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राधा कृष्ण प्राण मोर  |
श्रील नरोत्तमदास ठाकुर |
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राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर।
जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥1॥ |
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कालिन्दीर कूले केलि-कदम्बेर वन।
रतन वेदीर उपर बसाब दुजन॥2॥ |
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श्याम गौरी अंगे दिब चन्दनेर गन्ध।
चामर ढुलाब कबे हेरिब मुखचन्द्र॥3॥ |
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गाँथिया मालतीर माला दिब दोंहार गले।
अधरे तुलिया दिब कर्पूर ताम्बूले॥4॥ |
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ललिता विशाखा आदि यत सखीवृन्द।
आज्ञाय करिब सेवा चरणारविन्द॥5॥ |
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श्रीकृष्णचैतन्य प्रभुर दासेर अनुदास।
सेवा अभिलाष करे नरोत्तमदास॥6॥ |
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शब्दार्थ |
(1) युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है। |
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(2) कालिन्दी (यमुना) के तटपर कदम्ब के वृक्षों के वन में, मैं इस युगलजोड़ी को रत्नों के सिंहासन पर विराजमान करूँगा। |
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(3) मैं उनके श्याम तथा गौर अंगों पर चन्दन का लेप करूँगा, और कब उनका मुखचंद्र निहारते हुए चामर ढुलाऊँगा। |
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(4) मालती पुष्पों की माला गूँथकर दोनों के गलों में पहनाऊँगा और कर्पूर से सुगंधित ताम्बुल उनके मुखकमल में अर्पण करूँगा। |
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(5) ललिता और विशाखा के नेतृत्वगत सभी सखियों की आज्ञा से मैं श्रीश्रीराधा-कृष्ण के श्री चरणों की सेवा करूँगा। |
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(6) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के दासों के अनुदास श्रील नरोत्तमदास ठाकुर दिवय युगलकिशोर की सेवा-अभिलाषा करते हैं। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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