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वैष्णव भजन  »  श्री ब्रह्म संहिता
 
 
श्री ब्रह्मा       
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ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्॥1॥
 
 
चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष
लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।
लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥2॥
 
 
वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं
बर्हावतं समसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्।
कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥3॥
 
 
आलोलचन्द्रकलसद्ववनमाल्यवंशी
रत्नागदं प्रणयकेलिकलाविलासम्।
श्यामं त्रिभंगललितं नियतप्रकाशं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥4॥
 
 
अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति
पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति।
आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥5॥
 
 
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्‌
आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥6॥
 
 
पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्यो
वायोरथापि मनसो मुनिङ्गवानाम्।
सोऽप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वे
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥7॥
 
 
एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं-
यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः।
अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥8॥
 
 
यभ्दावभावितधियो मनुजास्तथैव
सम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः।
सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितैः स्तुवन्ति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥9॥
 
 
आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्‌
ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।
गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥10॥
 
 
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥11॥
 
 
रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्‌
नानावतारमकरोद्‌ भुवनेषु किन्तु।
कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान्‌ यो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥12॥
 
 
यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-
कोटिष्वशेषवसुधादि विभूतिभिन्नम्।
तद्‌ ब्रह्म निष्कलमनंतमशेषभूतं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥13॥
 
 
माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूते
त्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना।
सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वं विशुद्धसत्त्वं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥14॥
 
 
आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनःसु
यः प्राणिनां प्रतिफलन्‌ स्मरतामुपेत्य।
लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्रं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥15॥
 
 
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य
देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥16॥
 
 
सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका
छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दूर्गा।
इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥17॥
 
 
क्षीरं यथा दधि विकारविशेषयोगात्‌
सञ्जायते न हि ततः पृथगस्ति हेतोः।
यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद्‌
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥18॥
 
 
दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य
दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा।
यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभाति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥19॥
 
 
यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-
निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः।
आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्ति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥20॥
 
 
यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य
जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः।
विष्णुर्महान्‌ स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥21॥
 
 
भास्वान्‌ यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजः
स्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तद्वदत्र।
ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥22॥
 
 
यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भ
द्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः।
विघ्नान्‌ विहन्तुमलमस्य जगत्रयस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥23॥
 
 
अग्निर्मही गगनमम्बु मरुद्दिश श्च
कालस्तथात्ममनसीति जगत्त्रयाणि।
यस्माद्‌ भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं च
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥24॥
 
 
यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां
राजा समस्तसुरमुर्तिरशेषतेजाः।
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥25॥
 
 
धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसि
ब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः।
यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥26॥
 
 
यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-
बन्धानुरूपफलभाजनमातनोती।
कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजां
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥27॥
 
 
यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीति
वात्सल्यमोहगुरुगौरवसेवयभावैः।
स िञ्चन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेते
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥28॥
 
 
श्रियः कान्ताः कान्तः परमापुरुषः कल्पतरवो
द्रुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।
कथा गानं नाटयं गमनमपि वंशी प्रियसखी
चिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च॥
 
 
स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीभ्यश्च सुमहान्‌
निमेषार्धाख्यो वाव्रजति न हि यत्रापि समयः।
भजे श्वेतद्वीपं तमहमिह गोलोकमिति यं
विदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरलचाराः कतिपये॥29॥
 
 
(1) गोविन्द के नाम से विख्यात कृष्ण ही परमे श्वर हैं। उनका सच्चिदानंद शरीर है। वे सबों के मूल उत्स हैं। उनका कोई अन्य उत्स नहीं एवं वे समस्त कारणों के मूल कारण हैं।
 
 
(2) मैं उन आदिपुरूष भगवान्‌ गोविन्द का भजन करता हूँ, जो लाखों कल्पवृक्षों से घिरे हुए चिंतामणिसमूह से निर्मित भवनों में कामधेनु गायों का पालन करते हैं एवं जो असंख्य लक्ष्मियों अथवा गोपियों द्वारा सदैव प्रगाढ़ आदर और प्रेम सहित सेवित हैं।
 
