जी: कि कि वित रहने का वचन देकर भी श्रील प्रभुपाद कहते रहे कि हर चीज की तरह उनका जीवन अभी भी कृष्ण के हाथों में है। उनकी मुक्त रुचि का यह अर्थ नहीं था कि वे पूर्णतः स्वतंत्र हैं। अपितु शुद्ध भक्त की प्रवृत्ति तो मुक्त भाव से कृष्ण की शरण में जाने की होती है, चाहे जो कुछ भी हो। कृष्ण की परम भक्त गोपियों के भाव में, चैतन्य महाप्रभु ने प्रार्थना । की थी, " चाहे अपने आलिंगन में बद्ध करके आप मेरे साथ कठोर व्यवहार करें, या मेरे समक्ष उपस्थित न होकर मेरे हृदय को भग्न कर दें, किन्तु फिर भी आप सदा मेरे सहज आराध्य स्वामी हैं।" या चूँकि भगवान् और उनके शुद्ध भक्तों के बीच जो आदान-प्रदान होता है वह चरम वैयक्तिक होता है, अतः भगवान् तथा उनके भक्त दोनों अपनी-अपनी इच्छाएँ और व्यक्तिगत अभिलाषाएँ व्यक्त करते हैं। अपनी बाल लीला में कृष्ण कभी माता यशोदा की गोरस की मटकी तोड़ते हैं तो कभी अपने को उनसे पकड़वाते और बँधवाते हैं। प्रत्येक दशा में भगवान् और भक्त की इच्छाएँ एक होती हैं, किन्तु कभी-कभी वे प्रेम-पूर्ण संघर्ष के रूप में प्रकट होती हैं। इसी तरह यद्यपि प्रभुपाद ने भक्तों को वचन दिया था वे इस संसार में रहते जायँगे और मृत्यु की अवज्ञा करेंगे, फिर भी वे कृष्ण की इच्छा के समक्ष समर्पित बने रहे। श्रील प्रभुपाद अपना समर्पण पहले ही उस प्रार्थना में व्यक्त कर चुके थे जिसे उन्होंने अपनी ओर से, अपने भक्तों से करने को कहा था, "हे प्रिय कृष्ण, यदि आप चाहें तो श्रील प्रभुपाद को अच्छा कर दें।" "यदि आप चाहें" वाक्यांश से वे अपने अनुयायियों को कृष्ण के एकाधिकार का स्मरण करा रहे थे और उसके पालन का आदेश दे रहे थे, यद्यपि वे उनसे गुहार की क । ११४१ करने का एकमात्र स्वीकार्य उपाय भी बता रहे थे। इसी प्रकार १९६७ ई. में उन्होंने अपने शिष्यों को एक और प्रार्थना प्रदान की थी, "मेरे गुरु ने अभी अपना कार्य पूरा नहीं किया है।” उन्होंने तब कहा था कि कृष्ण ने भक्तों की प्रार्थना सुन ली थी और उनकी इच्छाओं को स्वीकार कर लिया था। श्रील प्रभुपाद स्वयं भक्तों की प्रार्थनाएँ सुन रहे थे और कृष्ण ने उन्हें विकल्प दिया था । किन्तु समर्पित प्राणी की भाँति, वे सदैव कृष्ण की इच्छा के प्रति संवेदनशील रह कर आगे की घटनाओं की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसा कि उन्होंने कीर्तनानंद द्वारा न्यू वृंदावन स्थित महल में आने के लिए आमंत्रित किए जाने पर कहा था, "देखें, किस महल को जाना होता है।" । जिस तरह भगवान् और उनके शुद्ध भक्त के बीच कभी-कभी प्रेम-पूर्ण तनाव पैदा हो सकता है उसी प्रकार का तनाव इस समय श्रील प्रभुपाद और उनके अनुयायियों के बीच था। अपने सिरहाने खड़े शिष्यों की उत्कट पुकार के पूर्व, श्रील प्रभुपाद ने अपना कर्त्तव्य समझ कर, शिष्यों को शिक्षा दी थी कि कैसे मरना चाहिए। उनके मिशन का एक भाग यह भी था कि इस महत्त्वपूर्ण पाठ के द्वारा जीवन की अंतिम परीक्षा किस प्रकार उत्तीर्ण की जाय, वे एक आदर्श उपस्थित करें। किन्तु अब उनके शिष्य प्रार्थना कर रहे थे कि वे मरने के पाठ को स्थगित कर दें और धर्मोपदेश के क्षेत्र में उनके साथ अनन्त काल तक बने रहें। और प्रभुपाद ने हामी भर ली थी, यह दिखाने के लिए कि यदि वे चाहें तो उनमें जीवित रहने की क्षमता है। किन्तु, देर या सवेर, उन्हें इस पाठ पर लौटना होगा कि मनुष्य को अंतकाल का समाना किस तरह करना चाहिए। फिनि उ रि-परि के मिक-मिक फुली श्रील प्रभुपाद के कार्यकलापों की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे मानवीय परिस्थितियों से सम्बन्ध बनाए रख कर भी, उससे सर्वथा पृथक और परे रहते थे। शुद्ध भक्त होने के कारण कर्म का नियम उन पर लागू नहीं होता था जिसके अनुसार पाप तथा पुण्य के कर्मों का फल मिलता है। वे कर्म के बल से पैदा नहीं हुए थे, न कर्म के बल से उनकी मृत्यु होनी थी। जैसा कि श्रील रूप गोस्वामी ने कहा है, "जिसके तन, मन और वचन भगवान् की सेवा में लगे होते हैं, इस संसार में रहते हुए भी वे मुक्तात्मा हैं।” लोग प्रायः इस भौतिक लोक में शुद्ध भक्त की गतिविधियों का गलत अर्थ लगाते हैं, जिस प्रकार चन्द्रमा के ऊपर से बादलों को गुजरते देख कर, लोग समझते हैं कि चन्द्रमा चल रहा है। इसीलिए शास्त्र हमें आगाह करते हैं कि गुरु को कर्माधीन सामान्य व्यक्ति न समझें। किन्तु श्रील प्रभुपाद ने इस जगत से परे रह कर, बद्धजीवों को दिखाया कि किस प्रकार कृष्ण का निरन्तर चिन्तन और सेवा करते हुए वे भी मुक्ति के स्तर पर पहुँच सकते हैं और मृत्यु के समय कृष्ण के परम दिव्य धाम को लौट सकते हैं। प्रभुपाद की शिक्षाएँ सदैव व्यावहारिक और सार्वजनीन होती थीं। उदाहरणार्थ, उनकी पुस्तकें कोरे सिद्धान्त न थीं, वरन् व्यावहारिक और अनुभूत ज्ञान से पूर्ण थीं। और प्रभुपाद जो उपदेश देते थे उसे जीवन में उतारते थे; उनका सारा जीवन आदर्श था। वे गृहस्थ जीवन में थे; तब भी वे बैक टु गाडहेड पत्रिका निकाल कर जोरदार प्रचार करते थे। उन्होंने अकिंचन और धूमिल अवस्था में रह कर एक आध्यात्मिक आंदोलन का सूत्रपात करने के लिए संघर्ष किया था और कृष्ण और गुरु महाराज की कृपा से वे सफल रहे। वे अपने मानवतुल्य प्रयासों द्वारा सदैव जीवन की कठोरताओं को सहन करने और आपदाओं का सामना करने की तत्परता दिखाते रहे। उन्होंने आध्यात्मिक जीवन का सबके लिए अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया। वृद्धावस्था में वे अकेले विदेश गए और वहाँ न्यू यार्क नगर के एक पार्क में हरे कृष्ण कीर्तन करके अमरीकी युवकों तथा युवतियों को आकृष्ट किया। अतः प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि उनके उदाहरण को स्वीकार करके कृष्ण की सेवा करे, भले ही उसके मार्ग में तात्कालिक बाधाएँ हों। श्रील प्रभुपाद को अवरोधों का सामना करना पड़ा, फिर भी अपनी मुक्त इच्छा और कृष्ण की सहायता से, वे उन सब को पार करते रहे। यह उनका विस्मयकारी उदाहरण था। कहा जाता है कि पाँच हजार वर्ष पूर्व कृष्ण की शरण जाना जितना सुगम था, भगवान् चैतन्य ने पाँच सौ वर्ष पूर्व उसे और भी अधिक सुगम बना दिया। और अब बीसवीं शताब्दी में श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण-भक्ति को समग्र विश्व के लिए संभव बना दिया है। श्रील प्रभुपाद जानते थे कि अपने उपदेश तथा उदाहरण के अंगस्वरूप उन्हें लोगों को दिखाना होगा कि कैसे मरना चाहिए। वे कई बार मृत्यु से बच चुके थे— कृष्ण की कृपा से, भक्तों की प्रार्थना से, अथवा अपने आंदोलन को फैलाने की अपनी शुद्ध और प्रबल इच्छा से । किन्तु १९७७ ई. में उन्हें कृष्ण से जो संकेत मिले, उससे श्रील प्रभुपाद इस भौतिक जगत में अंतिम और निश्चित रूप में अपने मिशन का समापन करने में लग गए। और उनके अंतिम कर्त्तव्यों में एक यह था कि वे पूरा निर्देश दें कि मरना