावा करते हैं, बिना यह जाने कि शरीर और शरीर के स्वामी में क्या अंतर है । वे भगवद्गीता का पहला पाठ भी नहीं जानते मि. कोशी ने पूछा, “ तो समाधान क्या है ? " प्रभुपाद ने उच्च स्वर में कहा, “समाधान ! आप इसे सीखें । " मि. कोशी ने कहा, “किन्तु कोई यह करना नहीं चाहता । " प्रभुपाद ने कहा, कहा, " तो जहन्नुम में जायँ किया क्या जा सकता है ? यदि । आप स्वयं अपना गला काटना चाहते हैं तो आप ऐसा कर सकते हैं। आपको कौन बचा सकता है ? किन्तु हमारा धर्म है कि कहें, 'आत्महत्या मत करो।' मि. कोशी ने काफी और चाय पीने के पक्ष में तर्क दिया; वह नहीं समझता था कि ऐसी चीजें पापपूर्ण हैं । प्रभुपाद ने बताया कि वे मादक द्रव्य हैं। मि. कोशी ने कहा, "लेकिन मेरे जैसे लाखों हैं। " श्रील प्रभुपाद ने कहा, “ लाखों शून्य लगाने का अर्थ 'एक' नहीं है । शून्य शून्य है । यदि सत्तर लाख शून्यों को जोड़ा जाये, तो एक नहीं बन सकता" । मि. कोशी यह भी जानना चाहता था कि प्रभुपाद कृष्ण पर ही अधिक ध्यान क्यों देते हैं, क्योंकि देव - कुल में सैंकड़ों देवता हैं, प्रभुपाद ने उसे बीच में ही रोक दिया । मि. कोशी ने 'मस्तिष्क धुलाई' सम्बन्धी विवाद के विषय में पूछा । प्रभुपाद ने कहा, "हमारे ऊपर अनेक अभियोग हैं। किन्तु इस समय मामला कोर्ट में है । " मि. कोशी बोला, “किन्तु आपको किसी कोर्ट से स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है ?" प्रभुपाद ने हँसते हुए कहा, “आपको है। मुझे नहीं है। आपको है । " मि. कोशी ने कहा, “हाँ, तब तक संदेह रहेगा ।" प्रभुपाद बोले, "क्योंकि आप कोर्ट के पीछे हैं, जजों के पीछे हैं। हम किसी के पीछे नहीं हैं। हम केवल एक के पीछे हैं— कृष्ण के । बस । हम जानते हैं कि हमारा क्या कर्त्तव्य है । ' श्रील प्रभुपाद ने बतलाया कि अमेरिका में विरोध इसलिए हो रहा है, क्योंकि अनेकों युवक-युवतियाँ कृष्णभावनामृत को स्वीकार कर रहे हैं। प्रभुपाद ने कहा, " युवा लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं। वे धर्मोपदेश कर रहे हैं। उन्होंने अपना जीवन न्योछावर कर दिया है। वे बुद्धिमान लोग हैं। वे समझ सकते हैं कि उन्हें मरना नहीं चाहिए । कृष्णभावनामृत किसी एक वृद्ध पुरुष का मनोरंजन नहीं है ।" मि. कोशी ने कहा, "नहीं, किन्तु इसके लिए उत्तरदायी आप हैं । ' प्रभुपाद ने कहा, " मैं नहीं हूँ, प्रत्युत कृष्ण हैं। मैं केवल उसका वितरण कर रहा हूँ। मेरा काम वितरण करना है। बस इतना ही । मि. कोशी ने पूछा कि क्या जिस तरह उनका आंदोलन फैला है उससे प्रभुपाद प्रसन्न थे और प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "मैं प्रसन्न क्यों न होऊँगा ? मैं कोई चीज गढ़ नहीं रहा हूँ। यह मेरा धंधा नहीं है।" अपनी पत्रिका के लिए सुपाठ्य विषयवस्तु की खोज में मि. कोशी एक बात से दूसरी बात पर कूद-कूद कर पहुँचता रहा। उसने पूछा, "अब आपका स्वास्थ्य कैसा है ?" प्रभुपाद ने उत्तर दिया, " ठीक नहीं है। स्वास्थ्य अच्छा रहे, न रहे, यह तो बाहरी यंत्र है। इससे कोई अंतर नहीं आता । किन्तु यदि यह मशीन ठीक रहे तो इससे सहायता होती है। अन्यथा मशीन अच्छी रहे या खराब रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । " 'जब मशीन बंद हो जाती है, तब क्या होता है ?" प्रभुपाद ने कहा, “यदि आप की मशीन बंद हो जाती है तो आप दूसरी मशीन ले लेते हैं; केवल इतना । मैं घबरा क्यों जाऊँ, 'ओह, मशीन बंद हो गई, मशीन बंद हो गई ?' इसीलिए कृष्ण कहते हैं, 'तुम मशीन के लिए रो रहे हो, कितने मूर्ख हो । यह पण्डितों का काम नहीं है । ' मि. कोशी : " आप दिन प्रायः किस तरह बिताते हैं ? आप किस समय उठते हैं और दिन कैसे बिताते हैं ? " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “मैं कैसे बताऊँ ? मुझे अनेक कार्य करने होते हैं । " तमाल कृष्ण को आभास हो गया कि भेंटवार्ता उतनी देर तक चल चुकी थी जितनी देर तक वह लाभदायक थी। उन्होंने कहा, “श्रील प्रभुपाद, मेरा सुझाव है कि यदि उनके पास कुछ और प्रश्न हैं तो उनका उत्तर हम दे सकते हैं, यदि कुछ प्रश्नों के उत्तर शेष रह जायँ... ।” श्रील प्रभुपाद बोले, “नहीं, उनके पास आध्यात्मिक विषय पर कोई प्रश्न नहीं हैं। वे मुझसे कुछ राजनीतिक प्रश्न पूछेंगे । राजनीति में हमारा कोई दखल नहीं है। । मि. कोशी ने प्रभुपाद के सचिव के संकेत की अनदेखी की और वह प्रश्न पूछता रहा। उसने कहा, "जब मैं इन लड़कों की तरह कुछ युवाजनों को सड़कों में नाचते देखता हूँ तो मेरी आँखें दुखने लगती हैं। कीर्तन की आवश्यकता क्या है ?" प्रभुपाद ने संक्षेप में उत्तर दिया, “एक मनुष्य का भोजन, दूसरे के लिए विष होता है । " मि. कोशी बोला, “नहीं, नहीं, इसके पीछे कोई उद्देश्य होना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा, “हां, इस युग में आध्यात्मिक बोध का यही मार्ग है । ' मि. कोशी ने अवैध यौन सम्बन्ध के विषय में पूछा। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि यौन सम्बन्ध वैवाहिक सीमा के अन्दर केवल बच्चे पैदा करने के लिए होना चाहिए । "क्या आप का विचार है कि बच्चों को स्वेच्छा से चयन की स्वतंत्रता होनी चाहिए ? " प्रभुपाद ने पूछा, "क्या आप अपने बच्चों को स्वतंत्रता देना चाहते हैं ? " मि. कोशी ने कहा, “मैं आपसे पूछ रहा हूँ । ” प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, नहीं, एक बच्चे को रेजर के साथ खेलने की स्वतंत्रता देने से क्या लाभ? वह अपना गला काट लेगा, बस इतना ही न । " " किन्तु बाद में कदाचित् । " प्रभुपाद ने कहा, “ बाद की अवस्था में, तब ऐसा विधान है। जब बच्चा सोलह वर्ष का हो जाय तब वह जैसा चाहे वैसा कर सकता है। उसके पहले नहीं ।' अब मि. कोशी समेटने को तैयार था। उसने प्रभुपाद से पूछा, “संसार के लिए आप का संदेश क्या है ? " प्रभुपाद और भक्त हँस पड़े। श्रील प्रभुपाद बोले, “आप मुझसे फिर पूछ रहे हैं। रामायण पढ़ने के बाद आप पूछ रहे हैं, सीता किसका पिता है। मैं सब कुछ पहले ही बता चुका हूँ। " मि. कोशी के कमरा छोड़ने के पहले प्रभुपाद ने अनुरोध किया, “अच्छा लेख लिखिएगा । " मि. कोशी ने कहा, "इसकी चिन्ता न करें, यह मेरा काम है । ' श्रील प्रभुपाद ने सुनिश्चित किया कि मि कोशी के जाने के पहले उसे प्रसाद मिल जाय । श्रील प्रभुपाद से सीधे आदेश प्राप्त करने की आशा में भक्तों का बम्बई आना जारी रहा। बहुत कुछ प्रभुपाद के सचिव के माध्यम से हो सकता था और " आप कैसा अनुभव कर रहे हैं ?" जैसे वार्तालाप से बचा जा सकता था, फिर भी कभी - कभी प्रभुपाद कुछ शिष्यों से सीधे मिल लेते थे। वे अब भी, कम-से-कम अपने सचिव के माध्यम से, अपने आंदोलन और उसके नेताओं के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों में दखल रखते थे। डाक द्वारा उन्हें मालूम हुआ कि अत्रेय ऋषि की योजना कराची, पाकिस्तान में, कृष्णभावनामृत आंदोलन आरंभ करने की थी और उन्होंने कहा कि योजना बुद्धिमत्तापूर्ण थी । उन्होंने यदुबर की बनाई हुई एक नई फिल्म को देखा और उसे स्वीकृति दी । वे हंसदूत स्वामी से मिले और उन्होंने उनसे श्रीलंका में धर्मोपदेश विकसित करने के लिए अनुरोध किया। उन्होंने प्रभाविष्णु का ढाका, बंगलादेश में जाकर धर्मोपदेश करने का हृदय से समर्थन किया। उन्होंने हैदराबाद में जोरदार धर्मोपदेशकों की आवश्यकता के बारे में सुना और जब उनके शिष्य, श्रीधर स्वामी, उनसे मिलने आए तो प्रभुपाद ने उनसे हैदराबाद जाने का अनुरोध किया। उनकी भेंट लोकनाथ स्वामी से हुई तो उन्होंने भारतीय गाँवों में बैलगाड़ी से जाकर धर्मोपदेश करने के उनके कार्यक्रम को प्रोत्साहन दिया। लोकनाथ प्रभुपाद के लिए द परफेक्शन आफ योग का मराठी अनुवाद लाए थे और प्रभुपाद लोकनाथ महाराज से उसे ऊंची आवाज़ में पढ़वा कर कुछ देर सुनते रहे, यद्यपि उन्होंने कहा कि वे मराठी भाषा नहीं जानते थे। जब इस्कान बम्बई के एक पुजारी ने जानना चाहा कि उसके पास की कुछ शालग्राम शिलाएँ प्रामाणिक थीं या नहीं, तो प्रभुपाद उनको देखने को सहमत हो गए और उन्होंने पुष्टि की कि वे प्रामाणिक थीं और पुजारी को परामर्श दिया कि उनकी उपासना कैसे करनी चाहिए । प्रभुपाद कुछ प्रबन्ध सम्बन्धी मामलों से बचने की कोशिश करते थे, जैसे बम्बई के निर्माण-कार्य में विलम्ब का मसला, किन्तु ऐसा नहीं हो पाता था । उन्हें चलते रहने वाले काम की आवाज सुनाई देती थी, कभी-कभी वह शोर में बदल जाती थी, किन्तु उन्हें जो सबसे बड़ी चिन्ता थी वह काम की धीमेपन की थी। कभी-कभी वे घंटों मौन बैठे रहते और फिर अपने सेवक या सचिव से कहते कि वे निर्माण में ऐसे विलम्ब से बहुत चिन्तित हैं। प्रभुपाद ने कार्य । के प्रभारी भक्तों से कहा, “तुम लोग निष्ठावान कार्यकर्ता हो किन्तु तुममें अकल नहीं है। मैं देख रहा हूँ कि निर्माण कार्य ठीक से नहीं चल रहा है। क्या मैं अपनी आँखें बंद कर लूँ? मैं ऐसा कर सकता हूँ, किन्तु मैं विवेकपूर्ण प्राणी हूँ। मैं अपनी आँखें कैसे बंद कर सकता हूँ ? सभी लोग अपने बहाने बना रहे हैं। " प्रभुपाद ने विभिन्न नेताओं का विश्लेषण किया और प्रत्येक में कमियाँ पाने पर उन्होंने, निष्कर्ष पर पहुंचते हुए, यह कहा कि वे निर्माण कार्य में तेजी लाने में अक्षम हैं। जब तमाल कृष्ण ने सुझाव दिया कि हो सके तो उन्हें किसी ऐसे आजीवन सदस्य से परामर्श करना चाहिए जो निर्माण कार्य का विशेषज्ञ हो तो प्रभुपाद ने इस सुझाव का समर्थन किया। अतएव मि. मोहता को, जो इंजीनियर थे और एक आजीवन सदस्य थे प्रभुपाद से मिलने के लिए बुलाया गया । उस समय निर्माता कम्पनी माँग कर रही थी कि उसके पिछले सारे बिलों का भुगतान कर दिया जाय, इसके पहले कि वह कार्य आगे बढ़ाए। किन्तु श्रील प्रभुपाद ने कहा कि वे किसी बिल का भुगतान नहीं करेंगे जब तक कि कार्य पूरा नहीं हो जाता; उसके बाद सभी बिलों का पूरा भुगतान किया जायगा, यद्यपि कुछ भक्त चाहते थे कि कम्पनी को, कम-से-कम, आंशिक भुगतान कर दिया जाय जिससे कार्य सरलता से आगे बढ़ता जाय। मि. मोहता को प्रभुपाद का तर्क पसंद आया और वे कम्पनी से उसी आधार पर बात करने लगे। परिणाम ठीक रहा और प्रभुपाद को इससे राहत मिल गई। इस तरह, यद्यपि प्रभुपाद पूरी तरह से अवकाश लेना चाहते थे, किन्तु उन्हें नहीं लगता था कि इस्कान के प्रबन्ध से वे अपने को अभी अलग कर सकते थे । श्रील प्रभुपाद का कोई नियमित डाक्टर नहीं था । समय-समय पर एक कविराज आकर उनके रोग का निदान करते थे और दवा दे जाते थे। किन्तु प्रभुपाद उसे गंभीरता से नहीं लेते थे । वे इन कविराजों को बहुत योग्य नहीं समझते थे और यदि दवा कड़वी होती या उसका