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मासपारायण 28: अट्ठाईसवाँ विश्राम (काण्ड 7 से)
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7. श्लोक 1: मोर के कण्ठ की आभा के समान (हरिताभ) नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण (भृगुजी) के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित, शोभा से पूर्ण, पीताम्बरधारी, कमल नेत्र, सदा परम प्रसन्न, हाथों में बाण और धनुष धारण किए हुए, वानर समूह से युक्त भाई लक्ष्मणजी से सेवित, स्तुति किए जाने योग्य, श्री जानकीजी के पति, रघुकुल श्रेष्ठ, पुष्पक विमान पर सवार श्री रामचंद्रजी को मैं निरंतर नमस्कार करता हूँ॥1॥ |
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7. श्लोक 2: कोसलपुरी के स्वामी श्री रामचंद्रजी के सुंदर और कोमल दोनों चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी द्वारा वन्दित हैं, श्री जानकीजी के करकमलों से दुलराए हुए हैं और चिन्तन करने वाले के मन रूपी भौंरे के नित्य संगी हैं अर्थात् चिन्तन करने वालों का मन रूपी भ्रमर सदा उन चरणकमलों में बसा रहता है॥2॥ |
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7. श्लोक 3: कुन्द के फूल, चंद्रमा और शंख के समान सुंदर गौरवर्ण, जगज्जननी श्री पार्वतीजी के पति, वान्छित फल के देने वाले, (दुखियों पर सदा), दया करने वाले, सुंदर कमल के समान नेत्र वाले, कामदेव से छुड़ाने वाले (कल्याणकारी) श्री शंकरजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥3॥ |
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7. दोहा 0a: श्री रामजी के लौटने की अवधि का एक ही दिन बाकी रह गया, अतएव नगर के लोग बहुत आतुर (अधीर) हो रहे हैं। राम के वियोग में दुबले हुए स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ सोच (विचार) कर रहे हैं (कि क्या बात है श्री रामजी क्यों नहीं आए)। |
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7. दोहा 0b: इतने में सब सुंदर शकुन होने लगे और सबके मन प्रसन्न हो गए। नगर भी चारों ओर से रमणीक हो गया। मानो ये सब के सब चिह्न प्रभु के (शुभ) आगमन को जना रहे हैं। |
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7. दोहा 0c: कौसल्या आदि सब माताओं के मन में ऐसा आनंद हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी आ गए। |
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7. दोहा 0d: भरतजी की दाहिनी आँख और दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके मन में अत्यंत हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे- |
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7. चौपाई 1a.1: प्राणों की आधार रूप अवधि का एक ही दिन शेष रह गया। यह सोचते ही भरतजी के मन में अपार दुःख हुआ। क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आए? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया?॥1॥ |
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7. चौपाई 1a.2: अहा हा! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं, जो श्री रामचंद्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं (अर्थात् उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया॥2॥ |
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7. चौपाई 1a.3: (बात भी ठीक ही है, क्योंकि) यदि प्रभु मेरी करनी पर ध्यान दें तो सौ करोड़ (असंख्य) कल्पों तक भी मेरा निस्तार (छुटकारा) नहीं हो सकता (परंतु आशा इतनी ही है कि), प्रभु सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबंधु हैं और अत्यंत ही कोमल स्वभाव के हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 1a.4: अतएव मेरे हृदय में ऐसा पक्का भरोसा है कि श्री रामजी अवश्य मिलेंगे, (क्योंकि) मुझे शकुन बड़े शुभ हो रहे हैं, किंतु अवधि बीत जाने पर यदि मेरे प्राण रह गए तो जगत् में मेरे समान नीच कौन होगा? ॥4॥ |
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7. दोहा 1a: श्री रामजी के विरह समुद्र में भरतजी का मन डूब रहा था, उसी समय पवनपुत्र हनुमान्जी ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ गए, मानो (उन्हें डूबने से बचाने के लिए) नाव आ गई हो॥1 (क)॥ |
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7. दोहा 1b: हनुमान्जी ने दुर्बल शरीर भरतजी को जटाओं का मुकुट बनाए, राम! राम! रघुपति! जपते और कमल के समान नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं) का जल बहाते कुश के आसन पर बैठे देखा॥1 (ख)॥ |
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7. चौपाई 2a.1: उन्हें देखते ही हनुमान्जी अत्यंत हर्षित हुए। उनका शरीर पुलकित हो गया, नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बरसने लगा। मन में बहुत प्रकार से सुख मानकर वे कानों के लिए अमृत के समान वाणी बोले-॥1॥ |
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7. चौपाई 2a.2: जिनके विरह में आप दिन-रात सोच करते (घुलते) रहते हैं और जिनके गुण समूहों की पंक्तियों को आप निरंतर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को ‘सुख’ देने वाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक श्री रामजी सकुशल आ गए॥2॥ |
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7. चौपाई 2a.3: शत्रु को रण में जीतकर सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु आ रहे हैं, देवता उनका सुंदर यश गा रहे हैं। ये वचन सुनते ही (भरतजी को) सारे दुःख भूल गए। जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यास के दुःख को भूल जाए॥3॥ |
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7. चौपाई 2a.4: (भरतजी ने पूछा-) हे तात! तुम कौन हो? और कहाँ से आए हो? (जो) तुमने मुझको (ये) परम प्रिय (अत्यंत आनंद देने वाले) वचन सुनाए। (हनुमान्जी ने कहा) हे कृपानिधान! सुनिए, मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूँ, मेरा नाम हनुमान् है॥4॥ |
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7. चौपाई 2a.5: मैं दीनों के बंधु श्री रघुनाथजी का दास हूँ। यह सुनते ही भरतजी उठकर आदरपूर्वक हनुमान्जी से गले लगकर मिले। मिलते समय प्रेम हृदय में नहीं समाता। नेत्रों से (आनंद और प्रेम के आँसुओं का) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया॥5॥ |
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7. चौपाई 2a.6: (भरतजी ने कहा-) हे हनुमान्- तुम्हारे दर्शन से मेरे समस्त दुःख समाप्त हो गए (दुःखों का अंत हो गया)। (तुम्हारे रूप में) आज मुझे प्यारे रामजी ही मिल गए। भरतजी ने बार-बार कुशल पूछी (और कहा-) हे भाई! सुनो, (इस शुभ संवाद के बदले में) तुम्हें क्या दूँ?॥6॥ |
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7. चौपाई 2a.7: इस संदेश के समान (इसके बदले में देने लायक पदार्थ) जगत् में कुछ भी नहीं है, मैंने यह विचार कर देख लिया है। (इसलिए) हे तात! मैं तुमसे किसी प्रकार भी उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभु का चरित्र (हाल) सुनाओ॥7॥ |
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7. चौपाई 2a.8: तब हनुमान्जी ने भरतजी के चरणों में मस्तक नवाकर श्री रघुनाथजी की सारी गुणगाथा कही। (भरतजी ने पूछा-) हे हनुमान्! कहो, कृपालु स्वामी श्री रामचंद्रजी कभी मुझे अपने दास की तरह याद भी करते हैं?॥8॥ |
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7. छंद 2a.1: रघुवंश के भूषण श्री रामजी क्या कभी अपने दास की भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं? भरतजी के अत्यंत नम्र वचन सुनकर हनुमान्जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणों पर गिर पड़े (और मन में विचारने लगे कि) जो चराचर के स्वामी हैं, वे श्री रघुवीर अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं, वे भरतजी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों? |
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7. दोहा 2a: (हनुमान्जी ने कहा-) हे नाथ! आप श्री रामजी को प्राणों के समान प्रिय हैं, हे तात! मेरा वचन सत्य है। यह सुनकर भरतजी बार-बार मिलते हैं, हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥2 (क)॥ |
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7. सोरठा 2b: फिर भरतजी के चरणों में सिर नवाकर हनुमान्जी तुरंत ही श्री रामजी के पास (लौट) गए और जाकर उन्होंने सब कुशल कही। तब प्रभु हर्षित होकर विमान पर चढ़कर चले॥2 (ख)॥ |
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7. चौपाई 3a.1: इधर भरतजी भी हर्षित होकर अयोध्यापुरी में आए और उन्होंने गुरुजी को सब समाचार सुनाया! फिर राजमहल में खबर जनाई कि श्री रघुनाथजी कुशलपूर्वक नगर को आ रहे हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 3a.2: खबर सुनते ही सब माताएँ उठ दौड़ीं। भरतजी ने प्रभु की कुशल कहकर सबको समझाया। नगर निवासियों ने यह समाचार पाया, तो स्त्री-पुरुष सभी हर्षित होकर दौड़े॥2॥ |
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7. चौपाई 3a.3: (श्री रामजी के स्वागत के लिए) दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मंगल के मूल नवीन तुलसीदल आदि वस्तुएँ सोने की थाली में भर-भरकर हथिनी की सी चाल वाली सौभाग्यवती स्त्रियाँ (उन्हें लेकर) गाती हुई चलीं॥3॥ |
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7. चौपाई 3a.4: जो जैसे हैं (जहाँ जिस दशा में हैं) वे वैसे ही (वहीं से उसी दशा में) उठ दौड़ते हैं। (देर हो जाने के डर से) बालकों और बूढ़ों को कोई साथ नहीं लाते। एक-दूसरे से पूछते हैं- भाई! तुमने दयालु श्री रघुनाथजी को देखा है?॥4॥ |
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7. चौपाई 3a.5: प्रभु को आते जानकर अवधपुरी संपूर्ण शोभाओं की खान हो गई। तीनों प्रकार की सुंदर वायु बहने लगी। सरयूजी अति निर्मल जल वाली हो गईं। (अर्थात् सरयूजी का जल अत्यंत निर्मल हो गया)॥5॥ |
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7. दोहा 3a: गुरु वशिष्ठजी, कुटुम्बी, छोटे भाई शत्रुघ्न तथा ब्राह्मणों के समूह के साथ हर्षित होकर भरतजी अत्यंत प्रेमपूर्ण मन से कृपाधाम श्री रामजी के सामने अर्थात् उनकी अगवानी के लिए चले॥3 (क)॥ |
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7. दोहा 3b: बहुत सी स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ीं आकाश में विमान देख रही हैं और उसे देखकर हर्षित होकर मीठे स्वर से सुंदर मंगल गीत गा रही हैं॥3 (ख)॥ |
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7. दोहा 3c: श्री रघुनाथजी पूर्णिमा के चंद्रमा हैं तथा अवधपुर समुद्र है, जो उस पूर्णचंद्र को देखकर हर्षित हो रहा है और शोर करता हुआ बढ़ रहा है (इधर-उधर दौड़ती हुई) स्त्रियाँ उसकी तरंगों के समान लगती हैं॥3 (ग)॥ |
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7. चौपाई 4a.1: यहाँ (विमान पर से) सूर्य कुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामजी वानरों को मनोहर नगर दिखला रहे हैं। (वे कहते हैं-) हे सुग्रीव! हे अंगद! हे लंकापति विभीषण! सुनो। यह पुरी पवित्र है और यह देश सुंदर है॥1॥ |
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7. चौपाई 4a.2: यद्यपि सबने वैकुण्ठ की बड़ाई की है- यह वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत् जानता है, परंतु अवधपुरी के समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है। यह बात (भेद) कई-कोई (बिरले ही) जानते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 4a.3: यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है। इसके उत्तर दिशा में जीवों को पवित्र करने वाली सरयू नदी बहती है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य बिना ही परिश्रम मेरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 4a.4: यहाँ के निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधाम को देने वाली है। प्रभु की वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए (और कहने लगे कि) जिस अवध की स्वयं श्री रामजी ने बड़ाई की, वह (अवश्य ही) धन्य है॥4॥ |
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7. दोहा 4a: कृपा सागर भगवान् श्री रामचंद्रजी ने सब लोगों को आते देखा, तो प्रभु ने विमान को नगर के समीप उतरने की प्रेरणा की। तब वह पृथ्वी पर उतरा॥4 (क)॥ |
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7. दोहा 4b: विमान से उतरकर प्रभु ने पुष्पक विमान से कहा कि तुम अब कुबेर के पास जाओ। श्री रामचंद्रजी की प्रेरणा से वह चला, उसे (अपने स्वामी के पास जाने का) हर्ष है और प्रभु श्री रामचंद्रजी से अलग होने का अत्यंत दुःख भी॥4 (ख)॥ |
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7. चौपाई 5.1: भरतजी के साथ सब लोग आए। श्री रघुवीर के वियोग से सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभु ने वामदेव, वशिष्ठ आदि मुनिश्रेष्ठों को देखा, तो उन्होंने धनुष-बाण पृथ्वी पर रखकर-॥1॥ |
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7. चौपाई 5.2: छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित दौड़कर गुरुजी के चरणकमल पकड़ लिए, उनके रोम-रोम अत्यंत पुलकित हो रहे हैं। मुनिराज वशिष्ठजी ने (उठाकर) उन्हें गले लगाकर कुशल पूछी। (प्रभु ने कहा-) आप ही की दया में हमारी कुशल है॥2॥ |
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7. चौपाई 5.3: धर्म की धुरी धारण करने वाले रघुकुल के स्वामी श्री रामजी ने सब ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें मस्तक नवाया। फिर भरतजी ने प्रभु के वे चरणकमल पकड़े जिन्हें देवता, मुनि, शंकरजी और ब्रह्माजी (भी) नमस्कार करते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 5.4: भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं, उठाए उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्री रामजी ने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। (उनके) साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए। नवीन कमल के समान नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं के) जल की बाढ़ आ गई॥4॥ |
