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श्री रामचरितमानस  »  नवाह्नपारायण 8: आठवाँ विश्राम  » 
 
 
 
 
 
 
6. दोहा 12b:  पवनपुत्र हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुजान श्री रामजी हँसे। फिर दक्षिण की ओर देखकर कृपानिधान प्रभु बोले-॥12 (ख)॥
 
6. चौपाई 13a.1:  हे विभीषण! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे (हल्के-हल्के) स्वर से गरज रहा है। कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो!॥1॥
 
6. चौपाई 13a.2:  विभीषण बोले- हे कृपालु! सुनिए, यह न तो बिजली है, न बादलों की घटा। लंका की चोटी पर एक महल है। दशग्रीव रावण वहाँ (नाच-गान का) अखाड़ा देख रहा है॥2॥
 
6. चौपाई 13a.3:  रावण ने सिर पर मेघडंबर (बादलों के डंबर जैसा विशाल और काला) छत्र धारण कर रखा है। वही मानो बादलों की काली घटा है। मंदोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं, हे प्रभो! वही मानो बिजली चमक रही है॥3॥
 
6. चौपाई 13a.4:  हे देवताओं के सम्राट! सुनिए, अनुपम ताल मृदंग बज रहे हैं। वही मधुर (गर्जन) ध्वनि है। रावण का अभिमान समझकर प्रभु मुस्कुराए। उन्होंने धनुष चढ़ाकर उस पर बाण का सन्धान किया॥4॥
 
6. दोहा 13a:  और एक ही बाण से (रावण के) छत्र-मुकुट और (मंदोदरी के) कर्णफूल काट गिराए। सबके देखते-देखते वे जमीन पर आ पड़े, पर इसका भेद (कारण) किसी ने नहीं जाना॥13 (क)॥
 
6. दोहा 13b:  ऐसा चमत्कार करके श्री रामजी का बाण (वापस) आकर (फिर) तरकस में जा घुसा। यह महान्‌ रस भंग (रंग में भंग) देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई॥13 (ख)॥
 
6. चौपाई 14.1:  न भूकम्प हुआ, न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्णफूल जैसे कटकर गिर पड़े?) सभी अपने-अपने हृदय में सोच रहे हैं कि यह बड़ा भयंकर अपशकुन हुआ!॥1॥
 
6. चौपाई 14.2:  सभा को भयतीत देखकर रावण ने हँसकर युक्ति रचकर ये वचन कहे- सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता रहा है, उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा?॥2॥
 
6. चौपाई 14.3:  अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरने की कोई बात नहीं है) तब सब लोग सिर नवाकर घर गए। जब से कर्णफूल पृथ्वी पर गिरा, तब से मंदोदरी के हृदय में सोच बस गया॥3॥
 
6. चौपाई 14.4:  नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोड़कर वह (रावण से) कहने लगी- हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम! श्री राम से विरोध छोड़ दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़े रहिए॥4॥
 
6. दोहा 14:  मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिए कि ये रघुकुल के शिरोमणि श्री रामचंद्रजी विश्व रूप हैं- (यह सारा विश्व उन्हीं का रूप है)। वेद जिनके अंग-अंग में लोकों की कल्पना करते हैं॥14॥
 
6. चौपाई 15a.1:  पाताल (जिन विश्व रूप भगवान्‌ का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन (भौंहों का चलना) है। सूर्य नेत्र हैं, बादलों का समूह बाल है॥1॥
 
6. चौपाई 15a.2:  अश्विनी कुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है॥2॥
 
6. चौपाई 15a.3:  लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत हैं। माया हँसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है॥3॥
 
6. चौपाई 15a.4:  अठारह प्रकार की असंख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैं, पर्वत अस्थियाँ हैं, नदियाँ नसों का जाल है, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इंद्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय हैं, अधिक कल्पना (ऊहापोह) क्या की जाए?॥4॥
 
6. दोहा 15a:  शिव जिनका अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चंद्रमा मन हैं और महान (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचर रूप भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है॥15 (क)॥
 
6. दोहा 15b:  हे प्राणपति सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर श्री रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग न जाए॥15 (ख)॥
 
6. चौपाई 16a.1:  पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला-) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान्‌ है। स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं-॥1॥
 
6. चौपाई 16a.2:  साहस, झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन) अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया॥2॥
 
6. चौपाई 16a.3:  हे प्रिये! वह सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभाव से ही मेरे वश में है। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ पड़ा। हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया। तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुता का बखान कर रही है॥3॥
 
6. चौपाई 16a.4:  हे मृगनयनी! तेरी बातें बड़ी गूढ़ (रहस्यभरी) हैं, समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय छुड़ाने वाली हैं। मंदोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है॥4॥
 
6. दोहा 16a:  इस प्रकार (अज्ञानवश) बहुत से विनोद करते हुए रावण को सबेरा हो गया। तब स्वभाव से ही निडर और घमंड में अंधा लंकापति सभा में गया॥16 (क)॥
 
6. सोरठा 16b:  यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥16 (ख)॥
 
6. चौपाई 17a.1:  यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान्‌ ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाकर कहा-॥1॥
 
6. चौपाई 17a.2:  हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए!॥2॥
 
6. चौपाई 17a.3:  यह अच्छी सलाह सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान श्री रामजी ने अंगद से कहा- हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ॥3॥
 
6. चौपाई 17a.4:  तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो॥4॥
 
6. सोरठा 17a:  प्रभु की आज्ञा सिर चढ़कर और उनके चरणों की वंदना करके अंगदजी उठे (और बोले-) हे भगवान्‌ श्री रामजी! आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है॥17 (क)॥
 
6. सोरठा 17b:  स्वामी सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं, यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं)। ऐसा विचार कर युवराज अंगद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥17 (ख)॥
 
6. चौपाई 18.1:  चरणों की वंदना करके और भगवान्‌ की प्रभुता हृदय में धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण किए हुए रणबाँकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं॥1॥
 
6. चौपाई 18.2:  लंका में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बातों ही बातों में दोनों में झगड़ा बढ़ गया (क्योंकि) दोनों ही अतुलनीय बलवान्‌ थे और फिर दोनों की युवावस्था थी॥2॥
 
6. चौपाई 18.3:  उसने अंगद पर लात उठाई। अंगद ने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया)। राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके॥3॥
 
6. चौपाई 18.4:  एक-दूसरे को मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं। (रावण पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर) नगरभर में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है॥4॥
 
6. चौपाई 18.5:  सब अत्यंत भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अंगद को (रावण के दरबार की) राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं, वही डर के मारे सूख जाता है॥5॥
 
6. दोहा 18:  श्री रामजी के चरणकमलों का स्मरण करके अंगद रावण की सभा के द्वार पर गए और वे धीर, वीर और बल की राशि अंगद सिंह की सी ऐंड़ (शान) से इधर-उधर देखने लगे॥18॥
 
6. चौपाई 19.1:  तुरंत ही उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला- बुला लाओ, (देखें) कहाँ का बंदर है॥1॥
 
6. चौपाई 19.2:  आज्ञा पाकर बहुत से दूत दौड़े और वानरों में हाथी के समान अंगद को बुला लाए। अंगद ने रावण को ऐसे बैठे हुए देखा, जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजल का पहाड़ हो!॥2॥
 
6. चौपाई 19.3:  भुजाएँ वृक्षों के और सिर पर्वतों के शिखरों के समान हैं। रोमावली मानो बहुत सी लताएँ हैं। मुँह, नाक, नेत्र और कान पर्वत की कन्दराओं और खोहों के बराबर हैं॥3॥
 
6. चौपाई 19.4:  अत्यंत बलवान्‌ बाँके वीर बालिपुत्र अंगद सभा में गए, वे मन में जरा भी नहीं झिझके। अंगद को देखते ही सब सभासद् उठ खड़े हुए। यह देखकर रावण के हृदय में बड़ा क्रोध हुआ॥4॥
 
6. दोहा 19:  जैसे मतवाले हाथियों के झुंड में सिंह (निःशंक होकर) चला जाता है, वैसे ही श्री रामजी के प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय) सभा में सिर नवाकर बैठ गए॥19॥
 
6. चौपाई 20.1:  रावण ने कहा- अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा-) हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ॥1॥
 
6. चौपाई 20.2:  तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिवजी की और ब्रह्माजी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वर पाए हैं और सब काम सिद्ध किए हैं। लोकपालों और सब राजाओं को तुमने जीत लिया है॥2॥
 
6. चौपाई 20.3:  राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजी को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलने से) प्रभु श्री रामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे॥3॥
 
6. चौपाई 20.4:  दाँतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और कुटुम्बियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकीजी को आगे करके, इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो-॥4॥
 
6. दोहा 20:  और ‘हे शरणागत के पालन करने वाले रघुवंश शिरोमणि श्री रामजी! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।’ (इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।) आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देंगे॥20॥
 
6. चौपाई 21.1:  (रावण ने कहा-) अरे बंदर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। किस नाते से मित्रता मानता है?॥1॥
 
6. चौपाई 21.2:  (अंगद ने कहा-) मेरा नाम अंगद है, मैं बालि का पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी? अंगद का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला-) हाँ, मैं जान गया (मुझे याद आ गया), बालि नाम का एक बंदर था॥2॥
 
6. चौपाई 21.3:  अरे अंगद! तू ही बालि का लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बाँस के लिए अग्नि रूप ही पैदा हुआ! गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया तू? व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँह से तपस्वियों का दूत कहलाया!॥3॥
 
6. चौपाई 21.4:  अब बालि की कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अंगद ने हँसकर कहा- दस (कुछ) दिन बीतने पर (स्वयं ही) बालि के पास जाकर, अपने मित्र को हृदय से लगाकर, उसी से कुशल पूछ लेना॥4॥
 
6. चौपाई 21.5:  श्री रामजी से विरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनावेंगे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड़ सकता है, (भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों॥5॥
 
6. दोहा 21:  सच है, मैं तो कुल का नाश करने वाला हूँ और हे रावण! तुम कुल के रक्षक हो। अंधे-बहरे भी ऐसी बात नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं!॥21॥
 
6. चौपाई 22a.1:  शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा (करना) चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुल को डुबा दिया? अरे ऐसी बुद्धि होने पर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता?॥1॥
 
6. चौपाई 22a.2:  वानर (अंगद) की कठोर वाणी सुनकर रावण आँखें तरेरकर (तिरछी करके) बोला- अरे दुष्ट! मैं तेरे सब कठोर वचन इसीलिए सह रहा हूँ कि मैं नीति और धर्म को जानता हूँ (उन्हीं की रक्षा कर रहा हूँ)॥2॥
 
6. चौपाई 22a.3:  अंगद ने कहा- तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है। (वह यह कि) तुमने पराई स्त्री की चोरी की है! और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आँखों से देख ली। ऐसे धर्म के व्रत को धारण (पालन) करने वाले तुम डूबकर मर नहीं जाते!॥3॥
 
6. चौपाई 22a.4:  नाक-कान से रहित बहिन को देखकर तुमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था! तुम्हारी धर्मशीलता जगजाहिर है। मैं भी बड़ा भाग्यवान्‌ हूँ, जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया?॥4॥
 
6. दोहा 22a:  (रावण ने कहा-) अरे जड़ जन्तु वानर! व्यर्थ बक-बक न कर, अरे मूर्ख! मेरी भुजाएँ तो देख। ये सब लोकपालों के विशाल बल रूपी चंद्रमा को ग्रसने के लिए राहु हैं॥22 (क)॥
 
6. दोहा 22b:  फिर (तूने सुना ही होगा कि) आकाश रूपी तालाब में मेरी भुजाओं रूपी कमलों पर बसकर शिवजी सहित कैलास हंस के समान शोभा को प्राप्त हुआ था!॥22 (ख)॥
 
6. चौपाई 23a.1:  अरे अंगद! सुन, तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है॥1॥
 
6. चौपाई 23a.2:  तुम और सुग्रीव, दोनों (नदी) तट के वृक्ष हो (रहा) मेरा छोटा भाई विभीषण, (सो) वह भी बड़ा डरपोक है। मंत्री जाम्बवान्‌ बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ (उद्यत हो) सकता है?॥2॥
 
6. चौपाई 23a.3:  नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं (वे लड़ना क्या जानें?)। हाँ, एक वानर जरूर महान्‌ बलवान्‌ है, जो पहले आया था और जिसने लंका जलाई थी। यह वचन सुनते ही बालि पुत्र अंगद ने कहा-॥3॥
 
6. चौपाई 23a.4:  हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? रावण (जैसे जगद्विजयी योद्धा) का नगर एक छोटे से वानर ने जला दिया। ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा?॥4॥
 
6. चौपाई 23a.5:  हे रावण! जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा सा दौड़कर चलने वाला हरकारा है। वह बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने (केवल) खबर लेने के लिए भेजा था॥5॥
 
6. दोहा 23a:  क्या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप रहा!॥23 (क)॥
 
6. दोहा 23b:  हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेना में कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे लड़ने में शोभा पाए॥23 (ख)॥
 
6. दोहा 23c:  प्रीति और वैर बराबरी वाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेंढकों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥23 (ग)॥
 
6. दोहा 23d:  यद्यपि तुम्हें मारने में श्री रामजी की लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बड़ा कठिन होता है॥23 (घ)॥
 
6. दोहा 23e:  वक्रोक्ति रूपी धनुष से वचन रूपी बाण मारकर अंगद ने शत्रु का हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणों को मानो प्रत्युत्तर रूपी सँड़सियों से निकाल रहा है॥ 23 (ङ)॥
 
6. दोहा 23f:  तब रावण हँसकर बोला- बंदर में यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है॥23 (च)॥
 
6. चौपाई 24.1:  बंदर को धन्य है, जो अपने मालिक के लिए लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का हित करता है। यह उसके धर्म की निपुणता है॥1॥
 
6. चौपाई 24.2:  हे अंगद! तेरी जाति स्वामिभक्त है (फिर भला) तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा? मैं गुण ग्राहक (गुणों का आदर करने वाला) और परम सुजान (समझदार) हूँ, इसी से तेरी जली-कटी बक-बक पर कान (ध्यान) नहीं देता॥2॥
 
6. चौपाई 24.3:  अंगद ने कहा- तुम्हारी सच्ची गुण ग्राहकता तो मुझे हनुमान्‌ ने सुनाई थी। उसने अशोक वन में विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुण ग्राहकता के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया॥3॥
 
6. चौपाई 24.4:  तुम्हारा वही सुंदर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धृष्टता की है। हनुमान्‌ ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है॥4॥
 
6. चौपाई 24.5:  (रावण बोला-) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता, परन्तु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ में आ गई!॥5॥
 
6. चौपाई 24.6:  अरे नीच अभिमानी! बालि के निर्मल यश का पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। रावण! यह तो बता कि जगत्‌ में कितने रावण हैं? मैंने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं, उन्हें सुन-॥6॥
 
6. चौपाई 24.7:  एक रावण तो बलि को जीतने पाताल में गया था, तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बाँध रखा। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलि को दया लगी, तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया॥7॥
 
6. चौपाई 24.8:  फिर एक रावण को सहस्रबाहु ने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकार के (विचित्र) जन्तु की तरह (समझकर) पकड़ लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया॥8॥
 
6. दोहा 24:  एक रावण की बात कहने में तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है- वह (बहुत दिनों तक) बालि की काँख में रहा था। इनमें से तुम कौन से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥24॥
 
6. चौपाई 25.1:  (रावण ने कहा-) अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान्‌ रावण हूँ, जिसकी भुजाओं की लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है। जिसकी शूरता उमापति महादेवजी जानते हैं, जिन्हें अपने सिर रूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकर मैंने पूजा था॥1॥
 
6. चौपाई 25.2:  सिर रूपी कमलों को अपने हाथों से उतार-उतारकर मैंने अगणित बार त्रिपुरारि शिवजी की पूजा की है। अरे मूर्ख! मेरी भुजाओं का पराक्रम दिक्पाल जानते हैं, जिनके हृदय में वह आज भी चुभ रहा है॥2॥
 
6. चौपाई 25.3:  दिग्गज (दिशाओं के हाथी) मेरी छाती की कठोरता को जानते हैं। जिनके भयानक दाँत, जब-जब जाकर मैं उनसे जबरदस्ती भिड़ा, मेरी छाती में कभी नहीं फूटे (अपना चिह्न भी नहीं बना सके), बल्कि मेरी छाती से लगते ही वे मूली की तरह टूट गए॥3॥
 
6. चौपाई 25.4:  जिसके चलते समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव! मैं वही जगत प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूँ। अरे झूठी बकवास करने वाले! क्या तूने मुझको कानों से कभी सुना?॥4॥
 
6. दोहा 25:  उस (महान प्रतापी और जगत प्रसिद्ध) रावण को (मुझे) तू छोटा कहता है और मनुष्य की बड़ाई करता है? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया॥25॥
 
6. चौपाई 26.1:  रावण के ये वचन सुनकर अंगद क्रोध सहित वचन बोले- अरे नीच अभिमानी! सँभलकर (सोच-समझकर) बोल। जिनका फरसा सहस्रबाहु की भुजाओं रूपी अपार वन को जलाने के लिए अग्नि के समान था,॥1॥
 
6. चौपाई 26.2:  जिनके फरसा रूपी समुद्र की तीव्र धारा में अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गए, उन परशुरामजी का गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्यों कर हैं?॥2॥
 
6. चौपाई 26.3:  क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! श्री रामचंद्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गंगाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है?॥3॥
 
6. चौपाई 26.4:  गरुड़जी क्या पक्षी हैं? शेषजी क्या सर्प हैं? अरे रावण! चिंतामणि भी क्या पत्थर है? अरे ओ मूर्ख! सुन, वैकुण्ठ भी क्या लोक है? और श्री रघुनाथजी की अखण्ड भक्ति क्या (और लाभों जैसा ही) लाभ है?॥4॥
 
6. दोहा 26:  सेना समेत तेरा मान मथकर, अशोक वन को उजाड़कर, नगर को जलाकर और तेरे पुत्र को मारकर जो लौट गए (तू उनका कुछ भी न बिगाड़ सका), क्यों रे दुष्ट! वे हनुमान्‌जी क्या वानर हैं?॥26॥
 
6. चौपाई 27.1:  अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी का तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट! यदि तू श्री रामजी का वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे।
 
6. चौपाई 27.2:  हे मूढ़! व्यर्थ गाल न मार (डींग न हाँक)। श्री रामजी से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे सिर समूह श्री रामजी के बाण लगते ही वानरों के आगे पृथ्वी पर पड़ेंगे,॥2॥
 
6. चौपाई 27.3:  और रीछ-वानर तेरे उन गेंद के समान अनेकों सिरों से चौगान खेलेंगे। जब श्री रघुनाथजी युद्ध में कोप करेंगे और उनके अत्यंत तीक्ष्ण बहुत से बाण छूटेंगे,॥3॥
 
6. चौपाई 27.4:  तब क्या तेरा गाल चलेगा? ऐसा विचार कर उदार (कृपालु) श्री रामजी को भज। अंगद के ये वचन सुनकर रावण बहुत अधिक जल उठा। मानो जलती हुई प्रचण्ड अग्नि में घी पड़ गया हो॥4॥
 
6. दोहा 27:  (वह बोला- अरे मूर्ख!) कुंभकर्ण- ऐसा मेरा भाई है, इन्द्र का शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है! और मेरा पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैंने संपूर्ण जड़-चेतन जगत्‌ को जीत लिया है!॥27॥
 
6. चौपाई 28.1:  रे दुष्ट! वानरों की सहायता जोड़कर राम ने समुद्र बाँध लिया, बस, यही उसकी प्रभुता है। समुद्र को तो अनेकों पक्षी भी लाँघ जाते हैं। पर इसी से वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते। अरे मूर्ख बंदर! सुन-॥1॥
 
6. चौपाई 28.2:  मेरा एक-एक भुजा रूपी समुद्र बल रूपी जल से पूर्ण है, जिसमें बहुत से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चूके हैं। (बता,) कौन ऐसा शूरवीर है, जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रों का पार पा जाएगा?॥2॥
 
6. चौपाई 28.3:  अरे दुष्ट! मैंने दिक्पालों तक से जल भरवाया और तू एक राजा का मुझे सुयश सुनाता है! यदि तेरा मालिक, जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, संग्राम में लड़ने वाला योद्धा है-॥3॥
 
6. चौपाई 28.4:  तो (फिर) वह दूत किसलिए भेजता है? शत्रु से प्रीति (सन्धि) करते उसे लाज नहीं आती? (पहले) कैलास का मथन करने वाली मेरी भुजाओं को देख। फिर अरे मूर्ख वानर! अपने मालिक की सराहना करना॥4॥
 
6. दोहा 28:  रावण के समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम दिया! स्वयं गौरीपति शिवजी इस बात के साक्षी हैं॥28॥
 
6. चौपाई 29.1:  मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हँसा॥1॥
 
6. चौपाई 29.2:  उस बात को समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है। (क्योंकि मैं समझता हूँ कि) बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है!॥2॥
 
6. चौपाई 29.3:  अंगद ने कहा- अरे रावण! तेरे समान लज्जावान्‌ जगत्‌ में कोई नहीं है। लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव ही है। तू अपने मुँह से अपने गुण कभी नहीं कहता॥3॥
 
6. चौपाई 29.4:  सिर काटने और कैलास उठाने की कथा चित्त में चढ़ी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा। भुजाओं के उस बल को तूने हृदय में ही टाल (छिपा) रखा है, जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बालि को जीता था॥4॥
 
6. चौपाई 29.5:  अरे मंद बुद्धि! सुन, अब बस कर। सिर काटने से भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है? इंद्रजाल रचने वाले को वीर नहीं कहा जाता, यद्यपि वह अपने ही हाथों अपना सारा शरीर काट डालता है!॥5॥
 
6. दोहा 29:  अरे मंद बुद्धि! समझकर देख। पतंगे मोहवश आग में जल मरते हैं, गदहों के झुंड बोझ लादकर चलते हैं, पर इस कारण वे शूरवीर नहीं कहलाते॥29॥
 
6. चौपाई 30.1:  अरे दुष्ट! अब बतबढ़ाव मत कर, मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह (सन्धि करने) नहीं आया हूँ। श्री रघुवीर ने ऐसा विचार कर मुझे भेजा है-॥1॥
 
6. चौपाई 30.2:  कृपालु श्री रामजी बार-बार ऐसा कहते हैं कि स्यार के मारने से सिंह को यश नहीं मिलता। अरे मूर्ख! प्रभु के (उन) वचनों को मन में समझकर (याद करके) ही मैंने तेरे कठोर वचन सहे हैं॥2॥
 
6. चौपाई 30.3:  नहीं तो तेरे मुँह तोड़कर मैं सीताजी को जबरदस्ती ले जाता। अरे अधम! देवताओं के शत्रु! तेरा बल तो मैंने तभी जान लिया, जब तू सूने में पराई स्त्री को हर (चुरा) लाया॥3॥
 
6. चौपाई 30.4:  तू राक्षसों का राजा और बड़ा अभिमानी है, परन्तु मैं तो श्री रघुनाथजी के सेवक (सुग्रीव) का दूत (सेवक का भी सेवक) हूँ। यदि मैं श्री रामजी के अपमान से न डरूँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा करूँ कि-॥4॥
 
6. दोहा 30:  तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट (नष्ट-भ्रष्ट) करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकीजी को ले जाऊँ॥30॥
 
6. चौपाई 31a.1:  यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,॥1॥
 
6. चौपाई 31a.2:  नित्य का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान्‌ विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निंदा करने वाला और पाप की खान (महान्‌ पापी)- ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं॥2॥
 
6. चौपाई 31a.3:  अरे दुष्ट! ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न दिला)। अंगद के वचन सुनकर राक्षस राज रावण दाँतों से होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला-॥3॥
 
6. चौपाई 31a.4:  अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मुँह बड़ी बात कहता है। अरे मूर्ख बंदर! तू जिसके बल पर कड़ुए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है॥4॥
 
6. दोहा 31a:  उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो पिता ने वनवास दे दिया। उसे एक तो वह (उसका) दुःख, उस पर युवती स्त्री का विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना रहता है॥31 (क)॥
 
6. दोहा 31b:  जिनके बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। अरे मूढ़! जिद्द छोड़कर समझ (विचार कर)॥ 31 (ख)॥
 
6. चौपाई 32a.1:  जब उसने श्री रामजी की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, क्योंकि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान्‌ विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गो वध के समान पाप होता है॥1॥
 
6. चौपाई 32a.2:  वानर श्रेष्ठ अंगद बहुत जोर से कटकटाए (शब्द किया) और उन्होंने तमककर (जोर से) अपने दोनों भुजदण्डों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, (जिससे बैठे हुए) सभासद् गिर पड़े और भय रूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले॥2॥
 
6. चौपाई 32a.3:  रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यंत सुंदर मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरों पर सुधाकर रख लिए और कुछ अंगद ने उठाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी के पास फेंक दिए॥3॥
 
