सा री लम्बी उड़ान में श्रील प्रभुपाद शान्त- मौन बने रहे। उस कठिन परिस्थिति को सुधारने में उनके सेवक असमर्थ थे, जैसा कि वे वृंदावन में कर सकते थे। सिगरेट के धुएँ, जोर-जोर की बातों और शराबियों के ठहाकों से प्रभुपाद घिरे रहे। सारी चिन्ता के बावजूद तमाल कृष्ण की समझ में नहीं आ रहा था कि वे श्रील प्रभुपाद के लिए क्या करें, या उनसे क्या पूछें श्रील प्रभुपाद 'आप को कैसा लग रहा है' जैसे प्रश्नों वाले वार्तालापों के प्रति अपनी अरुचि पहले ही व्यक्त कर चुके थे । प्रभुपाद के सेवकों को मालूम था कि वे अपने गुरु महाराज के विचारों को पूरी तरह नहीं समझ सकते थे और शास्त्र भी सावधान करता है कि वैष्णव के मन की बातों को जानने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। किन्तु वे जानते थे कि उनका कर्त्तव्य उन्हें आराम देना था— उनके लिए शान्ति की व्यवस्था करके, स्नान और वस्त्रादि धारण करने में उनकी सहायता करके अथवा कृष्ण-बलराम के दर्शन के लिए उन्हें मंदिर ले जाकर। इस समय वे ऐसे कामों में से किसी को भी करने में असमर्थ थे। इस समय प्रभुपाद, अन्य किसी समय की अपेक्षा अधिक, कृष्ण के सहारे थे। उस वर्ष भुवनेश्वर में पहले उन्होंने कहा था कि उनके शिष्य यद्यपि सहायता करने के इच्छुक थे, किन्तु यदि प्रभुपाद को वृद्धावस्था के कारण असुविधा थी तो शिष्य उस परिस्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं ला सकते थे। और प्रभुपाद ने दृष्टान्त दिया था कि यद्यपि वे भक्तिवेदान्त मेनर के सुख-सौख्यपूर्ण भवन में रह सकते हैं किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वहाँ उन्हें असुविधा नहीं होगी। फिर भी, तमाल कृष्ण प्रभुपाद की इच्छाओं के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील थे और उनकी सेवा का उन्हें अनुभव था, इसलिए वे बार-बार उनके पास जाते थे और उनसे बात करते थे। उन्होंने कहा, “श्रील प्रभुपाद, जब आप लंदन पहुँचेंगे तो भक्तों को आप को पाकर अत्यन्त प्रसन्नता होगी।' श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "हाँ, अच्छा है कि हम वहाँ जा रहे हैं।" इसके अतिरिक्त श्रील प्रभुपाद अधिकांश में शान्त बने रहे; वे कृष्ण और संसार में उनके प्रेम का प्रसार करने के मिशन के बारे में चिन्तन करते रहे। उड़ान असामान्य रूप से थकाने वाली कठिन परीक्षा साबित हुई। जब वायुयान रोम में उतरा तो उसे चार घंटे की देर हो चुकी थी और प्रभुपाद को हवाई अड्डे के विश्राम-कक्ष में ठहरना पड़ा। जब अंत में वे लंदन के ऊपर पहुँचे तो कप्तान ने घोषणा की कि हड़ताल के कारण वायुयान उतर नहीं सकता और वह घंटों हवा में चक्कर लगाता रहा। अंत में, दिल्ली से प्रस्थान के बीस घंटे बाद, वायुयान हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरा। सीमा शुल्क और आव्रजन अधिकारियों तथा ब्रिटिश एयरवेज के कर्मचारियों ने श्रील प्रभुपाद को एक व्हील चेयर में बैठा कर शीघ्रतापूर्वक सभी औपचारिकताएँ पूरी करने की छूट दे दी। और शीघ्र ही, वे अपने उत्साही शिष्यों की मण्डली के मध्य पहुँच गए। उसके बाद वे एक सफेद रोल्स रायस में बैठ कर भक्तिवेदान्त मेनर के लिए रवाना हो गए। लंदन के हवाई अड्डे और व्यस्त सड़कों का वृंदावन की शान्ति और आध्यात्मिकता से निश्चय ही भारी विरोध था । किन्तु प्रभुपाद के लिए यह कोई असामान्य बात नहीं थी कि वे भारत के वातावरण और आध्यात्मिक संस्कृति को छोड़ कर अचानक पश्चिम के लिए चल पड़ें। वे वर्षों से ऐसा करते आ रहे थे— पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में— हिमाच्छादित क्षेत्रों को, शीतोष्ण देशों को, नगरों को, जंगलों को जाना और गोरे, काले, पूर्वी देशों के लोगों से- सभी तरह के लोगों से मिलना-जुलना उनका नित्य का काम था। वे कोई ग्रामीण हिन्दू गुरु नहीं थे, जो सैंकड़ों मोटर गाडियों को सड़कों पर दौड़ते, फैक्टरियों को धुआँ उगलते और मांस-भक्षियों की चूहों जैसी अंध-दौड़ देख कर, आश्चर्यचकित हो जाते। श्रील प्रभुपाद के लिए 'सांस्कृतिक आघात" जैसी कोई चीज नहीं थी । किन्तु उनके लंदन के शिष्यों को उन्हें देख कर आघात जरूर पहुँचा। उन्होंने कल्पना नहीं की थी कि प्रभुपाद इतने दुर्बल होंगे या वे ऐसी हालत में यात्रा करेंगे। जो भक्त हवाई अड्डे पर उनसे मिलने आए थे उनके लिए यह हृदय विदारक अनुभव था। जिन लोगों ने वृंदावन में प्रभुपाद के विषय में रिपोर्टें सुनी थीं वे भी ऐसे परिवर्तन के लिए भावुकता की दृष्टि से तैयार नहीं थे । प्रभुपाद नित्य की भाँति दिव्य थे या उस से भी अधिक, किन्तु भक्तों को उनमें यह परिवर्तन देख कर पहले आघात पहुँचा। अब वे एक ऋषि जैसे प्रतीत हो रहे थे जिसने मानव-कल्याण के लिए दीर्घ तपस्या की हो और जो अपने शरीर में रहता हुआ भी देहातीत हो गया हो । भक्तिवेदान्त मेनॉर पर प्रभुपाद कार से उतर कर एक पालकी में बैठे और मंदिर - कक्ष में प्रविष्ट हुए, जहाँ लगभग तीन सौ शिष्य और शुभचिंतक उनका सामीप्य पाने को प्रतीक्षा-रत थे। उत्तर और दक्षिण योरोप के सभी इस्कान केन्द्रों के भक्त अल्प सूचना पर इंगलैंड के लिए रवाना हो गए थे। जब प्रभुपाद मंदिर में प्रविष्ट हुए तो वे कीर्तन कर रहे थे और उनकी हालत देख कर, हवाई अड्डे के भक्तों की तरह, उन्हें भी गहरा आघात पहुँचा। जब उन्होंने प्रभुपाद को इतना दुर्बल और धूप का चश्मा पहने देखा तो कीर्तन एक पल के लिए लगभग बंद-सा हो गया । तो भी, भक्तगण साथ ही प्रसन्न और भावविह्वल बने रहे—यह अनुभव करते हुए कि इतनी कठिनाई के बावजूद प्रभुपाद उनके साथ होने के लिए और उनमें कृष्णभावनामृत को प्रोत्साहन देने के लिए पश्चिम आए थे। भक्त महीनों से उनके लिए प्रार्थना करते रहे थे । “मेरे प्रिय भगवान् कृष्ण, यदि आप की इच्छा हो, तो श्रील प्रभुपाद को अच्छा कर दीजिए" यह प्रार्थना एक झंडे पर मुद्रित करके प्रभुपाद के व्यास - आसन के ऊपर लटका दी गई थी।" इंगलैंड के भक्त श्रील प्रभुपाद के साथ भावों के आदान-प्रदान में केवल शब्दों तक सीमित नहीं रहना चाहते थे। दिव्य पुस्तकों के वितरण में भी वे संसार में सबसे आगे थे। जब कुछ सप्ताह पहले उन्होंने सुना था कि श्रील प्रभुपाद इंगलैंड आ सकते हैं तो उनके स्वास्थ्य की दशा देखते हुए यह संभव नहीं प्रतीत हुआ था। उन्होंने सुना था कि वे अपने इस शरीर को किसी क्षण छोड़ सकते हैं, फिर बाद में उन्होंने सुना कि वे कुछ अच्छा अनुभव कर रहे हैं और लंदन आ रहे हैं। यह सुनने पर भी कि वे निश्चित रूप में आ रहे हैं उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था । किन्तु अब वह सच हो गया था । अर्चा-विग्रह के कमरे के पर्दे उठे थे और श्रील प्रभुपाद राधा-गोकुलानंद को निहार रहे