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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 52: ‟मैने अपने हिस्से का कार्य पूरा कर दिया है”  » 
 
 
 
 
 
षिकेश में पहला सप्ताह स्वर्गिक आनन्द से पूर्ण था, मौसम ठीक रहा और ऐसा लगा कि प्रभुपाद खाने लगेंगे और स्वास्थ्य लाभ कर लेंगे। किन्तु आठवीं रात एक भीषण तूफान आया और इस तूफान के साथ प्रभुपाद के स्वास्थ्य में गहरी गिरावट आई। वे कहने लगे कि उनका अंत निकट है, अतः यदि कृष्ण की इच्छा है कि शीघ्र ही इस संसार से विदा लूँ तो मुझे तुरन्त वृंदावन ले जाया जाय ।

ऋषिकेश में भक्तगण अत्यन्त प्रफुल्लित थे और श्रील प्रभुपाद भी उसी तरह थे । बोट से गंगा नदी पार करते हुए प्रभुपाद ने आग्रह किया कि बीच नदी से उनके लिए पीने का पानी लाया जाय। उन्हें मेजबान द्वारा प्रदत्त विश्रामालय पसंद आया था और वे अपने शिष्यों को भोजन बनाना सिखाने के लिए रसोई-घर तक में पहुँच गए थे। तीर्थयात्रियों के इस नगर में बात चारों ओर फैल गई थी कि ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी आए हुए हैं और प्रभुपाद नित्य संध्या समय पाँच बजे से छह बजे तक दर्शन देने को राजी हो गए थे। इस बीच उनके कमरे में हमेशा भीड़ लगी रहती, चालीस-पचास व्यक्ति वहाँ सदैव रहते जिनमें पश्चिमी हिप्पी, स्वार्थ साधक और तीर्थयात्रा या अवकाश पर आए भारतीय भी सम्मिलित होते । यद्यपि श्रील प्रभुपाद की वाणी अत्यन्त क्षीण हो चुकी थी किन्तु वे बलपूर्वक भगवद्गीता यथारूप पर जोर देकर बोलते थे ।

जब एक अमरीकी हिप्पी ने उनसे संदेहपूर्ण स्वर में कोई प्रश्न पूछा था तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “तुम समझ नहीं पाओगे, क्योंकि तुम सनकी हो । और जब एक महिला ने भौतिकतावादी कल्याण कार्य को सर्वोपरि कार्य बताते हुए प्रश्न किया था तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, " तुम्हारी करुणा उसी प्रकार

जैसे फोड़े को अच्छा करने के लिए उस पर फूँक मारना ।'

ऋषिकेश में प्रभुपाद के साथ थोड़े से ही शिष्य थे और उन्होंने इसे आश्चर्यजनक मनोरंजन समझा था। प्रभुपाद, न केवल भोजन बनाने के बारे में निर्देश देते थे, वरन् भोजन बनाते समय कहानियाँ भी सुनाते थे। उन्होंने बताया कि केवल आलसी आदमी ही भोजन नहीं बना सकता और उन्होंने दृष्टान्त स्वरुप एक बंगाली कहानी सुनाई — एक आलसी व्यक्ति की कहानी । एक राजा था जिसने घोषित किया कि उसके राज्य के सारे आलसी व्यक्ति धर्मशाला में आ जाएँ जहाँ उन्हें भोजन दिया जाएगा। अतः अनेक लोग यह दावा करते आ गए कि मैं आलसी व्यक्ति हूँ। तब राजा ने अपने मंत्री से कहा कि धर्मशाला में आग लगा दी जाय । केवल दो व्यक्तियों को छोड़ कर बाकी लोग जलती हुई धर्मशाला से भाग निकले। उन दोनों में से एक ने कहा, “आग के कारण मेरी पीठ जल रही है।" और दूसरे ने सलाह दी, “ दूसरी ओर पलट जाओ ।" तब राजा ने कहा, “ये दोनों सचमुच आलसी हैं। इन्हें खाना दिया जाय । "

किन्तु १५ मई की शाम को श्रील प्रभुपाद न तो सो सके न अनुवाद लिखाने का ही कार्य कर सके । तूफान, जो मानसून का अग्रदूत था, आया तो उसने ऋषिकेश में बिजली की सारी व्यवस्था उखाड़ फेंकी। चूँकि पंखे नहीं चल रहे थे और हवा के कारण खिड़कियाँ बंद करनी पड़ी थीं, इसलिए कमरा अत्यन्त गर्म हो उठा ।

प्रातः ५ बजे प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण गोस्वामी को बुलाया और कहा कि उन्हें बहुत कमजोरी लग रही है। तमाल कृष्ण ने एक घंटे तक प्रभुपाद की मालिश की। सूर्योदय होने पर भी हवा नहीं रुकी और रेत उड़ती रही ।

यह तूफान और बिजली का अवरोध दूसरी रात तक चलता रहा । तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद के हाथों और पैरों में सूजन के बारे में पूछा तो वे चिढ़ कर बोले, "तुम्हें क्यों चिन्ता हो रही है ? यह शरीर मेरा है और मुझे कोई चिन्ता नहीं है।” किन्तु वे फिर बोले, “भौतिक दृष्टि से यह ठीक नहीं । कृपया इस पर विचार करें कि जी. बी. सी. को सब कुछ किस तरह सौंपा जाय जिससे मेरी अनुपस्थिति में सारा कार्य चलता रहे। तुम वसीयतनामा तैयार कर सकते हो और मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूँगा।” अब वे निश्चयात्मक स्वर में ऐसी चीजों के बारे में बात कर रहे थे जिनके विषय में पहले वे केवल संकेत करते थे।

अचानक डेढ़ बजे प्रातः प्रभुपाद ने घंटी बजाई और तमाल कृष्ण तथा क्षीर-चोर - गापीनाथ दौड़ पड़े। मसहरी के भीतर से उन्होंने कहा,

" जैसा कि

" मैंने अपने हिस्से का कार्य पूरा कर दिया है।

मैं तुम लोगों से कह रहा था, लक्षण अच्छे नहीं हैं। मैं तुरन्त वृंदावन के लिए प्रस्थान करना चाहता हूँ।” उन्होंने कहा कि यदि उनके मरने का समय आ ही रहा था, तो इसे वृंदावन में होने दिया जाय । चूँकि वे तुरन्त चलना चाहते थे, इसलिए भक्तगण रात भर जाग कर उनका सामान बाँधते रहे और चलने की तैयारी करते रहे। रेलगाड़ी में आरक्षण उपलब्ध न था, अतः उन्होंने कार से जाने का निश्चय किया ।

श्रील प्रभुपाद छोटी-सी ऐम्बेसेडर कार की पिछली सीट पर बैठे थे, कभी-कभी वे सीट पर पांव फैला लेते थे। उपेन्द्र उनके चरणों में फर्श पर बैठा था, तमाल कृष्ण सामने की सीट पर दामोदर पंडित की बगल में बैठा था । दामोदर पंडित अनुभवी ड्राइवर था और वह कार बहुत तेजी से, किन्तु अत्यंत सावधानी से, चला रहा था। वह प्रायः पीछे का दृश्य दिखाने वाले शीशे में ताक लेता था और उससे प्रभुपाद की सावधान दृष्टि उसे दिखाई दे जाती थी । एक स्थान पर जब प्रभुपाद ने एक व्यक्ति को ककड़ियाँ बेचते देखा तो उन्होंने दामोदर से कार रोकने को कहा। वे बोले कि प्यास बुझाने के लिए ककड़ियाँ अच्छी होती हैं।

साढ़े चार घंटे के बाद वे दिल्ली पहुँचे और लाजपत नगर में इस्कान केन्द्र पर रुके। गर्मी बहुत थी। भक्तों ने छत पर पानी का छिड़काव किया और श्रील प्रभुपाद ने एक खाट पर विश्राम किया ।

अगले दिन सवेरे पाँच बजे वे वृंदावन के लिए तैयार हो गए। दिल्ली मंदिर में भक्तों ने प्रभुपाद को अर्चा-विग्रहों का प्रसाद एक बड़ी प्लेट में परोसा किन्तु उन्होंने केवल कुछ ही कौर खाए। उन्होंने कहा, “खाना पीना समाप्त हो गया । मैने कृष्ण से प्रार्थना की कि मुझे खाने और सोने से मुक्ति दें और अब वह हो रहा है। मैं यौन-क्रिया और प्रतिरक्षात्मक क्रिया कभी का छोड़ चुका हूँ। अब ये सारे भौतिक कार्यकलाप समाप्त हो गए हैं । "

जब वे नगर से बाहर निकल कर देहाती - क्षेत्र में पहुँचे तो तमाल कृष्ण ने देखा कि श्रील प्रभुपाद अधिक शान्ति का अनुभव करने लगे । तमाल कृष्ण बोला, “वृंदावन जाते हुए आप बहुत प्रसन्न लग रहे हैं । "

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “हाँ, वृंदावन मेरा घर है, और बम्बई मेरा कार्यालय है । "

वे ज्योंही दिल्ली-आगरा सड़क से मुड़े, श्रील प्रभुपाद ने पत्थर पर " भक्तिवेदान्त स्वामी मार्ग" लिखा पहली बार देखा । शीघ्र ही उनकी भेंट गुणार्णव से हुई,

जो मोटर साइकिल पर प्रतीक्षा कर रहा था और जो प्रसन्नतापूर्वक तेजी से आगे बढ़ गया, कृष्ण-बलराम मंदिर के भक्तों को सूचित करने के लिए कि श्रील प्रभुपाद आ रहे हैं। मंदिर - द्वार पर गुरुकुल के सभी बालकों सहित एक विशाल कीर्तन मण्डली प्रभुपाद का, कीर्तन और नृत्य से, स्वागत करने के लिए एकत्रित हुई थी । चार भक्त प्रभुपाद को डोली में मंदिर के बड़े कक्ष में ले गए जहाँ उन्होंने भगवान् कृष्ण और भगवान् बलराम को प्रणाम किया । श्रील प्रभुपाद के सम्मान में आरती सम्पन्न होने के बाद प्रभुपाद ने संक्षेप में एकत्रित भक्तों को सम्बोधित किया ।

उन्होंने कहा, “यदि मेरी मृत्यु होती है तो यहीं होने दो।” उनका मनोभाव देख कर और उनको इस प्रकार के अप्रत्याशित शब्दों में बोलते सुन कर कमरे में कुछ भक्त रोने लगे। उन्होंने आगे कहा, “अब कहने के लिए कुछ भी नया नहीं है। मुझे जो कुछ कहना था, मैंने अपनी पुस्तकों में कह दिया है। अब उसे समझने का प्रयत्न करो और प्रयास जारी रखो। मैं रहूँ या न रहूँ, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता । जिस प्रकार कृष्ण शाश्वत रह रहे हैं, उसी प्रकार यह जीव भी शाश्वत रहता है; किन्तु जीवित वही है जिसकी कीर्ति हो । — कीर्तिर्यस्य स जीवति । जिसने भगवान् कृष्ण की सेवा की है वह सदा जीवित रहेगा। अतएव, तुम लोगों को कृष्ण की सेवा करने की शिक्षा मिली है। इसलिए कृष्ण के साथ हमारा जीवन शाश्वत है। शरीर के क्षणिक विलुप्त होने से कुछ अंतर नहीं पड़ता । यह शरीर विलुप्त होने के लिए ही है। इसलिए कृष्ण की सेवा करके अमर रहो ।"

इन अन्तिम शब्दों के बावजूद प्रभुपाद अपने कमरे में बैठे, उन कुछ अतिथियों के साथ बात करते रहे, जो भक्तों के जाने के बाद वहाँ रह गए थे। उनमें एक अवकाश प्राप्त गृहस्थ मि. बोस थे जिन्होंने प्रभुपाद से पूछा कि वे कृष्ण-बलराम मंदिर में अब अकेले कैसे रह रहे थे। प्रभुपाद ने कहा, " आप इस तरह के जीवन से सामंजस्य नहीं बैठा सकते।” किन्तु जब मि. बोस ने अपना दृढ़ निश्चय दुहराया तो

प्रभुपाद ने कहा, “आपका परिवार बहुत अच्छा है। इसलिए आप आशा कर सकते हैं। "

श्रील प्रभुपाद ने ऋषिकेश में अपने कुछ क्रियाकलापों का वर्णन किया और उन्होंने बताया कि उनका आन्दोलन किस तरह विश्वव्यापी स्तर पर शक्तिशाली होता जा रहा था और किस तरह न्यू यार्क के जज ने उनके अनुकूल निर्णय दिया था ।

थोड़ी देर के बाद वार्तालाप भूतों की ओर मुड़ा और प्रभुपाद ने कलकत्ता में लोकनाथ मल्लिक के भुतहे घर के बारे में बताया। प्रभुपाद ने लखनऊ में भी एक भुतहा घर किराए पर लिया था । उन्होंने कहा, “मैं भूतों से नहीं डरता। मैं भूतों से अप्रभावित हूँ। इंग्लैंड में भी बहुत-से भूत हैं। आमतौर से वे खराब होते हैं और कभी-कभी लोगों को मार भी डालते हैं। कभी-कभी उन्हें किसी शौचालय में घुसते देखा जाता है या वे किसी खंभे पर भी बैठे होते हैं। पिण्डदान करके लोग अपने पूर्वजों को भूतों से मुक्त कराते हैं । मायापुर में कभी मुसलमान भूत हुआ करते थे, किन्तु अब नहीं हैं। हमारे हरे कृष्ण कीर्तन से भूत भाग जाते हैं । "

प्रभुपाद ने एक नियमित कार्यक्रम आरंभ किया । सवेरे वे कार में बैठ कर भक्तिवेदान्त मार्ग पर कुछ दूर जाते थे। उनके लिए कार की सवारी भी कठिन थी, किन्तु सवेरे की हवा, दिन की गर्मी की अपेक्षा, ठंडी और ताजा होती थी और नीम और झाड़ियों से दोनों ओर घिरी सड़क अच्छी लगती थी । हर दिन सवेरे वापस आकर वे श्रद्धा और प्रेम के साथ कृष्ण और बलराम का दर्शन करते थे। तब वे अपने मुख्य कमरे में बैठते और विश्राम करते थे और बाद में ऊपर जाते थे जहाँ उन के कमरे के बाहर बरामदे में एक मेज और कुर्सी तथा एक बिस्तर उनके लिए लगा होता था । यहाँ भी भक्तों ने ठंडा करने के लिए फर्श पर पानी छिड़क दिया होता था। उनके नीचे के कमरे

वातानुकूल यंत्र लगा था ।

में

श्रील प्रभुपाद का रुझान अब भी प्रबन्ध के कार्यों में लिप्त बने रहने का था और उन्होंने अपने सचिव को विभिन्न इस्कान केन्द्रों के कार्यकलापों के बारे में रिपोर्ट देने को कहा। उन्होंने कहा, “तुम मेरी आंखें हो ।” किन्तु बम्बई परियोजना के अधूरे रहने का विचार उन्हें बहुत परेशान करता था । उन्होंने तमाल कृष्ण से कहा, “ अब तक जो कुछ हुआ है, उसके लिए मैने परिश्रम किया है । अब यदि अर्चा-विग्रहों की विधिवत् स्थापना मेरी उपस्थिति में न हुई तो मेरे लिए यह एक गहरा आघात होगा ।" किन्तु इस्कान का प्रबन्ध बड़ी परेशानी का था और प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण से कहा, “आप प्रबन्ध कार्यों से मुझे पूर्णतया मुक्त कीजिए ।'

तमाल कृष्ण ने उल्लेख किया कि प्रभुपाद कभी-कभी क्रुद्ध हो उठते थे,

यदि इस्कान प्रबन्ध के सम्बन्ध में उन्हें नहीं बताया जाता था, किन्तु वे यह भी कहते थे कि अच्छा हो, उन्हें कोई सूचना न दी जाय। उन्होंने कहा, "मान लो, मैं मर गया ।" तमाल कृष्ण ने उनकी इस टिप्पणी का यह अर्थ लगाया कि इस्कान के प्रबन्धकों को अपनी समस्याओं का ऐसा समाधान करना चाहिए मानो अब प्रभुपाद नहीं हैं। उन लोगों को उन्हें मुक्त कर देना चाहिए ताकि वे कृष्ण और बलराम का चिन्तन कर सकें। और प्रभुपाद ने पुष्टि की कि यही विचार ठीक था। उन्होंने कहा, “मुझे ऐसा अवसर दीजिए । "

वृंदावन में एक दिन रहने के बाद प्रभुपाद ने लिखा :

मैं ऋषिकेश में इस आशा में ठहरा था कि मेरा स्वास्थ्य सुधरेगा, किन्तु उल्टे मैं अधिक कमजोर हो गया हूँ। अब मैं अपने घर वृंदावन वापस आ गया हूँ। यदि कुछ अशुभ घटता है तो कम-से-कम मैं वृंदावन में तो हूँ ।

श्रील प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण को बुलाया और कहा, “दो बातें हैं, जीवित रहने का प्रयास करना और मरने की तैयारी । यह श्रेयस्कर होगा कि खराब बात के लिए तैयारी की जाय। ऐसी व्यवस्था करो कि मेरे साथ तीन या चार व्यक्ति हमेशा रहें। सारे समय कीर्तन करो और भागवत पढ़ो । अब मैं थोड़ा भोजन लेने का प्रयत्न कर रहा हूँ। परीक्षित महाराज तो जल भी ग्रहण नहीं करते थे। "

श्रील प्रभुपाद के मनोभाव को देख कर तमाल कृष्ण ने एक वसीयत की आवश्यकता का उल्लेख किया और प्रभुपाद सहमत हो गए। उन्होंने कहा वसीयत तो सीधी-सी चीज है। वे जो कुछ कहेंगे उस पर कई व्यक्ति साक्षियों के रूप में हस्ताक्षर कर देंगे। उन्होंने स्मरण किया कि किस प्रकार उनके गुरु महाराज ने, हर्निया के आपरेशन के ठीक पहले, एक सीधी-सी वसीयत सादे कागज के टुकड़े पर की थी । यद्यपि उनका वह आपरेशन कभी नहीं हुआ किन्तु वर्षों बाद उसी वसीयत को न्यायालय में प्रस्तुत किया गया और उनके कुछ शिष्यों के षड्यंत्रों के विरुद्ध उसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया ।

प्रभुपाद ने कहा, "वे मूल स्थापक थे, अतः उन्होंने जो वसीयत की थी, उसे स्वीकार कर लिया गया ।" जब तमाल कृष्ण ने पूछा कि प्रभुपाद के गुरु महाराज ने आपरेशन क्यों नहीं कराया तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “प्रत्येक व्यक्ति का अपना मनोभाव होता है। वे सोचते थे उन्हें मारने के लिए डाक्टर को धन दिया गया था । "

तमाल कृष्ण ने कहा, “हाँ, सचमुच कभी - कभी उन्हें मारने के लिए लोगों को वास्तव में धन दिया गया था । सचमुच, श्रील प्रभुपाद, आप और आप के गुरुजी इस शताब्दी में वर्तमान सभ्यता के सबसे बड़े शत्रु रहे हैं। ”

श्रील प्रभुपाद ने बताया, 'यह चैतन्य महाप्रभु का मिशन है । भारतभूमिते हयला... यह भारत की संस्कृति है। पूरा संसार अंधकार में है और यहाँ के लोग एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरण के लिए अपने जीवन को खतरे में डाल रहे हैं। वे नहीं जानते कि वे शाश्वत हैं और कुछ वर्षों में ही उनके इस शरीर का विनाश हो जायगा, यह जीवन एक गुजरती हुई चमक के समान है। यही वैष्णव की चिन्ता है कि ये धूर्त क्या कर रहे हैं। वे बंदरों की तरह कूद कर समय नष्ट कर रहे हैं। वैष्णव की यही अनुकम्पा है—वह पर दुखदुखी

है।

जब कुछ अन्य भक्त श्रील प्रभुपाद के कमरे में इकट्ठे हुए तो तमाल कृष्ण ने उन्हें प्रभुपाद के हाल के निर्णय के बारे में बताया । "श्रील प्रभुपाद ने निर्णय किया है कि श्रीमद्भागवत और कीर्तन सर्वोत्तम उपचार है और किसी डाक्टर की कोई आवश्यकता नहीं है जो उनका जीवन बचाने में सहायता करने का वायदा करते हैं। हमें उन्हें या किसी बाहरी व्यक्ति को लाने की आवश्यकता नहीं है ।"

एक भक्त ने पूछा, “क्या शरीर के लिए कोई ओषधि नहीं चाहिए ?” श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "मैं ओषधि ले रहा हूँ — योगेन्द्र रस । ” तमाल कृष्ण ने कहा, "वे अनेक ओषधियाँ ले चुके हैं। डाक्टर के बाद डाक्टर आए हैं और हर एक ने अपनी ओषधि बताई है। और उन्होंने उनका प्रयोग किया है। किन्तु जो ओषधि हमेशा काम करती है वह है: श्रीमद्भागवत और कीर्तन । "

श्रील प्रभुपाद के अनुरोध पर एक मण्डली द्वारा, जिसमें चार या पाँच से अधिक लोग नहीं होते थे, कीर्तन हमेशा होता रहता था और भागवत का पाठ भी हमेशा चलता रहता था, चाहे वे अपने कमरे में हों, बरामदे में हों अथवा छत पर हों । सवेरे पाँच बजे से दस बजे तक और सायंकाल तीन बजे से नौ बजे तक, वे आँखे बंद किए, कीर्तन में डूबे हुए बैठे रहते थे। यही “भौतिक शरीर के लिए महौषध था जो मन और कानों को सुख पहुँचाता था।”

तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद से वायदा किया कि वे अब कोई पत्र पढ़ कर

उन्हें नहीं सुनाएँगे और उनसे मिलने के लिए कोई अतिथि नहीं लाएँगे। प्रभुपाद इसे लम्बे समय से चाहते थे और अंत में वह होने जा रहा था ।

वसीयत का लिखा जाना इस मनोभाव के साथ नहीं था कि प्रभुपाद का अंत आ गया था, अपितु "सबसे खराब स्थिति के लिए तैयारी" के मनोभाव से था । इसका प्रयोजन यह भी था कि जो काम जरूरी थे उन्हें कर लिया जाय ताकि अंतिम समय में उन्हें न करना पड़े। प्रभुपाद को इस बात की चिन्ता थी कि उनका आंदोलन ठीक से चलता रहे, सारी इस्कान सम्पत्ति, प्रतिष्ठान के भीतर, उनके शिष्यों के हाथ में रहे और उनके सारे आदेश भविष्य के लिए सुस्पष्ट हो जायँ। इन सभी बातों को वसीयत में अब अंकित कर दिया जाय और जी.बी.सी. के सभी लोग इन अंतिम व्यवस्थाओं को देखने और प्रभुपाद के साथ होने के लिए वृंदावन में एकत्र हो जायँ। एक बार इन सारी बातों के सुनिश्चित हो जाने पर प्रभुपाद चिन्तारहित होकर अपनी पुस्तकें लिखने को स्वतंत्र हो जायँगे ।

बाद में तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद से पूछा कि क्या उनके नए निर्णयों से यह सूचित होता था कि जीवन के लिए संघर्ष करने की अपनी इच्छा वे खो रहे हैं। श्रील प्रभुपाद ने अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया कि ऐसा ही था । उन्होंने कहा, "अतएव मैं वृंदावन छोड़ना नहीं चाहता। यदि कृष्ण की इच्छा से मैं बच गया तो बाद में देखा जायगा । अन्यथा... ।”

यद्यपि उनका सचिव प्रभुपाद को पत्र नहीं सुनाता था या कोई समाचार नहीं देता था, फिर भी प्रभुपाद सोचते रहते, "राधा दामोदर मंदिर का क्या होगा ?” उन्होंने पूछा। वे वहाँ वर्षों से अपने कमरों का किराया दे रहे थे,

किन्तु मंदिर के स्वामी उनके अधिकारों को प्रायः चुनौती देते थे । संसार-भर में अपने धर्मोपदेश का कार्यक्रम बनाए रखने में उनकी बहुविध चिन्ताओं में से यह भी एक चिन्ता थी । उन्होंने परामर्श दिया कि उनके शिष्य राधा - दामोदर मंदिर के कमरों में बराबर रहते जायँ, जिससे कमरों का मालिक उनका उपयोग किसी अन्य कार्य के लिए न कर सके। शान्त लेटे रहने और आराम करने के समय भी प्रभुपाद के मन में ये समस्याएँ उठा करती थीं।

तमाल कृष्ण दुबारा निश्चित कर लेना चाहते थे कि क्या प्रभुपाद सचमुच चाहते थे कि संसार के सभी भागों से जी. बी. सी. के लोग वृंदावन आ जायँ । यह काम कष्ट और व्यय साध्य था, इसलिए वे पक्का कर लेना चाहते थे कि प्रभुपाद वास्तव में ऐसा चाहते थे। जब श्रील प्रभुपाद ने उन्हें विश्वास

दिलाया कि वे ऐसा चाहते थे, तब तमाल कृष्ण ने भी, जिनके लिए श्रील प्रभुपाद की सभी इच्छाओं की पूर्ति करना ही उनका कर्त्तव्य था, इस विचार के पक्ष में अपनी राय प्रकट की।

तमाल कृष्ण ने कहा, "चूँकि उनके मन में आप के प्रति प्रेम है, इसलिए मुझे विश्वास है कि वे सभी आना और आप के साथ रहना चाहेंगे।"

श्रील प्रभुपाद बोले, “मेरे प्रति आप का प्रेम इस बात से प्रकट होगा कि मेरे जाने के बाद आप इस संस्था को बनाए रखने में कितना सहयोग करते हैं।"

कमरा गुलाब और चमेली की मालाओं से पूरी तरह सजाया गया था । कीर्तन दल मंद और मधुर स्वर में गायन कर रहा था। श्रील प्रभुपाद घंटों मौन रहते थे और जब वे बोलते थे तो सामान्यतः बहुत संक्षेप में बोलते थे। फिर भी उनके प्रकरण पहले की भाँति ही थे और वे उसी शुद्ध कृष्णभावनाभावित रूप में बोलते थे। बम्बई में ठेकेदार की धोखाधड़ी की बात याद करके उन्होंने कहा, "केवल धोखा देना ही पाप नहीं है, किन्तु धोखा खाना भी पाप है। मैंने और मेरे शिष्यों ने कितने प्रयत्नों और कठिनाई के साथ यह धन इकट्ठा किया है और अब उसकी बर्बादी हो रही है। मैं इसे नहीं होने दूँगा ।'

श्रील प्रभुपाद इस तरह की टिप्पणियाँ प्रायः उस समय करते थे जब वे बिस्तर पर लेटे होते थे। ज्योंही वे बोलने लगते थे त्योंही उनकी सेवा में रत कुछ भक्त उनके शब्दों को पकड़ने के लिए उनके निकट आ जाते थे। कभी-कभी कीर्तन बंद हो जाता था ।

प्रभुपाद के दैनिक कार्यक्रम का भाग, जो पहले जैसा ही बना रहा था वह था:, आधी रात में श्रीमद्भागवत का अनुवाद करने के लिए उनका उठ जाना, सवेरे की मालिश और स्नान तथा अपने सचिव से प्रतिदिन का समाचार सुनना । उन्होंने कार में बैठ कर सवेरे घूमने जाना तथा अर्चा-विग्रहों का दर्शन करना बंद कर दिया था। उनका खाना करीब-करीब नहीं के बराबर हो गया था । वे निचली मंजिल के अपने बिस्तर से ऊपरी मंजिल के बिस्तर पर चले गए

थे और कभी-कभी वे अपनी मेज पर बैठ भी जाते थे ।

तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को गिरिराज का एक पत्र पढ़ कर सुनाया जो पत्र की अपेक्षा प्रेम-पूर्ण प्रार्थना अधिक था । गिरिराज ने उसमें श्रीमद्भागवत से प्रह्लाद महाराज का एक श्लोक उद्धृत किया था ।

बाद एक भौतिक इच्छाओं के संसर्ग सर्पों से भरे अंध कूप में गिरता जा

मेरे प्यारे प्रभु, ओ परम ईश्वर, अपनी एक के के कारण, मैं, साधारण जन-समुदाय की तरह, रहा था । किन्तु आप के सेवक नारद मुनि ने मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया और सिखाया कि यह दिव्य स्थिति कैसे प्राप्त की जा सकती है। इसलिए मेरा पहला कर्त्तव्य उनकी सेवा करना है। मैं उनकी सेवा का त्याग कैसे कर सकता हूँ ?

श्रील प्रभुपाद गिरिराज के प्रति, उसकी श्रद्धापूर्ण निर्भीक सेवा के लिए, बड़े स्नेही थे और आँखें बंद किए उस की प्रार्थना के प्रत्येक शब्द का पान करते हुए, उन्होंने उसे सराहनापूर्वक सुना ।

उसी शाम को श्रील प्रभुपाद बैठ कर ससंद के एक सदस्य श्री सीताराम सिंह से मिलने के लिए उठ कर बैठ गए । यद्यपि वे प्रसन्न थे कि एक उच्च स्थानीय व्यक्ति उनसे मिलने आ रहा था, किन्तु उन्होंने बात परम स्तर पर की और भौतिक भ्रमजालों का पर्दाफाश किया। उसके तुरन्त बाद उन्होंने दलगत राजनीति में डूबे तंगदिल मनोवृत्ति के राजनीतिज्ञों पर प्रहार किया। उन्होंने ऐसे राजनीतिज्ञों की धूर्तता का भी भण्डाफोड़ किया जो भगवद्गीता के आधार पर अहिंसा का समर्थन करने का दावा करते थे। ऐसे अवसरों पर श्रील प्रभुपाद के साथ रहने वाले भक्त लगभग भूल ही जाते थे कि वे अपने जीवन के अंत की तैयारियाँ कर रहे थे। मि. सिंह के जाने के बाद उस रात में बाद प्रभुपाद ने कहा, “मैं कुछ और भी बोल सकता था, अथवा यदि कृष्ण की इच्छा हो तो जो कुछ मैने कहा है वही काफी है । "

में

श्रील प्रभुपाद की कृष्ण के बारे में बोलने और कृष्णभावनामृत को अन्यों तक पहुँचाने में मदद करने की इच्छा असीम थी। किन्तु वे कितने समय तक और रहेंगे और दूसरों को कितना कृष्णभावनामृत दे सकेंगे, यह कृष्ण पर निर्भर था। यदि उन्हें और समय मिला तो वे कृष्ण की इच्छा का प्रचार भौतिक संसार में करते रहेंगे। किन्तु यदि कृष्ण की इच्छा हुई कि अब उन्हें प्रस्थान करना चाहिए तो वे उसे भी स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करेंगे। यदि उन्हें इस संसार से शीघ्र प्रस्थान भी करना पड़ा तो भी उनकी तीव्र करुणा और धर्मोपदेश की इच्छा का अंत नहीं हो सकता। सर्वोपरि, उनकी इच्छा यह थी कि उन्होंने संसार की दुखी जीवात्माओं की रक्षा के लिए जिस विश्वव्यापी आन्दोलन का प्रारंभ किया है उसे चलते रहना चाहिए।

विश्व भर के जी. बी. सी. सचिवों को सूचना भेज दी गई कि श्रील प्रभुपाद शीघ्र ही इस संसार से प्रस्थान कर सकते हैं और वे चाहते थे कि सब वृंदावन

में उनके पास आ जायँ । जितनी जल्दी हो सका जी.बी.सी. के लोग अपना अपना कार्य छोड़ कर उनके पास आ गए। पिछली बार जब अधिकांश लोग प्रभुपाद के साथ थे, वह फरवरी में, मायापुर की वार्षिक बैठक में था । तमाल कृष्ण ने सब को प्रभुपाद की हाल की बदलती दशाओं के बारे में बताया- किस तरह वे बम्बई में धर्मोपदेश कर रहे थे, किन्तु कुछ खा नहीं रहे थे, किस तरह वे ऋषिकेश गए थे और वहाँ उनकी हालत बदतर हो गई थी, और किस तरह वे वृंदावन आए थे, इस आभास के साथ कि उनका अंत निकट है। तमाल कृष्ण ने बताया कि श्रील प्रभुपाद की इच्छा है कि उन्हें लगातार पवित्र

जी.बी.सी.

