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श्री रामचरितमानस  »  मासपारायण 21: इक्कीसवाँ विश्राम  » 
 
 
 
 
 
 
2. चौपाई 237.1:  तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरजी से कहने लगा- हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं,॥1॥
 
2. चौपाई 237.2:  जिन श्रेष्ठ वृक्षों के बीच में एक सुंदर विशाल बड़ का वृक्ष सुशोभित है, जिसको देखकर मन मोहित हो जाता है, उसके पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं। उसकी घनी छाया सब ऋतुओं में सुख देने वाली है॥2॥
 
2. चौपाई 237.3:  मानो ब्रह्माजी ने परम शोभा को एकत्र करके अंधकार और लालिमामयी राशि सी रच दी है। हे गुसाईं! ये वृक्ष नदी के समीप हैं, जहाँ श्री राम की पर्णकुटी छाई है॥3॥
 
2. चौपाई 237.4:  वहाँ तुलसीजी के बहुत से सुंदर वृक्ष सुशोभित हैं, जो कहीं-कहीं सीताजी ने और कहीं लक्ष्मणजी ने लगाए हैं। इसी बड़ की छाया में सीताजी ने अपने करकमलों से सुंदर वेदी बनाई है॥4॥
 
2. दोहा 237:  जहाँ सुजान श्री सीता-रामजी मुनियों के वृन्द समेत बैठकर नित्य शास्त्र, वेद और पुराणों के सब कथा-इतिहास सुनते हैं॥237॥
 
2. चौपाई 238.1:  सखा के वचन सुनकर और वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का वर्णन करने में सरस्वतीजी भी सकुचाती हैं॥1॥
 
2. चौपाई 238.2:  श्री रामचन्द्रजी के चरणचिह्न देखकर दोनों भाई ऐसे हर्षित होते हैं, मानो दरिद्र पारस पा गया हो। वहाँ की रज को मस्तक पर रखकर हृदय में और नेत्रों में लगाते हैं और श्री रघुनाथजी के मिलने के समान सुख पाते हैं॥2॥
 
2. चौपाई 238.3:  भरतजी की अत्यन्त अनिर्वचनीय दशा देखकर वन के पशु, पक्षी और जड़ (वृक्षादि) जीव प्रेम में मग्न हो गए। प्रेम के विशेष वश होने से सखा निषादराज को भी रास्ता भूल गया। तब देवता सुंदर रास्ता बतलाकर फूल बरसाने लगे॥3॥
 
2. चौपाई 238.4:  भरत के प्रेम की इस स्थिति को देखकर सिद्ध और साधक लोग भी अनुराग से भर गए और उनके स्वाभाविक प्रेम की प्रशंसा करने लगे कि यदि इस पृथ्वी तल पर भरत का जन्म (अथवा प्रेम) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता?॥4॥
 
2. दोहा 238:  प्रेम अमृत है, विरह मंदराचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिए स्वयं (इस भरत रूपी गहरे समुद्र को अपने विरह रूपी मंदराचल से) मथकर यह प्रेम रूपी अमृत प्रकट किया है॥238॥
 
2. चौपाई 239.1:  सखा निषादराज सहित इस मनोहर जोड़ी को सघन वन की आड़ के कारण लक्ष्मणजी नहीं देख पाए। भरतजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के समस्त सुमंगलों के धाम और सुंदर पवित्र आश्रम को देखा॥1॥
 
2. चौपाई 239.2:  आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का दुःख और दाह (जलन) मिट गया, मानो योगी को परमार्थ (परमतत्व) की प्राप्ति हो गई हो। भरतजी ने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभु के आगे खड़े हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं (पूछी हुई बात का प्रेमपूर्वक उत्तर दे रहे हैं)॥2॥
 
2. चौपाई 239.3:  सिर पर जटा है, कमर में मुनियों का (वल्कल) वस्त्र बाँधे हैं और उसी में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है, वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है और सीताजी सहित श्री रघुनाथजी विराजमान हैं॥3॥
 
2. चौपाई 239.4:  श्री रामजी के वल्कल वस्त्र हैं, जटा धारण किए हैं, श्याम शरीर है। (सीता-रामजी ऐसे लगते हैं) मानो रति और कामदेव ने मुनि का वेष धारण किया हो। श्री रामजी अपने करकमलों से धनुष-बाण फेर रहे हैं और हँसकर देखते ही जी की जलन हर लेते हैं (अर्थात जिसकी ओर भी एक बार हँसकर देख लेते हैं, उसी को परम आनंद और शांति मिल जाती है।)॥4॥
 
2. दोहा 239:  सुंदर मुनि मंडली के बीच में सीताजी और रघुकुलचंद्र श्री रामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात्‌ भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण करके विराजमान हैं॥239॥
 
2. चौपाई 240.1:  छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन (प्रेम में) मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे नाथ! रक्षा कीजिए, हे गुसाईं! रक्षा कीजिए’ ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े॥1॥
 
2. चौपाई 240.2:  प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। (वे श्री रामजी की ओर मुँह किए खड़े थे, भरतजी पीठ पीछे थे, इससे उन्होंने देखा नहीं।) अब इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी श्री रामचन्द्रजी की सेवा की प्रबल परवशता॥2॥
 
2. चौपाई 240.3:  न तो (क्षणभर के लिए भी सेवा से पृथक होकर) मिलते ही बनता है और न (प्रेमवश) छोड़ते (उपेक्षा करते) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही लक्ष्मणजी के चित्त की इस गति (दुविधा) का वर्णन कर सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गए (सेवा को ही विशेष महत्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे) मानो चढ़ी हुई पतंग को खिलाड़ी (पतंग उड़ाने वाला) खींच रहा हो॥3॥
 
2. चौपाई 240.4:  लक्ष्मणजी ने प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण॥4॥
 
2. दोहा 240:  कृपा निधान श्री रामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया! भरतजी और श्री रामजी के मिलन की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गई॥240॥
 
2. चौपाई 241.1:  मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरतजी और श्री रामजी) मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं॥1॥
 
2. चौपाई 241.2:  कहिए, उस श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रकट करे? कवि की बुद्धि किसकी छाया का अनुसरण करे? कवि को तो अक्षर और अर्थ का ही सच्चा बल है। नट ताल की गति के अनुसार ही नाचता है!॥2॥
 
2. चौपाई 241.3:  भरतजी और श्री रघुनाथजी का प्रेम अगम्य है, जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का भी मन नहीं जा सकता। उस प्रेम को मैं कुबुद्धि किस प्रकार कहूँ! भला, *गाँडर की ताँत से भी कहीं सुंदर राग बज सकता है?॥3॥ (*तालाबों और झीलों में एक तरह की घास होती है, उसे गाँडर कहते हैं।)
 
2. चौपाई 241.4:  भरतजी और श्री रामचन्द्रजी के मिलने का ढंग देखकर देवता भयभीत हो गए, उनकी धुकधुकी धड़कने लगी। देव गुरु बृहस्पतिजी ने समझाया, तब कहीं वे मूर्ख चेते और फूल बरसाकर प्रशंसा करने लगे॥4॥
 
2. दोहा 241:  फिर श्री रामजी प्रेम के साथ शत्रुघ्न से मिलकर तब केवट (निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बड़े ही प्रेम से मिले॥241॥
 
2. चौपाई 242.1:  तब लक्ष्मणजी ललककर (बड़ी उमंग के साथ) छोटे भाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को हृदय से लगा लिया। फिर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाइयों ने (उपस्थित) मुनियों को प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनंदित हुए॥1॥
 
2. चौपाई 242.2:  छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी प्रेम में उमँगकर सीताजी के चरण कमलों की रज सिर पर धारण कर बार-बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श कर (सिर पर हाथ फेरकर) उन दोनों को बैठाया॥2॥
 
2. चौपाई 242.3:  सीताजी ने मन ही मन आशीर्वाद दिया, क्योंकि वे स्नेह में मग्न हैं, उन्हें देह की सुध-बुध नहीं है। सीताजी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गए और उनके हृदय का कल्पित भय जाता रहा॥3॥
 
2. चौपाई 242.4:  उस समय न तो कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पूछता है! मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से खाली है (अर्थात संकल्प-विकल्प और चांचल्य से शून्य है)। उस अवसर पर केवट (निषादराज) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा-॥4॥
 
2. दोहा 242:  हे नाथ! मुनिनाथ वशिष्ठजी के साथ सब माताएँ, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री- सब आपके वियोग से व्याकुल होकर आए हैं॥242॥
 
2. चौपाई 243.1:  गुरु का आगमन सुनकर शील के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने सीताजी के पास शत्रुघ्नजी को रख दिया और वे परम धीर, धर्मधुरंधर, दीनदयालु श्री रामचन्द्रजी उसी समय वेग के साथ चल पड़े॥1॥
 
2. चौपाई 243.2:  गुरुजी के दर्शन करके लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्रेम में भर गए और दण्डवत प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेम में उमँगकर वे दोनों भाइयों से मिले॥2॥
 
2. चौपाई 243.3:  फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्डवत प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो॥3॥
 
2. चौपाई 243.4:  श्री रघुनाथजी की भक्ति सुंदर मंगलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे- जगत में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है?॥4॥
 
2. दोहा 243:  जिस (निषाद) को देखकर मुनिराज वशिष्ठजी लक्ष्मणजी से भी अधिक उससे आनंदित होकर मिले। यह सब सीतापति श्री रामचन्द्रजी के भजन का प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है॥243॥
 
2. चौपाई 244.1:  दया की खान, सुजान भगवान श्री रामजी ने सब लोगों को दुःखी (मिलने के लिए व्याकुल) जाना। तब जो जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था, उस-उस का उस-उस प्रकार का रुख रखते हुए (उसकी रुचि के अनुसार)॥1॥
 
2. चौपाई 244.2:  उन्होंने लक्ष्मणजी सहित पल भर में सब किसी से मिलकर उनके दुःख और कठिन संताप को दूर कर दिया। श्री रामचन्द्रजी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों घड़ों में एक ही सूर्य की (पृथक-पृथक) छाया (प्रतिबिम्ब) एक साथ ही दिखती है॥2॥
 
2. चौपाई 244.3:  समस्त पुरवासी प्रेम में उमँगकर केवट से मिलकर (उसके) भाग्य की सराहना करते हैं। श्री रामचन्द्रजी ने सब माताओं को दुःखी देखा। मानो सुंदर लताओं की पंक्तियों को पाला मार गया हो॥3॥
 
2. चौपाई 244.4:  सबसे पहले रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर कर दिया। फिर चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर, श्री रामजी ने उनको सान्त्वना दी॥4॥
 
2. दोहा 244:  फिर श्री रघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया कि हे माता! जगत ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए॥244॥
 
2. चौपाई 245.1:  फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित- जो भरतजी के साथ आई थीं, गुरुजी की पत्नी अरुंधतीजी के चरणों की वंदना की और उन सबका गंगाजी तथा गौरीजी के समान सम्मान किया। वे सब आनंदित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं॥1॥
 
2. चौपाई 245.2:  तब दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानो किसी अत्यन्त दरिद्र की सम्पत्ति से भेंट हो गई हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्याजी के चरणों में गिर पड़े। प्रेम के मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं॥2॥
 
2. चौपाई 245.3:  बड़े ही स्नेह से माता ने उन्हें हृदय से लगा लिया और नेत्रों से बहे हुए प्रेमाश्रुओं के जल से उन्हें नहला दिया। उस समय के हर्ष और विषाद को कवि कैसे कहे? जैसे गूँगा स्वाद को कैसे बतावे?॥3॥
 
2. चौपाई 245.4:  श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित माता कौसल्या से मिलकर गुरु से कहा कि आश्रम पर पधारिए। तदनन्तर मुनीश्वर वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर अयोध्यावासी सब लोग जल और थल का सुभीता देख-देखकर उतर गए॥4॥
 
2. दोहा 245:  ब्राह्मण, मंत्री, माताएँ और गुरु आदि गिने-चुने लोगों को साथ लिए हुए, भरतजी, लक्ष्मणजी और श्री रघुनाथजी पवित्र आश्रम को चले॥245॥
 
2. चौपाई 246.1:  सीताजी आकर मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और उन्होंने मन माँगी उचित आशीष पाई। फिर मुनियों की स्त्रियों सहित गुरु पत्नी अरुन्धतीजी से मिलीं। उनका जितना प्रेम था, वह कहा नहीं जाता॥1॥
 
2. चौपाई 246.2:  सीताजी ने सभी के चरणों की अलग-अलग वंदना करके अपने हृदय को प्रिय (अनुकूल) लगने वाले आशीर्वाद पाए। जब सुकुमारी सीताजी ने सब सासुओं को देखा, तब उन्होंने सहमकर अपनी आँखें बंद कर लीं॥2॥
 
2. चौपाई 246.3:  (सासुओं की बुरी दशा देखकर) उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियाँ बधिक के वश में पड़ गई हों। (मन में सोचने लगीं कि) कुचाली विधाता ने क्या कर डाला? उन्होंने भी सीताजी को देखकर बड़ा दुःख पाया। (सोचा) जो कुछ दैव सहावे, वह सब सहना ही पड़ता है॥3॥
 
2. चौपाई 246.4:  तब जानकीजी हृदय में धीरज धरकर, नील कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, सब सासुओं से जाकर मिलीं। उस समय पृथ्वी पर करुणा (करुण रस) छा गई॥4॥
 
2. दोहा 246:  सीताजी सबके पैरों लग-लगकर अत्यन्त प्रेम से मिल रही हैं और सब सासुएँ स्नेहवश हृदय से आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सुहाग से भरी रहो (अर्थात सदा सौभाग्यवती रहो)॥246॥
 
2. चौपाई 247.1:  सीताजी और सब रानियाँ स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ज्ञानी गुरु ने सबको बैठ जाने के लिए कहा। फिर मुनिनाथ वशिष्ठजी ने जगत की गति को मायिक कहकर (अर्थात जगत माया का है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर) कुछ परमार्थ की कथाएँ (बातें) कहीं॥1॥
 
2. चौपाई 247.2:  तदनन्तर वशिष्ठजी ने राजा दशरथजी के स्वर्ग गमन की बात सुनाई। जिसे सुनकर रघुनाथजी ने दुःसह दुःख पाया और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर धीरधुरन्धर श्री रामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गए॥2॥
 
2. चौपाई 247.3:  वज्र के समान कठोर, कड़वी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानियाँ विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गया! मानो राजा आज ही मरे हों॥3॥
 
2. चौपाई 247.4:  फिर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने श्री रामजी को समझाया। तब उन्होंने समाज सहित श्रेष्ठ नदी मंदाकिनीजी में स्नान किया। उस दिन प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने निर्जल व्रत किया। मुनि वशिष्ठजी के कहने पर भी किसी ने जल ग्रहण नहीं किया॥4॥
 
2. दोहा 247:  दूसरे दिन सबेरा होने पर मुनि वशिष्ठजी ने श्री रघुनाथजी को जो-जो आज्ञा दी, वह सब कार्य प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने श्रद्धा-भक्ति सहित आदर के साथ किया॥247॥
 
2. चौपाई 248.1:  वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पाप रूपी अंधकार के नष्ट करने वाले सूर्यरूप श्री रामचन्द्रजी शुद्ध हुए! जिनका नाम पाप रूपी रूई के (तुरंत जला डालने के) लिए अग्नि है और जिनका स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगलों का मूल है,॥1॥
 
2. चौपाई 248.2:  वे (नित्य शुद्ध-बुद्ध) भगवान श्री रामजी शुद्ध हुए! साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के आवाहन से गंगाजी शुद्ध होती हैं! (गंगाजी तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है, उलटे वे ही गंगाजी के सम्पर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानंद रूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संसर्ग से कर्म ही शुद्ध हो गए।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गए तब श्री रामचन्द्रजी प्रीति के साथ गुरुजी से बोले-॥2॥
 
2. चौपाई 248.3:  हे नाथ! सब लोग यहाँ अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। कंद, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं। भाई शत्रुघ्न सहित भरत को, मंत्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक-एक पल युग के समान बीत रहा है॥3॥
 
2. चौपाई 248.4:  अतः सबके साथ आप अयोध्यापुरी को पधारिए (लौट जाइए)। आप यहाँ हैं और राजा अमरावती (स्वर्ग) में हैं (अयोध्या सूनी है)! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढिठाई की है। हे गोसाईं! जैसा उचित हो, वैसा ही कीजिए॥4॥
 
2. दोहा 248:  (वशिष्ठजी ने कहा-) हे राम! तुम धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो? लोग दुःखी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शांति लाभ कर लें॥248॥
 
2. चौपाई 249.1:  श्री रामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो, परन्तु जब उन्होंने गुरु वशिष्ठजी की श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी, तो उस जहाज के लिए मानो हवा अनुकूल हो गई॥1॥
 
2. चौपाई 249.2:  सब लोग पवित्र पयस्विनी नदी में (अथवा पयस्विनी नदी के पवित्र जल में) तीनों समय (सबेरे, दोपहर और सायंकाल) स्नान करते हैं, जिसके दर्शन से ही पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और मंगल मूर्ति श्री रामचन्द्रजी को दण्डवत प्रणाम कर-करके उन्हें नेत्र भर-भरकर देखते हैं॥2॥
 
2. चौपाई 249.3:  सब श्री रामचन्द्रजी के पर्वत (कामदगिरि) और वन को देखने जाते हैं, जहाँ सभी सुख हैं और सभी दुःखों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंध) हवा तीनों प्रकार के (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) तापों को हर लेती है॥3॥
 
2. चौपाई 249.4:  असंख्य जात के वृक्ष, लताएँ और तृण हैं तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुंदर शिलाएँ हैं। वृक्षों की छाया सुख देने वाली है। वन की शोभा किससे वर्णन की जा सकती है?॥4॥
 
