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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 54: कृष्ण का महान् सैनिक  » 
 
 
 
 
 
भुपाद ने बम्बई से मथुरा की यात्रा रेलगाड़ी से की। ब्रह्मानंद उन्हें अपनी बाँहों में ट्रेन से प्रतीक्षारत एक कार में ले गए और पन्द्रह से पच्चीस मिनट के अंदर प्रभुपाद वृन्दावन वापस पहुँच गए। कृष्ण-बलराम मंदिर के भक्तजन परेशान थे कि एक मास ही बाहर रहने से प्रभुपाद की दशा इतनी बिगड़ गई थी। उनका कमरा उसी हालत में था जिस रूप में वे उसे छोड़ गए थे, अतिरिक्त इसके कि उसमें एक बड़ा दोहरा-पलंग और जुड़ गया था। वे लेट गए और भक्तों ने पर्दे गिरा कर बत्तियाँ धीमी कर दी। लगभग पाँच मिनट तक वे आँखें बंद किए चुपचाप लेटे रहे।

तमाल कृष्ण ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, अब आप घर आ गए हैं। प्रभुपाद शान्त लेटे रहे, बिना हिले-डुले । फिर धीरे-धीरे अपने हाथों को छाती पर लाकर उन्होंने उन्हें एक दूसरे से जकड़ लिया और कहा, “धन्यवाद।” ऐसा लगा कि उन्हें राहत मिली है।

तमाल कृष्ण ने कहा, "अब आप कृष्ण-बलराम की देखरेख में हैं।'

श्रील प्रभुपाद मुसकराए और थोड़ा सिर हिलाया। उन्होंने कहा, “हाँ, कृष्ण त्वदीयपदपंकजपंजरान्तम् । उनका लक्ष्य राजा कुलशेखर की कृष्ण के प्रति प्रार्थना से था, “हे कृष्ण, मुझे मरने में सहायता कीजिए जिस से मेरा मानस हंस आप के चरण-कमलों के वृन्त से घिरा रहे, अन्यथा अंतिम प्रश्वास के समय मैं आप को कैसे स्मरण करूँगा ?"

यद्यपि श्रील प्रभुपाद की हालत अत्यंत आपदाग्रस्त थी, किन्तु वे, जिस-तिस प्रकार से, कृष्ण के नाम, रूप, लीलाओं या उनकी भक्ति के ध्यान में मग्न थे। प्रभुपाद ने यथापूर्व साढ़े नौ बजे कृष्ण-बलराम के दर्शनों के लिए जाने को कहा। किन्तु उनके सेवकों ने कहा कि आज आप विश्राम करें और कल

से यह कार्यक्रम आरंभ करें। इस पर प्रभुपाद बोले, “जैसी तुम लोगों की इच्छा ।"

तमाल कृष्ण ने

प्रभुपाद से पूछा कि क्या कविराज को बुलाया जाय, क्योंकि " आपने ही कहा था कि घर में "पति" होना चाहिए, वह अच्छा हो या बुरा ।" श्रील प्रभुपाद ने सिर हिलाया और कहा, “अब सारा प्रबन्ध करो और मुझे कृष्ण-बलराम का चिन्तन करने दो।"

तीसरे पहर, चार बजने से कुछ पूर्व, जब भक्तजन श्रीमद्भागवत से सस्वर पाठ कर रहे थे, प्रभुपाद ने पूछा कि क्या मंदिर के घड़ियाल ने चार बजा दिये । १९७५ ई. में मंदिर के उद्घाटन के दिन से, प्रभुपाद का बराबर यह आग्रह रहा था कि मुख्य द्वार पर लगे घड़ियाल को प्रति घंटे बजना चाहिए ताकि लोगों को सूचना मिल जाय कि कितने बजे हैं। बीच में आधे घंटे पर भी उसे एक बार बजना चाहिए। प्रारंभ में मंदिर के अध्यक्ष को कोई पहरेदार नहीं मिला जो रात भर जाग सके और नियमित रूप से घड़ियाल बजा सके। किन्तु श्रील प्रभुपाद ने इतने जोर का आग्रह किया था कि मंदिर के प्रबन्धक को घड़ियाल बजाने की स्थायी व्यवस्था करनी पड़ी। प्रभुपाद के लिए इसका महत्त्व एक अच्छे मान-दण्ड से कहीं अधिक था; यह पूरे मंदिर - प्रबन्धन की प्रभाविता का प्रतीक था। यदि वे इसकी भी व्यवस्था नहीं कर सकते कि घड़ियाल नियमित रूप से बजाया जाय तो अन्य चीजों की व्यवस्था वे किस तरह करेंगे ? इस समय श्रील प्रभुपाद कह रहे थे कि उन्हें लगता है कि उन्होंने घड़ियाल को गलत समय पर बजाते सुना । तमाल कृष्ण ने बताया कि यह अन्य घड़ियाल हो सकता था और भक्तजनों का श्रीमद्भागवत का पाठ चलता रहा। किन्तु प्रभुपाद ने मंदिर की गुम्बद में लगे घड़ियाल के बारे में फिर पूछा। जब हरिशौरी उठा और जाँचने के लिए बाहर जाने को हुआ तभी घड़ियाल जोर-जोर से बजने लगा — एक... दो...तीन... चार; समय का स्पष्ट उद्घोष करता हुआ ।

प्रभुपाद ने कहा, “मेरी चिन्ता यही है कि इतने बड़े प्रतिष्ठान का प्रबन्ध भलीभाँति होना चाहिए। यदि उत्तम प्रबन्ध न हुआ तो हर वस्तु नष्ट हो जायगी ।" तमाल कृष्ण ने कहा, “मैं नहीं समझता कि ऐसा कुछ होने जा रहा है। हम पर आप का इतना ऋण है कि आपने जो कुछ किया है उसे हम नष्ट नहीं होने देंगे।'

प्रभुपाद बोले, "कृपया इसे देखते रहिए ।"

कीन्छ की

तब भी, श्रील प्रभुपाद ने अक्षयानंद स्वामी को बुलवाया और ज्योंही वे कमरे में आए त्योंही उनसे पूछा, “क्या घड़ियाल बजेगा या नहीं ?" अक्षयानंद

स्वामी ने वचन दिया कि वे इसे कर्मठ भाव से देखेंगे; प्रभुपाद के इस आदेश को बड़ी गंभीरता से लेंगे, अपने गुरु महाराज के कदाचित् अंतिम आदेश के रूप में ।

पुजारी प्रविष्ट हुआ और कृष्ण-बलराम की ओर से एक विशाल महकी हुई तुलसी की माला प्रभुपाद को दी और प्रभुपाद श्रीमद्भागवत का पाठ पुनः सुनने लगे।

बाद में उन्होंने तमाल कृष्ण को विश्वास में लेते हुए विगत

कुछ सप्ताहों के बारे में बातें की। उन्होंने कहा, “मुझे आप को धन्यवाद देना चाहिए कि आप मुझे लंदन ले गए और फिर बिना किसी कठिनाई के यहाँ वापस लाए। यह आप के लिए बड़े श्रेय की बात है। उसके लिए मैं आप को धन्यवाद दे रहा हूँ। इस हालत में—हड्डियों का एक ढांचा मात्र - तब भी आपने यह सब किया। कृष्ण आप को आशीष देंगे।"

हरिशौरी ने प्रभुपाद पर दिल्ली से एक अन्य विस्तृत ज्योतिषीय गणना प्राप्त की थी। इस ज्योतिषी की संस्तुति थी कि भगवान् शिव के एक मंत्र का जप दस ब्राह्मणों द्वारा इक्कीस दिन तक कराया जाय ।

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "हमारे पास महामंत्र है, अन्य मंत्रों की जरूरत नहीं है।” उन्होंने संस्तुति को अस्वीकार कर दिया ।

हरिशौरी ने पूछा, "श्रील प्रभुपाद, क्या ज्योतिष की ये गणनाएँ भक्तों पर बहुत

अधिक लागू होती हैं ?