नाम की औषध दी जाय, और सभी जी. बी. सी. और संन्यासी लोग उनके साथ कीर्तन करने को एकत्र हो जायँ, तथा एक वसीयत बना ली जाय जिसमें इस्कान की सम्पत्तियों की रक्षा और इस्कान संस्था के आगे चलते रहने को सुनिश्चित किया जाय। तमाल कृष्ण ने यह भी उल्लेख किया कि प्रभुपाद ने कहा था कि उनके प्रति उन लोगों के प्रेम का प्रदर्शन प्रभुपाद के प्रस्थान के बाद उनके इस्कान को बनाए रखने से होगा ।

तमाल कृष्ण गोस्वामी ने अपने गुरु-भाइयों को विश्वास में लेते हुए कहा कि स्वयं उसकी भावनाएँ मिश्रित प्रकार की थीं। यह दुख का समय था, फिर भी श्रील प्रभुपाद अब इस बात से राहत अनुभव कर रहे थे कि जीवित रहने के लिए उन्होंने और अधिक संघर्ष न करने का निर्णय कर लिया है। तमाल कृष्ण ने कहा कि प्रभुपाद के सब चिन्ताओं से मुक्त हो जाने पर उन्हें प्रसन्नता के अतिरिक्त कुछ नहीं अनुभव हो रहा है। भवानंद गोस्वामी ने जो जी. बी. सी. के लोगों में से सबसे पहले पहुँचे थे, औरों को बताया कि किस तरह उन्होंने प्रभुपाद से कहा था कि एक ओर तो उन्हें दुख अनुभव हो रहा था कि प्रभुपाद संसार से प्रस्थान कर रहे हैं, दूसरी ओर वे प्रसन्न भी थे कि वे इस घृणित भौतिक संसार से मुक्त होकर कृष्ण के पास जा रहे हैं। प्रभुपाद ने उनकी भावना की पुष्टि की थी और कहा था कि यद्यपि उनके गुरु महाराज को, उनके प्रमुख शिष्यों के असद् व्यवहार के कारण, जीवन के अंत में घृणा हो गई थी, किन्तु स्वयं प्रभुपाद को ऐसा नहीं लगता था, प्रत्युत उन्हें अपने शिष्यों का साथ पसन्द था और वे अनुभव करते हैं कि उनके शिष्य उनकी आज्ञा का पालन करने का पूरा प्रयत्न कर रहे हैं। किन्तु उन्होंने अपने शिष्यों को यह भी चेतावनी दी है कि वे इस्कान को नष्ट न करें और उसे खण्डित करके दूसरा गौड़ीय मठ न होने दें।

इस्कान के प्रमुख व्यक्तियों ने छोटे-छोटे दल बना लिए और ये दल बारी- बारी से प्रभुपाद के साथ रह कर कीर्तन तथा भागवत का पाठ करने लगे। श्रील प्रभुपाद प्रायः निचली मंजिल के अपने बड़े कमरे में बिस्तर पर बैठे होते थे। ऊँची छत और काले पत्थर वाले फर्श के इस कमरे में प्रकाश मद्धिम होता था, यद्यपि यह फूलों और इस्कान के अर्चा-विग्रहों के मढ़े हुए चित्रों से सजाया गया था। प्रभुपाद का कमरा, भीषण गर्मी के बावजूद, वातानुकूल यंत्र और छत में लगे पंखों के कारण आरामदेह था ।

प्रभुपाद कीर्तन सुनते हुए कभी-कभी हल्के से तालियाँ बजाते थे। वे अपने शिष्यों के धर्मोपदेश के बारे में समाचार सुनने और उसका मूल्यांकन करने को सदैव तैयार रहते थे। प्रभुपाद में मुख्य अंतर उनके शारीरिक रूप-रंग में आया था। जैसा कि जी. बी. सी. के एक सदस्य ने कहा वे श्रीमद्भागवत में वर्णित किसी महान् तपस्वी जैसे दिखाई देते थे। वे ध्रुव महाराज या रन्तिदेव की भाँति अत्यधिक दुर्बल काय हो गए थे, जो परम सत्य का एकांत चिन्तन करते हुए गहन तपस्या में लीन थे।

श्रील प्रभुपाद कीर्तन या श्रीमद्भागवत सुनते हुए कभी बिस्तर पर बैठ जाते थे और कभी लेट जाते थे। अब वे सदैव चिन्ताकुल शिष्यों से घिरे रहते थे और पहले से प्रसन्न लगते थे। कुछ शिष्य, जो, वृंदावन में सभी जी. बी. सी. सचिवों के पहुँचने से पहले, प्रभुपाद के साथ रह रहे थे, देख सकते थे कि वे अधिक उत्साहित दिखाई देने लगे थे। कदाचित् एकनिष्ठ शिष्यों की प्रार्थना के फलस्वरूप यह नाटकीय परिवर्तन आ गया हो।

भवानंद गोस्वामी और जयपताक स्वामी श्रील प्रभुपाद की प्रिय मायापुर परियोजना की रिपोर्ट ले आए। भवानंद ने बताया कि वहाँ का मंदिर दिव्य कार्यकलापों से गूँज रहा था और गुरुकुल के बालक सड़कें बुहारते समय भी हरे कृष्ण जपते रहते थे। श्रील प्रभुपाद के लिए एक नए आवास पर कार्य आरंभ होने ही वाला था। वह फौवारों, एक बारज और एक विशाल सरोवर से घिरा होगा।

श्रील प्रभुपाद ने पूछा, “क्या यह अभी आरंभ नहीं हुआ है ? जयपताक स्वामी ने बताया कि नकशा बन गया है और वास्तुविदों का कहना है कि उसमें कोई अड़चन नहीं होगी। वे वर्षा के मौसम में भी निर्माण-कार्य कर सकते

हैं ।

तमाल कृष्ण ने श्रील प्रभुपाद की ओर से पूछा, "इसमें कितना समय लगेगा।" "छह महीने।"

तमाल कृष्ण ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, मेरा विचार है कि आप अपने भक्तों के प्रेम द्वारा इस लोक से बँधे हैं।"

श्रील प्रभुपाद ने गंभीर स्वर में कहा, "हुम्म, ठीक है।'

यद्यपि “ठीक है” कह कर प्रभुपाद ने अपने जीने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की थी, किन्तु उन्होंने भवानंद से कहा, "जीवन की कोई आशा नहीं है। इसीलिए मैंने जी.बी.सी. के सदस्यों को बुलाया है। यदि मैं वृंदावन में मर

देखते सकूँ...। कृष्ण कुछ भी कर सकते हैं। किन्तु अपनी शारीरिक दशा हुए मुझे कोई आशा नहीं लगती । "

भवानंद बोला, “किन्तु कृष्ण परमेश्वर हैं।

प्रभुपाद हँसने लगे; 'वह दूसरी बात है।" यदि कृष्ण चाहें तो प्रभुपाद जी सकते थे। किन्तु वे चाहते थे कि भक्त उनके स्वास्थ्य की गंभीर दशा को समझें। उन्होंने कहा, "मस्तिष्क कार्य कर रहा है। किन्तु शरीर करने नहीं देता है। चिन्ता मत करो। प्रत्येक वस्तु का अंत है, आज या कल । मैं वृद्ध भी हो गया हूँ। किसी चीज का दुख नहीं मानना है। सब कुछ कृष्ण पर निर्भर है ।"

विश्वस्त कराने की भंगिमा त्याग कर एक निस्सहाय विद्यार्थी के रूप में भवानंद ने पूछा, "हम क्या कर सकते हैं, श्रील प्रभुपाद ?"

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “कृष्ण की प्रार्थना कर सकते हो। कृष्ण सर्व-शक्तिमान हैं। और सबसे जरूरी बातों में एक यह है कि मेरे जाने के बाद मायापुर को नष्ट न होने देना। उसे बनाए रखना । "

जयपताक स्वामी ने ढाका में हिन्दुओं और मुसलमानों को हाल में दिए गए अपने धर्मोपदेश का भव्य वर्णन किया। जयपताक ने कहा, "बंगलादेश में वर्षों से कोई साधु नहीं रह गया था ।" वह प्रभुपाद के बिस्तर के निकट फर्श पर एक बालक की भाँति बैठा जोरदार और विजयपूर्ण स्वर में बोल रहा था । "वहाँ के लोग कृष्णभावनामृत के बारे में सुनने को उत्सुक हैं। दस हजार लोग एकत्र हुए थे। यह उस देश के इतिहास में हिन्दू या मुसलमानों का सबसे बड़ा उत्सव था । मुसलमान भी रुचि रखते हैं। वे भगवान् चैतन्य के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते। बहुतों ने पूछा कि क्या हमारे पास भगवान् चैतन्य पर कोई पुस्तक है। वे उसे पढ़ना चाहते हैं।

श्रील प्रभुपाद बीच में कर्कश किन्तु जीवन्त स्वर में बोले, “द टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य (भगवान् चैतन्य की शिक्षाएँ) पुस्तक है तो ।”

带你 श्रील प्रभुपाद लीलामृत

जयपताक ने बताया कि उन लोगों को वहाँ एक मंदिर बनाने की आशा

है। उसने कहा, “अनेक युवाजन आते हैं और बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण प्रश्न करते हैं। वे हमारे अर्चा-विग्रह उपासना के बारे में प्रश्न पूछते हैं, हमारे गुरु महाराज के बारे में और हरि नाम के बारे में। सभी प्रश्न बुद्धिमत्तापूर्ण होते हैं। वहाँ सी.आई.ए. की कोई अफवाह नहीं है। हमारे बारे में कोई खराब बातें नहीं

होतीं। कोई ईर्ष्या नहीं है। और क्योंकि वे कुछ उत्पीड़ित हैं, इसलिए कृष्ण में विश्वास करने के बारे में उन्हें सदैव चुनौतियाँ दी जाती हैं। इसी कारण वे सब कुछ जानने-समझने के लिए उत्सुक हैं।"

श्रील प्रभुपाद ने पूछा, “मुसलमानों के बारे में क्या समाचार है ?"

जयपताक ने कहा, “जब प्रभाविष्णु ने ढाका में एक स्थान पर व्याख्यान दिया तो एक मुसलमान उसे सुनकर उनके पास आया और बोला, 'आप जो धर्मोपदेश कर रहे हैं वह आज के युग में बहुत व्यावहारिक है। मेरे जिले में हिन्दू लगभग बहुसंख्यक हैं, किन्तु जब वे अपने साधुओं को बुलाते हैं और धर्मोपदेश कराते हैं, तो मुझे वह बहुत पुराने ढंग का और अस्वीकार्य लगता है । किन्तु आप का धर्मोपदेश उत्साहित करने वाला है।' इसलिए उसने एक कार्यक्रम की व्यवस्था की। अंततः मैं जितने मुसलमानों से मिला उन सब की उसमें रुचि लगी, क्योंकि हमने उनके सामने चीजें इस तरह रखीं जो उन्हें स्वीकार्य थीं। वे कहते हैं, 'आप हिन्दू हैं ?' हम कहते हैं, 'नहीं, हम वैष्णव है।' वैष्णव का अर्थ है कि हम केवल एक ईश्वर में विश्वास करते हैं। उसके बराबर दूसरा कोई नहीं है । आप भी तो इसी चीज में विश्वास करते हैं।'

प्रभुपाद ने कहा, "यह सत्य है। असमोर्ध्व । ईश्वर के समान या उससे बड़ा कोई नहीं हो सकता।'

जयपताक स्वामी ने कहा, "अनेक हिन्दू और मुसलमान युवक हमारे संघ में आएँगे। मुझे विश्वास है। किन्तु इस समय हम अपने संघ का पंजीयन करा रहे हैं और अपना स्थान पा रहे हैं।'

प्रभुपाद ने पूछा, “तुम्हें अभी वह मिला नहीं ? स्थान को प्राप्त करो और संघ का पंजीयन कराओ ।" प्रभुपाद ने आगे कहा कि जयपताक को सब कुछ बहुत मन लगाकर करना चाहिए। उन्होंने समर्थन देते हुए कहा, "यह बढ़ता जा रहा है। "

जब रामेश्वर स्वामी कीर्तन के लिए कमरे में आया तो वह श्रील प्रभुपाद के लिए कृष्ण पर तीनों पुस्तकों के नए संस्करण ले आया और उसने बताया

“मैंने अपने हिस्से का कार्य पूरा कर दिया है।"

कि विभिन्न पुस्तकों की बिक्री किस तरह चल रही थी ।

श्रील प्रभुपाद ने कहा, " अपना स्वास्थ्य खूब ठीक रखो। जितने वर्ष संभव हो, जीवित रहो । कृष्णभावनाभावित बनो । तब अगले जीवन में तुम धाम पहुँच जाओगे, स्थायी जीवन प्राप्त करोगे। वहां कोई धोखाधड़ी नहीं है, राजनीति नहीं है, निजी अभिलाषा की पूर्ति की बात नहीं है। किसी के व्यक्तिगत उद्धार की लालसा का लेश नहीं है। क्या कोई कह सकता है कि इसमें कोई व्यक्तिगत इन्द्रिय-सुख भोग की भावना है? कह सकता है कोई ? क्या तुम कह सकते हो, 'यह मेरी व्यक्तिगत इंद्रिय सुख भोग की भावना है?' कृष्णभावनामृत में कोई ऐसी चीज नहीं होती । हमारी यही इच्छा है कि हम भक्तों के साथ रहें और अपने पूर्वजों का मिशन पूरा करें। यही हमारी अभिलाषा है। अभिलाषा के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। हमारा वास्तविक स्वार्थ कृष्ण की इच्छा की पूर्ति है । अत: इसे सावधानीपूर्वक करो, और यदि अमरीकियों में एक चौथाई वैष्णव बन जाएँ तो पूरा संसार बदल जायगा...

रामेश्वर ने उत्साहपूर्वक कहा, "अमेरिका में पुस्तकों की बिक्री अब गत वर्ष से आगे बढ़ गई है। हम प्रयत्न कर रहे हैं कि वह दुगुनी हो जाय । अभी दुगुनी हुई नहीं है, किन्तु पिछले वर्ष से आगे बढ़ गई है। "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “यह दुगुनी होने जा रही है। "

रामेश्वर ने जोड़ा, “आप की कृपा से ।"

प्रभुपाद बोले, “हाँ, तुम लोगों को दुगुना आशीर्वाद ।” इन शब्दों पर सभी भक्त प्रसन्नता से हँसने लगे।

श्रील प्रभुपाद तब कीर्तनानंद स्वामी की ओर मुड़े, “तो न्यू वृन्दावन आगे बढ़ रहा है। प्रसन्न होओ।'

कीर्तनानंद ने कहा, “हम प्रसन्न नहीं हो सकते, यदि आप वहाँ न हों। "

श्रील प्रभुपाद बोले, “मैं वहाँ सदैव हूँ। जब मैं देखता हूँ कि हर चीज ठीक से चल रही है तो मुझे प्रसन्नता होती है। इस शरीर में भी। फिर शरीर तो शरीर है। हम दूसरा शरीर प्राप्त करेंगे।'

कीर्तनानंद ने पूछा, "क्या यह पुरु नहीं था जिसने अपना यौवन अपने पिता को दे दिया था ?"

श्रील प्रभुपाद ने सिर हिलाया, “राजा ययाति ने अपनी वृद्धावस्था का सौदा किया था । "

कीर्तनानंद ने कहा, “और आप भी ऐसा कर सकते हैं।"

श्रील प्रभुपाद बोले, "नहीं, मैं क्यों करूँ ? तुम मेरा ही शरीर हो,

तुम मेरा काम कर सकते हो। कोई अंतर नहीं आता। जिस तरह मैं कार्य कर रहा हूँ तो मेरे गुरु महाराज भक्तिसिद्धान्त सरस्वती मानो मौजूद हैं। शारीरिक रूप में वे न भी हों, किन्तु कार्य रूप में तो हैं।'

तमाल कृष्ण ने कहा, भागवत में आप का कथन है कि जो कोई भी गुरु का अनुसरण करता है उसके गुरु उसके साथ शाश्वत रूप में रहते हैं। "

प्रभुपाद ने कहा, "अतः मैं मरने नहीं जा रहा हूँ—कीर्तिर्यस्य स जीवति — जो कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करता है वह अमर होकर रहता है। उसकी मृत्यु नहीं होती । व्यक्ति को अपने कर्म के अनुसार अन्य शरीर स्वीकार करना पड़ता है, किन्तु भक्त के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। वह कृष्ण की सेवा के लिए शरीर स्वीकार करता है, इसलिए उसके लिए कोई समस्या नहीं है।'

रामेश्वर स्वामी ने प्रभुपाद को सूचित किया कि नवें स्कंध का अंतिम खण्ड मुद्रक के पास पहुँच गया है और दसवें स्कंध का पहला खण्ड दो सप्ताह में पहुँच जायगा । श्रील प्रभुपाद ने पूछा कि पुस्तकों का हिन्दी संस्करण अमेरिका

। में छपाना कम खर्चीला रहेगा या हिन्दुस्तान में; उन दोनों ने इस विषय में विचार-विनिमय किया ।

श्रील प्रभुपाद ने कहा “सारे विश्व की बद्ध जीवात्माएँ दुःख भोग रही हैं। किन्तु आप भक्तजन इन सब खतरों से ऊपर हैं। कीर्तनानन्द महाराज इसे अच्छी तरह जानते हैं। उनके न्यू वृंदावन के कार्यक्रम को कोई खतरा नहीं है। वह बराबर उन्नति पर है। वे पहले दर्जे का पौष्टिक आहार खाते हैं। और पेन्सिलवानिया के उस स्थान का क्या नाम है ?"

यह सब पुराने समय जैसा था; श्रील प्रभुपाद रिपोर्टें सुन रहे थे और उनमें सुधार कर रहे थे, वे अपने लोगों को प्रोत्साहित कर रहे थे कि अधिक से अधिक करो, कृष्ण तुम्हारी सहायता करेंगे।

रामेश्वर स्वामी ने प्रभुपाद की प्रसन्नता के लिए कृष्ण-चेतन विशाल साहित्य के वितरण के सम्बन्ध में उन्हें बताया। उन्होंने कहा, "इस वर्ष के अंत में हम कृष्ण पर कम-से-कम छह करोड़ पचास लाख प्रतियाँ बेच चुके होंगे। अब हम प्रतिवर्ष कम-से-कम डेढ़ से दो करोड़ तक पुस्तकें बेच लेते हैं।"

प्रभुपाद ने कहा, “ठीक है। लोग पूछते हैं 'आप कृष्ण पर इतना जोर क्यों देते हैं?' किन्तु संदेश तो केवल यही है। यह आगे भी फैलेगा। लोग जिज्ञासा करेंगे।"

श्रील प्रभुपाद बात करते जा रहे थे, किन्तु बीच-बीच में अपनी वर्तमान दशा पर भी वे सोचने लगते थे। उन्होंने पूछा, “समस्या क्या है ? हम कृष्ण के बारे में बात कर रहे हैं। यदि अचानक मैं लुढ़क जाऊँ, तो समस्या क्या है ? कृष्ण त्वदीय-पद- पंकज ... । * साधारण मुत्यु कफ-वात-पित्त के अवरोध से होती है। किन्तु यदि कोई कीर्तन करते मृत्यु को प्राप्त होता है, तो अहा ! वह कितनी सफल मृत्यु है। न तो इंजेक्शन लगा, न कोई आपरेशन हुआ— वह वातावरण! वरन् कृष्ण-कीर्तन में। यह यशस्कर है। न आक्सीजन की जरूरत हुई, न गैस की, मरने का कोई कष्ट नहीं । हरे कृष्ण कीर्तन करो—बस । और मुझे मरने दो, कृष्ण। कभी क्षोभ न करो। हरे कृष्ण भजो । कीर्तन के लिए तुम लोगों के पास पर्याप्त सामग्री है। अब, इस पुस्तक से कुछ पढ़ो।” श्रील प्रभुपाद ने हाथ बढ़ा कर श्रीमद्भागवत को उठाया, उसको खोला और रामेश्वर को दिया जो उससे पढ़ने लगे ।

एक-एक करके जी.बी.सी के लोग आने लगे। अत्रेय ऋषि ईरान से दाड़िम और चकोतरे लाए और वहां के इस्कान अल्पाहार गृह के बारे में शुभ-संदेश लाए। श्रील प्रभुपाद ने गहरी रुचि के साथ अत्रेय ऋषि की रिपोर्ट को सुना और तब कुछ देर तक वे मध्य पूर्व क्षेत्र के सम्बन्ध में बोलते रहे कि वहाँ कृष्णभावनामृत को प्रस्तुत करने का सर्वोत्तम ढंग क्या है। कीर्तनानंद स्वामी न्यू वृंदावन से दूध से बनी चीजें लाए थे और एक संन्यासी थाइलैंड से फल और फूल लाया था ।

जब आदि - केशव स्वामी दाखिल हुए तो प्रभुपाद प्रफुल्लित हो उठे। बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्होंने विश्व-भर के भारतीयों पर न्यू यार्क कोर्ट के निर्णय के प्रभाव के बारे में आदि-केशव की रिपोर्ट को सुना। जब स्वरूप दामोदर पहुँचे तो उन्होंने प्रभुपाद को तीन पुस्तिकाओं की पाण्डुलिपियाँ दिखाई जिनमें वैज्ञानिक और गणितीय आधार पर सिद्ध किया गया था कि कृष्णभावनामृत

* इस संस्कृत वाक्यांश में श्रील प्रभुपाद अपने उस प्रिय श्लोक के एक अंश का स्मरण कर रहे हैं जो महाराज कुलशेखर कृत मुकुन्द - माला-स्तोत्र में संकलित है। लेखक प्रार्थना कर रहा है कि उसका मन कृष्ण के चरण-कमलों में केन्द्रित हो और उसी दशा में उसके प्राण विसर्जित हों, अपेक्षा ऐसी मृत्यु के प्राप्त होने से जब शारीरिक दशा बिगड़ गई हो और मन कृष्ण के चरण-कमलों से विलग भाग रहा हो ।

घंटा दर घंटा हरे कृष्ण कीर्तन

ही चरम सत्य है। प्रत्येक रिपोर्ट और अभिवादन के बाद प्रभुपाद यही कहते कि कीर्तन चालू रहे और जब भक्त मंद स्वर में करते रहते, उस समय प्रभुपाद शान्त मौन बैठे कृष्ण कृष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम

रहते । हरे कृष्ण, हरे कृष्ण,

हरे हरे । केवल छोटे आकार

का एक जोड़ा करताल कोमल, आनन्दप्रद आवाज पैदा करता रहता । कीर्तनियों की आवाजें भी अत्यन्त मंद होतीं, किन्तु उनकी चित्तवृत्तियाँ श्रील प्रभुपाद के प्रति भक्ति में डूबी होतीं। उन्हें केवल एक ही चिन्ता रहती कि प्रभुपाद बिना किसी व्यवधान के महामंत्र सुन सकें ।

जो भक्त इस तरह कीर्तन में लगे थे वे स्वयं भी प्रभुपाद से गहरे सत्संग की अनुभूति कर रहे थे। वे समझ रहे थे कि यह श्रील प्रभुपाद के साथ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सम्बंध था जब वे श्रील प्रभुपाद की उपस्थिति में हरे कृष्ण और जय श्रीकृष्ण चैतन्य जप रहे थे और श्रीमद्भागवत से पढ़ कर उन्हें सुना रहे थे। श्रील प्रभुपाद दिव्य ध्वनि सुनना चाहते थे और साथ ही शिष्यों को सिखा भी रहे थे। उनके महाप्रस्थान के बाद हरे कृष्ण मंत्र और भागवत के महत्त्व का गहरा प्रभाव शिष्यों पर बना रहेगा और वे अन्यों को करुणा का दान करते रहेंगे। वे उन्हें सिखा रहे थे कि शुद्ध भक्त कैसे बना जाता है। वे उनसे साधारण रीति से कीर्तन करवा कर और बिना तर्क-वितर्क के अपनी पुस्तकों से पढ़वा कर उनके साथ सहभागिता कर रहे थे जिससे बाद में, कृष्णभावनामृत का उपदेश करते समय वे उन्हें याद रख सकें। जब वे साधारण रीति से कीर्तन करते होंगे और बिना तर्क-वितर्क के धर्मोपदेश करते होंगे, उस समय प्रभुपाद सदा उनके साथ होंगे। उनका महाप्रस्थान अभी हो या बाद में, वे अपने शिष्यों को तैयार कर रहे थे ।

कभी-कभी कीर्तन के बीच श्रील प्रभुपाद अपनी नि:शब्द भावनाओं को भी भक्तों तक प्रेषित करते थे। वे किसी भक्त पर दृष्टि-भर डाल लेते थे, किन्तु वह भक्त अपने में प्रेमपूर्ण संवेग और अनुभूति की बाढ़-सी अनुभव करने लगता था। उसकी समझ में अकस्मात् और अच्छी तरह आ जाता था कि प्रभुपाद कितने शुद्ध और करुणामय थे। और हो सकता है भक्त को इसका भी स्मरण हो आए कि किस तरह श्रील प्रभुपाद आए थे और उसे कृष्णभावनामृत में पहुँचा कर उन्होंने उसकी रक्षा की थी। इस प्रकार जी.बी.सी. के लोग कीर्तन करते और शुद्ध बनते हुए अपने को पुनः समर्पित कर रहे थे, इस आशा में उन्हें समर्पित जीवात्माओं के रूप में स्वीकार कर लेंगे। उनकी प्रार्थना

कि

कृष्ण

थी कृष्ण उन्हें आशीर्वाद दें और जो कुछ भी घटे उन्हें उसके योग्य बनाएँ ।

एक अवसर पर प्रभुपाद बोले, “मुझे छोड़ो मत । "

तमाल कृष्ण ने पूछा, “क्या आप पहले से बेहतर अनुभव कर रहे हैं ? " “हाँ, मैं पहले से अच्छा हूँ। यही औषध देते रहिए ।'

श्रील प्रभुपाद के अनुरोध पर, जो भक्त उनके साथ रात में डेढ़ बजे से साढ़े तीन बजे तक रहते थे, वे उन्हें कृष्ण : दि सुप्रीम पर्सनालिटि आफ गाडहेड से पढ़ कर सुनाया करते थे। उस समय वे सामान्यतया छत पर बिस्तर में बैठे होते थे । कुछ थोड़े-से नंगे बल्ब अंधकार में प्रकाश करते होते थे और पढ़ने वाले भक्त की आवाज के सिवाय, सब शान्त और नि:शब्द होता था । इस प्रकार के एक पाठ के बाद श्रील प्रभुपाद ने रूपानुग से वाशिंगटन डी.सी. में धर्मोपदेश के बारे में पूछा। रूपानुग ने संक्षेप में उत्तर दिया, और उसके बाद वह और बलवंत हरे कृष्ण आंदोलन के विरोध के बारे में बात करने लगे। तब रूपानुग ने कहा कि उसने 'उच्च अधिकारियों को एक प्रार्थना लिखी हैं' और उसने पूछा कि क्या वह उसे पढ़ कर श्रील प्रभुपाद को सुना सकता

है।

हे श्रेष्ठ वैष्णवो !

हे दयावान आचार्यो पवित्र नाम के !

हे परम अधिकारियों,

हे भाग्य विधाता !

हम पर दया करो !

( हम प्रार्थना करने में अक्षम हैं,

किन्तु यह एक आपात काल है !)

शास्त्र की शिक्षा है कि शिष्यों के असद् व्यवहार से, या निजी सेवा के लिए अनुमति देने से, या भावातिरेकपूर्ण लक्षण प्रदर्शित करने से, गुरु महाराज का स्वास्थ्य बिगड़ सकता है (यद्यपि वे कृपापूर्वक यही कहते हैं कि उनकी बीमारी वृद्धावस्था और उनकी लापरवाही के कारण है— जिसका अर्थ यह है कि उन्होंने हमें बचाने के लिए अत्यधिक परिश्रम किया है । )

किन्तु हम आचार्यों के मन के विषय में

तर्क-वितर्क नहीं करते ।

कृपया हमारी प्रार्थना सुनें! हम प्रार्थना करते हैं अपने पितामह, भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की कृपा के लिए, जो स्वभाव से ही अपने आध्यात्मिक प्रपौत्रों पर दयालु

हैं ।

हम छह गोस्वामियों की निरन्तर दया के लिए प्रार्थना करते हैं जो बद्ध जीवात्माओं की रक्षा करने के लिए तीनों लोकों में विख्यात हैं।

हम प्रार्थना करते हैं परम दयालु, परम ईश्वर भगवान् चैतन्य महाप्रभु के आशीर्वाद

के लिए ।

हम प्रार्थना करते हैं वृंदावन की महारानी राधाराणी से जो हमारी नई भक्ति की संरक्षिका

हैं।

हम स्वयं भगवान् कृष्ण से प्रार्थना करते हैं जिन तक हम पहुँच भी नहीं सकते,

बिना श्रील प्रभुपाद के मार्ग दर्शन के

हम, कृष्णकृपाश्रीमूर्ति के पतित सेवक अपने सभी गुरुओं से प्रार्थना करते हैं- कृपा करके श्रील प्रभुपाद को और समय दीजिए !

इस आन्दोलन की शक्ति को सुनिश्चित करने का समय ।

श्रीमद्भागवत को पूरा करने का समय, और हम लोगों को कुछ अधिक समय कृष्णकृपाश्रीमूर्ति के चरण-कमलों में बिताने के लिए, ताकि उनकी कृपा से हम शुद्ध भक्त बन सकें ।

हम प्रार्थना करते हैं—ये दस वर्ष इतनी तेजी से बीत गए हैं और हम पूर्णता से कितना अधिक पीछे रह गए हैं (आप जानते हैं कि शाश्वत समय का केवल एक क्षण ही बीता है),

अतएव कृपा करके उनका यहाँ रहने का समय बढ़ा दीजिए, नहीं तो ऐसा न हो कि हमारा आध्यात्मिक मार्ग से पतन हो जाय ।

हे वैष्णव संतो !

हे भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर,

हमारे शाश्वत पितामह,

हे

वृन्दावन

के छह गोस्वामियो,

हे भक्ति की जननी, राधाराणी,

हे भगवान् चैतन्य महाप्रभु,

सबके स्वामी,

हे भगवान् कृष्ण, हमारे प्रेम में अंतिम विश्राम स्थल,

हे वैष्णव आचार्यो,

कृपा करके हम पर दया करें :

कृपया अभी श्रील प्रभुपाद को न उठा ले जाएं!

