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श्री रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  » 
 
 
 
 
अध्याय 1:  पम्पासरोवर के दर्शन से श्रीराम की व्याकुलता, दोनों भाइयों को ऋष्यमूककी ओर आते देख सुग्रीव तथा अन्य वानरोंका भयभीत होना
 
अध्याय 2:  सुग्रीव तथा वानरों की आशङ्का, हनुमान्जी द्वारा उसका निवारण तथा सुग्रीव का हनुमान जी को श्रीराम-लक्ष्मण के पास उनका भेद लेने के लिये भेजना
 
अध्याय 3:  हनुमान जी का श्रीराम और लक्ष्मण से वन में आने का कारण पूछना और अपना तथा सुग्रीव का परिचय देना
 
अध्याय 4:  लक्ष्मण का हनुमान जी से श्रीराम के वन में आने और सीताजी के हरे जाने का वृत्तान्त बताना, हनुमान् जी का उन्हें आश्वासन देकर उन दोनों भाइयों को अपने साथ ले जाना
 
अध्याय 5:  श्रीराम और सुग्रीव की मैत्री तथा श्रीराम द्वारा वालि वध की प्रतिज्ञा
 
अध्याय 6:  सुग्रीव का श्रीराम को सीताजी के आभूषण दिखाना तथा श्रीराम का शोक एवं रोषपूर्ण वचन
 
अध्याय 7:  सुग्रीव का श्रीराम को समझाना तथा श्रीराम का सुग्रीव को उनकी कार्य सिद्धि का विश्वास दिलाना
 
अध्याय 8:  सुग्रीव का श्रीराम से अपना दुःख निवेदन करना और श्रीराम का उन्हें आश्वासन देते हुए दोनों भाइयोंमें वैर होने का कारण पूछना
 
अध्याय 9:  सुग्रीव का श्रीरामचन्द्रजी को वाली के साथ अपने वैर होने का कारण बताना
 
अध्याय 10:  भाई के साथ वैर का कारण बताने के प्रसङ्ग में सुग्रीव का वाली को मनाने और वाली द्वारा अपने निष्कासित होने का वृत्तान्त सुनाना
 
अध्याय 11:  वाली का दुन्दुभि दैत्य को मारकर उसकी लाश को मतङ्ग वन में फेंकना, मतङ्गमुनि का वाली को शाप देना, सुग्रीव का राम से साल-भेदन के लिये आग्रह करना
 
अध्याय 12:  सुग्रीव का किष्किन्धा में आकर वाली को ललकारना और युद्ध में पराजित होना, वहाँ श्रीराम का पहचान के लिये गजपुष्पीलता डालकर उन्हें पुनः युद्ध के लिये भेजना
 
अध्याय 13:  श्रीराम आदि का मार्ग में वृक्षों, विविधजन्तुओं, जलाशयों तथा सप्तजन आश्रम का दूर से दर्शन करते हुए पुनः किष्किन्धापुरी में पहुँचना
 
अध्याय 14:  वाली-वध के लिये श्रीराम का आश्वासन पाकर सुग्रीव की विकट गर्जना
 
अध्याय 15:  सुग्रीव की गर्जना सुनकर वाली का युद्ध के लिये निकलना और तारा का उसे रोककर सुग्रीव और श्रीराम के साथ मैत्री कर लेने के लिये समझाना
 
अध्याय 16:  वाली का तारा को डाँटकर लौटाना और सुग्रीव से जूझना तथा श्रीराम के बाण से घायल होकर पृथ्वी पर गिरना
 
अध्याय 17:  वाली का श्रीरामचन्द्रजी को फटकारना
 
अध्याय 18:  श्रीराम का वाली की बात का उत्तर देते हुए उसे दिये गये दण्ड का औचित्य बताना,वाली का अपने अपराध के लिये क्षमा माँगते हुए अङ्गद की रक्षा के लिये प्रार्थना करना
 
अध्याय 19:  अङ्गदसहित तारा का भागे हुए वानरों से बात करके वाली के समीप आना और उसकी दुर्दशा देखकर रोना
 
अध्याय 20:  तारा का विलाप
 
अध्याय 21:  हनुमान जी का तारा को समझाना और तारा का पति के अनुगमन का ही निश्चय करना
 
अध्याय 22:  वाली का सुग्रीव और अङ्गद से अपने मन की बात कहकर प्राणों को त्याग देना
 