6. चौपाई 32a.4:  मुकुटों को आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) विधाता! क्या दिन में ही उल्कापात होने लगा (तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं, जो बड़े धाए के साथ (वेग से) आ रहे हैं?॥4॥
 
6. चौपाई 32a.5:  प्रभु ने (उनसे) हँसकर कहा- मन में डरो नहीं। ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! ये तो रावण के मुकुट हैं, जो बालिपुत्र अंगद के फेंके हुए आ रहे हैं॥5॥
 
6. दोहा 32a:  पवन पुत्र श्री हनुमान्‌जी ने उछलकर उनको हाथ से पकड़ लिया और लाकर प्रभु के पास रख दिया। रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उनका प्रकाश सूर्य के समान था॥32 (क)॥
 
6. दोहा 32b:  वहाँ (सभा में) क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि- बंदर को पकड़ लो और पकड़कर मार डालो। अंगद यह सुनकर मुस्कुराने लगे॥32 (ख)॥
 
6. चौपाई 33a.1:  (रावण फिर बोला-) इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहाँ कहीं रीछ-वानरों को पाओ, वहीं खा डालो। पृथ्वी को बंदरों से रहित कर दो और जाकर दोनों तपस्वी भाइयों (राम-लक्ष्मण) को जीते जी पकड़ लो॥1॥
 
6. चौपाई 33a.2:  (रावण के ये कोपभरे वचन सुनकर) तब युवराज अंगद क्रोधित होकर बोले- तुझे गाल बजाते लाज नहीं आती! अरे निर्लज्ज! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आत्महत्या करके) मर जा! मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती!॥2॥
 
6. चौपाई 33a.3:  अरे स्त्री के चोर! अरे कुमार्ग पर चलने वाले! अरे दुष्ट, पाप की राशि, मन्द बुद्धि और कामी! तू सन्निपात में क्या दुर्वचन बक रहा है? अरे दुष्ट राक्षस! तू काल के वश हो गया है!॥3॥
 
6. चौपाई 33a.4:  इसका फल तू आगे वानर और भालुओं के चपेटे लगने पर पावेगा। राम मनुष्य हैं, ऐसा वचन बोलते ही, अरे अभिमानी! तेरी जीभें नहीं गिर पड़तीं?॥4॥
 
6. चौपाई 33a.5:  इसमें संदेह नहीं है कि तेरी जीभें (अकेले नहीं वरन) सिरों के साथ रणभूमि में गिरेंगी॥5॥
 
6. सोरठा 33a:  रे दशकन्ध! जिसने एक ही बाण से बालि को मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड़! बीस आँखें होने पर भी तू अंधा है। तेरे जन्म को धिक्कार है॥33 (क)॥
 
6. सोरठा 33b:  श्री रामचंद्रजी के बाण समूह तेरे रक्त की प्यास से प्यासे हैं। (वे प्यासे ही रह जाएँगे) इस डर से, अरे कड़वी बकवाद करने वाले नीच राक्षस! मैं तुझे छोड़ता हूँ॥33 (ख)॥
 
6. चौपाई 34a.1:  मैं तेरे दाँत तोड़ने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? श्री रघुनाथजी ने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि तेरे दसों मुँह तोड़ डालूँ और (तेरी) लंका को पकड़कर समुद्र में डुबो दूँ॥1॥
 
6. चौपाई 34a.2:  तेरी लंका गूलर के फल के समान है। तुम सब कीड़े उसके भीतर (अज्ञानवश) निडर होकर बस रहे हो। मैं बंदर हूँ, मुझे इस फल को खाते क्या देर थी? पर उदार (कृपालु) श्री रामचंद्रजी ने वैसी आज्ञा नहीं दी॥2॥
 
6. चौपाई 34a.3:  अंगद की युक्ति सुनकर रावण मुस्कुराया (और बोला-) अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहाँ से सीखा? बालि ने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पड़ता है तू तपस्वियों से मिलकर लबार हो गया है॥3॥
 
6. चौपाई 34a.4:  (अंगद ने कहा-) अरे बीस भुजा वाले! यदि तेरी दसों जीभें मैंने नहीं उखाड़ लीं तो सचमुच मैं लबार ही हूँ। श्री रामचंद्रजी के प्रताप को समझकर (स्मरण करके) अंगद क्रोधित हो उठे और उन्होंने रावण की सभा में प्रण करके (दृढ़ता के साथ) पैर रोप दिया॥4॥
 
6. चौपाई 34a.5:  (और कहा-) अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्री रामजी लौट जाएँगे, मैं सीताजी को हार गया। रावण ने कहा- हे सब वीरो! सुनो, पैर पकड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ दो॥5॥
 
6. चौपाई 34a.6:  इंद्रजीत (मेघनाद) आदि अनेकों बलवान्‌ योद्धा जहाँ-तहाँ से हर्षित होकर उठे। वे पूरे बल से बहुत से उपाय करके झपटते हैं। पर पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठ जाते हैं॥6॥
 
6. चौपाई 34a.7:  (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) वे देवताओं के शत्रु (राक्षस) फिर उठकर झपटते हैं, परन्तु हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! अंगद का चरण उनसे वैसे ही नहीं टलता जैसे कुयोगी (विषयी) पुरुष मोह रूपी वृक्ष को नहीं उखाड़ सकते॥7॥
 
6. दोहा 34a:  करोड़ों वीर योद्धा जो बल में मेघनाद के समान थे, हर्षित होकर उठे, वे बार-बार झपटते हैं, पर वानर का चरण नहीं उठता, तब लज्जा के मारे सिर नवाकर बैठ जाते हैं॥34 (क)॥
 
6. दोहा 34b:  जैसे करोड़ों विघ्न आने पर भी संत का मन नीति को नहीं छोड़ता, वैसे ही वानर (अंगद) का चरण पृथ्वी को नहीं छोड़ता। यह देखकर शत्रु (रावण) का मद दूर हो गया!॥34 (ख)॥
 
6. चौपाई 35a.1:  अंगद का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बालि कुमार अंगद ने कहा- मेरा चरण पकड़ने से तेरा बचाव नहीं होगा!॥1॥
 
6. चौपाई 35a.2:  अरे मूर्ख- तू जाकर श्री रामजी के चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मन में बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्न में चंद्रमा दिखाई देता है॥2॥
 
6. चौपाई 35a.3:  वह सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा। मानो सारी सम्पत्ति गँवाकर बैठा हो। श्री रामचंद्रजी जगत्‌भर के आत्मा और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख रहने वाला शांति कैसे पा सकता है?॥3॥
 
6. चौपाई 35a.4:  (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जिन श्री रामचंद्रजी के भ्रूविलास (भौंह के इशारे) से विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाश को प्राप्त होता है, जो तृण को वज्र और वज्र को तृण बना देते हैं (अत्यंत निर्बल को महान्‌ प्रबल और महान्‌ प्रबल को अत्यंत निर्बल कर देते हैं), उनके दूत का प्रण कहो, कैसे टल सकता है?॥4॥
 
6. चौपाई 35a.5:  फिर अंगद ने अनेकों प्रकार से नीति कही। पर रावण नहीं माना, क्योंकि उसका काल निकट आ गया था। शत्रु के गर्व को चूर करके अंगद ने उसको प्रभु श्री रामचंद्रजी का सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालि का पुत्र यह कहकर चल दिया-॥5॥
 
6. चौपाई 35a.6:  रणभूमि में तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तब तक अभी (पहले से) क्या बड़ाई करूँ। अंगद ने पहले ही (सभा में आने से पूर्व ही) उसके पुत्र को मार डाला था। वह संवाद सुनकर रावण दुःखी हो गया॥6॥
 
6. चौपाई 35a.7:  अंगद का प्रण (सफल) देखकर सब राक्षस भय से अत्यन्त ही व्याकुल हो गए॥7॥
 
6. दोहा 35a:  शत्रु के बल का मर्दन कर, बल की राशि बालि पुत्र अंगदजी ने हर्षित होकर आकर श्री रामचंद्रजी के चरणकमल पकड़ लिए। उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल भरा है॥35 (क)॥
 
6. दोहा 35b:  सन्ध्या हो गई जानकर दशग्रीव बिलखता हुआ (उदास होकर) महल में गया। मन्दोदरी ने रावण को समझाकर फिर कहा-॥35 (ख)॥
 
6. चौपाई 36.1:  हे कान्त! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है॥1॥
 
6. चौपाई 36.2:  हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान्‌) आपकी लंका में निर्भय चला आया!॥2॥
 
6. चौपाई 36.3:  रखवालों को मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमार को मार डाला और संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था?॥3॥
 
6. चौपाई 36.4:  अब हे स्वामी! झूठ (व्यर्थ) गाल न मारिए (डींग न हाँकिए) मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए। हे पति! आप श्री रघुपति को (निरा) राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामी) और अतुलनीय बलवान्‌ जानिए॥4॥
 
6. चौपाई 36.5:  श्री रामजी के बाण का प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था, परन्तु आपने उसका कहना भी नहीं माना। जनक की सभा में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल और अतुलनीय बल वाले आप भी थे॥5॥
 
6. चौपाई 36.6:  वहाँ शिवजी का धनुष तोड़कर श्री रामजी ने जानकी को ब्याहा, तब आपने उनको संग्राम में क्यों नहीं जीता? इंद्रपुत्र जयन्त उनके बल को कुछ-कुछ जानता है। श्री रामजी ने पकड़कर, केवल उसकी एक आँख ही फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया॥6॥
 
6. चौपाई 36.7:  शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में (उनसे लड़ने की बात सोचते) विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती!॥7॥
 
6. दोहा 36:  जिन्होंने विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबन्ध को भी मार डाला और जिन्होंने बालि को एक ही बाण से मार दिया, हे दशकन्ध! आप उन्हें (उनके महत्व को) समझिए!॥36॥
 
6. चौपाई 37.1:  जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) करुणामय भगवान्‌ ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा॥1॥
 
6. चौपाई 37.2:  जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुंड में आकर सिंह (उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है) रण में बाँके अत्यंत विकट वीर अंगद और हनुमान्‌ जिनके सेवक हैं,॥2॥
 
6. चौपाई 37.3:  हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने श्री रामजी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता॥3॥
 
6. चौपाई 37.4:  काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल (मरण समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है॥4॥
 
6. दोहा 37:  आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए॥37॥
 
6. चौपाई 38a.1:  स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यंत अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा॥1॥
 
6. चौपाई 38a.2:  यहाँ (सुबेल पर्वत पर) श्री रामजी ने अंगद को बुलाया। उन्होंने आकर चरणकमलों में सिर नवाया। बड़े आदर से उन्हें पास बैठाकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी हँसकर बोले॥2॥
 
6. चौपाई 38a.3:  हे बालि के पुत्र! मुझे बड़ा कौतूहल है। हे तात! इसी से मैं तुमसे पूछता हूँ, सत्य कहना। जो रावण राक्षसों के कुल का तिलक है और जिसके अतुलनीय बाहुबल की जगत्‌भर में धाक है,॥3॥
 
6. चौपाई 38a.4:  उसके चार मुकुट तुमने फेंके। हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकार से पाया! (अंगद ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देने वाले! सुनिए। वे मुकुट नहीं हैं। वे तो राजा के चार गुण हैं॥4॥
 
6. चौपाई 38a.5:  हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं, (किन्तु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं॥5॥
 
6. दोहा 38a:  दशशीश रावण धर्महीन, प्रभु के पद से विमुख और काल के वश में है, इसलिए हे कोसलराज! सुनिए, वे गुण रावण को छोड़कर आपके पास आ गए हैं॥ 38 (क)॥
 
6. दोहा 38b:  अंगद की परम चतुरता (पूर्ण उक्ति) कानों से सुनकर उदार श्री रामचंद्रजी हँसने लगे। फिर बालि पुत्र ने किले के (लंका के) सब समाचार कहे॥38 (ख)॥
 
6. चौपाई 39.1:  जब शत्रु के समाचार प्राप्त हो गए, तब श्री रामचंद्रजी ने सब मंत्रियों को पास बुलाया (और कहा-) लंका के चार बड़े विकट दरवाजे हैं। उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए, इस पर विचार करो॥1॥
 
6. चौपाई 39.2:  तब वानरराज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान्‌ और विभीषण ने हृदय में सूर्य कुल के भूषण श्री रघुनाथजी का स्मरण किया और विचार करके उन्होंने कर्तव्य निश्चित किया। वानरों की सेना के चार दल बनाए॥2॥
 
6. चौपाई 39.3:  और उनके लिए यथायोग्य (जैसे चाहिए वैसे) सेनापति नियुक्त किए। फिर सब यूथपतियों को बुला लिया और प्रभु का प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर, सिंह के समान गर्जना करके दौड़े॥3॥
 
6. चौपाई 39.4:  वे हर्षित होकर श्री रामजी के चरणों में सिर नवाते हैं और पर्वतों के शिखर ले-लेकर सब वीर दौड़ते हैं। ‘कोसलराज श्री रघुवीरजी की जय हो’ पुकारते हुए भालू और वानर गरजते और ललकारते हैं॥4॥
 
6. चौपाई 39.5:  लंका को अत्यंत श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर प्रभु श्री रामचंद्रजी के प्रताप से निडर होकर चले। चारों ओर से घिरी हुई बादलों की घटा की तरह लंका को चारों दिशाओं से घेरकर वे मुँह से डंके और भेरी बजाने लगे॥5॥
 
6. दोहा 39:  महान्‌ बल की सीमा वे वानर-भालू सिंह के समान ऊँचे स्वर से ‘श्री रामजी की जय’, ‘लक्ष्मणजी की जय’, ‘वानरराज सुग्रीव की जय’- ऐसी गर्जना करने लगे॥39॥
 
6. चौपाई 40.1:  लंका में बड़ा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा- वानरों की ढिठाई तो देखो! यह कहते हुए हँसकर उसने राक्षसों की सेना बुलाई॥1॥
 
6. चौपाई 40.2:  बंदर काल की प्रेरणा से चले आए हैं। मेरे राक्षस सभी भूखे हैं। विधाता ने इन्हें घर बैठे भोजन भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्ख ने अट्टहास किया (वह बड़े जोर से ठहाका मारकर हँसा)॥2॥
 
6. चौपाई 40.3:  (और बोला-) हे वीरों! सब लोग चारों दिशाओं में जाओ और रीछ-वानर सबको पकड़-पकड़कर खाओ। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! रावण को ऐसा अभिमान था जैसा टिटिहिरी पक्षी पैर ऊपर की ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)॥3॥
 
6. चौपाई 40.4:  आज्ञा माँगकर और हाथों में उत्तम भिंदिपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मुद्गर, प्रचण्ड फरसे, शूल, दोधारी तलवार, परिघ और पहाड़ों के टुकड़े लेकर राक्षस चले॥4॥
 
6. चौपाई 40.5:  जैसे मूर्ख मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरों का समूह देखकर उस पर टूट पड़ते हैं, (पत्थरों पर लगने से) चोंच टूटने का दुःख उन्हें नहीं सूझता, वैसे ही ये बेसमझ राक्षस दौड़े॥5॥
 
6. दोहा 40:  अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और धनुष-बाण धारण किए करोड़ों बलवान्‌ और रणधीर राक्षस वीर परकोटे के कँगूरों पर चढ़ गए॥40॥
 
6. चौपाई 41.1:  वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डंके आदि बज रहे हैं, (जिनकी) ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में (लड़ने का) चाव होता है॥1॥
 
6. चौपाई 41.2:  अगणित नफीरी और भेरी बज रही है, (जिन्हें) सुनकर कायरों के हृदय में दरारें पड़ जाती हैं। उन्होंने जाकर अत्यन्त विशाल शरीर वाले महान्‌ योद्धा वानर और भालुओं के ठट्ट (समूह) देखे॥2॥
 
6. चौपाई 41.3:  (देखा कि) वे रीछ-वानर दौड़ते हैं, औघट (ऊँची-नीची, विकट) घाटियों को कुछ नहीं गिनते। पकड़कर पहाड़ों को फोड़कर रास्ता बना लेते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं। दाँतों से होठ काटते और खूब डपटते हैं॥3॥
 
6. चौपाई 41.4:  उधर रावण की और इधर श्री रामजी की दुहाई बोली जा रही है। ‘जय’ ‘जय’ ‘जय’ की ध्वनि होते ही लड़ाई छिड़ गई। राक्षस पहाड़ों के ढेर के ढेर शिखरों को फेंकते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड़ लेते हैं और वापस उन्हीं की ओर चलाते हैं॥4॥
 
6. छंद 41.1:  प्रचण्ड वानर और भालू पर्वतों के टुकड़े ले-लेकर किले पर डालते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसों के पैर पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर पटककर भाग चलते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चंचल और बड़े तेजस्वी वानर-भालू बड़ी फुर्ती से उछलकर किले पर चढ़-चढ़कर गए और जहाँ-तहाँ महलों में घुसकर श्री रामजी का यश गाने लगे।
 
6. दोहा 41:  फिर एक-एक राक्षस को पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे (राक्षस) योद्धा- इस प्रकार वे (किले से) धरती पर आ गिरते हैं॥41॥
 
6. चौपाई 42.1:  श्री रामजी के प्रताप से प्रबल वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह के समूह मसल रहे हैं। वानर फिर जहाँ-तहाँ किले पर चढ़ गए और प्रताप में सूर्य के समान श्री रघुवीर की जय बोलने लगे॥1॥
 
6. चौपाई 42.2:  राक्षसों के झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोर की हवा चलने पर बादलों के समूह तितर-बितर हो जाते हैं। लंका नगरी में बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी (असमर्थता के कारण) रोने लगे॥2॥
 
6. चौपाई 42.3:  सब मिलकर रावण को गालियाँ देने लगे कि राज्य करते हुए इसने मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब अपनी सेना का विचलित होना कानों से सुना, तब (भागते हुए) योद्धाओं को लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला-॥3॥
 
6. चौपाई 42.4:  मैं जिसे रण से पीठ देकर भागा हुआ अपने कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दोधारी तलवार से मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया, भाँति-भाँति के भोग किए और अब रणभूमि में प्राण प्यारे हो गए!॥4॥
 
6. चौपाई 42.5:  रावण के उग्र (कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गए और लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट चले। रण में (शत्रु के) सम्मुख (युद्ध करते हुए) मरने में ही वीर की शोभा है। (यह सोचकर) तब उन्होंने प्राणों का लोभ छोड़ दिया॥5॥
 
6. दोहा 42:  बहुत से अस्त्र-शस्त्र धारण किए, सब वीर ललकार-ललकारकर भिड़ने लगे। उन्होंने परिघों और त्रिशूलों से मार-मारकर सब रीछ-वानरों को व्याकुल कर दिया॥42॥
 
6. चौपाई 43.1:  (शिवजी कहते हैं-) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबड़ाकर) भागने लगे, यद्यपि हे उमा! आगे चलकर (वे ही) जीतेंगे। कोई कहता है- अंगद-हनुमान्‌ कहाँ हैं? बलवान्‌ नल, नील और द्विविद कहाँ हैं?॥1॥
 
6. चौपाई 43.2:  हनुमान्‌जी ने जब अपने दल को विकल (भयभीत) हुआ सुना, उस समय वे बलवान्‌ पश्चिम द्वार पर थे। वहाँ उनसे मेघनाद युद्ध कर रहा था। वह द्वार टूटता न था, बड़ी भारी कठिनाई हो रही थी॥2॥
 
6. चौपाई 43.3:  तब पवनपुत्र हनुमान्‌जी के मन में बड़ा भारी क्रोध हुआ। वे काल के समान योद्धा बड़े जोर से गरजे और कूदकर लंका के किले पर आ गए और पहाड़ लेकर मेघनाद की ओर दौड़े॥3॥
 
6. चौपाई 43.4:  रथ तोड़ डाला, सारथी को मार गिराया और मेघनाद की छाती में लात मारी। दूसरा सारथी मेघनाद को व्याकुल जानकर, उसे रथ में डालकर, तुरंत घर ले आया॥4॥
 
6. दोहा 43:  इधर अंगद ने सुना कि पवनपुत्र हनुमान्‌ किले पर अकेले ही गए हैं, तो रण में बाँके बालि पुत्र वानर के खेल की तरह उछलकर किले पर चढ़ गए॥43॥
 
6. चौपाई 44.1:  युद्ध में शत्रुओं के विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गए। हृदय में श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके दोनों दौड़कर रावण के महल पर जा चढ़े और कोसलराज श्री रामजी की दुहाई बोलने लगे॥1॥
 
6. चौपाई 44.2:  उन्होंने कलश सहित महल को पकड़कर ढहा दिया। यह देखकर राक्षस राज रावण डर गया। सब स्त्रियाँ हाथों से छाती पीटने लगीं (और कहने लगीं-) अब की बार दो उत्पाती वानर (एक साथ) आ गए हैं॥2॥
 
6. चौपाई 44.3:  वानरलीला करके (घुड़की देकर) दोनों उनको डराते हैं और श्री रामचंद्रजी का सुंदर यश सुनाते हैं। फिर सोने के खंभों को हाथों से पकड़कर उन्होंने (परस्पर) कहा कि अब उत्पात आरंभ किया जाए॥3॥
 
6. चौपाई 44.4:  वे गर्जकर शत्रु की सेना के बीच में कूद पड़े और अपने भारी भुजबल से उसका मर्दन करने लगे। किसी की लात से और किसी की थप्पड़ से खबर लेते हैं (और कहते हैं कि) तुम श्री रामजी को नहीं भजते, उसका यह फल लो॥4॥
 
6. दोहा 44:  एक को दूसरे से (रगड़कर) मसल डालते हैं और सिरों को तोड़कर फेंकते हैं। वे सिर जाकर रावण के सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं, मानो दही के कूंडे फूट रहे हों॥4॥
 
6. चौपाई 45.1:  जिन बड़े-बड़े मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड़ पाते हैं, उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभु के पास फेंक देते हैं। विभीषणजी उनके नाम बतलाते हैं और श्री रामजी उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं॥1॥
 
6. चौपाई 45.2:  ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं, जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं, (परन्तु सहज में नहीं पाते)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रामजी बड़े ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं॥2॥
 
6. चौपाई 45.3:  ऐसा हृदय में जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और) कौन हैं? प्रभु का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्याग कर उनका भजन नहीं करते, वे अत्यंत मंदबुद्धि और परम भाग्यहीन हैं॥3॥
 
6. चौपाई 45.4:  श्री रामजी ने कहा कि अंगद और हनुमान किले में घुस गए हैं। दोनों वानर लंका में (विध्वंस करते) कैसे शोभा देते हैं, जैसे दो मन्दराचल समुद्र को मथ रहे हों॥4॥ दोहा :
 
6. दोहा 45:  भुजाओं के बल से शत्रु की सेना को कुचलकर और मसलकर, फिर दिन का अंत होता देखकर हनुमान्‌ और अंगद दोनों कूद पड़े और श्रम थकावट रहित होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान्‌ श्री रामजी थे॥45॥
 
6. चौपाई 46.1:  उन्होंने प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर श्री रघुनाथजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। श्री रामजी ने कृपा करके दोनों को देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गए॥1॥
 
6. चौपाई 46.2:  अंगद और हनुमान्‌ को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े। राक्षसों ने प्रदोष (सायं) काल का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए वानरों पर धावा किया॥2॥
 
6. चौपाई 46.3:  राक्षसों की सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड़ गए। दोनों ही दल बड़े बलवान्‌ हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर ल़ड़ते हैं, कोई हार नहीं मानते॥3॥
 
6. चौपाई 46.4:  सभी राक्षस महान्‌ वीर और अत्यंत काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रंगों के हैं। दोनों ही दल बलवान्‌ हैं और समान बल वाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लड़ते हैं और खेल करते (वीरता दिखलाते) हैं॥4॥
 
6. चौपाई 46.5:  (राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद् ऋतु में बहुत से बादल पवन से प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की॥5॥
 
6. चौपाई 46.6:  पलभर में अत्यंत अंधकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी॥6॥
 
6. दोहा 46:  दसों दिशाओं में अत्यंत घना अंधकार देखकर वानरों की सेना में खलबली पड़ गई। एक को एक (दूसरा) नहीं देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार रहे हैं॥46॥
 
6. चौपाई 47.1:  श्री रघुनाथजी सब रहस्य जान गए। उन्होंने अंगद और हनुमान्‌ को बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया। सुनते ही वे दोनों कपिश्रेष्ठ क्रोध करके दौड़े॥1॥
 
6. चौपाई 47.2:  फिर कृपालु श्री रामजी ने हँसकर धनुष चलाया और तुरंत ही अग्निबाण चलाया, जिससे प्रकाश हो गया, कहीं अँधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञान के उदय होने पर (सब प्रकार के) संदेह दूर हो जाते हैं॥2॥
 
6. चौपाई 47.3:  भालू और वानर प्रकाश पाकर श्रम और भय से रहित तथा प्रसन्न होकर दौड़े। हनुमान्‌ और अंगद रण में गरज उठे। उनकी हाँक सुनते ही राक्षस भाग छूटे॥3॥
 