कैसे चाहिए। वे पूर्ण रूप में दिखा रहे थे कि उसे कैसे करें जिसे हर व्यक्ति को करना है, किन्तु जिसे सफलतापूर्वक करना सब से कठिन है— अर्थात् मरना । किन्तु एक प्रेमपूर्ण संघर्ष चल रहा था। प्रभुपाद को अपने शिष्य प्रिय थे । वे यह भी जानते थे कि शिष्य अभी पूर्णत: प्रौढ़ नहीं हो पाए थे। उनके आन्दोलन में महान् आंतरिक शक्ति थी और संसार में उसका अपना ऊँचा स्थान था, तब भी उनके अनेक शत्रु थे। वे अपने शिष्यों, अपने आंदोलन, सभी प्राणियों, यहाँ तक कि पशुओं की भी रक्षा करने को सदैव उद्यत थे। अतः जब उनके परम घनिष्ठ तथा श्रद्धालु शिष्यों ने कहा कि वे उनके बिना नहीं रह सकते, तो वे मरना कैसे चाहिए, इसे दिखाने की बजाय, वे उन सबों के साथ रह कर उपदेश देने को सहमत हो गए। किन्तु वे उनके किस समय जाने के इच्छुक होंगे ? वे कब कहेंगे कि माया के संसार और कृष्ण के शत्रुओं का सफाया हो गया है ? किस समय उनके शिष्य पूर्णतया प्रौढ़ हो जायँगे ? जीवित रहने के अपने निर्णय का अनुगमन करते हुए, श्रील प्रभुपाद ने अपने को अपने शिष्यों पर छोड़ दिया, और उन्हें पूर्ण रूप से अपनी देख-भाल करने की अनुमति दे दी। जो उनकी देख-भाल में सहभागी बने उन्हें याद आया कि श्रील प्रभुपाद ने अपने और अपने शिष्यों के बीच इतने घनिष्ठ व्यवहार की अनुमति इसके पहले कभी नहीं दी थी। इससे मिलती-जुलती एक अन्य घटना १९६६ ई. में न्यू यार्क की है जब वे अपने पास पहले-पहल आने वाले व्यक्तियों से बहुत घनिष्ठता का व्यवहार करते थे। वे ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें ज्ञान नहीं था कि आध्यात्मिक गुरु से व्यवहार कैसे किया जाता है। किन्तु जो लोग अब मौजूद थे और जो उस समय भी मौजूद रहे थे, कहते थे कि ये दिन पहले से भी अधिक घनिष्ठता के थे । एक बार कीर्तनानंद दृढ़ता से आग्रह करने लगा कि श्रील प्रभुपाद एक पूरा प्याला रस पिएँ, जबकि प्रभुपाद कह चुके थे कि वे बहुत पी चुके हैं। कीर्तनानंद को आग्रह करना अनुपयुक्त लग रहा था। उसने कहा, “मैं माता यशोदा की तरह नहीं हूँ कि यह करूँ। मुझे सदैव स्मरण रहता है कि आप मेरे आध्यात्मिक गुरु हैं । किन्तु श्रील प्रभुपाद कीर्तनानंद का आदेश मानते रहे। इसी तरह भवानंद, तमाल कृष्ण, भक्तिचारु, उपेन्द्र, तथा अन्य सेवक श्रील प्रभुपाद को फुसलाते रहते थे कि वे विशेष प्रकार का भोजन लें और हमेशा अपने शरीर की देख-भाल करें। अन्य शिष्यों को ईश्वर पुरी की कहानी की याद आई जिसने अपने आध्यात्मिक गुरु माधवेन्द्र पुरी की घनिष्ठ शारीरिक सेवा की थी जब वे जीवन के अंतिम दौर में थे और अशक्त हो गए थे। चैतन्य चरितामृत के अनुसार, ईश्वर पुरी ने अपनी इसी दासोचित शारीरिक सेवा से अपने गुरु महाराज के प्रति अपना प्रेम सिद्ध किया और अंत में भगवान् चैतन्य के आध्यात्मिक गुरु बन सके। श्रील प्रभुपाद ने मरने की शिक्षा देना स्थगित कर दिया ताकि उनके शिष्यों को उनके शुद्ध तथा सरल प्रेम-भाव से उनकी सेवा का अनुपम अवसर मिल सके। यह अवसर उन्होंने इने-गिने लोगों को ही नहीं, अपितु वृंदावन आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान किया। बहुत से लोग आए और उन सब को उनके कमरे में जाने दिया गया, उन्हें उनके शरीर की मालिश करने दी गईं जब तक वे चाहें, उनके साथ बैठने दिया गया, और उनकी प्रसन्नता के लिए अखण्ड कीर्तन करने दिया गया। यह क्रम दिन-रात चलता रहा। श्रील प्रभुपाद ने अनुवाद - कार्य पुनः आरंभ कर दिया और यह सबों के समक्ष होने लगा । पहले वे एकान्त में रह कर कार्य करना पसंद करते थे, अब वे सभी भक्तों को अपने पास आने को प्रोत्साहित करने लगे, जब वे बिस्तर में लेटे हुए भक्तिवेदान्त तात्पर्य बोल कर लिखाते थे। वे अपने को पूर्णतया दे रहे थे और इसें घोषित भी कर रहे थे। उपस्थित भक्तों से वे कहते थे, “मुझे कभी मत छोड़ो" और "मैं तुम लोगों के बिना नहीं रह सकता।” उन्होंने उनसे जीवित रहने की प्रार्थना की थी और वे राजी हो गए थे, अपने को पूर्णतया उनकी देख-भाल पर छोड़ कर । जिनको उनकी ऐसी सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त था वे अपने आप को सब तरह की हिचक और भौतिक इच्छा के व्यवधान से मुक्त अनुभव कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद की अंतरंग सेवा करके वे पूर्ण समर्पण की शक्ति का अनुभव कर रहे थे और उन्हें लग रहा था कि प्रभुपाद के अंततः इस संसार से विदा लेने के बाद भी यह शक्ति उनको सँभाल लेगी। पिछले महीनों की तरह प्रभुपाद लगातार मृत्यु से निडर तथा आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिर रहने की बात करते रहते। जब हृदयानंद गोस्वामी ने हाल में पुर्तगीज़ी भाषा में छपी अपनी कुछ पुस्तकें उन्हें भेंट कीं तो उन्होंने उन्हें प्रोत्साहित किया और कहा, "यही जीवन है। भौतिक संसार केवल अस्थियाँ है । अस्थियाँ हमारा वास्तविक जीवन नहीं हैं। हमारा वास्तविक जीवन तो हमारे प्राण हैं। अस्थियाँ रहें या जाएँ, इससे अंतर नहीं आता। वास्तविक जीवन ही अस्थियों को थामे है। यहाँ तक कि इतिहास में एक ऐसे ऋषि हो गए हैं जिनके केवल अस्थियाँ थी । अतः एक ऐसा विज्ञान है जिसके द्वारा केवल अस्थियों से जिया जा सकता है। हिरण्यकशिपु ने ऐसा ही किया था।' तमाल कृष्ण ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, आप भी वही कर रहे हैं।” ि प्रभुपाद ने कहा, 'अतः जब तक संभव हो, अस्थियों की देखभाल करो, किन्तु वास्तविक जीवन यहाँ है, इसे सदैव स्मरण रखो। भौतिक जगत का अर्थ है कि हम अस्थियों और मांस की एकसाथ रक्षा कर रहे हैं। किन्तु उन्हें इसका ज्ञान नहीं कि वे क्या हैं।" और जब अत्रेय ऋषि श्रील प्रभुपाद से मिले और उन्होंने अनुरोध किया कि वे तेहरान चलें तो प्रभुपाद ने कहा कि वे जाने को तैयार हैं, “अब आपको हमारी अस्थियों की गठरी ले चलनी होगी।" ये वे ही प्रकरण हैं जिन पर श्रील प्रभुपाद हमेशा शिक्षा देते थे या जो उनकी पुस्तकों में थे। किन्तु ये शिक्षाएँ अधिक मर्मस्पर्शी और मुखर बन जाती थी जब प्रभुपाद इन्हें अपनी निजी परिस्थिति पर लागू करते थे । प्रा. एक से अधिक भक्तों ने प्रभुपाद की तुलना भीष्मदेव से की जिन्होंने अपने अंतिम दिनों में महत्वपूर्ण उपदेश दिए थे। जिस प्रकार भीष्मदेव शर- शैय्या पर लेटे हुए, किसी पीड़ा का अनुभव किए बिना, ज्ञान और प्रेम से भरा उपदेश देते रहे, और जिस तरह उन्होंने इस संसार से विदा होने का समय अपनी इच्छा से निश्चित किया था, उसी तरह श्रील प्रभुपाद ने अपनी भौतिक परिस्थिति की चिन्ता किए बिना, मृत्यु की अवहेलना करते हुए और अपने निरीह आध्यात्मिक पुत्रों को शिक्षा देते हुए, अपने अंतिम दिन व्यतीत किए। किन्तु प्रभुपाद के उनके पास अधिक देर तक रह कर उनकी दार्शनिक शिक्षाएँ मात्र नहीं सुन सकते थे। प्रभुपाद ने उनके स्नेह को स्वीकार कर लिया था जब