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निताइ-पदकमल  |
श्रील नरोत्तमदास ठाकुर |
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निताइ-पदकमल, कोटिचन्द्र-सुशीतल,
जे छायाय जगत् जुडाय़।
हेन निताइ बिने भाइ, राधाकृष्ण पाइते नाइ,
दृढ करि’ धर निताइर पाय़॥1॥ |
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से सम्बन्ध नाहि या’र, वृथा जन्म गेल ता’र,
सेइ पशु बड़ दुराचार।
निताइ ना बलिल मुखे, मजिल संसार सुखे,
विद्या-कुले कि करिब तार॥2॥ |
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अहंकारे मत्त हइया, निताइ-पद-पासरिया,
असत्येरे सत्य करि’ मानि।
निताइयेर करुणा ह’बे, ब्रजे राधाकृष्ण पाबे,
धर निताइर चरण दु’खानि॥3॥ |
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निताइयेर चरण सत्य, ताँहार सेवक नित्य,
निताइ - पद सदा कर आश।
नरोत्तम बड़ दुःखी, निताइ मोरे कर सुखी,
राख राङ्गा-चरणेर पाश॥4॥ |
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शब्दार्थ |
(1) श्री नित्यानंद प्रभु के चरणकमल कोटि चंद्रमाओं के समान सुशीतल हैं, जो अपनी छाया-कान्ति से समस्त जगत् को शीतलता प्रदान करते हैं। ऐसे निताई चाँद के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किये बिना श्रीश्री राधा-कृष्ण की प्राप्ति नहीं हो सकती। अरे भाई! इसलिए उनके श्रीचरणों को दृढ़ता से पकड़ो। |
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(2) उनसे जिसका सम्बन्ध नहीं हुआ, समझो कि उस पशु समान दुराचारी का जीवन वयर्थ ही चला गया। यदि कोई सांसारिक विषय भोगों में प्रमत्त होकर निताई के नाम का उच्चारण नहीं करता, तो उसकी उच्च विद्या या उच्चकुल प्राप्ति से क्या लाभ? |
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(3) वयक्ति अहंकार में मत्त होकर श्रीनित्यानंद प्रभु के चरणों को भूलकर, वह सांसारिक अनित्य विषयों को नित्य मानकर उनमें ही रमा रहता है। श्रीनित्यानंद प्रभु की कृपा होने पर ही व्रज में श्रीराधाकृष्ण की सेवा प्राप्त होगी। अतः उनके श्रीचरणों को पकड़े रहो। |
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(4) श्रीनित्यानंद प्रभु के चरण सत्य हैं, और उनके सेवक भी नित्य हैं। अतः उनके श्रीचरणों की सदा आशा करो। श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नित्यानंद प्रभु! मैं बहुत दुःखी हूँ, अतएव आप मुझे अपने श्रीचरणों में आश्रय प्रदानकर सुखी करें। ’’ |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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