6. चौपाई 47.4:  भागते हुए राक्षस योद्धाओं को वानर और भालू पकड़कर पृथ्वी पर दे मारते हैं और अद्भुत (आश्चर्यजनक) करनी करते हैं (युद्धकौशल दिखलाते हैं)। पैर पकड़कर उन्हें समुद्र में डाल देते हैं। वहाँ मगर, साँप और मच्छ उन्हें पकड़-पकड़कर खा डालते हैं॥4॥
 
6. दोहा 47:  कुछ मारे गए, कुछ घायल हुए, कुछ भागकर गढ़ पर चढ़ गए। अपने बल से शत्रुदल को विचलित करके रीछ और वानर (वीर) गरज रहे हैं॥47॥
 
6. चौपाई 48a.1:  रात हुई जानकर वानरों की चारों सेनाएँ (टुकड़ियाँ) वहाँ आईं, जहाँ कोसलपति श्री रामजी थे। श्री रामजी ने ज्यों ही सबको कृपा करके देखा त्यों ही ये वानर श्रमरहित हो गए॥1॥
 
6. चौपाई 48a.2:  वहाँ (लंका में) रावण ने मंत्रियों को बुलाया और जो योद्धा मारे गए थे, उन सबको सबसे बताया। (उसने कहा-) वानरों ने आधी सेना का संहार कर दिया! अब शीघ्र बताओ, क्या विचार (उपाय) करना चाहिए?॥2॥
 
6. चौपाई 48a.3:  माल्यवंत (नाम का एक) अत्यंत बूढ़ा राक्षस था। वह रावण की माता का पिता (अर्थात्‌ उसका नाना) और श्रेष्ठ मंत्री था। वह अत्यंत पवित्र नीति के वचन बोला- हे तात! कुछ मेरी सीख भी सुनो-॥3॥
 
6. चौपाई 48a.4:  जब से तुम सीता को हर लाए हो, तब से इतने अपशकुन हो रहे हैं कि जो वर्णन नहीं किए जा सकते। वेद-पुराणों ने जिनका यश गाया है, उन श्री राम से विमुख होकर किसी ने सुख नहीं पाया॥4॥
 
6. दोहा 48a:  भाई हिरण्यकशिपु सहित हिरण्याक्ष को बलवान्‌ मधु-कैटभ को जिन्होंने मारा था, वे ही कृपा के समुद्र भगवान्‌ (रामरूप से) अवतरित हुए हैं॥ 48 (क)॥
 
6. दोहा 48b:  जो कालस्वरूप हैं, दुष्टों के समूह रूपी वन के भस्म करने वाले (अग्नि) हैं, गुणों के धाम और ज्ञानघन हैं एवं शिवजी और ब्रह्माजी भी जिनकी सेवा करते हैं, उनसे वैर कैसा?॥48 (ख)॥
 
6. चौपाई 49.1:  (अतः) वैर छोड़कर उन्हें जानकीजी को दे दो और कृपानिधान परम स्नेही श्री रामजी का भजन करो। रावण को उसके वचन बाण के समान लगे। (वह बोला-) अरे अभागे! मुँह काला करके (यहाँ से) निकल जा॥1॥
 
6. चौपाई 49.2:  तू बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँखों को अपना मुँह न दिखला। रावण के ये वचन सुनकर उसने (माल्यवान्‌ ने) अपने मन में ऐसा अनुमान किया कि इसे कृपानिधान श्री रामजी अब मारना ही चाहते हैं॥2॥
 
6. चौपाई 49.3:  वह रावण को दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला- सबेरे मेरी करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूँगा, थोड़ा क्या कहूँ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोड़ा ही होगा)॥3॥
 
6. चौपाई 49.4:  पुत्र के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठा लिया। विचार करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर फिर चारों दरवाजों पर जा लगे॥4॥
 
6. चौपाई 49.5:  वानरों ने क्रोध करके दुर्गम किले को घेर लिया। नगर में बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया। राक्षस बहुत तरह के अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और उन्होंने किले पर पहाड़ों के शिखर ढहाए॥5॥
 
6. छंद 49.1:  उन्होंने पर्वतों के करोड़ों शिखर ढहाए, अनेक प्रकार से गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं, मानो प्रलयकाल के बादल हों। विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं, कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं), उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं, तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते)। वे पहाड़ उठाकर उसे किले पर फेंकते हैं। राक्षस जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते हैं, वहीं) मारे जाते हैं।
 
6. दोहा 49:  मेघनाद ने कानों से ऐसा सुना कि वानरों ने आकर फिर किले को घेर लिया है। तब वह वीर किले से उतरा और डंका बजाकर उनके सामने चला॥49॥
 
6. चौपाई 50.1:  (मेघनाद ने पुकारकर कहा-) समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बल की सीमा अंगद और हनुमान्‌ कहाँ हैं?॥1॥
 
6. चौपाई 50.2:  भाई से द्रोह करने वाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक (अवश्य ही) मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का सन्धान किया और अत्यंत क्रोध करके उसे कान तक खींचा॥2॥
 
6. चौपाई 50.3:  वह बाणों के समूह छोड़ने लगा। मानो बहुत से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे हों। जहाँ-तहाँ वानर गिरते दिखाई पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके॥3॥
 
6. चौपाई 50.4:  रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको युद्ध की इच्छा भूल गई। रणभूमि में ऐसा एक भी वानर या भालू नहीं दिखाई पड़ा, जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात्‌ जिसके केवल प्राणमात्र ही न बचे हों, बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो)॥4॥
 
6. दोहा 50:  फिर उसने सबको दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वी पर गिर पड़े। बलवान्‌ और धीर मेघनाद सिंह के समान नाद करके गरजने लगा॥50॥
 
6. चौपाई 51.1:  सारी सेना को बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान्‌ क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ आता हो। उन्होंने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े ही क्रोध के साथ उसे मेघनाद पर छोड़ा॥1॥
 
6. चौपाई 51.2:  पहाड़ों को आते देखकर वह आकाश में उड़ गया। (उसके) रथ, सारथी और घोड़े सब नष्ट हो गए (चूर-चूर हो गए) हनुमान्‌ जी उसे बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बल का मर्म जानता था॥2॥
 
6. चौपाई 51.3:  (तब) मेघनाद श्री रघुनाथजी के पास गया और उसने (उनके प्रति) अनेकों प्रकार के दुर्वचनों का प्रयोग किया। (फिर) उसने उन पर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाए। प्रभु ने खेल में ही सबको काटकर अलग कर दिया॥3॥
 
6. चौपाई 51.4:  श्री रामजी का प्रताप (सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकार की माया करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति छोटा सा साँप का बच्चा हाथ में लेकर गरुड़ को डरावे और उससे खेल करे॥4॥
 
6. दोहा 51:  शिवजी और ब्रह्माजी तक बड़े-छोटे (सभी) जिनकी अत्यंत बलवान्‌ माया के वश में हैं, नीच बुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥51॥
 
6. चौपाई 52.1:  आकाश में (ऊँचे) चढ़कर वह बहुत से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रकार के पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर ‘मारो, काटो’ की आवाज करने लगीं॥1॥
 
6. चौपाई 52.2:  वह कभी तो विष्टा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत से पत्थर फेंक देता था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था॥2॥
 
6. चौपाई 52.3:  माया देखकर वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह कौतुक देखकर श्री रामजी मुस्कुराए। उन्होंने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गए हैं॥3॥
 
6. चौपाई 52.4:  तब श्री रामजी ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अंधकार के समूह को हर लेता है। तदनन्तर उन्होंने कृपाभरी दृष्टि से वानर-भालुओं की ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गए कि रण में रोकने पर भी नहीं रुकते थे॥4॥
 
6. दोहा 52:  श्री रामजी से आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए श्री लक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर चले॥।52॥
 
6. चौपाई 53.1:  उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिए हुए है। इधर रावण ने भी बड़े-बड़े योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े॥1॥
 
6. चौपाई 53.2:  पर्वत, नख और वृक्ष रूपी हथियार धारण किए हुए वानर ‘श्री रामचंद्रजी की जय’ पुकारकर दौड़े। वानर और राक्षस सब जोड़ी से जोड़ी भिड़ गए। इधर और उधर दोनों ओर जय की इच्छा कम न थी (अर्थात्‌ प्रबल थी)॥2॥
 
6. चौपाई 53.3:  वानर उनको घूँसों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं। ‘मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाऐँ पकड़कर उखाड़ लो’॥3॥
 
6. चौपाई 53.4:  नवों खंडों में ऐसी आवाज भर रही है। प्रचण्ड रुण्ड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे हैं। आकाश में देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनंद॥4॥
 
6. दोहा 53:  खून गड्ढों में भर-भरकर जम गया है और उस पर धूल उड़कर पड़ रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो अंगारों के ढेरों पर राख छा रही हो॥53॥
 
6. चौपाई 54.1:  घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलास के पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध करके एक-दूसरे से भिड़ते हैं॥1॥
 
6. चौपाई 54.2:  एक-दूसरे को (कोई किसी को) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान्‌ अनन्तजी (लक्ष्मणजी) क्रोधित हुए और उन्होंने तुरंत उसके रथ को तोड़ डाला और सारथी को टुकड़े-टुकड़े कर दिया!॥2॥
 
6. चौपाई 54.3:  शेषजी (लक्ष्मणजी) उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण संकट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेंगे॥3॥
 
6. चौपाई 54.4:  तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मणजी की छाती में लगी। शक्ति लगने से उन्हें मूर्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया॥4॥
 
6. दोहा 54:  मेघनाद के समान सौ करोड़ (अगणित) योद्धा उन्हें उठा रहे हैं, परन्तु जगत्‌ के आधार श्री शेषजी (लक्ष्मणजी) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गए॥54॥
 
6. चौपाई 55.1:  (शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं, उनको संग्राम में कौन जीत सकता है?॥1॥
 
6. चौपाई 55.2:  इस लीला को वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो। संध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएँ लौट पड़ीं, सेनापति अपनी-अपनी सेनाएँ संभालने लगे॥2॥
 
6. चौपाई 55.3:  व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचंद्रजी ने पूछा- लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान्‌ उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना॥3॥
 
6. चौपाई 55.4:  जाम्बवान्‌ ने कहा- लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्‌जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए॥4॥
 
6. दोहा 55:  सुषेण ने आकर श्री रामजी के चरणारविन्दों में सिर नवाया। उसने पर्वत और औषध का नाम बताया, (और कहा कि) हे पवनपुत्र! औषधि लेने जाओ॥55॥
 
6. चौपाई 56.1:  श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी अपना बल बखानकर (अर्थात्‌ मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले। उधर एक गुप्तचर ने रावण को इस रहस्य की खबर दी। तब रावण कालनेमि के घर आया॥1॥
 
6. चौपाई 56.2:  रावण ने उसको सारा मर्म (हाल) बतलाया। कालनेमि ने सुना और बार-बार सिर पीटा (खेद प्रकट किया)। (उसने कहा-) तुम्हारे देखते-देखते जिसने नगर जला डाला, उसका मार्ग कौन रोक सकता है?॥2॥
 
6. चौपाई 56.3:  श्री रघुनाथजी का भजन करके तुम अपना कल्याण करो! हे नाथ! झूठी बकवाद छोड़ दो। नेत्रों को आनंद देने वाले नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो॥3॥
 
6. चौपाई 56.4:  मैं-तू (भेद-भाव) और ममता रूपी मूढ़ता को त्याग दो। महामोह (अज्ञान) रूपी रात्रि में सो रहे हो, सो जाग उठो, जो काल रूपी सर्प का भी भक्षक है, कहीं स्वप्न में भी वह रण में जीता जा सकता है?॥4॥
 
6. दोहा 56:  उसकी ये बातें सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ। तब कालनेमि ने मन में विचार किया कि (इसके हाथ से मरने की अपेक्षा) श्री रामजी के दूत के हाथ से ही मरूँ तो अच्छा है। यह दुष्ट तो पाप समूह में रत है॥56॥
 
6. चौपाई 57.1:  वह मन ही मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची। तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया। हनुमान्‌जी ने सुंदर आश्रम देखकर सोचा कि मुनि से पूछकर जल पी लूँ, जिससे थकावट दूर हो जाए॥1॥
 
6. चौपाई 57.2:  राक्षस वहाँ कपट (से मुनि) का वेष बनाए विराजमान था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था। मारुति ने उसके पास जाकर मस्तक नवाया। वह श्री रामजी के गुणों की कथा कहने लगा॥2॥
 
6. चौपाई 57.3:  (वह बोला-) रावण और राम में महान्‌ युद्ध हो रहा है। रामजी जीतेंगे, इसमें संदेह नहीं है। हे भाई! मैं यहाँ रहता हुआ ही सब देख रहा हूँ। मुझे ज्ञानदृष्टि का बहुत बड़ा बल है॥3॥
 
6. चौपाई 57.4:  हनुमान्‌जी ने उससे जल माँगा, तो उसने कमण्डलु दे दिया। हनुमान्‌जी ने कहा- थोड़े जल से मैं तृप्त नहीं होने का। तब वह बोला- तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूँ, जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो॥4॥
 
6. दोहा 57:  तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमान्‌जी का पैर पकड़ लिया। हनुमान्‌जी ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़कर आकाश को चली॥57॥
 
6. चौपाई 58.1:  (उसने कहा-) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है। मेरा वचन सत्य मानो॥1॥
 
6. चौपाई 58.2:  ऐसा कहकर ज्यों ही वह अप्सरा गई, त्यों ही हनुमान्‌जी निशाचर के पास गए। हनुमान्‌जी ने कहा- हे मुनि! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिए। पीछे आप मुझे मंत्र दीजिएगा॥2॥
 
6. चौपाई 58.3:  हनुमान्‌जी ने उसके सिर को पूँछ में लपेटकर उसे पछाड़ दिया। मरते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े। यह (उसके मुँह से राम-राम का उच्चारण) सुनकर हनुमान्‌जी मन में हर्षित होकर चले॥3॥
 
6. चौपाई 58.4:  उन्होंने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान्‌जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमान्‌जी रात ही में आकाश मार्ग से दौड़ चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए॥4॥
 
6. दोहा 58:  भरतजी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा॥58॥
 
6. चौपाई 59.1:  बाण लगते ही हनुमान्‌जी ‘राम, राम, रघुपति’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरतजी उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान्‌जी के पास आए॥1॥
 
6. चौपाई 59.2:  हनुमान्‌जी को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया, पर वे जागते न थे! तब भरतजी का मुख उदास हो गया। वे मन में बड़े दुःखी हुए और नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भरकर ये वचन बोले-॥2॥
 
6. चौपाई 59.3:  जिस विधाता ने मुझे श्री राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से श्री रामजी के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो,॥3॥
 
6. चौपाई 59.4:  और यदि श्री रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान्‌जी ‘कोसलपति श्री रामचंद्रजी की जय हो, जय हो’ कहते हुए उठ बैठे॥4॥
 
6. सोरठा 59:  भरतजी ने वानर (हनुमान्‌जी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंद तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समाती न थी॥59॥
 
6. चौपाई 60a.1:  (भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्‌जी) ने संक्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे॥1॥
 
6. चौपाई 60a.2:  हा दैव! मैं जगत्‌ में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्‌जी से बोले-॥2॥
 
6. चौपाई 60a.3:  हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी हैं॥3॥
 
6. चौपाई 60a.4:  भरतजी की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान्‌जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किन्तु) फिर श्री रामचंद्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले-॥4॥
 
6. दोहा 60a:  हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान्‌जी चले॥60 (क)॥
 
6. दोहा 60b:  भरतजी के बाहुबल, शील (सुंदर स्वभाव), गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन ही मन बारंबार सराहना करते हुए मारुति श्री हनुमान्‌जी चले जा रहे हैं॥60 (ख)॥
 
6. चौपाई 61.1:  वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान्‌ नहीं आए। यह कहकर श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥
 
6. चौपाई 61.2:  (और बोले-) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा से ही कोमल था। मेरे हित के लिए तुमने माता-पिता को भी छोड़ दिया और वन में जाड़ा, गरमी और हवा सब सहन किया॥2॥
 
6. चौपाई 61.3:  हे भाई! वह प्रेम अब कहाँ है? मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं? यदि मैं जानता कि वन में भाई का विछोह होगा तो मैं पिता का वचन (जिसका मानना मेरे लिए परम कर्तव्य था) उसे भी न मानता॥3॥
 
6. चौपाई 61.4:  पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार- ये जगत्‌ में बार-बार होते और जाते हैं, परन्तु जगत्‌ में सहोदर भाई बार-बार नहीं मिलता। हृदय में ऐसा विचार कर हे तात! जागो॥4॥
 
6. चौपाई 61.5:  जैसे पंख बिना पक्षी, मणि बिना सर्प और सूँड बिना श्रेष्ठ हाथी अत्यंत दीन हो जाते हैं, हे भाई! यदि कहीं जड़ दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा॥5॥
 
6. चौपाई 61.6:  स्त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर, मैं कौन सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा? मैं जगत्‌ में बदनामी भले ही सह लेता (कि राम में कुछ भी वीरता नहीं है जो स्त्री को खो बैठे)। स्त्री की हानि से (इस हानि को देखते) कोई विशेष क्षति नहीं थी॥6॥
 
6. चौपाई 61.7:  अब तो हे पुत्र! मेरे निष्ठुर और कठोर हृदय यह अपयश और तुम्हारा शोक दोनों ही सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो॥7॥
 
6. चौपाई 61.8:  सब प्रकार से सुख देने वाला और परम हितकारी जानकर उन्होंने तुम्हें हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। मैं अब जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे सिखाते (समझाते) क्यों नहीं?॥8॥
 
6. चौपाई 61.9:  सोच से छुड़ाने वाले श्री रामजी बहुत प्रकार से सोच कर रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से (विषाद के आँसुओं का) जल बह रहा है। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी एक (अद्वितीय) और अखंड (वियोगरहित) हैं। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान्‌ ने (लीला करके) मनुष्य की दशा दिखलाई है॥9॥
 
6. सोरठा 61:  प्रभु के (लीला के लिए किए गए) प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए। (इतने में ही) हनुमान्‌जी आ गए, जैसे करुणरस (के प्रसंग) में वीर रस (का प्रसंग) आ गया हो॥61॥
 
6. चौपाई 62.1:  श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण) ने तुरंत उपाय किया, (जिससे) लक्ष्मणजी हर्षित होकर उठ बैठे॥1॥
 
6. चौपाई 62.2:  प्रभु भाई को हृदय से लगाकर मिले। भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए। फिर हनुमान्‌जी ने वैद्य को उसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे॥2॥
 
6. चौपाई 62.3:  यह समाचार जब रावण ने सुना, तब उसने अत्यंत विषाद से बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसने उसको जगाया॥3॥
 
6. चौपाई 62.4:  कुंभकर्ण जगा (उठ बैठा) वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा- हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?॥4॥
 
6. चौपाई 62.5:  उस अभिमानी (रावण) ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था (तब से अब तक की) सारी कथा कही। (फिर कहा-) हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला॥5॥
 
6. चौपाई 62.6:  दुर्मुख, देवशत्रु (देवान्तक), मनुष्य भक्षक (नरान्तक), भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए॥6॥
 
6. दोहा 62:  तब रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?॥62॥
 
6. चौपाई 63.1:  हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा॥1॥
 
6. चौपाई 63.2:  हे रावण! जिनके हनुमान्‌ सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥2॥
 
6. चौपाई 63.3:  हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा॥3॥
 
6. चौपाई 63.4:  हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ॥4॥
 
6. दोहा 63:  श्री रामचंद्रजी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया। फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए॥63॥
 
6. चौपाई 64.1:  भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली॥1॥
 
6. चौपाई 64.2:  उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे॥2॥
 
6. चौपाई 64.3:  (विभीषण ने कहा-) हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया। दीन देखकर प्रभु के मन को मैं (बहुत) प्रिय लगा॥3॥
 
6. चौपाई 64.4:  (कुंभकर्ण ने कहा-) हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया॥4॥
 
6. चौपाई 64.5:  हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा॥5॥
 
6. दोहा 64:  मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना। हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ॥64॥
 
6. चौपाई 65.1:  भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए, जहाँ त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे। (विभीषण ने कहा-) हे नाथ! पर्वत के समान (विशाल) देह वाला रणधीर कुंभकर्ण आ रहा है॥1॥
 
6. चौपाई 65.2:  वानरों ने जब कानों से इतना सुना, तब वे बलवान्‌ किलकिलाकर (हर्षध्वनि करके) दौड़े। वृक्ष और पर्वत (उखाड़कर) उठा लिए और (क्रोध से) दाँत कटकटाकर उन्हें उसके ऊपर डालने लगे॥2॥
 
6. चौपाई 65.3:  रीछ-वानर एक-एक बार में ही करोड़ों पहाड़ों के शिखरों से उस पर प्रहार करते हैं, परन्तु इससे न तो उसका मन ही मुड़ा (विचलित हुआ) और न शरीर ही टाले टला, जैसे मदार के फलों की मार से हाथी पर कुछ भी असर नहीं होता!॥3॥
 
6. चौपाई 65.4:  तब हनुमान्‌जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और सिर पीटने लगा। फिर उसने उठकर हनुमान्‌जी को मारा। वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े॥4॥
 
6. चौपाई 65.5:  फिर उसने नल-नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहाँ-तहाँ पटककर डाल दिया। वानर सेना भाग चली। सब अत्यंत भयभीत हो गए, कोई सामने नहीं आता॥5॥
 
6. दोहा 65:  सुग्रीव समेत अंगदादि वानरों को मूर्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुंभकर्ण वानरराज सुग्रीव को काँख में दाबकर चला॥65॥
 
6. चौपाई 66.1:  (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो। जो भौंह के इशारे मात्र से (बिना परिश्रम के) काल को भी खा जाता है, उसे कहीं ऐसी लड़ाई शोभा देती है?॥1॥
 
6. चौपाई 66.2:  भगवान्‌ (इसके द्वारा) जगत्‌ को पवित्र करने वाली वह कीर्ति फैलाएँगे, जिसे गा-गाकर मनुष्य भवसागर से तर जाएँगे। मूर्च्छा जाती रही, तब मारुति हनुमान्‌जी जागे और फिर वे सुग्रीव को खोजने लगे॥2॥
 
6. चौपाई 66.3:  सुग्रीव की भी मूर्च्छा दूर हुई, तब वे (मुर्दे से होकर) खिसक गए (काँख से नीचे गिर पड़े)। कुम्भकर्ण ने उनको मृतक जाना। उन्होंने कुम्भकर्ण के नाक-कान दाँतों से काट लिए और फिर गरज कर आकाश की ओर चले, तब कुम्भकर्ण ने जाना॥3॥
 
6. चौपाई 66.4:  उसने सुग्रीव का पैर पकड़कर उनको पृथ्वी पर पछाड़ दिया। फिर सुग्रीव ने बड़ी फुर्ती से उठकर उसको मारा और तब बलवान्‌ सुग्रीव प्रभु के पास आए और बोले- कृपानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो॥4॥
 
6. चौपाई 66.5:  नाक-कान काटे गए, ऐसा मन में जानकर बड़ी ग्लानि हुई और वह क्रोध करके लौटा। एक तो वह स्वभाव (आकृति) से ही भयंकर था और फिर बिना नाक-कान का होने से और भी भयानक हो गया। उसे देखते ही वानरों की सेना में भय उत्पन्न हो गया॥5॥
 
6. दोहा 66:  ‘रघुवंशमणि की जय हो, जय हो’ ऐसा पुकारकर वानर हूह करके दौड़े और सबने एक ही साथ उस पर पहाड़ और वृक्षों के समूह छोड़े॥66॥
 
6. चौपाई 67.1:  रण के उत्साह में कुंभकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो। वह करोड़-करोड़ वानरों को एक साथ पकड़कर खाने लगा! (वे उसके मुँह में इस तरह घुसने लगे) मानो पर्वत की गुफा में टिड्डियाँ समा रही हों॥1॥
 
6. चौपाई 67.2:  करोड़ों (वानरों) को पकड़कर उसने शरीर से मसल डाला। करोड़ों को हाथों से मलकर पृथ्वी की धूल में मिला दिया। (पेट में गए हुए) भालू और वानरों के ठट्ट के ठट्ट उसके मुख, नाक और कानों की राह से निकल-निकलकर भाग रहे हैं॥2॥
 
6. चौपाई 67.3:  रण के मद में मत्त राक्षस कुंभकर्ण इस प्रकार गर्वित हुआ, मानो विधाता ने उसको सारा विश्व अर्पण कर दिया हो और उसे वह ग्रास कर जाएगा। सब योद्धा भाग खड़े हुए, वे लौटाए भी नहीं लौटते। आँखों से उन्हें सूझ नहीं पड़ता और पुकारने से सुनते नहीं!॥3॥
 
