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श्री षड् गोस्वामी अष्टकम्  |
श्रील श्रीनिवास आचार्य |
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कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भोनिधी
श्रीराऽधीरजन-प्रियौ प्रियकरौ निर्मत्सरौ पूजितौ।
श्रीचैतन्यकृपाभरौ भुवि भुवो भारावहन्तारकौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥1॥ |
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नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ
लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ-शरण्याकरौ।
राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ
वन्दे-रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥2॥ |
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श्रीगौराङ्ग-गुणानुवर्णन-विधौ श्रद्धा-समृद्धयान्वितौ
पापोत्ताप-निकृन्तनौ तनुभृतां गोविन्द-गानामृतैः।
आनन्दाम्बुधि-वर्धनैक-निपुणौ कैवल्य-निस्तारकौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥3॥ |
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त्यक्त्वा तूर्णमशेष-मण्डलपति-श्रेणीं सदा तुच्छवत्
भूत्वा दीनगणेशकौ करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ।
गोपीभाव-रसामृताब्धि-लहरी-काल्लोल-मग्नौ मुहुः-
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥4॥ |
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कूजत्-कोकिल-हंस-सारस-गणाकीर्णे मयूराकुले
नानारत्न-निबद्ध-मूल-विटप-श्रीयुक्त-वृन्दावने।
राधाकृष्णमहर्निशं प्रभजतौ जीवार्थदौ यौ मुदा
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥5॥ |
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संख्यापूर्वक-नामगाननतिभिः कालावसानीकृतौ
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ।
राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥6॥ |
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राधाकुण्ड-तटेकालिन्द-तनया तीरे च वंशीवटे
प्रेमोन्माद-वशादशेष-दशया ग्रस्तौ प्रमत्तौ प्रमत्तौ सदा
गायन्तौ च कदा हरेगुर्णवरं भावाविभूतौ मुदा
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥7॥ |
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हे राधे! व्रजदेविके! च ललिते! हे नन्दसूनो! कुतः
श्रीगोवर्धन-कल्पपादप-तले कालिन्दिवन्ये कुतः
घोषन्ताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर्महाविह्वलौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥8॥ |
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शब्दार्थ |
(1) मैं, श्रीरूप, सनातन, रघुनाथभट्ट, नघुनाथदास, श्रीजीव एवं गोपालभट्ट नामक इन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीकृष्ण के नाम-रूप’गुण-लीलाओं के कीर्तन, गायन एवं नृत्यपरायण थे, प्रेमामृत के समुद्रस्वरूप थे, विद्वान एवं सर्वसाधारण जनमात्र के प्रिय थे तथा सभी के प्रियकार्यों को करने वाले थे, मात्सर्यरहित एवं सर्वलोक पूजित थे, श्रीचैतन्यदेव की अतिशय कृपा से युक्त थे, और भूतल पर भक्ति का विस्तार करके भूमि का भार उतारनेवाले थे। |
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(2) मैं श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ, जो अनेक शास्त्रों के गूढ़ तात्पर्य विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषी थे, तीनों लोकों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्तमधुप के समान थे। |
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(3) मैं, श्रीरूप-सनतादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीगौराङ्गदेव के गुणानुवाद की विधि में श्रद्धारूप-सम्पत्ति से युक्त थे, श्रीकृष्ण के गुणगानरूप-अमृत वृष्टि के द्वारा प्राणीमात्र के पाप-ताप को दूर करने वाले थे तथा आनन्दरूप-समुद्र को बढ़ाने में परमकुशल थे, भक्ति का रहस्य समझाकर जीवों को कैवल्य मुक्ति से बचाने वाले थे। |
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(4) मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो लोकोत्तर वैराग्य से समस्त मण्डलों के आधिपत्य के पद को शीघ्र ही तुच्छ कि तरह सदा के लिए छोड़ कर, कृपापूर्वक अतिशय दीन कौपीन एवं कंथा (गुदड़ी) को धारण करने वाले थे तथा गोपीभावरूप रसामृत सागर की तरंगों में आनन्दपूर्वक निमग्न रहते थे। |
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(5) मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो कलरव करने वाले कोकिल-हंस-सारस आदि पक्षियों से वयाप्त एवं मयूरों के स्वर से आकुल, तथा अनेक प्रकार के रत्नों से निबद्ध मूलवाले वृक्षों के द्वारा शोभायमान श्रीवृन्दावन में, रातदिन श्रीराधाकृष्ण का भजन करते रहेते थे तथा जीवनमात्र के लिए हर्षपूर्वक भक्तिरूप परम पुरुषार्थ देने वाले थे। |
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(6) मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो अपने समय को संख्यापूर्वक नाम-जप, नाम संकीर्तन एवं प्रणाम आदि के द्वारा वयतीत करते थे, जिन्होंने निद्रा-आहार-विहार आदि पर विजय प्राप्त कर ली थी एवं जो अपने को अत्यन्त दीन मानते थे तथा श्रीराधाकृष्ण के गुणों की स्मृति से प्राप्त माधुर्यमय आनन्द के द्वारा विमुग्ध रहते थे। |
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(7) मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो प्रेमोन्माद के वशीभूत होकर, विरह की समस्त दशाओं के द्वारा ग्रस्त होकर, प्रमादी की भांति, कभी राधाकुण्ड के तट पर, कभी यमुना के तट पर, तो कभी वंशीवट पर सदैव घूमते रहते थे, और कभी श्रीहरि के उत्तम गुणों को हर्षपूर्वक गाते हुए भाव में विभोर रहते थे। |
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(8) मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो “हे व्रजकी पूजनीय देवी, राधिके! आप कहाँ हो? हे ललिते! आप कहाँ हो? हे व्रजराजकुमार! आप कहाँ हो? श्रीगोवर्धन के कल्पवृक्षों के नीचे बैठे हो अथवा कालिन्दी के कमनीय कूल पर विराजमान वन समूह में भ्रमण कर रहे हो?” इस प्रकार पुकारते हुए विरहजनित पीड़ाओं से महान विह्वल होकर, ब्रजमण्डल में सर्वत्र भ्रमण करते थे। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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