 
(3) जो वेणु बजाने में दक्ष हैं, कमल की पंखुडियों जैसे जिनके प्रफुल्ल नेत्र हैं, जिनका मस्तक मोरपंख से आभूषित है, जिनके अंग नीले बादलों जैसे सुंदर हैं और जिनकी विशेष शोभा करोड़ों कामदेवों को भी लुभाती है, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(4) जिनके गले में चंद्रक से शोभित वनमाला झूम रही है, जिनके दोनों हाथ वंशी तथा रत्न-जड़ित बाजूबंदों से सुशोभित हैं, जो सदैव प्रेम-लीलाओं में मग्न रहते हैं, जिनका ललित त्रिभंग श्यामसुंदर रूप नित्य प्रकाशमान है, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(5) जिनका दिवय श्री विग्रह आनंद, चिन्मयता तथा सत्‌ से पूरित होने के कारण परमोज्जवल है, जिनके चिन्मय शरीर का प्रत्येक अंग अन्यान्य सभी इंद्रियों की पूर्ण-विकसित वृत्तियों से युक्त है, जो चिरकाल से आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों जगतों को देखते, पालन करते तथा प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(6) जो वेदों के लिए दुर्लभ हैं किन्तु आत्मा की विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ हैं, जो अद्वैत हैं, अच्युत हैं, अनादि हैं, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(7) चिन्मयता को प्राप्त करने के इच्छुक योगियों के प्राणायामादि वायु-निरोधात्मक योग-पथ से अथवा निर्भेद ब्रह्मानुसंधान करने वाले श्रेष्ठ ज्ञानियों के भौतिक त्याग द्वारा ज्ञान-पथ से, शतकोटि वर्षों तक साधन करने पर भी जिनके चरणारविन्द के अग्रभाग तक ही पहुँच हो पाती हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(8) जो शक्ति एवं शक्तिमान मे अभिन्नता होने के कारण निर्भेद एक तत्त्व हैं, जिनके द्वारा करोड़ों ब्रह्माण्ड़ों की सृष्टि होने पर भी जिनकी शक्ति उनसे पृथक नहीं है, जिनमें सारे ब्रह्माण्ड स्थित हैं एवं जो साथ ही साथ ब्रह्माण्डों के भीतर रहने वाले परमाणु समूह के भी भीतर पूर्ण रूप से विद्यमान हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(9) भाव-भक्ति से भावित हृदय वाले मनुष्य अपने उपयुक्त रूप, महिमा, आसन, वाहन तथा आभूषणों को प्राप्त करके वेद कथित मंत्र-सूक्तों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(10) जो अपने धाम गोलोक में अपनी स्वरूप शक्ति, चौंसठ कलायुक्त अह्लादिनीस्वरूपा श्रीराधा तथा उनके ही शरीर के विस्तार-रूपा उनकी सखियों के साथ निवास करते हैं जो कि उनके नित्य आनंदमय चिन्मय रस से स्फूर्त एवं पूरित रहती हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(11) जो स्वंय श्यामसुंदर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रञ्जित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अन्तर्हृदय में दर्शन करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(12) जिन्होंने श्रीराम, नृसिंह, वामन इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान्‌ श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदि पुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(13) जिनकी प्रभा उपनिषदों में वर्णित निर्विशेष ब्रह्म का स्रोत है, तथा करोड़ों ब्रह्माण्डों में अनंत विभूतियों के रूप में भेद को प्राप्त होने के नाते निरवच्छिन्न, पूर्ण, अनंत सत्य के रूप में प्रकट है, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(14) सत्व, रज तथा तमोरूप त्रिगुणमयी एवं जड़-ब्रह्माण्डसम्बंधी वेदज्ञानविस्तारिणी माया, जिनकी अपरा शक्ति है, उन्हीं सत्वाश्रय रूप परसत्वनिबन्धन विशुद्धसत्वरूप आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(15) जो स्मरणकारी प्राणियों के मनों में नित्य आनंदचिन्मयरसस्वरूप से प्रतिफलित होकर निज लीला-विलास द्वारा निरन्तर समस्त भौतिक जगत को वशीभूत करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(16) जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुण्ठलोक (हरिधाम), महेशलोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न स्वामियों को यथायोग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(17) भौतिक जगत की सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय की साधनकारिणी, चित्‌-शक्ति की छाया-स्वरूपा माया शक्ति, जो कि सभी के द्वारा दुर्गा नाम से पूजित होती हैं, जिनकी इच्छा के अनुसार चेष्टाएँ करती हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(18) जिस प्रकार दूध खटाई या जामनादि के संयोग से दही में बदल जाता है, किन्तु फिर भी अपने उपादान-कारण दूध के वह न तो समान होता है और न ही उस से पृथक्‌ होता है उसी प्रकार संहार कार्य के निमित्त जो शम्भु रूप में परिणत हो गए हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(19) जैसे एक दीपक की लौ दूसरे दीपक में पहुँच कर यद्यपि दोनों दीपकों में पृथक्‌ रूप से जलती है परन्तु गुण में एकसमान होती है, उसी प्रकार जो स्वयं को विभिन्न प्रकाशों में समान रूप से प्रदर्शित करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(20) जो अपनी आधारशक्ति-स्वरूप अनंतशेष नामक श्रेष्ठमूर्ति का अवलम्बन कर अपने रोमकूपों में अनन्त ब्रह्माण्डों को समाये हुए योगनिद्रा का आनंद लेते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(21) महाविष्णु के रोम छिद्रों से प्रकट ब्रह्मा एवं भौतिक ब्रह्माण्डों के अन्य स्वामीगण उनके (महाविष्णु के) एक नि श्वास-जितने काल तक ही जीवित रहते हैं, परन्तु जिनकी एक विशिष्ट कला मात्र महाविष्णु भी है, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(22) सूर्य जिस प्रकार सूर्यकान्तादि मणियों में अपने तेज का कुछ अंश संचार करता है, उसी प्रकार विभिन्नांश-स्वरूप ब्रह्मा जिनसे प्राप्त शक्ति द्वारा ब्रह्माण्ड का विधान करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(23) तीनों लोकों के समस्त विघ्नों का विनाश करने हेतु शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से जिनके चरणकमलों को श्री गणेश अपने मस्तक के दोनों कुम्भों पर धारण करते हैं, उन आदिपुरुष श्रीगोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(24) अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, वायु, दिशाएँ, काल, आत्मा एवं मन रूपी नौ तत्त्वों से युक्त तीनों लोक जिनसे उत्पन्न होते हैं, जिनमें स्थित रहते हैं और प्रलय के समय जिनमें प्रवेश कर जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(25) तेज से पूर्ण सूर्य इस जगत के नेत्र हैं। वे समस्त ग्रहों के अधिपति हैं, अनन्त तेज से पूर्ण समस्त देवताओं के प्रतीक हैं। उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ जिनकी आज्ञा से वे सूर्य कालचक्र पर चढ़कर भ्रमण करते रहते हैं।
 
