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दुष्ट मन  |
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर |
भाषा: हिन्दी | English | தமிழ் | ಕನ್ನಡ | മലയാളം | తెలుగు | ગુજરાતી | বাংলা | ଓଡ଼ିଆ | ਗੁਰਮੁਖੀ | |
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दुष्ट मन तुमि किसेर वैष्णव?
प्रतिष्ठार तरे, निर्जनेर घरे,
तव ‘हरि नाम’ केवल ‘कैतव’॥1॥ |
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जडेर प्रतिष्ठा, शुकरेर विष्ठा
जानो ना कि ताहा ‘मायार वैभव’।
कनक कामिनी, दिवस-यामिनी,
भाविया कि काज, अनित्य से सब॥2॥ |
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तोमार कनक, भोगेर जनक,
कनकेर द्वारे सेवहो ‘माधव’।
कामिनीर काम, नहे तब धाम,
ताहार-मालिक केवल ‘यादव’॥3॥ |
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प्रतिष्ठाशा-तरू, जड-माया-मरू
ना पेल ‘रावण’ युझिया ‘राघव’।
वैष्णवी प्रतिष्ठा, ताते कर निष्ठा
ताहा ना भजिले लभिबे रौरव॥4॥ |
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हरिजन-द्वेष, प्रतिष्ठाशा-क्लेश,
कर केन तबे ताहाँर गौरव।
वैष्णवेर पाछे, प्रतिष्ठाशा आछे,
ता’ते कभु नाहे ‘अनित्य-वैभव’॥5॥ |
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से हरि-संबंध, शुन्य-माया-गंध,
ताहा कभु नय ‘जडेर कैतव’।
प्रतिष्ठा-चंडाली, निर्जनता-जालि,
उभये जानिह मायिक रौरव॥6॥ |
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कीर्तन छाडिबो, प्रतिष्ठा माखिबो,
कि काज ढुडिया तादृश गौरव।
माधवेन्द्र पुरी, भाव-घरे चुरि,
ता करिल कभु सदाइ जानबो॥7॥ |
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तोमार प्रतिष्ठा- ‘शुकरेर विष्ठा’,
तार-सह सम कभु ना मानव।
मत्सरता-वशे, तुमि जड-रसे,
मझेछो छाडिया कीर्तन-सौष्ठव॥8॥ |
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ताइ दुष्ट मन, ‘निर्जन भजन’,
प्रचारिछो छले ‘कुयोगी-वैभव’।
प्रभु सनातने, परम जतने,
शिक्षा दिल याँहा, चिन्तो सेइ सब॥9॥ |
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सेइ दु’टि कथा, भुलो’ ना सर्वथा,
उच्चैः-स्वरे कर ‘हरिनाम-रव’।
‘फल्गु’ आर ‘युक्त’, ‘बद्ध’ आर ‘मुक्त’,
कभु ना भाविह, एकाकार सब॥10॥ |
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‘कनक कामिनी’, ‘प्रतिष्ठा बघिम’,
छडियाछे जेइ, सेइ तो’ वैष्णव।
सेइ ‘अनासक्त’, सेइ ‘शुद्ध भक्त’
संसार तथा पाय पराभव॥11॥ |
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यथा योग्य भोग, नहि तथा तग
‘अनासक्त’ सेइ, कि आर कहबो।
‘आसक्ति रहित’, ‘संबंध सहित’,
विषय-समुह सकलि ‘माधव’॥12॥ |
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सेइ ‘युक्त-वैराग्य’, ताँहा तो’ सौभाग्य,
ताँहा-ए जडेते हरिर वैभव।
कीर्तने जाँहार, ‘प्रतिष्ठा संभार’,
ताँहार सम्पत्ति केवल ‘कैतव’॥13॥ |
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‘विषय-मुमुक्षु’, ‘भोगरे बुभुक्षु’,
दु’ये त्यजो मन, दुइ ‘अवैष्णव’।
‘कृष्णेर संबंध’, अप्राकृत स्कंध,
कभु नहे ताँहा जडेर संभव॥14॥ |
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‘मायावादी जन’, कृष्णेतर मन,
मुक्त अभिमाने सेइ निन्दे वैष्णव।
वैष्णवेर दास, तब भक्ति आस,
केनो वा डाकि हो निर्जन आहव॥15॥ |
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जे ‘फल्गु-वैराग्य’, कहे निजे ‘त्यागी’,
से ना पारे कभु होइते ‘वैष्णव’।
हरि-पद छाडि, ‘निर्जनता बाडि’,
लभिया कि फल, ‘फल्गु’ सेइ वैभव॥16॥ |
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राधा-दास्ये रहि’, छाडि ‘भोग-अहि’,
‘प्रतिष्ठाशा’ नहे ‘कीर्तन-गौरव’।
‘राधा-नित्य-जन’, ताँहा छाडि’ मन,
केन वा निर्जन-भजन-कैतव॥17॥ |
