हिंदी में पढ़े और सुनें
श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 8: नई दिल्ली - ‟वीरान में अकेले रोदन”  » 
 
 
 
 
 
मैने, अपने वर्तमान भौतिक शरीर का त्याग करने के ठीक बाद, “भगवान के धाम में लौटने" का सूत्र पा लिया है, और अपने साथ संसार के अपने सभी समकालीन स्त्री-पुरुषों को ले जाने के उद्देश्य से मैने अपना पत्र “बैक टु गाडहेड" एक साधन के रूप में आरंभ किया है। कृपा करके मुझे कोई चमत्कारिक या पागल व्यक्ति मत समझिए, जब मैं कहता हूँ कि अपने वर्तमान भौतिक शरीर का त्याग करने के बाद मैं "भगवान के धाम में लौट" जाऊँगा ! यह हर एक के लिए और सब के लिए बिल्कुल संभव है।

-भारत के राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद को लिखे गये एक पत्र से

जब अभय मथुरा पहुँचे तो उन्होंने केशव महाराज को खोज निकाला जो उस समय अपना मठ स्थापित करने में लगे थे। अभय ने उन्हें भगवान् चैतन्य की मूर्ति भेंट की । केशव महाराज की प्रार्थना पर अभय वहाँ रहने और गौड़ीय पत्रिका का सम्पादन करने को तैयार हो गए। अभय को एक कमरा दिया गया, और पहली बार ( यदा-कदा के अधिवासों को छोड़कर) वे अपने गुरुभाइयों के साथ किसी मठ के अधिवासी बने। एक वरिष्ठ और अनुभवी भक्त होने के नाते अभय क्लास लेते थे और ब्रह्मचारियों को जो युवा और अशिक्षित थे और चाहे वे निरक्षर भी हों— भक्ति के विषयों पर और भगवद्गीता के दर्शन पर शिक्षा देते थे ।

भक्तिवेदान्त प्रभु ने अपना कार्य हाल में ही आरंभ किया था, जब उनके एक अन्य गुरुभाई संन्यासी भक्तिसारंग गोस्वामी ने उनसे दिल्ली के गौड़ीय संघ आश्रम में सहायता करने को कहा। केशव महाराज और भक्ति सारंग गोस्वामी दोनों अभय को एक सिद्धहस्त लेखक और सम्पादक स्वीकार करते थे और उनकी इच्छा उनके साथ कार्य करने की थी । श्रील भक्तिसिद्धान्त के भक्तों में यह माना जाता था कि ए. सी. भक्तिवेदान्त प्रभु एक दक्ष प्रचारक और लेखक हैं, चाहे अंग्रेजी हो, हिन्दी हो या बंगाली हो । अस्तु, केशव महाराज चाहते थे कि अभय उनके साथ रह कर गौड़ीय पत्रिका पर कार्य करें, जबकि भक्तिसारंग महाराज, जिन्हें बंगाल जाना था, अभय से प्रार्थना कर रहे थे कि अभय दिल्ली जायँ और वहाँ से हारमोनिस्ट पत्रिका (जिसका हिन्दी नाम 'सज्जन - तोषणी' था) निकालें। अभय भक्तिसारंग गोस्वामी के प्रस्ताव को मानने को तैयार थे और केशव महाराज ने भी उसे स्वीकार किया, इस शर्त पर कि अभय गौड़ीय पत्रिका का भी कम से कम डाक द्वारा, सम्पादन करते रहें ।

सम्पादक के रूप में अभय अपने को अनुकूल वातावरण में पाते थे, और अपने गुरुभाइयों के साथ प्रचार करने में उन्हें बहुत प्रसन्नता होती थी । यद्यपि वे अपने को सिद्धहस्त लेखक या विद्वान् नहीं मानते थे, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती उनके लेखन से प्रसन्न थे और उन्हें यह कार्य जारी रखने को प्रोत्साहित करते रहते थे और अब उनके वरिष्ठ संन्यासी भी उनसे सहायता की याचना करने लगे थे। वास्तव में संन्यासियों में होड़-सी थी कि अभय की सहायता से लाभ कौन उठाता है। अभय सोचते कि अपने गुरुभाइयों के साथ विनीत भाव से सेवा करना ही, कदाचित् उनके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।

झाँसी से निष्कासन उनके लिए एक प्रकार का झटका-सा था; कम से कम थोड़ी देर के लिए यह संदिग्ध हो गया था कि कृष्ण उनका उपयोग कैसे करना चाहते हैं। लेकिन उनके गुरुभाई अब इस प्रश्न का उत्तर देते प्रतीत हो रहे थे। किसी आश्रम में संन्यासियों और ब्रह्मचारियों के साथ रहना और कार्य करना जीवन का ऐसा ढर्रा था जिसे अभय किसी समय बहुत कठिन समझते थे । और भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने टिप्पणी की थी, 'अच्छा होगा कि वह (अभय ) तुम लोगों से अलग रहे।” लेकिन अब उन्हें या तो अपने पास कुछ न होते हुए, अकेले संघर्ष करना था, या गौड़ीय मठ में अपने गुरुभाइयों के सहारे रहना था । उन्हें लगा कि कदाचित् अपने गुरुभाइयों के आश्रम में रह कर वे कृष्णभावनामृत का प्रचार करने की अपनी इच्छा की पूर्ति कर सकेंगे।

अभय को शीघ्र ही सज्जन तोषणी का सम्पादक बनना था, इसलिए वे उसके विस्तार के बारे में सोचने लगे। यह एक विद्वत्तापूर्ण वैष्णव- पत्रिका थी, लेकिन उसका प्रकाशन बहुत उथले ढंग से हो रहा था और उसकी सदस्य- संख्या बहुत कम थी। उन्होंने कल्पना की, उस समय की जब वह भारत की बढ़िया पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली से बढ़ जायगी; वे चाहते थे कि वह अमेरिका की टाइम या लाइफ पत्रिकाओं से अधिक लोक-प्रिय हो जाय। और क्यों नहीं ? कृष्ण कोई दरिद्र नहीं थे। अभय दिल्ली के बहुत से प्रमुख और धनाढ्य लोगों के पास पहुँच कर, चंदा इकठ्ठा करने का महत्त्वाकांक्षापूर्ण कार्यक्रम आरंभ करने की बात सोचने लगे। तब, कृष्ण की कृपा से, वे सज्जन तोषणी में रंगीन चित्र छाप सकेंगे और अच्छी किस्म का कागज लगा सकेंगे। कृष्ण पर निर्भर रहते हुए, वे अपनी शक्ति - भर प्रयत्न करेंगे और ग्राहक बनाते समय वे अपने साथ पाण्डुलिपियाँ ले जायँगे और उन्हें प्रकाशित कराने का प्रयत्न करेंगे। दक्षिण भारत के डा. अलगप्पा उनका गीतोपनिषद् प्रकाशित करना चाहते थे; इसमें संदेह नहीं कि उनकी तरह के और भी बहुत से लोग थे ---- या शायद भक्तिसारंग गोस्वामी ही गौड़ीय संघ की निधियों की सहायता से अभय की पुस्तकें छापने के इच्छुक हों ।

भक्तिसारंग गोस्वामी के सहायक से अभय को शीघ्र एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें सावधानीपूर्वक निर्देश दिए गए थे, कि कम से कम खर्चे में, वे कैसे दिल्ली पहुँच सकते हैं। उन्हें दिल्ली की यात्रा तीसरे दर्जे में रेलगाड़ी से करनी थी और वहाँ से ताँगा लेना था। स्टेशन के गेट पर ताँगों का किराया ज्यादा होगा, इसलिए उन्हें स्टेशन के बाहर दाहिनी ओर करीब सौ मीटर पैदल चलना चाहिए, जहाँ ताँगे सस्ते होंगे। यदि वे अकेले हों तो उन्हें एक रुपया बारह आने से अधिक नहीं देना चाहिए; लेकिन उन्हें प्रयत्न करना चाहिए कि कोई और सवारी भी मिल जाय; इससे किराया कम पड़ेगा । सहायक ने लिखा था, ' श्मशान को अपने बाएँ रखते हुए, यदि आप अपनी दाहिनी ओर देखेंगे तो आप हमारी लाल पताका और हिन्दी तथा अँग्रेजी में लिखा साइनबोर्ड देख पायेंगे। जब आप यहाँ पहुँच जायँगे तो ताँगे का किराया हमारी ओर से दे दिया जायगा ।'

गौड़ीय संघ में अभय को बड़ी अव्यवस्था मिली। अपने गुरु भक्तिसारंग गोस्वामी, की अनुपस्थिति में ब्रह्मचारी आपस में लड़ रहे थे और अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा कर रहे थे; परिणाम स्वरूप चंदा - संग्रह और प्रचार कार्य में वे उदासीनता दिखा रहे थे। भक्तों में स्वच्छता, आराधना, भोजन बनाने और यहाँ तक कि शान्ति बनाए रखने का स्तर बहुत निम्न कोटि का था । और अभय के गुरुभाइयों के अन्य मठों के समान ही गौड़ीय संघ निर्धन था। अभय यहाँ एक पत्रिका का सम्पादन करने के विचार से आए थे लेकिन यहाँ उनका सामना आपस में लड़ते हुए नव-दीक्षित भक्तों से हुआ । उन्हें पता चला कि जिस ब्रह्मचारी के जिम्मे जनता के सामने व्याख्यान देने का कार्य था, उसने कोई प्रचार कार्य नहीं किया था; जो भक्त पहले लोगों के घरों में जाकर कीर्तन किया करते थे, वे अब लापरवाह बन गये थे और इधर-उधर समाचार पहुँचाने वाले लड़के ने वैसा करने से इनकार कर दिया था, क्योंकि उसकी साइकल खो गई थी। तब एक ब्रह्मचारी ने अभय को भक्तिसारंग गोस्वामी का एक पत्र दिया जिसमें उनसे मठ का सामान्य प्रबन्ध अपने हाथ में लेने की प्रार्थना की गई थी ।

हर एक को प्रेरित करें कि वह सेवा में लगे... अन्यथा मैं नहीं समझता कि हम अँग्रेजी पत्रिका कैसे निकालेंगे। चूँकि निधि में बहुत धन नहीं है और चूँकि ब्रह्मचारी बहुत लापरवाह हैं, अकिंचन महाराज ने लिखा है कि वे प्रबन्ध की जिम्मेदारी लेने में असमर्थ हैं। बहुत अच्छा हो, यदि आप इन मामलों पर नजर रखें।

और अभय ने सज्जन तोषणी के प्रकाशन में अन्य कठिनाइयाँ पाईं; वहाँ टाइप - राइटर नहीं था, और मुद्रक से सम्बन्ध खराब थे ।

कुछ ही दिनों में, अभय को भक्तिसारंग गोस्वामी से दूसरा पत्र मिला जिसमें बताया गया था कि कौन से लेख छापने थे. और इस बात से आगाह किया गया था कि पत्रिका के महत्त्वपूर्ण अंगों में कोई परिवर्तन न किया जाय और उन्हें याद दिलाया गया था कि उनका विशेष कर्त्तव्य क्या था :