कृपा करके इस आपात प्रार्थना को स्वीकार करें ... ।

प्रभुपाद बोले, “मुझे न रहने में आपत्ति है, न जाने में।” उन्होंने एक बंगाली कहानी सुनाई कि यदि एक ढेंकी (धान कूटने का एक यंत्र ) स्वर्ग पहुँच जाय तो वह वहाँ क्या करेगी ? वह गेहूँ फटकेगी। चूँकि फटकने वाली चीज का निर्माण एक विशेष ढंग से हुआ है इसलिए वह जहाँ भी जायगी तो फटकार

का काम करेगी। उसी तरह एक शुद्ध भक्त चाहे वह भौतिक संसार में हो अथवा आध्यात्मिक लोक में, वह कृष्ण की सेवा करेगा। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद जता रहे थे कि उन्हें स्वयं की कोई चिन्ता नहीं थी। किन्तु उन्होंने यह भी संकेत दिया कि यद्यपि हर वस्तु कृष्ण पर निर्भर है, फिर भी भक्तों की प्रार्थना का प्रभाव कृष्ण पर हो सकता है। श्रील प्रभुपाद के शिष्यों ने अपने को विनम्रतापूर्वक कनिष्ठ भक्त समझते हुए, इस कथन को प्रभुपाद की संरक्षिका कृपा का लक्षण समझा कि वे यदि प्रार्थना करें, तो उनकी प्रार्थना प्रभुपाद को उनके साथ रख सकती थी और यद्यपि वे कृष्ण के शाश्वत उच्च पार्षद थे, वे चाहते थे कि अपने इन लघु शिष्यों के साथ रहें। उन्होंने कहा था, "मेरे गुरु महाराज को इस बात से विरक्ति हो गई थी किन्तु मैं तुम लोगों के साथ रहना चाहता हूँ।"

एक संन्यासी भक्त ने एक प्रार्थना सुनाई जो उसने लिखी थी। उसमें उसने परमात्मा से विनती की थी कि प्रभुपाद सौ वर्ष तक जीवित रहें। यह सुन कर श्रील प्रभुपाद के नेत्र विस्फारित हो गए और वे मुसकराने लगे। किन्तु उन्होंने फिर कहा कि वे मृत्यु से नहीं डरते। उन्होंने कहा कि वे जहाँ भी हों उनका निवास वैकुण्ठ में था। विशेषकर वृंदावन में रहना और अपने शिष्यों के कीर्तन से घिरा होना ही वैकुण्ठ था ।

तमाल कृष्ण गोस्वामी ने प्रभुपाद को बताया कि उन्होंने उस दिन प्रात: काल मंदिर में कृष्ण और बलराम के समक्ष खड़े हो कर एक प्रार्थना की थी। कृष्ण ने कितने ही चमत्कार किए हैं इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं होगी कि प्रभुपाद को जीवित रखें। और बलराम, जो सृष्टि के पोषक हैं, अपनी शक्ति क्षीण नहीं कर लेंगे यदि वे प्रभुपाद को किंचित् बल प्रदान करते हैं। तमाल कृष्ण ने कहा, "इस प्रकार हम सभी कृष्ण और बलराम से आपको बचाने के लिए प्रार्थना कर सकते हैं। हम बहुत महत्त्वपूर्ण लोग नहीं हैं, किन्तु वे हमारी प्रार्थना सुन सकते हैं। "

आकार

प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, तुम सभी शुद्ध भक्त हो और तुम्हारा कोई अपना स्वार्थ नहीं है।"

श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों की प्रार्थनाओं को उनके सच्चे प्रेम की अभिव्यक्ति मानते थे, जो आध्यात्मिक दृष्टि से अनुचित नहीं था । किन्तु वे कहते थे कि अन्ततः सब कुछ कृष्ण पर निर्भर है। उनकी अपनी योजना थी। जो भी हो, प्रभुपाद का कहना था कि उनके लिए सब कुछ ठीक था। उन्होंने एक संत

की कहानी बताई जो विभिन्न लोगों को विभिन्न ढंग से आशीष देते थे। एक राजकुमार को संत आशीष देते थे कि वह चिरायु हो, क्योंकि इंद्रिय-सुख भोग के लिए मृत्यु के बाद उसे दण्डित होना है। एक तपस्वी को संत आशीष देते कि वह शीघ्र मर जाय, जिससे तपस्या की कठोरताओं से उसे छुटकारा मिल जाय और वह अपना पवित्र पारितोषिक प्राप्त कर सके । किन्तु जब संत को एक शुद्ध भक्त को आशीष देने को कहा गया तो संत बोले कि चूँकि भक्त ने

कृष्ण के चरण-कमलों में पहले ही स्थान पा लिया है, इसलिए उसकी अवस्था वही बनी रहेगी, चाहे वह जीवित रहे या मर जाय ।

18 प्रभुपाद, अपने शिष्यों की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह जानते थे कि यदि वे संसार में रहें तो उन्हें बहुत कुछ करना शेष था, किन्तु वे केवल यह जानना चाहते थे कि कृष्ण की क्या इच्छा है। उन्हें ऐसे प्रबल लक्षण दिखाई देने लगे थे कि उनके जीवन का अंत निकट था, कम-से-कम उनकी शारीरिक दशा जैसी थी इससे यही संकेत मिलता था और स्वयं इससे भी विदित होता था कि कृष्ण की इच्छा थी कि वे शीघ्र ही इस संसार से विदा लें।

जी.बी.सी. के सभी लोग मिले और यह निर्णय किया कि प्रभुपाद की वसीयत के अतिरिक्त, जिसमें इस्कान की सभी जायदादों और सभी बैंक खातों को सुरक्षित करने की बात थी, कुछ अन्य प्रश्न भी थे, जिन्हें प्रभुपाद के जीते जी उनके समक्ष रखा जाय। उदाहरण के लिए एक प्रश्न यह था कि भविष्य में शिष्यों को किस प्रकार दीक्षित किया जायगा । इसका उत्तर मिलना जरूरी था, अन्यथा श्रील प्रभुपाद के निधन के बाद यह तर्क-वितर्क और विनाश का स्रोत बन जायगा ।

जब प्रभुपाद निचली मंजिल के अपने मुख्य कक्ष में बिस्तर पर बैठे थे तो जी.बी.सी. सदस्यों की एक चुनी हुई समिति उनके समक्ष आई। सत्स्वरूप दास गोस्वामी को वक्ता बनना था, किन्तु वे शर्मा और सकुचा रहे थे। श्रील प्रभुपाद के समक्ष जाना और यह पूछना कि उनके निधन के बाद क्या करना चाहिए, अशिष्टतापूर्ण लग रहा था ।

किन्तु यह जरूरी था । स्वयं प्रभुपाद ने जी. बी. सी. सदस्यों से अनुरोध किया था कि वे वृंदावन आएँ और ठीक इसी तरह के धंधे का भार सम्हालें । इसके अतिरिक्त प्रभुपाद के समक्ष किसी शिष्य का अपने को मूर्ख और अटपटा अनुभव करना स्वाभाविक था। और श्रील प्रभुपाद के शिष्यों का उनके आंदोलन को जारी रखने का मिशन इतना गंभीर था कि उसका महत्त्व उस समय उनके द्वारा

अनुभव किए जाने वाले अटपटेपन से, निश्चय ही, कहीं अधिक था । फिर भी श्रील प्रभुपाद श्रील प्रभुपाद थे और यद्यपि प्रत्यक्षतः वे असमर्थ हो रहे थे किन्तु वे अब भी उतना ही संभ्रम उत्पन्न करते थे जितना कभी पहले करते थे । यदि वे कहीं प्रश्न से अप्रसन्न हो गए तो यह बड़ी भयावह बात होगी।

सत्स्वरूप ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, जी. बी. सी. के शेष लोगों ने हमें आप के पास कुछ प्रश्न पूछने के लिए भेजा है। ये लोग जी.बी.सी. के आधारभूत सदस्य हैं, जैसा कि आप ने इसे बनाया था। हमारा पहला प्रश्न जी. बी. सी. के सदस्यों के बारे में है। हम जानना चाहते हैं कि उन्हें अपने पदों पर कब तक बने रहना चाहिए ?"

श्रील प्रभुपाद मंद तौर गंभीर स्वर में बोले, “उन्हें आजीवन रहना चाहिए। चुने हुए लोग ही निर्वाचित होते हैं, अत: उन्हें बदला नहीं जा सकता। प्रत्युत, यदि कुछ योग्य व्यक्ति मिल जायँ तो उन्हें जोड़ देना चाहिए।" इस अवसर का उपयोग करते हुए प्रभुपाद ने संस्तुति की कि वासुदेव को फिजी के प्रतिनिधि के रूप में जी.बी.सी. का सदस्य बना देना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा, "उन्हें जोड़ दो, किन्तु जी.बी.सी. को बदलना नहीं है । "

सत्स्वरूप ने कि यदि जी.बी.सी. का कोई सदस्य अपना पद त्याग

पूछा दे तो क्या करना चाहिए। प्रभुपाद ने कहा जी.बी.सी. को एक अन्य व्यक्ति चुन लेना चाहिए।

सत्स्वरूप आगे बढ़े “हमारा अगला प्रश्न भविष्य में दीक्षा देने से सम्बन्धित है, विशेषकर उस समय जब आप हमारे साथ नहीं होंगे। हम जानना चाहते हैं कि प्रथम और द्वितीय दीक्षा-संस्कार किस प्रकार सम्पन्न कराया जाना चाहिए।"

प्रभुपाद ने कहा, “ठीक है। मैं आप में से कुछ लोगों की संस्तुति करूँगा । यह निश्चित हो जाने पर मैं आप में से कुछ की संस्तुति अस्थायी आचार्य के रूप में कार्य करने के लिए करूँगा।"

तमाल कृष्ण बीच में बोल उठे, “क्या वे ऋत्विक आचार्य होंगे ?'

"हाँ, ऋत्विक् ।"

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ,

सत्स्वरूप ने पूछा, “तब उस व्यक्ति का क्या सम्बन्ध होगा जो दीक्षा देता

है ?”

प्रभुपाद ने कहा, "वह गुरु है।'

सत्स्वरूप ने कहा, “किन्तु वह तो यह आप की ओर से करता है।"

“हाँ, यह औपचारिकता है; क्योंकि मेरी उपस्थिति में कोई गुरु नहीं बन

सकता। इसलिए मेरी ओर से, मेरे आदेश पर — आमार आज्ञा गुरु । वह वास्तव में गुरु है, किन्तु मेरे आदेश से ।

सत्स्वरूप ने ऐसे व्यक्तियों का निर्देश करते हुए जो प्रभुपाद की ओर से ऋत्विक् आचार्य द्वारा दीक्षित किए जाते हैं, कहा, "तो वे आप के भी शिष्य माने जा सकते हैं।'

श्रील प्रभुपाद ने कहा, " वे उनके शिष्य हैं।" अब वे अपने निधन के बाद की दीक्षा के बारे में बात कर रहे थे। वे उनके शिष्य हैं जो उन्हें दीक्षित करता है। और वे मेरे शिष्य के शिष्य हैं। मैं आप को गुरु बनने का आदेश देता हूँ तो आप विधिवत् गुरु बन जाते हैं, इतनी सी बात है। और वे मेरे शिष्य के शिष्य हो जाते हैं । "

वहाँ उपस्थित जी. बी. सी. सदस्य संतुष्ट थे कि उनके उलझे हुए प्रश्नों का श्रील प्रभुपाद द्वारा दिया गया उत्तर स्पष्ट और निर्णयात्मक था। बाद में वे " उनमें से कुछ को" चुनेंगे और जिसे वे चुनेंगे, वही दीक्षा - गुरु होगा । जिस बात का उन्होंने भक्तिवेदान्त - तात्पर्यों में कई बार वर्णन किया था वह अब कार्यान्वित की जा रही थी : उनके शिष्य गुरु बनेंगे और वे अपने निजी शिष्य बनाएँगे ।

सत्स्वरूप ने अगला प्रश्न बी. बी. टी. के सम्बन्ध में पूछा, उसने कहा, " वर्तमान समय में आपके देखे और आपकी स्वीकृति बिना कोई भी अनूदित पुस्तक नहीं छप सकती । तो प्रश्न यह है कि क्या भविष्य में पुस्तकों के प्रकाशन के लिए कोई नियम होगा, ऐसी पुस्तकों के लिए जो आप नहीं देख सकेंगे ? "

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "इस प्रश्न पर विशेषज्ञों की दृष्टि से विचार करना है।” उन्होंने यह सिद्धान्त तो मान लिया कि भविष्य में संस्कृत पुस्तकों के अनुवाद हो सकते हैं, किन्तु आगाह किया, "मेरे शिष्यों में से अनेक ऐसे नहीं हैं जो ठीक-ठीक अनुवाद कर सकते हों ।'

कीर्तनानन्द स्वामी ने कहा, "अतएव, श्रील प्रभुपाद, हम सोचते हैं कि आप हमको बहुत शीघ्र नहीं छोड़ सकते । "

प्रभुपाद बोले, "मैं छोड़ना चाहता भी नहीं । किन्तु मैं विवश हूँ। मैं कर भी क्या सकता हूँ?"

कीर्तनानंद ने कहा, “यदि आप नहीं चाहते, तो कृष्ण भी नहीं चाहेंगे ।'

श्रील प्रभुपाद ने आगे बोलते हुए संस्कृत वैष्णव साहित्य के अनुवाद के लिए विशेष योग्यताओं का वर्णन किया। उन्होंने कहा इसके लिए सिद्ध जीवात्मा की जरूरत है, “अन्यथा केवल अ, ब, स द की नकल करने से काम नहीं

चलेगा। मेरे तात्पर्य लोगों को पसंद हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष अनुभव के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। बिना सिद्ध बने यह संभव नहीं है । "

भगवान ने कहा, "यह कोई विद्वत्ता की बात नहीं है । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “भगवान् चैतन्य कहते हैं आमार आज्ञा गुरु । जो चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा को समझ सकता है वही गुरु बन सकता है। अथवा जो अपने गुरु की आज्ञा का परम्परानुसार बोध रखता है, वह गुरु हो सकता है । अतः मैं आप में से

से कुछ को चुनूँगा ।'

।"

अपनी बात की पुनरावृत्ति करके प्रभुपाद उस पर बल दे रहे थे — जिसे चुनेंगे, वही गुरु होगा। और उन्होंने अपनी दूसरी बात की भी पुनरावृत्ति की — जी. बी. सी. को बदलने का कोई प्रश्न नहीं है, प्रत्युत जो योग्य है, उसे जी. बी. सी. द्वारा निर्वाचित करके जोड़ा जा सकता है । "

तमाल कृष्ण ने प्रस्ताव किया, “निस्सन्देह, यह तब होगा जब कोई छोड़ कर चला जाता है, जैसा कि जी. बी. सी. में पहले हो चुका है। "

प्रभुपाद ने कहा, "ऐसे लोगों के स्थानापन्न रखे जा सकते हैं, किन्तु उन्हें आदर्श आचार्य होना चाहिए। प्रारंभ में हमने काम चलाने के लिए लोगों को रख लिया । किन्तु अब हमें बहुत सावधान रहना चाहिए। जो कोई भी विचलित हो रहा हो, उसका स्थापन्न रख लेना चाहिए । '

अपने कतिपय प्रश्नों के उत्तर पा लेने के बाद जी. बी. सी. के लोग मौन बैठ गए और प्रतीक्षा करने लगे कि प्रभुपाद के अगले आदेश क्या हैं। उन्हें यह भी चिन्ता थी कि उनकी उपस्थिति से प्रभुपाद को थकान न हो जाय ।

तमाल कृष्ण बोले, “श्रील प्रभुपाद, एक कीर्तन दल कुछ कीर्तन करने के लिए तैयार है । क्या वे अन्दर आ जाएं ? ।”

श्रील प्रभुपाद अपनी वसीयत की रूपरेखा तमाल कृष्ण गोस्वामी को पहले ही दे चुके थे : जी. बी. सी. इस्कान की सर्वोच्च प्रशासकीय सत्ता होगी। इस्कान की प्रत्येक सम्पत्ति के लिए तीन न्यासी होंगे। विभिन्न बैंको में प्रभुपाद के नाम में जमा धन इस्कान की सम्पत्ति होगा। उनकी पूर्व पत्नी और पुत्रों के लिए अल्प पेंशन देय होगी।

अभी जी. बी. सी. के लोग इकट्ठे होकर वसीयत को कानूनी रूप देने के लिए उसके प्रारूप की छानबीन कर ही रहे थे कि प्रभुपाद से भेंट करने एक ऐसा व्यक्ति आया जिससे उन्हें इस्कान संघ के विषय में चिन्ता हो गई । वृंदावन

उत्त

श्रील

के एक मंदिर के गोस्वामियों में से एक गोस्वामी श्रील प्रभुपाद से मिला और उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगा। किन्तु वार्तालाप के बीच उसने पूछा, “आप के बाद सम्पत्ति का स्वामी कौन होगा ?" ज्योंही वह भला आदमी चला गया,

ने गोपाल कृष्ण को

बुलाया । तमाल कृष्ण और भवानंद भी आ

श्रील प्रभुपाद

गए।

कहा,

“आप जानते हैं कि भारत में एक अन्तर्धारा है।" तमाल कृष्ण ने दुहराया, "अन्तर्धारा ।'

प्रभुपाद ने कहा, “एक अन्तर्धारा चल रही है कि मेरी मृत्यु के बाद सभी सम्पत्तियाँ आप के हाथ से छिन सकती हैं। "

तमाल कृष्ण ने पूछा, “छि:, क्या अभी जो वार्तालाप हुआ, उससे आपने यह समझा है ?"

प्रभुपाद ने कहा, “मैं इसे बहुत पहले समझ चुका था। आप लोग अपनी रक्षा कैसे करने जा रहे हैं?" ये प्रभुपाद ही थे जो एक बार फिर अपने शिष्यों को सांसारिक बुद्धिमत्ता से अवगत करा रहे थे।

तमाल कृष्ण ने कहा, "आपने आदेश दिया कि हम इसे न्यास की सम्पत्ति बनाएँ जिसकी देखरेख आजीवन न्यासी करें। सचमुच यह सम्पत्ति सारे भारत में ईर्ष्या का विषय बन गई है। यह सम्पत्ति सर्वोत्तम सम्पत्ति है।

श्रील प्रभुपाद ने कहा, है, हमारी हर चीज से

है । "

"उन्हें हमारी प्रतिष्ठा

"उन्हें हमारी प्रतिष्ठा से ईर्ष्या है, हमारे पद से ईर्ष्या

ईर्ष्या है। हर क्षेत्र में हमारा स्थान प्रथम श्रेणी का

श्रील प्रभुपाद के लिए वसीयत का अर्थ उनके इस्कान की रक्षा था। जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने बताया था भक्त में स्वार्थ लेशमात्र भी नहीं होता — हर वस्तु कृष्ण के लिए होती है। किन्तु अपनी विशुद्धता में उसे बहुत सीधा या मूर्ख भी नहीं होना चाहिए। इस्कान एक विशाल, वर्धमान संगठन था जिसके पास सम्पत्तियाँ और धन-दौलत थी जिनका शत-प्रतिशत कृष्ण की सेवा - भक्ति में व्यय होना था । श्रील प्रभुपाद ने जी. बी. सी. को सतर्क रहने को कहा ।

जब उनके जी.बी.सी. के लोग आपस में वसीयत के विवरण पर विचार-विमर्श कर रहे थे, प्रभुपाद इस्कान की सम्पत्तियों के लिए चिन्ता-मग्न बिस्तर में लेटे थे। उन्होंने कुछ खाने का प्रयत्न नहीं किया और उपेन्द्र को उनकी छाती की मालिश करनी पड़ रही थी। उस दिन बाद में, मधुर कीर्तन करते हुए अपने भक्तों के दल से घिरे हुए प्रभुपाद ने खतरे की चर्चा फिर की। उन्होंने कहना

आरंभ किया, “एक बड़ा षड्यंत्र चल रहा है, वे लोग बड़े खुरापाती हैं। "

तमाल कृष्ण, जिन्हें मालूम था कि प्रभुपाद किस विषय में बात कर रहे हैं, बोले, "इसे तुरन्त कर देना चाहिए । — इसे न्यास की सम्पत्ति बना दिया

जाय । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "इसे किया जायगा । बहुत अच्छा।" जो बात प्रभुपाद कह रहे थे वह असामान्य नहीं थी । किन्तु उसे मजबूती और होशियारी से करना था। और इसका तात्पर्य यह था कि इसे प्रभुपाद को स्वयं करना था । अब वे और अधिक प्रबन्ध नहीं देख सकते थे, किन्तु क्या उनके शिष्य उन्हें विश्वास दिला सकते थे कि संस्था की सम्पत्तियों और इस की दौलत की रक्षा उनके द्वारा की जायगी ?

तमाल कृष्ण ने इस मामले में जी.बी.सी. की क्षमता के सम्बन्ध में प्रभुपाद को विश्वास दिलाने के लिए कहा, "सभी सम्पत्तियों की रक्षा की जायगी, विशेषकर भारत में । "

भवानंद गोस्वामी ने कहा, "श्रील प्रभुपाद, न्यासियों की नियुक्ति हो जानी चाहिए।"

के

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "बिना पद का न्यासी, न्यासी कहाँ है ? मैने बुक

के लिए ट्रस्टियों का एक प्रारूप तैयार कर दिया है। उसी तरह इस ट्रस्ट लिए भी बना लो।"

तमाल कृष्ण ने कहा, “तो उसी तरह का हम एक प्रारूप बना लेंगे। और प्रारूप स्वीकृत हो जाने पर आप हमें बता सकेंगे कि आप किन ट्रस्टियों को चाहते हैं ।'

प्रभुपाद ने कहा, "अरे, आप अपने

कर रहे हो ?"

आप अपने में से चुन सकते हैं, मुझे क्यों तंग

जब तमाल कृष्ण ने उल्लेख किया कि भारत में तीन स्थान — बम्बई, वृंदावन और मायापुर — सर्वोपरि महत्त्वपूर्ण हैं तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “प्रत्येक स्थान । " इसके बाद उन्होंने यह और जोड़ा, “आप लोगों में से कोई शक्तिशाली व्यक्ति नहीं है। यही कठिनाई है।'

तमाल कृष्ण ने स्वीकार किया, "यह सच है।'

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "सभी मेरे बच्चे हैं", यह उक्ति प्रेम की थी, राहत की नहीं। "हमें एक शक्तिशाली व्यक्ति की आवश्यकता है। इसकी कमी है। हर छोटे-मोटे मामले में मुझे मुँह खोलना पड़ता है। जो भी हो, आप जैसे

भी हों, बैठ जाइए और न्यासियों को चुन लीजिए। प्रारूप तो बन ही गया है, ट्रस्ट बना डालिए। आप में से रामेश्वर कुछ समझदार है । जैसा भी है, भरसक प्रयत्न कीजिए। अन्यथा एक बहुत बड़ी अन्तर्धारा बह रही है। वे आपके कार्यक्रम की प्रतीक्षा कर रहे हैं।"

तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को विश्वास दिलाया कि वे तुरन्त एक बैठक करने जा रहे हैं, "हम इन सभी बातों पर विचार-विनिमय करेंगे।"

प्रभुपाद ने कहा, “चर्चा तो मैं कर चुका हूँ। अब इसे कर डालो। " तमाल कृष्ण ने कहा, "मेरा मतलब यह था कि हम इसे करेंगे।" प्रभुपाद बोले, “बहुत ठीक। देर न करो।

इस तरह के अवसरों पर विशेष रूप से स्पष्ट हो जाता था कि वह दिन आने ही वाला है जब प्रभुपाद के बच्चों को बड़े होकर संघ का अपने बूते पर नेतृत्व सँभालना होगा, प्रबन्ध करना होगा, उसकी रक्षा करनी होगी और उसका विस्तार करना होगा। हो सकता है कि यह अंतिम अवसर हो जब उन्हें सीधे उनसे सीखने को, उनके निकट बैठ कर कीर्तन करने को और अपने को पूर्णतया अर्पित करने को मिल रहा था कि वे इस्कान के लिए उनकी इच्छाओं की पूर्ति करेंगे। ऐसा लग रहा था मानो श्रील प्रभुपाद को संदेह था कि उनके बच्चे अपने को अवसर के उपयुक्त साबित करेंगे और यह अभिव्यक्त संदेह शिष्यों को उकसा रहा था कि वे हतोत्साह न हों वरन् अपने को स्वामिभक्त और सक्षम सिद्ध करने के लिए दृढ़तापूर्वक कार्यरत हो जायँ ।

उस दिन संध्या समय जी.बी.सी. की एक समिति ने श्रील प्रभुपाद के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत की कि वसीयत का प्रारूप तैयार हो गया था जिसमें निर्धारित न्यासियों द्वारा इस्कान सम्पत्तियों के अभिरक्षण का विधान था । रामेश्वर ने प्रभुपाद के समक्ष रिपोर्ट पढ़ कर सुनायी जिन्होंने केवल थोड़े-से संशोधन किए। रामेश्वर ने कहा, “इससे अब हमें कोई धोखा नहीं दे सकेगा।"

सकेगा।" प्रभुपाद सहमत हुए, “हाँ, जहाँ तक मैं देख सकता हूँ।" वे कभी-कभी अत्यन्त चिन्ताजनक मामलों में भी मौन रहते थे। जहाँ तक संभव था, उन्होंने जी. बी. सी. के लोगों का दिशा-निर्देशन किया था, अब अधिकांश में वे पवित्र नाम की ओषधि चाहते थे। किन्तु शिष्यों ने जो कुछ किया था, वह सब ठीक था और उससे वे संतुष्ट थे। जब समिति उनके कमरे से जा रही थी तो उन्होंने मंद स्वर में कहा, "इस्कान के भावी निर्देशकों की जय हो!" और बाद में जब वे अपने सेवकों के साथ अकेले थे तो उन्होंने अश्रुपात किया और कहा कि अब मैं

शान्तिपूर्वक जा सकता हूँ।

कुछ दिन बाद 'वसीयत की घोषणा' एक वकील की उपस्थिति में अन्तिम रूप में सत्यापित की गई। मसौदा इस तरह आरंभ होता था, “जी. बी. सी. सम्पूर्ण इस्कान की सर्वोच्च प्रबंधक अधिकारी होगी।” आगे उसमें उन सभी बिन्दुओं का समावेश था जिनका सम्बन्ध इस्कान की सम्पत्तियों और प्रबन्धन से था। जी. बी. सी. के तेईस सदस्यों में से अधिकांश वृंदावन में अब भी उपस्थित थे, किन्तु उनका तात्कालिक कार्य पूरा हो चुका था ।

श्रील प्रभुपाद के स्वास्थ्य में कुछ सुधार दिखाई देता था । इसे भक्त और प्रभुपाद निरन्तर कीर्तन का आशीर्वाद मानते थे। प्रभुपाद ने कुछ तली हुई चीजें भी खाईं और पचा लीं। उन्होंने प्रातः कालीन अनुवाद कार्य भी फिर से आरंभ करने की बात की। जी.बी.सी. के सदस्यों को अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में अत्यावश्यक निर्देशन और प्रशासनिक कार्य करने थे। इसके अतिरिक्त प्रभुपाद के कक्ष में बारी-बारी से, दो बार तीन-तीन घंटे का कीर्तन करने के अलावा वृंदावन में उनके पास अन्य कोई कार्य नहीं था। मौसम भी असह्य रूप में गर्म था, तापमान १२० अंश तक चढ़ जाता था । जब उनमें से कुछ ने अपने कार्य-क्षेत्रों में लौट जाने की योजनाएँ व्यक्त कीं तो प्रभुपाद ने अनुमति दे दी। वे एक सप्ताह तक एक साथ रह लिए थे और अब वे एक-एक करके अलग होने लगे। अगले एक सप्ताह में अधिकांश वृंदावन से जा चुके थे। श्रील प्रभुपाद और उनके साथ के थोड़े-से लोग रह गए और कृष्ण-बलराम मंदिर के भक्तों द्वारा अखण्ड कीर्तन चलता रहा ।

जून

के आते ही वृंदावन का मौसम अत्यन्त गर्म हो उठा। अभी तक जो आकाश स्वच्छ, नीला था, पहली नमी के आते ही वह धुँधला पड़ने लगा । दोपहर से लेकर शाम के चार बजे के बीच भूमि इतनी तप जाती थी कि नंगे पैर चलना कठिन हो जाता था; वृंदावन के लोग घरों में बंद हो जाते और अपना काम वे या तो सवेरे या तीसरे पहर और शाम को करते । यहाँ तक कि दोपहर का खाना भी बंद हो गया था, क्योंकि गर्मी से भूख मर जाती थी । यमुना छिछली और गर्म हो गई थी, उससे रंचमात्र का आराम भी नहीं मिलता था। गाएँ घास और चारे के अभाव में दुर्बल हो गई थीं और

गर्म वायु के कारण यदा-कदा आँधियां और बगूले उठते थे। मक्खियाँ और मच्छर हवा में मर जाते थे। ग्रीष्म की इनी-गिनी सुखद विशेषताओं में एक थी प्रभुपाद के बगीचे की चारों ओर दीवारों पर चढ़ी बेल के उन फूलों की सुगंध जो उस सूखे गर्म मौसम में भी जाने कैसे पनप रहे थे ।

जून के प्रारंभिक दिनों में श्रील प्रभुपाद को लगा कि उनके स्वास्थ्य में सुधार की कुछ आशा है। उन्होंने प्रातःकालीन भ्रमण के लिए कार में जाना आरंभ कर दिया और जब उन्हें ऊपर से नीचे कार तक लाया जा रहा था तो वे बोले, “शीघ्रः ही मैं स्वयं नीचे उतरने और चलने लगूँगा।” उनके इलाहाबाद के पुराने मित्र डा. घोष आए और उनके रोग का निदान करके बताया कि वह भक्तों और कृष्णभावनामृत आंदोलन के लिए उनकी चिन्ता के कारण था। श्रील प्रभुपाद सहमत हुए। किन्तु वे डाक्टर के आदेशों का पालन नहीं करते थे क्योंकि उनमें उनके रक्तचाप का प्रतिदिन लिया जाना, अनेक प्रकार की ओषधियों का खाना और विशेष उपचार सम्मिलित थे। अपने सेवक से मालिश कराने से उन्हें लगता कि कुछ सुधार हो रहा है। उन्होंने कहा कि इस गति से वे डेढ़ मास में भले- चंगे हो जायँगे। किन्तु उन्होंने बल देकर कहा, “मैं वृंदावन नहीं छोड़ रहा हूँ, जब तक मैं अच्छा न हो जाऊँ ।”

एक दिन सवेरे श्रील प्रभुपाद ने अर्चा-विग्रहों के दर्शन के लिए जाना चाहा और उनके सहायक उनकी घूमने वाली कुर्सी में उन्हें बैठाकर तत्परतापूर्वक कृष्ण- बलराम के समक्ष ले गए। तमाल वृक्ष के नीचे अपनी कुर्सी में बैठे हुए प्रभुपाद दिव्य-बन्धुओं पर दृष्टिपात करने लगे, जबकि आँसुओं की अनेक बूँदें उनके गालों पर दुलकने लगीं। वे बोले, “इनकी वेश-भूषा बहुत सुंदर है।” एक ओर उन्हें कृष्ण-बलराम की उपस्थिति में होने का लाभ मिल रहा था, दूसरी ओर वे तमाल वृक्ष की सुखद छाया में होने का आनंद प्राप्त कर रहे थे। उन्होंने कहा, “ठेकेदार इस वृक्ष को कटवा देना चाहता था, किन्तु मैने अनुमति नहीं दी । तमाल वृक्ष अधिक संख्या में नहीं रह गए हैं। ये सांसारिक लोग नहीं जानते।"

श्रील प्रभुपाद नियमित रूप से सवेरे अर्चा-विग्रहों के दर्शन के लिए आने लगे। यह एक ऐसी घटना थी जो धीरे-धीरे मन्दिर का दैनिक कार्यक्रम बन गई जिसमें इस्कान के भक्त और अतिथि सभी शामिल होने लगे। प्रभुपाद अपनी राकिंग चेयर में तमाल वृक्ष के नीचे बैठ जाते थे और एक भक्त कीर्तन आरंभ करता था। प्रभुपाद और अन्य भक्त बाद में गाते हुए उसका साथ देते

थे। प्रभुपाद के भक्तों के लिए वृंदावन की रमण रेती में मंदिर के अहाते के भीतर प्रभुपाद के साथ कीर्तन करना आध्यात्मिक संसार का मूल तत्त्व जैसा

था ।

यद्यपि प्रभुपाद का शरीर प्रत्यक्षतः रोग ग्रस्त था, किन्तु वे सदैव की भाँति सतर्क थे और हर दिन सवेरे वे देख लेते थे कि वहाँ कौन उपस्थित है और कौन नहीं। अपनी राकिंग चेयर में बैठे और कृष्ण और बलराम की ओर निहारते हुए प्रभुपाद के साथ होने का यह विशेष अवसर ऐसा था जिससे भक्तों को धीरे-धीरे प्यार-सा हो गया। वृंदावन के निवासी और तीर्थयात्री भी प्रभुपाद के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो जाते थे और प्रायः उन्हें धन देते थे, जिसे वे उनके चरणों पर रख देते थे। स्फूर्ति से भरे गुरुकुल के युवा बालक प्रभुपाद के सामने नृत्य करते रहते थे, तीर्थयात्रियों का समूह उन्हें प्रणाम करता हुआ और उनके चरणों पर धन चढ़ाता हुआ आता-जाता रहता था, और उनके सचिवों में से एक उन्हें विशाल चामर- पंखा डुलाता रहता था और श्रील प्रभुपाद, कृष्ण और बलराम पर ध्यान केन्द्रित किए गंभीर, और फिर भी सरल भाव से, बैठे रहते थे।

कभी-कभी वे अपने मुख्य कमरे से लगे बगीचे में जाकर एकान्त में बैठते थे। एक भक्त ने वहाँ गुलाबी रंग के कमल के रुप में एक विशाल पलस्तर का फौव्वारा बनाया था। और जब प्रभुपाद कुसुमित लताओं से घिरे छोटे शैय्याकोष्ठ में बैठे होते थे, उस समय चलते हुए फौव्वारे से उन्हें बड़ी प्रसन्नता और शान्ति मिलती थी । प्रायः एक बंदर दीवार फाँद कर बगीचे में आ जाता था और चुराने के लिए चीजें ढूँढने लगता था और प्रभुपाद उसे खदेड़वा देते थे। अन्यथा वे मौन बैठे रहते थे, केवल कभी-कभी एक-दो शिष्यों के साथ कुछ बात कर लेते थे।

एक दिन बगीचे में बैठे हुए श्रील प्रभुपाद उस सभ्य और सरल जीवन की याद कर रहे थे जो उन्होंने एक बालक के रूप में बिताया था। उन्होंने उन सारे संस्कारों का वर्णन किया जो उनकी माँ ने गर्भावस्था में प्रसव के समय की आपदाओं को शांत करने के लिए किए थे। यद्यपि उनका स्वर मंद और दुर्बल था, फिर भी बात करने की ओर उनमें रुझान था । उन्होंने कहा, “बच्चों की कितनी देखभाल की जाती थी; अब ये धूर्त बच्चों की हत्या कर रहे हैं। यह कितना असभ्य जीवन है। ये दो पैरों वाले जानवर हैं। इन दिनों भी भारत के भीतरी गाँवों में जीवन शान्तिपूर्ण हो सकता है। शान्तिपूर्वक रहने और हरे कृष्ण कीर्तन के लिए उनके पास काफी अन्न और काफी दूध होता है। और

ये धूर्त वहाँ नसबंदी के लिए जा रहे हैं। (श्रील प्रभुपाद अनिवार्य नस-बंदी सम्बन्धी इंदिरा गांधी की नीति की ओर संकेत कर रहे थे ।)

वहाँ उपस्थित एक भक्त अभी-अभी पश्चिम बंगाल से लौटा था, जहाँ वह गंगा में नाव से यात्रा करके गाँवों में धर्मोपदेश और प्रसाद वितरण करता रहा था। श्रील प्रभुपाद ने उसे बताना आरंभ किया कि किस तरह गाँवों में आटे की गोल बाटी बना कर उसे खुली आग की बगल में रख कर सेंक लेते हैं। वह आग गाय के गोबर से बने कंडे की होती है और उसे खांडी आग कहते हैं। उसी आग पर वे एक बर्तन रख कर उसमें दाल पका लेते हैं। कुछ समय में दाल उबल जाती है—और वह बहुत अच्छी होती है। बाटी को घी में पका लेने से वह अव्वल दर्जे की बन जाती है।"

फौव्वारा धीरे-धीरे चल रहा था, कबूतर और हरे तोते चहचहा और फड़फड़ा रहे थे, और प्रभुपाद मुक्त रूप में बात करते जा रहे थे। उन्हें अपनी जन्म कुण्डली याद आई : "सत्तर वर्ष के बाद यह व्यक्ति बाहर जायगा और अनेक मंदिर स्थापित करेगा।" उन्होंने कहा कि पहले उनकी समझ में नहीं आया था कि वे सचमुच बाहर जायँगे, किन्तु जब वे अंत में संयुक्त राज्य में आ गए तो उनका इरादा वहाँ से कभी लौटने का नहीं था । यदि १९६७ में उन्हें संयुक्त राज्य में लकवा न मार गया होता, तो वे कभी वापस न आते। उन्होंने कहा, " इसका मतलब यह है कि कृष्ण की ऐसी इच्छा थी, नहीं तो लौटने की मेरी कोई योजना नहीं थी । इसीलिए मैने यहाँ अपना स्थायी निवास बनाया ।'

तमाल कृष्ण गोस्वामी ने पूछा, “क्या भारत वापस आने का आपको खेद है ?"