थे। कुछ भक्त उनके सामने खड़े थे और अपने विशेष ढंग से हाथ के इशारे से उन्होंने उन्हें बगल से हट जाने का संकेत दिया। चेहरे पर कोई भाव प्रकट किए बिना ही वे ध्यानस्थ होकर भव्य वेशभूषा में सजे राधा-गोकुलानंद - १०९६ अर्चाविग्रहों के सामने बैठे थे, जिनका नामकरण उन्होंने चार वर्ष पूर्व किया था जब उन्होंने उनका आह्वान किया था कि वे आएँ और इंगलैंड के भक्तों से अपनी उपासना कराएँ । बिना एक शब्द बोले प्रभुपाद ऊपर अपने कमरे में गए जहाँ उतने भक्त उनके साथ हो लिए जितने आ सकते थे। वे सदैव कहा करते थे कि उन्हें इस आवास में बहुत आराम मिलता था और इस बार भी वे अपनी खिड़की से बाहर की ओर बड़े मैदान, झील और उसमें बत्तखों को देख कर बहुत प्रसन्न हुए। भक्तगण हाथ जोड़े उनके सामने बैठ गए, वे पूर्णतया अवगत थे कि यह कोई सामान्य भेंट नहीं थी। वे अपने जीवन को पूर्ण रूप से प्रभुपाद को अर्पित कर चुके थे और ऐसा कुछ शेष नहीं था जो वे अपने समर्पण के बराबर शब्दों द्वारा अर्पित कर सकते थे । एक भक्त ने श्रील प्रभुपाद के सामने मेज पर प्रसाद से भरी चांदी की थाली रखी। उन्होंने खोए की बनी एक मिठाई उठाई और उसे चखा; उसके बाद आम का एक टुकड़ा लिया। कमरे में ठस कर भरे लगभग सौ भक्त और दरवाजे में खड़े भक्त प्रभुपाद की हर गतिविधि को ध्यानपूर्वक देखते रहे । पूर्ण शान्ति विराज रही थी। श्रील प्रभुपाद ने मुसकराते हुए ऊपर देखा और कहा, " तो सभी लोग अच्छी तरह हैं ?" सबने मिल कर सोत्साह उत्तर दिया, "जय — श्रील प्रभुपाद" श्रील प्रभुपाद के विभिन्न रूपों को देखने से जो तनाव पैदा हुआ था, वह अचानक समाप्त हो गया और हर एक यही चाहने लगा कि वे आराम से रहें। अपनी सेवा से प्रत्येक भक्त उन्हें प्रसन्न करना चाहता था । शेष दिन-भर प्रभुपाद एकांत में, विश्राम करते रहे। तमाल कृष्ण ने मंदिर - कक्ष में अपने व्याख्यान में भक्तों को समझाया कि किस तरह श्रील प्रभुपाद ने अशक्त की भाँति पड़े रहने की अपेक्षा, भारी खतरा लेकर यात्रा करने का निश्चय किया था । तमाल कृष्ण ने बताया कि किस तरह किसी एक ने प्रभुपाद को सुझाव दिया था कि लंदन हवाई अड्डे में हड़ताल के कारण उन्हें तेहरान या इटली अथवा फ्राँस जाना चाहिए और किस तरह उन्होंने कहा था, "मैं लंदन जाना चाहता हूँ।” तमाल कृष्ण ने कहा, कि श्रील प्रभुपाद आप की शरण में आए हैं। उन्होंने बताया कि शास्त्र के अनुसार भक्त को, विशेषकर जीवन के अंत में, वृंदावन में रहना चाहिए, किन्तु चूँकि प्रभुपाद के आध्यात्मिक गुरु ने उन्हें पश्चिम में जाकर धर्मोपदेश करने के लिए आज्ञा दी थी, इसलिए वे यहाँ वापस लौटे हैं, इस निश्चय के साथ कि जीवन के अंत तक वे उस मिशन को पूरा करेंगे। भक्तों पर इसका गहरा प्रभाव रहा कि श्रील प्रभुपाद का वहाँ आना, कम-से-कम आंशिक रूप में, भक्तों के धर्म-प्रचार को मान्यता देने के समान था। उन्होंने संकल्प किया कि प्रभुपाद के वहाँ रहते वे एक विशाल पुस्तक-वितरण मेला करके उनकी कृपा का बदला चुकाएँगे। यदि वे अपने प्रचार द्वारा अपने आत्मापर्ण का परिचय देते हैं तो हो सकता है कि प्रभुपाद वहाँ लम्बे समय तक रहें। सवेरे दो बजे भगवान् और तमाल कृष्ण प्रभुपाद की सेवा के लिए उनके कमरे में गए। श्रील प्रभुपाद को, जो अभी-अभी जगे थे, दक्षिण योरोप के अपने नेता, भगवान्, को देख कर बहुत प्रसन्नता हुई। वे इसीलिए तो पश्चिम आए थे कि उन्हें अपने प्रचारकों का साथ मिले और प्रचारक उनसे प्रोत्साहन प्राप्त करें। श्रील प्रभुपाद 'तमाल मुझे बड़ी कठिनाई से लाए हैं। यह ठीक हुआ मैने सोचा यों मरने से क्या लाभ? इससे अच्छा तो पश्चिम चलें। इस तरह कृष्ण-बलराम ने मुझे राधा-गोकुलानंद के संरक्षण में रख दिया है।' ने कहा भगवान् ने श्रील प्रभुपाद को कुछ नव-मुद्रित पुस्तकें भेंट की: भगवद्गीता यथारूप का इटालियन संस्करण, श्रीमद्भागवत का फ्रेंच भाषा में एक अन्य खण्ड, और डच भाषा में अन्य पुस्तकें। भगवान् ने रिपोर्ट दी कि योरोप में पुस्तक-वितरण अमेरिका से बढ़ गया था । प्रभुपाद ने पूछा, “तमाल, क्या आपने यह सुना ? यही मेरा जीवन है। यहाँ आइए।” श्रील प्रभुपाद भगवान् का सिर सहलाने लगे और उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे। उन्होंने भगवान् से कहा, “तुम्हारे सामने कोई समस्याएँ नहीं हैं।" श्रील प्रभुपाद की ओर से कार्य करते हुए भगवान् को विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा था, किन्तु जब प्रभुपाद ने कहा, “तुम्हारे सामने कोई समस्याएँ नहीं हैं" तो भगवान् ने मान लिया कि यदि वह सतत् उद्यमशील रहा तो सब कुछ ठीक हो जायगा। जब तक वह भक्ति में लगा है, उसके लिए कोई समस्या नहीं होगी। भगवान् को कुछ और बताने की प्रभुपाद को आवश्यकता नहीं रह गई थी। प्रभुपाद का आदेश उसके लिए हृदय और प्राण बन गया था। किन्तु अब वह आदेश और प्रभुपाद का प्रेम उसके हृदय में और गहरे पैठ गए। श्रील प्रभुपाद का मनोभाव शुद्ध धन्यवाद का था, उसमें उनके सामान्य आलोचनात्मक आदेशों का स्पर्श नहीं था। वे केवल अपने भक्तों के साथ रह कर उनको प्रोत्साहित करते रहना चाहते थे। की श्रील प्रभुपाद ने कहा, “पुस्तकें प्रकाशित कीजिए। ये पुस्तकें मेरे गुरु महाराज कृपा का परिणाम हैं। संसार के किसी अन्य लेखक ने इतनी पुस्तकें नहीं लिखी हैं—शेक्सपियर, मिल्टन, डिकेंस, किसी ने भी नहीं । न ही उनकी पुस्तकें इतने व्यापक स्तर पर और इतनी सराहना के साथ पढ़ी गई हैं। " जब प्रभुपाद प्रात: काल नीचे मंदिर में आए तो सभी भक्तों को उनके साथ होने का अवसर मिला। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “यहाँ के सभी भक्त वैकुण्ठ के लोग हैं । —वे सुंदर हैं और अच्छी वेश-भूषा पहने हैं। गोकुलानंद कितने सुंदर हैं। मुझे इसी दशा में मरने में प्रसन्नता होगी—भक्तों के बीच और गोकुलानंद को निहारते हुए । भक्तों को यह देख कर प्रसन्नता हुई कि श्रील प्रभुपाद काला धूप का चश्मा लगाए ताजा प्रेस की हुई रेशमी धोती और कुर्ता पहने और माथे पर वैष्णव तिलक लगाए सचमुच आश्चर्यजनक लगते थे। वे सीढ़ियों पर फिसलते हुए नीचे आते थे और पालकी में बैठ जाते थे जिसे दो पुष्ट शरीर शिष्य सावधानीपूर्वक ले जाते थे। प्रभुपाद व्यास-आसन पर बैठ जाते थे और भक्तों द्वारा पवित्र नाम का कीर्तन सुनते थे। चूँकि वे बहुत कम बार बोलते थे, इसलिए भक्तों का कीर्तन और प्रभुपाद द्वारा उसकी सराहना ही उनके और भक्तों के बीच विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम थी । बाहर से श्रील प्रभुपाद कीर्तन की सराहना का भी कोई संकेत नहीं देते थे। जो लोग उनके निकट खड़े होते थे या नृत्य करते रहते थे वे देख सकते थे कि उनके चश्मे के नीचे आँखों के कोनों से अश्रु