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श्री वृन्दादेवयाष्टकम्  |
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर |
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गांगेय-चांपेय-तडिद्विनिन्दि,-रोचिः-प्रवाह-स्नपितात्मवृन्दो!।
बन्धूक-बन्धु द्युति-दिवयवासो, वृन्दे! नुमस्ते चरणारविन्दम्॥1॥ |
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बिंबाधरोदित्वर-मन्दहास्य,-नासाग्र-मुक्ताद्युति-दीपितास्ये!।
विचित्र-रत्नभरणाश्रियाढये!, वृन्दे! नुमस्ते चरणारविन्दम्॥2॥ |
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समस्त-वैकुण्ठ-शिरोमणौ श्री, -कृष्णस्य वृन्दावन-धन्य-धाम्नि।
दत्ताधिकारे! वृषभानु-पुत्रा, वृन्दे! नुमस्ते चरणारविन्दम्॥3॥ |
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त्वदाज्ञया पल्लव-पुष्प-भृङ्ग,-मृगादिभिर्माधव-केलिकुञ्जाः।
मध्यादिभिर्भान्ति विभूष्यमाणा, वृन्दे! नुमस्ते चरणारविन्दम्॥4॥ |
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त्वदीय-दूत्येन निकुञ्ज-यूनो, -रत्युत्कयोःकेलि-विलास-सिद्धि।
त्वत्-सौभगं केन निरुच्यतां तद, वृन्दे! नुमस्ते चरणारविन्दम्॥5॥ |
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रासाभिलाषो वसतिश्च वृन्दा, -वने त्वदीशांघ्रि-सरोज-सेवा।
लभ्या च पुंसां कृपाया तवैव, वृन्दे! नुमस्ते चरणारविन्दम्॥6॥ |
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त्वं कीर्त्यसे सात्वत-तंत्रविद्धि,-लीलाभिधाना किल कृष्ण-शक्तिः।
तवैव मूर्तिस्तुलसी नृलोके, वृन्दे! नुमस्ते चरणारविन्दम्॥7॥ |
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भक्त्या विहीना अपराध-लक्षैः, क्षिप्ताश्च कामादि-तरंग-मध्ये।
कृपामयि! त्वां शरणं प्रपन्ना, वृन्दे! नुमस्ते चरणारविन्दम्॥8॥ |
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वृन्दाष्टकं यः श्रृणुयात् पठेद्वा, वृन्दावन धीश-पदाब्ज-भृङ्ग।
स प्राप्य वृन्दावन-नित्यवासं, तत प्रेमसेवां लभते कृतार्थ॥9॥ |
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शब्दार्थ |
(1) आपका वैभव रूपी नदियों द्वारा अभिषेक (स्नान) किया जाता है जो स्वर्ण, कड़कती बिजली, और चम्पक के पुष्प को महत्त्वहीन समझकर त्याग देता है। अपके भवय वस्त्र बन्धुक पुष्प के मित्र हैं। हे वृन्दा, मैं आपके चरण कमलों मे झुककर प्रणाम करता हूँ। |
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(2) आपकी नाक के अग्रभाग पर सुशोभित मोती और आपके बिम्ब-फल सदृश होंठों की अद्भुत धीमी मुस्कान, आपके मुख (चेहरे) की शान बढ़ा रहे हैं। आप आश्चर्यजनक रत्न-आभूषणों से सुसज्जित हैं। हे वृन्दा, मैं आपके चरण कमलों मे झुककर प्रणाम करता हूँ। |
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(3) वृषभानुजी की पुत्री श्रीमती राधारानी ने, आपको, श्रीकृष्ण के ऐश्वर्यपूर्ण और समस्त वैकुण्ठ लोकों में श्रेष्ठ, वृन्दावन के शुभ, मंगलकारी धाम, का सरंक्षक बना दिया है। हे वृन्दा, मैं आपके चरण कमलों मे झुककर प्रणाम करता हूँ। |
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(4) आपके आदेश से, वे कुंज जहाँ श्रीमाधव अपनी लीलाओं का आनन्द उठाते हैं, भौरों, खिलते हुए फूलों, हिरण, मधु (शहद) एवं अन्य वस्तुओं द्वारा भवय रूप से सुशोभित या अलकृंत हैं। हे वृन्दा, मैं आपक चरण कमलों में नतमस्तक हूँ। |
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(5) चूँकि आप उनकी दूत या संदेशवाहक बन गई, इसलिए उत्सुक और यौवनपूर्ण दिवय युग्म ने वन में, दिवय लीलाओं की पूर्णता का आनन्द उठाया। हे वृन्दा, मैं आपके चरण कमलों मे झुककर प्रणाम करता हूँ। |
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(6) आपकी कृपा से, लोग, रास नृत्य में सहयोग करने की आकांक्षा, अपने स्वामी के चरणकमलों की सेवा करने की इच्छा, और वृन्दावन में निवास स्थान प्राप्त कर लेते हैं। हे वृन्दा, मैं आपकेचरणों में प्रणाम करता हूँ। |
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(7) वैष्णवासिद्धात के विद्वान है और आपकी महिमा का गुणगान करते हैं आपको कृष्ण की लीला शक्ति के रूप में सम्बोधित करते हैं। पुरुषों के संसार में, आप तुलसी के पौधे के रूप में विराजमान हो। हे वृन्दा, मैं आपके चरण कमलों मे प्रणाम करता हूँ। |
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(8) हे दया की देवी, वे लोग जिनमें बिल्कुल भी निष्ठा नहीं है और वे लोग जिनके करोड़ों अपराधों ने उन्हें कामवासना की लहरों एवं अन्य पापपूर्ण कार्यों में धकेल दिया है, आपका आश्रय स्वीकार करते है। हे वृन्दा देवी, मैं आपके चरण कमलों मे झुककर प्रणाम करता हूँ। |
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(9) वह वयक्ति, जो वृन्दावन के राजा और रानी के चरणकमलों में एक भौंरे के समान है, और जो इस वृन्दाष्टक का पठन या श्रवण करता है, वह शाश्वत रूप से वृन्दावन में वास करेगा और दिवय युगल जोड़ी की प्रेममयी सेवा प्राप्त करेगा। |
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(10) |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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