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व्रजवासी-गण, प्रचारक-धन,
प्रतिष्ठा-भिक्षुक ता’रा नहे ‘शव’।
प्राण आछे ता’र, से-हेतु प्रचार,
प्रतिष्ठाशा-हीन-’कृष्ण-गाथा’ सब॥18॥ |
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श्री-दयित-दास, कीर्तनेते आश,
कर उच्छैः-स्वरे ‘हरि-नाम-रव’।
कीर्तन-प्रभावे, स्मरण स्वभावे,
से काले भजन-निर्जन संभव॥19॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे दुष्ट मन! तुम किस प्रकार के वैष्णव हो? एकान्त स्थान में भगवान् हरि के पवित्र नाम का उच्चारण करना, केवल सांसारिक ख्याति या प्रतिष्ठा के मिथ्या अंहकार को प्राप्त करने के लिए तुम्हारा मिथ्या अभिमान से पूर्ण दिखावा या प्रदर्शन है। यह और कुछ नहीं अपितु शुद्ध ढोंग या पाखंड है। |
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(2) ऐसा भौतिकवादी अभिमान एक शूकर के मल के समान घृणाजनक है। क्या तुम जानते हो कि यह तो केवल माया की शक्ति द्वारा डाला गया केवल एक भ्रम (मोह) है? धन संपत्ति एवं स्त्री संग का आनन्द उठाने के लिए बनाई गई तुम्हारी योजनाओं पर, दिन-रात चिंतन-मनन करने का क्या महत्व है, क्या लाभ है? ये सभी वस्तुएँ केवल अस्थायी हैं। |
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(3) जब तुम धनसम्पति पर अपना स्वामित्व या अधिकार का दावा करते हो, तब यह धन तुम्हारे अन्दर भौतिक आनन्द उठाने की सदा बढ़ने वाली आकांक्षाओं को उत्पन्न कर देता है। तुम्हारा धन, समस्त संपत्ति के स्वामी माधव की सेवा करने के लिए प्रयोग होना चाहिए। स्त्रियों के प्रति काम-वासना में लिप्त होने के लिए ये उचित स्थान नहीं है क्योंकि उनके सच्चे स्वामी केवल भगवान् यादव हैं। |
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(4) राक्षस रावण (काम-अवतार) ने सांसारिक प्रतिष्ठा व ख्याति के वृक्ष को प्राप्त करने के उद्देश्य से भगवान् रामचन्द्र (प्रेम-अवतार) के साथ युद्ध किया। परन्तु वह मरूद्यान तो भगवान् की भ्रामक मायारूपी भौतिक शक्ति के रेगिस्तान बंजर भूमि पर बनी मृगतृष्णा निकला। कृपया केवल एक स्थिर तथा ठोस धरातल, जहाँ पर वैष्णव सदा खड़ा रहता है, उसे प्राप्त करने के लिए स्थिर-निश्चित दृढ़ संकल्प उत्पन्न करो। यदि तुम इस स्थिति में भगवान् की आराधना करने की उपेक्षा करोगे तो तुम अंत में नारकीय अस्तित्व को प्राप्त होंगे। |
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(5) क्यों तुम भगवान् हरि के भक्तों की प्रतिष्ठा को प्राप्त करने का प्रयास करके, उनकी निन्दा करके, तीव्र मानसिक या शारीरिक वेदना को अनावश्यक ही सहन करते हो? और इस प्रकार अपनी वयर्थ व निष्फल मूर्खता को सिद्ध करते हो? आध्यात्मिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा सरलता से पूर्ण हो जाती है जब वयक्ति भगवान् का भक्त बन जाता है, क्योंकि नित्य, शाश्वत प्रसिद्धि या यश स्वतः ही एक वैष्णव के चरणों का अनुसरण करता है। और उस ख्याति या प्रसिद्धि को एक अस्थायी सांसारिक ऐश्वर्य कभी नहीं समझना चहिए। |
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(6) भगवान् हरि और एक भक्त के बीच का संबंध, सांसारिक भ्रम या मोह के एक लवलेश से भी रहित होता है। इसका, भौतिक छल-कपट, धोखा करने की प्रवृत्ति से कोई संबंध नहीं होता। भौतिक जगत की तथाकथित लोकप्रियता की ख्याति से उत्पन्न प्रभाव व शक्ति की तुलना एक अविश्वसनीय, धोखेबाज मांसाहारी जादूगरनी (डायन) से की गई है, और शुद्ध भजन की क्रिया में कल्पित रूप से संलग्न रहने के लिए, एकान्त स्थान में रहने का प्रयास करने की तुलना ध्यान विचलित करने वाली वस्तुओं के जाल में फँसने से की गई है। कृपया यह जानिए कि इन उपायों में से किसी एक को भी पाने के लिए संघर्ष करता वयक्ति, वास्तव में, माया रूपी भ्रम या मोह के नरक में ही रहता है। |