अध्याय 23:  तारा का विलाप
 
अध्याय 24:  सुग्रीव का शोकमग्न होकर श्रीराम से प्राणत्याग के लिये आज्ञा माँगना, तारा का श्रीराम से अपने वध के लिये प्रार्थना करना और श्रीराम का उसे समझाना
 
अध्याय 25:  श्रीराम का सुग्रीव, तारा और अङ्गद को समझाना तथा वाली के दाह-संस्कार के लिये आज्ञा प्रदान करना,अङ्गद के द्वारा उसका दाह-संस्कार कराना और उसे जलाञ्जलि देना
 
अध्याय 26:  हनुमान जी का सुग्रीव के अभिषेक के लिये श्रीरामचन्द्रजी से किष्किन्धा में पधारने की प्रार्थना, तत्पश्चात् सुग्रीव और अङ्गद का अभिषेक
 
अध्याय 27:  प्रस्रवणगिरि पर श्रीराम और लक्ष्मण की परस्पर बातचीत
 
अध्याय 28:  श्रीराम के द्वारा वर्षा-ऋतु का वर्णन
 
अध्याय 29:  हनुमान जी के समझाने से सुग्रीव का नील को वानर-सैनिकों को एकत्र करने का आदेश देना
 
अध्याय 30:  शरद्-ऋतु का वर्णन तथा श्रीराम का लक्ष्मण को सुग्रीव के पास जाने का आदेश देना
 
अध्याय 31:  सुग्रीव पर लक्ष्मण का रोष, लक्ष्मण का किष्किन्धा के द्वार पर जाकर अङ्गद को सुग्रीव के पास भेजना, प्लक्ष और प्रभाव का सुग्रीव को कर्तव्य का उपदेश देना
 
अध्याय 32:  हनुमान जी का चिन्तित हुए सुग्रीव को समझाना
 
अध्याय 33:  लक्ष्मण का सुग्रीव के महल में क्रोधपूर्वक धनुष को टंकारना, सुग्रीव का तारा को उन्हें शान्त करने के लिये भेजना तथा तारा का समझा-बुझाकर उन्हें अन्तःपुर में ले आना
 
अध्याय 34:  सुग्रीव का लक्ष्मण के पास जाना और लक्ष्मण का उन्हें फटकारना
 
अध्याय 35:  तारा का लक्ष्मण को युक्तियुक्त वचनों द्वारा शान्त करना
 
अध्याय 36:  सुग्रीव का अपनी लघुता तथा श्रीराम की महत्ता बताते हए लक्ष्मण से क्षमा माँगना और लक्ष्मण का उनकी प्रशंसा करके उन्हें अपने साथ चलने के लिये कहना
 
अध्याय 37:  सुग्रीव का हनुमान् जी को वानरसेना के संग्रह के लिये दोबारा दूत भेजने की आज्ञा देना, समस्त वानरों का किष्किन्धा के लिये प्रस्थान
 
अध्याय 38:  सुग्रीव का भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम, सुग्रीव का अपने किये हुए सैन्य संग्रह विषयक उद्योग को बताना और उसे सुनकर श्रीराम का प्रसन्न होना
 
अध्याय 39:  श्रीरामचन्द्रजी का सुग्रीव के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना तथा विभिन्न वानरयूथपतियों का अपनी सेनाओं के साथ
 
अध्याय 40:  श्रीराम की आज्ञा से सुग्रीव का सीताकी खोज के लिये पूर्व दिशा में वानरों को भेजना और वहाँ के स्थानों का वर्णन करना
 
अध्याय 41:  सुग्रीव का दक्षिण दिशा के स्थानों का परिचय देते हुए वहाँ प्रमुख वानर वीरों को भेजना
 
अध्याय 42:  सुग्रीव का पश्चिम दिशा के स्थानों का परिचय देते हुए सुषेण आदि वानरों को वहाँ भेजना
 
अध्याय 43:  सुग्रीव का उत्तर दिशा के स्थानों का परिचय देते हुए शतबलि आदि वानरों को वहाँ भेजना
 
अध्याय 44:  श्रीराम का हनुमान जी को अँगूठी देकर भेजना
 
अध्याय 45:  विभिन्न दिशाओं में जाते हुए वानरों का सुग्रीव के समक्ष अपने उत्साहसूचक वचन सुनाना
 