प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, मेरी योजना वहाँ रुकने की थी, किन्तु कृष्ण की योजना भिन्न थी । जब मैं (१९७० में) वापस आ रहा था तो मैने (लास एंजीलिस मंदिर में कृष्ण के अर्चा-विग्रह ) द्वारकाधीश से कहा, 'मैं यहाँ धर्मोपदेश करने आया था। मैं नहीं जानता कि आप मुझे वापस क्यों घसीट रहे हैं।' यह मैने उस समय कहा था, जब मैं लॉस एंजिलिस छोड़ रहा था । मैं प्रसन्न नहीं था । किन्तु कृष्ण की अपनी योजना थी।

तमाल कृष्ण ने टिप्पणी की, “बहुत अच्छी योजना थी वह। "

श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा, "कृष्ण ने कहा, 'आओ मैं तुम्हें वृंदावन में इससे अच्छा स्थान दूँगा। तुम वृंदावन में अवकाश ले चुके थे और मैंने तुमसे उसे छोड़ने को कहा। अब तुम्हें वापस आना है। मैं तुम्हें इससे अच्छा स्थान

"मैंने अपने हिस्से का कार्य पूरा कर दिया है । "

दूँगा ।' अस्तु, उन्होंने मुझे एक मंदिर दिया है जो और किसी स्थान से सौ गुना अच्छा है। क्या ऐसा नहीं है ?"

द टाइम्स आफ इंडिया में 'श्रील प्रभुपाद गंभीर रूप से बीमार' शीर्षक एक समाचार उसके मुख पृष्ठ पर छपा। इसके बारे में सुन कर प्रभुपाद ने टिप्पणी की, “यदि वे यह न समझते कि भक्तिवेदान्त स्वामी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं, तब वे यह समाचार न छापते ।" गिरिराज ने श्रील प्रभुपाद को लिखा कि सहानुभूति रखने वाले अनेक लोगों ने बम्बई मंदिर को टेलीफोन करके और अधिक जानकारी माँगी है। एक भक्त ने एक वक्तव्य जारी किया था जिसे द टाइम्स आफ इंडिया ने कुछ दिन बाद अपने तीसरे पृष्ठ पर 'श्रील प्रभुपाद अब पहले से अच्छे हैं' ।

शीर्षक के अन्तर्गत छापा। तो, क्या श्रील प्रभुपाद "गंभीर रूप

"गंभीर रूप से बीमार" या "पहले से अच्छे” थे ? उन्होंने कहा, “मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ, किसी भी दशा में मैं कृष्ण के साथ हूँ। किन्तु उन्होंने विश्वस्त ढंग से कहा, "मैने कृष्ण से प्रार्थना की है कि मुझे उत्साह दें जो मेरी मृत्यु तक बना रहे। एक सैनिक को युद्ध भूमि में लड़ते हुए मरना चाहिए । '

श्रील प्रभुपाद के अनुरोध पर तमाल कृष्ण सभी पत्रों के उत्तर दे रहे थे और सचिव रूप में स्वयं हस्ताक्षर करते थे। जैसा कि उन्होंने एक पत्र में लिखा,

वर्तमान परिस्थिति में मेरे लिए यह संभव नहीं है कि मैं पत्रों को पढ़ कर श्रील प्रभुपाद को सुनाऊँ। मैं उन्हें केवल अच्छे समाचारों से अवगत करा देता हूँ । अतः मैंने उन्हें आप द्वारा टाउन हाल में की गई सफल बैठक के और साथ ही आपके अन्य धर्मोपदेश सम्बन्धी कार्यों के बारे में बता दिया है।

ये पत्र लगभग उतने ही महत्त्वपूर्ण होते थे जितने स्वयं श्रील प्रभुपाद के, क्योंकि उनमें प्रायः प्रभुपाद के सीधे उद्धरण होते थे।

एक दिन संध्या समय श्रील प्रभुपाद ने सभी उपलब्ध संन्यासियों को बुलाया । उन्होंने कहा कि वे थके हुए अनुभव कर रहे थे, किन्तु एक पिता की तरह अपनी संतानों के साथ होने से उन्हें प्रसन्नता थी। वे बोले, "आप सभी को इसी तरह, मेरे पास होना चाहिए; उससे मैं अच्छा अनुभव करता हूँ।”

एक दिन जब तमाल कृष्ण श्रील प्रभुपाद के साथ बैठे थे तो उन्होंने कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन आरंभ कर दिया जो श्रील प्रभुपाद की प्रसाद की मेज की दाहिनी ओर दीवार से लटकी पेंटिंग में चित्रित थीं। पेंटिंग में

दिखाया गया था कि कृष्ण अपने गोपसखाओं के साथ दोपहर का भोजन कर रहे हैं। श्रील प्रभुपाद ने पेंटिंग को देखा, तब अपनी आँखें बंद कर लीं और लीला के बारे में सोचते हुए कहा, “यह जीवन की सर्वोच्च पूर्णता इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ, कि बिना कृष्ण के जो कुछ भी किया जाता है है। मैं वह समय का अपव्यय है। वे इसके बारे में क्या सोचेंगे ?"

प्रभुपाद की चित्तवृत्तियाँ, दिव्य संवेगों और रुझानों के मध्य, बदलती रहती थीं और अनेक रूप धारण करती थीं। कुछ भक्तों से, जो उनकी सेवा में उपस्थित थे, उन्होंने कहा, “मैं सोच रहा हूँ कि मैं एक बेकार आदमी हूँ, जो तुम लोगों से इतनी अधिक सेवा करा रहा है। प्रतिदान का मेरे पास कोई तरीका नहीं है। मैं हर अर्थ में कंगाल हूँ, वित्तीय और आध्यात्मिक दोनों तरह से ।

तमाल कृष्ण ने प्रतिवाद किया, "श्रील प्रभुपाद, हमारी मात्र इच्छा आप की सेवा करना है।"

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “मैं जानता हूँ और यही कारण है कि मैं जीवित हूँ। सारे विश्व में सभी काम तुम लोगों की एकनिष्ठा सेवा से चल रहे हैं। "

किन्तु किसी-किसी अवसर पर प्रभुपाद अब भी गलती करने वाले किसी शिष्य को डाँट देते थे। जब प्रभुपाद को वस्त्र पहनाते समय उपेन्द्र ने उन्हें एक ऐसी लुंगी दी जो बहुत छोटी थी तो प्रभुपाद ने उसे “मूर्ख और पाजी" कह कर डाँटा । और एक बार जब तमाल कृष्ण, जुकाम के कारण, प्रभुपाद की सेवा में नहीं पहुँच सके तो प्रभुपाद ने उनकी आलोचना की। उन्होंने कहा, "मैंने कार्य के किसी क्षेत्र में अपने कर्त्तव्य की कभी उपेक्षा नहीं की; व्यवसाय में भी। डा. बोस मुझे बहुत प्यार करते थे। वे मुझे हस्ताक्षर के लिए चालीस हजार रुपये के भी चेक दे देते थे। मैने अपने कर्त्तव्य के प्रति कभी आलस्य या उपेक्षा नहीं दिखाई। मैं अपना कर्त्तव्य ईमानदारी से करता और उसे सब तरह से अच्छा करने की कोशिश करता। मैने अपने कार्य की उपेक्षा केवल तब की थी जब मैं अपनी युवा पत्नी के चक्कर में था। तब मैंने अपने अध्ययन की उपेक्षा की थी। यह सब परिस्थितियों के कारण था। और तब बाद में मैं अपनी पत्नी की उपेक्षा करने लगा। मेरे पिताजी कहते थे कि मेरा सौभाग्य है कि मेरा परिवार मुझे पसंद नहीं था। कृष्ण ने मुझे अनेक परिस्थितियों से पचाया है। यह भौतिक जीवन उत्थान-पतन से भरा है।'

श्रील प्रभुपाद एक दिन बड़े सवेरे अचानक जग गए। उन्होंने सेवा में उपस्थित रोष्यों से कहा, “मैंने एक स्वप्न देखा है। पियक्कड़ों और कीर्तनियों का एक

बड़ा समूह जमा है। पियक्कड़ सभी पागल हैं। कुछ पियक्कड़ कीर्तनियाँ बन

रहे हैं। उनकी लड़ाई बंद नहीं होती। पियक्कड़ सनकी हैं।'

तमाल कृष्ण ने पूछा, “क्या आप भी वहाँ थे ?"

“हाँ, मैं भी वहाँ खड़ा था । "

"क्या कुछ कीर्तनिये पियक्कड़ बन रहे थे ?"

SUPER

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "कीर्तनियों का पतन नहीं हो सकता। उनके नाम परम धाम जाने वालों में लिखे होते हैं। वे कृष्ण के परिवार के हैं।"

वृन्दावन में जी. बी. सी. की बैठक के बाद स्वरूप दामोदर मणिपुर और कलकत्ता की यात्रा पर गए थे। अब वे श्रील प्रभुपाद से मिलने वृंदावन वापस आए थे। ज्योंही श्रील प्रभुपाद को उनके वापस आने का समाचार मिला उन्होंने स्वरूप दामोदर को अपने पास बुलाया। जैसा कि हमेशा होता था, श्रील प्रभुपाद ने उनके साथ विशेष व्यवहार किया और उन्हें अधिक समय तथा ध्यान दिया । स्वरूप दामोदर से पहली मुलाकात होने के दिन से, जब स्वरूप दामोदर थाउडम सिंह के नाम से UCLA, यूनिवर्सिटी में आर्गेनिक कमेस्ट्री में पी.एच.डी. के शोध छात्र थे, प्रभुपाद ने उनसे सम्बन्ध विकसित करने पर विशेष ध्यान दिया

था ।

थाउडम मणिपुर में पल कर बड़े हुए थे और वहाँ के हाई स्कूल करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, अमेरिका चले गए थे। वे लास एंजिलिस की सड़कों पर भक्तों के कीर्तन से आकृष्ट हुए थे और मंदिर देखने गए थे। जब उनकी भेंट श्रील प्रभुपाद से हुई तो उन्हें विश्वास हो गया कि वे एक सच्चे आध्यात्मिक पुरुष से मिले हैं। पहले पहल थाउडम ने ऐसा रुख दिखाया कि वे अनुभव-आधारित वैज्ञानिक ज्ञान की दुनिया के प्रतिनिधि थे, और प्रभुपाद ने वेनिस बीच पर प्रातःकालीन भ्रमण के लिए उन्हें आमंत्रित किया था ।

आए दिन थाउडम को श्रील प्रभुपाद जीवन के स्रोत से सम्बन्धित वाद-विवाद में खींचा करते थे। जब श्रील प्रभुपाद तर्क के लिए तैयार होते तो चारों ओर देखते और कहते, “वैज्ञानिक कहाँ हैं?” और थाउडम को देखते ही वे पूछते, " तो वे क्या कहते हैं ?" थाउडम तब दलील देते कि जीवन का आरंभ रासायनिक विकास से अचानक हुआ है। और श्रील प्रभुपाद उस दलील को सन्न कर देने वाले तर्क और सहज बुद्धि के प्रदर्शन से ध्वस्त कर देते थे।

श्रील प्रभुपाद से नित्य सत्संग होने और भगवद्गीता यथारूप को पढ़ने से थाउडम का रुझान भौतिक विज्ञान की अपेक्षा कृष्णभावनामृत की ओर अधिक होता गया और अन्ततः वे प्रभुपाद के दीक्षित शिष्य, स्वरूप दामोदर दास, बन गए। श्रील प्रभुपाद से प्रोत्साहन पाकर स्वरूप दामोदर ने शीघ्र अपनी पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त कर ली। और आधुनिक निरीश्वरवादी विज्ञान के विरुद्ध वैज्ञानिक भाषणों और लेखों से श्रील प्रभुपाद की सेवा करने को वे प्रतिज्ञाबद्ध हो गए।

श्रील प्रभुपाद भलीभाँति अवगत थे कि विज्ञान का शक्तिशाली साम्राज्य लोगों पर सर्वत्र छाया हुआ था और वे उसके निरीश्वरवादी प्रचार का खण्डन करने को तत्पर थे। वे जानते थे कि भगवद्गीता सर्वोच्च विज्ञान है और वे देखते थे कि अनेक आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताएँ किस तरह घोर दुराग्रहपूर्ण थीं। अपने तमाम प्राविधिक अनाप-शनाप और वैज्ञानिक विधि में विश्वास के बावजूद, आधुनिक वैज्ञानिकों को वास्तव में जीवन के स्रोत और प्रयोजन का ज्ञान नहीं

था।

स्वरूप दामोदर और स्नातक की उपाधि से युक्त कुछ अन्य भक्तों ने मिल कर भक्तिवेदान्त इंस्टीट्यूट स्थापित किया था और शैक्षिक आयामों में कार्य करते हुए वे कृष्णभावनामृत का वैज्ञानिक आधार सिद्ध करना चाहते थे। श्रील प्रभुपाद को उस समय विशेष प्रसन्नता हुई थी जब वैज्ञानिकों के एक विशाल सम्मेलन में स्वरूप दामोदर ने एक नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक को चुनौती दी थी, जिसका विचार था कि जीवन एक ऐसा अद्भुत चमत्कार है जो रासायनिक जटिलता के किसी निश्चित स्तर पर घटित हुआ। स्वरूप दामोदर ने उससे पूछा था, "यदि मैं आपको अपेक्षित रासायनिक दूँ तो क्या आप जीवन उत्पन्न कर सकते हैं?" और संकोच में पड़े उस वैज्ञानिक ने उत्तर दिया था, “मैं नहीं जानता।” श्रील प्रभुपाद ने इस घटना की अपने वार्तालापों और व्याख्यानों में बार-बार चर्चा की थी।

श्रील प्रभुपाद स्वरूप दामोदर और भक्तिवेदान्त इंस्टीट्यूट के कार्य की प्रशंसा प्राय: करते थे और उन्होंने विश्वास दिलाया कि बी.बी.टी. उनके लेखों के प्रकाशन, शोध कार्य और निर्माण परियोजनाओं के लिए धन की व्यवस्था करेगी। श्रील प्रभुपाद ने उन्हें दलीलें दे दी थीं और वे उन दलीलों को वैज्ञानिक भाषा में विकसित कर रहे थे।

अब स्वरूप दामोदर श्रील प्रभुपाद से अधिक संसर्ग बढ़ाने आए थे और प्रणाम करने के पश्चात् उन्होंने प्रभुपाद को कई गुलाबी रंग के कमल के पुष्प

भेंट किए। श्रील प्रभुपाद ने एक पुष्प हाथ में ले लिया और उसकी पंखुड़ियों को खोला; शेष पुष्पों को अर्चा-विग्रहों को चढ़ाने के लिए उन्होंने अपने सचिव को दे दिया। स्वरूप दामोदर कई पके अनन्नास भी लाए थे और प्रभुपाद ने तुरन्त एक गिलास ताजा अनन्नास का रस माँगा ।

स्वरूप दामोदर वृन्दावन में वैज्ञानिकों का एक सम्मेलन करने की योजना बना रहे थे जिसमें 'जीवन का स्रोत' विषय पर विचार होना था। वे अनेक वैज्ञानिकों और प्राचार्यों से मिलते रहे थे जिनमें से कइयों ने स्वरूप दामोदर की विचार-धारा और सम्मेलन में भाग लेने में रुचि दिखाई थी। स्वरूप दामोदर ने सम्भाव्य सम्मेलन की घोषणा करने वाला जो विवरण-पत्र तैयार किया था उसे पढ़ कर प्रभुपाद को सुनाया। प्रभुपाद ने शान्त भाव से सुना और अंत में कहा, "स्वरूप दामोदर की जय ।" उस दिन तीसरे पहर उन्होंने आपस में फिर वार्ता की। ऐसा लगता था कि भौतिकतावादी विज्ञान को पराजित करने के उद्देश्य से प्रभुपाद स्वरूप दामोदर से बात करने में न तो कभी अधिक थकान का अनुभव करते थे और न बीमारी का ।

स्वरूप दामोदर को वैज्ञानिकों से बातें करके आशा बंध रही थी। उन्होंने प्रभुपाद से कहा, “मैं समझता हूँ कि जो कार्यक्रम हम बना रहे हैं उसमें उनकी रुचि है। अन्यथा विचार-विमर्श के लिए वे समय न देते। उनमें से कुछ ऐसा अनुभव करते हैं कि हमारे उपागम बेजोड़ हैं। "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "इस तरह का अन्य कोई प्रस्ताव किसी के पास नहीं है। उन्होंने ईश्वर को कोई रहस्यमय चीज मान रखा है। विशेषकर उस धूर्त डार्विन का सिद्धान्त ऐसा ही मानता है। वे जानवर जैसे हो गए हैं और सब को जानवरों जैसा ही समझते हैं। इस धूर्त ने उनमें विश्वास पैदा कर दिया है, 'तुम्हारे पूर्वज बंदर थे।' वे बंदर की संतान कैसे हो सकते हैं ? लेकिन यही चल रहा है। यह डार्विन महाधूर्त है। और उसके सिद्धान्त को सारे संसार में नृवंश - शास्त्र का सबसे बड़ा सिद्धान्त माना जाता है। अतः सभी वैज्ञानिकों को मिल कर डार्विन के सिद्धान्त के विरोध में बोलना चाहिए।'

स्वरूप दामोदर के वृंदावन पहुँचने के दिन पहली वर्षा भी हुई, जिसमें ग्रीष्म ऋतु के जाने और मानसून के आरंभ होने की सूचना मिली। जब श्रील प्रभुपाद और स्वरूप दामोदर बातें कर रहे थे, उस समय घनघोर वृष्टि हो रही थी । प्रभुपाद ने बताया कि वैदिक विकासवाद का सिद्धान्त डार्विन से हजारों वर्ष पूर्व पद्म पुराण में प्रस्तुत किया जा चुका था ।

स्वरूप दामोदर ने कहा, "यदि हम अपने पक्ष में कुछ बड़े वैज्ञानिकों को कर सकें कम-से-कम थोड़े से वैज्ञानिकों को तो वह पर्याप्त होगा ।"

प्रभुपाद बोले, "मैं भी यही चाहता

तमाल कृष्ण ने लक्ष्य किया कि दो घंटे तक बातें करने के बाद श्रील प्रभुपाद थक गए होंगे, इसलिए वे बीच में बोले, "श्रील प्रभुपाद, क्या आप चाहेंगे कि अब एक संकीर्तन दल आए ?"

किन्तु प्रभुपाद ने उसे सही किया, “यह कीर्तन ही तो है जो चल रहा है। लोगों को समझना है कि कीर्तन क्या है। कृष्ण पर कोई प्रकरण हो, वह कीर्तन है। शुकदेव गोस्वामी कीर्तन से पूर्ण हो गए थे, किन्तु वे किस तरह का कीर्तन करते थे ?"

तमाल कृष्ण ने उत्तर दिया, " वे भागवत बोलते थे । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "हाँ, आप सोचते हैं कि केवल ढोलक और करताल कीर्तन हैं। किन्तु हम यहाँ जो भी करते हैं, वह कीर्तन है। इस में कोई भौतिक संबंध नहीं है। हम यह वार्ता नहीं कर रहे हैं कि अपना धंधा कैसे बढ़ाएँ या कामिनी और मदिरा का आनन्द कैसे प्राप्त करें। यह हमारा उद्देश्य नहीं है। क उत्तमश्लोक-गुणानुवादात् । हम कृष्ण को स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे हैं—यही कीर्तन है । श्रवणम् कीर्तनम् विष्णोः । क्या आप यह जानते हैं ? "

प्रभुपाद की इस टिप्पणी को संकेत मान कर स्वरूप दामोदर बात में लगे रहे और प्रस्तावित 'जीवन का स्रोत' सम्मेलन में रुचि दिखाने वाले जिन वैज्ञानिकों से वे मिले थे उनके बारे में बताते गए। उन्होंने कहा “मैं सम्मेलन के शीर्षक के बारे में सोच रहा हूँ कि उसे 'वृंदावन में भक्तिवेदान्त विज्ञान सम्मेलन' कहा जाय । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “नहीं, वे इसे अन्यथा लेंगे, यह सोच कर कि भक्तिवेदान्त कोई ज्ञानी नहीं हैं। वे इसे सस्ते ढंग से लेंगे, क्योंकि भक्तिवेदान्त स्वामी कोई वैज्ञानिक नहीं हैं।" एक भक्त ने कहा कि भक्तिवेदान्त का अर्थ वास्तव में सर्वोच्च विज्ञान है और श्रील प्रभुपाद उससे सहमत हुए। किन्तु उन्होंने कहा कि भक्ति का अर्थ समझना सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है।

प्रभुपाद ने पूछा, “सम्मेलन का नाम 'जीवन का स्रोत जीवन' क्यों न रखा जाय ?” और स्वरूप दामोदर तुरन्त सहमत हो गए ।

प्रभुपाद बोले,

कुछ असामान्य करो । अन्य योगियों की तरह हम कोई जादूगर नहीं हैं। हमारे पास धन है, बुद्धि है, और मैं तुम लोगों को प्रेरणा दे सकता

हूँ ।"

श्रील प्रभुपाद की टिप्पणियों से प्रायः ऐसा लगता था कि उनकी शारीरिक दशा का उनके या उनके अनुयायियो के लिए कोई महत्त्व नहीं है। और यह और उनकी वाणी के सम्बन्ध में बड़े महत्त्व का निर्देश

वास्तव

में गुरु के

वपु था । आध्यात्मिक गुरु शरीर-रूप में सदैव मौजूद नहीं रहेगा, किन्तु अपनी वाणी के रूप में अपने निष्ठावान् शिष्य को वह शाश्वत रूप में उपलब्ध है। और वह सम्बन्ध शारीरिक सम्बन्ध की भान्ति वास्तविक और व्यक्तिगत था । वास्तविकता यह है कि वियोग में सेवा की भावना का आनन्द अधिक होता है। शास्त्रों का कथन है कि शुद्ध भक्त का शरीर आध्यात्मिक होता है और भौतिक संसार में उसकी शारीरिक उपस्थिति अस्थायी है । जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के सम्बन्ध में कहा था कि उनके निधन का तात्पर्य है कि वे कृष्ण की सेवा के लिए अन्य लोक में चले गए हैं। अपनी पुस्तक उपदेशामृत में प्रभुपाद ने आध्यात्मिक गुरु के शरीर के विषय में अपने शिष्यों को निर्देश

दिया है।

कृष्णभावनाभावित की अपनी मूल स्थिति में होने के कारण एक शुद्ध भक्त देह से तादात्म्य नहीं करता। ऐसे भक्त को भौतिकतावादी दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए । वस्तुतः इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि कोई भक्त निम्न परिवार में उत्पन्न हुआ है, या उसका शरीर काला या कुरूप है, रोगी या निर्बल है। सामान्य दृष्टि से देखने पर एक शुद्ध भक्त की देह की ये अपूर्णताएँ महत्त्वपूर्ण लग सकती हैं, किन्तु इन प्रत्यक्ष अपूर्णताओं के बावजूद एक शुद्ध भक्त की देह प्रदूषण युक्त नहीं हो सकती । यह ठीक गंगा के जल के समान है जो वर्षा ऋतु में कभी-कभी बुलबुलों, फेन अथवा कीचड़ युक्त होता है। गंगा का जल प्रदूषित नहीं होता । जिन्हें उच्च कोटि का आध्यात्मिक बोध हो गया है, वे गंगा जल की दशा का विचार किए बिना, उस में स्नान करेंगे।

जो भक्त श्रील प्रभुपाद के निकट सम्पर्क में कार्य कर रहे थे, उन्हें नहीं लगता था कि उनका स्वास्थ्य गिर रहा है; वे जैसे भी लग रहे हों, वे भक्तों को सेवा का एक और अवसर दे रहे थे। वे कुछ खाना चाहें या न खाना चाहें, वे प्रसन्न हों या अप्रसन्न हों, वे स्वस्थ लग रहे हों या बीमार लग रहे

हों,

भक्त, उनके प्रति प्रेम और कर्त्तव्यवश, वैसा ही व्यवहार करते थे। भक्तों में यह चित्तवृत्ति दिन-प्रति-दिन अधिक उभरती जा रही थी, क्योंकि श्रील प्रभुपाद अपने सभी कार्यों के लिए उन पर दिन-प्रतिदिन अधिक निर्भर होते जा रहे थे। उन्होंने कहा था कि वे संसार में केवल इसलिए हैं कि उन्हें अपने भक्तों

की उनकी सेवा करने की सच्ची इच्छा की पूर्ति करनी थी। फिर भी वे बराबर जोर देते रहे कि भक्तों द्वारा उनके भौतिक शरीर की सेवा करना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं था जितना उनके निर्देशों का पालन करना ।

जब प्रभुपाद के दो संन्यासी उनसे विदा ले रहे थे तो वे प्रसन्नतापूर्वक मुसकराए और बोले, "मैं रहूँ या जाऊँ, किन्तु अपनी पुस्तकों में मैं सदा रहूँगा। जब उन्होंने सुना कि उनकी पुस्तकों की चालीस हजार सजिल्द प्रतियाँ एक सप्ताह में बिक गई हैं तो उन्होंने कहा, “यदि पुस्तकों का वितरण बढ़ता गया तो मैं कभी नहीं मरूँगा, मैं शताब्दियों जीवित रहूँगा।” जब तमाल कृष्ण ने टिप्पणी की कि पुस्तकों के वितरण की रिपोर्टें ही ऐसी हैं जो प्रभुपाद को कभी चिन्तित नहीं करती तो प्रभुपाद खुल कर मुसकराए, उन्होंने कहा, "नहीं! यही मेरा जीवन है । "

किन्तु एक दिन जब वे बगीचे में तमाल कृष्ण, स्वरूप दामोदर और अन्यों के साथ बैठे थे तो श्रील प्रभुपाद अपनी एक प्रकाशित पुस्तक में एक अशुद्धि देख कर उद्विग्न हो उठे। तमाल कृष्ण पहले स्कंध से एक श्लोक पढ़ रहे थे जो मुनयः साधु पृष्टोऽहम् से आरंभ होता है। श्रील प्रभुपाद ने उनसे पर्यायवाची शब्दों को पढ़वाया।

तमाल कृष्ण ने पढ़ा: “मुनयः – हे मुनियो; साधु —यह प्रासंगिक है; पृष्टो — प्रश्न किया...'