उन्होंने उनसे अपने साथ रहने की गुहार लगाई। और अब वे अपने उस स्नेह को अपने जाने-माने संसार में ही व्यक्त करना चाह रहे थे, ऐसे संसार में जिसमें प्रभुपाद उनके साथ रहें, उनसे बातें करें, उनके साथ हँसे और जब जी चाहे उन्हें डाँटें। वे चाहते थे कि प्रभुपाद खायें, पियें और एक बार फिर शारीरिक रुप से बलवान हो जाएं। पुत्र किन्तु श्रील प्रभुपाद पुनः बदलते लगने लगे और उन्होंने खाना-पीना बंद कर दिया। अपने शिष्यों के साथ प्रेम-पूर्ण आदान-प्रदान के लिए उन्होंने अपना प्रयाण स्थगित कर दिया था; उसके साथ ही खाना-पीना बंद करके, वे प्रस्थान के लिए अपनी पसंद व्यक्त कर रहे थे। दबाव पड़ने पर उन्होंने स्वीकार किया कि बिना खाए-पिए जीवित रहना असंभव था । न ही वे चमत्कार की आशा अंतिम पाठक या इच्छा रखते थे। यदि उन्हें अच्छा होना है तो पौष्टिक तत्त्व लेना जरूरी होगा । किन्तु निजी कारणों से वे खाना नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा स्वास्थ्य लाभ भौतिक है, और वे उसे नहीं चाहते । वे कृष्ण की इच्छा के बिल्कुल अनुरूप चल रहे थे; पवित्र नाम का ही उन्हें आधार था। जो डाक्टर आते ते, वे किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाते थे, किन्तु जो वैष्णव थे वे समझ जाते थे और उनके विशेषाधिकार का सम्मान करते थे। प्रभुपाद के सेवक उन्हें नियमित उपचार के लिए फुसलाने के वास्ते चिन्तायुक्त प्रयास करते थे। किन्तु प्रभुपाद की पसंद केवल कीर्तन और भागवत के लिए थी, साथ ही वे जीवित रहने की इच्छा भी बनाए रखे थे। वे अपने शिष्यों की चिन्ता के प्रति संवेदनशील थे और जिस उलझन भरी दशा में वे थे उसकी व्याख्या धैर्यपूर्वक करते थे। वे उनकी देख-भाल चाहते थे और उन्हें सेवा करने की छूट उन्होंने दे दी थी, यह जानते हुए कि इससे वे उन्हें अधिकाधिक प्रेम की शरण में खींच रहे हैं। किन्तु धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा था कि कृष्ण की इच्छा है कि प्रभुपाद प्रयाण करें। भवानंद ने, जो सदैव इस मान्यता पर कार्य करता था कि यदि प्रभुपाद चाहें तो वे जीवित रह सकते हैं, प्रभुपाद को फुसलाते हुए कहा, “श्रील प्रभुपाद, इस पृथ्वी पर केवल आप की उपस्थिति ही ऐसी है जिसके कारण कलियुग अपना प्रभाव नहीं दिखा पा रहा है। आप के प्रयाण के बाद हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि क्या होगा। श्रील प्रभुपाद ने चेतना की पूरी स्पष्टता के साथ कहा, "यह मेरे हाथ में नहीं। कृष्ण-बलराम... । श्रील प्रभुपाद सदैव स्पष्ट, तार्किक ढंग तार्किक ढंग से तथा कृष्ण तथा कृष्ण में पूर्ण श्रद्धा के साथ बोलते थे। अपने अंतिम क्षण तक वे व्यावहारिक मामलों को सुलझाते रहे। उन्होंने बंगाल के प्राचीन मंदिरों के उद्धार के लिए भक्तिवेदान्त स्वामी चैरिटी ट्रस्ट बनाया और वे इस्कान की सम्पत्तियों और धन के ब्योरे बनवाते रहे। वे इन सारे कार्यों को करते समय सतर्क रहते थे और कीर्तन तथा भागवत में लीन होते थे । - किमान किन्तु उनके शिष्यों को स्पष्ट हो गया था कि उन्हें (रहने का) वचन देकर भी वे अब अनिवार्य रूप से अंतिम शिक्षा देने के लिए अग्रसर हो रहे थे। वे पढ़ा रहे थे कि प्रेम मृत्यु के परे है, कि एक भक्त का प्रेम उसके गुरु को संसार में रहने के लिए वापस बुला सकता है और, कि एक शुद्ध भक्त अपने निर्धारित समय के बाद भी संसार में रहने की क्षमता रखता है। इस बीच वे लगातार अंतिम बिन्दु की ओर अग्रसर हो रहे थे। भक्त उनसे क्रुद्ध नहीं थे कि वे ऐसा कर रहे थे, न ही उन्हें लगता था कि वे उनके साथ धोखा करके ऐसा कर रहे थे। उन्होंने उन्हें बता दिया था कि कृष्ण की ओर से उन्हें उन्मुक्त इच्छा मिली थी। और उन्होंने भी अपनी स्वतंत्र इच्छा से उनसे रहने को कहा था और वे राजी हो गए थे। किन्तु वे जानते थे कि उनके गुरु बाध्य नहीं थे। यदि उनकी प्रार्थनाओं के बावजूद भगवान् कृष्ण श्रील प्रभुपाद को कह रहे थे कि परम धाम को लौट आओ तो भक्त इसे स्वीकार करने के अतिरिक्त क्या कर सकते थे ? यदि श्रील प्रभुपाद स्वीकार कर रहे थे तो भक्त भी इसे स्वीकार करेंगे। किन्तु उनके समर्पित प्रेम में किसी चीज से कोई परिवर्तन नहीं आ सकता था। अब यह एक ठोस संधि बन गया था जो किसी प्रकार के भौतिक परिवर्तनों से समाप्त नहीं किया जा सकता था। वे शाश्वत प्रेमपूर्ण सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके थे और मृत्यु उसे छीन नहीं सकती थी । अंत तक कृष्ण के लिए श्रील प्रभुपाद की मृदुता तथा संघर्ष के दुर्गम्य भाव का अभिनय चलता रहा। एक दिन प्रभुपाद की बहिन पिशीमा अचानक आ गईं तो प्रभुपाद ने उनसे खिचड़ी पकाने को कहा। उस समय कीर्तनानंद प्रभुपाद के पेय पदार्थों की मात्रा बढ़ा कर क्रमशः उन्हें स्वास्थ्य-लाभ के मार्ग पर ले जाने का प्रयास कर रहे थे, अतः उन्होंने तथा अन्य भक्तों ने प्रभुपाद के अचानक ठोस पदार्थ लेने का विरोध किया, किन्तु श्रील प्रभुपाद अपने आग्रह पर अड़े रहे । श्रील प्रभुपाद ने कहा, "इससे कोई अंतर नहीं आता कि वह मेरे लिए जो कुछ पका रही है उससे मुझे लाभ होगा या हानि। वह एक वैष्णवी है, यह मेरे लिए अच्छा ही होगा।" वे तब अत्यन्त विनीत भाव से कहने लगे, “संभवतः अपने ऐश्वर्य और सफलता से मैं कुछ गर्वित हो उठा था। अब भगवान् ने उस गर्व को चूर-चूर कर दिया है। यदि शरीर न रहे तो फिर गर्व किस बात का ?" भक्तिचारु स्वामी ने प्रतिवाद किया, " श्रील प्रभुपाद, आप ने जो है, वह कृष्ण के लिए किया है।" कुकी कुछ किया का" हो सकता है, किन्तु इस संसार में अनजाने में भी अपराध हो जाता है।" जब पिशीमा ने यह सुना तब वह बोल पड़ीं, "नहीं, नहीं, उसने कभी कोई अपराध नहीं किया।" भक्तिचारु ने कहा, “आप से कभी कोई अपराध नहीं हो सकता। आप भगवान् के अत्यंत प्रिय हैं। आप अपराध कैसे कर सकते हैं ?" श्रील प्रभुपाद ने कहा, "मैं कुछ तुनकमिजाज हूँ। मैं बदमाश, धूर्त जैसे शब्दों के प्रयोग का अभ्यस्त था। मैने कभी समझौता नहीं किया। वे कहा करते थे, “एक हाथ में लाठी, दूसरे में भागवत ।" मैं इसी तरह धर्मोपदेश करता हूँ। जो भी हो, मेरी बहिन के लिए व्यवस्था करना।" श्रील प्रभुपाद के गुरुभाई भी उनसे मिलने आए और प्रभुपाद ने उन सबसे अपने अपराधों के लिए क्षमा-याचना की। एक समय निष्किंचन कृष्णदास बाबाजी, पुरी महाराज, आश्रम महाराज, आनन्द प्रभु, पुरुषोत्तम ब्रह्मचारी और लगभग बीस अन्य लोग आए और प्रभुपाद के बिस्तर की बगल में बैठ गए। जब वे पहुँचे, तब प्रभुपाद विश्राम कर रहे थे। वे लोग कीर्तन में सम्मिलित हो गए, जब तक प्रभुपाद नहीं जगे । जब उन्होंने उन लोगों को देखा तो अपने को ऊपर उठाने को कहा। अपने बिस्तर के मध्य में, अपने गुरुभाइयों से घिरे बैठ कर उन्होंने उन सब को सम्बोधित किया। हुए उन्होंने कहा, "समस्त संसार में कृष्णभावनामृत के प्रचार के लिए