 
(26) सभी धर्म, पापसमूह, वेद, तपस्याएँ और ब्रह्मा से लेकर कीट-पतंग तक समस्त प्रकट जीव जिनके द्वारा प्रदत्त शक्तियों से पालित होते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(27) जो एक इंद्रगोप जैसे क्षुद्र कीड़े से लेकर देवराज इंद्र पर्यन्त समस्त जीवों को उनके कर्मफलों के अनुरूप फल भोग कराते हैं, किन्तु जो अपने भक्तों के समस्त सकाम कर्मों को समूल नष्ट कर देते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(28) क्रोध, काम, सहज स्नेह, भय, वात्सल्य, मोह श्रद्धा, तथा सेवाभाव से जिनका चिंतन करके साधक उन्हीं भावों के यथायोग्य रूपों को प्राप्त हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
 
 
(29) मैं उस श्वेतद्वीप नामक दिवय धाम को भजता हूँ जहाँ प्रिय लक्ष्मियाँ अपने शुद्ध भाव से परम पुरुष कृष्ण की अपने एकमात्र प्रेमी के रूप में सेवा करती हैं, जहाँ प्रत्येक वृक्ष कल्पतरु है, जहाँ की भूमि वाञ्छित चिन्तामणि है, सारा जल अमृत है, सारे शब्द गीत हैं, सारा गमन नृत्य है, वंशी जहाँ प्रिय सखी है, जहाँ की ज्योति चिदानंदमय एवं परम दिवय जीव आनन्दमय और आस्वाद है, जहाँ अनगिनत सुरभी गाएँ चिन्मय महाक्षीरसागरों को प्रवाहित करती हैं, जहाँ चिन्मय काल का नित्य अस्तित्व है, जिसमें सदा वर्तमान ही रहता है और भूत-भविष्य नहीं होने के कारण अर्धक्षण भी नहीं बीतता, और जो इस जगत में विरले भगवन्निष्ठ संतों द्वारा ही ‘गोलोक’ के रूप में जाना जाता है।
 
 
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