मैने अकिंचन महाराज से कहा है कि वे कमरे की चाबी आप को दे दें जिससे कार्यालय के काम के लिए आप केवल मेरे कमरे का उपयोग करें। चूँकि आप वहाँ हैं, इसलिए हर एक को और सबको आप आदेश दें कि वे आश्रम में शान्ति बनाए रखें।

अभय ने पाया कि जब तक आश्रम में शैथिल्य और छोटी-मोटी बातों पर आपसी झगड़ों की समाप्ति नहीं होती, वे सम्पादन कार्य नहीं कर सकते । लेकिन जब उन्होंने भक्तिसारंग गोस्वामी के आदेशानुसार कुछ करने का प्रयत्न किया, तो कुछ भक्तों ने विरोध किया, और यहाँ तक कि, शिकायत करते हुए अपने आध्यात्मिक गुरु को भी लिखा ।

बहुत सी कठिनाइयों का सामना करते हुए अभय ने सज्जन तोषणी के अगस्त १९५५ ई. के अंक के कार्य को प्रकाशक की अन्तिम तिथि तक पूरा किया । इतने पर भी, मुद्रण में देर होने के कारण, पत्रिका सितम्बर से पहले न निकल सकी। अंत में, जब प्रथम कुछ प्रतियाँ प्राप्त हुईं, तो अभय ने बहुत सी प्रतियाँ भक्तिसारंग गोस्वामी को कलकत्ता भेजते हुए उनकी अनुक्रिया के लिए प्रार्थना की।

अभय को अपने गुरुभाई से सीधे कोई उत्तर नहीं मिला। लेकिन उनके सचिव, रामानन्द, से उन्हें आगे के लिए कई निर्देश मिले। रामानन्द ने पत्रिका में कई भूलों की ओर संकेत किया, बिना ऐसे किसी उल्लेख के कि भक्तिसारंग को पत्रिका से प्रसन्नता हुई है। भूलें अधिकतया शैली के तकनीकी मामलों से सम्बन्धित थीं : अभय ने मुद्रित पृष्ठों को भिन्न तरीके से सजाया था और भक्तिसारंग गोस्वामी का नाम ठीक उस ढंग से मुद्रित नहीं हुआ था जैसा कि वे अपने सभी लेखों में चाहते थे। टाइप - राइटर के लिए अभय की प्रार्थना के उत्तर में रामानन्द ने लिखा कि यदि, "लेख सफाई से लिखे जाते हैं तो मुद्रक को उन्हें टाइप करके देने की आवश्यकता नहीं है।"

अभय ने भक्तिसारंग गोस्वामी को यह प्रार्थना करते हुए लिखा कि वे दिल्ली आएँ और मठ में शान्तिपूर्ण वातावरण स्थापित करें। सज्जन तोषणी के विषय में भक्तिसारंग गोस्वामी ने सुझाव दिया कि पत्रिका के आवरण का पेपर और अच्छा होना चाहिए और पूरी पत्रिका को अधिक अच्छे कागज पर आधुनिकतम प्रेस में छपाना चाहिए। अभय इससे सहमत थे; लेकिन सुधार के लिए धन अपेक्षित था ।

यह सुझाव ...कि पत्रिका को कलकत्ता में छपाया जाय, बहुत अच्छा है। लेकिन मेरा सुझाव है कि चाहे कलकत्ता में हो, चाहे दिल्ली में, हमारे पास अपना प्रेस होना चाहिए जिसके सभी उपकरण अच्छे हों जिससे हम श्री चैतन्य महाप्रभु के संदेश को सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में, विशेषकर अंग्रेजी और हिन्दी में, प्रसारित कर सकें। हिन्दी की आवश्यकता अखिल भारतीय प्रचार के लिए है जबकि अंग्रेजी की अखिल विश्व - प्रचार के लिए ।

अभय ने आगे लिखा कि चूँकि किसी मुद्रक से यह आशा करना लगभग असंभव है कि वह हस्तलिखित पाण्डुलिपियों से शीघ्रतापूर्वक कार्य कर सकता है, इसलिए वे एक टाइपराइटर किराए पर ले चुके हैं। ग्राहकों की संख्या बढ़ाने के विषय में भी उन्होंने अपने विचारों का उल्लेख किया।

***

अभय के पुत्र वृन्दावन उनके साथ गौड़ीय संघ में कुछ दिन रहने के लिए आए। अभय के लिए अपने परिवार में वापस जाने का कोई प्रश्न नहीं था, और वृन्दावन, मठ की दिनचर्या का अनुगमन करते हुए और पिता की सहायता करते हुए, केवल उनके साथ लगे रहे। एक दिन एक सुप्रसिद्ध एडवोकेट जो हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे, गौड़ीय मठ में अप्रत्याशित रूप से आए । मठ अधिकतर वीरान था, और कोई प्रसाद तैयार नहीं था । इसलिए अभय और वृन्दावन ने सुप्रसिद्ध अतिथि का स्वागत किया; उनके लिए भोजन तैयार किया; उन्हें प्रसाद दिया और संघ के कार्यकलापों से उन्हें परिचित कराया ।

***

जब अभय अव्यवस्थित मठ के प्रबंध में न लगे होते और गौड़ीय पत्रिका तथा सज्जन तोषणी के लिए कार्य - रत न होते, तो वे अपना समय श्रीचैतन्य - चरितामृत के हिन्दी - अनुवाद में लगाते । यद्यपि अँग्रेजी और बंगाली में लिखने का उन्हें अधिक अभ्यास था, फिर भी वे तर्क देते थे कि जब तक उन्हें हिन्दी - क्षेत्रों में प्रचार करना था, ऐसी पुस्तक का बड़ा महत्त्व होगा ।

भक्तिसारंग गोस्वामी ने लिखा कि वे सज्जन तोषणी के सितम्बर अंक की केवल पाँच सौ प्रतियाँ मुद्रित कराना चाहते थे। लेकिन अभय अधिक प्रतियाँ छापना चाहते थे । मुद्रक से यह इकरारनामा कर लेने के बाद कि एक हजार प्रतियों के मुद्रण का चार्ज वही होगा जो पाँच सौ प्रतियों के मुद्रण का, उन्होंने भक्तिसारंग गोस्वामी को यह खुशखबरी देते हुए लिखा । उन्होंने यह भी लिखा कि हाल में ही उन्हें कागज का एक अनुदान मिल गया है और डाक के चार्ज में एक चौथाई की रियायत भी उन्होंने प्राप्त कर ली है।

इसलिए केवल कुछ कागज बचाने के लिए हम पूरी प्रतियाँ क्यों न छापें ? मेरी सम्मति में हमें हर महीने एक हजार प्रतियों से अधिक छपानी चाहिए और बड़े पैमाने पर उनका वितरण करना चाहिए ।

किन्तु भक्तिसारंग ने एक पोस्टकार्ड पर संक्षिप्त उत्तर दिया कि पाँच सौ प्रतियों से अधिक नहीं छपाना है ।

अभय ने सज्जन तोषणी को सुधारने का प्रयत्न जारी रखा। उनके लिए यह कोई औपचारिक कर्त्तव्य पालन नहीं, वरन् आत्म-विभोर करने वाला प्रचार कार्य था । भक्तिसारंग गोस्वामी को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने चिन्ता व्यक्त की कि अगले अंक के लिए उनके लेख नहीं प्राप्त हुए। धन का अभाव था — इतना अभाव कि अभय के पास उपयुक्त धोती नहीं थी— फिर भी वे सज्जन तोषणी के गौरवमय भविष्य की कल्पना में लीन थे ।

मैं इस पत्रिका को 'इलस्ट्रेटेड वीकली' के स्तर की बनाना चाहता हूँ जिसमें विभिन्न चित्र हों ताकि वह बहुत जन-प्रिय हो सके और इसके लिए मैं स्वयं जाकर ग्राहक और विज्ञापनदाता प्राप्त करना चाहता हूँ। इस सम्बन्ध में मेरी इच्छा अच्छे व्यवसायियों, बीमा कम्पनियों के और सरकारी अधिकारियों से मिलने की है। किन्तु मेरे पास उचित पते नहीं हैं। इस जिम्मेदारी को लेने के लिए मुझे उचित पतों की दो प्रतियाँ चाहिए । इस सम्बन्ध में आपका निर्णय प्राप्त कर मुझे प्रसन्नता होगी। यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस पत्र की प्रगति सर्वोच्च स्तर तक हो ।

अभय ने भक्तिसारंग गोस्वामी से अपने हिन्दी श्रीचैतन्य चरितामृत के प्रकाशन में भी सहायता देने की प्रार्थना की। कुछ “अबंगाली सज्जनों" ने पुस्तक की माँग की थी और विश्वास दिलाया था कि वे प्रति पुस्तक पचीस रुपए देंगे। पुस्तक का पहला खंड प्रकाशित करने के लिए अभय ने छह सौ रुपए ऋण माँगे, चाहे यह ऋण किसी भी योजना के अन्तर्गत हो जो भक्तिसारंग गोस्वामी के लिए सुविधाजनक हो । अभय ने लिखा कि “यदि यह खंड बिक गया तो दूसरे खंड अपने आप छप जायँगे " ।

गौड़ीय संघ में रहने और भक्तिसारंग गोस्वामी रहने और भक्तिसारंग गोस्वामी के अधीन सज्जन तोषणी के लिए कार्य करने से जैसे ही अभय को तनाव का अनुभव होने लगा, वैसे ही पत्रिका की प्रकाशित संख्या में वृद्धि करने की अभय की अभिलाषाओं और उनके कड़े सम्पादकीय विचारों से भक्तिसारंग गोस्वामी भी तनाव अनुभव करने लगे। अभय के पत्र के उत्तर में भक्तिसारंग गोस्वामी के सचिव रामानन्द ने भक्तिवेदान्त प्रभु की भूरि भूरि प्रशंसा से भरा एक पत्र उन्हें लिखा, लेकिन उसका इरादा था गौड़ीय संघ में उनके पद से उन्हें अपदस्थ करना ।

वैष्णव श्रीमद् भक्तिवेदान्त प्रभु के चरण कमलों में कोटिशः विनम्र प्रणाम, श्री गुरु महाराज को लिखित आपका पत्र हमें ५.१०.५५ को प्राप्त हुआ । आपकी योजना बहुत ऊँची है और आप हमारी सोसायटी के शुभेच्छु हैं; हमें यह भी ज्ञात हुआ कि ...