की बूँदे टपक कर उनके गालों पर गिरती थीं। और सभी भक्त कीर्तन और नृत्य करने में लगे होते थे, इस ज्ञान से प्रसन्न होकर कि प्रभुपाद केवल उनके साथ होना चाहते थे । वे जानते थे कि यद्यपि प्रभुपाद एक शुद्ध भक्त थे और स्वयं में संतुष्ट थे, फिर भी अपने भक्तों के प्रेम से उन्हें सचमुच प्रेरणा मिलती थी। उनके आदेशानुसार भक्त गहरे उत्साह के साथ कृष्ण की सेवा करें और उनकी प्रशस्ति गाएँ— इससे संसार में अधिक समय तक रहने और प्रचार करने के लिए प्रभुपाद को नई स्फूर्ति की प्राप्ति हो सकती है। मेनर में भक्तों में इस बात में सहमति थी कि राधा-गोकुलानंद विशेष रूप से श्रील प्रभुपाद को देखते प्रतीत होते थे और प्रभुपाद विशेष रूप से गोकुलानंद को देखते जान पड़ते थे। कुछ को ऐसा लगता कि श्रील प्रभुपाद और राधा-गोकुलानंद को देख कर वे सीधे आध्यात्मिक लोक का अवलोकन कर रहे थे; कृष्ण और उनके शुद्ध भक्त को देख रहे थे। अतः श्रील प्रभुपाद मंदिर कक्ष में अपने भक्तों के साथ होकर जो कुछ उन्हें दे रहे थे उससे आगे किसी बातचीत अथवा प्रदर्शन की कोई जरूरत नहीं थी । प्रतिदिन सवेरे कीर्तन उत्साहपूर्वक जमता था । तमाल कृष्ण ने भक्तों से कहा कि वे 'गुरु-पूजा' गीत न गाएँ, क्योंकि इससे प्रभुपाद में बहुत अधिक भावावेग उत्पन्न होता था, इसलिए वे पंचतत्त्व मंत्र गाते थे, फिर हरे कृष्ण। आधे घंटे बाद गान और नृत्य आवेशमय हो जाते थे और श्रील प्रभुपाद कभी-कभी अपने अँगूठे से थपकी देने लगते थे। उनके शरीर के इस रंच-संचालन से कीर्तन की गहनता में वृद्धि हो जाती थी। तब अपनी एक उंगली उठा कर श्रील प्रभुपाद कमरे में भरे सैंकड़ों भक्तों में इतना भावावेग उत्पन्न कर देते थे कि वे उछलने-कूदने लगते थे। भक्तों को ऐसा अनुभव होता कि हरे कृष्ण कीर्तन और नृत्य करके वे किसी न किसी प्रकार प्रभुपाद के स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के लिए गान और प्रार्थना कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद वहाँ बिना हिले-डुले बैठे रहते । किन्तु भक्त उनकी इच्छाओं को जानते थे और उनमें से कुछ हवा में कई फुट ऊपर तक उछलते रहते, लगभग झाड़-फानूस को छूने की ऊँचाई तक । एक घंटे के उन्मुक्त दिव्य कीर्तन के बाद, श्रील प्रभुपाद फिर ऊपर चले जाते; उनके भक्त उनकी पालकी को अपने सिर पर उठाकर उन्हें ऊपर पहुँचा देते। जब लंदन में भक्तों को मालूम हुआ कि श्रील प्रभुपाद को अमेरिका जाने के लिए अनेक आमंत्रण-पत्र मिल रहे हैं तो वे चिन्तित हो उठे। वे सोच रहे थे कि यह अंतिम बार है जब प्रभुपाद उन्हें देखने को मिले थे और वे चाहते थे कि उन्हें हमेशा अपने साथ रखें। यदि वे पुस्तकों की विश्वासातीत संख्या का वितरण कर सकें तो हो सकता है कि उनकी आयु बढ़ जाय और वे भक्तिवेदान्त मेनर में अधिक काल तक रुके रहें। वे पहले से ही इसे अपना सौभाग्य मान रहे थे कि श्रील प्रभुपद ने इतने सारे मंदिरों में से उनका मंदिर चुना है और, जैसा कि वे आपस में बात करते थे, उनका निष्कर्ष था कि जरूर राधा - लंदन - ईश्वर और राधा-गोकुलानंद प्रभुपाद के प्रिय अर्चा-विग्रह हैं। वे अनुभव कर रहे थे कि कीर्तन और सेवा करने के अतिरिक्त उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं था जो वे श्रील प्रभुपाद को अपने साथ रखने और उनकी सहायता के लिए कर सकते थे। और यह अनुभूति उन्हें बेबस कर देती थी । उनके सारे प्रयत्नों के बावजूद सब कुछ कृष्ण पर निर्भर था। श्रील प्रभुपाद ने अपने सचिव से गोपनीय ढंग से कहा कि भारत के बारे में सोच कर वे क्षुब्ध थे। उन्होंने कहा, “भारत में मैंने जो भी योजनाएँ बनाई सरकार ने उनमें केवल बाधाएँ उपस्थित की है। मुझे अपने दिमाग पर इतना अधिक जोर डालना पड़ता था।" उन्होंने कहा कि भारत ने अपनी संस्कृति खो दी है। "अब वे समझते हैं कि हर एक ईश्वर है। वे भक्ति नहीं समझते जो, भगवद्गीता की शिक्षा है। संसद के सदस्यों से लेकर सड़क के लोगों तक में यह संदेह है कि मैं सी.आई.ए. ले आया हूँ। उन्होंने इतनी बड़ी भूल की है !" लंदन आने के बाद बाद से प्रभुपाद के भावावेग पहले की अपेक्षा अधिक स्पष्टता से लक्षित होने लगे थे। जहाँ पहले वे अपने भावावेगों को रोक लेते थे, अब वे ऐसा नहीं करते थे, या कर पाते थे। वे प्रायः भाव-विह्वल होकर रोने लगते थे। चूँकि वे कृष्ण के प्रेम से सराबोर थे, इसलिए किसी भी क्षण उनके आँसू बहने लगते थे— चाहे वे कीर्तन सुन रहे हों, अर्चा-विग्रहों को निहार रहे हों अथवा किसी भक्त की सेवा के बारे में सुन रहे हों। आँसू उनकी गालों पर ढुलकने लगते थे जिससे उनका चेहरा और अधिक सुंदर लगने लगता था । कभी-कभी वे गहरी लम्बी निःश्वास लेते थे— “हुम्म !” यह किसी शारीरिक कष्ट के कारण नहीं था, क्योंकि वे कहते थे कि वे बिल्कुल ठीक हैं; यह उनके कृष्ण चेतन भावों का, ईश्वर के लिए प्रेम की भाव-विह्वलता का, उद्गार होता था । कुछ दिन बाद श्रील प्रभुपाद को उनके संयुक्त राज्य में अधिवास के विषय में हुई प्रगति की अच्छी रिपोर्ट मिली। बलवंत वाशिंगटन डी.सी. गया था और वहाँ से फोन किया था कि श्रील प्रभुपाद के समाप्त हुए अधिवास पत्र के नवीनीकरण में कोई कठिनाई नहीं होगी। सभी अधिकारी, जिनसे बलवंत ने सम्पर्क किया था, अनुकूल थे और श्रील प्रभुपाद को वापस लौटने का आमंत्रण दे रहे थे। तमाल कृष्ण ने यह समाचार उस समय दिया जब श्रील प्रभुपाद चटाई पर बैठे थे और उनके दुर्बल शरीर की मालिश उपेन्द्र कर रहा था। प्रभुपाद की आँखों में तुरन्त आसूँ आ गए और रुँधे हुए स्वर में उन्होंने कहा, "अमेरिका की मुझ पर कितनी कृपा रही है, उसने मुझे धन, आदमी, सब कुछ दिया है, किन्तु मुझे यह पद नहीं प्राप्त है कि मैं कहूँ 'यह मेरा देश है,' किन्तु चूँकि उन्होंने मुझे इतनी सारी सुविधाएँ दी हैं, इसलिए उनका आभार मैं भूल नहीं सकता। मैं उन्हें सुखी बनाना चाहता हूँ, और उनके माध्यम से पूरे संसार को ।" श्रील प्रभुपाद जन्माष्टमी के कुछ समय बाद अमेरिका जाने की सोचने लगे । जन्माष्टमी ६ सितम्बर को पड़ रही थी, उनके इंगलैंड पहुँचने की तिथि से दो सप्ताह बाद। उन्होंने कहा, "मैं कुछ समय और जीना चाहता हूँ जिससे हर चीज को कुछ और ठीक कर सकूँ।" तमाल कृष्ण ने पूछा, "क्या आप यह काम अपने शिष्यों के साथ रह कर उन्हें प्रोत्साहित करके करेंगे या आप के पास कोई विशेष कार्यक्रम है ?" श्रील प्रभुपाद ने कहा, “मेरे पास विशेष कार्य-योजना है। मैं वर्णाश्रम आरंभ करना चाहता हूँ। हमारे पेन्सिलवानिया फार्म पर जीवन की सबसे बड़ी समस्या, खाद्य, का समाधान मिल गया है।" पूर्वी योरोप से प्राप्त घनश्याम के पत्रों से श्रील प्रभुपाद को बार-बार प्रसन्नता मिल चुकी थी। अतः जब घनश्याम इंगलैंड आया तो तमाल कृष्ण उसे श्रील प्रभुपाद के सामने ले गए। उसे निकट बुलाकर प्रभुपाद ने उसका सिर सहलाया । उन्होंने कहा, “परम्परा-पद्धति यही है। मेरे गुरु महाराज ने मुझे आगे बढ़ाया था, मैं तुम्हें आगे बढ़ा रहा हूँ और तुम अन्यों को आगे बढ़ा रहे हो, यह रेलगाड़ी की तरह है।” अगले दिन तमाल कृष्ण के अनुरोध पर घनश्याम प्रभुपाद के सामने आया और उसने अपनी सबसे ताजा रिपोर्ट, जो काफी लम्बी थी, पढ़ कर उन्हें सुनाई। उसने अपने प्रचार कार्य में आई बाधाओं का वर्णन किया और यह भी कि वह उन पर कैसे काबू पा रहा था । किन्तु प्रभुपाद का मनोभाव बदल गया था और उन्होंने अपने शिष्य को याद दिलाया कि इसका श्रेय कृष्ण को है । जब उत्तरी और पूर्वी योरोप के जी.