"साधु ?” श्रील प्रभुपाद ने पूछा। इस प्रकार उन्होंने संस्कृत सम्पादकों की नासमझी से हुई एक अशुद्धि पा ली। साधु का अर्थ है “भक्त", न कि "यह प्रासंगिक है । " श्रील प्रभुपाद बहुत क्रुद्धं हुए और उन्होंने “मूर्ख संस्कृत विद्वानों" की भर्त्सना की। उन्होंने कहा “ नीम हकीम से जान को खतरा होता है। वे तुरन्त अपने को बड़ा विद्वान् मानने लगते हैं और सोचते हैं, 'मैं व्यवस्थित करूँगा ।' और तब वे मूर्खता-भरी बातें लिख जाते हैं।” प्रभुपाद अशुद्धि के बारे में आधे घंटे तक बात करते रहे। वे क्षुब्ध थे। उन्होंने तमाल कृष्ण को आदेश दिया कि वे तुरन्त बी. बी. टी. को लिखें और उनके शिष्यों को अटकलबाजियाँ करने तथा प्रभुपाद की पुस्तकों को सम्पादन के नाम में बदलने से रोकें । भक्त प्रभुपाद को इस तरह क्रुद्ध होते देख भौंचक्के रह गए। वे तो मान रहे थे कि अपने बगीचे में बैठे प्रभुपाद श्रीमद्भागवत का पाठ सुनने का आनन्द ले रहे हैं। प्रभुपाद ने कहा कि इस तरह का परिवर्तन गंभीर मामला है, क्योंकि इससे अर्थ बदल जाता है। उन्होंने कहा, “यदि प्राधिकृत आचार्यों द्वारा कोई

थे। प्रभुपाद के भक्तों के लिए वृंदावन की रमण रेती में मंदिर के अहाते के भीतर प्रभुपाद के साथ कीर्तन करना आध्यात्मिक संसार का मूल तत्त्व जैसा

था ।

यद्यपि प्रभुपाद का शरीर प्रत्यक्षतः रोग ग्रस्त था, किन्तु वे सदैव की भाँति सतर्क थे और हर दिन सवेरे वे देख लेते थे कि वहाँ कौन उपस्थित है और कौन नहीं। अपनी राकिंग चेयर में बैठे और कृष्ण और बलराम की ओर निहारते हुए प्रभुपाद के साथ होने का यह विशेष अवसर ऐसा था जिससे भक्तों को धीरे-धीरे प्यार-सा हो गया। वृंदावन के निवासी और तीर्थयात्री भी प्रभुपाद के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो जाते थे और प्रायः उन्हें धन देते थे, जिसे वे उनके चरणों पर रख देते थे। स्फूर्ति से भरे गुरुकुल के युवा बालक प्रभुपाद के सामने नृत्य करते रहते थे, तीर्थयात्रियों का समूह उन्हें प्रणाम करता हुआ और उनके चरणों पर धन चढ़ाता हुआ आता-जाता रहता था, और उनके सचिवों में से एक उन्हें विशाल चामर- पंखा डुलाता रहता था और श्रील प्रभुपाद, कृष्ण और बलराम पर ध्यान केन्द्रित किए गंभीर, और फिर भी सरल भाव से, बैठे रहते थे।

कभी-कभी वे अपने मुख्य कमरे से लगे बगीचे में जाकर एकान्त में बैठते थे। एक भक्त ने वहाँ गुलाबी रंग के कमल के रुप में एक विशाल पलस्तर का फौव्वारा बनाया था। और जब प्रभुपाद कुसुमित लताओं से घिरे छोटे शैय्याकोष्ठ में बैठे होते थे, उस समय चलते हुए फौव्वारे से उन्हें बड़ी प्रसन्नता और शान्ति मिलती थी । प्रायः एक बंदर दीवार फाँद कर बगीचे में आ जाता था और चुराने के लिए चीजें ढूँढने लगता था और प्रभुपाद उसे खदेड़वा देते थे। अन्यथा वे मौन बैठे रहते थे, केवल कभी-कभी एक-दो शिष्यों के साथ कुछ बात कर लेते थे।

एक दिन बगीचे में बैठे हुए श्रील प्रभुपाद उस सभ्य और सरल जीवन की याद कर रहे थे जो उन्होंने एक बालक के रूप में बिताया था। उन्होंने उन सारे संस्कारों का वर्णन किया जो उनकी माँ ने गर्भावस्था में प्रसव के समय की आपदाओं को शांत करने के लिए किए थे। यद्यपि उनका स्वर मंद और दुर्बल था, फिर भी बात करने की ओर उनमें रुझान था । उन्होंने कहा, “बच्चों की कितनी देखभाल की जाती थी; अब ये धूर्त बच्चों की हत्या कर रहे हैं। यह कितना असभ्य जीवन है। ये दो पैरों वाले जानवर हैं। इन दिनों भी भारत के भीतरी गाँवों में जीवन शान्तिपूर्ण हो सकता है। शान्तिपूर्वक रहने और हरे कृष्ण कीर्तन के लिए उनके पास काफी अन्न और काफी दूध होता है। और

ये धूर्त वहाँ नसबंदी के लिए जा रहे हैं। (श्रील प्रभुपाद अनिवार्य नस-बंदी सम्बन्धी इंदिरा गांधी की नीति की ओर संकेत कर रहे थे ।)

वहाँ उपस्थित एक भक्त अभी-अभी पश्चिम बंगाल से लौटा था, जहाँ वह गंगा में नाव से यात्रा करके गाँवों में धर्मोपदेश और प्रसाद वितरण करता रहा था। श्रील प्रभुपाद ने उसे बताना आरंभ किया कि किस तरह गाँवों में आटे की गोल बाटी बना कर उसे खुली आग की बगल में रख कर सेंक लेते हैं। वह आग गाय के गोबर से बने कंडे की होती है और उसे खांडी आग कहते हैं। उसी आग पर वे एक बर्तन रख कर उसमें दाल पका लेते हैं। कुछ समय में दाल उबल जाती है—और वह बहुत अच्छी होती है। बाटी को घी में पका लेने से वह अव्वल दर्जे की बन जाती है।"

फौव्वारा धीरे-धीरे चल रहा था, कबूतर और हरे तोते चहचहा और फड़फड़ा रहे थे, और प्रभुपाद मुक्त रूप में बात करते जा रहे थे। उन्हें अपनी जन्म कुण्डली याद आई : "सत्तर वर्ष के बाद यह व्यक्ति बाहर जायगा और अनेक मंदिर स्थापित करेगा।" उन्होंने कहा कि पहले उनकी समझ में नहीं आया था कि वे सचमुच बाहर जायँगे, किन्तु जब वे अंत में संयुक्त राज्य में आ गए तो उनका इरादा वहाँ से कभी लौटने का नहीं था । यदि १९६७ में उन्हें संयुक्त राज्य में लकवा न मार गया होता, तो वे कभी वापस न आते। उन्होंने कहा, " इसका मतलब यह है कि कृष्ण की ऐसी इच्छा थी, नहीं तो लौटने की मेरी कोई योजना नहीं थी । इसीलिए मैने यहाँ अपना स्थायी निवास बनाया ।'

तमाल कृष्ण गोस्वामी ने पूछा, “क्या भारत वापस आने का आपको खेद है ?"

प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, मेरी योजना वहाँ रुकने की थी, किन्तु कृष्ण की योजना भिन्न थी । जब मैं (१९७० में) वापस आ रहा था तो मैने (लास एंजीलिस मंदिर में कृष्ण के अर्चा-विग्रह ) द्वारकाधीश से कहा, 'मैं यहाँ धर्मोपदेश करने आया था। मैं नहीं जानता कि आप मुझे वापस क्यों घसीट रहे हैं।' यह मैने उस समय कहा था, जब मैं लॉस एंजिलिस छोड़ रहा था । मैं प्रसन्न नहीं था । किन्तु कृष्ण की अपनी योजना थी।

तमाल कृष्ण ने टिप्पणी की, “बहुत अच्छी योजना थी वह। "

श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा, "कृष्ण ने कहा, 'आओ मैं तुम्हें वृंदावन में इससे अच्छा स्थान दूँगा। तुम वृंदावन में अवकाश ले चुके थे और मैंने तुमसे उसे छोड़ने को कहा। अब तुम्हें वापस आना है। मैं तुम्हें इससे अच्छा स्थान

"मैंने अपने हिस्से का कार्य पूरा कर दिया है । "

दूँगा ।' अस्तु, उन्होंने मुझे एक मंदिर दिया है जो और किसी स्थान से सौ गुना अच्छा है। क्या ऐसा नहीं है ?"

द टाइम्स आफ इंडिया में 'श्रील प्रभुपाद गंभीर रूप से बीमार' शीर्षक एक समाचार उसके मुख पृष्ठ पर छपा। इसके बारे में सुन कर प्रभुपाद ने टिप्पणी की, “यदि वे यह न समझते कि भक्तिवेदान्त स्वामी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं, तब वे यह समाचार न छापते ।" गिरिराज ने श्रील प्रभुपाद को लिखा कि सहानुभूति रखने वाले अनेक लोगों ने बम्बई मंदिर को टेलीफोन करके और अधिक जानकारी माँगी है। एक भक्त ने एक वक्तव्य जारी किया था जिसे द टाइम्स आफ इंडिया ने कुछ दिन बाद अपने तीसरे पृष्ठ पर 'श्रील प्रभुपाद अब पहले से अच्छे हैं' ।

शीर्षक के अन्तर्गत छापा। तो, क्या श्रील प्रभुपाद "गंभीर रूप

"गंभीर रूप से बीमार" या "पहले से अच्छे” थे ? उन्होंने कहा, “मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ, किसी भी दशा में मैं कृष्ण के साथ हूँ। किन्तु उन्होंने विश्वस्त ढंग से कहा, "मैने कृष्ण से प्रार्थना की है कि मुझे उत्साह दें जो मेरी मृत्यु तक बना रहे। एक सैनिक को युद्ध भूमि में लड़ते हुए मरना चाहिए । '

श्रील प्रभुपाद के अनुरोध पर तमाल कृष्ण सभी पत्रों के उत्तर दे रहे थे और सचिव रूप में स्वयं हस्ताक्षर करते थे। जैसा कि उन्होंने एक पत्र में लिखा,

वर्तमान परिस्थिति में मेरे लिए यह संभव नहीं है कि मैं पत्रों को पढ़ कर श्रील प्रभुपाद को सुनाऊँ। मैं उन्हें केवल अच्छे समाचारों से अवगत करा देता हूँ । अतः मैंने उन्हें आप द्वारा टाउन हाल में की गई सफल बैठक के और साथ ही आपके अन्य धर्मोपदेश सम्बन्धी कार्यों के बारे में बता दिया है।

ये पत्र लगभग उतने ही महत्त्वपूर्ण होते थे जितने स्वयं श्रील प्रभुपाद के, क्योंकि उनमें प्रायः प्रभुपाद के सीधे उद्धरण होते थे।

एक दिन संध्या समय श्रील प्रभुपाद ने सभी उपलब्ध संन्यासियों को बुलाया । उन्होंने कहा कि वे थके हुए अनुभव कर रहे थे, किन्तु एक पिता की तरह अपनी संतानों के साथ होने से उन्हें प्रसन्नता थी। वे बोले, "आप सभी को इसी तरह, मेरे पास होना चाहिए; उससे मैं अच्छा अनुभव करता हूँ।”

एक दिन जब तमाल कृष्ण श्रील प्रभुपाद के साथ बैठे थे तो उन्होंने कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन आरंभ कर दिया जो श्रील प्रभुपाद की प्रसाद की मेज की दाहिनी ओर दीवार से लटकी पेंटिंग में चित्रित थीं। पेंटिंग में

दिखाया गया था कि कृष्ण अपने गोपसखाओं के साथ दोपहर का भोजन कर रहे हैं। श्रील प्रभुपाद ने पेंटिंग को देखा, तब अपनी आँखें बंद कर लीं और लीला के बारे में सोचते हुए कहा, “यह जीवन की सर्वोच्च पूर्णता इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ, कि बिना कृष्ण के जो कुछ भी किया जाता है है। मैं वह समय का अपव्यय है। वे इसके बारे में क्या सोचेंगे ?"

प्रभुपाद की चित्तवृत्तियाँ, दिव्य संवेगों और रुझानों के मध्य, बदलती रहती थीं और अनेक रूप धारण करती थीं। कुछ भक्तों से, जो उनकी सेवा में उपस्थित थे, उन्होंने कहा, “मैं सोच रहा हूँ कि मैं एक बेकार आदमी हूँ, जो तुम लोगों से इतनी अधिक सेवा करा रहा है। प्रतिदान का मेरे पास कोई तरीका नहीं है। मैं हर अर्थ में कंगाल हूँ, वित्तीय और आध्यात्मिक दोनों तरह से ।

तमाल कृष्ण ने प्रतिवाद किया, "श्रील प्रभुपाद, हमारी मात्र इच्छा आप की सेवा करना है।"

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “मैं जानता हूँ और यही कारण है कि मैं जीवित हूँ। सारे विश्व में सभी काम तुम लोगों की एकनिष्ठा सेवा से चल रहे हैं। "

किन्तु किसी-किसी अवसर पर प्रभुपाद अब भी गलती करने वाले किसी शिष्य को डाँट देते थे। जब प्रभुपाद को वस्त्र पहनाते समय उपेन्द्र ने उन्हें एक ऐसी लुंगी दी जो बहुत छोटी थी तो प्रभुपाद ने उसे “मूर्ख और पाजी" कह कर डाँटा । और एक बार जब तमाल कृष्ण, जुकाम के कारण, प्रभुपाद की सेवा में नहीं पहुँच सके तो प्रभुपाद ने उनकी आलोचना की। उन्होंने कहा, "मैंने कार्य के किसी क्षेत्र में अपने कर्त्तव्य की कभी उपेक्षा नहीं की; व्यवसाय में भी। डा. बोस मुझे बहुत प्यार करते थे। वे मुझे हस्ताक्षर के लिए चालीस हजार रुपये के भी चेक दे देते थे। मैने अपने कर्त्तव्य के प्रति कभी आलस्य या उपेक्षा नहीं दिखाई। मैं अपना कर्त्तव्य ईमानदारी से करता और उसे सब तरह से अच्छा करने की कोशिश करता। मैने अपने कार्य की उपेक्षा केवल तब की थी जब मैं अपनी युवा पत्नी के चक्कर में था। तब मैंने अपने अध्ययन की उपेक्षा की थी। यह सब परिस्थितियों के कारण था। और तब बाद में मैं अपनी पत्नी की उपेक्षा करने लगा। मेरे पिताजी कहते थे कि मेरा सौभाग्य है कि मेरा परिवार मुझे पसंद नहीं था। कृष्ण ने मुझे अनेक परिस्थितियों से पचाया है। यह भौतिक जीवन उत्थान-पतन से भरा है।'

श्रील प्रभुपाद एक दिन बड़े सवेरे अचानक जग गए। उन्होंने सेवा में उपस्थित रोष्यों से कहा, “मैंने एक स्वप्न देखा है। पियक्कड़ों और कीर्तनियों का एक

बड़ा समूह जमा है। पियक्कड़ सभी पागल हैं। कुछ पियक्कड़ कीर्तनियाँ बन

रहे हैं। उनकी लड़ाई बंद नहीं होती। पियक्कड़ सनकी हैं।'

तमाल कृष्ण ने पूछा, “क्या आप भी वहाँ थे ?"

“हाँ, मैं भी वहाँ खड़ा था । "

"क्या कुछ कीर्तनिये पियक्कड़ बन रहे थे ?"

SUPER

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "कीर्तनियों का पतन नहीं हो सकता। उनके नाम परम धाम जाने वालों में लिखे होते हैं। वे कृष्ण के परिवार के हैं।"

वृन्दावन में जी. बी. सी. की बैठक के बाद स्वरूप दामोदर मणिपुर और कलकत्ता की यात्रा पर गए थे। अब वे श्रील प्रभुपाद से मिलने वृंदावन वापस आए थे। ज्योंही श्रील प्रभुपाद को उनके वापस आने का समाचार मिला उन्होंने स्वरूप दामोदर को अपने पास बुलाया। जैसा कि हमेशा होता था, श्रील प्रभुपाद ने उनके साथ विशेष व्यवहार किया और उन्हें अधिक समय तथा ध्यान दिया । स्वरूप दामोदर से पहली मुलाकात होने के दिन से, जब स्वरूप दामोदर थाउडम सिंह के नाम से UCLA, यूनिवर्सिटी में आर्गेनिक कमेस्ट्री में पी.एच.डी. के शोध छात्र थे, प्रभुपाद ने उनसे सम्बन्ध विकसित करने पर विशेष ध्यान दिया

था ।

थाउडम मणिपुर में पल कर बड़े हुए थे और वहाँ के हाई स्कूल करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, अमेरिका चले गए थे। वे लास एंजिलिस की सड़कों पर भक्तों के कीर्तन से आकृष्ट हुए थे और मंदिर देखने गए थे। जब उनकी भेंट श्रील प्रभुपाद से हुई तो उन्हें विश्वास हो गया कि वे एक सच्चे आध्यात्मिक पुरुष से मिले हैं। पहले पहल थाउडम ने ऐसा रुख दिखाया कि वे अनुभव-आधारित वैज्ञानिक ज्ञान की दुनिया के प्रतिनिधि थे, और प्रभुपाद ने वेनिस बीच पर प्रातःकालीन भ्रमण के लिए उन्हें आमंत्रित किया था ।

आए दिन थाउडम को श्रील प्रभुपाद जीवन के स्रोत से सम्बन्धित वाद-विवाद में खींचा करते थे। जब श्रील प्रभुपाद तर्क के लिए तैयार होते तो चारों ओर देखते और कहते, “वैज्ञानिक कहाँ हैं?” और थाउडम को देखते ही वे पूछते, " तो वे क्या कहते हैं ?" थाउडम तब दलील देते कि जीवन का आरंभ रासायनिक विकास से अचानक हुआ है। और श्रील प्रभुपाद उस दलील को सन्न कर देने वाले तर्क और सहज बुद्धि के प्रदर्शन से ध्वस्त कर देते थे।

श्रील प्रभुपाद से नित्य सत्संग होने और भगवद्गीता यथारूप को पढ़ने से थाउडम का रुझान भौतिक विज्ञान की अपेक्षा कृष्णभावनामृत की ओर अधिक होता गया और अन्ततः वे प्रभुपाद के दीक्षित शिष्य, स्वरूप दामोदर दास, बन गए। श्रील प्रभुपाद से प्रोत्साहन पाकर स्वरूप दामोदर ने शीघ्र अपनी पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त कर ली। और आधुनिक निरीश्वरवादी विज्ञान के विरुद्ध वैज्ञानिक भाषणों और लेखों से श्रील प्रभुपाद की सेवा करने को वे प्रतिज्ञाबद्ध हो गए।

श्रील प्रभुपाद भलीभाँति अवगत थे कि विज्ञान का शक्तिशाली साम्राज्य लोगों पर सर्वत्र छाया हुआ था और वे उसके निरीश्वरवादी प्रचार का खण्डन करने को तत्पर थे। वे जानते थे कि भगवद्गीता सर्वोच्च विज्ञान है और वे देखते थे कि अनेक आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताएँ किस तरह घोर दुराग्रहपूर्ण थीं। अपने तमाम प्राविधिक अनाप-शनाप और वैज्ञानिक विधि में विश्वास के बावजूद, आधुनिक वैज्ञानिकों को वास्तव में जीवन के स्रोत और प्रयोजन का ज्ञान नहीं

था।

स्वरूप दामोदर और स्नातक की उपाधि से युक्त कुछ अन्य भक्तों ने मिल कर भक्तिवेदान्त इंस्टीट्यूट स्थापित किया था और शैक्षिक आयामों में कार्य करते हुए वे कृष्णभावनामृत का वैज्ञानिक आधार सिद्ध करना चाहते थे। श्रील प्रभुपाद को उस समय विशेष प्रसन्नता हुई थी जब वैज्ञानिकों के एक विशाल सम्मेलन में स्वरूप दामोदर ने एक नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक को चुनौती दी थी, जिसका विचार था कि जीवन एक ऐसा अद्भुत चमत्कार है जो रासायनिक जटिलता के किसी निश्चित स्तर पर घटित हुआ। स्वरूप दामोदर ने उससे पूछा था, "यदि मैं आपको अपेक्षित रासायनिक दूँ तो क्या आप जीवन उत्पन्न कर सकते हैं?" और संकोच में पड़े उस वैज्ञानिक ने उत्तर दिया था, “मैं नहीं जानता।” श्रील प्रभुपाद ने इस घटना की अपने वार्तालापों और व्याख्यानों में बार-बार चर्चा की थी।

श्रील प्रभुपाद स्वरूप दामोदर और भक्तिवेदान्त इंस्टीट्यूट के कार्य की प्रशंसा प्राय: करते थे और उन्होंने विश्वास दिलाया कि बी.बी.टी. उनके लेखों के प्रकाशन, शोध कार्य और निर्माण परियोजनाओं के लिए धन की व्यवस्था करेगी। श्रील प्रभुपाद ने उन्हें दलीलें दे दी थीं और वे उन दलीलों को वैज्ञानिक भाषा में विकसित कर रहे थे।

अब स्वरूप दामोदर श्रील प्रभुपाद से अधिक संसर्ग बढ़ाने आए थे और प्रणाम करने के पश्चात् उन्होंने प्रभुपाद को कई गुलाबी रंग के कमल के पुष्प

भेंट किए। श्रील प्रभुपाद ने एक पुष्प हाथ में ले लिया और उसकी पंखुड़ियों को खोला; शेष पुष्पों को अर्चा-विग्रहों को चढ़ाने के लिए उन्होंने अपने सचिव को दे दिया। स्वरूप दामोदर कई पके अनन्नास भी लाए थे और प्रभुपाद ने तुरन्त एक गिलास ताजा अनन्नास का रस माँगा ।

स्वरूप दामोदर वृन्दावन में वैज्ञानिकों का एक सम्मेलन करने की योजना बना रहे थे जिसमें 'जीवन का स्रोत' विषय पर विचार होना था। वे अनेक वैज्ञानिकों और प्राचार्यों से मिलते रहे थे जिनमें से कइयों ने स्वरूप दामोदर की विचार-धारा और सम्मेलन में भाग लेने में रुचि दिखाई थी। स्वरूप दामोदर ने सम्भाव्य सम्मेलन की घोषणा करने वाला जो विवरण-पत्र तैयार किया था उसे पढ़ कर प्रभुपाद को सुनाया। प्रभुपाद ने शान्त भाव से सुना और अंत में कहा, "स्वरूप दामोदर की जय ।" उस दिन तीसरे पहर उन्होंने आपस में फिर वार्ता की। ऐसा लगता था कि भौतिकतावादी विज्ञान को पराजित करने के उद्देश्य से प्रभुपाद स्वरूप दामोदर से बात करने में न तो कभी अधिक थकान का अनुभव करते थे और न बीमारी का ।

स्वरूप दामोदर को वैज्ञानिकों से बातें करके आशा बंध रही थी। उन्होंने प्रभुपाद से कहा, “मैं समझता हूँ कि जो कार्यक्रम हम बना रहे हैं उसमें उनकी रुचि है। अन्यथा विचार-विमर्श के लिए वे समय न देते। उनमें से कुछ ऐसा अनुभव करते हैं कि हमारे उपागम बेजोड़ हैं। "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "इस तरह का अन्य कोई प्रस्ताव किसी के पास नहीं है। उन्होंने ईश्वर को कोई रहस्यमय चीज मान रखा है। विशेषकर उस धूर्त डार्विन का सिद्धान्त ऐसा ही मानता है। वे जानवर जैसे हो गए हैं और सब को जानवरों जैसा ही समझते हैं। इस धूर्त ने उनमें विश्वास पैदा कर दिया है, 'तुम्हारे पूर्वज बंदर थे।' वे बंदर की संतान कैसे हो सकते हैं ? लेकिन यही चल रहा है। यह डार्विन महाधूर्त है। और उसके सिद्धान्त को सारे संसार में नृवंश - शास्त्र का सबसे बड़ा सिद्धान्त माना जाता है। अतः सभी वैज्ञानिकों को मिल कर डार्विन के सिद्धान्त के विरोध में बोलना चाहिए।'

स्वरूप दामोदर के वृंदावन पहुँचने के दिन पहली वर्षा भी हुई, जिसमें ग्रीष्म ऋतु के जाने और मानसून के आरंभ होने की सूचना मिली। जब श्रील प्रभुपाद और स्वरूप दामोदर बातें कर रहे थे, उस समय घनघोर वृष्टि हो रही थी । प्रभुपाद ने बताया कि वैदिक विकासवाद का सिद्धान्त डार्विन से हजारों वर्ष पूर्व पद्म पुराण में प्रस्तुत किया जा चुका था ।

स्वरूप दामोदर ने कहा, "यदि हम अपने पक्ष में कुछ बड़े वैज्ञानिकों को कर सकें कम-से-कम थोड़े से वैज्ञानिकों को तो वह पर्याप्त होगा ।"

प्रभुपाद बोले, "मैं भी यही चाहता

तमाल कृष्ण ने लक्ष्य किया कि दो घंटे तक बातें करने के बाद श्रील प्रभुपाद थक गए होंगे, इसलिए वे बीच में बोले, "श्रील प्रभुपाद, क्या आप चाहेंगे कि अब एक संकीर्तन दल आए ?"

किन्तु प्रभुपाद ने उसे सही किया, “यह कीर्तन ही तो है जो चल रहा है। लोगों को समझना है कि कीर्तन क्या है। कृष्ण पर कोई प्रकरण हो, वह कीर्तन है। शुकदेव गोस्वामी कीर्तन से पूर्ण हो गए थे, किन्तु वे किस तरह का कीर्तन करते थे ?"

तमाल कृष्ण ने उत्तर दिया, " वे भागवत बोलते थे । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "हाँ, आप सोचते हैं कि केवल ढोलक और करताल कीर्तन हैं। किन्तु हम यहाँ जो भी करते हैं, वह कीर्तन है। इस में कोई भौतिक संबंध नहीं है। हम यह वार्ता नहीं कर रहे हैं कि अपना धंधा कैसे बढ़ाएँ या कामिनी और मदिरा का आनन्द कैसे प्राप्त करें। यह हमारा उद्देश्य नहीं है। क उत्तमश्लोक-गुणानुवादात् । हम कृष्ण को स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे हैं—यही कीर्तन है । श्रवणम् कीर्तनम् विष्णोः । क्या आप यह जानते हैं ? "

प्रभुपाद की इस टिप्पणी को संकेत मान कर स्वरूप दामोदर बात में लगे रहे और प्रस्तावित 'जीवन का स्रोत' सम्मेलन में रुचि दिखाने वाले जिन वैज्ञानिकों से वे मिले थे उनके बारे में बताते गए। उन्होंने कहा “मैं सम्मेलन के शीर्षक के बारे में सोच रहा हूँ कि उसे 'वृंदावन में भक्तिवेदान्त विज्ञान सम्मेलन' कहा जाय । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “नहीं, वे इसे अन्यथा लेंगे, यह सोच कर कि भक्तिवेदान्त कोई ज्ञानी नहीं हैं। वे इसे सस्ते ढंग से लेंगे, क्योंकि भक्तिवेदान्त स्वामी कोई वैज्ञानिक नहीं हैं।" एक भक्त ने कहा कि भक्तिवेदान्त का अर्थ वास्तव में सर्वोच्च विज्ञान है और श्रील प्रभुपाद उससे सहमत हुए। किन्तु उन्होंने कहा कि भक्ति का अर्थ समझना सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है।

प्रभुपाद ने पूछा, “सम्मेलन का नाम 'जीवन का स्रोत जीवन' क्यों न रखा जाय ?” और स्वरूप दामोदर तुरन्त सहमत हो गए ।

प्रभुपाद बोले,

कुछ असामान्य करो । अन्य योगियों की तरह हम कोई जादूगर नहीं हैं। हमारे पास धन है, बुद्धि है, और मैं तुम लोगों को प्रेरणा दे सकता

हूँ ।"

श्रील प्रभुपाद की टिप्पणियों से प्रायः ऐसा लगता था कि उनकी शारीरिक दशा का उनके या उनके अनुयायियो के लिए कोई महत्त्व नहीं है। और यह और उनकी वाणी के सम्बन्ध में बड़े महत्त्व का निर्देश

वास्तव

में गुरु के

वपु था । आध्यात्मिक गुरु शरीर-रूप में सदैव मौजूद नहीं रहेगा, किन्तु अपनी वाणी के रूप में अपने निष्ठावान् शिष्य को वह शाश्वत रूप में उपलब्ध है। और वह सम्बन्ध शारीरिक सम्बन्ध की भान्ति वास्तविक और व्यक्तिगत था । वास्तविकता यह है कि वियोग में सेवा की भावना का आनन्द अधिक होता है। शास्त्रों का कथन है कि शुद्ध भक्त का शरीर आध्यात्मिक होता है और भौतिक संसार में उसकी शारीरिक उपस्थिति अस्थायी है । जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के सम्बन्ध में कहा था कि उनके निधन का तात्पर्य है कि वे कृष्ण की सेवा के लिए अन्य लोक में चले गए हैं। अपनी पुस्तक उपदेशामृत में प्रभुपाद ने आध्यात्मिक गुरु के शरीर के विषय में अपने शिष्यों को निर्देश

दिया है।

कृष्णभावनाभावित की अपनी मूल स्थिति में होने के कारण एक शुद्ध भक्त देह से तादात्म्य नहीं करता। ऐसे भक्त को भौतिकतावादी दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए । वस्तुतः इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि कोई भक्त निम्न परिवार में उत्पन्न हुआ है, या उसका शरीर काला या कुरूप है, रोगी या निर्बल है। सामान्य दृष्टि से देखने पर एक शुद्ध भक्त की देह की ये अपूर्णताएँ महत्त्वपूर्ण लग सकती हैं, किन्तु इन प्रत्यक्ष अपूर्णताओं के बावजूद एक शुद्ध भक्त की देह प्रदूषण युक्त नहीं हो सकती । यह ठीक गंगा के जल के समान है जो वर्षा ऋतु में कभी-कभी बुलबुलों, फेन अथवा कीचड़ युक्त होता है। गंगा का जल प्रदूषित नहीं होता । जिन्हें उच्च कोटि का आध्यात्मिक बोध हो गया है, वे गंगा जल की दशा का विचार किए बिना, उस में स्नान करेंगे।

जो भक्त श्रील प्रभुपाद के निकट सम्पर्क में कार्य कर रहे थे, उन्हें नहीं लगता था कि उनका स्वास्थ्य गिर रहा है; वे जैसे भी लग रहे हों, वे भक्तों को सेवा का एक और अवसर दे रहे थे। वे कुछ खाना चाहें या न खाना चाहें, वे प्रसन्न हों या अप्रसन्न हों, वे स्वस्थ लग रहे हों या बीमार लग रहे

हों,

भक्त, उनके प्रति प्रेम और कर्त्तव्यवश, वैसा ही व्यवहार करते थे। भक्तों में यह चित्तवृत्ति दिन-प्रति-दिन अधिक उभरती जा रही थी, क्योंकि श्रील प्रभुपाद अपने सभी कार्यों के लिए उन पर दिन-प्रतिदिन अधिक निर्भर होते जा रहे थे। उन्होंने कहा था कि वे संसार में केवल इसलिए हैं कि उन्हें अपने भक्तों

की उनकी सेवा करने की सच्ची इच्छा की पूर्ति करनी थी। फिर भी वे बराबर जोर देते रहे कि भक्तों द्वारा उनके भौतिक शरीर की सेवा करना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं था जितना उनके निर्देशों का पालन करना ।

जब प्रभुपाद के दो संन्यासी उनसे विदा ले रहे थे तो वे प्रसन्नतापूर्वक मुसकराए और बोले, "मैं रहूँ या जाऊँ, किन्तु अपनी पुस्तकों में मैं सदा रहूँगा। जब उन्होंने सुना कि उनकी पुस्तकों की चालीस हजार सजिल्द प्रतियाँ एक सप्ताह में बिक गई हैं तो उन्होंने कहा, “यदि पुस्तकों का वितरण बढ़ता गया तो मैं कभी नहीं मरूँगा, मैं शताब्दियों जीवित रहूँगा।” जब तमाल कृष्ण ने टिप्पणी की कि पुस्तकों के वितरण की रिपोर्टें ही ऐसी हैं जो प्रभुपाद को कभी चिन्तित नहीं करती तो प्रभुपाद खुल कर मुसकराए, उन्होंने कहा, "नहीं! यही मेरा जीवन है । "

किन्तु एक दिन जब वे बगीचे में तमाल कृष्ण, स्वरूप दामोदर और अन्यों के साथ बैठे थे तो श्रील प्रभुपाद अपनी एक प्रकाशित पुस्तक में एक अशुद्धि देख कर उद्विग्न हो उठे। तमाल कृष्ण पहले स्कंध से एक श्लोक पढ़ रहे थे जो मुनयः साधु पृष्टोऽहम् से आरंभ होता है। श्रील प्रभुपाद ने उनसे पर्यायवाची शब्दों को पढ़वाया।

तमाल कृष्ण ने पढ़ा: “मुनयः – हे मुनियो; साधु —यह प्रासंगिक है; पृष्टो — प्रश्न किया...'