सुंदर क्षेत्र है। मैंने चिन्ता नहीं की कि मैं सफल होऊँगा या नहीं। लोग उपदेश ग्रहण करने को आतुर हैं। वे ग्रहण कर भी रहे हैं। यदि हम मिल कर प्रचार करें तो चैतन्य महाप्रभु का पृथिवीते कथन सत्य हो सकता है। हमारे पास हर वस्तु है। पवित्र नाम का प्रसार करें और प्रसाद बाँटें। बहुत सुंदर क्षेत्र है। अफ्रीका में, रूस में, सभी जगह वे स्वीकार कर रहे हैं।" जब प्रभुपाद ने अपने गुरुभाइयों से क्षमा माँगी तो उन्होंने प्रतिवाद किया। उनमें से एक ने जोर देकर कहा, “आप शाश्वत नेता हैं। आप हम पर शासन करें, हमारा मार्गदर्शन करें और हमें ताड़ना दें।" प्रभुपाद ने दुहराया : “मेरे सभी अपराधों को क्षमा करें। मैं अपने सभी ऐश्वर्यों के कारण गर्वित हो गया था ।" पुरी महाराज ने कहा, "नहीं, आप में गर्व कभी नहीं था। जब आपने प्रचार आरंभ किया तो ऐश्वर्य और सफलता आप के अनुगामी बने । यह भगवान् चैतन्य महाप्रभु और भगवान् कृष्ण का आशीर्वाद था। आप के अपराधी होने का कोई प्रश्न उठता ही नहीं।" जब श्रील प्रभुपाद ने अपने को महापतित कहा तो पुरी महाराज ने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा, “आप ने संसार-भर के लाखों लोगों का उद्धार किया है। अतः आप के अपराध का प्रश्न ही नहीं उठता। आप को महापतित-पावन कहना चाहिए।" प्रभुपाद के शिष्यों ने, प्रभुपाद के अपने गुरुभाइयों से क्षमा माँगने को उनकी विनम्रता समझा । किन्तु वे परेशान भी थे । निश्चय ही प्रभुपाद के गुरुभाई सच्चे मन से कह रहे थे कि प्रभुपाद ने कोई अपराध नहीं किया है। उन्होंने जो कुछ किया है, वह कृष्ण के लिए किया है। किन्तु प्रभुपाद भी सच्चे मन से क्षमा-प्रार्थना कर रहे थे। यही उनकी विनम्रता का सुंदर रत्न था— कि वे हर एक से क्षमा माँग रहे थे। धर्मोपदेश के उद्देश्य से, इस रत्न का प्रदर्शन हर कस्बे और गाँव में भगवान् कृष्ण की कृपामयी शिक्षाओं के प्रसार में, हमेशा सबसे अधिक प्रभावशाली उपाय नहीं सिद्ध हुआ था। किन्तु अब इसका प्रदर्शन किया जा सकता था । लंदन में, और अब वृंदावन में, प्रभुपाद अपने शिष्यों के प्रति अतिरिक्त स्नेह और कृतज्ञता दिखा रहे थे, अब वह डाँट फटकार नहीं रह गई थी जो शिष्यों के प्रशिक्षण में आमतौर से जरूरी होती है। पूर्ण विनम्रता का यह भाव, भक्ति के जीवन में सर्वोच्च दर्जा प्राप्त कर लेने का लक्षण था। श्रील प्रभुपाद ने अपनी पुस्तकों में बताया था कि मध्यमाधिकारी (दूसरी श्रेणी का भक्त) भक्तों, निरीह अभक्तों तथा राक्षसों में भेद करता है, जबकि महाभागवत (प्रथम श्रेणी का भक्त), अपने अतिरिक्त, प्रत्येक को भगवान् का दास मानता है। किन्तु कभी-कभी महाभागवत अपने सर्वोच्च मंच से द्वितीय श्रेणी के मंच पर आने की इच्छा रखता है ताकि वह कृष्णभावनामृत के प्रचार का अत्यंत दयामय कार्य कर सके । प्रभुपाद के सभी शिष्यों ने शास्त्रों में महाभागवत पद के सम्बन्ध में पढ़ रखा था और अब वे प्रभुपाद में उसका पूर्ण प्रदर्शन देख रहे थे जब वे अपने को महापतित कह कर प्रत्येक से क्षमा-प्रार्थना कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्य, लोकनाथ स्वामी, के कार्यक्रम के विषय में सुन रखा था कि वे एक बैलगाड़ी में अपने छोटे से दल को लेकर भारत-भर के गाँवों में धर्मोपदेश का कार्य कर रहे हैं। लोकनाथ ने श्रील प्रभुपाद को बताया था कि किस तरह अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने बदरिकाश्रम तथा भीम कपूर जैसे तीर्थों का हाल में भ्रमण किया है। यह सुन कर प्रभुपाद अत्यन्त प्रोत्साहित हुए और बैलगाड़ी में बैठ कर वृंदावन क्षेत्र की परिक्रमा की दिव्य भावना उनमें जाग उठी । तमाल कृष्ण और भवानंद, जो प्रभुपाद की अंतरंग सेवा में थे, प्रभुपाद की इच्छा का समर्थन करने में असमर्थ थे, क्योंकि उन्होंने सोचा कि उनका जर्जर शरीर ऊबड़-खाबड़ सड़कों की यात्रा सहन करने योग्य नहीं था । किन्तु श्रील प्रभुपाद ने तर्क दिया, "परिक्रमा में मृत्यु पाना श्रेयस्कर है।" और उन्होंने शिष्यों से कहा कि वे उन्हें परिक्रमा पर ले चलें। भक्तों के मध्य विवाद खड़ा हो गया। कुछ ने कहा कि परिक्रमा पर जाने की प्रभुपाद की इच्छा का गुरु के आदेश की तरह तुरन्त पालन होना चाहिए। वे उसे चाहते थे, अत: उन्हें मना नहीं करना चाहिए। किन्तु डाक्टर ने भक्तों को विश्वास दिलाया कि प्रभुपाद का शरीर बैलगाड़ी के हिचकोले सह नहीं सकेगा। श्रील प्रभुपाद के पलंग की चारों ओर एकत्र शिष्यों के विचार भिन्न-भिन्न थे और प्रभुपाद इसे देख रहे थे। किन्तु उनके अनुरोध पर लोकनाथ जाकर एक बैलगाड़ी किराए पर ले आया और प्रभुपाद की सवारी के लिए उसे तैयार किया। लोकनाथ तथा हंसदूत ने सुझाव दिया कि परिक्रमा वृंदावन नगरी की हो या वे केवल सात गोस्वामियों के मंदिरों का दर्शन कर आएँ। किन्तु तब उन्होंने कहा कि, क्योंकि अगले दिन गोवर्धन-पूजा है, अतः प्रभुपाद गोवर्धन पर्वत जा सकते हैं। किन्तु तमाल कृष्ण, भवानंद, और भक्तिचारु ने परिक्रमा का दृढ़ता से विरोध किया । 'बहुत अच्छी पिकनिक प्रभुपाद ने कहा, "एक दिन का प्रयोग है। यह एक दिन चलेगा, विश्वास रखो, मैं एक दिन में नहीं मरूँगा।" उन्हें गोवर्धन जाने का विचार पंसद आया। " और हम लोग वहाँ अपना भोजन बनाएँगे।” उन्होंने कहा। उन्होंने लोगों को विश्वास दिलाया कि लोकनाथ स्वामी अनुभवी हैं। रहेगी।" उन्होंने कहा । सभी बातों पर विचार करने के बाद भक्तों ने तय किया कि अगले दिन तड़के वे श्रील प्रभुपाद को बैलगाड़ी में बैठा कर गोवर्धन ले जायँगे। तब अधिकांश भक्त रात-भर के लिए प्रभुपाद को अकेले छोड़ कर चले गए। उसी रात देर में निष्किञ्चन कृष्णदास बाबाजी प्रभुपाद को मिलने आए। वे उनके साथ बैठ रहे, कीर्तन करते रहे और बीच-बीच में बंगला में बातें करते रहे। अचानक ही तमाल कृष्ण और भवानंद प्रभुपाद के पास आए। उनके आँसू बह रहे थे और वे चिन्ता से बेहाल थे। प्रभुपाद समझ गए। उन्होंने पूछा, “तुम चाहते हो कि मैं न जाऊँ ?” तमाल कृष्ण ने कहा, "जी, श्रील प्रभुपाद, मैं आप को बताता हूँ कि मैं ऊपर अपने कमरे में बैठा उद्विग्न हो रहा था। मैं इधर-उधर टहल रहा था। दो भक्तों ने मुझे बताया है कि यह सड़क इतनी खराब है कि यदि आप इस सड़क पर जायँगे तो आगे-पीछे हिचकोले खायँगे। सड़क भयावह है। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि हम लोग कल ही प्रात: क्यों चल रहे हैं। यात्रा करनी चाहने वालों में मैं सब से आगे हूँ। किन्तु जब आप की दशा ऐसी है तो हम यात्रा पर क्यों जायँ ? मैं इसे समझ नहीं सकता। हम सारे विचारों को इसलिए ताक पर क्यों रख दें कि हमें कल जाना है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।" श्रील प्रभुपाद ने नरमी से कहा, “बहुत अच्छा।" और वे न जाने के उनके विचारों से तुरन्त सहमत हो गए। भक्तिचारु, जो वहाँ मौजूद था, बोल उठा, "जय प्रभुपाद ।” भवानंद ने बड़ी राहत का अनुभव करते हुए कहा, “धन्यवाद, श्रील प्रभुपाद ।" “बहुत अच्छा। तुम लोग संतुष्ट हो ?" भवानंद ने कहा, “अब मैं संतुष्ट हूँ, श्रील प्रभुपाद, में था । " मैं बहुत बड़ी चिन्ता कमरी “चिन्ता न करो, मैं तुम्हें परेशानी में नहीं डालूँगा ।" तमाल कृष्ण ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, हमारा आप से वास्तव में इतना लगाव हो गया है कि आप कभी-कभी हमें पागलपन की ओर धकेल देते हैं। आज रात हम पागल हो रहे थे।" प्रभुपाद ने कहा, "नहीं, नहीं, मैं ऐसा नहीं करूँगा।" प्रभुपाद निष्किञ्चन कृष्णदास बाबाजी की ओर मुड़े और बोले, “बाबाजी महाराज, जरा देखिए इनमें मेरे लिए कितना स्नेह है। तमाल कृष्ण ने कहा, “श्रील प्रभुपाद, जिस तरह आप हम लोगों से व्यवहार करते हैं, उससे आप के प्रति हमारा लगाव हर क्षण बढ़ता जाता है।" प्रभुपाद ने कहा, कहा, "यह मेरा कर्तव्य है," और सभी भक्त बात समझ कर प्रसन्नता से हँस पड़े। हाँ, वे समझ सकते थे कि यह उनका कर्त्तव्य था। प्रभुपाद का मन्तव्य अपने सभी कार्यों और व्यवहारों से जीवात्माओं को वश में करके उन्हें कृष्णार्पण करना था। उनकी विधि प्रेमाभक्ति की थी, किन्तु वे इसे अपने लिए नहीं करते थे। वे उन्हें कृष्ण को अर्पित कर देते थे। यही उनका कर्त्तव्य था । १४ नवम्बर १९७७ को साढ़े सात बजे सायंकाल, वृंदावन के कृष्ण-बलराम मंदिर में, श्रील प्रभुपाद ने इस नश्वर संसार को त्याग कर और भगवान् के धाम लौट कर अपना अंतिम उपदेश दिया। उनका प्रयाण अनुसरणीय था, क्योंकि उनका पूरा जीवन अनुसरणीय था । उनका प्रयाण कृष्ण की शुद्ध प्रेमाभक्ति को समर्पित एक जीवन-पूर्णता का सूचक था। अपने अंत के कुछ दिन पूर्व श्रील प्रभुपाद ने कहा था कि वे यथासंभव उपदेश दे रहे हैं और उनके सचिव ने कहा था, "आप प्रेरणा हैं।” श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, “हाँ, वह मैं अंतिम सांस तक रहूँगा।" प्रभुपाद की "अंतिम सांस" महिमा-मण्डित थी, इसलिए नहीं कि अंतिम समय में उन्होंने कोई चमत्कारिक प्रदर्शन किया, अपितु इसलिए कि वे पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहे। पितामह भीष्म की तरह वे पूर्णतया संयत, उदार और गंभीर रहे और अंत तक शिक्षा देते रहे। वे यही उपदेश देते रहे कि जीवन जीवन से उत्पन्न होता है, जड़ पदार्थ से नहीं और वे दिखा रहे थे कि मनुष्य को अंतिम सांस तक उपदेश देना चाहिए। अनेक भक्त जो विशाल कमरे में भरे थे इस बात के साक्षी थे कि प्रभुपाद अंत तक जैसे थे वैसे ही बने रहे। उन्होंने शिष्यों को जो कुछ दिखाया और सिखाया था, अचानक कोई चीज ऐसी नहीं हुई जो उससे मेल न खाती हो। अतएव अपने प्रयाण के समय वे सिखा रहे थे कि कृष्ण पर सदैव निर्भर रहते हुए कैसे मरना चाहिए। प्रभुपाद का निधन शान्तिपूर्ण था । १४ नवम्बर की संध्या में कविराज ने उनसे पूछा, "क्या कोई चीज ऐसी है जिसे आप चाहते हैं?" और जिसे आप चाहते हैं?" और प्रभुपाद ने धीमे स्वर में कहा था, "कुछ इच्छा नहीं।" उनका निधन पूर्ण परिस्थिति में, वृन्दावन में, भक्तों के बीच हुआ। कुछ महीने पहले उनके एक शिष्य की एक छोटी लड़की का वृन्दावन में देहान्त हो गया था और जब प्रभुपाद से पूछा गया कि क्या वह कृष्ण की वैयक्तिक संगति करने सीधे परम धाम को गई होगी तो उन्होंने कहा था, “हाँ, जो भी वृंदावन में अपना शरीर त्याग करता वह मुक्त हो जाता है।" निस्सन्देह, वृंदावन का अर्थ शुद्ध कृष्णभावना की स्थिति भी है। जैसा कि भगवान् चैतन्य के विषय में अद्वैत आचार्य ने कहा था, "आप जहाँ भी रहते हैं, वहीं वृंदावन है।" यह श्रील प्रभुपाद के विषय में भी सच है। अतः यदि वे लंदन, न्यू यार्क या मास्को में मरे होते, तो भी उनका गन्तव्य यही होता । जैसा कि भगवान् कृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं, “जो निरंतर मेरा चिन्तन करता है, वह अवश्य मुझे ही प्राप्त करता है।" किन्तु चूँकि वृंदावन धाम इस ब्रह्माण्ड के भीतर कृष्णभावना का सर्वोत्कृष्ट लोक है, इस संसार से प्रयाण के लिए आदर्श स्थान है, इसलिए श्रील प्रभुपाद के जीवन का यह एक अन्य आदर्श आयाम था कि वह परमात्मा के परम धाम को, वृंदावन को अपना अंतिम पड़ाव बना कर, गए। जिन वैष्णवों ने वृन्दावन कभी न छोड़ने का व्रत लिया था, वे देख सकते थे कि श्रील प्रभुपाद, विश्व के अधिकांश ईश्वरविहीन स्थानों में पतित आत्माओं के उद्धार के लिए, हर वस्तु की बलि देकर — जिसमें वृंदावन में निवास करने का लाभ भी सम्मिलित था-वृंदावन की पुण्य भूमि में पुन: लौट आए थे और वहाँ से उन्होंने भगवान् कृष्ण के मूल स्थान, वैकुण्ठ, के लिए प्रयाण किया था। जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है, "जो कोई वृंदावन में रह कर सेवा करता है, इस शरीर को त्यागने के बाद निश्चय ही भगवान् के धाम को जाता है श्रील प्रभुपाद का प्रयाण पूर्ण भी था, क्योंकि वे भगन्नाम का जप और श्रवण कर रहे थे। अस्तु, श्रील प्रभुपाद के प्रयाण के समय भगवान् उसी तरह उपस्थित थे, जिस तरह वे भीष्मदेव के सुविख्यात प्रयाण के समय उपस्थित थे। और भीष्मदेव ने कहा था, "सबों पर समान रूप से दयालु होते हुए भी भगवान् मेरे, अपनी जीवन लीला समाप्त करने के समय, मेरे समक्ष प्रकट हुए है, क्योंकि मैं उनका अविचल सेवक हूँ।” जैसा कि भगवान् कृष्ण भीष्मदेव के समक्ष आए थे और उन्हें तथा प्रत्येक प्राणी को आश्वासन दिया था कि शरीर त्यागने के बाद भीष्म भगवान् के पास वापस जा रहे हैं, उसी प्रकार भगवान् अपने हरे कृष्ण मंत्र के नाम अवतार के रूप में, श्रील प्रभुपाद के प्रयाण के समय उपस्थित थे । श्रील प्रभुपाद का जीवन प्रत्येक ग्राम और प्रत्येक नगर में पवित्र भगवन्नाम के प्रचार हेतु समर्पित था और एक मास तक उन्होंने अपने को पवित्र नाम से घेरवा रखा था। अपने प्रयाण के लिए उनकी यह विशेष इच्छा थी कि उनका कमरा हरे कृष्ण गाने वाले भक्तों से भरा रहे और कृष्ण ने उनकी यह इच्छा पूरी की। अतएव श्रील प्रभुपाद ने अत्यन्त अनुकूल परिस्थितियों में प्रयाण 1किया-वृंदावन के अत्यन्त पवित्र स्थान में और पवित्र भगन्नाम जपने वाले वैष्णवों से घिरे हुए। आदर्श शिक्षक इस प्रकार का आचरण करता है कि अन्य लोग उसके आदर्श का अनुकरण करें। जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि ये महान् आत्माएँ, जो जन्म-मृत्यु के सागर को कृष्ण के चरणकमल की "नौका" की शरण ग्रहण करके पार करती हैं, “नौका” को, और अन्यों के प्रयोग के लिए, इस ओर छोड़ती जाती हैं। और श्रील प्रभुपाद का अन्तर्धान, अपने पूर्ण आदर्श से, समस्त बद्धजीवों को बड़े से बड़ा संकट झेलने के लिए साधन प्रदान करता है। शुभ मृत्यु मनोवैज्ञानिक समंजन की ही बात नहीं होती जिससे कोई मनुष्य बिना शोक के अथवा अत्यधिक व्यग्रता का अनुभव किए बिना ही मर