प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, ऐसे ज्योतिष पर धन बर्बाद मत करो।"

श्रील प्रभुपाद का विश्वास केवल कीर्तन में था । तमाल कृष्ण ने सुझाव दिया कि उन्हें पुनः निरन्तर कीर्तन का आयोजन करना चाहिए, और प्रभुपाद ने कहा, "यही वास्तविक कार्य है। ये ज्योतिषी कर्मी होते हैं। हमें कर्मियों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए।"

श्रील प्रभुपाद के आह्वान पर जी.बी.सी. के सभी तेईस सदस्य पुनः वृंदावन में एकत्र होने लगे। वे भारी मन लिए आए थे, फिर भी प्रभुपाद के समक्ष आते ही उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक, प्रभुपाद के नाम पर अपने प्रचार कार्य की रिपोर्टें प्रस्तुत की। प्रभुपाद उनकी रिपोर्टें सुन कर प्रसन्न हुए और अपनी ऐसी अवस्था

में भी अपने प्रमुख प्रचारकों को पूर्ववत् प्रोत्साहन देते रहे ।

श्रीलंका के हंसदूत स्वामी सबसे पहले पहुँचने वालों में थे । प्रभुपाद ने उन्हें आदेश दिया कि वे अपने यहाँ कृषि फार्म विकसित करें जैसा कीर्तनानंद स्वामी ने न्यू वृंदावन में किया था। हंसदूत ने कहा, 'कभी कभी धर्मोपदेश करते समय मैं उनसे कहता हूँ 'यह किस तरह का देश है। भूमि राजर्षियों की है और एक महिला सरकार का संचालन कर रही है।'

प्रभुपाद ने आगाह किया, “राजनीति की बातें मत करो। हम केवल सांस्कृतिक और दार्शनिक लोग हैं।"

प्रभुपाद गिरिराज से बैंक के मामलों के बारे में बात करने लगे। स्थानीय वृंदावन बैंक इस्कान के खाते से धन निकालने देने में अड़चन डालता था और श्रील प्रभुपाद को मार्गदर्शन के लिए बुलाना पड़ता था। उन्होंने समस्या के समाधान के लिए अच्छे व्यावहारिक सुझाव दिए, किन्तु अनुरोध किया कि भविष्य में उन्हें इन मामलों में कष्ट न दिया जाय। कमरे में एकत्र भक्तों को यह देख कर विस्मय हुआ कि प्रभुपाद अब भी ऐसे मामलों को कितनी कुशलतापूर्वक सुलझा सकते हैं। जब गिरिराज ने प्रभुपाद को ऐसे मामलों में घसीटने के लिए क्षमा-याचना की तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “इसीलिए मैं कहता हूँ कि आवश्यक कार्यवाही करो। "

वस्तुतः प्रभुपाद ने सभी जी.बी.सी. वे सब मिल कर उनके लिए कीर्तन करें।

सदस्यों को इसलिए बुलाया था कि अब, वे पहले से भी अधिक डाक्टरों

की नहीं वरन् भगवन्नाम की ओषधि चाह रहे थे। जब उन्होंने सुना कि उनके मित्र डा. घोष वृंदावन में एक क्लिनिक खोलने आ रहे हैं और उनका उपचार करेंगे तो उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा,

"ये डाक्टर आएँगे और कुछ न कुछ देकर बचाने का प्रयत्न करेंगे। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे बचाए । डा. घोष अपना दवाखाना खोलने और विकसित करने को आना चाहते हैं तो आएँ, किन्तु मेरे उपचार के लिए नहीं।” तमाल कृष्ण पूछा कि क्या वे कम से कम कुछ स्थानीय वृंदावन के डाक्टरों को बुला सकते हैं ?

ने

प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, हम आप की बात केवल कीर्तन के लिए मान कर चलें ।” तमाल कृष्ण सहमत हुए कि कीर्तन सबसे ठीक रहेगा क्योंकि इस तरह वे कृष्ण से सहायता की याचना करेंगे।

'अच्छा हो कि तुम मुझे बचाने के लिए कृष्ण

से प्रार्थना न करो। अब मुझे मरने दो।"

तब प्रभुपाद ने अपने को बैठाने के लिए कहा। उन्होंने कहा, “यदि हंसदूत थके नहीं हैं, तो वे गायन जारी रख सकते हैं।"

जब हरिकेश को अविलम्ब वृंदावन पहुँचने का बुलावा मिला तो उससे कहा गया था कि वह 'सबसे बुरे' की संभावना लेकर आए। उसने तुरन्त अपने मुद्रक से सम्पर्क स्थापित किया, जो कई पुस्तकें पूरी करने में लगा था, और उससे कहा कि अगले दिन तक वह अग्रिम प्रतियाँ तैयार रखे। अतः भारत के लिए वायुयान में सवार होने के समय उसके पास श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध के जर्मन भाषा में नए मुद्रित खण्ड, जर्मन भाषा में कृष्ण पर तीन पुस्तकें और योगोस्लावियन भाषा में ईशोपनिषद् - ये पुस्तकें थीं। किन्तु जब वह वृंदावन में प्रभुपाद की ड्योढ़ी पर पहुँचा तो एक भक्त ने कहा कि वह उस समय प्रभुपाद के पास पुस्तकें नहीं ले जा सकता था। हरिकेश ने पूछा, “क्यों नहीं ?"

भक्त ने बताया, 'हम यहाँ इस तरह का मनोभाव पैदा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।"

हरिकेश चिल्लाया, “क्या ? क्या तुम पागल हो ? पुस्तकें प्रभुपाद का जीवन और प्राण हैं। वह अंदर गया और उसने प्रभुपाद को सात नई पुस्तकें दिखाईं। प्रभुपाद ने तुरन्त कृष्ण पर प्रथम पुस्तक ले ली, उसे ऊपर उठाया और वे मुखपृष्ठ पर अंकित राधा-कृष्ण के चित्र देखते रहे। वे रोने लगे और हरिकेश के सिर को छूने के लिए उन्होंने हाथ बढ़ाया और उसे थपथपाने लगे। हरिकेश ने हाथ बढ़ा कर प्रभुपाद का हाथ पकड़ लिया, यह सोचते हुए कि वह थपकी पाने के योग्य नहीं था ।

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "यह यहाँ टाइप करते हुए सड़ रहा था। वे उस समय की ओर संकेत कर रहे थे जब हरिकेश प्रभुपाद का सचिव था, योरोप में प्रचार करने जाने के ठीक पहले।" मैने कहा, 'तुम जाओ' मेरे पास दस सेवक थे। तुम सोचते थे कि तुम्हें दूर भेज कर मैं तुम्हारी हेठी कर रहा था । नहीं । अब तुम समझ रहे हो ?"

हरिकेश ने सिसकते हुए कहा, “हाँ, मैं समझ रहा हूँ।"

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "मैंने सोचा, यह एक तीव्र-बुद्धि लड़का है। वह टाइप करते यहाँ क्यों सड़े ?” प्रभुपाद ने प्रत्येक पुस्तक को देखा। उन्होंने कहा, "मुद्रण और हर वस्तु प्रथम श्रेणी की है।” उन्होंने पूछा कि कितनी प्रतियाँ

मुद्रित हुई हैं और हरिकेश ने उत्तर दिया, लाख बीस हजार प्रतियाँ, श्रीमद्भागवत के और ईशोपनिषद् की दस हजार प्रतियाँ।"

प्रभुपाद ने पूछा, "क्या

'कृष्ण पर तीन पुस्तकों की एक दूसरे स्कंध की साठ हजार प्रतियाँ,

तुम यह ईशोपनिषद् वितरित कर लोगे ?" हरिकेश ने उन्हें विश्वस्त किया कि वह योगोस्लाविया में यह पुस्तक निश्चित रूप से वितरित कर लेगा ।

प्रभुपाद ने कहा, “तब और अधिक प्रतियाँ मुद्रित करो। वे पुस्तकों के उत्पादन पर विचार करते रहे। पुस्तकें वस्तुतः प्रभुपाद का जीवन और प्राण थीं। हरिकेश के नई पुस्तकों के साथ प्रवेश करने पर प्रभुपाद को गहरी भाव-विह्वलता अनुभव हुई थी जो हरिकेश और वहाँ मौजूद सभी भक्तों तक फैल गई थी । प्रत्येक को भलीभाँति मालूम था कि वे जो कुछ अनुभव कर रहे थे वह दिव्य था और श्रील प्रभुपाद के साथ उनका विशेष आदान-प्रदान था और जब तक वे निष्ठावान् बने रहेंगे वह समाप्त नहीं होगा।

हरिकेश ने कहा, "अब आप को पहले से अच्छा हो जाना है, अधिक स्वस्थ ।”

और

वास्ता

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “स्वस्थ ? मुझे इस शरीर से अब कई व नहीं है । "

एक लम्बे कीर्तन के जागरण के बीच ब्रह्मानंद स्वामी उपस्थित थे और श्रील प्रभुपाद ने उन्हें आगे आने को कहा। वे अफ्रीका के बारे में उन्हें अंतिम आदेश देना चाहते थे। प्रभुपाद लेटे हुए थे और ब्रह्मानंद को उनकी बात सुनने के लिए अपना कान उनके मुख के निकट करना पड़ा। कमरे के अन्य भक्त भी खामोश हो गए और यथासंभव उनके निकट खिसक आए।

प्रभुपाद ने कर्कश भर्राए हुए स्वर में कहा, “ नव-योगेन्द्र और तुम दोनों दक्षिण अफ्रीका । वहाँ के लोग धीरे-धीरे स्वीकार कर रहे हैं। प्रयत्न करो कि पुष्ट कृष्ण वापस आ जाए। वह बहुत सक्षम है। अतः मिल-जुलकर अफ्रीका को व्यवस्थित करो। संकीर्तन कराओ। सभी योरपियनों, अमरीकनों और अफ्रीकनों को लगाओ। तुलसीदास भी बहुत योग्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ को चैतन्य महाप्रभु की पताका के नीचे लाओ। यह संभव है। अन्यथा वह संयुक्त राष्ट्र संघ केवल एक मिथ्या प्रयास होगा।"

ब्रह्मानंद ने श्रील प्रभुपाद के साथ अपने प्रारंभिक दिनों को जल्दी से याद करते

हुए कहा, “आप ने कहा था कि जब आप पहली बार न्यू यार्क आए

१९१२३

तो आप संयुक्त राष्ट्र में गए। मैं न्यू यार्क में पहले ही दिन आप के कीर्तन में आया था। अगले दिन आप शान्ति- जागरण के लिए संयुक्त राष्ट्र के बाहर बैठे थे और आप हरे कृष्ण कीर्तन कर रहे थे और कह रहे थे कि कृष्णभावनामृत ही संयुक्त राष्ट्र का निर्माण करने के लिए एकमात्र उपाय है।"