6. चौपाई 67.4:  कुंभकर्ण ने वानर सेना को तितर-बितर कर दिया। यह सुनकर राक्षस सेना भी दौड़ी। श्री रामचंद्रजी ने देखा कि अपनी सेना व्याकुल है और शत्रु की नाना प्रकार की सेना आ गई है॥4॥
 
6. दोहा 67:  तब कमलनयन श्री रामजी बोले- हे सुग्रीव! हे विभीषण! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को संभालना। मैं इस दुष्ट के बल और सेना को देखता हूँ॥67॥
 
6. चौपाई 68.1:  हाथ में शार्गंधनुष और कमर में तरकस सजाकर श्री रघुनाथजी शत्रु सेना को दलन करने चले। प्रभु ने पहले तो धनुष का टंकार किया, जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रु दल बहरा हो गया॥1॥
 
6. चौपाई 68.2:  फिर सत्यप्रतिज्ञ श्री रामजी ने एक लाख बाण छोड़े। वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सर्प चले हों। जहाँ-तहाँ बहुत से बाण चले, जिनसे भयंकर राक्षस योद्धा कटने लगे॥2॥
 
6. चौपाई 68.3:  उनके चरण, छाती, सिर और भुजदण्ड कट रहे हैं। बहुत से वीरों के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं। घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वी पर पड़ रहे हैं। उत्तम योद्धा फिर संभलकर उठते और लड़ते हैं॥3॥
 
6. चौपाई 68.4:  बाण लगते ही वे मेघ की तरह गरजते हैं। बहुत से तो कठिन बाणों को देखकर ही भाग जाते हैं। बिना मुण्ड (सिर) के प्रचण्ड रुण्ड (धड़) दौड़ रहे हैं और ‘पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो’ का शब्द करते हुए गा (चिल्ला) रहे हैं॥4॥
 
6. दोहा 68:  प्रभु के बाणों ने क्षण मात्र में भयानक राक्षसों को काटकर रख दिया। फिर वे सब बाण लौटकर श्री रघुनाथजी के तरकस में घुस गए॥68॥
 
6. चौपाई 69.1:  कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्री रामजी ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला। तब वह महाबली वीर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने गंभीर सिंहनाद किया॥1॥
 
6. चौपाई 69.2:  वह क्रोध करके पर्वत उखाड़ लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर योद्धा होते हैं, वहाँ डाल देता है। बड़े-बड़े पर्वतों को आते देखकर प्रभु ने उनको बाणों से काटकर धूल के समान (चूर-चूर) कर डाला॥2॥
 
6. चौपाई 69.3:  फिर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत से अत्यंत भयानक बाण छोड़े। वे बाण कुंभकर्ण के शरीर में घुसकर (पीछे से इस प्रकार) निकल जाते हैं (कि उनका पता नहीं चलता), जैसे बिजलियाँ बादल में समा जाती हैं॥3॥
 
6. चौपाई 69.4:  उसके काले शरीर से रुधिर बहता हुआ ऐसे शोभा देता है, मानो काजल के पर्वत से गेरु के पनाले बह रहे हों। उसे व्याकुल देखकर रीछ वानर दौड़े। वे ज्यों ही निकट आए, त्यों ही वह हँसा,॥4॥
 
6. दोहा 69:  और बड़ा घोर शब्द करके गरजा तथा करोड़-करोड़ वानरों को पकड़कर वह गजराज की तरह उन्हें पृथ्वी पर पटकने लगा और रावण की दुहाई देने लगा॥69॥
 
6. चौपाई 70.1:  यह देखकर रीछ-वानरों के झुंड ऐसे भागे जैसे भेड़िये को देखकर भेड़ों के झुंड! (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वानर-भालू व्याकुल होकर आर्तवाणी से पुकारते हुए भाग चले॥1॥
 
6. चौपाई 70.2:  (वे कहने लगे-) यह राक्षस दुर्भिक्ष के समान है, जो अब वानर कुल रूपी देश में पड़ना चाहता है। हे कृपा रूपी जल के धारण करने वाले मेघ रूप श्री राम! हे खर के शत्रु! हे शरणागत के दुःख हरने वाले! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए!॥2॥।
 
6. चौपाई 70.3:  करुणा भरे वचन सुनते ही भगवान्‌ धनुष-बाण सुधारकर चले। महाबलशाली श्री रामजी ने सेना को अपने पीछे कर लिया और वे (अकेले) क्रोधपूर्वक चले (आगे बढ़े)॥3॥
 
6. चौपाई 70.4:  उन्होंने धनुष को खींचकर सौ बाण संधान किए। बाण छूटे और उसके शरीर में समा गए। बाणों के लगते ही वह क्रोध में भरकर दौड़ा। उसके दौड़ने से पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी॥4॥
 
6. चौपाई 70.5:  उसने एक पर्वत उखाड़ लिया। रघुकुल तिलक श्री रामजी ने उसकी वह भुजा ही काट दी। तब वह बाएँ हाथ में पर्वत को लेकर दौड़ा। प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी॥5॥
 
6. चौपाई 70.6:  भुजाओं के कट जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पंख का मंदराचल पहाड़ हो। उसने उग्र दृष्टि से प्रभु को देखा। मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो॥6॥
 
6. दोहा 70:  वह बड़े जोर से चिग्घाड़ करके मुँह फैलाकर दौड़ा। आकाश में सिद्ध और देवता डरकर हा! हा! हा! इस प्रकार पुकारने लगे॥70॥
 
6. चौपाई 71.1:  करुणानिधान भगवान्‌ ने देवताओं को भयभीत जाना। तब उन्होंने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों के समूह से भर दिया। तो भी वह महाबली पृथ्वी पर न गिरा॥1॥
 
6. चौपाई 71.2:  मुख में बाण भरे हुए वह (प्रभु के) सामने दौड़ा। मानो काल रूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो। तब प्रभु ने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया॥2॥
 
6. चौपाई 71.3:  वह सिर रावण के आगे जा गिरा उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प। कुंभकर्ण का प्रचण्ड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धँसी जाती थी। तब प्रभु ने काटकर उसके दो टुकड़े कर दिए॥3॥
 
6. चौपाई 71.4:  वानर-भालू और निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकड़े पृथ्वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश से दो पहाड़ गिरे हों। उसका तेज प्रभु श्री रामचंद्रजी के मुख में समा गया। (यह देखकर) देवता और मुनि सभी ने आश्चर्य माना॥4॥
 
6. चौपाई 71.5:  देवता नगाड़े बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत से फूल बरसा रहे हैं। विनती करके सब देवता चले गए। उसी समय देवर्षि नारद आए॥5॥
 
6. चौपाई 71.6:  आकाश के ऊपर से उन्होंने श्री हरि के सुंदर वीर रसयुक्त गुण समूह का गान किया, जो प्रभु के मन को बहुत ही भाया। मुनि यह कहकर चले गए कि अब दुष्ट रावण को शीघ्र मारिए। (उस समय) श्री रामचंद्रजी रणभूमि में आकर (अत्यंत) सुशोभित हुए॥6॥
 
6. छंद 71.1:  अतुलनीय बल वाले कोसलपति श्री रघुनाथजी रणभूमि में सुशोभित हैं। मुख पर पसीने की बूँदें हैं, कमल समान नेत्र कुछ लाल हो रहे हैं। शरीर पर रक्त के कण हैं, दोनों हाथों से धनुष-बाण फिरा रहे हैं। चारों ओर रीछ-वानर सुशोभित हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु की इस छबि का वर्णन शेषजी भी नहीं कर सकते, जिनके बहुत से (हजार) मुख हैं।
 
6. दोहा 71:  (शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! कुंभकर्ण, जो नीच राक्षस और पाप की खान था, उसे भी श्री रामजी ने अपना परमधाम दे दिया। अतः वे मनुष्य (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं, जो उन श्री रामजी को नहीं भजते॥71॥
 
6. चौपाई 72.1:  दिन का अन्त होने पर दोनों सेनाएँ लौट पड़ीं। (आज के युद्ध में) योद्धाओं को बड़ी थकावट हुई, परन्तु श्री रामजी की कृपा से वानर सेना का बल उसी प्रकार बढ़ गया, जैसे घास पाकर अग्नि बहुत बढ़ जाती है॥1॥(घ)॥
 
6. चौपाई 72.2:  उधर राक्षस दिन-रात इस प्रकार घटते जा रहे हैं, जिस प्रकार अपने ही मुख से कहने पर पुण्य घट जाते हैं। रावण बहुत विलाप कर रहा है। बार-बार भाई (कुंभकर्ण) का सिर कलेजे से लगाता है॥2॥
 
6. चौपाई 72.3:  स्त्रियाँ उसके बड़े भारी तेज और बल को बखान करके हाथों से छाती पीट-पीटकर रो रही हैं। उसी समय मेघनाद आया और उसने बहुत सी कथाएँ कहकर पिता को समझाया॥3॥
 
6. चौपाई 72.4:  (और कहा-) कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा। अभी बहुत बड़ाई क्या करूँ? हे तात! मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था, वह बल (और रथ) अब तक आपको नहीं दिखलाया था॥4॥
 
6. चौपाई 72.5:  इस प्रकार डींग मारते हुए सबेरा हो गया। लंका के चारों दरवाजों पर बहुत से वानर आ डटे। इधर काल के समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यंत रणधीर राक्षस॥5॥
 
6. चौपाई 72.6:  >दोनों ओर के योद्धा अपनी-अपनी जय के लिए लड़ रहे हैं। हे गरुड़ उनके युद्ध का वर्णन नहीं किया जा सकता॥6॥
 
6. दोहा 72:  मेघनाद उसी (पूर्वोक्त) मायामय रथ पर चढ़कर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया॥72॥
 
6. चौपाई 73.1:  वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शास्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत से बाणों की वृष्टि करने लगा॥1॥
 
6. चौपाई 73.2:  आकाश में दसों दिशाओं में बाण छा गए, मानो मघा नक्षत्र के बादलों ने झड़ी लगा दी हो। ‘पकड़ो, पकड़ो, मारो’ ये शब्द सुनाई पड़ते हैं। पर जो मार रहा है, उसे कोई नहीं जान पाता॥2॥
 
6. चौपाई 73.3:  पर्वत और वृक्षों को लेकर वानर आकाश में दौड़कर जाते हैं। पर उसे देख नहीं पाते, इससे दुःखी होकर लौट आते हैं। मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वतों-कन्दराओं को बाणों के पिंजरे बना दिए (बाणों से छा दिया)॥3॥
 
6. चौपाई 73.4:  अब कहाँ जाएँ, यह सोचकर (रास्ता न पाकर) वानर व्याकुल हो गए। मानो पर्वत इंद्र की कैद में पड़े हों। मेघनाद ने मारुति हनुमान्‌, अंगद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया॥4॥
 
6. चौपाई 73.5:  फिर उसने लक्ष्मणजी, सुग्रीव और विभीषण को बाणों से मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया। फिर वह श्री रघुनाथजी से लड़ने लगा। वह जो बाण छोड़ता है, वे साँप होकर लगते हैं॥5॥
 
6. चौपाई 73.6:  जो स्वतंत्र, अनन्त, एक (अखंड) और निर्विकार हैं, वे खर के शत्रु श्री रामजी (लीला से) नागपाश के वश में हो गए (उससे बँध गए) श्री रामचंद्रजी सदा स्वतंत्र, एक, (अद्वितीय) भगवान्‌ हैं। वे नट की तरह अनेकों प्रकार के दिखावटी चरित्र करते हैं॥6॥
 
6. चौपाई 73.7:  रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बाँध लिया, किन्तु उससे देवताओं को बड़ा भय हुआ॥7॥
 
6. दोहा 73:  (शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! जिनका नाम जपकर मुनि भव (जन्म-मृत्यु) की फाँसी को काट डालते हैं, वे सर्वव्यापक और विश्व निवास (विश्व के आधार) प्रभु कहीं बंधन में आ सकते हैं?॥73॥
 
6. चौपाई 74a.1:  हे भवानी! श्री रामजी की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया जा सकता। ऐसा विचार कर जो तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुष हैं, वे सब तर्क (शंका) छोड़कर श्री रामजी का भजन ही करते हैं॥।1॥
 
6. चौपाई 74a.2:  मेघनाद ने सेना को व्याकुल कर दिया। फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा। इस पर जाम्बवान्‌ ने कहा- अरे दुष्ट! खड़ा रह। यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध बढ़ा॥2॥
 
6. चौपाई 74a.3:  अरे मूर्ख! मैंने बूढ़ा जानकर तुझको छोड़ दिया था। अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है? ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया। जाम्बवान्‌ उसी त्रिशूल को हाथ से पकड़कर दौड़ा॥3॥
 
6. चौपाई 74a.4:  और उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा। वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जाम्बवान्‌ ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल दिखलाया॥4॥
 
6. चौपाई 74a.5:  (किन्तु) वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता। तब जाम्बवान्‌ ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका पर फेंक दिया। इधर देवर्षि नारदजी ने गरुड़ को भेजा। वे तुरंत ही श्री रामजी के पास आ पहुँचे॥5॥
 
6. दोहा 74a:  पक्षीराज गरुड़जी सब माया-सर्पों के समूहों को पकड़कर खा गए। तब सब वानरों के झुंड माया से रहित होकर हर्षित हुए॥74 (क)॥
 
6. दोहा 74b:  पर्वत, वृक्ष, पत्थर और नख धारण किए वानर क्रोधित होकर दौड़े। निशाचर विशेष व्याकुल होकर भाग चले और भागकर किले पर चढ़ गए॥74 (ख)॥
 
6. चौपाई 75.1:  मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी। मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूँ, ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरंत श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चला गया॥1॥
 
6. चौपाई 75.2:  यहाँ विभीषण ने सलाह विचारी (और श्री रामचंद्रजी से कहा-) हे अतुलनीय बलवान्‌ उदार प्रभो! देवताओं को सताने वाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है॥2॥
 
6. चौपाई 75.3:  हे प्रभो! यदि वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता न जा सकेगा। यह सुनकर श्री रघुनाथजी ने बहुत सुख माना और अंगदादि बहुत से वानरों को बुलाया (और कहा-)॥3॥
 
6. चौपाई 75.4:  हे भाइयों! सब लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ को विध्वंस करो। हे लक्ष्मण! संग्राम में तुम उसे मारना। देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बड़ा दुःख है॥4॥
 
6. चौपाई 75.5:  हे भाई! सुनो, उसको ऐसे बल और बुद्धि के उपाय से मारना, जिससे निशाचर का नाश हो। हे जाम्बवान, सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों जन सेना समेत (इनके) साथ रहना॥5॥
 
6. चौपाई 75.6:  (इस प्रकार) जब श्री रघुवीर ने आज्ञा दी, तब कमर में तरकस कसकर और धनुष सजाकर (चढ़ाकर) रणधीर श्री लक्ष्मणजी प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण करके मेघ के समान गंभीर वाणी बोले-॥6॥
 
6. चौपाई 75.7:  यदि मैं आज उसे बिना मारे आऊँ, तो श्री रघुनाथजी का सेवक न कहलाऊँ। यदि सैकड़ों शंकर भी उसकी सहायता करें तो भी श्री रघुवीर की दुहाई है, आज मैं उसे मार ही डालूँगा॥7॥
 
6. दोहा 75:  श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर शेषावतार श्री लक्ष्मणजी तुरंत चले। उनके साथ अंगद, नील, मयंद, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे॥75॥
 
6. चौपाई 76.1:  वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरों ने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी वह नहीं उठा, तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे॥1॥
 
6. चौपाई 76.2:  इतने पर भी वह न उठा, (तब) उन्होंने जाकर उसके बाल पकड़े और लातों से मार-मारकर वे भाग चले। वह त्रिशूल लेकर दौड़ा, तब वानर भागे और वहाँ आ गए, जहाँ आगे लक्ष्मणजी खड़े थे॥2॥
 
6. चौपाई 76.3:  वह अत्यंत क्रोध का मारा हुआ आया और बार-बार भयंकर शब्द करके गरजने लगा। मारुति (हनुमान्‌) और अंगद क्रोध करके दौड़े। उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को धरती पर गिरा दिया॥3॥
 
6. चौपाई 76.4:  फिर उसने प्रभु श्री लक्ष्मणजी पर त्रिशूल छोड़ा। अनन्त (श्री लक्ष्मणजी) ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। हनुमान्‌जी और युवराज अंगद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे, उसे चोट न लगी॥4॥
 
6. चौपाई 76.5:  शत्रु (मेघनाद) मारे नहीं मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड़ करके दौड़ा। उसे क्रुद्ध काल की तरह आता देखकर लक्ष्मणजी ने भयानक बाण छोड़े॥5॥
 
6. चौपाई 76.6:  वज्र के समान बाणों को आते देखकर वह दुष्ट तुरंत अंतर्धान हो गया और फिर भाँति-भाँति के रूप धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था॥6॥
 
6. चौपाई 76.7:  शत्रु को पराजित न होता देखकर वानर डरे। तब सर्पराज शेषजी (लक्ष्मणजी) बहुत क्रोधित हुए। लक्ष्मणजी ने मन में यह विचार दृढ़ किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका (अब और अधिक खेलाना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए।)॥7॥
 
6. चौपाई 76.8:  कोसलपति श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मणजी ने वीरोचित दर्प करके बाण का संधान किया। बाण छोड़ते ही उसकी छाती के बीच में लगा। मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया॥8॥
 
6. दोहा 76:  राम के छोटे भाई लक्ष्मण कहाँ हैं? राम कहाँ हैं? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड़ दिए। अंगद और हनुमान कहने लगे- तेरी माता धन्य है, धन्य है (जो तू लक्ष्मणजी के हाथों मरा और मरते समय श्री राम-लक्ष्मण को स्मरण करके तूने उनके नामों का उच्चारण किया।)॥76॥
 
6. चौपाई 77.1:  हनुमान्‌जी ने उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब विमानों पर चढ़कर आकाश में आए॥1॥
 
6. चौपाई 77.2:  वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथजी का निर्मल यश गाते हैं। हे अनन्त! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय हो। हे प्रभो! आपने सब देवताओं का (महान्‌ विपत्ति से) उद्धार किया॥2॥
 
6. चौपाई 77.3:  देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मणजी कृपा के समुद्र श्री रामजी के पास आए। रावण ने ज्यों ही पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥
 
6. चौपाई 77.4:  मंदोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे॥4॥
 
6. दोहा 77:  तब रावण ने सब स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत्‌ का यह (दृश्य)रूप नाशवान्‌ है, हृदय में विचारकर देखो॥77॥
 
6. चौपाई 78.1:  रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं, जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं॥1॥
 
6. चौपाई 78.2:  रात बीत गई, सबेरा हुआ। रीछ-वानर (फिर) चारों दरवाजों पर जा डटे। योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा- लड़ाई में शत्रु के सम्मुख मन डाँवाडोल हो,॥2॥
 
6. चौपाई 78.3:  अच्छा है वह अभी भाग जाए। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैंने अपनी भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है। जो शत्रु चढ़ आया है, उसको मैं (अपने ही) उत्तर दे लूँगा॥3॥
 
6. चौपाई 78.4:  ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलने वाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान्‌ वीर ऐसे चले मानो काजल की आँधी चली हो॥4॥
 
6. चौपाई 78.5:  उस समय असंख्य अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है॥5॥
 
6. छंद 78.1:  अत्यंत गर्व के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिग्घाड़ते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यंत भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों। (मृत्यु का संदेसा सुना रहे हों)।
 
6. दोहा 78:  जो जीवों के द्रोह में रत है, मोह के बस हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्त की शांति हो सकती है?॥78॥
 
6. चौपाई 79.1:  राक्षसों की अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेना की बहुत सी Uटुकडि़याँ हैं। अनेकों प्रकार के वाहन, रथ और सवारियाँ हैं तथा बहुत से रंगों की अनेकों पताकाएँ और ध्वजाएँ हैं॥1॥
 
6. चौपाई 79.2:  मतवाले हाथियों के बहुत से झुंड चले। मानो पवन से प्रेरित हुए वर्षा ऋतु के बादल हों। रंग-बिरंगे बाना धारण करने वाले वीरों के समूह हैं, जो युद्ध में बड़े शूरवीर हैं और बहुत प्रकार की माया जानते हैं॥2॥
 
6. चौपाई 79.3:  अत्यंत विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसंत ने सेना सजाई हो। सेना के चलने से दिशाओं के हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गए और पर्वत डगमगाने लगे॥3॥
 
6. चौपाई 79.4:  इतनी धूल उड़ी कि सूर्य छिप गए। (फिर सहसा) पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाड़े भीषण ध्वनि से बज रहे हैं, जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों॥4॥
 
6. चौपाई 79.5:  भेरी, नफीरी (तुरही) और शहनाई में योद्धाओं को सुख देने वाला मारू राग बज रहा है। सब वीर सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल पौरुष का बखान कर रहे हैं॥5॥
 
6. चौपाई 79.6:  रावण ने कहा- हे उत्तम योद्धाओं! सुनो तुम रीछ-वानरों के ठट्ट को मसल डालो और मैं दोनों राजकुमार भाइयों को मारूँगा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलाई॥6॥
 
6. चौपाई 79.7:  जब सब वानरों ने यह खबर पाई, तब वे श्री राम की दुहाई देते हुए दौड़े॥7॥
 
6. छंद 79.1:  वे विशाल और काल के समान कराल वानर-भालू दौड़े। मानो पंख वाले पर्वतों के समूह उड़ रहे हों। वे अनेक वर्णों के हैं। नख, दाँत, पर्वत और बड़े-बड़े वृक्ष ही उनके हथियार हैं। वे बड़े बलवान्‌ हैं और किसी का भी डर नहीं मानते। रावण रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह रूप श्री रामजी का जय-जयकार करके वे उनके सुंदर यश का बखान करते हैं।
 
6. दोहा 79:  दोनों ओर के योद्धा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोड़ी जान (चुन) कर इधर श्री रघुनाथजी का और उधर रावण का बखान करके परस्पर भिड़ गए॥79॥
 
6. चौपाई 80a.1:  रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)। श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे॥1॥
 
6. चौपाई 80a.2:  हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान्‌ वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है॥2॥
 
6. चौपाई 80a.3:  शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥
 
6. चौपाई 80a.4:  ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥
 
6. चौपाई 80a.5:  निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥
 
6. चौपाई 80a.6:  हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥
 
6. दोहा 80a:  हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान्‌ दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥80 (क)॥
 
6. दोहा 80b:  प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए (और कहा-) हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान्‌) उपदेश दिया॥80 (ख)॥
 
6. दोहा 80c:  उधर से रावण ललकार रहा है और इधर से अंगद और हनुमान्‌। राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामी की दुहाई देकर लड़ रहे हैं॥80 (ग)॥
 
6. चौपाई 81.1:  ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढ़े हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! मैं भी उस समाज में था और श्री रामजी के रण-रंग (रणोत्साह) की लीला देख रहा था॥1॥
 
6. चौपाई 81.2:  दोनों ओर के योद्धा रण रस में मतवाले हो रहे हैं। वानरों को श्री रामजी का बल है, इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं)। एक-दूसरे से भिड़ते और ललकारते हैं और एक-दूसरे को मसल-मसलकर पृथ्वी पर डाल देते हैं॥2॥
 
6. चौपाई 81.3:  वे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ देते हैं और सिर तोड़कर उन्हीं सिरों से दूसरों को मारते हैं। पेट फाड़ते हैं, भुजाएँ उखाड़ते हैं और योद्धाओं को पैर पकड़कर पृथ्वी पर पटक देते हैं॥3॥
 
6. चौपाई 81.4:  राक्षस योद्धाओं को भालू पृथ्वी में गाड़ देते हैं और ऊपर से बहुत सी बालू डाल देते हैं। युद्ध में शत्रुओं से विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखाई पड़ते हैं मानो बहुत से क्रोधित काल हों॥4॥
 
6. छंद 81.1:  क्रोधित हुए काल के समान वे वानर खून बहते हुए शरीरों से शोभित हो रहे हैं। वे बलवान्‌ वीर राक्षसों की सेना के योद्धाओं को मसलते और मेघ की तरह गरजते हैं। डाँटकर चपेटों से मारते, दाँतों से काटकर लातों से पीस डालते हैं। वानर-भालू चिग्घाड़ते और ऐसा छल-बल करते हैं, जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जाएँ॥1॥
 
6. छंद 81.2:  वे राक्षसों के गाल पकड़कर फाड़ डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अँतड़ियाँ निकालकर गले में डाल लेते हैं। वे वानर ऐसे दिख पड़ते हैं मानो प्रह्लाद के स्वामी श्री नृसिंह भगवान्‌ अनेकों शरीर धारण करके युद्ध के मैदान में क्रीड़ा कर रहे हों। पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वी में भर (छा) गए हैं। श्री रामचंद्रजी की जय हो, जो सचमुच तृण से वज्र और वज्र से तृण कर देते हैं (निर्बल को सबल और सबल को निर्बल कर देते हैं)॥2॥
 
6. दोहा 81:  अपनी सेना को विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओं में दस धनुष लेकर रावण रथ पर चढ़कर गर्व करके ‘लौटो, लौटो’ कहता हुआ चला॥81॥
 
6. चौपाई 82.1:  रावण अत्यंत क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुँकार करते हुए (लड़ने के लिए) उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक ही साथ डाले॥1॥
 
6. चौपाई 82.2:  पर्वत उसके वज्रतुल्य शरीर में लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं। अत्यंत क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, (अपने स्थान से) जरा भी नहीं हिला॥2॥
 
6. चौपाई 82.3:  उसे बहुत ही क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओं को मसलने लगा। अनेकों वानर-भालू ‘हे अंगद! हे हनुमान्‌! रक्षा करो, रक्षा करो’ (पुकारते हुए) भाग चले॥3॥
 
6. चौपाई 82.4:  हे रघुवीर! हे गोसाईं! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। यह दुष्ट काल की भाँति हमें खा रहा है। उसने देखा कि सब वानर भाग छूटे, तब (रावण ने) दसों धनुषों पर बाण संधान किए॥4॥
 
6. छंद 82.1:  उसने धनुष पर सन्धान करके बाणों के समूह छोड़े। वे बाण सर्प की तरह उड़कर जा लगते थे। पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं। वानर भागें तो कहाँ? अत्यंत कोलाहल मच गया। वानर-भालुओं की सेना व्याकुल होकर आर्त्त पुकार करने लगी- हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीड़ितों के बन्धु! हे सेवकों की रक्षा करके उनके दुःख हरने वाले हरि!
 