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7. छंद 5.1: कमल के समान नेत्रों से जल बह रहा है। सुंदर शरीर में पुलकावली (अत्यंत) शोभा दे रही है। त्रिलोकी के स्वामी प्रभु श्री रामजी छोटे भाई भरतजी को अत्यंत प्रेम से हृदय से लगाकर मिले। भाई से मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं, उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती। मानो प्रेम और श्रृंगार शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त हुए॥1॥ |
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7. छंद 5.2: कृपानिधान श्री रामजी भरतजी से कुशल पूछते हैं, परंतु आनंदवश भरतजी के मुख से वचन शीघ्र नहीं निकलते। (शिवजी ने कहा-) हे पार्वती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजी को मिल रहा था) वचन और मन से परे है, उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरतजी ने कहा-) हे कोसलनाथ! आपने आर्त्त (दुःखी) जानकर दास को दर्शन दिए, इससे अब कुशल है। विरह समुद्र में डूबते हुए मुझको कृपानिधान ने हाथ पकड़कर बचा लिया!॥2॥ |
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7. दोहा 5: फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले॥।5॥ |
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7. चौपाई 6a.1: फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्नजी से गले लगकर मिले और इस प्रकार विरह से उत्पन्न दुःसह दुःख का नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी ने सीताजी के चरणों में सिर नवाया और परम सुख प्राप्त किया॥1॥ |
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7. चौपाई 6a.2: प्रभु को देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए। वियोग से उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गए। सब लोगों को प्रेम विह्नल (और मिलने के लिए अत्यंत आतुर) देखकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी ने एक चमत्कार किया॥2॥ |
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7. चौपाई 6a.3: उसी समय कृपालु श्री रामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गए और सबसे (एक ही साथ) यथायोग्य मिले। श्री रघुवीर ने कृपा की दृष्टि से देखकर सब नर-नारियों को शोक से रहित कर दिया॥3॥ |
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7. चौपाई 6a.4: भगवान् क्षण मात्र में सबसे मिल लिए। हे उमा! यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। इस प्रकार शील और गुणों के धाम श्री रामजी सबको सुखी करके आगे बढ़े॥4॥ |
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7. चौपाई 6a.5: कौसल्या आदि माताएँ ऐसे दौड़ीं मानों नई ब्यायी हुई गायें अपने बछड़ों को देखकर दौड़ी हों॥5॥ |
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7. छंद 6a.1: मानो नई ब्यायी हुई गायें अपने छोटे बछड़ों को घर पर छोड़ परवश होकर वन में चरने गई हों और दिन का अंत होने पर (बछड़ों से मिलने के लिए) हुँकार करके थन से दूध गिराती हुईं नगर की ओर दौड़ी हों। प्रभु ने अत्यंत प्रेम से सब माताओं से मिलकर उनसे बहुत प्रकार के कोमल वचन कहे। वियोग से उत्पन्न भयानक विपत्ति दूर हो गई और सबने (भगवान् से मिलकर और उनके वचन सुनकर) अगणित सुख और हर्ष प्राप्त किए। |
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7. दोहा 6a: सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजी की श्री रामजी के चरणों में प्रीति जानकर उनसे मिलीं। श्री रामजी से मिलते समय कैकेयीजी हृदय में बहुत सकुचाईं॥6 (क)॥ |
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7. दोहा 6b: लक्ष्मणजी भी सब माताओं से मिलकर और आशीर्वाद पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयीजी से बार-बार मिले, परंतु उनके मन का क्षोभ (रोष) नहीं जाता॥6 (ख)॥ |
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7. चौपाई 7.1: जानकीजी सब सासुओं से मिलीं और उनके चरणों में लगकर उन्हें अत्यंत हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल पूछकर आशीष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो॥1॥ |
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7. चौपाई 7.2: सब माताएँ श्री रघुनाथजी का कमल सा मुखड़ा देख रही हैं। (नेत्रों से प्रेम के आँसू उमड़े आते हैं, परंतु) मंगल का समय जानकर वे आँसुओं के जल को नेत्रों में ही रोक रखती हैं। सोने के थाल से आरती उतारती हैं और बार-बार प्रभु के श्री अंगों की ओर देखती हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 7.3: अनेकों प्रकार से निछावरें करती हैं और हृदय में परमानंद तथा हर्ष भर रही हैं। कौसल्याजी बार-बार कृपा के समुद्र और रणधीर श्री रघुवीर को देख रही हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 7.4: वे बार-बार हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने लंकापति रावण को कैसे मारा? मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो ब़ड़े भारी योद्धा और महान् बली थे॥4॥ |
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7. दोहा 7: लक्ष्मणजी और सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी को माता देख रही हैं। उनका मन परमानंद में मग्न है और शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥7॥ |
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7. चौपाई 8a.1: लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान् और अंगद तथा हनुमान्जी आदि सभी उत्तम स्वभाव वाले वीर वानरों ने मनुष्यों के मनोहर शरीर धारण कर लिए॥1॥ |
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7. चौपाई 8a.2: वे सब भरतजी के प्रेम, सुंदर, स्वभाव (त्याग के) व्रत और नियमों की अत्यंत प्रेम से आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं और नगर वासियों की (प्रेम, शील और विनय से पूर्ण) रीति देखकर वे सब प्रभु के चरणों में उनके प्रेम की सराहना कर रहे हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 8a.3: फिर श्री रघुनाथजी ने सब सखाओं को बुलाया और सबको सिखाया कि मुनि के चरणों में लगो। ये गुरु वशिष्ठजी हमारे कुलभर के पूज्य हैं। इन्हीं की कृपा से रण में राक्षस मारे गए हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 8a.4: (फिर गुरुजी से कहा-) हे मुनि! सुनिए। ये सब मेरे सखा हैं। ये संग्राम रूपी समुद्र में मेरे लिए बेड़े (जहाज) के समान हुए। मेरे हित के लिए इन्होंने अपने जन्म तक हार दिए (अपने प्राणों तक को होम दिया) ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं॥4॥ |
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7. चौपाई 8a.5: प्रभु के वचन सुनकर सब प्रेम और आनंद में मग्न हो गए। इस प्रकार पल-पल में उन्हें नए-नए सुख उत्पन्न हो रहे हैं॥5॥ |
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7. दोहा 8a: फिर उन लोगों ने कौसल्याजी के चरणों में मस्तक नवाए। कौसल्याजी ने हर्षित होकर आशीषें दीं (और कहा-) तुम मुझे रघुनाथ के समान प्यारे हो॥8 (क)॥ |
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7. दोहा 8b: आनन्दकन्द श्री रामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया। नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं॥8 (ख)॥ |
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7. चौपाई 9a.1: सोने के कलशों को विचित्र रीति से (मणि-रत्नादि से) अलंकृत कर और सजाकर सब लोगों ने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगल के लिए बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगाईं॥1॥ |
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7. चौपाई 9a.2: सारी गलियाँ सुगंधित द्रवों से सिंचाई गईं। गजमुक्ताओं से रचकर बहुत सी चौकें पुराई गईं। अनेकों प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में बहुत से डंके बजने लगे॥2॥ |
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7. चौपाई 9a.3: स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ निछावर कर रही हैं और हृदय में हर्षित होकर आशीर्वाद देती हैं। बहुत सी युवती (सौभाग्यवती) स्त्रियाँ सोने के थालों में अनेकों प्रकार की आरती सजाकर मंगलगान कर रही हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 9a.4: वे आर्तिहर (दुःखों को हरने वाले) और सूर्यकुल रूपी कमलवन को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामजी की आरती कर रही हैं। नगर की शोभा, संपत्ति और कल्याण का वेद, शेषजी और सरस्वतीजी वर्णन करते हैं-॥4॥ |
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7. चौपाई 9a.5: परंतु वे भी यह चरित्र देखकर ठगे से रह जाते हैं (स्तम्भित हो रहते हैं)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! तब भला मनुष्य उनके गुणों को कैसे कह सकते हैं॥5॥ |
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7. दोहा 9a: स्त्रियाँ कुमुदनी हैं, अयोध्या सरोवर है और श्री रघुनाथजी का विरह सूर्य है (इस विरह सूर्य के ताप से वे मुरझा गई थीं)। अब उस विरह रूपी सूर्य के अस्त होने पर श्री राम रूपी पूर्णचन्द्र को निरखकर वे खिल उठीं॥9 (क)॥ |
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7. दोहा 9b: अनेक प्रकार के शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाश में नगाड़े बज रहे हैं। नगर के पुरुषों और स्त्रियों को सनाथ (दर्शन द्वारा कृतार्थ) करके भगवान् श्री रामचंद्रजी महल को चले॥9 (ख)॥ |
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7. चौपाई 10a.1: (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! प्रभु ने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गई हैं (इसलिए), वे पहले उन्हीं के महल को गए और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर श्री हरि ने अपने महल को गमन किया॥1॥ |
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7. चौपाई 10a.2: कृपा के समुद्र श्री रामजी जब अपने महल को गए, तब नगर के स्त्री-पुरुष सब सुखी हुए। गुरु वशिष्ठजी ने ब्राह्मणों को बुला लिया और कहा आज शुभ घड़ी, सुंदर दिन आदि सभी शुभ योग हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 10a.3: आप सब ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिए, जिसमें श्री रामचंद्रजी सिंहासन पर विराजमान हों। वशिष्ठ मुनि के सुहावने वचन सुनते ही सब ब्राह्मणों को बहुत ही अच्छे लगे॥3॥ |
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7. चौपाई 10a.4: वे सब अनेकों ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि श्री रामजी का राज्याभिषेक संपूर्ण जगत को आनंद देने वाला है। हे मुनिश्रेष्ठ! अब विलंब न कीजिए और महाराज का तिलक शीघ्र कीजिए॥4॥ |
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7. दोहा 10a: तब मुनि ने सुमन्त्रजी से कहा, वे सुनते ही हर्षित होकर चले। उन्होंने तुरंत ही जाकर अनेकों रथ, घोड़े और हाथी सजाए,॥10 (क)॥ |
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7. दोहा 10b: और जहाँ-तहाँ (सूचना देने वाले) दूतों को भेजकर मांगलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर हर्ष के साथ आकर वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया॥10 (ख)॥ |
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7. चौपाई 11a.1: अवधपुरी बहुत ही सुंदर सजाई गई। देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी। श्री रामचंद्रजी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ॥1॥ |
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7. चौपाई 11a.2: भगवान् के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ दौड़े और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया। फिर करुणानिधान श्री रामजी ने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओं को अपने हाथों से सुलझाया॥2॥ |
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7. चौपाई 11a.3: तदनन्तर भक्त वत्सल कृपालु प्रभु श्री रघुनाथजी ने तीनों भाइयों को स्नान कराया। भरतजी का भाग्य और प्रभु की कोमलता का वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते॥3॥ |
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7. चौपाई 11a.4: फिर श्री रामजी ने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजी की आज्ञा माँगकर स्नान किया। स्नान करके प्रभु ने आभूषण धारण किए। उनके (सुशोभित) अंगों को देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गए॥4॥ |
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7. दोहा 11a: (इधर) सासुओं ने जानकीजी को आदर के साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अंग-अंग में दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भली-भाँति सजा दिए (पहना दिए)॥ 11 (क)॥ |
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7. दोहा 11b: श्री राम के बायीं ओर रूप और गुणों की खान रमा (श्री जानकीजी) शोभित हो रही हैं। उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं॥11 (ख)॥ |
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7. दोहा 11c: (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, उस समय ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियों के समूह तथा विमानों पर चढ़कर सब देवता आनंदकंद भगवान् के दर्शन करने के लिए आए॥11 (ग)॥ |