2. दोहा 249:  तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं॥249॥
 
2. चौपाई 250.1:  कोल, किरात और भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुंदर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कंद, मूल, फल और अंकुर आदि की जूड़ियों (अँटियों) को॥1॥
 
2. चौपाई 250.2:  सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजों के अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा देने में श्री रामजी की दुहाई देते हैं॥2॥
 
2. चौपाई 250.3:  प्रेम में मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिए, दाम देकर या वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिए)। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। श्री रामजी की कृपा से ही हमने आप लोगों के दर्शन पाए हैं॥3॥
 
2. चौपाई 250.4:  हम लोगों को आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिए गंगाजी की धारा दुर्लभ है! (देखिए) कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने निषाद पर कैसी कृपा की है। जैसे राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजा को भी होना चाहिए॥4॥
 
2. दोहा 250:  हृदय में ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिए और हमको कृतार्थ करने के लिए ही फल, तृण और अंकुर लीजिए॥250॥
 
2. चौपाई 251.1:  आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे स्वामी! हम आपको क्या देंगे? भीलों की मित्रता तो बस, ईंधन (लकड़ी) और पत्तों ही तक है॥1॥
 
2. चौपाई 251.2:  हमारी तो यही बड़ी भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा लेते। हम लोग जड़ जीव हैं, जीवों की हिंसा करने वाले हैं, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति हैं॥2॥
 
2. चौपाई 251.3:  हमारे दिन-रात पाप करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारी कमर में कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं। हममें स्वप्न में भी कभी धर्मबुद्धि कैसी? यह सब तो श्री रघुनाथजी के दर्शन का प्रभाव है॥3॥
 
2. चौपाई 251.4:  जब से प्रभु के चरण कमल देखे, तब से हमारे दुःसह दुःख और दोष मिट गए। वनवासियों के वचन सुनकर अयोध्या के लोग प्रेम में भर गए और उनके भाग्य की सराहना करने लगे॥4॥
 
2. छंद 251.1:  सब उनके भाग्य की सराहना करने लगे और प्रेम के वचन सुनाने लगे। उन लोगों के बोलने और मिलने का ढंग तथा श्री सीता-रामजी के चरणों में उनका प्रेम देखकर सब सुख पा रहे हैं। उन कोल-भीलों की वाणी सुनकर सभी नर-नारी अपने प्रेम का निरादर करते हैं (उसे धिक्कार देते हैं)। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी की कृपा है कि लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर तैर गया॥
 
2. सोरठा 251:  सब लोग दिनोंदिन परम आनंदित होते हुए वन में चारों ओर विचरते हैं। जैसे पहली वर्षा के जल से मेंढक और मोर मोटे हो जाते हैं (प्रसन्न होकर नाचते-कूदते हैं)॥251॥
 
2. चौपाई 252.1:  अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं। जितनी सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीताजी सब सासुओं की आदरपूर्वक एक सी सेवा करती हैं॥1॥
 
2. चौपाई 252.2:  श्री रामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना। सब मायाएँ (पराशक्ति महामाया) श्री सीताजी की माया में ही हैं। सीताजी ने सासुओं को सेवा से वश में कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिए॥2॥
 
2. चौपाई 252.3:  सीताजी समेत दोनों भाइयों (श्री राम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछताई। वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है, किन्तु धरती बीच (फटकर समा जाने के लिए रास्ता) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता॥3॥
 
2. चौपाई 252.4:  लोक और वेद में प्रसिद्ध है और कवि (ज्ञानी) भी कहते हैं कि जो श्री रामजी से विमुख हैं, उन्हें नरक में भी ठौर नहीं मिलती। सबके मन में यह संदेह हो रहा था कि हे विधाता! श्री रामचन्द्रजी का अयोध्या जाना होगा या नहीं॥4॥
 
2. दोहा 252:  भरतजी को न तो रात को नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है। वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़ में डूबी हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती है॥252॥
 
2. चौपाई 253.1:  (भरतजी सोचते हैं कि) माता के मिस से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो। अब श्री रामचन्द्रजी का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता॥1॥
 
2. चौपाई 253.2:  गुरुजी की आज्ञा मानकर तो श्री रामजी अवश्य ही अयोध्या को लौट चलेंगे, परन्तु मुनि वशिष्ठजी तो श्री रामचन्द्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे। ( अर्थात वे श्री रामजी की रुचि देखे बिना जाने को नहीं कहेंगे)। माता कौसल्याजी के कहने से भी श्री रघुनाथजी लौट सकते हैं, पर भला, श्री रामजी को जन्म देने वाली माता क्या कभी हठ करेगी?॥2॥
 
2. चौपाई 253.3:  मुझ सेवक की तो बात ही कितनी है? उसमें भी समय खराब है (मेरे दिन अच्छे नहीं हैं) और विधाता प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूँ तो यह घोर कुकर्म (अधर्म) होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलास से भी भारी (निबाहने में कठिन) है॥3॥
 
2. चौपाई 253.4:  एक भी युक्ति भरतजी के मन में न ठहरी। सोचते ही सोचते रात बीत गई। भरतजी प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वशिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा॥4॥
 
2. दोहा 253:  भरतजी गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गए। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मंत्री आदि सभी सभासद आकर जुट गए॥253॥
 
2. चौपाई 254.1:  श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठजी समयोचित वचन बोले- हे सभासदों! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्री रामचन्द्र धर्मधुरंधर और स्वतंत्र भगवान हैं॥1॥
 
2. चौपाई 254.2:  वे सत्य प्रतिज्ञ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं। श्री रामजी का अवतार ही जगत के कल्याण के लिए हुआ है। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले हैं। दुष्टों के दल का नाश करने वाले और देवताओं के हितकारी हैं॥2॥
 
2. चौपाई 254.3:  नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को श्री रामजी के समान यथार्थ (तत्त्व से) कोई नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल,॥3॥
 
2. चौपाई 254.4:  शेषजी और (पृथ्वी एवं पाताल के अन्यान्य) राजा आदि जहाँ तक प्रभुता है और योग की सिद्धियाँ, जो वेद और शास्त्रों में गाई गई हैं, हृदय में अच्छी तरह विचार कर देखो, (तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि) श्री रामजी की आज्ञा इन सभी के सिर पर है (अर्थात श्री रामजी ही सबके एक मात्र महान महेश्वर हैं)॥4॥
 
2. दोहा 254:  अतएव श्री रामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सबका हित होगा। (इस तत्त्व और रहस्य को समझकर) अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वही मिलकर करो॥254॥
 
2. चौपाई 255.1:  श्री रामजी का राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है। मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्ग है। (अब) श्री रघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया जाए॥1॥
 
2. चौपाई 255.2:  मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी की नीति, परमार्थ और स्वार्थ (लौकिक हित) में सनी हुई वाणी सबने आदरपूर्वक सुनी। पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले (विचार शक्ति से रहित) हो गए। तब भरत ने सिर नवाकर हाथ जोड़े॥2॥
 
2. चौपाई 255.3:  (और कहा-) सूर्यवंश में एक से एक अधिक बड़े बहुत से राजा हो गए हैं। सभी के जन्म के कारण पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों को (कर्मों का फल) विधाता देते हैं॥3॥
 
2. चौपाई 255.4:  आपकी आशीष ही एक ऐसी है, जो दुःखों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देती है, यह जगत जानता है। हे स्वामी! आप ही हैं, जिन्होंने विधाता की गति (विधान) को भी रोक दिया। आपने जो टेक टेक दी (जो निश्चय कर दिया) उसे कौन टाल सकता है?॥4॥
 
2. दोहा 255:  अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है। भरतजी के प्रेममय वचनों को सुनकर गुरुजी के हृदय में प्रेम उमड़ आया॥255॥
 
2. चौपाई 256.1:  (वे बोले-) हे तात! बात सत्य है, पर है रामजी की कृपा से ही। राम विमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती। हे तात! मैं एक बात कहने में सकुचाता हूँ। बुद्धिमान लोग सर्वस्व जाता देखकर (आधे की रक्षा के लिए) आधा छोड़ दिया करते हैं॥1॥
 
2. चौपाई 256.2:  अतः तुम दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता और श्री रामचन्द्र को लौटा दिया जाए। ये सुंदर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गए। उनके सारे अंग परमानंद से परिपूर्ण हो गए॥2॥
 
2. चौपाई 256.3:  उनके मन प्रसन्न हो गए। शरीर में तेज सुशोभित हो गया। मानो राजा दशरथजी उठे हों और श्री रामचन्द्रजी राजा हो गए हों! अन्य लोगों को तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई, परन्तु रानियों को दुःख-सुख समान ही थे (राम-लक्ष्मण वन में रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही), यह समझकर वे सब रोने लगीं॥3॥
 
2. चौपाई 256.4:  भरतजी कहने लगे- मुनि ने जो कहा, वह करने से जगतभर के जीवों को उनकी इच्छित वस्तु देने का फल होगा। (चौदह वर्ष की कोई अवधि नहीं) मैं जन्मभर वन में वास करूँगा। मेरे लिए इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है॥4॥
 
2. दोहा 256:  श्री रामचन्द्रजी और सीताजी हृदय की जानने वाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान हैं। यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ! अपने वचनों को प्रमाण कीजिए (उनके अनुसार व्यवस्था कीजिए)॥256॥
 
2. चौपाई 257.1:  भरतजी के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि वशिष्ठजी विदेह हो गए (किसी को अपने देह की सुधि न रही)। भरतजी की महान महिमा समुद्र है, मुनि की बुद्धि उसके तट पर अबला स्त्री के समान खड़ी है॥1॥
 
2. चौपाई 257.2:  वह (उस समुद्र के) पार जाना चाहती है, इसके लिए उसने हृदय में उपाय भी ढूँढे! पर (उसे पार करने का साधन) नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती। भरतजी की बड़ाई और कौन करेगा? तलैया की सीपी में भी कहीं समुद्र समा सकता है?॥2॥
 
2. चौपाई 257.3:  मुनि वशिष्ठजी की अन्तरात्मा को भरतजी बहुत अच्छे लगे और वे समाज सहित श्री रामजी के पास आए। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने प्रणाम कर उत्तम आसन दिया। सब लोग मुनि की आज्ञा सुनकर बैठ गए॥3॥
 
2. चौपाई 257.4:  श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले- हे सर्वज्ञ! हे सुजान! हे धर्म, नीति, गुण और ज्ञान के भण्डार राम! सुनिए-॥4॥
 
2. दोहा 257:  आप सबके हृदय के भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं, जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइए॥257॥
 
2. चौपाई 258.1:  आर्त (दुःखी) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को अपना ही दाँव सूझता है। मुनि के वचन सुनकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है॥1॥
 
2. चौपाई 258.2:  आपका रुख रखने में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर प्रसन्नता पूर्वक पालन करने में ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूँ॥2॥
 
2. चौपाई 258.3:  फिर हे गोसाईं! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जाएगा (आज्ञा पालन करेगा)। मुनि वशिष्ठजी कहने लगे- हे राम! तुमने सच कहा। पर भरत के प्रेम ने विचार को नहीं रहने दिया॥3॥
 
2. चौपाई 258.4:  इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गई है। मेरी समझ में तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जाएगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा॥4॥
 
2. दोहा 258:  पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) कीजिए॥258॥
 
2. चौपाई 259.1:  भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्री रामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर-॥1॥
 
2. चौपाई 259.2:  श्री रामचन्द्रजी गुरु की आज्ञा अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले- हे नाथ! आपकी सौगंध और पिताजी के चरणों की दुहाई है (मैं सत्य कहता हूँ कि) विश्वभर में भरत के समान कोई भाई हुआ ही नहीं॥2॥
 
2. चौपाई 259.3:  जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में (लौकिक दृष्टि से) भी और वेद में (परमार्थिक दृष्टि से) भी बड़भागी होतें हैं! (फिर) जिस पर आप (गुरु) का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है?॥3॥
 
2. चौपाई 259.4:  छोटा भाई जानकर भरत के मुँह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। (फिर भी मैं तो यही कहूँगा कि) भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्री रामचन्द्रजी चुप हो रहे॥4॥
 
2. दोहा 259:  तब मुनि भरतजी से बोले- हे तात! सब संकोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो॥259॥
 
2. चौपाई 260.1:  मुनि के वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने अनुकूल जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते। वे विचार करने लगे॥1॥
 
2. चौपाई 260.2:  शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गए। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई। (वे बोले-) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ?॥2॥
 
2. चौपाई 260.3:  अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रीस (अप्रसन्नता) नहीं देखी॥3॥
 
2. चौपाई 260.4:  बचपन में ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा (मेरे मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भलीभाँति देखा है (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं॥4॥
 
2. दोहा 260:  मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुँह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए॥260॥
 
2. चौपाई 261.1:  परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता, क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है? (जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु है)॥1॥
 
2. चौपाई 261.2:  माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूँ, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ों दुराचारों के समान है। क्या कोदों की बाली उत्तम धान फल सकती है? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है?॥2॥
 
2. चौपाई 261.3:  स्वप्न में भी किसी को दोष का लेश भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया॥3॥
 
2. चौपाई 261.4:  मैं अपने हृदय में सब ओर खोज कर हार गया (मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता)। एक ही प्रकार भले ही (निश्चय ही) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और श्री सीता-रामजी मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है॥4॥
 
2. दोहा 261:  साधुओं की सभा में गुरुजी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भाव से कहता हूँ। यह प्रेम है या प्रपंच (छल-कपट)? झूठ है या सच? इसे (सर्वज्ञ) मुनि वशिष्ठजी और (अन्तर्यामी) श्री रघुनाथजी जानते हैं॥261॥
 
2. चौपाई 262.1:  प्रेम के प्रण को निबाहकर महाराज (पिताजी) का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है। माताएँ व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरी के नर-नारी दुःसह ताप से जल रहे हैं॥1॥
 
2. चौपाई 262.2-3:  मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूँ, यह सुन और समझकर मैंने सब दुःख सहा है। श्री रघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का सा वेष धारणकर बिना जूते पहने पाँव-प्यादे (पैदल) ही वन को चले गए, यह सुनकर, शंकरजी साक्षी हैं, इस घाव से भी मैं जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गए)! फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ (यह फटा नहीं)॥2-3॥
 
2. चौपाई 262.4:  अब यहाँ आकर सब आँखों देख लिया। यह जड़ जीव जीता रह कर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्ते की साँपिनी और बीछी भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती हैं-॥4॥
 
2. दोहा 262:  वे ही श्री रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र मुझको छोड़कर दैव दुःसह दुःख और किसे सहावेगा?॥262॥
 
2. चौपाई 263.1:  अत्यन्त व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गए, सारी सभा में विषाद छा गया। मानो कमल के वन पर पाला पड़ गया हो॥1॥
 
2. चौपाई 263.2:  तब ज्ञानी मुनि वशिष्ठजी ने अनेक प्रकार की पुरानी (ऐतिहासिक) कथाएँ कहकर भरतजी का समाधान किया। फिर सूर्यकुल रूपी कुमुदवन के प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा श्री रघुनंदन उचित वचन बोले-॥2॥
 
2. चौपाई 263.3:  हे तात! तुम अपने हृदय में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीव की गति को ईश्वर के अधीन जानो। मेरे मत में (भूत, भविष्य, वर्तमान) तीनों कालों और (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुम से नीचे हैं॥3॥
 
2. चौपाई 263.4:  हृदय में भी तुम पर कुटिलता का आरोप करने से यह लोक (यहाँ के सुख, यश आदि) बिगड़ जाता है और परलोक भी नष्ट हो जाता है (मरने के बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती)। माता कैकेयी को तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं, जिन्होंने गुरु और साधुओं की सभा का सेवन नहीं किया है॥4॥
 
2. दोहा 263:  हे भरत! तुम्हारा नाम स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच (अज्ञान) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जाएँगे तथा इस लोक में सुंदर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा॥263॥
 
2. चौपाई 264.1:  हे भरत! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूँ, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है। हे तात! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाए नहीं छिपते॥1॥
 
2. चौपाई 264.2:  पक्षी और पशु मुनियों के पास (बेधड़क) चले जाते हैं, पर हिंसा करने वाले बधिकों को देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रु को पशु-पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य शरीर तो गुण और ज्ञान का भंडार ही है॥2॥
 
2. चौपाई 264.3:  हे तात! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। क्या करूँ? जी में बड़ा असमंजस (दुविधा) है। राजा ने मुझे त्याग कर सत्य को रखा और प्रेम-प्रण के लिए शरीर छोड़ दिया॥3॥
 
2. चौपाई 264.4:  उनके वचन को मेटते मन में सोच होता है। उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। उस पर भी गुरुजी ने मुझे आज्ञा दी है, इसलिए अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वही करना चाहता हूँ॥4॥
 
2. दोहा 264:  तुम मन को प्रसन्न कर और संकोच को त्याग कर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूँ। सत्य प्रतिज्ञ रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया॥264॥
 
2. चौपाई 265.1:  देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन ही मन श्री रामजी की शरण गए॥1॥
 
2. चौपाई 265.2:  फिर वे विचार करके आपस में कहने लगे कि श्री रघुनाथजी तो भक्त की भक्ति के वश हैं। अम्बरीष और दुर्वासा की (घटना) याद करके तो देवता और इन्द्र बिल्कुल ही निराश हो गए॥2॥
 
2. चौपाई 265.3:  पहले देवताओं ने बहुत समय तक दुःख सहे। तब भक्त प्रह्लाद ने ही नृसिंह भगवान को प्रकट किया था। सब देवता परस्पर कानों से लग-लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब (इस बार) देवताओं का काम भरतजी के हाथ है॥3॥
 