"साधु ?” श्रील प्रभुपाद ने पूछा। इस प्रकार उन्होंने संस्कृत सम्पादकों की नासमझी से हुई एक अशुद्धि पा ली। साधु का अर्थ है “भक्त", न कि "यह प्रासंगिक है । " श्रील प्रभुपाद बहुत क्रुद्धं हुए और उन्होंने “मूर्ख संस्कृत विद्वानों" की भर्त्सना की। उन्होंने कहा “ नीम हकीम से जान को खतरा होता है। वे तुरन्त अपने को बड़ा विद्वान् मानने लगते हैं और सोचते हैं, 'मैं व्यवस्थित करूँगा ।' और तब वे मूर्खता-भरी बातें लिख जाते हैं।” प्रभुपाद अशुद्धि के बारे में आधे घंटे तक बात करते रहे। वे क्षुब्ध थे। उन्होंने तमाल कृष्ण को आदेश दिया कि वे तुरन्त बी. बी. टी. को लिखें और उनके शिष्यों को अटकलबाजियाँ करने तथा प्रभुपाद की पुस्तकों को सम्पादन के नाम में बदलने से रोकें । भक्त प्रभुपाद को इस तरह क्रुद्ध होते देख भौंचक्के रह गए। वे तो मान रहे थे कि अपने बगीचे में बैठे प्रभुपाद श्रीमद्भागवत का पाठ सुनने का आनन्द ले रहे हैं। प्रभुपाद ने कहा कि इस तरह का परिवर्तन गंभीर मामला है, क्योंकि इससे अर्थ बदल जाता है। उन्होंने कहा, “यदि प्राधिकृत आचार्यों द्वारा कोई

की तरह तीसरे पहर के अपने लेखन और अनुवाद में लग गए। किन्तु शाम को उन्होंने तमाल कृष्ण को बुलाया। उन्होंने कहा, "मुझे एक बड़े षड्यंत्र का डर है। समाचार की अंतिम पंक्ति में कहा गया है कि संस्थापक- आचार्य उपस्थित नहीं थे। उन्हें अफसोस है। वे मुझे गिरफ्तार कर लेते और जेल में डाल देते।"

तमाल कृष्ण ने यह कह कर समाचार का उपहास किया कि वह एकपक्षीय था । उन्होंने कहा, “यह सही नहीं जँचता कि भक्तों ने गायों को मारा। भक्त गायों को नहीं मारते । "

थोड़े ही दिनों में गोपाल कृष्ण का पत्र आया जिसमें मायापुर की घटना के पूरे तथ्य दिए गए थे। लगभग पचास मुसलमान इस्कान के खेतों से फसलें चुरा रहे थे। जब निताइ चन्द ने उन्हें रोकना चाहा तो उन लोगों ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसके सिर पर तीन जगह घाव कर दिए। बाद में जब मंदिर के अस्पताल में उसका उपचार हो रहा था तो वे लोग फिर आए। उन्होंने निताई -चन्द की पिटाई की और एक महिला को निर्वस्त्र कर दिया। इस बीच २५० मुसलमानों ने फिर चढ़ाई कर दी, उन्होंने दरवाजे तोड़ डाले, टेलीफोन काट दिया, बिजली के तार काट दिए, और पानी के पम्प नष्ट कर दिए। भीड़ को डराने के लिए भवानंद ने एक हवाई गोली चलाई थी, किन्तु जब वे तितर-बितर नहीं हुए तो उसने फिर गोली चलाई जिससे दो आदमी घायल हो गए।

इस बीच, आक्रमणकारियों ने गुरुकुल के एक शिक्षक के दोनों हाथ तोड़ दिए थे और अनेक अन्य भक्तों को मारा पीटा। दो घण्टे बाद पुलिस आई और भक्तों से कृष्ण नगर थाने जाकर शिकायत लिखाने को कहा। कृष्ण नगर थाना वहाँ से बीस मील दूर था। जब भक्त थाने पहुँचे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जो दो भक्त गंभीर रूप से घायल थे उनको उपचार से वंचित रखा गया । भवानंद गोस्वामी अब भी जेल में थे । प्रभुपाद ने कहा कि यह हरे कृष्ण के लोगों को भगा देने के लिए षड्यंत्र था । " वे चाहते हैं कि पूरा बंगाल अनीश्वरवादी बन जाए ।"

जब तमाल कृष्ण ने कहा कि इस घटना से उनके गाँवों में धर्मोपदेश पर बुरा असर होगा तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "नहीं, बहुत जल्दी यह हमारे अनुकूल साबित होगा। मेरे विचार से केन्द्रीय सरकार कार्यवाई करेगी। यह कंस का कृष्ण के विरुद्ध होने जैसा है। कृष्ण की विजय निश्चित है। कृष्ण को कोई हरा नहीं सकता। यदि मैं वहाँ होता तो वे मेरे ऊपर गोली चलवाने का अभियोग

लगाते और मुझे गिरफ्तार कर लेते। अब मैं वृद्ध हूँ, मैं कोई साहसी काम नहीं कर सकता। इसलिए आप सब हर काम बहुत सावधानी से करें।"

प्रभुपाद इस घटना पर सोचते और टिप्पणी करते रहे। उन्होंने कहा, " गुण्डा वर्ग चैतन्य महाप्रभु को नहीं चाहता। उनका कहना है कि चैतन्य महाप्रभु ने लोगों को नपुंसक बना दिया है। उड़ीसा में लोग कहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु से मिलने के बाद महाराज प्रतापरुद्र ने अपना क्षत्रिय-बल खो दिया। वे बहुत शक्तिशाली राजा थे, किन्तु चैतन्य महाप्रभु से मिलने के बाद वे स्त्रैण हो गए।"

तमाल कृष्ण ने पूछा, “ तो हमारी ओर से इसका उत्तर क्या है ?"

प्रभुपाद ने कहा, “आप क्या उत्तर दे सकते हैं। यदि वे इस तरह का कोई निष्कर्ष निकालते हैं तो उन्हें आध्यात्मिक जीवन की कोई धारणा नहीं है। वे कहते हैं कि यह विध्वंसकारी है, भगवान् चैतन्य कहते हैं, न धनम् न जनम् । हम इन चीजों को नहीं चाहते और वे चाहते हैं। तो ऐसे लोगों को आप क्या उत्तर दे सकते हैं? हर व्यक्ति यह चाहता है और हम कहते हैं कि हम यह नहीं चाहते। ऐसे लोगों से आप समझौता कैसे कर सकते हैं? आप के देश में भी लोग कहते हैं, "अवैध यौन-सम्बन्ध में गलत क्या है ? मादक द्रव्य सेवन में गलत क्या है?' वे कहते हैं कि हम मस्तिष्क की धुलाई करते हैं। है न ? इस आंदोलन को चलाना बहुत कठिन है। तब भी हम चला रहे हैं। यह कृष्ण की कृपा है । "

सुझाया,

यह देख कर कि श्रील प्रभुपाद उद्विग्न थे, तमाल कृष्ण ने आप आज तीसरे पहर अनुवाद करने का प्रयत्न करेंगे, श्रील प्रभुपाद ?"

"क्या

किन्तु प्रभुपाद उसी विषय पर बोलते रहे, “एक जवान सुंदर स्त्री आधी रात में हरिदास ठाकुर के पास आती है और अपनी देह उन्हें अर्पित करना चाहती है। किन्तु उन्होंने मना कर दिया। इसे कौन सराहेगा ?"

तमाल कृष्ण ने कहा, "हम इसे सराहते हैं । '

प्रभुपाद बोले, "आप सराहते हैं, किन्तु आधुनिक संसार में इसे कौन सराहेगा ?" प्रभुपाद भक्तों और अभक्तों के बीच के अपरिवर्तनीय विभाजन पर बोलते रहे । “उनकी धारणा है कि एक सुंदर व्यक्ति एक सुंदर स्त्री बिना नहीं रह सकता। फिर भी चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, “ओ, आप एक सुंदर स्त्री के पीछे पड़े हैं, किन्तु यह जहर पीने से भी अधिक खतरनाक है।"

कृष्ण

जब प्रभुपाद मायापुर के भक्तों के बारे में बात कर रहे थे जो के लिए अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार थे तो भावावेग से उनका गला रुँध

गया और वे रोने लगे। उन्होंने कहा, “कृष्ण उनकी रक्षा करेंगे—हमारे मायापुर के लोगों की।” उन्होंने उल्लेख किया कि किस प्रकार हरिदास ठाकुर जेल में डाल दिए गए थे और वहाँ उनकी पिटाई हुई थी और किस प्रकार प्रह्लाद महाराज प्रताड़ित किए गए थे, जब तक कि नृसिंह भगवान् स्वयं नहीं प्रकट हुए थे। श्रील प्रभुपाद ने रोते हुए कहा “चिन्ता मत करो।" वे इस तरह बोल रहे थे मानो मायापुर के उनके सभी भक्त उनके समक्ष उपस्थित हों। "कृष्ण तुम्हारी रक्षा करेंगे।” उन्होंने कहा । "हम पूरा प्रयत्न कर रहे हैं, जहाँ तक हमारी बुद्धि काम करती है। चैतन्य महाप्रभु चाहते थे कि संसार के हर कोने में इस आन्दोलन को पहुँचाना चाहिए। हमारी शक्ति सीमित है।"

प्रभुपाद के दुख को कम करने की कोशिश में तमाल कृष्ण घनश्याम से प्राप्त सबसे ताजा रिपोर्ट पढ़ कर सुनाने लगे। घनश्याम पूर्वी योरोप में प्रभुपाद की पुस्तकों के वितरण में लगा था। असाधारण सफलता की उसकी रिपोर्ट से प्रभुपाद का ध्यान मायापुर से हट गया। वे मुसकराए और बोले, “यह बहुत स्फूर्तिदायक है।

तमाल कृष्ण रिपोर्ट पढ़ कर सुनाते रहे।

हम जहाँ भी जाते हैं, लोग या तो आप के बारे में जानते होते हैं या आप की पुस्तकें पढ़ कर कृष्ण और आप के बारे में जानना चाहते हैं। जिसने भी साम्यवादी देशों में आप की पुस्तकें वितरित की हैं, वह मेरे इस दावे का समर्थन करेगा कि संसार के अन्य किसी भी देश में आप की पुस्तकों की उतनी सराहना नहीं की जाती की जितनी साम्यवादी देशों में ।

तमाल कृष्ण ने पत्र से सिर उठा कर प्रभुपाद की ओर देखा, और टिप्पणी की, "प्रभुपाद, घनश्याम सर्वत्र हो आया है और वह कहता है कि आप की पुस्तकों की सराहना अन्य देशों की अपेक्षा साम्यवादी देशों में अधिक होती है । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, वे भूखे हैं।"

थोड़े दिन बाद जयपताक स्वामी की मायापुर की घटना की आँखों देखी पूरी रिपोर्ट आई। मायापुर के स्थानीय हिन्दू, जो कुछ हुआ था उससे अतिशय क्रुद्ध थे और वे इस्कान मंदिर के समर्थन में सामूहिक प्रार्थना-पत्र तैयार कर रहे थे। यद्यपि समाचार-पत्रों में छपी खबरें गलत थी, लोग धीरे-धीरे तथ्यों से अवगत होने लगे थे। जयपताक ने सजीव वर्णन भेजा था कि किस प्रकार भवानंद और अन्य भक्तों को हथकड़ियों में नवद्वीप से न्यायालय में ले जाया

श्रील श्रील प्रभुपाद लीलामृत

गया था और किस प्रकार नवद्वीप के लोग उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित कर रहे थे। उसने लिखा था कि भक्त अभी भी जेल में थे और निरन्तर कीर्तन कर रहे थे।

सब मिला कर रिपोर्ट आशापूर्ण थी । मायापुर में प्रसाद का वितरण जारी था, पच्छिम बंगाल में पुस्तकों का वितरण वृद्धि पर था, और धर्मोपदेशक जहाँ भी जा रहे थे, उनका अच्छा स्वागत हो रहा था। श्रील प्रभुपाद की भविष्यवाणी सच हो रही थी : आक्रमण वाली घटना भक्तों के पक्ष में जा रही थी । प्रभुपाद ने टिप्पणी की कि शत्रुओं ने सोचा था कि वे कृष्ण के भक्तों पर आक्रमण करके एक बगीचे का साँप खोद रहे हैं, किन्तु वे पा रहे थे कि वास्तव में उन्होंने एक जहरीला नाग खोद दिया है।

जुलाई का महीना प्रभुपाद के श्रीमद्भागवत पर कार्य करने की दृष्टि से अच्छा रहा। वे तड़के प्रातः काल और दोपहर को डिक्टेशन देते रहे जिससे दसवें स्कंध के आठवें तथा नवें अध्याय पूरे हो गए। ऐसा करने में उन्हें आनंद आता था। श्रीमद्भागवत पर कार्य करते हुए वे अपनी शारीरिक दशा को भूल कर पूर्णतया दिव्यानुभूति में डूब जाते थे, बावजूद इसके कि उन्हें हृदय की धड़कन होती थी, उनकी आवाज अत्यन्त क्षीण थी, और उन्हें सामान्य दुर्बलता थी । उनके लिए बैठना भी कठिन था, किन्तु एक बार कार्य आरंभ कर देने पर, उन्हें कोई रोक नहीं सकता था ।

श्रुत-लेखन यंत्र के हस्तगत माइक में बोलते, अपनी शारीरिक दशा के प्रति विस्मरणशील, प्रभुपाद ने धैर्यपूर्वक और सुव्यवस्थित ढंग से वर्णन किया कि किस तरह नन्द महराज के पारिवारिक पुरोहित, गर्गमुनि, ने बाल कृष्ण का नामकरण संस्कार सम्पन्न कराया। अपने तात्पर्यो को लिखाने में श्रील प्रभुपाद प्रायः अपने व्यक्तिगत अनुभवों और आत्म-बोधों का सहारा लेते थे ।

परम ईश्वर का यही मिशन है और भक्तों का भी मिशन यही है। जो कोई पर उपकार, के इस मिशन में प्रवृत्त होता है, जन-कल्याण का कार्य करता है, वह परम ईश्वर कृष्ण द्वारा उनके अतिप्रिय के रूप में स्वीकार किया जाता है। ( न च तस्मान् मनुष्येषु कश्चिन् मे प्रिय कृत्तमः) उसी प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने भी पर उपकार की शिक्षा दी है, विशेषकर भारतवासियों को । निष्कर्षतः, एक शुद्ध वैष्णव का धर्म दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करना है।

कभी दुमंजिले के बरामदे में तड़के की खुली हवा में, तो कभी धूप वाली

दुपहरिया के बाद की उमस में, बैठे प्रभुपाद अनन्त वैदिक ज्ञान का वर्णन उसी तरह से करते थे, जिस तरह उनके पूर्ववर्ती, गोस्वामीगण तथा कृष्णदास कविराज, वृंदावन में रहते समय, कृष्ण तथा चैतन्य महाप्रभु की उपासना करते हुए, कर चुके थे। किन्तु श्रील प्रभुपाद प्रथम महान् आचार्य थे, जिन्होंने सारे विश्व के देशों के लोगों को, उनके जन्मपद या पूर्व चरित का विचार किए बिना, कृष्णभावनाभावित साहित्य उपलब्ध कराया। जब वे श्रीमद्भागवत के अंतिम अध्यायों की रचना कर रहे थे तो उस समय भी उनकी ओर से हजारों युवक और युवतियाँ संसार-भर को वैदिक ज्ञान का उपदेश दे रही थीं । प्रभुपाद के शिष्य वास्तव में अवगत थे कि वे वृंदावन में बैठे किस प्रकार दसवें स्कंध के तात्पर्य लिख रहे थे और शिष्य भगवान् कृष्ण से प्रार्थना कर रहे थे कि प्रभुपाद अभी वर्षों जीवित रहें जिससे वे पूर्ण श्रीमद्भागवत समाप्त कर सकें ।

भगवान् कृष्ण की बाल लीलाओं को समझाने के लिए श्रील प्रभुपाद ने भावनामृत के एक पूर्णतया दिव्य रुप का वर्णन किया जो बचपन या वृद्धावस्था के किसी सांसारिक वर्णन से सर्वथा परे था ।

कृष्ण की ये सभी बाल लीलाएँ और माताओं का आनन्द-प्रदर्शन दिव्य हैं, उनमें

कुछ भी सांसारिक नहीं है। ब्रह्म-संहिता में उनका वर्णन आनंदचिन्मय - रस कह कर किया गया है। आध्यात्मिक संसार में भी भौतिक संसार की भाँति ही चिन्ता होती है, रुदन होता है और अन्य भावनाएँ होती हैं। किन्तु, क्योंकि इन भावनाओं की वास्तविकता दिव्य-लोक में होती है, जिसका यह लोक केवल अनुकरण है इसलिए माँ यशोदा की और रोहिणी उनका आनन्द दिव्य रूप में ले रही थीं।

श्रील प्रभुपाद अब कृष्ण की बाल लीलाओं का एक विशेषकर मधुर पक्ष वर्णन कर रहे थे और वे कृष्ण की माखन चोरी का, वानरों को माखन खिलाने तथा माँ यशोदा को अपना विराट रूप दिखाने का, आनन्द लेते हुए, वर्णन कर रहे थे। कृष्ण का विराट रूप किस प्रकार माँ यशोदा की समझ के बाहर था, इसका वर्णन करने में श्रील प्रभुपाद ने सभी अबोध-गम्य दशाओं पर प्रकाश डाला — जिसमें उनकी अपनी दशा भी सम्मिलित थी ।

वह (माँ यशोदा) भगवान् को प्रणति-निवेदन के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकती थीं । किसी को इस परम सत्य को तर्क से समझने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। जब हम किसी ऐसी समस्या के सामने होते हैं जिसका कारण समझना हमारे वश के बाहर है तो सिवाय इसके कोई विकल्प नहीं है कि हम परमात्मा के प्रति अपने को समर्पित करते हुए अपना सम्मान प्रदर्शित करें। तब हमारी स्थिति सुरक्षित हो जायगी। माँ

यशोदा ने इस समय ऐसा ही किया। जो कुछ भी होता है उसका मूल कारण परम ईश्वर होता है। जब कोई तात्कालिक कारण हमारी समझ में न आए तो हमें भगवान् के चरण-कमलों में प्रणाम करना चाहिए। माँ यशोदा इस निष्कर्ष पर पहुँची कि अपने बच्चे, कृष्ण, के मुख में उन्होंने जो विस्मयकारी दृश्य देखे, उसका कारण स्वयं कृष्ण थे, यद्यपि वे स्पष्टत: इस कारण को समझ नहीं पा रही थीं।

श्रील प्रभुपाद ने बालकृष्ण के प्रति माँ यशोदा की शुद्ध भक्ति की गहन और आनन्दपूर्ण अभिव्यंजना की है और उन्हें भगवान् के शुद्ध भक्तों का प्रतीक कह कर वर्णित किया है, विशेषकर वृंदावन के भक्तों का, जो भगवान् को सहज स्नेहवश प्रेम करते हैं। उन्होंने लिखा, “वृंदावन में रहने वाले भक्तों में कोई दैहिक धारणा नहीं होती।” ऐसे शुद्ध भक्त कृष्ण के प्रेम में सेवा हेतु पूर्णतया समर्पित थे। इसका वर्णन भगवान् चैतन्य ने जीवन की सर्वोच्च पूर्णता, कृष्ण से शुद्ध प्रेम, के रूप में किया है। श्रील प्रभुपाद ने लिखा, “और माँ यशोदा इस पूर्णता को प्राप्त करने वाले भक्तों में शिखर पर लगती हैं।"

श्रील प्रभुपाद को इस बात की चिन्ता थी कि जो कुछ भी वे लिख रहे हैं वह प्रकाशित होकर वितरित होता रहे। यही उनके गुरु महाराज के प्रति उनकी सेवा थी। उन्हें इससे अत्यधिक संतोष होता था कि पुस्तक-वितरण का कार्य अब भी सारे विश्व में फैल रहा है। उत्तरी और पूर्वी योरोप के जी.बी.सी, हरिकेश स्वामी, ने सूचना दी थी कि वे प्रभुपाद की पुस्तकों को तेरह भाषाओं प्रचुर संख्या में छाप रहे हैं। उनकी रिपोर्ट के प्रारंभिक अंश को ही सुन कर प्रभुपाद बोल उठे, “तुम्हें भक्तिसिद्धान्त सरस्वती महाराज का आशीर्वाद प्राप्त हो। तुम भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के सबसे महत्त्वपूर्ण पौत्र हो । इसी तरह कार्य करते हुए आगे बढ़ते रहो।"

में

ऐसी ही मनोवृत्ति से श्रील प्रभुपाद ने अपने भारत के जी.बी.सी. सचिव, गोपाल कृष्ण, को अनुप्रेरित किया कि वे हिन्दी पुस्तकों को अधिक तेजी से और बड़ी संख्या में प्रकाशित करें। गोपाल कृष्ण जब भी बिना किसी नए प्रकाशन के उनसे मिलने आते तो प्रभुपाद उनकी सुस्ती के लिए उन्हें डाँट बताते थे। इसलिए गोपाल कृष्ण ने यह नीति बना ली कि वे प्रभुपाद से तभी मिलने आते जब उनके सामने प्रस्तुत करने के लिए उनके पास कोई नई पुस्तक होती । जब जुलाई के मध्य में गोपाल कृष्ण श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध का दूसरा खण्ड हिन्दी में लेकर आए तो श्रील प्रभुपाद ने प्रसन्नतापूर्वक उसे स्वीकार किया और कहा,

"यह दूसरी बार है; अब जब तक वह कोई नई पुस्तक

नहीं लाता, वह मेरे पास नहीं आता, क्योंकि हर बार मैं उसकी आलोचना करता हूँ—पुस्तक कहाँ है ? पुस्तक कहाँ है ?"

जुलाई २०

अभिराम आया और उसने प्रभुपाद को मायापुर के सम्बन्ध में रिपोर्ट दी । उसकी रिपोर्ट में कोई नई बात नहीं थी। बाद में प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण से पूछा कि अभिराम क्यों आया है। तमाल कृष्ण ने बताया कि अभिराम ने कुछ व्यवसाय करने का निर्णय किया है, किन्तु वह यह निर्णय नहीं कर पाया था कि व्यवसाय किस नगर में आरंभ करे—शायद वह बम्बई या बंगलोर होगा।

बाद में जब श्रील प्रभुपाद रात में विश्राम कर रहे थे और मच्छरदानी के अंदर अपने बिस्तर में लेटे थे तो उन्होंने तमाल कृष्ण को फिर बुलाया। प्रभुपाद को इस बात की चिन्ता थी कि अभिराम व्यवसाय की खोज में कहीं कृष्णभावनामृत आन्दोलन को छोड़ न जाय । श्रील प्रभुपाद ने कहा कि वे स्वयं भी स्वतंत्र गृहस्थ जीवन बिता चुके थे और भक्तिविनोद ठाकुर भी कभी गृहस्थ थे। उन्होंने कहा, “किन्तु हमारा उद्देश्य भिन्न था; जब वे नवदीक्षित भक्त, मंदिर के कार्यकलापों में सम्मिलित हुए बिना, उससे दूर रहेंगे तो धीरे-धीरे हम उन्हें खो देंगे ।"

तमाल कृष्ण ने उत्तर दिया कि ठीक इसीलिए उन्होंने अभिराम को सुझाव दिया था कि वह अपना व्यवसाय बम्बई में आरंभ करे। तमाल कृष्ण ने कहा, “मैं देखता हूँ कि गृहस्थों में मंदिर से अलग रहने की इच्छा नहीं होती।” उन्होंने बताया कि बम्बई में गृहस्थों को मंदिर के इतने निकट आवास मिल जाते हैं कि वे मंगल-आरती और अन्य कार्यक्रमों में भाग ले सकते हैं।

श्रील प्रभुपाद बोले, “हाँ, जब तक कि ये चीजें जारी नहीं रहेंगी, कर्मियों का विष उन्हें नष्ट कर देगा। अभिराम स्वतंत्र व्यवसाय कर सकता है। इसमें कोई हानि नहीं है। किन्तु उसका सम्बन्ध भक्ति से बना रहना जरूरी है। बात करते समय प्रभुपाद हिले-डुले नहीं थे, उन्होंने सिर कुछ फेर लिया था । अब उन्होंने अपना सिर तकिये पर रख लिया ।

प्रभुपाद ने आगे कहना जारी रखा, "जैसे अभिराम ने अपना मकान बना लिया, वह ठीक है। वह परिसर में है। इसमें कोई हर्ज नहीं । किन्तु इतना अधिक प्रशिक्षण पाने और उन्नति करने के बाद यदि वह चला जाता

है, तो यह समाज के लिए बहुत बड़ी क्षति होगी। बड़ी कठिनाई से हम एक वैष्णव

तैयार करते हैं। और यदि वह, श्यामसुंदर की भाँति, चला जाता है तो यह बहुत बड़ी हानि है। भाव यह है कि भौतिक संसार से लगाव खत्म करके कृष्ण से सम्बन्ध बढ़ाना चाहिए। यही पूर्णता है। किसी व्यक्ति की स्थिति के अनुसार यह काम धीरे-धीरे हो सकता है। किन्तु लक्ष्य यही है । "

श्रील प्रभुपाद ने अभिराम से कहा कि बम्बई में व्यवसाय करने से, वह मंदिर के निकट रह कर लाभान्वित हो सकता है। उन्होंने कहा, “गृहस्थ को समाज पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। साथ ही उन्हें समाज से पृथक भी नहीं रहना चाहिए । “ श्रील प्रभुपाद को इस बाहरी विरोधाभास पर हँसी आ गई। उन्होंने कहा, “स्थिति यही है। हमारा समाज किसी परिवार का भार नहीं ले सकता। समाज में अनेक परिवार होते हैं। हम उन सब का भरण-पोषण कैसे करेंगे। साथ ही यदि वे समाज से स्वतंत्र रहते हैं, उससे कोई सम्पर्क नहीं रखते तो उनमें कर्मियों का विष फैल जायगा ।" श्रील प्रभुपाद का निष्कर्ष था कि गृहस्थों का समाधान इसी में है कि या तो मंदिर के निकट आवास में रहें या सम्भव हो, तो मंदिर में ही रहें। उन्होंने कहा, "उन्हें पूर्ण रूप से स्वतंत्र होकर नहीं रहना चाहिए। इससे भविष्य में खतरा है। "

श्रील प्रभुपाद ने कहा कि वे आदर्श कृष्णभावनाभावित गृहस्थ चाहते थे । ठीक जैसे भक्तिविनोद ठाकुर थे। उन्होंने कहा, “गृहस्थ कई हैं। मैं भी एक गृहस्थ था। मैं अर्चा-विग्रह की उपासना करता था। हर चीज बहुत अच्छी थी । गृहस्थ होते हुए मैं बैक टु गाडहेड प्रकाशित करता था। इस तरह कृष्णभावनामृत का लक्ष्य बराबर मेरे सामने था । विशेष परिस्थितियों के कारण मैं अपने पारिवारिक जीवन का त्याग नहीं कर सकता था। यह एक भिन्न बात है। किन्तु मैं उसी तरह भक्ति में रत था जैसे मंदिर में रह रहा होऊँ । यदि आप मंदिर के निकट रहते हैं तो यह आसान होता है अथवा मंदिर में ही रहने से। किन्तु एकदम अलग रहना खतरनाक है।"

जब तमाल कृष्ण ने मंदिर के भवन में रहने वाले गृहस्थों की कुछ समस्याओं का विस्तार बताना चाहा तो प्रभुपाद अपनी बात पर अड़े रहे और बोले, “इन चीजों में किसी तरह सामंजस्य बैठाना होगा। गृहस्थों के सम्बन्ध में किसी चीज का पालन आप बहुत कड़ाई से नहीं कर सकते। आप को किसी तरह सामंजस्य बैठाना है। हम उन्हें खो नहीं सकते।” प्रभुपाद को इस बात को लेकर बड़ी चिन्ता थी कि इतने अधिक प्रशिक्षण के बाद किसी गृहस्थ दम्पति से हम इसलिए हाथ धो बैठें कि उसने मंदिर से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया।

यह तो बहुत क्षति होगी और इसी से बचने की कोशिश में, वे जी. बी. सी. के एक प्रतिनिधि को निर्देश दे रहे थे। प्रभुपाद ने कहा कि जब तक इस खतरे का निराकरण नहीं होता, “हमारे संघ का भविष्य निराशापूर्ण रहेगा । "

श्रील प्रभुपाद का सेवक, उपेन्द्र, भी वहाँ उपस्थित था और उसने प्रभुपाद से किसी व्यक्ति के अपनी पत्नी और परिवार पालन के दायित्व के विषय में पूछा । प्रभुपाद ने कहा कि जब तक परिवार पालन की क्षमता न हो, तब तक किसी व्यक्ति को विवाह नहीं करना चाहिए। उसे यह आशा नहीं करनी चाहिए कि यह काम मंदिर करेगा। श्रील प्रभुपाद ने कहा, "हम एक गृहस्थ का भरण-पोषण क्यों करें ? और हमारे पास इसके लिए साधन कहाँ हैं ? किन्तु समायोजन तो करना ही होगा। मैं आप लोगों को एक विचार दे सकता हूँ।” तब प्रभुपाद ने एक उदाहरण दिया कि यदि कोई गृहस्थ अर्चा-विग्रह की उपासना मन्दिर में ठाठ-बाट के साथ करता है तो वह भी धर्मोपदेश ही है और मंदिर उसके परिवार के भरण-पोषण की बात सोच सकता है।'

तमाल कृष्ण

ने कहा,

"तो मार्ग-दर्शक सिद्धान्त यह है कि किसी भी दशा

में किसी को अलग नहीं होने देना है।"

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, अन्यथा धर्मोपदेश किस बात का ? यह सिकन्दर महान् की तरह होगा। वह विजय करता आगे बढ़ता जा रहा था, किन्तु ज्योंही एक स्थान को जीत कर वह दूसरे के लिए आगे बढ़ता था, पिछला स्थान उसके अधिकार से निकल जाता था। मान लो मैंने बम्बई को जीत लिया है। तब मैं कराची जीतने जाता हूँ, किन्तु इस बीच बम्बई मेरे हाथ से निकल जाता है। यही बात सिकन्दर महान् के साथ हो रही थी। जब ठीक व्यवस्था नहीं होती... ब्रिटिश साम्राज्य इसी तरह चला गया। वे प्रबन्ध नहीं कर सके।"

तमाल कृष्ण ने सुझाया, "इसी तरह, हमें बहुत तेजी से विस्तार नहीं करना चाहिए, जब तक कि हमारे पास समुचित प्रबन्ध की व्यवस्था न हो।

प्रभुपाद ने कहा, "इसीलिए मैं पुस्तक वितरण पर बल दे रहा हूँ।" वे अपने प्रमुख शिष्यों पर अपने कार्यक्रम की मुख्य बातों को जमा रहे थे और बता रहे थे कि यह उनका कर्त्तव्य होना चाहिए कि वे उस कार्यक्रम को पूरा

करें ।

वे यह कह कर हँस पड़े, “कम-से-कम मेरे जीवन काल में मुझे सिकन्दर महान् मत बनाओ। लोग मुझसे कहते हैं, 'आप महान् हैं, महान् हैं।' किन्तु जब

तक मैं जीवित हूँ मुझे लघु मत बनाओ।"

हूँ

तमाल कृष्ण बोले, “आप के बाद भी हम आप को ऐसा कभी नहीं होने

देंगे। हमें ऐसा कभी नहीं करना चाहिए।"

प्रभुपाद ने कहा, " तो यही मेरी प्रार्थना है। लोग मुझे महान् मानते हैं। मुझे छोटा मत बनाना। मैं आप को अधिक कष्ट नहीं दूँगा । किन्तु अब मैं अक्षम हूँ। मैं क्या कर सकता हूँ ?"