विगत दो महीनों से बहुत सी कठिनाइयों के होते हुए भी — जिसमें प्रसाद और भक्तों की कठिनाइयाँ तथा अन्य अनेक कठिनाइयाँ शामिल हैं— आपने जिस प्रकार का उत्साह दिखाया है, वह केवल आप सरीखे उच्च वैष्णव के लिए ही संभव है।

आप श्रील प्रभुपाद के एक कृपापात्र वैष्णव हैं और श्रील प्रभुपाद के सभी विशेष सहचरों के मित्र हैं। दिल्ली में गौड़ीय संघ आश्रम के अधिसंख्यक भक्त नए और कम सम्मान्य हैं। वे आप जैसे महान् व्यक्तित्व को समुचित सम्मान नहीं दे सकते... विशेषकर ऐसे विचारों को जो आप रखते हैं। वर्तमान समय में हमारा समाज तुच्छ विचारों का है। हमें आशा है कि इतने गुणों से समन्वित आप बहुत शीघ्र स्वतंत्र रूप से स्थापित हो जायँगे और श्रील प्रभुपाद की इच्छाओं को पूर्ण करते हुए व्यापक प्रचार आरंभ कर देंगे ।

हमें संदेह है कि आप जैसे योग्य और सम्मान्य वैष्णव के लिए वहाँ बहुत समय तक रहना और दिल्ली के गौड़ीय संघ के निरक्षर और अशिक्षित भक्तों से सामंजस्य बनाए रखना संभव नहीं होगा। इसके अतिरिक्त आप श्रीमद् केशव महाराज की वेदान्त समिति की गौड़ीय पत्रिका और भागवत् पत्रिका के सम्पादक- मण्डल के अध्यक्ष हैं, इसलिए यदि आप हमारे आश्रम में अधिक समय बिताते हैं तो वे रुष्ट हो सकते हैं। अपने बहुत से भक्तों के साथ वे व्रजभूमि की परिक्रमा पर निकलने वाले हैं और हमें विश्वास है कि उस परिक्रमा में उन्हें आपकी सहायता की आवश्यकता होगी। इसलिए आप सभी बातों पर विचार कर लें और यदि आप उनके संगठन के प्रति अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा न करें, तो हमें प्रसन्नता होगी।

'सज्जन तोषणी' के अक्तूबर अंक के लिए कुछ लेख भेजे जा चुके हैं कुछ और और भी भेजे जा सकते है। हम आभारी होंगे यदि आप केशवानन्द प्रभु को अक्तूबर अंक निकालने का निर्देश देंगे। हमें आशा है कि श्री श्री गुरु महाराज स्वयं नवम्बर और दिसम्बर के अंक निकाल सकेंगे। हम उसे जनवरी से कलकत्ता स्थानान्तरित करना चाहते हैं। श्री श्री गुरु महाराज वृद्ध हो गए हैं और अधिकांश समय उन्हें हम पर निर्भर रहना पड़ता है। हमें प्रसन्नता है कि आप चैतन्य चरितामृत हिन्दी में प्रकाशित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में हमारे लिए यह संभव नहीं होगा कि हम अपनी निधि से उसके प्रकाशन के निमित्त छह सौ रुपए लगा सकें। चूँकि श्री श्री गुरुजी महाराज के पास इस समय कई प्रकार की योजनाएँ हैं और उन पर उन्हें काफी धन व्यय करना है, इसलिए वे उस पुस्तक को प्रकाशित करने का दायित्व नहीं ले सकते ।

केशवानन्द प्रभु ने लिखा है कि आपके कपड़े फट गए हैं, इस मंदिर की निधि से आप एक जोड़ा कपड़े खरीद लीजिए और यदि भक्त मूर्खतावश आप के विरुद्ध कोई अपराध करते हैं, तो कृपा करके उन्हें क्षमा करें।

- ( हस्ताक्षरित) वैष्णवों के सेवक के सेवक श्री रामानन्द दास

यह सच नहीं था कि अभय को केशव महाराज की परिक्रमा में नेतृत्व करने के लिए बुलाया जा रहा था, यद्यपि रामानन्द को यह अच्छा बहाना था, अभय को गौड़ीय संघ छोड़ने का संकेत देने के लिए। इस प्रकार केशव महाराज और भक्तिसारंग महाराज के आश्रमों में एक निष्ठापूर्ण सदस्य के रूप में रहने के पश्चात् अभय फिर अकेले हो गए।

***

बिना किसी आय के या संस्था की शरण के, अभय दिल्ली में भिन्न-भिन्न घरों में रहने लगे। जहाँ से निमंत्रण मिलता, वहाँ वे एक सप्ताह रहते और फिर अन्यत्र चल देते। भोजन, कपड़ा और आवास की दृष्टि से अभय के लिए यह सबसे कठिन समय था। बचपन से उन्हें मनमाना भोजन और अच्छे कपड़े मिलते थे और आवास की कोई समस्या नहीं थी । वे अपने पिता के चहेते पुत्र थे और श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से उन्हें विशेष स्नेह और मार्गदर्शन मिला था। लेकिन अब अभय कभी-कभी अपने को अकेला पाते थे।

गृह-विहीन होकर अभय दिल्ली में एक अस्थायी स्थान से दूसरे अस्थायी स्थान का चक्कर लगाने लगे । — कभी एक वैष्णव मंदिर में, कभी कपूर कालेज आफ कामर्स के एक कमरे में। किन्तु वे अनुदानकर्त्ता खोज रहे थे; भगवद्गीता पर व्याख्यान दे रहे थे और लिख रहे थे। उनका लक्ष्य एक स्थायी निवास पाना नहीं था। वे दिव्य साहित्य का प्रकाशन चाहते थे और कृष्णभावनामृत के प्रसार के लिए एक विशुद्ध सशक्त आन्दोलन की स्थापना करना चाहते थे या ऐसे ही किसी आन्दोलन में सम्मिलित होना चाहते थे ।

अभय ने कई पुस्तकों की सूची बनाई जिन्हें वे प्रकाशित कराना चाहते थे ।

१. श्री चैतन्य चरितामृत (हिन्दी) २,००० पृष्ठ

२. गीतोपनिषद् (अंग्रेजी) १,२०० पृष्ठ

३. साइंस आफ डिवोशन (अंग्रेजी) ३०० पृष्ठ

४. लार्ड चैतन्याज़ संकीर्तन मूवमेंट (अंग्रेजी) ३०० पृष्ठ

५. मेसेज आफ गाडहेड (अंग्रेजी) ३०० पृष्ठ

६. भगवानेर कथा ( बँगाली) ५० पृष्ठ

लेकिन पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए उन्हें अनुदानकर्ता चाहिए थे। वे धनाढ्य लोगों से उनके घरों और कार्यालयों में मिलते थे और उन्हें अपनी पाण्डुलिपियाँ दिखाते थे तथा अपना उद्देश्य समझाते थे। उनके पास अनुदानकर्त्ताओं की एक सूची थी, लेकिन बहुत कम लोगों ने सहायता की। और यदि कहीं से अनुदान आया भी तो वह या तो दस रुपए था या पाँच रुपए । कभी कभी उन्हें सराहना या समर्थन के पत्र प्राप्त होते ।

एक सराहना पत्र बिड़ला मंदिर ट्रस्ट के सचिव और अवकाश प्राप्त अधिशास्त्री अभियंता रायबहादुर नारायण दास से आया जिन्होंने एक लोकप्रिय गुरु, मां आनन्दमयी, की उपस्थिति में अभय द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक पाठ में भाग लिया था । श्रीचैतन्य चरितामृत के अपने हिन्दी संस्करण से अभय के पाठ से प्रभावित होकर मां आनन्दमयी ने पचास रुपये का अनुदान दिया और अभय को सुझाव दिया कि वे सुप्रसिद्ध साधु, श्री हरि बाबा, से मिलें जो अस्पताल में बीमार पड़े थे । नारायण दास के साथ अभय हरि बाबा से मिले और नारायण दास ने बताया कि अभय का पाठ सुन कर वे भाव-विह्वल हो गए थे। इस बीच नारायण दास का झुकाव अभय की सहायता की ओर हो रहा था और दिसम्बर में उन्होंने एक पत्र लिखा, इस संकेत के साथ कि हर एक को चाहिए कि “श्री ए. सी. भक्तिवेदान्त द्वारा हिन्दी, अंग्रेजी और बंगाली में लिखित विभिन्न पुस्तकों के सफल प्रकाशन में हाथ बँटाए। मैं उनके इस श्रेष्ठ प्रयत्न की पूर्ण सफलता की कामना करता हूँ।”

अभय इसको और ऐसे अन्य पत्रों को सम्भाव्य समर्थकों को दिखाते। दिल्ली में मंत्रियों, न्यायधीशों, वकीलों, व्यवसायियों और धार्मिक महन्तों से मिलना कठिन नहीं था। कोई न कोई अभय की बात गंभीरतापूर्वक सुनने को मिल जाता और कभी कभी सहायता देने को भी तैयार हो जाता । इस प्रकार अभय, गौड़ीय संघ द्वारा प्राप्त दो धोतियों और कुर्तों से, काम चलाते हुए, व्याख्यान देने और लोगों को आश्वस्त करने की अपनी योग्यता के बल पर, लेकिन बिना किसी सहायता और स्थायी निवास के, निर्भीक भाव से अपने प्रचार कार्य में लगे रहे।

लेखन और उसके प्रकाशन में अभय के प्रयास का केवल आधा भाग लगता था; शेष आधे को वे लीग आफ डिवोटीज़ के समान एक विश्व - आंदोलन की स्थापना में लगा रहे थे। नारायण दास के माध्यम से उन्होंने जानना चाहा कि क्या कोई ऐसा तरीका निकल सकता है कि वे बिड़ला मंदिर के तत्वावधान में कार्य कर सकें (जो दिल्ली के सबसे बड़े और धनी मंदिरों में से एक था ) । अभय ने प्रस्ताव किया कि वे अंग्रेजी के माध्यम से प्रचार के, पुजारी बना दिए जायँ — भारत और विदेश, दोनों के लिए । चूँकि नारायण दास अपने को सनातन धर्म का अनुयायी मानते थे, इसलिए अभय ने उन्हें पत्र लिखकर समझाया कि भगवद्गीता के उपदेशों में सनातन धर्म का वास्तविक रूप मिलता है। अभय के पास इस सम्बन्ध में बहुत से विचार थे कि, जीव मात्र का शाश्वत धर्म होने के नाते, सनातन धर्म का प्रसार और व्यवहार कैसे हो सकता है— केवल उन्हें नारायण दास की सहायता की आवश्यकता थी ।

मैं चालीस शिक्षित युवकों को इस दिव्य ज्ञान में प्रशिक्षित करना चाहता हूँ और प्रचार कार्य के लिए उन्हें विदेशों में भेजने को तैयार करना चाहता हूँ। ...