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7. चौपाई 12a.1: प्रभु को देखकर मुनि वशिष्ठजी के मन में प्रेम भर आया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्य के समान था। उसका सौंदर्य वर्णन नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्री रामचंद्रजी उस पर विराज गए॥1॥ |
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7. चौपाई 12a.2: श्री जानकीजी के सहित रघुनाथजी को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ। तब ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों का उच्चारण किया। आकाश में देवता और मुनि ‘जय, हो, जय हो’ ऐसी पुकार करने लगे॥2॥ |
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7. चौपाई 12a.3: (सबसे) पहले मुनि वशिष्ठजी ने तिलक किया। फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को (तिलक करने की) आज्ञा दी। पुत्र को राजसिंहासन पर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी॥3॥ |
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7. चौपाई 12a.4: उन्होंने ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए और संपूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया)। त्रिभुवन के स्वामी श्री रामचंद्रजी को (अयोध्या के) सिंहासन पर (विराजित) देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए॥4॥ |
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7. छंद 12a.1: आकाश में बहुत से नगाड़े बज रहे हैं। गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराओं के झुंड के झुंड नाच रहे हैं। देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी, विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदि सहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिए हुए सुशोभित हैं॥1॥ |
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7. छंद 12a.2: श्री सीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्री रामजी के शरीर में अनेकों कामदेवों की छबि शोभा दे रही है। नवीन जलयुक्त मेघों के समान सुंदर श्याम शरीर पर पीताम्बर देवताओं के मन को भी मोहित कर रहा है। मुकुट, बाजूबंद आदि विचित्र आभूषण अंग-अंग में सजे हुए हैं। कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं॥2॥ |
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7. दोहा 12a: हे पक्षीराज गरुड़जी ! वह शोभा, वह समाज और वह सुख मुझसे कहते नहीं बनता। सरस्वतीजी, शेषजी और वेद निरंतर उसका वर्णन करते हैं, और उसका रस (आनंद) महादेवजी ही जानते हैं॥12 (क)॥ |
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7. दोहा 12b: सब देवता अलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गए। तब भाटों का रूप धारण करके चारों वेद वहाँ आए जहाँ श्री रामजी थे॥12 (ख)॥ |
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7. दोहा 12c: कृपानिधान सर्वज्ञ प्रभु ने (उन्हें पहचानकर) उनका बहुत ही आदर किया। इसका भेद किसी ने कुछ भी नहीं जाना। वेद गुणगान करने लगे॥12 (ग)॥ |
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7. छंद 13a.1: सगुण और निर्गुण रूप! हे अनुपम रूप-लावण्ययुक्त! हे राजाओं के शिरोमणि! आपकी जय हो। आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला। आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर दिया। हे दयालु! हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो! आपकी जय हो। मैं शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान् आपको नमस्कार करता हूँ॥1॥ |
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7. छंद 13a.2: हे हरे! आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए) दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं। हे नाथ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टि) से देख लिया, वे (माया जनित) तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए। हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्री रामजी! हमारी रक्षा कीजिए। हम आपको नमस्कार करते हैं॥2॥ |
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7. छंद 13a.3: जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को हरने वाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देव-दुर्लभ (देवताओं को भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होने वाले, ब्रह्मा आदि के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं (परंतु), जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाते हैं। हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं॥3॥ |
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7. छंद 13a.4: जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द! हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं॥4॥ |
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7. छंद 13a.5: वेद शास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है, जो (प्रवाह रूप से) अनादि है, जिसके चार त्वचाएँ, छह तने, पच्चीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार वृक्ष स्वरूप (विश्व रूप में प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं॥5॥ |
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7. छंद 13a.6: ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है- (जो इस प्रकार कहकर उस) ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं। हे करुणा के धाम प्रभो! हे सद्गुणों की खान! हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें॥6॥ |
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7. दोहा 13a: वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की। फिर वे अंतर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए॥13 (क)॥ |
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7. दोहा 13b: काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुड़जी ! सुनिए, तब शिवजी वहाँ आए जहाँ श्री रघुवीर थे और गद्गद् वाणी से स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-॥13 (ख)॥ |
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7. छंद 14a.1: हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म-मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥ |
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7. छंद 14a.2: हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥2॥ |
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7. छंद 14a.3: आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं, आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं। महान् मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं॥3॥ |
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7. छंद 14a.4: कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ! हे (पाप-ताप का हरण करने वाले) हरे ! उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए॥4॥ |
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7. छंद 14a.5: लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं॥5॥ |
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7. छंद 14a.6: जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं॥6॥ |
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7. छंद 14a.7: उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद। उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है। इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥7॥ |
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7. छंद 14a.8: वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं॥8॥ |
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7. छंद 14a.9: हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान् रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ) हे हरि! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान् औषध और अभिमान के शत्रु हैं॥9॥ |
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7. छंद 14a.10: आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं। आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख-दुःख, राग-द्वेषादि) द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए। हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन्। इस दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए॥10॥ |
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7. दोहा 14a: मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो। हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥ |
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7. दोहा 14b: श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करके उमापति महादेवजी हर्षित होकर कैलास को चले गए। तब प्रभु ने वानरों को सब प्रकार से सुख देने वाले डेरे दिलवाए॥14 (ख)॥ |
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7. चौपाई 15.1: हे गरुड़जी ! सुनिए यह कथा (सबको) पवित्र करने वाली है, (दैहिक, दैविक, भौतिक) तीनों प्रकार के तापों का और जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाली है। महाराज श्री रामचंद्रजी के कल्याणमय राज्याभिषेक का चरित्र (निष्कामभाव से) सुनकर मनुष्य वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 15.2: और जो मनुष्य सकामभाव से सुनते और जो गाते हैं, वे अनेकों प्रकार के सुख और संपत्ति पाते हैं। वे जगत् में देवदुर्लभ सुखों को भोगकर अंतकाल में श्री रघुनाथजी के परमधाम को जाते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 15.3: इसे जो जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं, वे (क्रमशः) भक्ति, मुक्ति और नवीन संपत्ति (नित्य नए भोग) पाते हैं। हे पक्षीराज गरुड़जी! मैंने अपनी बुद्धि की पहुँच के अनुसार रामकथा वर्णन की है, जो (जन्म-मरण) भय और दुःख हरने वाली है॥3॥ |
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7. चौपाई 15.4: यह वैराग्य, विवेक और भक्ति को दृढ़ करने वाली है तथा मोह रूपी नदी के (पार करने) के लिए सुंदर नाव है। अवधपुरी में नित नए मंगलोत्सव होते हैं। सभी वर्गों के लोग हर्षित रहते हैं॥4॥ |
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7. चौपाई 15.5: श्री रामजी के चरणकमलों में- जिन्हें श्री शिवजी, मुनिगण और ब्रह्माजी भी नमस्कार करते हैं, सबकी नित्य नवीन प्रीति है। भिक्षुकों को बहुत प्रकार के वस्त्राभूषण पहनाए गए और ब्राह्मणों ने नाना प्रकार के दान पाए॥5॥ |
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7. दोहा 15: वानर सब ब्रह्मानंद में मग्न हैं। प्रभु के चरणों में सबका प्रेम है। उन्होंने दिन जाते जाने ही नहीं और (बात की बात में) छह महीने बीत गए॥15॥ |
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7. चौपाई 16.1: उन लोगों को अपने घर भूल ही गए। (जाग्रत की तो बात ही क्या) उन्हें स्वप्न में भी घर की सुध (याद) नहीं आती, जैसे संतों के मन में दूसरों से द्रोह करने की बात कभी नहीं आती। तब श्री रघुनाथजी ने सब सखाओं को बुलाया। सबने आकर आदर सहित सिर नवाया॥1॥ |
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7. चौपाई 16.2: बड़े ही प्रेम से श्री रामजी ने उनको अपने पास बैठाया और भक्तों को सुख देने वाले कोमल वचन कहे- तुम लोगों ने मेरी बड़ी सेवा की है। मुँह पर किस प्रकार तुम्हारी बड़ाई करूँ?॥2॥ |
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7. चौपाई 16.3: मेरे हित के लिए तुम लोगों ने घरों को तथा सब प्रकार के सुखों को त्याग दिया। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय लग रहे हो। छोटे भाई, राज्य, संपत्ति, जानकी, अपना शरीर, घर, कुटुम्ब और मित्र-॥3॥ |
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7. चौपाई 16.4: ये सभी मुझे प्रिय हैं, परंतु तुम्हारे समान नहीं। मैं झूठ नहीं कहता, यह मेरा स्वभाव है। सेवक सभी को प्यारे लगते हैं, यह नीति (नियम) है। (पर) मेरा तो दास पर (स्वाभाविक ही) विशेष प्रेम है॥4॥ |
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7. दोहा 16: हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना॥16॥ |
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7. चौपाई 17a.1: प्रभु के वचन सुनकर सब के सब प्रेममग्न हो गए। हम कौन हैं और कहाँ हैं? यह देह की सुध भी भूल गई। वे प्रभु के सामने हाथ जोड़कर टकटकी लगाए देखते ही रह गए। अत्यंत प्रेम के कारण कुछ कह नहीं सकते॥1॥ |
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7. चौपाई 17a.2: प्रभु ने उनका अत्यंत प्रेम देखा, (तब) उन्हें अनेकों प्रकार से विशेष ज्ञान का उपदेश दिया। प्रभु के सम्मुख वे कुछ कह नहीं सकते। बार-बार प्रभु के चरणकमलों को देखते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 17a.3: तब प्रभु ने अनेक रंगों के अनुपम और सुंदर गहने-कपड़े मँगवाए। सबसे पहले भरतजी ने अपने हाथ से सँवारकर सुग्रीव को वस्त्राभूषण पहनाए॥3॥ |
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7. चौपाई 17a.4: फिर प्रभु की प्रेरणा से लक्ष्मणजी ने विभीषणजी को गहने-कपड़े पहनाए, जो श्री रघुनाथजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। अंगद बैठे ही रहे, वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। उनका उत्कट प्रेम देखकर प्रभु ने उनको नहीं बुलाया॥4॥ |
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7. दोहा 17a: जाम्बवान् और नील आदि सबको श्री रघुनाथजी ने स्वयं भूषण-वस्त्र पहनाए। वे सब अपने हृदयों में श्री रामचंद्रजी के रूप को धारण करके उनके चरणों में मस्तक नवाकर चले॥17 (क)॥ |
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7. दोहा 17b: तब अंगद उठकर सिर नवाकर, नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोड़कर अत्यंत विनम्र तथा मानो प्रेम के रस में डुबोए हुए (मधुर) वचन बोले-॥17 (ख)॥ |