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(7) “मैं कीर्तन में खुले आम भगवान् के नाम का उच्चारण करना त्याग दूँगा और एकान्तवास में चला जाऊँगा, इस प्रकार स्वयं को सांसारिक सम्मान प्रतिष्ठा से ओत-प्रोत कर लूगाँ। ” प्रिय मन, इस तथाकथित यश-महिमा को खोजने से क्या लाभ? मैं तुम्हें सदा स्मरण कराता रहूँगा, कि महान आत्मा माधवेन्द्रपुरी ने अपने स्वयं के भंडारगृह (भाव-गृह) से चोरी करके, उस संबंध में स्वयं को कभी धोखा नहीं दिया जिस प्रकार तुम करते हो। |
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(8) तुम्हारी निम्नस्तरीय ख्याति, एक शूकर के मल के बराबर है। तुम्हारे जैसे साधारण महत्त्वाकांक्षी वयक्ति की, माधवेन्द्रपुरी के समान प्रतिष्ठा वाले भक्त से बराबरी कभी नहीं की जा सकती है। ईर्ष्या के प्रभाव में, तुमने संकीर्तन की अत्यन्त उत्तम सिद्धि का त्याग करने के पश्चात् भौतिक सुख के गंदे जल में स्वयं को डूबो लिया है। |
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(9) सच में, हे दुष्ट मन! तथाकथित एकान्त आराधना की महिमा का प्रसार, अनैतिक उपायों का प्रयोग करके अन्य लोगों को धोखा देने के लिए, केवल ढोंगी, कपटी योगियों द्वारा ही किया जाता है। इन अनपेक्षित संकटों से स्वयं को बचाने के लिए, कृपया उन उपदेशों पर चिंतन व मनन करो जो परम भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त ध्यानपूर्वक श्रील सनातन गोस्वामीजी को संबोधित करते हुए हमें प्रदान किए हैं। |
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(10) दो बहुमूल्य धारणाओं के सिद्धाँतों को एक क्षण के लिए भी मत भूलो, जो उन्होंने सिखाईः- (1) शुष्क वैराग्य (फल्गुवैराग्य) और विरोध में युक्त वैराग्य के तत्व (2) भौतीक बन्धन में जकड़े हुए ‘बद्धजीव’तेत्व और ‘मुक्त जीव’तेत्व जिनमें कभी भी यह सोचने की गलती मत करो, कि ये विरोधी धारणाएँ एक समान स्तर पर हैं। जितनी अधिक जोर से तुम संभवतः कर सको, उतनी जोर से भगवान् के पवित्र नामों का उच्चारण करने में स्वयं को सलंग्न करते समय, कृपया इस बात को याद रखो। |
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(11) वह वयक्ति वास्तव में वैष्णव है जो धन सम्पत्ति सौंदर्य, एवं ख्याति रूपी भयावह बाघिन का शिकार बनने की आदत को त्याग चुका है। ऐसी आत्मा वास्तविक रूप से, भौतिक जीवन से विरक्त है, और एक शुद्ध भक्त कहलाती है। कोई भी इस प्रकार इस रीति से विरक्त चेतना के साथ, जन्म और मृत्यु के संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है। |
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(12) वह वयक्ति वास्तव में विरक्त हो जाता है जो उन सांसारिक वस्तुओं के साधारण रूप से काम में लाता है जो भक्ति कार्य में लगे रहने के लिए आवश्यक समझी जाती है इस रीति से कार्य करते हुए एक भक्त, भौतिक आसक्ति के रोग का शिकार नहीं होता। अतः स्वार्थपूर्ण आसक्ति से रहित होकर, और वस्तुओं को भगवान् के संबंध में देखने की योग्यता से युक्त होकर, वयक्ति समस्त वस्तुओं को साक्षात् भगवान् माधव के रूप में देख सकता हैं। |
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(13) यही उपयुक्त एवं उचित वैराग्य या त्याग का नैतिक सिद्धांत एवं आचरण है। जिसने इसकी अनुभूति कर ली है वही वास्तव में सबसे अधिक भागयशाली है। ऐसे भक्त के जीवन से संबद्ध प्रत्येक वस्तु, जड़ पदार्थ के संसार में प्रकट हुए भगवान् हरि के निजी आध्यात्मिक ऐश्वर्य की प्रतीक है। दूसरी ओर स्वयं की भौतिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने की आशा से भगवन्नाम के जप में संलग्न वयक्ति पाता है कि उसके समस्त कार्य एवं साथ में प्रयोग में आने वाली सभी वस्तुएँ, केवल भरपूर पाखंड व ढोंग (दिखावा) का प्रतीक हैं। |