6. दोहा 82:  अपनी सेना को व्याकुल देखकर कमर में तरकस कसकर और हाथ में धनुष लेकर श्री रघुनाथजी के चरणों पर मस्तक नवाकर लक्ष्मणजी क्रोधित होकर चले॥82॥
 
6. चौपाई 83.1:  (लक्ष्मणजी ने पास जाकर कहा-) अरे दुष्ट! वानर भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा-) अरे मेरे पुत्र के घातक! मैं तुझी को ढूँढ रहा था। आज तुझे मारकर (अपनी) छाती ठंडी करूँगा॥1॥
 
6. चौपाई 83.2:  ऐसा कहकर उसने प्रचण्ड बाण छोड़े। लक्ष्मणजी ने सबके सैकड़ों टुकड़े कर डाले। रावण ने करोड़ों अस्त्र-शस्त्र चलाए। लक्ष्मणजी ने उनको तिल के बराबर करके काटकर हटा दिया॥2॥
 
6. चौपाई 83.3:  फिर अपने बाणों से (उस पर) प्रहार किया और (उसके) रथ को तोड़कर सारथी को मार डाला। (रावण के) दसों मस्तकों में सौ-सौ बाण मारे। वे सिरों में ऐसे पैठ गए मानो पहाड़ के शिखरों में सर्प प्रवेश कर रहे हों॥3॥
 
6. चौपाई 83.4:  फिर सौ बाण उसकी छाती में मारे। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे कुछ भी होश न रहा। फिर मूर्च्छा छूटने पर वह प्रबल रावण उठा और उसने वह शक्ति चलाई जो ब्रह्माजी ने उसे दी थी॥4॥
 
6. छंद 83.1:  वह ब्रह्मा की दी हुई प्रचण्ड शक्ति लक्ष्मणजी की ठीक छाती में लगी। वीर लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पड़े। तब रावण उन्हें उठाने लगा, पर उसके अतुलित बल की महिमा यों ही रह गई, (व्यर्थ हो गई, वह उन्हें उठा न सका)। जिनके एक ही सिर पर ब्रह्मांड रूपी भवन धूल के एक कण के समान विराजता है, उन्हें मूर्ख रावण उठाना चाहता है! वह तीनों भुवनों के स्वामी लक्ष्मणजी को नहीं जानता।
 
6. दोहा 83:  यह देखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमान्‌जी के आते ही रावण ने उन पर अत्यंत भयंकर घूँसे का प्रहार किया॥83॥
 
6. चौपाई 84.1:  हनुमान्‌जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे। हनुमान्‌जी ने रावण को एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो॥1॥
 
6. चौपाई 84.2:  मूर्च्छा भंग होने पर फिर वह जागा और हनुमान्‌जी के बड़े भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान्‌जी ने कहा-) मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है, जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया॥2॥
 
6. चौपाई 84.3:  ऐसा कहकर और लक्ष्मणजी को उठाकर हनुमान्‌जी श्री रघुनाथजी के पास ले आए। यह देखकर रावण को आश्चर्य हुआ। श्री रघुवीर ने (लक्ष्मणजी से) कहा- हे भाई! हृदय में समझो, तुम काल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो॥3॥
 
6. चौपाई 84.4:  ये वचन सुनते ही कृपालु लक्ष्मणजी उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाश को चली गई। लक्ष्मणजी फिर धनुष-बाण लेकर दौड़े और बड़ी शीघ्रता से शत्रु के सामने आ पहुँचे॥4॥
 
6. छंद 84.1:  फिर उन्होंने बड़ी ही शीघ्रता से रावण के रथ को चूर-चूर कर और सारथी को मारकर उसे (रावण को) व्याकुल कर दिया। सौ बाणों से उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यंत व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब दूसरा सारथी उसे रथ में डालकर तुरंत ही लंका को ले गया। प्रताप के समूह श्री रघुवीर के भाई लक्ष्मणजी ने फिर आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया।
 
6. दोहा 84:  वहाँ (लंका में) रावण मूर्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यंत अज्ञानी हठवश श्री रघुनाथजी से विरोध करके विजय चाहता है॥84॥
 
6. चौपाई 85.1:  यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा॥1॥
 
6. चौपाई 85.2:  हे नाथ! तुरंत वानर योद्धाओं को भेजिए, जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आवे। प्रातःकाल होते ही प्रभु ने वीर योद्धाओं को भेजा। हनुमान्‌ और अंगद आदि सब (प्रधान वीर) दौड़े॥2॥
 
6. चौपाई 85.3:  वानर खेल से ही कूदकर लंका पर जा चढ़े और निर्भय होकर रावण के महल में जा घुसे। ज्यों ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरों को बहुत क्रोध हुआ॥3॥
 
6. चौपाई 85.4:  (उन्होंने कहा-) अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमि से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले का सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं, उस दुष्ट का मन स्वार्थ में अनुरक्त था॥4॥
 
6. छंद 85.1:  जब उसने नहीं देखा, तब वानर क्रोध करके उसे दाँतों से पकड़कर (काटने और) लातों से मारने लगे। स्त्रियों को बाल पकड़कर घर से बाहर घसीट लाए, वे अत्यंत ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण काल के समान क्रोधित होकर उठा और वानरों को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीच में वानरों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मन में हारने लगा। (निराश होने लगा)।
 
6. दोहा 85:  यज्ञ विध्वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथजी के पास आ गए। तब रावण जीने की आश छोड़कर क्रोधित होकर चला॥85॥
 
6. चौपाई 86.1:  चलते समय अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश था, इससे किसी भी अपशकुन को नहीं मानता था। उसने कहा- युद्ध का डंका बजाओ॥1॥
 
6. चौपाई 86.2:  निशाचरों की अपार सेना चली। उसमें बहुत से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु के सामने कैसे दौड़े, जैसे पतंगों के समूह अग्नि की ओर (जलने के लिए) दौड़ते हैं॥।2॥
 
6. चौपाई 86.3:  इधर देवताओं ने स्तुति की कि हे श्री रामजी! इसने हमको दारुण दुःख दिए हैं। अब आप इसे (अधिक) न खेलाइए। जानकीजी बहुत ही दुःखी हो रही हैं॥3॥
 
6. चौपाई 86.4:  देवताओं के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर श्री रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे। मस्तक पर जटाओं के जूड़े को कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीच में पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं॥4॥
 
6. चौपाई 86.5:  लाल नेत्र और मेघ के समान श्याम शरीर वाले और संपूर्ण लोकों के नेत्रों को आनंद देने वाले हैं। प्रभु ने कमर में फेंटा तथा तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शार्गं धनुष ले लिया॥5॥
 
6. छंद 86.1:  प्रभु ने हाथ में शार्गं धनुष लेकर कमर में बाणों की खान (अक्षय) सुंदर तरकस कस लिया। उनके भुजदण्ड पुष्ट हैं और मनोहर चौड़ी छाती पर ब्राह्मण (भृगुजी) के चरण का चिह्न शोभित है। तुलसीदासजी कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथ में लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेषजी, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।
 
6. दोहा 86:  (भगवान्‌ की) शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलों की अपार वर्षा करने लगे और शोभा, शक्ति और गुणों के धाम करुणानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥86॥
 
6. चौपाई 87.1:  इसी बीच में निशाचरों की अत्यंत घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामने चले जैसे प्रलयकाल के बादलों के समूह हों॥1॥
 
6. चौपाई 87.2:  बहुत से कृपाल और तलवारें चमक रही हैं। मानो दसों दिशाओं में बिजलियाँ चमक रही हों। हाथी, रथ और घोड़ों का कठोर चिंग्घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल भयंकर गर्जन कर रहे हों॥2॥
 
6. चौपाई 87.3:  वानरों की बहुत सी पूँछें आकाश में छाई हुई हैं। (वे ऐसी शोभा दे रही हैं) मानो सुंदर इंद्रधनुष उदय हुए हों। धूल ऐसी उठ रही है मानो जल की धारा हो। बाण रूपी बूँदों की अपार वृष्टि हुई॥3॥
 
6. चौपाई 87.4:  दोनों ओर से योद्धा पर्वतों का प्रहार करते हैं। मानो बारंबार वज्रपात हो रहा हो। श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके बाणों की झड़ी लगा दी, (जिससे) राक्षसों की सेना घायल हो गई॥4॥
 
6. चौपाई 87.5:  बाण लगते ही वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। उनके शरीर से ऐसे खून बह रहा है मानो पर्वत के भारी झरनों से जल बह रहा हो। इस प्रकार डरपोकों को भय उत्पन्न करने वाली रुधिर की नदी बह चली॥5॥
 
6. छंद 87.1:  डरपोकों को भय उपजाने वाली अत्यंत अपवित्र रक्त की नदी बह चली। दोनों दल उसके दोनों किनारे हैं। रथ रेत है और पहिए भँवर हैं। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोड़े, गदहे तथा अनेकों सवारियाँ ही, जिनकी गिनती कौन करे, नदी के जल जन्तु हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं, धनुष तरंगें हैं और ढाल बहुत से कछुवे हैं।
 
6. दोहा 87:  वीर पृथ्वी पर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारे के वृक्ष ढह रहे हों। बहुत सी मज्जा बह रही है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं, वहाँ उत्तम योद्धाओं के मन में सुख होता है॥87॥
 
6. चौपाई 88.1:  भूत, पिशाच और बेताल, बड़े-बड़े झोंटों वाले महान्‌ भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते हैं और एक-दूसरे से छीनकर खा जाते हैं॥1॥
 
6. चौपाई 88.2:  एक (कोई) कहते हैं, अरे मूर्खों! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तट पर पड़े कराह रहे हैं, मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरने के समय आधे जल में रखे जाते हैं) पड़े हों॥2॥
 
6. चौपाई 88.3:  गीध आँतें खींच रहे हैं, मानो मछली मार नदी तट पर से चित्त लगाए हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों (बंसी से मछली पकड़ रहे हों)। बहुत से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उन पर चढ़े चले जा रहे हैं। मानो वे नदी में नावरि (नौका क्रीड़ा) खेल रहे हों॥3॥
 
6. चौपाई 88.4:  योगिनियाँ खप्परों में भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचों की स्त्रियाँ आकाश में नाच रही हैं। चामुण्डाएँ योद्धाओं की खोपड़ियों का करताल बजा रही हैं और नाना प्रकार से गा रही हैं॥4॥
 
6. चौपाई 88.5:  गीदड़ों के समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदों को काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जाने पर एक-दूसरे को डाँटते हैं। करोड़ों धड़ बिना सिर के घूम रहे हैं और सिर पृथ्वी पर पड़े जय-जय बोल रहे है॥5॥
 
6. छंद 88.1:  मुण्ड (कटे सिर) जय-जय बोल बोलते हैं और प्रचण्ड रुण्ड (धड़) बिना सिर के दौड़ते हैं। पक्षी खोपड़ियों में उलझ-उलझकर परस्पर लड़े मरते हैं, उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओं को ढहा रहे हैं। श्री रामचंद्रजी बल से दर्पित हुए वानर राक्षसों के झुंडों को मसले डालते हैं। श्री रामजी के बाण समूहों से मरे हुए योद्धा लड़ाई के मैदान में सो रहे हैं।
 
6. दोहा 88:  रावण ने हृदय में विचारा कि राक्षसों का नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ॥88॥
 
6. चौपाई 89.1:  देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बड़ा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ। (फिर क्या था) इंद्र ने तुरंत अपना रथ भेज दिया। (उसका सारथी) मातलि हर्ष के साथ उसे ले आया॥1॥
 
6. चौपाई 89.2:  उस दिव्य अनुपम और तेज के पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर चढ़े। उसमें चार चंचल, मनोहर, अजर, अमर और मन की गति के समान शीघ्र चलने वाले (देवलोक के) घोड़े जुते थे॥2॥
 
6. चौपाई 89.3:  श्री रघुनाथजी को रथ पर चढ़े देखकर वानर विशेष बल पाकर दौड़े। वानरों की मार सही नहीं जाती। तब रावण ने माया फैलाई॥3॥
 
6. चौपाई 89.4:  एक श्री रघुवीर के ही वह माया नहीं लगी। सब वानरों ने और लक्ष्मणजी ने भी उस माया को सच मान लिया। वानरों ने राक्षसी सेना में भाई लक्ष्मणजी सहित बहुत से रामों को देखा॥4॥
 
6. छंद 89.1:  बहुत से राम-लक्ष्मण देखकर वानर-भालू मन में मिथ्या डर से बहुत ही डर गए। लक्ष्मणजी सहित वे मानो चित्र लिखे से जहाँ के तहाँ खड़े देखने लगे। अपनी सेना को आश्चर्यचकित देखकर कोसलपति भगवान्‌ हरि (दुःखों के हरने वाले श्री रामजी) ने हँसकर धनुष पर बाण चढ़ाकर, पल भर में सारी माया हर ली। वानरों की सारी सेना हर्षित हो गई।
 
6. दोहा 89:  फिर श्री रामजी सबकी ओर देखकर गंभीर वचन बोले- हे वीरों! तुम सब बहुत ही थक गए हो, इसलिए अब (मेरा और रावण का) द्वंद्व युद्ध देखो॥89॥
 
6. चौपाई 90.1:  ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौड़ा॥1॥
 
6. चौपाई 90.2:  (उसने कहा-) अरे तपस्वी! सुनो, तुमने युद्ध में जिन योद्धाओं को जीता है, मैं उनके समान नहीं हूँ। मेरा नाम रावण है, मेरा यश सारा जगत्‌ जानता है, लोकपाल तक जिसके कैद खाने में पड़े हैं॥2॥
 
6. चौपाई 90.3:  तुमने खर, दूषण और विराध को मारा! बेचारे बालि का व्याध की तरह वध किया। बड़े-बड़े राक्षस योद्धाओं के समूह का संहार किया और कुंभकर्ण तथा मेघनाद को भी मारा॥3॥
 
6. चौपाई 90.4:  अरे राजा! यदि तुम रण से भाग न गए तो आज मैं (वह) सारा वैर निकाल लूँगा। आज मैं तुम्हें निश्चय ही काल के हवाले कर दूँगा। तुम कठिन रावण के पाले पड़े हो॥4॥
 
6. चौपाई 90.5:  रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान श्री रामजी ने हँसकर यह वचन कहा- तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है। पर अब व्यर्थ बकवाद न करो, अपना पुरुषार्थ दिखलाओ॥5॥
 
6. छंद 90.1:  व्यर्थ बकवाद करके अपने सुंदर यश का नाश न करो। क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो! संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं- पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही लगते हैं। इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं॥
 
6. दोहा 90:  श्री रामजी के वचन सुनकर वह खूब हँसा (और बोला-) मुझे ज्ञान सिखाते हो? उस समय वैर करते तो नहीं डरे, अब प्राण प्यारे लग रहे हैं॥90॥
 
6. चौपाई 91.1:  दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा। अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा तथा आकाश और पृथ्वी में, सब जगह छा गए॥1॥
 
6. चौपाई 91.2:  श्री रघुवीर ने अग्निबाण छोड़ा, (जिससे) रावण के सब बाण क्षणभर में भस्म हो गए। तब उसने खिसियाकर तीक्ष्ण शक्ति छोड़ी, (किन्तु) श्री रामचंद्रजी ने उसको बाण के साथ वापस भेज दिया॥2॥
 
6. चौपाई 91.3:  वह करोड़ों चक्र और त्रिशूल चलाता है, परन्तु प्रभु उन्हें बिना ही परिश्रम काटकर हटा देते हैं। रावण के बाण किस प्रकार निष्फल होते हैं, जैसे दुष्ट मनुष्य के सब मनोरथ!॥3॥
 
6. चौपाई 91.4:  तब उसने श्री रामजी के सारथी को सौ बाण मारे। वह श्री रामजी की जय पुकारकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। श्री रामजी ने कृपा करके सारथी को उठाया। तब प्रभु अत्यंत क्रोध को प्राप्त हुए॥4॥
 
6. छंद 91.1:  युद्ध में शत्रु के विरुद्ध श्री रघुनाथजी क्रोधित हुए, तब तरकस में बाण कसमसाने लगे (बाहर निकलने को आतुर होने लगे)। उनके धनुष का अत्यंत प्रचण्ड शब्द (टंकार) सुनकर मनुष्यभक्षी सब राक्षस वातग्रस्त हो गए (अत्यंत भयभीत हो गए)। मंदोदरी का हृदय काँप उठा, समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत डर गए। दिशाओं के हाथी पृथ्वी को दाँतों से पकड़कर चिग्घाड़ने लगे। यह कौतुक देखकर देवता हँसे।
 
6. दोहा 91:  धनुष को कान तक तानकर श्री रामचंद्रजी ने भयानक बाण छोड़े। श्री रामजी के बाण समूह ऐसे चले मानो सर्प लहलहाते (लहराते) हुए जा रहे हों॥91॥
 
6. चौपाई 92.1:  बाण ऐसे चले मानो पंख वाले सर्प उड़ रहे हों। उन्होंने पहले सारथी और घोड़ों को मार डाला। फिर रथ को चूर-चूर करके ध्वजा और पताकाओं को गिरा दिया। तब रावण बड़े जोर से गरजा, पर भीतर से उसका बल थक गया था॥1॥
 
6. चौपाई 92.2:  तुरंत दूसरे रथ पर चढ़कर खिसियाकर उसने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छोड़े। उसके सब उद्योग वैसे ही निष्फल हो गए, जैसे परद्रोह में लगे हुए चित्त वाले मनुष्य के होते हैं॥2॥
 
6. चौपाई 92.3:  तब रावण ने दस त्रिशूल चलाए और श्री रामजी के चारों घोड़ों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। घोड़ों को उठाकर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष खींचकर बाण छोड़े॥3॥
 
6. चौपाई 92.4:  रावण के सिर रूपी कमल वन में विचरण करने वाले श्री रघुवीर के बाण रूपी भ्रमरों की पंक्ति चली। श्री रामचंद्रजी ने उसके दसों सिरों में दस-दस बाण मारे, जो आर-पार हो गए और सिरों से रक्त के पनाले बह चले॥4॥
 
6. चौपाई 92.5:  रुधिर बहते हुए ही बलवान्‌ रावण दौड़ा। प्रभु ने फिर धनुष पर बाण संधान किया। श्री रघुवीर ने तीस बाण मारे और बीसों भुजाओं समेत दसों सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिए॥5॥
 
6. चौपाई 92.6:  (सिर और हाथ) काटते ही फिर नए हो गए। श्री रामजी ने फिर भुजाओं और सिरों को काट गिराया। इस तरह प्रभु ने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे, परन्तु काटते ही वे तुरंत फिर नए हो गए॥6॥
 
6. चौपाई 92.7:  प्रभु बार-बार उसकी भुजा और सिरों को काट रहे हैं, क्योंकि कोसलपति श्री रामजी बड़े कौतुकी हैं। आकाश में सिर और बाहु ऐसे छा गए हैं, मानो असंख्य केतु और राहु हों॥7॥
 
6. छंद 92.1:  मानो अनेकों राहु और केतु रुधिर बहाते हुए आकाश मार्ग से दौड़ रहे हों। श्री रघुवीर के प्रचण्ड बाणों के (बार-बार) लगने से वे पृथ्वी पर गिरने नहीं पाते। एक-एक बाण से समूह के समूह सिर छिदे हुए आकाश में उड़ते ऐसे शोभा दे रहे हैं मानो सूर्य की किरणें क्रोध करके जहाँ-तहाँ राहुओं को पिरो रही हों।
 
6. दोहा 92:  जैसे-जैसे प्रभु उसके सिरों को काटते हैं, वैसे ही वैसे वे अपार होते जाते हैं। जैसे विषयों का सेवन करने से काम (उन्हें भोगने की इच्छा) दिन-प्रतिदिन नया-नया बढ़ता जाता है॥92॥
 
6. चौपाई 93.1:  सिरों की बाढ़ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बड़ा गहरा क्रोध हुआ। वह महान्‌ अभिमानी मूर्ख गरजा और दसों धनुषों को तानकर दौड़ा॥1॥
 
6. चौपाई 93.2:  रणभूमि में रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर श्री रघुनाथजी के रथ को ढँक दिया। एक दण्ड (घड़ी) तक रथ दिखलाई न पड़ा, मानो कुहरे में सूर्य छिप गया हो॥2॥
 
6. चौपाई 93.3:  जब देवताओं ने हाहाकार किया, तब प्रभु ने क्रोध करके धनुष उठाया और शत्रु के बाणों को हटाकर उन्होंने शत्रु के सिर काटे और उनसे दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी सबको पाट दिया॥3॥
 
6. चौपाई 93.4:  काटे हुए सिर आकाश मार्ग से दौड़ते हैं और जय-जय की ध्वनि करके भय उत्पन्न करते हैं। ‘लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव कहाँ हैं? कोसलपति रघुवीर कहाँ हैं?’॥4॥
 
6. छंद 93.1:  ‘राम कहाँ हैं?’ यह कहकर सिरों के समूह दौड़े, उन्हें देखकर वानर भाग चले। तब धनुष सन्धान करके रघुकुलमणि श्री रामजी ने हँसकर बाणों से उन सिरों को भलीभाँति बेध डाला। हाथों में मुण्डों की मालाएँ लेकर बहुत सी कालिकाएँ झुंड की झुंड मिलकर इकट्ठी हुईं और वे रुधिर की नदी में स्नान करके चलीं। मानो संग्राम रूपी वटवृक्ष की पूजा करने जा रही हों।
 
6. दोहा 93:  फिर रावण ने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोड़ी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का दण्ड हो॥93॥
 
6. चौपाई 94.1:  अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली॥1॥
 
6. चौपाई 94.2:  शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूर्छा हो गई। प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई। प्रभु को श्रम (शारीरिक कष्ट) प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौड़े॥2॥
 
6. चौपाई 94.3:  (और बोले-) अरे अभागे! मूर्ख, नीच दुर्बुद्धि! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया। तूने आदर सहित शिवजी को सिर चढ़ाए। इसी से एक-एक के बदले में करोड़ों पाए॥3॥
 
6. चौपाई 94.4:  उसी कारण से अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, (किन्तु) अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू राम विमुख होकर सम्पत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी॥4॥
 
6. छंद 94.1:  बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके दसों मुखों से रुधिर बहने लगा, वह अपने को फिर संभालकर क्रोध में भरा हुआ दौड़ा। दोनों अत्यंत बलवान्‌ योद्धा भिड़ गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। श्री रघुवीर के बल से गर्वित विभीषण उसको (रावण जैसे जगद्विजयी योद्धा को) पासंग के बराबर भी नहीं समझते।
 
6. दोहा 94:  (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परन्तु अब वही काल के समान उससे भिड़ रहा है। यह श्री रघुवीर का ही प्रभाव है॥94॥
 
6. चौपाई 95.1:  विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी॥1॥
 
6. चौपाई 95.2:  रावण खड़ा रहा, पर उसका शरीर अत्यंत काँपने लगा। विभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवकों के रक्षक श्री रामजी थे। फिर रावण ने ललकारकर हनुमान्‌जी को मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाश में चले गए॥2॥
 
6. चौपाई 95.3:  रावण ने पूँछ पकड़ ली, हनुमान्‌जी उसको साथ लिए ऊपर उड़े। फिर लौटकर महाबलवान्‌ हनुमान्‌जी उससे भिड़ गए। दोनों समान योद्धा आकाश में लड़ते हुए एक-दूसरे को क्रोध करके मारने लगे॥3॥
 