प्रभुपाद ने कहा, “यह सच है। चैतन्य महाप्रभु की रक्षा का प्रयत्न करो और सभी चीजें सफल होंगी। अन्य बातों से केवल समय नष्ट होगा । निराशा होगी, देहान्तरण होता रहेगा, दुख बना रहेगा।” प्रभुपाद ने विषय बदल दिया, किन्तु ब्रह्मानंद को संतोष था । उन्हें कई जन्मों के लिए पर्याप्त सेवा-कार्य मिल

गया था।

कुलाद्रि, कीर्तनानंद स्वामी की ओर से प्रभुपाद के लिए आठ हजार डालर का एक चेक, नीलम मणि की एक अंगूठी, नीलम और माणिक्य मणियों से जड़ा हुआ एक सोने का चित्रफलक — इतने उपहार लेकर कमरे में घुसा ।

श्रील प्रभुपाद ने टिप्पणी की, "तो तुम अपने लिए एक दुल्हन क्यों नहीं तलाशते ?" और भक्तों की अकस्मात हँसी से कमरे का गंभीर वातावरण बदल गया। अंगूठी को उंगली में स्वीकार करते हुए श्रील प्रभुपाद ने कहा कि किसी को चाहिए कि अन्य बहुमूल्य चीजों को संभाले ।

कुलाद्रि ने कहा कि उसे कीर्तनानंद स्वामी की ओर से एक प्रार्थना करनी है : "कीर्तनानंद स्वामी ने कहा है कि आप हम लोगों से कृष्ण की प्रार्थना करने को कह चुके हैं। किन्तु उनका कहना है कि वे कृष्ण की प्रार्थना करने योग्य अपने को नहीं पाते। इसलिए वे चाहते हैं कि आप कृपा करके हमारे लिए कृष्ण से प्रार्थना करें, क्योंकि हम सीधे कृष्ण की प्रार्थना नहीं कर सकते। हम कृष्ण को नहीं जानते। किन्तु यदि आप कहेंगे तो कृष्ण आप की इच्छा की पूर्ति अवश्य करेंगे। तो क्या आप हमारे साथ बने रहने के लिए कृष्ण से प्रार्थना करेंगे ? हम चाहते हैं कि हम न्यू वृंदावन में जो विशाल भवन बना रहें हैं वहाँ आप पधारें, यदि यह संभव हो, श्रील प्रभुपाद ।”

श्रील प्रभुपाद बोले, "मैं आना चाहता हूँ। किन्तु जब तक मैं कुछ शक्ति अर्जित न कर लूँ, मैं कैसे आ सकता हूँ?"

कुलाद्रि ने कहा, "हम कुछ मिष्ठान्न और आईसक्रीम भी लाए हैं।" वह जानता था कि प्रभुपाद उन्हें ग्रहण नहीं कर सकते थे, किन्तु उसने पूछा कि क्या वे उनका थोड़ा स्वाद चख सकते थे। प्रभुपाद राजी हो गए और आईसक्रीम का एक छोटा टुकड़ा उनकी जबान पर रख दिया गया। उन्होंने कहा, "प्रथम

कोटि का है ।"

बाद में कीर्तनानंद स्वामी पहुँचे और प्रभुपाद ने उनसे न्यू वृन्दावन के विषय में रिपोर्ट माँगी ।

कीर्तनानंद ने कहा, "प्रभुपाद, हर चीज ठीक से चल रही है। आप का भवन लगभग पूरा हो गया है। प्रतिदिन अनेक लोग इसे देखने आने लगे हैं। भवन अगले दो महीनों में बिल्कुल पूरा हो जायगा। अभी उस दिन एक महिला उसमें गई थी और अपने एक लड़के की ओर मुड़ कर उसने कहा,

"मैं तुमसे कह नहीं सकती कि मुझे कैसा अनुभव हो रहा है। यह आश्चर्यजनक है।"

प्रभुपाद बोले, “हाँ, यह आश्चर्यजनक है" वे थोड़ा रुके, कुछ सोचते हुए, फिर बोले, "हम्म... चलो देखें कि मैं कौनसी जगह पर जा रहा हूँ" श्रील प्रभुपाद ने कीर्तनानंद से अपने मूल्यवान् उपहारों को वापिस ले जाकर, न्यू वृंदावन के लिए इस्तेमाल करने के लिए कहा । " आप को धन की जरूरत है। इसलिए आप इन्हें ले जाइए और इनका उपयोग वहाँ कीजिए। यह आप से मेरी प्रार्थना है । "

कीर्तनानंद ने कहा, “आपको अनेक धन्यवाद, सबसे अधिक हम आपको चाहते हैं । "

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हाँ, मैं भी । और यदि मैं जीवित रहा तो मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं वहाँ आऊँ जहाँ आप रहते हैं और वहाँ आप के साथ रहूँ। यह महान् आनंददायक होगा।"

कीर्तनानंद के पास भवन के चित्र थे और उन्हें देखने के लिए प्रभुपाद उठ बैठे। उन्होंने कहा, “आप मेरा स्वप्न पूरा कर रहे हैं। न्यू वृंदावन में मैं इन्हीं सब चीजों का स्वप्न देखा करता था। आपने वहाँ आश्चर्यजनक चीजें बनाई हैं। आप आरंभ से ही मेरे प्रथम छात्र रहे हैं। जब मैं स्टोरफ्रंट में था तब आप गलीचे, बेंच, कुछ घड़ियाल और कुछ लालटेनें लाया करते थे ।”

वृंदावन में गिरिराज प्रभुपाद से अधिकतर कामकाज के सिलसिले में, कई बार मिल चुका था । उसने प्रभुपाद के कमरे में कीर्तन के जागरण में भी नियमित रूप से अपनी बारी पर भाग लिया था । किन्तु एक दिन वृंदावन का पूरा लाभ उठाने के लिए वह कुछ मंदिरों का दर्शन करने गया। दिन की समाप्ति पर उसने

गुरुकुल - भवन की छत पर रात में विश्राम किया । किन्तु आधी रात को एक भक्त ने उसे जगाया और कहा कि प्रभुपाद उससे मिलना चाहते हैं । वह

तुरन्त नीचे भागा, यह सोचता हुआ कि प्रभुपाद का अंत कभी भी आ सकता है । प्रभुपाद उससे जो कुछ भी कहेंगे, हो सकता है, कि वे उनके अंतिम शब्द हों । वह प्रभुपाद के कमरे में आया, उन्हें प्रणाम किया और उनके पलंग के बिल्कुल पास बैठ गया ।

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प्रभुपाद ने पूछा, 'क्या तुम समझते हो कि मेरे बिना भी यह आन्दोलन चलता रहेगा ?” गिरिराज आश्चर्यचकित रह गया कि प्रभुपाद ने उसे आधी रात को यह प्रश्न पूछने के लिए बुलाया है।

गिरिराज बोला, “मैं समझता हूँ कि जब तक हम निष्ठावान हैं और हरे कृष्ण महामंत्र भजते रहेंगे और नियमों का पालन करते रहेंगे, तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा ।"

श्रील प्रभुपाद मौन थे। जब वे बोलते थे तो प्रत्येक शब्द बड़ी कठिनाई से निकलता था । उन्होंने "संगठन" शब्द का उच्चारण किया। तब उन्होंने कहा, " संगठन और बुद्धि, क्या इस के अतिरिक्त और भी कुछ है ? '

?"

गिरिराज को अपने मन में लगा कि जैसे वह चिल्ला उठना चाहता हो, "श्रील प्रभुपाद, हमारे साथ रहिए ।" किन्तु उसके स्थान पर उसने कहा, "नहीं।”

प्रभुपाद ने कहा, " बहुत अच्छा

कहा, "बहुत अच्छा ।" और गिरिराज ने उन्हें प्रणाम किया और वहाँ से चला गया । प्रभुपाद के कमरे के बाहर गिरिराज प्रभुपाद के शब्दों पर विचार करता रहा, “संगठन और बुद्धि"; ऐसा लगता था कि प्रभुपाद और अधिक प्रेम और प्रतिबद्धता की अपेक्षा कर रहे थे; ऐसा नहीं है कि इस्कान का भविष्य केवल संगठन और बुद्धि पर निर्भर था। गिरिराज सोच रहा था कि शायद उससे बोले गए ये प्रभुपाद के अंतिम शब्द हों ।

प्रभुपाद के पेन्सिलवानिया कृषि फार्म परियोजना, गीता नगरी के अध्यक्ष, परमानंद, भी प्रभुपाद को मिलने के लिए आए। प्रभुपाद ने कहा, “ तो, इस कृषि फार्म परियोजना को सुव्यवस्थित करो। सरल जीवन । मानव-जीवन भगवान् का साक्षात्कार करने के लिए है। इसमें लोगों की सहायता करने का प्रयास करो। "

परमानंद ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, हम आप की उपस्थिति का अनुभव तीव्रता से करते हैं, केवल आप के उपदेशों और आदेशों का। हम आप के आदेशों का चिन्तन सदैव करते रहते हैं।"

'धन्यवाद। यही वास्तविक उपस्थिति है। शारीरिक उपस्थिति आवश्यक नहीं है।” परमानंद अपनी पत्नी सत्यभामा से एक पत्र लाए थे । तमाल कृष्ण ने पूछा कि क्या वह उसे पढ़ कर सुना सकता था । प्रभुपाद