बी.सी सचिव हरिकेश स्वामी पहुँचे तो वे प्रभुपाद के कमरे में प्रविष्ट हुए और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। श्रील प्रभुपाद के नेत्रों से आँसू झरने लगे; उन्होंने अपने शिष्य के सिर पर हाथ रख कर उसे सहलाया, और हरिकेश भी रोने लगे। हरिकेश ने बताया कि वे योरोपीय भाषाओं में श्रील प्रभुपाद की पुस्तकें निकालने के लिए अपना प्रेस लगा रहे थे। प्रभुपाद ने कहा, “बहुत अच्छा । जैसे एक पिता चाहता है कि उसकी जायदाद का प्रबन्ध अच्छी तरह हो, मैं भी उसी तरह हूँ। स्थान प्राप्त करो और पुस्तकें छापो । हरिकेश महाराज अपने साथ जर्मनी के अधिकांश पुस्तक-वितरकों को लाए थे, और उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि वे सब श्रील प्रभुपाद से अकेले मिलें । वे सब जिन में से बहुत सारे प्रभुपाद से कभी नहीं मिले थे, प्रभुपाद के कमरे में इकट्ठे हुए और उस क्षण की सराहना से विह्वल होकर वहाँ बैठ गए। श्रील प्रभुपाद ने सुनाया, यारे देख तारे कह कृष्ण उपदेश और तब पूछा, "तो यह कृष्ण उपदेश क्या है ?” पहले किसी ने उत्तर नहीं दिया, तब बालकों में से एक बोला, “हमें सर्वत्र प्रचार करना चाहिए।" श्रील प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, कृष्ण-उपदेश क्या है ?” तब फिर वहाँ शान्ति छा गई। इस बार एक दूसरे बालक ने सुनाया, “सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज * श्रील प्रभुपाद ने इसे स्वीकार कर लिया और कुछ समय तक वे कृष्णार्पण के विषय में बोलते रहे। इसे अनुकूल समय समझ कर तमाल कृष्ण ने रंगीन चित्रों का एक पुलिंदा निकाला जो लास एंजिलिस से ठीक उसी समय पहुँचा था । यह लास एंजिलिस में हाल में हुई रथ-यात्रा का संपूर्ण चित्र - मय विवरण था। दस इंच लम्बे, आठ इंच चौड़े आकार वाले सभी चित्र चमकीले रंगों वाले थे और जब प्रभुपाद एक-एक करके उन्हें देखने लगे और सचिव का विवरण अपने सचिव से सुनने लगे तो वे लम्बी, धीमी 'हुम्म' की नि:श्वास छोड़ने लगे और उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे । इसके पहले, जब उस दिन सवेरे प्रभुपाद सोकर उठे थे तो उठने के साथ वे उस रथ यात्रा की बात करने लगे थे जो एक बालक के रूप में वे कलकत्ता में निकाला करते थे; और अब वे अपने शिष्यों द्वारा आयोजित एक विशाल रथ-यात्रा और उत्सव के चित्र देख रहे थे। भारी जन-समूह से घिरे रथ के चित्र को देख कर श्रील प्रभुपाद ने अपनी भौंहें ऊपर कीं और कहा, "हमने ऐसे रथ कभी नहीं देखे हैं।" एक अन्य चित्र में लोगों की लम्बी पंक्तियाँ दिखाई गई थीं जो 'शरीर परिवर्तन' प्रदर्शनी देखने की प्रतीक्षा में थी— चित्र में आत्मा का देहान्तरण दिखाया गया था। प्रभुपाद ने उद्घोषित किया, “मैं आप से कह चुका हूँ कि यह होगा। मुझे यह देख कर अत्यन्त प्रसन्नता है । " * सभी तरह के धर्मों का परित्याग करके मेरी शरण (कृष्ण) में आओ, सभी पापों से उद्धार करूँगा। डरो मत। (भगवद्गीता १८.६६) और मैं तुम्हारा श्रील प्रभुपाद रथ-यात्रा को देख कर इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी नित्य की मालिश नहीं कराई। उन्होंने रुँधे स्वर में कहा, "अभी नहीं", और चिन्तन में डूबे वे दो घंटे बैठे रहे । जन्माष्टमी के दिन श्रील प्रभुपाद एक किराए की रोल्स रायस गाड़ी में बैठ कर पुराने लंदन के बरी प्लेस मंदिर में भगवान् श्री श्री राधा- लंदन - ईश्वर के दर्शनों को गए। एक पालकी में इमारत में प्रवेश करके प्रभुपाद राधा- लंदन - ईश्वर के सामने पहुँचे और उन्होंने धीरे-धीरे अपना धूप का चश्मा हटा दिया। उनके नेत्रों में आँसुओं की बाढ़ आ रही थी, जबकि उनकी चारों ओर भक्त उनके तथा राधा-कृष्ण के नामों का कीर्तन कर रहे थे। मेनर वापस लौटते समय तमाल कृष्ण ने श्रील प्रभुपाद को वे बहुत-सी लीलाएँ सुनाईं जो लंदन में प्रचार के दिनों में प्रभुपाद किया करते थे। अगले दिन प्रभुपाद के बयासीवें जन्मदिन के उपलक्ष में व्यास-पूजा थी । उस दिन सोकर उठने के बाद, उन्होंने फिर अपने बचपन के दिनों को याद किया कि किस तरह उनके एक चाचा ने उनका नाम नन्दूलाल रखा था, क्योंकि वे उस दिन पैदा हुए थे जिस दिन नन्द महाराज ने, कृष्ण के जन्म के दूसरे दिन, ब्राह्मणों को उपहार दिए थे। श्रील प्रभुपाद मंदिर में गए और सैंकड़ों भक्तों द्वारा आनंदपूर्ण कीर्तन के बाद उन्होंने भक्तों से तीन मंजिला पाँच फुट केक, जन्मदिन का केक, बिना उसे चखे हुए, स्वीकार किया। उन्होंने देखा कि पाश्चात्य ढंग की गणना के कारण भक्तों ने केवल इक्यासी मोमबत्तियाँ जलाई थी, इसलिए एक मोमबत्ती और जोड़ी गई। श्रील प्रभुपाद के अनुरोध पर तमाल कृष्ण खड़े हुए और बोले । अगले दिन श्रील प्रभुपाद का स्वास्थ्य बहुत अधिक खराब हो गया और वे मंदिर नहीं आ सके। इंगलैंड आने के बाद यह उनके स्वास्थ्य में पहली संकट की घड़ी थी और अचानक उनका कार्यक्रम बदल गया। अमेरिका जाने की बजाय, जैसी कि उनकी योजना थी, उन्होंने प्रार्थना की कि उन्हें भारत वापस ले जाया जाय। वे बम्बई के बारे में बात करने लगे। उन्होंने कहा, “यदि मैं कुछ दिन और जीवित रहूँ, तो मुझे बम्बई मंदिर का उद्घाटन देख लेने दीजिए। हम यहाँ प्रतीक्षा कर सकते हैं, फिर बम्बई की उड़ान ले सकते हैं। मैने मंदिर के लिए कितना कड़ा परिश्रम किया है। यदि मैं उसका उद्घाटन देख लूँ और तब मरूँ तो यह मृत्यु बहुत शान्तिपूर्ण होगी। यदि मैं जीवित रहा तो यहाँ फिर वापस आ सकता हूँ।” वे स्वास्थ्य में संकट की घड़ी निकल गई, किन्तु प्रभुपाद को लगा कि अब न्यू यार्क नहीं जा सकेंगे। उन्होंने विभिन्न ज्योतिषीय आकलनों को जानना चाहा। उन्होंने कहा, “मुझे थोड़ा हँस लेने दीजिए।” आकलनों के अनुसार वे दिन बहुत कठिन दिन थे । प्रभुपाद के अमेरिका न जाने से अनेक भक्तों की इस आशा पर पानी फिर गया कि वहाँ जाकर वे अच्छे हो जायँगे और लम्बे समय तक जीवित रहेंगे। किन्तु प्रभुपाद को लगा कि वे जितनी यात्रा कर सकते थे, उतनी कर ली है और अब उन्हें बम्बई और वृंदावन लौट जाना चाहिए। कृष्ण से और स्पष्ट संकेत पाने की प्रतीक्षा में वे कुछ दिन और रुके रहे। और वे सवेरे मंदिर में फिर जाने लगे। ब्रह्मानंद स्वामी अफ्रीका से आए थे और जब स्थूल-काय ब्रह्मानंद, जो ग्यारह वर्ष पूर्व न्यू यार्क में प्रभुपाद के सर्वप्रथम शिष्य के तौर पर उन के लिए नाच चुके थे, उठे और अपने आध्यात्मिक गुरु के सामने फिर नाचने लगे, तो श्रील प्रभुपाद प्रसन्नतापूर्वक उनका नाच देखने लगे। जब ब्रह्मानंद भावविभोर होकर ऊपर-नीचे कूद कर नृत्य करने लगे तो प्रभुपाद मुसकराने लगे और तालियाँ बजाने लगे। बाद में तमाल कृष्ण ने श्रील प्रभुपाद से पूछा कि उन्होंने उस दिन प्रात: क्या प्रार्थना की थी क्योंकि अर्चा-विग्रहों पर दृष्टि गड़ाए वे देर तक बैठे रहे थे। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "मैं राधा-गोकुलानंद से प्रार्थना कर रहा था कि कृपापूर्वक मुझे श्री श्री राधा - रासबिहारी की सेवा में लगा दें। " श्रील प्रभुपाद भारत लौटना चाहते थे और उनकी इच्छा उनके सेवकों के लिए आदेश थी। उन्होंने कहा, "यदि इस बार मैं बच गया तो हम वृन्दावन की परिक्रमा करेंगे। तुम लोग मुझे एक पालकी में ले जा सकते हो।' हवाई अड्डे पर विलम्ब पर विलम्ब होता रहा । प्रतीक्षा काल में तमाल कृष्ण ने श्रील प्रभुपाद को इयर-फोन (श्रवण-यंत्र) लगा दिया जिससे वे टेप किया हुआ कीर्तन सुन सकें। प्रभुपाद धीरे-धीरे अपना सिर हिलाते रहे और सुनते रहे। अन्ततः एक व्हील चेयर में बैठा कर उन्हें हवाई जहाज में चढ़ने की अनुमति मिल गई। सितम्बर १४ श्रील प्रभुपाद, बिना किसी विघ्न-बाधा के, अपने दल के साथ बम्बई पहुँचे जहाँ वायुयान से उन्हें तत्परतापूर्वक एक प्रतीक्षारत कार में बैठाया गया और हरे कृष्ण लैंड, जुहू पहुँचाया गया। इस बार लिफ्ट ने काम किया, और श्रील प्रभुपाद पाँचवी मंजिल पर अपने कमरे में पहुँच गए और तुरन्त विश्राम करने लगे । उन्होंने गिरिराज को बुलाया, जो आया और उनके पलंग की बगल में फर्श पर बैठ गया। प्रभुपाद ने उसे बताया कि किस प्रकार वृंदावन में मि. सोमैया, जो बम्बई के एक बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति थे और दोनों से परिचित थे, उन्हें देखने आए थे और सहानुभूति में रोने लगे थे। तब प्रभुपाद ने गिरिराज को लंदन में अपने सुखद अधिवास के बारे में बताया, विशेष रूप से उन्होंने कीर्तनों का उल्लेख किया जो बड़े ही विस्मयकारी थे। जब गिरिराज ने पूछा कि बम्बई मंदिर के निर्माण में होने वाले हथौड़ों और बसूलों के शोर-गुल से क्या उन्हें बाधा होती है तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि यह शोर-गुल संगीत के समान है। तब वे लेट गए और आराम करने लगे । जब दिन के अंत में प्रभुपाद जगे तो तमाल कृष्ण ने पूछा कि क्या शोर-गुल के कारण उन्हें परेशानी हुई। उन्होंने उत्तर दिया, "ऐसे शोर-गुल से मुझे बिल्कुल परेशानी नहीं होती, क्योंकि मैं सोचता हूँ कि कार्य पूरा हो रहा है। आप अंतर देख सकते हैं कि मैं लंदन में किस तरह बेचैन था, यहाँ वह बात नहीं है, यह इसलिए है कि मैं बम्बई पसंद करता हूँ। भारत के सभी नगरों में मैं इसे सबसे अधिक चाहता हूँ।" प्रभुपाद अपने बम्बई के कुछ संन्यासी- शिष्यों से रिपोर्ट सुनना चाहते थे। उन्होंने गर्गमुनि स्वामी से यह अच्छा समाचार सुना कि उनके दल ने श्रीमद्भागवत और श्रीचैतन्य - चरितामृत के पूरे सेट तथा अन्य पुस्तकें भी सारे भारत में पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों को बेच दी थीं। अब वे पुस्तकें बेचने के लिए मुस्लिम देशों में जाने की तैयारी कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने कहा, "जो कोई मुस्लिम देशों में प्रचार करता है उसके चरणों की धूलि मैं अपने माथे पर लगाता हूँ। लोकनाथ स्वामी ने श्रील प्रभुपाद को भारत के गाँवों में बैलगाड़ी द्वारा यात्रा करने की अपनी सफलता के बारे में बताया। श्रील प्रभुपाद को यह बहुत प्रिय लगा । भारत लौटने के कुछ दिन के अंदर प्रभुपाद ने उस सरल पथ्यापथ्य के सारे नियमों का परित्याग कर दिया जिसे लंदन में डाक्टर के कहने पर उन्होंने स्वीकार किया था। डाक्टर ने कहा था कि प्रभुपाद बहुत कठिन तरह के मरीज थे। तमाल कृष्ण ने बताया कि जब उन्होंने डाक्टर से कहा था कि श्रील प्रभुपाद सहयोग करने का प्रयत्न कर रहे हैं तो डाक्टर ने कहा था कि श्रील प्रभुपाद ने केवल इतना सहयोग किया था कि वे बृहस्पति की बजाय यात्रा के लिए शुक्रवार तक प्रतीक्षा करने को राजी हो गए थे। श्रील प्रभुपाद थोड़ा हँसे और बोले, "और तब मैं उससे भी पहले चल पड़ा— मंगलवार को । यह तो सबसे बड़ा सहयोग हुआ। जब उसने खून माँगा तभी मैं समझ गया कि वह एलोपैथी का उपचार आरंभ करने वाला है।' कई सप्ताहों से श्रील प्रभुपाद व्यावसायिक स्तर पर तैयार किया गया एक पूरक खाद्य, कम्प्लान, ले रहे थे। किन्तु अब उन्होंने उसे लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, "कृत्रिम खाद्य से क्या लाभ जब प्राकृतिक भोजन मिल रहा हो ? तुम पाश्चात्य लोग, डिब्बाबंद, हिमीकृत, परिरक्षित, सड़े हुए भोजन का स्वाद पसंद करते हो। तुम खाते हो और अवशिष्ट भोजन को सात महीने तक रखते हो, और इसे पसंद करते हो। तुम ठंडा दूध पीना पसंद करते हो । यह कम्प्लान ताजा नहीं है। मैं दूध और फलों के रस पर रहने का प्रयास करूँगा । कृत्रिम कुछ भी नहीं लूँगा । श्रील प्रभुपाद की योजना बम्बई में रहने और मंदिर के शानदार उद्घाटन के लिए इंतजार करने की थी। उद्घाटन पाँच सप्ताह बाद आने वाले राम-विजय दशमी के दिन होना निर्धारित था । किन्तु उन्हें और अधिक शक्ति अर्जित करने की आशा नहीं थी । यद्यपि उन्होंने ताजा भोजन लेने की बात कही थी, किन्तु वास्तव में वे थोड़ा फलों का रस और मूंग दाल के पानी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं ले रहे थे । श्रील प्रभुपाद जप-माला पर निरन्तर कीर्तन करने लगे, वे जप-माला आग्रहपूर्वक हर समय गले में पहने रहते। मालिश के समय वे मनकों पर उंगलियाँ फेरते रहते और मौन जप करते रहते और सोते समय भी माला उनके गले में पड़ी रहती । जब तमाल कृष्ण ने श्रील प्रभुपाद से पूछा कि उन्हें कैसा लग रहा है तो वे उत्तर में केवल कहते, “कठिन समय है।” कुछ दिन बाद उन्होंने बम्बई के एक डाक्टर का नाम लिया और कहा कि उसे बुलाया जाय। किन्तु तमाल ने दलील दी कि इस समय किसी अन्य डाक्टर को बुलाना अच्छा नहीं कृष्ण होगा। श्रील प्रभुपाद ने दलील सुनी और वे राजी हो गए। तमाल कृष्ण ने कहा कि उन्हें विश्वास है कि प्रभुपाद बम्बई के मंदिर का उद्घाटन देखने के लिए जीवित रहेंगे और बाद में वे वृंदावन जा सकेंगे। श्रील