6. चौपाई 95.4:  दोनों बहुत से छल-बल करते हुए आकाश में ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो कज्जलगिरि और सुमेरु पर्वत लड़ रहे हों। जब बुद्धि और बल से राक्षस गिराए न गिरा तब मारुति श्री हनुमान्‌जी ने प्रभु को स्मरण किया॥4॥
 
6. छंद 95.1:  श्री रघुवीर का स्मरण करके धीर हनुमान्‌जी ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोनों पृथ्वी पर गिरते और फिर उठकर लड़ते हैं, देवताओं ने दोनों की ‘जय-जय’ पुकारी। हनुमान्‌जी पर संकट देखकर वानर-भालू क्रोधातुर होकर दौड़े, किन्तु रण-मद-माते रावण ने सब योद्धाओं को अपनी प्रचण्ड भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।
 
6. दोहा 95:  तब श्री रघुवीर के ललकारने पर प्रचण्ड वीर वानर दौड़े। वानरों के प्रबल दल को देखकर रावण ने माया प्रकट की॥95॥
 
6. चौपाई 96.1:  क्षणभर के लिए वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। श्री रघुनाथजी की सेना में जितने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ (चारों ओर) प्रकट हो गए॥1॥
 
6. चौपाई 96.2:  वानरों ने अपरिमित रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर धीरज नहीं धरते। हे लक्ष्मणजी! हे रघुवीर! बचाइए, बचाइए, यों पुकारते हुए वे भागे जा रहे हैं॥2॥
 
6. चौपाई 96.3:  दसों दिशाओं में करोड़ों रावण दौड़ते हैं और घोर, कठोर भयानक गर्जन कर रहे हैं। सब देवता डर गए और ऐसा कहते हुए भाग चले कि हे भाई! अब जय की आशा छोड़ दो!॥3॥
 
6. चौपाई 96.4:  एक ही रावण ने सब देवताओं को जीत लिया था, अब तो बहुत से रावण हो गए हैं। इससे अब पहाड़ की गुफाओं का आश्रय लो (अर्थात्‌ उनमें छिप रहो)। वहाँ ब्रह्मा, शम्भु और ज्ञानी मुनि ही डटे रहे, जिन्होंने प्रभु की कुछ महिमा जानी थी॥4॥
 
6. छंद 96.1:  जो प्रभु का प्रताप जानते थे, वे निर्भय डटे रहे। वानरों ने शत्रुओं (बहुत से रावणों) को सच्चा ही मान लिया। (इससे) सब वानर-भालू विचलित होकर ‘हे कृपालु! रक्षा कीजिए’ (यों पुकारते हुए) भय से व्याकुल होकर भाग चले। अत्यंत बलवान्‌ रणबाँकुरे हनुमान्‌जी, अंगद, नील और नल लड़ते हैं और कपट रूपी भूमि से अंकुर की भाँति उपजे हुए कोटि-कोटि योद्धा रावणों को मसलते हैं।
 
6. दोहा 96:  देवताओं और वानरों को विकल देखकर कोसलपति श्री रामजी हँसे और शार्गं धनुष पर एक बाण चढ़ाकर (माया के बने हुए) सब रावणों को मार डाला॥96॥
 
6. चौपाई 97.1:  प्रभु ने क्षणभर में सब माया काट डाली। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार की राशि फट जाती है (नष्ट हो जाती है)। अब एक ही रावण को देखकर देवता हर्षित हुए और उन्होंने लौटकर प्रभु पर बहुत से पुष्प बरसाए॥1॥
 
6. चौपाई 97.2:  श्री रघुनाथजी ने भुजा उठाकर सब वानरों को लौटाया। तब वे एक-दूसरे को पुकार-पुकार कर लौट आए। प्रभु का बल पाकर रीछ-वानर दौड़ पड़े। जल्दी से कूदकर वे रणभूमि में आ गए॥2॥
 
6. चौपाई 97.3:  देवताओं को श्री रामजी की स्तुति करते देख कर रावण ने सोचा, मैं इनकी समझ में एक हो गया, (परन्तु इन्हें यह पता नहीं कि इनके लिए मैं एक ही बहुत हूँ) और कहा- अरे मूर्खों! तुम तो सदा के ही मेरे मरैल (मेरी मार खाने वाले) हो। ऐसा कहकर वह क्रोध करके आकाश पर (देवताओं की ओर) दौड़ा॥3॥
 
6. चौपाई 97.4:  देवता हाहाकार करते हुए भागे। (रावण ने कहा-) दुष्टों! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे? देवताओं को व्याकुल देखकर अंगद दौड़े और उछलकर रावण का पैर पकड़कर (उन्होंने) उसको पृथ्वी पर गिरा दिया॥4॥
 
6. छंद 97.1:  उसे पकड़कर पृथ्वी पर गिराकर लात मारकर बालिपुत्र अंगद प्रभु के पास चले गए। रावण संभलकर उठा और बड़े भंयकर कठोर शब्द से गरजने लगा। वह दर्प करके दसों धनुष चढ़ाकर उन पर बहुत से बाण संधान करके बरसाने लगा। उसने सब योद्धाओं को घायल और भय से व्याकुल कर दिया और अपना बल देखकर वह हर्षित होने लगा।
 
6. दोहा 97:  तब श्री रघुनाथजी ने रावण के सिर, भुजाएँ, बाण और धनुष काट डाले। पर वे फिर बहुत बढ़ गए, जैसे तीर्थ में किए हुए पाप बढ़ जाते हैं (कई गुना अधिक भयानक फल उत्पन्न करते हैं)!॥97॥
 
6. चौपाई 98.1:  शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने पर भी नहीं मरता, (ऐसा कहते हुए) भालू और वानर योद्धा क्रोध करके दौड़े॥1॥
 
6. चौपाई 98.2:  बालिपुत्र अंगद, मारुति हनुमान्‌जी, नल, नील, वानरराज सुग्रीव और द्विविद आदि बलवान्‌ उस पर वृक्ष और पर्वतों का प्रहार करते हैं। वह उन्हीं पर्वतों और वृक्षों को पकड़कर वानरों को मारता है॥2॥
 
6. चौपाई 98.3:  कोई एक वानर नखों से शत्रु के शरीर को फाड़कर भाग जाते हैं, तो कोई उसे लातों से मारकर। तब नल और नील रावण के सिरों पर चढ़ गए और नखों से उसके ललाट को फाड़ने लगे॥3॥
 
6. चौपाई 98.4:  खून देखकर उसे हृदय में बड़ा दुःख हुआ। उसने उनको पकड़ने के लिए हाथ फैलाए, पर वे पकड़ में नहीं आते, हाथों के ऊपर-ऊपर ही फिरते हैं मानो दो भौंरे कमलों के वन में विचरण कर रहे हों॥4॥
 
6. चौपाई 98.5:  तब उसने क्रोध करके उछलकर दोनों को पकड़ लिया। पृथ्वी पर पटकते समय वे उसकी भुजाओं को मरोड़कर भाग छूटे। फिर उसने क्रोध करके हाथों में दसों धनुष लिए और वानरों को बाणों से मारकर घायल कर दिया॥5॥
 
6. चौपाई 98.6:  हनुमान्‌जी आदि सब वानरों को मूर्च्छित करके और संध्या का समय पाकर रावण हर्षित हुआ। समस्त वानर-वीरों को मूर्च्छित देखकर रणधीर जाम्बवत्‌ दौड़े॥6॥
 
6. चौपाई 98.7:  जाम्बवान्‌ के साथ जो भालू थे, वे पर्वत और वृक्ष धारण किए रावण को ललकार-ललकार कर मारने लगे। बलवान्‌ रावण क्रोधित हुआ और पैर पकड़-पकड़कर वह अनेकों योद्धाओं को पृथ्वी पर पटकने लगा॥7॥
 
6. चौपाई 98.8:  जाम्बवान्‌ ने अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी॥8॥
 
6. छंद 98.1:  छाती में लात का प्रचण्ड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बीसों हाथों में भालुओं को पकड़ रखा था। (ऐसा जान पड़ता था) मानो रात्रि के समय भौंरे कमलों में बसे हुए हों। उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान्‌ प्रभु के पास चले। रात्रि जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा॥
 
6. दोहा 98:  मूर्च्छा दूर होने पर सब रीछ-वानर प्रभु के पास आए। उधर सब राक्षसों ने बहुत ही भयभीत होकर रावण को घेर लिया॥98॥
 
6. चौपाई 99.1:  उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनकर सीताजी के हृदय में बड़ा भय हुआ॥1॥
 
6. चौपाई 99.2:  (उनका) मुख उदास हो गया, मन में चिंता उत्पन्न हो गई। तब सीताजी त्रिजटा से बोलीं- हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? संपूर्ण विश्व को दुःख देने वाला यह किस प्रकार मरेगा?॥2॥
 
6. चौपाई 99.3:  श्री रघुनाथजी के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता। विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है। (सच बात तो यह है कि) मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है, जिसने मुझे भगवान्‌ के चरणकमलों से अलग कर दिया है॥3॥
 
6. चौपाई 99.4:  जिसने कपट का झूठा स्वर्ण मृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर रूठा हुआ है, जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण को कड़ुवे वचन कहलाए,॥4॥
 
6. चौपाई 99.5:  जो श्री रघुनाथजी के विरह रूपी बड़े विषैले बाणों से तक-तककर मुझे बहुत बार मारकर, अब भी मार रहा है और ऐसे दुःख में भी जो मेरे प्राणों को रख रहा है, वही विधाता उस (रावण) को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं॥5॥
 
6. चौपाई 99.6:  कृपानिधान श्री रामजी की याद कर-करके जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं। त्रिजटा ने कहा- हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा॥6॥
 
6. चौपाई 99.7:  परन्तु प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि इसके हृदय में जानकीजी (आप) बसती हैं॥7॥
 
6. छंद 99.1:  वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीताजी के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा- हे सुंदरी! महान्‌ संदेह का त्याग कर दो, अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा-
 
6. दोहा 99:  सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अंतर्यामी) श्री रामजी रावण के हृदय में बाण मारेंगे॥99॥
 
6. चौपाई 100.1:  ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचंद्रजी के स्वभाव का स्मरण करके जानकीजी को अत्यंत विरह व्यथा उत्पन्न हुई॥1॥
 
6. चौपाई 100.2:  वे रात्रि की और चंद्रमा की बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं (और कह रही हैं-) रात युग के समान बड़ी हो गई, वह बीतती ही नहीं। जानकीजी श्री रामजी के विरह में दुःखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं॥2॥
 
6. चौपाई 100.3:  जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फड़क उठे। शकुन समझकर उन्होंने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु श्री रघुवीर अवश्य मिलेंगे॥3॥
 
6. चौपाई 100.4:  यहाँ आधी रात को रावण (मूर्च्छा से) जागा और अपने सारथी पर रुष्ट होकर कहने लगा- अरे मूर्ख! तूने मुझे रणभूमि से अलग कर दिया। अरे अधम! अरे मंदबुद्धि! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है!॥4॥
 
6. चौपाई 100.5:  सारथि ने चरण पकड़कर रावण को बहुत प्रकार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढ़कर फिर दौड़ा। रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बड़ी खलबली मच गई॥5॥
 
6. चौपाई 100.6:  वे भारी योद्धा जहाँ-तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाड़कर (क्रोध से) दाँत कटकटाकर दौड़े॥6॥
 
6. छंद 100.1:  विकट और विकराल वानर-भालू हाथों में पर्वत लिए दौड़े। वे अत्यंत क्रोध करके प्रहार करते हैं। उनके मारने से राक्षस भाग चले। बलवान्‌ वानरों ने शत्रु की सेना को विचलित करके फिर रावण को घेर लिया। चारों ओर से चपेटे मारकर और नखों से शरीर विदीर्ण कर वानरों ने उसको व्याकुल कर दिया॥
 
6. दोहा 100:  वानरों को बड़ा ही प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और अंतर्धान होकर क्षणभर में उसने माया फैलाई॥100॥
 
6. छंद 101a.1:  जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!॥1॥
 
6. छंद 101a.2:  योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लिए ताजा खून पीकर नाचने और बहुत तरह के गीत गाने लगीं॥2॥
 
6. छंद 101a.3:  वे ‘पक़ड़ो, मारो’ आदि घोर शब्द बोल रही हैं। चारों ओर (सब दिशाओं में) यह ध्वनि भर गई। वे मुख फैलाकर खाने दौड़ती हैं। तब वानर भागने लगे॥3॥
 
6. छंद 101a.4:  वानर भागकर जहाँ भी जाते हैं, वहीं आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए। फिर रावण बालू बरसाने लगा॥4॥
 
6. छंद 101a.5:  वानरों को जहाँ-तहाँ थकित (शिथिल) कर रावण फिर गरजा। लक्ष्मणजी और सुग्रीव सहित सभी वीर अचेत हो गए॥5॥
 
6. छंद 101a.6:  हा राम! हा रघुनाथ पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस प्रकार सब का बल तोड़कर रावण ने फिर दूसरी माया रची॥6॥
 
6. छंद 101a.7:  उसने बहुत से हनुमान्‌ प्रकट किए, जो पत्थर लिए दौड़े। उन्होंने चारों ओर दल बनाकर श्री रामचंद्रजी को जा घेरा॥7॥
 
6. छंद 101a.8:  वे पूँछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे, ‘मारो, पकड़ो, जाने न पावे’। उनके लंगूर (पूँछ) दसों दिशाओं में शोभा दे रहे हैं और उनके बीच में कोसलराज श्री रामजी हैं॥8॥
 
6. छंद 101a.9:  उनके बीच में कोसलराज का सुंदर श्याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल वृक्ष के लिए अनेक इंद्रधनुषों की श्रेष्ठ बाढ़ (घेरा) बनाई गई हो। प्रभु को देखकर देवता हर्ष और विषादयुक्त हृदय से ‘जय, जय, जय’ ऐसा बोलने लगे। तब श्री रघुवीर ने क्रोध करके एक ही बाण में निमेषमात्र में रावण की सारी माया हर ली॥1॥
 
6. छंद 101a.10:  माया दूर हो जाने पर वानर-भालू हर्षित हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पड़े। श्री रामजी ने बाणों के समूह छोड़े, जिनसे रावण के हाथ और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े। श्री रामजी और रावण के युद्ध का चरित्र यदि सैकड़ों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पों तक गाते रहें, तो भी उसका पार नहीं पा सकते॥2॥
 
6. दोहा 101a:  उसी चरित्र के कुछ गुणगण मंदबुद्धि तुलसीदास ने कहे हैं, जैसे मक्खी भी अपने पुरुषार्थ के अनुसार आकाश में उड़ती है॥101 (क)॥
 
6. दोहा 101b:  सिर और भुजाएँ बहुत बार काटी गईं। फिर भी वीर रावण मरता नहीं। प्रभु तो खेल कर रहे हैं, परन्तु मुनि, सिद्ध और देवता उस क्लेश को देखकर (प्रभु को क्लेश पाते समझकर) व्याकुल हैं॥101 (ख)॥
 
6. चौपाई 102.1:  काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्री रामचंद्रजी ने विभीषण की ओर देखा॥1॥
 
6. चौपाई 102.2:  (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जिसकी इच्छा मात्र से काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवक की प्रीति की परीक्षा ले रहे हैं। (विभीषणजी ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे चराचर के स्वामी! हे शरणागत के पालन करने वाले! हे देवता और मुनियों को सुख देने वाले! सुनिए-॥2॥
 
6. चौपाई 102.3:  इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है। विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए॥3॥
 
6. चौपाई 102.4:  उस समय नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे। बहुत से गदहे, स्यार और कुत्ते रोने लगे। जगत्‌ के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे। आकाश में जहाँ-तहाँ केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गए॥4॥
 
6. चौपाई 102.5:  दसों दिशाओं में अत्यंत दाह होने लगा (आग लगने लगी) बिना ही पर्व (योग) के सूर्यग्रहण होने लगा। मंदोदरी का हृदय बहुत काँपने लगा। मूर्तियाँ नेत्र मार्ग से जल बहाने लगीं॥5॥
 
6. छंद 102.1:  मूर्तियाँ रोने लगीं, आकाश से वज्रपात होने लगे, अत्यंत प्रचण्ड वायु बहने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूल की वर्षा करने लगे। इस प्रकार इतने अधिक अमंगल होने लगे कि उनको कौन कह सकता है? अपरिमित उत्पात देखकर आकाश में देवता व्याकुल होकर जय-जय पुकार उठे। देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु श्री रघुनाथजी धनुष पर बाण सन्धान करने लगे।
 
6. दोहा 102:  कानों तक धनुष को खींचकर श्री रघुनाथजी ने इकतीस बाण छोड़े। वे श्री रामचंद्रजी के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों॥102॥
 
6. चौपाई 103.1:  एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा॥1॥
 
6. चौपाई 103.2:  धड़ प्रचण्ड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!॥2॥
 
6. चौपाई 103.3:  रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥
 
6. चौपाई 103.4:  रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर श्री रामजी थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए॥4॥
 
6. चौपाई 103.5:  रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए। ब्रह्माण्डभर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदण्डों वाले श्री रघुवीर की जय हो॥5॥
 
6. चौपाई 103.6:  देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो!॥6॥
 
6. छंद 103.1:  हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरने वाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में श्री रामचंद्रजी के अंगों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की॥1॥
 
6. छंद 103.2:  सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशो‍भित हो रहे हैं। श्री रामजी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यंत सुंदर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपने महान्‌ सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों॥2॥
 
6. दोहा 103:  प्रभु श्री रामचंद्रजी ने कृपा दृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया। वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुन्द की जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥103॥
 
6. चौपाई 104.1:  पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं॥1॥
 
6. चौपाई 104.2:  पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं॥2॥
 
6. चौपाई 104.3:  (वे कहती हैं-) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है!॥3॥
 
6. चौपाई 104.4:  वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो॥4॥
 
6. चौपाई 104.5:  तुम्हारी प्रभुता जगत्‌ भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्री रामचंद्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया॥5॥
 
6. चौपाई 104.6:  हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात्‌ उचित ही है)॥6॥
 
6. चौपाई 104.7:  हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना॥7॥
 
6. छंद 104.1:  दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात्‌ श्री हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान्‌ को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।
 
6. दोहा 104:  अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान्‌ ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है॥104॥
 
6. चौपाई 105.1:  मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले) श्रेष्ठ मुनि थे॥1॥
 
6. चौपाई 105.2:  वे सभी श्री रघुनाथजी को नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गए और अत्यंत सुखी हुए। अपने घर की सब स्त्रियों को रोती हुई देखकर विभीषणजी के मन में बड़ा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गए॥2॥
 
6. चौपाई 105.3:  उन्होंने भाई की दशा देखकर दुःख किया। तब प्रभु श्री रामजी ने छोटे भाई को आज्ञा दी (कि जाकर विभीषण को धैर्य बँधाओ)। लक्ष्मणजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया। तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए॥3॥
 
6. चौपाई 105.4:  प्रभु ने उनको कृपापूर्ण दृष्टि से देखा (और कहा-) सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषणजी ने विधिपूर्वक सब क्रिया की॥4॥
 
6. दोहा 105:  मंदोदरी आदि सब स्त्रियाँ उसे (रावण को) तिलांजलि देकर मन में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन करती हुई महल को गईं॥105॥
 
6. चौपाई 106.1-2:  सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपा के समुद्र श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुलाया। श्री रघुनाथजी ने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील जाम्बवान्‌ और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिताजी के वचनों के कारण मैं नगर में नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेजता हूँ॥1-2॥
 
6. चौपाई 106.3:  प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की॥3॥
 
6. चौपाई 106.4:  सभी ने हाथ जोड़कर उनको सिर नवाए। तदनन्तर विभीषणजी सहित सब प्रभु के पास आए। तब श्री रघुवीर ने वानरों को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया॥4॥
 
6. छंद 106.1:  भगवान्‌ ने अमृत के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषण ने राज्य पाया। इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकों में नित्य नया बना रहेगा। जो लोग मेरे सहित तुम्हारी शुभ कीर्ति को परम प्रेम के साथ गाएँगे, वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसार का पार पा जाएँगे।
 
6. दोहा 106:  प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरणकमलों को पकड़ते हैं॥106॥
 
6. चौपाई 107.1:  फिर प्रभु ने हनुमान्‌जी को बुला लिया। भगवान्‌ ने कहा- तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ॥1॥
 
6. चौपाई 107.2:  तब हनुमान्‌जी नगर में आए। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी (उनके सत्कार के लिए) दौड़े। उन्होंने बहुत प्रकार से हनुमान्‌जी की पूजा की और फिर श्री जानकीजी को दिखला दिया॥2॥
 
6. चौपाई 107.3:  हनुमान्‌जी ने (सीताजी को) दूर से ही प्रणाम किया। जानकीजी ने पहचान लिया कि यह वही श्री रघुनाथजी का दूत है (और पूछा-) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं?॥3॥
 
6. चौपाई 107.4:  (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! कोसलपति श्री रामजी सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होंने संग्राम में दस सिर वाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सीताजी के हृदय में हर्ष छा गया॥4॥
 
6. छंद 107.1:  श्री जानकीजी के हृदय में अत्यंत हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं- हे हनुमान्‌! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं है! (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! सुनिए, मैंने आज निःसंदेह सारे जगत्‌ का राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार श्री रामजी को देख रहा हूँ।
 
6. दोहा 107:  (जानकीजी ने कहा-) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान्‌! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥107॥
 
6. चौपाई 108.1:  हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी के पास जाकर हनुमान्‌जी ने जानकीजी का कुशल समाचार सुनाया॥1॥
 
6. चौपाई 108.2:  सूर्य कुलभूषण श्री रामजी ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और विभीषण को बुला लिया (और कहा-) पवनपुत्र हनुमान्‌ के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ॥2॥
 
6. चौपाई 108.3:  वे सब तुरंत ही वहाँ गए, जहाँ सीताजी थीं। सब की सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषणजी ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होंने बहुत प्रकार से सीताजी को स्नान कराया,॥3॥
 
6. चौपाई 108.4:  बहुत प्रकार के गहने पहनाए और फिर वे एक सुंदर पालकी सजाकर ले आए। सीताजी प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम श्री रामजी का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढ़ीं॥4॥
 
6. चौपाई 108.5:  चारों ओर हाथों में छड़ी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौड़े॥5॥
 
6. चौपाई 108.6:  श्री रघुवीर ने कहा- हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखें। गोसाईं श्री रामजी ने हँसकर ऐसा कहा॥6॥
 
6. चौपाई 108.7:  प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत से फूल बरसाए। सीताजी (के असली स्वरूप) को पहिले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान्‌ उनको प्रकट करना चाहते हैं॥7॥
 
6. दोहा 108:  इसी कारण करुणा के भंडार श्री रामजी ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥108॥
 
6. चौपाई 109a.1:  प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर्माचरण में सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो॥1॥
 
6. चौपाई 109a.2:  श्री सीताजी की विरह, विवेक, धर्म और नीति से सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मणजी के नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भर आया। वे हाथ जोड़े खड़े रहे। वे भी प्रभु से कुछ कह नहीं सकते॥2॥
 
6. चौपाई 109a.3:  फिर श्री रामजी का रुख देखकर लक्ष्मणजी दौड़े और आग तैयार करके बहुत सी लकड़ी ले आए। अग्नि को खूब बढ़ी हुई देखकर जानकीजी के हृदय में हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ भी नहीं हुआ॥3॥
 
6. चौपाई 109a.4:  (सीताजी ने लीला से कहा-) यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में श्री रघुवीर को छोड़कर दूसरी गति (अन्य किसी का आश्रय) नहीं है, तो अग्निदेव जो सबके मन की गति जानते हैं, (मेरे भी मन की गति जानकर) मेरे लिए चंदन के समान शीतल हो जाएँ॥4॥
 
6. छंद 109a.1:  प्रभु श्री रामजी का स्मरण करके और जिनके चरण महादेवजी के द्वारा वंदित हैं तथा जिनमें सीताजी की अत्यंत विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपति की जय बोलकर जानकीजी ने चंदन के समान शीतल हुई अग्नि में प्रवेश किया। प्रतिबिम्ब (सीताजी की छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्नि में जल गए। प्रभु के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाश में खड़े देखते हैं॥1॥
 
6. छंद 109a.2:  तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत्‌ में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी) का हाथ पकड़ उन्हें श्री रामजी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान्‌ को लक्ष्मी समर्पित की थीं। वे सीताजी श्री रामचंद्रजी के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है। मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो॥2॥
 
6. दोहा 109a:  देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाश में डंके बजने लगे। किन्नर गाने लगे। विमानों पर चढ़ी अप्सराएँ नाचने लगीं॥109 (क)॥
 
6. दोहा 109b:  श्री जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी की अपरिमित और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हर्षित हो गए और सुख के सार श्री रघुनाथजी की जय बोलने लगे॥109 (ख)॥
 