मैं तुरन्त एक अँग्रेजी पत्र आरंभ करना चाहता हूँ या अपने पत्र " बैक टु गाडहेड" का पुनः प्रकाशन ' इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इंडिया' के ढंग पर करना चाहता हूँ । मैं एक संकीर्तन दल संगठित करना चाहता हूँ जिसमें केवल गायक और संगीतज्ञ न होंगे वरन् ऐसे लोग होंगे जो 'साधना' या 'आत्म- सिद्धि' का अभ्यास करते हों ।

अभय ने वादा किया कि ज्योंही पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है, वे अपने आदमियों और सामान के साथ, प्रचार के लिए विदेशों में जाने को तैयार हैं। लेकिन उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि बाह्यतः वे बड़ी कठिनाई में थे, “कृपा करके उपर्युक्त की व्यवस्था शीघ्र करा दें और रहने के लिए मुझे उचित स्थान दे दें। मैं इस अस्थायी आवास से अगले सोमवार तक जरूर हट जाना चाहता हूँ ।"

बिड़ला मंदिर के निर्देशकों ने अभय का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया । लेकिन अभय ने उनका ध्यान अपने कार्यक्रम में लगाए रखने के विचार से एक दूसरा उपाय सोचा : वे लीग आफ डिवोटीज़ में अभिरुचि जगाने के लिए बिड़ला मंदिर में एक सभा करेंगे। वे दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष, श्री आर. एन. अग्रवाल, के पास गए जो यह जान कर कि सभा में बहुत से सम्मानित नागरिक उपस्थित होंगे, उसकी अध्यक्षता करने को तैयार हो गए। अभय ने २२ दिसम्बर की तिथि निश्चित कर दी और पाँच सौ घोषणा पत्र और दो सौ आमंत्रण पत्र छपा दिए ।

घोषण- पत्र में उदात्त स्वर में उन्होंने कहा, “ईश्वर की अनुकंपा से, दिल्ली विश्व संस्कृति - सम्मेलन का केन्द्र बनता जा रहा है।" रूस और भारत दोनों देशों के नेताओं ने हाल में ही राष्ट्रों के बीच सांस्कृतिक सम्पर्क की आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट किया था। अभय ने कहा, “किन्तु सर्वोच्च संस्कृति विज्ञान सम्मत आध्यात्मिक ज्ञान है; इसलिए सर्वोच्च सांस्कृतिक साधन भारत में मिलते हैं।” अभय ने बल देकर कहा, “ इन सांस्कृतिक साधनों को इक्के-दुक्के साधु-संन्यासियों के हवाले नहीं छोड़ देना चाहिए, वरन् उनका भार समाज के प्रमुख व्यक्तियों की सुसंगठित संस्थाओं को अपने ऊपर लेना चाहिए ।"

२२ दिसम्बर के ' हिन्दुस्तान टाइम्स' के “ आज के कार्यक्रम" स्तंभ में रोटरी क्लब, टैगोर सोसायटी, द इंडियन काउन्सिल आफ वर्ल्ड अफेयर्स, भारत स्काउट्स और द इंडियन फार्मास्यूटिकल काँग्रेस की बैठकों के साथ लीग आफ डिवोटीज़ की सभा की भी घोषणा प्रकाशित हुई ।

लीग की बैठक प्रोफेसर एच. चांद द्वारा संचालित कीर्तन से आरंभ हुई और तब लीग आफ डिवोटीज़ के संस्थापक और सचिव, ए. सी. भक्तिवेदान्त, ने अपने आन्दोलन के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। उसके बाद नारायण दास का भाषण हुआ और तत्पश्चात् उन्होंने संस्थापक - सचिव की ओर से कई प्रस्ताव पढ़े, इस बात को प्रमाणित करते हुए कि वहाँ उपस्थित लोगों का समर्थन लीग आफ डिवोटीज़ को प्राप्त है और वे संस्तुति करते हैं कि भारत सरकार भी गाँधीजी के सिद्धान्तों पर आधारित विश्व शान्ति का प्रचार करने के लिए इस संस्था को समर्थन दे । प्रस्तावों को पारित करने के बाद कीर्तन और प्रसाद वितरण के साथ सभा समाप्त हुई ।

अभय को विश्वास था कि यदि उनके शुभेच्छुकों और मानवतावादी साथियों का उन्हें बृहत् पैमाने पर समर्थन मिला, तो वे भगवान् कृष्ण की भक्ति के सिद्धान्तों पर आधारित विश्व शान्ति-आन्दोलन की सृष्टि कर सकेंगे। किन्तु उनका कार्य तो लोगों को, जिस किसी को भी हो सके, कृष्णभावनामृत प्रस्तुत करना था। परिणाम तो कृष्ण के हाथ में था । अभय को मालूम था कि बिड़ला मंदिर की सभा में भाग लेने वालों में से अधिकतर के, उस बैठक के बाद अच्छे इरादे नहीं बने रहेंगे। लेकिन वे हतोत्साह नहीं थे। अपने सारे अथक प्रचार कार्य में वे दार्शनिक प्रसन्नता बनाए रखते थे । एक अर्थ में वे पूर्णत: संतुष्ट थे; अपने आध्यात्मिक गुरु की ओर से कार्य करने में उन्हें प्रसन्नता थी ।

यद्यपि उनके पते इतनी तेजी से बदल रहे थे कि उन्हें अपनी डाक मिलने में कठिनाई होती थी, तो भी उन्होंने गृह अध्ययन - पाठ्यक्रम का एक विज्ञापन समाचार-पत्र के लिए लिखा ।

शैक्षिक

'भगवद्गीता' का आध्यात्मिक रहस्य पत्राचार द्वारा घर पर पढ़िए और दृढ़ पुरुष बनिए । पाठ्यक्रम का शुल्क केवल पचास रुपए । जो शिक्षा दी जायगी, वह साधारण काल्पनिक ढंग के संकुचित व्याख्यानों की नहीं, वरन् गुरु पद्धति के परम्परा ढंग पर होगी। सभी प्रश्न समुचित ढंग से हल किए गए हैं। निवेदन पत्र भेजिए : ए. सी. भक्तिवेदान्त । सभी जातियों और राष्ट्रीयताओं के विद्यार्थियों का स्वागत है ।

***

उन्होंने चार साल (१९५२ ई. से) बैक टु गाडहेड प्रकाशित नहीं किया था। लेकिन उन्होंने उसे पुनर्जीवित करने का निर्णय किया। बैक टु गाडहेड एक ऐसा मिशन था जो उनके पूरे ध्यान का पात्र था और उसके लिए धन एकत्र करने, लेख लिखने, उनका मुद्रण देखने और फिर उसकी एक हजार प्रतियाँ बाँटने में, वे अपना सारा प्रयत्न लगाते थे । धन इकठ्ठा करने के लिए वे लोगों से साक्षात्कार करने और अनुदान लेने का तरीका अपनाते थे । अनुदान देने वालों और मित्रों में एक थे सुप्रीम कोर्ट के जज विपिनचन्द्र मिश्र ।

जस्टिस मिश्र : वे मेरे पास महीने में एक बार आते थे। मैं उनके पत्र के लिए अनुदान देता था। वह केवल चार पृष्ठों का पत्र था, लेकिन उससे उनके विषय - ज्ञान, निष्ठा और भगवान् कृष्ण की भक्ति का पता लगता था। वे बहुत सीधे-सादे और विनम्र व्यक्ति मालूम होते थे और उनसे वार्ता करना बहुत आनन्ददायक था। वे हमेशा मुस्कराते रहते थे। मुख्य चीज थी उनकी विनम्रता । वे बहुत प्रेम और विश्वास से बात करते थे और वे जानते थे कि हम ईश्वर - विषयक विचार-विमर्श कर रहे हैं। इसलिए उनसे हर वार्तालाप हमें उदात्त बनाता था ।

उन दिनों धार्मिक मामलों में अभय एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे। लेकिन यह आशा नहीं की जाती थी कि उस समय के दिल्ली के धार्मिक जीवन में भाषा की कठिनाई के कारण उनका कोई योगदान होगा, क्योंकि वे अंग्रेजी-भाषी व्यक्तियों तक पहुँचना चाहते थे, दिल्ली के हिन्दी भाषी व्यक्तियों तक नहीं । और चूँकि उनके पास साधन नहीं थे और उनकी लोक-प्रियता अभी जम नहीं पाई थी, इसलिए उनकी पत्रिका का वहाँ के लोगों में व्यापक प्रचार नहीं था। दूसरे धार्मिक नेता अच्छी तरह स्थापित हो चुके थे। उनके सम्बन्ध में जो वस्तु लोगों को प्रभावित करती थी और ध्यान देने योग्य थी, वह थी भगवान् के नाम में उनके अटल विश्वास की सहजता और उनका मिशन । लेख लिखना कोई समस्या नहीं थी । अपने आध्यात्मिक गुरु की कृपा से उनके पास न विचारों की कमी थी न उनको व्यक्त करने की योग्यता की । वैष्णव धर्मशास्त्रों के अनुवाद और व्याख्या में उन की लेखनी खूब चलती थी। वे मुद्रण-यंत्र की विचित्रता से, जो वृहत् मृदंग सरीखा था, अनुप्राणित थे। अपना संदेश लिखना और उसे हजारों बार छपाना — यह समझ कर कि उसका न केवल दिल्ली या भारत के लोगों के पास वरन् हर एक तक पहुँचना अत्यावश्यक था - ऐसा कार्य था जिसमें अभय तन्मय होकर डूबे रहते थे। वे सोचा करते कि बैक टु गाडहेड की प्रतियाँ विचारशील लोगों तक कैसे पहुँचें जो कृतज्ञतापूर्वक उनको पढ़ सकें ।

उनके लिए भरण-पोषण की भी कोई समस्या नहीं थी । श्रीमद्भागवत में सुखदेव गोस्वामी ने कहा था कि एक भक्त की समस्या भोजन, वस्त्र और आवास नहीं है। यदि किसी के पास पलंग नहीं है, तो वह जमीन पर लेट सकता है और अपनी बाहों का तकिया बना सकता है। सड़क में पड़े बहिष्कृत परिधानों को वह अपने वस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। पेड़ के फलों को अपना भोजन बना सकता है। पहाड़ की कंदराओं में रह सकता है। प्रकृति सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। दिव्य ज्ञान के एक अन्वेषी को अपने भरण-पोषण के लिए भौतिकतावादियों की चाटुकारिता नहीं करनी चाहिए। स्पष्ट था कि अभय किसी पर्वत - कंदरा या जंगल में नहीं, वरन् दिल्ली नगर में रह रहे थे; तब भी वे सुखदेवजी द्वारा उल्लिखित विरक्त जीवन-पद्धति अपना चुके थे— इसलिए नहीं कि वे अपने शरीर को दण्ड देना चाहते थे या अपने को पवित्र और दृढ़-प्रतिज्ञ साबित करना चाहते थे; वरन् इसलिए कि यदि उन्हें बैक टु गोडहेड नियमित रूप से निकालना था तो उनका गरीबी में रहना जरूरी था ।

अभय सारा परिश्रम प्रेम-वश कर रहे थे; पत्र के लिए कागज खरीदना और उसे छपाना, उनके लिए भोजन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण था। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की उपेक्षा करके प्रचार कार्य में लगे रहना कृष्ण में उनकी श्रद्धा का परिचायक था — जिसकी उनके पास कोई कमी न थी । उन्हें पूर्ण विश्वास था कि यदि वे कृष्ण की सेवा में लगे रहते हैं, तो कृष्ण उनकी खोज-खबर लेते रहेंगे। अकेले ही कार्य करना कोई अलंघ्य कठिनाई नहीं थी; अभय के लिए वह आनंददायक और सहज था । गौड़ीय मठ के नवदीक्षित सहवासियों को वश में रखने की अपेक्षा वह आसान था। अपने आध्यात्मिक गुरु की सेवा के लिए कठिन परिश्रम करना कोई समस्या नहीं था; समस्या तो संसार की दशा को लेकर थी ।