राजी हो गए। तमाल कृष्ण ने पढ़ा,

प्रिय श्रील प्रभुपाद,

कृपा करके मेरा प्रणाम स्वीकार करें। कृष्णकृपाश्रीमूर्ति, आप की जय हो 1

यह शाल. हमारी अपनी भेड़ों की ऊन से बनी है। इसे गीतानगरी में काता और बुना गया है। यह हमारे द्वारा बनाई गई पहली शाल है। जब मैं इसे बना रही थी तो मैं बराबर सोचा करती थी कि किस तरह मैं आप के लिए एक उपहार तैयार कर रही हूँ। किन्तु वास्तव में आप मुझे प्रेमाभक्ति में प्रवृत्त करने का उपहार दे रहे हैं। श्रील प्रभुपाद, मैं निरन्तर भगवान् नृसिंह से प्रार्थना करती रहती हूँ कि वे आप की रक्षा करें और आप को, हमारे साथ रह कर आप की पुस्तकों को पूरा करने का अवसर दें। मैं समझती हूँ कि इस समय आकाश से जो वर्षा की बूँदें गिर रही हैं वे वास्तव में देवताओं के आँसू हैं जो आप के प्रस्थान के भय से दुखी होकर रो रहे हैं। मैं भी रो रही हूँ। पितामह भीष्म के प्रस्थान पर कृष्ण भी रोए थे । अतः मुझे भी रोने का अधिकार है। मैं इतनी दार्शनिक नहीं हूँ कि कहूँ कि आप तो अपनी पुस्तकों और शिक्षाओं में सदैव उपस्थित हैं, यद्यपि मैं जानती हूँ कि यह सच है। श्रील प्रभुपाद, यदि आप चले गए तो आप का अभाव मुझे सदैव खलता रहेगा । मेरी प्रार्थना है कि मैं आप की सेविका और भक्त बनी रहूँ।

आपकी विनीत शिष्या

सत्यभामा दासी

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “उसे धन्यवाद दो", और उन्होंने शाल के लिए

हाथ बढ़ाया जो 'हमारी ऊन" से बनी थी ।

तमाल कृष्ण ने संकेत किया, “श्रील प्रभुपाद, तो अब आप विश्राम करेंगे ?" श्रील प्रभुपाद ने कहा, "हुम्म, यह पैरों पर रह सकती है।" और उन्होंने इशारा किया कि गेरुआ रंग की शाल, कम्बल की तरह, उनके बिस्तर पर बिछा दी जाय। जब वे लेटने लगे तो उनके नेत्रों से आँसू निकलने लगे ।

श्रील प्रभुपाद संसार से विदा लेने के पक्ष में अधिकाधिक होते जा रहे थे। जब तमाल कृष्ण ने टिप्पणी की कि वे अधिक जल नहीं ग्रहण कर रहे हैं तो उन्होंने उत्तर दिया उनकी रुचि नहीं थी ।

तमाल कृष्ण ने कहा, “मैं नहीं समझता कि क्या कहूँ, श्रील प्रभुपाद । यह बात निश्चय ही, परेशानी में डालने वाली है। मैं केवल यही आशा कर सकता हूँ कि कृष्ण इस बारे में कुछ करेंगे।" तमाल कृष्ण ने पुनः प्रार्थना की कि

कोई डाक्टर बुलाया जाय। तमाल कृष्ण ने प्रभुपाद को याद दिलाया, “आप ने कहा था कि कोई "पति" तो होना चाहिए। हमें किसी डाक्टर की सहायता लेनी चाहिए। मैं अब भी इसमें विश्वास करता हूँ। कुछ भी हो, हम डाक्टर तो नहीं हैं।'

प्रभुपाद ने कहा, “नहीं, हम डाक्टर की मदद अब भी ले रहे हैं। आयुर्वेद —अर्थात् योगेन्द्र-रस ।'

तमाल कृष्ण ने कहा, “ठीक है, आप उसे आज अभी आरंभ कर रहे हैं। कल आप उसे छोड़ सकते हैं। तो हमारी स्थिति क्या होगी ?"

में

प्रभुपाद ने हँसते हुए कहा, "विधवा।" और तब उन्होंने आगे जोड़ा, "वास्तव कृष्ण ही अंतिम "पति" हैं ।"

प्रभुपाद के साथ रह रहे भक्तों के लिए उनके प्रयाण की मनोवृत्ति को स्वीकार करना अत्यन्त कठिन था। एक बार कीर्तन के बीच में उपेन्द्र ने प्रभुपाद से पूछा कि क्या वे कोई चीज पीना चाहते हैं। जब प्रभुपाद ने इनकार किया तो उनके कुछ भक्त रोने लगे, यह सोच कर कि यदि प्रभुपाद कुछ खाते या पीते नहीं तो वे उनके साथ बहुत समय तक नहीं रहेंगे। भक्तजन प्रभुपाद की इच्छा को विनम्रता से स्वीकार करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने मान लिया कि उनकी दिशा अधिकाधिक प्रयाण की ओर थी। वे इसे स्वीकार करने पर आ रहे थे, उनकी चारों ओर कीर्तन कर रहे थे और अपनी किन्हीं समस्याओं या माँगों से किसी प्रकार की असुविधा उनके लिए नहीं पैदा कर रहे थे। वे जो कुछ भी चाहते थे, वही शिष्य भी चाहने लगे थे। किन्तु उनके प्रस्थान का विचार शिष्यों के लिए अब भी लगभग असह्य था ।

भक्तों के इस त्याग-भाव ने उन्हें दार्शनिक बना दिया। रूपानुग ने कहा कि प्रभुपाद की तुलना विदेश में किसी राजदूत से की जा सकती है। विदेश में उनके सामने अनेक मामले हो सकते हैं, किन्तु अंत में वह वापस बुला लिए जाते हैं। जयाद्वैत ने कहा कि प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को अनेक चीजें सिखाई हैं और अब वे उन्हें सिखा रहे हैं कि मरना कैसे चाहिए। एक अन्य शिष्य ने कहा कि आध्यात्मिक लोक में प्रभुपाद के अधिक अच्छे मित्र हैं। आपस के वार्तालाप में भक्तजन आपसी सहयोग के महत्त्व पर बल देते रहे और उन्होंने आपस में विचार-विमर्श किया कि भविष्य में इस्कान का संचालन किस तरह किया जायगा । किन्तु यह सब कुछ अवसाद-जनक था।

जो भी हो, भक्तजनों को बार-बार दुखद और अनिवार्य अनुभूति होती रही

कि प्रभुपाद उन्हें शीघ्र छोड़ने वाले हैं। प्रभुपाद के स्पष्ट रूप से संकेत देने के साथ कि उन्होंने प्रयाण का निर्णय कर लिया है, भक्तजन निराश होते जा रहे थे। अच्छे से अच्छे शब्दों में कहें, तो सबमें गंभीर मनोभाव व्याप्त था ।

तब श्रील प्रभुपाद ने कहा कि उन्हें प्रभुपाद के संन्यास- गुरु के शिष्य, नारायण महाराज, से परामर्श करना चाहिए कि एक दिवंगत वैष्णव का अंतिम संस्कार किस तरह करना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि उनकी समाधि कहाँ निर्मित होगी और उनके प्रस्थान के बाद इस्कान के खर्च से वृंदावन के सभी प्रधान मंदिरों में भोजोत्सव किया जाय ।

एक स्तर पर हर चीज सामान्य रूप से चलती लग रही थी। अक्तूबर का मौसम बहुत सुहावना था । गुरुकुल के बालक अपना दैनिक कार्यक्रम चला रहे थे और अर्चा-विग्रहों की उपासना भी सामान्य ढंग से चल रही थी, किन्तु मंदिर के सामने श्रमिक प्रभुपाद की समाधि के लिए जमीन साफ करने लगे ।

प्रभुपाद के कई दिन बिना खाए- पीए बीत जाने के बाद तमाल कृष्ण ने पुनः प्रयत्न किया, किन्तु नम्रतापूर्वक । " आप आज कुछ पीना नहीं चाहते ?"

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “मुझे पीने को हरि नाम अमीय विलास दो । *," हरिशौरी ने कहा, “श्रील प्रभुपाद की जय हो । हरि नाम सबसे मधुर अमृत

है । "

प्रभुपाद ने उद्धरण सुनाया, “निवृत - तर्षेर उपगीयमानम् भवौषधात् । * भवौषध, हरि - कीर्तन है । '

+99 यह

जयाद्वैत ने श्लोक को पूरा किया भवौषधाच छोत्रमनोभिरामात् । प्रभुपाद ने कहा “ आह ! और चरणामृत — भोजन । भोजन और औषधि । मुझे इन्हीं के सहारे रहने दो।"

यद्यपि प्रभुपाद उपवास कर रहे थे, किन्तु उन्होंने भक्तों को प्रसाद के वितरण

* यहाँ श्रील प्रभुपाद भक्तिविनोद ठाकुर के एक गीत से उद्धृत कर रहे हैं, “हरि नाम का कीर्तन ही मेरी लीला है ।"

+ यहाँ, श्रील प्रभुपाद श्रीमद्भागवत के एक श्लोक का (१०.१.४) संदर्भ दे रहे हैं जिसमें कहा गया है कि संसार में बार-बार जन्म लेने और दुख भोगने के भौतिक रोग से मुक्ति पाने की एक ही औषधि हरि नाम श्रवण कीर्तन है।

के बारे में पूछा। इस समय मंदिर में सौ या उससे अधिक अतिरक्ति भक्त रह रहे थे, और औरों के आने की आशा थी ।

प्रभुपाद ने पूछा, "इस समय वे क्या देते हैं ?"