अध्याय 46:  सुग्रीव का श्रीरामचन्द्रजी को अपने भूमण्डल-भ्रमण का वृत्तान्त बताना
 
अध्याय 47:  पूर्व आदि तीन दिशाओं में गये हुए वानरों का निराश होकर लौट आना
 
अध्याय 48:  दक्षिण दिशा में गये हुए वानरों का सीता की खोज आरम्भ करना
 
अध्याय 49:  अङ्गद और गन्धमादन के आश्वासन देने पर वानरों का पुनःउत्साहपूर्वक अन्वेषण-कार्य में प्रवृत्त होना
 
अध्याय 50:  भूखे-प्यासे वानरों का एक गुफा में घुसकर वहाँ दिव्य वृक्ष, दिव्य सरोवर, दिव्य भवन तथा एक वृद्धा तपस्विनी को देखना और हनुमान जी का उसका परिचय पूछना
 
अध्याय 51:  हनुमान जी के पूछने पर वृद्धा तापसी का अपना तथा उस दिव्य स्थान का परिचय देकर सब वानरों को भोजन के लिये कहना
 
अध्याय 52:  तापसी स्वयंप्रभा के पूछने पर वानरों का उसे अपना वृत्तान्त बताना और उसके प्रभाव से गुफा के बाहर निकलकर समुद्रतट पर पहुँचना
 
अध्याय 53:  लौटने की अवधि बीत जाने पर भी कार्य सिद्ध न होने के कारण सुग्रीव के कठोर दण्ड से डरने वाले अङ्गद आदि वानरों का उपवास करके प्राण त्याग देने का निश्चय
 
अध्याय 54:  हनुमान जी का भेदनीति के द्वारा वानरों को अपने पक्ष में करके अङ्गद को अपने साथ चलने के लिये समझाना
 
अध्याय 55:  अङ्गदसहित वानरों का प्रायोपवेशन
 
अध्याय 56:  सम्पाति से वानरों को भय, उनके मुख से जटायु के वध की बात सुनकर सम्पाति का दुःखी होना और अपने को नीचे उतारने के लिये वानरों से अनुरोध करना
 
अध्याय 57:  अङ्गद का सम्पाति को जटायु के मारे जाने का वृत्तान्त बताना तथा राम-सुग्रीव की मित्रता एवं वालिवध का प्रसंग सुनाकर अपने आमरण उपवास का कारण निवेदन करना
 
अध्याय 58:  सम्पाति का अपने पंख जलने की कथा सुनाना, सीता और रावण का पता बताना तथा वानरों की सहायता से समुद्र-तटपर जाकर भाई को जलाञ्जलि देना
 
अध्याय 59:  सम्पाति का अपने पुत्र सुपार्श्व के मुख से सुनी हुई सीता और रावण को देखने की घटना का वृत्तान्त बताना
 
अध्याय 60:  सम्पाति की आत्मकथा
 
अध्याय 61:  सम्पाति का निशाकर मुनि को अपने पंख के जलने का कारण बताना
 
अध्याय 62:  निशाकर मुनि का सम्पाति को सान्त्वना देते हुए उन्हें भावी श्रीरामचन्द्रजी के कार्य में सहायता देने के लिये जीवित रहने का आदेश देना
 
अध्याय 63:  सम्पाति का पंखयुक्त होकर वानरों को उत्साहित करके उड़ जाना और वानरों का वहाँ से दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान करना
 
अध्याय 64:  समुद्र की विशालता देखकर विषाद में पड़े हुए वानरों को आश्वासन दे अङ्गद का उनसे पृथक्-पृथक् समुद्र-लङ्घन के लिये उनकी शक्ति पूछना
 
अध्याय 65:  जाम्बवान् और अङ्गद की बातचीत तथा जाम्बवान् का हनुमान्जी को प्रेरित करने के लिये उनके पास जाना
 
अध्याय 66:  जाम्बवान् का हनुमानजी को उनकी उत्पत्ति कथा सुनाकर समुद्रलङ्घन के लिये उत्साहित करना
 
अध्याय 67:  हनुमान जी का समुद्र लाँघने के लिये उत्साह प्रकट करना, जाम्बवान् के द्वारा उनकी प्रशंसा तथा वेगपूर्वक छलाँग मारने के लिये हनुमान जी का महेन्द्र पर्वत पर चढ़ना
 
 
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