बुरा असर होता था तो वे उसे बंद कर देते थे। हर बात कृष्ण के अधीन थी और कोई डाक्टर उसे बदल नहीं सकता था। प्रभुपाद आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक दवाओं के आपेक्षिक गुण-दोषों का वर्णन करते थे, किन्तु अन्य सांसारिक बातों की तरह उन्हें दवा में भी कोई रुचि नहीं थी । वे समाचार पढ़वा कर सुनने लगे थे। अधिकांश समाचारों में काँग्रेस दल के पतन और जनता दल के सुधार सम्बन्धी वायदों का वर्णन होता था । समय-समय पर प्रभुपाद टिप्पणी करते, "ये बदमाश लोग जहाँ जाते हैं वहीं गड़बड़ करते हैं ।" एक बार उन्होंने टिप्पणी की— मन्दः सुमन्द-मतयः — मन्दः सुमन्द-मतयः — उनके विचार बहुत ही गंदे हैं। उनके धार्मिक, सामाजिक, और राजनीतिक सभी विचार निन्दनीय हैं ।" प्रभुपाद का निष्कर्ष था : “ये मूर्ख और बदमाश जो कुछ कर रहे हैं, उसी से समाचार पत्र चलते हैं ।' प्रभुपाद ने तमाल कुष्ण और अन्यों से कहा कि वे पत्र और लेख लिख कर समाचार-पत्रों में छपी कुछ आलोचनाओं का उत्तर दें। एक समाचार-पत्र के सम्पादकीय में लेखक ने औपचारिक शिक्षा की यह कह कर आलोचना की थी कि उससे बच्चों का मन प्रदूषित होता है। लेखक ने बल देकर लिखा था, "शिक्षा - विदों और अनुसंधायकों को इस प्रश्न पर विचार करके कुछ उपचार सुझाने चाहिए। " प्रभुपाद ने कहा, "ये बदमाश नहीं जानते कि नास्तिकता और नास्तिक शिक्षा से यही होता है। जो शिक्षक सुझाव दे रहे हैं वे स्वयं खराब हैं और वे ही नेतृत्व कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि दोष क्या है। आप लोग उन्हें लिख सकते हैं— 'आप नेतागण नहीं जानते कि इसका कारण क्या है। इसका कारण है— हराव् अभक्तस्य कुतो महद्-गुणा / मनोरथेनासति धावतो बहिः । कृष्ण - चेतना के बिना कोई शिक्षा नहीं हो सकती, कोई अच्छे गुण नहीं आ सकते। आप यह नहीं जानते और आप अरण्यरोदन कर रहे हैं। सारी शिक्षा और इसका प्रचार संसार को नास्तिक बनाने के लिए है, यद्यपि ईश्वर का सबसे वैज्ञानिक ज्ञान भगवद्गीता में निहित है। उन्हें लिखो और थप्पड़ लगाओ, 'आप नहीं जानते ।' " दस करोड़ हरिजनों ने नया नेता चुना” शीर्षक एक अन्य लेख में अस्पृश्यों के मानव अधिकारों के भूतपूर्व हिमायती डा. अंबेडकर की पुण्यतिथि मनाई गई थी। लेखक ने खेद प्रकट किया था कि महात्मा गांधी द्वारा 'हरिजन' कहे जाने वाले अस्पृश्यों की दशा कितनी दबी हुई थी। भारत के नेताओं और जनता के लिए वे कितनी विषम समस्या बने हुए हैं। श्रील प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण से सम्पादक को लिखने के लिए कहा कि कृष्णभावनामृत पतित से पतित लोगों का किस प्रकार उत्थान करता है । प्रभुपाद ने कहा, "वे जो कुछ भी हों, हम उनका उत्थान करेंगे ताकि वे परम धाम को जायँ । दोष यह है कि गांधी ने हरिजन आन्दोलन, जहाँ वे हैं वहीं रखते हुए, आरंभ किया और हरिजन की मोहर लगाकर, मात्र उनका नाम बदल दिया। उसे तो असफल होना ही था। केवल उन्हें धन देने या नाम बदल देने से कुछ नहीं बदल सकता। आप को उन्हें बदलना होगा। और उनके पास इसके लिए कोई योजना नहीं है। हमें इस हरिजन शब्द का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, जिसका अर्थ भगवान् का व्यक्तिगत पार्षद् है । प्रभुपाद ने कहा कि कुछ वरिष्ठ भक्तों को नियमित रूप से ऐसे प्रकरणों पर लिखना चाहिए जिनका सुझाव वे देंगे। उन्हें प्रबन्ध का कार्य अधिकाधिक सँभालना चाहिए, लेख लिखना चाहिए और व्याख्यानों के द्वारा उन तर्कों का प्रसार करना चाहिए जिन्हें वे देंगे। प्रभुपाद ने कहा, “जी. बी. सी. के लोगों, अब आपको इस सम्पूर्ण विश्व-संगठन का प्रबन्ध देखना चाहिए। मान लें कि मैं नहीं हूँ। ठीक से प्रबन्ध करें। स्वच्छन्दतापूर्वक नहीं जिससे विनाश हो, वरन् सचमुच ठीक से मैं अब भी मौजूद हूँ, इसलिए आपको निर्देश दूँगा । इसे बिगाड़ें नहीं। हम बहुत अच्छी, सम्मानजनक स्थिति में हैं। अतः कड़ा परिश्रम करो; मैने बहुत निम्न दशा में आरंभ किया था और अब यह इतने ऊँचे स्थान पर पहुँच गया है। आप इसे नष्ट न करें। यही मेरी प्रार्थना है। इसमें बढ़ौती करें। यह आप के आचरण, व्यवहार और प्रचार पर निर्भर करता है। हर एक आश्चर्यचकित था कि मैने इसे बिना किसी सहायता के कैसे आरंभ किया। मेरी एकमात्र पूँजी मेरी निष्ठा थी । इसे हर कोई जानता है । अन्यथा, यह कैसे संभव होता ?" दिन शान्तिपूर्वक बीतते रहे, प्रभुपाद के कमरे में से होकर मंद सुहावनी हवा सदा बहती रहती थी। उनकी बुद्धि सदैव प्रखर और जागरूक बनी रही, और तब भी उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। भवानन्द गोस्वामी मायापुर से आए थे और तन्मय होकर श्रील प्रभुपाद की सेवा कर रहे थे, किन्तु महत्त्वपूर्ण धर्मोपदेश के कार्य से उन्हें बंगाल लौटना था । श्रील प्रभुपाद ने कहा कि मालिश करने और अपने गुरु महाराज की व्यक्तिगत सेवा करने में भवानन्द निस्संदेह, सर्वोत्कृष्ट है । किन्तु निजी सेवक के कार्य से, प्रचार का कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण है । उपेन्द्र, जो श्रील प्रभुपाद का निजी सेवक होने आया था, चकित था कि प्रभुपाद की खुराक में कितना परिवर्तन हो गया था। अब वह खिचड़ी नहीं बना सकता था जो प्रभुपाद पहले इतनी पसंद करते थे । प्रायः प्रभुपाद जब कोई