शास्त्रों के अनुसार, वर्तमान युग में जिसे कलियुग कहते हैं, समाज में निरन्तर अवनति होगी । और अभय दिल्ली में इसे नित्य प्रमाणित होते देख रहे थे। दिल्ली, जो पुराकाल में हस्तिनापुर के नाम से विख्यात थी, महाराज युधिष्ठिर की प्राचीन राजधानी थी, जो पाँच हजार वर्ष पूर्व, भगवान् कृष्ण के नायकत्व में, संसार के सर्वाधिक वैभवशाली राजा थे और जिनकी प्रजा हर तरह से सुरक्षित और समृद्ध थी। अब एक हजार वर्ष की विदेशी दासता के बाद भारत फिर स्वतंत्र है और दिल्ली उसकी राजधानी है।

लेकिन अपने साठ वर्ष के अपेक्षाकृत अल्पकालीन अनुभव में भी, अभय देख चुके थे कि भारतीय संस्कृति जो, उनके बचपन में, वैदिक युग की आदिशुचिता से समन्वित थी, पतन की ओर जा रही थी। अब वे एक ऐसा समाज देख रहे थे जिसमें उनके देशवासी इस प्रचार से आक्रांत थे कि भौतिक भोगों में लिप्त होकर वे सुखी हो सकते हैं। अँग्रेजों द्वारा इस देश में चाय, तंबाकू, मांस और कल-कारखानों का प्रवेश कराया गया था; और अब, स्वतंत्रता के बाद भी, वे भारत की नई जीवन पद्धति के अंग हो गए थे। अँग्रेजों को देश से भगाने के बाद भी भारतीय पाश्चात्य तरीकों की नकल कर रहे थे और भारत के नेता जान-बूझकर भगवत् - चेतना के उन्हीं वैदिक सिद्धान्तों की उपेक्षा कर रहे थे जिनका प्रसार भारत को संसार - भर में करना था। अभय ने देखा था कि भारत अपनी आध्यात्मिक धरोहर को छोड़कर पश्चिम के आधुनिकीकरण के पीछे भाग रहा था, लेकिन वह भौतिक उन्नति भी कहाँ थी ? क्या स्वतंत्रता पाकर भारतीय, ब्रिटिश शासन के दिनों की अपेक्षा, सुखी थे ? अभय को लगता कि जनसंख्या की बाढ़ से आप्लावित नगर गुंडे-बदमाशों और मूर्खो से भरा नरक था । यद्यपि सतत वर्धमान लोहे के कारखानों और टायर की फैक्टरियों में हजारों गरीब लोग रोजी में लगे थे, लेकिन उनका जीवन-स्तर पहले से खराब हो गया था ।

अभय ने ऐसी अवस्थाओं के विषय में बैक टु गाडहेड में चिन्ता व्यक्त की। क्या गरीब लोग कारखानों में पैदा किये जाने वाले कलपुर्जों को खाकर गुजर कर सकते थे ? क्या उनका पोषण सिनेमा, टेलीविजन से या रेडियो पर गाए जाने वाले कामुकतापूर्ण गानों से, हो सकता था ? नेता लोग यह नहीं समझ पा रहे थे कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों के त्याग से वही बुराइयाँ पैदा हो रही हैं जिन्हें सरकारी तौर पर वे घृणास्पद बताते थे - अर्थात् पतनोन्मुख, विद्रोही युवा वर्ग, सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार, और यहाँ तक कि आर्थिक अस्थिरता और अभाव भी । अभय जब युवक थे तब कलकत्ता में सिनेमा के सनसनीदार कामुक इश्तहार नहीं दिखाई देते थे, लेकिन अब सिनेमा - उद्योग में, संसार में भारत का तीसरा स्थान था और सारी दिल्ली में सिनेमा के इश्तहार लगे दिखाई पड़ते थे ।

गो-मांस और शराब की दुकानें चारों ओर पैदा हो गई थीं। समाचार पत्रों में, सड़कों पर स्त्रियों की छेड़खानी करने, उनका अपमान करने और चिढ़ाने वाले भारतीय युवकों के पतन पर क्षोभ प्रकट करने वाले सम्पादकीय बराबर छप रहे थे। महिलाओं की संस्थाएँ फिल्मों और विज्ञापनों में चित्रित बाल - स्वेच्छाचार और स्त्रियों के अश्लील व्यवहार के विरुद्ध प्रतिवाद कर रही थीं। किन्तु ऐसे खरे 'ब्राह्मण' या संत - प्रशासक नहीं थे जो ऐसी स्थिति के बारे में कुछ करें।

अभय को समाज के पुनः आध्यात्मीकरण की आवश्यकता अनुभव हुई । लेकिन समाज तेज गति से विपरीत दिशा में जा रहा था। फरवरी में, ठीक उसी समय जब अभय बैक टु गाडहेड प्रकाशित करने का प्रयत्न कर रहे थे, प्रधान मंत्री नेहरू ने, भारत के 'आत्मा-संकट" के बारे में बोलते समय, तत्पर औद्योगीकरण के लिए एक नई पंचवर्षीय योजना का उद्घाटन किया। प्रधानमंत्री से लेकर एक साधारण आदमी तक सभी रोग - सूचक समस्याओं से परेशान थे, लेकिन किसी की समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि वास्तविक समस्या भगवत् - चेतना का अभाव थी ।

अभय को कलियुग के रोगों का उपचार करना था। वे जानते थे कि यह कार्य बड़े पैमाने पर होना चाहिए जो वे अपने बल पर नहीं कर सकते थे, उनके लिए बैक टु गाडहेड का एक अंक भी निकालना लगभग असंभव हो रहा था । लेख लिखना, उनको टाइप करना, मुद्रक के पास ले जाना और फिर उनका वितरण करना, अकेले एक निरुपाय निर्धन भक्त का कार्य नहीं होना चाहिए था। लेकिन अपने गुरुभाइयों के साथ कार्य करते हुए अभय को उनके बीच सशक्त प्रचार कार्य के प्रति संगठन और इच्छा के अभाव का परिचय मिल चुका था। उन्हें मालूम हो गया था कि भक्तिसारंग गोस्वामी सज्जन तोषणी का आकार छोटा रखने का निश्चय कर चुके थे और उनका मठ, अन्य ऐसे मठों की तरह ही नए सदस्यों को आकृष्ट करने में असमर्थ था। ऐसे छोटेपन से प्रचार को पंगु होना ही था । इसलिए वे अकेले अपने से जो कुछ हो सकता था, उसे कर रहे थे — अपने आध्यात्मिक कल्याण-कार्य में प्रसन्न, यह जानते हुए भी कि उनका चार पृष्ठ का समाचार पत्र मरुस्थल में पानी की एक बूँद के समान था ।

फरवरी, १९५६ ई. में जब अमेरिका में नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष चल रहा था, जब खुशचेव और आइजनहावर हथियारों की दौड़ पर खुल कर खेद प्रकट कर रहे थे और परमाणवीय निःशस्त्रीकरण वार्ताओं में अपने दाँवपेच में लगे थे और जब ईरान के शाह दिल्ली की यात्रा पर आये थे— अभय बैक टु गाडहेड को प्रकाशित करने के प्रयत्न में लगे थे । जाड़े की असुविधाओं को झेलते, वे तड़के दिल्ली की सड़कों को पार करते हुए, आखिरी प्रूफ पढ़ने के लिए सुरेन्द्र कुमार जैन, मुद्रक, के पास पहुँच जाते । पैसे बचाने के लिए वे पैदल चलते। केवल जब वे कागज के व्यापारी से कागज उठाकर मुद्रक को देने जाते, तब किराये पर रिक्शा लेते। उनके पास चादर नहीं थी, केवल एक हल्की-फुल्की सूती जैकेट थी और जूते वे रबर के पहनते थे । वे एक सूती कनटोप धारण करते थे जिसे ठोढ़ी के नीचे बाँध लेते थे जिससे उनके कान ढँक जाते थे, और जाड़े की चालीस डिग्री ठंडक से, शीतकालीन प्रातः को कभी-कभी तेज चलने वाली जोरदार हवा के झोंको से उनकी रक्षा होती थी ।

कुमार जैन : मेरे मन में पहली धारणा यह हुई कि वे बहुत सीधे-सच्चे व्यक्ति हैं। जिस हालत में वे मेरे पास आते उससे उन पर मुझे दया भी आती। मुझे मालूम था कि उनके पास पचीस पैसे भी न होते । सारा रास्ता पैदल चल कर वे मेरे यहाँ आते— बिना कुछ खाये - पिए। वे सवेरे प्रेस पहुँचते तो मैं पूछता, "स्वामीजी, क्या आज सवेरे आपने कुछ खाया था । ' वे कहते, "नहीं, नहीं मिस्टर जैन, प्रूफ देखने थे, इसलिए मैं आ गया।'

मैं कहता, “ठीक है, ठीक है। मैं आपके लिए नाश्ता मँगवाता हूँ।” मैं नाश्ता मँगवाता और तब वे बैठते और काम में लग जाते।

प्रूफ पढ़ने का काम वे स्वयं करते । मुद्रण मेरे द्वारा होता, और अन्तिम छपाई देखने के लिए पूरे समय तक प्रेस में मौजूद रहना उन्हें बहुत पसंद था। वे सवेरे लगभग सात बजे पहुँच जाते और सभी प्रूफ देखने तक रुके रहते। यह बराबर होता कि वे बिना नाश्ता किए आते और मैं उनके नाश्ते का प्रबन्ध कराता और हम घंटों मेज पर आमने-सामने बैठते । वे हमेशा केवल धार्मिक मामलों पर बात करते। लेकिन जब हम, विशेषकर प्रूफ की प्रतीक्षा में, साथ बैठे होते तो हम अनेक चीजों के बारे में विचार-विमर्श करते। मुझे लगता कि वे बहुत सारी जानकारी रखते हैं, क्योंकि वे बहुत अध्ययनशील व्यक्ति थे। अपनी चीज को छपाने आने वाले व्यक्ति की अपेक्षा वे मित्र अधिक थे। वे बहुत सीधे-सादे आदमी थे; उनकी आदतें सरल थीं। लेकिन उस समय उनका मिशन विशेष रूप से बैक टु गाडहेड के आंदोलन को बढ़ावा देना था ।

उनकी आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी । कभी-कभी छपाई मुश्किल हो जाती, क्योंकि वे कागज का प्रबन्ध न कर पाते। कई बार मैने उनसे कहा कि यदि आपको कठिनाई हो रही हो तो आप पत्र जारी क्यों रखते हैं ? लेकिन उनका उत्तर था, "नहीं, यह मेरा मिशन है और जहाँ तक मुझसे होगा मैं इसे आगे बढ़ाऊँगा ।" मैं भरसक उनकी सहायता करता, लेकिन वे सचमुच निर्धन थे ।