तमाल कृष्ण ने कहा, " आप अक्षम भी हों तो लगता है कि इससे आप की सेवा करने का हमें अधिक अवसर मिलता है।'

प्रभुपाद बोले, “धन्यवाद । मैं कर क्या सकता हूँ?” वे मंद मुसकाए और बोले, “मुझे आप को वह अवसर देना है। "

तमाल कृष्ण ने कहा, "यह हम लोगों पर आप की कृपा लगती है । "

प्रभुपाद ने सब को विदा करते हुए कहा, "बहुत अच्छा करते जाओ।” "जय प्रभुपाद, आप के कृपापूर्ण निर्देशों के लिए धन्यवाद । "

जुलाई २२

तमाल कृष्ण ने सवेरे प्रभुपाद को बताया कि अगले दिन भगवान् जगन्नाथ न्यूयार्क

यार्क नगर में फिफ्थ एवन्यू में यात्रा पर निकलेंगे। प्रभुपाद ने

कहा, “भगवान् जगन्नाथ की म्लेच्छों पर बड़ी कृपा है । उड़िया लोग भी अधिकतर म्लेच्छ हैं, किन्तु उन्हें पुजारी बना दिया गया है। एक भक्त ने एक उड़िया की आलोचना की तो भगवान् चैतन्य ने उसे तमाचा जड़ दिया : 'तुम मेरे सेवकों की आलोचना क्यों करते हो ?' जरा उनकी कृपालुता देखिए । मैने कृष्ण से प्रार्थना की, “जिसने जरा भी सेवा की है, कृपा करके उसे आशीर्वाद दीजिए।' और कृष्ण वास्तव में ऐसा करते हैं। वे कोई सेवा भूलते नहीं ।"

तमाल कृष्ण ने पूछा, "क्या राधाराणी भी कृष्ण से ऐसी ही प्रार्थना करती है ?"

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, राधाराणी कहती है, 'मैं निष्ठापूर्ण नहीं हूँ। मैं आप की सच्ची सेविका हूँ।' यही महाभाव है। कृष्ण अपने सेवक के सेवक बन जाते हैं। इसलिए भक्त का प्रथम कर्त्तव्य अपने गुरु के प्रति विनीत होना है। तमाल कृष्ण ने कहा, " श्रील प्रभुपाद, आप के सभी भक्त आप के कृतज्ञ हैं । "

बहुत

श्रील प्रभुपाद अचानक अपने भक्तों के विचारों में डूब गए और वे बहुत भाव-विह्वल हो उठे। अपने नेत्र बंद करके, सिर हिलाते हुए, रूँधे

हुए गले

" मैंने अपने हिस्से का कार्य पूरा कर दिया है।

से और आँसू बहाते हुए वे बोले, "अहा। मेरे प्रति आप लोगों के गहरे प्रेम का क्या कहना ! मैं आप सब के लिए जी रहा हूँ। सारे विश्व में कार्य चल रहा है। धन आ रहा है और खर्च हो रहा है — और मुझे चिन्ता नहीं करनी है । मैं कितना ऋणी हूँ। और मैं आप सब से कितनी सेवा ले रहा हूँ।”

तमाल कृष्ण ने कहा, “यह हम लोग हैं जो आपके ऋणी हैं। आप का ऋण चुकाने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है । "

प्रभुपाद ने कहा, 'यह एक बृहत् - मृदंग है जिसे मैं इस कमरे से बजा रहा हूँ और उसकी आवाज दस हजार मील दूर जा रही है। हमारे शत्रु आश्चर्यचकित

'यह व्यक्ति अब तक किस तरह चल रहा है ?'

The tic

श्रील प्रभुपाद इस बात पर प्रसन्नता प्रकट करते रहे कि इतने सारे नगरों में लोग किस तरह रथ यात्रा का आनंद ले रहे थे, भगवान् जगन्नाथ का अवलोकन कर रहे थे और नाच-गा रहे थे। उन्हें विगत रथ यात्राएँ स्मरण आ रही थीं, जैसे १९६९ ई. की सान फ्रान्सिस्को की रथ यात्रा जब कुछ भक्त एक वृक्ष के इर्द-गिर्द आनन्दपूर्वक गाने और नाचने लगे थे। वे इस्कान के विगत अन्य बहुत

से आश्चर्यजनक अनुभवों को भी याद करके सुनाने लगे ।

जुलाई के अंत में प्रभुपाद का स्वास्थ्य पुनः गिरता दिखाई पड़ा। और उन्होंने पुन: कहा कि उनका अंत किसी समय हो सकता है।

तमाल कृष्ण विगत छह महीनों से लगातार श्रील प्रभुपाद के निजी सचिव के रूप में कार्य करते आ रहे थे। वे प्रभुपाद की आँख और कान तथा प्रवक्ता बन गए थे, विशेषकर इस्कान के प्रबन्ध के मामलों में। और श्रील प्रभुपाद की आध्यात्मिक चित्तवृत्तियों में भी सहायता करने के लिए वे उनके निजी विश्वस्त बन चुके थे। एक निष्ठावान सेवक के रूप में अब वे एक भिन्न उपचार का सुझाव देने लगे। हाल में श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों के प्रचार के प्रति अत्यधिक लगाव अनुभव करने तथा अभिव्यक्त करने लगे थे। इसे एक संकेत मान कर तमाल कृष्ण ने सुझाव दिया कि यदि प्रभुपाद पश्चिम की यात्रा कर सकें और अपने शिष्यों के साथ रह सकें तो वे नया जीवन पा सकते थे ।

प्रभुपाद ने कहा, “किन्तु यदि मैं मर जाऊं, तो ! मैं वृंदावन में मरना चाहता हूँ ।" तमाल कृष्ण ने उत्तर दिया कि प्रभुपाद को मरने के बारे में नहीं सोचना चाहिए। यदि वे पश्चिम की यात्रा पर जायँ, अपने भक्तों से वहाँ मिलें, इस्कान के फार्मों पर पैदा किए गए अनाज से तैयार किया गया प्रसाद ग्रहण करें,

तो इससे उन्हें निश्चय ही लाभ होगा, उन्हें भूख लगने लगेगी और उनमें शक्ति आ जायगी । तमाल कृष्ण ने उल्लेख किया कि जब मई में श्रील प्रभुपाद ऐसा ही अनुभव कर रहे थे और जी.बी.सी. की बैठक चल रही थी तो भक्तों के प्रेम का उन पर अच्छा प्रभाव हुआ था और जीवित रहने की उनकी इच्छा में वृद्धि हो गई थी ।

श्रील प्रभुपाद ने कहा, 'आप एक कार्य कर सकते हैं। अपनी निर्धारित दिनचर्या में आप कृष्ण से प्रार्थना कर सकते हैं, 'यदि आप चाहते हैं कि वे जिन्दा रहें तो कृपा करके उन्हें स्वस्थ कर दीजिए, और नहीं तो, कृपा करके उन्हें उठा लीजिए। हम आप के प्रति पूर्णतया समर्पित हैं। अब यह आप की इच्छा पर निर्भर है कि वे जीवित रहें या इस संसार से चल दें।'

श्रील प्रभुपाद इस बात की ओर संकेत कर रहे थे कि वे किसी सांसारिक विषण्णता से पीड़ित नहीं थे जिससे जीवित रहने की उनकी इच्छा समाप्त हो गई हो। वे पहले ही कह चुके थे कि किसी भी दशा में वे कृष्ण के साथ होंगे। इस संसार में रहना या इस को छोड़ना, उन पर निर्भर नहीं था, वरन् कृष्ण पर था। उन्होंने मुकन्द - माला - स्तोत्र से राजा कुलशेखर की प्रार्थना सुनाई, "मेरे प्यारे कृष्ण, मुझे अभी मरने दीजिए ताकि मेरे मन का हंस आप के चरण-कमल के नाल से घिर जाय । अभी, जब कि मुझ में शक्ति है। अन्यथा, जब अंतिम साँस लेते समय मेरा गला रुंधा होगा, आप के बारे में सोचना मेरे लिए कैसे संभव होगा ?"

किन्तु तमाल कृष्ण अपने स्नेह - सिक्त तर्क पर अडिग रहे कि श्रील प्रभुपाद इस संसार को त्यागने की बात नहीं सोच सकते। इस संसार में प्रभुपाद के लिए कितना सारा कार्य अधूरा था, जैसे बम्बई मंदिर में राधा - रासबिहारी के श्रीविग्रहों की स्थापना को अपने नेत्रों से देखना ।

श्रील प्रभुपाद ने स्वीकार किया कि यह सच है और आगे कहा, "मेरी एक अन्य इच्छा यह है कि जन-समुदाय अज्ञेयवाद से पीड़ित है; सभी धूर्त दुखी हैं, किन्तु वे नहीं जानते कि क्यों । मैं इस अज्ञेयवाद को संसार से समाप्त कर देना चाहता हूँ।” तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को विश्वास दिलाया कि यदि वे पश्चिम जाने को राजी हो जायँ तो संसार से अज्ञेयवाद समाप्त हो जायगा । भक्तगण प्रभुपाद के आदेशों का पहले से ही कड़ाई से पालन कर रहे थे। किन्तु यदि उन्हें प्रभुपाद की शारीरिक उपस्थिति प्राप्त हो जाती है तो वे अपने प्रचार कार्य को सीमातीत रूप में बढ़ा सकेंगे। तमाल कृष्ण ने अब केवल गुरु

महाराज की घंटी की आवाज सुनने और उनके सामने प्रकट होकर, वे क्या चाहते हैं, यह जानने की अकर्मण्य भूमिका तक अपने को सीमित नहीं रखा। अब वे श्रील प्रभुपाद को यात्रा करने के लिए राजी करने का प्रयत्न कर रहे थे और जब प्रभुपाद इस पर विचार करने लगे तो तमाल कृष्ण का उत्साह

बढ़ गया ।

प्रभुपाद

ने कहा,

"जब मैं वृंदावन में हूँ तो मुझे यह अध्यात्म लोक लगता है। कृष्ण की मुझ पर यह बहुत बड़ी कृपा है। और जहाँ कहीं भी हमारा केन्द्र है-वह भी वैकुण्ठ है। चाहे वह न्यू यार्क हो, लास एंजिलिस हो, पेरिस हो या लंदन हो । "

तमाल कृष्ण ने एक यात्रा - कार्यक्रम प्रस्तुत किया : लंदन पहुँच कर भक्तिवेदान्त मेनर में रुकना, और राधा लंदन - ईश्वर का भी दर्शन करना, वहाँ से न्यू यार्क, वहाँ इस्कान की गगनचुम्बी इमारत में भक्तों से भेंट और राधा-गोविन्द का दर्शन; तब पेन्सिलवानिया फार्म पर पहुँचना; उसके बाद लास एंजिलिस जहाँ वे कृष्ण की लीलाओं की नई चित्रावली देख सकेंगे।

श्रील प्रभुपाद ने स्वीकार किया, “वृंदावन में वास एक भावना है।” उन्होंने कठोर परिहास में कहा, "यदि मैं न्यू यार्क में मरता हूँ तो आप लोगों को मुझे छत पर दफनाना होगा, क्योंकि वहाँ अन्य कोई स्थान नहीं है। यदि मैं आप लोगों के मध्य मरता हूँ तो आप सभी वैकुण्ठ के लोग हैं। मैने एक स्वप्न देखा कि वैकुण्ठ के लोग मुझे लेने आए हैं। वे सभी गोरे लोग थे, मुंडित सिरों वाले। आप के देशवासी विश्वास नहीं कर सकते कि आप कितने बदल गए हैं।'

प्रभुपाद ने कहा कि उनके शिष्यों को चाहिए कि किसी ज्योतिषी से परामर्श करें कि यात्रा करना उनके लिए शुभ होगा या नहीं और वे अच्छे हो जायँगे या नहीं और वे कितने दिन जीवित रहेंगे। श्रील प्रभुपाद ने कहा,

"मैं अपराह्न में चार बजे पैदा हुआ था । नन्दोत्सव का दिन था। आप किसी पुराने पंडित से दिन के बारे विचार करवा लें। वह मंगल का दिन था । मैं पश्चिम की यात्रा के लिए तैयार हूँ। "

तब तमाल कृष्ण ने भगवद्गीता के अध्याय दो का सैंतीसवाँ श्लोक सुनाया जिसमें कृष्ण अर्जुन से युद्ध करने को कहते हैं, “या तो मृत्यु को प्राप्त होकर तुम स्वर्गलोक को जाओगे अथवा विजयी होकर संसार के राज्य का सुख भोगोगे ।” श्रील प्रभुपाद ने कहा कि श्लोक उपयुक्त था । उस दिन पूरी रात और अगले

दिन-भर वे यात्रा के प्रस्ताव पर विचार

करते रहे और उन्होंने अपने अन्य सेवकों

व्यवस्था कर रहे हैं।"

से कहा, “तमाल एक बड़े भोजोत्सव की

प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण

से कहा, “मैं कृष्ण से कह रहा था, "यह तिल-तिल मरना क्या है?" तभी आप ने वह श्लोक सुनाया। कम-से-कम मेरे शिष्य जानेंगे कि मैं अपने जीवन का खतरा उठा कर उनके पास पहुँचा हूँ। वे मेरे लिए भविष्य की आशा हैं। मुझे उन्हें अवश्य प्रोत्साहित करना चाहिए। कृष्ण ने अर्जुन को आदेश दिया था और मैं अर्जुन का सेवक हूँ। मैं इतने संकुचित विचार का नहीं हूँ कि सोचूँ कि यह देश मेरा है। हर वस्तु कृष्ण की है। मैं कृष्ण को सीमित क्यों करूँ ?"

तमाल कृष्ण ने प्रोत्साहन दिया : "जब आप वहाँ पहुँचेंगे और अपने इतने सारे शिष्यों के साथ होंगे जो कृष्णभावनामृत के प्रसार में अपना जीवन लगा रहे हैं और आप की सहायता कर रहे हैं, तो सचमुच वह बहुत प्रेरणाप्रद होगा । आप को अधिक बोलना भी नहीं पड़ेगा। केवल आप की उपस्थिति पर्याप्त होगी; आप भक्तों को देखेंगे, भक्त आप को देखेंगे। तो, वह आप के लिए कोई थकान की बात नहीं होगी। मौसम भी अच्छा है, लंदन अगस्त में अच्छा रहता है। यह बहुत अच्छा समय रहेगा।'

प्रभुपाद उपेन्द्र की ओर मुड़े और बोले, “उनके शब्दों से मैं कुछ और अनुभव कर रहा हूँ। उन्हें सुन कर मुझे उत्साह हो रहा है। "

तमाल कृष्ण ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, मैं जानता हूँ कि आप पश्चिम में जाकर स्वस्थ हो जायँगे । "

श्रील प्रभुपाद बोले, "कृष्ण तुम्हारे शब्दों को पूरा करें।” उन्होंने तीसरे पहर का शेष समय विभिन्न भक्तों से चैतन्य - चरितामृत का पाठ सुनने में बिताया । एक स्थान पर वे महान् आनंद प्रकट करने लगे और बोले, “चैतन्य-चरितामृत का पाठ मुझे नित्य सुनाया करें। ये तीन ग्रन्थ ।

* इनकी तुलना

में कोई नहीं आ सकता। मैं इस तरह इनका बखान कर सकता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि मैं संसार भर के सामने इन्हें प्रस्तुत करने में समर्थ हुआ हूँ। और लोग उन्हें आँख मूँद कर स्वीकार कर रहे हैं। "

एक दिन बीतने के बाद प्रभुपाद ने यात्रा के प्रस्ताव पर अधिक गंभीरता से विचार किया और उसके कुछ दोषों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि

*चैतन्य-चरितामृत, श्रीमद्भागवत और भगवद्गीता ।

SIPER MIS

वे जहाँ भी जाएँगे उनकी शारीरिक दशा उनके साथ लगी रहेगी।

तमाल कृष्ण ने कहा, “किन्तु आप कुछ समय से अनुवाद नहीं कर रहे हैं । "

प्रभुपाद ने तपाक से उत्तर दिया, “कौन कहता है कि मैं फिर कभी अनुवाद नहीं करूँगा ? हर कार्य के बाद कुछ आराम जरूरी होता है और फिर क्रियाशीलता आती है।" प्रभुपाद ने कहा कि एलोपैथी ओषधि के अनुसार उनके लिए केवल यही एक आशा थी कि वे गहन उपचार के लिए अस्पताल में दाखिल हो जायँ । किन्तु आयुर्वेद के अनुसार विशेष ओषधियाँ हैं। जब प्रभुपाद बारजे में बैठे अपने सचिव से बातें कर रहे थे तो उस समय वे धूप का चश्मा लगाए थे। वे उन्हें दिन के तीसरे पहर भी लगाए रहते थे और अंधेरे कमरे में भी। उनके शिष्यों के लिए चिन्ता का यह एक और कारण था— उन्हें आंखों में भी कुछ समस्याएँ थीं। ऐसी चीजों से उनका पश्चिम में यात्रा पर जाना और भी संदिग्ध होता जा रहा था। कुछ भक्त आपस में तर्क करने लगे कि प्रभुपाद वृंदावन मे ही क्यों नहीं रहते, जहाँ उनकी सुविधा की हर वस्तु की व्यवस्था की जा सकती थी ।

भक्तों ने तीन ज्योतिषियों को संदेश भेज दिए थे और सभी रिपोर्टें उसी दिन तीसरे पहर प्राप्त हो गई थीं। कुछ रिपोर्टों में, श्रील प्रभुपाद के पद को जाने-समझे बिना, मूर्खतापूर्ण उपचार सुझाए गए थे; किन्तु सभी रिपोर्टें एक बात में सहमत थीं : अगले दो महीने प्रभुपाद के जीवन में सबसे कठिन होने जा रहे थे और इस बीच यात्रा से बचना चाहिए। एक ज्योतिषी की संस्तुति थी कि श्रील प्रभुपाद को नीलमणि धारण करनी चाहिए।

सभी रिपोर्टें सुनने के बाद श्रील प्रभुपाद ने कहा, "तो निराशा की कोई बात नहीं है। कम-से-कम अगले पाँच सप्ताह मेरी देखभाल बहुत सावधानीपूर्वक करें। सम्प्रति कोई यात्रा नहीं हो सकती। नीलमणि प्राप्त करें और हरे कृष्ण कीर्तन करते रहें ।'

जुलाई के अंतिम दिन तमिल नाडु के राज्यपाल, श्री

प्रभुदास पटवारी, जो वृंदावन की यात्रा पर आए थे, श्रील प्रभुपाद से संक्षिप्त भेंट करने आए। राज्यपाल प्रभुपाद के साथ केवल आधा घंटा रह सकते थे, किन्तु प्रभुपाद उनसे पूरे समय स्फूर्तिपूर्वक बात करते रहे। जब श्रील प्रभुपाद ने अपने स्वास्थ्य की दशा का वर्णन किया तो राज्यपाल ने उसी समय उन्हें मद्रास आने और राजभवन में रुकने का आमंत्रण दिया, जहाँ सारे दक्षिण भारत में सबसे अच्छे डाक्टर उपलब्ध

थे । किन्तु अपनी शारीरिक दशा के सम्बन्ध में अधिक बात करने की अपेक्षा प्रभुपाद ने उसे कृष्णभावनामृत दर्शन के प्रचार के एक उदाहरण के रूप किया ।

में प्रयुक्त

उन्होंने कहा, “आखिर, जब तक यह शरीर है, तब तक हमें जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि को स्वीकार करना होगा। यह भगवद्गीता का कथन है। अतः मनुष्य का प्रयत्न इस जन्म मरण की पुनरावृत्ति को रोकना चाहिए । जब विश्वामित्र महाराज राजा दशरथ से मिलने गए तो राजा ने पूछा— पुनर्जन्म जयायः आप जन्म और मृत्यु पर विजय पाने के प्रयत्न में लगे महान् संत हैं, क्या आपका प्रयत्न चालू है ?"

तदनन्तर प्रभुपाद ने अपनी शारीरिक दशा का वर्णन वर्णाश्रम धर्म की धारणा को स्पष्ट करने के लिए एक भिन्न रूप में किया। उन्होंने ब्राह्मणों की तुलना सिर से, क्षत्रियों की बाँहों से, वैश्यों की पेट से और शूद्रों की टाँगों से की। उन्होंने कहा, "यदि ये सभी अच्छी दशा में हैं तो स्वास्थ्य अच्छा रहता है इस समय मैं इसलिए दुखी हूँ कि मेरा पेट का विभाग काम नहीं कर रहा है। अतः हम किसी विभाग की उपेक्षा नहीं कर सकते। सभी विभागों का ठीक होना जरूरी है; उनका आपस में सहयोग होना और स्वस्थ होना भी जरूरी है। हमारा यह आंदोलन इसी उद्देश्य के लिए है। यह सरकार का कर्त्तव्य है कि वह हमें संरक्षण दे ।"

श्रील प्रभुपाद ने मायापुर में भक्तों की हाल की कठिनाइयों का उल्लेख किया और संरक्षण की माँग की। राज्यपाल पटवारी ने उत्तर दिया, "हम निस्सन्देह ऐसा करेंगे। मैं प्रधान मंत्री से कल मिल रहा हूँ, और हम इस मामले पर विचार करने जा रहे हैं।" राज्यपाल ने स्वीकार किया कि समाचार-पत्रों में रिपोर्टें तोड़-मोड़ कर छापी गई थीं। उन्होंने जोर देकर कहा कि धार्मिक कार्यों के लिए मद्रास का वातावरण अनुकूल था और बताया कि कई स्वामी वहाँ अच्छा कार्य कर रहे हैं। एक के बारे में उन्होंने कहा, “वे गीता के सम्बन्ध में सर्वत्र अच्छा प्रचार कर रहे हैं।"

प्रभुपाद निस्संकोच होकर बोले, "अनेक लोग प्रचार का कार्य कर रहे हैं। किन्तु यदि आप बुरा न मानें तो ये सभी लोग अज्ञान में हैं कि गीता का वास्तविक अर्थ क्या है।" उन्होंने कहा कि भगवद्गीता का यथारूप समझना चाहिए और इसका अनुगमन विशेष रूप से राजर्षियों अर्थात् शासकीय नेताओं द्वारा होना चाहिए।"

राज्यपाल ने फिर कहा कि कितना अच्छा होगा यदि प्रभुपाद मद्रास जा सकें। लगता था कि प्रभुपाद ने इस पर गंभीरता से विचार किया और उन्होंने राज्यपाल को धन्यवाद दिया। अंत में, प्रभुपाद ने कुछ भक्तों के भारत में स्थायी निवास के लिए अनुमति प्राप्त करने में सहायता की प्रार्थना की। उन्होंने कहा,

" वे कोई हानि नहीं करेंगे। वे कभी राजनीति में भाग नहीं लेंगे ।"

राज्यपाल ने कहा, “मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ।'

प्रभुपाद ने कहा, “अत: कृपया सहायता करने का प्रयत्न कीजिए।"

बाद में, जब प्रभुपाद ने बताया कि वे मद्रास जाने का पचास प्रतिशत निर्णय कर चुके हैं, तो वे और उनके सेवक मद्रास और संसार के अन्य स्थानों की यात्रा की उपयोगिता के विषय में विचार-विमर्श करने लगे। यद्यपि सहारे के बिना वे थोड़ी दूर तक नहीं चल सकते थे, किन्तु कृष्ण की इच्छा हो, तो वे यात्रा के लिए तैयार थे।

१९७७ ई. का जुलाई मास शुद्ध हिन्दुओं के लिए विशेष अवसर था और वृन्दावन

के लोग शास्त्रों के पठन तथा पवित्र स्थानों की यात्रा में अधिक समय लगाने लगे। अतः जुलाई के अंत तक, जब सारे वृक्ष तथा लता - गुल्म हरी पत्तियों से नया रूप धारणा कर रहे थे, तीर्थ-यात्री झुण्ड के झुण्ड वृंदावन में तथा कृष्ण-बलराम मंदिर में आने लगे। कीचड़ तथा वर्षा के बावजूद बहुत से लोग हर्षोल्लास में थे; कड़ी गर्मी से उन्हें छुटकारा मिल चुका था और वे राधा-कृष्ण की झूलन यात्रा उत्सव के पूर्वानुमान से हर्षित थे । झूलन - यात्रा

वृंदावन का सबसे बड़ा उत्सव था और इस वर्ष मध्य अगस्त में पड़ता था ।

स्थानीय समाचार-पत्र श्रील प्रभुपाद के स्वास्थ्य के विषय में वितरण छाप रहे थे और समूचे वृंदावन तथा आसपास के गाँवों में उनकी कुशलता को लेकर गंभीर चिन्ता व्याप्त थी । अतः उत्सव के कारण तथा साथ-साथ श्रील प्रभुपाद के प्रति चिन्ता के कारण बहुत से लोग कृष्ण-बलराम मंदिर आ रहे थे। जो लोग प्रात:काल ९ बजे के आसपास आते उन्हें प्रभुपाद के दर्शन हो जाते, क्योंकि इस समय वे स्वयं अर्चा-विग्रहों के प्रातः दर्शन के लिए जाते

थे ।

श्रील प्रभुपाद को अब भी भूख नहीं लगती थी और विगत छह सप्ताह

15 एड़ी श्रील प्रभुपाद लीलामृत

से उन्होंने शायद ही कुछ खाया हो । अब उनके सोने, मालिश कराने, या बैठने तथा अनुवाद करने का कोई नियत समय नहीं रह गया था। अपने को संकटापन्न काल में अनुभव कर उन्होंने विश्व-भर के इस्कान केन्द्रों में एक सरल प्रार्थना किए जाने की अनुमति दे दी थी, "हे भगवान् कृष्ण, यदि आप की इच्छा है तो श्रील प्रभुपाद को अच्छा करने की कृपा करें।" वे नित्य प्रातः अर्चाविग्रहों के समक्ष नियमित रूप से आते थे। अपना काला चश्मा पहन कर और झूलती कुर्सी में बैठ कर, वे दोनों हथेलियाँ प्रार्थना की मुद्रा में जोड़े रहते और दो व्यक्ति उन्हें कुर्सी में बैठा कर उनके कमरे से मंदिर तक सावधानीपूर्वक ले जाते; उनमें से एक आगे की ओर से और एक पीछे की ओर से कुर्सी को पकड़े रखता। सबसे पहले वे गौर - निताई की मूर्ति के सामने कुर्सी खड़ी करते और तब क्रमशः कृष्ण-बलराम एवं राधा - श्यामसुंदर के श्रीविग्रहों के समक्ष । फिर वे उन्हें प्रांगण में केन्द्रीय स्थान पर तमाल वृक्ष के नीचे ले जाते और काली - सफेद चौकड़ी वाले संगमरमर से बने फर्श पर उसे टिका देते।

श्रील प्रभुपाद कृष्ण और बलराम की ओर मुख करके बैठते और भक्तजन उनकी चारों ओर बैठ कर कीर्तन चालू कर देते । कीर्तन आरंभ होते ही दो गुरुकुल छात्र उठ कर उनके सामने आते और बाँहें उठा कर नाचने लगते, और उनकी सूती चादरें आगे-पीछे लहराने लगतीं। प्रभुपाद सामान्य रूप से न तो कुछ बोलते थे और न मुसकराते ही थे; किन्तु कुछ समय के बाद वे अपनी मालाएँ किसी एक भक्त को दे देते जो जाकर नाचने वालों के गले में डाल आता था । तुरन्त ही दो अन्य छोटे बालक आ जाते जिन्हें पहले वाले बालक प्रभुपाद से प्राप्त मालाएँ पहना देते और स्वयं बैठ जाते। इस तरह आधे घंटे तक नर्तन-गायन चलता रहता। मंदिर में आए दर्शनार्थी वहाँ एकत्रित हो जाते, उनमें से अनेक, रेशमी कसीदे वाली गद्दी पर स्थिर रखे प्रभुपाद के चरणों में, रुपए-पैसे चढ़ाते ।

TIST PIPE

श्रील प्रभुपाद का पश्चिम जाने का संकल्प दृढ़ होता जा रहा था। एक ज्योतिषी ने कहा था कि चार सितम्बर तक, डाक्टर से परामर्श लेने के बाद, श्रील प्रभुपाद यात्रा कर सकते थे— किन्तु केवल स्वास्थ्य के लिए। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “मैं अपने पेन्सिल्वानिया फार्म पर जाऊँगा।" और वे आशावान् लगने लगे थे। वे ज्योतिषियों को एकमात्र मार्ग-दर्शक नहीं मानते थे; उन्होंने अधिकतर

उत्सुकतावश उनसे परामर्श किया था। ज्योतिष वैदिक ज्ञान का एक अंग था किन्तु वर्तमान युग में उस ज्ञान का दावा करने वाले ज्योतिषी प्रायः धोखेबाज थे। जब अभिराम दिल्ली से एक नए ज्योतिषी की रिपोर्ट लेकर आया तो प्रभुपाद ने उसे सुना, किन्तु वे ध्यानपूर्वक और मौन रह कर माला फेरते रहे।

अभिराम ने कहा, " ( ज्योतिषी ने ) मुख्य बात यह कही कि अगले छह महीने कष्ट के हैं, विशेषकर सितम्बर का पहला सप्ताह और फिर अक्तूबर तथा नवम्बर के कुछ खास दिन । प्रभुपाद की आयु बयासी वर्ष, पाँच महीने, ग्यारह दिन है, जिसका तात्पर्य हुआ २८ फरवरी १९७८ तक। यह जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के अनुसार है। किन्तु उसने बिल्कुल स्पष्ट कहा कि कृष्ण की इच्छा होने पर इसमें परिवर्तन हो सकता है। और यदि १९७८ का वर्ष पार हो गया तो आगे चार-पाँच वर्ष आसानी से निकल जायँगे । "

जब रिपोर्ट पूरी हो गई तो श्रील प्रभुपाद कुछ पल मौन रहे, फिर बोले, " हिसाब लगाने से आयु पूरी हो गई है। इससे कोई हर्ज नहीं। वरन्, यदि मेरा जीवन अब समाप्त हो जाय तो यह बहुत गौरवपूर्ण होगा।'

तमाल कृष्ण ने कहा,

“आप का जीवन चलता रहे तो यह भी बहुत गौरवपूर्ण

होगा ।"

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, देखिए कृष्ण की क्या इच्छा है।” जन्म कुण्डली की अन्य बातों से भी आगे का समय अशुभ लगता था, शनि के आठवें घर में प्रवेश के कारण। श्रील प्रभुपाद ने इसका अर्थ यह लगाया कि दोनों ही परिस्थितियों में उनकी हालत अत्यन्त नाजुक थी— चाहे वह नक्षत्रों के कारण हो अथवा कृष्ण की इच्छा के कारण। पर नियति को कौन बदल सकता है ? हर बात कृष्ण के हाथ में थी। किन्तु श्रील प्रभुपाद का रुझान अब भी पश्चिम की यात्रा की ओर थी। उन्होंने कहा, “यदि हम कुछ और काम कर लें तो हमारा समाज बहुत शक्तिशाली बन जायगा । मैं चाहता हूँ कि मैंने जो कुछ किया है वह और अधिक शक्तिशाली बन जाय ।'

किन्तु प्रभुपाद की यात्रा की बात के साथ-साथ उनकी कमजोरी बढ़ती गई। वे बात कम करने लगे। जब तमाल कृष्ण ने उन्हें अनुवाद करने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया तो उन्होंने उत्तर दिया, "जब मुझे प्रेरणा मिलेगी तो मैं इसे आरंभ कर दूँगा । मुझसे यह बलात् न कराइए। मैं कठिन समय

से गुजर रहा हूँ और इस समय बेचैनी अनुभव कर रहा हूँ। यह अनुवाद का कार्य कोई यांत्रिक कार्य नहीं है।'