प्रभुपाद को इन शब्दों से राहत मिली और उन्होंने स्नेहपूर्वक तमाल कृष्ण का सिर सहलाया और कहा, "आप के शब्द फलीभूत हों। मुझे शुभाशीष दें कि मैं अपना मन स्थिर कर सकूँ।' तमाल कृष्ण को प्रसन्नता हुई कि उनके शब्दों से प्रभुपाद को कुछ प्रोत्साहन मिला था, यद्यपि उन्हें लगा कि उनकी स्थिति ऐसी नहीं है कि वे अपने उच्चस्थ आध्यात्मिक गुरु को शुभाशीष दे सकें। किन्तु इस तरह का आदान-प्रदान कई सप्ताहों से चल रहा था जिसमें तमाल कृष्ण तथा अन्य कभी-कभी प्रभुपाद के सलाहकारों की भूमिका सम्पन्न करते थे। ऐसे आदान-प्रदान से शिष्यों को संकोच होने लगता था, किन्तु श्रील प्रभुपाद ऐसे सम्बन्ध को बढ़ावा देते थे और शिष्य उसे गुरु की अत्यन्त निकटतम सेवा के रूप में स्वीकार कर लेते थे। प्रभुपाद ने खुल्लमखुल्ला कहा था, "मुझे प्रोत्साहित करो।" और उन्होंने अपने को कई तरीकों से अपने शिष्यों की देखभाल और बुद्धिमत्ता पर छोड़ दिया था। कभी-कभी वे एक छोटे बच्चे की तरह हो जाते थे और अपने को शिष्यों पर छोड़ देते थे कि वे उन्हें उठाएँ और ले जाएँ। किन्तु उनके शिष्यों को मालूम था — यदि उन्हें मालूम नहीं था तो वे मालूम कराते रहते थे— कि वे जान-बूझकर ऐसा कर रहे थे ताकि उनके शिष्य उनकी व्यक्तिगत निजी सेवा कर सकें—क्योंकि कृष्ण के शुद्ध भक्त की सच्ची सेवा से ही कोई कृष्ण का प्रेम प्राप्त कर सकता है। यह निजी सेवा नितान्त आध्यात्मिक थी और जो डाक्टर आते थे और निदान करके ओषधि देकर चले जाते थे उनके लिए यह अबोधगम्य थी । श्रील प्रभुपाद अपने अंतिम दिन तक अपने शिष्यों को पढ़ाते रहे और उन्हें सिखाते रहे कि उन्हें अपनी अनिवार्य मृत्यु के लिए अपने को कैसे तैयार करना चाहिए। और प्रेमाभक्ति के उच्चतर स्तर पर वे उन्हें यह भी सिखा रहे थे और उनकी परीक्षा ले रहे थे कि वे सेवा के लिए इच्छुक हैं अथवा नहीं, केवल औपचारिक भक्त के रूप में ही नहीं, वरन् स्वयंस्फूर्त प्रेम के वशीभूत होकर ऐसे प्रेम के जो विधि-विधानों के परे होता है। उदाहरण के लिए, उनके इस प्रेम की परीक्षा भक्तों की इस तत्परता से होती थी कि वे स्वेच्छापूर्वक रात-भर जाग कर प्रभुपाद की सेवा में लगे रहते थे और उनकी आधारभूत शारीरिक क्रियाओं को पूरा करने में भी उनकी मदद करते थे। और उनके प्रेम की परीक्षा तब भी होती थी जब प्रभुपाद उन्हें इस बात का निर्णय करने का भी जिम्मा सौंपते थे कि वे जीवित रहने के लिए संघर्ष करते जायँ या शान्तिपूर्वक मृत्यु स्वीकार कर लें। ऐसी ही गहरी आत्मीयता के आधार पर, उदाहरण के तौर पर, तमाल कृष्ण यह न जानते हुए भी कि सर्वोत्तम क्या होगा, प्रभुपाद की एक विशेष डाक्टर बुलाने की इच्छा के विरुद्ध दलील दे रहे थे। वे श्रील प्रभुपाद के कल्याण में सर्वतोभावेन आलिप्त थे और हर क्षण उनके बारे में सोचा करते थे और जो कुछ अपेक्षित था, उसे करने को तैयार थे। अन्ततः प्रभुपाद ने, अधिकारी और अपने शिष्यों का स्वामी होने की स्थिति में, कोई बदलाव नहीं आने दिया था, और उनके भक्त इसे जानते थे। उनके शिष्य उनकी इच्छा के विरुद्ध सुझाव दे सकते थे, क्योंकि प्रभुपाद सामान्य शिष्टाचार के व्यवधानों के उल्लंघन के लिए उन्हें प्रेरणा देते थे ताकि वे जी भर कर प्रेमपूर्वक उनकी सेवा कर सकें। वे उन्हें अपने को डाँटने की भी अनुमति देते थे । किन्तु जब उनकी इच्छा होती थी तब अंतिम निर्णय वे ही करते थे, और अपने शिष्यों के लिए एक बार फिर परम अधिकारी के रूप में प्रकट होते थे। उनके शिष्य केवल उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए जीते और कार्य करते थे। श्रील प्रभुपाद कहते थे कि उनके शिष्यों का संकल्प, और पूर्ण समर्पण तथा उनकी इच्छा और प्रार्थना कि प्रभुपाद उनके साथ रहें और अपने जीवन के लिए संघर्ष करते रहें—इन्हीं कारणों से वे अब भी संसार में जीवित रहे जा रहे थे। निश्चय ही, श्रील प्रभुपाद कम्प्लान खाने या सामान्य औषधिक मालिश के प्रभाव से संसार में जीवित नहीं थे। वास्तव में वे इतने दुर्बल हो गए थे कि मालिश अब मालिश नहीं रह गई थी, वह आरामदेह सहलाने में बदल गई थी, जो केवल श्रद्धालु, समर्पित सेवक ही दे सकते थे। जब एक दिन तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद से पूछा कि क्या वे ऐसा अनुभव करते हैं कि वे मंदिर के उद्घाटन तक पाँच सप्ताह के लिए जीवित रहेंगे तो उन्होंने उत्तर दिया, “यदि तुम लोग मुझे प्रोत्साहन देते रहो।' श्रील प्रभुपाद की अवस्था जैसी भी हो, वे, कृष्णभावनामृत के प्रचार में आक्रामकता, दूसरों का ध्यान रखना, परिहास-प्रियता, और कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव की अपनी विशेषताएँ, सदैव बनाए रखते थे। जब अभिराम इंगलैंड से लौट कर उनके साथ हो लिया और उसने घोषणा की कि श्रील प्रभुपाद का बम्बई का आवास स्वर्ग के राजा, इन्द्र, के उपयुक्त था तो श्रील प्रभुपाद बहुत देर तक मुसकराते रहे। जब तमाल कृष्ण कुछ घंटे की अनुपस्थिति के बाद प्रभुपाद के पास लौटे और उन्होंने बताया, "मैं विश्राम कर रहा था, क्योंकि यात्रा से मैं थक गया था" तो श्रील प्रभुपाद ने उन्हें चिढ़ाते हुए उत्तर दिया, “आप वायुयान में बराबर विश्राम कर रहे थे। आप को सोना पसंद है, विशेषकर किसी कार में।" जब तमाल कृष्ण ने श्रील प्रभुपाद से पूछा कि क्या वे किसी महत्वपूर्ण अतिथि से मिलना चाहेंगे तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि वे केवल मि. भोगीलाल पटेल और मि. महदेविया से मिलेंगे, यदि वे आएँ। कुछ मिनट बाद मि. महदेविया आ गए, मानो वे बुलाए गए हों, और उन्हें प्रभुपाद के सामने ले जाया गया । श्रील प्रभुपाद की दशा देख कर मि. महदेविया को जो सामान्यतया बहुत बातूनी थे, इतना आघात पहुँचा कि वे हमेशा की तरह स्वतंत्रतापूर्वक बात नहीं कर सके किन्तु प्रभुपाद के अनुरोध पर उन्होंने वर्तमान भारतीय राजनीतिक वातावरण का वर्णन किया । प्रभुपाद ने अपने को उठा कर बैठाने को कहा और मि. महदेविया के वर्णन में उन्होंने असामान्य अभिरुचि प्रदर्शित की। वे बोले, "ये लोग सत्य को भूल रहे हैं। समग्र संसार यही कर रहा है। यह सब इस शरीर का रोग है। कोई एक अन्य से अच्छा नहीं है। चाहे जिसे लें, सभी विष्ठा के समान हैं चाहे इस ओर से देखो, चाहे दूसरी ओर से। वे क्या कर सकते हैं?" यद्यपि प्रभुपाद नीचे मंदिर में जाकर राधा - रासबिहारी का दर्शन करने में असमर्थ थे, किन्तु वे प्रतिदिन उनके चित्र को मँगाते थे और प्रेमपूर्वक उसका अवलोकन करते थे। वे अस्थायी मंदिर में होने वाले आरती-कीर्तन को भी सुनते थे। तब एक दिन उन्होंने कहा कि राधा-रासबिहारी का फ्रेम किया हुआ चित्र उनके पलंग के स्तम्भ पर लगा दिया जाय जिससे वे उन्हें सदैव देखते रह सकें। एक दिन सवेरे उठते ही प्रभुपाद कहने लगे, “हर प्राणी दुख भोग रहा है, ब्रह्मा से लेकर चींटी तक। सुख कहीं नहीं है।" और तब उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए। बाद में वे जगे और कहने लगे, “दैवी हि एषा गुणमयी / मम माया दुरत्यया ।" * * यह अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है— (भगवद्गीता ७.