मेरा काम केवल छापना था; कागज का प्रबन्ध उन्हें करना था । इसलिए कभी कभी विलम्ब हो जाता। यद्यपि मेरा काम केवल छापना था, कभी कभी मैं उनसे कहता, "अच्छा, यदि आपकी इतनी तीव्र इच्छा है, तो मैं आपको कागज देता हूँ।” किन्तु आमतौर से कागज की व्यवस्था वे स्वयं करते, क्योंकि हमारा काम केवल छपाई करना था । वे कागज रिक्शे में लाते ।

हमारा साथ कोई असुखकर नहीं था, लेकिन व्यवसाय व्यवसाय है यदि बिलों का भुगतान बहुत समय तक न होता, तो मुझे कहना पड़ता कि क्या कुछ हो सकता है? वे उत्तर देते, “चिन्ता न करें, विश्वास रखिए कि आपके पैसे पहुँचने वाले ही हैं।” मैं कभी न पूछता कि उन्हें पैसे कहाँ से मिलते हैं, क्योंकि यह उनका निजी मामला था। लेकिन यदि वे पैसे न चुका पाते तो उन्हें संकोच होता; इसलिए मैं उन्हें संकोच में डालने की कोशिश कभी न करता। उन्हें स्वयं चिन्ता थी कि यदि उनके पास पैसे नहीं हैं तो वे पत्र कैसे निकाल सकेंगें। और वे उस पत्र को अवश्य ही निकालना चाहते थे ।

वे गीता की शिक्षाओं का प्रचार करना चाहते थे । वे इसे एक आन्दोलन के रूप में देखते थे और उनका विचार था कि उसके माध्यम से ही संसार के लोग शान्ति पा सकते हैं। उनका यह विश्वास बहुत दृढ़ था ।

मुद्रक से पत्र की प्रतियाँ प्राप्त करने के बाद अभय नगर में घूम कर उन्हें बेचते थे। वे किसी चाय की दुकान पर बैठ जाते और अपने पास बैठे

हुए आदमी से कहते कि कृपया बैक टु गाडहेड की एक प्रति खरीद लीजिए। जो लोग अनुदान दे चुके थे या उनसे मिलने को तैयार थे, वे उनके घरों और कार्यालयों में भी जाते। कभी कभी लोगों की संस्तुति पर या बिना जान-पहचान के भी वे ऐसे लोगों के पास बिना बुलाए पहुँच जाते जिन्हें वे अपना भावी ग्राहक समझते। जब वे नियमित ग्राहकों को पत्र की प्रतियाँ देते, तो पिछले अंक की विचार-धारा के विषय में उनसे विचार-विमर्श करते और उनकी इच्छा के प्रकरणों पर लेख भी लिखते । जैसे एक बार उन्होंने लिखा कि, “हमारे सम्मानित मित्र, श्री बिशन प्रसाद माहेश्वरी, जो सुप्रीम कोर्ट के विद्वान् एडवोकेट हैं, चाहते हैं कि हम कर्म-फल के सिद्धान्त पर कुछ लिखें जिसमें दुर्गुण और उसकी शक्ति का विशेष वर्णन हो ।

प्रायः अनुदान - कर्ता उनसे उतनी सच्ची रुचि या प्रेम के कारण न मिलते जितना आभार - वश; हिन्दू धर्म की शुद्ध परम्परा के अनुसार किसी साधु का स्वागत करना, उससे पत्र खरीदना, और यहाँ तक कि उसके भले के विषय में सोचना, वे जरूरी समझते थे; यह जरूरी नहीं कि उसका पत्र पढ़ा जाय। एक बार जब अभय किसी धनाढ्य के घर के पास पहुँचे तो मालिक ऊपरी मंजिल पर बाहर आया और चिल्लाया, “ चले जाओ ! तुम्हारी जरूरत यहाँ नहीं है। "

बैक टु गाडहेड को बेचते समय अभय को जो इस प्रकार के विरोध का सामना करना पड़ता ( जो कभी शिष्ट होता कभी अशिष्ट) उसकी अनुक्रिया में उन्होंने मार्च १६ के अंक के लिए एक लेख लिखा, “समय नहीं है, साधारण मनुष्य का चिरकालिक रोग : "

जब हम किसी सज्जन के पास बैक टु गाडहेड पढ़ने की प्रार्थना लेकर जाते हैं तो कभी - कभी हमें उत्तर मिलता है, “समय नहीं है । " वे कहते हैं कि 'शरीर में आत्मा को बनाए रखने के लिए' – अर्थात् जीवित रहने के लिए धन कमाने में, वे अत्यधिक व्यस्त हैं। लेकिन जब हम पूछते हैं कि 'आत्मा' क्या है तो उनके पास कोई उत्तर नहीं होता ।

डा. मेघनाथ साहा, जो एक महान् वैज्ञानिक थे, योजना आयोग की एक बैठक में तेजी से जा रहे थे। कार में जाते समय दुर्भाग्य से मार्ग में ही उनकी मृत्यु हो गई और वे मौत से यह नहीं कह सके कि इन्तजार करो, मैं इस समय बहुत व्यस्त हूँ । काँग्रेस के महान् नेता डा. अंसारी चलती गाड़ी में, घर के मार्ग पर, जब मृत्यु के निकट थे तो बोले कि मैं स्वयं एक डाक्टर हूँ और मेरे घर के करीब सभी लोग डाक्टर हैं, लेकिन मृत्यु इतनी निष्ठुर है कि मैं बिना किसी डाक्टरी सहायता के मर रहा हूँ।

इसलिए भागवत् में मृत्यु को अपराजेय कहा गया है। मृत्यु हर एक की इंतजार में है, यद्यपि हर एक सोचता है कि वह नहीं मरेगा। मृत्यु के उपरान्त जीवन है । व्यस्त मनुष्य को यह भी जानने की कोशिश करनी चाहिए कि वह कहाँ जा रहा है। यह जीवन मनुष्य के दीर्घ प्रवास का एक बिन्दु - मात्र है और विवेकशील मनुष्य को एक बिन्दु में ही व्यस्त नहीं हो जाना चाहिए। यह कोई नही कहता है कि शरीर का रखरखाव न किया जाय – लेकिन 'भगवद्गीता' से हर एक को इसका ज्ञान होना चाहिए कि शरीर ऊपरी परिधान है और 'आत्मा' ही वह वास्तविक पुरुष है जो परिधान को धारण करता है। इसलिए यदि वास्तविक पुरुष की चिन्ता किए बिना, केवल परिधान की ही चिन्ता की जाती है, तो यह केवल मूर्खता है और समय की बरबादी है।

अभय एक असामान्य समाचार पत्र विक्रेता थे। वे सड़क पर चिल्लाकर या किसी अड्डे पर बैठ कर अपना पत्र नहीं बेचते थे । वे शान्तिपूर्वक लोगों के पास जाते जब वे चाय आदि पी रहे होते या वे अपने परिचितों से उनके कार्यालयों या व्यवसाय स्थलों में मिलते। बगल की गड्डी से अपनी पत्रिका की एक प्रति निकाल कर वे सामने रख देते जो एक साधारण लघुपत्र प्रतीत होता और जिसमें बड़ी काली सुर्खियों में मुख पृष्ठ पर कुछ इस तरह छपा होता - “ मनुष्य जाति में सबसे तुच्छ, ' " सामाजिक बोध के अन्तर्गत दार्शनिक समस्याएँ,” “मानवजाति के दुःख, " " राष्ट्रीयता की वास्तविक चेतना" आदि। देखने से ही कोई कह सकता था कि बैक टु गाडहेड एक साधारण पत्र नहीं था । इसके पहले कि वे कहते कि 'समय नहीं है' अभय कुछ कह जाने की कोशिश करते ताकि वे किसी तरह पत्र खरीद लें।

अपने आध्यात्मिक गुरु की ओर से और पहले के वैष्णव अधिकारियों की ओर से वे समाचारपत्र - विक्रेता की भूमिका प्रसन्नता के साथ और आमंत्रणपूर्ण - भाव से पूरी कर रहे थे। वे कहते कि उनका पत्र कोई साधारण पत्र नहीं था, उसमें बहुत सारी मनोरंजक चीजें मिलेगीं और मूल्य केवल छह पैसे था । इस प्रकार वे भगवान् चैतन्य की कृपा का प्रसार कर रहे थे; एक सहज प्राप्य पत्र के रूप में वे वेदों के सत्य का वितरण कर रहे थे।

घोर गरीबी के होते हुए भी और अपने संदेश को लोगों तक पहुँचाने की अत्यावश्यकता के बावजूद, अभय के लेखों में तीखापन, कटुता या कट्टरता कभी न होती । वे इस आशा से लिखते कि उनके पाठक विवेकपूर्ण विचार सुनने और सत्य को स्वीकार करने को तैयार हैं, विशेषकर ऐसे सत्य को जो तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया हो और आधिकारिक वैदिक साहित्य से समर्थित हो। यद्यपि दिल्ली की सड़कों में घूमने के अनुभव से उन्हें मालूम हो गया था कि लोग उथले और विभ्रांत थे और आत्म-बोध में रुचि नहीं रखते थे, तो भी वे जानते थे कि अधिकतर लोग जीवन की किसी न किसी अवस्था में दर्शन के गम्भीर मसलों पर विचार अवश्य करते हैं कि : क्या भगवान् का अस्तित्व है, क्या वह कोई व्यक्ति है, दुख क्यों है, आदि ? इसलिए अभय उनकी इन उच्चतर भावनाओं को सम्बोधित करते थे।

१९५६ ई. के वसंत में अमेरिका के विदेश मंत्री डलेस भारत आए और उसके कुछ दिन बाद भारत के भूतपूर्व गवर्नर-जनरल लार्ड माउन्टबेटन आए । हवाई अड्डे पर हजारों ने उनका स्वागत किया। उस समय होली का पवित्र त्योहार मनाया गया जब बच्चे लोगों पर रंग डालते हैं। प्रधान मंत्री नेहरू दिल्ली की गंदी बस्तियाँ देखने गए और उन्होंने उनकी दशा पर क्षोभ प्रकट किया। उन्होंने अणु-शक्ति के विकास का इरादा घोषित किया और उसके शान्तिपूर्ण उपयोग पर बल दिया। वातावरण में गरमी आई। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच सीमा पर संघर्ष आरंभ हुआ । दिल्ली के रेल-कर्मियों ने हड़ताल की। इस बीच अभय का प्रचार जारी रहा।

किसी तरह उन्होंने आर्थिक कठिनाइयों को पार किया; सम्पादकीय लेख लिखे; मुद्रण पूरा कराया और बैक टु गाडहेड का वर्ष १९५६ ई. का छठा अंक २० मई को प्रकाशित हुआ । मुख पृष्ठ पर एक विशेष सूचना छपी थी :

सिद्धान्त के नाम पर

कृपया 'बैक टु गाडहेड' पढ़ें और अपने व्यक्तित्व के गहरे आयामों को पुनर्जीवित करें। इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो हमारे अपूर्ण इन्द्रिय-बोध के आधार पर गढ़ी गई विचारधारा हो, वरन् इसमें जो कुछ है वह हमारे मुक्त मुनियों के संदेशों से भरा है। हम केवल उनकी सहायता कर रहे हैं कि वे सभी स्त्री-पुरुषों को वास्तविक जीवन का अर्थ सरल भाषा में फिर से समझा सकें। इसलिए हर जिम्मेदार पुरुष और स्त्री को इसे नियमित रूप से पढ़ना चाहिए। इसकी लागत नगण्य है— प्रतिवर्ष दो रुपए चार आने, या प्रति मास तीन आने। इसकी उपेक्षा न करें। यह आप के लाभ के लिए है। यह मानवता के सुखी समाज का निर्माण करेगा ।