2. चौपाई 265.4:  हे देवताओं! और कोई उपाय नहीं दिखाई देता। श्री रामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा को मानते हैं (अर्थात उनके भक्त की कोई सेवा करता है, तो उस पर बहुत प्रसन्न होते हैं)। अतएव अपने गुण और शील से श्री रामजी को वश में करने वाले भरतजी का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेम सहित स्मरण करो॥4॥
 
2. दोहा 265:  देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा- अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत में समस्त शुभ मंगलों का मूल है॥265॥
 
2. चौपाई 266.1:  सीतानाथ श्री रामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है। तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाता ने बात बना दी॥1॥
 
2. चौपाई 266.2:  हे देवराज! भरतजी का प्रभाव तो देखो। श्री रघुनाथजी सहज स्वभाव से ही उनके पूर्णरूप से वश में हैं। हे देवताओं ! भरतजी को श्री रामचन्द्रजी की परछाईं (परछाईं की भाँति उनका अनुसरण करने वाला) जानकर मन स्थिर करो, डर की बात नहीं है॥2॥
 
2. चौपाई 266.3:  देवगुरु बृहस्पतिजी और देवताओं की सम्मति (आपस का विचार) और उनका सोच सुनकर अन्तर्यामी प्रभु श्री रामजी को संकोच हुआ। भरतजी ने अपने मन में सब बोझा अपने ही सिर जाना और वे हृदय में करोड़ों (अनेकों) प्रकार के अनुमान (विचार) करने लगे॥3॥
 
2. चौपाई 266.4:  सब तरह से विचार करके अंत में उन्होंने मन में यही निश्चय किया कि श्री रामजी की आज्ञा में ही अपना कल्याण है। उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा। यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया (अर्थात अत्यन्त ही अनुग्रह और स्नेह किया)॥4॥
 
2. दोहा 266:  श्री जानकीनाथजी ने सब प्रकार से मुझ पर अत्यन्त अपार अनुग्रह किया। तदनन्तर भरतजी दोनों करकमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले-॥266॥
 
2. चौपाई 267.1:  हे स्वामी! हे कृपा के समुद्र! हे अन्तर्यामी! अब मैं (अधिक) क्या कहूँ और क्या कहाऊँ? गुरु महाराज को प्रसन्न और स्वामी को अनुकूल जानकर मेरे मलिन मन की कल्पित पीड़ा मिट गई॥1॥
 
2. चौपाई 267.2:  मैं मिथ्या डर से ही डर गया था। मेरे सोच की जड़ ही न थी। दिशा भूल जाने पर हे देव! सूर्य का दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की टेढ़ी चाल और काल की कठिनता,॥2॥
 
2. चौपाई 267.3:  इन सबने मिलकर पैर रोपकर (प्रण करके) मुझे नष्ट कर दिया था, परन्तु शरणागत के रक्षक आपने अपना (शरणागत की रक्षा का) प्रण निबाहा (मुझे बचा लिया)। यह आपकी कोई नई रीति नहीं है। यह लोक और वेदों में प्रकट है, छिपी नहीं है॥3॥
 
2. चौपाई 267.4:  सारा जगत बुरा (करने वाला) हो, किन्तु हे स्वामी! केवल एक आप ही भले (अनुकूल) हों, तो फिर कहिए, किसकी भलाई से भला हो सकता है? हे देव! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है, वह न कभी किसी के सम्मुख (अनुकूल) है, न विमुख (प्रतिकूल)॥4॥
 
2. दोहा 267:  उस वृक्ष (कल्पवृक्ष) को पहचानकर जो उसके पास जाए, तो उसकी छाया ही सारी चिंताओं का नाश करने वाली है। राजा-रंक, भले-बुरे, जगत में सभी उससे माँगते ही मनचाही वस्तु पाते हैं॥267॥
 
2. चौपाई 268.1:  गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मन में कुछ भी संदेह नहीं रहा। हे दया की खान! अब वही कीजिए जिससे दास के लिए प्रभु के चित्त में क्षोभ (किसी प्रकार का विचार) न हो॥1॥
 
2. चौपाई 268.2:  जो सेवक स्वामी को संकोच में डालकर अपना भला चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है। सेवक का हित तो इसी में है कि वह समस्त सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा ही करे॥2॥
 
2. चौपाई 268.3:  हे नाथ! आपके लौटने में सभी का स्वार्थ है और आपकी आज्ञा पालन करने में करोड़ों प्रकार से कल्याण है। यही स्वार्थ और परमार्थ का सार (निचोड़) है, समस्त पुण्यों का फल और सम्पूर्ण शुभ गतियों का श्रृंगार है॥3॥
 
2. चौपाई 268.4:  हे देव! आप मेरी एक विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिए। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लाई गई है, जो प्रभु का मन माने तो उसे सफल कीजिए (उसका उपयोग कीजिए)॥4॥
 
2. दोहा 268:  छोटे भाई शत्रुघ्न समेत मुझे वन में भेज दीजिए और (अयोध्या लौटकर) सबको सनाथ कीजिए। नहीं तो किसी तरह भी (यदि आप अयोध्या जाने को तैयार न हों) हे नाथ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिए और मैं आपके साथ चलूँ॥268॥
 
2. चौपाई 269.1:  अथवा हम तीनों भाई वन चले जाएँ और हे श्री रघुनाथजी! आप श्री सीताजी सहित (अयोध्या को) लौट जाइए। हे दयासागर! जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो, वही कीजिए॥1॥
 
2. चौपाई 269.2:  हे देव! आपने सारा भार (जिम्मेवारी) मुझ पर रख दिया। पर मुझमें न तो नीति का विचार है, न धर्म का। मैं तो अपने स्वार्थ के लिए सब बातें कह रहा हूँ। आर्त (दुःखी) मनुष्य के चित्त में चेत (विवेक) नहीं रहता॥2॥
 
2. चौपाई 269.3:  स्वामी की आज्ञा सुनकर जो उत्तर दे, ऐसे सेवक को देखकर लज्जा भी लजा जाती है। मैं अवगुणों का ऐसा अथाह समुद्र हूँ (कि प्रभु को उत्तर दे रहा हूँ), किन्तु स्वामी (आप) स्नेह वश साधु कहकर मुझे सराहते हैं!॥3॥
 
2. चौपाई 269.4:  हे कृपालु! अब तो वही मत मुझे भाता है, जिससे स्वामी का मन संकोच न पावे। प्रभु के चरणों की शपथ है, मैं सत्यभाव से कहता हूँ, जगत के कल्याण के लिए एक यही उपाय है॥4॥
 
2. दोहा 269:  प्रसन्न मन से संकोच त्यागकर प्रभु जिसे जो आज्ञा देंगे, उसे सब लोग सिर चढ़ा-चढ़ाकर (पालन) करेंगे और सब उपद्रव और उलझनें मिट जाएँगी॥269॥
 
2. चौपाई 270.1:  भरतजी के पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और ‘साधु-साधु’ कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए। अयोध्या निवासी असमंजस के वश हो गए (कि देखें अब श्री रामजी क्या कहते हैं) तपस्वी तथा वनवासी लोग (श्री रामजी के वन में बने रहने की आशा से) मन में परम आनन्दित हुए॥1॥
 
2. चौपाई 270.2:  किन्तु संकोची श्री रघुनाथजी चुप ही रह गए। प्रभु की यह स्थिति (मौन) देख सारी सभा सोच में पड़ गई। उसी समय जनकजी के दूत आए, यह सुनकर मुनि वशिष्ठजी ने उन्हें तुरंत बुलवा लिया॥2॥
 
2. चौपाई 270.3:  उन्होंने (आकर) प्रणाम करके श्री रामचन्द्रजी को देखा। उनका (मुनियों का सा) वेष देखकर वे बहुत ही दुःखी हुए। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दूतों से बात पूछी कि राजा जनक का कुशल समाचार कहो॥3॥
 
2. चौपाई 270.4:  यह (मुनि का कुशल प्रश्न) सुनकर सकुचाकर पृथ्वी पर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़कर बोले- हे स्वामी! आपका आदर के साथ पूछना, यही हे गोसाईं! कुशल का कारण हो गया॥4॥
 
2. दोहा 270:  नहीं तो हे नाथ! कुशल-क्षेम तो सब कोसलनाथ दशरथजी के साथ ही चली गई। (उनके चले जाने से) यों तो सारा जगत ही अनाथ (स्वामी के बिना असहाय) हो गया, किन्तु मिथिला और अवध तो विशेष रूप से अनाथ हो गया॥270॥
 
2. चौपाई 271.1:  अयोध्यानाथ की गति (दशरथजी का मरण) सुनकर जनकपुर वासी सभी लोग शोकवश बावले हो गए (सुध-बुध भूल गए)। उस समय जिन्होंने विदेह को (शोकमग्न) देखा, उनमें से किसी को ऐसा न लगा कि उनका विदेह (देहाभिमानरहित) नाम सत्य है! (क्योंकि देहभिमान से शून्य पुरुष को शोक कैसा?)॥1॥
 
2. चौपाई 271.2:  रानी की कुचाल सुनकर राजा जनकजी को कुछ सूझ न पड़ा, जैसे मणि के बिना साँप को नहीं सूझता। फिर भरतजी को राज्य और श्री रामचन्द्रजी को वनवास सुनकर मिथिलेश्वर जनकजी के हृदय में बड़ा दुःख हुआ॥2॥
 
2. चौपाई 271.3:  राजा ने विद्वानों और मंत्रियों के समाज से पूछा कि विचारकर कहिए, आज (इस समय) क्या करना उचित है? अयोध्या की दशा समझकर और दोनों प्रकार से असमंजस जानकर ‘चलिए या रहिए?’ किसी ने कुछ नहीं कहा॥3॥
 
2. चौपाई 271.4:  (जब किसी ने कोई सम्मति नहीं दी) तब राजा ने धीरज धर हृदय में विचारकर चार चतुर गुप्तचर (जासूस) अयोध्या को भेजे (और उनसे कह दिया कि) तुम लोग (श्री रामजी के प्रति) भरतजी के सद्भाव (अच्छे भाव, प्रेम) या दुर्भाव (बुरा भाव, विरोध) का (यथार्थ) पता लगाकर जल्दी लौट आना, किसी को तुम्हारा पता न लगने पावे॥4॥
 
2. दोहा 271:  गुप्तचर अवध को गए और भरतजी का ढंग जानकर और उनकी करनी देखकर, जैसे ही भरतजी चित्रकूट को चले, वे तिरहुत (मिथिला) को चल दिए॥271॥
 
2. चौपाई 272.1:  (गुप्त) दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटुम्बी, मंत्री और राजा सभी सोच और स्नेह से अत्यन्त व्याकुल हो गए॥1॥
 
2. चौपाई 272.2:  फिर जनकजी ने धीरज धरकर और भरतजी की बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं और साहनियों को बुलाया। घर, नगर और देश में रक्षकों को रखकर, घोड़े, हाथी, रथ आदि बहुत सी सवारियाँ सजवाईं॥2॥
 
2. चौपाई 272.3:  वे दुघड़िया मुहूर्त साधकर उसी समय चल पड़े। राजा ने रास्ते में कहीं विश्राम भी नहीं किया। आज ही सबेरे प्रयागराज में स्नान करके चले हैं। जब सब लोग यमुनाजी उतरने लगे,॥3॥
 
2. चौपाई 272.4:  तब हे नाथ! हमें खबर लेने को भेजा। उन्होंने (दूतों ने) ऐसा कहकर पृथ्वी पर सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने कोई छह-सात भीलों को साथ देकर दूतों को तुरंत विदा कर दिया॥4॥
 
2. दोहा 272:  जनकजी का आगमन सुनकर अयोध्या का सारा समाज हर्षित हो गया। श्री रामजी को बड़ा संकोच हुआ और देवराज इन्द्र तो विशेष रूप से सोच के वश में हो गए॥272॥
 
2. चौपाई 273.1:  कुटिल कैकेयी मन ही मन ग्लानि (पश्चाताप) से गली जाती है। किससे कहे और किसको दोष दे? और सब नर-नारी मन में ऐसा विचार कर प्रसन्न हो रहे हैं कि (अच्छा हुआ, जनकजी के आने से) चार (कुछ) दिन और रहना हो गया॥1॥
 
2. चौपाई 273.2:  इस तरह वह दिन भी बीत गया। दूसरे दिन प्रातःकाल सब कोई स्नान करने लगे। स्नान करके सब नर-नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी और सूर्य भगवान की पूजा करते हैं॥2॥
 
2. चौपाई 273.3:  फिर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के चरणों की वंदना करके, दोनों हाथ जोड़कर, आँचल पसारकर विनती करते हैं कि श्री रामजी राजा हों, जानकीजी रानी हों तथा राजधानी अयोध्या आनंद की सीमा होकर-॥3॥
 
2. चौपाई 273.4:  फिर समाज सहित सुखपूर्वक बसे और श्री रामजी भरतजी को युवराज बनावें। हे देव! इस सुख रूपी अमृत से सींचकर सब किसी को जगत में जीने का लाभ दीजिए॥4॥
 
2. दोहा 273:  गुरु, समाज और भाइयों समेत श्री रामजी का राज्य अवधपुरी में हो और श्री रामजी के राजा रहते ही हम लोग अयोध्या में मरें। सब कोई यही माँगते हैं॥273॥
 
2. चौपाई 274.1:  अयोध्या वासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की निंदा करते हैं। अवधवासी इस प्रकार नित्यकर्म करके श्री रामजी को पुलकित शरीर हो प्रणाम करते हैं॥1॥
 
2. चौपाई 274.2:  ऊँच, नीच और मध्यम सभी श्रेणियों के स्त्री-पुरुष अपने-अपने भाव के अनुसार श्री रामजी का दर्शन प्राप्त करते हैं। श्री रामचन्द्रजी सावधानी के साथ सबका सम्मान करते हैं और सभी कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी की सराहना करते हैं॥2॥
 
2. चौपाई 274.3:  श्री रामजी की लड़कपन से ही यह बान है कि वे प्रेम को पहचानकर नीति का पालन करते हैं। श्री रघुनाथजी शील और संकोच के समुद्र हैं। वे सुंदर मुख के (या सबके अनुकूल रहने वाले), सुंदर नेत्र वाले (या सबको कृपा और प्रेम की दृष्टि से देखने वाले) और सरल स्वभाव हैं॥3॥
 
2. चौपाई 274.4:  श्री रामजी के गुण समूहों को कहते-कहते सब लोग प्रेम में भर गए और अपने भाग्य की सराहना करने लगे कि जगत में हमारे समान पुण्य की बड़ी पूँजी वाले थोड़े ही हैं, जिन्हें श्री रामजी अपना करके जानते हैं (ये मेरे हैं ऐसा जानते हैं)॥4॥
 
2. दोहा 274:  उस समय सब लोग प्रेम में मग्न हैं। इतने में ही मिथिलापति जनकजी को आते हुए सुनकर सूर्यकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी सभा सहित आदरपूर्वक जल्दी से उठ खड़े हुए॥274॥
 
2. चौपाई 275.1:  भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर श्री रघुनाथजी आगे (जनकजी की अगवानी में) चले। जनकजी ने ज्यों ही पर्वत श्रेष्ठ कामदनाथ को देखा, त्यों ही प्रणाम करके उन्होंने रथ छोड़ दिया। (पैदल चलना शुरू कर दिया)॥1॥
 
2. चौपाई 275.2:  श्री रामजी के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण किसी को रास्ते की थकावट और क्लेश जरा भी नहीं है। मन तो वहाँ है जहाँ श्री राम और जानकीजी हैं। बिना मन के शरीर के सुख-दुःख की सुध किसको हो?॥2॥
 
2. चौपाई 275.3:  जनकजी इस प्रकार चले आ रहे हैं। समाज सहित उनकी बुद्धि प्रेम में मतवाली हो रही है। निकट आए देखकर सब प्रेम में भर गए और आदरपूर्वक आपस में मिलने लगे॥3॥
 
2. चौपाई 275.4:  जनकजी (वशिष्ठ आदि अयोध्यावासी) मुनियों के चरणों की वंदना करने लगे और श्री रामचन्द्रजी ने (शतानंद आदि जनकपुरवासी) ऋषियों को प्रणाम किया। फिर भाइयों समेत श्री रामजी राजा जनकजी से मिलकर उन्हें समाज सहित अपने आश्रम को लिवा चले॥4॥
 
2. दोहा 275:  श्री रामजी का आश्रम शांत रस रूपी पवित्र जल से परिपूर्ण समुद्र है। जनकजी की सेना (समाज) मानो करुणा (करुण रस) की नदी है, जिसे श्री रघुनाथजी (उस आश्रम रूपी शांत रस के समुद्र में मिलाने के लिए) लिए जा रहे हैं॥275॥
 
2. चौपाई 276.1:  यह करुणा की नदी (इतनी बढ़ी हुई है कि) ज्ञान-वैराग्य रूपी किनारों को डुबाती जाती है। शोक भरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी में मिलते हैं और सोच की लंबी साँसें (आहें) ही वायु के झकोरों से उठने वाली तरंगें हैं, जो धैर्य रूपी किनारे के उत्तम वृक्षों को तोड़ रही हैं॥1॥
 
2. चौपाई 276.2:  भयानक विषाद (शोक) ही उस नदी की तेज धारा है। भय और भ्रम (मोह) ही उसके असंख्य भँवर और चक्र हैं। विद्वान मल्लाह हैं, विद्या ही बड़ी नाव है, परन्तु वे उसे खे नहीं सकते हैं, (उस विद्या का उपयोग नहीं कर सकते हैं) किसी को उसकी अटकल ही नहीं आती है॥2॥
 