१४) ब्रह्मानंद स्वामी इंगलैंड से पहुँचे और प्रभुपाद ने उनके साथ बातचीत में बताया कि जो कुछ उन्होंने दिया है उसे बनाए रखने के लिए उनके वरिष्ठ शिष्यों को क्या करना होगा। उन्होंने कहा, “आप मेरे लिए अपने जैसे युवा शरीर की आशा नहीं कर सकते। आप मेरे सदैव जीवित रहने की आशा नहीं कर सकते। सब कुछ कृष्ण पर निर्भर करेगा।" ब्रह्मानंद सुख-दुख के मिश्रित भाव के साथ सुनते रहे। उन्होंने कहा कि प्रभुपाद का आवास बहुत सुंदर था, और यह आवास ही नहीं, कृष्णभावनामृत में हर वस्तु प्रभुपाद की प्रसन्नता के लिए ही बनाई गई है। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “मैं इन्हें अपने साथ नहीं ले जा सकता। मैं इन्हें तुम लोगों के उपयोग के लिए छोड़ रहा हूँ।” जयपताक स्वामी मायापुर से आया और उसने प्रभुपाद से एक कानूनी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने को कहा जिसका सम्बन्ध हाल में मायापुर में इस्कान केन्द्र पर हुए आक्रमण से था । तमाल कृष्ण ने कहा कि प्रभुपाद अपनी वसीयत लिख चुके हैं जिसमें कहा गया है कि जो कुछ उनके नाम में है वह सब इस्कान का है; अब प्रबन्धन से उनका कुछ लेना-देना नहीं है। श्रील प्रभुपाद ने यह कहते हुए इसकी पुष्टि की, 'अब मुझे प्रबन्धन के सभी मामलों से बिल्कुल मुक्त रखने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है । " प्रभुपाद पवित्र नाम और श्रीमद्भागवत को सुनने में डूबे रहना चाहते थे। वे अपने बिस्तर पर बैठ कर, पढ़ने का चश्मा लगाए, राधा - रासबिहारी का चित्र देखते रहना चाहते थे, जबकि एक भक्त श्रीमद्भागवत का पाठ उन्हें सुनाता रहे। वे घंटों इस तरह कृष्ण के चिन्तन और श्रवण में लगा देते थे। उन्हें इसी ओषधि की इच्छा थी। जो उन्हें इस दशा में देखते वे समझ सकते थे कि वे अपनी देह के विचारों से पूर्णतः परे थे और श्रीमद्भागवत का पाठ बड़े आनन्द से सुनते थे। जब तमाल कृष्ण ने सुझाव दिया कि यह पाठ प्रतिदिन होना चाहिए तो श्रील प्रभुपाद ने कहा, "यह सब से महत्त्वपूर्ण चीज है, जितना अधिक हो सके, पाठ करो।' एक दिन शाम को तमाल कृष्ण और ब्रह्मानंद ने वह इतिहास दुहराया कि प्रभुपाद ने बम्बई की जमीन कैसे खरीदी थी। प्रभुपाद लेटे रहे और वर्णन का प्रत्येक शब्द ध्यानपूर्वक सुनते रहे कि किस तरह अनेक बाधाओं पर उनके धैर्य की विजय हुई थी। एक स्थान पर प्रभुपाद ने हस्तक्षेप किया, "वह कुत्ता !” भक्त रुक गए; उनकी समझ में नहीं आया कि प्रभुपाद का तात्पर्य किससे है। वे भूमि के स्वामी का निर्देश कर रहे हैं या किसी राजनेता का ? किन्तु तब उन्होंने बात को स्पष्ट कर दिया। उन्होंने कहा कि जब वे मि. सेठी के साथ उनके घर पर ठहरे थे तो प्रत्येक दिन सवेरे वे उनकी गाड़ी में बैठ कर सागर तट पर भ्रमण के लिए जाते थे और उन्हें मि. सेठी के भारी-भरकम जर्मन शैपर्ड कुत्ते की बगल में बैठना पड़ता था । श्रील प्रभुपाद बोलते रहे और जब इस तरह बोल रहे थे तो तमाल कृष्ण और ब्रह्मांनद दोनों अनुभव कर रहे थे कि प्रभुपाद अब भी युद्ध का संचालन कर रहे थे। वे राधा-रासबिहारी का प्रचार करने के निमित्त शक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे यदि उन अर्चाविग्रहों की इच्छा हो, तो वर्णन के अंत में तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को साष्टांग प्रणाम किया और कहा, "कृष्ण के महान् सैनिक की जय हो !" श्रील प्रभुपाद की योजना बम्बई मंदिर के उद्घाटन तक वहाँ रुकने की और तत्पश्चात् वृंदावन की परिक्रमा पर जाने की थी, किन्तु अब वे वृन्दावन पहले ही जाने की सोचने लगे। उन्होंने कहा कि जी.बी.सी. के लोग और जो अन्य बम्बई में मौजूद थे वे उनके सामने इकट्ठे हों और निर्णय करें । तमाल कृष्ण, ब्रह्मानंद, सुरभि, गोपाल कृष्ण, हरिशौरी, गिरिराज, उपेन्द्र, अभिराम और कुलाद्रि – सभी प्रभुपाद के कमरे में प्रविष्ट हुए और उनकी चारों ओर बैठ गए। तमाल कृष्ण ने वृन्दावन जाने के पक्ष में कई टिप्पणियां करते हुए बात आरंभ की। उन्होंने प्रभुपाद को लक्ष्य करते हुए टिप्पणी की टिप्पणी की कि यदि अपनी वर्तमान दशा में प्रभुपाद बम्बई में रुके भी रहे तो वे किसी कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं हो सकेंगे। यह बात भी थी कि प्रभुपाद अपने शक्तिशाली भाषण और प्रचार के लिए विख्यात थे और जनता का उन्हें इस दशा में देखना उपयुक्त नहीं होगा। तमाल कृष्ण ने यह भी संकेत किया कि मन्दिर के उद्घाटन के बाद प्रभुपाद बम्बई आ सकते थे। प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण की इन बातों को सुना और उन पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की । ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा कि श्रील प्रभुपाद को निस्संदेह वृंदावन जाना चाहिए । उसके बाद हरिशौरी बोला और उसने कहा कि कोई निर्णय लेना कठिन है, किन्तु यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनके स्वास्थ्य को दृष्टि में रखते हुए, प्रभुपाद की बम्बई में रुकने की इच्छा कितनी प्रबल है। प्रभुपाद । ने उत्तर दिया, “स्वास्थ्य सर्व प्रधान है," तब हरिशौरी ने तत्काल कहा कि वह प्रभुपाद के वृंदावन जाने के पक्ष में है । किन्तु गोपाल कृष्ण ने कहा कि उसके विचार से मंदिर के उद्घाटन तक प्रभुपाद बम्बई में रहें तो अच्छा रहेगा। वे बम्बई का त्याग कैसे कर सकते हैं, जब इतनी सारी व्यवस्था की जा चुकी है और इतने सारे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति आमंत्रित किए जा चुके हैं ? सुरभि का मत भी प्रभुपाद के बम्बई में रुकने के पक्ष में था, क्योंकि वह चाहता था कि प्रभुपाद मंदिर का उद्घाटन देखें। उसने कहा कि यदि प्रभुपाद वृन्दावन गए तो संभवतः वे वापस नहीं आएंगे। उसके बाद गिरिराज बोला। उसने कहा कि प्रभुपाद के लिए बम्बई का प्रत्येक दिन बहुत कठिन है और हर आने वाला दिन पहले से कठिन होता जायगा । निर्माण कार्य से होने वाला शोर-गुल स्थायी था । इसलिए गिरिराज का निष्कर्ष था कि तीन सप्ताह तक प्रतीक्षा करना बहुत खतरे से भरा था। जब गिरिराज बोल रहा था तो प्रभुपाद ने उसके समर्थन में अपना सिर हिलाया । किन्तु अधिकांश । समय प्रभुपाद तटस्थ बने रहे; वे कभी-कभी प्रश्न पूछ लेते, किन्तु अधिकांश में लोगों की बातें सुनने में लगे रहे। भक्तों के