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7. चौपाई 18a.1: हे सर्वज्ञ! हे कृपा और सुख के समुद्र! हे दीनों पर दया करने वाले! हे आर्तों के बंधु! सुनिए! हे नाथ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही गोद में डाल गया था॥1॥ |
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7. चौपाई 18a.2: अतः हे भक्तों के हितकारी! अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद करके मुझे त्यागिए नहीं। मेरे तो स्वामी, गुरु, पिता और माता सब कुछ आप ही हैं। आपके चरणकमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ?॥2॥ |
|
7. चौपाई 18a.3: हे महाराज! आप ही विचारकर कहिए, प्रभु (आप) को छोड़कर घर में मेरा क्या काम है? हे नाथ! इस ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन बालक तथा दीन सेवक को शरण में रखिए॥3॥ |
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7. चौपाई 18a.4: मैं घर की सब नीची से नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े (और बोले-) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए। हे नाथ! अब यह न कहिए कि तू घर जा॥4॥ |
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7. दोहा 18a: अंगद के विनम्र वचन सुनकर करुणा की सीमा प्रभु श्री रघुनाथजी ने उनको उठाकर हृदय से लगा लिया। प्रभु के नेत्र कमलों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥ 18 (क)॥ |
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7. दोहा 18b: तब भगवान् ने अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि (रत्नों के आभूषण) बालि पुत्र अंगद को पहनाकर और बहुत प्रकार से समझाकर उनकी विदाई की॥18 (ख)॥ |
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7. चौपाई 19a.1: भक्त की करनी को याद करके भरतजी छोटे भाई शत्रुघ्नजी और लक्ष्मणजी सहित उनको पहुँचाने चले। अंगद के हृदय में थोड़ा प्रेम नहीं है (अर्थात् बहुत अधिक प्रेम है)। वे फिर-फिरकर श्री रामजी की ओर देखते हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 19a.2: और बार-बार दण्डवत प्रणाम करते हैं। मन में ऐसा आता है कि श्री रामजी मुझे रहने को कह दें। वे श्री रामजी के देखने की, बोलने की, चलने की तथा हँसकर मिलने की रीति को याद कर-करके सोचते हैं (दुःखी होते हैं)॥2॥ |
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7. चौपाई 19a.3: किंतु प्रभु का रुख देखकर, बहुत से विनय वचन कहकर तथा हृदय में चरणकमलों को रखकर वे चले। अत्यंत आदर के साथ सब वानरों को पहुँचाकर भाइयों सहित भरतजी लौट आए॥3॥ |
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7. चौपाई 19a.4: तब हनुमान्जी ने सुग्रीव के चरण पकड़कर अनेक प्रकार से विनती की और कहा- हे देव! दस (कुछ) दिन श्री रघुनाथजी की चरणसेवा करके फिर मैं आकर आपके चरणों के दर्शन करूँगा॥4॥ |
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7. चौपाई 19a.5: (सुग्रीव ने कहा-) हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो (जो भगवान् ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया)। जाकर कृपाधाम श्री रामजी की सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े। अंगद ने कहा- हे हनुमान् ! सुनो-॥5॥ |
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7. दोहा 19a: मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दण्डवत् कहना और श्री रघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना॥19 (क)॥ |
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7. दोहा 19b: ऐसा कहकर बालिपुत्र अंगद चले, तब हनुमान्जी लौट आए और आकर प्रभु से उनका प्रेम वर्णन किया। उसे सुनकर भगवान् प्रेममग्न हो गए॥19 (ख)॥ |
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7. दोहा 19c: (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! श्री रामजी का चित्त वज्र से भी अत्यंत कठोर और फूल से भी अत्यंत कोमल है। तब कहिए, वह किसकी समझ में आ सकता है?॥19 (ग)॥ |
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7. चौपाई 20.1: फिर कृपालु श्री रामजी ने निषादराज को बुला लिया और उसे भूषण, वस्त्र प्रसाद में दिए (फिर कहा-) अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा स्मरण करते रहना और मन, वचन तथा कर्म से धर्म के अनुसार चलना॥1॥ |
|
7. चौपाई 20.2: तुम मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो। अयोध्या में सदा आते-जाते रहना। यह वचन सुनते ही उसको भारी सुख उत्पन्न हुआ। नेत्रों में (आनंद और प्रेम के आँसुओं का) जल भरकर वह चरणों में गिर पड़ा॥2॥ |
|
7. चौपाई 20.3: फिर भगवान् के चरणकमलों को हृदय में रखकर वह घर आया और आकर अपने कुटुम्बियों को उसने प्रभु का स्वभाव सुनाया। श्री रघुनाथजी का यह चरित्र देखकर अवधपुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुख की राशि श्री रामचंद्रजी धन्य हैं॥3॥ |
|
7. चौपाई 20.4: श्री रामचंद्रजी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। श्री रामचंद्रजी के प्रताप से सबकी विषमता (आंतरिक भेदभाव) मिट गई॥4॥ |
|
7. दोहा 20: सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है॥20॥ |
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7. चौपाई 21.1: ‘रामराज्य’ में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं॥1॥ |
|
7. चौपाई 21.2: धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगत् में परिपूर्ण हो रहा है, स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति (मोक्ष) के अधिकारी हैं॥2॥ |
|
7. चौपाई 21.3: छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है॥3॥ |
|
7. चौपाई 21.4: सभी दम्भरहित हैं, धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान् हैं। सभी गुणों का आदर करने वाले और पण्डित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ (दूसरे के किए हुए उपकार को मानने वाले) हैं, कपट-चतुराई (धूर्तता) किसी में नहीं है॥4॥ |
|
7. दोहा 21: (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षीराज गुरुड़जी! सुनिए। श्री राम के राज्य में जड़, चेतन सारे जगत् में काल, कर्म स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं होते (अर्थात् इनके बंधन में कोई नहीं है)॥21॥ |
|
7. चौपाई 22.1: अयोध्या में श्री रघुनाथजी सात समुद्रों की मेखला (करधनी) वाली पृथ्वी के एक मात्र राजा हैं। जिनके एक-एक रोम में अनेकों ब्रह्मांड हैं, उनके लिए सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है॥1॥ |
|
7. चौपाई 22.2: बल्कि प्रभु की उस महिमा को समझ लेने पर तो यह कहने में (कि वे सात समुद्रों से घिरी हुई सप्त द्वीपमयी पृथ्वी के एकच्छत्र सम्राट हैं) उनकी बड़ी हीनता होती है, परंतु हे गरुड़जी! जिन्होंने वह महिमा जान भी ली है, वे भी फिर इस लीला में बड़ा प्रेम मानते हैं॥2॥ |
|
7. चौपाई 22.3: क्योंकि उस महिमा को भी जानने का फल यह लीला (इस लीला का अनुभव) ही है, इन्द्रियों का दमन करने वाले श्रेष्ठ महामुनि ऐसा कहते हैं। रामराज्य की सुख सम्पत्ति का वर्णन शेषजी और सरस्वतीजी भी नहीं कर सकते॥3॥ |
|
7. चौपाई 22.4: सभी नर-नारी उदार हैं, सभी परोपकारी हैं और ब्राह्मणों के चरणों के सेवक हैं। सभी पुरुष मात्र एक पत्नीव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी मन, वचन और कर्म से पति का हित करने वाली हैं॥4॥ |
|
7. दोहा 22: श्री रामचंद्रजी के राज्य में दण्ड केवल संन्यासियों के हाथों में है और भेद नाचने वालों के नृत्य समाज में है और ‘जीतो’ शब्द केवल मन के जीतने के लिए ही सुनाई पड़ता है (अर्थात् राजनीति में शत्रुओं को जीतने तथा चोर-डाकुओं आदि को दमन करने के लिए साम, दान, दण्ड और भेद- ये चार उपाय किए जाते हैं। रामराज्य में कोई शत्रु है ही नहीं, इसलिए ‘जीतो’ शब्द केवल मन के जीतने के लिए कहा जाता है। कोई अपराध करता ही नहीं, इसलिए दण्ड किसी को नहीं होता, दण्ड शब्द केवल संन्यासियों के हाथ में रहने वाले दण्ड के लिए ही रह गया है तथा सभी अनुकूल होने के कारण भेदनीति की आवश्यकता ही नहीं रह गई। भेद, शब्द केवल सुर-ताल के भेद के लिए ही कामों में आता है।)॥22॥ |
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7. चौपाई 23.1: वनों में वृक्ष सदा फूलते और फलते हैं। हाथी और सिंह (वैर भूलकर) एक साथ रहते हैं। पक्षी और पशु सभी ने स्वाभाविक वैर भुलाकर आपस में प्रेम बढ़ा लिया है॥1॥ |
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7. चौपाई 23.2: पक्षी कूजते (मीठी बोली बोलते) हैं, भाँति-भाँति के पशुओं के समूह वन में निर्भय विचरते और आनंद करते हैं। शीतल, मन्द, सुगंधित पवन चलता रहता है। भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते हुए गुंजार करते जाते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 23.3: बेलें और वृक्ष माँगने से ही मधु (मकरन्द) टपका देते हैं। गायें मनचाहा दूध देती हैं। धरती सदा खेती से भरी रहती है। त्रेता में सत्ययुग की करनी (स्थिति) हो गई॥3॥ |
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7. चौपाई 23.4: समस्त जगत् के आत्मा भगवान् को जगत् का राजा जानकर पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहाने लगीं॥।4॥ |
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7. चौपाई 23.5: समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों द्वारा किनारों पर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य पा जाते हैं। सब तालाब कमलों से परिपूर्ण हैं। दसों दिशाओं के विभाग (अर्थात् सभी प्रदेश) अत्यंत प्रसन्न हैं॥5॥ |
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7. दोहा 23: श्री रामचंद्रजी के राज्य में चंद्रमा अपनी (अमृतमयी) किरणों से पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं। सूर्य उतना ही तपते हैं, जितने की आवश्यकता होती है और मेघ माँगने से (जब जहाँ जितना चाहिए उतना ही) जल देते हैं॥23॥ |
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7. चौपाई 24.1: प्रभु श्री रामजी ने करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किए और ब्राह्मणों को अनेकों दान दिए। श्री रामचंद्रजी वेदमार्ग के पालने वाले, धर्म की धुरी को धारण करने वाले, (प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) तीनों गुणों से अतीत और भोगों (ऐश्वर्य) में इन्द्र के समान हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 24.2: शोभा की खान, सुशील और विनम्र सीताजी सदा पति के अनुकूल रहती हैं। वे कृपासागर श्री रामजी की प्रभुता (महिमा) को जानती हैं और मन लगाकर उनके चरणकमलों की सेवा करती हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 24.3: यद्यपि घर में बहुत से (अपार) दास और दासियाँ हैं और वे सभी सेवा की विधि में कुशल हैं, तथापि (स्वामी की सेवा का महत्व जानने वाली) श्री सीताजी घर की सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और श्री रामचंद्रजी की आज्ञा का अनुसरण करती हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 24.4: कृपासागर श्री रामचंद्रजी जिस प्रकार से सुख मानते हैं, श्री जी वही करती हैं, क्योंकि वे सेवा की विधि को जानने वाली हैं। घर में कौसल्या आदि सभी सासुओं की सीताजी सेवा करती हैं, उन्हें किसी बात का अभिमान और मद नहीं है॥4॥ |
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7. चौपाई 24.5: (शिवजी कहते हैं-) हे उमा जगज्जननी रमा (सीताजी) ब्रह्मा आदि देवताओं से वंदित और सदा अनिंदित (सर्वगुण संपन्न) हैं॥5॥ |
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7. दोहा 24: देवता जिनका कृपाकटाक्ष चाहते हैं, परंतु वे उनकी ओर देखती भी नहीं, वे ही लक्ष्मीजी (जानकीजी) अपने (महामहिम) स्वभाव को छोड़कर श्री रामचंद्रजी के चरणारविन्द में प्रीति करती हैं॥24॥ |
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7. चौपाई 25.1: सब भाई अनुकूल रहकर उनकी सेवा करते हैं। श्री रामजी के चरणों में उनकी अत्यंत अधिक प्रीति है। वे सदा प्रभु का मुखारविन्द ही देखते रहते हैं कि कृपालु श्री रामजी कभी हमें कुछ सेवा करने को कहें॥1॥ |
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7. चौपाई 25.2: श्री रामचंद्रजी भी भाइयों पर प्रेम करते हैं और उन्हें नाना प्रकार की नीतियाँ सिखलाते हैं। नगर के लोग हर्षित रहते हैं और सब प्रकार के देवदुर्लभ (देवताओं को भी कठिनता से प्राप्त होने योग्य) भोग भोगते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 25.3: वे दिन-रात ब्रह्माजी को मनाते रहते हैं और (उनसे) श्री रघुवीर के चरणों में प्रीति चाहते हैं। सीताजी के लव और कुश ये दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनका वेद-पुराणों ने वर्णन किया है॥3॥ |
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7. चौपाई 25.4: वे दोनों ही विजयी (विख्यात योद्धा), नम्र और गुणों के धाम हैं और अत्यंत सुंदर हैं, मानो श्री हरि के प्रतिबिम्ब ही हों। दो-दो पुत्र सभी भाइयों के हुए, जो बड़े ही सुंदर, गुणवान् और सुशील थे॥4॥ |
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7. दोहा 25: जो (बौद्धिक) ज्ञान, वाणी और इंद्रियों से परे और अजन्मा है तथा माया, मन और गुणों के परे है, वही सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रेष्ठ नरलीला करते हैं॥25॥ |
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7. चौपाई 26.1: प्रातःकाल सरयूजी में स्नान करके ब्राह्मणों और सज्जनों के साथ सभा में बैठते हैं। वशिष्ठजी वेद और पुराणों की कथाएँ वर्णन करते हैं और श्री रामजी सुनते हैं, यद्यपि वे सब जानते हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 26.2: वे भाइयों को साथ लेकर भोजन करते हैं। उन्हें देखकर सभी माताएँ आनंद से भर जाती हैं। भरतजी और शत्रुघ्नजी दोनों भाई हनुमान्जी सहित उपवनों में जाकर,॥2॥ |