2. चौपाई 276.3:  वन में विचरने वाले बेचारे कोल-किरात ही यात्री हैं, जो उस नदी को देखकर हृदय में हारकर थक गए हैं। यह करुणा नदी जब आश्रम-समुद्र में जाकर मिली, तो मानो वह समुद्र अकुला उठा (खौल उठा)॥3॥
 
2. चौपाई 276.4:  दोनों राज समाज शोक से व्याकुल हो गए। किसी को न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही। राजा दशरथजी के रूप, गुण और शील की सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोक समुद्र में डुबकी लगा रहे हैं॥4॥
 
2. छंद 276.1:  शोक समुद्र में डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री-पुरुष महान व्याकुल होकर सोच (चिंता) कर रहे हैं। वे सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगणों में कोई भी समर्थ नहीं है, जो उस समय विदेह (जनकराज) की दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके (प्रेम में मग्न हुए बिना रह सके)।
 
2. सोरठा 276:  जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ मुनियों ने लोगों को अपरिमित उपदेश दिए और वशिष्ठजी ने विदेह (जनकजी) से कहा- हे राजन्‌! आप धैर्य धारण कीजिए॥276॥
 
2. चौपाई 277.1:  जिन राजा जनक का ज्ञान रूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है और जिनकी वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कमलों को खिला देती हैं (आनंदित करती हैं), क्या मोह और ममता उनके निकट भी आ सकते हैं? यह तो श्री सीता-रामजी के प्रेम की महिमा है! (अर्थात राजा जनक की यह दशा श्री सीता-रामजी के अलौकिक प्रेम के कारण हुई, लौकिक मोह-ममता के कारण नहीं। जो लौकिक मोह-ममता को पार कर चुके हैं, उन पर भी श्री सीता-रामजी का प्रेम अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहता)॥1॥
 
2. चौपाई 277.2:  विषयी, साधक और ज्ञानवान सिद्ध पुरुष- जगत में तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताए हैं। इन तीनों में जिसका चित्त श्री रामजी के स्नेह से सरस (सराबोर) रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है॥2॥
 
2. चौपाई 277.3:  श्री रामजी के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज। वशिष्ठजी ने विदेहराज (जनकजी) को बहुत प्रकार से समझाया। तदनंतर सब लोगों ने श्री रामजी के घाट पर स्नान किया॥3॥
 
2. चौपाई 277.4:  स्त्री-पुरुष सब शोक से पूर्ण थे। वह दिन बिना ही जल के बीत गया (भोजन की बात तो दूर रही, किसी ने जल तक नहीं पिया)। पशु-पक्षी और हिरनों तक ने कुछ आहार नहीं किया। तब प्रियजनों एवं कुटुम्बियों का तो विचार ही क्या किया जाए?॥4॥
 
2. दोहा 277:  निमिराज जनकजी और रघुराज रामचन्द्रजी तथा दोनों ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर दुबले हैं॥277॥
 
2. चौपाई 278.1:  जो दशरथजी की नगरी अयोध्या के रहने वाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहने वाले ब्राह्मण थे तथा सूर्यवंश के गुरु वशिष्ठजी तथा जनकजी के पुरोहित शतानंदजी, जिन्होंने सांसारिक अभ्युदय का मार्ग तथा परमार्थ का मार्ग छान डाला था,॥1॥
 
2. चौपाई 278.2:  वे सब धर्म, नीति वैराग्य तथा विवेकयुक्त अनेकों उपदेश देने लगे। विश्वामित्रजी ने पुरानी कथाएँ (इतिहास) कह-कहकर सारी सभा को सुंदर वाणी से समझाया॥2॥
 
2. चौपाई 278.3:  तब श्री रघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा कि हे नाथ! कल सब लोग बिना जल पिए ही रह गए थे। (अब कुछ आहार करना चाहिए)। विश्वामित्रजी ने कहा कि श्री रघुनाथजी उचित ही कह रहे हैं। ढाई पहर दिन (आज भी) बीत गया॥3॥
 
2. चौपाई 278.4:  विश्वामित्रजी का रुख देखकर तिरहुत राज जनकजी ने कहा- यहाँ अन्न खाना उचित नहीं है। राजा का सुंदर कथन सबके मन को अच्छा लगा। सब आज्ञा पाकर नहाने चले॥4॥
 
2. दोहा 278:  उसी समय अनेकों प्रकार के बहुत से फल, फूल, पत्ते, मूल आदि बहँगियों और बोझों में भर-भरकर वनवासी (कोल-किरात) लोग ले आए॥278॥
 
2. चौपाई 279.1:  श्री रामचन्द्रजी की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देने वाले हो गए। वे देखने मात्र से ही दुःखों को सर्वथा हर लेते थे। वहाँ के तालाबों, नदियों, वन और पृथ्वी के सभी भागों में मानो आनंद और प्रेम उमड़ रहा है॥1॥
 
2. चौपाई 279.2:  बेलें और वृक्ष सभी फल और फूलों से युक्त हो गए। पक्षी, पशु और भौंरें अनुकूल बोलने लगे। उस अवसर पर वन में बहुत उत्साह (आनंद) था, सब किसी को सुख देने वाली शीतल, मंद, सुगंध हवा चल रही थी॥2॥
 
2. चौपाई 279.3-4:  वन की मनोहरता वर्णन नहीं की जा सकती, मानो पृथ्वी जनकजी की पहुनाई कर रही है। तब जनकपुर वासी सब लोग नहा-नहाकर श्री रामचन्द्रजी, जनकजी और मुनि की आज्ञा पाकर, सुंदर वृक्षों को देख-देखकर प्रेम में भरकर जहाँ-तहाँ उतरने लगे। पवित्र, सुंदर और अमृत के समान (स्वादिष्ट) अनेकों प्रकार के पत्ते, फल, मूल और कंद-॥3-4॥
 
2. दोहा 279:  श्री रामजी के गुरु वशिष्ठजी ने सबके पास बोझे भर-भरकर आदरपूर्वक भेजे। तब वे पितर-देवता, अतिथि और गुरु की पूजा करके फलाहार करने लगे॥279॥
 
2. चौपाई 280.1:  इस प्रकार चार दिन बीत गए। श्री रामचन्द्रजी को देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं। दोनों समाजों के मन में ऐसी इच्छा है कि श्री सीता-रामजी के बिना लौटना अच्छा नहीं है॥1॥
 
2. चौपाई 280.2:  श्री सीता-रामजी के साथ वन में रहना करोड़ों देवलोकों के (निवास के) समान सुखदायक है। श्री लक्ष्मणजी, श्री रामजी और श्री जानकीजी को छोड़कर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत हैं॥2॥
 
2. चौपाई 280.3:  जब दैव सबके अनुकूल हो, तभी श्री रामजी के पास वन में निवास हो सकता है। मंदाकिनीजी का तीनों समय स्नान और आनंद तथा मंगलों की माला (समूह) रूप श्री राम का दर्शन,॥3॥
 
2. चौपाई 280.4:  श्री रामजी के पर्वत (कामदनाथ), वन और तपस्वियों के स्थानों में घूमना और अमृत के समान कंद, मूल, फलों का भोजन। चौदह वर्ष सुख के साथ पल के समान हो जाएँगे (बीत जाएँगे), जाते हुए जान ही न पड़ेंगे॥4॥
 
2. दोहा 280:  सब लोग कह रहे हैं कि हम इस सुख के योग्य नहीं हैं, हमारे ऐसे भाग्य कहाँ? दोनों समाजों का श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सहज स्वभाव से ही प्रेम है॥280॥
 
2. चौपाई 281.1:  इस प्रकार सब मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही (सुनने वालों के) मनों को हर लेते हैं। उसी समय सीताजी की माता श्री सुनयनाजी की भेजी हुई दासियाँ (कौसल्याजी आदि के मिलने का) सुंदर अवसर देखकर आईं॥1॥
 
2. चौपाई 281.2:  उनसे यह सुनकर कि सीता की सब सासुएँ इस समय फुरसत में हैं, जनकराज का रनिवास उनसे मिलने आया। कौसल्याजी ने आदरपूर्वक उनका सम्मान किया और समयोचित आसन लाकर दिए॥2॥
 
2. चौपाई 281.3:  दोनों ओर सबके शील और प्रेम को देखकर और सुनकर कठोर वज्र भी पिघल जाते हैं। शरीर पुलकित और शिथिल हैं और नेत्रों में (शोक और प्रेम के) आँसू हैं। सब अपने (पैरों के) नखों से जमीन कुरेदने और सोचने लगीं॥3॥
 
2. चौपाई 281.4:  सभी श्री सीता-रामजी के प्रेम की मूर्ति सी हैं, मानो स्वयं करुणा ही बहुत से वेष (रूप) धारण करके विसूर रही हो (दुःख कर रही हो)। सीताजी की माता सुनयनाजी ने कहा- विधाता की बुद्धि बड़ी टेढ़ी है, जो दूध के फेन जैसी कोमल वस्तु को वज्र की टाँकी से फोड़ रहा है (अर्थात जो अत्यन्त कोमल और निर्दोष हैं उन पर विपत्ति पर विपत्ति ढहा रहा है)॥4॥
 
2. दोहा 281:  अमृत केवल सुनने में आता है और विष जहाँ-तहाँ प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। विधाता की सभी करतूतें भयंकर हैं। जहाँ-तहाँ कौए, उल्लू और बगुले ही (दिखाई देते) हैं, हंस तो एक मानसरोवर में ही हैं॥281॥
 
2. चौपाई 282.1:  यह सुनकर देवी सुमित्राजी शोक के साथ कहने लगीं- विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टि को उत्पन्न करके पालता है और फिर नष्ट कर डालता है। विधाता की बुद्धि बालकों के खेल के समान भोली (विवेक शून्य) है॥1॥
 
2. चौपाई 282.2:  कौसल्याजी ने कहा- किसी का दोष नहीं है, दुःख-सुख, हानि-लाभ सब कर्म के अधीन हैं। कर्म की गति कठिन (दुर्विज्ञेय) है, उसे विधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी फलों का देने वाला है॥2॥
 
2. चौपाई 282.3:  ईश्वर की आज्ञा सभी के सिर पर है। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और लय (संहार) तथा अमृत और विष के भी सिर पर है (ये सब भी उसी के अधीन हैं)। हे देवि! मोहवश सोच करना व्यर्थ है। विधाता का प्रपंच ऐसा ही अचल और अनादि है॥3॥
 
2. चौपाई 282.4:  महाराज के मरने और जीने की बात को हृदय में याद करके जो चिन्ता करती हैं, वह तो हे सखी! हम अपने ही हित की हानि देखकर (स्वार्थवश) करती हैं। सीताजी की माता ने कहा- आपका कथन उत्तम है और सत्य है। आप पुण्यात्माओं के सीमा रूप अवधपति (महाराज दशरथजी) की ही तो रानी हैं। (फिर भला, ऐसा क्यों न कहेंगी)॥4॥
 
2. दोहा 282:  कौसल्याजी ने दुःख भरे हृदय से कहा- श्री राम, लक्ष्मण और सीता वन में जाएँ, इसका परिणाम तो अच्छा ही होगा, बुरा नहीं। मुझे तो भरत की चिन्ता है॥282॥
 
2. चौपाई 283.1:  ईश्वर के अनुग्रह और आपके आशीर्वाद से मेरे (चारों) पुत्र और (चारों) बहुएँ गंगाजी के जल के समान पवित्र हैं। हे सखी! मैंने कभी श्री राम की सौगंध नहीं की, सो आज श्री राम की शपथ करके सत्य भाव से कहती हूँ-॥1॥
 
2. चौपाई 283.2:  भरत के शील, गुण, नम्रता, बड़प्पन, भाईपन, भक्ति, भरोसे और अच्छेपन का वर्णन करने में सरस्वतीजी की बुद्धि भी हिचकती है। सीप से कहीं समुद्र उलीचे जा सकते हैं?॥2॥
 
2. चौपाई 283.3:  मैं भरत को सदा कुल का दीपक जानती हूँ। महाराज ने भी बार-बार मुझे यही कहा था। सोना कसौटी पर कसे जाने पर और रत्न पारखी (जौहरी) के मिलने पर ही पहचाना जाता है। वैसे ही पुरुष की परीक्षा समय पड़ने पर उसके स्वभाव से ही (उसका चरित्र देखकर) हो जाती है॥3॥
 
2. चौपाई 283.4:  किन्तु आज मेरा ऐसा कहना भी अनुचित है। शोक और स्नेह में सयानापन (विवेक) कम हो जाता है (लोग कहेंगे कि मैं स्नेहवश भरत की बड़ाई कर रही हूँ)। कौसल्याजी की गंगाजी के समान पवित्र करने वाली वाणी सुनकर सब रानियाँ स्नेह के मारे विकल हो उठीं॥4॥
 
2. दोहा 283:  कौसल्याजी ने फिर धीरज धरकर कहा- हे देवी मिथिलेश्वरी! सुनिए, ज्ञान के भंडार श्री जनकजी की प्रिया आपको कौन उपदेश दे सकता है?॥283॥
 
2. चौपाई 284.1:  हे रानी! मौका पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहाँ तक हो सके समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाए और भरत वन को जाएँ। यदि यह राय राजा के मन में (ठीक) जँच जाए,॥1॥
 
2. चौपाई 284.2:  तो भलीभाँति खूब विचारकर ऐसा यत्न करें। मुझे भरत का अत्यधिक सोच है। भरत के मन में गूढ़ प्रेम है। उनके घर रहने में मुझे भलाई नहीं जान पड़ती (यह डर लगता है कि उनके प्राणों को कोई भय न हो जाए)॥2॥
 
2. चौपाई 284.3:  कौसल्याजी का स्वभाव देखकर और उनकी सरल और उत्तम वाणी को सुनकर सब रानियाँ करुण रस में निमग्न हो गईं। आकाश से पुष्प वर्षा की झड़ी लग गई और धन्य-धन्य की ध्वनि होने लगी। सिद्ध, योगी और मुनि स्नेह से शिथिल हो गए॥3॥
 
2. चौपाई 284.4:  सारा रनिवास देखकर थकित रह गया (निस्तब्ध हो गया), तब सुमित्राजी ने धीरज करके कहा कि हे देवी! दो घड़ी रात बीत गई है। यह सुनकर श्री रामजी की माता कौसल्याजी प्रेमपूर्वक उठीं-॥4॥
 
2. दोहा 284:  और प्रेम सहित सद्भाव से बोलीं- अब आप शीघ्र डेरे को पधारिए। हमारे तो अब ईश्वर ही गति हैं, अथवा मिथिलेश्वर जनकजी सहायक हैं॥284॥
 
2. चौपाई 285.1:  कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए और कहा- हे देवी! आप राजा दशरथजी की रानी और श्री रामजी की माता हैं। आपकी ऐसी नम्रता उचित ही है॥1॥
 
2. चौपाई 285.2:  प्रभु अपने निज जनों का भी आदर करते हैं। अग्नि धुएँ को और पर्वत तृण (घास) को अपने सिर पर धारण करते हैं। हमारे राजा तो कर्म, मन और वाणी से आपके सेवक हैं और सदा सहायक तो श्री महादेव-पार्वतीजी हैं॥2॥
 
2. चौपाई 285.3:  आपका सहायक होने योग्य जगत में कौन है? दीपक सूर्य की सहायता करने जाकर कहीं शोभा पा सकता है? श्री रामचन्द्रजी वन में जाकर देवताओं का कार्य करके अवधपुरी में अचल राज्य करेंगे॥3॥
 
2. चौपाई 285.4:  देवता, नाग और मनुष्य सब श्री रामचन्द्रजी की भुजाओं के बल पर अपने-अपने स्थानों (लोकों) में सुखपूर्वक बसेंगे। यह सब याज्ञवल्क्य मुनि ने पहले ही से कह रखा है। हे देवि! मुनि का कथन व्यर्थ (झूठा) नहीं हो सकता॥4॥
 
2. दोहा 285:  ऐसा कहकर बड़े प्रेम से पैरों पड़कर सीताजी (को साथ भेजने) के लिए विनती करके और सुंदर आज्ञा पाकर तब सीताजी समेत सीताजी की माता डेरे को चलीं॥285॥
 
2. चौपाई 286.1:  जानकीजी अपने प्यारे कुटुम्बियों से- जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकीजी को तपस्विनी के वेष में देखकर सभी शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गए॥1॥
 
2. चौपाई 286.2:  जनकजी श्री रामजी के गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर डेरे को चले और आकर उन्होंने सीताजी को देखा। जनकजी ने अपने पवित्र प्रेम और प्राणों की पाहुनी जानकीजी को हृदय से लगा लिया॥2॥
 
2. चौपाई 286.3:  उनके हृदय में (वात्सल्य) प्रेम का समुद्र उमड़ पड़ा। राजा का मन मानो प्रयाग हो गया। उस समुद्र के अंदर उन्होंने (आदि शक्ति) सीताजी के (अलौकिक) स्नेह रूपी अक्षयवट को बढ़ते हुए देखा। उस (सीताजी के प्रेम रूपी वट) पर श्री रामजी का प्रेम रूपी बालक (बाल रूप धारी भगवान) सुशोभित हो रहा है॥3॥
 
2. चौपाई 286.4:  जनकजी का ज्ञान रूपी चिरंजीवी (मार्कण्डेय) मुनि व्याकुल होकर डूबते-डूबते मानो उस श्री राम प्रेम रूपी बालक का सहारा पाकर बच गया। वस्तुतः (ज्ञानिशिरोमणि) विदेहराज की बुद्धि मोह में मग्न नहीं है। यह तो श्री सीता-रामजी के प्रेम की महिमा है (जिसने उन जैसे महान ज्ञानी के ज्ञान को भी विकल कर दिया)॥4॥
 