लिए वह समय अत्यन्त गंभीर और महत्वपूर्ण था । उस के बाद अभिराम वृंदावन जाने का पक्ष लेते हुए बोला । उपेन्द्र ने कहा कि वह नहीं जानता कि क्या करना चाहिए। यदि प्रभुपाद का उद्देश्य लोगों की राय जानना था तो बहुमत बम्बई छोड़ने के पक्ष में गया था। जब वे बात कर रहे थे उस समय भी हथौड़ों और छेनी की ठोंक-पीट लगातार चल रही थी, यहाँ तक कि उसमें प्रभुपाद की आवाज भी डूबी जा रही थी। प्रभुपाद उपचार के सर्वोत्तम ढंग पर भी विचार-विमर्श चाहते थे। उनके मित्र डा. घोष का पत्र हाल में ही मिला था और प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण से उसे पढ़ने को कहा। तब तमाल कृष्ण ने डा. घोष का पत्र ऊँचे स्वर में पढ़ा जिसमें उन्होंने परामर्श दिया था कि प्रभुपाद को अपने स्वास्थ्य के पूर्ण परीक्षण और उपचार के लिए किसी अच्छे अस्पताल में दाखिल हो जाना चाहिए । एक निष्पक्ष न्यायाधीश के-से मनोभाव के साथ विचार-विमर्श का आह्वान करते हुए प्रभुपाद ने कहा, "इस प्रस्ताव में गलत क्या है ?" तमाल कृष्ण ने कहा कि डाक्टर संभवतः अन्त: शिरा (intra-venous) भोजन देने का निर्णय करेंगे। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "कृत्रिम रूप से भोजन देने का क्या लाभ, जबकि कुछ पचता नहीं ?” अस्पताल के पक्ष में तर्क देते हुए तमाल कृष्ण ने तब कहा कि यद्यपि आयुर्वेदिक दवाएँ सब तरह से ठीक होती हैं, किन्तु इसके डाक्टर अब उसका विज्ञान भूल गए हैं और "नीमहकीम' बन गए हैं जबकि एलोपैथिक दवाएँ, यद्यपि ठीक नहीं होतीं, किन्तु उस पद्धति में अनेक विशेषज्ञ डाक्टर मिलते हैं। प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण की बात को स्वीकार किया उपेन्द्र बोला, "प्रभुपाद, डाक्टर को आप के आवास पर बुलाया जाना चाहिए, आप अस्पताल कभी न जायँ ।” अभिराम का मत, प्रभुपाद के अस्पताल न जाने के पक्ष में, और भी जोरदार था । वे जान चुके थे कि प्रभुपाद अस्पताल न जाने के पक्ष में थे, वास्तव में वे वृंदावन जाने का निर्णय कर चुके थे। उन्होंने इसे इस तरह लिया कि प्रभुपाद शिष्यों के प्रति अपनी कृपालुता और दया के वशीभूत होकर उन्हें निर्णय करने का अवसर दे रहे थे। कम-से-कम प्रत्यक्ष रूप में वे अपने को उनके निर्णयों के अधीन कर रहे थे। किन्तु उनमें कुछ को यह सोच कर उद्विग्नता और संकोच का अनुभव हो रहा था कि प्रभुपाद के कुशल-क्षेत्र को अपने तर्क-वितर्क का विषय बना रहे थे । से वे अंत में प्रभुपाद ने निष्कर्ष पर पहुंचते हुए कहा, "अस्पताल कोई गारंटी नहीं है, किन्तु वहाँ अधुनातम वैज्ञानिक ज्ञान है। मेरे गुरुभाई तीर्थ महाराज को ये सभी उपचार करने पड़े थे और उन लोगों को इस बात का गर्व था कि उनकी मृत्यु सर्वोत्तम वैज्ञानिक उपचार के साथ हुई। किन्तु जब मेरे गुरु महाराज को इंजेक्शन दिया गया तो यह उन्हें पसंद नहीं आया। उन्होंने आपत्ति की, 'आप इंजेक्शन क्यों दे रहे हैं ? अस्पताल जाने का तात्पर्य है अपने को भौतिकतावादी वैज्ञानिकों की कृपा के हवाले करना। उन्हें जो पसंद आता है, वे करते हैं। वे कोई गारंटी नहीं दे सकते और हमें कोई विश्वास नहीं होता। और वृंदावन जाने से — जो कुछ भी हो—उसे कृष्ण करेंगे। अस्पताल संयोग की तरकीब है। वृन्दावन जाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु अब एक द्विविधा है—मैं न तो मर रहा हूँ, न जी रहा हूँ। " जब तमाल कृष्ण ने पूछा कि क्या वृंदावन का कविराज बम्बई के कविराज से कुछ अच्छा था तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “अच्छा हो या बुरा, एक कविराज का होना आवश्यक है।" तब तमाल कृष्ण ने एक नया तर्क दिया। उन्होंने कहा कि जब तक प्रभुपाद बम्बई में मंदिर के उद्घाटन की प्रतीक्षा में हैं, तब जीवित रहने का उनके पास एक कारण है। यदि वे वृंदावन वापस लौटते हैं तो इसका मतलब यह है कि वे मरने जा रहे हैं। तो इस आधार पर प्रभुपाद को बम्बई में रहना चाहिए क्योंकि इससे उन्हें जीवित रहने की प्रेरणा मिलेगी। प्रभुपाद मुसकराए और बोले, "यह भावुकता है।" अब चूँकि प्रभुपाद आश्वस्त लगते थे, इसलिए कोई विकल्प नहीं रह गया था। भक्तों का उन्हें नियंत्रित करने का प्रश्न ही नहीं था; केवल कृष्ण उन्हें नियंत्रित कर सकते थे। कुछ विकल्प बड़े भयावह थे और प्रभुपाद के सम्बन्ध में मत-संग्रह का विचार निश्चय ही बहुत भयावह था। अब कुछ भक्त आशंकित होकर हँसने लगे, किन्तु प्रभुपाद के अंतिम निर्णय से उन्हें राहत हुई । । श्रील प्रभुपाद बोले, “वृंदावन, चलो वहाँ चलें । " सुरभि ने कहा, “बहुत अच्छा, प्रभुपाद ।” तमाल कृष्ण ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, किन्तु यहाँ के सभी भक्तों का क्या होगा ? वे आप की सेवा इतनी अच्छी तरह करते रहे हैं। आप के यहाँ हुए बिना वे मंदिर का उद्घाटन कैसे करेंगे? मेरा तात्पर्य है कि जब सभी भक्तों को मालूम होगा कि आप वृंदावन जा रहे हैं तो वे सभी आप के साथ जाना चाहेंगे। वे यहाँ रहना नहीं चाहेंगे। तब वे सभी अपना पद त्याग कर आप के साथ वृंदावन जाना चाहेंगे।' “ठीक है, उन्हें चलने दो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है ।" तमाल कृष्ण ने कहा कि यदि एक हजार भक्त प्रभुपाद के साथ रहने को आ जायँ तो सारे संसार में इस्कान का कार्य धीमा पड़ जायगा । प्रभुपाद ने पुन: कहा कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। तमाल कृष्ण ने पूछा कि क्या जी.बी.सी. के सदस्यों का आना अनिवार्य है; प्रभुपाद ने पुष्टि की कि हाँ अनिवार्य है। आगे कोई प्रश्न पूछने को नहीं था और भक्तजन वहाँ से निकल कर श्रील प्रभुपाद के वृंदावन जाने की तात्कालिक तैयारियों में लग गए। कमरे में प्रभुपाद के साथ केवल कुलाद्रि रह गया । प्रभुपाद ने पूछा, " तो कुलाद्रि, तुम क्या सोचते हो ?” कुलाद्रि इस बात से क्षुब्ध था कि कुछ भक्त प्रभुपाद की इच्छा का विरोध करते लग रहे थे और कुछ ने उनके विरुद्ध तर्क भी दिए थे। । उसने कहा, “श्रील प्रभुपाद, मेरी समझ में वास्तव में कुछ नहीं आता । वे इस तरह आपको परामर्श कैसे दे सकते हैं। मैं अपने को एक घुसपैठिया अनुभव करता हूँ। मुझे तो यहाँ होना भी नहीं चाहिए। किन्तु मुझे लगता है कि आप कृष्ण की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वे आप के लिए निर्णय करें कि आप यहाँ रुकें या जायँ । " प्रभुपाद ने पूछा, "क्या ?" कुलाद्रि बोला, "ऐसा लगता है कि आप कृष्ण के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यदि आप कृष्ण के निर्णय की प्रतीक्षा करने जा रहे हैं तो यह वृंदावन में भी हो सकता है।” प्रभुपाद मुसकराए और उन्होंने अपनी आँखें बंद कर ली। उन्होंने कहा, “ठीक है, यह बहुत अच्छा परामर्श है ।" |