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7. चौपाई 26.3: वहाँ बैठकर श्री रामजी के गुणों की कथाएँ पूछते हैं और हनुमान्जी अपनी सुंदर बुद्धि से उन गुणों में गोता लगाकर उनका वर्णन करते हैं। श्री रामचंद्रजी के निर्मल गुणों को सुनकर दोनों भाई अत्यंत सुख पाते हैं और विनय करके बार-बार कहलवाते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 26.4: सबके यहाँ घर-घर में पुराणों और अनेक प्रकार के पवित्र रामचरित्रों की कथा होती है। पुरुष और स्त्री सभी श्री रामचंद्रजी का गुणगान करते हैं और इस आनंद में दिन-रात का बीतना भी नहीं जान पाते॥4॥ |
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7. दोहा 26: जहाँ भगवान् श्री रामचंद्रजी स्वयं राजा होकर विराजमान हैं, उस अवधपुरी के निवासियों के सुख-संपत्ति के समुदाय का वर्णन हजारों शेषजी भी नहीं कर सकते॥26॥ |
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7. चौपाई 27.1: नारद आदि और सनक आदि मुनीश्वर सब कोसलराज श्री रामजी के दर्शन के लिए प्रतिदिन अयोध्या आते हैं और उस (दिव्य) नगर को देखकर वैराग्य भुला देते हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 27.2: (दिव्य) स्वर्ण और रत्नों से बनी हुई अटारियाँ हैं। उनमें (मणि-रत्नों की) अनेक रंगों की सुंदर ढली हुई फर्शें हैं। नगर के चारों ओर अत्यंत सुंदर परकोटा बना है, जिस पर सुंदर रंग-बिरंगे कँगूरे बने हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 27.3: मानो नवग्रहों ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर लिया हो। पृथ्वी (सड़कों) पर अनेकों रंगों के (दिव्य) काँचों (रत्नों) की गच बनाई (ढाली) गई है, जिसे देखकर श्रेष्ठ मुनियों के भी मन नाच उठते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 27.4: उज्ज्वल महल ऊपर आकाश को चूम (छू) रहे हैं। महलों पर के कलश (अपने दिव्य प्रकाश से) मानो सूर्य, चंद्रमा के प्रकाश की भी निंदा (तिरस्कार) करते हैं। (महलों में) बहुत सी मणियों से रचे हुए झरोखे सुशोभित हैं और घर-घर में मणियों के दीपक शोभा पा रहे हैं॥4॥ |
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7. छंद 27.1: घरों में मणियों के दीपक शोभा दे रहे हैं। मूँगों की बनी हुई देहलियाँ चमक रही हैं। मणियों (रत्नों) के खम्भे हैं। मरकतमणियों (पन्नों) से जड़ी हुई सोने की दीवारें ऐसी सुंदर हैं मानो ब्रह्मा ने खास तौर से बनाई हों। महल सुंदर, मनोहर और विशाल हैं। उनमें सुंदर स्फटिक के आँगन बने हैं। प्रत्येक द्वार पर बहुत से खरादे हुए हीरों से जड़े हुए सोने के किंवाड़ हैं॥ |
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7. दोहा 27: घर-घर में सुंदर चित्रशालाएँ हैं, जिनमें श्री रामचंद्रजी के चरित्र बड़ी सुंदरता के साथ सँवारकर अंकित किए हुए हैं। जिन्हें मुनि देखते हैं, तो वे उनके भी चित्त को चुरा लेते हैं॥27॥ |
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7. चौपाई 28.1: सभी लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की पुष्पों की वाटिकाएँ यत्न करके लगा रखी हैं, जिनमें बहुत जातियों की सुंदर और ललित लताएँ सदा वसंत की तरह फूलती रहती हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 28.2: भौंरे मनोहर स्वर से गुंजार करते हैं। सदा तीनों प्रकार की सुंदर वायु बहती रहती है। बालकों ने बहुत से पक्षी पाल रखे हैं, जो मधुर बोली बोलते हैं और उड़ने में सुंदर लगते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 28.3: मोर, हंस, सारस और कबूतर घरों के ऊपर बड़ी ही शोभा पाते हैं। वे पक्षी (मणियों की दीवारों में और छत में) जहाँ-तहाँ अपनी परछाईं देखकर (वहाँ दूसरे पक्षी समझकर) बहुत प्रकार से मधुर बोली बोलते और नृत्य करते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 28.4: बालक तोता-मैना को पढ़ाते हैं कि कहो- ‘राम’ ‘रघुपति’ ‘जनपालक’। राजद्वार सब प्रकार से सुंदर है। गलियाँ, चौराहे और बाजार सभी सुंदर हैं॥4॥ |
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7. छंद 28.1: सुंदर बाजार है, जो वर्णन करते नहीं बनता, वहाँ वस्तुएँ बिना ही मूल्य मिलती हैं। जहाँ स्वयं लक्ष्मीपति राजा हों, वहाँ की संपत्ति का वर्णन कैसे किया जाए? बजाज (कपड़े का व्यापार करने वाले), सराफ (रुपए-पैसे का लेन-देन करने वाले) आदि वणिक् (व्यापारी) बैठे हुए ऐसे जान प़ड़ते हैं मानो अनेक कुबेर हों, स्त्री, पुरुष बच्चे और बूढ़े जो भी हैं, सभी सुखी, सदाचारी और सुंदर हैं॥ |
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7. दोहा 28: नगर के उत्तर दिशा में सरयूजी बह रही हैं, जिनका जल निर्मल और गहरा है। मनोहर घाट बँधे हुए हैं, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है॥28॥ |
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7. चौपाई 29.1: अलग कुछ दूरी पर वह सुंदर घाट है, जहाँ घोड़ों और हाथियों के ठट्ट के ठट्ट जल पिया करते हैं। पानी भरने के लिए बहुत से (जनाने) घाट हैं, जो बड़े ही मनोहर हैं। वहाँ पुरुष स्नान नहीं करते॥1॥ |
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7. चौपाई 29.2: राजघाट सब प्रकार से सुंदर और श्रेष्ठ है, जहाँ चारों वर्णों के पुरुष स्नान करते हैं। सरयूजी के किनारे-किनारे देवताओं के मंदिर हैं, जिनके चारों ओर सुंदर उपवन (बगीचे) हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 29.3: नदी के किनारे कहीं-कहीं विरक्त और ज्ञानपरायण मुनि और संन्यासी निवास करते हैं। सरयूजी के किनारे-किनारे सुंदर तुलसीजी के झुंड के झुंड बहुत से पेड़ मुनियों ने लगा रखे हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 29.4: नगर की शोभा तो कुछ कही नहीं जाती। नगर के बाहर भी परम सुंदरता है। श्री अयोध्यापुरी के दर्शन करते ही संपूर्ण पाप भाग जाते हैं। (वहाँ) वन, उपवन, बावलिया और तालाब सुशोभित हैं॥4॥ |
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7. छंद 29.1: अनुपम बावलियाँ, तालाब और मनोहर तथा विशाल कुएँ शोभा दे रहे हैं, जिनकी सुंदर (रत्नों की) सीढ़ियाँ और निर्मल जल देखकर देवता और मुनि तक मोहित हो जाते हैं। (तालाबों में) अनेक रंगों के कमल खिल रहे हैं, अनेकों पक्षी कूज रहे हैं और भौंरे गुंजार कर रहे हैं। (परम) रमणीय बगीचे कोयल आदि पक्षियों की (सुंदर बोली से) मानो राह चलने वालों को बुला रहे हैं। |
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7. दोहा 29: स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन किया जा सकता है? अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-संपत्तियाँ अयोध्या में छा रही हैं॥29॥ |
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7. चौपाई 30.1: लोग जहाँ-तहाँ श्री रघुनाथजी के गुण गाते हैं और बैठकर एक-दूसरे को यही सीख देते हैं कि शरणागत का पालन करने वाले श्री रामजी को भजो, शोभा, शील, रूप और गुणों के धाम श्री रघुनाथजी को भजो॥1॥ |
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7. चौपाई 30.2: कमलनयन और साँवले शरीर वाले को भजो। पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करती हैं उसी प्रकार अपने सेवकों की रक्षा करने वाले को भजो। सुंदर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले को भजो। संत रूपी कमलवन के (खिलाने के) सूर्य रूप रणधीर श्री रामजी को भजो॥2॥ |
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7. चौपाई 30.3: कालरूपी भयानक सर्प के भक्षण करने वाले श्री राम रूप गरुड़जी को भजो। निष्कामभाव से प्रणाम करते ही ममता का नाश कर देने वाले श्री रामजी को भजो। लोभ-मोह रूपी हरिनों के समूह के नाश करने वाले श्री राम किरात को भजो। कामदेव रूपी हाथी के लिए सिंह रूप तथा सेवकों को सुख देने वाले श्री राम को भजो॥3॥ |
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7. चौपाई 30.4: संशय और शोक रूपी घने अंधकार का नाश करने वाले श्री राम रूप सूर्य को भजो। राक्षस रूपी घने वन को जलाने वाले श्री राम रूप अग्नि को भजो। जन्म-मृत्यु के भय को नाश करने वाले श्री जानकी समेत श्री रघुवीर को क्यों नहीं भजते?॥4॥ |
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7. चौपाई 30.5: बहुत सी वासनाओं रूपी मच्छरों को नाश करने वाले श्री राम रूप हिमराशि (बर्फ के ढेर) को भजो। नित्य एकरस, अजन्मा और अविनाशी श्री रघुनाथजी को भजो। मुनियों को आनंद देने वाले, पृथ्वी का भार उतारने वाले और तुलसीदास के उदार (दयालु) स्वामी श्री रामजी को भजो॥5॥ |
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7. दोहा 30: इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुष श्री रामजी का गुण-गान करते हैं और कृपानिधान श्री रामजी सदा सब पर अत्यंत प्रसन्न रहते हैं॥30॥ |
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7. चौपाई 31.1: (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षीराज गरुड़जी! जब से रामप्रताप रूपी अत्यंत प्रचण्ड सूर्य उदित हुआ, तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतों को सुख और बहुतों के मन में शोक हुआ॥1॥ |
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7. चौपाई 31.2: जिन-जिन को शोक हुआ, उन्हें मैं बखानकर कहता हूँ (सर्वत्र प्रकाश छा जाने से) पहले तो अविद्या रूपी रात्रि नष्ट हो गई। पाप रूपी उल्लू जहाँ-तहाँ छिप गए और काम-क्रोध रूपी कुमुद मुँद गए॥2॥ |
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7. चौपाई 31.3: भाँति-भाँति के (बंधनकारक) कर्म, गुण, काल और स्वभाव- ये चकोर हैं, जो (रामप्रताप रूपी सूर्य के प्रकाश में) कभी सुख नहीं पाते। मत्सर (डाह), मान, मोह और मद रूपी जो चोर हैं, उनका हुनर (कला) भी किसी ओर नहीं चल पाता॥3॥ |
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7. चौपाई 31.4: धर्म रूपी तालाब में ज्ञान, विज्ञान- ये अनेकों प्रकार के कमल खिल उठे। सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक- ये अनेकों चकवे शोकरहित हो गए॥4॥ |
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7. दोहा 31: यह श्री रामप्रताप रूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाश करता है, तब जिनका वर्णन पीछे से किया गया है, वे (धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक) बढ़ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया गया है, वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि) नाश को प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं॥31॥ |
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7. चौपाई 32.1: एक बार भाइयों सहित श्री रामचंद्रजी परम प्रिय हनुमान्जी को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गए। वहाँ के सब वृक्ष फूले हुए और नए पत्तों से युक्त थे॥1॥ |
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7. चौपाई 32.2: सुअवसर जानकर सनकादि मुनि आए, जो तेज के पुंज, सुंदर गुण और शील से युक्त तथा सदा ब्रह्मानंद में लवलीन रहते हैं। देखने में तो वे बालक लगते हैं, परंतु हैं बहुत समय के॥2॥ |
|
7. चौपाई 32.3: मानो चारों वेद ही बालक रूप धारण किए हों। वे मुनि समदर्शी और भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ श्री रघुनाथजी की चरित्र कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं॥3॥ |
|
7. चौपाई 32.4: (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! सनकादि मुनि वहाँ गए थे (वहीं से चले आ रहे थे) जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ श्री अगस्त्यजी रहते थे। श्रेष्ठ मुनि ने श्री रामजी की बहुत सी कथाएँ वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जैसे अरणि लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है॥4॥ |
|
7. दोहा 32: सनकादि मुनियों को आते देखकर श्री रामचंद्रजी ने हर्षित होकर दंडवत् किया और स्वागत (कुशल) पूछकर प्रभु ने (उनके) बैठने के लिए अपना पीताम्बर बिछा दिया॥32॥ |
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7. चौपाई 33.1: फिर हनुमान्जी सहित तीनों भाइयों ने दंडवत् की, सबको बड़ा सुख हुआ। मुनि श्री रघुनाथजी की अतुलनीय छबि देखकर उसी में मग्न हो गए। वे मन को रोक न सके॥1॥ |
|
7. चौपाई 33.2: वे जन्म-मृत्यु (के चक्र) से छुड़ाने वाले, श्याम शरीर, कमलनयन, सुंदरता के धाम श्री रामजी को टकटकी लगाए देखते ही रह गए, पलक नहीं मारते और प्रभु हाथ जोड़े सिर नवा रहे हैं॥2॥ |
|
7. चौपाई 33.3: उनकी (प्रेम विह्लल) दशा देखकर (उन्हीं की भाँति) श्री रघुनाथजी के नेत्रों से भी (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया। दतनन्तर प्रभु ने हाथ पकड़कर श्रेष्ठ मुनियों को बैठाया और परम मनोहर वचन कहे-॥3॥ |
|
7. चौपाई 33.4: हे मुनीश्वरो! सुनिए, आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनों ही से (सारे) पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिन ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है॥4॥ |
|
7. दोहा 33: संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं॥33॥ |
|
7. चौपाई 34.1: प्रभु के वचन सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीर से स्तुति करने लगे- हे भगवन्! आपकी जय हो। आप अंतरहित, विकाररहित, पापरहित, अनेक (सब रूपों में प्रकट), एक (अद्वितीय) और करुणामय हैं॥1॥ |
|
7. चौपाई 34.2: हे निर्गुण! आपकी जय हो। हे गुण के समुद्र! आपकी जय हो, जय हो। आप सुख के धाम, (अत्यंत) सुंदर और अति चतुर हैं। हे लक्ष्मीपति! आपकी जय हो। हे पृथ्वी के धारण करने वाले! आपकी जय हो। आप उपमारहित, अजन्मे, अनादि और शोभा की खान हैं॥2॥ |
|
7. चौपाई 34.3: आप ज्ञान के भंडार, (स्वयं) मानरहित और (दूसरों को) मान देने वाले हैं। वेद और पुराण आपका पावन सुंदर यश गाते हैं। आप तत्त्व के जानने वाले, की हुई सेवा को मानने वाले और अज्ञान का नाश करने वाले हैं। हे निरंजन (मायारहित)! आपके अनेकों (अनंत) नाम हैं और कोई नाम नहीं है (अर्थात् आप सब नामों के परे हैं)॥3॥ |