6. चौपाई 110.1:  तब श्री रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानो बड़े परमार्थी हों॥1॥
 
6. चौपाई 110.2:  हे दीनबन्धु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओं पर बड़ी दया की। विश्व के द्रोह में तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्ग पर चलने वाला रावण अपने ही पाप से नष्ट हो गया॥2॥
 
6. चौपाई 110.3:  आप समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभाव से ही उदासीन (शत्रु-मित्र-भावरहित), अखंड, निर्गुण (मायिक गुणों से रहित), अजन्मे, निष्पाप, निर्विकार, अजेय, अमोघशक्ति (जिनकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती) और दयामय हैं॥3॥
 
6. चौपाई 110.4:  आपने ही मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किए। हे नाथ! जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश किया॥4॥
 
6. चौपाई 110.5:  यह दुष्ट मलिन हृदय, देवताओं का नित्य शत्रु, काम, लोभ और मद के परायण तथा अत्यंत क्रोधी था। ऐसे अधमों के शिरोमणि ने भी आपका परम पद पा लिया। इस बात का हमारे मन में आश्चर्य हुआ॥5॥
 
6. चौपाई 110.6:  हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पड़े हैं। अब हे प्रभो! हम आपकी शरण में आ गए हैं, हमारी रक्षा कीजिए॥6॥
 
6. दोहा 110:  विनती करके देवता और सिद्ध सब जहाँ के तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहे। तब अत्यंत प्रेम से पुलकित शरीर होकर ब्रह्माजी स्तुति करने लगे– ॥110॥
 
6. छंद 111.1:  हे नित्य सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंह के समान हैं। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणों के समुद्र और परम चतुर हैं‍॥1॥
 
6. छंद 111.2:  आपके शरीर की अनेकों कामदेवों के समान, परंतु अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावणरूपी महासर्प को गरुड़ की तरह क्रोध करके पकड़ लिया॥2॥
 
6. छंद 111.3:  हे प्रभो! आप सेवकों को आनंद देने वाले, शोक और भय का नाश करने वाले, सदा क्रोधरहित और नित्य ज्ञान स्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणों वाला, पृथ्वी का भार उतारने वाला और ज्ञान का समूह है॥3॥
 
6. छंद 111.4:  (किंतु अवतार लेने पर भी) आप नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) और अनादि हैं। हे करुणा की खान श्रीरामजी! मैं आपको बड़े ही हर्ष के साथ नमस्कार करता हूँ। हे रघुकुल के आभूषण! हे दूषण राक्षस को मारने वाले तथा समस्त दोषों को हरने वाले! विभिषण दीन था, उसे आपने (लंका का) राजा बना दिया॥4॥
 
6. छंद 111.5:  हे गुण और ज्ञान के भंडार! हे मानरहित! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकारों से रहित श्रीराम! मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ। आपके भुजदंडों का प्रताप और बल प्रचंड है। दुष्ट समूह के नाश करने में आप परम निपुण हैं॥5॥
 
6. छंद 111.6:  हे बिना ही कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करने वाले और शोभा के धाम! मैं श्रीजानकीजी सहित आपको नमस्कार करता हूँ। आप भवसागर से तारने वाले हैं, कारणरूपा प्रकृति और कार्यरूप जगत दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होने वाले कठिन दोषों को हरने वाले हैं॥6॥
 
6. छंद 111.7:  आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले हैं। (लाल) कमल के समान रक्तवर्ण आपके नेत्र हैं। आप राजाओं में श्रेष्ठ, सुख के मंदिर, सुंदर, श्री (लक्ष्मीजी) के वल्लभ तथा मद (अहंकार), काम और झूठी ममता के नाश करने वाले हैं॥7॥
 
6. छंद 111.8:  आप अनिन्द्य या दोषरहित हैं, अखंड हैं, इंद्रियों के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह (कोई) दंतकथा (कोरी कल्पना) नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग हैं और अलग नहीं भी है, वैसे ही आप भी संसार से भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही हैं॥8॥
 
6. छंद 111.9:  हे व्यापक प्रभो! ये सब वानर कृतार्थ रूप हैं, जो आदरपूर्वक ये आपका मुख देख रहे हैं। (और) हे हरे! हमारे (अमर) जीवन और देव (दिव्य) शरीर को धिक्कार है, जो हम आपकी भक्ति से रहित हुए संसार में (सांसारिक विषयों में) भूले पड़े हैं॥9॥
 
6. छंद 111.10:  हे दीनदयालु! अब दया कीजिए और मेरी उस विभेद उत्पन्न करने वाली बुद्धि को हर लीजिए, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूँ और जो दु:ख है, उसे सुख मानकर आनंद से विचरता हूँ॥10॥
 
6. छंद 111.11:  आप दुष्टों का खंडन करने वाले और पृथ्वी के रमणीय आभूषण हैं। आपके चरणकमल श्री शिव-पार्वती द्वारा स‍ेवित हैं। हे राजाओं के महाराज! मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके चरणकमलों में सदा मेरा कल्याणदायक (अनन्य) प्रेम हो॥11॥
 
6. दोहा 111:  इस प्रकार ब्रह्माजी ने अत्यंत प्रेम-पुलकित शरीर से विनती की। शोभा के समुद्र श्रीरामजी के दर्शन करते-करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे॥111॥
 
6. चौपाई 112.1:  उसी समय दशरथजी वहाँ आए। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु ने उनकी वंदना की और तब पिता ने उनको आशीर्वाद दिया॥1॥
 
6. चौपाई 112.2:  (श्रीरामजी ने कहा-) हे तात! यह सब आपके पुण्यों का प्रभाव है, जो मैंने अजेय राक्षसराज को जीत लिया। पुत्र के वचन सुनकर उनकी प्रीति अत्यंत बढ़ गई। नेत्रों में जल छा गया और रोमावली खड़ी हो गई॥2॥
 
6. चौपाई 112.3:  श्री रघुनाथजी ने पहले के (जीवितकाल के) प्रेम को विचारकर, पिता की ओर देखकर ही उन्हें अपने स्वरूप का दृढ़ ज्ञान करा दिया। हे उमा! दशरथजी ने भेद-भक्ति में अपना मन लगाया था, इसी से उन्होंने (कैवल्य) मोक्ष नहीं पाया॥3॥
 
6. चौपाई 112.4:  (मायारहित सच्चिदानंदमय स्वरूपभूत दिव्यगुणयुक्त) सगुण स्वरूप की उपासना करने वाले भक्त इस प्रकार मोक्ष लेते भी नहीं। उनको श्रीरामजी अपनी भक्ति देते हैं। प्रभु को (इष्टबुद्धि से) बार-बार प्रणाम करके दशरथजी हर्षित होकर देवलोक को चले गए॥4॥
 
6. दोहा 112:  छोटे भाई लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित परम कुशल प्रभु श्रीकोसलाधीश की शोभा देखकर देवराज इंद्र मन में हर्षित होकर स्तुति करने लगे- ॥112॥
 
6. छंद 113.1:  शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देने वाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, प्रबल प्रतापी भुज दंडों वाले श्रीरामचंद्रजी की जय हो! ॥1॥
 
6. छंद 113.2:  हे खरदूषण के शत्रु और राक्षसों की सेना के मर्दन करने वाले! आपकी जय हो! हे नाथ! आपने इस दुष्ट को मारा, जिससे सब देवता सनाथ (सुरक्षित) हो गए॥2॥
 
6. छंद 113.3:  हे भूमि का भार हरने वाले! हे अपार श्रेष्ठ महिमावाले! आपकी जय हो। हे रावण के शत्रु! हे कृपालु! आपकी जय हो। आपने राक्षसों को बेहाल (तहस-नहस) कर दिया॥3॥
 
6. छंद 113.4:  लंकापति रावण को अपने बल का बहुत घमंड था। उसने देवता और गंधर्व सभी को अपने वश में कर लिया था और वह मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी और नाग आदि सभी के हठपूर्वक (हाथ धोकर) पीछे पड़ गया था॥4॥
 
6. छंद 113.5:  वह दूसरों से द्रोह करने में तत्पर और अत्यंत दुष्ट था। उस पापी ने वैसा ही फल पाया। अब हे दीनों पर दया करने वाले! हे कमल के समान विशाल नेत्रों वाले! सुनिए॥5॥
 
6. छंद 113.6:  मुझे अत्यंत अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है, पर अब प्रभु (आप) के चरण कमलों के दर्शन करने से दु:ख समूह का देने वाला मेरा वह अभिमान जाता रहा॥6॥
 
6. छंद 113.7:  कोई उन निर्गुन ब्रह्म का ध्यान करते हैं जिन्हें वेद अव्यक्त (निराकार) कहते हैं। परंतु हे रामजी! मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज-स्वरूप ही प्रिय लगता है॥7॥
 
6. छंद 113.8:  श्रीजानकीजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में अपना घर बनाइए। हे रमानिवास! मुझे अपना दास समझिए और अपनी भक्ति दीजिए॥8॥
 
6. छंद 113.9:  हे रमानिवास! हे शरणागत के भय को हरने वाले और उसे सब प्रकार का सुख देने वाले! मुझे अपनी भक्ति दीजिए। हे सुख के धाम! हे अनेकों कामदेवों की छबिवाले रघुकुल के स्वामी श्रीरामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे देवसमूह को आनंद देने वाले, (जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सुख-दु:ख आदि) द्वंद्वों के नाश करने वाले, मनुष्य शरीरधारी, अतुलनीय बलवाले, ब्रह्मा और शिव आदि से सेवनीय, करुणा से कोमल श्रीरामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
 
6. दोहा 113:  हे कृपालु! अब मेरी ओर कृपा करके (कृपा दृष्टि से) देखकर आज्ञा दीजिए कि मैं क्या (सेवा) करूँ! इंद्र के ये प्रिय वचन सुनकर दीनदयालु श्रीरामजी बोले ॥113॥
 
6. चौपाई 114a.1:  हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हित के लिए अपने प्राण त्याग दिए। हे सुजान देवराज! इन सबको जिला दो॥1॥
 
6. चौपाई 114a.2:  (काकभुशुण्डिजी कहते हैं -) हे गरुड़! सुनिए प्रभु के ये वचन अत्यंत गहन (गूढ़) हैं। ज्ञानी मुनि ही इन्हें जान सकते हैं। प्रभु श्रीरामजी त्रिलोकी को मारकर जिला सकते हैं। यहाँ तो उन्होंने केवल इंद्र को बड़ाई दी है॥2॥
 
6. चौपाई 114a.3:  इंद्र ने अमृत बरसाकर वानर-भालुओं को जिला दिया। सब ‍हर्षित होकर उठे और प्रभु के पास आए। अमृत की वर्षा दोनों ही दलों पर हुई। पर रीछ-वानर ही जीवित हुए, राक्षस नहीं॥3॥
 
6. चौपाई 114a.4:  क्योंकि राक्षस के मन तो मरते समय रामाकार हो गए थे। अत: वे मुक्त हो गए, उनके भवबंधन छूट गए। किंतु वानर और भालू तो सब देवांश (भगवान् की लीला के परिकर) थे। इसलिए वे सब श्रीरघुनाथजी की इच्छा से जीवित हो गए॥4॥
 
6. चौपाई 114a.5:  श्रीरामचंद्रजी के समान दीनों का हित करने वाला कौन है? जिन्होंने सारे राक्षसों को मुक्त कर दिया! दुष्ट, पापों के घर और कामी रावण ने भी वह गति पाई जिसे श्रेष्ठ मुनि भी नहीं पाते॥5॥
 
6. दोहा 114a:  फूलों की वर्षा करके सब देवता सुंदर विमानों पर चढ़-चढ़कर चले। तब सुअवसर जानकार सुजान शिवजी प्रभु श्रीरामचंद्रजी के पास आए- ॥114 (क)॥
 
6. दोहा 114b:  और परम प्रेम से दोनों हाथ जोड़कर, कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, पुलकित शरीर और गद्‍गद्‍ वाणी से त्रिपुरारी शिवजी विनती करने लगे – ॥114 (ख) ॥
 
6. छंद 115.1:  हे रघुकुल के स्वामी! सुंदर हाथों में श्रेष्ठ धनुष और सुंदर बाण धारण किए हुए आप मेरी रक्षा कीजिए। आप महामोहरूपी मेघसमूह के (उड़ाने के) लिए प्रचंड पवन हैं, संशयरूपी वन के (भस्म करने के) लिए अग्नि हैं और देवताओं को आनंद देने वाले हैं॥1॥
 
6. छंद 115.2:  आप निर्गुण, सगुण, दिव्य गुणों के धाम और परम सुंदर हैं। भ्रमरूपी अंधकार के (नाश के) लिए प्रबल प्रतापी सूर्य हैं। काम, क्रोध और मदरूपी हाथियों के (वध के) लिए सिंह के समान आप इस सेवक के मनरूपी वन में निरंतर वास कीजिए॥2॥
 
6. छंद 115.3:  विषयकामनाओं के समूह रूपी कमलवन के (नाश के) लिए आप प्रबल पाला हैं, आप उदार और मन से परे हैं। भवसागर (को मथने) के लिए आप मंदराचल पर्वत हैं। आप हमारे परम भय को दूर कीजिए और हमें दुस्तर संसार सागर से पार कीजिए॥3॥
 
6. छंद 115.4-5:  हे श्यामसुंदर-शरीर! हे कमलनयन! हे दीनबंधु! हे शरणागत को दु:ख से छुड़ाने वाले! हे राजा रामचंद्रजी! आप छोटे भाई लक्ष्मण और जानकीजी सहित निरंतर मेरे हृदय के अंदर निवास कीजिए। आप मुनियों को आनंद देने वाले, पृथ्वीमंडल के भूषण, तुलसीदास के प्रभु और भय का नाश करने वाले हैं॥ 4-5॥
 
6. दोहा 115:  हे नाथ! जब अयोध्यापुरी में आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपासागर! मैं आपकी उदार लीला देखने आऊँगा ॥115॥
 
6. चौपाई 116a.1:  जब शिवजी विनती करके चले गए, तब विभीषणजी प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले- हे शार्गं धनुष के धारण करने वाले प्रभो! मेरी विनती सुनिए-॥1॥
 
6. चौपाई 116a.2:  आपने कुल और सेना सहित रावण का वध किया, त्रिभुवन में अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीन पर बहुत प्रकार से कृपा की॥2॥
 
6. चौपाई 116a.3:  अब हे प्रभु! इस दास के घर को पवित्र कीजिए और वहाँ चलकर स्नान कीजिए, जिससे युद्ध की थकावट दूर हो जाए। हे कृपालु! खजाना, महल और सम्पत्ति का निरीक्षण कर प्रसन्नतापूर्वक वानरों को दीजिए॥3॥
 
6. चौपाई 116a.4:  हे नाथ! मुझे सब प्रकार से अपना लीजिए और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी को पधारिए। विभीषणजी के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥4॥
 
6. दोहा 116a:  (श्री रामजी ने कहा-) हे भाई! सुनो, तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह सच बात है। पर भरत की दशा याद करके मुझे एक-एक पल कल्प के समान बीत रहा है॥116 (क)॥
 
6. दोहा 116b:  तपस्वी के वेष में कृश (दुबले) शरीर से निरंतर मेरा नाम जप कर रहे हैं। हे सखा! वही उपाय करो जिससे मैं जल्दी से जल्दी उन्हें देख सकूँ। मैं तुमसे निहोरा (अनुरोध) करता हूँ॥116 (ख)॥
 
6. दोहा 116c:  यदि अवधि बीत जाने पर जाता हूँ तो भाई को जीता न पाऊँगा। छोटे भाई भरतजी की प्रीति का स्मरण करके प्रभु का शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥166 (ग)॥
 
6. दोहा 116d:  (श्री रामजी ने फिर कहा-) हे विभीषण! तुम कल्पभर राज्य करना, मन में मेरा निरंतर स्मरण करते रहना। फिर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहाँ सब संत जाते हैं॥116 (घ)॥
 
6. चौपाई 117a.1:  श्री रामचंद्रजी के वचन सुनते ही विभीषणजी ने हर्षित होकर कृपा के धाम श्री रामजी के चरण पकड़ लिए। सभी वानर-भालू हर्षित हो गए और प्रभु के चरण पकड़कर उनके निर्मल गुणों का बखान करने लगे॥1॥
 
6. चौपाई 117a.2:  फिर विभीषणजी महल को गए और उन्होंने मणियों के समूहों (रत्नों) से और वस्त्रों से विमान को भर लिया। फिर उस पुष्पक विमान को लाकर प्रभु के सामने रखा। तब कृपासागर श्री रामजी ने हँसकर कहा-॥2॥
 
6. चौपाई 117a.3:  हे सखा विभीषण! सुनो, विमान पर चढ़कर, आकाश में जाकर वस्त्रों और गहनों को बरसा दो। तब (आज्ञा सुनते) ही विभीषणजी ने आकाश में जाकर सब मणियों और वस्त्रों को बरसा दिया॥3॥
 
6. चौपाई 117a.4:  जिसके मन को जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है। मणियों को मुँह में लेकर वानर फिर उन्हें खाने की चीज न समझकर उगल देते हैं। यह तमाशा देखकर परम विनोदी और कृपा के धाम श्री रामजी, सीताजी और लक्ष्मणजी सहित हँसने लगे॥4॥
 
6. दोहा 117a:  जिनको मुनि ध्यान में भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपा के समुद्र श्री रामजी वानरों के साथ अनेकों प्रकार के विनोद कर रहे हैं॥117 (क)॥
 
6. दोहा 117b:  (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचंद्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं॥117 (ख)॥
 
6. चौपाई 118a.1:  भालुओं और वानरों ने कपड़े-गहने पाए और उन्हें पहन-पहनकर वे श्री रघुनाथजी के पास आए। अनेकों जातियों के वानरों को देखकर कोसलपति श्री रामजी बार-बार हँस रहे हैं॥1॥
 
6. चौपाई 118a.2:  श्री रघुनाथजी ने कृपा दृष्टि से देखकर सब पर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले- हे भाइयो! तुम्हारे ही बल से मैंने रावण को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक किया॥2॥
 
6. चौपाई 118a.3:  अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसी से डरना नहीं। ये वचन सुनते ही सब वानर प्रेम में विह्वल होकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक बोले-॥3॥
 
6. चौपाई 118a.4:  प्रभो! आप जो कुछ भी कहें, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है। हे रघुनाथजी! आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं। हम वानरों को दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृतार्थ) किया है॥4॥
 
6. चौपाई 118a.5:  प्रभु के (ऐसे) वचन सुनकर हम लाज के मारे मरे जा रहे हैं। कहीं मच्छर भी गरुड़ का हित कर सकते हैं? श्री रामजी का रुख देखकर रीछ-वानर प्रेम में मग्न हो गए। उनकी घर जाने की इच्छा नहीं है॥5॥
 
6. दोहा 118a:  परन्तु प्रभु की प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू श्री रामजी के रूप को हृदय में रखकर और अनेकों प्रकार से विनती करके हर्ष और विषाद सहित घर को चले॥118 (क)॥
 
6. दोहा 118b:  वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान्‌, अंगद, नल और हनुमान्‌ तथा विभीषण सहित और जो बलवान्‌ वानर सेनापति हैं,॥118 (ख)॥
 
6. दोहा 118c:  वे कुछ कह नहीं सकते, प्रेमवश नेत्रों में जल भर-भरकर, नेत्रों का पलक मारना छोड़कर (टकटकी लगाए) सम्मुख होकर श्री रामजी की ओर देख रहे हैं॥118 (ग)॥
 
6. चौपाई 119a.1:  श्री रघुनाथजी ने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा लिया। तदनन्तर मन ही मन विप्रचरणों में सिर नवाकर उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया॥1॥
 
6. चौपाई 119a.2:  विमान के चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई श्री रघुवीर की जय कह रहे हैं। विमान में एक अत्यंत ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उस पर सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी विराजमान हो गए॥2॥
 
6. चौपाई 119a.3:  पत्नी सहित श्री रामजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरु के शिखर पर बिजली सहित श्याम मेघ हो। सुंदर विमान बड़ी शीघ्रता से चला। देवता हर्षित हुए और उन्होंने फूलों की वर्षा की॥3॥
 
6. चौपाई 119a.4:  अत्यंत सुख देने वाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) वायु चलने लगी। समुद्र, तालाब और नदियों का जल निर्मल हो गया। चारों ओर सुंदर शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं॥4॥
 
6. चौपाई 119a.5:  श्री रघुवीरजी ने कहा- हे सीते! रणभूमि देखो। लक्ष्मण ने यहाँ इंद्र को जीतने वाले मेघनाद को मारा था। हनुमान्‌ और अंगद के मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमि में पड़े हैं॥5॥
 
6. चौपाई 119a.6:  देवताओं और मुनियों को दुःख देने वाले कुंभकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गए॥6॥
 
6. दोहा 119a:  मैंने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम श्री शिवजी की स्थापना की। तदनन्तर कृपानिधान श्री रामजी ने सीताजी सहित श्री रामेश्वर महादेव को प्रणाम किया॥119 (क)॥
 
6. दोहा 119b:  वन में जहाँ-तहाँ करुणा सागर श्री रामचंद्रजी ने निवास और विश्राम किया था, वे सब स्थान प्रभु ने जानकीजी को दिखलाए और सबके नाम बतलाए॥119 (ख)॥
 
6. चौपाई 120a.1:  विमान शीघ्र ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दण्डकवन था और अगस्त्य आदि बहुत से मुनिराज रहते थे। श्री रामजी इन सबके स्थानों में गए॥1॥
 
6. चौपाई 120a.2:  संपूर्ण ऋषियों से आशीर्वाद पाकर जगदीश्वर श्री रामजी चित्रकूट आए। वहाँ मुनियों को संतुष्ट किया। (फिर) विमान वहाँ से आगे तेजी के साथ चला॥2॥
 
6. चौपाई 120a.3:  फिर श्री रामजी ने जानकीजी को कलियुग के पापों का हरण करने वाली सुहावनी यमुनाजी के दर्शन कराए। फिर पवित्र गंगाजी के दर्शन किए। श्री रामजी ने कहा- हे सीते! इन्हें प्रणाम करो॥3॥
 
6. चौपाई 120a.4-5:  फिर तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोड़ों जन्मों के पाप भाग जाते हैं। फिर परम पवित्र त्रिवेणीजी के दर्शन करो, जो शोकों को हरने वाली और श्री हरि के परम धाम (पहुँचने) के लिए सीढ़ी के समान है। फिर अत्यंत पवित्र अयोध्यापुरी के दर्शन करो, जो तीनों प्रकार के तापों और भव (आवागमन रूपी) रोग का नाश करने वाली है॥4-5॥
 
6. दोहा 120a:  यों कहकर कृपालु श्री रामजी ने सीताजी सहित अवधपुरी को प्रणाम किया। सजल नेत्र और पुलकित शरीर होकर श्री रामजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं॥120 (क)॥
 
6. दोहा 120b:  फिर त्रिवेणी में आकर प्रभु ने हर्षित होकर स्नान किया और वानरों सहित ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए॥120 (ख)॥
 
6. चौपाई 121a.1:  तदनन्तर प्रभु ने हनुमान्‌जी को समझाकर कहा- तुम ब्रह्मचारी का रूप धरकर अवधपुरी को जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना॥1॥
 
6. चौपाई 121a.2:  पवनपुत्र हनुमान्‌जी तुरंत ही चल दिए। तब प्रभु भरद्वाजजी के पास गए। मुनि ने (इष्ट बुद्धि से) उनकी अनेकों प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर (लीला की दृष्टि से) आशीर्वाद दिया॥2॥
 
6. चौपाई 121a.3:  दोनों हाथ जोड़कर तथा मुनि के चरणों की वंदना करके प्रभु विमान पर चढ़कर फिर (आगे) चले। यहाँ जब निषादराज ने सुना कि प्रभु आ गए, तब उसने ‘नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?’ पुकारते हुए लोगों को बुलाया॥3॥
 
6. चौपाई 121a.4:  इतने में ही विमान गंगाजी को लाँघकर (इस पार) आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह किनारे पर उतरा। तब सीताजी बहुत प्रकार से गंगाजी की पूजा करके फिर उनके चरणों पर गिरीं॥4॥
 
6. चौपाई 121a.5:  गंगाजी ने मन में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया- हे सुंदरी! तुम्हारा सुहाग अखंड हो। भगवान्‌ के तट पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेम में विह्वल होकर दौड़ा। परम सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया,॥5॥
 
6. चौपाई 121a.6:  और श्री जानकीजी सहित प्रभु को देखकर वह (आनंद-समाधि में मग्न होकर) पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे शरीर की सुधि न रही। श्री रघुनाथजी ने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्ष के साथ हृदय से लगा लिया॥6॥
 
6. छंद 121a.1:  सुजानों के राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकांत, कृपानिधान भगवान्‌ ने उसको हृदय से लगा लिया और अत्यंत निकट बैठकर कुशल पूछी। वह विनती करने लगा- आपके जो चरणकमल ब्रह्माजी और शंकरजी से सेवित हैं, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूँ। हे सुखधाम! हे पूर्णकाम श्री रामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, नमस्कार करता हूँ॥1॥
 
