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वैष्णव भजन  »  श्री नित्यानंदाष्टकम्‌
 
 
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर       
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शरच्चन्द्रभ्रान्तिं स्फुरदमलकान्तिं गजगतिं
हरिप्रेमान्मत्तं धृतपरमसत्त्वं स्मितमुखम्।
सदा घूर्णन्नेत्रं करकलितवेत्रं कलिभिदं
भजे नित्यानन्दं भजनतरूकन्दं निरवधि॥1॥
 
 
रसानामागारं स्वजनगणसर्वस्वमतुलं
तदीयैकप्राणप्रतिमवसुधाजाह्नवापतिम्।
सदा प्रमोन्मादं परमविदितं मन्दमनसां
भजे नित्यानन्दं भजनतरूकन्दं निरवधि॥2॥
 
 
शचीसुनुप्रेष्ठं निखिलजगदिष्टं सुखमयं
कली मज्जज्जीवोद्धरणकरणोद्दामकरुणम्।
हरेराख्वानाद्वा भवजलधि गर्वोन्नति हरं
भजे नित्यानन्दं भजनतरूकन्दं निरवधि॥3॥
 
 
अये भ्रातनृणां कलिकलुषिणां किन्न भविता
तथा प्रायश्चितं रचय यदनायासत इमे।
व्रजन्ति त्वमित्थं सह भगवता मंत्रयति यो
भजे नित्यानन्दं भजनतरूकन्दं निरवधि॥4॥
 
 
यथेष्टंरे भ्रातः! कुरू हरिहरिध्वनमनिशं
ततो वः संदाराम्बुधितरणदायो मयि लगेत्।
इदं बाहुस्फोटैरटति रटयन्‌ यः प्रतिगृहं
भजे नित्यानन्दं भजनतरूकन्दं निरवधि॥5॥
 
 
बलात्‌ संसारामङोनिधिहरणकुम्भोद्‌भवमहो
सतां श्रेयः सिन्धुन्नतिकुमुदबन्धुं समुदितम्।
खलश्रेणी-स्फुर्जतिमिरहरसूयंप्रभमहं
भजे नित्यानन्दं भजनतरूकन्दं निरवधि॥6॥
 
 
नटन्तं गायन्तं हरिमनुवदन्तं पथि पथि
व्रजन्तं पश्यन्तं स्वमपि नदयन्तं जनगणम्।
प्रकुर्वन्तं सन्तं सकरूणदृगन्तं प्रकलाद्‌
भजे नित्यानन्दं भजनतरूकन्दं निरवधि॥7॥
 
 
सुबिभ्राणं भ्रातुः करसरसिजं कोमलतरं
मिथो वक्त्रालोकोच्छलितपरमानन्दहृदयम्।
भ्रमन्तं माधुर्येरहह! मदयन्तं पुरजनान्‌
भजे नित्यानन्दं भजनतरूकन्दं निरवधि॥8॥
 
 
रसानामाधारं रसिकवर-सद्वैष्णव-धनं
रसागारं सारं पतित-ततितारं स्मरणतः।
परं नित्यानन्दाष्टकमिदमपूर्वं पठति यः
तदंध्रिद्वन्द्वाब्जं स्फुरतु नितरां तस्य हृदये॥9॥
 
 
(1) मैं भक्ति वृक्ष की असीमित जड़ भगवान्‌ नित्यानंद की आराधना करता हूँ। जब वे एक प्रतापी तेजस्वी हाथी की शोभा सहित चलते हैं, उनका शुद्ध वैभवशाली सौन्दर्य, पतझड़ ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान चमकता है। यद्यपि वे स्वयं ही परम सत्य हैं, वे भगवान्‌ हरि के शुद्ध प्रेम द्वारा उन्मत्त हो जाते हैं। वे मुस्कराते हैं जब वे अपने नेत्रों को ऊपरी रूप से प्रत्यक्ष नशे में चारों ओर घुमाते हैं, वे अपने हाथ में एक छड़ी पकड़ते हैं (ग्वाल बाल के भाव के रूप में), और वे कलीयुग की शक्ति को तोड़ देते हैं।
 
 
(2) मैं भक्ति वृक्ष के असीम आधार (मूल जड़), भगवान्‌ नित्यानन्द की आराध ना करता हूँ। वे भक्ति के मधुर अमृत रसों के धााम हैं और उनसे किसी की भी तुलना नहीं की जा सकती है। वे अपने भक्तों के लिए आदि से अंत तक, सर्वस्व है, और वसुधा एवं जाह्नवा के पति हैं जिन्हें वे उनके जीवन से भी अधिक प्रिय हैं। चूँकि वे कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम से सदा उन्मत्त रहते हैं, मूर्ख अभक्त समझ नहीं सकते कि वे स्वयं परम पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं।
 