तमाल कृष्ण ने कहा, "क्या देते हैं? आप का तात्पर्य 'क्या प्रसाद देते हैं' से है ? आज एकादशी के बाद का दिन है। इसलिए उन्होंने गुड़ के साथ कुछ अनाज मिला कर पकाया है— और अमरुद और केले का सलाद है। आज सवेरे यही था। दोपहर का भोजन भारी होता है और बहुत अच्छा होता है । भारत में कई वर्षों में मिलने वाले प्रसाद में यह सब से अच्छा है। रसोइया, अयोध्यापति, बहुत अच्छा काम कर रहा है। क्या आप जानना चाहते हैं कि वह दोपहर के प्रसाद के लिए क्या तैयार करता है ?"

प्रभुपाद ने हल्के से सिर हिलाया ।

तमाल कृष्ण ने कहा, " वह दाल की चटनी के साथ आलू की सब्जी बनाता है, भिंडी की मसालेदार सब्जी बनाता है, और दाल, रोटी, चावल, सेब की चटनी और दही - रायता प्रतिदिन तैयार करता है । "

प्रभुपाद ने पूछा कि अयोध्यापति की सहायता कौन करता है। वे कोई भाड़े का रसोइया नहीं चाहते थे ।

तमाल कृष्ण ने कहा, "केवल भक्त ही भोजन बनाते हैं। और वह बहुत स्वादिष्ट होता है। और सभी लोग, लगभग १२५ भक्त — एक साथ बैठ कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। और अतिथि गृह में ठहरे हुए अतिथि भी प्रसाद लेते हैं । सब लोग एकसाथ खाते हैं।

प्रभुपाद ने मुसकराते हुए पूछा, " हर एक ने प्रसाद पसन्द किया ?"

कमरे में एकत्र सभी भक्तों का समवेत उत्तर था, "हाँ, हाँ।" वे सभी प्रभुपाद के पलंग के निकट जमा हो गए।

प्रभुपाद ने कहा, "यह बहुत अच्छा है ।"

एक भक्त ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, आप पूर्ण पिता हैं। आप हमारे लिए हर चीज की आपूर्ति करते हैं। रहने के लिए स्थान, खाने के लिए भोजन, हर वस्तु । और आप ने हमें आध्यात्मिक ज्ञान में प्रशिक्षित कर दिया है । "

प्रभुपाद ने अपनी गहरी आवाज में कहा, "हुम्म," तब उन्होंने कहा, “कीर्तन करो, सब लोग मिल कर ।" और एकत्रित भक्त प्रसन्नतापूर्वक कीर्तन करने लगे ।

कमरा बहुत अंधेरा था, सिवाय इसके कि प्रभुपाद के पलंग के सिरहाने

के पीछे मंद प्रकाश हो रहा था। भक्त मंद स्वर से कीर्तन कर रहे थे; लय बनाए रखने के लिए वे केवल एक जोड़ा छोटा करताल बजा रहे थे । त्रिपुरारि स्वामी श्रील प्रभुपाद के पैरों की मालिश कर रहे थे, भगतजी दाहिनी टाँग दबा रहे थे और तमाल कृष्ण बाईं बाँह । एकाएक, मथुरा स्थित देवानंद सरस्वती मठ के नारायण महाराज अपने दो लोगों के साथ कमरे में प्रविष्ट हुए । प्रभुपाद के शिष्यों ने उन्हें तुरन्त प्रभुपाद के पलंग की बगल में एक आसन दिया । श्रील प्रभुपाद बोलने लगे, किन्तु उनका स्वर इतना मंद था कि नारायण स्वामी को उसे सुनने के लिए झुकना पड़ा। वार्तालाप आरंभ होता देख कर कमरे में एकत्र लगभग पन्द्रह बीस शिष्य और निकट खिसक आए।

श्रील प्रभुपाद ने आरंभ किया, “श्रील प्रभुपाद (भक्तिसिद्धान्त सरस्वती) ने कहा कि हमें योरोप और अमेरिका में धर्मोपदेश करना चाहिए। यही उनकी इच्छा थी। और उनकी दूसरी इच्छा यह थी कि हम लोगों को मिल कर एकसाथ प्रचार करना चाहिए।'

नारायण महाराज ने कहा, "हाँ, यह ठीक है।'

श्रील प्रभुपाद ने कहा, "मैने एक मिनट भी व्यर्थ नहीं जाने दिया। मैंने भरसक प्रयत्न किया, और कुछ सीमा तक हमें सफलता मिली है।" श्रील प्रभुपाद का स्वर भावावेग से रुँधा हुआ था । उन्होंने आगे जारी रखा, “यदि हम मिल कर कार्य करें तब जैसा कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है 'पृथिवीते * संकीर्तन में बड़ी संभावनाएँ हैं। मेरे जीवन का अंत हो रहा है। मेरी इच्छा है कि आप सब मेरी भूलों के लिए मुझे क्षमा करें। मेरे गुरुभाई, जब आप प्रचार कर रहे होते हैं तो कभी-कभी विग्रह हो जाते हैं, गलतफहमियाँ होती हैं। हो सकता है, मुझसे भी इस तरह के कुछ अपराध हुए हों । कृपया सबसे कहिए कि मुझे क्षमा करें। मेरे जाने के बाद आप सब एकसाथ बैठेंगे और निर्णय करेंगे कि मेरे लिए कुछ उत्सव कैसे मनाया जाय। और कितना खर्च किया जाय। आप का इस विषय में क्या विचार है ?

नारायण महाराज ने कहा, “आप जो भी आदेश दें, मैं उसका पालन पूरी श्रद्धा से करूँगा; आप को मैं अपना गुरु मानता हूँ।”

नारायण महाराज ने कहा कि श्रील प्रभुपाद ने जिसका निर्माण किया है,

* श्रील प्रभुपाद का निर्देश चैतन्य महाप्रभु की इस भविष्यवाणी से है कि कृष्णभावनामृत का प्रसार संसार के प्रत्येक शहर और गांव में होगा।

उसकी रक्षा होनी चाहिए और हर एक का कर्त्तव्य था कि वह ऐसा करे। उन्होंने जिस भी तरीके से वे कर सकते थे, उसकी रक्षा का वचन दिया। श्रील प्रभुपाद ने पूछा कि क्या उनके गुरुभाई, जिनके मथुरा-वृंदावन में अपने मंदिर थे, मौजूद हैं और नारायण महाराज ने बताया कि उनमें से अधिकांश बाहर गए हैं।

श्रील प्रभुपाद के अपने गुरु-भाइयों से क्षमा-याचना के सम्बन्ध में नारायण महाराज ने कहा, "ये नगण्य बातें हैं ऐसे

"ये नगण्य बातें हैं ऐसे विश्वव्यापी प्रचार में यदि यत्र तत्र

छोटी-मोटी भूलें हो जायँ तो इससे क्या फर्क पड़ता है? सब ठीक है। आप ने जो कुछ किया है वह समस्त मानव समाज के कल्याण के लिए किया है। आप का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था । सब कुछ भगवान् के नाम पर किया गया।” उन्होंने परामर्श दिया कि प्रभुपाद चिन्ता न करें। उनके शिष्य योग्य थे और हर चीज को वे ठीक से रखेंगे। अतः श्रील प्रभुपाद को अब केवल "भगवान् का चिन्तन करना चाहिए ।"

नारायण स्वामी ने तब अपने शिष्य शेषशायी ब्रह्मचारी को श्रीरूप मंजरी - पद गाने को कहा। जबकि हर एक शान्त भाव से सुन रहा था, और श्रील प्रभुपाद स्थिर लेटे थे, शेषशायी ब्रह्मचारी ने बहुत मधुर स्वर में गीत गाया। उसके बाद, नारायण महाराज ने एक भजन गाया और उसे जय गुरुदेव, जय प्रभुपाद टेक के साथ समाप्त किया।

कुछ रुक कर नारायण महाराज बोले; इस बार उनका लक्ष्य श्रील प्रभुपाद के शिष्य थे। उन्होंने कहा, "उन्हें बता देना चाहिए कि उन्हें अपने स्वार्थ से कभी भी अनुप्रेरित नहीं होना चाहिए। उन्हें चाहिए कि आप के मिशन को सफल बनाएँ ।”

श्रील प्रभुपाद ने अपना सिर धीरे-धीरे अपने भक्तों की ओर किया जो और अधिक निकट आ गए थे। तब उन्होंने धीरे-धीरे अपना हाथ उठाया, मानो उन्हें सावधान होने को कह रहे हों। उन्होंने कहा, "आपस में झगड़ना नहीं, मैने अपनी पुस्तकों में निर्देश दे दिए हैं।" तब उन्होंने अपना हाथ नीचे कर लिया ।

प्रभुपाद के गुरुभाई, इन्द्रपति, कमरे में प्रविष्ट हुए । प्रभुपाद ने उनका अभिवादन सुना और अपनी प्रार्थना दुहराई, “सबसे पहले मैं यह कहना चाहता हूँ कि मेरे सभी अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। मैं किसी को दुख पहुँचाना नहीं चाहता था, किन्तु धर्मोपदेश करते समय कभी-कभी ऐसी बातें कहनी पड़ जाती

हैं जिनका दूसरे बुरा मान सकते हैं। क्या आप मुझे क्षमा कर देंगे ?"