सके। वास्तविक तथ्य यह है कि मृत्यु के समय आत्मा को शरीर छोड़ना और दूसरा जन्म लेना पड़ता है। केवल कृष्णभावनाभावित आत्मा ही जन्म-मृत्यु वाले इस संसार को त्याग कर वैकुण्ठलोक में आनन्दमय जीवन प्राप्त करता है। अतः किसी के जीवन की परीक्षा मृत्यु के समय ही होती है। मृत्यु का अर्थ है कि आत्मा शरीर में और अधिक समय नहीं रह सकता। भौतिक कारण जो भी हो, परिस्थिति आत्मा के लिए असह्य हो जाती है। और शरीर त्यागने पर महान् कष्ट होता है। अतः शास्त्रों का हमें उपदेश है कि हम बार बार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाएँ। किसी प्राणी के लिए अशुभ मृत्यु पाना और किसी निम्न योनि में जन्म के लिए घसीटा जाना अत्यंत भयावह वस्तु होती है। यह इतनी भयावह है कि हम मृत्यु की एकदम अवहेलना करने का प्रयास कर सकते हैं। मृत्यु कष्टकर है क्योंकि शाश्वत आत्मा को एक अत्यन्त अप्राकृतिक स्थिति में रखा जाता है: यद्यपि आत्मा शाश्वत है और उसे मरना नहीं चाहिए, किन्तु भौतिक शरीर के साथ सम्बन्ध होने से उसे मरना पड़ता है। मृत्यु के समय शाश्वत आत्मा को शरीर त्यागना पड़ता है और उसे ऐसे गन्तव्य को भेज दिया जाता है जिसे वह नहीं जानता । फलतः वह भय और कष्ट से भरा होता है। कष्ट और भय सामान्यतः अपार होते हैं और प्राणी केवल भौतिक लगावों या शारीरिक कष्ट का ही चिन्तन करता है । इसीलिए राजा कुलशेखर ने प्रार्थना की थी और श्रील प्रभुपाद उस प्रार्थना को प्रायः उद्धृत करते थे, "मेरा प्रयाण तब हो, जब मैं शारीरिक मृत्यु के विषय में निरन्तर चिन्तन न करता होऊँ, अपितु हरे कृष्ण मंत्र का जप करता होऊँ । यदि मैं आप का ध्यान कर सकूँ और तब यह शरीर छूटे, तो यही सिद्धि होगी । " इस संसार में अपने जीवन के अंतिम महीनों में श्रील प्रभुपाद ने सिखाया कि किस प्रकार कृष्णभावना में रहते हुए, एक-एक पग चलकर, मृत्यु का सामना करना संभव है। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने अपने एक संन्यासी से कहा, "ऐसा न सोचना कि तुम्हारे साथ ऐसा नहीं होगा।" श्रील प्रभुपाद इस संसार में, कृष्ण के आग्रह पर हमें सिखाने आए थे कि किस प्रकार कृष्णभावनामृत का शुद्ध जीवन जीना चाहिए और इसमें यह भी सम्मिलित है कि किस प्रकार अंततः इस संसार से निकल कर शाश्वत जीवन प्राप्त करना चाहिए। प्रभुपाद ने जिस प्रकार मृत्यु पाई, वह पूर्ण और महिमामय था और साथ ही हम सब के लिए अनुसरणीय है। जब हमें जाना हो, उस समय हम उस महान् जीवात्मा की स्मृति का सहारा लें कि उसने कैसे शरीर का त्याग किया— निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करते हुए, हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन की औषधि से अपने को आवृत्त किए हुए, सदैव कृष्ण के विषय में सुनने को इच्छुक रहते हुए, और भौतिक जीवन के कष्टों से छुटकारे का अभ्यास करते हुए। यह अंतिम पाठ अत्यंत आश्चर्यजनक और महत्वपूर्ण था जिसे श्रील प्रभुपाद ने हमें सिखाया । उन्होंने अपने जीवन से, अपनी पुस्तकों से और अंत में अपनी मृत्यु से यह पाठ हमें सिखाया। मरने की शिक्षा, विशेष रूप से, मनुष्य के लिए है। पशु मरता है और मनुष्य भी मरता है, किन्तु माना जाता है कि मनुष्य मरने के समय वैकुण्ठ में जाने की प्रक्रिया जानता है। श्रील प्रभुपाद ने कृष्णभावनामृत में निरन्तर स्थिर तथा अविचलित रह कर एक विशेषज्ञ की भाँति इस प्रक्रिया की शिक्षा दी। अतएव उनका निधन एक पूर्ण पाठ था जिसका श्रद्धापूर्वक अनुगमन किया जा सकता है। श्रील प्रभुपाद के लिए इस संसार से विदा होकर भगवान् के पास वापस जाने में कोई चीज शोक करने योग्य नहीं थी, किन्तु उनके शिष्यों और संसार के लोगों के लिए यह शोचनीय था कि वे अपने महानतम शुभचिन्तक और परोपकारी की उपस्थिति से वंचित हो गए। श्रील प्रभुपाद ने श्रीमद्भागवत के एक तात्पर्य में लिखा था, "जब गुरु का नश्वर शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है तो शिष्य को उसी प्रकार रोना चाहिए जैसे राजा के शरीर त्यागने पर रानी विलाप करती है।” अपने स्वयं के गुरु के निधन पर श्रील प्रभुपाद ने लिखा था, "हे, गुरु महाराज उस दिन मैं शोक से चिल्ला उठा था। मैं आपकी अनुपस्थिति को सहन नहीं कर सकूँगा, मेरे गुरु।” अतः १४ नवम्बर १९७७ को जब जब सारे संसार में यह जबरदस्त समाचार फैला तो जो श्रील प्रभुपाद को जानते और प्रेम करते थे, उनमें भयावह, असीम शोक व्याप्त हो गया। उन्हें अपनी चारों ओर हर चीज श्रील प्रभुपाद के वियोग के असह्य वातावरण में दिखाई देने लगी । सान्त्वना के लिए वे श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों की ओर मुड़े । किन्तु शिष्य तथा गुरु कभी विलग नहीं होते, क्योंकि जब तक शिष्य गुरु के आदेशों का पालन करता रहता है, गुरु उसके साथ हमेशा रहता जाता है। यह वाणी की संगति कहलाती है। शारीरिक उपस्थिति वपुः कहलाती है। जब तक गुरु सशरीर विद्यमान है तब तक शिष्य को गुरु के भौतिक शरीर की सेवा करनी चाहिए और जब गुरु शारीरिक रूप से उपस्थित नहीं रहता, तो शिष्य को गुरु के आदेशों का सेवन करना चाहिए। कमाए फो श्रील प्रभुपाद के शिष्य पहले से उनके आदेशों का पालन कर रहे थे, किन्तु अब उन्हें वपुः के बिना, उनके दर्शन और उनके साथ का सुयोग प्राप्त हुए बिना, ऐसा करना पड़ेगा। प्रारंभ में उनके लिए ऐसा कर पाना कठिन था, किन्तु जो निष्ठावान थे उन्हें शीघ्र ही अनुभव होने लगा कि श्रील प्रभुपाद अपने प्रयाण से उन्हें सबसे बड़ा उपहार दे गए हैं—वह है वियोग में सेवा । वियोग में सेवा सर्वोच्च अनुभूति तथा आनन्द है। भगवान् कृष्ण और उनकी परम भक्त वृन्दावन की गोपियों के विषय में, भगवान् चैतन्य की यही शिक्षा थी। जब कृष्ण अपनी परम प्रिय गोपियों को त्याग कर मथुरा चले गए, जहाँ से वृंदावन आना न हो पाया, तो गोपियाँ (और अन्य सभी वृन्दावन-वासी) वियोग में करुण क्रन्दन करते रहे। वे कृष्ण को इतनी चाहती थीं कि उनके वियोग में रह नहीं सकती थीं, अतः जीवन बनाए रखने के लिए वे कृष्ण का नाम, यश, रूप तथा उनके संगियों का निरन्तर स्मरण और विवेचन करने लगीं; प्रेम-वश निरन्तर स्मरण करते-करते और कृष्ण के वृंदावन लौटने की आशा लगाए रखने से गोपियों को विरह में मिलन का आनंद प्राप्त होने लगा, जिसे गौड़ीय वैष्णव विद्वान, कृष्ण की उपस्थिति में गोपियों द्वारा अनुभूत आनन्द से भी श्रेष्ठ घोषित करते हैं। चूँकि कृष्ण परम सत्ता हैं, अतः उनके स्मरण तथा नाम-कीर्तन से भक्त उनके सीधे सम्पर्क में आ जाता है। किन्तु चूँकि मिलन के साथ-साथ उनसे वियोग की भी अनुभूति रहती है इसलिए समवेत मिलन और वियोग का एक अकल्पनीय अतिरिक्त आयाम पैदा हो जाता है। कृष्ण-चेतना के साक्षात्कार का यही निचोड़ है। प्रभुपाद के अनुयायी विप्रलंभ-सेवा के इस सिद्धान्त को जानते थे, किन्तु अधिकांश भक्तों के लिए यह मात्र