चीज चाहते थे तो अब बोलते भी नहीं थे, वरन् अपनी इच्छा या विचार को वे सिर हिलाकर, दृष्टि घुमा कर, उंगली के इशारे से या केवल 'हुम्म' की आवाज से सूचित कर देते थे । अपने कमरे से प्रभुपाद दिन की सामान्य आवाजें सुना करते थे : कोकिल की कूक, कौओं का काँव-काँव, संगमरमर के मजदूरों के घनों की चोटें दूरी पर भागने वाली कारों के इंजिनों की घरघराहट, भोंपुओं का पों-पों, साइकिलों की घंटियाँ, आदि-आदि। वे प्रत्येक आरती पर बजने वाली पुजारी की घंटी और शंख का नाद भी सुनते रहते थे; मंदिर - कक्ष में चलने वाले कीर्तनों और भजनों की गूँज भी उन्हें सुनाई पड़ती रहती थी । एक दिन सवेरे जब प्रभुपाद तमाल कृष्ण और गिरिराज से बातें कर रहे थे, " गोविन्द" गीत की रेकार्डिंग शुरू हो गई, जो इस बात का संकेत था कि इस्कान के सभी मंदिरों की तरह यहाँ भी अर्चा-विग्रह का सवेरे का दर्शन आरंभ हो गया है। प्रभुपाद बोले, "कृष्णभावनामृत कितनी अच्छी चीज है । उसके लिए मैं अकेले इस संसार में प्रयत्न कर रहा हूँ और, तथा कथित बुद्धिजीवी लोग आगे नहीं आते। उनके अपने धंधे हैं। क्यों ? यदि यह मानव समाज के लिए सचमुच लाभकारी है तो मैं उसके लिए अकेले प्रयत्न क्यों करूँ । मैं जब तक जीवित हूँ प्रयत्न करता जाऊँगा । इसमें कोई रुकावट नहीं आएगी। किन्तु किस तरह के बुद्धिजीवी लोग हैं? हम गोविन्दम् आदि पुरुषम् तम् अहम् भजामि गीत गाते रहेंगे। लोग सुनें, चाहे न सुनें । हमें इसकी चिन्ता नहीं है । गिरिराज संघर्ष के वर्षों में बम्बई - मंदिर का अध्यक्ष बना रहा था और वह लम्बे समय से प्रतीक्षा करता रहा था जब प्रभुपाद अपने राजसी आवास में रहने लग जायँगे और उसमें संसार के बड़े नेताओं का स्वागत करेंगे। अब जबकि शानदार इस्कान केन्द्र वास्तविकता का रूप धारण कर रहा था, गिरिराज को यह विचार सह्य नहीं था कि प्रभुपाद एकान्त में पड़े रहें । अतः जब उसने प्रभुपाद से पूछा था कि क्या वह उनसे मिलने को महत्त्वपूर्ण अतिथियों को ला सकता है तो वे इसके लिए राजी हो गए थे। गिरिराज ने मि. राजदा से प्रभुपाद की भेंट कराई थी, और अब वह संसद के एक अन्य सदस्य, मि. राम जेठमलानी को उनसे मिलाना चाहता था । किन्तु मि. जेठमलानी के मन में कई शंकाएँ थीं और उन्होंने गिरिराज से स्वीकार किया था कि उन्हें पता नहीं कि कृष्ण वास्तव में कभी थे या वे बिल्कुल काल्पनिक हैं। उनकी मुख्य रुचि गंदी बस्तियों को सुधारने में थी । किन्तु वे सामाजिक शिष्टाचार के नाते श्रील प्रभुपाद से भेंट करने को इच्छुक थे— जो, कुछ भी हो, एक विश्वव्यापी आंदोलन के गुरु थे। वे उनसे मिलेंगे और उसके बाद बम्बई निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं को धन्यवाद देने निकलेंगे जिन्होंने हाल में ही उन्हें संसद का सदस्य चुना था । श्रील प्रभुपाद की इच्छा राजनीतिक नेताओं को भगवद्गीता के उपदेशों के अनुसार प्रबुद्ध बनाने की थी । यदि यह संभव नहीं हुआ, तो वे विदेशी भक्तों के लिए विशेष अनुमति पत्र ( वीसा ) प्राप्त करने और बम्बई - मंदिर तथा बम्बई निगम की नौकरशाही के बीच पैदा हुई समस्याओं के समाधान में उनकी सहायता चाहते थे। गिरिराज ने श्रील प्रभुपाद का मि. जेठमलानी से परिचय कराया और जब प्रभुपाद ने सुना कि मि. जेठमलानी की रुचि गंदी बस्तियों के सुधारने में थी तो उन्होंने कहा, “हम चैतन्य महाप्रभु के तरीके से हरिजनों की दशा में सुधार बड़ी आसानी से ला सकते हैं।” उन्होंने भगवान् चैतन्य और भगवान् नित्यानंद को हरे कृष्ण आन्दोलन के जन्मदाता बताया । और उन्होंने कहा कि उनके आंदोलन का उद्देश्य पापी लोगों को हरे कृष्ण मंत्र देकर उनके दुखों का निवारण करना था। प्रभुपाद ने कहा कि, लेकिन ऐसे दावे के लिए साक्ष्य चाहिए। अपने अतिथि की ओर अनुकूल भाव से सिर हिलाते हुए उन्होंने कहा, " आप एक वकील हैं, अतः आप को साक्षी और साक्ष्य चाहिए ।" ?" मि. जेठमलानी ने कहा, “आप मुझ पर दोषारोपण तो नहीं कर रहे हैं । " श्रील प्रभुपाद बोले, "नहीं, यह दोषारोपण नहीं है। यह एक तथ्य है। साक्ष्य के बिना, प्रमाण के बिना कोई कानून कैसे लागू किया जा सकता है ?” प्रभुपाद ने नरोत्तम दास ठाकुर के एक गीत का हवाला देकर अपना साक्ष्य दिया जिसमें दो महान पापियों, जगाई और माधाई, का वर्णन है, जिनकी रक्षा हरे कृष्ण आन्दोलन से हुई थी । प्रभुपाद ने कहा यह घटना पाँच सौ वर्ष पहले की है, किन्तु आज भी देखा जा सकता है कि किस प्रकार हरे कृष्ण आंदोलन के प्रभाव से सचमुच के पियक्कड़ और अवैध यौन सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति, संत पुरुष बन गए हैं। उन्होंने कहा, “कृष्णभावनामृत कितना अच्छा है, उसके सहारे हर एक का उत्थान हो सकता है। इसलिए यह हरिजन क्या है ? हम उनका उत्थान कर सकते हैं।” मि. जेठमलानी ने पूछा कि भगवद्गीता में सार्वजनिक और सामाजिक सेवा पर बल क्यों नहीं है । प्रभुपाद ने कहा, “इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। यह जीवन की पशुवत् धारणा है। कुत्ते भी आपस में मिल कर बा बा बा बा शब्द करते हैं। मनुष्य भी वही कर सकता है। किन्तु तब मनुष्य और पशु में क्या अंतर रह जायगा ?" मि. जेठमलानी ने कहा, “किन्तु मुझे मालूम नहीं कि जानवर एक दूसरे की सेवा करते हैं। इसके विपरीत, मनुष्य जाति के लोग