इन्द्रपति ने कहा, “हाँ, हाँ ।'

नि

नारायण महाराज ने कहा, "महाराज, आपने कोई अपराध किया ही नहीं । हमने कभी नहीं सोचा कि आप से कोई भूल हुई है। प्रत्युत, आप हमें आशीर्वाद दें। हमें इसकी आवश्यकता है। आपने कभी कोई भूल नहीं की है। यदि आप के कार्यों से किसी ने बुरा माना है तो यह उसकी भूल है।'

नारायण महाराज ने तब श्रील प्रभुपाद का दाहिना हाथ धीरे से उठाया और उनकी नाड़ी देखी। एक या दो पल के बाद उन्होंने कहा, "नाड़ी ठीक है। और आप की चेतना पूर्ण है। यदि ईश्वरेच्छा से आप का जाना हुआ तो आप बहुत शान्तिपूर्वक जायँगे। पुनः आने का वादा करके नारायण स्वामी ने प्रभुपाद से विदा माँगी और वे

चले गए।

इन्द्रपति और उनके साथ के लोग कमरे से

श्रील प्रभुपाद के शिष्य पीछे हट गए और शान्त बने रहे। उन्होंने कोई वार्तालाप नहीं आरंभ किया जिससे प्रभुपाद पर भार पड़े। उन्हें नारायण महाराज के शब्द पसंद आए, किन्तु यह एक अन्य अंतिम विदाई थी। इसके पहले कि वे फिर निराशा में डूब जायँ, उन्होंने मंद कीर्तन आरंभ कर दिया ।

अक्तूबर में एक दिन सवेरे ही, जबकि श्रील प्रभुपाद का बिना अन्न-जल, उपवास जारी था, उपेन्द्र ने एक निरीह, फिर भी कुछ ढिठाई-भरी, शिकायत की। उसने प्रभुपाद से पूछ लिया, “आप कुछ पीने से कैसे इनकार कर सकते

हैं ?"

श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “यदि मैं कुछ न पीऊँ तो इसमें गलत क्या है ? मुझे इससे कोई असुविधा नहीं होती।” उपेन्द्र ने कहा कि यदि प्रभुपाद नहीं पीते तो उनके शरीर में जलाभाव हो जायगा । प्रभुपाद ने कोई उत्तर नहीं दिया और उपेन्द्र कमरे से चला गया।

अभिराम ने पूछा, " जल के बारे में आप क्या कहते हैं ?”

श्रील प्रभुपाद ने एक पल सोचा, फिर कहा, “तो तुम लोग आपस में विचार-विमर्श कर लो और निर्णय करो कि मुझे क्या करना है।'

“विचार-विमर्श ? वे जल पीने की उपयोगिता से आगे कुछ और के बारे में बात करते मालूम होते थे ।

अभिराम ने पूछा, “विचार-विमर्श आप के अच्छे होने के बारे में ?"

श्रील प्रभुपाद बोले, "मैं वह नहीं चाहता । "

" आप कहते हैं कि आप अच्छा होना नहीं चाहते, श्रील प्रभुपाद ?'

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “हाँ,” अभिराम तब बाहर वाले कमरे में गया, जो सचिव का स्वागत कक्ष था और जहाँ जी.बी.सी. के कुछ लोग बैठे थे। उसने कर्त्तव्यवश बताया जो कुछ प्रभुपाद ने अभी कहा था कि सब लोग आपस में मिल कर उनके अच्छा होने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करें। किन्तु अभिराम का यह कथन कोई समाचार नहीं लगता था । भक्त पहले से जानते थे कि प्रभुपाद जीवित रहने के लिए कोई प्रयत्न नहीं कर रहे थे। जी. बी. सी. के लोग लाचार होकर इस तथ्य को स्वीकार कर चुके थे। श्रील प्रभुपाद अब प्रस्थान करना चाहते थे, “शान्ति से मरना चाहते थे।" वे उन्हें प्रोत्साहित करने का प्रयत्न करते रहे थे कि प्रभुपाद कुछ पीएँ, किन्तु वे निश्चय कर चुके थे उपवास करने का, जब तक कि उपयुक्त घड़ी न आ जाए। वे मानें, चाहे न मानें, वह घड़ी आ रही थी । अतः अभिराम के कथन ने किसी औपचारिक विचार-विमर्श को बल नहीं दिया।

उस दिन तीसरे पहर प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण को बुलाया जो उस समय दोपहर का भोजन कर रहे थे। तमाल कृष्ण तुरन्त पहुँचे और कमरे में प्रविष्ट हुए। जी.बी.सी. के कई अन्य लोग भी उनके साथ थे। वे सब प्रभुपाद के बहुत निकट यह सुनने को आ गए कि वे क्या कहते हैं।

उन्होंने कहा, "यदि मुझे जीवित रहना है तो स्वाभाविक है कि मुझे कुछ खाना-पीना पड़ेगा।" उनके शब्द बहुत धीरे-धीरे कठिनाई से निकल रहे थे, “बिना कुछ खाए, जीना बहुत कठिन है। किन्तु मेरे जीवित रहने का तात्पर्य है, एक के बाद एक अनेक असुविधाएँ। अतः मैने शान्तिपूर्वक मरने का निश्चय किया है। उनकी आवाज धीरे-धीरे मंद पड़ती हुई समाप्त हो गई और वहाँ मौजूद हर व्यक्ति इतना सन्नाटे में आ गया कि कोई कुछ बोल नहीं सका । वे सब भावशून्य दृष्टि से उन्हें देखते हुए बैठे रह गए जबकि प्रभुपाद अपनी आँखें बंद किए लेटे रहे। कभी-कभी वे 'उम्म' की लम्बी आवाज निकालते थे और कई लम्बे मिनटों के बाद तमाल कृष्ण ने किसी तरह उनसे पूछने का साहस किया कि क्या कीर्तन चालू रखा जाय। इस समय तक बहुत

से अन्य भक्त भी दोपहर का भोजन समाप्त करके कमरे में प्रविष्ट हो रहे थे और वे मंद-स्वर में कीर्तन करने लगे। तमाल कृष्ण प्रभुपाद की ओर झुके और उनके पूर्व-परिवार के सदस्यों को देय वृत्ति के सम्बन्ध में उन्हें आश्वस्त किया । — प्रभुपाद

ने सिर हिलाया ।

SIPER

तमाल कृष्ण ने कहा, “आप चिन्ता न करें। मैं देखूँगा कि हर एक की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। उन्हें किसी तरह का दुख नहीं होने पाएगा। आपने हर के लिए व्यवस्था कर दी है, श्रील प्रभुपाद ।"

कुछ रुखाई लाकर हरिशौरी बोल नहीं के लिए कहता है चुके थे । हरिशौरी

थे।

:

कुछ मिनट के बाद प्रभुपाद का ध्यान हरिशौरी की ओर गया जो उनके सिरहाने के निकट चुपचाप सिसक रहा था। अपने स्वर में प्रभुपाद ने पूछा, “तुम क्यों चाहते हो कि मैं बचा रहूँ ?” सका। उसे लगा कि यदि वह प्रभुपाद को जीवित रहने तो यह एक अपराध होगा, क्योंकि वे प्रस्थान का निर्णय कर अपने मनोवेगों को रोक नहीं सकता था, और वह यह भी था, “आप रुकें और संघर्ष करें।" न तो वह, न अन्य कोई, चाहता था कि प्रभुपाद प्रस्थान करें। किसी तरह तमाल कृष्ण हरिशौरी से की गई प्रभुपाद की आखिरी टिप्पणी को पकड़ नहीं पाया था, अतः वह प्रभुपाद की ओर आगे झुका और आधा-अधूरा प्रश्न किया ।

" वे चाहते हैं कि आप जीवित रहें?"