2. दोहा 286:  पिता-माता के प्रेम के मारे सीताजी ऐसी विकल हो गईं कि अपने को सँभाल न सकीं। (परन्तु परम धैर्यवती) पृथ्वी की कन्या सीताजी ने समय और सुंदर धर्म का विचार कर धैर्य धारण किया॥286॥
 
2. चौपाई 287.1:  सीताजी को तपस्विनी वेष में देखकर जनकजी को विशेष प्रेम और संतोष हुआ। (उन्होंने कहा-) बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र कर दिए। तेरे निर्मल यश से सारा जगत उज्ज्वल हो रहा है, ऐसा सब कोई कहते हैं॥1॥
 
2. चौपाई 287.2:  तेरी कीर्ति रूपी नदी देवनदी गंगाजी को भी जीतकर (जो एक ही ब्रह्माण्ड में बहती है) करोड़ों ब्रह्माण्डों में बह चली है। गंगाजी ने तो पृथ्वी पर तीन ही स्थानों (हरिद्वार, प्रयागराज और गंगासागर) को बड़ा (तीर्थ) बनाया है। पर तेरी इस कीर्ति नदी ने तो अनेकों संत समाज रूपी तीर्थ स्थान बना दिए हैं॥2॥
 
2. चौपाई 287.3:  पिता जनकजी ने तो स्नेह से सच्ची सुंदर वाणी कही, परन्तु अपनी बड़ाई सुनकर सीताजी मानो संकोच में समा गईं। पिता-माता ने उन्हें फिर हृदय से लगा लिया और हितभरी सुंदर सीख और आशीष दिया॥3॥
 
2. चौपाई 287.4:  सीताजी कुछ कहती नहीं हैं, परन्तु सकुचा रही हैं कि रात में (सासुओं की सेवा छोड़कर) यहाँ रहना अच्छा नहीं है। रानी सुनयनाजी ने जानकीजी का रुख देखकर (उनके मन की बात समझकर) राजा जनकजी को जना दिया। तब दोनों अपने हृदयों में सीताजी के शील और स्वभाव की सराहना करने लगे॥4॥
 
2. दोहा 287:  राजा-रानी ने बार-बार मिलकर और हृदय से लगाकर तथा सम्मान करके सीताजी को विदा किया। चतुर रानी ने समय पाकर राजा से सुंदर वाणी में भरतजी की दशा का वर्णन किया॥287॥
 
2. चौपाई 288.1:  सोने में सुगंध और (समुद्र से निकली हुई) सुधा में चन्द्रमा के सार अमृत के समान भरतजी का व्यवहार सुनकर राजा ने (प्रेम विह्वल होकर) अपने (प्रेमाश्रुओं के) जल से भरे नेत्रों को मूँद लिया (वे भरतजी के प्रेम में मानो ध्यानस्थ हो गए)। वे शरीर से पुलकित हो गए और मन में आनंदित होकर भरतजी के सुंदर यश की सराहना करने लगे॥1॥
 
2. चौपाई 288.2:  (वे बोले-) हे सुमुखि! हे सुनयनी! सावधान होकर सुनो। भरतजी की कथा संसार के बंधन से छुड़ाने वाली है। धर्म, राजनीति और ब्रह्मविचार- इन तीनों विषयों में अपनी बुद्धि के अनुसार मेरी (थोड़ी-बहुत) गति है (अर्थात इनके संबंध में मैं कुछ जानता हूँ)॥2॥
 
2. चौपाई 288.3:  वह (धर्म, राजनीति और ब्रह्मज्ञान में प्रवेश रखने वाली) मेरी बुद्धि भरतजी की महिमा का वर्णन तो क्या करे, छल करके भी उसकी छाया तक को नहीं छू पाती! ब्रह्माजी, गणेशजी, शेषजी, महादेवजी, सरस्वतीजी, कवि, ज्ञानी, पण्डित और बुद्धिमान-॥3॥
 
2. चौपाई 288.4:  सब किसी को भरतजी के चरित्र, कीर्ति, करनी, धर्म, शील, गुण और निर्मल ऐश्वर्य समझने में और सुनने में सुख देने वाले हैं और पवित्रता में गंगाजी का तथा स्वाद (मधुरता) में अमृत का भी तिरस्कार करने वाले हैं॥4॥
 
2. दोहा 288:  भरतजी असीम गुण सम्पन्न और उपमारहित पुरुष हैं। भरतजी के समान बस, भरतजी ही हैं, ऐसा जानो। सुमेरु पर्वत को क्या सेर के बराबर कह सकते हैं? इसलिए (उन्हें किसी पुरुष के साथ उपमा देने में) कवि समाज की बुद्धि भी सकुचा गई!॥288॥
 
2. चौपाई 289.1:  हे श्रेष्ठ वर्णवाली! भरतजी की महिमा का वर्णन करना सभी के लिए वैसे ही अगम है जैसे जलरहित पृथ्वी पर मछली का चलना। हे रानी! सुनो, भरतजी की अपरिमित महिमा को एक श्री रामचन्द्रजी ही जानते हैं, किन्तु वे भी उसका वर्णन नहीं कर सकते॥1॥
 
2. चौपाई 289.2:  इस प्रकार प्रेमपूर्वक भरतजी के प्रभाव का वर्णन करके, फिर पत्नी के मन की रुचि जानकर राजा ने कहा- लक्ष्मणजी लौट जाएँ और भरतजी वन को जाएँ, इसमें सभी का भला है और यही सबके मन में है॥2॥
 
2. चौपाई 289.3:  परन्तु हे देवि! भरतजी और श्री रामचन्द्रजी का प्रेम और एक-दूसरे पर विश्वास, बुद्धि और विचार की सीमा में नहीं आ सकता। यद्यपि श्री रामचन्द्रजी समता की सीमा हैं, तथापि भरतजी प्रेम और ममता की सीमा हैं॥3॥
 
2. चौपाई 289.4:  (श्री रामचन्द्रजी के प्रति अनन्य प्रेम को छोड़कर) भरतजी ने समस्त परमार्थ, स्वार्थ और सुखों की ओर स्वप्न में भी मन से भी नहीं ताका है। श्री रामजी के चरणों का प्रेम ही उनका साधन है और वही सिद्धि है। मुझे तो भरतजी का बस, यही एक मात्र सिद्धांत जान पड़ता है॥4॥
 
2. दोहा 289:  राजा ने बिलखकर (प्रेम से गद्गद होकर) कहा- भरतजी भूलकर भी श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा को मन से भी नहीं टालेंगे। अतः स्नेह के वश होकर चिंता नहीं करनी चाहिए॥289॥
 
2. चौपाई 290.1:  श्री रामजी और भरतजी के गुणों की प्रेमपूर्वक गणना करते (कहते-सुनते) पति-पत्नी को रात पलक के समान बीत गई। प्रातःकाल दोनों राजसमाज जागे और नहा-नहाकर देवताओं की पूजा करने लगे॥1॥
 
2. चौपाई 290.2:  श्री रघुनाथजी स्नान करके गुरु वशिष्ठजी के पास गए और चरणों की वंदना करके उनका रुख पाकर बोले- हे नाथ! भरत, अवधपुर वासी तथा माताएँ, सब शोक से व्याकुल और वनवास से दुःखी हैं॥2॥
 
2. चौपाई 290.3:  मिथिलापति राजा जनकजी को भी समाज सहित क्लेश सहते बहुत दिन हो गए, इसलिए हे नाथ! जो उचित हो वही कीजिए। आप ही के हाथ सभी का हित है॥3॥
 
2. चौपाई 290.4:  ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी अत्यन्त ही सकुचा गए। उनका शील स्वभाव देखकर (प्रेम और आनंद से) मुनि वशिष्ठजी पुलकित हो गए। (उन्होंने खुलकर कहा-) हे राम! तुम्हारे बिना (घर-बार आदि) सम्पूर्ण सुखों के साज दोनों राजसमाजों को नरक के समान हैं॥4॥
 
2. दोहा 290:  हे राम! तुम प्राणों के भी प्राण, आत्मा के भी आत्मा और सुख के भी सुख हो। हे तात! तुम्हें छोड़कर जिन्हें घर सुहाता है, उन्हे विधाता विपरीत है॥290॥
 
2. चौपाई 291.1:  जहाँ श्री राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री राम प्रेम की प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है॥1॥
 
2. चौपाई 291.2:  तुम्हारे बिना ही सब दुःखी हैं और जो सुखी हैं वे तुम्हीं से सुखी हैं। जिस किसी के जी में जो कुछ है तुम सब जानते हो। आपकी आज्ञा सभी के सिर पर है। कृपालु (आप) को सभी की स्थिति अच्छी तरह मालूम है॥2॥
 
2. चौपाई 291.3:  अतः आप आश्रम को पधारिए। इतना कह मुनिराज स्नेह से शिथिल हो गए। तब श्री रामजी प्रणाम करके चले गए और ऋषि वशिष्ठजी धीरज धरकर जनकजी के पास आए॥3॥
 
2. चौपाई 291.4:  गुरुजी ने श्री रामचन्द्रजी के शील और स्नेह से युक्त स्वभाव से ही सुंदर वचन राजा जनकजी को सुनाए (और कहा-) हे महाराज! अब वही कीजिए, जिसमें सबका धर्म सहित हित हो॥4॥
 
2. दोहा 291:  हे राजन्‌! तुम ज्ञान के भंडार, सुजान, पवित्र और धर्म में धीर हो। इस समय तुम्हारे बिना इस दुविधा को दूर करने में और कौन समर्थ है?॥291॥
 
2. चौपाई 292.1:  मुनि वशिष्ठजी के वचन सुनकर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य को भी वैराग्य हो गया (अर्थात उनके ज्ञान-वैराग्य छूट से गए)। वे प्रेम से शिथिल हो गए और मन में विचार करने लगे कि हम यहाँ आए, यह अच्छा नहीं किया॥1॥
 
2. चौपाई 292.2:  राजा दशरथजी ने श्री रामजी को वन जाने के लिए कहा और स्वयं अपने प्रिय के प्रेम को प्रमाणित (सच्चा) कर दिया (प्रिय वियोग में प्राण त्याग दिए), परन्तु हम अब इन्हें वन से (और गहन) वन को भेजकर अपने विवेक की बड़ाई में आनन्दित होते हुए लौटेंगे (कि हमें जरा भी मोह नहीं है, हम श्री रामजी को वन में छोड़कर चले आए, दशरथजी की तरह मरे नहीं!)॥2॥
 
2. चौपाई 292.3:  तपस्वी, मुनि और ब्राह्मण यह सब सुन और देखकर प्रेमवश बहुत ही व्याकुल हो गए। समय का विचार करके राजा जनकजी धीरज धरकर समाज सहित भरतजी के पास चले॥3॥
 
2. चौपाई 292.4:  भरतजी ने आकर उन्हें आगे होकर लिया (सामने आकर उनका स्वागत किया) और समयानुकूल अच्छे आसन दिए। तिरहुतराज जनकजी कहने लगे- हे तात भरत! तुमको श्री रामजी का स्वभाव मालूम ही है॥4॥
 
2. दोहा 292:  श्री रामचन्द्रजी सत्यव्रती और धर्मपरायण हैं, सबका शील और स्नेह रखने वाले हैं, इसीलिए वे संकोचवश संकट सह रहे हैं, अब तुम जो आज्ञा दो, वह उनसे कही जाए॥292॥
 
2. चौपाई 293.1:  भरतजी यह सुनकर पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले- हे प्रभो! आप हमारे पिता के समान प्रिय और पूज्य हैं और कुल गुरु श्री वशिष्ठजी के समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं है॥1॥
 
2. चौपाई 293.2:  विश्वामित्रजी आदि मुनियों और मंत्रियों का समाज है और आज के दिन ज्ञान के समुद्र आप भी उपस्थित हैं। हे स्वामी! मुझे अपना बच्चा, सेवक और आज्ञानुसार चलने वाला समझकर शिक्षा दीजिए॥2॥
 
2. चौपाई 293.3:  इस समाज और (पुण्य) स्थल में आप (जैसे ज्ञानी और पूज्य) का पूछना! इस पर यदि मैं मौन रहता हूँ तो मलिन समझा जाऊँगा और बोलना पागलपन होगा तथापि मैं छोटे मुँह बड़ी बात कहता हूँ। हे तात! विधाता को प्रतिकूल जानकर क्षमा कीजिएगा॥3॥
 
2. चौपाई 293.4:  वेद, शास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि सेवा धर्म बड़ा कठिन है। स्वामी धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में) और स्वार्थ में विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता (मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनों में ही भूल होने का भय है)॥4॥
 
2. दोहा 293:  अतएव मुझे पराधीन जानकर (मुझसे न पूछकर) श्री रामचन्द्रजी के रुख (रुचि), धर्म और (सत्य के) व्रत को रखते हुए, जो सबके सम्मत और सबके लिए हितकारी हो आप सबका प्रेम पहचानकर वही कीजिए॥293॥
 
2. चौपाई 294.1:  भरतजी के वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरतजी के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोमल और कठोर हैं। उनमें अक्षर थोड़े हैं, परन्तु अर्थ अत्यन्त अपार भरा हुआ है॥1॥
 
2. चौपाई 294.2:  जैसे मुख (का प्रतिबिम्ब) दर्पण में दिखता है और दर्पण अपने हाथ में है, फिर भी वह (मुख का प्रतिबिम्ब) पकड़ा नहीं जाता, इसी प्रकार भरतजी की यह अद्भुत वाणी भी पकड़ में नहीं आती (शब्दों से उसका आशय समझ में नहीं आता)। (किसी से कुछ उत्तर देते नहीं बना) तब राजा जनकजी, भरतजी तथा मुनि वशिष्ठजी समाज के साथ वहाँ गए, जहाँ देवता रूपी कुमुदों को खिलाने वाले (सुख देने वाले) चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी थे॥2॥
 
2. चौपाई 294.3:  यह समाचार सुनकर सब लोग सोच से व्याकुल हो गए, जैसे नए (पहली वर्षा के) जल के संयोग से मछलियाँ व्याकुल होती हैं। देवताओं ने पहले कुलगुरु वशिष्ठजी की (प्रेमविह्वल) दशा देखी, फिर विदेहजी के विशेष स्नेह को देखा,॥3॥
 
2. चौपाई 294.4:  और तब श्री रामभक्ति से ओतप्रोत भरतजी को देखा। इन सबको देखकर स्वार्थी देवता घबड़ाकर हृदय में हार मान गए (निराश हो गए)। उन्होंने सब किसी को श्री राम प्रेम में सराबोर देखा। इससे देवता इतने सोच के वश हो गए कि जिसका कोई हिसाब नहीं॥4॥
 
2. दोहा 294:  देवराज इन्द्र सोच में भरकर कहने लगे कि श्री रामचन्द्रजी तो स्नेह और संकोच के वश में हैं, इसलिए सब लोग मिलकर कुछ प्रपंच (माया) रचो, नहीं तो काम बिगड़ा (ही समझो)॥294॥
 
2. चौपाई 295.1:  देवताओं ने सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा- हे देवी! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीजिए। अपनी माया रचकर भरतजी की बुद्धि को फेर दीजिए और छल की छाया कर देवताओं के कुल का पालन (रक्षा) कीजिए॥1॥
 
2. चौपाई 295.2:  देवताओं की विनती सुनकर और देवताओं को स्वार्थ के वश होने से मूर्ख जानकर बुद्धिमती सरस्वतीजी बोलीं- मुझसे कह रहे हो कि भरतजी की मति पलट दो! हजार नेत्रों से भी तुमको सुमेरू नहीं सूझ पड़ता!॥2॥
 
2. चौपाई 295.3:  ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माया बड़ी प्रबल है! किन्तु वह भी भरतजी की बुद्धि की ओर ताक नहीं सकती। उस बुद्धि को, तुम मुझसे कह रहे हो कि, भोली कर दो (भुलावे में डाल दो)! अरे! चाँदनी कहीं प्रचंड किरण वाले सूर्य को चुरा सकती है?॥3॥
 
2. चौपाई 295.4:  भरतजी के हृदय में श्री सीता-रामजी का निवास है। जहाँ सूर्य का प्रकाश है, वहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को चली गईं। देवता ऐसे व्याकुल हुए जैसे रात्रि में चकवा व्याकुल होता है॥4॥
 
2. दोहा 295:  मलिन मन वाले स्वार्थी देवताओं ने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यन्त्र) रचा। प्रबल माया-जाल रचकर भय, भ्रम, अप्रीति और उच्चाटन फैला दिया॥295॥
 
2. चौपाई 296.1:  कुचाल करके देवराज इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरतजी के हाथ है। इधर राजा जनकजी (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) श्री रघुनाथजी के पास गए। सूर्यकुल के दीपक श्री रामचन्द्रजी ने सबका सम्मान किया,॥1॥
 
2. चौपाई 296.2:  तब रघुकुल के पुरोहित वशिष्ठजी समय, समाज और धर्म के अविरोधी (अर्थात अनुकूल) वचन बोले। उन्होंने पहले जनकजी और भरतजी का संवाद सुनाया। फिर भरतजी की कही हुई सुंदर बातें कह सुनाईं॥2॥
 
2. चौपाई 296.3:  (फिर बोले-) हे तात राम! मेरा मत तो यह है कि तुम जैसी आज्ञा दो, वैसा ही सब करें! यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर श्री रघुनाथजी सत्य, सरल और कोमल वाणी बोले-॥3॥
 
2. चौपाई 296.4:  आपके और मिथिलेश्वर जनकजी के विद्यमान रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा (अनुचित) है। आपकी और महाराज की जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ वह सत्य ही सबको शिरोधार्य होगी॥4॥
 
2. दोहा 296:  श्री रामचन्द्रजी की शपथ सुनकर सभा समेत मुनि और जनकजी सकुचा गए (स्तम्भित रह गए)। किसी से उत्तर देते नहीं बनता, सब लोग भरतजी का मुँह ताक रहे हैं॥296॥
 
