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जीव जागो  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले।
कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥1॥ |
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भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे।
भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥2॥ |
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तोमार लइते आमि हइनु अवतार।
आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥3॥ |
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एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि।
हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥4॥ |
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भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया।
सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥5॥ |
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शब्दार्थ |
(1) श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे? |
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(2) तू इस जगत में यह कहते हुए आया था, ‘हे मेरे भगवान्, मैं आपकी आराधना व भजन अवश्य करूँगा,’ लेकिन जगत में आकर अविद्या (माया)में फँसकर तू वह प्रतिज्ञा भूल गया है। |
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(3) अतः तुझे लेने के लिए मैं स्वयं ही इस जगत में अवतरित हुआ हूँ। अब तू स्वयं विचार कर कि मेरे अतिरिक्त तेरा बन्धु (सच्चा मित्र) अन्य कौन है? |
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(4) मैं माया रूपी रोग का विनाश करने वाली औषधि “हरिनाम महामंत्र” लेकर आया हूँ। अतः तू कृपया मुझसे महामंत्र मांग ले। |
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(5) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने भी श्रीमन्महाप्रभु के चरण कमलों में गिरकर यह हरे कृष्ण महामंत्र बहुत विनम्रता पूर्वक मांग लिया है। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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