 
(3) मैं भक्ति वृक्ष के निस्सीम आधार, भगवान्‌ नित्यानंद की आराधना करता हूँ। वे शची-देवी के पुत्र को अत्यधिक प्रिय हैं और सम्पूर्ण ब्रह्मांड द्वारा पूजे जाते हैं। अपनी महान कृपा वश वे भगवान्‌ हरि के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं, इस प्रकार कलयुग में डूबती आत्माओं की रक्षा करके, और जन्म-मृत्यु रूपी सागर का अभिमान या गर्व चूर-चूर कर देते हैं।
 
 
(4) मैं, भक्ति वृक्ष के असीम आधार भगवान्‌ नित्यानंद की आराधना करता हूँ उन्होंने भगवान्‌ चैतन्य से कहा, “हे भाई, सब लोग कलीयुग के पापों द्वारा प्रदूषित हो रहे हैं। वे सब इन पापों का पश्चाताप कैसे करंगे? कृपया आप तक सरलता से पहुँचने का उन्हें मार्ग बताइये। ”
 
 
(5) मैं, भक्ति वृक्ष के असीम आधार भगवान्‌ नित्यानंद की आराधना करता हूँ। वे बंगाल में प्रत्येक घर मे गए और, अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर बोले, “हे भाई, कृपया निरंतर भगवान्‌ हरि के पवित्र नाम का उच्चारण कीजिए। यदि आप ऐस करते हैं, तब आप पुनः जन्म-मृत्यु के सागर से मुक्त हो जाऐगें। कृपया अपनी मुक्ति का यह उपहार मुझे प्रदान कीजिए। ”
 
 
(6) मैं, भक्ति वृक्ष के असीम आधार भगवान्‌ नित्यानंद की आराधना करता हूँ वे अगस्त्य मुनि हैं जिन्होंने जन्म-मृत्यु के चक्र रूपी सागर को बलपूर्वक निगल लेते हैं। वे उदय होता हुआ पूर्ण चाँद हैं (रात्रि के समय खिलते कमल पुष्प के मित्र) जो साधू समान भक्तों के अच्छे सौभाग्य के सागर का विस्तार करते हैं। वे जलते-धधकते या प्रदीप्त सूर्य हैं जो राक्षसों के समदाय रूपी अंधकार को बुझा देते हैं।
 
 
(7) मैं भक्ति वृक्ष, के असीम आधार, भगवान्‌ नित्यानंद की आराधना करता हूँ। उन्होंने भगवान्‌ हरि के नामों का गान करते हुए, उनकी महिमा का वर्णन करते हुए, नृत्य करते हुए, प्रत्येक मार्ग पर यात्रा की। अपनी स्वयं की रुचियों पर विचार न करते हुए, वे लोगों के प्रति उदार थे, और उन्होंने उन लोगों पर अपनी दयापूर्ण तिरछी नजर डाली। ”
 
 
(8) मैं, भक्ति वृक्ष के असीम आधार भगवान्‌ नित्यानंद की आराधना करता हूँ। उन्होने अपने भाई भगवान्‌ चैतन्य का कोमल और सुन्दर कमल हस्त को स्नेहपूर्वक कसकर पकड़ लिया, और वे दोनों एक साथ, अपने मधुर सौंदर्य द्वारा नगर के लोगों को प्रसन्नता प्रदान करते हुए, इधर-उधर भ्रमण करते रहे। वे दोनों आनन्द से परिपूर्ण हो गए और उन्होंने एक दूसरे के कमल मुख को टकटकी लगाकर निहारा (देखा)।
 
 
(9) भगवान्‌ नित्यानंद की महिम का गुणगान करते हुए ये आठ श्लोक भक्ति के अमृत रसों के धाम हैं। , और उन रसों का आस्वादन करने में निपूण शुद्ध भक्तों की धन-संपत्ति हैं। समस्त पतित, बद्ध आत्माएँ केवल उनके स्मरण मात्र द्वारा ही मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं। ये श्लोक अत्यन्त उत्तम, दिवय एवं अभूतपूर्व है। भगवान्‌ नित्यानंद के दो चरण कमल, उन लोगों के हृदय में नित्य रूप या शाश्वत रूप से प्रकट हों, जो इन श्लोकों को पढ़ते हैं और भगवान्‌ का स्मरण करते हैं।
 
 
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  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
   
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