“भगवद्गीता की शिक्षाओं का प्रसारण कैसे किया जाय" लेख में उन्होंने समाज में आध्यात्मिक संगठन की आवश्यकता के विषय में चर्चा की। उनका कहना था कि एक आदर्श सम्प्रदाय, जिसे उन्होंने “ गीता नागरी" (जहाँ गीता का गान किया जाता है) का नाम दिया, भगवद्गीता के अनुसार जीवन-यापन करेगा, और उसके संदेश का प्रचार संसार भर में करेगा। गाँधीजी की, उनके वैष्णव गुणों के लिए, प्रशंसा करते हुए अभय ने कहा कि गाँधीजी को भी 'गीता - नागरी' की धारणा पसंद थी। नैतिकता - हीन वर्तमान सभ्यता को दिग्भ्रमित करने वाले दानवी - सिद्धान्त के नेताओं द्वारा पैदा किए गए दुखों से छुटकारा पाने का केवल यही एक उपाय था ।

वे हिसाब लगा रहे थे कि अशान्त जन-मानस पर अधिकार कैसे किया जाय । वे कृष्ण की शिक्षाओं को सरल, स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत करना और विस्तार से उनका वितरण करना चाहते थे। उन्हें लगता था कि आधिकारिक धर्मशास्त्र से चुन कर रखे गए अच्छे तर्क विवेकशील, निष्पक्ष और शिक्षित लोगों को पसंद आएँगे, भले ही वे कहें कि उनकी रुचि उनमें नहीं हैं। वे जानते थे कि अपने गांभीर्य और अंतिम निष्कर्ष का त्याग किए बिना ही, वे लोगों में रुचि उत्पन्न करने में सफल होंगे। लोग धर्म को, ताक पर रखे, किसी ऐसे शास्त्र-ग्रंथ के स्तर पर, नीचे घसीट रहे थे जिसे उन्होंने न तो कभी पढ़ा है, न वे समझते हैं, और न जिसमें उनका विश्वास है। अभय उस धर्म को लोगों के पास समाचार पत्र के रूप में पहुँचा रहे थे— जो उतना ही अच्छा था जितना कि शास्त्र-ग्रंथ; उनके पत्र में वह था जिसकी आशा वे किसी समाचार पत्र से नहीं कर सकते थे, किन्तु संभवतः उसे पढ़ सकते थे ।

भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन की प्रक्रिया जिसका प्रचार “ बैक टु गाडहेड" में किया जाता है, उन लोगों को अच्छी नहीं लगेगी जो सांसारिक भोग-विलास की खोज में रहते हैं और राष्ट्रीय समाचारों में नारी और पुरुष का चित्रण अभद्र ढंग से करते हैं, लेकिन यह कीर्तन-प्रक्रिया दिव्य शाश्वत जीवन की अनुभूति का एक साधन है ।

बैक टु गाडहेड की प्रतियाँ चाय की दुकानों पर बेचने और ग्राहकों के घर पर पहुँचाने के साथ, अभय निःशुल्क प्रतियाँ देश और विदेश में डाक द्वारा भी भेजते थे। भारत के बाहर अंग्रेजी भाषी जनता पर उनका ध्यान वर्षों पहले से था और वे उस तक पहुँचना चाहते थे। भारत के बाहर स्थित पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों, सांस्कृतिक और सरकारी केन्द्रों के पते इकट्ठे करने के बाद अभय ने, जितनों को हो सकता था, बैक टु गाडहेड की प्रतियाँ भेजना आरंभ किया। पाश्चात्य पाठकों के लिए उन्होंने एक पत्र तैयार किया और उसमें इंगित किया कि उन्हें तो भारतवासियों से भी अधिक ग्रहणशील होना चाहिए ।

" बैक टु गाडहेड" में जो संदेश होते हैं, वे भारत के उन प्राचीन मुनियों के उपहार हैं, जिन्होंने सचमुच परम सत्य की अनुभूति की थी। लेकिन वर्तमान समय में भारत के तथाकथित नेता पाश्चात्य तरीके की सांसारिक उन्नति के ज्ञान के पीछे पागल हैं। वे अपने ऋषियों द्वारा छोड़ी गई ज्ञान - निधि की पूर्ण उपेक्षा कर रहे हैं।

पाश्चात्य देशों के आप सज्जनवृंद, विज्ञान में बहुत उन्नति कर चुके हैं, लेकिन शान्ति पर आपका अधिकार नहीं हो सका है। अधिकतर मामलों में आपको शान्ति के अभाव की अनुभूति होती होगी यद्यपि सांसारिक वस्तुएँ आपके पास अपार हैं। भारत के भ्रमित नेता भौतिकता के इस मूलभूत दोष से अपने को अवगत नहीं करा सके हैं और इसलिए " बैक टु गाडहेड” अर्थात् 'भगवान् का परम धाम' की चिन्ता उन्हें नहीं है, जो जीवन-यात्रा का अंतिम लक्ष्य है ।

जहाँ तक स्वदेश के मोर्चे की बात है, अभय ने बैक टु गाडहेड के नए अंकों की प्रतियाँ भारत के राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद को भेजीं। साथ में उन्होंने चेतावनी का एक पत्र भेजा कि जिस समाज का संचालन असुर कर रहे हों, उसका भाग्य घोर दुर्भाग्य से ग्रस्त समझना चाहिए। उन्होंने लिखा, 'कृपा करके उसे महान् पतन से बचाइए ।” २१ नवम्बर के अपने पत्र में अभय ने स्पष्ट शब्दों में लिखा :

अपना वर्तमान भौतिक शरीर छोड़ने के बाद परम भगवान् के पास जाने का सूत्र मुझे मिल गया है और संसार के अपने सभी समकालीन स्त्री-पुरुषों को अपने साथ ले जाने के उद्देश्य से एक साधन के रूप में मैने “बैक टु गाडहेड" का प्रकाशन आरंभ किया है। जब मैं कहता हूँ कि अपना वर्तमान भौतिक शरीर छोड़ने के बाद मैं परमधाम को लौट जाऊँगा, तो कृपा करके मुझे कोई अद्भुत या पागल व्यक्ति न समझें। यह हम में से हर एक के लिए और सभी के लिए संभव है।

अभय ने महामहिम राष्ट्रपति से प्रार्थना की कि वे बैक टु गाडहेड की एक दर्जन संलग्न प्रतियों की कम से कम मोटी सुर्खियों पर नजर डाल लें और उन्हें साक्षात्कार देने पर विचार करें। भारत के आध्यात्मिक दाय के नाम पर असीम कार्य करना था और ऐसे कार्य के लिए आध्यात्मिक मामलों के एक विशेष मंत्रालय की आवश्यकता थी । अभय ने लिखा, “वर्तमान समय में मैं वीरान में अकेले चिल्ला रहा हूँ।” लेकिन महामहिम की ओर से कभी कोई उत्तर नहीं आया ।

बैक टु गाडहेड में अभय नास्तिकता के विरुद्ध प्रचार कर रहे थे । " होप अगेन्स्ट होप" (आशा के विरुद्ध आशा) लेख में उन्होंने स्वीकार किया कि बैक टु गाडहेड की प्रतियाँ बेचते समय जिन लोगों से उनकी भेंट होती थी, उनमें अस्सी प्रतिशत लोग नास्तिक थे।

कभी-कभी हमें आधुनिक रुचि के सज्जन मिल जाते हैं और हम " बैक टु गाडहेड" में उनकी रुचि जगाने की कोशिश करते हैं। वे स्पष्ट शब्दों में उत्तर देते हैं कि न केवल उनकी रुचि ईश्वर विषयक मामलों में नहीं है, वरन् वे इस बात की भी निन्दा करते हैं कि आम लोगों को भगवान् के परम धाम के मार्ग पर ले जाने की कोशिश की जाए ।

उनके कथनानुसार भारतीय जनता की आर्थिक अवस्था में जो ह्रास हुआ है वह भगवान् में उसके बहुत अधिक विश्वास के कारण ही है, और जितनी जल्दी वह भगवान् के विषय में सबकुछ भूल जाय, उतना ही अच्छा होगा। लेकिन भगवान् के विषय में अनभिज्ञ ऐसे आधुनिक भले मनुष्यों के इस नास्तिकतावादी निष्कर्ष से हम सहमत नहीं हो सकते।

अभय का कहना था कि यद्यपि स्वतंत्र भारत अपने नागरिकों को नास्तिक भौतिकतावादी शिक्षा दे रहा था, लेकिन उसकी आर्थिक दशा में सुधार नहीं हो रहा था। बहुत से भारतीयों की न्यूनतम आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं हो रही थी। उन्होंने उदाहरण दिया कि अकेले दिल्ली में एक लाख बीस हजार लोग बेरोजगार थे ।

सरकार के कुछ ऊँचे पदाधिकारी या भाग्यशाली व्यवसायी खुशहाल हो सकते हैं लेकिन उनके ९० प्रतिशत भाई ऐसे हैं जिन्हें रोटी के लाले पड़े हैं। इसलिए देश की आर्थिक दशा निश्चय ही संतोषजनक नहीं है।

उन्होंने संयुक्त राज्य के भूतपूर्व राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन से उद्धरण दिया जिनका कहना था कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि नागरिकों का जीवन सुखपूर्ण हो । अभय ने पूछा कि यदि यह बात है तो भारत की स्वतंत्रता कहाँ है ? उनका तर्क था कि खुशहाली और सम्पन्नता के सभी प्रयत्न अवैध हैं, जब तक की परम भगवान् का अधिनायकत्व स्वीकार न किया जाय। निरीश्वरवादी सभ्यता से शान्ति कभी नहीं पैदा हो सकती ।

“प्रोग्रेसिव एम्बिशन एंड अनसैशिएटेड लस्ट” (वर्धमान अभिलाषाएँ और अतृप्त लिप्सा) नामक लेख में अभय ने लिखा :

संसार में धन का अभाव नहीं है, लेकिन शान्ति का अभाव है। मनुष्य की सारी शक्ति धनोपार्जन के धंधों में नियोजित है। इससे मानव समाज की सस्ती धनोपार्जन क्षमता में अवश्य ही वृद्धि हुई है। किन्तु इसका परिणाम यह है कि धन की ऐसी अनियंत्रित और अवैध स्फीति से बहुत दूषित अर्थ-व्यवस्था उत्पन्न हो गई है। उसने हमें बड़े पैमाने पर ऐसे भारी महँगे हथियारों का निर्माण करने में समर्थ बना दिया है जो सस्ते धनोपार्जनकारी व्यवसायों के सभी किए धरे को नष्ट कर सकते हैं। विपुल धनोपार्जन करने वाले देशों के अधिकारी शान्ति का भोग करने के बजाय आधुनिक विनाशकारी आयुधों से अपनी रक्षा की योजनाएँ बनाने में लगे हैं। और सच तो यह है, ऐसे भयानक हथियारों के प्रयोग पर असीम धनराशि बहाई जा रही है। ऐसे प्रयोग न केवल धन की बरबादी की कीमत पर हो रहे हैं, वरन् उनके लिए कितने गरीबों को भी कीमत चुकानी पड़ रही है। इस प्रकार (ऐसे प्रयोग करने वाले ) राष्ट्र कर्म के बन्धन में बँधते जा रहे हैं ।