ही सेवा करते हैं । ' प्रभुपाद ने पूछा, “किन्तु इस सेवा का लाभ क्या है ? आप क्या कर सकते हैं ? आपने क्या सेवा की है ? प्रकृति के नियमों से बाहर होकर आप कुछ नहीं कर सकते। इस समय इंदिरा गांधी कठिनाई में हैं। आप क्या कर सकते हैं ? एक दिन में सब समाप्त हो जाता है। प्रकृत्ति का नियम इतना कठोर है। आप कुछ भी नहीं कर सकते। आप भ्रमवश घमण्ड करते हैं कि आप सहायता करना चाहते हैं । किन्तु यह संभव नहीं है । प्रकृतेः क्रियमाणानि आप केवल यह समझने में सहायता कर सकते हैं कि आप यह शरीर नहीं है, आपका असली रूप आत्मा है। आप का काम यही है । यही धर्म है । " मि. जेठमलानी ने प्रतिवाद किया कि फिर भी चारों ओर इतना अधिक दुख है । प्रभुपाद सहमत हुए कि सहानुभूतिपूर्ण होना अच्छा है, किन्तु दुख को दूर करने के लिए सचमुच कुछ करना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा, "इसलिए सबसे पहले आप को यह जानना चाहिए कि दुख का अवरोध कैसे किया जाय । तब आप को आवश्यक कदम उठाने चाहिए। अन्यथा, यदि आप इसकी तरकीब नहीं जानते, तो लाभ क्या ? दुखालयम् अशाश्वतम्। मैं समझता हूँ कि आपने भगवद्गीता पढ़ी है ?" मि. जेठमलानी ने कहा कि उन्होंने पढ़ी थी। उनकी समझ में ठीक तरह से अभी तक नहीं आया था कि भगवद्गीता इतनी व्यावहारिक कैसे हो सकती * हर चीज प्रकृति की शक्ति से होती है । ( भगवद्गीता ३.२७) थी, किन्तु वे श्रील प्रभुपाद की बात को आदरपूर्वक सुन रहे थे और उनके दृढ़ विश्वास की सराहना कर रहे थे। किन्तु कुछ मिनट के बाद वे जाने को तैयार हो गए और बोले, “जो भी हो, मैं आपके गिरिराज से सम्पर्क बनाए रखूँगा । प्रभुपाद उपदेश करते रहे और साथ ही उन्होंने मि जेठमलानी के लिए प्रसाद लाने को कहा । मि. जेठमलानी बोले, “महानुभाव, मैं आप से अनुमति चाहूँगा और आपके आशीर्वाद से मैं आशा करता हूँ कि हम शीघ्र ही .... प्रभुपाद ने कहा, "हम कृष्णभावनामृत का प्रचार बिना किसी सांप्रदायिक भावना के करते हैं। यह आध्यात्मिक स्तर पर एकता है । हमें समझने का प्रयत्न करें ।" मि. जेठमलानी ने कहा कि उन्हें आशा है कि वे प्रभुपाद के आंदोलन की कुछ सहायता कर सकेंगे। श्रील प्रभुपाद ने कहा, "हाँ, इसी की अपेक्षा है कि आप सहयोग करना चाहते हैं । " मि. जेठमलानी ने कहा, "आप जब भी जिस बात के लिए आदेश देंगे ।" श्रील प्रभुपाद बोले, “तो उन्हें सूचित करना । और प्रसाद लाओ ।" मि. जेठमलानी ने पहले तो यह कहा कि अच्छा होगा कि प्रसाद नीचे उनकी कार में पहुँचा दिया जाय जिससे जल्दी से और वे सार्वजनिक सभा में समय पर पहुँच जायँ । किन्तु प्रभुपाद ने आग्रह किया; भगवान् के प्रसाद का आदर करने का यह ढंग नहीं था। उन्होंने कहा, “कृपया ठहर जाइए । " मि. जेठमलानी ने कहा कि वे प्रभुपाद की उपस्थिति में खाना नहीं चाहते थे, किन्तु प्रभुपाद ने आग्रह किया और कहा कि यह प्रेम का आदान-प्रदान था । अंत में जब प्रसाद से भरी प्लेटें लाई गईं तो मि जेठमलानी ने उनकी बड़ी सराहना की। वे इतने व्यस्त रहे थे कि दिन-भर उन्होंने कुछ नहीं खाया था, और उन्हें प्रसाद बड़ा सुस्वादु लगा। जब अतिथि ने खाना आरंभ किया तो प्रसन्नतापूर्वक उन्हें देखते हुए प्रभुपाद ने कहा, "लोगों को ज्ञान देना ही वास्तविक मानव सेवा है।" मि. जेठमलानी अधिक तनावमुक्त और मित्रवत् बन गए और वे प्रभुपाद के दैनिक कार्यक्रम के बारे में तथा पाश्चात्यों ने कृष्णभावनामृत कैसे स्वीकार किया, इसके विविध आयामों के बारे में पूछने लगे । गिरिराज ने उल्लेख किया कि इसके पूर्व मि. जेठमलानी पूछ रहे थे कि कृष्ण वास्तव में कभी थे या वे केवल काल्पनिक चरित्र हैं। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “काल्पनिक क्यों ? वे इतिहास में, महाभारत में, हैं । प्रभुपाद शास्त्रों से कृष्ण के बारे में ऐतिहासिक साक्ष्य देते गए। मि. जेठमलानी प्रसाद खाते रहे और विनम्रतापूर्वक उनकी बात सुनते रहे। समय पर मिष्ठान्न लाए गए। प्रभुपाद ने कहा, कर मिष्ठान्न खाते हैं । " " उत्तर भारत में पहले वे मिष्ठान्न देते हैं और लोग जी - भर मि. जेठमलानी ने कहा, “ अपनी भूख बिगाड़ने का सर्वोत्तम तरीका मिठाइयाँ खाना है । " काप्रभुपाद ने कहा, "हाँ" और वे दोनों हँसने लगे । श्रील प्रभुपाद ने कहा, “ तो मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि आपने प्रसाद पा लिया है। मैं प्रसन्न हूँ। इसीलिए मैं चाहता था कि आप मेरे सामने खाएँ । इससे बड़ी प्रसन्नता होती है ।" प्रभुपाद और उनके अतिथि, मि. जेठमलानी, बड़े सद्भाव के साथ एक दूसरे से विदा हुए और मि. जेठमलानी ने वादा किया कि कोई भी समस्या आई तो वे गिरिराज से बात करेंगे। गिरिराज भावविह्वल थे। प्रभुपाद को बम्बई मंदिर में शेर- दिल राजनीतिज्ञों को विनम्र भक्तों में बदलने का उनका स्वप्न पूरा हो रहा था । श्रील प्रभुपाद बारम्बार कहते थे कि इस्कान के नेताओं को चाहिए कि प्रभुपाद के सीधे दखल के बिना, वे स्वयं प्रबन्ध करने के लिए अपने को तैयार करें। एक दिन वे न्यू यार्क में अपने प्रथम वर्ष की कुछ घटनाओं का स्मरण कर रहे थे कि एकाएक वे भविष्य की बातें करने लगे। उन्होंने कहा, " मेरे वरिष्ठ लोगो, यह तुम पर है कि तुम इसे विनष्ट न होने दो। मैं तुम लोगों से विदा ले सकता हूँ। मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। मैं वृद्ध हो गया हूँ। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मेरे जी. बी. सी. युवको, तुम अमरीकी हो, तुम पटु हो। तुम में सारी बुद्धि है। अतः इसे नष्ट न होने देना । इस आंदोलन को और आगे बढ़ने देना । तुम्हारे पास अनेक उत्तम स्थान हैं, ... चिन्ता मत करो। यदि मैं चला भी जाऊँ तो हानि क्या है ? मैने अपने विचार और निर्देश पुस्तकों में दे रखे हैं। तुम्हें केवल उन्हें देखना है। मैं सोचता हूँ, मैंने अपना कार्य पूरा कर दिया है । है न ? तुम भी ऐसा सोचते हो या नहीं ?" “हाँ, आपने सब कुछ कर लिया है। फिर भी श्रील प्रभुपाद, हम पूरा भागवत चाहते हैं । " श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "वह हो जायगा । यदि वह पूरा न भी हो, तो भी कोई हानि नहीं, तुम लोग सक्षम हो। तुम लोग उसका भार ले सकते हो । अब तुम सारे धन का भार ले सकते हो और मुझे प्रबन्ध से मुक्त कर सकते हो। मेरी एकमात्र प्रार्थना है कि इसे विनष्ट न होने देना । मैने कभी - कभी तुम लोगों को ताड़ना भी दी है, जिससे यह नष्ट न होने पाए । ' प्रभुपाद ने कहा कि उनके लिए यह देखना सुखद होगा कि उनके इस्कान नेताओं के अधीन सारा कार्य उत्तम ढंग से चल रहा है। " और मैं पुस्तकें लिखता जाऊँगा । यह ठीक रहेगा न ?” उन्होंने बताया कि उन्हें अब अधिक खाने की आवश्यकता नहीं है। चूँकि वे शारीरिक रूप से सक्रिय नहीं हैं, इसलिए उनके दोपहर के भोजन में चपाती और चावल लेना कोई अर्थ नहीं रखता । गिरिराज ने कहा कि प्रभुपाद, आपको खाते और प्रसाद का आनंद लेते देख हम भक्तों को प्रसन्नता होगी। किन्तु प्रभुपाद ने इसकी अवहेलना करते हुए कहा कि थोड़े फल और दूध से मस्तिष्क को सक्रिय रखा जा सकता है। ऐसी चित्तवृत्तियाँ, जब प्रभुपाद अवकाश ग्रहण करते या उपवास की बात करते, या अपनी मृत्यु तक का संकेत देते, कभी-कभी ही पैदा होती थीं। ये चित्तवृत्तियाँ वास्तविक होती थीं, व्यावहारिक और गंभीर होती थीं, किन्तु शीघ्र ही प्रभुपाद, अन्य बातों की ओर मुड़ जाते थे और अपने शिष्यों, अपने आंदोलन तथा विश्व से निरन्तर जुड़े रहने का वचन देने लगते थे। कुछ समय तक इस तरह की बातें करने के बाद वे पुनः वैज्ञानिकों तथा राजनीतिज्ञों की मूर्खता के विषय में तीखी आलोचना करने लग जाते थे । श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यदि कोई मनुष्य इस सरल तर्क को न स्वीकार करे कि ईश्वर का अस्तित्व जरूर है, तो या तो वह दुराग्रही है या सनकी । उन्होंने कहा, “किन्तु ऐसे पशू, बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, धर्मविदों आदि के रूपों से विख्यात हो रहे हैं। हमें उन्हें रोकना है। न माम् दुष्कृतिनो मूढ़ा: प्रपद्यन्ते नराधमाः । जो व्यक्ति ईश्वर को नहीं स्वीकार करता, उसकी यही विशेषता है। या तो वह दुष्कृतिन: है, नराधम है, मूढ़ है या माययापहृत - ज्ञान है। माययापहत - ज्ञान का तात्पर्य उन लोगों से है जो उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, किन्तु जिन्हें ज्ञान नहीं है। आसुरम् भावम् आश्रितयाः का अर्थ ऐसे लोगों से है जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते, अतएव कृष्णभावनाभावित नेताओं के रूप में आप को चाहिए कि इन धूर्तों को प्रताड़ना दें । " गिरिराज ने कहा, "उन्हें प्रताड़ना देने में सचमुच मजा आता है।" प्रभुपाद हँसने लगे, "हाँ, यह एक आनन्दप्रद क्रीड़ा है।" जब वे बातें कर रहे थे क्षीर-चोर-गोपीनाथ एक दैनिक समाचार पत्र के साथ दाखिल हुआ। प्रभुपाद ने पूछा, 'समाचार क्या है ? ये दुष्ट क्या कर रहे हैं? समाचार पत्र का तात्पर्य है इन दुष्टों के वक्तव्य ।" गोपीनाथ ने सुर्खियों को उच्च स्वर में पढ़ा, “काँग्रेस मुख्यमंत्री से ईमानदार दलील... विधान सभा निर्वाचन की माँग शरारतपूर्ण । " प्रभुपाद बोले, “फिर निर्वाचन" मानो निर्वाचन उनकी योग्यता में परिवर्तन ला देगा। उन्हें धूर्त ही बने रहने दो, निर्वाचन से इतना होगा कि एक धूर्त का स्थान दूसरा धूर्त ले लेगा। वे धूर्त रहेंगे, किन्तु वोट पाएँगे। भागवत में । कहा है : श्वविद्वराहोष्ट्र खरैः संस्तुतः जन-सामान्य श्वविद् - वराहोष्ट्र हैं और श्वविद्-वराहोष्ट्र वे अन्य बड़े पशु को मत दे रहे हैं। हाँ, यही जनतंत्र है। मतदाता स्वयं पशु हैं और वे अन्य बड़े पशुओं को मत दे रहे हैं। यही चल रहा है। ये धूर्त नहीं समझते कि शेर के स्थान पर यदि हम सिंह को चुने तो क्या अंतर है । केवल नाम का अन्तर है। पहले शेर अध्यक्ष था, अब सिंह अध्यक्ष होगा । और दोनों पशु हैं। मनुष्य कहाँ है ? और चूँकि शेर सिंह दोनों पशु है इसलिए वे कहते हैं, 'ओ, अब सिंह आ गया है, शेर भगा दिया गया है। अब सिंह का राज्य है।' इसी तरह यह चल रहा है। क्या मैं ठीक कह रहा हूँ ?" । श्रील प्रभुपाद की तेज, आलोचनात्मक रुचि अपने आन्दोलन में बनी रही । जब उन्हें यह रिपोर्ट मिली कि लास एंजिलिस में बी. बी. टी. के साथ काम करने वाले भक्तों को वेतन मिल रहा है तो वे क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने अपनी नीति का निरूपण किया और अपने सचिव को उसे सर्व-सूचित करने को कहा, उन्होंने कहा, “कृष्णभावनामृत का अर्थ वैराग्य-विद्या है। वे मंदिर की सुविधाओं का लाभ अपनी इन्द्रिय- तृप्ति