नहीं

कहना चाहता

श्रील प्रभुपाद ने कहा, “यदि मैं मरना चाहूँ, तो यह बहुत शान्तिमय मृत्यु होगी। आप सब कीर्तन करते जाओ।'

जब कीर्तन चल रहा था, तमाल कृष्ण ने जाने की आज्ञा माँगी। प्रभुपाद ने पूछा- क्यों ? और उन्होंने कहा कि वे विचार-विमर्श के लिए जा रहे हैं।

प्रभुपाद ने कहा, “विचार-विमर्श के लिए। वे सब चाहते हैं कि मैं जीवित रहूँ और मैं चाहता हूँ कि शान्ति के साथ मरूँ। मैं कोई चमत्कार नहीं कर सकता। यदि मुझे जीना है तो इस भौतिक शरीर को बनाए रखना पड़ेगा। किन्तु बिना कुछ खाए-पिए यह भौतिक शरीर किस तरह चल सकेगा? यह दुराग्रह है । "

तमाल कृष्ण ने कहा, “हर चीज कृष्ण के हाथों में है । '

श्रील प्रभुपाद की आँखें बंद थीं, किन्तु अचानक उन्होंने खोलीं और कहा, " कृष्ण चाहते हैं कि मैं वही करूँ जो मुझे पसंद है। विकल्प मेरे हाथ में है। कृष्ण ने मुझे पूरी स्वतंत्रता दी है। "

ये शब्द कुछ भक्तों को अत्यंत चौंकाने वाले और भिन्न लगे । किन्तु ब्रह्मानंद अत्यंत लाचारी भरे आश्वासन के भाव से बोले। उन्होंने कहा, "इससे कोई अंतर नहीं आता कि आप मरते हैं या जीते हैं, प्रभुपाद । आप सदैव कृष्ण

के साथ होंगे और हम सदैव आप के साथ होंगे, क्योंकि हम आपके आदेशों का पालन करेंगे।"

प्रभुपाद ने कहा, "मैं मरूँ या जीऊँ, मैं सदा कृष्ण का सेवक रहूँगा । अतः यदि ब्रह्मानंद ने मुझे विश्वस्त किया है कि यह आंदोलन चलता रहेगा तो मुझे शान्तिपूर्वक मरने दीजिए।” भक्तजनों ने जो प्रभुपाद से केवल कुछ इंचों की दूरी पर थे, इन धीमे शब्दों को निराशा से सुना । कुछ मिनटों की भारी निस्तब्धता के बाद उन्होंने कीर्तन आरंभ किया। प्रभुपाद विश्राम करते लग रहे थे

कुछ मिनटों में सभी उपलब्ध जी.बी.सी. सदस्य और वरिष्ठ संन्यासी बाहर के कमरे में एकत्र हो गए। ब्रह्मानंद को बड़ी ग्लानि अनुभव हो रही थी कि उन्होंने प्रभुपाद से कह दिया था कि उनके बिना भी हर चीज चलती रहेगी और प्रभुपाद ने उत्तर दिया था कि इसलिए वे मरना चाहते हैं। भक्त प्रभुपाद के इस कथन से विस्मित थे कि कृष्ण ने उन्हें जैसा वे चाहें वैसा करने की स्वतंत्रता दे दी है। ये शब्द अब वज्रपात जैसे लगते थे । “कृष्ण ने मुझे विकल्प दे दिया है। " — इन शब्दों से प्रभुपाद ने सभी भक्तों का मन एक भिन्न दिशा में मोड़ दिया था। अभिराम ने उन्हें याद दिलाया कि प्रभुपाद चाहते थे कि उनके रहने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया जाय और अब वे वैसा ही विचार-विमर्श कर रहे थे। किन्तु प्रभुपाद की मनोवृत्ति में अचानक परिवर्तन आ जाने से भक्तजन परेशान और किकंर्त्तव्यविमूढ़ थे।

सबसे वरिष्ठ शिष्य, कीर्तनानंद स्वामी, स्पष्टता और तर्कपूर्वक बोले, "यदि कृष्ण ने प्रभुपाद को चुनने की आजादी दे दी है तो इसका मतलब यह है कि उन्होंने हम लोगों को भी आजादी दे दी है। अतः हमें अपनी आजादी का इस्तेमाल करना चाहिए और प्रभुपाद से हम प्रार्थना करें कि वे हमारे साथ रहें ।"

एक-एक करके भक्तों ने इस निर्णय का समर्थन किया कि श्रील प्रभुपाद से जीवित रहने के लिए प्रार्थना की जाय। हाँ, यह एक तथ्य था कि कृष्णभावनामृत आंदोलन प्रभुपाद की शारीरिक उपस्थिति के बिना भी चलता रहेगा; किन्तु वह पहले जैसा नहीं रहेगा।

ब्रह्मानंद ने कहा, “हाँ, और प्रभुपाद ने अभी श्रीमद्भागवत का अनुवाद समाप्त नहीं किया है। "

एक अन्य ने कहा, “हाँ, हमें प्रभुपाद से प्रार्थना करनी चाहिए कि वे कम-से-कम पाँच या दस वर्ष जीवित रहें।'

“पाँच या दस वर्ष ? हमें उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि वे एक सौ वर्ष रहें ।"

“किन्तु यहाँ निर्णय के लिए सभी जी.बी.सी. सदस्य नहीं हैं।"

"तो, जी.बी.सी. सदस्यों में कौन है जो कहेगा कि हमें प्रभुपाद से रहने के लिए नहीं कहना चाहिए ?'

वे सब सहमत थे। वे चाहते थे कि प्रभुपद उनके बीच रहें और उन्हें अपनी इच्छा प्रभुपाद के सामने प्रकट करनी चाहिए। पिछले कुछ दिनों के मनोभाव में अचानक परिवर्तन आ गया था। अब वे निराशा की गहराई में नहीं थे, वरन् वे सकारात्मक मन से और उत्साहपूर्वक सोच रहे थे कि श्रील प्रभुपाद उनके साथ रहें।

कीर्तनानंद ने कहा, "हमें यह क्यों सोचना चाहिए कि उनके पुनः ठीक हो जाने की कोई आशा नहीं है ? ईसा मसीह मरों को जिला देते थे और सांसारिक योगी तक यह कर सकते हैं। अतः यदि श्रील प्रभुपाद चाहें तो वे निश्चय ही ठीक हो सकते हैं।"

अब ब्रह्मानंद बलपूर्वक बोले, "हम अनुभव नहीं कर रहे थे कि हमें सचमुच प्रभुपाद की आवश्यकता है। हमें यह समझ लेना चाहिए। अपनी उपस्थिति से प्रभुपाद को एक मिनट भी बाहर जाने देने का हमारे लिए प्रश्न ही नहीं उठता।"

लगभग साढ़े तीन बजे थे जब बीस भक्त प्रभुपाद के कमरे में प्रविष्ट हुए और उनके पलंग के इर्द-गिर्द खड़े हो गए। श्रील प्रभुपाद लेटे थे, उनके नेत्र बंद थे, वे हिलडुल नहीं रहे थे, किन्तु भक्तों की उपस्थिति से सर्वथा अवगत थे। कीर्तनानंद स्वामी को प्रवक्ता चुना गया था और जब वे प्रभुपाद से बात करने के लिए नीचे झुके तो उनके होंठ काँपने लगे, आँखों में आँसू भर आए, आवाज बंद हो गई और सिर बिस्तर की बगल में रख कर वे सिसकने लगे । श्रील प्रभुपाद ने हाथ फैलाया किन्तु वह कीर्तनानंद तक नहीं पहुँच सका

"कौन ?” प्रभुपाद ने कहा ।

कई आवाजें एक साथ निकलीं, “कीर्तनानन्द । "

श्रील प्रभुपाद

से उसे थपथपाया ।

ने तब अपना हाथ कीर्तनानंद के सिर पर रखा और नरमी

उन्होंने पूछा, “हुम्म, तो तुम लोग क्या चाहते हो ?” कोई कुछ कह नहीं सका, क्योंकि वे सभी कीर्तनानंद की प्रतीक्षा कर रहे थे। ब्रह्मानंद कीर्तनानंद

को ढाढ़स देने के लिए उनकी पीठ सहला रहे थे और तमाल कृष्ण

उन्हें

कुछ

कहने के लिए प्रोत्साहन दे रहे थे। अंत में, भावावेग से भरा एक और क्षण प्रतीक्षा करने के बाद, कीर्तनानंद ने अपना सिर उठाया। उन्होंने प्रभुपाद की ओर देखा और दलील दी, “यदि कृष्ण की ओर से आप को छूट हो, तो आप मत जाइए। हमें आप की आवश्यकता है।"

प्रभुपाद ने पूछा, “तो यह आप सब की सम्मति है। क्या आपने विचार-विमर्श कर लिया है?" उन्होंने अपना हाथ हवा में उठाया और चारों ओर घुमाया, मानो सभी भक्तों को सम्बोधित कर रहे हों।

SIPUR

* ब्रह्मानंद स्वामी ने आवेगपूर्ण किन्तु सकारात्मक ढंग से कहा, “श्रील प्रभुपाद, हम सब एकसाथ मिले हैं। हम चाहते हैं कि आप रहें और आंदोलन का संचालन करें और श्रीमद्भागवत पूरा करें। हमने तय किया है कि आप कम-से-कम दस वर्ष और रहें। आपने केवल पचास प्रतिशत कार्य पूरा किया है।"

श्रील प्रभुपाद बहुत सावधानीपूर्वक सुन रहे थे, उनमें कोई गति नहीं हो रही थी, किन्तु जब ब्रह्मानंद ने "पचास प्रतिशत " कहा तो वे क्रुद्ध से हो उठे और बोले, "नहीं!" अंत में उन्होंने 'हुम्म' कहा। वे प्रस्ताव पर विचार कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे, किन्तु लगता था कि वे अंतस्थ कृष्ण से परामर्श कर रहे थे। कई बार उन्होंने 'हुम्म' कहा। और हर एक असमंजस में था, कोई न कुछ बोल सकता था, न सोच सकता था, न कर सकता था, सिवाय इसके कि हर एक ध्यानपूर्वक प्रभुपाद को देख रहा था। तब नेत्र बंद किए हुए ही उन्होंने जम्हाई ली और उनके सोने के दाँत दिखाई देने लगे। उन्होंने कहा, "बहुत अच्छा।'