जिन लोगों ने इस प्रकार अवैध धन संग्रह कर लिया है, वे देखेंगे कि वह उनसे ऐंठ लिया जायगा; ऐंठने वाले होंगे — “युद्ध-कर, डाक्टर, वकील, कर अधिकारी, संगठन, संविधान, तथाकथित साधु, अकाल, भूकंप, और इस तरह की अन्य आपदाओं के रूप में मायाग्रस्त स्वभाव के अभिकर्ता । "

एक कंजूस को, जो अपने मायाग्रस्त स्वभाव के कारण 'बैक टु गाडहेड' की एक प्रति खरीदने से हिचक गया, एक सप्ताह की बीमारी में बीस हजार रुपए खर्च करने पड़े और अंत में मौत के मुँह में जाना पड़ा। इस तरह की एक दूसरी घटना तब हुई जब एक आदमी ने भगवान् के नाम पर एक पैसा खर्च नहीं किया और घर के सदस्यों की आपसी मुकदमेबाजी में उसे तीस हजार रुपए खर्च करने पड़े। प्रकृति का यही नियम है।

नई दिल्ली के डाक घर में जब अभय पत्रिकाएँ विदेशों को भेज रहे थे तब वहाँ से एक कार्यकर्ता ने उसका शीर्षक देखा और अपने अनीश्वरवादी विचारों को लेकर अभय से तर्क-वितर्क करने लगा ।

श्रील प्रभुपाद : पोस्ट- मास्टर आर्यसमाजी था और वह मुझसे बैक टु गाडहेड पत्रिका के बारे में बात कर रहा था । उसने प्रश्न किया, “यदि हम अपने कर्त्तव्य का पालन अच्छी तरह करते हैं, तो भगवान् की आराधना का क्या काम है ? यदि हम ईमानदार हैं, यदि हम नैतिक हैं, यदि हम कोई काम ऐसा नहीं करते जिससे दूसरों को हानि पहुँचे, यदि हम इस तरीके से रहें, तो इसकी ( भगवान् की आराधना की) क्या आवश्यकता है?" हमारे पत्र का नाम 'बैक टु गाडहेड' था, इस पर वह अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिवाद कर रहा था कि, “ परम भगवान् की इस विचार धारा के प्रचार की क्या आवश्यकता है, यदि हम अच्छी तरह अपना कार्य करें।" आर्यसमाजियों का यही दृष्टिकोण है—भगवान से कैसे बचा जाय ।

इसलिए मैंने उत्तर दिया कि यदि किसी में भगवत् - भावना नहीं है तो वह नैतिक नहीं हो सकता; वह सत्यवादी नहीं हो सकता; वह ईमानदार नहीं हो सकता —— यह हमारा दृष्टिकोण है। कोई अखिल विश्व का अध्ययन इन तीन बिन्दुओं पर करे — नैतिकता, सत्यवादिता, कर्त्तव्यपरायणता— लेकिन यदि वह भगवत् - भावना वाला नहीं है, तो वह इन्हें जारी नहीं रख सकता । समाज में इन अच्छे गुणों को पुनर्जागरित करने के लिए, पहले भगवत- भावना का आवाहन जरूरी है।

दिल्ली के एक आदमी ने अभय को बैक टु गाडहेड बाँटते देखकर टिप्पणी की, “परम भगवान् कहां हैं, क्या मुझे भगवान् को दिखा सकते हैं ? " अभय ने इस चुनौती का उत्तर दिया; लेकिन नगर में दिन-भर घूमते हुए एक और गंभीर उत्तर पर विचार करते रहे। अपने स्थान पर लौट कर उन्होंने एक लेख आरंभ किया, "परम भगवान् कहाँ हैं, क्या उन्हें देख सकना संभव है ?"

नई दिल्ली के सचिवालय भवन में एक शिलालेख लगा है कि स्वतंत्रता किसी जाति को आसमान से नहीं मिलती, वरन् उसके उपभोग के पहले उसे अर्जित करना पड़ता है। वास्तविकता यही है और हमने देखा है कि स्वराज पाने के पहले भारतवासियों को उसके लिए बहुत अधिक बलिदान करना पड़ा था। लेकिन परम भगवान् के मामले में बहुत से गैरजिम्मेदार आदमी पूछते हैं, “भूगवान कहाँ है?” “क्या आप दिखा सकते हैं ? " क्या आपने भगवान् को देखा हैं ?” कुछ गैरजिम्मेदार लोगों द्वारा, जो हर चीज को सस्ते में ही पा लेना चाहते हैं, पूछे जाने वाले ये कुछ प्रश्न हैं। यदि इस भौतिक संसार में स्वतंत्रता की अस्थायी मिथ्या भावना को प्राप्त करने के लिए इतने बलिदान की आवश्यकता है, तो क्या परम भगवान्, जो परम सत्य हैं, को इतनी आसानी से देख सकना संभव है ? भगवान् को देखने का अर्थ है सभी अवस्थाओं से पूर्ण मुक्ति। लेकिन क्या भगवान् हमारी सेवा में लगा कोई अर्दली है कि मेरे आदेश पर वह हर समय उपस्थित रहे ? नास्तिक यही चाहता है, मानो भगवान् उसका वेतन पर रखा नौकर हो, और उसका विचार है कि परम भगवान् कोई काल्पनिक चीज है, नहीं तो उसकी माँग होते ही वह उसके सामने उपस्थित हो जाता ।

एक दिन जब अभय बैक टु गाडहेड के काम से एक वीरान सड़क पर जा रहे थे, तो एक लावारिस गाय — जैसी कि भारत के नगरों या कस्बों में घूमती हुई प्राय: पाई जाती हैं— पहले उन पर टूट पड़ी और फिर उनकी बगल में सींग भोंक कर उन्हें गिरा दिया। वे अचानक उठ न सके और कोई उनकी सहायता के लिए नहीं आया। वहाँ पड़े-पड़े वे सोचने लगे कि ऐसा क्यों हुआ।

ग्रीष्म ऋतु आई और ११० डिग्री ताप में बाहर निकलना लगभग असह्य होने लगा। सड़कों में तप्त अंधड़ चलने लगा। सड़क के बगल की दुकानें दिन में बंद हो जातीं । मई के शुरू में, ११२ डिग्री की गरमी, एक आदमी लू से बेहोश हो गया और मर गया। लेकिन अभय ने गरमी और शरीर की सामान्य लाचारियों की कोई चिन्ता नहीं की ।

एक दिन बैक टु गाडहेड का नगर के ग्राहकों में वितरण करते समय अभय गरमी के कारण अचानक लड़खड़ाने लगे और अर्द्धमूर्छित हो गए। ठीक उसी समय उनका एक परिचित, जिससे प्रचार के सिलसिले में उनकी भेंट हुई थी, अपनी कार में उधर से गुजर रहा था। वह उन्हें डाक्टर के पास ले गया। डाक्टर ने निदान किया और बताया कि उन्हें लू लग गई है। उसने उन्हें आराम करने को कहा ।

२० जून को अभय ने अपनी पत्रिका का उस वर्ष का आठवाँ पाक्षिक अंक प्रकाशित किया। उसके मुख पृष्ठ पर मुद्रित लेख में भौतिकतावादी पारिवारिक जीवन और पारिवारिक जीवन का मिथ्या त्याग — दोनों की निंदा की गई थी । तब उनको घर का त्याग किए और वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किए लगभग दो वर्ष हो गए थे और ऐसा लगता था कि पारिवारिक जीवन पर उनकी टिप्पणियाँ आत्मचरितात्मक भी थीं और धर्मग्रंथ - सम्मत भी । उन्होंने श्रीमद्भागवत से प्रह्लाद महाराज का एक कथन उद्धृत किया :

गृहस्थ आश्रम की दुश्चिन्ताओं से जिनका मन हमेशा अशांत रहता है, उन्हें चाहिए कि ऐसे घोर नरक - जैसे अस्थायी आत्म- हंता घर ( पारिवारिक जीवन) का त्याग कर दें और वन में जाकर परम भगवान् के चरण-कमलों में शरण लें।

और उन्होंने स्वीकार किया कि परिवार की व्यवस्था करना एक साम्राज्य की व्यवस्था करने से भी कठिन है।

लेकिन वास्तविक त्याग का भाव आए बिना, गृहस्थ जीवन छोड़ कर वन में रहने लगना "वानर त्याग" है। वन में बहुत से वानर हैं जो नंगे रहते हैं, फल खाते हैं और वानरियों को साथ रखते हैं।

सच्चा उपचार तो भगवान् के चरणकमलों की सेवा स्वीकार करने में है। उसी से जीवन की सारी दुश्चिंताओं से मुक्ति मिलती है। उसी से भगवान् का दर्शन सदा और सर्वत्र होता है ।

इसलिए सच्चा विरक्त जीवन वन में गए बिना भी संभव है। गृहस्थ के वेश में रहकर भी कोई दुश्चिंताओं से मुक्त हो सकता है, यदि वह अपने को भक्ति में लीन कर ले।

१ सितम्बर को संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति आइजनहोवर ने सोवियत रूस द्वारा दस लाख टन टी. एन. टी. के बराबर अणुबम के गोपनीय परीक्षण की भर्त्सना की और उसके शान्ति के दावों की हँसी उड़ाई। मध्यपूर्व में नासिर ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया जिससे एक अन्तर्राष्ट्रीय संकट पैदा हो गया । २० सितम्बर को ८१ राष्ट्रों के प्रतिनिधि अणु-शक्ति के शान्तिपूर्ण उपयोग के लिए एक नया अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने के उद्देश्य से 'संयुक्त राष्ट्र' में इकठ्ठे हुए। अभय ने पत्रों में खबरों की सुर्खियाँ देखी और अपने मिलने वालों से उन्हें नवीनतम समाचार प्राप्त हुए। उन्होंने उन से स्पष्ट कहा कि बिना कृष्ण - भावना के नेताओं के सहयोग के वादे केवल मृगमरीचिका हैं।

भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने कहा था कि यदि केवल एक व्यक्ति भी सच्चा भक्त बन जाये, तो उसका मिशन सफल होगा। लेकिन अभय कभी-कभी अपने को पराजित - सा अनुभव करने लगते, जब उन्हें विचार आता कि वे कितने छोटे हैं, कृष्ण की ओर से उन्हें कितना अधिक कार्य करना और एक भी प्रतिबद्ध आत्मा में नया विश्वास पैदा करना कितना कठिन है।

 
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