|
7. चौपाई 34.4: आप सर्वरूप हैं, सब में व्याप्त हैं और सबके हृदय रूपी घर में सदा निवास करते हैं, (अतः) आप हमारा परिपालन कीजिए। (राग-द्वेष, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्व, विपत्ति और जन्म-मत्यु के जाल को काट दीजिए। हे रामजी! आप हमारे हृदय में बसकर काम और मद का नाश कर दीजिए॥4॥ |
|
7. दोहा 34: आप परमानंद स्वरूप, कृपा के धाम और मन की कामनाओं को परिपूर्ण करने वाले हैं। हे श्री रामजी! हमको अपनी अविचल प्रेमाभक्ति दीजिए॥34॥ |
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7. चौपाई 35.1: हे रघुनाथजी! आप हमें अपनी अत्यंत पवित्र करने वाली और तीनों प्रकार के तापों और जन्म-मरण के क्लेशों का नाश करने वाली भक्ति दीजिए। हे शरणागतों की कामना पूर्ण करने के लिए कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो! प्रसन्न होकर हमें यही वर दीजिए॥1॥ |
|
7. चौपाई 35.2: हे रघुनाथजी! आप जन्म-मृत्यु रूप समुद्र को सोखने के लिए अगस्त्य मुनि के समान हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देने वाले हैं। हे दीनबंधो! मन से उत्पन्न दारुण दुःखों का नाश कीजिए और (हम में) समदृष्टि का विस्तार कीजिए॥2॥ |
|
7. चौपाई 35.3: आप (विषयों की) आशा, भय और ईर्षा आदि के निवारण करने वाले हैं तथा विनय, विवेक और वैराग्य के विस्तार करने वाले हैं। हे राजाओं के शिरोमणि एवं पृथ्वी के भूषण श्री रामजी! संसृति (जन्म-मृत्यु के प्रवाह) रूपी नदी के लिए नौका रूप अपनी भक्ति प्रदान कीजिए॥3॥ |
|
7. चौपाई 35.4: हे मुनियों के मन रूपी मानसरोवर में निरंतर निवास करने वाले हंस! आपके चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वंदित हैं। आप रघुकुल के केतु, वेदमर्यादा के रक्षक और काल, कर्म, स्वभाव तथा गुण (रूप बंधनों) के भक्षक (नाशक) हैं॥4॥ |
|
7. चौपाई 35.5: आप तरन-तारन (स्वयं तरे हुए और दूसरों को तारने वाले) तथा सब दोषों को हरने वाले हैं। तीनों लोकों के विभूषण आप ही तुलसीदास के स्वामी हैं॥5॥ |
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7. दोहा 35: प्रेम सहित बार-बार स्तुति करके और सिर नवाकर तथा अपना अत्यंत मनचाहा वर पाकर सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को गए॥35॥ |
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7. चौपाई 36.1: सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। तब भाइयों ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाया। सब भाई प्रभु से पूछते सकुचाते हैं। (इसलिए) सब हनुमान्जी की ओर देख रहे हैं॥1॥ |
|
7. चौपाई 36.2: वे प्रभु के श्रीमुख की वाणी सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर सारे भ्रमों का नाश हो जाता है। अंतरयामी प्रभु सब जान गए और पूछने लगे- कहो हनुमान्! क्या बात है?॥2॥ |
|
7. चौपाई 36.3: तब हनुमान्जी हाथ जोड़कर बोले- हे दीनदयालु भगवान्! सुनिए। हे नाथ! भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, पर प्रश्न करते मन में सकुचा रहे हैं॥3॥ |
|
7. चौपाई 36.4: (भगवान् ने कहा-) हनुमान्! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच में कभी भी कोई अंतर (भेद) है? प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने उनके चरण पकड़ लिए (और कहा-) हे नाथ! हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! सुनिए॥4॥ |
|
7. दोहा 36: हे नाथ! न तो मुझे कुछ संदेह है और न स्वप्न में भी शोक और मोह है। हे कृपा और आनंद के समूह! यह केवल आपकी ही कृपा का फल है॥36॥ |
|
7. चौपाई 37.1: तथापि हे कृपानिधान! मैं आप से एक धृष्टता करता हूँ। मैं सेवक हूँ और आप सेवक को सुख देने वाले हैं (इससे मेरी दृष्टता को क्षमा कीजिए और मेरे प्रश्न का उत्तर देकर सुख दीजिए)। हे रघुनाथजी वेद-पुराणों ने संतों की महिमा बहुत प्रकार से गाई है॥1॥ |
|
7. चौपाई 37.2: आपने भी अपने श्रीमुख से उनकी बड़ाई की है और उन पर प्रभु (आप) का प्रेम भी बहुत है। हे प्रभो! मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूँ। आप कृपा के समुद्र हैं और गुण तथा ज्ञान में अत्यंत निपुण हैं॥2॥ |
|
7. चौपाई 37.3: हे शरणागत का पालन करने वाले! संत और असंत के भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर कहिए। (श्री रामजी ने कहा-) हे भाई! संतों के लक्षण (गुण) असंख्य हैं, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं॥3॥ |
|
7. चौपाई 37.4: संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है॥4॥ |
|
7. दोहा 37: इसी गुण के कारण चंदन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत् का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुख को यह दंड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं॥37॥ |
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7. चौपाई 38.1: संत विषयों में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं, उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे (सबमें, सर्वत्र, सब समय) समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है। वे मद से रहित और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 38.2: उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्म से मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणों के समान हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 38.3: उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते है। शांति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं। उनमें शीलता, सरलता, सबके प्रति मित्र भाव और ब्राह्मण के चरणों में प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करने वाली है॥3॥ |
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7. चौपाई 38.4: हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना। जो शम (मन के निग्रह), दम (इंद्रियों के निग्रह), नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते,॥4॥ |
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7. दोहा 38: जिन्हें निंदा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं॥38॥ |
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7. चौपाई 39.1: अब असंतों दुष्टों का स्वभाव सुनो, कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिए। उनका संग सदा दुःख देने वाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जाति की) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गाय को अपने संग से नष्ट कर डालती है॥1॥ |
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7. चौपाई 39.2: बदुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई संपत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ी निधि (खजाना) पा ली हो॥2॥ |
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7. चौपाई 39.3: वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 39.4: उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है। (अर्थात् वे लेने-देने के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक मार लेते हैं अथवा झूठी डींग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपए ले लिए, करोड़ों का दान कर दिया। इसी प्रकार खाते हैं चने की रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आए। अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं हमें बढ़िया भोजन से वैराग्य है, इत्यादि। मतलब यह कि वे सभी बातों में झूठ ही बोला करते हैं।) जैसे मोर साँपों को भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं। (परंतु हृदय के बड़े ही निर्दयी होते हैं)॥4॥ |
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7. दोहा 39: वे दूसरों से द्रोह करते हैं और पराई स्त्री, पराए धन तथा पराई निंदा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर शरीर धारण किए हुए राक्षस ही हैं॥39॥ |
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7. चौपाई 40.1: लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात् लोभ ही से वे सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता। यदि किसी की बड़ाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते हैं मानों उन्हें जूड़ी आ गई हो॥1॥ |
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7. चौपाई 40.2: और जब किसी की विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत्भर के राजा हो गए हों। वे स्वार्थपरायण, परिवार वालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लंपट और अत्यंत क्रोधी होते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 40.3: वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं, (साथ ही अपने संग से) दूसरों को भी नष्ट करते हैं। मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें न संतों का संग अच्छा लगता है, न भगवान् की कथा ही सुहाती है॥3॥ |
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7. चौपाई 40.4: वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेदों के निंदक और जबर्दस्ती पराए धन के स्वामी (लूटने वाले) होते हैं। वे दूसरों से द्रोह तो करते ही हैं, परंतु ब्राह्मण द्रोह विशेषता से करते हैं। उनके हृदय में दम्भ और कपट भरा रहता है, परंतु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण किए रहते हैं॥4॥ |
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7. दोहा 40: ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते। द्वापर में थोड़े से होंगे और कलियुग में तो इनके झुंड के झुंड होंगे॥40॥ |
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7. चौपाई 41.1: हे भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। हे तात! समस्त पुराणों और वेदों का यह निर्णय (निश्चित सिद्धांत) मैंने तुमसे कहा है, इस बात को पण्डित लोग जानते हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 41.2: मनुष्य का शरीर धारण करके जो लोग दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं, उनको जन्म-मृत्यु के महान् संकट सहने पड़ते हैं। मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण होकर अनेकों पाप करते हैं, इसी से उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है॥2॥ |
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7. चौपाई 41.3: हे भाई! मैं उनके लिए कालरूप (भयंकर) हूँ और उनके अच्छे और बुरे कर्मों का (यथायोग्य) फल देने वाला हूँ! ऐसा विचार कर जो लोग परम चतुर हैं वे संसार (के प्रवाह) को दुःख रूप जानकर मुझे ही भजते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 41.4: इसी से वे शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं। (इस प्रकार) मैंने संतों और असंतों के गुण कहे। जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है, वे जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते॥4॥ |
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7. दोहा 41: हे तात! सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेक है॥41॥ |
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7. चौपाई 42.1: भगवान के श्रीमुख से ये वचन सुनकर सब भाई हर्षित हो गए। प्रेम उनके हृदयों में समाता नहीं। वे बार-बार बड़ी विनती करते हैं। विशेषकर हनुमान्जी के हृदय में अपार हर्ष है॥1॥ |
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7. चौपाई 42.2: तदनन्तर श्री रामचंद्रजी अपने महल को गए। इस प्रकार वे नित्य नई लीला करते हैं। नारद मुनि अयोध्या में बार-बार आते हैं और आकर श्री रामजी के पवित्र चरित्र गाते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 42.3: मुनि यहाँ से नित्य नए-नए चरित्र देखकर जाते हैं और ब्रह्मलोक में जाकर सब कथा कहते हैं। ब्रह्माजी सुनकर अत्यंत सुख मानते हैं (और कहते हैं-) हे तात! बार-बार श्री रामजी के गुणों का गान करो॥3॥ |
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7. चौपाई 42.4: सनकादि मुनि नारदजी की सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परंतु श्री रामजी का गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधि को भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे (रामकथा सुनने के) श्रेष्ठ अधिकारी हैं॥4॥ |
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7. दोहा 42: सनकादि मुनि जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्म समाधि) छोड़कर श्री रामजी के चरित्र सुनते हैं। यह जानकर भी जो श्री हरि की कथा से प्रेम नहीं करते, उनके हृदय (सचमुच ही) पत्थर (के समान) हैं॥42॥ |
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7. चौपाई 43.1: एक बार श्री रघुनाथजी के बुलाए हुए गुरु वशिष्ठजी, ब्राह्मण और अन्य सब नगर निवासी सभा में आए। जब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन यथायोग्य बैठ गए, तब भक्तों के जन्म-मरण को मिटाने वाले श्री रामजी वचन बोले-॥1॥ |
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7. चौपाई 43.2: हे समस्त नगर निवासियों! मेरी बात सुनिए। यह बात मैं हृदय में कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ। न अनीति की बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है, इसलिए (संकोच और भय छोड़कर, ध्यान देकर) मेरी बातों को सुन लो और (फिर) यदि तुम्हें अच्छी लगे, तो उसके अनुसार करो!॥2॥ |
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7. चौपाई 43.3: वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने। हे भाई! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना॥3॥ |
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7. चौपाई 43.4: बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥4॥ |
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7. दोहा 43: वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥43॥ |