2. चौपाई 297.1:  भरतजी ने सभा को संकोच के वश देखा। रामबंधु (भरतजी) ने बड़ा भारी धीरज धरकर और कुसमय देखकर अपने (उमड़ते हुए) प्रेम को संभाला, जैसे बढ़ते हुए विन्ध्याचल को अगस्त्यजी ने रोका था॥1॥
 
2. चौपाई 297.2:  शोक रूपी हिरण्याक्ष ने (सारी सभा की) बुद्धि रूपी पृथ्वी को हर लिया जो विमल गुण समूह रूपी जगत की योनि (उत्पन्न करने वाली) थी। भरतजी के विवेक रूपी विशाल वराह (वराह रूप धारी भगवान) ने (शोक रूपी हिरण्याक्ष को नष्ट कर) बिना ही परिश्रम उसका उद्धार कर दिया!॥2॥
 
2. चौपाई 297.3:  भरतजी ने प्रणाम करके सबके प्रति हाथ जोड़े तथा श्री रामचन्द्रजी, राजा जनकजी, गुरु वशिष्ठजी और साधु-संत सबसे विनती की और कहा- आज मेरे इस अत्यन्त अनुचित बर्ताव को क्षमा कीजिएगा। मैं कोमल (छोटे) मुख से कठोर (धृष्टतापूर्ण) वचन कह रहा हूँ॥3॥
 
2. चौपाई 297.4:  फिर उन्होंने हृदय में सुहावनी सरस्वती का स्मरण किया। वे मानस से (उनके मन रूपी मानसरोवर से) उनके मुखारविंद पर आ विराजीं। निर्मल विवेक, धर्म और नीति से युक्त भरतजी की वाणी सुंदर हंसिनी (के समान गुण-दोष का विवेचन करने वाली) है॥4॥
 
2. दोहा 297:  विवेक के नेत्रों से सारे समाज को प्रेम से शिथिल देख, सबको प्रणाम कर, श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी का स्मरण करके भरतजी बोले-॥297॥
 
2. चौपाई 298.1:  हे प्रभु! आप पिता, माता, सुहृद् (मित्र), गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं। सरल हृदय, श्रेष्ठ मालिक, शील के भंडार, शरणागत की रक्षा करने वाले, सर्वज्ञ, सुजान,॥1॥
 
2. चौपाई 298.2:  समर्थ, शरणागत का हित करने वाले, गुणों का आदर करने वाले और अवगुणों तथा पापों को हरने वाले हैं। हे गोसाईं! आप सरीखे स्वामी आप ही हैं और स्वामी के साथ द्रोह करने में मेरे समान मैं ही हूँ॥2॥
 
2. चौपाई 298.3:  मैं मोहवश प्रभु (आप) के और पिताजी के वचनों का उल्लंघन कर और समाज बटोरकर यहाँ आया हूँ। जगत में भले-बुरे, ऊँचे और नीचे, अमृत और अमर पद (देवताओं का पद), विष और मृत्यु आदि-॥3॥
 
2. चौपाई 298.4:  किसी को भी कहीं ऐसा नहीं देखा-सुना जो मन में भी श्री रामचन्द्रजी (आप) की आज्ञा को मेट दे। मैंने सब प्रकार से वही ढिठाई की, परन्तु प्रभु ने उस ढिठाई को स्नेह और सेवा मान लिया!॥4॥
 
2. दोहा 298:  हे नाथ! आपने अपनी कृपा और भलाई से मेरा भला किया, जिससे मेरे दूषण (दोष) भी भूषण (गुण) के समान हो गए और चारों ओर मेरा सुंदर यश छा गया॥298॥
 
2. चौपाई 299.1:  हे नाथ! आपकी रीति और सुंदर स्वभाव की बड़ाई जगत में प्रसिद्ध है और वेद-शास्त्रों ने गाई है। जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कुबुद्धि, कलंकी, नीच, शीलरहित, निरीश्वरवादी (नास्तिक) और निःशंक (निडर) है॥1॥
 
2. चौपाई 299.2:  उन्हें भी आपने शरण में सम्मुख आया सुनकर एक बार प्रणाम करने पर ही अपना लिया। उन (शरणागतों) के दोषों को देखकर भी आप कभी हृदय में नहीं लाए और उनके गुणों को सुनकर साधुओं के समाज में उनका बखान किया॥2॥
 
2. चौपाई 299.3:  ऐसा सेवक पर कृपा करने वाला स्वामी कौन है, जो आप ही सेवक का सारा साज-सामान सज दे (उसकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण कर दे) और स्वप्न में भी अपनी कोई करनी न समझकर (अर्थात मैंने सेवक के लिए कुछ किया है, ऐसा न जानकर) उलटा सेवक को संकोच होगा, इसका सोच अपने हृदय में रखे!॥3॥
 
2. चौपाई 299.4:  मैं भुजा उठाकर और प्रण रोपकर (बड़े जोर के साथ) कहता हूँ, ऐसा स्वामी आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। (बंदर आदि) पशु नाचते और तोते (सीखे हुए) पाठ में प्रवीण हो जाते हैं, परन्तु तोते का (पाठ प्रवीणता रूप) गुण और पशु के नाचने की गति (क्रमशः) पढ़ाने वाले और नचाने वाले के अधीन है॥4॥
 
2. दोहा 299:  इस प्रकार अपने सेवकों की (बिगड़ी) बात सुधारकर और सम्मान देकर आपने उन्हें साधुओं का शिरोमणि बना दिया। कृपालु (आप) के सिवा अपनी विरदावली का और कौन जबर्दस्ती (हठपूर्वक) पालन करेगा?॥299॥
 
2. चौपाई 300.1:  मैं शोक से या स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देखकर सभी प्रकार से मेरा भला ही माना (मेरे इस अनुचित कार्य को अच्छा ही समझा)॥1॥
 
2. चौपाई 300.2:  मैंने सुंदर मंगलों के मूल आपके चरणों का दर्शन किया और यह जान लिया कि स्वामी मुझ पर स्वभाव से ही अनुकूल हैं। इस बड़े समाज में अपने भाग्य को देखा कि इतनी बड़ी चूक होने पर भी स्वामी का मुझ पर कितना अनुराग है!॥2॥
 
2. चौपाई 300.3:  कृपानिधान ने मुझ पर सांगोपांग भरपेट कृपा और अनुग्रह, सब अधिक ही किए हैं (अर्थात मैं जिसके जरा भी लायक नहीं था, उतनी अधिक सर्वांगपूर्ण कृपा आपने मुझ पर की है)। हे गोसाईं! आपने अपने शील, स्वभाव और भलाई से मेरा दुलार रखा॥3॥
 
2. चौपाई 300.4:  हे नाथ! मैंने स्वामी और समाज के संकोच को छोड़कर अविनय या विनय भरी जैसी रुचि हुई वैसी ही वाणी कहकर सर्वथा ढिठाई की है। हे देव! मेरे आर्तभाव (आतुरता) को जानकर आप क्षमा करेंगे॥4॥
 
2. दोहा 300:  सुहृद् (बिना ही हेतु के हित करने वाले), बुद्धिमान और श्रेष्ठ मालिक से बहुत कहना बड़ा अपराध है, इसलिए हे देव! अब मुझे आज्ञा दीजिए, आपने मेरी सभी बात सुधार दी॥300॥
 
2. चौपाई 301.1:  प्रभु (आप) के चरणकमलों की रज, जो सत्य, सुकृत (पुण्य) और सुख की सुहावनी सीमा (अवधि) है, उसकी दुहाई करके मैं अपने हृदय को जागते, सोते और स्वप्न में भी बनी रहने वाली रुचि (इच्छा) कहता हूँ॥1॥
 
2. चौपाई 301.2:  वह रुचि है- कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए॥2॥
 
2. चौपाई 301.3:  भरतजी ऐसा कहकर प्रेम के बहुत ही विवश हो गए। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। अकुलाकर (व्याकुल होकर) उन्होंने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरणकमल पकड़ लिए। उस समय को और स्नेह को कहा नहीं जा सकता॥3॥
 
2. चौपाई 301.4:  कृपासिन्धु श्री रामचन्द्रजी ने सुंदर वाणी से भरतजी का सम्मान करके हाथ पकड़कर उनको अपने पास बिठा लिया। भरतजी की विनती सुनकर और उनका स्वभाव देखकर सारी सभा और श्री रघुनाथजी स्नेह से शिथिल हो गए॥4॥
 
2. छंद 301.1:  श्री रघुनाथजी, साधुओं का समाज, मुनि वशिष्ठजी और मिथिलापति जनकजी स्नेह से शिथिल हो गए। सब मन ही मन भरतजी के भाईपन और उनकी भक्ति की अतिशय महिमा को सराहने लगे। देवता मलिन से मन से भरतजी की प्रशंसा करते हुए उन पर फूल बरसाने लगे। तुलसीदासजी कहते हैं- सब लोग भरतजी का भाषण सुनकर व्याकुल हो गए और ऐसे सकुचा गए जैसे रात्रि के आगमन से कमल!
 
2. सोरठा 301:  दोनों समाजों के सभी नर-नारियों को दीन और दुःखी देखकर महामलिन मन इन्द्र मरे हुओं को मारकर अपना मंगल चाहता है॥301॥
 
2. चौपाई 302.1:  देवराज इन्द्र कपट और कुचाल की सीमा है। उसे पराई हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इन्द्र की रीति कौए के समान है। वह छली और मलिन मन है, उसका कहीं किसी पर विश्वास नहीं है॥1॥
 
2. चौपाई 302.2:  पहले तो कुमत (बुरा विचार) करके कपट को बटोरा (अनेक प्रकार के कपट का साज सजा)। फिर वह (कपटजनित) उचाट सबके सिर पर डाल दिया। फिर देवमाया से सब लोगों को विशेष रूप से मोहित कर दिया, किन्तु श्री रामचन्द्रजी के प्रेम से उनका अत्यन्त बिछोह नहीं हुआ (अर्थात उनका श्री रामजी के प्रति प्रेम कुछ तो बना ही रहा)॥2॥
 
2. चौपाई 302.3:  भय और उचाट के वश किसी का मन स्थिर नहीं है। क्षण में उनकी वन में रहने की इच्छा होती है और क्षण में उन्हें घर अच्छे लगने लगते हैं। मन की इस प्रकार की दुविधामयी स्थिति से प्रजा दुःखी हो रही है। मानो नदी और समुद्र के संगम का जल क्षुब्ध हो रहा हो। (जैसे नदी और समुद्र के संगम का जल स्थिर नहीं रहता, कभी इधर आता और कभी उधर जाता है, उसी प्रकार की दशा प्रजा के मन की हो गई)॥3॥
 
2. चौपाई 302.4:  चित्त दो तरफा हो जाने से वे कहीं संतोष नहीं पाते और एक-दूसरे से अपना मर्म भी नहीं कहते। कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी यह दशा देखकर हृदय में हँसकर कहने लगे- कुत्ता, इन्द्र और नवयुवक (कामी पुरुष) एक सरीखे (एक ही स्वभाव के) हैं। (पाणिनीय व्याकरण के अनुसार, श्वन, युवन और मघवन शब्दों के रूप भी एक सरीखे होते हैं)॥4॥
 
2. दोहा 302:  भरतजी, जनकजी, मुनिजन, मंत्री और ज्ञानी साधु-संतों को छोड़कर अन्य सभी पर जिस मनुष्य को जिस योग्य (जिस प्रकृति और जिस स्थिति का) पाया, उस पर वैसे ही देवमाया लग गई॥302॥
 
2. चौपाई 303.1:  कृपासिंधु श्री रामचन्द्रजी ने लोगों को अपने स्नेह और देवराज इन्द्र के भारी छल से दुःखी देखा। सभा, राजा जनक, गुरु, ब्राह्मण और मंत्री आदि सभी की बुद्धि को भरतजी की भक्ति ने कील दिया॥1॥
 
2. चौपाई 303.2:  सब लोग चित्रलिखे से श्री रामचन्द्रजी की ओर देख रहे हैं। सकुचाते हुए सिखाए हुए से वचन बोलते हैं। भरतजी की प्रीति, नम्रता, विनय और बड़ाई सुनने में सुख देने वाली है, पर उसका वर्णन करने में कठिनता है॥2॥
 
2. चौपाई 303.3:  जिनकी भक्ति का लवलेश देखकर मुनिगण और मिथिलेश्वर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए, उन भरतजी की महिमा तुलसीदास कैसे कहे? उनकी भक्ति और सुंदर भाव से (कवि के) हृदय में सुबुद्धि हुलस रही है (विकसित हो रही है)॥3॥
 
2. चौपाई 303.4:  परन्तु वह बुद्धि अपने को छोटी और भरतजी की महिमा को बड़ी जानकर कवि परम्परा की मर्यादा को मानकर सकुचा गई (उसका वर्णन करने का साहस नहीं कर सकी)। उसकी गुणों में रुचि तो बहुत है, पर उन्हें कह नहीं सकती। बुद्धि की गति बालक के वचनों की तरह हो गई (वह कुण्ठित हो गई)!॥4॥
 
2. दोहा 303:  भरतजी का निर्मल यश निर्मल चन्द्रमा है और कवि की सुबुद्धि चकोरी है, जो भक्तों के हृदय रूपी निर्मल आकाश में उस चन्द्रमा को उदित देखकर उसकी ओर टकटकी लगाए देखती ही रह गई है (तब उसका वर्णन कौन करे?)॥303॥
 
2. चौपाई 304.1:  भरतजी के स्वभाव का वर्णन वेदों के लिए भी सुगम नहीं है। (अतः) मेरी तुच्छ बुद्धि की चंचलता को कवि लोग क्षमा करें! भरतजी के सद्भाव को कहते-सुनते कौन मनुष्य श्री सीता-रामजी के चरणों में अनुरक्त न हो जाएगा॥1॥
 
2. चौपाई 304.2:  भरतजी का स्मरण करने से जिसको श्री रामजी का प्रेम सुलभ न हुआ, उसके समान वाम (अभागा) और कौन होगा? दयालु और सुजान श्री रामजी ने सभी की दशा देखकर और भक्त (भरतजी) के हृदय की स्थिति जानकर,॥2॥
 
2. चौपाई 304.3:  धर्मधुरंधर, धीर, नीति में चतुर, सत्य, स्नेह, शील और सुख के समुद्र, नीति और प्रीति के पालन करने वाले श्री रघुनाथजी देश, काल, अवसर और समाज को देखकर,॥3॥
 
2. चौपाई 304.4:  (तदनुसार) ऐसे वचन बोले जो मानो वाणी के सर्वस्व ही थे, परिणाम में हितकारी थे और सुनने में चन्द्रमा के रस (अमृत) सरीखे थे। (उन्होंने कहा-) हे तात भरत! तुम धर्म की धुरी को धारण करने वाले हो, लोक और वेद दोनों के जानने वाले और प्रेम में प्रवीण हो॥4॥
 
2. दोहा 304:  हे तात! कर्म से, वचन से और मन से निर्मल तुम्हारे समान तुम्हीं हो। गुरुजनों के समाज में और ऐसे कुसमय में छोटे भाई के गुण किस तरह कहे जा सकते हैं?॥304॥
 
2. चौपाई 305.1:  हे तात! तुम सूर्यकुल की रीति को, सत्यप्रतिज्ञ पिताजी की कीर्ति और प्रीति को, समय, समाज और गुरुजनों की लज्जा (मर्यादा) को तथा उदासीन, मित्र और शत्रु सबके मन की बात को जानते हो॥1॥
 
2. चौपाई 305.2:  तुमको सबके कर्मों (कर्तव्यों) का और अपने तथा मेरे परम हितकारी धर्म का पता है। यद्यपि मुझे तुम्हारा सब प्रकार से भरोसा है, तथापि मैं समय के अनुसार कुछ कहता हूँ॥2॥
 
2. चौपाई 305.3:  हे तात! पिताजी के बिना (उनकी अनुपस्थिति में) हमारी बात केवल गुरुवंश की कृपा ने ही सम्हाल रखी है, नहीं तो हमारे समेत प्रजा, कुटुम्ब, परिवार सभी बर्बाद हो जाते॥3॥
 
2. चौपाई 305.4:  यदि बिना समय के (सन्ध्या से पूर्व ही) सूर्य अस्त हो जाए, तो कहो जगत में किस को क्लेश न होगा? हे तात! उसी प्रकार का उत्पात विधाता ने यह (पिता की असामयिक मृत्यु) किया है। पर मुनि महाराज ने तथा मिथिलेश्वर ने सबको बचा लिया॥4॥
 
2. दोहा 305:  राज्य का सब कार्य, लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर- इन सभी का पालन (रक्षण) गुरुजी का प्रभाव (सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा॥305॥
 
2. चौपाई 306.1:  गुरुजी का प्रसाद (अनुग्रह) ही घर में और वन में समाज सहित तुम्हारा और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामी की आज्ञा (का पालन) समस्त धर्म रूपी पृथ्वी को धारण करने में शेषजी के समान है॥1॥
 
2. चौपाई 306.2:  हे तात! तुम वही करो और मुझसे भी कराओ तथा सूर्यकुल के रक्षक बनो। साधक के लिए यह एक ही (आज्ञा पालन रूपी साधना) सम्पूर्ण सिद्धियों की देने वाली, कीर्तिमयी, सद्गतिमयी और ऐश्वर्यमयी त्रिवेणी है॥2॥
 
2. चौपाई 306.3:  इसे विचारकर भारी संकट सहकर भी प्रजा और परिवार को सुखी करो। हे भाई! मेरी विपत्ति सभी ने बाँट ली है, परन्तु तुमको तो अवधि (चौदह वर्ष) तक बड़ी कठिनाई है (सबसे अधिक दुःख है)॥3॥
 