सैद्धान्तिक अनुभूति थी । कृष्ण के उत्कट प्रेममय वियोग का अनुभव होने के पूर्व, कृष्ण के लिए उत्कट आकर्षण भी होना चाहिए। किन्तु जिस बद्धजीव ने कृष्ण का विस्मरण करके उनका त्याग कर दिया है और माया के वशीभूत होकर भौतिक संसार में जन्म लिया है—उसके लिए कृष्ण का वियोग नितान्त अज्ञानता और विस्मृति पर आधारित है। एक नवदीक्षित, आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने पर, नास्तिकतावादी भ्रान्तियों पर विजय प्राप्त करके, पहले ईश्वर के अस्तित्व के विषय में जागरूक होता है। उसके बाद, वह अपने गुरु की सेवा करके, धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा, कृष्ण की सेवा का सम्बन्ध अंगीकार करता है। वियोग में कृष्ण का उत्कट प्रेम अत्यन्त उन्नत अवस्था है जो नवदीक्षित द्वारा सम्भवत: पूर्णतया प्राप्त नहीं की जा सकती। अतः प्रभुपाद के अनेक अनुयायियों के लिए वियोग में सेवा एक सैद्धान्तिक शिक्षा रहती आई थी। किन्तु जब श्रील प्रभुपाद इस लोक से विदा हुए और अपने मिशन को आगे बढ़ाने का दायित्व अपने शिष्यों पर छोड़ गए तो शिष्यों को तत्काल वियोग में संयोग की अनुभूति हुई। प्रभुपाद चले गए थे किन्तु वे फिर भी उनके साथ थे। यह अनुभूति कोई मिथ्या प्रदर्शन, या पौराणिक कल्पना नहीं थी, न ही यह भावुकता भरी कोई मनोवैज्ञानिक घटना थी जैसे "मृतकों के साथ वार्तालाप" आदि — यह नितान्त सार- गर्भित, व्यावहारिक, इन्द्रियगोचर वास्तविकता और जीवन की सच्चाई थी। श्रील प्रभुपाद ने उनको व्यक्तिगत सेवा सिखाई थी और अब वे वह सेवा जारी रखेंगे। अपनी शिक्षाओं के माध्यम से श्रील प्रभुपाद अब भी उपस्थित थे और उनसे प्रत्यक्ष संसर्ग का सारा अमृत—कृष्णभावनामृत का सारा अमृत जो उन्होंने उन्हें दिया था और जिसमें वे उनके साथ सहभागी बने थे—अब भी उपलब्ध था । प्रभुपाद के शिष्यों के लिए वियोग में सेवा, निस्सन्देह, एक वास्तविकता थी, अन्यथा वे, जबकि इस समय वे उनकी साक्षात् उपस्थिति से विहीन थे, किस तरह अपना आध्यात्मिक जीवन चालू रख सकते थे। इस तथ्य से कि वे पहले की तरह चल रहे थे, वे अपनी भक्ति-भावना में वृद्धि कर रहे थे और सेवा की अपनी योग्यता में भी वृद्धि कर रहे थे, यही अर्थ निकलता था कि प्रभुपाद अब भी उनके साथ थे। चूँकि प्रभुपाद का अंतिम उपदेश इस पाठ के रूप में था कि मनुष्य को कैसे मरना चाहिए, अब वे सिखा रहे थे कि मरने के भी आगे, गौड़ीय वैष्णव धर्म की उच्चतम दार्शनिक शिक्षाओं को व्यवहार में कैसे क्रियान्वित किया जाय । इस अनुभूति से भक्तों को यह महान् आशा मिली कि श्रील प्रभुपाद और उनके द्वारा लाया गया कृष्णभावनामृत का क्रान्तिकारी जीवन-दर्शन उनके प्रयाण से समाप्त नहीं हुए हैं। प्रायः जब कोई महापुरुष मरता है तो उसका योगदान मर जाता है; किन्तु श्रील प्रभुपाद की उपस्थिति बनी रही और सम्वृद्ध होती गई, और उनके भक्तों के जीवन को सम्बल देती रही। वे अब भी प्रभारी थे । गिदी क की- उपसंहार करके का इस वर्णन में कि किस प्रकार कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के अनुयायी उनके वियोग में उनकी सेवा के अमृत का रसास्वादन करते रहे हैं, केवल उन कुछ सहस्र शिष्यों का ही समावेश नहीं है जिनको उन्होंने अपने जीवन काल में दीक्षित किया था। श्रील प्रभुपाद मात्र एक आचार्य नहीं थे, वरन् कृष्णभावनामृत आंदोलन के संस्थापक- आचार्य थे जो एक सक्रिय आध्यात्मिक वास्तविकता है। यह वास्तविकता युग-धर्म या आध्यात्मिक जीवन के उस रूप से किसी तरह कम नहीं है जिसकी संस्तुति समस्त मानवता के लिए इस कलियुग में की गई है, उस कलियुग में जो सभी युगों में सब से अधिक खतरनाक जिसमें मानव जाति अन्ततः सभी धार्मिक सिद्धान्तों का परित्याग कर देती है । सागर जीवन के चरम लक्ष्य की शिक्षा भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता में दी थी जब उन्होंने घोषणा की थी, "सभी धर्मों का परित्याग करके मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें पाप के सभी फलों से मुक्त कर दूँगा। डरो नहीं।” कृष्ण ने यह शिक्षा पाँच सहस्र वर्ष पूर्व दी थी जब वे इस संसार में प्रकट हुए थे, किन्तु लोगों ने कृष्ण की शिक्षा को गलत समझा और उसकी गलत व्याख्या की। अतः चैतन्य महाप्रभु ने अवतार लिया ताकि कृष्ण के प्रति समर्पण के मूल संदेश को, मुख्य रूप से संकीर्तन आंदोलन चला कर, जिसमें भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन किया जाता है, पुनर्जीवित करें। चैतन्य महाप्रभु के एक महान् भक्त, भक्तिविनोद ठाकुर ने, जो उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकट हुए थे, पहले ही समझ लिया था कि भगवान् चैतन्य के संकीर्तन आन्दोलन का समग्र संसार में प्रसार हो सकता था और होगा। उन्होंने अनेक धर्मों और दर्शनों का गहन अध्ययन किया था किन्तु उन्हें लगता था कि भगवान् चैतन्य का संकीर्तन विश्वजनीन था; वह धार्मिक जीवन का सारभूत अंश था जिसमें सभी लोगों को जोड़ने और उन्हें पूर्णता देने की शक्ति थी । भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र भक्तिसिद्धान्त सरस्वती थे जो श्रील प्रभुपाद के आध्यात्मिक गुरु हुए और जिन्होंने श्रील प्रभुपाद को पश्चिम में प्रचार करने हेतु जाकर कृष्णभावनामृत की विश्वव्यापी कल्पना को साकार रूप देने का आदेश दिया । पर अतएव ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद को केवल थोड़े-से अंतरंग सेवकों का गुरु अथवा शिष्यों की एक पीढ़ी का गुरु नहीं मानना चाहिए। कृष्णभावनामृत आंदोलन के संस्थापक- आचार्य के रूप में उन्होंने कृष्ण-भक्ति के उस मानक रूप की स्थापना की जिसका अनुगमन सभी निष्ठावान अनुयायी आगामी हजारो वर्षों तक कर सकते हैं। शास्त्रों की भविष्यवाणी है कि यद्यपि वर्तमान युग निरन्तर अशुभ, असौभाग्यपूर्ण और विकृत होता जा रहा है, किन्तु भगवान् चैतन्य के अवतार के दस हजार वर्ष बाद, कलियुग की शक्ति के बावजूद, कृष्ण-भक्ति के स्वर्ण युग का आगमन हो सकता है। अतएव श्रील प्रभुपाद ने महत्त्वपूर्ण वैष्णव शास्त्रों—भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, चैतन्य-चरितामृत तथा भक्तिरसामृत सिन्धु—के अनुवाद और भक्तिवेदान्त तात्पर्य इस योजना के साथ तैयार किए कि वे दस हजार वर्षों तक कृष्णभावनामृत आन्दोलन का आधार रहेंगे। ठीक अतः हम श्रील प्रभुपाद का वर्णन अनुयायियों की केवल एक पीढ़ी का गुरु कह कर नहीं कर सकते। श्रील प्रभुपाद जगत गुरु हैं। वे प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु हैं जो श्रद्धापूर्वक भगवान् कृष्ण की गुरु-परम्परा का संदेश, जैसा कि उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु से परम्परा द्वारा प्राप्त किया, दे रहे हैं। किन्तु उससे अधिक वे कृष्ण द्वारा वह करने को अधिकृत हुए जो किसी ने कभी