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7. चौपाई 44.1: हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 44.2: जो पारसमणि को खोकर बदले में घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान) नहीं कहता। यह अविनाशी जीव (अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चार खानों और चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है॥2॥ |
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7. चौपाई 44.3: माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में हुआ) यह सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 44.4: यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं,॥4॥ |
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7. दोहा 44: जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है॥44॥ |
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7. चौपाई 45.1: यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है॥1॥ |
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7. चौपाई 45.2: ज्ञान अगम (दुर्गम) है (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता॥2॥ |
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7. चौपाई 45.3: भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥3॥ |
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7. चौपाई 45.4: जगत् में पुण्य एक ही है, (उसके समान) दूसरा नहीं। वह है- मन, कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणों की पूजा करना। जो कपट का त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है, उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं॥4॥ |
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7. दोहा 45: और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता॥45॥ |
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7. चौपाई 46.1: कहो तो, भक्ति मार्ग में कौन-सा परिश्रम है? इसमें न योग की आवश्यकता है, न यज्ञ, जप, तप और उपवास की! (यहाँ इतना ही आवश्यक है कि) सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे॥1॥ |
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7. चौपाई 46.2: मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है? (अर्थात् उसकी मुझ पर आस्था बहुत ही निर्बल है।) बहुत बात बढ़ाकर क्या हूँ? हे भाइयों! मैं तो इसी आचरण के वश में हूँ॥2॥ |
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7. चौपाई 46.3: न किसी से वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रखे, न भय ही करे। उसके लिए सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई भी आरंभ (फल की इच्छा से कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घर में ममता नहीं है), जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो (भक्ति करने में) निपुण और विज्ञानवान् है॥3॥ |
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7. चौपाई 46.4: संतजनों के संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहाँ तक कि स्वर्ग और मुक्ति तक (भक्ति के सामने) तृण के समान हैं, जो भक्ति के पक्ष में हठ करता है, पर (दूसरे के मत का खण्डन करने की) मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है ॥4॥ |
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7. दोहा 46: जो मेरे गुण समूहों के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोह से रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो (परमात्मारूप) परमानन्दराशि को प्राप्त है॥46॥ |
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7. चौपाई 47.1: श्रीरामचन्द्रजी के अमृत के समान वचन सुनकर सबने कृपाधाम के चरण पकड़ लिए (और कहा-) हे कृपानिधान! आप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई सब कुछ हैं और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 47.2: और हे शरणागत के दुःख हरने वाले रामजी! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकार से हित करने वाले हैं। ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। माता-पिता (हितैषी हैं और शिक्षा भी देते हैं) परन्तु वे भी स्वार्थपरायण हैं (इसलिए ऐसी परम हितकारी शिक्षा नहीं देते)॥2॥ |
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7. चौपाई 47.3: हे असुरों के शत्रु! जगत् में बिना हेतु के (निःस्वार्थ) उपकार करने वाले तो दो ही हैं- एक आप, दूसरे आपके सेवक। जगत् में (शेष) सभी स्वार्थ के मित्र हैं। हे प्रभो! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ का भाव नहीं है॥3॥ |
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7. चौपाई 47.4: सबके प्रेम रस में सने हुए वचन सुनकर श्री रघुनाथजी हृदय में हर्षित हुए। फिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की सुन्दर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गए॥4॥ |
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7. दोहा 47: (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! अयोध्या में रहने वाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थस्वरूप हैं, जहाँ स्वयं सच्चिदानंदघन ब्रह्म श्री रघुनाथजी राजा हैं॥47॥ |
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7. चौपाई 48.1: एक बार मुनि वशिष्ठजी वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम श्री रामजी थे। श्री रघुनाथजी ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया॥1॥ |
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7. चौपाई 48.2: मुनि ने हाथ जोड़कर कहा- हे कृपासागर श्री रामजी! मेरी कुछ विनती सुनिए! आपके आचरणों (मनुष्योचित चरित्रों) को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है॥2॥ |
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7. चौपाई 48.3: हे भगवन्! आपकी महिमा की सीमा नहीं है, उसे वेद भी नहीं जानते। फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूँ? पुरोहिती का कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निंदा करते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 48.4: जब मैं उसे (सूर्यवंश की पुरोहिती का काम) नहीं लेता था, तब ब्रह्माजी ने मुझे कहा था- हे पुत्र! इससे तुमको आगे चलकर बहुत लाभ होगा। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कर रघुकुल के भूषण राजा होंगे॥4॥ |
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7. दोहा 48: तब मैंने हृदय में विचार किया कि जिसके लिए योग, यज्ञ, व्रत और दान किए जाते हैं उसे मैं इसी कर्म से पा जाऊँगा, तब तो इसके समान दूसरा कोई धर्म ही नहीं है॥48॥ |
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7. चौपाई 49.1: जप, तप, नियम, योग, अपने-अपने (वर्णाश्रम के) धर्म, श्रुतियों से उत्पन्न (वेदविहित) बहुत से शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इंद्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँ तक वेद और संतजनों ने धर्म कहे हैं (उनके करने का)-॥1॥ |
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7. चौपाई 49.2: (तथा) हे प्रभो! अनेक तंत्र, वेद और पुराणों के पढ़ने और सुनने का सर्वोत्तम फल एक ही है और सब साधनों का भी यही एक सुंदर फल है कि आपके चरणकमलों में सदा-सर्वदा प्रेम हो॥2॥ |
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7. चौपाई 49.3: मैल से धोने से क्या मैल छूटता है? जल के मथने से क्या कोई घी पा सकता है? (उसी प्रकार) हे रघुनाथजी! प्रेमभक्ति रूपी (निर्मल) जल के बिना अंतःकरण का मल कभी नहीं जाता॥3॥ |
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7. चौपाई 49.4: वही सर्वज्ञ है, वही तत्त्वज्ञ और पंडित है, वही गुणों का घर और अखंड विज्ञानवान् है, वही चतुर और सब सुलक्षणों से युक्त है, जिसका आपके चरण कमलों में प्रेम है॥4॥ |
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7. दोहा 49: जहे नाथ! हे श्री रामजी! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिए। प्रभु (आप) के चरणकमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मांतर में भी कभी न घटे॥49॥ |
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7. चौपाई 50.1: ऐसा कहकर मुनि वशिष्ठजी घर आए। वे कृपासागर श्री रामजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। तदनन्तर सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी ने हनुमान्जी तथा भरतजी आदि भाइयों को साथ लिया,॥1॥ |
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7. चौपाई 50.2: और फिर कृपालु श्री रामजी नगर के बाहर गए और वहाँ उन्होंने हाथी, रथ और घोड़े मँगवाए। उन्हें देखकर कृपा करके प्रभु ने सबकी सराहना की और उनको जिस-जिसने चाहा, उस-उसको उचित जानकर दिया॥2॥ |
|
7. चौपाई 50.3: संसार के सभी श्रमों को हरने वाले प्रभु ने (हाथी, घोड़े आदि बँटने में) श्रम का अनुभव किया और (श्रम मिटाने को) वहाँ गए जहाँ शीतल अमराई (आमों का बगीचा) थी। वहाँ भरतजी ने अपना वस्त्र बिछा दिया। प्रभु उस पर बैठ गए और सब भाई उनकी सेवा करने लगे॥3॥ |
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7. चौपाई 50.4-5: उस समय पवनपुत्र हनुमान्जी पवन (पंखा) करने लगे। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। (शिवजी कहने लगे-) हे गिरिजे! हनुमान्जी के समान न तो कोई बड़भागी है और न कोई श्री रामजी के चरणों का प्रेमी ही है, जिनके प्रेम और सेवा की (स्वयं) प्रभु ने अपने श्रीमुख से बार-बार बड़ाई की है॥4-5॥ |
|
7. दोहा 50: उसी अवसर पर नारदमुनि हाथ में वीणा लिए हुए आए। वे श्री रामजी की सुंदर और नित्य नवीन रहने वाली कीर्ति गाने लगे॥50॥ |
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7. चौपाई 51.1: कृपापूर्वक देख लेने मात्र से शोक के छुड़ाने वाले हे कमलनयन! मेरी ओर देखिए (मुझ पर भी कृपादृष्टि कीजिए) हे हरि! आप नीलकमल के समान श्यामवर्ण और कामदेव के शत्रु महादेवजी के हृदय कमल के मकरन्द (प्रेम रस) के पान करने वाले भ्रमर हैं॥1॥ |
|
7. चौपाई 51.2: आप राक्षसों की सेना के बल को तोड़ने वाले हैं। मुनियों और संतजनों को आनंद देने वाले और पापों का नाश करने वाले हैं। ब्राह्मण रूपी खेती के लिए आप नए मेघसमूह हैं और शरणहीनों को शरण देने वाले तथा दीन जनों को अपने आश्रय में ग्रहण करने वाले हैं॥2॥ |
|
7. चौपाई 51.3: अपने बाहुबल से पृथ्वी के बड़े भारी बोझ को नष्ट करने वाले, खर दूषण और विराध के वध करने में कुशल, रावण के शत्रु, आनंदस्वरूप, राजाओं में श्रेष्ठ और दशरथ के कुल रूपी कुमुदिनी के चंद्रमा श्री रामजी! आपकी जय हो॥3॥ |
|
7. चौपाई 51.4: आपका सुंदर यश पुराणों, वेदों में और तंत्रादि शास्त्रों में प्रकट है! देवता, मुनि और संतों के समुदाय उसे गाते हैं। आप करुणा करने वाले और झूठे मद का नाश करने वाले, सब प्रकार से कुशल (निपुण) श्री अयोध्याजी के भूषण ही हैं॥4॥ |
|
7. चौपाई 51.5: आपका नाम कलियुग के पापों को मथ डालने वाला और ममता को मारने वाला है। हे तुलसीदास के प्रभु! शरणागत की रक्षा कीजिए॥5॥ |
|
7. दोहा 51: श्री रामचंद्रजी के गुणसमूहों का प्रेमपूवक वर्णन करके मुनि नारदजी शोभा के समुद्र प्रभु को हृदय में धरकर जहाँ ब्रह्मलोक है, वहाँ चले गए॥51॥ |
|
7. चौपाई 52a.1: (शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा, जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली। श्री रामजी के चरित्र सौ करोड़ (अथवा) अपार हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते॥1॥ |
|
7. चौपाई 52a.2: भगवान् श्री राम अनंत हैं, उनके गुण अनंत हैं, जन्म, कर्म और नाम भी अनंत हैं। जल की बूँदें और पृथ्वी के रजकण चाहे गिने जा सकते हों, पर श्री रघुनाथजी के चरित्र वर्णन करने से नहीं चूकते॥2॥ |
|
7. चौपाई 52a.3: यह पवित्र कथा भगवान् के परम पद को देने वाली है। इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी को सुनाई थी॥3॥ |
|
7. चौपाई 52a.4: मैंने श्री रामजी के कुछ थोड़े से गुण बखान कर कहे हैं। हे भवानी! सो कहो, अब और क्या कहूँ? श्री रामजी की मंगलमयी कथा सुनकर पार्वतीजी हर्षित हुईं और अत्यंत विनम्र तथा कोमल वाणी बोलीं-॥4॥ |
|
7. चौपाई 52a.5: हे त्रिपुरारि। मैं धन्य हूँ, धन्य-धन्य हूँ जो मैंने जन्म-मृत्यु के भय को हरण करने वाले श्री रामजी के गुण (चरित्र) सुने॥5॥ |
|
7. दोहा 52a: हे कृपाधाम। अब आपकी कृपा से मैं कृतकृत्य हो गई। अब मुझे मोह नहीं रह गया। हे प्रभु! मैं सच्चिदानंदघन प्रभु श्री रामजी के प्रताप को जान गई॥52 (क)॥ |
|
7. दोहा 52b: हे नाथ! आपका मुख रूपी चंद्रमा श्री रघुवीर की कथा रूपी अमृत बरसाता है। हे मतिधीर मेरा मन कर्णपुटों से उसे पीकर तृप्त नहीं होता॥52 (ख)॥ |
|
7. चौपाई 53.1: श्री रामजी के चरित्र सुनते-सुनते जो तृप्त हो जाते हैं (बस कर देते हैं), उन्होंने तो उसका विशेष रस जाना ही नहीं। जो जीवन्मुक्त महामुनि हैं, वे भी भगवान् के गुण निरंतर सुनते रहते हैं॥1॥ |
|
7. चौपाई 53.2: जो संसार रूपी सागर का पार पाना चाहता है, उसके लिए तो श्री रामजी की कथा दृढ़ नौका के समान है। श्री हरि के गुणसमूह तो विषयी लोगों के लिए भी कानों को सुख देने वाले और मन को आनंद देने वाले हैं॥2॥ |
|
7. चौपाई 53.3: जगत् में कान वाला ऐसा कौन है, जिसे श्री रघुनाथजी के चरित्र न सुहाते हों। जिन्हें श्री रघुनाथजी की कथा नहीं सुहाती, वे मूर्ख जीव तो अपनी आत्मा की हत्या करने वाले हैं॥3॥ |
|
7. चौपाई 53.4: हे नाथ! आपने श्री रामचरित्र मानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुंदर कथा काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी से कही थी-॥4॥ |
|
7. दोहा 53: सो कौए का शरीर पाकर भी काकभुशुण्डि वैराग्य, ज्ञान और विज्ञान में दृढ़ हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है और उन्हें श्री रघुनाथजी की भक्ति भी प्राप्त है, इस बात का मुझे परम संदेह हो रहा है॥53॥ |