के लिए उठा रहे हैं। क्या आप यह बात समझते हैं ?" प्रभुपाद ने कहा मंदिर - निवास ब्रह्मचारियों और संन्यासियों के लिए है। यदि कोई गृहस्थ आवश्यक सेवा कर रहा है तो मंदिर उसे आवास की सुविधा दे 'जो मनुष्य कुत्ते, सुअर, ऊँट और गधे की तरह हैं वे भक्तिहीनों की महिमा गाते हैं। सकता है। " किन्तु वेतन क्यों ?” प्रभुपाद ने पूछा, " वेतन का प्रश्न कहाँ आता है ? इसमें वैराग्य कहाँ रह गया ? वेतन की योजना बंद कर देनी चाहिए। यदि वे वेतन चाहते हैं तो उन्हें बाहर काम करना चाहिए। वैष्णव के नाम में लोग वेतन ले रहे हैं, आराम से रह रहे हैं और इन्द्रिय-सुख भोग रहे हैं। अतः मेरे सभी अधिकारियो, आप इस पर विचार करें और आवश्यक कार्यवाही करें ।' प्रभुपाद ने बताया कि भगवान् चैतन्य किस तरह अपनी पत्नी और माँ के साथ पूर्ण सुखपूर्वक परिवार में रह रहे थे, फिर भी उन्होंने वैराग्य का जीवन बिताने के लिए सब कुछ त्याग दिया। और इसलिए सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनकी प्रशंसा की, “आप परम पुरुष हैं जो श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में प्रकट हुए हैं और आप वैराग्य और प्रेमाभक्ति सिखा रहे हैं । " गिरिराज और उनके राजनीतिक परिचित, मि. राजदा, कई सप्ताह से भारत के नए प्रधान मंत्री, मोरारजी देसाई, से श्रील प्रभुपाद की भेंट कराने के सम्बन्ध में बातें करते आ रहे थे। जब यह बात श्रील प्रभुपाद के सामने लाई गई तो सबसे कठिन प्रश्न यह पैदा हुआ कि श्रील प्रभुपाद प्रधान मंत्री से मिलने नगर में किसी स्थान पर जाने को तैयार होंगे या नहीं । प्रभुपाद ने कहा, "यह सम्मानजनक नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि वे ( प्रधान मंत्री) नहीं जानते कि एक संत पुरुष का आदर कैसे किया जाता है। मिलना बेकार है । यदि वे एक संत पुरुष का आदर नहीं करते, यदि वे समझते हैं कि वे एक संत पुरुष से बड़े हैं तो उनसे मिलना बेकार है । " तमाल कृष्ण ने कहा, “हाँ, तो भेंट गलत स्तर से शुरु होगी। उन्हें आप से मिलने आना है। श्रील प्रभुपाद । शास्त्रों में जाने कितने उदाहरण हैं जब महान् पुरुष संतों से मिलने गए हैं। " श्रील प्रभुपाद ने कहा, “ चैतन्य महाप्रभु ने भी उड़ीसा के राजा से मिलने को मना कर दिया था। उनके यहाँ जाने की तो बात ही क्या ? प्रभुपाद ने बताया कि उन्हें प्रधान मंत्री से कुछ नहीं चाहिए, किन्तु मानव समाज के कल्याण के लिए वे उन्हें कुछ सुझाव दे सकते थे। उन्होंने कहा कि यह सच है कि कठिनाई में होने पर कभी - कभी संत पुरुष किसी राजा के पास जा सकते हैं। उन्होंने भगवान् चैतन्य के शिष्य, गोपीनाथ पट्टनायक, का उदाहरण दिया और बताया कि किस तरह भक्तों ने भगवान् चैतन्य से, हस्तक्षेप करके उनकी रक्षा करने के लिए प्रार्थना की थी। किन्तु भगवान् चैतन्य ने बताया कि ऐसे राज - पुरुषों से मिलना कठिन होता है। इन सब निर्देशनीय बातों को ध्यान में रखते हुए गिरिराज ने भेंट के विचार का अनुसरण किया । ५ मई को करीब आधी रात में गिरिराज को राजदा का फोन मिला: मोरारजी देसाई से भेंट अगले दिन सुबह साढ़े सात बजे निश्चित हो गई थी । प्रधान मंत्री बम्बई में केवल एक या दो दिन रहेंगे और अपने पुत्र के स्थान पर मेरीन ड्राइव में रुकेंगे। यद्यपि गिरिराज जानते थे कि प्रभुपाद कह चुके थे कि वे मि. देसाई से मिलने नहीं जायँगे, फिर भी उन्होंने प्रभुपाद से परामर्श करना चाहा कि कुछ वरिष्ठ शिष्यों को जाना चाहिए या नहीं। प्रभुपाद को बाधा न हो, इसलिए गिरिराज कमरे के पास दबे पांव गए और उन्होंने अंदर झाँका । प्रभुपाद जग रहे थे और अपने मेज पर बैठे अनुवाद - कार्य में लगे थे। उन्होंने ऊपर देखा और गिरिराज को खड़ा पाकर उन्हें अंदर आने का संकेत दिया। गिरिराज ने कहा, " 'श्रील प्रभुपाद, मुझे इस समय आपके कार्य में बाधा डालने का खेद है, किन्तु मुझे रतनसिंह राजदा से अभी एक फोन मिला है।' गिरिराज ने बताया कि मोरारजी देसाई अगले दिन सवेरे अपने निवास पर प्रभुपाद से मिलने को तैयार थे। श्रील प्रभुपाद ने कहा कि वे यह देखना चाहते हैं कि मोरारजी देसाई, हरे कृष्ण लैंड में जाकर प्रभुपाद से मिलने को इच्छुक हैं या नहीं। उन्होंने कहा, "यह बात नहीं है कि मैं घमण्डी हूँ और उनके स्थान पर उनसे मिलने नहीं जा सकता । किन्तु जब तक उनमें आदर भाव न हो तब तक मिलना व्यर्थ है ।" प्रभुपाद ने कहा कि इस बात से परख होती है कि प्रधान मंत्री का मनोभाव ठीक है अथवा नहीं। वे सहमत थे कि तमाल कृष्ण गोस्वामी और गिरिराज को चाहिए कि वे जाकर प्रधान मंत्री से मिल लें। गिरिराज : श्रील प्रभुपाद से मेरी यह भेंट पहले की किसी भी भेंट से अधिक संजीदा और बेजोड़ थी, यद्यपि मैं उनके सामने अनेक बार प्रस्तुत हो चुका था। हम दोनों आधी रात में अकेले थे। शेष सभी सो रहे थे। सभी बत्तियाँ बुझी थीं, और उस बड़े कमरे में हम दोनों अकेले थे। वे अनुवाद करने वाले अपने संगमरमर के मेज के पीछे बैठे थे और मैं उनके चरणों में फर्श पर बैठा था । मैंने कहा, "प्रभुपाद, मुझे खेद है मुझे आधी रात के समय इस तरह आपको कष्ट देना पड़ा। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “कोई बात नहीं, सच तो यह है कि इस बीमारी के कारण मुझे रात में नींद नहीं आती। मैं चाहूँ भी तो भी मैं सो नहीं सकता। इस बीमारी के कारण मैं कुछ खा भी नहीं सकता । मैं वृद्ध हो गया हूँ । यौन जीवन का कोई प्रश्न ही नहीं है। प्रतिरक्षा का भी कोई प्रश्न नहीं है, अतः मेरा अनुमान है कि अब है कि अब मैं मुक्त हूँ।” निस्सन्देह, मैं जानता था कि श्रील प्रभुपाद मुक्त थे, अपनी शारीरिक अवस्थाओं के कारण नहीं, जैसा कि विनम्रतापूर्वक वे कह रहे थे, वरन् इस कारण कि वे दिव्य भावामृत की अवस्था में थे। वे रात में हमेशा जग जाते थे और अनुवाद में लग जाते थे, इसलिए नहीं कि वे बीमार थे और सो नहीं पाते थे, वरन् इसलिए कि अपने गुरु महाराज और कृष्ण के प्रति उनके मन में चरम भक्ति थी । किन्तु यह बहुत टेढ़ी और परिहासपूर्ण टिप्पणी थी और उनसे हुई पूरी बात से मैं बड़ा चमत्कृत हुआ, उनको प्रणाम किया और अपने स्थान पर सोने चला गया । अगले दिन सवेरे तमाल कृष्ण गोस्वामी और गिरिराज प्रधान मंत्री से मिलने के लिए समय से काफी पहले तैयार हो गए। जाने के पहले उन्होंने प्रभुपाद से पूछा कि प्रधान मंत्री को वे कौन-सी पुस्तकें दें। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "भगवद्गीता, कृष्ण और भगवान् चैतन्य की शिक्षाएँ ।” गिरिराज ने पूछा, “हिन्दी में ? " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "नहीं, अंग्रेजी में।" दोनों भक्त अपनी कार में मि. राजदा को लेने उनके फ्लैट पर गए, जहाँ से उन्हें मेरीन ड्राइव - स्थित प्रधान मंत्री के आवास पर पहुँचना था । गिरिराज के बीस मिनट तक लगातार मुख्य द्वारकी घंटी बजाते रहने के बाद अंत में मि. राजदा प्रकट हुए। उन्होंने कहा कि उन लोगों को केवल पाँच मिनट और प्रतीक्षा करनी है— इस बीच वे कपड़े पहनते और खाते रहे। दुर्भाग्य से जब वे मेरीन ड्राइव में प्रधान मंत्री के स्थान पर पहुँचे तब आठ बज चुके थे। वे तीस मिनट लेट थे । वे ज्योंही दाखिल हुए प्रधान मंत्री बोले, “आप लोग बहुत लेट आए हैं।" वे अन्य लोगों से मिल रहे थे और उन्होंने कहा कि वे भक्तों से केवल कुछ मिनट मिलेंगे। उन्होंने दुहराया कि वे ७.२५ से प्रतीक्षा कर रहे थे। भक्त मौन बने रहे; वे नहीं जानते थे कि क्या कहें। मि. देसाई ने कुछ अधिक नहीं कहा और शीघ्रतापूर्वक उन लोगों से विदा लेकर अन्यों से हो रही बैठक में चले गए। जब भक्तजन मंदिर वापस पहुँचे तो प्रभुपाद ने उत्सुकतापूर्वक पूछा कि क्या हुआ ? वे यह जान कर बहुत नाराज हुए कि उनके भक्त लेट पहुँचे थे। उन्होंने कहा " बहुत खराब बात ।” उन्होंने टिप्पणी की कि मोरारजी देसाई अपनी समय-निष्ठा के लिए विख्यात हैं। उन्होंने कहा कि अपने शिथिल आचरण से भक्तों ने एक अच्छा अवसर खो दिया है। जब भक्तों ने बताया कि मि. राजदा ने उन्हें लेट कर दिया तो प्रभुपाद ने पूरी रिपोर्ट माँगी। भक्तों ने कहा कि जो मुख्य चीज मोरारजी देसाई जानना चाहते थे वह यह थी कि वे लेट क्यों हुए । प्रभुपाद ने पूछा, “क्या तुम लोगों ने बताया कि लेट होने का कारण रतन सिंह राजदा थे ? " गिरिराज और तमाल कृष्ण ने अपने सिर हिला दिए । प्रभुपाद को चिढ़ हुई और वे बोले, “तुम लोगों ने यह क्यों नहीं कहा कि राजदा ने लेट कर दिया ? और वे समय पर थे, किन्तु उन्होंने लेट कर दिया। मैं जानता हूँ कि तुम लोग सोच रहे थे कि वे हमारे मित्र हैं अत: तुम लोग प्रधान मंत्री के सामने उनको उलझन में नहीं डालना चाहते थे, किन्तु इससे तो सब कुछ बर्बाद हो गया।” बहुत बेवकूफी और शरम-सी अनुभव करते हुए दोनों भक्त प्रभुपाद के सामने मौन बैठे रहे। एक मिनिट तक सोच कर श्रील प्रभुपाद बोले, “जो भी हो, ये लोग अपने विचार कभी बदल नहीं सकते । " श्रील प्रभुपाद प्रायः ऐसे स्थान की यात्रा के बारे में बात करते थे जो उनके स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हो । मई के मास में बम्बई में गर्मी अधिक थी । मानसून शीघ्र ही आने को था। वे कश्मीर जाने के विषय में विचार कर रहे थे, क्योंकि वह स्थान स्वास्थ्य के लिए लाभदायक अपनी जल - वायु के लिए विख्यात है। किन्तु वहाँ ठहरने के लिए कोई उपयुक्त स्थान नहीं मिल सका और मौसम अत्यधिक ठंडा था। तभी एक दिन गुजरात के भूतपूर्व राज्यपाल श्रीमन्नारायण उनसे मिलने आए। श्रीमन्नारायण ने कहा, “आपको अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए । मुझे आशा है, आप ठीक हो जायँगे । " प्रभुपाद हँसे, "ओ, यह एक पुरानी मशीन है। इसे जितना सुधारा जाय, यह उतनी बिगड़ती जायगी। किन्तु मेरा काम कभी रुकता नहीं। वह चलता रहता है। मेरा मुख्य कार्य पुस्तकें लिखना है और वह चलता जा रहा है । ' कई अन्य भारतीय अतिथि उपस्थित थे और वे सभी स्वास्थ्य के लिए अच्छे स्थानों की संस्तुति करने लगे : श्रीनगर, कश्मीर, देहरादून, मसूरी, शिमला, हरिद्वार। श्रीमन्नारायण ने कहा, "हरिद्वार का जल अच्छा है, किन्तु उससे अच्छा ऋषिकेश रहेगा जहाँ गंगा बहती है। जो-जो स्थान गंगातट पर हैं उन का जल अत्युत्तम है। शुद्ध गंगा जल मिलता है । " श्रील प्रभुपाद ने इन टिप्पणियों को गंभीरता से लिया और अपने शिष्यों की ओर मुड़ कर कहा, " ठीक है, तो हम ऋषिकेश जा सकते हैं। यह समय बहुत अच्छा है। इसकी व्यवस्था कर लेनी चाहिए।" उस क्षण से ऋषिकेश जाने की योजना पक्की हो गई और प्रभुपाद बम्बई से एक सप्ताह के भीतर प्रस्थान की तैयारी करने लगे । |