6. छंद 121a.2:  सब प्रकार से नीच उस निषाद को भगवान्‌ ने भरतजी की भाँति हृदय से लगा लिया। तुलसीदासजी कहते हैं- इस मंदबुद्धि ने (मैंने) मोहवश उस प्रभु को भुला दिया। रावण के शत्रु का यह पवित्र करने वाला चरित्र सदा ही श्री रामजी के चरणों में प्रीति उत्पन्न करने वाला है। यह कामादि विकारों को हरने वाला और (भगवान्‌ के स्वरूप का) विशेष ज्ञान उत्पन्न करने वाला है। देवता, सिद्ध और मुनि आनंदित होकर इसे गाते हैं॥2॥
 
6. दोहा 121a:  जो सुजान लोग श्री रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान्‌ नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥।121 (क)॥
 
6. दोहा 121b:  अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथजी के नाम को छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है॥121 (ख)॥
 
7. श्लोक 1:  मोर के कण्ठ की आभा के समान (हरिताभ) नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण (भृगुजी) के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित, शोभा से पूर्ण, पीताम्बरधारी, कमल नेत्र, सदा परम प्रसन्न, हाथों में बाण और धनुष धारण किए हुए, वानर समूह से युक्त भाई लक्ष्मणजी से सेवित, स्तुति किए जाने योग्य, श्री जानकीजी के पति, रघुकुल श्रेष्ठ, पुष्पक विमान पर सवार श्री रामचंद्रजी को मैं निरंतर नमस्कार करता हूँ॥1॥
 
7. श्लोक 2:  कोसलपुरी के स्वामी श्री रामचंद्रजी के सुंदर और कोमल दोनों चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी द्वारा वन्दित हैं, श्री जानकीजी के करकमलों से दुलराए हुए हैं और चिन्तन करने वाले के मन रूपी भौंरे के नित्य संगी हैं अर्थात्‌ चिन्तन करने वालों का मन रूपी भ्रमर सदा उन चरणकमलों में बसा रहता है॥2॥
 
7. श्लोक 3:  कुन्द के फूल, चंद्रमा और शंख के समान सुंदर गौरवर्ण, जगज्जननी श्री पार्वतीजी के पति, वान्छित फल के देने वाले, (दुखियों पर सदा), दया करने वाले, सुंदर कमल के समान नेत्र वाले, कामदेव से छुड़ाने वाले (कल्याणकारी) श्री शंकरजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥3॥
 
7. दोहा 0a:  श्री रामजी के लौटने की अवधि का एक ही दिन बाकी रह गया, अतएव नगर के लोग बहुत आतुर (अधीर) हो रहे हैं। राम के वियोग में दुबले हुए स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ सोच (विचार) कर रहे हैं (कि क्या बात है श्री रामजी क्यों नहीं आए)।
 
7. दोहा 0b:  इतने में सब सुंदर शकुन होने लगे और सबके मन प्रसन्न हो गए। नगर भी चारों ओर से रमणीक हो गया। मानो ये सब के सब चिह्न प्रभु के (शुभ) आगमन को जना रहे हैं।
 
7. दोहा 0c:  कौसल्या आदि सब माताओं के मन में ऐसा आनंद हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी आ गए।
 
7. दोहा 0d:  भरतजी की दाहिनी आँख और दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके मन में अत्यंत हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे-
 
7. चौपाई 1a.1:  प्राणों की आधार रूप अवधि का एक ही दिन शेष रह गया। यह सोचते ही भरतजी के मन में अपार दुःख हुआ। क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आए? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया?॥1॥
 
7. चौपाई 1a.2:  अहा हा! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं, जो श्री रामचंद्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं (अर्थात्‌ उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया॥2॥
 
7. चौपाई 1a.3:  (बात भी ठीक ही है, क्योंकि) यदि प्रभु मेरी करनी पर ध्यान दें तो सौ करोड़ (असंख्य) कल्पों तक भी मेरा निस्तार (छुटकारा) नहीं हो सकता (परंतु आशा इतनी ही है कि), प्रभु सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबंधु हैं और अत्यंत ही कोमल स्वभाव के हैं॥3॥
 
7. चौपाई 1a.4:  अतएव मेरे हृदय में ऐसा पक्का भरोसा है कि श्री रामजी अवश्य मिलेंगे, (क्योंकि) मुझे शकुन बड़े शुभ हो रहे हैं, किंतु अवधि बीत जाने पर यदि मेरे प्राण रह गए तो जगत्‌ में मेरे समान नीच कौन होगा? ॥4॥
 
7. दोहा 1a:  श्री रामजी के विरह समुद्र में भरतजी का मन डूब रहा था, उसी समय पवनपुत्र हनुमान्‌जी ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ गए, मानो (उन्हें डूबने से बचाने के लिए) नाव आ गई हो॥1 (क)॥
 
7. दोहा 1b:  हनुमान्‌जी ने दुर्बल शरीर भरतजी को जटाओं का मुकुट बनाए, राम! राम! रघुपति! जपते और कमल के समान नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं) का जल बहाते कुश के आसन पर बैठे देखा॥1 (ख)॥
 
7. चौपाई 2a.1:  उन्हें देखते ही हनुमान्‌जी अत्यंत हर्षित हुए। उनका शरीर पुलकित हो गया, नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बरसने लगा। मन में बहुत प्रकार से सुख मानकर वे कानों के लिए अमृत के समान वाणी बोले-॥1॥
 
7. चौपाई 2a.2:  जिनके विरह में आप दिन-रात सोच करते (घुलते) रहते हैं और जिनके गुण समूहों की पंक्तियों को आप निरंतर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को ‘सुख’ देने वाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक श्री रामजी सकुशल आ गए॥2॥
 
7. चौपाई 2a.3:  शत्रु को रण में जीतकर सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु आ रहे हैं, देवता उनका सुंदर यश गा रहे हैं। ये वचन सुनते ही (भरतजी को) सारे दुःख भूल गए। जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यास के दुःख को भूल जाए॥3॥
 
7. चौपाई 2a.4:  (भरतजी ने पूछा-) हे तात! तुम कौन हो? और कहाँ से आए हो? (जो) तुमने मुझको (ये) परम प्रिय (अत्यंत आनंद देने वाले) वचन सुनाए। (हनुमान्‌जी ने कहा) हे कृपानिधान! सुनिए, मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूँ, मेरा नाम हनुमान्‌ है॥4॥
 
7. चौपाई 2a.5:  मैं दीनों के बंधु श्री रघुनाथजी का दास हूँ। यह सुनते ही भरतजी उठकर आदरपूर्वक हनुमान्‌जी से गले लगकर मिले। मिलते समय प्रेम हृदय में नहीं समाता। नेत्रों से (आनंद और प्रेम के आँसुओं का) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया॥5॥
 
7. चौपाई 2a.6:  (भरतजी ने कहा-) हे हनुमान्‌- तुम्हारे दर्शन से मेरे समस्त दुःख समाप्त हो गए (दुःखों का अंत हो गया)। (तुम्हारे रूप में) आज मुझे प्यारे रामजी ही मिल गए। भरतजी ने बार-बार कुशल पूछी (और कहा-) हे भाई! सुनो, (इस शुभ संवाद के बदले में) तुम्हें क्या दूँ?॥6॥
 
7. चौपाई 2a.7:  इस संदेश के समान (इसके बदले में देने लायक पदार्थ) जगत्‌ में कुछ भी नहीं है, मैंने यह विचार कर देख लिया है। (इसलिए) हे तात! मैं तुमसे किसी प्रकार भी उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभु का चरित्र (हाल) सुनाओ॥7॥
 
7. चौपाई 2a.8:  तब हनुमान्‌जी ने भरतजी के चरणों में मस्तक नवाकर श्री रघुनाथजी की सारी गुणगाथा कही। (भरतजी ने पूछा-) हे हनुमान्‌! कहो, कृपालु स्वामी श्री रामचंद्रजी कभी मुझे अपने दास की तरह याद भी करते हैं?॥8॥
 
7. छंद 2a.1:  रघुवंश के भूषण श्री रामजी क्या कभी अपने दास की भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं? भरतजी के अत्यंत नम्र वचन सुनकर हनुमान्‌जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणों पर गिर पड़े (और मन में विचारने लगे कि) जो चराचर के स्वामी हैं, वे श्री रघुवीर अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं, वे भरतजी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों?
 
7. दोहा 2a:  (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे नाथ! आप श्री रामजी को प्राणों के समान प्रिय हैं, हे तात! मेरा वचन सत्य है। यह सुनकर भरतजी बार-बार मिलते हैं, हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥2 (क)॥
 
7. सोरठा 2b:  फिर भरतजी के चरणों में सिर नवाकर हनुमान्‌जी तुरंत ही श्री रामजी के पास (लौट) गए और जाकर उन्होंने सब कुशल कही। तब प्रभु हर्षित होकर विमान पर चढ़कर चले॥2 (ख)॥
 
7. चौपाई 3a.1:  इधर भरतजी भी हर्षित होकर अयोध्यापुरी में आए और उन्होंने गुरुजी को सब समाचार सुनाया! फिर राजमहल में खबर जनाई कि श्री रघुनाथजी कुशलपूर्वक नगर को आ रहे हैं॥1॥
 
7. चौपाई 3a.2:  खबर सुनते ही सब माताएँ उठ दौड़ीं। भरतजी ने प्रभु की कुशल कहकर सबको समझाया। नगर निवासियों ने यह समाचार पाया, तो स्त्री-पुरुष सभी हर्षित होकर दौड़े॥2॥
 
7. चौपाई 3a.3:  (श्री रामजी के स्वागत के लिए) दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मंगल के मूल नवीन तुलसीदल आदि वस्तुएँ सोने की थाली में भर-भरकर हथिनी की सी चाल वाली सौभाग्यवती स्त्रियाँ (उन्हें लेकर) गाती हुई चलीं॥3॥
 
7. चौपाई 3a.4:  जो जैसे हैं (जहाँ जिस दशा में हैं) वे वैसे ही (वहीं से उसी दशा में) उठ दौड़ते हैं। (देर हो जाने के डर से) बालकों और बूढ़ों को कोई साथ नहीं लाते। एक-दूसरे से पूछते हैं- भाई! तुमने दयालु श्री रघुनाथजी को देखा है?॥4॥
 
7. चौपाई 3a.5:  प्रभु को आते जानकर अवधपुरी संपूर्ण शोभाओं की खान हो गई। तीनों प्रकार की सुंदर वायु बहने लगी। सरयूजी अति निर्मल जल वाली हो गईं। (अर्थात्‌ सरयूजी का जल अत्यंत निर्मल हो गया)॥5॥
 
7. दोहा 3a:  गुरु वशिष्ठजी, कुटुम्बी, छोटे भाई शत्रुघ्न तथा ब्राह्मणों के समूह के साथ हर्षित होकर भरतजी अत्यंत प्रेमपूर्ण मन से कृपाधाम श्री रामजी के सामने अर्थात्‌ उनकी अगवानी के लिए चले॥3 (क)॥
 
7. दोहा 3b:  बहुत सी स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ीं आकाश में विमान देख रही हैं और उसे देखकर हर्षित होकर मीठे स्वर से सुंदर मंगल गीत गा रही हैं॥3 (ख)॥
 
7. दोहा 3c:  श्री रघुनाथजी पूर्णिमा के चंद्रमा हैं तथा अवधपुर समुद्र है, जो उस पूर्णचंद्र को देखकर हर्षित हो रहा है और शोर करता हुआ बढ़ रहा है (इधर-उधर दौड़ती हुई) स्त्रियाँ उसकी तरंगों के समान लगती हैं॥3 (ग)॥
 
7. चौपाई 4a.1:  यहाँ (विमान पर से) सूर्य कुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामजी वानरों को मनोहर नगर दिखला रहे हैं। (वे कहते हैं-) हे सुग्रीव! हे अंगद! हे लंकापति विभीषण! सुनो। यह पुरी पवित्र है और यह देश सुंदर है॥1॥
 
7. चौपाई 4a.2:  यद्यपि सबने वैकुण्ठ की बड़ाई की है- यह वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत्‌ जानता है, परंतु अवधपुरी के समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है। यह बात (भेद) कई-कोई (बिरले ही) जानते हैं॥2॥
 
7. चौपाई 4a.3:  यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है। इसके उत्तर दिशा में जीवों को पवित्र करने वाली सरयू नदी बहती है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य बिना ही परिश्रम मेरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं॥3॥
 
7. चौपाई 4a.4:  यहाँ के निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधाम को देने वाली है। प्रभु की वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए (और कहने लगे कि) जिस अवध की स्वयं श्री रामजी ने बड़ाई की, वह (अवश्य ही) धन्य है॥4॥
 
7. दोहा 4a:  कृपा सागर भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी ने सब लोगों को आते देखा, तो प्रभु ने विमान को नगर के समीप उतरने की प्रेरणा की। तब वह पृथ्वी पर उतरा॥4 (क)॥
 
7. दोहा 4b:  विमान से उतरकर प्रभु ने पुष्पक विमान से कहा कि तुम अब कुबेर के पास जाओ। श्री रामचंद्रजी की प्रेरणा से वह चला, उसे (अपने स्वामी के पास जाने का) हर्ष है और प्रभु श्री रामचंद्रजी से अलग होने का अत्यंत दुःख भी॥4 (ख)॥
 
7. चौपाई 5.1:  भरतजी के साथ सब लोग आए। श्री रघुवीर के वियोग से सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभु ने वामदेव, वशिष्ठ आदि मुनिश्रेष्ठों को देखा, तो उन्होंने धनुष-बाण पृथ्वी पर रखकर-॥1॥
 
7. चौपाई 5.2:  छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित दौड़कर गुरुजी के चरणकमल पकड़ लिए, उनके रोम-रोम अत्यंत पुलकित हो रहे हैं। मुनिराज वशिष्ठजी ने (उठाकर) उन्हें गले लगाकर कुशल पूछी। (प्रभु ने कहा-) आप ही की दया में हमारी कुशल है॥2॥
 
7. चौपाई 5.3:  धर्म की धुरी धारण करने वाले रघुकुल के स्वामी श्री रामजी ने सब ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें मस्तक नवाया। फिर भरतजी ने प्रभु के वे चरणकमल पकड़े जिन्हें देवता, मुनि, शंकरजी और ब्रह्माजी (भी) नमस्कार करते हैं॥3॥
 
7. चौपाई 5.4:  भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं, उठाए उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्री रामजी ने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। (उनके) साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए। नवीन कमल के समान नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं के) जल की बाढ़ आ गई॥4॥
 
7. छंद 5.1:  कमल के समान नेत्रों से जल बह रहा है। सुंदर शरीर में पुलकावली (अत्यंत) शोभा दे रही है। त्रिलोकी के स्वामी प्रभु श्री रामजी छोटे भाई भरतजी को अत्यंत प्रेम से हृदय से लगाकर मिले। भाई से मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं, उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती। मानो प्रेम और श्रृंगार शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त हुए॥1॥
 
7. छंद 5.2:  कृपानिधान श्री रामजी भरतजी से कुशल पूछते हैं, परंतु आनंदवश भरतजी के मुख से वचन शीघ्र नहीं निकलते। (शिवजी ने कहा-) हे पार्वती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजी को मिल रहा था) वचन और मन से परे है, उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरतजी ने कहा-) हे कोसलनाथ! आपने आर्त्त (दुःखी) जानकर दास को दर्शन दिए, इससे अब कुशल है। विरह समुद्र में डूबते हुए मुझको कृपानिधान ने हाथ पकड़कर बचा लिया!॥2॥
 
7. दोहा 5:  फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले॥।5॥
 
7. चौपाई 6a.1:  फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्नजी से गले लगकर मिले और इस प्रकार विरह से उत्पन्न दुःसह दुःख का नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी ने सीताजी के चरणों में सिर नवाया और परम सुख प्राप्त किया॥1॥
 
7. चौपाई 6a.2:  प्रभु को देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए। वियोग से उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गए। सब लोगों को प्रेम विह्नल (और मिलने के लिए अत्यंत आतुर) देखकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी ने एक चमत्कार किया॥2॥
 
7. चौपाई 6a.3:  उसी समय कृपालु श्री रामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गए और सबसे (एक ही साथ) यथायोग्य मिले। श्री रघुवीर ने कृपा की दृष्टि से देखकर सब नर-नारियों को शोक से रहित कर दिया॥3॥
 
7. चौपाई 6a.4:  भगवान्‌ क्षण मात्र में सबसे मिल लिए। हे उमा! यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। इस प्रकार शील और गुणों के धाम श्री रामजी सबको सुखी करके आगे बढ़े॥4॥
 
7. चौपाई 6a.5:  कौसल्या आदि माताएँ ऐसे दौड़ीं मानों नई ब्यायी हुई गायें अपने बछड़ों को देखकर दौड़ी हों॥5॥
 
7. छंद 6a.1:  मानो नई ब्यायी हुई गायें अपने छोटे बछड़ों को घर पर छोड़ परवश होकर वन में चरने गई हों और दिन का अंत होने पर (बछड़ों से मिलने के लिए) हुँकार करके थन से दूध गिराती हुईं नगर की ओर दौड़ी हों। प्रभु ने अत्यंत प्रेम से सब माताओं से मिलकर उनसे बहुत प्रकार के कोमल वचन कहे। वियोग से उत्पन्न भयानक विपत्ति दूर हो गई और सबने (भगवान्‌ से मिलकर और उनके वचन सुनकर) अगणित सुख और हर्ष प्राप्त किए।
 
7. दोहा 6a:  सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजी की श्री रामजी के चरणों में प्रीति जानकर उनसे मिलीं। श्री रामजी से मिलते समय कैकेयीजी हृदय में बहुत सकुचाईं॥6 (क)॥
 
7. दोहा 6b:  लक्ष्मणजी भी सब माताओं से मिलकर और आशीर्वाद पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयीजी से बार-बार मिले, परंतु उनके मन का क्षोभ (रोष) नहीं जाता॥6 (ख)॥
 
7. चौपाई 7.1:  जानकीजी सब सासुओं से मिलीं और उनके चरणों में लगकर उन्हें अत्यंत हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल पूछकर आशीष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो॥1॥
 
7. चौपाई 7.2:  सब माताएँ श्री रघुनाथजी का कमल सा मुखड़ा देख रही हैं। (नेत्रों से प्रेम के आँसू उमड़े आते हैं, परंतु) मंगल का समय जानकर वे आँसुओं के जल को नेत्रों में ही रोक रखती हैं। सोने के थाल से आरती उतारती हैं और बार-बार प्रभु के श्री अंगों की ओर देखती हैं॥2॥
 
7. चौपाई 7.3:  अनेकों प्रकार से निछावरें करती हैं और हृदय में परमानंद तथा हर्ष भर रही हैं। कौसल्याजी बार-बार कृपा के समुद्र और रणधीर श्री रघुवीर को देख रही हैं॥3॥
 
7. चौपाई 7.4:  वे बार-बार हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने लंकापति रावण को कैसे मारा? मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो ब़ड़े भारी योद्धा और महान्‌ बली थे॥4॥
 
7. दोहा 7:  लक्ष्मणजी और सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी को माता देख रही हैं। उनका मन परमानंद में मग्न है और शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥7॥
 
7. चौपाई 8a.1:  लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान्‌ और अंगद तथा हनुमान्‌जी आदि सभी उत्तम स्वभाव वाले वीर वानरों ने मनुष्यों के मनोहर शरीर धारण कर लिए॥1॥
 
7. चौपाई 8a.2:  वे सब भरतजी के प्रेम, सुंदर, स्वभाव (त्याग के) व्रत और नियमों की अत्यंत प्रेम से आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं और नगर वासियों की (प्रेम, शील और विनय से पूर्ण) रीति देखकर वे सब प्रभु के चरणों में उनके प्रेम की सराहना कर रहे हैं॥2॥
 
7. चौपाई 8a.3:  फिर श्री रघुनाथजी ने सब सखाओं को बुलाया और सबको सिखाया कि मुनि के चरणों में लगो। ये गुरु वशिष्ठजी हमारे कुलभर के पूज्य हैं। इन्हीं की कृपा से रण में राक्षस मारे गए हैं॥3॥
 
7. चौपाई 8a.4:  (फिर गुरुजी से कहा-) हे मुनि! सुनिए। ये सब मेरे सखा हैं। ये संग्राम रूपी समुद्र में मेरे लिए बेड़े (जहाज) के समान हुए। मेरे हित के लिए इन्होंने अपने जन्म तक हार दिए (अपने प्राणों तक को होम दिया) ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं॥4॥
 
7. चौपाई 8a.5:  प्रभु के वचन सुनकर सब प्रेम और आनंद में मग्न हो गए। इस प्रकार पल-पल में उन्हें नए-नए सुख उत्पन्न हो रहे हैं॥5॥
 
7. दोहा 8a:  फिर उन लोगों ने कौसल्याजी के चरणों में मस्तक नवाए। कौसल्याजी ने हर्षित होकर आशीषें दीं (और कहा-) तुम मुझे रघुनाथ के समान प्यारे हो॥8 (क)॥
 
7. दोहा 8b:  आनन्दकन्द श्री रामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया। नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं॥8 (ख)॥
 
7. चौपाई 9a.1:  सोने के कलशों को विचित्र रीति से (मणि-रत्नादि से) अलंकृत कर और सजाकर सब लोगों ने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगल के लिए बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगाईं॥1॥
 
7. चौपाई 9a.2:  सारी गलियाँ सुगंधित द्रवों से सिंचाई गईं। गजमुक्ताओं से रचकर बहुत सी चौकें पुराई गईं। अनेकों प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में बहुत से डंके बजने लगे॥2॥
 
7. चौपाई 9a.3:  स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ निछावर कर रही हैं और हृदय में हर्षित होकर आशीर्वाद देती हैं। बहुत सी युवती (सौभाग्यवती) स्त्रियाँ सोने के थालों में अनेकों प्रकार की आरती सजाकर मंगलगान कर रही हैं॥3॥
 
7. चौपाई 9a.4:  वे आर्तिहर (दुःखों को हरने वाले) और सूर्यकुल रूपी कमलवन को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामजी की आरती कर रही हैं। नगर की शोभा, संपत्ति और कल्याण का वेद, शेषजी और सरस्वतीजी वर्णन करते हैं-॥4॥
 
7. चौपाई 9a.5:  परंतु वे भी यह चरित्र देखकर ठगे से रह जाते हैं (स्तम्भित हो रहते हैं)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! तब भला मनुष्य उनके गुणों को कैसे कह सकते हैं॥5॥
 
7. दोहा 9a:  स्त्रियाँ कुमुदनी हैं, अयोध्या सरोवर है और श्री रघुनाथजी का विरह सूर्य है (इस विरह सूर्य के ताप से वे मुरझा गई थीं)। अब उस विरह रूपी सूर्य के अस्त होने पर श्री राम रूपी पूर्णचन्द्र को निरखकर वे खिल उठीं॥9 (क)॥
 
7. दोहा 9b:  अनेक प्रकार के शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाश में नगाड़े बज रहे हैं। नगर के पुरुषों और स्त्रियों को सनाथ (दर्शन द्वारा कृतार्थ) करके भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी महल को चले॥9 (ख)॥
 
7. चौपाई 10a.1:  (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! प्रभु ने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गई हैं (इसलिए), वे पहले उन्हीं के महल को गए और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर श्री हरि ने अपने महल को गमन किया॥1॥
 
7. चौपाई 10a.2:  कृपा के समुद्र श्री रामजी जब अपने महल को गए, तब नगर के स्त्री-पुरुष सब सुखी हुए। गुरु वशिष्ठजी ने ब्राह्मणों को बुला लिया और कहा आज शुभ घड़ी, सुंदर दिन आदि सभी शुभ योग हैं॥2॥
 
7. चौपाई 10a.3:  आप सब ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिए, जिसमें श्री रामचंद्रजी सिंहासन पर विराजमान हों। वशिष्ठ मुनि के सुहावने वचन सुनते ही सब ब्राह्मणों को बहुत ही अच्छे लगे॥3॥
 
7. चौपाई 10a.4:  वे सब अनेकों ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि श्री रामजी का राज्याभिषेक संपूर्ण जगत को आनंद देने वाला है। हे मुनिश्रेष्ठ! अब विलंब न कीजिए और महाराज का तिलक शीघ्र कीजिए॥4॥
 
7. दोहा 10a:  तब मुनि ने सुमन्त्रजी से कहा, वे सुनते ही हर्षित होकर चले। उन्होंने तुरंत ही जाकर अनेकों रथ, घोड़े और हाथी सजाए,॥10 (क)॥
 
7. दोहा 10b:  और जहाँ-तहाँ (सूचना देने वाले) दूतों को भेजकर मांगलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर हर्ष के साथ आकर वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया॥10 (ख)॥
 
7. नवाह्नपारायण 8:  आठवाँ विश्राम
 
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  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