|
7. चौपाई 54.1: हे त्रिपुरारि! सुनिए, हजारों मनुष्यों में कोई एक धर्म के व्रत का धारण करने वाला होता है और करोड़ों धर्मात्माओं में कोई एक विषय से विमुख (विषयों का त्यागी) और वैराग्य परायण होता है॥1॥ |
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7. चौपाई 54.2: श्रुति कहती है कि करोड़ों विरक्तों में कोई एक ही सम्यक् (यथार्थ) ज्ञान को प्राप्त करता है और करोड़ों ज्ञानियों में कोई एक ही जीवन मुक्त होता है। जगत् में कोई विरला ही ऐसा (जीवन मुक्त) होगा॥2॥ |
|
7. चौपाई 54.3: हजारों जीवन मुक्तों में भी सब सुखों की खान, ब्रह्म में लीन विज्ञानवान् पुरुष और भी दुर्लभ है। धर्मात्मा, वैराग्यवान्, ज्ञानी, जीवन मुक्त और ब्रह्मलीन-॥3॥ |
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7. चौपाई 54.4: इन सबमें भी हे देवाधिदेव महादेवजी! वह प्राणी अत्यंत दुर्लभ है जो मद और माया से रहित होकर श्री रामजी की भक्ति के परायण हो। हे विश्वनाथ! ऐसी दुर्लभ हरि भक्ति को कौआ कैसे पा गया, मुझे समझाकर कहिए॥4॥ |
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7. दोहा 54: हे नाथ! कहिए, (ऐसे) श्री रामपरायण, ज्ञाननिरत, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुण्डिजी ने कौए का शरीर किस कारण पाया?॥54॥ |
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7. चौपाई 55.1: हे कृपालु! बताइए, उस कौए ने प्रभु का यह पवित्र और सुंदर चरित्र कहाँ पाया? और हे कामदेव के शत्रु! यह भी बताइए, आपने इसे किस प्रकार सुना? मुझे बड़ा भारी कौतूहल हो रहा है॥1॥ |
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7. चौपाई 55.2: गरुड़जी तो महान् ज्ञानी, सद्गुणों की राशि, श्री हरि के सेवक और उनके अत्यंत निकट रहने वाले (उनके वाहन ही) हैं। उन्होंने मुनियों के समूह को छोड़कर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी?॥2॥ |
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7. चौपाई 55.3: कहिए, काकभुशुण्डि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत किस प्रकार हुई? पार्वतीजी की सरल, सुंदर वाणी सुनकर शिवजी सुख पाकर आदर के साथ बोले-॥3॥ |
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7. चौपाई 55.4: हे सती! तुम धन्य हो, तुम्हारी बुद्धि अत्यंत पवित्र है। श्री रघुनाथजी के चरणों में तुम्हारा कम प्रेम नहीं है। (अत्यधिक प्रेम है)। अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जिसे सुनने से सारे लोक के भ्रम का नाश हो जाता है॥4॥ |
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7. चौपाई 55.5: तथा श्री रामजी के चरणों में विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है॥5॥ |
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7. दोहा 55: पक्षीराज गरुड़जी ने भी जाकर काकभुशुण्डिजी से प्रायः ऐसे ही प्रश्न किए थे। हे उमा! मैं वह सब आदरसहित कहूँगा, तुम मन लगाकर सुनो॥55॥ |
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7. चौपाई 56.1: मैंने जिस प्रकार वह भव (जन्म-मृत्यु) से छुड़ाने वाली कथा सुनी, हे सुमुखी! हे सुलोचनी! वह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार दक्ष के घर हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था॥1॥ |
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7. चौपाई 56.2: दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ। तब तुमने अत्यंत क्रोध करके प्राण त्याग दिए थे और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर दिया था। वह सारा प्रसंग तुम जानती ही हो॥2॥ |
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7. चौपाई 56.3: तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और हे प्रिये! मैं तुम्हारे वियोग से दुःखी हो गया। मैं विरक्त भाव से सुंदर वन, पर्वत, नदी और तालाबों का कौतुक (दृश्य) देखता फिरता था॥3॥ |
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7. चौपाई 56.4: सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में और भी दूर, एक बहुत ही सुंदर नील पर्वत है। उसके सुंदर स्वर्णमय शिखर हैं, (उनमें से) चार सुंदर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे॥4॥ |
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7. चौपाई 56.5: उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुंदर तालाब शोभित है, जिसकी मणियों की सीढ़ियाँ देखकर मन मोहित हो जाता है॥5॥ |
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7. दोहा 56: उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है, उसमें रंग-बिरंगे बहुत से कमल खिले हुए हैं, हंसगण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं॥56॥ |
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7. चौपाई 57.1: उस सुंदर पर्वत पर वही पक्षी (काकभुशुण्डि) बसता है। उसका नाश कल्प के अंत में भी नहीं होता। मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक,॥1॥ |
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7. चौपाई 57.2: जो सारे जगत् में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास भी कभी नहीं फटकते। वहाँ बसकर जिस प्रकार वह काग हरि को भजता है, हे उमा! उसे प्रेम सहित सुनो॥2॥ |
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7. चौपाई 57.3: वह पीपल के वृक्ष के नीछे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। श्री हरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है॥3॥ |
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7. चौपाई 57.4: बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्र को अनेकों प्रकार से प्रेम सहित आदरपूर्वक गान करता है॥4॥ |
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7. चौपाई 57.5: सब निर्मल बुद्धि वाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते हैं, उसे सुनते हैं। जब मैंने वहाँ जाकर यह कौतुक (दृश्य) देखा, तब मेरे हृदय में विशेष आनंद उत्पन्न हुआ॥5॥ |
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7. दोहा 57: तब मैंने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और श्री रघुनाथजी के गुणों को आदर सहित सुनकर फिर कैलास को लौट आया॥57॥ |
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7. चौपाई 58.1: हे गिरिजे! मैंने वह सब इतिहास कहा कि जिस समय मैं काकभुशुण्डि के पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षी कुल के ध्वजा गरुड़जी उस काग के पास गए थे॥1॥ |
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7. चौपाई 58.2: जब श्री रघुनाथजी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है- मेघनाद के हाथों अपने को बँधा लिया, तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा॥2॥ |
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7. चौपाई 58.3: सर्पों के भक्षक गरुड़जी बंधन काटकर गए, तब उनके हृदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बंधन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे-॥3॥ |
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7. चौपाई 58.4: जो व्यापक, विकाररहित, वाणी के पति और माया-मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत् में उन्हीं का अवतार है। पर मैंने उस (अवतार) का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा॥4॥ |
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7. दोहा 58: जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाते हैं, उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बाँध लिया॥58॥ |
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7. चौपाई 59.1: गरुड़जी ने अनेकों प्रकार से अपने मन को समझाया। पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ, हृदय में भ्रम और भी अधिक छा गया। (संदेहजनित) दुःख से दुःखी होकर, मन में कुतर्क बढ़ाकर वे तुम्हारी ही भाँति मोहवश हो गए॥1॥ |
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7. चौपाई 59.2: व्याकुल होकर वे देवर्षि नारदजी के पास गए और मन में जो संदेह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर नारद को अत्यंत दया आई। (उन्होंने कहा-) हे गरुड़! सुनिए! श्री रामजी की माया बड़ी ही बलवती है॥2॥ |
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7. चौपाई 59.3: जो ज्ञानियों के चित्त को भी भली भाँति हरण कर लेती है और उनके मन में जबर्दस्ती बड़ा भारी मोह उत्पन्न कर देती है तथा जिसने मुझको भी बहुत बार नचाया है, हे पक्षीराज! वही माया आपको भी व्याप गई है॥3॥ |
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7. चौपाई 59.4: हे गरुड़! आपके हृदय में बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरंत नहीं मिटेगा। अतः हे पक्षीराज! आप ब्रह्माजी के पास जाइए और वहाँ जिस काम के लिए आदेश मिले, वही कीजिएगा॥4॥ |
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7. दोहा 59: ऐसा कहकर परम सुजान देवर्षि नारदजी श्री रामजी का गुणगान करते हुए और बारंबार श्री हरि की माया का बल वर्णन करते हुए चले॥59॥ |
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7. चौपाई 60.1: तब पक्षीराज गरुड़ ब्रह्माजी के पास गए और अपना संदेह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्माजी ने श्री रामचंद्रजी को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यंत प्रेम छा गया॥1॥ |
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7. चौपाई 60.2: ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान् की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है॥2॥ |
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7. चौपाई 60.3: यह सारा चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य (की बात) नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी सुंदर वाणी बोले- श्री रामजी की महिमा को महादेवजी जानते हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 60.4: हे गरुड़! तुम शंकरजी के पास जाओ। हे तात! और कहीं किसी से न पूछना। तुम्हारे संदेह का नाश वहीं होगा। ब्रह्माजी का वचन सुनते ही गरुड़ चल दिए॥4॥ |
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7. दोहा 60: तब बड़ी आतुरता (उतावली) से पक्षीराज गरुड़ मेरे पास आए। हे उमा! उस समय मैं कुबेर के घर जा रहा था और तुम कैलास पर थीं॥60॥ |
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7. चौपाई 61.1: गरुड़ ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना संदेह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा-॥1॥ |
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7. चौपाई 61.2: हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ? सब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया जाए॥2॥ |
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7. चौपाई 61.3: और वहाँ (सत्संग में) सुंदर हरिकथा सुनी जाए जिसे मुनियों ने अनेकों प्रकार से गाया है और जिसके आदि, मध्य और अंत में भगवान् श्री रामचंद्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं॥3॥ |
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7. चौपाई 61.4: हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब संदेह दूर हो जाएगा और तुम्हें श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम होगा॥4॥ |
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7. दोहा 61: सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्री रामचंद्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता॥61॥ |
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7. चौपाई 62a.1: बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्री रघुनाथजी नहीं मिलते। (अतएव तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ जहाँ) उत्तर दिशा में एक सुंदर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं॥1॥ |
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7. चौपाई 62a.2: वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल के हैं। वे निरंतर श्री रामचंद्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदर सहित सुनते हैं॥2॥ |
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7. चौपाई 62a.3: वहाँ जाकर श्री हरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा। मैंने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया॥3॥ |
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7. चौपाई 62a.4: हे उमा! मैंने उसको इसीलिए नहीं समझाया कि मैं श्री रघुनाथजी की कृपा से उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान श्री रामजी नष्ट करना चाहते हैं॥4॥ |
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7. चौपाई 62a.5: फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी पक्षी की ही बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभु की माया (बड़ी ही) बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले?॥5॥ |
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7. दोहा 62a: जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं॥62 (क)॥ |
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7. दोहा 62b: यह माया जब शिवजी और ब्रह्माजी को भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा क्या चीज है? जी में ऐसा जानकर ही मुनि लोग उस माया के स्वामी भगवान् का भजन करते हैं॥62 (ख)॥ |
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7. मासपारायण 28: अट्ठाईसवाँ विश्राम |
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