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(14) हे मन, कृपया दो प्रकार के वयक्तियों के संग को अस्वीकार करो। वे लोग जो भौतिक जगत् से निर्विशेष मुक्ति की आकांक्षा करते हैं, और वे लोग जो भौतिक विषयों के सुख का आनन्द उठाने या भोगने की इच्छा रखते हैं। ये दोनों ही समान रूप से अभक्त हैं। भगवद्-सम्बन्धी वस्तुएँ सीधे उस दिवय जगत् की संपत्ति हैं, और उनका इस जड़ संसार से कोई संबंध नहीं है। वह वस्तुएँ, भौतिक सुख में रुचि रखने वाले वयक्तियों द्वारा न तो स्वीकार की जा सकती है ना ही त्यागी जा सकती हैं। |
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(15) निर्विशेष दार्शनिक कृष्ण भक्ति के विरुद्ध होता है, और इस प्रकार काल्पनिक मुक्ति के मिथ्या अहंकार से गर्वित होकर, वह भगवान् के सच्चे भक्तों की निन्दा या आलोचना करने का साहस करता है। हे मन, तुम वैष्णव जन के सेवक हो और तुम्हें सदा ही भक्ति प्राप्त करने की आशा करनी चाहिए। तब क्यों तुम, एकान्त उपासना के अपने अभ्यास की कल्पित श्रेष्ठता को सिद्ध करने का प्रयास करते हुए और मुझे पुकारते हुए, इतने जोर से शोरगुल करते हो? |
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(16) जो वयक्ति कपटपूर्ण वयवहार द्वारा उन वस्तुओं का त्याग कर देता है जो वास्तव में भगवान् की सेवा में उपयोग की जा सकती है। स्वयं को गर्व से एक वैरागी या सन्यासी बुलाता है, परन्तु दुर्भायवश वह ऐसी मनोवृति या ऐसे वयवहार द्वारा कभी भी वैष्णव नहीं बन सकता। भगवान् हरि के चरण कमलों के प्रति अपनी सेवा भावना को त्यागकर और स्वयं को अपने एकान्त वास में सीमित करके उस रीति से जो भी प्राप्त किया जाता है, वह केवल धोखेबाजी ही है। |
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(17) श्रीराधा जी की सेवा में स्वयं को सदा सलंग्न करो और भौतिक इन्द्रियतृप्ति रूपी सर्प से अलग रहो। भगवान के कीर्तन में भाग लेने की महिमा का अर्थ किसी की निजी पहचान बनाने की इच्छाओं व भावनाओं को बढ़ावा देना नहीं है। हे मन, तुमने एकान्त स्थान पर जाकर, तथाकथित भजन करने की ठगने या छल-कपट वाली विधि का अभ्यास करने के समर्थन में, राधाजी के नित्य सेवक होने की अपनी पहचान को क्यों त्याग दिया? |
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(18) भगवान् के प्रचारकों का अत्यन्त मूल्यवान धन व्रज धाम में निवास कर रहे नित्य शाश्वत व्रजवासीगण हैं। वे, निरर्थक भौतिक प्रतिष्ठा की याचना, करने के लिए कभी भी स्वयं को वयस्त नहीं रखते हैं, जो केवल जीवित-मृत द्वारा ही उनके हृदय में संजोए रखी जाती हैं। व्रजवासी वास्तव में जीवनी शक्ति से भरपूर होते हैं, और इसलिए वे साधारण भौतिक जगत के चलते-फिरते शवों को, जीवन प्रदान करने के उद्देश्य से प्रचार करते हैं। समस्त गीत जो व्रज-वासी भगवान कृष्ण की महिमा के विषय में गाते हैं, वे सभी यश एवं ख्याति पाने की भौतिक इच्छा से भी रहित होते हैं। |
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(19) राधाजी एवं उनेक प्रियतम श्रीकृष्ण का यह विनम्र सेवक सदा ही कीर्तन करने की आशा करता है, और वह सभी से, भगवान् हरि के नामों को जोर-जोर से गाने की विनती करता है। संकीर्तन (एक साथ उच्चारण करने) की दिवय शक्ति, वयक्ति के निजी शाश्वत आध्यात्मिक रूप के संबंध में, भगवान् की स्मृति एवं उनकी दिवय लीलाओं को स्वतः ही जागृत कर देती है। केवल उसी समय यह संभव हो पाता है कि एकान्त स्थान पर जाकर, अपने अधिपतियों की गुह्य (गोपनीय) आराध ना में संलग्न हो सकें। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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