जीवन और मृत्यु पर अब तक किया गया यह संभवतः सबसे आकस्मिक लगने वाला निर्णय था। उस क्षण श्रील प्रभुपाद की स्वतंत्र स्थिति को भक्त समझ सके; वे रुक सकते थे अथवा जा सकते थे, जैसी उनकी इच्छा हो । वे इतने अविश्वासी बन गए थे कि वे समझ बैठे कि प्रभुपाद का प्रस्थान अनिवार्य था और उसे रोका नहीं जा सकता था, यहाँ तक कि स्वयं प्रभुपाद द्वारा भी। अब उन्होंने अपनी दिव्य प्रकृति का प्रदर्शन एक साधारण जम्हाई लेकर- "बहुत अच्छा" से कर दिखाया, मानो जीवन और मृत्यु के बीच चयन संसार में सबसे कम महत्त्वपूर्ण चीज हो । हरिकेश क्षणिक हँसी हँसा, जैसे हँसी वह तब के लिए बचाए रखता था जब श्रील प्रभुपाद कोई नितान्त दिव्य, अबोधगम्य और अननुकरणीय काम करते थे। उसने कहा, “जय प्रभुपाद । " sippe

प्रभुपाद ने पुनः सिद्ध कर दिया कि वे बोध से परे हैं। भक्तजन सहमे-से

हँसने लगे, वे निश्चय नहीं कर सके कि उपयुक्त क्या है। यह न जानते

हुए कि उन्हें हँसना चाहिए या रोना, वे पुनः शान्त हो गए, यह देखने के लिए कि प्रभुपाद क्या करते हैं।

उन्होंने कहा, “तो मुझे कोई चीज पीने को दो।" और सभी भक्त चिल्ला उठे, "जय प्रभुपाद !” वे उनके साथ रहने जा रहे थे। इस की पुष्टि हो गई । हर एक को बड़ी राहत मिली। "श्रील प्रभुपाद की जय ।"

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "यह वास्तविक स्नेह है। "

वातावरण बदल गया था। श्रील प्रभुपाद बदल गए थे। उनके सेवकों ने उन्हें उठा लिया और सभी भक्त देखते रहे जब उन्होंने एक पूरा गिलास अंगूर का रस पिया। अब अपनी ऊर्जा समेटने की बजाय वे पुनः पूरी तरह जीवन्त हो गए थे। तब वे लेट गए। उन्होंने कहा, “बहुत-बहुत धन्यवाद, हरे कृष्ण।"

और भक्तों ने उत्तर दिया, “हरे कृष्ण।"

अस्तु, यही था जो प्रभुपाद चाहते थे। वे उनके भावावेगों को उभार रहे थे और उन्हें दिव्य दुख की दशा में डाल कर, अपने प्रति उनके स्नेह में वृद्धि कर रहे थे। अब वे समझ सकते थे, कम-से-कम अल्प मात्रा में, कि गोपियों के वियोग का दुख कैसा था। श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों को भक्ति- भावना के चरम-बिन्दु तक ले जा रहे थे और दिखा रहे थे कि वास्तव में शिष्यों का जीवन उनके हाथों में था ।

लम्बे समय तक रुक कर, उन्होंने पूछा, “स्ट्राबेरीज ? क्या वे लाई गईं हैं ?"

तमाल कृष्ण ने कहा, “हाँ, श्रील प्रभुपाद । बहुत स्वादिष्ट स्ट्राबेरीज ।” बाव उन्होंने कहा, "मैं कुछ स्ट्राबेरीज लूँगा ।'

तमाल कृष्ण ने कहा, 'श्रील प्रभुपाद, आपने बम्बई में कृष्ण को वचन दिया था कि आप उन्हें नए विशाल मंदिर में आसीन देखेंगे। आप को उन्हें दिए गए वचन अभी पूरे करने हैं।” प्रभुपाद खुल कर मुसकराए।

ब्रह्मानंद ने कहा, "आपने बम्बई मंदिर के उद्घाटन का दिन एक जनवरी निश्चित कर दिया है। अतः हम आप को आने के लिए आमंत्रित करना चाहते हैं, श्रील प्रभुपाद। यह मंदिर आप का है। आप ने कृष्ण को वहाँ आने को कहा है। जब हम सभी हार चुके थे, आप संघर्ष करते रहे थे।

प्रभुपाद मुसकराते हुए बोले, “हाँ, वह महान् संघर्ष था। इतने संघर्ष के बाद एक बड़ा मंदिर बनाना बहुत बड़ी विजय है । '

तमाल कृष्ण ने कहा, “मैं नहीं सोचता कि कृष्ण मंदिर में आएँगे ? जब तक कि आप व्यक्तिगत रूप से वहाँ द्वार खोलने के

द्वार खोलने के लिए स्वयं उपस्थित न

हों, श्रील प्रभुपाद ।"

प्रभुपाद अब भी मुसकरा रहे थे। उन्होंने कहा, "बहुत अच्छा। किन्तु कीर्तन बंद नहीं होना चाहिए। सभी चीजों को स्वाभाविक गति से चलते रहना चाहिए।" कीर्तनानंद की ओर मुड़ कर प्रभुपाद ने पूछा 'कीर्तनानंद का महल - वह

कलि

THE 35

महल-वह बन कर कब तैयार होगा ?"

कीर्तनानंद ने उत्तर दिया, "अगले वसंत के आरंभ में, ज्योंही मौसम थोड़ा गरम हो जायगा। इससे आपको थोड़ा समय स्वास्थ्य लाभ करने के लिए मिल जायगा, तब आप बम्बई जा सकेंगे और वहाँ मंदिर का उद्घाटन कर सकेंगे, और तब आप अपने महल का उद्घाटन कर सकेंगे। हमें न्यू वृंदावन के सभी भक्तों से लगभग पचहत्तर पत्र मिले हैं। और वे सभी आप से आने की प्रार्थना कर रहे हैं। वे कहते हैं उनका जीवन नष्ट हो जायगा, यदि आप वहाँ नहीं आएँगे ।"

प्रभुपाद ने कहा, “मैं थोड़ा विश्राम कर लूँ, तब स्ट्राबेरीज लूँगा।"

उस दिन तीसरे पहर श्रील प्रभुपाद अधिक श्रवणीय रूप में बोल रहे थे और श्लोक उद्धृत कर रहे थे जिसमें ईशोपनिषद् का श्लोक भी था जो कहता है कि जो परम ईश्वर को स्वीकार करता है वह सैंकड़ों वर्ष जीवित रह सकता है। वे बैठ गए और उन्होंने सब्जियों का कुछ सूप लिया। वे आधे घंटे तक गिरिराज से बैंक के मामलों के सम्बन्ध में बातें करते रहे, और बार-बार प्रश्न कर रहे थे, यह निश्चित करते हुए कि गिरिराज उनकी बात समझ रहा था । उन्होंने रामेश्वर स्वामी से ईरान में कृष्णभावनामृत के प्रचार के बारे में लम्बी बातें की।

यह समाचार सारे विश्व में शीघ्रता से फैल गया कि प्रभुपाद ने जीवित रहने का निर्णय किया है; विशेषकर वृंदावन में जहाँ उदासी व्याप्त हो रही थी, भक्तजन अब प्रसन्नचित्त और कृतज्ञ हो रहे थे। वे प्रचार के विषय में अब अधिक उत्साह से बात करने लगे। वृंदावन के सभी भक्त इस बात पर एकमत थे कि हर चीज जो प्रभुपाद करते रहे थे भक्तों की शिक्षा के लिए थी। पहले प्रभुपाद की इस शिक्षा पर चर्चा थी कि मरना कैसे चाहिए, किन्तु अब लोगों में इस बात का प्रचार था कि वे सिखा रहे थे कि जीवित कैसे रहना चाहिए । अर्थात्

प्रेम से। वे अपने प्रति उनके प्रेम में वृद्धि करके ऐसा कर रहे हैं।

में

कुछ भक्तों को लगा कि जो शिक्षा श्रील प्रभुपाद दे रहे थे वह उनकी चरम शिक्षा थी— उनके द्वारा किए जाने वाले हर कार्य का मूल लक्ष्य वास्तव कृष्णभावनामृत का आधार प्रेम है। श्रील प्रभुपाद ने अपनी पुस्तकों में लिखा था— प्रेम पुमार्थो महान् कृष्ण का प्रेम जीवन का चरम लक्ष्य है। कोई भक्त जब केवल कृष्ण के लिए शुद्ध अमिश्रित प्रेम का विकास कर लेता है, तभी वह आध्यात्म लोक में प्रवेश पा सकता है। कुछ भक्तों ने कहा कि सभी भक्तों को शुद्ध, उच्चतर प्रेम सिखाने के लिए ही, श्रील प्रभुपाद भौतिक संसार में रह रहे हैं और वृंदावन में अपनी गहरी निजी सेवा का उन्हें अवसर दे रहे हैं। किन्तु अन्य भक्तों का सोचना था कि श्रील प्रभुपाद के कार्यकलाप अत्यंत गंभीर हैं और वे उन्हें उनकी अचिन्त्य लीलाएँ मानते थे। किन्तु उनमें से हर एक, उन्हें देखकर या रिपोर्टें सुनकर, कम-से-कम, इतना समझता था कि श्रील प्रभुपाद ने भक्तों के प्रेम की कातर पुकार का उत्तर यह कह कर दिया है कि "यही वास्तविक स्नेह है।"

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सीए शाक।

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वजीर शाम

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