2. चौपाई 306.4:  तुमको कोमल जानकर भी मैं कठोर (वियोग की बात) कह रहा हूँ। हे तात! बुरे समय में मेरे लिए यह कोई अनुचित बात नहीं है। कुठौर (कुअवसर) में श्रेष्ठ भाई ही सहायक होते हैं। वज्र के आघात भी हाथ से ही रोके जाते हैं॥4॥
 
2. दोहा 306:  सेवक हाथ, पैर और नेत्रों के समान और स्वामी मुख के समान होना चाहिए। तुलसीदासजी कहते हैं कि सेवक-स्वामी की ऐसी प्रीति की रीति सुनकर सुकवि उसकी सराहना करते हैं॥306॥
 
2. चौपाई 307.1:  श्री रघुनाथजी की वाणी सुनकर, जो मानो प्रेम रूपी समुद्र के (मंथन से निकले हुए) अमृत में सनी हुई थी, सारा समाज शिथिल हो गया, सबको प्रेम समाधि लग गई। यह दशा देखकर सरस्वती ने चुप साध ली॥1॥
 
2. चौपाई 307.2:  भरतजी को परम संतोष हुआ। स्वामी के सम्मुख (अनुकूल) होते ही उनके दुःख और दोषों ने मुँह मोड़ लिया (वे उन्हें छोड़कर भाग गए)। उनका मुख प्रसन्न हो गया और मन का विषाद मिट गया। मानो गूँगे पर सरस्वती की कृपा हो गई हो॥2॥
 
2. चौपाई 307.3:  उन्होंने फिर प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और करकमलों को जोड़कर वे बोले- हे नाथ! मुझे आपके साथ जाने का सुख प्राप्त हो गया और मैंने जगत में जन्म लेने का लाभ भी पा लिया।3॥
 
2. चौपाई 307.4:  हे कृपालु! अब जैसी आज्ञा हो, उसी को मैं सिर पर धर कर आदरपूर्वक करूँ! परन्तु देव! आप मुझे वह अवलम्बन (कोई सहारा) दें, जिसकी सेवा कर मैं अवधि का पार पा जाऊँ (अवधि को बिता दूँ)॥4॥
 
2. दोहा 307:  हे देव! स्वामी (आप) के अभिषेक के लिए गुरुजी की आज्ञा पाकर मैं सब तीर्थों का जल लेता आया हूँ, उसके लिए क्या आज्ञा होती है?॥307॥
 
2. चौपाई 308.1:  मेरे मन में एक और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोच के कारण कहा नहीं जाता। (श्री रामचन्द्रजी ने कहा-) हे भाई! कहो। तब प्रभु की आज्ञा पाकर भरतजी स्नेहपूर्ण सुंदर वाणी बोले-॥1॥
 
2. चौपाई 308.2:  आज्ञा हो तो चित्रकूट के पवित्र स्थान, तीर्थ, वन, पक्षी-पशु, तालाब-नदी, झरने और पर्वतों के समूह तथा विशेष कर प्रभु (आप) के चरण चिह्नों से अंकित भूमि को देख आऊँ॥2॥
 
2. चौपाई 308.3:  (श्री रघुनाथजी बोले-) अवश्य ही अत्रि ऋषि की आज्ञा को सिर पर धारण करो (उनसे पूछकर वे जैसा कहें वैसा करो) और निर्भय होकर वन में विचरो। हे भाई! अत्रि मुनि के प्रसाद से वन मंगलों का देने वाला, परम पवित्र और अत्यन्त सुंदर है-॥3॥
 
2. चौपाई 308.4:  और ऋषियों के प्रमुख अत्रिजी जहाँ आज्ञा दें, वहीं (लाया हुआ) तीर्थों का जल स्थापित कर देना। प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने सुख पाया और आनंदित होकर मुनि अत्रिजी के चरणकमलों में सिर नवाया॥4॥
 
2. दोहा 308:  समस्त सुंदर मंगलों का मूल भरतजी और श्री रामचन्द्रजी का संवाद सुनकर स्वार्थी देवता रघुकुल की सराहना करके कल्पवृक्ष के फूल बरसाने लगे॥308॥
 
2. चौपाई 309.1:  ‘भरतजी धन्य हैं, स्वामी श्री रामजी की जय हो!’ ऐसा कहते हुए देवता बलपूर्वक (अत्यधिक) हर्षित होने लगे। भरतजी के वचन सुनकर मुनि वशिष्ठजी, मिथिलापति जनकजी और सभा में सब किसी को बड़ा उत्साह (आनंद) हुआ॥1॥
 
2. चौपाई 309.2:  भरतजी और श्री रामचन्द्रजी के गुण समूह की तथा प्रेम की विदेहराज जनकजी पुलकित होकर प्रशंसा कर रहे हैं। सेवक और स्वामी दोनों का सुंदर स्वभाव है। इनके नियम और प्रेम पवित्र को भी अत्यन्त पवित्र करने वाले हैं॥2॥
 
2. चौपाई 309.3:  मंत्री और सभासद् सभी प्रेममुग्ध होकर अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार सराहना करने लगे। श्री रामचन्द्रजी और भरतजी का संवाद सुन-सुनकर दोनों समाजों के हृदयों में हर्ष और विषाद (भरतजी के सेवा धर्म को देखकर हर्ष और रामवियोग की सम्भावना से विषाद) दोनों हुए॥3॥
 
2. चौपाई 309.4:  श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी ने दुःख और सुख को समान जानकर श्री रामजी के गुण कहकर दूसरी रानियों को धैर्य बँधाया। कोई श्री रामजी की बड़ाई (बड़प्पन) की चर्चा कर रहे हैं, तो कोई भरतजी के अच्छेपन की सराहना करते हैं॥4॥
 
2. दोहा 309:  तब अत्रिजी ने भरतजी से कहा- इस पर्वत के समीप ही एक सुंदर कुआँ है। इस पवित्र, अनुपम और अमृत जैसे तीर्थजल को उसी में स्थापित कर दीजिए॥309॥
 
2. चौपाई 310.1:  भरतजी ने अत्रिमुनि की आज्ञा पाकर जल के सब पात्र रवाना कर दिए और छोटे भाई शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-संतों सहित आप वहाँ गए, जहाँ वह अथाह कुआँ था॥1॥
 
2. चौपाई 310.2:  और उस पवित्र जल को उस पुण्य स्थल में रख दिया। तब अत्रि ऋषि ने प्रेम से आनंदित होकर ऐसा कहा- हे तात! यह अनादि सिद्धस्थल है। कालक्रम से यह लोप हो गया था, इसलिए किसी को इसका पता नहीं था॥2॥
 
2. चौपाई 310.3:  तब (भरतजी के) सेवकों ने उस जलयुक्त स्थान को देखा और उस सुंदर (तीर्थों के) जल के लिए एक खास कुआँ बना लिया। दैवयोग से विश्वभर का उपकार हो गया। धर्म का विचार जो अत्यन्त अगम था, वह (इस कूप के प्रभाव से) सुगम हो गया॥3॥
 
2. चौपाई 310.4:  अब इसको लोग भरतकूप कहेंगे। तीर्थों के जल के संयोग से तो यह अत्यन्त ही पवित्र हो गया। इसमें प्रेमपूर्वक नियम से स्नान करने पर प्राणी मन, वचन और कर्म से निर्मल हो जाएँगे॥4॥
 
2. दोहा 310:  कूप की महिमा कहते हुए सब लोग वहाँ गए जहाँ श्री रघुनाथजी थे। श्री रघुनाथजी को अत्रिजी ने उस तीर्थ का पुण्य प्रभाव सुनाया॥310॥
 
2. चौपाई 311.1:  प्रेमपूर्वक धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी करके, श्री रामजी, अत्रिजी और गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर,॥1॥
 
2. चौपाई 311.2:  समाज सहित सब सादे साज से श्री रामजी के वन में भ्रमण (प्रदक्षिणा) करने के लिए पैदल ही चले। कोमल चरण हैं और बिना जूते के चल रहे हैं, यह देखकर पृथ्वी मन ही मन सकुचाकर कोमल हो गई॥2॥
 
2. चौपाई 311.3:  कुश, काँटे, कंकड़ी, दरारों आदि कड़वी, कठोर और बुरी वस्तुओं को छिपाकर पृथ्वी ने सुंदर और कोमल मार्ग कर दिए। सुखों को साथ लिए (सुखदायक) शीतल, मंद, सुगंध हवा चलने लगी॥3॥
 
2. चौपाई 311.4:  रास्ते में देवता फूल बरसाकर, बादल छाया करके, वृक्ष फूल-फलकर, तृण अपनी कोमलता से, मृग (पशु) देखकर और पक्षी सुंदर वाणी बोलकर सभी भरतजी को श्री रामचन्द्रजी के प्यारे जानकर उनकी सेवा करने लगे॥4॥
 
2. दोहा 311:  जब एक साधारण मनुष्य को भी (आलस्य से) जँभाई लेते समय ‘राम’ कह देने से ही सब सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं, तब श्री रामचन्द्रजी के प्राण प्यारे भरतजी के लिए यह कोई बड़ी (आश्चर्य की) बात नहीं है॥311॥
 
2. चौपाई 312.1:  इस प्रकार भरतजी वन में फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र जल के स्थान (नदी, बावली, कुंड आदि) पृथ्वी के पृथक-पृथक भाग, पक्षी, पशु, वृक्ष, तृण (घास), पर्वत, वन और बगीचे-॥1॥
 
2. चौपाई 312.2:  सभी विशेष रूप से सुंदर, विचित्र, पवित्र और दिव्य देखकर भरतजी पूछते हैं और उनका प्रश्न सुनकर ऋषिराज अत्रिजी प्रसन्न मन से सबके कारण, नाम, गुण और पुण्य प्रभाव को कहते हैं॥2॥
 
2. चौपाई 312.3:  भरतजी कहीं स्नान करते हैं, कहीं प्रणाम करते हैं, कहीं मनोहर स्थानों के दर्शन करते हैं और कहीं मुनि अत्रिजी की आज्ञा पाकर बैठकर, सीताजी सहित श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों का स्मरण करते हैं॥3॥
 
2. चौपाई 312.4:  भरतजी के स्वभाव, प्रेम और सुंदर सेवाभाव को देखकर वनदेवता आनंदित होकर आशीर्वाद देते हैं। यों घूम-फिरकर ढाई पहर दिन बीतने पर लौट पड़ते हैं और आकर प्रभु श्री रघुनाथजी के चरणकमलों का दर्शन करते हैं॥4॥
 
2. दोहा 312:  भरतजी ने पाँच दिन में सब तीर्थ स्थानों के दर्शन कर लिए। भगवान विष्णु और महादेवजी का सुंदर यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) दिन भी बीत गया, संध्या हो गई॥312॥
 
2. चौपाई 313.1:  (अगले छठे दिन) सबेरे स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए अच्छा दिन है, यह मन में जानकर भी कृपालु श्री रामजी कहने में सकुचा रहे हैं॥1॥
 
2. चौपाई 313.2:  श्री रामचन्द्रजी ने गुरु वशिष्ठजी, राजा जनकजी, भरतजी और सारी सभा की ओर देखा, किन्तु फिर सकुचाकर दृष्टि फेरकर वे पृथ्वी की ओर ताकने लगे। सभा उनके शील की सराहना करके सोचती है कि श्री रामचन्द्रजी के समान संकोची स्वामी कहीं नहीं है॥2॥
 
2. चौपाई 313.3:  सुजान भरतजी श्री रामचन्द्रजी का रुख देखकर प्रेमपूर्वक उठकर, विशेष रूप से धीरज धारण कर दण्डवत करके हाथ जोड़कर कहने लगे- हे नाथ! आपने मेरी सभी रुचियाँ रखीं॥3॥
 
2. चौपाई 313.4:  मेरे लिए सब लोगों ने संताप सहा और आपने भी बहुत प्रकार से दुःख पाया। अब स्वामी मुझे आज्ञा दें। मैं जाकर अवधि भर (चौदह वर्ष तक) अवध का सेवन करूँ॥4॥
 
2. दोहा 313:  हे दीनदयालु! जिस उपाय से यह दास फिर चरणों का दर्शन करे- हे कोसलाधीश! हे कृपालु! अवधिभर के लिए मुझे वही शिक्षा दीजिए॥313॥
 
2. चौपाई 314.1:  हे गोसाईं! आपके प्रेम और संबंध में अवधपुर वासी, कुटुम्बी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनंद) से युक्त हैं। आपके लिए भवदुःख (जन्म-मरण के दुःख) की ज्वाला में जलना भी अच्छा है और प्रभु (आप) के बिना परमपद (मोक्ष) का लाभ भी व्यर्थ है॥1॥
 
2. चौपाई 314.2:  हे स्वामी! आप सुजान हैं, सभी के हृदय की और मुझ सेवक के मन की रुचि, लालसा (अभिलाषा) और रहनी जानकर, हे प्रणतपाल! आप सब किसी का पालन करेंगे और हे देव! दोनों ओर अन्त तक निबाहेंगे॥2॥
 
2. चौपाई 314.3:  मुझे सब प्रकार से ऐसा बहुत बड़ा भरोसा है। विचार करने पर तिनके के बराबर (जरा सा) भी सोच नहीं रह जाता! मेरी दीनता और स्वामी का स्नेह दोनों ने मिलकर मुझे जबर्दस्ती ढीठ बना दिया है॥3॥
 
2. चौपाई 314.4:  हे स्वामी! इस बड़े दोष को दूर करके संकोच त्याग कर मुझ सेवक को शिक्षा दीजिए। दूध और जल को अलग-अलग करने में हंसिनी की सी गति वाली भरतजी की विनती सुनकर उसकी सभी ने प्रशंसा की॥4॥
 
2. दोहा 314:  दीनबन्धु और परम चतुर श्री रामजी ने भाई भरतजी के दीन और छलरहित वचन सुनकर देश, काल और अवसर के अनुकूल वचन बोले-॥314॥
 
2. चौपाई 315.1:  हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की और वन की सारी चिंता गुरु वशिष्ठजी और महाराज जनकजी को है। हमारे सिर पर जब गुरुजी, मुनि विश्वामित्रजी और मिथिलापति जनकजी हैं, तब हमें और तुम्हें स्वप्न नें भी क्लेश नहीं है॥1॥
 
2. चौपाई 315.2:  मेरा और तुम्हारा तो परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ इसी में है कि हम दोनों भाई पिताजी की आज्ञा का पालन करें। राजा की भलाई (उनके व्रत की रक्षा) से ही लोक और वेद दोनों में भला है॥2॥
 
2. चौपाई 315.3:  गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा (आज्ञा) का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने पर पैर गड्ढे में नहीं पड़ता (पतन नहीं होता)। ऐसा विचार कर सब सोच छोड़कर अवध जाकर अवधिभर उसका पालन करो॥3॥
 
2. चौपाई 315.4:  देश, खजाना, कुटुम्ब, परिवार आदि सबकी जिम्मेदारी तो गुरुजी की चरण रज पर है। तुम तो मुनि वशिष्ठजी, माताओं और मन्त्रियों की शिक्षा मानकर तदनुसार पृथ्वी, प्रजा और राजधानी का पालन (रक्षा) भर करते रहना॥4॥
 
2. दोहा 315:  तुलसीदासजी कहते हैं- (श्री रामजी ने कहा-) मुखिया मुख के समान होना चाहिए, जो खाने-पीने को तो एक (अकेला) है, परन्तु विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है॥315॥
 
2. चौपाई 316.1:  राजधर्म का सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्री रघुनाथजी ने भाई भरत को बहुत प्रकार से समझाया, परन्तु कोई अवलम्बन पाए बिना उनके मन में न संतोष हुआ, न शान्ति॥1॥
 
2. चौपाई 316.2:  इधर तो भरतजी का शील (प्रेम) और उधर गुरुजनों, मंत्रियों तथा समाज की उपस्थिति! यह देखकर श्री रघुनाथजी संकोच तथा स्नेह के विशेष वशीभूत हो गए (अर्थात भरतजी के प्रेमवश उन्हें पाँवरी देना चाहते हैं, किन्तु साथ ही गुरु आदि का संकोच भी होता है।) आखिर (भरतजी के प्रेमवश) प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने कृपा कर खड़ाऊँ दे दीं और भरतजी ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण कर लिया॥2॥
 
2. चौपाई 316.3:  करुणानिधान श्री रामचंद्रजी के दोनों ख़ड़ाऊँ प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार हैं। भरतजी के प्रेमरूपी रत्न के लिए मानो डिब्बा है और जीव के साधन के लिए मानो राम-नाम के दो अक्षर हैं॥3॥
 
2. चौपाई 316.4:  रघुकुल (की रक्षा) के लिए दो किवाड़ हैं। कुशल (श्रेष्ठ) कर्म करने के लिए दो हाथ की भाँति (सहायक) हैं और सेवा रूपी श्रेष्ठ धर्म के सुझाने के लिए निर्मल नेत्र हैं। भरतजी इस अवलंब के मिल जाने से परम आनंदित हैं। उन्हें ऐसा ही सुख हुआ, जैसा श्री सीता-रामजी के रहने से होता है॥4॥
 
2. दोहा 316:  भरतजी ने प्रणाम करके विदा माँगी, तब श्री रामचंद्रजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया। इधर कुटिल इंद्र ने बुरा मौका पाकर लोगों का उच्चाटन कर दिया॥316॥
 
2. चौपाई 317.1:  वह कुचाल भी सबके लिए हितकर हो गई। अवधि की आशा के समान ही वह जीवन के लिए संजीवनी हो गई। नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्ष्मणजी, सीताजी और श्री रामचंद्रजी के वियोग रूपी बुरे रोग से सब लोग घबड़ाकर (हाय-हाय करके) मर ही जाते॥1॥
 