बहुत

झूलन-यात्रा में आने वाले तीर्थ-यात्री अधिकांशतः ग्रामीण थे। उनमें से से राजस्थान से आए थे। स्त्री तथा पुरुष चमकदार रंगीन वस्त्र पहने थे और स्त्रियाँ भारी-भारी सोने और चाँदी की चूड़ियाँ तथा कंगन पहने थीं; अतः जब वे नंगे पाँव सड़क पर चलतीं तो छम-छम की आवाज निकलती । भिक्षु-साधुओं की भी संख्या बढ़ने लगी और वे प्राय: अपने शरीर में भभूत और माथे पर चमकदार रंगीन तिलक लगाए दिख जाते । यमुना में कई स्थानों में बाढ़ आ गई थी और उसकी धारा इतनी तेज थी कि उसमें नहाना या तैरना नहीं हो सकता था। हजारों यात्री कृष्ण-बलराम मंदिर देखने आए जो इस समय उत्तर भारत में सबसे प्रसिद्ध मंदिर था । कृष्ण-बलराम मंदिर की सांध्यकालीन आरती में इतनी भीड़ हो जाती कि आवासीय भक्त उसमें सम्मिलित न हो पाते और धक्कम-धक्का करती भीड़ के पीछे एक सिरे पर आँगन में खड़े हो जाते। कुछ गुरुकुल छात्र अतिथियों का स्वागत बैक टु गाडहेड पत्रिका से करते और एक रात में दो-तीन सौ प्रतियाँ बेच लेते। यह सुन कर प्रभुपाद प्रसन्न होते ।

श्रील प्रभुपाद के पश्चिम के कुछ भक्त भी पहुँच गए ताकि वे उनके साथ रह सकें और उनकी छोटी-मोटी सेवा कर सकें। जब प्रभुपाद अपने अँधेरे, ठंडे कमरे में उनसे मिले, उस समय वे अपने बिस्तर में बैठे थे। आने वालों में से एक, मधुद्विष, एक वर्ष से अधिक समय पूर्व कृष्णभावनामृत छोड़ चुका था, किन्तु अब वह प्रभुपाद के सामने मुण्डित - सिर और वैष्णव तिलक लगाए प्रस्तुत था । भावपूर्ण स्वर में प्रभुपाद बोले, "हमें छोड़ो मत। तुम गृहस्थ के रूप में रह सकते हो, किन्तु हमें छोड़ो मत।

सत्स्वरूप से प्रभुपाद ने कहा, "मुझे तुम्हारी पत्रिका (बैक टु गाडहेड) पसंद आई, विशेषकर “श्रील प्रभुपाद की वाणी” शीर्षक लेख

श्रुतकीर्ति हवाई से आया था। उसने कुछ मोमबत्तियाँ दिखाईं जो वे लोग बना कर बेच रहे थे। प्रभुपाद हँसने लगे। उन्होंने कहा, “तुम पश्चिम वालों के पास धन का अभाव नहीं है। किन्तु अब मैने तुम लोगों को सिखाया है कि उसे कैसे खर्च करना चाहिए।" आधे घंटे से अधिक समय तक प्रभुपाद प्रसन्नतापूर्वक बातें करते रहे।

बाद में, तमाल कृष्ण ने भक्तों को बताया कि प्रभुपाद का दृष्टिकोण उनके आसपास के लोगों और मिलने वाले समाचारों के अनुसार बदलता दिखाई देने लगा था। उन्होंने प्रभुपाद के पश्चिम जाने की योजना के बारे में भी लोगों

को बताया ।

उस दिन शाम को जब प्रभुपाद ने “तमाल कृष्ण और अन्यों" को बुलाया तो भक्त एकत्र हो गए और प्रभुपाद के पास बारजे पर चले गए। वे नहीं जानते थे कि क्या होने वाला है। प्रभुपाद अपने बिस्तर में लेटे थे। उन्होंने कहा, “बैठ जाओ। मैं केवल तुम सब को देखना चाहता हूँ। तुमसे मुझे जीवन शक्ति मिलती है।” उन्होंने अपने इर्द-गिर्द बैठे भक्तों को कृपा और प्रेम-भरी दृष्टि से देखा। हवा में कोयले की अंगीठी से उठती लोबान की गंध भर रही थी जिसे उपेन्द्र ने मच्छरों को भगाने के लिए सुलगा दिया था। मंदिर में सांध्यकालीन आरती आरंभ हो गई और कीर्तन की ध्वनि छोटे बारजे तक पहुँचने लगी । वहाँ मौजूद भक्त एक-एक करके प्रभुपाद की मालिश करने लगे। श्रुतकीर्ति और सत्स्वरूप एक-एक टाँग की मालिश कर रहे थे, जबकि तमाल कृष्ण सिर की मालिश करने लगा। एक अन्य भक्त पंखा झल रहा था। प्रभुपाद नेत्र बंद किए शान्तिपूर्वक लेट गए। उन्होंने कहा, “तुम सभी वैष्णव हो । मेरे प्रति दया करो। "

स्पष्टतः श्रील प्रभुपाद अच्छे समाचार सुनना चाहते थे। इससे उन्हें जीवित रहने की प्रेरणा मिलती थी। वे अन्य समाचार नहीं सुनना चाहते थे। उनका सचिव तीसरे पहर पत्र पढ़ कर उन्हें सुनाता और प्रभुपाद ने उस समय अन्य भक्तों को भी वहाँ रहने की अनुमति देना आरंभ कर दिया। एक बार जब वे उनके कमरे में दाखिल हुए तो उन्होंने कहा, “यदि इस संसार में एक भी वैष्णव हो तो वह सारे संसार का उद्धार कर सकता है।"

सत्स्वरूप ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, वह एक वैष्णव आप हैं।"

श्रील प्रभुपाद बोले, “आप में से प्रत्येक वह वैष्णव बन जाय । क्यों नहीं ?"

गुरुकृपा स्वामी ने कहा, “हम प्रयत्न कर सकते हैं।'

श्रील प्रभुपाद बोले, “हाँ, प्रयत्न करो। किन्तु अनुसरण करो। नकल नहीं । ' तमाल कृष्ण ने कहा, “ पुस्तक वितरण के सम्बन्ध में एक पत्र है— मासिक रिपोर्ट ।"

प्रभुपाद

ने कहा,

"यह सचमुच अच्छा समाचार है।" और जब तमाल कृष्ण बी.बी.टी. का समाचार-पत्र पढ़ने लगे तो प्रभुपाद ने उसे पूरे ध्यान से सुना । वे प्रसन्न थे, कभी-कभी विचार-मग्न हो जाते थे, सिर हिलाने लगते थे और अपने शिष्यों की उपलब्धियों को सुन कर मुसकराने लगते थे। उसके बाद उन्होंने

घनश्याम का एक लम्बा पत्र सुना जिसमें उसके पूर्वी योरोप में पुस्तक-वितरण की भारी सफलता का वर्णन था। जब उन्होंने तुलसी दास का पत्र सुना, जो दक्षिण अफ्रीका में कृष्णभावनामृत वाले एक कृषि फार्म संघ का विकास कर रहा था तो उन्होंने टिप्पणी की, "इस पत्र से मेरी छाती फूल जाती है कि मेरे ऐसे शिष्य हैं जो ऐसे कार्य कर रहे हैं।'

एक अन्य पत्र में एक भक्त ने एक प्रार्थना लिखी थी कि उसके सभी प्रभुपाद के लिए प्रार्थना कर रहे हैं और आशा है कि कृष्ण उनकी प्रार्थना गुरु-भाई सुनेंगे। प्रभुपाद ने कहा, “निश्चय ही, मैं सचमुच आप सब की प्रार्थना पर जीवित हूँ। मैंने विगत छह महीनों में भोजन नहीं किया है। अतः मैं केवल आप की प्रार्थना पर जीवित रह रहा हूँ।" और दक्षिण अमरीका के एक पत्र से यह सुन कर कि भक्त उनके लिए प्रार्थना कर रहे हैं, उन्होंने कहा, सोचता हूँ, मुझे जीवित रहना पड़ेगा। कृष्ण बड़े दयालु हैं। वे भक्त-वत्सल हैं। इतने सारे भक्त प्रार्थना कर रहे हैं, यह निष्फल नहीं जा सकती। मैं समझता हूँ कि यही कारण है कि मुझे बाहर जाने की प्रेरणा हो रही है। इस हालत में अन्य कोई मरने की तैयारी करता, किन्तु मैं यात्रा पर जा रहा हूँ। मैं इसे केवल भावुकता नहीं मानता। कृष्णभावनामृत आंदोलन के रूप में स्वयं कृष्ण विद्यमान हैं। मैं जहाँ भी अपने लोगों के मंदिरों में जाऊँ, मैं बिना वृन्दावन के नहीं हूँ ।"

पंचद्रविड स्वामी ने लिखा कि वे अपना यौवन प्रभुपाद की वृद्धावस्था के बदले में देने को तैयार हैं। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हमारी अवस्था समान है। शरीर का आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है। वैकुण्ठ लोक में हम समान अवस्था वाले हैं। नया जीवन, नए बालक— नव-यौवन। बाहरी वेशभूषा का कोई असर नहीं होता।” पंचद्रविड को उत्तर में प्रभुपाद ने आगे लिखाया, “भगवान् कृष्ण आप को लम्बी आयु दें। आप कृष्णभावनामृत का प्रचार करें। आप हमारी भविष्य की आशा हैं । "

जो भक्त प्रभुपाद के साथ महीनों से नहीं रहे थे, उनके लिए मानो समय लौट आया था— प्रभुपाद के साथ बैठना, उन्हें पत्रों का जवाब लिखाते पुराना सुनना, और कृष्णभावनामृत के धर्मोपदेश में विजयी बनने का उपदेश देना। उनका वार्तालाप सुनते समय सब कुछ ठीक लगने लगा था। किन्तु जब वे उनके कमरे से जाने लगे तो प्रभुपाद ने मंद स्वर में कहा, “ये मेरे अंतिम दिन हैं । "

जब तमाल कृष्ण को हंसदूत स्वामी का श्रीलंका से विशेष स्फूर्ति-भरा पत्र मिला तो उन्होंने बड़े तड़के उसे श्रील प्रभुपाद के पास ले जाने का निर्णय किया। प्रभुपाद ने अभी-अभी स्नान किया था और वे साढ़े नौ बजे मंदिर जाने के ठीक पहले ऊपर छज्जे पर बैठे थे। वे कृष्ण-बलराम की एक तुलसी की माला पहने थे और साथ ही ताजे फूलों की भी एक माला पहने थे। वे एक गोल मसनद की टेक लेकर लेटे थे और पत्र सुनने लगे ।

हंसदूत के पत्र में एक वाद-विवाद का समाचार था जो कोलम्बो के एक विख्यात अनीश्वरवादी, डा. कोवूर, और हंसदूत के बीच चल रहा था । ज्योंही तमाल कृष्ण ने पत्र पढ़ना आरंभ किया, प्रभुपाद ने डा. कोवूर का विचार जानना चाहा। तब तमाल कृष्ण एक समाचार कतरन से पढ़ने लगे जो पत्र के साथ संलग्न थी ।

तमाल कृष्ण ने पढ़ा, "दास और स्वामी ने पूछा कि क्या वैज्ञानिक किसी प्लास्टिक के अंडे से मुर्गी का चूज़ा पैदा कर सकते हैं। मुझे मालूम नहीं कि उन्हें ज्ञात है अथवा नहीं, कि वैज्ञानिकों ने फर्मियम, प्लुटोनियम्, इन्स्टीनियम जैसे दस से अधिक मूल तत्त्व बनाए हैं...

प्रभुपाद बीच में बोल पड़े, “धूर्त! तुम केवल निस्सार गुलगपाड़ा कर रहे हो। मुर्गी का बच्चा कहाँ है, धूर्तो ? मुर्गी और मुर्गी का बच्चा वैज्ञानिकों से अच्छे हैं। उसने एक सप्ताह के अंदर दूसरा अंडा पैदा किया है। तुम्हारी कीमत क्या है ? हम तुम्हें कोई महत्त्व नहीं देते। तुम मुर्गी के बच्चे से कम महत्त्वपूर्ण हो । "

तमाल कृष्ण पढ़ने लगे : "हमने दस से भी अधिक मूल तत्त्वों की सृष्टि की है जो भगवान् भी ..."

प्रभुपाद ने फिर टोका, "तुम्हारी सृष्टि की परवाह कौन करता है ? तुम्हारी सृष्टि के बिना भी अंडा मौजूद है ।"

तमाल कृष्ण पत्र फिर पढ़ने लगे, "नहीं, वे कहते हैं, कि भगवान् भी उनकी सृष्टि नहीं कर सकता था, क्योंकि उनकी रचना में जो तकनीक निहित है उसे भगवान् भी नहीं जानता । "

प्रभुपाद बोले, “भगवान् तुम्हारे मुँह पर लात मारता है। उसे तुम्हारी सृष्टि की रचना की जरूरत नहीं है। तुम्हारी सृष्टि के बिना ही वह कुछ भी कर सकता है। भगवान् तुम्हारे मुँह पर जूतों से मारता है। व्यर्थ के बकवासी ! उसे इसी तरह बता दो।"

तमाल कृष्ण ने कहा, “मुझे विश्वास है कि हंसदूत ने बताया होगा। आगे हम उसका उत्तर पढ़ेंगे। जो भी हो, वैज्ञानिक अपनी बात कहता जा रहा है। 'क्या ये दोनों लोग श्रीलंका के वैज्ञानिक डा. ― की सफलता से परिचित हैं ?"

प्रभुपाद, “उसके वैज्ञानिकों की परवाह कौन करता है ?"

"नोबेल पुरस्कार के विजेता — एमिनो एसिड का संश्लेषण करने के लिए - " प्रभुपाद ने व्यंग्य किया, "नोबेल पुरस्कार का विजेता । किसी अन्य धूर्त ने उसे नोबेल पुरस्कार दिया है। वह धूर्त है और अन्य धूर्त ने उसे पुरस्कार दिया है— सूरी-साक्षी मत्त । एक शराब-घर में, साक्षी पियक्कड़ है। यदि शराब-घर में कोई घटना हो जाती है और शराब-घर का स्वामी कुछ साक्षियों को लाता है, पर वे सभी शराब पीकर धुत्त हैं तो उनके साक्ष्य का क्या मूल्य होगा ? ज्योंही कोई नशे में धुत्त होता है, उसका साक्ष्य बेकार हो जाता है।”

तमाल कृष्ण पढ़ते गए और प्रभुपाद लगभग प्रत्येक वाक्य पर उन्हें टोकते गए। भक्तों ने कई सप्ताहों में प्रभुपाद को इतना उत्तेजित नहीं देखा था। जब तमाल कृष्ण ने हंसदूत का उत्तर पढ़ा तो प्रभुपाद को यह जान कर प्रसन्नता हुई कि उनके शिष्य ने अनेक तर्क वही दुहराए हैं। वे बोले, “वह बहुत प्रबल तर्क दे रहा है। यही प्रचार है।"

श्रील प्रभुपाद के पश्चिम जाने के विषय में दो बातें अनिश्चय पैदा कर रही थीं। एक तो संयुक्त राज्य के लिए पासपोर्ट तथा अधिवास कार्ड प्राप्त करने की औपचारिकताओं से सम्बन्धित थी। दूसरी बात स्वयं श्रील प्रभुपाद के मन की हिचक थी जो ज्योतिषी की रिपोर्टों पर आधारित थी । निस्सन्देह, उनका स्वास्थ्य प्रधान कारण था, किन्तु कभी-कभी वे हर बात की अवहेलना करके अपने सेवकों को, जैसे भी हो, उन्हें लंदन ले जाने के लिए कहने को तैयार - से लगते थे। वे अभिराम को, कुछ उलझने सुलझाने के लिए, पहले ही कलकत्ता भेज चुके थे। उनका अमेरिका-अधिवास का 'ग्रीन कार्ड' समयातीत हो चुका था और दिल्ली में स्थित अमरीकी दूतावास चाहता था कि वे फिर साक्षात्कार के लिए आएँ। इस बीच प्रभुपाद का पासपोर्ट और एक अस्थायी अनुमति - पत्र तैयार किए जा रहे थे। इसमें केवल चार-पाँच दिन लगने वाले थे। एक आयुर्वेदिक डाक्टर ने जो प्रभुपाद को देखने कभी-कभी आया करता था, कहा कि उन्हें एक सप्ताह के करीब प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए ।

किन्तु प्रभुपाद ने पाया कि एक बार बाहर जाने का मन बनाना, और न

जाना, और फिर मन बनाना —यह केवल थकाने वाली प्रक्रिया थी। सबसे नया यह समाचार सुन कर कि संयुक्त राज्य दूतावास का आग्रह साक्षात्कार पर था, जिसके लिए उनका जाना शारीरिक कारणों से लगभग असंभव था, प्रभुपाद बेचैन हो उठे। अपने बिस्तर पर घंटों पड़े रहने के बाद उन्होंने अंत में तमाल

कृष्ण

को बुलाया और कहा, “मैं जाना चाहता हूँ। क्या आप मुझे ले जाने की व्यवस्था कर सकते हैं? किसी तरह मुझे ले चलिए। यहाँ मुझे कोई अच्छा परिणाम नजर नहीं आता। मेरे मन में बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्साह है, आप डरें नहीं। मुझे कोई डर नहीं है। मैं चाहे यहाँ मंदिर में मरूँ या वहाँ, वैकुण्ठ सर्वत्र है । "

तमाल कृष्ण ने चाहा कि वे उन कुछ जी.बी.सी. के लोगों से परामर्श कर लें जो वहाँ मौजूद थे, किन्तु जब भक्तजन प्रभुपाद के कमरे में तीसरे पहर आए तो प्रभुपाद ने कहा, "कोई परामर्श नहीं, मैने निश्चय कर लिया है। जाने की व्यवस्था तुरन्त की जाय । ।'

किन्तु फिर कुछ गड़बड़ी हो गई। डाक्टर ने श्रील प्रभुपाद से एक सप्ताह और प्रतीक्षा करने को कहा और प्रभुपाद भी संयुक्त राज्य के लिए ग्रीन कार्ड प्राप्त किए बिना भारत छोड़ना नहीं चाहते थे। उन्होंने बलवंत को कोशिश करने और ग्रीन कार्ड प्राप्त करने के लिए कलकत्ता भेजा। इतने सारे मामलों के अनिश्चय में लटके होने के कारण प्रभुपाद निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि इंगलैंड तुरंत जायँ या प्रतीक्षा करें।

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "मेरी योजना अमेरिका में रहने की है। जब तक मैं भागवत पूरी नहीं कर लूँ, मैं वापस नहीं आऊँगा। मैं वहाँ लोगों को संगठित करना चाहता हूँ। अमरीकी बालक इतने अच्छे हैं। यदि मैं वहाँ हर चीज को मजबूत बना दूँ तो आंदोलन स्थायी हो जायगा। चलिए, वहाँ अभी चलें। डाक्टर कहेगा कि दवा चार दिन में काम करेगी और तब कहेगा कि थोड़ी और प्रतीक्षा करो। उनका तरीका यही है । "

अंत में कलकत्ता से अभिराम की रिपोर्ट मिली कि पासपोर्ट प्राप्त हो चुका था और अमेरिका के कलकत्ता- स्थित वाणिज्य दूतावास का कहना था कि वह ग्रीन कार्ड प्राप्त करने में मदद करेगा। तमाल कृष्ण दौड़ते हुए ऊपर गए और श्रील प्रभुपाद से बोले, “बहुत अच्छा समाचार आया है।” श्रील प्रभुपाद बिस्तर में लेटे थे, किन्तु जब उन्होंने समाचार सुना तो वे धीरे-धीरे तालियाँ बजाने लगे और बोले, “मुझे अच्छे समाचार देते रहो और इसी तरह जीवित रखो !”

वे लंदन के विषय में सोचने लगे। उन्होंने कहा, "वहाँ के राधा-कृष्ण अर्चा-विग्रह कितने अच्छे हैं। राधा-लंदनेश्वर-कितना निरीह बालक है वह !" तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को याद कराया कि उन लोगों ने उन अर्चा-विग्रहों को कैसे प्राप्त किया था।

प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, सब कुछ अप्रत्याशित ढंग से हुआ। मैं बिल्कुल निराश था, किन्तु कृष्ण बोले, 'मैं यहाँ हूँ, मुझे ले चलो।'

श्रील प्रभुपाद को भक्तिवेदान्त मेनर की याद आई। उन्होंने कहा, “मेरे कमरे के सामने का मैदान कितना शानदार है। मैं समझता हूँ कि अच्छा समय आने वाला है। मधुद्विष आ गया है और गौरसुंदर आ गया है—खोया हुआ लड़का वापस आ गया है। ये अच्छे लक्षण हैं।" प्रभुपाद के इस तरह बोलते रहने से उनकी आवाज, जो पहले धीमी और कमजोर लगती थी, जोरदार मालूम होने लगी । अपने कुछ शिष्यों के पतन का निर्देश करते हुए उन्होंने कहा, “गलती हो सकती है। किन्तु उसे ठीक भी किया जा सकता है। गलतियाँ न हों, इस विषय में बहुत सावधान रहना चाहिए। जो थोड़ी सी भी सेवा करता है, कृष्ण उसे कभी नहीं भूलते।'

तमाल कृष्ण ने कहा, “आप भी नहीं भूलते, प्रभुपाद ।”

“मैं कैसे भूल सकता हूँ? आप सबने भगवान् चैतन्य और मेरे गुरु महाराज के मिशन को पूरा करने में मेरी सहायता की है। मैं कृष्ण से सदैव प्रार्थना करता हूँ कि वे आप को शक्ति दें। मैं नगण्य हूँ। मैं कुछ नहीं कर सकता । किन्तु मैं कृष्ण से प्रार्थना करता हूँ कि आप को शक्ति दें।” प्रभुपाद को याद आया कि आस्ट्रेलिया में विग्रहों की स्थापना के बाद उन्होंने किस तरह सोचा था, “ये म्लेच्छ और यवन विग्रह का क्या करेंगे ?” उसके पश्चात् जब वे दूसरी बार वहाँ गए तो उन्होंने देखा कि वे विग्रह की उपासना बढ़िया ढंग से कर रहे थे। उन्होंने कहा, "हर चीज अच्छी तरह करने का प्रयत्न करो। और कृष्ण सहायता करेंगे। मैने जो कुछ भी किया है, वह इसी सिद्धान्त पर किया है। जो कुछ मेरे गुरु महाराज ने मुझे सिखाया मैंने अपनी योग्यता - भर उसे करने का प्रयत्न किया । "

श्रील प्रभुपाद बोलते रहे, वे दिव्य भावावेश से भरे थे और उनके शिष्य भी उनका साथ दे रहे थे। उन्होंने कहा, “मैं जब अमेरिका जाता हूँ, विशेषकर लास एंजिलिस या न्यू यार्क, तो मुझे घर जैसा ही लगता है।'

न्यू

यार्क का नाम आने पर वे वहाँ के अपने प्रारंभिक दिनों को याद करने

लगे। उन्होंने कहा, “मैं गली के लड़के जैसा था। यहाँ-वहाँ के दृश्य देखता मैं चक्कर लगाता था । मैं न्यू यार्क शहर में था, किन्तु एक दिन सवेरे मैंने देखा कि सभी दीवारें सफेद थीं। मैंने सोचा, 'ये सफेद कैसे हो गईं ? इन पर सफेदी किसने कर दी है?' मैं नीचे गया और देखा कि इतना अधिक हिमपात हो गया था। मैने एक छाता लिया और उसी हिमपात के बीच जाकर दूध का एक डिब्बा खरीदा। उस समय मैं एक गंदी अंधेरी कोठरी में रहता था । वहाँ हमेशा अंधेरा रहता था । किन्तु कोई चिन्ता नहीं थी । कठिनाई जैसी भी थी, मैं उसकी परवाह नहीं करता था । मैं केवल प्रचार करना चाहता था । कभी-कभी लोग मुझे छू लिया करते थे, जैसे बोवरी के लोग। लेकिन मेरे प्रति किसी में शत्रुभाव नहीं था। हर एक मेरे प्रति मित्रवत् था। आवारा लोग भी। जब मैं, अपने न्यू यार्क की इमारत के अन्दर जाना चाहता था तो जो आवारा वहाँ पड़े होते थे, उठ जाते थे और मुझे जाने देते थे। मेरे लिए मित्र और शत्रु में कोई भेद नहीं था ।

प्रभुपाद ने बताया कि उनके एक मित्र को यह सुन कर दहशत हो गई थी कि वे बोवरी में रहने जा रहे हैं। मित्र ने कहा था, "ओह, स्वामीजी, आप बोवरी स्ट्रीट में रहने जा रहे हैं। वह बड़ा भयावह स्थान है !"

प्रभुपाद ने कहना जारी रखा, "मैं अनेक खतरों से होकर निकला। किन्तु मैने कभी नहीं सोचा, 'यहाँ खतरा है।' मैने सर्वत्र यही सोचा, 'यह मेरा घर है । "

श्रील प्रभुपाद को २६ सेकंड एवन्यू में अपने प्रचार के प्रारंभिक प्रयत्नों की स्फुट घटनाएँ याद आईं। उन्होंने कहा, "मैं घोर परिश्रम कर रहा था । सवेरे सात बजे धर्मोपदेश करता था और शाम को सात बजे भी वही करता था । मैं स्वयं प्रसाद तैयार करता था और प्रत्येक आगन्तुक को उसे देता था । सत्स्वरूप, क्या तुम्हें याद है? तुम कुछ आम और अन्य फल लाते थे। तुम प्रतिदिन आते थे। वे दिन बीत गए हैं। अब उन दिनों का स्मरण करके मुझे प्रसन्नता होती है। क्या स्त्र्याधीश नाम का वह लड़का तुम्हें याद है? वह कितनी चपातियाँ खाता था। उसका पेट नहीं भरता था । मैं उसे एक बार में चार चपातियाँ देता और हर बार वह और अधिक माँगता । कीर्तनानंद, अच्युतानंद आदि पचहत्तर लोग रविवार के भोज में सम्मिलित होते थे ।

प्रभुपाद को याद आया सैन फ्रान्सिस्को का पहला मंदिर, लास एंजिलिस का पहला मंदिर, उन्हें याद आया सीएटल का जाना, गौरसुंदर को ठेल कर

हवाई भेजना और हवाई से गोविन्द दासी का पत्र प्राप्त करना जिसमें उसने लिखा था कि उस समय वहाँ आम का मौसम था और सिवाय उस समय के जबकि प्रभुपाद वहाँ होते थे, "वहाँ चूहों का मौसम रहता था और सारी रात चूहे छत की कड़ियों में दौड़ा करते थे।"

श्रील प्रभुपाद ने कहा, इसमें कोई संदेह नहीं।" वे

'यह एक नया जीवन है, कृष्णभावनाभावित जीवन । अगली यात्रा की बात फिर सोचने लगे और बोले कि वे वायुयान में तीन सीटों में फैल कर सोएँगे। किन्तु उन्होंने भक्तों को आगाह किया कि वे सावधान रहें कि अमेरिका पहुँचने कर कहीं उनका अपहरण न हो जाय। पहले वे सोचा करते थे कि उन्हें पश्चिम जाने से, हो सकता है, कृष्ण रोक रहे थे जिससे वे म्लेच्छों द्वारा तंग न किए जाएँ। किन्तु अब वे जायँगे, चाहे जो हो ।

प्रभुपाद जाने को तैयार थे, किन्तु विलम्ब पर विलम्ब होता रहा और चिन्ताएँ बनी रहीं। बलवंत कलकत्ता से लौट आया, किन्तु उससे मिल कर प्रभुपाद को प्रसन्नता नहीं हुई। उन्होंने जानना चाहा कि वह अभिराम के बिना ही क्यों लौट आया था। बलवंत ने कहा कि वह प्रभुपाद के साथ होना चाहता था और उसका ऐसा विचार था कि ग्रीन कार्ड प्राप्त करने की रही-सही कार्यवाही अभिराम कर लेगा । प्रभुपाद ने बलवंत को डाँट बताई और कहा कि गुरु की सेवा उनके साथ होने की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

तब टिकट की व्यवस्था करने के लिए तमाल कृष्ण दिल्ली गए। जब दो दिन के

बाद प्रभुपाद को मालूम हुआ कि उनके और तमाल कृष्ण और अन्य अमरीकियों के भारत से प्रस्थान करने में कई सप्ताह का विलम्ब हो सकता है तो उन्होंने कहा कि वे, उनके बिना ही, श्रुतकीर्ति को अपने सेवक के रूप में लेकर, तुरन्त जाने को तैयार हैं।

इसके बाद प्रभुपाद को लंदन में हवाई अड्डे में हड़ताल का समाचार मिला । और उनके निर्धारित प्रस्थान के पहले की रात में उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया । अनेक भक्तों ने उनसे न जाने का आग्रह किया। किन्तु टिकट और पासपोर्ट विस्मयकारी ढंग से पहुँच गए और २८ अगस्त की आधी रात में, वृंदावन में छह महीने रहने के बाद, श्रील प्रभुपाद और उनके दल ने कृष्ण-बलराम मंदिर के मुख्य द्वार से निकल कर कारों के एक कारवाँ में दिल्ली की ओर प्रस्थान किया ।

प्रभुपाद के प्रस्थान के ठीक पूर्व उनके एक मित्र, बिशन चन्द्र सेठ आए

और प्रतिवाद किया, “यदि कुछ हो गया और आपको यह शरीर वृंदावन के बाहर छोड़ना पड़ा तो यह ठीक नहीं होगा।” प्रभुपाद ने कहा कि चूँकि उनके शिष्य उन्हें इतना अधिक प्रेम करते थे इसलिए वे उनकी प्रार्थना का इनकार नहीं कर सकते थे। उन्होंने कहा कि यदि यात्रा में बहुत अधिक कठिनाई हुई तो वे तुरंत लौट पड़ेंगे। उन्होंने मि. सेठ से कहा कि वे केवल कृष्ण पर निर्भर थे ।

प्रभुपाद अपनी कार की पिछली सीट पर एक चटाई पर लेटे रहे और वर्षा के कारण खराब हुई सड़कों पर दो घंटे यात्रा करने के बाद वे दिल्ली हवाई अड्डे पहुँच गए। श्रील प्रभुपाद कार में लेटे हुए प्रतीक्षा करते रहे। सवेरे के पहले कुछ गरमी थी और भक्तों ने कार के दरवाजे खोल दिए थे। भवानंद स्वामी, जो बंगाल की जेल से अभी-अभी छूटे थे, प्रभुपाद से मिलने के लिए ठीक समय पर पहुँच गए थे। भवानंद कार के पास गए और अपना सिर प्रभुपाद के चरणों पर रख दिया ।

प्रभुपाद ने पूछा, "कैसे हो ?” भवानंद ने रिपोर्ट दी कि मायापुर में हर चीज में सुधार हो रहा था। सभी स्थानीय साधु और नागरिक अब उन गुण्डों के विरुद्ध इस्कान' के पक्ष में हो गए थे, जिन्होंने मंदिर पर आक्रमण किया था। सीमा शुल्क आदि औपचारिकताएँ पूरी की जायँ, इसके पहले प्रभुपाद को कार से निकाल कर हवाई अड्डे के एक प्रतीक्षा कक्ष में ले जाया गया। जब प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण, उपेन्द्र, प्रद्युम्न और उसकी पत्नी अरुन्धती के साथ प्रस्थान किया उस समय उनको विदा देने के लिए लगभग दस शिष्य हवाई अड्डे पर मौजूद थे। हवाई अड्डे की गाड़ी में प्रभुपाद सीधे तन कर बैठे थे और माला की थैली में उनकी अँगुलियाँ मनकों पर घूम रही थीं। उनके पांव में सेंडल पहने थे और पैरों में हल्की सूजन थी । और हाथों में भी सूजन थी। वे यह देखने चारों ओर ताक रहे थे कि वहाँ कौन-से शिष्य मौजूद थे और उन्हें पहचान कर वे सिर हिला रहे थे ।

भक्तों को लगा कि प्रभुपाद को कुछ बोलने की जरूरत नहीं थी । उनके पास होना ही आश्चर्यजनक और संतोषप्रद अनुभूति थी। वे सब कुछ कह चुके थे और अनेक ढंगों से अपनी पुस्तकों में अपने को प्रकट कर चुके थे। अतः भक्तगण कीर्तन करते रहे और प्रेम से उन्हें निहारते रहे, जब तक कि अंत में व्हील चेयर में बैठ कर वे वायुयान तक नहीं पहुँच गए।

 
 
 
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