नहीं किया। वे चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन को कलियुग में विश्व-भर में प्रसारित करने के लिए संस्थापक- आचार्य बने । गुरु जो कोई भी वर्तमान अनीश्वरवादी युग के दुष्प्रभावों से संरक्षण चाहता है वह प्रभुपाद द्वारा वर्णित भगवान् चैतन्य की शिक्षाओं के निर्देशन के भीतर प्रेमाभक्ति के अनुसरण द्वारा प्राप्त कर सकता है। श्रील प्रभुपाद के शक्तिशाली प्रचार और सिद्धियों से भगवान् चैतन्य की उदात्त शिक्षाओं का रूप उद्घाटित हुआ, जिनकी अन्यथा अवहेलना हो रही थी और दुरुपयोग हो रहा था और जो भारत तक सीमित थीं । वास्तव में श्रील प्रभुपाद भगवान् चैतन्य की इस भविष्यवाणी को समझ सके कि कृष्णभावनामृत का प्रचार संसार के प्रत्येक नगर और गाँव में होगा । श्रील प्रभुपाद को इन शब्दों में विश्वास था और उन्होंने स्वयं अपने जीवन काल में देखा कि कृष्णभावनामृत सभी जातियों और संस्कृतियों द्वारा स्वीकार किया जा सकता था, उन लोगों द्वारा भी जिन्हें वैदिक मानदण्डों से आदिवासी और अछूत माना जाता था । अतएव श्रील प्रभुपाद के अध्यवसायों के फलस्वरूप कृष्णभावनामृत आंदोलन इस समय संसार में कहीं भी और किसी के भी द्वारा व्यवहार्य होने योग्य सिद्ध हो चुका है। । वियोग में श्रील प्रभुपाद की सेवा कोई भी कर सकता है। उन्होंने अपने सभी अनुयायियों को चार दुष्कृत्यों से बचने को कहा— माँस- भक्षण, मादक द्रव्य सेवन, अवैध यौन-सम्बन्ध और द्यूत-क्रीड़ा और प्रतिदिन माला पर कम-से-कम सोलह फेरियाँ हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करने को कहा। उन्होंने यह भी उपदेश दिया कि नियमित रूप से भगवद्गीता यथारूप और श्रीमद्भागवत जैसे वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। और आध्यात्मिक स्वास्थ्य और शक्ति बनाए रखने के लिए ताकि आध्यात्मिक सिद्धान्तों का पालन हो सके, मनुष्य को समान विचार वाले भक्तों की संगति करनी चाहिए। जो कोई भी इन आधारभूत सिद्धान्तों को मानता है और श्रील प्रभुपाद को कृष्ण का सीधा प्रतिनिधि स्वीकार करता है, वह उनका अनुयायी है। और वैदिक शास्त्रों का कथन है कि केवल कृष्ण के प्रतिनिधि की सेवा करने से कोई स्वयं कृष्ण का प्रिय बन सकता है। कुहागर काण्डल sine FE कृष्ण की सेवा के रूप असीम हैं, जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने कौशलपूर्वक दिखाया। उन्होंने वैज्ञानिकों, कलाकारों, दार्शनिकों, व्यवसायियों, सभी को अपनी योग्यताओं और धंधों के अनुसार कृष्ण की सेवा के लिए आमंत्रित किया । कलाकार अपनी कल्पना के अनुसार चित्र बनाने अथवा भौतिक ऊर्जा के विविध रूप अंकित करने के स्थान पर, आध्यात्मिक लोक में स्थित कृष्ण के चित्र बना सकता है। कवि कृष्ण को परम सत्य के रूप में वर्णित कर सकता है; दार्शनिक कृष्ण की व्याख्या सभी कारणों के कारण-रूप में कर सकता है। वैज्ञानिक सिद्ध कर सकता है कि जीवन जीवन से आता है और व्यवसायी कृष्णभावनामृत के सुयोग्य कल्याणकारी कार्यकलापों के लिए धन का दान कर सकता है। अतः किसी व्यक्ति को ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए अपना परिवार छोड़ने या किसी गुफा में जाकर निवास करने की आवश्यकता नहीं है। जीवन की किसी भी स्थिति में मनुष्य सांसारिकता से निकल कर कृष्णभावनामृत के अभ्यास द्वारा आध्यात्मिक मंच पर पहुँच सकता है। श्रील प्रभुपाद का मन्तव्य इसी विस्तृत और उदार ढंग से कृष्णभावनामृत को समाज में व्याप्त कराना है। । अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ प्रभुपाद का, भक्तों का अपना संघ है जिसका उद्देश्य उन सभी व्यक्तियों की सहायता करना है जो श्रील प्रभुपाद के निर्देशन में आध्यात्मिक जीवन का विकास करने में रुचि रखते हैं। इस्कान प्रभुपाद का संगठन था मंदिर - उपासना को स्थापित करने और उसका विस्तार करने के लिए, पुस्तकों का प्रकाशन और वितरण करने के लिए, और सामुदायिक जीवन की स्थापना के लिए जहाँ भक्त साथ-साथ रह सकें और सेवा कर सकें। अतएव प्रभुपाद ने अपनी सारी सम्पत्तियाँ, जिनमें वे वैभवशाली मंदिर भी हैं जिनका निर्माण उन्होंने भारत में किया था, इस्कान को सौंप दीं ताकि वह उनके कामों की रक्षा कर सके और उन्हें स्थायी बना सके। और उन्होंने अपने शिष्यों को उपदेश दिया कि वे कृष्णभावनामृत आंदोलन का और अधिक विस्तार करने के लिए आपस में सहयोग करके उनके प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन करें। जब एक शिष्य ने बम्बई में प्रभुपाद के वैभवपूर्ण आवास की प्रशंसा की तो उन्होंने कहा, "मैं इसे अपने साथ नहीं ले जा सकता। मैं इसे तुम लोगों के प्रयोग के लिए छोड़ रहा हूँ। " कृष्णभावनामृत के मुख्य उपहार, जो प्रभुपाद लाए, प्रत्येक के लिए हैं। यद्यपि अधिकांश लोग इसे नहीं जानते, किन्तु वास्तव में वे सभी सच्चे आध्यात्मिक जीवन के आनंद के भूखे हैं। करुणा-वश, प्रभुपाद कृष्णभावनामृत के उपहारों को संसार के सभी भूखे लोगों में बाँटना चाहते थे। ये उपहार — मन की शान्ति, संतोष, चिन्ता से मुक्ति — कोई भी प्राप्त कर सकता है, यदि वह परम ईश्वर की सच्चे मन से भक्ति करे। इस शुद्ध आनन्दपूर्ण स्थिति की सिद्धि, प्रभुपाद द्वारा छोड़ी गई शक्तिशाली रिक्थ को अपनाने से हो सकती है : वह रिक्थ है उनकी पुस्तकें, उनके भक्त, उनका कृष्णभावनामृत संघ, और वर्तमान संदर्भ की हर परिस्थिति में कृष्णभावनामृत को दक्षता के साथ लागू करने की उनकी पद्धति। जो कोई बुद्धिमत्तापूर्वक कृष्णभावनामृत का अभ्यास अपनाएगा उसे भगवान् कृष्ण के शुद्ध भक्त श्रील प्रभुपाद के साथ अपने सम्बन्ध की आश्चर्यजनक अनुभूति भी प्राप्त होगी। हमें आशा है कि श्रील प्रभुपाद-लीलामृत से पाठकों को श्रील प्रभुपाद के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता मिलेगी। इसका योगदान वियोग में प्रभुपाद को स्मरण करने की प्रवृत्ति पैदा करने में है। उनकी लीलाओं का स्मरण करने से पाठक का सीधा सम्बन्ध उनसे और परम ईश्वर से हो जाता है और यह स्मरण उसे भौतिक संसार के बन्धन से मुक्त कर सकता है एवं इस योग्य बनाता है कि वह आध्यात्मिक लोक में कृष्ण और उनके पार्षदों की शाश्वत लीलाओं के अमृत का आस्वादन कर सके। श्रील प्रभुपाद के जीवन का अंत १४ नवम्बर १९७७ को नहीं हुआ। और हमें आशा है कि श्रील प्रभुपाद-लीलामृत के पाठक इसे एक बार पढ़ लेने के बाद इस साहित्य से अपना सम्बन्ध समाप्त हुआ नहीं समझेंगे। श्रील प्रभुपाद - लीलामृत का आद्यन्त पाठ नियमित रूप से किया जा सकता है। हमें आशा है कि श्रील प्रभुपाद के विषय में सुन कर पाठक स्वयं प्रभुपादानुग बन जायगा । किसी के लिए हम इससे बढ़ कर सौभाग्य की कामना नहीं कर सकते। इति श्रील प्रभुपाद - लीलामृत कार्तिक मास में ९ नवम्बर १९८२ को वृन्दावन में इस्कान कृष्ण-बलराम मंदिर में पूरा किया गया । |