2. चौपाई 317.2:  श्री रामजी की कृपा ने सारी उलझन सुधार दी। देवताओं की सेना जो लूटने आई थी, वही गुणदायक (हितकरी) और रक्षक बन गई। श्री रामजी भुजाओं में भरकर भाई भरत से मिल रहे हैं। श्री रामजी के प्रेम का वह रस (आनंद) कहते नहीं बनता॥2॥
 
2. चौपाई 317.3:  तन, मन और वचन तीनों में प्रेम उमड़ पड़ा। धीरज की धुरी को धारण करने वाले श्री रघुनाथजी ने भी धीरज त्याग दिया। वे कमल सदृश नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहाने लगे। उनकी यह दशा देखकर देवताओं की सभा (समाज) दुःखी हो गई॥3॥
 
2. चौपाई 317.4:  मुनिगण, गुरु वशिष्ठजी और जनकजी सरीखे धीरधुरन्धर जो अपने मनों को ज्ञान रूपी अग्नि में सोने के समान कस चुके थे, जिनको ब्रह्माजी ने निर्लेप ही रचा और जो जगत्‌ रूपी जल में कमल के पत्ते की तरह ही (जगत्‌ में रहते हुए भी जगत्‌ से अनासक्त) पैदा हुए॥4॥
 
2. दोहा 317:  वे भी श्री रामजी और भरतजी के उपमारहित अपार प्रेम को देखकर वैराग्य और विवेक सहित तन, मन, वचन से उस प्रेम में मग्न हो गए॥317॥
 
2. चौपाई 318.1:  जहाँ जनकजी और गुरु वशिष्ठजी की बुद्धि की गति कुण्ठित हो, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बड़ा दोष है। श्री रामचंद्रजी और भरतजी के वियोग का वर्णन करते सुनकर लोग कवि को कठोर हृदय समझेंगे॥1॥
 
2. चौपाई 318.2:  वह संकोच रस अकथनीय है। अतएव कवि की सुंदर वाणी उस समय उसके प्रेम को स्मरण करके सकुचा गई। भरतजी को भेंट कर श्री रघुनाथजी ने उनको समझाया। फिर हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगा लिया॥2॥
 
2. चौपाई 318.3:  सेवक और मंत्री भरतजी का रुख पाकर सब अपने-अपने काम में जा लगे। यह सुनकर दोनों समाजों में दारुण दुःख छा गया। वे चलने की तैयारियाँ करने लगे॥3॥
 
2. चौपाई 318.4:  प्रभु के चरणकमलों की वंदना करके तथा श्री रामजी की आज्ञा को सिर पर रखकर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले। मुनि, तपस्वी और वनदेवता सबका बार-बार सम्मान करके उनकी विनती की॥4॥
 
2. दोहा 318:  फिर लक्ष्मणजी को क्रमशः भेंटकर तथा प्रणाम करके और सीताजी के चरणों की धूलि को सिर पर धारण करके और समस्त मंगलों के मूल आशीर्वाद सुनकर वे प्रेमसहित चले॥318॥
 
2. चौपाई 319.1:  छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत श्री रामजी ने राजा जनकजी को सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकार से विनती और बड़ाई की (और कहा-) हे देव! दयावश आपने बहुत दुःख पाया। आप समाज सहित वन में आए॥1॥
 
2. चौपाई 319.2:  अब आशीर्वाद देकर नगर को पधारिए। यह सुन राजा जनकजी ने धीरज धरकर गमन किया। फिर श्री रामचंद्रजी ने मुनि, ब्राह्मण और साधुओं को विष्णु और शिव के समान जानकर सम्मान करके उनको विदा किया॥2॥
 
2. चौपाई 319.3:  तब श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाई सास (सुनयनाजी) के पास गए और उनके चरणों की वंदना करके आशीर्वाद पाकर लौट आए। फिर विश्वामित्र, वामदेव, जाबालि और शुभ आचरण वाले कुटुम्बी, नगर निवासी और मंत्री-॥3॥
 
2. चौपाई 319.4:  सबको छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित श्री रामचंद्रजी ने यथायोग्य विनय एवं प्रणाम करके विदा किया। कृपानिधान श्री रामचंद्रजी ने छोटे, मध्यम (मझले) और बड़े सभी श्रेणी के स्त्री-पुरुषों का सम्मान करके उनको लौटाया॥4॥
 
2. दोहा 319:  भरत की माता कैकेयी के चरणों की वंदना करके प्रभु श्री रामचंद्रजी ने पवित्र (निश्छल) प्रेम के साथ उनसे मिल-भेंट कर तथा उनके सारे संकोच और सोच को मिटाकर पालकी सजाकर उनको विदा किया॥319॥
 
2. चौपाई 320.1:  प्राणप्रिय पति श्री रामचंद्रजी के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नैहर के कुटुम्बियों से तथा माता-पिता से मिलकर लौट आईं। फिर प्रणाम करके सब सासुओं से गले लगकर मिलीं। उनके प्रेम का वर्णन करने के लिए कवि के हृदय में हुलास (उत्साह) नहीं होता॥1॥
 
2. चौपाई 320.2:  उनकी शिक्षा सुनकर और मनचाहा आशीर्वाद पाकर सीताजी सासुओं तथा माता-पिता दोनों ओर की प्रीति में समाई (बहुत देर तक निमग्न) रहीं! (तब) श्री रघुनाथजी ने सुंदर पालकियाँ मँगवाईं और सब माताओं को आश्वासन देकर उन पर चढ़ाया॥2॥
 
2. चौपाई 320.3:  दोनों भाइयों ने माताओं से समान प्रेम से बार-बार मिल-जुलकर उनको पहुँचाया। भरतजी और राजा जनकजी के दलों ने घोड़े, हाथी और अनेकों तरह की सवारियाँ सजाकर प्रस्थान किया॥3॥
 
2. चौपाई 320.4:  सीताजी एवं लक्ष्मणजी सहित श्री रामचंद्रजी को हृदय में रखकर सब लोग बेसुध हुए चले जा रहे हैं। बैल-घोड़े, हाथी आदि पशु हृदय में हारे (शिथिल) हुए परवश मन मारे चले जा रहे हैं॥4॥
 
2. दोहा 320:  गुरु वशिष्ठजी और गुरु पत्नी अरुन्धतीजी के चरणों की वंदना करके सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी हर्ष और विषाद के साथ लौटकर पर्णकुटी पर आए॥320॥
 
2. चौपाई 321.1:  फिर सम्मान करके निषादराज को विदा किया। वह चला तो सही, किन्तु उसके हृदय में विरह का भारी विषाद था। फिर श्री रामजी ने कोल, किरात, भील आदि वनवासी लोगों को लौटाया। वे सब जोहार-जोहार कर (वंदना कर-करके) लौटे॥1॥
 
2. चौपाई 321.2:  प्रभु श्री रामचंद्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी बड़ की छाया में बैठकर प्रियजन एवं परिवार के वियोग से दुःखी हो रहे हैं। भरतजी के स्नेह, स्वभाव और सुंदर वाणी को बखान-बखान कर वे प्रिय पत्नी सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी से कहने लगे॥2॥
 
2. चौपाई 321.3:  श्री रामचंद्रजी ने प्रेम के वश होकर भरतजी के वचन, मन, कर्म की प्रीति तथा विश्वास का अपने श्रीमुख से वर्णन किया। उस समय पक्षी, पशु और जल की मछलियाँ, चित्रकूट के सभी चेतन और जड़ जीव उदास हो गए॥3॥
 
2. चौपाई 321.4:  श्री रघुनाथजी की दशा देखकर देवताओं ने उन पर फूल बरसाकर अपनी घर-घर की दशा कही (दुखड़ा सुनाया)। प्रभु श्री रामचंद्रजी ने उन्हें प्रणाम कर आश्वासन दिया। तब वे प्रसन्न होकर चले, मन में जरा सा भी डर न रहा॥4॥
 
2. दोहा 321:  छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी समेत प्रभु श्री रामचंद्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो वैराग्य, भक्ति और ज्ञान शरीर धारण कर के शोभित हो रहे हों॥321॥
 
2. चौपाई 322.1:  मुनि, ब्राह्मण, गुरु वशिष्ठजी, भरतजी और राजा जनकजी सारा समाज श्री रामचन्द्रजी के विरह में विह्वल है। प्रभु के गुण समूहों का मन में स्मरण करते हुए सब लोग मार्ग में चुपचाप चले जा रहे हैं॥1॥
 
2. चौपाई 322.2:  (पहले दिन) सब लोग यमुनाजी उतरकर पार हुए। वह दिन बिना भोजन के ही बीत गया। दूसरा मुकाम गंगाजी उतरकर (गंगापार श्रृंगवेरपुर में) हुआ। वहाँ राम सखा निषादराज ने सब सुप्रबंध कर दिया॥2॥
 
2. चौपाई 322.3:  फिर सई उतरकर गोमतीजी में स्नान किया और चौथे दिन सब अयोध्याजी जा पहुँचे। जनकजी चार दिन अयोध्याजी में रहे और राजकाज एवं सब साज-सामान को सम्हालकर,॥3॥
 
2. चौपाई 322.4:  तथा मंत्री, गुरुजी तथा भरतजी को राज्य सौंपकर, सारा साज-सामान ठीक करके तिरहुत को चले। नगर के स्त्री-पुरुष गुरुजी की शिक्षा मानकर श्री रामजी की राजधानी अयोध्याजी में सुखपूर्वक रहने लगे॥4॥
 
2. दोहा 322:  सब लोग श्री रामचन्द्रजी के दर्शन के लिए नियम और उपवास करने लगे। वे भूषण और भोग-सुखों को छोड़-छाड़कर अवधि की आशा पर जी रहे हैं॥322॥
 
2. चौपाई 323.1:  भरतजी ने मंत्रियों और विश्वासी सेवकों को समझाकर उद्यत किया। वे सब सीख पाकर अपने-अपने काम में लग गए। फिर छोटे भाई शत्रुघ्नजी को बुलाकर शिक्षा दी और सब माताओं की सेवा उनको सौंपी॥1॥
 
2. चौपाई 323.2:  ब्राह्मणों को बुलाकर भरतजी ने हाथ जोड़कर प्रणाम कर अवस्था के अनुसार विनय और निहोरा किया कि आप लोग ऊँचा-नीचा (छोटा-बड़ा), अच्छा-मन्दा जो कुछ भी कार्य हो, उसके लिए आज्ञा दीजिएगा। संकोच न कीजिएगा॥2॥
 
2. चौपाई 323.3:  भरतजी ने फिर परिवार के लोगों को, नागरिकों को तथा अन्य प्रजा को बुलाकर, उनका समाधान करके उनको सुखपूर्वक बसाया। फिर छोटे भाई शत्रुघ्नजी सहित वे गुरुजी के घर गए और दंडवत करके हाथ जोड़कर बोले-॥3॥
 
2. चौपाई 323.4:  आज्ञा हो तो मैं नियमपूर्वक रहूँ! मुनि वशिष्ठजी पुलकित शरीर हो प्रेम के साथ बोले- हे भरत! तुम जो कुछ समझोगे, कहोगे और करोगे, वही जगत में धर्म का सार होगा॥4॥
 
2. दोहा 323:  भरतजी ने यह सुनकर और शिक्षा तथा बड़ा आशीर्वाद पाकर ज्योतिषियों को बुलाया और दिन (अच्छा मुहूर्त) साधकर प्रभु की चरणपादुकाओं को निर्विघ्नतापूर्वक सिंहासन पर विराजित कराया॥323॥
 
2. चौपाई 324.1:  फिर श्री रामजी की माता कौसल्याजी और गुरुजी के चरणों में सिर नवाकर और प्रभु की चरणपादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्म की धुरी धारण करने में धीर भरतजी ने नन्दिग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसी में निवास किया॥1॥
 
2. चौपाई 324.2:  सिर पर जटाजूट और शरीर में मुनियों के (वल्कल) वस्त्र धारण कर, पृथ्वी को खोदकर उसके अंदर कुश की आसनी बिछाई। भोजन, वस्त्र, बरतन, व्रत, नियम सभी बातों में वे ऋषियों के कठिन धर्म का प्रेम सहित आचरण करने लगे॥2॥
 
2. चौपाई 324.3:  गहने-कपड़े और अनेकों प्रकार के भोग-सुखों को मन, तन और वचन से तृण तोड़कर (प्रतिज्ञा करके) त्याग दिया। जिस अयोध्या के राज्य को देवराज इन्द्र सिहाते थे और (जहाँ के राजा) दशरथजी की सम्पत्ति सुनकर कुबेर भी लजा जाते थे,॥3॥
 
2. चौपाई 324.4:  उसी अयोध्यापुरी में भरतजी अनासक्त होकर इस प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चम्पा के बाग में भौंरा। श्री रामचन्द्रजी के प्रेमी बड़भागी पुरुष लक्ष्मी के विलास (भोगैश्वर्य) को वमन की भाँति त्याग देते हैं (फिर उसकी ओर ताकते भी नहीं)॥4॥
 
2. दोहा 324:  फिर भरतजी तो (स्वयं) श्री रामचन्द्रजी के प्रेम के पात्र हैं। वे इस (भोगैश्वर्य त्याग रूप) करनी से बड़े नहीं हुए (अर्थात उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है)। (पृथ्वी पर का जल न पीने की) टेक से चातक की और नीर-क्षीर-विवेक की विभूति (शक्ति) से हंस की भी सराहना होती है॥324॥
 
2. चौपाई 325.1:  भरतजी का शरीर दिनों-दिन दुबला होता जाता है। तेज (अन्न, घृत आदि से उत्पन्न होने वाला मेद*) घट रहा है। बल और मुख छबि (मुख की कान्ति अथवा शोभा) वैसी ही बनी हुई है। राम प्रेम का प्रण नित्य नया और पुष्ट होता है, धर्म का दल बढ़ता है और मन उदास नहीं है (अर्थात प्रसन्न है)॥1॥ * संस्कृत कोष में ‘तेज’ का अर्थ मेद मिलता है और यह अर्थ लेने से ‘घटइ’ के अर्थ में भी किसी प्रकार की खींच-तान नहीं करनी पड़ती।
 
2. चौपाई 325.2:  जैसे शरद ऋतु के प्रकाश (विकास) से जल घटता है, किन्तु बेंत शोभा पाते हैं और कमल विकसित होते हैं। शम, दम, संयम, नियम और उपवास आदि भरतजी के हृदयरूपी निर्मल आकाश के नक्षत्र (तारागण) हैं॥2॥
 
2. चौपाई 325.3:  विश्वास ही (उस आकाश में) ध्रुव तारा है, चौदह वर्ष की अवधि (का ध्यान) पूर्णिमा के समान है और स्वामी श्री रामजी की सुरति (स्मृति) आकाशगंगा सरीखी प्रकाशित है। राम प्रेम ही अचल (सदा रहने वाला) और कलंकरहित चन्द्रमा है। वह अपने समाज (नक्षत्रों) सहित नित्य सुंदर सुशोभित है॥3॥
 
2. चौपाई 325.4:  भरतजी की रहनी, समझ, करनी, भक्ति, वैराग्य, निर्मल, गुण और ऐश्वर्य का वर्णन करने में सभी सुकवि सकुचाते हैं, क्योंकि वहाँ (औरों की तो बात ही क्या) स्वयं शेष, गणेश और सरस्वती की भी पहुँच नहीं है॥4॥
 
2. दोहा 325:  वे नित्य प्रति प्रभु की पादुकाओं का पूजन करते हैं, हृदय में प्रेम समाता नहीं है। पादुकाओं से आज्ञा माँग-माँगकर वे बहुत प्रकार (सब प्रकार के) राज-काज करते हैं॥325॥
 
2. चौपाई 326.1:  शरीर पुलकित है, हृदय में श्री सीता-रामजी हैं। जीभ राम नाम जप रही है, नेत्रों में प्रेम का जल भरा है। लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी तो वन में बसते हैं, परन्तु भरतजी घर ही में रहकर तप के द्वारा शरीर को कस रहे हैं॥1॥
 
2. चौपाई 326.2:  दोनों ओर की स्थिति समझकर सब लोग कहते हैं कि भरतजी सब प्रकार से सराहने योग्य हैं। उनके व्रत और नियमों को सुनकर साधु-संत भी सकुचा जाते हैं और उनकी स्थिति देखकर मुनिराज भी लज्जित होते हैं॥2॥
 
2. चौपाई 326.3:  भरतजी का परम पवित्र आचरण (चरित्र) मधुर, सुंदर और आनंद-मंगलों का करने वाला है। कलियुग के कठिन पापों और क्लेशों को हरने वाला है। महामोह रूपी रात्रि को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है॥3॥
 
2. चौपाई 326.4:  पाप समूह रूपी हाथी के लिए सिंह है। सारे संतापों के दल का नाश करने वाला है। भक्तों को आनंद देने वाला और भव के भार (संसार के दुःख) का भंजन करने वाला तथा श्री राम प्रेम रूपी चन्द्रमा का सार (अमृत) है॥4॥
 
2. छंद 326.1:  श्री सीतारामजी के प्रेमरूपी अमृत से परिपूर्ण भरतजी का जन्म यदि न होता, तो मुनियों के मन को भी अगम यम, नियम, शम, दम आदि कठिन व्रतों का आचरण कौन करता? दुःख, संताप, दरिद्रता, दम्भ आदि दोषों को अपने सुयश के बहाने कौन हरण करता? तथा कलिकाल में तुलसीदास जैसे शठों को हठपूर्वक कौन श्री रामजी के सम्मुख करता?
 
2. सोरठा 326:  तुलसीदासजी कहते हैं- जो कोई भरतजी के चरित्र को नियम से आदरपूर्वक सुनेंगे, उनको अवश्य ही श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रेम होगा और सांसारिक विषय रस से वैराग्य होगा॥326॥
 
2. मासपारायण 21:  इक्कीसवाँ विश्राम
 
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  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